गाजर घास के लाभकारी नवाचारी उपयोग – डॉ. खुशाल सिंह पुरोहित

पिछले दिनों इंदौर के प्राध्यापक डॉ. मुकेश कुमार पाटीदार ने गाजर घास से बायोप्लास्टिक बनाने में सफलता प्राप्त की है। 

इंदौर के महाराजा रणजीत सिंह कॉलेज ऑफ प्रोफेशनल साइंसेज़ के बायोसाइंस विभाग के प्राध्यापक डॉ. मुकेश कुमार पाटीदार ने जुलाई 2020 में गाजर घास से बायोप्लास्टिक बनाने की कार्ययोजना पर काम शुरू किया था। इस कार्य में उन्हें भारतीय प्रोद्योगिकी संस्थान इंदौर की प्राध्यापक अपूर्वा दास और शोधार्थी शाश्वत निगम का भी सहयोग मिला। गाजर घास के रेशों से बायोप्लास्टिक बनाया गया, जो सामान्य प्लास्टिक जैसा ही मज़बूत हैं। डॉ. पाटीदार के अनुसार पर्यावरण पर इसका कोई दुष्प्रभाव नहीं होगा और 45 दिनों में यह 80 प्रतिशत तक नष्ट भी हो जाएगा। बाज़ार में वर्तमान में उपलब्ध बायोप्लास्टिक से इसका मूल्य भी कम होगा।  

बरसात का मौसम शुरू होते ही गाजर जैसी पत्तियों वाली एक वनस्पति काफी तेज़ी से फैलने लगती है। सम्पूर्ण संसार में पांव पसारने वाला कम्पोज़िटी कुल का यह सदस्य वनस्पति विज्ञान में पार्थेनियम हिस्ट्रोफोरस के नाम से जाना जाता है और वास्तव में घास नहीं है। इसकी बीस प्रजातियां पूरे विश्व में पाई जाती हैं। यह वर्तमान में विश्व के सात सर्वाधिक हानिकारक पौधों में से एक है, जो मानव, कृषि एवं पालतू जानवरों के स्वास्थ्य के साथ-साथ सम्पूर्ण पर्यावरण के लिये अत्यधिक हानिकारक है।

कहा जाता है कि अर्जेन्टीना, ब्राज़ील, मेक्सिको एवं अमरीका में बहुतायत से पाए जाने वाले इस पौधे का भारत में 1950 के पूर्व कोई अस्तित्व नहीं था। ऐसा माना जाता है कि इस ‘घास’ के बीज 1950 में पी.एल.480 योजना के तहत अमरीकी संकर गेहूं के साथ भारत आए। आज यह ‘घास’ देश में लगभग सभी क्षेत्रों में फैलती जा रही है। उत्तर प्रदेश, बिहार, पंजाब, हरियाणा, म.प्र. एवं महाराष्ट्र जैसे महत्वपूर्ण कृषि उत्पादक राज्यों के विशाल क्षेत्र में यह ‘घास’ फैल चुकी है।

तीन से चार फुट तक लंबी इस गाजर घास का तना धारदार तथा पत्तियां बड़ी और कटावदार होती है। इस पर फूल जल्दी आ जाते हैं तथा 6 से 8 महीने तक रहते हैं। इसके छोटे-छोटे सफेद फूल होते हैं, जिनके अंदर काले रंग के वज़न में हल्के बीज होते हैं। इसकी पत्तियों के काले छोटे-छोटे रोमों में पाया जाने वाला रासायनिक पदार्थ पार्थेनिन मनुष्यों में एलर्जी का मुख्य कारण है। दमा, खांसी, बुखार व त्वचा के रोगों का कारण भी मुख्य रूप से यही पदार्थ है। गाजर घास के परागकण का सांस की बीमारी से भी सम्बंध हैं।

पशुओं के लिए भी यह घास अत्यन्त हानिकारक है। इसकी हरियाली के प्रति लालायित होकर खाने के लिए पशु इसके करीब तो आते हैं, लेकिन इसकी तीव्र गंध से निराश होकर लौट जाते हैं।

गाजर घास के पौधों में प्रजनन क्षमता अत्यधिक होती है। जब यह एक स्थान पर जम जाती है, तो अपने आस-पास किसी अन्य पौधे को विकसित नहीं होने देती है। वनस्पति जगत में यह ‘घास’ एक शोषक के रूप में उभर रही है। गाजर घास के परागकण वायु को दूषित करते हैं तथा जड़ो से स्रावित रासायनिक पदार्थ इक्यूडेर मिट्टी को दूषित करता है। भूमि-प्रदूषण फैलाने वाला यह पौधा स्वयं तो मिट्टी को बांधता नहीं है, दूसरा इसकी उपस्थिति में अन्य प्रजाति के पौधे भी शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं।

गाजर घास का उपयोग अनेक प्रकार के कीटनाशक, जीवाणुनाशक और खरपतवार नाशक दवाइयों के निर्माण में किया जाता है। इसकी लुगदी से विभिन्न प्रकार के कागज़ तैयार किए जाते हैं। बायोगैस उत्पादन में भी इसको गोबर के साथ मिलाया जाता है। पलवार के रूप में इसका ज़मीन पर आवरण बनाकर प्रयोग करने से दूसरे खरपतवार की वृद्धि में कमी आती है, साथ ही मिट्टी में अपरदन एवं पोषक तत्व खत्म होने को भी नियंत्रित किया जा सकता है।

इलाहाबाद विश्वविद्यालय के जैव-रसायन  विभाग के डॉ. के. पांडे ने इस पर अध्ययन के बाद बताया कि गाजर घास में औषधीय गुण भी हैं। इससे बनी दवाइयां बैक्टीरिया और वायरस से होने वाले विभिन्न रोगों के इलाज में कारगर हो सकती हैं।

पिछले वर्षों में गाजर घास का एक अन्य उपयोग वैज्ञानिकों ने खोजा है जिससे अब गाजर घास का उपयोग खेती के लिए विशिष्ट कम्पोस्ट खाद निर्माण में किया जा रहा है। इससे एक ओर, गाजर घास का उपयोग हो सकेगा वहीं दूसरी ओर किसानों को प्राकृतिक

पोषक तत्व (प्रतिशत में)गाजर घास खादकेंचुआ खादगोबर खाद
नाइट्रोजन1.051.610.45
फॉस्फोरस10.840.680.30
पोटेशियम1.111.310.54
कैल्शियम0.900.650.59
मैग्नीशियम0.550.430.28

और सस्ती खाद उपलब्ध हो सकेगी। उदयपुर के सहायक प्राध्यापक डॉ. सतीश कुमार आमेटा ने गाजर घास से विशिष्ट कम्पोस्ट खाद का निर्माण किया है। इस तकनीक से बनी खाद में नाइट्रोजन, फॉस्फोरस, पोटेशियम की मात्रा साधारण खाद से तीन गुना अधिक होती है, जो कृषि के लिए एक वरदान है। मेवाड़ युनिवर्सिटी गंगरार चित्तौड़गढ़ में कार्यरत डॉ. आमेटा के अनुसार इस नवाचार से गाजर घास के उन्मूलन में सहायता मिलेगी और किसानों को जैविक खाद की प्राप्ति सुगम हो सकेगी।

जैविक खाद बनाने की इस तकनीक में व्यर्थ कार्बनिक पदार्थों, जैसे गोबर, सूखी पत्तियां, फसलों के अवशेष, राख, लकड़ी का बुरादा आदि का एक भाग एवं चार भाग गाजर घास को मिलाकर बड़ी टंकी या टांके में भरा जाता है। इसके चारों ओर छेद किए जाते हैं, ताकि हवा का प्रवाह समुचित बना रहे और गाजर घास का खाद के रूप में अपघटन शीघ्रता से हो सके। इसमें रॉक फॉस्फेट एवं ट्राइकोडर्मा कवक का उपयोग करके खाद में पोषक तत्वों की मात्रा को बढ़ाया जा सकता है। निरंतर पानी का छिडकाव कर एवं मिश्रण को निश्चित अंतराल में पलट कर हवा उपलब्ध कराने पर मात्र 2 महीने में जैविक खाद का निर्माण किया जा सकता है।

