व्यक्तिगत, ब्राज़ील के अमेज़न वर्षा वनों के व्यापक
पर्यावरणीय महत्व को देखते हुए इन्हें बचाना सदा ज़रूरी रहा है, पर
जलवायु बदलाव के इस दौर में तो यह पूरे विश्व के लिए भी बहुत महत्वपूर्ण हो गया
है। इन घने जंगलों में बहुत कार्बन समाता है व इनके कटने से इतने बड़े पैमाने पर
ग्रीनहाऊस गैसों का उत्सर्जन होगा कि विश्व स्तर के जलवायु सम्बंधी लक्ष्य प्राप्त
करना मुश्किल हो जाएगा। अत: जब ब्राज़ील के अमेज़न वर्षावन में क्षति की बात होती
है तो पूरे विश्व के पर्यावरणविद चौकन्ने हो जाते हैं।
इसके अतिरिक्त अमेज़न वर्षावनों की रक्षा
से ब्राज़ील के आदिवासियों का जीवन भी बहुत नज़दीकी तौर पर जुड़ा है। 274
भाषाएं बोलने वाले लगभग 300 आदिवासी समूहों की आजीविका और दैनिक जीवन
भी इन वनों से नज़दीकी तौर पर जुड़े हुए हैं।
इस महत्व को देखते हुए ब्राज़ील के 1988 के
संविधान में आदिवासी समुदायों के संरक्षित क्षेत्रों की पहचान व संरक्षण की
व्यवस्था की गई थी। फुनाय नाम से विशेष सरकारी विभाग आदिवासी हकदारी की रक्षा के
लिए बनाया गया। अमेज़न के आदिवासियों को इतिहास में बहुत अत्याचार सहने पड़े हैं, अत:
बचे-खुचे लगभग नौ लाख आदिवासियों की रक्षा को बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है।
जर्मनी और नार्वे की सहायता से इन वनों की रक्षा के लिए संरक्षण कोश भी स्थापित
किया गया है।
जहां ब्राज़ील में कुछ महत्वपूर्ण कदम सही
दिशा में उठाए गए थे, वहीं दूसरी ओर इससे भी बड़ा सच यह है कि अनेक शक्तिशाली
तत्व इन वनों को उजाड़ने के पीछे पड़े हैं। इसमें मांस (विशेषकर बीफ) बेचने वाली
बड़ी कंपनियां हैं जो जंगल काटकर पशु फार्म बना रही हैं। कुछ अन्य कंपनियां खनन व
अन्य स्रोतों से कमाई करना चाहती हैं। पर इनका सामान्य लक्ष्य यह है कि जंगल काटे
जाएं व आदिवासियों को उनकी वन-आधारित जीवन पद्धति से हटाया जाए।
इन व्यावसायिक हितों को इस वर्ष राष्ट्रपति
पद पर जैर बोल्सोनारो के निर्वाचन से बहुत बल मिला है क्योंकि बोल्सोनारो उनके
पक्ष में व आदिवासियों के विरुद्ध बयान देते रहे हैं। बोल्सोनारो के राष्ट्रपति
बनने के बाद आदिवासी हितों की संवैधानिक व्यवस्था को बहुत कमज़ोर किया गया है तथा
वनों पर अतिक्रमण करने वाले व्यापारिक हितों को बढ़ावा दिया गया है।
उपग्रह चित्रों से प्राप्त आरंभिक जानकारी
के अनुसार जहां वर्ष 2016 में 3183 वर्ग किलोमीटर वन क्षेत्र पर वन उजड़े थे, वहीं
इस वर्ष सात महीने से भी कम समय में 3700 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र पर वन उजड़ गए हैं।
वन विनाश की गति और भी तीव्र हो रही है। 2017 में जुलाई महीने में 457
वर्ग किलोमीटर वन उजड़े थे, जबकि इस वर्ष जुलाई के पहले तीन हफ्तों में
ही 1260 वर्ग किलोमीटर वन उजड़े।
इसके साथ आदिवासी हितों पर हमले भी बढ़ गए हैं। हाल ही में वाइअपी समुदाय के मुखिया की हत्या कर दी गई। इस समुदाय के क्षेत्र में बहुत खनिज संपदा है। इस हत्या की संयुक्त मानवाधिकार उच्चायुक्त ने कड़ी निंदा की है। इस स्थिति में ब्राज़ील के अमेज़न वर्षावनों तथा यहां के आदिवासियों की आजीविका व संस्कृति की रक्षा की मांग को विश्व स्तर पर व्यापक समर्थन मिलना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://encrypted-tbn0.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcRr3HNZEWr8VDAZKrunXVZhYFu1oKDxy7Cw6WAlEOu9-9YLTipL
अमरीका में जल्द ही शुरू होने वाली 5जी सेवाओं पर मौसम
विज्ञानियों की चिंता है कि यदि आवंटित स्पेक्ट्रम पर 5जी सेवाएं शुरू हुर्इं तो
मौसम सम्बंधी भविष्यवाणी का काम प्रभावित होगा।
मार्च 2019 में फेडरल कम्युनिकेशन कमीशन (FCC) द्वारा 5जी सेवाओं के लिए स्पेक्ट्रम
आवंटन किया गया था, जिसके बाद वायरलेस कंपनियां 24 गीगा हर्ट्ज़ पर 5जी सेवाएं
देना शुरु कर सकती हैं। 5जी शुरू होने के बाद सेवा की रफ्तार 100 गुना तक बढ़
जाएगी।
वहीं नेशनल ओशिएनिक एंड एटमॉस्फरिक एडमिनिस्ट्रेशन (NOAA) के प्रमुख नील जैकब्स की आशंका है कि 5जी का उपयोग मौसम पूर्वानुमान की सटीकता को 30 प्रतिशत तक कम कर सकता है। तब मौसम भविष्यवाणी की स्थिति वैसी हो जाएगी जैसे 1980 के दशक में हुआ करती थी। जिससे तटीय इलाकों में रहने वाले लोगों को 2-3 दिन देर से चेतावनी मिल पाएगी। विसकॉन्सिन मेडिसन युनिवर्सिटी के मौसम विज्ञानी जॉर्डन गर्थ का कहना है कि दरअसल वायुमंडल में जलवाष्प मौजूदगी बताने वाले संकेत 23.6 गीगा हर्ट्ज़ से 24 गीगा हर्टज़ के बीच काम करते हैं और 5जी नेटवर्क 24 गीगा हर्ट्ज़ पर शुरू होगा। तो 5जी से होने वाला प्रसारण इन सेंसरों को आसानी से प्रभावित कर सकता है जैसे कोई शोरगुल करने वाला पड़ोसी हो।
लेकिन सेल्युलर टेलीकम्युनिकेशन इंडस्ट्री
संघ (CTIA) के उपाध्यक्ष ब्राड गिलेन का कहना है कि
मौसम पूर्वानुमान पर 5जी के प्रभाव पर जो गंभीर चिंताएं व्यक्त की जा रही हैं वे
गलत हैं। जो लोग 5जी के उपयोग पर रोक लगाना चाहते हैं वे यह सोच रहे हैं कि यह
मौसम के बारे में अनुमान देने वाले सेंसर,
कोनिकल माइक्रोवेव
इमेजर साउंडर (CMIS) को प्रभावित करेगा। लेकिन तथ्य यह है कि
इन्हें (CMIS) को 2006 में ही खारिज कर दिया गया था ये
कभी इस्तेमाल ही नहीं किए गए हैं।
इस पर गर्थ का कहना है कि CMIS के उन्नत तकनीक के सेंसर (एडवांस्ड
