धरती के तापमान में वृद्धि (ग्लोबल
वार्मिंग) में योगदान के लिए उड्डयन उद्योग को जि़म्मेदार ठहराया जाता रहा है, खास तौर से विमानों
से निकलने वाली कार्बन डाईऑक्साइड के कारण। लेकिन हालिया शोध बताते हैं कि उड़ते
विमान के पीछे जो एक लंबी सफेद लकीर नज़र आती है, वह भी तापमान को
बढ़ाने में खासी भूमिका निभाती है।
अक्सर ऊंचाई पर उड़ान भरने के दौरान या कई अन्य
परिस्थितियों में विमान ऐसी लकीर छोड़ते हैं। जिस ऊंचाई पर ये विमान उड़ते हैं
वहां की हवा ठंडी और विरल होती है। जब इंजन में से कार्बन के कण निकलते हैं तो
बाहर की ठंडी हवा में उपस्थित वाष्प इन कणों पर संघनित हो जाती है। यह एक किस्म का
बादल होता है जो लकीर के रूप में नज़र आता है। इसे संघनन लकीर कहते हैं। ये बादल
कुछ मिनटों से लेकर कई घंटों तक टिके रह सकते हैं। ये बादल इतने झीने होते हैं कि
सूर्य के प्रकाश को परावर्तित तो नहीं कर पाते किंतु इनमें मौजूद बर्फ के कण ऊष्मा
को कैद कर लेते हैं। इसकी वजह से तापमान में वृद्धि होती है। इस शोध के मुताबिक
साल 2050 तक संघनन लकीरों के कारण होने वाली तापमान वृद्धि तीन गुना हो जाएगी।
साल 2011 में हुए एक शोध के मुताबिक
विमान-जनित बादलों का कुल प्रभाव,
विमानोंद्वारा छोड़ी गई कार्बन डाईऑक्साईड की तुलना में
तापमान वृद्धि में अधिक योगदान देता है। अनुमान यह है कि 2050 तक उड़ानों की
संख्या चौगुनी हो जाएगी और परिणाम स्वरूप तापमान में और अधिक बढ़ोतरी होगी।
उक्त अध्ययन में शामिल जर्मन एयरोस्पेस
सेंटर की उलरिके बुर्खार्ट जानना चाहती थीं कि भविष्य में ये विमान-जनित बादल
जलावयु को किस तरह प्रभावित करेंगे। इसके लिए उन्होंने अपने साथियों के साथ एक
बिलकुल नया पर्यावरण मॉडल बनाया जिसमें विमान-जनित बादलों को सामान्य बादलों से
अलग श्रेणी में रखा गया था। शोधकर्ताओं ने साल 2006 के लिए विश्व स्तर पर
विमान-जनित बादलों का मॉडल तैयार किया क्योंकि सटीक डैटा इसी वर्ष के लिए उपलब्ध
था। फिर उन अनुमानों को देखा कि भविष्य में उड़ानें कितनी बढ़ेंगी और उनके कारण
कितना उत्सर्जन होगा। इसके आधार पर 2050 की स्थिति की गणना की। एटमॉस्फेरिक
केमेस्ट्री एंड फिजि़क्स पत्रिका में प्रकाशित रिपोर्ट में उन्होंने बताया है कि
साल 2050 तक विमान-जनित बादलों के कारण तापमान में होने वाली वृद्धि तीन गुना हो
जाएगी।
इसके बाद उन्होंने 2050 में एक अलग परिस्थिति के लिए मॉडल बनाया जिसमें उन्होंने यह माना कि विमानों से होने वाले कार्बन कण उत्सर्जन में 50 प्रतिशत कमी की जाएगी और उसके प्रभाव को देखा। उन्होंने पाया कि इतनी कमी करने पर इन बादलों के कारण होने वाली तापमान वृद्धि में बस 15 प्रतिशत की कमी आती है। बुर्खार्ट का कहना है कि कार्बन कणों में 90 प्रतिशत कमी करने पर भी हम 2006 के स्तर पर नहीं पहुंच पाएंगे। वैसे बहुत संदेह है कि इस दिशा में कोई कार्य होगा क्योंकि आज भी हम कार्बन डाईऑक्साइड पर ही ध्यान दे रहे हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/inline__450w__no_aspect/public/1127588194-1280×720.jpg?itok=FclbRZio https://insideclimatenews.org/sites/default/files/styles/icn_full_wrap_wide/public/article_images/contrails-germany-900_nicolas-armer-afp-getty%20.jpg?itok=-Z65PHF1