गाजर घास से बनी कम्पोस्ट में मुख्य पोषक तत्वों की मात्रा गोबर खाद से दुगनी होती है। गाजर घास की खाद, केंचुआ खाद और गोबर खाद की तुलना तालिका में देखें। स्पष्ट है कि तत्वों की मात्रा गाजर घास से बने खाद में अधिक होती है। गाजर घास कम्पोस्ट एक ऐसी जैविक खाद है, जिसके उपयोग से फसलों, मनुष्यों व पशुओं पर कोई भी विपरीत प्रभाव नहीं पड़ता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://upload.wikimedia.org/wikipedia/commons/thumb/4/43/Starr_050423-6650_Parthenium_hysterophorus.jpg/800px-Starr_050423-6650_Parthenium_hysterophorus.jpg

जीवन में रंग, प्रकृति के संग – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन, सुशील चंदानी

प्राचीन यूनानी लोग पौधों के रंजक इंडिगो (नील) को इंडिकॉन नाम से बुलाते थे, जिसका मतलब होता है भारतीय। रोमन इसे ही इंडिकम कहते थे, जो बदलते-बदलते अंग्रेजी में इंडिगो हो गया। इस रंजक का अत्यधिक महत्व था –  शाही परिवार से लेकर सेना के कपड़ों को रंगने (जैसे नेवी ब्लू) तक में इसका उपयोग होता था। यह रंजक पौधों के ऊष्णकटिबंधीय जीनस इंडिगोफेरा से मिलता था, इस वंश के कुछ पौधे मूलत: भारतीय उपमहाद्वीप में पाए जाते थे।

इन पौधों की पत्तियों में 0.5 प्रतिशत तक इंडिकैन होता है जो ऑक्सीजन के संपर्क में आने पर नीला पदार्थ इंडिगोटिन बनाता है। इसकी बट्टियां (केक) भारत से व्यापार की प्रमुख वस्तु थी। मध्य पूर्व के समुद्र को पार करके अरब व्यापारी नील को रेगिस्तान के पार भूमध्यसागरीय क्षेत्र और युरोप में लेकर गए। यहां यह एक बेशकीमती वस्तु थी। इसका उपयोग रेशम की रंगाई में, चित्रों और भित्ति चित्रों में और सौंदर्य प्रसाधनों में किया जाता था।

युरोप से भारत के बीच समुद्री मार्ग बनने के बाद नील निर्यात में तेज़ी से वृद्धि हुई, क्योंकि यह आम लोगों के कपड़े (सूती कपड़े) को रंगने वाले चंद विश्वसनीय रंगों में से एक रंग था।

सुरंजी नाम का रंजक भारतीय शहतूत (मोरिंडा टिन्क्टोरिया, हिंदी में आल; तमिल में मंजनट्टी या मंजनुन्नई) से प्राप्त होता है। सुरंजी से सूती कपड़ों को चटख पीला-लाल रंग, या चॉकलेटी रंग, या यहां तक कि काला रंग दिया जाता है, यह इस पर निर्भर करता है कि ‘फिक्सिंग’ किस तरीके से किया जा रहा है।

मंजिष्ठा (रूबिया कॉर्डिफोलिया, हिंदी में मंजीठा; तमिल में मंडिट्टा) की जड़ें परप्यूरिन नामक एक लाल रंजक देती हैं। यह वर्ष 1869 में प्रयोगशाला में संश्लेषित पहला रंजक था – एलिज़रीन।

कुसुम (कार्थमस टिन्क्टोरियस, तमिल में कुसुम्बा) के बीजों का उपयोग तेल निकालने में किया जाता है और इसी वजह से वर्तमान में भारत इसका प्रमुख उत्पादक है। लेकिन अतीत में यह कार्थामाइन और कार्थामाइडिन का स्रोत हुआ करता था, जो सूती कपड़े को लाल रंग और रेशम को एक विशिष्ट नारंगी-लाल रंग प्रदान करते हैं।

रंगाई के लिए कृत्रिम एनिलीन रंजकों के उपयोग में आने के पहले इस पौधे के 160 टन से भी अधिक सूखे फूल प्रति वर्ष भारत से निर्यात किए जाते थे।

जींस का रंग

बीसवीं शताब्दी की शुरुआत में, रसायन विज्ञान में त्वरित प्रगति ने नील के संश्लेषण के सस्ते तरीकों को जन्म दिया। अधिकांश उपयोगों में वनस्पति रंजक के स्थान पर कृत्रिम रंजक का इस्तेमाल किया जाने लगा। एक साधारण नीले जींस में 3-5 ग्राम कृत्रिम नील होती है। हर साल 40,000 टन से अधिक नील का उत्पादन होता है।

कृत्रिम रंजकों के उपयोग से पर्यावरण पर काफी प्रभाव पड़ता है, और वस्त्रों की रंगाई जल प्रदूषण का एक प्रमुख कारण है। अधिकांश कृत्रिम रंग पेट्रो-रसायनों से बने होते हैं।

नील अपने आप में विषैला नहीं है, लेकिन यह पानी में अघुलनशील है और इसे घोलने और कपड़ों पर चढ़ाने के लिए अत्यधिक क्षारीय सोडियम या पोटेशियम हायड्रॉक्साइड घोल की ज़रूरत पड़ती है।

एक जीन पतलून को सिर्फ रंगने भर के लिए 100 लीटर से अधिक पानी लगता है, और लगभग 15 प्रतिशत रंजक और उसके साथ क्षार प्रदूषक के रूप में जल स्रोतों में चला जाता है। जागो, जींस पहनने वालों!

अलबत्ता, प्राकृतिक वनस्पति रंगों का उपयोग पूरी तरह खत्म नहीं हुआ है। नील की खेती जारी है। प्राकृतिक रंगों का पर्यावरण पर प्रभाव कृत्रिम रंजकों की तुलना में बहुत कम है। सामान्य रूप से उपलब्ध अन्य जड़ी-बूटियों, झाड़ियों और पेड़ों से मिलने वाले प्राकृतिक रंगों के उपयोग के लिए बेहतर-से-बेहतर तकनीकों और तरीकों की खोज जारी है।

इस संदर्भ में डॉ. पद्मा श्री वंकर (पूर्व में आईआईटी कानपुर में कार्यरत), उनके साथियों और अन्य भारतीय समूहों का काम उल्लेखनीय है। उन्होंने मिलकर कई पौधों से रंग प्राप्त करने और उनसे रंगाई के तरीकों का पता लगाया है और कभी-कभी सफलतापूर्वक पुन: निर्मित भी किया है।

ये पौधे हैं: (1) नेपाल बारबेरी (महोनिया नैपालेंसिस, हिंदी में दारुहल्दी; तमिल में मुल्लुमंजनती): अरुणाचल प्रदेश की अपतानी जनजाति ने लंबे समय तक इस पौधे का उपयोग अपनी बुनी हुई चीज़ों को रंगने के लिए किया है। (2) वाइल्ड कैना (कैना इंडिका, हिंदी में सर्वजया; तमिल में कलवाझाई): इस सजावटी पौधे के फूल सुर्ख लाल होते हैं, इससे अल्कोहल-घुलनशील डाई बनती है जो सूती कपड़े पर आसानी से और तेज़ी से चढ़ती है। (3) पलाश (ब्यूटिया मोनोस्पर्मा): पलाश मूलत: हमारे उपमहाद्वीप का पौधा है। इसमें आकर्षक फूल लगते हैं, जिनसे पारंपरिक तौर पर होली के लिए रंग बनाया जाता है। धूप में सुखाई गई पंखुड़ियां रंगों से भरपूर होती हैं, जिन्हें पानी में डालकर रंग प्राप्त किया जा सकता है।

पर्यावरण लागत

इन प्रयासों के साथ-साथ बायोटेक्नोलॉजिस्ट रासायनिक तरीकों की पर्यावरणीय कीमत को बायपास करना चाहते हैं। एक बैक्टीरिया को जेनेटिक रूप से परिवर्तित करके इंडिकैन (नील का पूर्ववर्ती) बनाने के लिए तैयार करके इस अवधारणा को परखा गया है।

