इंसान-मशीन के एकीकरण और अंतरिक्ष का साल – चक्रेश जैन

विज्ञान की प्रतिष्ठित और लोकप्रिय पत्र-पत्रिकाओं पर नज़र डालने से पता चलता है कि वर्ष 2018 विज्ञान जगत में नई उपलब्धियों का साल रहा। ब्राहृांड के रहस्यों को बेहतर और वैज्ञानिक तरीके से समझने के प्रयास चलते रहे। अंतरिक्ष में जीवन की संभावनाओं का पता लगाने की कोशिशों का और अधिक विस्तार हुआ। इनमें चंद्रमा और मंगल ग्रह का ज़िक्र विशेष रूप से किया जा सकता है। जीन सम्पादन प्रौद्योगिकी में नए प्रयोगों और सफलताओं के दावों से संकेत मिला कि वैज्ञानिक बिरादरी ईश्वर की भूमिका में हस्तक्षेप करने की दहलीज़ तक पहुंच चुकी है। वनस्पतियों और जीव-जंतुओं की नई-नई प्रजातियों का पता चला। मनुष्य और मशीन के एकीकरण के विस्तार की झलक दिखाई दी। अब हम उस दौर तक पहुंच चुके हैं, जहां से हाइब्रिड युग आरंभ होता है। साइबोर्ग महिला और पुरुष दोनों का आगमन हो चुका है। साइबोर्ग का अर्थ है मशीन और मनुष्य का संकर।

विदा हो चुके वर्ष 2018 में विश्व भर में कृत्रिम मेधा यानी आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का बोलबाला रहा। इसकी शुरुआत 1950 के दशक में हुई थी। इस बारे में सबसे पहले कंप्यूटर वैज्ञानिक जॉन मेकार्थी ने बताया था। वास्तव में कृत्रिम मेधा से मेधावी कंप्यूटर और कंप्यूटर नियंत्रित रोबोट बनाए जा रहे हैं। कृत्रिम मेधा ने एक लंबा सफर तय किया है। स्मार्ट फोन, मेधावी गैजेट्स, ड्रोन, रोबोट आदि इंटेलीजेंट मशीनों के कुछ उदाहरण हैं जो रोज़मर्रा के जीवन में पैठ बना चुके हैं। सच तो यह है कि आने वाले वर्षों में जीवन का हर क्षेत्र कृत्रिम मेधा की ताकत से बड़े पैमाने पर प्रभावित होने वाला है।

इसी वर्ष ब्रिटेन में संसदीय शिक्षा समिति की बैठक में पेपर रोबोट पेश किया गया, जिसने सांसदों के विभिन्न सवालों के उत्तर दिए। वर्ष 2018 में नेतानुमा धुआंधार भाषण देने वाले रोबोट के निर्माण के प्रयास जारी रहे।

गुज़रे साल जापान के वैज्ञानिकों ने अंतरिक्ष में एक स्पेस एलिवेटर भेजने का विलक्षण प्रयोग किया। यह दुनिया का प्रथम और बेहद शुरुआती प्रयोग है। इस तरह का विचार 1895 में रूस के वैज्ञानिक कांस्टान्टिन तासिलकोव्स्की के मन में पेरिस में ऑइफल टॉवर देखने के बाद आया था। लेकिन यह विचार साकार नहीं हो सका था। लगभग एक सदी बाद आर्थर सी. क्लार्क ने इस विचार को दोहराया था। अब स्पेस एलिवेटर विज्ञान गल्प या कोरी कल्पना नहीं रह गया है।

इस वर्ष अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा की आंख कही जाने वाली केप्लर अंतरिक्ष दूरबीन रिटायर हो गई। इसने नौ वर्षों के दौरान 3600 से ज़्यादा एक्सोप्लेनेट्स यानी हमारे सौर मंडल से बाहर के ग्रहों की खोज की। इनमें से कुछ पर जीवन की संभावना व्यक्त की गई है।

12 अगस्त को नासा ने सूर्य और उसके वायुमंडल के रहस्यों पर से पर्दा हटाने के लिए डेल्टा-4 रॉकेट से पार्कर सोलर प्रोब भेजा। इस यान का नाम विख्यात भौतिकीविद् यूजीन पार्कर के नाम पर रखा गया है। यह मिशन सूर्य के वायुमंडल कहे जाने वाले आभामंडल यानी करोना का व्यापक अध्ययन करेगा। वास्तव में करोना प्लाज़्मा से बना होता है। करोना के बारे में हमारी जानकारी बहुत कम है। भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन इसरो ने भी 2019-2020 के दौरान सौर मिशन आदित्य-एल-1 लांच करने की योजना बनाई है। इसका उद्देश्य सूर्य के बारे में हमारी वैज्ञानिक समझ को बढ़ाना है।

विदा हो चुके साल में नासा की बड़ी सफलताओं में एक और अध्याय नवंबर में जुड़ गया, जब इनसाइट यान लगभग पचास करोड़ किलोमीटर की यात्रा पूरी कर मंगल ग्रह पर उतरा। इनसाइट से मिली जानकारी चंद्रमा और मंगल पर मानव भेजने के अभियानों में अहम भूमिका निभाएगी।

17 जुलाई को अंतर्राष्ट्रीय खगोल संघ ने बृहस्पति के दस नए उपग्रहों की खोज की घोषणा की। अब इन उपग्रहों की कुल संख्या 79 हो गई है। सौर मंडल के सबसे बड़े ग्रह बृहस्पति के उपग्रहों की संख्या भी सबसे ज़्यादा है।