टेक्नॉलॉजी माइक्रोवेव साउंडर, ATMS) मौसम पूर्वानुमान में उपयोग किए जाते हैं
जो 23.8 गीगा हर्ट्ज़ पर काम करते हैं जो 5जी की सीमा के नज़दीक ही है। इस पर CTIA के निक ल्युडलम का कहना है कि CMIS की तुलना में ATMS सेंसर काफी छोटे हैं और उनकी रेंज सीमित है जिससे यह आसपास
की स्पेक्ट्रम के प्रति कम संवेदी है।
5जी के उपयोग के मसले पर मोबाइल कंपनियों
और अमरीकी सरकार के बीच असहमति और बहस तो कई महीनों से चल रही है लेकिन यह उजागर
कुछ समय पहले हुई है। लोग चाहते हैं कि 28 अक्टूबर को मिरुा में होने वाली वर्ल्ड
कम्युनिकेशन कॉन्फ्रेंस के पहले इस मुद्दे पर चल रही बहस को सुलझा लिया जाए।
वैसे यदि 5जी किसी अन्य स्पेक्ट्रम पर शुरू होता है तो वह भी नई बहस शुरू कर सकता है। गर्थ का कहना है कि 5जी के उपयोग पर विवाद तो 36-37 गीगा हर्ट्ज पर भी हो सकता है जिसका उपयोग बारिश और बर्फ गिरने के अनुमान के लिए किया जाता है या 50 गीगाहर्ट्ज़ पर भी हो सकता है जिस पर वायुमंडलीय तापमान का पता किया जाता है। (स्रोत फीचर्स) नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://cnet2.cbsistatic.com/img/6JtSuF7ImhGHLbX4tC8bMbOba7U=/1092×0/2019/05/17/ca7dc5c9-83f8-4ed0-8c33-49c61391e026/weather-gettyimages-1030785334.jpg
हमारे वायुमंडल के ऊपरी भाग में मौजूद ओज़ोन
परत, सूरज से आने वाले पराबैंगनी विकिरण से पृथ्वी की रक्षा करती
है। इस सुरक्षा कवच पर खतरा पैदा हुआ था, लेकिन मॉन्ट्रियल संधि के माध्यम से
अंतर्राष्ट्रीय कार्रवाई की बदौलत इसे बचा लिया गया। संधि में इस बात को पहचाना
गया था कि कुछ मानव निर्मित रसायन, मुख्य रूप से क्लोरोफ्लोरोकार्बन, ओज़ोन
परत को नुकसान पहुंचा रहे हैं। इस संधि ने इन पदार्थों के उपयोग और वायुमंडल में
इनके उत्सर्जन में कटौती करने के लिए एक वैश्विक अभियान को गति दी थी।
क्लोरोफ्लोरोकार्बन के उपयोग के मामले में
मुख्य रूप से एयरोसोल स्प्रे, औद्योगिक विलायकों और शीतलक तरल पदार्थों
को दोषी माना गया और इस अभियान का केंद्रीय मुद्दा उन्हें हटाना था। क्लोरोफॉर्म
जैसे कुछ अन्य पदार्थ भी ओज़ोन परत को प्रभावित करते हैं,
लेकिन ये बहुत तेज़ी
से विघटित हो जाते हैं, इसलिए इन्हें संधि में शामिल नहीं किया गया था। यह संधि
काफी सफल रही और उम्मीद की गई थी कि अंटार्कटिक के ऊपर बन रहा ‘ओज़ोन छिद्र’ 2050
तक खत्म हो जाएगा।
एमआईटी,
कैलिफोर्निया और ब्रिस्टल
विश्वविद्यालयों, दक्षिण कोरिया के क्युंगपुक राष्ट्रीय विश्वविद्यालय, ऑस्ट्रेलिया
के दी क्लाइमेट साइंस सेंटर और एक्सेटर के दी मेट ऑफिस के वैज्ञानिकों
के एक समूह ने नेचर जियोसाइंस जर्नल में प्रकाशित शोध पत्र में बताया है कि
क्लोरोफॉर्म जैसे पदार्थों के स्तर में वृद्धि जारी है और इसके चलते ‘ओज़ोन छिद्र’ में
हो रहे सुधार की गति धीमी पड़ सकती है।
ओज़ोन का ह्रास
ओज़ोन गैस ऑक्सीजन का ही एक रूप है जो
वायुमंडल में काफी ऊंचाई पर बनती है। गैस की यह परत सूरज से आने वाली पराबैंगनी
किरणों को सोखकर पृथ्वी की रक्षा करती है। ऑक्सीजन के परमाणु में बाहरी इलेक्ट्रॉन
शेल अधूरा होता है जिसकी वजह से ऑक्सीजन का परमाणु अन्य परमाणुओं के साथ संयोजन
करता है। ऑक्सीजन का अणु दो ऑक्सीजन परमाणुओं से मिलकर बनता है। ये दो परमाणु
बाहरी शेल के इलेक्ट्रॉनों को साझा करके एक स्थिर इकाई बनाते हैं। वायुमंडल की
ऊपरी परतों में पराबैंगनी प्रकाश के ऊर्जावान फोटोन ऑक्सीजन अणुओं को घटक परमाणुओं
में विभक्त कर देते हैं। एक अकेला परमाणु उच्च ऊर्जा स्तर पर होता है और स्थिरता
के लिए उसे बंधन बनाने की आवश्यकता होती है। वे अन्य ऑक्सीजन अणुओं के साथ बंधन
बनाकर ऑक्सीजन के तीन परमाणुओं वाला ओज़ोन का अणु बनाते हैं। ओज़ोन अणु फिर
पराबैंगनी प्रकाश को अवशोषित करते हैं और एक ‘अकेला’
ऑक्सीजन परमाणु मुक्त
करते हैं, जो फिर से ऑक्सीजन अणुओं के साथ गठबंधन करके ओज़ोन बनाते
हैं। और यह प्रक्रिया ऐसे ही चलती रहती है। यह चक्र तब तक चलता रहता है जब तक
अकेले परमाणुओं की संख्या कम नहीं हो जाती। ऐसा तब होता है, जब
दो अकेले परमाणु ऑक्सीजन का अणु बना लेते हैं।
इस प्रकार से ओज़ोन निर्माण और विघटन की एक
प्रक्रिया चलती है। यह शुरू होती है पराबैंगनी प्रकाश द्वारा ऑक्सीजन अणुओं के
विभाजन के साथ। इस क्रिया में उत्पन्न अकेले ऑक्सीजन परमाणु ऑक्सीजन के अणुओं के
साथ गठबंधन करके ओज़ोन का निर्माण करते हैं। ओज़ोन में से एक बार फिर ऑक्सीजन
परमाणु मुक्त होते हैं और ये ऑक्सीजन परमाणु आपस में जुड़कर ऑक्सीजन बना लेते हैं।
इस तरह वायुमंडल में ऊंचाई पर ओज़ोन की मात्रा का एक संतुलन बना रहता है। यह ओज़ोन
पराबैंगनी विकिरण को अवशोषित करके और उसे पृथ्वी की सतह तक पहुंचने से दूर रखने की
प्रक्रिया जारी रखती है। सतह पर पराबैंगनी विकिरण जितना कम होगा उतना मनुष्यों और
अन्य जंतुओं के लिए बेहतर है।
लेकिन ओज़ोन की इस संतुलित सुकूनदायक
स्थिति में परिवर्तन तब आता है जब ओज़ोन को ऑक्सीजन में तोड़ने वाले पदार्थ ऊपरी
वायुमंडल में पहुंच जाते हैं। इनमें से सबसे प्रमुख हैं पानी के अणु का ऋणावेशित OH हिस्सा,
नाइट्रिक ऑक्साइड का NO हिस्सा,
मुक्त क्लोरीन या ब्रोमीन
परमाणु। ये पदार्थ ओज़ोन से अतिरिक्त ऑक्सीजन परमाणुओं को खींचने में सक्षम होते