वर्ष 2018 में नेचर केमिकल बायोलॉजी में टेमी एम ह्सू और उनके साथियों द्वारा प्रकाशित पेपर बताता है कि गीले डेनिम की सतह पर इंडिकैन को एंज़ाइम रंजक में बदल देते हैं जिसके चलते कई ज़हरीले अपशिष्ट समाप्त हो जाते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://cdn.pixabay.com/photo/2016/01/27/07/40/purple-1163796__480.jpg

कुकुरमुत्तों का संवाद

हां-वहां उग रहे कुकुरमुत्तों (मशरूम) को देखकर ऐसा लगता है कि वे भी कहीं आपस में बात करते होंगे। लेकिन एक नए अध्ययन से पता चलता है कि वे ‘बातूनी’ हो सकते हैं।

मशरूम दरअसल एक प्रकार की फफूंद हैं। इनके द्वारा एक-दूसरे को भेजे जाने वाले विद्युत संकेतों के गणितीय विश्लेषण में ऐसे पैटर्न पहचाने गए हैं जो मानव भाषा से आश्चर्यजनक संरचनात्मक समानता दर्शाते हैं।

पूर्व अध्ययनों में देखा गया था कि फफूंद अपनी लंबी, भूमिगत तंतुनुमा रचनाओं (कवकतंतु या हाइफे) के माध्यम से विद्युत संकेतों का संचालन करते हैं – ठीक वैसे ही जैसे मनुष्यों में तंत्रिका कोशिकाएं सूचना प्रसारित करती हैं।

यहां तक देखा गया है कि जब लकड़ी पचाने वाली फफूंद के कवकतंतु किसी लकड़ी के टुकड़े के संपर्क में आते हैं तो इन संकेतों के प्रेषण की दर बढ़ जाती है। इससे लगता है कि फफूंद इस विद्युत ‘भाषा’ का उपयोग भोजन उपलब्ध होने या क्षति पहुंचने की जानकारी अपने अन्य हिस्सों के साथ या कवकतंतुओं के माध्यम से जुड़ी वनस्पतियों के साथ साझा करने के लिए करती हैं।

लेकिन क्या ये विद्युत गतिविधियां मानव भाषा से कुछ समानता रखती हैं? यह जानने के लिए युनिवर्सिटी ऑफ दी वेस्ट ऑफ इंग्लैंड के प्रोफेसर एंड्रयू एडमात्ज़की ने फफूंद की चार प्रजातियों – एनोकी, स्प्लिट गिल, घोस्ट और कैटरपिलर फफूंद द्वारा बहुत कम समय के लिए उत्पन्न विद्युत आवेगों के पैटर्न का विश्लेषण किया।

रॉयल सोसाइटी ओपन साइंस में प्रकाशित नतीजों के अनुसार ये विद्युत आवेग अक्सर समूहों में होते हैं, और ऐसा लगता है कि 50 ‘शब्दों’ का ककहरा हो। और इन कवक ‘शब्दों’ की लंबाई मानव भाषा से काफी मेल खाती है। सड़ती-गलती लकड़ी पर पनपने वाली फफूंद स्प्लिट गिल उपरोक्त चार में से सबसे जटिल ‘वाक्य’ बनाती हैं।

इन विद्युत गतिविधियों का सबसे संभावित कारण फफूंद द्वारा अपने समूह को जोड़े रखना लगता है – जैसे भेड़िए करते हैं। या यह भी हो सकता है कि इनकी भूमिका कवकजाल के अन्य हिस्सों को भोजन या खतरों के बारे में आगाह करने की है। एक संभावना यह भी हो सकती है कि फफूंद कुछ भी न कहते हों बल्कि यह हो सकता है कि कवकजाल के सिरे विद्युत आवेशित होते हैं, इसलिए जब आवेशित सिरे इलेक्ट्रोड्स से संपर्क में आते होंगे तो विभवांतर में तीक्ष्ण वृद्धि हो जाती होगी।

बहरहाल इन विद्युत संकेतो का कुछ भी मतलब हो लेकिन ये बेतरतीब या रैंडम नहीं लगते। फिर भी, इन संकेतों को भाषा के रूप में स्वीकार करने के लिए और अधिक प्रमाणों की ज़रूरत है। (स्रोत फीचर्स) 

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://i.guim.co.uk/img/media/49d39f74035f02a33b2453ea33bea48f57b9bc9b/0_62_4288_2573/master/4288.jpg?width=620&quality=45&auto=format&fit=max&dpr=2&s=85d3be78c12881326fe356b6be79ba6e

चलता-फिरता आम का पेड़ – डॉ. ओ. पी. जोशी

गुजरात के वलसाड़ ज़िले में वरली नदी के किनारे संजान नामक एक छोटे-से गांव में आम का एक पेड़ है जो चलता है। लगभग 1200 वर्ष पुराना यह पेड़ समय-समय पर अपना स्थान बदलता रहता है। इसीलिए इसे चलता या टहलता आम (वाकिंग मेंगो) कहते हैं। गुजराती लोग इसे चलतो-आम्बो कहते हैं। इसे गुजरात का सबसे प्राचीन पेड़ बताया गया है।

वर्ष 1980 के आसपास पुणे के डेकन कॉलेज के डॉ. अशोक मराठे ने इस पेड़ के सम्बंध में बताया था। कुछ ऐतिहासिक दस्तावेज़ों के अनुसार लगभग 1200-1300 वर्ष पूर्व इसे पारसी लोगों ने लगाया था। ईरान से निकलकर आए पारसी इसी गांव में पहुंचे थे। अपने आने की निशानी के रूप में उन्होंने इसे यहां लगाया था।

वर्ष 1916 के आसपास पारसी संस्कृति पर रुस्तम बरजोरजी पेमास्टर द्वारा लिखित पुस्तक में बताया गया है कि यह पेड़ उस समय 35 फीट ऊंचा था एवं दस शाखाएं चारों ओर फैली थी। वर्तमान में यह किसान अहमद भाई के खेत में 25 फीट के दायरे में फैला है। इसके चलने या फैलने की क्रिया वटवृक्ष से भिन्न है। पहले यह पेड़ चारों ओर काफी फैल जाता है एवं शाखाएं झुककर धनुषाकार हो जाती है। एक या दो शाखाएं ज़मीन को स्पर्श कर लेती हैं। स्पर्श के स्थान पर जड़ें बनने लगती है एवं जमीन में प्रवेश कर जाती हैं। इस प्रकार यह शाखा एक तने का रूप लेकर नया पेड़ खड़ा कर देती है। नया पेड़ बनते ही इसको बनाने वाली शाखा धीरे-धीरे सूखकर समाप्त हो जाती है।

पेड़ की यह हरकत पिछले कई वर्षों से जारी है। गांव के कई बुज़ुर्ग लोग पेड़ की इस गति के प्रत्यक्षदर्शी हैं एवं कुछ ने अपने जीवनकाल में इसे दो बार जगह बदलते देखा है। एक पेड़ से दूसरा नया पेड़ बनने में लगभग 20-25 वर्ष का समय लगता है। यह पेड़ अभी तक करीब 4 किलोमीटर की दूरी तय कर चुका है। इस पेड़ का वैसे कोई धार्मिक महत्व नहीं है परन्तु पारसी लोग इसके फल को काफी पवित्र मानते हैं। फल छोटे आकार के होते हैं एवं पकने पर सिंदूरी लाल हो जाते हैं एवं दो दिन में ही सड़ने लगते हैं। क्रिसमस के दिनों में पारसी लोग इसके पास बैठना पसंद करते हैं। राज्य के वन विभाग ने इस पेड़ की कलम लगाने के कई प्रयास किए परन्तु सफलता नहीं मिल पाई। राज्य के 50 धरोहर वृक्षों में इसे शामिल किया गया है। संभवतः देश में अपने आकार का यह एक मात्र चलता पेड़ है जिसे लोग जादुई-पेड़ भी कहते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.indiran.org/wp-content/uploads/2016/08/f830864f659037eb9019d61499477d98.png