आठ दिसंबर को चीन ने अपने चंद्र मिशन कार्यक्रम के अंतर्गत चंद्रमा की अंधेरी सतह का अध्ययन करने के लिए चांग-ई-4 यान सफलतापूर्वक भेजा। इस मिशन का उद्देश्य चंद्रमा की उत्पत्ति के रहस्यों पर शोध करना है। जीव वैज्ञानिक अनुसंधानों के लिए आलू और रेशम के कीड़ों के अंडाणु भी भेजे गए हैं। इस वर्ष दिसंबर में नासा का अंतरतारकीय यान वोयेजर-2 सफलतापूर्वक सौर मंडल से बाहर निकल गया। वोयेजर-1 छह वर्ष पहले ऐसा कर चुका है। दरअसल, दोनों ही मानव रहित यान हैं, जिन्हें सौर मंडल और उसके बाहर के ग्रहों का पता लगाने के लिए भेजा गया है। वोयेजर-2 को 41 वर्ष पूर्व प्रक्षेपित किया गया था।

नवंबर के अंतिम सप्ताह में हांगकांग में जीन सम्पादन प्रौद्योगिकी क्रिस्पर कास-9 पर आयोजित अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन में चीनी वैज्ञानिक ही जियानकुई ने क्रिस्पर तकनीक से तैयार किए गए मानव भ्रूणों से दो शिशुओं के पैदा होने की घोषणा की। जीन सम्पादन प्रौद्योगिकी ने जीन्स में फेरबदल कर डिज़ाइनर शिशु पैदा करने का मार्ग प्रशस्त किया है। अधिकांश वैज्ञानिकों ने इस प्रयोग की आलोचना करते हुए इसे जैव नैतिकी का उल्लंघन बताया है। दुनिया के कुछ देशों में जीन सम्पादन प्रौद्योगिकी पर प्रतिबंध है। इसी वर्ष चाइनीज़ एकेडमी ऑफ साइंसेज़ और अमेरिका के पडर्यू विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने क्रिस्पर तकनीक से चावल की अधिक पैदावार वाली किस्म विकसित की।

विज्ञान शोध पत्रिका नेचर में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार जर्मनी के वैज्ञानिकों ने बैबून (बंदर की प्रजाति) के शरीर में सूअर का दिल सफलतापूर्वक लगा दिया है। बैबून छह महीने से अधिक समय तक जीवित रहा। प्रत्यारोपण के लिए सूअर के जीन में परिवर्तन किया गया था। अपनी तरह के इस पहले प्रयोग से भविष्य में मनुष्य को नया जीवन प्रदान करने का मार्ग प्रशस्त हुआ है।

खगोल विज्ञान के अध्येताओं ने विशेष प्रकार के कैमरे से एक मंदाकिनी 1052-डीएफ-2 की खोज की, जिसमें डार्क मैटर अर्थात अदृश्य द्रव्य नहीं है। वास्तव में डार्क मेटर एक रहस्यपूर्ण पदार्थ है, जिसका द्रव्यमान है, लेकिन वह दिखाई नहीं देता।

इसी साल भौतिकीविदों ने हिग्स बोसान की खोज के छह वर्षों बाद बताया कि इनका क्षय होता है। सर्न प्रयोगशाला के वैज्ञानिकों ने 2012 में इन कणों के अस्तित्व का पता लगाया था।

अमेरिकी अध्ययनकर्ताओं की एक टीम को समुद्री घोंघे में याददाश्त स्थानांतरण में सफलता मिली। वैज्ञानिकों का कहना है कि आरएनए अणु के ज़रिए याददाश्त को एक जीव से दूसरे जीव में स्थानांतरित किया गया था। बीते साल ऑस्ट्रेलिया के शोधकर्ताओं ने मनुष्य की कोशिकाओं में एक नई आकृति के डीएनए अणु की खोज की, जिसे आई-मेटिफ नाम दिया है। वस्तुत: यह चार लड़ियों की गांठ जैसी संरचना है। आई-मेटिफ डीएनए अणु जीन्स के नियंत्रण में अहम भूमिका निभाता है।

विदा हो रहे वर्ष में ईरान ने इस्राइल पर बादलों को चुराने का आरोप लगाया। ईरान में हो रहे जलवायु परिवर्तन को देखते हुए इस्राइल संदेह के दायरे में आ गया। ईरान के अनुसंधानकर्ताओं ने एक विश्लेषण का हवाला देते हुए कहा कि इस्राइल की कोशिश है कि ईरान के आसमान में बादल तो छाएं, लेकिन बारिश न हो। ऐसा पहले हो चुका है। बीते वर्षों में मौसम विज्ञानी बादलों को कैद करने और कृत्रिम बादल बनाने के प्रयोग करते रहे हैं। एक बात और। मौसम को हथियार की तरह इस्तेमाल करने की दिशा में कई देश लंबे समय से अनुसंधानों में लगे हुए हैं।

नवंबर के दूसरे पखवाड़े में फ्रांस के वरसेलीज़ में साठ देशों के वैज्ञानिकों ने किलोग्राम की परिभाषा बदलने का निर्णय किया। 129 वर्षों बाद किया गया यह परिवर्तन ऐतिहासिक कहा जा सकता है। भविष्य में मानक वज़न की बजाय विद्युत धारा से किलोग्राम नापा जाएगा। नए मापन से नैनो तकनीक और औषधियों के विकास में सटीकता और परिशुद्धता प्राप्त की जा सकेगी।

इस वर्ष परखनली शिशु तकनीक के चार दशक पूरे हुए। विश्व की पहली परखनली शिशु लुईस ब्राउन है। इन चार दशकों में लगभग साठ लाख परखनली शिशु पैदा हो चुके हैं।