हैं और फिर ये ऑक्सीजन परमाणुओं को अन्य यौगिक बनाने के लिए छोड़ते हैं। इसके बाद
ये पदार्थ अन्य ओज़ोन अणुओं से ऑक्सीजन परमाणुओं को खींचते हैं और लंबे समय तक ऐसा
करते रहते हैं। ऊंचाई पर इनमें से सबसे अधिक महत्वपूर्ण क्लोरीन है और एक क्लोरीन
परमाणु 1,00,000 ओज़ोन अणुओं के साथ प्रतिक्रिया करते हुए दो साल तक सक्रिय रहता
है।
ओज़ोन का विघटन करने वाले पदार्थों को
वायुमंडल में भेजने वाली प्राकृतिक प्रक्रियाएं बहुत कम हैं। लेकिन फिर भी 1970 के दशक के बाद
से ऊंचाइयों पर ओज़ोन परत में गंभीर क्षति देखी गई है। इसका कारण विभिन्न क्लोरोफ्लोरोकार्बन
यौगिकों का वायुमंडल में छोड़ा जाना पहचाना गया था जिनका उपयोग उस समय उद्योगों
में बढ़ने लगा था। ये यौगिक वाष्पशील होते हैं और वायुमंडल की ऊंचाइयों तक पहुंच
जाते हैं और क्लोरीन के एकल परमाणु मुक्त करते हैं। ये क्लोरीन परमाणु ओज़ोन परत
पर कहर बरपाते हैं।
पराबैंगनी विकिरण को सोखने वाली ओज़ोन परत
हज़ारों सालों से ही मौजूद रही है और जीवन का विकास ओज़ोन की मौजूदगी में ही हुआ
है। हो सकता है कि थोड़ा पराबैंगनी विकिरण जीवन की उत्पत्ति के लिए एक पूर्व शर्त
रहा हो। लेकिन अब ओज़ोन की कमी और पराबैंगनी विकिरण में वृद्धि के गंभीर स्वास्थ्य
सम्बंधी प्रभाव हैं जिसका एक उदहारण त्वचा कैंसर की घटनाओं में वृद्धि में देखा जा
सकता है। अंटार्कटिक के ऊपर के वायुमंडल में ओज़ोन में भारी कमी यानी ‘ओज़ोन छिद्र’ का
पता लगने के परिणामस्वरूप मॉन्ट्रियल संधि अस्तित्व में आई और यह अनुमान लगाया गया
कि सीएफसी उपयोग पर रोक लगाई जाए तो 2030 तक त्वचा कैंसर के 20 लाख मामलों को रोका
जा सकेगा।
रुझान पलटा
जैसा कि हमने बताया, सीएफसी
को ओज़ोन क्षति का मुख्य कारण माना गया था और इसलिए संधि में क्लोरोफॉर्म जैसे
अन्य कारणों पर ध्यान नहीं दिया गया। ऐसा माना गया था कि वे ‘अत्यंत अल्पजीवी
पदार्थ’ (या वीएसएलएस) हैं और यह भी माना गया था कि ये मुख्य रूप से
प्राकृतिक स्रोतों से उत्पन्न होते हैं। फिर भी,
नेचर जियोसाइंस में प्रकाशित शोध पत्र के अनुसार निचले
समताप मंडल में वीएसएलएस का स्तर बढ़ता जा रहा है। अध्ययन के अनुसार दक्षिण ध्रुव
के वायुमंडल में क्लोरोफॉर्म का स्तर 1920 में 3.7 खरबवां हिस्सा था जो
बढ़ते-बढ़ते 1990 में 6.5 खरबवें हिस्से तक पहुंचा और फिर इसमें गिरावट देखने को
मिली। इसी अवधि में उत्तर घ्रुव के वायुमंडल में क्लोरोफॉर्म 5.7 खरबवें भाग से
बढ़कर 17 खरबवें भाग तक बढ़ने के बाद इसमें कमी आई। गिरावट का यह रुझान 2010 तक
अलग-अलग अवलोकन स्टेशनों पर जारी रहा। लेकिन एक बार फिर यह बढ़ना शुरू हो गया।
2015 तक के आकड़ों के अनुसार यह वृद्धि मुख्य रूप से उत्तरी गोलार्ध में हुई है।
शोध पत्र के अनुसार इससे पता चलता है कि वायुमंडल में प्रवेश करने वाले
क्लोरोफॉर्म का मुख्य स्रोत उत्तरी गोलार्ध में है।
ऑस्ट्रेलिया,
उत्तरी अमेरिका और
युरोप के पश्चिमी तट के स्टेशनों के अनुसार 2007-2015 के दौरान निकटवर्ती स्रोतों
से उत्सर्जन के कारण क्लोरोफॉर्म स्तर में वृद्धि अधिक नहीं थी। दूसरी ओर, 2010-2015
के दौरान जापान और दक्षिण कोरिया के स्टेशनों पर काफी वृद्धि दर्ज की गई थी।
इस परिदृश्य का आकलन करने के लिए, शोधकर्ताओं
ने संभावित स्रोतों से प्रेक्षण स्थलों तक क्लोरोफॉर्म के स्थानांतरण का पता करने
के लिए मॉडल का उपयोग किया। इस अध्ययन से पता चला कि 2010 के बाद से पूर्वी चीन से
उत्सर्जन में तेज़ी से वृद्धि हुई है, जबकि जापान और दक्षिण कोरिया दूसरे स्थान
पर हैं। अन्य पूर्वी एशियाई देशों से कोई महत्वपूर्ण वृद्धि देखने को नहीं मिली
है। चीन में वृद्धि ऐसे क्षेत्रों में है जहां घनी आबादी के साथ-साथ औद्योगीकरण के
कारण क्लोरोफॉर्म गैस का उत्सर्जन करने वाले कारखाने हैं। शोध पत्र में यह स्पष्ट
किया गया है कि हवा में क्लोरोफॉर्म का एक बड़ा हिस्सा उद्योगों से आता है और
क्लोरोफॉर्म के स्तर में वृद्धि मानव निर्मित है।
शोध पत्र के अनुसार क्लोरोफॉर्म जैसे अत्यंत अल्पजीवी पदार्थों में वृद्धि का वर्तमान स्तर, ओज़ोन छिद्र के सुधार में कई वर्षों की देरी कर सकता है। नेचर जियोसाइंस में जर्मनी के जियोमर हेल्महोल्ट्ज़ सेंटर फॉर ओशन रिसर्च के सुसैन टेग्टमीयर ने टिप्पणी की है कि “यह निष्कर्ष मानव-जनित अत्यंत अल्पजीवी पदार्थों के उत्सर्जन का नियमन करने की चर्चा को शुरू करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है।” (स्रोत फीचर्स) नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://encrypted-tbn0.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcT1A04DCJmP6kOc5_bcYPPdVJzfc_C5Xge8fs1sEeGZ-Ge7TUHh
देश के महानगरों और शहरों में जिस तेज़ी से वायु प्रदूषण बढ़
रहा है,
उसमें सबसे ज्यादा योगदान वाहनों से होने वाले प्रदूषण का
है। इस मुद्दे पर वर्षों से चिंता जताई जा रही है, लेकिन
ठोस परिणाम देखने में नहीं आ रहे हैं। वहीं देश में दो-पहिया और चार-पहिया वाहनों
की संख्या तेज़ी से बढ़ती जा रही है और रोज़ाना लाखों नए वाहन पंजीकृत हो रहे हैं। आज
देश में पेट्रोल और डीज़ल से चलने वाले करोड़ों वाहन हैं, और
इनसे निकलने वाला काला धुआं कार्बन उत्सर्जन का बड़ा कारण है।
पेरिस समझौते के प्रति अपनी प्रतिबद्धता के चलते भारत सरकार ने सन 2030 तक