सूरजमुखी के पराबैंगनी रंगों की दोहरी भूमिका

र्मियों के अंत में खेतों में सूरजमुखी खिले दिखते हैं। लंबे तने के शीर्ष पर लगे सूरजमुखी के फूल लगभग एक जैसे ही दिखाई देते हैं – चटख पीले रंग की पंखुड़ियां और बीच में कत्थई रंग का गोला। लेकिन पराबैंगनी प्रकाश को देखने में सक्षम मधुमक्खियों व अन्य  परागणकर्ताओं को सूरजमुखी का फूल बीच में गहरे रंग का और किनारों पर हल्के रंग का दिखता है जैसे चांदमारी का निशाना (बुल्स आई) हो।

हाल ही में ईलाइफ में प्रकाशित एक अध्ययन के मुताबिक इस बुल्स आई में पाए जाने वाले यौगिक न सिर्फ परागणकर्ताओं को आकर्षित करते हैं, बल्कि पानी के ह्रास को भी नियंत्रित करते हैं और सूरजमुखी को अपने वातावरण में अनुकूलित होने में मदद करते हैं। शोधकर्ताओं को बुल्स आई के आकार के लिए ज़िम्मेदार एक एकल परिवर्तित जीन क्षेत्र भी मिला है।

ये निष्कर्ष शोधकर्ताओं को यह समझने में मदद कर सकते हैं कि सूरजमुखी और कुछ अन्य फूल बढ़ते तापमान और जलवायु परिवर्तन के कारण अक्सर पड़ने वाले सूखे से कैसे निपटते हैं।

सूरजमुखी (हेलिएंथस प्रजातियां) कठिन आवास स्थानों के प्रति अनुकूलित होने में माहिर हैं। इस वंश के पौधे अत्यधिक दुर्गम परिस्थितियों, जैसे गर्म, शुष्क रेगिस्तान और खारे दलदल में रह सकते हैं। युनिवर्सिटी ऑफ ब्रिटिश कोलंबिया के पादप आनुवंशिकीविद मार्को टोडेस्को जैव विकास और जेनेटिक्स की दृष्टि से समझना चाहते थे कि ये ऐसा कैसे करते हैं।

शोधकर्ताओं ने उत्तरी अमेरिका के दूरस्थ स्थानों से लाकर युनिवर्सिटी में उगाए गए 1900 से अधिक सूरजमुखी पौधों का अध्ययन किया। अध्ययन का उद्देश्य फूलों के रंग जैसे विभिन्न लक्षणों को देखना था ताकि उनका आनुवंशिक आधार खोजा जा सके।

शोधकर्ताओं द्वारा सूरजमुखी की पराबैंगनी तस्वीरें लेने पर पता चला कि हरेक सूरजमुखी के फूल के लिए बुल्स आई का आकार बहुत अलग था – फूल के बीच में छोटे से घेरे से लेकर पूरी पंखुड़ियों पर बड़े घेरे तक बने थे। ये भिन्नता न केवल अलग-अलग प्रजातियों में थी बल्कि एक ही प्रजाति के फूलों के बीच भी थी, जिससे लगता है कि इसका कोई वैकासिक महत्व होगा।

अन्य प्रजातियों के फूल परागणकर्ताओं को आकर्षित करने के लिए इसी तरह के पैटर्न का उपयोग करते हैं, इसलिए शोधकर्ता देखना चाहते थे कि क्या सूरजमुखी के मामले में भी ऐसा ही है। जैसी कि उम्मीद थी, परागणकर्ता छोटे या बड़े बुल्स आई वाले फूलों की तुलना में मध्यम आकार की बुल्स आई वाले फूलों पर 20-30 प्रतिशत बार अधिक आए। सवाल उठा कि यदि मध्यम आकार परागणकर्ताओं के लिए सबसे आकर्षक है तो फिर इन फूलों में बुल्स आई के इतने भिन्न आकार क्यों दिखते हैं? शोधकर्ताओं का अनुमान था कि बुल्स आई का कोई अन्य कार्य भी होगा जिसके चलते आकार में इतनी विविधता है।

इस संभावना की जांच के लिए शोधकर्ताओं ने उत्तरी अमेरिका वाले सूरजमुखी (हेलिएन्थस एन्नस) के विभिन्न आकार की बुल्स आई का भौगोलिक क्षेत्र के हिसाब से मानचित्र बनाया। जैसी कि उम्मीद थी उन्हें विविधता में एक स्पष्ट भौगोलिक पैटर्न दिखाई दिया।

पहले तो शोधकर्ताओं को लगा था कि बुल्स आई, जिसमें पराबैंगनी सोखने वाले रंजक होते हैं, सूरजमुखी को अतिरिक्त सौर विकिरण से बचाती होगी। लेकिन सूरजमुखी के मूल भौगोलिक क्षेत्र में पराबैंगनी किरणों की तीव्रता और बुल्स आई के औसत आकार के बीच कोई सम्बंध नहीं दिखा।

फिर शोधकर्ताओं को लगा कि शायद तापमान का इससे सम्बंध होगा। पूर्व अध्ययनों ने बताया गया था कि सूरजमुखी के फूल ऊष्मा को अवशोषित करने के लिए सूरज की तरफ रुख करते हैं, जो उन्हें तेज़ी से बढ़ने और परागणकर्ताओं को आकर्षित करने में मदद करता है। इसलिए शोधकर्ताओं का विचार था कि बड़ी बुल्स आई फूलों को ऊष्मा देने में मदद करती होगी ताकि परागणकर्ता भी आकर्षित हों और वृद्धि भी तेज़ी से हो। लेकिन जब शोधकर्ताओं ने विभिन्न आकार के बुल्स आई वाले फूलों से आने वाली गर्मी की मात्रा की तुलना की तो उन्हें इसमें दिन में किसी भी समय कोई अंतर नहीं दिखा।

अंत में, उन्होंने देखा कि बड़े बुल्स आई वाले सूरजमुखी शुष्क इलाकों से लाए गए थे, जबकि छोटी बुल्स आई वाले सूरजमुखी नम इलाकों से लाए गए थे। इस आधार पर शोधकर्ताओं का विचार था कि बुल्सआई के आकार का सम्बंध नमी रोधन से होगा। इस परिकल्पना की जांच के लिए शोधकर्ताओं ने फूलों से पंखुड़ियों को अलग किया और अलग-अलग आकार की बुल्स आई वाले फूलों को सूखने में लगने वाला समय का मापन किया।

उन्होंने पाया कि बहुत शुष्क स्थानों से लाए गए फूलों की बहुत बड़ी बुल्स आई थी, और बड़ी बुल्स आई वाले पौधों ने बहुत धीमी दर से पानी खोया। और यदि स्थानीय जलवायु नम और गर्म दोनों है तो छोटे पैटर्न अधिक वाष्पोत्सर्जन होने देते हैं जो फूलों को बहुत गर्म होने से बचाता है। यानी ये पैटर्न दोहरी भूमिका निभाते हैं – परागणकर्ताओं को आकर्षित करना और सही मात्रा में नमी बनाए रखना।

इसके बाद शोधकर्ताओं ने देखा कि इस विविधता के लिए कौन-से जीन ज़िम्मेदार हैं। सूरजमुखी की दो प्रजातियों एच. एन्नस और एच. पेटियोलारिस के जीनोम का अध्ययन किया गया। अकेले एच. एन्नस में एक जीन में बहुरूपता मिली जो फूलों के पैटर्न में 62 प्रतिशत विविधता के लिए ज़िम्मेदार थी। एच. पेटियोलारिस में स्पष्ट परिणाम नहीं दिखे।

अन्य शोधकर्ताओं का कहना है कि ये निष्कर्ष अन्य फूलों पर भी लागू हो सकते हैं। और इस तरह के अध्ययन यह समझने में मदद कर सकते हैं कि पौधे जलवायु परिवर्तन के प्रति किस तरह की प्रतिक्रिया दे सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://cdn.the-scientist.com/assets/articleNo/69689/aImg/45059/sunflower-nullseye-banner-2-800-l.jpg