वर्ष 2018 में विज्ञान कथाओं पर लिखी किताब फ्रैंकेस्टाइन: ऑर दी मॉडर्न प्रोमेथियस के प्रकाशन के दो सौ साल पूरे हुए। इस किताब का प्रकाशन पहली बार 1818 में हुआ था। इसे पहली विज्ञान कथा पुस्तक का सम्मान मिला है। इसी वर्ष इंडोनेशिया में एशियाई खेल हुए, जहां विज्ञान और अत्याधुनिक प्रौद्योगिकी का जलवा दिखाई दिया। खिलाड़ियों ने विज्ञान की मदद से नए कीर्तिमान रचे।

वर्ष 2018 का भौतिक विज्ञान का नोबेल पुरस्कार आर्थर एस्किन, गेरार्ड मोरो और डोना स्ट्रिकलैंड को संयुक्त रूप से प्रदान किया गया। तीनों अनुसंधानकर्ताओं को लेज़र रिसर्च में योगदान के लिए यह प्रतिष्ठित सम्मान मिला। रसायन विज्ञान का नोबेल सम्मान फ्रांसेस अर्नाल्ड, ग्रेगरी विंटर और जॉर्ज स्मिथ को संयुक्त रूप से दिया गया। तीनों अध्येताओं को परखनली में रसायनों के क्रमिक विकास में शोधकार्य के लिए पुरस्कृत किया गया। चिकित्सा विज्ञान का नोबेल पुरस्कार अमेरिका के जेम्स पी. एलिसन और जापान के तासुकु होन्जो को प्रदान किया गया। दोनों अध्येताओं ने कैंसर के खिलाफ शरीर को सक्षम बनाने वाली चिकित्सा की खोज में विशेष योगदान किया है। इस साल का अर्थशास्त्र का नोबेल विलियम नॉर्डहॉस और पॉल रोमर को जलवायु परिवर्तन को आर्थिक विकास के साथ एकीकृत करने के लिए प्रदान किया गया। वर्ष 2018 का गणित का प्रतिष्ठित एबेल पुरस्कार रॉबर्ट पी. लैंगलैंड्स को प्रदान किया गया।

14 मार्च को महान वैज्ञानिक स्टीफन हॉकिंग का निधन हो गया। वे नर्वस सिस्टम की एक दुर्लभ बीमारी से पीड़ित थे। उन्होंने ब्लैक होल्स और सापेक्षता जैसे अहम वैज्ञानिक मुद्दों पर अपनी सोच प्रस्तुत की। उनकी मौलिक सोच ने ब्राहृांड में नई संभावनाओं का मार्ग प्रशस्त किया। स्टीफन हॉकिंग की पुस्तक ए ब्रीफ हिस्ट्री ऑफ टाइम 1988 में प्रकाशित हुई थी। स्टीफन हॉकिंग ने पृथ्वी पर जलवायु परिवर्तन के मंडराते खतरों को देखते हुए अंतरिक्ष में जीवन की नई संभावनाओं को तलाशने की बात कही थी।

3 अक्टूबर को गॉड पार्टिकल के जनक लियो लेडरमैन का निधन हो गया। उन्हें 1988 में भौतिक शास्त्र का नोबेल पुरस्कार मिला था। लियो लेडरमेन फर्मी लैब के निदेशक पद पर भी आसीन रहे। 26 मई को चंद्रमा पर पहुंचने वाले चौथे अंतरिक्ष यात्री एलन बीन की 86 वर्ष की आयु में मृत्यु हो गई। एलन बीन अंतरिक्ष यात्री होने के साथ चित्रकार भी थे। उन्होंने अपने अंतरिक्ष यात्रा के अनुभवों को चित्रों के माध्यम से व्यक्त किया है। उनकी पुस्तक माई लाइफ एज़ एन एस्ट्रोनॉट उल्लेखनीय है।

गुज़रे साल भारतीय विज्ञान अनेक क्षेत्रों में आगे बढ़ता रहा। अंतरिक्ष में शानदार सफलताएं हासिल कीं। इसरो ने अगस्त में गगन मिशन के अंतर्गत 2022 में अंतरिक्ष में मनुष्य को भेजने की घोषणा की। इसकी तैयारी 2004 में शुरू की गई थी। जुलाई में क्रू एस्केप सिस्टम का सफल परीक्षण किया गया। इस परीक्षण से हम समानव अंतरिक्ष यात्रा की दिशा में एक कदम और आगे बढ़ गए। अमेरिका, रूस और चीन के बाद भारत अंतरिक्ष में मानव भेजने वाला चौथा देश होगा।

वर्ष की शुरुआत में इसरो ने पीएसएलवी सी-40 प्रक्षेपण यान से एक साथ 31 उपग्रहों को अंतरिक्ष में स्थापित किया। इनमें भारत का सौवां उपग्रह कार्टोसैट-2 एफ भी शामिल था।

गत वर्ष में इसरो की उपलब्धियों में एक-के-बाद-एक सफलता के अध्याय जुड़ते रहे। 16 सितंबर को पीएसएलवी सी-42 प्रक्षेपण यान के ज़रिए ब्रिटेन के दो उपग्रहों को अंतरिक्ष में भेजा गया। भारत अभी तक 28 देशों के 237 उपग्रहों का प्रक्षेपण कर चुका है। 14 नवंबर को बाहुबली रॉकेट जीएसएलवी मार्क-3 डी-2 रॉकेट के ज़रिए संचार उपग्रह जीसैट-29 उपग्रह को अंतरिक्ष में विदाई दी गई। इसका निर्माण देश में ही किया गया है। यह अभी तक का सबसे भारी उपग्रह है। इस सफलता के साथ इसरो मानव अंतरिक्ष उड़ान के एक कदम और नज़दीक पहुंच गया। इस रॉकेट में स्वदेशी क्रॉयोजेनिक इंजन है।

