धंसती भूमि: कारण और परिणाम (2)

हिमांशु ठक्कर

कारण और समाधान

भूमि धंसाव का आकलन करने के लिए सबसे पहला कदम यह सिद्ध करना है कि कोई क्षेत्र वास्तव में धंस रहा है। भूमि धंसाव मैदानी इलाकों में स्पष्ट नहीं दिखता, खास कर तब जब धंसाव नुमाया न हो और इमारतों या ढांचों में कोई क्षति (दरारें, झुकाव) न दिखे। आम तौर पर धंसाव का जो असर दिखाई देता है, उसे धंसाव का परिणाम मानने के बजाय जलवायु परिवर्तन-जनित समुद्र स्तर में वृद्धि के परिणाम के रूप में देखा जाता है। कुल धंसाव को समझने के लिए भूसतह के उठाव के माप को स्थानीय स्तर के वास्तविक मापों के साथ जोड़कर देखना चाहिए।

भूमि धंसाव दर का पता लगाने के लिए मापन की सटीक तकनीकों की आवश्यकता होती है। इसमें उपयोग की जाने वाली कुछ विधियां हैं: ऑप्टिकल लेवलिंग; ग्लोबल पोज़ीशनिंग सिस्टम (GPS) सर्वेक्षण; लेज़र इमेजिंग डिटेक्शन एंड रेंजिंग (LIDAR); इंटरफेरोमेट्रिक सिंथेटिक अपर्चर रडार (InSAR) सैटेलाइट इमेजरी। ये सभी तकनीकें भूमि सतह के उन्नयन में परिवर्तन को नापती हैं, लेकिन धंसाव के कारण के बारे में कोई जानकारी नहीं देती हैं।

किसी भी शहर में धंसाव के कारक और उनके परिमाण का आकलन करने के लिए विस्तृत शोध की आवश्यकता होती है। अगला कदम, मॉडलिंग और पूर्वानुमान उपकरणों का उपयोग करके धंसाव के विभिन्न कारकों का विभिन्न परिदृश्यों में भावी भूमि धंसाव का अनुमान और उसके कारण होने वाले संभावित नुकसान का अनुमान लगाना होता है।

भूमि धंसाव के कारण प्राकृतिक और मानवजनित दोनों हो सकते हैं। शहरी क्षेत्रों के कुल भूमि धंसाव में सबसे अधिक योगदान मानव प्रेरित भूमि धंसाव का है। भूमि धंसाव की घटना तब होती है जब आम तौर पर उपसतही जल, पत्थर/चट्टानें, तेल, गैस या कोयला जैसे अन्य संसाधनों के निष्कर्षण के कारण भूमि समुद्र तल के सापेक्ष नीचे धंस जाती है। भूमिगत टेक्टोनिक्स प्लेट भी भूमि धंसाव का कारण बन सकती हैं। और भूमि धंसाव का सबसे बड़ा कारण संभवत: भूजल का अत्यधिक निष्कर्षण है। हालांकि तटीय इलाकों में, बढ़ते तापमान के कारण ग्लेशियरों और बर्फीले टीलों के पिघलने एवं समुद्र जल के प्रसार के चलते बढ़ते जलस्तर के सापेक्ष ज़मीन का धंसना धंसाव का प्रमुख कारक है।

ताज़ा शोध कई प्राकृतिक और मानवीय कारकों को धंसाव के साथ जोड़ता है, जैसे शहर के चट्टानी पेंदे की गहराई, भूजल की कमी, इमारतों का वज़न, परिवहन प्रणालियों का उपयोग और भूमिगत खनन। कुछ अध्ययनों में पाया गया है कि अत्यधिक भूजल निष्कर्षण दुनिया भर के शहरों में भीषण भूमि धंसाव का एक प्रमुख कारण है। मकाऊ और हांगकांग जैसे शहरों में, जहां भूजल का उपयोग नहीं किया जाता है, भूमि सुधार के बाद धंसाव मुख्य रूप से मिट्टी के दबकर ठोस होते जाने के कारण होता है।

वर्तमान में, वैश्विक समुद्र स्तर में निरपेक्ष वृद्धि औसतन 3 मि.मी. प्रति वर्ष के करीब है। जलवायु परिवर्तन परिदृश्यों पर अंतर-सरकारी पैनल के आधार पर अनुमान है कि वर्ष 2100 तक वैश्विक समुद्र स्तर में औसत निरपेक्ष वृद्धि 3-10 मि.मी. प्रति वर्ष होगी। वर्तमान में बड़े तटीय शहरों की धंसाव दर 6 मि.मी. -10 सें.मी. प्रति वर्ष है। इससे लगता है कि समुद्र स्तर में वृद्धि तटीय धंसाव के कई कारणों में से सिर्फ एक कारण है। अध्ययन का निष्कर्ष है, “कई तटीय और डेल्टा शहरों में भूमि धंसाव अब सिर्फ समुद्र स्तर में वृद्धि से दस गुना अधिक है।”

बड़े बांधों की भूमिका

डेल्टा शहरों या क्षेत्रों में होने वाले धंसाव में बड़े बांधों की भी भूमिका है। यह जानी-मानी बात है कि डेल्टा क्षेत्रों में होने वाले धंसाव का एक प्रमुख कारण है डेल्टा तक पहुंचने वाली गाद में भारी कमी आना। अध्ययनों का अनुमान है कि पिछली शताब्दी में विभिन्न नदियों के साथ डेल्टा तक पहुंचने वाली गाद में कमी आई है (देखें तालिका)।

नदीडेल्टा तक पहुंचने वाली गाद में आई कमी
कृष्णा94 प्रतिशत
नर्मदा95 प्रतिशत
सिंधु80 प्रतिशत
कावेरी80 प्रतिशत
साबरमती96 प्रतिशत
महानदी74 प्रतिशत
गोदावरी74 प्रतिशत
ब्राम्हणी50 प्रतिशत

गंगा-ब्रह्मपुत्र डेल्टा का ही उदाहरण लें। गंगा-ब्रह्मपुत्र डेल्टा दुनिया के सबसे बड़े डेल्टा में से एक है। इनके जलभराव क्षेत्र में हवा और बारिश के कारण हिमालयी पर्वतों का कटाव/घिसाव होता है। फलस्वरूप ये विशाल नदियां हर साल बंगाल की खाड़ी में एक अरब टन से अधिक गाद पहुंचाती थीं। कुछ स्थानों पर आखिरी हिमयुग के समय से जमा तलछट एक कि.मी. से अधिक मोटी है। सभी डेल्टाओं में यह भुरभुरी सामग्री आसानी से संपीड़ित हो जाती है, नतीजतन भूमि धीरे-धीरे धंसती जाती है और सापेक्ष समुद्र स्तर बढ़ता जाता है।

ज्वार और तूफान भी डेल्टा का क्षय करते हैं। पहले, नदियों के साथ हर साल बहकर वाली गाद डेल्टा की क्षतिपूर्ति करती रहती थी। लेकिन नदियों पर बने बड़े बांधों ने पानी का बहाव मोड़ दिया और गाद के बहकर आने को रोक दिया है। इसलिए तटीय भूमि अब पुनर्निर्मित नहीं हो रही है। 2009 के एक अध्ययन में पाया गया था कि 21वीं सदी के पहले दशक में दुनिया के 85 प्रतिशत सबसे बड़े डेल्टाओं ने भयंकर बाढ़ का सामना किया। नदी और समुद्र से भूमि की रक्षा करने वाले तटबंध भी डेल्टा को गाद की ताज़ा आपूर्ति से वंचित कर सकते हैं।