जलकुंभी: कचरे से कंचन तक की यात्रा – डॉ. खुशालसिंह पुरोहित

लकुंभी गर्म देशों में पाई जाने वाली एक जलीय खरपतवार है। ब्राज़ील मूल का यह पौधा युरोप को छोड़कर सारी दुनिया में पाया जाता है। इसका वैज्ञानिक नाम आइकॉर्निया क्रेसिपस है। खूबसूरत फूलों और पत्तियों के कारण जलकुंभी को सन 1890 में एक ब्रिटिश महिला ने ब्राज़ील से लाकर कलकत्ता के वनस्पति उद्यान में लगाया था। इसका उल्लेख उद्यान की डायरी में है।  भारत की जलवायु इस पौधे के विकास में सहायक सिद्ध हुई।

जलकुंभी पानी में तैरने वाला एवं तेज़ी से बढ़ने वाला पौधा है। यह पौधा भारत में लगभग 4 लाख हैक्टर जल स्रोतों में फैला हुआ है और जलीय खरपतवारों की सूची में इसका स्थान सबसे ऊपर है। इसके उपयोग से जैविक खाद बनाई जा सकती है। जलकुंभी में नाइट्रोजन 2.5 फीसदी, फास्फोरस 0.5 फीसदी, पोटेशियम 5.5 फीसदी और कैल्शियम ऑक्साइड 3 फीसदी होते हैं। इसमें लगभग 42 फीसदी कार्बन होता है, जिसकी वजह से जलकुंभी का इस्तेमाल करने पर मिट्टी के भौतिक गुणों पर अच्छा असर पड़ता है। नाइट्रोजन और पोटेशियम की अच्छी उपस्थिति के कारण जलकुंभी का महत्व और भी ज़्यादा हो जाता है।

भारत में जलकुंभी के कारण जल स्रोतों को होने वाले संकट के कारण इसे ‘बंगाल का आतंक’ भी कहा जाता है। यह एकबीजपत्री, जलीय पौधा है, जो ठहरे हुए पानी में काफी तेज़ी से फैलता है और पानी से ऑक्सीजन को खींच लेता है। इससे जलीय जीवों के लिए संकट पैदा हो जाता है। जल की सतह पर तैरने वाले इस पौधे की पत्तियों के डंठल फूले हुए एवं स्पंजी होते हैं। इसकी गठानों से झुंड में रेशेदार जड़ें निकलती हैं। इसका तना खोखला और छिद्रमय होता है। यह दुनिया के सबसे तेज़ बढ़ने वाले पौधों में से एक है – यह अपनी संख्या को दो सप्ताह में ही दुगना करने की क्षमता रखता है।

जलकुंभी बड़े बांधों में बिजली उत्पादन को प्रभावित करती है। जलकुंभी की उपस्थिति के कारण पानी के वाष्पोत्सर्जन की गति 3 से 8 प्रतिशत तक अधिक हो जाती है, जिससे जल स्तर तेज़ी से कम होने लगता है।

जलकुंभी मुख्यत: बाढ़ के पानी, नदियों और नहरों द्वारा एक स्थान से दूसरे स्थान पर फैलती है। मुख्य पौधे से कई तने निकल आते हैं जो छोटे-छोटे पौधों को जन्म देते हैं तथा बड़े होने पर मुख्य पौधे से टूटकर अलग हो जाते हैं। इसमें प्रजनन की इतनी अधिक क्षमता होती है कि एक पौधा 9-10 महीनों में एक एकड़ पानी के क्षेत्र में फैल जाता है। बीजों द्वारा भी इसका फैलाव होता है। एक-एक पौधे में 5000 तक बीज होते हैं और इसके बीजों में अंकुरण की क्षमता 30 वर्षो तक बनी रहती है।

तालाबों और नहरों की जलकुंभी को श्रमिकों द्वारा निकलवाया जाता है परंतु यह विधि बहुत महंगी है। झीलों और बड़ी नदियों की जलकुंभी को मशीनों द्वारा निकलवाना सस्ता पड़ता है पर थोड़े समय बाद यह फिर से जमने लगती है। कुछ रसायनो द्वारा जलकुंभी का नियंत्रण होता है। महंगी होने के कारण भारत जैसे देश में रासायनिक विधियां कारगर नहीं हो पा रही है। जैविक नियंत्रण विधि में कीट, सूतकृमि, फफूंद, मछली, घोंघे, मकड़ी आदि का उपयोग किया जाता है। यह बहुत सस्ती और कारगर विधि है। इस विधि में पर्यावरण एवं अन्य जीवों एवं वनस्पतियों पर कोई विपरीत प्रभाव भी नहीं पड़ता।

जैविक विधि में जलकुंभी के नियंत्रण में एक बार कीटों द्वारा जलकुंभी नष्ट कर दिए जाने के बाद कीटों की संख्या भी कम हो जाती है। जलकुंभी का घनत्व फिर से बढ़ने लगता है और साथ ही कीटों की संख्या भी। सामान्य तौर पर जलकुंभी को पहली बार नष्ट करने में कीटों द्वारा 2 से 4 साल तक लग जाते हैं, जो कीटों की संख्या पर निर्भर करता है। ऐसे 7-8 चक्रों के बाद जलकुंभी पूरी तरह से नष्ट हो जाती है। पिछले वर्षों में जबलपुर, मणिपुर, बैंगलुरु तथा हैदराबाद समेत कुछ शहरों में जलकुंभी के जैविक नियंत्रण में सफलता मिली है।

जलकुंभी के मूल उत्पत्ति क्षेत्र ब्राज़ील आदि देशों में 70 से भी अधिक प्रजातियों के जीव जलकुंभी का भक्षण करते देखे गए हैं, परंतु मात्र 5-6 प्रजातियों को ही जैविक नियंत्रण के लिए उपयुक्त माना गया है। ऐसी कुछ प्रजातियों ने ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका, सूडान आदि देशों में जलकुंभी को नियंत्रित करने में अहम भूमिका निभाई है। दूसरे देशों में इन कीटों की सफलता से प्रभावित होकर भारत में भी 3-4 कीटों और एक चिचड़ी की प्रजाति को सन 1982 में फ्लोरिडा और ऑस्ट्रेलिया से बैंगलुरु में आयात किया गया था। भारत सरकार ने नियोकोटीना आइकोर्नीए एवं नियोकोटीना ब्रुकी को वर्ष 1983 एवं ऑर्थोगेलुम्ना टेरेब्रांटिस को वर्ष 1985 में पर्यावरण में छोड़ने की अनुमति दे दी। आज ये कीट भारत में हर प्रदेश में फैल चुके हैं, जहां ये जलकुंभी के जैविक नियंत्रण में मदद कर रहे हैं।

औषधीय गुणों से भरपूर होने और रोग प्रतिरोधी क्षमता पर प्रभाव के चलते कई देशों में जलकुंभी का उपयोग औषधियों में किया जाता है। असाध्य रोगों से बचने के लिए लोग इसका सूप बनाकर सेवन करते हैं। दवाइयों में अपने देश में इसका उपयोग बहुत कम हो रहा है, क्योंकि इस पौधे की विशेषता से अधिकतर लोग अनभिज्ञ हैं। कहा जाता है कि श्वांस, ज्वर, रक्त विकार, मूत्र तथा उदर रोगों में यह बेहद लाभकारी है।

हमारे देश में लोग इसे बेकार समझकर उखाड़ कर फेंक देते हैं। इसमें विटामिन ए, विटामिन बी, प्रोटीन, मैग्नीशियम जैसे कई पोषक तत्व होते हैं और यह रक्तचाप, हृदय रोग और मधुमेह से लेकर कैंसर तक के उपचार में उपयोगी हो सकती है।

इसका फूल काफी सुंदर होता है, जिसे सजावट के लिए उपयोग में लिया जाता है। जलकुंभी से डस्टबिन, बॉक्स, टोकरी, पेन होल्डर और बैग जैसे कई इको फ्रेंडली सामान बनाए जाते हैं और यह स्थानीय स्तर पर लोगों के लिए आमदनी का अच्छा साधन हो सकता है।

पिछले कुछ वर्षों से जलकुंभी से खाद बनाने की प्रक्रिया शुरू हुई है; जब जलकुंभी से बड़ी मात्रा में जैविक खाद तैयार होने लगेगी तो इसका लाभ नदियों, नहरों और तालाबों के आसपास रहने वाले किसानों को मिलेगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://cf.ltkcdn.net/garden/images/orig/273848-2121×1414-water-hyacinth.jpg