इसी वर्ष इसरो ने 29 नवंबर को पीएसएलवी-सी-43 के माध्यम से आधुनिक भू-पर्यवेक्षण उपग्रह हाइसिस एवं तीस अन्य उपग्रहों को अंतरिक्ष में विदाई दी। हाइपर स्पेक्ट्रल इमेजिंग उपग्रह का उद्देश्य पृथ्वी की सतह का अध्ययन करना है। साल के उत्तरार्ध में फ्रेंच गुआना से देश के सबसे भारी संचार उपग्रह जीसैट-11 का सफल प्रक्षेपण किया गया। इस उपग्रह से इंटरनेट की रफ्तार बढ़ाने में सहायता मिलेगी। इसरो अगले वर्ष 3 जनवरी को चंद्रयान-2 भेजेगा, जो चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर पहुंचेगा।

इस वर्ष 27 अगस्त को पहली बार जैव-र्इंधन से विमान उड़ाकर भारत ने विमानन के क्षेत्र में नया इतिहास रचा। रतनजोत से बने इस र्इंधन का विकास सीएसआईआर के देहरादून स्थित भारतीय पेट्रोलियम संस्थान ने किया है। विमान ने 20 सवारियों के साथ देहरादून से दिल्ली के बीच 25 मिनट उड़ान भरी। विकासशील देशों में यह उपलब्धि हासिल करने वाला भारत पहला देश बन गया है।

इसी साल भौतिकी अनुसंधान प्रयोगशाला के वैज्ञानिकों के एक दल ने पहली बार में ही लगभग 600 प्रकाश वर्ष दूर सूर्य के समान तारे की परिक्रमा कर रहे एक बड़े बाह्र-ग्रह (एक्सोप्लेनेट) की खोज की। वास्तव में एक्सोप्लेनेट की खोज नई बात नहीं है। हाल के वर्षों में यह अनुसंधान का रोमांचक विषय रहा है। नासा का केप्लर उपग्रह पहले ही 3786 एक्सोप्लेनेट की खोज कर चुका है। इस खोज के साथ भारत उन देशों की पंक्ति में सम्मिलित हो गया है, जिन्होंने सौर मंडल से बाहर ग्रहों की खोज की है।

गुज़रे साल पृथ्वी के भूगर्भीय इतिहास में एक और नया युग मेघालयन जुड़ गया। इसका नाम भारत के पूर्वोत्तर राज्य मेघालय के नाम पर रखा गया है। मेघालयन युग 4200 वर्ष पूर्व शुरू हुआ था और अभी जारी है।

सीएसआईआर की राष्ट्रीय पर्यावरण अभियांत्रिकी अनुसंधान संस्थान (नीरी), नागपुर और केंद्रीय विद्युत रसायन अनुसंधान संस्थान, कराईकुड़ी प्रयोगशालाओं ने दीपावली पर आतिशबाज़ी से होने वाले प्रदूषण को घटाने के लिए ग्रीन पटाखे बनाने की तकनीक विकसित की। इनसे तीस प्रतिशत तक कम वायु प्रदूषण होता है।  

हमारे देश में कृत्रिम मेधा पर अनुसंधान शुरुआती दौर में है। इसके लिए सामाजिक ढांचा ज़रूरी है। हमारे जीवन पर इसका सकारात्मक और नकारात्मक दोनों प्रकार का प्रभाव पड़ेगा। एक ओर गंभीर बीमारियों के इलाज और खेती-किसानी सम्बंधी कार्यों में सहायता मिलेगी, वहीं दूसरी ओर, बेरोज़गारी की चुनौतियों का मुकाबला भी करना पड़ेगा।

26 सितंबर को सीएसआईआर ने वर्ष 2018 के शांतिस्वरूप भटनागर पुरस्कार के लिए 13 वैज्ञानिकों के नामों की घोषणा की। इनमें एकमात्र महिला वैज्ञानिक डॉ. अदिति सेन डे को भौतिक विज्ञान में पुरस्कृत किया गया है।

इस वर्ष 3 अक्टूबर को एक विशेष समारोह में भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों को संयुक्त रूप से संयुक्त राष्ट्र के सर्वोच्च पर्यावरण पुरस्कार चैम्पियंस ऑफ दी अर्थ से सम्मानित किया गया। यह पुरस्कार पॉलिसी लीडरशिप के अंतर्गत प्रति वर्ष दिया जाता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को यह सम्मान पर्यावरण संरक्षण तथा जलवायु परिवर्तन के दुष्परिणामों पर रोक लगाने के प्रयासों में सराहनीय नेतृत्व के लिए प्रदान किया गया।

केंद्र सरकार के विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग ने पहली बार विज्ञान के विभिन्न विषयों में पीएच.डी. और पोस्ट डॉक्टरल शोधकर्ताओं में लोकप्रिय विज्ञान लेखन के कौशल को बढ़ावा देने की एक परियोजना आगमेंटेड राइटिंग स्किल्स फॉर आर्टिक्युलेटिंग रिसर्च (संक्षेप में अवसर) शुरू की। इस राष्ट्रीय प्रतियोगिता का उद्देश्य अखबारों, पत्रिकाओं, ब्लॉग्स, सोशल मीडिया आदि माध्यमों से विज्ञान को लोकप्रिय बनाना और समाज में वैज्ञानिक दृष्टिकोण विकसित करना है। प्रतियोगिता में चुने गए आलेखों को राष्ट्रीय विज्ञान दिवस पर पुरस्कृत किया जाएगा।