1762 में 8.8 तीव्रता से आए भूकंप के कारण बांग्लादेश के दक्षिण-पूर्वी शहर चटगांव के आसपास की भूमि कई मीटर तक धंस गई थी; सुंदरबन में ऐसा लगता है कि यह कम से कम 20 सें.मी. नीचे चला गया है। भूकंप विज्ञानियों का अनुमान है कि इस टेक्टोनिक रूप से अस्थिर क्षेत्र में एक और बड़ा भूकंप कभी भी आ सकता है, और जब यह आएगा तो यह ढाका और चटगांव जैसे खराब तरीके से निर्मित, खचाखच भरे शहरों को तबाह कर देगा। यह डेल्टा के कुछ-कुछ हिस्सों को एक झटके में इतना नीचे धंसा सकता है, जितना कि दशकों में धीमे-धीमे समुद्र-स्तर वृद्धि और गाद दबने के कारण हुआ था।

दोहरी मार

जैसे-जैसे शहर नीचे धंस रहे हैं, जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के कारण वैश्विक समुद्र स्तर भी बढ़ रहा है। इस दोहरी मार के कारण 2120 तक चीन की 22-26 प्रतिशत तटीय भूमि समुद्र तल से नीचे होगी। जलवायु परिवर्तन अन्य तरीकों से भी भूस्खलन बढ़ा सकता है; जैसे इस बात का असर पड़ेगा कि बारिश कहां और कब होगी, या नहीं होगी। सूखे के कारण भूजल का उपयोग बढ़ सकता है, जिससे भूस्खलन अधिक और तेज़ हो सकता है।

परिणाम

भूमि के असमान धंसाव से बाढ़ की संभावना (बाढ़ की आवृत्ति, जलप्लावन की गहराई और बाढ़ की अवधि) बढ़ जाती है। बाढ़ के कारण बड़े पैमाने पर मानवीय, सामाजिक और आर्थिक नुकसान होते हैं। धंसाव के कारण समुद्री जल भूमि पर अंदर भी आ सकता है, जिससे भूजल दूषित हो सकता है।

इसके अलावा, भूमि में असमान परिवर्तन के कारण भवन आदि निर्माणों की क्षति और इन्फ्रास्ट्रक्चर के रखरखाव की उच्च लागत के रूप में काफी आर्थिक नुकसान होता है। इसके कारण सड़क और परिवहन नेटवर्क, हाइड्रोलिक निर्माण, नदी तटबंध, नहर आदि के गेट, बाढ़ अवरोधक, पंपिंग स्टेशन, सीवेज सिस्टम, इमारत और नींव प्रभावित होती हैं। कुल मिलाकर जल प्रबंधन बाधित होता है। जिन शहरों में इस तरह के निर्माण/संरचना क्षतिग्रस्त हुए हैं उनमें शामिल हैं न्यू ऑरलियन्स (यूएसए), वेनिस (इटली) और एम्स्टर्डम (नेदरलैंड)। उत्तरी नेदरलैंड में, गैस के अत्यधिक दोहन के कारण भी भूकंपीय गतिविधियों में वृद्धि आई है।

दुनिया भर में इसके चलते सालाना अरबों डॉलर का नुकसान हो जाता है। और ऐसे प्रमाण हैं कि धंसाव और उससे होने वाली क्षति दोनों ही बढ़ेंगी। धंसाव का मतलब यह भी है कि तूफानी लहरों, तूफानों व टाइफून और वर्षा में होने वाले परिवर्तनों का प्रभाव बढ़ेगा।

धंसाव से जुड़े आर्थिक खामियाज़े का अनुमान लगाना जटिल है। फिर भी मोटे तौर पर कुछ अनुमान लगाए गए हैं। उदाहरण के लिए, चीन में धंसाव के कारण प्रति वर्ष होने वाला कुल आर्थिक नुकसान औसतन लगभग 1.5 अरब डॉलर है, जिसमें से 80-90 प्रतिशत अप्रत्यक्ष क्षति के कारण है। शंघाई में, 2001-2010 के दौरान, कुल नुकसान लगभग 2 अरब डॉलर था। नेदरलैंड में, यह गणना की गई है कि अब तक (धंसाव के कारण) नींव को नुकसान 5.4 अरब डॉलर से अधिक रहा है, और 2050 तक यह नुकसान 43 अरब डॉलर तक पहुंच सकता है।

समाधान

ऐसे कई शहरों के उदाहरण हैं जहां धंसाव को थामने के कारगर उपाय अपनाने के बाद धंसाव कम हुआ है या रुक गया है। टोकियो में भूजल दोहन को सीमित करने वाले कानून पारित होने के बाद धंसाव की दर कम हुई है – 1960 के दशक में वहां धंसाव की दर प्रति वर्ष 240 मि.मी. थी जो कानून पारित होने के बाद 2000 के दशक की शुरुआत में लगभग 10 मि.मी. प्रति वर्ष रह गई। बैंकॉक-थाईलैंड में, भूजल दोहन पर नियंत्रण और प्रतिबंध ने गंभीर भूमि धंसाव को काफी कम कर दिया है।

शंघाई 1921 से 1965 के बीच 2.6 मीटर तक धंस गया था। वहां कई पर्यावरणीय नियम-कायदे लागू करके धंसाव की वार्षिक दर को लगभग 5 मि.मी. तक कम कर दिया गया। यहां सक्रिय भूजल रिचार्ज तकनीकों के ज़रिए भूजल स्तर को बहाल किया गया था। शंघाई का मामला दर्शाता है कि सक्रिय और पर्याप्त भूजल रिचार्ज करके गंभीर धंसाव की स्थिति बनाए बिना टिकाऊ भूजल उपयोग संभव है, बशर्ते भूजल के औसत वार्षिक दोहन और औसत वार्षिक रिचार्ज के बीच संतुलन हो। ये प्रयास धंसाव की समस्या से ग्रस्त चीन के अन्य शहरों को एक रास्ता दिखाते हैं।

यदि उपाय देर से लागू किए जाएं तो अतिरिक्त धंसाव हो सकता है। धंसाव या इसके प्रभावों को कम करने के लिए अपनाए गए उपायों के लिए, इन प्रयासों की प्रभावशीलता की सतत निगरानी ज़रूरी है।

शहरों के धंसाव को थामने के लिए दो संभावित नीतिगत रणनीतियां हैं: शमन और अनुकूलन। किसी भी नीति में दोनों को शामिल करना ज़रूरी है। मानव-जनित धंसाव के लिए शमन कारगर है। विशिष्ट शमन उपायों में भूजल निष्कर्षण पर प्रतिबंध और जल भंडारों को रिचार्ज करना शामिल है। इसी तरह जब धंसाव गैस या अन्य संसाधनों के दोहन के कारण हो रहा हो तो इनके दोहन पर प्रतिबंध कारगर हो सकता है। हल्की सामग्री से भवन आदि का निर्माण करने से नरम मिट्टी पर भार कम पड़ता है, जिससे दबना और धंसना कम होता है। गाद या नदियों के ऊपर बने बांधों को हटाने से गाद से वंचित डेल्टा शहरों को मदद मिल सकती है।

शमन के उपाय पर्याप्त न हों, तो साथ-साथ अनुकूलन रणनीतियों पर भी विचार किया जा सकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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जलवायु पर कार्रवाई के लिए रोल-प्ले

जैसे-जैसे जलवायु संकट गहराता जा रहा है, इस पर कार्रवाई के लिए प्रभावी तरीके खोजना उतना ही अर्जेंट होता जा रहा है। इस सम्बंध में एक आशाजनक साधन रोल-प्लेइंग गेम (आरपीजी) हो सकता है। ये गेम खिलाड़ियों को एक आभासी वातावरण में जटिल स्थितियों से निपटने का काम देता है जिससे उन्हें वास्तविक दुनिया पर खतरा पैदा किए बिना अपने उपायों के दीर्घकालिक प्रभावों को समझने में मदद मिलती है। इस सम्बंध में नेचर में सैम इलिंगवर्थ ने कुछ सुझाव प्रस्तुत किए हैं।