बिजली से चलने वाले वाहनों को बढ़ावा देने के लिए एक वृहद योजना तैयार की है।
उम्मीद की जा रही है कि पूरे देश में विद्युत वाहनों का उपयोग बढ़ने से बिजली
क्षेत्र में बड़ा बदलाव आएगा और उत्सर्जन में 40 से 50 प्रतिशत की कमी आएगी। इससे देश
में कार्बन उत्सर्जन के लक्ष्य को हासिल करने में मदद मिलेगी।
इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए केंद्रीय मंत्रिमंडल ने नीति आयोग की अगुवाई
में विद्युत गतिशीलता के मिशन को मंज़ूरी दी है। ध्यान रहे कि विद्युत गतिशीलता को
सार्वजनिक परिवहन से जोड़ने के लिए केंद्र सरकार ने 2015 में हाइब्रिाड (बिजली और
र्इंधन दोनों से चलने वाले) और इलेक्ट्रिक वाहनों को तेज़ी से अपनाने और उनके
निर्माण की नीति शुरू की थी – फास्टर एडॉप्शन एंड मैन्युफैक्चरिंग ऑफ हायब्रिाड
एंड इलेक्ट्रिक वेहिकल्स (एफएएमई)। इसका पुनरीक्षण किया जा रहा है। इसके तहत नीति
आयोग ने बिजली से चलने वाले वाहनों की ज़रूरत, उनके
निर्माण और इससे सम्बंधित ज़रूरी नीतियां बनाने की शुरुआत की है।
दरअसल,
भारत विद्युत वाहनों के लिए दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा बाज़ार
है। भारत में इस वक्त लगभग 4 लाख इलेक्ट्रिक दो-पहिया वाहन और 1 लाख ई-रिक्शा हैं, कारें तो हज़ारों की संख्या में ही हैं। सोसाइटी ऑफ मैन्युफैक्चरर्स ऑफ
इलेक्ट्रिक वेहिकल्स (एसएमईवी) के अनुसार, भारत
में 2017 में बेचे गए आंतरिक दहन इंजन वाहनों में से एक लाख से भी कम बिजली से
चलने वाले वाहन थे। इनमें से 93 प्रतिशत से अधिक इलेक्ट्रिक तीन-पहिया वाहन और 6
प्रतिशत दो-पहिया वाहन थे।
भारत भले ही इलेक्ट्रिक कारों में दूसरे देशों से पीछे हो, लेकिन बैटरी से चलने वाले ई-रिक्शा की बदौलत भारत ने चीन को पीछे छोड़ दिया है।
रिपोर्ट्स के मुताबिक मौजूदा समय में भारत में करीब 15 लाख ई-रिक्शा चल रहे हैं।
कंसÏल्टग फर्म ए.टी. कर्नी की एक
की रिपोर्ट में बताया गया है कि हर महीने भारत में करीब 11,000 नए ई-रिक्शा सड़कों
पर उतारे जा रहे हैं। भारत में अभी इलेक्ट्रिक गाड़ियों को चार्ज करने के लिए कुल
425 पॉइंट बनाए गए हैं। सरकार 2022 तक इन प्वाइंट्स को 2800 करने वाली है।
गौरतलब है कि देश में बड़े पैमाने पर इलेक्ट्रिक वाहनों के उपयोग से बिजली की
मांग भी बढ़ रही है। उद्योग मंडल एसोचैम और अन्स्र्ट एंड यंग एलएलपी के संयुक्त
अध्ययन में कहा गया है कि सन 2030 तक इलेक्ट्रिक वाहनों के उपयोग से बिजली की मांग
69.6 अरब युनिट तक पहुंचने का अनुमान है।
आलोचकों का तर्क यह भी है कि भारत में 90 प्रतिशत बिजली का उत्पादन कोयले से
होता है। ऐसे में इलेक्ट्रिक कारों से प्रदूषण कम करने की बात बेमानी लगती है।
नॉर्वे के विज्ञान और प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय की ओर से कराए गए एक शोध के
मुताबिक बिजली से चलने वाले वाहन पेट्रोल और डीज़ल से चलने वाले वाहनों से कहीं
ज्यादा प्रदूषण के लिए ज़िम्मेदार हो सकते हैं। अध्ययन में कहा गया है कि यदि बिजली
उत्पादन के लिए कोयले का इस्तेमाल होता है तो इससे निकलने वाली ग्रीन हाउस गैसें
डीज़ल और पेट्रोल वाहनों की तुलना में कहीं ज़्यादा प्रदूषण फैलाती हैं। यही नहीं, जिन फैक्ट्रियों में बिजली से चलने वाली कारें बनती हैं वहां भी तुलनात्मक रूप
में ज़्यादा विषैली गैसें निकलती हैं। हालांकि शोधकर्ताओं का कहना है कि इन खामियों
के बावजूद कई मायनों में ये कारें फिर भी बेहतर हैं। लेकिन रिपोर्ट में कहा गया है
कि ये कारें उन देशों के लिए फायदेमंद हैं जहां बिजली का उत्पादन अन्य स्रोतों से
होता है।
अपने देश में इलेक्ट्रिक वाहन चलाने के लिए पर्याप्त बिजली मिल सके, अभी इस पर काम किया जाना है। उसके लिए बुनियादी सुविधाओं, संसाधनों और बजट का प्रावधान किया जाना है। वाहन निर्माता कंपनियों का कहना है कि अगर सरकार बैटरी निर्माण और चार्जिंग स्टेशनों की समस्या का समाधान कर दे तो बिजली चालित वाहन बड़ी तादाद में उतारे जा सकते हैं। ज़ाहिर है, बुनियादी सुविधाओं का बंदोबस्त सरकार को करना है और इसके लिए ठोस दीर्घावधि नीति की ज़रूरत है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://s27836.pcdn.co/wp-content/uploads/2017/12/Air-pollution-electric-vehicles-electric-cars-technology-420×265.jpg
एक अनुमान के मुताबिक 1991 में सोवियत संघ के पतन के बाद जो
आर्थिक संकट पैदा हुआ था, उसकी वजह से वहां ग्रीनहाउस गैसों के
उत्सर्जन में भारी कमी आई थी। इसका मुख्य कारण यह बताया गया है कि इस आर्थिक संकट
के कारण लोगों ने मांस खाना बहुत कम कर दिया था।
सोवियत संघ में कम्युनिस्ट शासन के दौरान
पशुपालन से प्राप्त मांस वहां के लोगों का मुख्य भोजन हुआ करता था। 1990 में एक
औसत सोवियत नागरिक प्रति वर्ष 32 किलोग्राम मांस खाता था जो उस समय पश्चिमी युरोप
की प्रति व्यक्ति खपत से सवा गुना और वैश्विक औसत से 4 गुना ज़्यादा था।
लेकिन सोवियत संघ के विघटन के बाद रोज़मर्रा
की वस्तुओं की कीमतों में ज़बरदस्त वृद्धि हुई और रूबल की क्रय क्षमता बहुत कम हो
गई। ऐसी स्थिति में मांस उत्पादन भी बहुत कम हो गया। बताते हैं कि उस दौर के बाद
पूर्व-सोवियत संघ की एक-तिहाई कृषि भूमि खाली पड़ी है। सोवियत संघ के पतन के बाद उस
क्षेत्र में औद्योगिक उत्पादन में भी काफी गिरावट हुई थी।