अफ्रीका के सबसे मशहूर पेड़ की उम्र निर्धारित की गई

मुख्य रूप से अफ्रीका में पाए जाने वाले अफ्रीकी बाओबाब या गोरखचिंच वृक्ष पृथ्वी पर पाए जाने वाले विचित्र वृक्षों में से हैं। इनका तना बोतल या किसी मर्तबान की तरह होता है – अंदर से खोखला। अब वैज्ञानिकों ने जिम्बाब्वे के विक्टोरिया फॉल्स स्थित प्रसिद्ध बाओबाब वृक्ष बिग ट्री की उम्र पता कर ली है।

बिग ट्री ज़मीन के ऊपर लगभग 25 मीटर ऊंचा है। इसमें पांच मुख्य तने, तीन युवा तने और एक जाली तना है, जो मिलकर इसे एक छल्ले जैसा आकार देते हैं। दरअसल, अन्य वृक्षों की तुलना में बाओबाब वृक्ष की उम्र पता करना थोड़ा पेचीदा काम है। सामान्यत: वृक्षों के वार्षिक वलयों की गिनती के आधार पर उनकी उम्र निर्धारित की जाती है। लेकिन बाओबाब के वृक्ष कुछ वर्ष तो कोई वलय नहीं बनाते और कुछ वर्ष एक से अधिक वलय बनाते हैं इसलिए सिर्फ वलय गिनकर इनकी उम्र पता नहीं लगती।

इसलिए शोधकर्ताओं ने रेडियोकार्बन डेटिंग विधि की ओर रुख किया। उन्होंने बिग ट्री से लिए गए नमूनों में कार्बन के दो समस्थानिकों का अनुपात पता किया। इनमें से एक समस्थानिक (कार्बन-14) अस्थिर होता है जबकि दूसरा (कार्बन-12) टिकाऊ होता है। विधि का आधार यह है कि वायुममडल में जो कार्बन डाईऑक्साइड पाई जाती है उसमें कार्बन-14 का एक निश्चित अनुपात होता है। इसी कार्बन डाईऑक्साइड का उपयोग पेड़-पौधे प्रकाश संश्लेषण में करते हैं। इसलिए जब तक वे जीवित हैं उनमें कार्बन-14 का वही स्तर मिलता है। मृत हो जाने पर कार्बन-14 का एक निश्चित गति से विघटन होता रहता है, इसलिए उसका अनुपात कम होता जाता है। तो कार्बन-14 और कार्बन-12 के अनुपात से बताया जा सकता है कि कोई ऊतक कब मृत हो गया था। पाया गया कि बाओबाब के तने तीन अलग-अलग समय के हैं: 1000-1100 वर्ष, 600-700 वर्ष, और 200-250 वर्ष पुराने। डेंड्रोक्रोनोलॉजिया में शोधकर्ता ने बताया है कि सबसे प्राचीन तना लगभग 1150 साल पुराना है।

बाओबाब की यह उम्र पूर्व में बाओबाब के आकार के आधार निर्धारित की गई उम्र से अधिक है। शोधकर्ताओं का अनुमान है कि इस वृक्ष की अपेक्षाकृत धीमी वृद्धि का कारण इस क्षेत्र में लगातार आने वाले तूफान हैं।

शोधकर्ताओं का सुझाव है कि रेडियोकार्बन तकनीक का उपयोग जटिल वृद्धि वाले पेड़ों की उम्र पता करने के लिए किया जा सकता है। इस तरह के वृक्षों की उम्र निर्धारित करना इस लिहाज से महत्वपूर्ण है कि इससे पता चलता है कि इन्होंने अतीत में जलवायु परिवर्तन को किस तरह झेला है – हाल के वर्षों में संभवत: जलवायु परिवर्तन के चलते हर छह में से पांच विशाल अफ्रीकी बाओबाब की मृत्यु हुई है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.acx9629/full/_20211110_on_zimbabwebigtree-finally-gets-an-age.jpg

फिलकॉक्सिया माइनेन्सिस: शिकारी भूमिगत पत्तियां – डॉ. किशोर पवार

चार्ल्स डार्विन ने 1875 में मांसाहारी पौधों पर एक किताब लिखी थी। तब से अब तक तकरीबन 10 कुलों में लगभग 20 मांसाहारी वंश (जीनस) पहचाने जा चुके हैं।

तो, कुछ पौधे मांसाहारी क्यों होते हैं? इस संदर्भ में लाभ और लागत की गणना के आधार पर एक मॉडल विकसित किया गया है। इसके अनुसार मांसाहारिता भली-भांति प्रकाशित, पोषक तत्वों की कमी और साल के कम से कुछ समय नम आवासों में ही पाई जाएगी। यहां नाइट्रोजन, फॉस्फोरस, पोटेशियम और अन्य पोषक तत्व अकशेरुकी जंतुओं के शिकार और पाचन से प्राप्त किए जाएंगे।

इस मॉडल में तेज़ प्रकाश की उपस्थिति और नमी की परिस्थितियों को इसलिए शामिल किया गया है क्योंकि मांसाहार अपनाने पर प्रकाश संश्लेषण गंवाने की जो लागत होगी उसकी भरपाई सूखे और छायादार स्थानों में होने की संभावना कम है। हाल ही में इस मॉडल को प्रकाश, नमी और सड़ते-गलते कार्बनिक पदार्थ (लिटर) के द्वारा पोषक तत्वों की उपलब्धता के बीच संतुलन के रूप में भी आगे बढ़ाया गया है। यह मॉडल  प्रकाश और नमी के काफी अलग-अलग आवासों में मांसाहारिता पाए जाने की व्याख्या करता है। अब आते हैं नए खोजे गए मांसाहारी पौधे फिलकॉक्सिया प्रजातियों पर।

फिलकॉक्सिया वंश में 3 प्रजातियां हैं और तीनों मात्र केंद्रीय ब्रााज़ील के सराडो बायोम के कैंपोस रूपेस्टरिस में ही मिलती हैं। यह परिसर जैव विविधता से सम्पन्न है और भली-भांति प्रकाशित  है और यहां चट्टानी मुंडेरें हैं। यहां पर हल्की सफेद रेत भी पाई जाती है और वर्षा मौसमी होती है।

लागत लाभ मॉडल के अनुसार ये परिस्थितियां मांसाहारिता के विकास के लिए अनुकूल हैं। एक अन्य मांसाहारी वंश जेनलीसिया भी यहां आम तौर पर पाया जाता है, जहां रेत पर पानी रिसता रहता है। हमारे देश में पचमढ़ी में भी ड्रॉसेरा और स्थलीय यूट्रीकुलेरिया जैसी  कीट भक्षी प्रजातियां ऐसे ही आवासों में सफेद रेत और रिसते पानी में उगते देखी जाती हैं।

फिलकॉक्सिया का मांसाहार

फिलकॉक्सिया में कई असामान्य लक्षण हैं। मसलन एक मायकोराइज़ा विहीन अल्पविकसित जड़ तंत्र, चम्मच के आकार की पत्तियां जो वृद्धि काल में मध्य शिरा पर अंदर की ओर मुड़ी होती हैं। गौरतलब है कि मायकोराइज़ा पेड़-पौधों की जड़ों और फफूंद का मेलजोल है और यह पौधों की वृद्धि में काफी सहायक होता है। फिलकॉक्सिया की पत्तियों की ऊपरी सतह पर चिपचिपा पदार्थ छोड़ने वाली ग्रंथियां होती हैं और पत्ती रहित पुष्पक्रम (स्केपोस) पाया जाता है। इसमें एक अनोखा लक्षण और पाया जाता है – वह है इसकी कई छोटी-छोटी पत्तियां जो 0.5 से 1.5 मिलीमीटर चौड़ी होती हैं और सफेद रेत के नीचे घुसी हुई पाई जाती हैं। इन पत्तियों पर उपस्थित ग्रंथियां एक चिपचिपा पदार्थ छोड़ती हैं जो रेत के कणों को इन पत्तियों की ऊपरी सतह पर कसकर बांधे रखता है।

क्या वाकई मांसाहारी है?