यथार्थ विश्व में निर्णय

यह बहुत ही दिलचस्प खेल है जिसमें आपको एक निर्णायक व्यक्ति की भूमिका में रखा जाता है। उदाहरण के लिए मान लीजिए कि आप एक तटीय शहर के मेयर हैं, और आपको यह तय करना है कि भविष्य में बाढ़ से बचने के लिए समुद्र की दीवार कितनी ऊंची बनाई जाए। इस निर्णय में आपको बाढ़ के जोखिम और दीवार के निर्माण की लागत के बीच संतुलन बनाना है। और वह भी यह जाने बिना कि समुद्र का स्तर कितनी तेज़ी से बढ़ेगा। ऐसे जटिल निर्णय लेने वाले परिदृश्यों को इस तरह रोल-प्ले के माध्यम से प्रभावी ढंग से समझा जा सकता है।

खेल-खेल में सीखना

‘टेराफॉर्मिंग मार्स’ (यानी मंगल का पृथ्वीकरण) जैसे खेल खिलाड़ियों को नैतिक दुविधाओं से परिचित कराते हैं। मसलन  संसाधन खर्च की प्राथमिकता अंतरिक्ष औपनिवेशीकरण हो या पृथ्वी पर समस्याओं को हल करना। इसके हर सत्र में इस बात पर तीखी बहस होती है कि मंगल जैसे किसी ग्रह पर हरित स्थानों का निर्माण करना और रहने योग्य शहर बनाना बेहतर होगा या यहां पृथ्वी की समस्याओं को दुरुस्त करना।

इसी तरह, इलिंगवर्थ ने गेम शोधकर्ता पॉल वेक और जलवायु चैरिटी पॉसिबल के साथ मिलकर ताश का एक खेल बनाया था – कार्बन सिटी ज़ीरो। इसमें प्रत्येक खिलाड़ी पहला शून्य कार्बन शहर बनाने के लिए प्रतिस्पर्धा करते थे। लेकिन इससे मिले फीड बैक से उन्हें समझ में आया कि प्रतिस्पर्धा वाला पहलू गलत संदेश देता है तो उन्होंने इसी खेल का नया संस्करण बनाया – ‘कार्बन सिटी ज़ीरो: वर्ल्ड एडिशन’। इसमें खिलाड़ी शून्य-कार्बन शहरों का निर्माण करने के लिए सहयोग करते हैं। यह खेल जलवायु संकट से निपटने में टीमवर्क की भूमिका को उजागर करता है।

मैजिक सर्किल की शक्ति

‘मैजिक सर्कल’ आधारित गेम्स में नियम लागू होते हैं। उदाहरण के लिए, ‘डे-ब्रेक’ नामक खेल में खिलाड़ी विश्व नेताओं की भूमिका निभाते हैं जो जलवायु परिवर्तन को कम करने के लिए मिलकर काम करते हैं। गेम में नियम लागू होते हैं जिनमें पर्यावरणीय लक्ष्य भी निर्धारित होते हैं और दंड का प्रावधान भी होता है। जैसे यदि उत्सर्जन कम नहीं किया जाता है तो दंड यह होता है कि वैश्विक तापमान बढ़ने लगता है और समुदायों पर संकट मंडराने लगता है।

लेकिन देखा गया है कि ऐसे खेल जिनमें एक तयशुदा प्रक्रिया हो और परिदृश्य भी सीमित हों, उनमें रचनात्मक समाधानों की गुंजाइश कम होती है। इस संदर्भ में, टेबल टॉप रोल प्ले खेल कहीं ज़्यादा लचीलापन और निजी अनुभव प्रदान करते हैं। खिलाड़ी गेम डिज़ाइनर के मार्गदर्शन में अपने पात्र और कहानी गढ़ते हैं। ‘डंजियन एंड ड्रैगन्स’ जैसे गेम खिलाड़ियों को अपने-अपने पात्र की पृष्ठभूमि कथा तैयार करने का मौका देते हैं, जो खेल के दौरान विकसित होती रहती है।

अध्ययनों से पता चलता है कि नियमित आरपीजी खिलाड़ी गैर-खिलाड़ियों की तुलना में अधिक समानुभूति प्रदर्शित करते हैं और अधिक समाज-हितैषी व्यवहार दर्शाते हैं। अधिक समानुभूति वाले लोग पर्यावरण-हितैषी निर्णयों पर अधिक ध्यान देते हैं, जैसे टिकाऊ उत्पादों का अधिक इस्तेमाल।

हालांकि, इस बात के स्पष्ट प्रमाण तो नहीं हैं कि आरपीजी का प्रत्यक्ष सम्बंध विशिष्ट पर्यावरणीय कार्रवाइयों से होता हैं लेकिन ऐसा लगता है कि समानुभूति को बढ़ावा देकर वे जलवायु कार्रवाई को प्रोत्साहित कर सकते हैं।

उपरोक्त संभावनाओं की प्रेरणा से ‘रूटेड इन क्राइसिस’ टेबलटॉप आरपीजी उभरा है जिसे शोधकर्ताओं, शिक्षकों और गेम डिज़ाइनरों की एक वैश्विक टीम ने विकसित किया है। इस गेम में जलवायु सम्बंधी प्रामाणिक जानकारी को कथा में गूंथा जाता है। जैसे, एक खेल में खिलाड़ियों को एक जादुई शहर में रखकर भयानक बाढ़ के बाद आपदा राहत पर बातचीत के लिए छोड़ दिया जाता है। या वे किसी आसन्न आपदा के साये में अंतरिक्ष में किसी स्थान की खोज करने जैसी विचित्र परिस्थिति का सामना करते हैं।

इस तरह के खेलों को अपनाने में कई दिक्कतें भी आती है। वैज्ञानिकों द्वारा समर्थित होने पर भी इन्हें अक्सर बचकाना माना जाता है। आलोचकों को यह भी चिंता है कि ऐसे खेल जटिल वैज्ञानिक डैटा और नीति सम्बंधी चर्चाओं का अतिसरलीकरण सकते हैं। इन चिंताओं को दूर करने के लिए, ‘रूटेड इन क्राइसिस’ में ऐसे परिदृश्य शामिल किए गए हैं जो वास्तविक दुनिया की जलवायु चुनौतियों को दर्शाते हैं। इसमें बढ़ते समुद्र स्तर पर शहर की प्रतिक्रिया का प्रबंधन करने, हितधारी समूहों का मुकाबला करने और सूखाग्रस्त क्षेत्रों में पानी के लिए बातचीत करने जैसे विषय शामिल किए गए हैं।

जलवायु परिवर्तन जैसे मुद्दों को संबोधित करने में खेलों की शक्ति कुछ लोगों के व्यक्तिगत अनुभवों से प्रमाणित हुई है। खेल अलग-अलग व्यक्तित्वों को अपनाने और विभिन्न स्थितियों में समानुभूति और समस्या-समाधान का अभ्यास करने के अवसर प्रदान करते हैं। (स्रोत फीचर्स)

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जलवायु परिवर्तन हवाई यात्रा को मुश्किल बना रहा है

पिछले दिनों सिंगापुर एयरलाइंस की उड़ान के वायु विक्षोभ (टर्बुलेंस) की गिरफ्त में आने और 1800 मीटर तक गिरते चले जाने की घटना काफी चर्चा में रही। इसने हवाई यात्रियों में चिंता (और दहशत) भर दी। साथ ही, इसमें जलवायु परिवर्तन की भूमिका की संभावना होने की बात भी सामने आई है।

गौरतलब है कि हवाई जहाज़ों का विक्षोभ का सामना करना एक आम घटना है, जिसके कई कारण हो सकते हैं। हवाई अड्डों के नज़दीक तेज़ हवाएं टेकऑफ और लैंडिंग के दौरान विमानों को थरथरा सकती हैं। ऊंचाई पर, तूफानी बादलों के बीच या उनके नज़दीक से गुज़रते समय विमानों को विक्षोभ का सामना करना पड़ सकता है। इन स्थानों पर तेज़ी से ऊपर और नीचे जाती हवाएं अस्थिरता पैदा करती हैं। इसके अतिरिक्त, पर्वत शृंखलाओं के ऊपर से गुज़रने वाले विमानों को पहाड़ों से उठने वाली हवाएं ऊपर धकेल सकती हैं। इसके अलावा पूरी धरती के इर्द-गिर्द मंडराने वाली शक्तिशाली पवन धाराओं (जेट स्ट्रीम) के सिरों पर हवाई जहाज़ विक्षोभ में फंस सकते हैं।