सोवियत खाद्य एवं कृषि व्यवस्था में
उपरोक्त परिवर्तनों के चलते 1992-2011 के दौरान ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में
7.6 अरब टन प्रति वर्ष की कमी आई। सोवियत संघ में मांस के उपभोग और अंतर्राष्ट्रीय
व्यापार के आंकड़ों के आधार पर यह अनुमान जर्मनी के लीबनिज़ इंस्टीट्यूट ऑफ
एग्रिकल्चरल डेवलपमेंट इन ट्रांज़िशन इकॉनॉमीज़ के एफ. शीयरहॉर्न व उनके साथियों ने एन्वायरमेंटल
रिसर्च लेटर्स नामक शोध पत्रिका में प्रकाशित किया है। फिलहाल रूस 2.5 अरब टन
ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन करता है।
शीयरहॉर्न का कहना है कि फिलहाल पशुपालन दुनिया भर में 14.5 प्रतिशत ग्रीनङाउस गैसों के लिए ज़िम्मेदार है। खास तौर से गौमांस का उत्पादन सबसे अधिक ग्रीनहाउस गैसों के लिए ज़िम्मेदार होता है क्योंकि इसके लिए जो चारागाह विकसित किए जाते हैं, वे जंगल काटकर बनते हैं। (स्रोत फीचर्स) नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://cff2.earth.com/uploads/2019/06/20192123/The-collapse-of-the-Soviet-Union-led-to-much-lower-greenhouse-gas-emissions-730×410.jpg
इटली के आल्प्स पर्वतीय क्षेत्र में चार इंजनों वाला एक
टर्बाइन चालित विमान उड़ान भर रहा था। विमान ने 1524 मीटर की ऊंचाई से गोता लगाया। इससे पहले
कि वह फिर से अपनी सही अवस्था में आए, विमान सिर्फ 90 सेकंड में 213 मीटर की ऊंचाई तक आ चुका था। कुछ ही
मिनटों में वह स्विट्ज़रलैंड के सेंट गाटहार्ड दर्रे में ऊपर-नीचे होता हुआ अपने
पूर्व निश्चित लक्ष्य की ओर उड़ान भर रहा था। वह चारों ओर से बहुत ही खराब मौसम से
घिर चुका था। 7 घंटे से भी अधिक समय तक यह विमान हिचकोले भरता हुआ आल्प्स
के इर्द-गिर्द उड़ता रहा और अंत में भूमध्य सागर तथा 4 देशों की सीमाएं पार कर जेनेवा के
कोयनट्रिन हवाई अड्डे पर उतरा।
विमान में सवार युरोप और अमरीका के 12
वायुमंडलीय वैज्ञानिकों में से किसी के भी चेहरे पर परेशानी का भाव नहीं था। उनके
लिए यह कष्टकारी उड़ान उनके मिशन का एक हिस्सा थी। एल्पाइन एक्सपेरिमेंट (एलपेक्स)
के अंतर्गत उड़ान भर रहे इस विमान का उद्देश्य यह अध्ययन करना था कि पर्वतमालाएं एक
बड़े क्षेत्र के मौसम को किस तरह प्रभावित करती हैं। इस कार्य के लिए विमान में
पूरी प्रयोगशाला थी जिसमें वायु गति मापने से ले कर बादलों में पानी की मात्रा आदि
सभी चीज़ें दर्ज करने के लिए कंप्यूटर व अनेक सूक्ष्म यंत्र लगे हुए थे जो उन
कारणों का पता लगा रहे थे जिनसे आल्प्स के मौसम से तेज़ हवाएं पैदा होती हैं और
दक्षिण फ्रांस से होती हुई इटली के एड्रियाटिक सागर तट पर पहुंच कर तबाही मचाती
हैं।
किसी भी वैज्ञानिक चुनौती की अपेक्षा मौसम
की भविष्यवाणी करना अधिक रहस्यमय है। खेती-बाड़ी,
परिवहन, जहाज़रानी, उड्डयन
और यहां तक कि सैर-सपाटे के लिए भी मौसम की पूर्व जानकारी होना महत्वपूर्ण है।
अनुमान है कि अकेले पश्चिमी युरोप के लिए ही मौसम की 7 दिन की पूर्ण विश्वसनीय भविष्यवाणी करने
से हर साल करोड़ों डॉलर का फर्क पड़ जाता है।
मनुष्य सदियों से मौसम की भविष्यवाणी करने
का प्रयास कर रहा है। युरोप के कुछ देशों में तो वर्षा और तापमान के 300
वर्ष पुराने रिकार्ड मिले हैं। परंतु पुराने समय के मौसम वैज्ञानिक बड़े-बड़े
यंत्रों और गणना करने की उच्च क्षमता के बिना अपने अनुभवों के आधार पर ही
भविष्यवाणियां किया करते थे।
लगभग 60 वर्ष पहले ब्रिटिश वैज्ञानिक एल. एफ.
रिचर्डसन ने यह प्रमाणित किया कि भौतिकी के नियमों पर आधारित गणित के समीकरणों की
सहायता से मौसम की भविष्यवाणी की जा सकती है। परंतु रिचर्डसन ने एक छोटे से इलाके
के मौसम की 6 घंटे पहले भविष्यवाणी करने का जो प्रयास किया, उसकी
गणना करने में उन्हें कई सप्ताह तक कड़ी मेहनत करनी पड़ी। अपने इस प्रयास के उपरांत
वह इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि पूरे विश्व के मौसम की निरंतर भविष्यवाणी करने के लिए
64,000 व्यक्तियों को गणना करने वाली साधारण मशीनों पर लगातार काम
करते रहना होगा।
1950 में
गणितज्ञ जान फॉन नॉइमान और उनके सहयोगियों ने इस समस्या को कंप्यूटर की मदद से हल
किया। आज के सशक्त और तेज़ कंप्यूटर तो इस विधि के मुख्य आधार हैं। लेकिन उन्नत
तकनीकों ने मौसम के पूर्वानुमान को अत्यधिक खर्चीला बना दिया है। दुनिया की समस्त
मौसम विज्ञान सेवाओं को चलाने की सालाना लागत दो अरब डॉलर से अधिक है।
आफनबाक (पश्चिमी जर्मनी) स्थित
प्रेक्षणशाला में पूरी कमान कंप्यूटरों के हाथ में है। यहां विश्व के 9000 से
अधिक केंद्रों से वायु की दिशा, आद्रता और वायु दाब के बारे में सूचनाएं
एकत्र कर कंप्यूटर में डाली जाती हैं। कभी-कभी तो हज़ारों किलोमीटर दूर दर्ज किए गए
आंकड़े भी घंटे भर के अंदर कंप्यूटर में भर दिए जाते हैं। जेनेवा स्थित विश्व मौसम
विज्ञान संगठन विभिन्न देशों से तथा विमान चालकों,
व्यापारिक जहाज़ों और
मौसम उपग्रहों से प्राप्त मौसम के सैकड़ों नक्शे जारी करता है। युरोप का मौसम
उपग्रह मेटियोसैट-2 भूमध्य रेखा के ऊपर 36,000 कि.मी. की ऊंचाई से हर आधे घंटे बाद
वायुमंडल के चित्र भेजता है।
उपग्रहों द्वारा मौसम के बारे में एकत्रित
की गई जानकारी हमें अंकों के रूप में प्राप्त होती है। इन अंकों में वायुमंडल की