अक्टूबर में लखनऊ में चौथा भारतीय अंतर्राष्ट्रीय विज्ञान महोत्सव आयोजित किया गया, जिसमें नवाचारों और अनुसंधान कार्यों पर विचारों का आदान-प्रदान हुआ। चार-दिवसीय महोत्सव के दौरान साइंस एक्सपो में अंतरिक्ष विज्ञान और आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस पर आधारित मॉडल ने दर्र्शकों को आकर्षित किया। विज्ञान महोत्सव में लगभग छह सौ विद्यार्थियों ने एक साथ केले का डीएनए अणु अलग करके एक नया इतिहास रचा। इसी प्रकार करीब साढ़े तीन हज़ार विद्यार्थियों ने प्राथमिक उपचार का डेमो देकर नया कीर्तिमान स्थापित किया। सम्मेलन में इंटरनेशनल साइंस लिटरेचर एंड फिल्म फेस्टिवल आयोजित किया गया, जिसमें विज्ञान फिल्मों और साइंस कार्टून शामिल किए गए।

गुज़रे साल संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन ने सिक्किम को जैविक राज्य के रूप में मान्यता देते हुए स्वर्ण पदक से सम्मानित किया। वर्ष 2016 में सिक्किम को पूरी तरह जैविक राज्य घोषित किया गया था। विदा हो चुके वर्ष 2018 में प्लास्टिक के खिलाफ महाअभियान जारी रहा। संयुक्त राष्ट्र की बीट प्लास्टिक पोल्यूशन थीम पर देश के विश्वविद्यालयों में प्लास्टिक के इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगाया गया।

इसी वर्ष 14 सितंबर को सुप्रीम कोर्ट ने वरिष्ठ अंतरिक्ष वैज्ञानिक शंकरलिंगम नम्बी को गोपनीय जानकारियां बेचने के आरोपों से मुक्त कर दिया। उन पर 1994 में इसरो की गोपनीय सूचनाएं पाकिस्तान को बेचने के आरोप लगाए गए थे।

इसी साल केरल के कोझिकोड ज़िले में निपाह वायरस का प्रकोप दिखाई दिया। 1998 में पहली बार इस वायरस के हमले का पता चला था। निपाह वायरस को फैलाने में चमगादड़ों की अहम भूमिका रही है। निपाह वायरस का नामकरण मलेशिया के सुनगई निपाह गांव के नाम पर किया गया है।

नवंबर में देश की पहली परमाणु पनडुब्बी आईएनएस अरिहंत राष्ट्र को समर्पित की गई।

गुज़रे साल देश में मेट्रिक प्रणाली लागू होने की हीरक जयंती मनाई गई। मेट्रिक प्रणाली एक अप्रैल 1957 से लागू की गई है। इसी वर्ष विख्यात वैज्ञानिक सत्येंद्र नाथ बोस की 125 वीं जयंती मनाई गई। इस अवसर पर कोलकाता में आयोजित समारोह में मुख्य अतिथि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने क्षेत्रीय भाषाओं में विज्ञान प्रसार पर बल दिया। 29 जून को जाने-माने सांख्यिकीविद् प्रोफेसर महालनोबिस की 125 वीं जयंती मनाई गई।

इस वर्ष भारतीय गणित की विलक्षण प्रतिभा तथा शिक्षा शास्त्री पी. सी. वैद्य का जन्म शती वर्ष मनाया गया। 23 मार्च 1918 को जन्मे वैद्य ने सापेक्षता सिद्धांत के अनेक पक्षों पर अनुसंधान किया। उन्होंने गांधीवादी विचारों को अपनाते हुए पूरा जीवन गणित के अध्ययन और अनुसंधान को समर्पित कर दिया। वैद्य ने गुजरात गणित मंडल की स्थापना की। वे गुजरात विश्वविद्यालय के कुलपति भी रहे।

18 जून को विख्यात वनस्पति विज्ञानी और विज्ञान संचारक एच. वाई. मोहनराम नहीं रहे। उनका नाम देश के प्रथम पंक्ति के वनस्पतिविदों में गिना जाता है। उन्होंने वनस्पति शास्त्र की अनेक विधाओं में विशेष योगदान किया। प्रोफेसर मोहनराम ने ऊतक संवर्धन तकनीक से बांस, केला आदि आर्थिक महत्व की वनस्पतियों को पैदा करने की दिशा में शोधकार्य किया और अपनी विशिष्ट पहचान बनाई। उन्होंने विद्यार्थियों और सामान्य जन के बीच विज्ञान को लोकप्रिय बनाने में भी सक्रिय भूमिका निभाई।

प्रसिद्ध खगोल फोटोग्राफर और विज्ञान संचारक चंदर देवगन की 29 जुलाई को मृत्यु हो गई। उन्होंने अनेक ग्रहण अभियानों का कुशल नेतृत्व किया। वे सूर्य व चंद्र ग्रहण, बुध और शुक्र के पारगमन सहित कई दुर्लभ खगोलीय घटनाओं के साक्षी बने थे।

वर्ष 2018 में हमने पर्यावरणविद प्रोफेसर गुरुदास अग्रवाल को खो दिया। उन्होंने गंगा नदी प्रवाह को निरतंर बनाए रखने के लिए चार दशकों तक संघर्ष किया। पेशे से इंजीनियर प्रोफेसर अग्रवाल ने आईआईटी, कानपुर में अध्यापन किया। वे कई पर्यावरण आंदोलनों से जुड़े रहे। उन्हें गंगा नदी प्राधिकरण का अध्यक्ष नियुक्त किया गया था।