हो सकता है कि सिंगापुर एयरलाइंस की उड़ान ने तूफान से सम्बंधित विक्षोभ का सामना किया हो या क्लियर-एयर विक्षोभ का सामना किया हो। क्लियर-एयर विक्षोभ बादलों के बाहर होता है और इसका पता लगाना भी कठिन होता है। रीडिंग युनिवर्सिटी के वायुमंडलीय शोधकर्ता पॉल विलियम्स का कहना है कि इस घटना के कारण का पता लगाने के लिए और अधिक जांच की आवश्यकता है।

वैसे पिछले कुछ समय से इस बात के प्रमाण बढ़ रहे हैं कि जलवायु परिवर्तन के कारण विक्षोभ की घटनाएं अधिक होने के साथ गंभीर भी हो रही हैं। विलियम्स और उनके सहयोगियों के नेतृत्व में किए गए एक अध्ययन में 1979 और 2020 के बीच उत्तरी अटलांटिक पर क्लियर-एयर विक्षोभ में 55 प्रतिशत की वृद्धि देखी गई है। वैश्विक स्तर पर भी इसी तरह की वृद्धि देखी गई है। इस वृद्धि का कारण जलवायु परिवर्तन के कारण जेट स्ट्रीम्स का प्रबल होना बताया जा रहा है।

भविष्य के अनुमान और भी चिंताजनक हैं। जलवायु मॉडलों के आधार पर शोधकर्ताओं का अनुमान है कि जैसे-जैसे जलवायु गर्म होगी, गंभीर विक्षोभ की घटनाएं अधिक आम हो जाएंगी। साथ ही, गंभीर विक्षोभ की आवृत्ति भी दुगुनी हो सकती है, जिसके परिणामस्वरूप उड़ानों के दौरान असुविधा की स्थिति लगातार और लंबे समय तक हो सकती है। अलबत्ता, इसका मतलब यह नहीं है कि हवाई यात्राएं अधिक असुरक्षित हो जाएंगी।

वर्तमान में पायलट मौसम विशेषज्ञों से विक्षोभ अनुमान पता करते हैं और इस आधार पर सुरक्षित उड़ान मार्ग तय करते हैं। हवाई जहाज़ में उपस्थित रडार प्रणाली पानी की बूंदों का पता लगाकर तूफानी बादलों से बचने में मदद करती है, लेकिन ये प्रणालियां क्लियर-एयर में होने वाले विक्षोभ के संदर्भ में नाकाम रहती हैं।

लाइट डिटेक्शन एंड रेंजिग (LiDAR) नामक एक तकनीक कुछ हद तक इसका समाधान प्रदान कर सकती है जो रेडियो तरंगों की बजाय प्रकाश तरंगों का उपयोग करती है। LiDAR काफी दूर से साफ हवा में होने वाले विक्षोभ को भांप सकती है, जिससे पायलट हवाई जहाज़ को इन अदृश्य खतरों से बचाकर निकाल सकते हैं। हालांकि, इसकी उच्च लागत और उपकरणों का अधिक वज़न इसके व्यापक उपयोग में एक बाधा है।

बहरहाल, तब तक वायुयान चालक यात्रियों से आग्रह करते हैं कि सुरक्षा के लिए हमेशा सीटबेल्ट बांधे रखें। (स्रोत फीचर्स)

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जलवायु मॉडल्स के अपने कार्बन पदचिन्ह

न दिनों जलवायु वैज्ञानिक एक पेचीदा मुद्दे पर संतुलन बनाने में जुटे हैं – स्वयं उनके द्वारा किए जा रहे पर्यावरण अध्ययन के प्रयासों के पर्यावरणीय प्रभाव। पिछले कई दशकों में सुपर-कंप्यूटर सिमुलेशन पृथ्वी की जलवायु प्रणाली को और विभिन्न कारणों से उसमें संभावित परिवर्तनों को समझने के अहम साधन रहे हैं। इन सिमुलेशन मॉडल्स में वायुमंडल, महासागरों और भूमि के बीच होने वाली अंतर्क्रिया पर बढ़ती ग्रीनहाउस गैसों के असर को समझने के प्रयास किए जाते हैं।

पिछले कुछ दशकों में पृथ्वी की जलवायु के सुपर-कंप्यूटर सिमुलेशन्स ने हमारी समझ को काफी बढ़ाया है। लेकिन ये मॉडल जटिल से जटिल होते गए हैं और इन्हें चलाने के लिए लगने वाली बिजली की मात्रा इतनी अधिक हो गई है कि वैज्ञानिकों को इनके अपने पर्यावरणीय प्रभावों की चिंता सताने लगी है।

हालांकि, एक-एक मॉडल उतना प्रभाव नहीं डालता, लेकिन ऐसे कई मॉडल्स को लंबे समय के लिए चलाने के लिए बड़े पैमाने पर कम्प्यूटेशनल क्षमता और मेमोरी की आवश्यकता होती है। परिणामस्वरूप सिमुलेशन मॉडल मेगावाट तक बिजली की खपत करते हैं जो अक्सर जीवाश्म ईंधन से प्राप्त होती है।

दुनिया भर के जलवायु सिमुलेशन प्रयासों का समन्वय करने वाले कपल्ड मॉडल इंटरकंपेरिज़न प्रोजेक्ट (सीएमआईपी) के 2022 में समाप्त हुए अंतिम दौर में लगभग 50 मॉडलिंग केंद्रों ने योगदान दिया था। इन सबमें बड़ी मात्रा में डैटा विकसित हुआ और काफी बिजली की खपत हुई। लेकिन सीएमआईपी की सह-अध्यक्ष का कहना है कि इनमें से बहुत थोड़े से केंद्रों ने कंप्यूटिंग क्षमता और ऊर्जा खपत की निगरानी की है।

इस मामले में शोधकर्ता मॉडलिंग के कामकाज में अधिक पारदर्शिता और कार्यकुशलता की वकालत कर रहे हैं जिससे इस समस्या के समाधान प्रयास काफी गति पकड़ रहे हैं। ऊर्जा उपयोग की निगरानी, सर्वोत्तम प्रथाओं को साझा करना, सुव्यवस्थित मॉडलिंग प्रक्रियाओं और वैज्ञानिक निष्ठा से समझौता किए बिना उत्सर्जन को कम करने की रणनीति इसका हिस्सा है। हालांकि, इन परिवर्तनों को लागू करने में चुनौतियां भी है। इसमें मॉडलिंग केंद्रों को उनके वैज्ञानिक लक्ष्यों के साथ-साथ पर्यावरणीय सरोकारों को प्राथमिकता देने के लिए प्रेरित करना शामिल होगा।

वर्तमान में, सीएमआईपी में रणनीति परिवर्तन की प्रक्रिया चल रही है। इसके तहत बहुत सारे मॉडल चलाने की बजाय, संकेंद्रित दृष्टिकोण की आवश्यकता पर ज़ोर दिया जा रहा है। सीएमआईपी का लक्ष्य है कि आवश्यक मॉडल के एक मुख्य सेट का समर्थन करके और सामुदायिक भागीदारी वाले प्रयोगों का समन्वय करके, वैज्ञानिक गुणवत्ता को संरक्षित करते हुए अनावश्यक उत्सर्जन को कम किया जाए।