निश्चित समय की परिस्थितियों का पूर्ण विवरण होता है। इस विवरण से कंप्यूटर पूरे
वायुमंडल का एक काल्पनिक चित्र तैयार करता है। इस चित्र में विभिन्न स्थान बिंदुओं
की सहायता से दर्शाए जाते हैं। इस मानचित्र को गणित समीकरणों की बहुत ही जटिल
प्रणाली में फिट किया जाता है। इसी से यह पता चलता है कि प्रत्येक बिंदु पर मौसम
में कैसा-कैसा परिवर्तन होगा।
ऐसा माना जाता है कि इंग्लैंड के रीडिंग
शहर में स्थित युरोपियन सेंटर फॉर मीडियम रेंज वेदर फोरकास्ट (ईसीएमडब्लूएफ) मौसम
की भविष्यवाणी करने वाला सर्वश्रेष्ठ केंद्र है। इस केंद्र में लगा शक्तिशाली कंप्यूटर
प्रति दिन लगभग 8 करोड़ सूचनाएं प्राप्त करता है तथा प्रति सेकंड एक साथ 5 करोड़ क्रियाएं कर
सकता है।
मध्यम दूरी के मौसम की भविष्यवाणी करना
किसी भी अकेले देश के तकनीकी और वित्तीय साधनों के बस के बाहर है, अत:
यह केंद्र स्थापित किया गया। केंद्र के निदेशक के अनुसार,
बादलों के लिए
राष्ट्रों की सीमाओं का कोई महत्व नहीं है। अब 5-6 दिन तक के मौसम की सही भविष्यवाणी की जा
सकती है। पहले केवल 2-3 दिन की भविष्यवाणी सही होती थी।
मौसम के बारे में दो-तीन दिन पहले की सूचना
भी बहुत महत्वपूर्ण हो सकती है। नवंबर में जब इटली के दक्षिणी भाग में भूकंप आया
तो ईसीएमडब्लूएफ ने आने वाले सप्ताह के दौरान ठंडे मौसम और तेज़ तूफान आने की
बिलकुल सही भविष्यवाणी की थी। स्थानीय अधिकारी सचेत हो गए कि ढाई लाख बेघर भूकंप
पीड़ितों के लिए गरम कपड़ों और शरण स्थलों की आवश्यकता होगी।
ईसीएमडब्लूएफ तथा अन्य सभी राष्ट्रीय
केंद्रों द्वारा इस्तेमाल में लाए जाने वाले कंप्यूटर मॉडलों की बराबर सूक्ष्म
ट्यूनिंग की जाती है ताकि वे सटीक काम करें। कई मौसम कार्यालयों में और भी सूक्ष्म
ग्रिड लगाए गए हैं ताकि छोटे-छोटे क्षेत्रों के बारे में भविष्यवाणी की जा सके। कहते
हैं कि 1982 में मध्य फ्रांस में तबाही मचाने वाले बर्फीले तूफान के
बारे में पहले से भविष्यवाणी नहीं की जा सकी थी क्योंकि वह इलाका ग्रिड के हिसाब
से बहुत ही छोटा था।
इसके बाद फ्रांस में सूक्ष्म ग्रिड
इस्तेमाल किया जाने लगा जो बहुत कम दूरी पर स्थित बिंदुओं को भी अलग-अलग दर्शा
सकता है। मौसम वैज्ञानिकों का लक्ष्य इन मॉडलों को और अधिक सटीक बनाना तथा
पूर्वानुमान लगाने की सीमा को 10 दिन तक बढ़ाना है।
वैज्ञानिक मौसम की भविष्यवाणी के दूसरे
पहलुओं पर भी काम करने लगे हैं। जैसे बहुत ही कम अवधि यानी कुछ ही घंटों के मौसम
की जानकारी देना। इसे ‘नाऊकास्टिंग’ यानी तत्काल पूर्वानुमान कहते हैं। अलबत्ता, अल्प
अवधि की ये भविष्यवाणियां पूरी तरह पक्की नहीं होतीं। जैसे ब्रिाटेन का मौसम
कार्यालय आसमान साफ रहने या कहीं-कहीं वर्षा होने की भविष्यवाणी तो कर सकता है
परंतु ठीक-ठीक नहीं बता सकता कि छिटपुट वर्षा कहां होगी तथा कहां ज़्यादा होगी।
इन प्रश्नों के उत्तर नाऊकाÏस्टग द्वारा दिए जा
सकते हैं। राडार और उपग्रहों से प्राप्त संकेतों के ज़रिए स्थानीय मौसम के बारे में
6 घंटे पहले भविष्यवाणी की जा सकती है। आंकिक मॉडल से मौसम
सम्बंधी जानकारी जहां हमें केवल वायुमंडल के तापमान,
नमी और हवा की दिशा
के रूप में मिलती है, वहां राडार की आंखें वर्षा को भी देख सकती हैं तथा कुछ
किलोमीटर तक उसकी स्थिति दर्शा सकती है। उपग्रहों से प्राप्त इंफ्रारेड चित्रों और
राडार की मदद से मौसम वैज्ञानिक बिजली गिरने अथवा जल प्लावन जैसी छोटी-मोटी घटनाओं
के बारे में भविष्यवाणी कर सकते हैं। इसके अलावा कंप्यूटरों द्वारा यह भी मालूम कर
सकते हैं कि वर्षा तूफान का रुख किधर होगा तथा उसकी तीव्रता में क्या-क्या
परिवर्तन आ सकते हैं।
बहुत ही छोटे क्षेत्रों के मौसम का अध्ययन
दक्षिण फ्रांस के तूलूज स्थित न्यू मेटियोरलॉजिकल नेशनल सेंटर में भी किया जाता
है। इस केंद्र में अनुसंधानकर्ता जिस स्केल मॉडल की सहायता से परीक्षण करते हैं, वह
स्थानीय क्षेत्रों की रूपरेखा का आंकिक मॉडल न हो कर भौतिक मॉडल है। 10
मीटर लंबे और 3 मीटर चौड़े इन मॉडलों को पानी के एक बड़े टैंक में रखा जाता
है। इसके बाद पानी में हलचल पैदा की जाती है ताकि मॉडल के ऊपर और आसपास से पानी
ठीक उसी तरह गुज़रे जिस तरह वास्तविक पर्वतों और घाटियों में से हवा गुज़रती है।
अनुसंधानकर्ता लेसर किरणों की सहायता से पानी के वेग और हलचल को माप कर उसके आधार
पर स्थानीय मौसम का एक विस्तृत मानचित्र तैयार कर लेते हैं।
मौसम की भविष्यवाणी के क्षेत्र में प्रगति धीमी अवश्य है, लेकिन नाऊकॉस्टिंग से लेकर मध्यम दूरी की भविष्यवाणी तक का दृष्टिकोण मौसम विज्ञान की प्रगति के लिए अति महत्वपूर्ण है। एलपेक्स के वैज्ञानिक डॉ. योआकिम क्यूटनर का कहना है, ‘जब तक आप यह नहीं समझेंगे कि मौसम की रचना कैसे होती है, तब तक आप उसकी सही-सही भविष्यवाणी नहीं कर सकते।’ (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit :https://www.weathertoski.co.uk/s/cc_images/cache_2475560870.jpg?t=1519640271
धरती के तापमान में वृद्धि (ग्लोबल
वार्मिंग) में योगदान के लिए उड्डयन उद्योग को जि़म्मेदार ठहराया जाता रहा है, खास तौर से विमानों
से निकलने वाली कार्बन डाईऑक्साइड के कारण। लेकिन हालिया शोध बताते हैं कि उड़ते
विमान के पीछे जो एक लंबी सफेद लकीर नज़र आती है, वह भी तापमान को
बढ़ाने में खासी भूमिका निभाती है।
अक्सर ऊंचाई पर उड़ान भरने के दौरान या कई अन्य