लॉस एंजेल्स,
कैलिफोर्निया के अधिकारी जल्द ही एक सौदा करने वाले हैं जो
सौर ऊर्जा को पहले से कहीं अधिक सस्ता कर देगा और उसकी एक प्रमुख खामी से भी
निपटेगा – सौर ऊर्जा तभी उपलब्ध होती है जब सूरज चमक रहा हो। इस सौदे के तहत एक
विशाल सौर फार्म स्थापित किया जाएगा जहां दुनिया की एक सबसे बड़ी बैटरी का
इस्तेमाल किया जाएगा। 2023 तक यह शहर को 7 प्रतिशत बिजली प्रदान करेगा। इसकी लागत
होगी बैटरी के लिए 1.3 सेंट प्रति युनिट और सौर ऊर्जा के लिए 1.997 सेंट प्रति
किलोवाट घंटा। यह किसी भी जीवाश्म र्इंधन से उत्पन्न उर्जा से सस्ता है।
स्टैनफोर्ड युनिवर्सिटी,
कैलिफोर्निया के वायुमंडलीय वैज्ञानिक मार्क जैकबसन के
अनुसार बड़े पैमाने पर उत्पादन के चलते नवीकरणीय ऊर्जा उत्पादन और बैटरियों की
कीमतें नीचे आती रहती हैं।
बैटरी भंडारण के मूल्य में
तेज़ी से गिरावट के चलते नवीकरण को प्रोत्साहन मिला है। मार्च में ब्लूमबर्ग न्यू
एनर्जी फाइनेंस द्वारा 7000 से अधिक वैश्विक भंडारण परियोजनाओं के विश्लेषण से
मालूम चला है कि 2012 के बाद से लीथियम बैटरी की लागत में 76 प्रतिशत की कमी आई और
पिछले 18 महीनों में 35 प्रतिशत कम होकर 187 डॉलर प्रति मेगावाट-घंटा हो गई। एक
अन्य अध्ययन के अनुसार 2030 तक इसकी कीमतें आधी होने का अनुमान है जो 8-मिनट सोलर
एनर्जी नामक कंपनी के अनुमान से भी कम है।
यही कंपनी नवीन
सौर-प्लस-स्टोरेज कैलिफोर्निया में तैयार करने जा रही है। इस परियोजना से प्रतिदिन
400 मेगावाट सौर संयंत्रों का जाल बनाया जाएगा, जिससे सालाना लगभग 8,76,000 मेगावॉट घंटे (MWh) बिजली पैदा होगी।
यह दिन के समय 65,000 से अधिक घरों के लिए पर्याप्त होगी। इसकी 800 मेगावॉट घंटे
की बैटरी सूरज डूबने के बाद बिजली भंडार करके रखेगी, जिससे प्राकृतिक गैस जनरेटर की ज़रूरत कम हो जाएगी।
बड़े पैमाने पर बैटरी भंडारण आम
तौर पर लीथियम आयन बैटरी पर निर्भर करता है। लेकिन बैटरी ऊर्जा भंडारण आम तौर पर
केवल कुछ घंटों के लिए बिजली प्रदान करते हैं। इसको बादल आच्छादित मौसम या
सर्दियों की स्थिति में लंबे समय तक चलने के लिए विकसित करने की आवश्यकता है।
100 प्रतिशत नवीकरणीय वस्तुओं
पर जाने के साथ-साथ साथ स्थानीय कंपनियां भी ग्रिड बैटरियों की ओर तेज़ी से बढ़ा
रही हैं। जैकबसन के अनुसार, 54 देशों और आठ अमेरिकी राज्यों को 100 प्रतिशत नवीकरणीय बिजली की ओर जाने की
आवश्यकता है।
लॉस एंजेल्स परियोजना वैसे तो सस्ती लगती है, लेकिन ग्रिड को पूरी तरह से नवीकरणीय संसाधनों से उर्जा प्रदान करने से लागत बढ़ सकती है। पिछले महीने ऊर्जा अनुसंधान कंपनी वुड मैकेंज़ी ने अनुमान लगाया था कि इसके लिए अकेले यूएस ग्रिड के लिए 4.5 ट्रिलियन डॉलर की लागत होगी, जिसमें से लगभग आधी लागत 900 बिलियन वॉट या 900 गीगावॉट (GW) बैटरी और अन्य ऊर्जा भंडारण प्रौद्योगिकियों के स्थापित करने के लिए उपयोग हो जाएगी। ( स्रोत फीचर्स)