6 जुलाई को पर्यावरणविद, चित्रकार और लेखक अमृतलाल वेगड़ नहीं रहे। वे संवेदनशील चित्रकार थे। उन्होंने नर्मदा नदी पर तीन किताबें लिखीं – सौंदर्य की नदी नर्मदा, अमृतस्य नर्मदा और तीरे-तीरे नर्मदा। नर्मदा नदी से उनका जीवन पर्यंत विशेष लगाव रहा। उन्होंने नदियों को बचाने की चिंता की और अपनी अलग पहचान बनाई। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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जीवन की शुरुआत के और नज़दीक पहुंचे रसायनज्ञ

किसी समय पृथ्वी पर वे हालात बने होंगे जब ऐसे अणुओं का निर्माण हुआ होगा जिन्हें जीवन की ओर पहला कदम माना जा सके। वैज्ञानिकों के बीच लगभग आम सहमति है कि यह अणु राइबोन्यूक्लिक एसिड (यानी आर.एन.ए.) रहा होगा। आर.एन.ए. एक ऐसा अणु है जो सूचनाओं का संग्रह कर सकता है, और रासायनिक क्रियाओं को गति दे सकता है। यह अणु चार मूल अणुओं का पोलीमर है। तो सवाल है कि शुरुआत में ये चार मूल अणु या न्यूक्लिक एसिड कैसे बने थे।

आर.एन.ए. के निर्माण के ये चार अणु हैं सायटोसीन, यूरेसिल, एडीनीन और ग्वानीन। सायटोसीन और यूरेसिल को पिरिमिडीन कहते हैं और एडीनीन व ग्वानीन प्यूरिन हैं। वैज्ञानिक यह समझने की कोशिश करते रहे हैं कि पृथ्वी पर सूदूर अतीत में मौजूद हालात में इन अणुओं का निर्माण सामान्य रासायनिक क्रियाओं से हो सकता है या नहीं।

वर्ष 2009 में कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के जॉन सदरलैंड के नेतृत्व में रसायनज्ञों के एक दल ने प्रयोगशाला में उन परिस्थितियों को निर्मित किया जो पृथ्वी के शुरुआती वातावरण में रही होंगी, ऐसा माना जाता है। इस प्रयोग में उन्होंने पांच ऐसे रसायन मिलाए थे जो उस समय पृथ्वी पर मौजूद रहे होंगे। प्रयोग में सायटोसीन और यूरेसिल (यानी पिरिमिडीन) बन गए।

फिर लगभग 2 वर्ष पूर्व जर्मनी के लुडविग मैक्सीमिलन विश्वविद्यालय के थॉमस कैरल और उनके सहयोगियों ने एक आसान से प्रयोग में प्यूरिन्स (एडीनीन और ग्वानीन) बनने की खबर दी।

इन प्रयोगों से स्पष्ट हो गया कि आर.एन.ए. की निर्माण इकाइयां सामान्य रासायनिक क्रियाओं के दौरान बन सकती हैं। मगर एक सवाल यह था कि यदि ये इकाइयां अलग-अलग जगहों पर बनीं तो फिर आर.एन.ए. का संश्लेषण कैसे हुआ होगा। अब कैरल की टीम ने इस सवाल का जवाब पा लिया है। ओरिजिन ऑफ लाइफ वर्कशॉप में उन्होंने अपने प्रयोगों का ब्यौरा दिया है।

कैरल की टीम ने 6 सरल पदार्थों के साथ काम किया – ऑक्सीजन, नाइट्रोजन, मीथेन, अमोनिया, पानी और हाइड्रोजन सायनाइड। ये सभी शुरुआती धरती पर मौजूद रहे होंगे। इन पदार्थों की रासायनिक क्रियाओं की एक पूरी खाद्य शृंखला के बाद कैरल प्यूरिन्स और पिरिमिडीन्स दोनों समूह के यौगिक एक ही परखनली में बनाने में सफल रहे हैं। यानी यह समस्या तो सुलझ गई कि ये चारों इकाइयां एक स्थान पर कैसे बनी होंगी। लेकिन अभी भी एक बड़ी समस्या बाकी है – इन चारों इकाइयों को लंबी खाद्य शृंखलाओं में जोड़कर आर.एन.ए. कैसे बना होगा। अगला कदम वही समझने का होगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.youtube.com/watch?v=ofFhHcvasHA

 

 

रसायन में जैव विकास के सिद्धांत और नोबेल – डॉ. सुशील जोशी

इस वर्ष का रसायन शास्त्र का नोबेल पुरस्कार तीन वैज्ञानिकों को मिला है। इन्होंने अणुओं के संश्लेषण के लिए जैव विकास के सिद्धांतों का उपयोग किया है और आश्चर्यजनक परिणाम हासिल किए हैं। इस तरह से निर्मित अणुओं के कई व्यावहारिक उपयोग भी सामने आए हैं।

पुरस्कार की आधी राशि कैलिफोर्निया इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी की फ्रांसेस अरनॉल्ड को दी जाएगी जबकि शेष आधी राशि मिसौरी विश्वविद्यालय के जॉर्ज स्मिथ और एम.आर.सी. लैबोरेटरी ऑफ मॉलीक्यूलर बायोलॉजी के ग्रेगरी विंटर के बीच बंटेगी।