परिस्थितियों में विमान ऐसी लकीर छोड़ते हैं। जिस ऊंचाई पर ये विमान उड़ते हैं
वहां की हवा ठंडी और विरल होती है। जब इंजन में से कार्बन के कण निकलते हैं तो
बाहर की ठंडी हवा में उपस्थित वाष्प इन कणों पर संघनित हो जाती है। यह एक किस्म का
बादल होता है जो लकीर के रूप में नज़र आता है। इसे संघनन लकीर कहते हैं। ये बादल
कुछ मिनटों से लेकर कई घंटों तक टिके रह सकते हैं। ये बादल इतने झीने होते हैं कि
सूर्य के प्रकाश को परावर्तित तो नहीं कर पाते किंतु इनमें मौजूद बर्फ के कण ऊष्मा
को कैद कर लेते हैं। इसकी वजह से तापमान में वृद्धि होती है। इस शोध के मुताबिक
साल 2050 तक संघनन लकीरों के कारण होने वाली तापमान वृद्धि तीन गुना हो जाएगी।
साल 2011 में हुए एक शोध के मुताबिक
विमान-जनित बादलों का कुल प्रभाव,
विमानोंद्वारा छोड़ी गई कार्बन डाईऑक्साईड की तुलना में
तापमान वृद्धि में अधिक योगदान देता है। अनुमान यह है कि 2050 तक उड़ानों की
संख्या चौगुनी हो जाएगी और परिणाम स्वरूप तापमान में और अधिक बढ़ोतरी होगी।
उक्त अध्ययन में शामिल जर्मन एयरोस्पेस
सेंटर की उलरिके बुर्खार्ट जानना चाहती थीं कि भविष्य में ये विमान-जनित बादल
जलावयु को किस तरह प्रभावित करेंगे। इसके लिए उन्होंने अपने साथियों के साथ एक
बिलकुल नया पर्यावरण मॉडल बनाया जिसमें विमान-जनित बादलों को सामान्य बादलों से
अलग श्रेणी में रखा गया था। शोधकर्ताओं ने साल 2006 के लिए विश्व स्तर पर
विमान-जनित बादलों का मॉडल तैयार किया क्योंकि सटीक डैटा इसी वर्ष के लिए उपलब्ध
था। फिर उन अनुमानों को देखा कि भविष्य में उड़ानें कितनी बढ़ेंगी और उनके कारण
कितना उत्सर्जन होगा। इसके आधार पर 2050 की स्थिति की गणना की। एटमॉस्फेरिक
केमेस्ट्री एंड फिजि़क्स पत्रिका में प्रकाशित रिपोर्ट में उन्होंने बताया है कि
साल 2050 तक विमान-जनित बादलों के कारण तापमान में होने वाली वृद्धि तीन गुना हो
जाएगी।
इसके बाद उन्होंने 2050 में एक अलग परिस्थिति के लिए मॉडल बनाया जिसमें उन्होंने यह माना कि विमानों से होने वाले कार्बन कण उत्सर्जन में 50 प्रतिशत कमी की जाएगी और उसके प्रभाव को देखा। उन्होंने पाया कि इतनी कमी करने पर इन बादलों के कारण होने वाली तापमान वृद्धि में बस 15 प्रतिशत की कमी आती है। बुर्खार्ट का कहना है कि कार्बन कणों में 90 प्रतिशत कमी करने पर भी हम 2006 के स्तर पर नहीं पहुंच पाएंगे। वैसे बहुत संदेह है कि इस दिशा में कोई कार्य होगा क्योंकि आज भी हम कार्बन डाईऑक्साइड पर ही ध्यान दे रहे हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/inline__450w__no_aspect/public/1127588194-1280×720.jpg?itok=FclbRZio https://insideclimatenews.org/sites/default/files/styles/icn_full_wrap_wide/public/article_images/contrails-germany-900_nicolas-armer-afp-getty%20.jpg?itok=-Z65PHF1
लॉस एंजेल्स,
कैलिफोर्निया के अधिकारी जल्द ही एक सौदा करने वाले हैं जो
सौर ऊर्जा को पहले से कहीं अधिक सस्ता कर देगा और उसकी एक प्रमुख खामी से भी
निपटेगा – सौर ऊर्जा तभी उपलब्ध होती है जब सूरज चमक रहा हो। इस सौदे के तहत एक
विशाल सौर फार्म स्थापित किया जाएगा जहां दुनिया की एक सबसे बड़ी बैटरी का
इस्तेमाल किया जाएगा। 2023 तक यह शहर को 7 प्रतिशत बिजली प्रदान करेगा। इसकी लागत
होगी बैटरी के लिए 1.3 सेंट प्रति युनिट और सौर ऊर्जा के लिए 1.997 सेंट प्रति
किलोवाट घंटा। यह किसी भी जीवाश्म र्इंधन से उत्पन्न उर्जा से सस्ता है।
स्टैनफोर्ड युनिवर्सिटी,
कैलिफोर्निया के वायुमंडलीय वैज्ञानिक मार्क जैकबसन के
अनुसार बड़े पैमाने पर उत्पादन के चलते नवीकरणीय ऊर्जा उत्पादन और बैटरियों की
कीमतें नीचे आती रहती हैं।
बैटरी भंडारण के मूल्य में
तेज़ी से गिरावट के चलते नवीकरण को प्रोत्साहन मिला है। मार्च में ब्लूमबर्ग न्यू
एनर्जी फाइनेंस द्वारा 7000 से अधिक वैश्विक भंडारण परियोजनाओं के विश्लेषण से
मालूम चला है कि 2012 के बाद से लीथियम बैटरी की लागत में 76 प्रतिशत की कमी आई और
पिछले 18 महीनों में 35 प्रतिशत कम होकर 187 डॉलर प्रति मेगावाट-घंटा हो गई। एक
अन्य अध्ययन के अनुसार 2030 तक इसकी कीमतें आधी होने का अनुमान है जो 8-मिनट सोलर
एनर्जी नामक कंपनी के अनुमान से भी कम है।
यही कंपनी नवीन
सौर-प्लस-स्टोरेज कैलिफोर्निया में तैयार करने जा रही है। इस परियोजना से प्रतिदिन
400 मेगावाट सौर संयंत्रों का जाल बनाया जाएगा, जिससे सालाना लगभग 8,76,000 मेगावॉट घंटे (MWh) बिजली पैदा होगी।
यह दिन के समय 65,000 से अधिक घरों के लिए पर्याप्त होगी। इसकी 800 मेगावॉट घंटे
की बैटरी सूरज डूबने के बाद बिजली भंडार करके रखेगी, जिससे प्राकृतिक गैस जनरेटर की ज़रूरत कम हो जाएगी।
बड़े पैमाने पर बैटरी भंडारण आम
तौर पर लीथियम आयन बैटरी पर निर्भर करता है। लेकिन बैटरी ऊर्जा भंडारण आम तौर पर
केवल कुछ घंटों के लिए बिजली प्रदान करते हैं। इसको बादल आच्छादित मौसम या
सर्दियों की स्थिति में लंबे समय तक चलने के लिए विकसित करने की आवश्यकता है।
100 प्रतिशत नवीकरणीय वस्तुओं
पर जाने के साथ-साथ साथ स्थानीय कंपनियां भी ग्रिड बैटरियों की ओर तेज़ी से बढ़ा
रही हैं। जैकबसन के अनुसार, 54 देशों और आठ अमेरिकी राज्यों को 100 प्रतिशत नवीकरणीय बिजली की ओर जाने की
आवश्यकता है।