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इस साल जून में यदि आपने अत्यधिक गर्मी का अहसास किया है तो आपका एहसास एकदम
सही है। वास्तव में जून 2019 पृथ्वी पर अब तक का सर्वाधिक गर्म जून रहा है। साथ ही
यह लगातार दूसरा महीना था जब अधिक तापमान के कारण अंटार्कटिक सागर में सबसे कम
बर्फ की चादर दर्ज की गई।
नेशनल ओशिएनिक एंड एटमॉस्फेरिक एडमिनिस्ट्रेशन के नेशनल सेंटर फॉर एनवॉयरमेंटल
इंफरमेशन के अनुसार विगत जून में भूमि और सागर का औसत तापमान वैश्विक औसत तापमान
(15.5 डिग्री सेल्सियस) से 0.95 डिग्री सेल्सियस अधिक रहा। यह पिछले 140 वर्षों
में जून माह में दजऱ् किए गए तापमान में सर्वाधिक था। 10 में से 9 सबसे गर्म जून
माह तो साल 2010 के बाद रिकॉर्ड किए गए हैं।
उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों, मेक्सिको खाड़ी के देशों, युरोप,
ऑस्ट्रिया, हंगरी और जर्मनी में इस वर्ष का
जून सर्वाधिक गर्म जून रहा। वहीं स्विटज़रलैंड में दूसरा सर्वाधिक गर्म जून रहा।
यही हाल यूएस के अलास्का में भी रहा। यहां भी 1925 के बाद से अब तक का दूसरा सबसे
गर्म जून दर्ज किया गया।
जून में पूरी पृथ्वी का हाल ऐसा था जैसे इसने गर्म कंबल ओढ़ रखा हो। इतनी अधिक
गर्मी के कारण ध्रुवों पर बर्फ पिघलने
लगी। जून 2019 लगातार ऐसा बीसवां जून रहा जब आर्कटिक में औसत से भी कम बर्फ दर्ज
की गई है। और अंटार्कटिक में लगातार चौथा ऐसा जून रहा जब वहां औसत से भी कम बर्फ
आच्छादन रहा। अंटार्कटिक में पिछले 41 सालों में सबसे कम बर्फ देखा गया। यह 2002
में दर्ज सबसे कम बर्फ आच्छादन (1,60,580 वर्ग किलोमीटर) से भी कम था।
क्या इतना अधिक तापमान ग्लोबल वार्मिंग का नतीजा है? जी हां।
युनिवर्सिटी ऑफ पीट्सबर्ग के जोसेफ वर्न बताते हैं कि कई सालों में लंबी अवधि के
मौसम का औसत जलवायु कहलाती है। कोई एक गर्म या ठंडे साल का पूरी जलवायु पर बहुत कम
असर पड़ता है। लेकिन जब ठंडे या गर्म वर्ष का दोहराव बार-बार होने लगता है तो यह
जलवायु परिवर्तन है।
पूरी पृथ्वी पर अत्यधिक गर्म हवाएं (लू) अधिक चलने लगी हैं। पृथ्वी का तापमान भी लगातार बढ़ता जा रहा है, ऐसे में जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को नज़रअंदाज करना मुश्किल है। नेचर क्लाईमेट चेंज पत्रिका के जून अंक के अनुसार यदि ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को कम नहीं किया गया तो हर साल झुलसा देने वाली गर्मी बढ़ती जाएगी। (स्रोत फीचर्स)
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इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (IPCC) की 2018 की रिपोर्ट के अनुसार ग्लोबल
वार्मिंग पर रोक लगाने के लिए 1 अरब हैक्टर अतिरिक्त जंगल लगाने की आवश्यकता है।
यह क्षेत्र लगभग संयुक्त राज्य अमेरिका के बराबर बैठता है। हालांकि यह काफी कठिन
मालूम होता है लेकिन साइंस पत्रिका में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार, पृथ्वी
पर पेड़ लगाने के लिए इतनी जगह तो मौजूद है।