इस पौधे की खोज के बाद यह सवाल उठा कि क्या इसे मांसाहारी पौधा माना जाए।  किसी भी पौधे को मांसाहारी मानने के लिए यह ज़रूरी है कि वह अपनी सतह पर लगे मृत जंतुओं से पोषक पदार्थ अवशोषित करने में समर्थ हो। उसमें कुछ अन्य प्राथमिक लक्षण  भी होना चाहिए – जैसे शिकार को आकर्षित करने का सक्रिय तरीका, शिकार को पकड़ने की युक्ति और उसका पाचन करने की क्षमता। इस संदर्भ में  फिलकॉक्सिया जहां उगता है उस जगह का पोषण-अभाव से ग्रस्त होने के अलावा हरबेरियम और वास्तविक परिस्थितियों से प्राप्त पौधों की पत्तियों पर निमेटोड कृमि पाए जाने ने इस परिकल्पना को जन्म दिया कि यह एक मांसाहारी पौधा है। कहा गया कि यह पौधा निमेटोड और अन्य कृमियों को अपनी पत्तियों पर उपस्थित ग्रंथियों से पकड़ता है और शिकार किए गए कृमियों का पाचन करके पोषक पदार्थों को अवशोषित करता है।

इस परिकल्पना का परीक्षण करने हेतु साओ पॉलो के कैगो जी. परेरा और उनके साथियों ने फिलकॉक्सिया की एक प्रजाति फिलकॉक्सिया निमेन्सिस को चुना और कीट को पचाने और उससे प्राप्त पोषक पदार्थों का अवशोषण करने की क्षमता का परीक्षण किया।

यह पता करने के लिए उन्होंने पत्तियों को ऐसे कृमि दिए जिनमें नाइट्रोजन के एक समस्थानिक (ग़्15) का समावेश किया गया था। परीक्षण से पता चला कि मात्र 24 घंटों के अंदर पत्तियों में 5 प्रतिशत नाइट्रोजन कृमि से आई थी। 48 घंटे बाद तो 15 प्रतिशत नाइट्रोजन कृमि से प्राप्त थी। इससे स्पष्ट होता है कि कृमियों के प्राकृतिक विघटन से मुक्त नाइट्रोजन का अवशोषण नहीं किया गया था बल्कि पत्तियों द्वारा कृमियों को पचाकर उनके पोषक पदार्थों का अवशोषण किया गया था। और वह भी अन्य मांसाहारी पौधों की तुलना में अधिक तेज़ी से।

ऐतिहासिक रूप से प्रामाणिक अधिकांश मांसाहारी पौधों की पत्तियों पर उपस्थित रुाावी ग्रंथियों पर फॉस्फेटेज़ एंज़ाइम की सक्रियता अधिक पाई जाती है। शोध दल ने पाया कि फिलकॉक्सिया की पत्तियों पर फॉस्फेटेज़ सक्रियता अधिक थी जिससे पता चलता है कि कृमियों का पाचन किया गया है ना कि सूक्ष्म जीवों द्वारा उनका विघटन होने से पोषक पदार्थ पत्तियों में पहुंचे हैं। साथ ही पत्तियों पर पाए गए सभी कृमि मृत थे जो इस बात का प्रमाण है कि वे न तो यहां से भोजन पा रहे थे, और ना ही प्रजनन कर रहे थे।

आम तौर पर माना जाता है कि पौधों द्वारा शिकार कर पोषक पदार्थ हासिल करना सबसे किफायती तरीका नहीं है। यह इस बात से भी साबित होता है कि फूलधारी पौधों में मात्र 0.2 प्रतिशत मांसाहारी हैं। अलबत्ता, ऐसा लगता है कि यह वास्तविक संख्या से बहुत कम आंका गया है क्योंकि कुछ संभावित प्रजातियों (जैसे जीरेनियम,  डिप्सेकस, पेटुनिया और पोटेंटिला) पर  कुछ प्रारंभिक परीक्षण ही हुए हैं। कुछ अन्य मामलों में मांसाहारिता छुपी हुई हो सकती है क्योंकि वे शायद सूक्ष्म जीवों का शिकार करते हों, उन तक पहुंचना मुश्किल होता है, या कोई ऐसी विधि हो सकती है जो हमें नज़र नहीं आती। फिलकॉक्सिया में मांसाहार की खोज इतनी देरी से होने के ऐसे ही कारण हो सकते हैं। लिहाज़ा हो सकता है कि हमारे आसपास और भी कई हत्यारे पौधे हों। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.researchgate.net/profile/Andre-Vito-Scatigna/publication/290430936/figure/fig2/AS:317776095924224@1452775133089/Philcoxia-minensis-flower-A-Front-view-B-Lateral-view-Mitracarpus-pusillus.png

उपेक्षित न हों परंपरागत तिलहन – भारत डोगरा

भारत सरकार ने 18 अगस्त को घोषित 11,040 करोड़ रुपए की स्कीम में पाम आयल का घरेलू उत्पादन तेज़ी से बढ़ाने के लिए इसके वृक्ष बड़े पैमाने पर लगाने का निर्णय किया है। इसके लिए खासकर उत्तर-पूर्वी राज्यों और अंडमान व निकोबार द्वीप समूह पर ध्यान दिया जाएगा। इस दौर में यह सुनिश्चित करना चाहिए कि खाद्य तेल का घरेलू उत्पादन बढ़ाने के प्रयासों में परंपरागत तिलहनों की उपेक्षा न हो जाए।    

भारत में तिलहनों की समृद्ध परंपरा रही है व इन तिलहनों तथा इनसे प्राप्त तेलों का हमारी संस्कृति व पर्व-त्यौहारों में भी विशेष महत्व रहा है। विशेषकर सरसों, तिल, मूंगफली व नारियल का तो बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। इसके अतिरिक्त अपेक्षाकृत कम उत्पादन क्षेत्र के ऐसे अनेक तिलहन हैं जिनमें से कुछ का हिमालय क्षेत्र में, कुछ का आदिवासी क्षेत्रों में, कुछ का औषधि व अन्य विशिष्ट उपयोगों में महत्व रहा है। इसके अतिरिक्त कपासिया तेल का अपना महत्त्व है और यह अपेक्षाकृत सस्ता भी है।

जहां तक पोषण का सवाल है, तो देश के अलग-अलग क्षेत्रों के व्यंजनों के अनुसार हमारे परंपरागत तेल उपलब्ध हैं, व अच्छे पोषण व स्वाद की दृष्टि से इनका स्थान बाहरी तेल नहीं ले सकते हैं। इनसे केवल तेल नहीं मिलता है, अपितु मूंगफली, सरसों का साग, तिल, नारियल का पानी व गिरी भी मिलते हैं। पौष्टिक गजक, लड्डू, रेवड़ी, मिठाई आदि के रूप में इनका सेवन विशेषकर सर्दी के दिनों में अनुकूल है। अरंडी व अलसी के तेल औषधीय गुणों के लिए जाने जाते हैं। लोहड़ी के त्यौहार में रेवड़ी-गजक होना ज़रूरी है। सर्द शामों में गर्म मूंगफली खाने का अपना ही मज़ा है। ये सभी खाद्य स्वास्थ्य व स्वाद दोनों की दृष्टि से अच्छे हैं। सरसों के साग के बिना तो सर्दी के दिन कटते ही नहीं हैं, तो गर्मी व उमस के दिनों में सबसे अधिक राहत नारियल के पानी से ही मिलती है।

सवाल यह है कि तिलहन की इतनी समृद्ध विरासत के बावजूद हमारा देश खाद्य-तेलों के आयात पर इतना निर्भर क्यों हो गया? इसकी वजह यह है कि परंपरागत तिलहन के किसानों को उचित समर्थन व प्रोत्साहन नहीं मिल पाया। बाहरी सस्ते तेलों के आयात को एक सकल विकल्प मान लिया गया। हाइड्रोजिनेशन की तकनीक से यह समस्या सुलझा ली गई कि कोई तेल स्थानीय स्वाद के अनुकूल है या नहीं। पर हम यह भूल गए कि जहां तक स्वास्थ्य का सवाल है, तो स्थानीय शुद्ध तेल ही सर्वोत्तम हैं व खेती-किसानी की खुशहाली के लिए भी इनको प्रोत्साहित करना ही सबसे उचित है।