लॉस एंजेल्स परियोजना वैसे तो सस्ती लगती है, लेकिन ग्रिड को पूरी तरह से नवीकरणीय संसाधनों से उर्जा प्रदान करने से लागत बढ़ सकती है। पिछले महीने ऊर्जा अनुसंधान कंपनी वुड मैकेंज़ी ने अनुमान लगाया था कि इसके लिए अकेले यूएस ग्रिड के लिए 4.5 ट्रिलियन डॉलर की लागत होगी, जिसमें से लगभग आधी लागत 900 बिलियन वॉट या 900 गीगावॉट (GW) बैटरी और अन्य ऊर्जा भंडारण प्रौद्योगिकियों के स्थापित करने के लिए उपयोग हो जाएगी। ( स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://specials-images.forbesimg.com/imageserve/684160330/960×0.jpg?fit=scale
इस साल जून में यदि आपने अत्यधिक गर्मी का अहसास किया है तो आपका एहसास एकदम
सही है। वास्तव में जून 2019 पृथ्वी पर अब तक का सर्वाधिक गर्म जून रहा है। साथ ही
यह लगातार दूसरा महीना था जब अधिक तापमान के कारण अंटार्कटिक सागर में सबसे कम
बर्फ की चादर दर्ज की गई।
नेशनल ओशिएनिक एंड एटमॉस्फेरिक एडमिनिस्ट्रेशन के नेशनल सेंटर फॉर एनवॉयरमेंटल
इंफरमेशन के अनुसार विगत जून में भूमि और सागर का औसत तापमान वैश्विक औसत तापमान
(15.5 डिग्री सेल्सियस) से 0.95 डिग्री सेल्सियस अधिक रहा। यह पिछले 140 वर्षों
में जून माह में दजऱ् किए गए तापमान में सर्वाधिक था। 10 में से 9 सबसे गर्म जून
माह तो साल 2010 के बाद रिकॉर्ड किए गए हैं।
उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों, मेक्सिको खाड़ी के देशों, युरोप,
ऑस्ट्रिया, हंगरी और जर्मनी में इस वर्ष का
जून सर्वाधिक गर्म जून रहा। वहीं स्विटज़रलैंड में दूसरा सर्वाधिक गर्म जून रहा।
यही हाल यूएस के अलास्का में भी रहा। यहां भी 1925 के बाद से अब तक का दूसरा सबसे
गर्म जून दर्ज किया गया।
जून में पूरी पृथ्वी का हाल ऐसा था जैसे इसने गर्म कंबल ओढ़ रखा हो। इतनी अधिक
गर्मी के कारण ध्रुवों पर बर्फ पिघलने
लगी। जून 2019 लगातार ऐसा बीसवां जून रहा जब आर्कटिक में औसत से भी कम बर्फ दर्ज
की गई है। और अंटार्कटिक में लगातार चौथा ऐसा जून रहा जब वहां औसत से भी कम बर्फ
आच्छादन रहा। अंटार्कटिक में पिछले 41 सालों में सबसे कम बर्फ देखा गया। यह 2002
में दर्ज सबसे कम बर्फ आच्छादन (1,60,580 वर्ग किलोमीटर) से भी कम था।
क्या इतना अधिक तापमान ग्लोबल वार्मिंग का नतीजा है? जी हां।
युनिवर्सिटी ऑफ पीट्सबर्ग के जोसेफ वर्न बताते हैं कि कई सालों में लंबी अवधि के
मौसम का औसत जलवायु कहलाती है। कोई एक गर्म या ठंडे साल का पूरी जलवायु पर बहुत कम
असर पड़ता है। लेकिन जब ठंडे या गर्म वर्ष का दोहराव बार-बार होने लगता है तो यह
जलवायु परिवर्तन है।
पूरी पृथ्वी पर अत्यधिक गर्म हवाएं (लू) अधिक चलने लगी हैं। पृथ्वी का तापमान भी लगातार बढ़ता जा रहा है, ऐसे में जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को नज़रअंदाज करना मुश्किल है। नेचर क्लाईमेट चेंज पत्रिका के जून अंक के अनुसार यदि ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को कम नहीं किया गया तो हर साल झुलसा देने वाली गर्मी बढ़ती जाएगी। (स्रोत फीचर्स)
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इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (IPCC) की 2018 की रिपोर्ट के अनुसार ग्लोबल
वार्मिंग पर रोक लगाने के लिए 1 अरब हैक्टर अतिरिक्त जंगल लगाने की आवश्यकता है।
यह क्षेत्र लगभग संयुक्त राज्य अमेरिका के बराबर बैठता है। हालांकि यह काफी कठिन
मालूम होता है लेकिन साइंस पत्रिका में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार, पृथ्वी
पर पेड़ लगाने के लिए इतनी जगह तो मौजूद है।
कृषि क्षेत्रों,
शहरों और मौजूदा
जंगलों को न भी गिना जाए तो दुनिया में 0.9 अरब हैक्टर अतिरिक्त वन लगाया जा सकता
है। इतने बड़े वन क्षेत्र को विकसित किया जाए तो अनुमानित 205 गीगाटन कार्बन का
स्थिरीकरण हो सकता है। यह उस कार्बन का लगभग दो-तिहाई होगा जो पिछले दो सौ वर्षां
में मनुष्य ने वायुमंडल में उड़ेला है। इस अध्ययन का नेतृत्व करने वाले थॉमस
क्रॉथर के अनुसार यह जलवायु परिवर्तन से निपटने का सबसे सस्ता समाधान है और सबसे
कारगर भी है।
आखिर यह कैसे संभव है? यह
पता लगाने के लिए क्रॉथर और उनके सहयोगियों ने लगभग 80,000 उपग्रह तस्वीरों का
विश्लेषण किया और यह देखने की कोशिश की कि कौन-से क्षेत्र जंगल के लिए उपयुक्त
होंगे। इसमें से उन्होंने मौजूदा जंगलों, कृषि क्षेत्रों और शहरी क्षेत्रों को घटाकर
पता किया कि नए जंगल लगाने के लिए कितनी जमीन बची है। आंकड़ा आया 0.9 अरब हैक्टर।
एक अनुमान के मुताबिक 0.9 अरब हैक्टर में 10-15 खरब पेड़ लगाए जा सकते हैं। पृथ्वी
पर इस समय पेड़ों की संख्या 30 खरब है। इसमें आधी से अधिक बहाली क्षमता तो मात्र
छह देशों – रूस, अमेरिका, कनाडा,
ऑस्ट्रेलिया, ब्राज़ील
और चीन – में है।
परिणाम बताते हैं कि यह लक्ष्य वर्तमान जलवायु के तहत प्राप्त करने योग्य है। लेकिन जलवायु बदल रही है, इसलिए हमें इस संभावित समाधान का लाभ लेने के लिए तेज़ी से कार्य करना होगा। यदि धरती के गर्म होने का मौजूदा रुझान जारी रहता है तो 2050 तक नए जंगलों के लिए उपलब्ध क्षेत्र में 22.3 करोड़ हैक्टर की कमी आ जाएगी। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/inline__450w__no_aspect/public/map_16x9_2.jpg?itok=Z_pFQxkR