अरनॉल्ड एक प्रोटीन इंजीनियर हैं। प्रोटीन वे अणु हैं जो जीवन की हर क्रिया के लिए उत्तरदायी होते हैं। एंज़ाइम भी प्रोटीन ही होते हैं और शरीर की विभिन्न रासायनिक क्रियाओं में उत्प्रेरक की भूमिका निभाते हैं। अरनॉल्ड नएनए एंज़ाइम बनाना चाहती थीं जो नए किस्म की रासायनिक क्रियाओं को अंजाम दे सकें। इसके लिए पहले तो उन्होंने रासायनिक तर्क पर आधारित क्रमबद्ध तरीका अपनाया।

एंज़ाइम विशाल अणु होते हैं जो अमीनो अम्लों की शृंखला से बने होते हैं। तार्किक रूप से एंज़ाइम में एकएक अमीनो अम्ल को बदलकर देखा जा सकता है कि इसका एंज़ाइम की क्रिया पर क्या असर होता है। किंतु यह पता करना मुश्किल होता है कि किसी एक अमीनो अम्ल को बदलने से या पूरे अणु के तह होने के बिंदु को एक जगह हटाकर दूसरी जगह कर देने का उसके कार्य पर क्या असर होगा। गौरतलब है कि एंज़ाइम की क्रिया काफी हद तक इस बात पर निर्भर करती है कि उसका अणु सही जगहों पर मुड़कर तह बना ले। कुल मिलाकर एंज़ाइम बनाने की यह तार्किक प्रक्रिया काफी लंबी और श्रमसाध्य होगी।

तो अरनॉल्ड ने जीव विज्ञान का रुख किया। सजीवों में लगातार परिवर्तन होते रहते हैं और नएनए अणु बनते रहते हैं। जैव विकास की प्रक्रिया में यह साधारण बात है। और अणु बनाने की प्रक्रिया डीएनए के निर्देशन में चलती है। यदि डीएनए के कोड में कोई परिवर्तन हो जाए तो वह परिवर्तन उससे बनाए जाने वाले अणु में नज़र आता है। तो अरनॉल्ड जिस एंज़ाइम का अध्ययन करना चाहती थीं उसके जीन को उन्होंने एक बैक्टीरिया में रोप दिया। यह तो सर्वविदित है कि बैक्टीरिया काफी तेज़ी से विभाजन करते हैं। जब बैक्टीरिया का विभाजन होता है तो डीएनए की प्रतिलिपि बनाई जाती है और दोनों नई कोशिकाओं को एकएक प्रतिलिपि मिल जाती है। प्रतिलिपि बनाने की इस प्रक्रिया में डीएनए में फेरबदल (उत्परिवर्तन) भी होते हैं। इस तरह से यदि आप किसी एंज़ाइम का जीन बैक्टीरिया के डीएनए में फिट कर दें तो वह उसकी प्रतिलिपि बनाएगा, और काफी संभावना है कि प्रतिलिपि बनाने की इस प्रक्रिया में जीन में परिवर्तन होंगे और फिर उसी के अनुरूप एंज़ाइम की रचना में भी परिवर्तन हो जाएंगे।

वास्तविक प्रयोग में अरनॉल्ड इस प्रक्रिया से बैक्टीरिया की तीसरी पीढ़ी में ऐसा एंज़ाइम प्राप्त कर पार्इं जो मूल एंज़ाइम से 200 गुना अधिक असरदार था। कई लोगों का ख्याल था कि यह विज्ञान नहीं बल्कि ताश के पत्ते फेंटने जैसी बाज़ीगरी है।

बहरहाल, इसी क्रम में अगला नवाचार विलियम स्टेमर की प्रयोगशाला में हुआ। स्टेमर ने डीएनए फेंटने नामक तकनीक का ही सहारा लिया। उन्होंने एक ही जीन के विभिन्न रूप लिए और उनके टुकड़ों को मिलाकर एक नया परिवर्तित रूप तैयार कर लिया। स्टेमर भी इस साल के नोबेल में शरीक होते किंतु यह पुरस्कार सिर्फ जीवित व्यक्तियों को दिया जाता है। स्टेमर का निधन 2013 में हो गया था।

अरनॉल्ड और स्टेमर की इन तकनीकों के इस्तेमाल से डिटरजेंट्स में दागधब्बे हटाने वाला एंज़ाइम जोड़ा गया है और जैवर्इंधन के उत्पादन में भी इनके उपयोग की उम्मीद है।

पुरस्कार का शेष आधा हिस्सा स्मिथ और विंटर को दिया गया है। उनका काम भी जैविक पदार्थों के संश्लेषण से जुड़ा है। 1980 के दशक में बैक्टीरियाभक्षी वायरसों के उपयोग से किसी जीन का क्लोनिंग करना संभव हो गया था। जीन क्लोनिंग का मतलब है कि आप कोई जीन किसी बैक्टीरियाभक्षी के जीनोम में जोड़ दें और फिर उस वायरस को किसी बैक्टीरिया को संक्रमित करने दें। वायरस उस बैक्टीरिय़ा की पूरी मशीनरी पर कब्ज़ा कर लेगा और अपनी प्रतिलिपियां बनाएगा और साथसाथ आपके द्वारा जोड़े गए जीन की भी प्रतिलिपियां बन जाएंगी। वायरस दरअसल एक डीएनए होता है जो एक प्रोटीन आवरण में लिपटा होता है।