अलबत्ता, कार्बन अनुशासन का उद्देश्य मॉडलिंग के दायरे से भी परे फैला हुआ है। इसमें कर्मचारियों की यात्रा के पर्यावरणीय प्रभाव का आकलन करना और अनुसंधान संस्थानों के भीतर उपयुक्त तरीके अपनाने जैसे व्यापक विचार शामिल हैं। वैज्ञानिक जलवायु परिवर्तन को संबोधित करने के लिए तत्काल कार्रवाई की वकालत करते हैं, ऐसे में मॉडलिंग केंद्रों को मिसाल बनाना एक नैतिक अनिवार्यता है। अपनी कार्यप्रणाली के पर्यावरणीय परिणामों का सामना करते हुए जलवायु वैज्ञानिक न केवल अपने मॉडल को परिष्कृत कर रहे हैं बल्कि अधिक टिकाऊ भविष्य के लिए अपनी प्रतिबद्धता को पुन: परिभाषित भी कर रहे हैं। कार्बन अनुशासन को अपनाकर और पर्यावरणीय विचारों को अपने अनुसंधान कार्य में एकीकृत कर वे एक हरित, अधिक लचीले वैज्ञानिक उद्यम का रास्ता दिखा सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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मौसम को कृत्रिम रूप से बदलने के खतरे – भारत डोगरा

हाल ही में दुबई में मात्र 1 दिन में 18 महीने की वर्षा हो गई और अति आधुनिक ढंग से निर्मित यह शहर पानी में डूब गया। कुछ दूरी पर स्थित ओमान में तो 18 लोग बाढ़ में बह गए, जिनमें कुछ स्कूली बच्चे भी थे।

इस बाढ़ के अनेक कारण बताए गए। इनमें प्रमुख यह है कि जलवायु बदलाव के चलते अरब सागर भी गर्म हो रहा है व पिछले चार दशकों में ही इसकी सतह के तापमान में 1.2 से 1.4 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हुई है। इसके कारण वाष्पीकरण बढ़ रहा है और समुद्र के ऊपर के वातावरण में नमी बढ़ रही है।

दूसरी ओर गर्मी बढ़ने के कारण आसपास के भूमि-क्षेत्र के वायुमंडल में नमी धारण करने की क्षमता बढ़ जाती है। समुद्र सतह गर्म होने से समुद्री तूफानों की सक्रियता भी बढ़ती है। अत: पास के क्षेत्र में कम समय में अधिक वर्षा होने की संभावना बढ़ गई है।

तिस पर चूंकि यह शुष्क क्षेत्र है, तो यहां नए शहरों का तेज़ी से निर्माण करते हुए जल-निकासी पर उतना ध्यान नहीं दिया गया जितनी ज़रूरत थी। इस कारण भी बाढ़ की संभावना बढ़ गई।

इसके अतिरिक्त एक अन्य कारण भी चर्चा का विषय बना। वह यह है कि यूएई में काफी आम बात है कि बादलों पर ऐसा छिड़काव किया जाता है जिससे कृत्रिम वर्षा की संभावना बढ़ती है। जब मौसम वैसे ही तूफानी था तो इस तरह का छिड़काव बादलों पर नहीं करना चाहिए था। इस कारण भी वर्षा व बाढ़ के विकट होने की संभावना बढ़ गई।

यह तकनीक काफी समय से प्रचलित है कि वायुमंडल में कहीं सिल्वर आयोडाइड तो कहीं नमक का छिड़काव करके कृत्रिम वर्षा की स्थिति बनाई जाती है। इसके लिए विशेष वायुयानों का उपयोग किया जाता है। अनेक कंपनियां इस कार्य से जुड़ी रही हैं। यह तकनीक तभी संभव है जब वायुमंडल में पहले से यथोचित नमी हो। इस छिड़काव से ऐसे कण बनाने का प्रयास किया जाता है जिन पर नमी का संघनन हो और यह वर्षा या बर्फबारी के रूप में धरती पर गिरे।

इस प्रयास में कई बार यह संभावना रहती है कि तमाम चेष्टा करने पर भी वर्षा न हो, या कई बार यह संभावना बन जाती है कि अचानक इतनी अधिक वर्षा हो जाती है कि संभाली न जा सके व भीषण बाढ़ का रूप ले ले।

1952 में इंगलैंड में डेवान क्षेत्र में कृत्रिम वर्षा के प्रयोगों के बाद एक गांव बुरी तरह तहस-नहस हो गया था व 36 लोग बाढ़ में बह गए थे। इसी प्रकार, ल स्ट्रीट जर्नल में जे. डीन की रिपोर्ट (नवंबर 16, 2009) के अनुसार चीन में एक भयंकर बर्फीला तूफान इसी कारण घातक बन गया था।

हाल के एक विवाद की बात करें तो शारजाह में करवाई गई कृत्रिम वर्षा के संदर्भ में एक अध्ययन हुआ था। यह अध्ययन खलीद अल्महीरि, रेबी रुस्तम व अन्य अध्ययनकर्ताओं ने किया था जो वॉटर जर्नल में 27 नवंबर 2021 को प्रकाशित हुआ था। इसमें यह बताया गया कि कृत्रिम वर्षा से बाढ़ की संभावना बढ़ी है।

दूसरी ओर, यदि कृत्रिम वर्षा से ठीक-ठाक वर्षा हो, तो भी एक अन्य समस्या उत्पन्न हो सकती है – आगे जाकर जहां बादल प्राकृतिक रूप से बरसते वहां वर्षा न हो क्योंकि बादलों को तो पहले ही कृत्रिम ढंग से निचोड़ लिया गया है। इस कारण हो सकता है कि किसी अन्य स्थान से, जो सूखा रह गया है, उन क्षेत्रों का विरोध हो जहां कृत्रिम वर्षा करवाई गई है। यदि ये स्थान दो अलग-अलग देशों में हों, तो टकराव की स्थिति बन सकती है।

जियो-इंजीनियरिग तकनीक के उपयोग भी विवाद का विषय बने हैं। कहने को तो इनका उपयोग इसलिए किया जा रहा है कि इनसे जलवायु बदलाव का खतरा कम किया जा सकता है, पर इनकी उपयोगिता और सुरक्षा पर अनेक सवाल उठते रहे हैं।

इस संदर्भ में कई तरह के प्रयास हुए हैं या प्रस्तावित हैं। जैसे विशालकाय शीशे लगाकर सूर्य की किरणों को वापस परावर्तित करना, अथवा ध्रुवीय बर्फ की चादरों पर हवाई जहाज़ों से बहुत-सा कांच बिखेरकर इससे सूर्य की किरणों को परावर्तित करना (यह सोचे बिना कि पहले से संकटग्रस्त ध्रुवीय जंतुओं पर इसका कितना प्रतिकूल असर पड़ेगा)। इसी तरह से, समताप मंडल (स्ट्रेटोस्फीयर) में गंधक बिखेरना व समुद्र में लौह कण इस सोच से बिखेरना कि इससे ऐसी वनस्पति खूब पनपेगी जो कार्बन को सोख लेगी।

ये उपाय विज्ञान की ऐसी संकीर्ण समझ पर आधारित हैं जो एकपक्षीय है, जो यह नहीं समझती है कि ऐसी किसी कार्रवाई के प्रतिकूल असर भी हो सकते हैं।

फिलहाल सभी पक्षों को देखें तो ऐसी जियो-इंजीनियरिंग के खतरे अधिक हैं व लाभ कम। अत: इन्हें तेज़ी से बढ़ाना तो निश्चय ही उचित नहीं है। पर केवल विभिन्न देशों के स्तर पर ही नहीं, विभिन्न कंपनियों द्वारा अपने निजी लाभ के लिए भी इन्हें बढ़ावा दिया जा रहा है जो गहरी चिंता का विषय है।

चीन में मौसम को कृत्रिम रूप से बदलने का कार्य सबसे बड़े स्तर पर हो रहा है। अमेरिका जैसे कुछ शक्तिशाली देश भी पीछे नहीं हैं। समय रहते इस तरह के प्रयासों पर ज़रूरी नियंत्रण लगाने की आवश्यकता बढ़ती जा रही है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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धरती की जीवनदायिनी स्थितियां खतरे में हैं – भारत डोगरा

रती पर करोड़ों वर्षों से लाखों तरह के जीवन रूप फल-फूल रहे हैं। मनुष्य के धरती पर आगमन से पहले भी यहां बहुत जैव-विविधता मौजूद थी। सवाल यह है कि जब किसी भी अन्य ज्ञात ग्रह या उपग्रह पर अभी तक जीवन तक का पता नहीं चल सका है, तो विशेषकर धरती पर ही लाखों तरह के जीवन रूप किस तरह पनप सके?