कृषि क्षेत्रों,
शहरों और मौजूदा
जंगलों को न भी गिना जाए तो दुनिया में 0.9 अरब हैक्टर अतिरिक्त वन लगाया जा सकता
है। इतने बड़े वन क्षेत्र को विकसित किया जाए तो अनुमानित 205 गीगाटन कार्बन का
स्थिरीकरण हो सकता है। यह उस कार्बन का लगभग दो-तिहाई होगा जो पिछले दो सौ वर्षां
में मनुष्य ने वायुमंडल में उड़ेला है। इस अध्ययन का नेतृत्व करने वाले थॉमस
क्रॉथर के अनुसार यह जलवायु परिवर्तन से निपटने का सबसे सस्ता समाधान है और सबसे
कारगर भी है।
आखिर यह कैसे संभव है? यह
पता लगाने के लिए क्रॉथर और उनके सहयोगियों ने लगभग 80,000 उपग्रह तस्वीरों का
विश्लेषण किया और यह देखने की कोशिश की कि कौन-से क्षेत्र जंगल के लिए उपयुक्त
होंगे। इसमें से उन्होंने मौजूदा जंगलों, कृषि क्षेत्रों और शहरी क्षेत्रों को घटाकर
पता किया कि नए जंगल लगाने के लिए कितनी जमीन बची है। आंकड़ा आया 0.9 अरब हैक्टर।
एक अनुमान के मुताबिक 0.9 अरब हैक्टर में 10-15 खरब पेड़ लगाए जा सकते हैं। पृथ्वी
पर इस समय पेड़ों की संख्या 30 खरब है। इसमें आधी से अधिक बहाली क्षमता तो मात्र
छह देशों – रूस, अमेरिका, कनाडा,
ऑस्ट्रेलिया, ब्राज़ील
और चीन – में है।
परिणाम बताते हैं कि यह लक्ष्य वर्तमान जलवायु के तहत प्राप्त करने योग्य है। लेकिन जलवायु बदल रही है, इसलिए हमें इस संभावित समाधान का लाभ लेने के लिए तेज़ी से कार्य करना होगा। यदि धरती के गर्म होने का मौजूदा रुझान जारी रहता है तो 2050 तक नए जंगलों के लिए उपलब्ध क्षेत्र में 22.3 करोड़ हैक्टर की कमी आ जाएगी। (स्रोत फीचर्स)
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हाल के समय में
बढ़ते जल संकट के बीच एक सार्थक प्रयास यह हुआ है कि परंपरागत जल ज्ञान व प्रबंधन
के महत्व व उसकी उपयोगिता को नए सिरे से समझने का प्रयास किया गया है।
परंपरागत स्रोतों
व तकनीक को महत्व देने का यह अर्थ नहीं है कि विज्ञान की नई उपलब्धियों के आधार पर
उनमें बदलाव या सुधार नहीं होने चाहिए। बदलाव या सुधार अवश्य हो सकते हैं पर ध्यान
देने की बात यह है कि परंपरागत तकनीक की स्थानीय स्थिति की जो मूल समझ है उसके
विरुद्ध कोई बदलाव नहीं करना चाहिए।
कुछ समय पहले
बुंदेलखंड में परंपरागत तालाबों की बेहतरी के कुछ प्रयास विफल हुए क्योंकि इन
प्रयासों में परंपरागत तकनीक की समझ नहीं थी, इस बात की पूरी समझ नहीं थी कि ये तालाब
एक-दूसरे से कैसे जुड़े हुए हैं। एक अन्य स्थान पर तालाबों को मज़बूत बनाने के लिए
उनकी दीवार ऊंची करने का सुझाव दिया गया, मगर इस बात को ध्यान नहीं रखा गया कि एक तालाब के भरने पर
दूसरे तालाब में उसके पानी को भेजने का जो सिलसिला पहले से चला आ रहा था वह इस
उपाय से टूट जाएगा।
आधुनिक और अधिक
सुविधापूर्ण तकनीक आने से प्राय: परंपरागत तकनीक की उपेक्षा होती है। अब नए साधन
भी उपलब्ध हो रहे हैं तो गांव समुदाय को विशेष ध्यान रखना होगा कि परंपरागत
रुाोतों की उपेक्षा न हो। भूजल स्तर नीचे न गिरे, इसका निरंतर ध्यान रखना होगा और इस बारे में
गांव में साझी समझ बनानी होगी कि थोड़े से लोगों द्वारा जल के अत्यधिक दोहन से