जब तिलहन-किसानों को अनुकूल माहौल दिया गया है, उन्होंने तिलहन उत्पादन बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। पर जब प्रतिकूल स्थितियां मिलीं तो खाद्य तेलों के आयात पर निर्भरता बढ़ी। खाद्य तेलों के आयात का वार्षिक बिल असहनीय हद तक बढ़ गया क्योंकि 60 प्रतिशत या उससे अधिक खाद्य तेल आयात करना पड़ रहा था।

भारत में ढाई करोड़ हैक्टर भूमि पर तिलहन की खेती होती है। इससे पता चलता है कि तिलहन के किसानों की संख्या बहुत अधिक है। तिस पर यदि शुद्ध तेल देने वाली कुटीर व लघु प्रोसेसिंग इकाई कच्ची घानी व कोल्हू का उपयोग हो तो इससे भी तिलहन व खाद्य तेल क्षेत्र में रोज़गार बहुत बढ़ता है। इसी आधार पर स्थानीय स्तर पर खली की उपलब्धता बढ़ाई जा सकती है जिससे डेयरी कार्य व पशुपालन की संभावनाएं बढ़ सकती हैं।

आजीविका सुरक्षा व आत्म-निर्भरता दोनों के उद्देश्यों को समान महत्व देते हुए हमें तिलहन उत्पादन वृद्धि का एक ऐसा कार्यक्रम बनाना चाहिए जो मूलत: देश के स्थानीय तिलहनों पर आधारित हो, ऐसे तिलहनों पर जिनके बारे में हमारे किसानों के पास भरपूर ज्ञान पहले से उपलब्ध है, जो हमारी पोषण आवश्यकताओं के साथ मिट्टी, जल व जलवायु स्थिति के अनुकूल हों। इस खेती के साथ स्थानीय स्तर की कुटीर इकाइयों द्वारा तिलहन से तेल प्राप्त करने की पर्याप्त इकाइयां स्थापित करना चाहिए व साथ में खली की पर्याप्त उपलब्धता स्थानीय पशुपालकों को करनी चाहिए। मुख्य तिलहनों के अलावा जो औषधि व विशिष्ट उपयोगों के तिलहन हैं, उनके साथ जुड़े कुटीर व लघु उद्योगों को भी विकसित करना चाहिए। आर्गेनिक खेती को प्रोत्साहित करना चाहिए। इस राह पर चले तो भारत निकट भविष्य में तिलहन क्षेत्र में विश्व स्तर पर महत्वपूर्ण व विशिष्ट स्थान बना सकता है।

यह बहुत ज़रूरी है कि हम अपनी क्षमताओं और विशिष्ट आवश्यकताओं को पहचानें व उनके अनुकूल कार्य करें। इस तरह तिलहन के क्षेत्र की जो प्रगति होगी वह अपने देश की मिट्टी, फसल चक्र, पोषण, जल, जलवायु की स्थिति के अनुकूल होगी व यही प्रगति की राह सफल व टिकाऊ सिद्ध होगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://iasgatewayy.com/wp-content/uploads/2020/02/Oil-Seeds-Production-1.jpg

एक अंशकालिक मांसाहारी पौधा

वीनस फ्लाई ट्रैप जैसे अधिकांश मांसाहारी पौधे वर्ष भर शिकार करते हैं। अब शोधकर्ताओं ने एक ऐसा मांसाहारी पौधा ढूंढा है जो सिर्फ पुष्पन के दौरान ही मांसाहार करता है।

मांसाहारी पौधों की लगभग 800 प्रजातियां हैं। कुछ मांसाहारी प्रजातियों के पौधों में शिकार के लिए विशेष संरचनाएं होती हैं, कुछ प्रजातियों के पौधों में चिपचिपी सतह होती है जिस पर कीट चिपक जाते हैं और फिसलकर पाचक रस से भरे कलश में गिर जाते हैं। ब्राज़ील में एक ऐसा मांसाहारी पौधा मिला था, जो भूमिगत पत्तियों की मदद से छोटे कृमि पकड़ता है।

हालिया अध्ययन में मिली प्रजाति ट्राइएंथा ऑक्सिडेंटलिस (एक तरह का एस्फोडेल) है। इस पौधे में जहां फूल लगते हैं उस डंठल का ऊपरी भाग छोटे-छोटे लाल रंग के रोएं से ढंका होता है, जिनसे चमकदार और चिपचिपा पदार्थ रिसता रहता है। रोएं से रिसती इन बूंदों में अक्सर मक्खियां और छोटे भृंग फंस जाते हैं।

ब्रिटिश कोलंबिया युनिवर्सिटी की ग्रेगरी रॉस ने जीनोमिक अध्ययन के दौरान देखा कि टी. ऑक्सिडेंटलिस में प्रकाश संश्लेषण को नियंत्रित करने वाले वही जीन नदारद हैं जो अन्य मांसाहारी पौधों में भी नदारद रहते हैं। इससे लगता था कि यह मांसाहारी पौधा है।

ब्रिटिश कोलंबिया युनिवर्सिटी के ही कियान्शी लिन जांचना चाहते थे कि क्या वाकई ट्राइएंथा मांसाहारी है। पहले उन्होंने कुछ फल मक्खियों को नाइट्रोजन का एक दुर्लभ समस्थानिक खिलाया। फिर वैंकूवर के पास के दलदल में लगे 10 अलग-अलग ट्राइएंथा पौधों में इन फल मक्खियों को चिपकाया। साथ ही उसी तरह के शाकाहारी पौधों में भी ऐसी फल मक्खियों को चिपकाया गया।

एक-दो सप्ताह बाद जांच पड़ताल के दौरान ट्राइएंथा के तनों, पत्तियों व फलों में नाइट्रोजन का वह समस्थानिक मिला, लेकिन शाकाहारी पौधों में नहीं। प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ में शोधकर्ता बताते हैं कि ट्राइएंथा ने आधे से अधिक नाइट्रोजन अपने शिकार से प्राप्त की थी। यानी ट्राइएंथा मांसाहारी पौधा है। इसके अलावा यह भी देखा गया कि ट्राइएंथा के रोएं वही एंजाइम, फॉस्फेटेज़, बनाते हैं जिसकी मदद से अन्य मांसाहारी पौधे शिकार से पोषण लेते हैं।

कई मांसाहारी पौधे मक्खियों और छोटे भृंगों को फंसाने के लिए चिपचिपे रोएं का उपयोग करते हैं लेकिन ये रोएं फूलों से दूर होते हैं, ताकि परागण करने वाले कीट न फंसे। ट्राइएंथा में चिपचिपे रोएं उस मुख्य तने पर ही होते हैं जिस पर फूल लगते हैं। शोधकर्ताओं को लगता है कि ट्राइएंथा के रोएं छोटे कीटों को आकर्षित करते हैं, मधुमक्खियां या अन्य परागणकर्ता नहीं चिपक पाते।

लेकिन कुछ शोधकर्ता इस बात से सहमत नहीं हैं कि ट्राइएंथा वाकई मांसाहारी है। हो सकता है कि ट्राइएंथा के रोएं महज उन कीड़ों को मारने के लिए हों जो बिना परागण किए उनसे पराग या मकरंद चुराने आते हैं। यह एक निष्क्रिय शिकारी लगता है, क्योंकि इसमें शिकार को फंसाने के लिए कोई विशेष बदलाव नहीं हुए हैं।

यह खोज दर्शाती है कि प्रकृति में इस तरह के और भी मांसाहारी पौधे हो सकते हैं, जो अब तक अनदेखे रहे हैं; शोधकर्ताओं को संग्रहालय में रखे कुछ फूलों के डंठल से चिपके छोटे कीट मिले हैं। शोधकर्ताओं का कहना है कि संभवत: ट्राइएंथा एक अंशकालिक मांसाहारी पौधा है। ट्राइएंथा की एक खासियत है कि यह एकबीजपत्री है और एकबीजपत्री मांसाहारी पौधे बहुत दुर्लभ हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_image_-1280w__no_aspect/public/_20210809_on_carnivorousplant_1280x720.jpg?itok=C0Vq3sqw