गौरतलब है कि धरती पर कुछ विशेष तरह की जीवनदायिनी स्थितियां मौजूद हैं व इनकी उपस्थिति के कारण ही धरती पर इतने विविध तरह का जीवन इतने लंबे समय तक पनप सका है। ये जीवनदायिनी क्षमताएं मुख्य रूप से कई स्थितियों से जुड़ी है – वायुमंडल में विभिन्न गैसों की विशेष अनुपात में उपस्थिति, पर्याप्त मात्रा में जल की उपलब्धता, वन व मिट्टी की अनुकूल स्थिति वगैरह।

यह जीवनदायिनी स्थितियां सदा से धरती पर रही तो हैं, पर इसका अर्थ यह नहीं है कि इनमें कभी कोई बड़ी उथल-पुथल नहीं आ सकती है या इनमें कभी कोई कमी-बेशी नहीं हो सकती है। तकनीकी व औद्योगिक बदलाव के साथ-साथ मनुष्य द्वारा ऐसे अनेक व्यापक बदलाव लाए जा रहे हैं जो इन जीवनदायिनी स्थितियों में बदलाव ला सकते हैं। उदाहरण के लिए, विभिन्न तरह के प्रदूषण के साथ कार्बन डाईऑक्साइड व अन्य ग्रीनहाउस गैसों में वृद्धि से वायुमंडल में मौजूद गैसों का अनुपात बिगड़ सकता है, प्राकृतिक वन बहुत तेज़ी से लुप्त हो सकते हैं, मिट्टी के मूल चरित्र व प्राकृतिक उपजाऊपन में बड़े बदलाव आ सकते हैं, पानी के भंडार तेज़ी से कम हो सकते हैं व प्रदूषित हो सकते हैं। यहां तक कि मानव निर्मित विविध कारणों से ऐसा भी हो सकता है कि सूर्य का प्रकाश व ऊष्मा धरती पर सुरक्षित व सही ढंग से न पहुंच सकें।

दो परमाणु बमों का पहला उपयोग हिरोशिमा व नागासाकी (जापान) में वर्ष 1945 में हुआ था। उसके बाद अनेक प्रमुख देशों में परमाणु हथियार बनाने की होड़ लग गई। आज विश्व में लगभग 12,500 परमाणु बम हैं।

किसी परमाणु बम को गिराने पर मुख्य रूप से चार तरह से बहुत भयानक तबाही होती है – आग, अत्यधिक ताप, धमाका व विकिरण का फैलाव। खास तौर से, विकिरण का असर कई पीढ़ियों तक रह सकता है।

यह सब तो केवल एक परमाणु बम गिराने पर भी होता है, पर चूंकि अब विश्व में 12,500 से अधिक परमाणु बम हैं, तो वैज्ञानिक इस पर भी विचार करते रहे हैं कि यदि परमाणु बमों का अधिक व्यापक स्तर पर उपयोग चंद दिनों या घंटों के भीतर हो गया तो क्या परिणाम होगा?

यदि कुल मौजूद 12,500 परमाणु हथियारों में से कभी 10 प्रतिशत का भी उपयोग हुआ तो इसका अर्थ है कि 1250 परमाणु हथियारों का उपयोग होगा व 5 प्रतिशत का उपयोग हुआ तो 625 हथियारों का उपयोग होगा।

यदि 5 से 10 प्रतिशत हथियारों का उपयोग कभी हुआ तो कल्पना की जा सकती है कि आग, ताप, धमाकों व विकिरण का कैसा सैलाब आएगा। इसके अतिरिक्त इतना धूल-धुआं-मलबा वायुमंडल में फैल जाएगा कि सूर्य की किरणें धरती पर भलीभांति प्रवेश नहीं कर पाएंगी। इस कारण खाद्य उत्पादन व अन्य ज़रूरी काम नहीं हो पाएंगे। इस सबका मिला-जुला असर यह होगा कि सभी मनुष्य व अधिकांश अन्य जीव-जंतु, पेड़-पौधे यानी सभी तरह के जीवन-रूप संकटग्रस्त हो जाएंगे।

स्पष्ट है कि कई स्तरों पर मानव के क्रियाकलापों से ऐसी स्थितियां उत्पन्न हो गई हैं जिनसे धरती की जीवनदायिनी क्षमता बुरी तरह खतरे में पड़ सकती है। यह हमारे समय की सबसे बड़ी समस्या है। इससे पहले कि यह बहुत विध्वंसक व घातक रूप में सामने आए, इस समस्या का समाधान आवश्यक है।

इस समस्या के कई पक्ष हैं और अभी इनके संदर्भ में अलग-अलग प्रयास हो रहे हैं। सबसे अधिक चर्चित वे प्रयास हैं जो जलवायु बदलाव व ग्रीनहाऊस गैसों को नियंत्रित करने के लिए किए जा रहे हैं। इनके बारे में भी वरिष्ठ वैज्ञानिकों ने कई बार चेतावनी दी है कि ये निर्धारित लक्ष्यों से पीछे छूट रहे हैं। परमाणु हथियारों के खतरों को कम करने के लिए कुछ संधियां व समझौते हुए थे, पर इनमें से कुछ रद्द हो गए हैं व कुछ का नवीनीकरण समय पर नहीं हो सका है।

अब अनेक वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि कृत्रिम बुद्धि (एआई) तकनीकों के सैन्यकरण होने से व अति विनाशक हथियारों में इनका उपयोग होने से खतरे और बढ़ जाएंगे। सबसे अधिक चिंता की बात यह मानी जा रही है कि अंतरिक्ष के सैन्यकरण की ओर भी कदम उठाए जा रहे हैं।

समय रहते धरती की जीवनक्षमता को संकट में डालने वाले सभी कारणों को नियंत्रित करना होगा व इसके लिए अंतर्राष्ट्रीय सहयोग को बढ़ाकर, विभिन्न देशों को मिलकर कार्य करना होगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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क्या साफ आकाश धरती को गर्म करता है?