स्मिथ का विचार था कि इस तरीके का उपयोग करते हुए हम किसी ज्ञात प्रोटीन के अज्ञात जीन का पता लगा सकते हैं। उस समय तक जीन्स के कई संग्रह उपलब्ध हो चुके थे जिनमें कई जीन्स के खंड रखे जाते थे। स्मिथ ने सोचा कि यदि आप इनमें से कुछ खंडों को जोड़कर एक जीन बना लें और फिर उसे वायरस के उस जीन के साथ जोड़ दें जो उसके आवरण का हिस्सा है तो उस अज्ञात जीन द्वारा बनाया जाने वाला प्रोटीन या प्रोटीनखंड (पेप्टाइड) उस वायरस की प्रतिलिपियों के बाह्र आवरण पर प्रकट हो जाएगा।

इस तरह से करने पर वायरस की जो अगली पीढ़ी बनेगी उनकी सतह पर तमाम प्रोटीन नज़र आएंगे। स्मिथ का विचार था कि इनमें से ज्ञात प्रोटीन या पेप्टाइड वाले वायरस को अलग करने में एंटीबॉडी की मदद ली जा सकेगी।

एंटीबॉडी प्रतिरक्षा तंत्र द्वारा बनाए जाने वाले प्रोटीन होते हैं जो किसी विशिष्ट अणु से जुड़ जाते हैं। स्मिथ को लगा कि यदि आवरण पर विभिन्न प्रोटीन का प्रदर्शन करने वाले वायरसों को ज्ञात एंटीबॉडी के संपर्क में लाया जाएगा तो उससे सम्बंधित अणु प्रदर्शित करने वाला वायरस उससे जुड़ जाएगा। इस तरह से हमें पता चल जाएगा कि जो जीनखंड जोड़ा गया था वह किस प्रोटीन का कोड था।

लेकिन स्मिथ सिर्फ विचार करके नहीं रुके। उन्होंने अपने विचार का प्रायोगिक प्रदर्शन भी करके दिखाया। उन्होंने एक बैक्टीरियाभक्षी में एक ज्ञात प्रोटीन का जीन जोड़कर उसे बैक्टीरिया को संक्रमित करने दिया। जब वायरस की नई पीढ़ी तैयार हुए तो एंटीबॉडी की मदद से वे मनचाहे वायरस को अलग करने में सफल रहे। चूंकि जोड़े गए जीन का प्रोटीन वायरस के आवरण पर प्रकट (डिस्प्ले) होता है, इसलिए इस तकनीक को फेजडिस्प्ले तकनीक कहा जाता है।

मगर स्मिथ के शोध को उसकी मंज़िल तक पहुंचाने का काम विंटर ने किया। स्मिथ के द्वारा विकसित तकनीक का उपयोग करने के तरीके विंटर ने विकसित किए। विंटर ने इस तकनीक का उपयोग करके ऐसी एंटीबॉडीज़ तैयार करने में सफलता प्राप्त की जिनका उपयोग मल्टीपल स्क्लेरोसिस तथा कैंसर जैसी बीमारियों में किया जा सकता है। पारंपरिक दवाइयां में तो कोशिकाओं के अंदर चल रही प्रक्रियाओं को बदलने के लिए छोटेछोटे अणुओं का उपयोग किया जाता है। औषधि के रूप में एंटीबॉडी का उपयोग अधिकांश दवा निर्माताओं के सोच में नहीं था।

विंटर ने किया यह कि किसी एंटीबॉडी को बनाने वाला जीन बैक्टीरियाभक्षी वायरस के जीनोम में जोड़ दिया। जैसा कि हम देख ही चुके हैं, एंटीबॉडी भी प्रोटीन या पेप्टाइड ही होती हैं। इसके बाद बैक्टीरिया को अपने हाल पर छोड़ दिया गया। बैक्टीरिया ने उसे संक्रमित करने वाले वायरस की प्रतिलिपियां बनार्इं जिनकी सतह पर एंटीबॉडी डिस्प्ले हुई। इनमें से मनचाही एंटीबॉडी को अलग करने के लिए अन्य अणुओं की मदद ली गई जो किसी एंटीबॉडी विशेष से जुड़ते हों।

एक बार यह विधि प्रायोगिक रूप से सफल हो गई तो विंटर ने इसमें जैव विकास का आयाम जोड़ दिया। उन्होंने कई सारे बैक्टीरियाभक्षी वायरस तैयार किए जिनकी सतह पर अलगअलग एंटीबॉडी उपस्थित थी। अब इनमें से उन वायरसों को अलग किया गया जो सही लक्ष्य से सबसे मज़बूती से जुड़ते थे। इसके बाद इन वायरसों को बैक्टीरिया को संक्रमित करके संख्यावृद्धि करने दिया गया और हर बार उनमें से सबसे सशक्त ढंग से लक्ष्य से जुड़ने वाले वायरसों को पृथक किया गया।

इस विधि से जो पहली एंटीबॉडी औषधि बनाई गई उसका नाम था एडेलिम्यूनैब। इसका उपयोग गठिया, सोरिएसिस और आंतों की शोथ के लिए किया जाता है। कुछ एंटीबॉडीज़ का इस्तेमाल कैंसर कोशिकाओं को मारने, ल्यूपस नामक आत्मप्रतिरक्षा रोग की प्रगति को थामने तथा एंथ्रेक्स में किया जा रहा है। कई अन्य एंडीबॉडीज़ परीक्षण के चरण में हैं।

एक मायने में इन तीनों शोधकर्ताओं ने जैविक संश्लेषण की विधि में वैकासिक आयाम जोड़कर एक नया धरातल तैयार किया है। और नोबेल पुरस्कार उनके कार्य में अवधारणात्मक नवीनता तथा सादगी के परिणामस्वरूप दिया गया है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।