वर्ष 2023 अब तक का सबसे गर्म वर्ष रिकॉर्ड किया गया है। यह वैश्विक तापमान में तेज़ी से हो रही वृद्धि का संकेत है। कम्युनिकेशंस अर्थ एंड एनवॉयरनमेंट में प्रकाशित एक हालिया अध्ययन से पता चलता है कि इस तेज़ी से बढ़ती गर्मी का एक प्रमुख कारक पृथ्वी का साफ होता आसमान है। इसके चलते सूर्य की अधिक रोशनी वातावरण में प्रवेश करके तापमान में वृद्धि करती है।
नासा का क्लाउड्स एंड दी अर्थ्स रेडिएंट एनर्जी सिस्टम (CERES) वर्ष 2001 से पृथ्वी के ऊर्जा संतुलन की निगरानी कर रहा है। CERES ने पृथ्वी द्वारा अवशोषित सौर ऊर्जा की मात्रा में काफी वृद्धि देखी है। इसकी व्याख्या मात्र ग्रीनहाउस गैसों के आधार पर नहीं की जा सकती। एक कारण यह हो सकता है कि वायुमंडल कम परावर्तक हो गया है। शायद वर्ष 2001 और 2019 के बीच बिजली संयंत्रों से प्रदूषण में कमी और स्वच्छ ईंधन के उपयोग से हवा ज़्यादा पारदर्शी हो गई है। अध्ययन का अनुमान है कि इससे वार्मिंग में 40 प्रतिशत की अतिरिक्त वृद्धि हुई है।
जलवायु वैज्ञानिक काफी समय से जानते हैं कि घटते प्रदूषण के कारण धरती के तापमान में वृद्धि हो सकती है। वजह यह मानी जाती है कि प्रदूषण के कण न केवल प्रकाश को अंतरिक्ष में परावर्तित कर देते हैं, बल्कि उनके कारण बादलों में ज़्यादा जल कण बनते हैं जिससे बादल अधिक चमकीले और टिकाऊ होते हैं। गौरतलब है कि दो साल पूर्व एरोसोल में वैश्विक स्तर पर भारी गिरावट देखी गई थी। लेकिन वर्तमान अध्ययन में प्रयुक्त जलवायु मॉडल्स ने प्रदूषण में इस कमी को वार्मिंग के लिए ज़िम्मेदार ठहराया है।
अलबत्ता, साफ आसमान परावर्तन में गिरावट का एकमात्र कारण नहीं हो सकता। CERES के मॉडल्स प्रकाश के अतिरिक्त अवशोषण में से 40 प्रतिशत की व्याख्या नहीं कर पाए हैं। इसके अलावा, CERES डैटा ने दोनों गोलार्धों में परावर्तन में गिरावट दर्शायी है जबकि प्रदूषण में कमी उत्तरी गोलार्ध में अधिक हुई है। इसके अलावा, बर्फ के पिघलने से उसके नीचे की गहरे रंग की ज़मीन उजागर हो जाती है, अधिक तापमान के कारण समुद्र के ऊपर के बादल छितर जाते हैं और अपेक्षाकृत गहरे रंग का पानी उजागर हो जाता है। ऐसे कई कारक पृथ्वी की परावर्तनशीलता घटाने में योगदान दे सकते हैं। इस सब बातों के मद्देनज़र, हो सकता है कि ये मॉडल्स प्रदूषण में कमी के असर को बढ़ा-चढ़ाकर बता रहे हैं।
ग्लोबल वार्मिंग एक नाज़ुक ऊर्जा संतुलन पर टिका है। सूरज लगातार पृथ्वी पर ऊर्जा की बौछार करता है। इसमें से काफी सारी ऊर्जा को परावर्तित कर दिया जाता है और कुछ परावर्तित ऊर्जा को वायुमंडल रोक लेता है। यदि वायुमंडल थोड़ी भी अधिक गर्मी को रोके या सूर्य के प्रकाश को थोड़ा कम परावर्तित करे, तो तापमान बढ़ सकता है। कई दशकों से आपतित ऊर्जा और परावर्तित ऊर्जा का यह संतुलन गड़बड़ाया हुआ है।
नॉर्वे के सेंटर फॉर इंटरनेशनल क्लायमेट रिसर्च के मॉडलर ओइविन होडनेब्रोग की टीम ने चार जलवायु मॉडलों की तुलना करके ऊर्जा के बढ़ते अवशोषण के कारणों की पहचान करने की कोशिश की है।
इस अध्ययन के अनुसार एरोसोल महत्वपूर्ण भूमिका निभाते रहेंगे। चीन और भारत जैसे देशों में सख्त प्रदूषण नियंत्रण के चलते एयरोसोल में कमी क्षेत्रीय मौसम के पैटर्न को प्रभावित करेगी।
अध्ययन में यह भी बताया गया है कि जलवायु पर वायु प्रदूषण में कमी का प्रभाव प्रकट होने में कई दशक लग सकते हैं। थोड़ा-सा एरोसोल भी बादल को चमकीला और परावर्तक बनाने के लिए काफी होता है। यानी प्रदूषित क्षेत्रों में, बादलों की परावर्तनशीलता तब तक कम नहीं होगी जब तक कि आसमान काफी हद तक साफ न हो जाए।
एक चिंता डैटा की निरंतरता को लेकर भी है। पुराने एक्वा और टेरा उपग्रहों के उपकरण अपने जीवन के अंत के करीब हैं। ऐसा लगता है कि अगली पीढ़ी के उपग्रह, लाइबेरा, के 2028 में लॉन्च होने तक केवल एक उपकरण ही सक्रिय रहेगा। यह संभावित अंतराल जलवायु अनुसंधान के लिए एक गंभीर समस्या बन सकता है।
देखने में तो साफ आकाश सकारात्मक पर्यावरणीय परिवर्तन लगता है लेकिन वास्तव में यह ग्लोबल वार्मिंग में तेज़ी से योगदान दे रहा है। बढ़ते जलवायु संकट से निपटने के लिए पृथ्वी की ऊर्जा प्रणाली के जटिल संतुलन को समझना और संबोधित करना महत्वपूर्ण है। (स्रोत फीचर्स)

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नदियों का संरक्षण और जानकारी की साझेदारी

इंटरनेशनल सेंटर फॉर इंटीग्रेटेड माउंटेन डेवलपमेंट और ऑस्ट्रेलियन वॉटर पार्टनरशिप की हालिया रिपोर्टों ने तीन प्रमुख एशियाई नदियों: सिंधु, गंगा और ब्रह्मपुत्र के संरक्षण के लिए देशों के बीच वैज्ञानिक सहयोग और डैटा साझेदारी की तत्काल आवश्यकता पर ज़ोर दिया है। रिपोर्ट में कहा गया है कि हिमालय के हिंदूकुश क्षेत्र से निकलने वाली ये नदियां जलवायु परिवर्तन के कारण संकट में हैं। प्रमुख खतरे तेज़ी से ग्लेशियरों का पिघलना और वर्षा के पैटर्न में बदलाव है। इसके कारण सात देशों यानी अफगानिस्तान, नेपाल, पाकिस्तान, चीन, भारत, बांग्लादेश और भूटान के लगभग एक अरब लोगों के प्रभावित होने की संभावना है। इससे निपटने के लिए सभी देशों की समन्वित कार्रवाई की आवश्यकता है।

रिपोर्ट का दावा है कि बढ़ती आबादी और पानी की बढ़ती मांग के साथ जलवायु परिवर्तन-प्रेरित परिवर्तन किसानों को लंबे समय तक पानी की कमी और आसपास के समुदायों के लिए बाढ़ के जोखिम को बढ़ा सकते हैं। गौरतलब है कि इन नदियों के प्रबंधन के लिए सात देशों के बीच विभिन्न समझौते तो मौजूद हैं लेकिन जल विज्ञान, पर्यावरण और सामाजिक आर्थिक कारकों से सम्बंधित महत्वपूर्ण डैटा साझा करने की कमी एक महत्वपूर्ण बाधा बनी हुई है।

इसका एक उदाहरण ब्रह्मपुत्र नदी पर जारी एक रिपोर्ट है जिसमें इस क्षेत्र में अपर्याप्त जलवायु निगरानी की बात कही गई है। इसके अलावा गंगा पर किए गए अध्ययन में विशेष रूप से भारत सरकार द्वारा जल विज्ञान सम्बंधित डैटा को रोकने की प्रवृत्ति को दर्शाया गया है।

इस बारे में भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, गुवाहाटी की अर्थशास्त्री अनामिका बरुआ के अनुसार डैटा साझेदारी में प्रमुख बाधा राष्ट्रीय सुरक्षा सम्बंधी चिंताओं के कारण है। डैटा तक पहुंच को सुनिश्चित करने के लिए कम से कम नदी बेसिन डैटा को सुरक्षा चिंताओं से मुक्त रखा जा सकता है।

भाषा सम्बंधी बाधाएं भी हैं। जैसे ब्रह्मपुत्र पर चीनी रिपोर्ट्स चीनी भाषा में होती हैं।

रिपोर्टों का मत है कि सभी राष्ट्र मौजूदा समझौतों और संस्थाओं का लाभ उठा सकते हैं। मसलन, सिंधु नदी के टिकाऊ उपयोग को बढ़ावा देने वाले अपर सिंधु घाटी नेटवर्क की मदद से चीन, भारत, पाकिस्तान और अफगानिस्तान के बीच सहयोग बढ़ाया जा सकता है।

सिंधु नदी रिपोर्ट के प्रमुख लेखक और ई-वॉटर ग्रुप के सलाहकार रसेल रोलासन विभिन्न देशों के बीच सहयोग के क्षेत्रों की पहचान करने की संभावना पर ज़ोर देते हैं। रसेल के अनुसार जल सुरक्षा के लिए क्षेत्रीय सहयोग की दिशा में बातचीत के लिए साझा समस्याओं पर ज़ोर दिया जा सकता है।

बहरहाल, इन रिपोर्टों से एक बात तो स्पष्ट है कि बेहतर डैटा साझेदारी और सहयोगात्मक प्रयासों के बिना इन महत्वपूर्ण नदियों पर जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न जोखिम बढ़ते रहेंगे। इससे लाखों लोगों की आजीविका और निवास खतरे में पड़ सकते हैं। यह इस बात की ओर भी संकेत देता है कि जलवायु परिवर्तन अलग-अलग देशों की नहीं बल्कि साझा समस्या है। (स्रोत फीचर्स)

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हवा की बजाय समंदरों से कार्बन कैप्चर की नई पहल

न दिनों लॉस एंजिल्स के व्यस्त बंदरगाह पर जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए एक नई तकनीक आकार ले रही है। यहां कैप्च्यूरा और एक्वेटिक जैसे स्टार्टअप, हवा की बजाय सीधे समुद्र से कार्बन डाईऑक्साइड कैप्चर करने की तकनीक विकसित कर रहे हैं। इस तकनीक को ग्रीनहाउस गैसों को वातावरण से हटाने के लिए ज़्यादा कारगर माना जा रहा है।

लॉस एंजिल्स के बंदरगाह पर पहुंचने वाले विशाल कंटेनर सालाना लगभग 300 अरब डॉलर का सामान ढोते हैं, लेकिन साथ ही ये काफी कार्बन डाईऑक्साइड (CO2) उत्सर्जन करते हैं। इसी बंदरगाह पर कैप्च्यूरा द्वारा तैनात एक नाव भी है जिसमें समुद्री जल से CO2 अवशोषण के लिए एक अनूठी प्रणाली स्थापित की गई है। इस तरह कैद की गई CO2 का उपयोग प्लास्टिक व ईंधन निर्माण में किया जाता है या दफना दिया जाता है। CO2 रहित पानी वापिस समुद्र में डाल दिया जाता है ताकि यह वायुमंडल से अधिक CO2 सोख सके। फिलहाल, प्रति वर्ष 100 टन CO2 कैप्चर करने वाली नाव का परीक्षण सफल होने पर कंपनी नॉर्वे में 1000 टन प्रति वर्ष कैप्चर करने की योजना बना रही है।

इसी तरह एक्वेटिक नामक स्टार्टअप सिंगापुर में महासागरों से प्रति वर्ष 3650 टन कार्बन कैप्चर प्लांट लगाने के लिए तैयार है। कई अन्य कंपनियां भी इसी तरह की प्रौद्योगिकियां विकसित करने की तैयारी में हैं।

हालांकि कार्बन कैप्चर करने के लिए अलग-अलग कंपनियां अलग-अलग रासायनिक प्रक्रियाओं का उपयोग करती हैं, लेकिन सभी नवीकरणीय बिजली का इस्तेमाल करती हैं। चूंकि समुद्र प्राकृतिक रूप से CO2 का सांद्रण करते हैं, इसलिए समुद्री जल के साथ काम ज़्यादा कार्यक्षम है। एक अनुमान के मुताबिक 2032 तक 100 डॉलर प्रति टन की लागत पर कार्बन कैप्चर किया जा सकेगा, जो यूएस ऊर्जा विभाग का लक्ष्य है।

वैसे, CO2 रहित पानी द्वारा अवशोषित CO2 की मात्रा को सटीक रूप से मापना मुश्किल है जबकि यह आकलन कार्बन क्रेडिट के लिहाज़ से महत्वपूर्ण है। एक्वेटिक ने एक योजना बनाई है, जिसमें अवशोषित CO2 को मापा जा सकेगा।

इस तकनीक की कार्यक्षमता के बावजूद इसके लिए सरकारी समर्थन में वृद्धि की आवश्यकता है। वर्तमान में, यू.एस. में प्रत्यक्ष वायु कैप्चर संयंत्रों को प्रति टन CO2  कैप्चर पर 180 डॉलर (लगभग 15000 रुपए) का टैक्स क्रेडिट मिलता है, जबकि महासागरों से CO2 कैप्चर करने पर ऐसा कोई टैक्स प्रोत्साहन नहीं हैं। पानी से कार्बन हटाने के लिए समान प्रोत्साहन की मांग की जा रही है।

हालांकि, इस तकनीक के सामने जलवायु परिवर्तन एक बड़ी चुनौती है। इंटरगवर्नमेंट पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज के अनुसार, 2050 तक वैश्विक तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने के लिए सालाना लगभग पांच अरब टन CO2 हटानी होगी जबकि वर्तमान प्रयास केवल कुछ हज़ार टन कार्बन कैप्चर करते हैं। फिर भी समुद्री कार्बन कैप्चर जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए कुछ आशा तो जगाता है। (स्रोत फीचर्स)

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क्या मानव मूत्र वन संरक्षण में मदद कर सकता है?

स्पेन स्थित ग्रेनाडा विश्वविद्यालय द्वारा किए गए एक हालिया अध्ययन में शोधकर्ताओं ने पुनर्वनीकरण के उद्देश्य से जंगल के पेड़-पौधों के बीज़ों को कृंतकों और अन्य बीजभक्षी जीवों से बचाने के लिए मानव मूत्र का उपयोग किया है। यह असामान्य प्रयोग पारिस्थितिकीविद जॉर्ज कास्त्रो के नेतृत्व में दक्षिण-पूर्वी स्पेन के सिएरा नेवादा पहाड़ों में किया गया है।

इस प्रयोग का प्राथमिक उद्देश्य टाइनी वुड माउस (Apodemus sylvaticus), पक्षियों और अन्य जंगली प्राणियों को सदाबहार बलूत (Quercus ilex) के बीज खाने से रोकना था जिन्हें जंगल को बहाल करने के लिए बोया गया था। कास्त्रो का विचार था कि कोयोट, लिनेक्स और लोमड़ियों जैसे शिकारियों के मूत्र से मिलता-जुलता और अमोनिया जैसी गंध वाला मानव मूत्र इन जीवों को दूर रख सकता है। आम तौर पर कृतंक वगैरह ऐसी गंध से दूर रहना पसंद करते हैं। विचार यह था कि बोने से पूर्व इन बीजों के पेशाब में भिगो दिया जाएगा। अब इन जंगली शिकारियों से मूत्र प्राप्त करना तो काफी मुश्किल होता इसलिए उन्होंने आसानी से उपलब्ध विकल्प के रूप में मानव मूत्र का उपयोग किया।

रिस्टोरेशन इकोलॉजी में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार, दुर्भाग्यवश, अध्ययन के परिणाम उम्मीद के मुताबिक नहीं रहे। अध्ययन क्षेत्र की वीडियो रिकॉर्डिंग से पता चला कि कृंतक और अन्य जंगली जीव मूत्र से सने बीजों की गंध से काफी हद तक अप्रभावित रहे।

इस प्रयोग के निराशाजनक परिणाम के बावजूद, कास्त्रो असफल अध्ययनों/नकारात्मक परिणामों को प्रकाशित करने के महत्व पर ज़ोर देते हैं ताकि अन्य शोधकर्ता ऐसे बेकार प्रयोग न दोहराएं। इसके अलावा, कास्त्रो का मत है कि भले ही मानव मूत्र कृंतकों को रोकने में प्रभावी नहीं है, लेकिन यह हिरण जैसे अन्य शाकाहारी जीवों के विरुद्ध उपयोगी हो सकता है। ये शाकाहारी जीव पौधों को खाकर वन बहाली के प्रयासों में बाधा डालते हैं।

यह सही है कि इस प्रयोग से पुनर्वनीकरण के कार्य में मानव मूत्र उपयोगी नहीं लगता लेकिन इससे जंगलों और पारिस्थितिक तंत्र की बहाली के लिए एक नया और अपरंपरागत दृष्टिकोण तो ज़रूर सामने आया है। (स्रोत फीचर्स)

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