पूरे गांव के लिए जल संकट न उत्पन्न हो। जो परंपरागत स्रोत गांव में व आसपास हैं उनके
संरक्षण के अनेक प्रयास हो सकते हैं, जैसे उनकी सफाई, सही किस्म के पेड़ों व अन्य वनस्पतियों को लगाना, अतिक्रमण हटाने का
प्रयास करना आदि। जो परंपरागत स्रोत काफी बुरी स्थिति में हैं, उनके विषय में देखना
होगा कि जलागम क्षेत्र कितना बचा है। यदि किसी तालाब का जलागम क्षेत्र ही नहीं बचा
है तो फिर तालाबों का उद्धार नहीं हो सकता। परंपरागत सोच के अनुकूल नए छोटे स्तर
के जल संरक्षण कार्यों पर भी काम हो सकता है। जैसे चैक डैम बनाना आदि।
इसके साथ यदि
हरियाली बचाने, वृक्षारोपण आदि
के कार्यक्रम जोड़ दिए जाएं,
तो
कार्य अधिक सार्थक होगा। जहां वन विनाश हुआ है पर मिट्टी की उपजाऊ परत बची है, वहां सामुदायिक प्रयास
से, कुछ समय के लिए, चुनी हुई भूमि को पशुओं
की चराई से विश्राम देने से वन की वापसी कुछ ही समय में हो सकती है। इस तरह के
कार्य को चैक डैम, तालाब आदि से
जोड़ा जा सके तो दोनों कार्य एक-दूसरे के पूरक सिद्ध होंगे व गांव में पशुपालन, कृषि, फलदार वृक्षों सभी की
उन्नति होगी। ऐसा एक आदर्श प्रयास आसपास के कई गांवों को प्रेरित कर सकता है। साथ
ही यदि कृषि में रसायनों के उपयोग को दूर करने या कम करने के प्रयास जोड़े जाएं तो
जल स्रोतों का प्रदूषण भी दूर होगा व भूमि का उपजाऊपन भी बढ़ेगा। इन प्रयासों में
गांव की जो जातियां परंपरागत तौर पर विशेष भूमिका निभाती रही हैं, जैसे ढीमर, केवट, मल्लाह, कहार, कुम्हार आदि, उन्हें विशेष प्रोत्साहन
देने व उनकी परंपरागत कुशलता का भरपूर उपयोग करने की आवश्यकता है। महिलाएं ही जल
संकट को सबसे अधिक झेलती हैं,
अत:
उनकी उत्साहवर्धक भागीदारी तो अति आवश्यक है और इस पूरे प्रयास में बहुत लाभदायक
सिद्ध होगी।
जल वितरण और
उपलब्धि में जाति के आधार पर किसी तरह का भेदभाव न हो इसका विशेष ध्यान तो रखना ही
होगा। भूमि सुधार के जो प्रयास हो रहे हैं तथा जहां गरीबों, भूमिहीन लोगों को ज़मीन
मिल रही है विशेषकर वहां जल संरक्षण व संग्रहण के प्रयासों से गरीब वर्ग को लाभ
पंहुचने की अच्छी संभावना है। बिहार में बोधगया संघर्ष से जुड़े एक वरिष्ठ सामाजिक
कार्यकर्ता ने मुझे कुछ समय पहले बताया था कि भूमि जोतने के उत्साह में उन्होंने
परंपरागत अहार पाइन व्यवस्था का ध्यान नहीं रखा व बाद में इस परंपरागत व्यवस्था के
नष्ट होने का उन्हें बहुत दुःख हुआ। अत: ऐसे प्रयासों में यदि पहले से ही जल
संग्रहण व जल संरक्षण के प्रयासों का ध्यान रखा जाए तो यह बहुत उपयोगी सिद्ध हो
सकता है।
जल स्रोतों को
और उनके जलागम क्षेत्र को साफ स्वच्छ रखने की पहले बहुत अच्छी परंपरा थी। इस
अनुशासन का प्रसार गांव के परिवारों में और स्कूल की शिक्षा के माध्यम से भी होना
चाहिए। इस तरह के सांस्कृतिक पर्व आयोजित हो सकते हैं जिनसे तालाबों आदि को साफ
करने के श्रम दान को जोड़ा जाए।
कई शहरों में भी परंपरागत जल व्यवस्था को नया जीवन देकर काफी हद तक जल संकट का समाधान किया जा सकता है। जोधपुर, बांदा, सागर, महोबा जैसे नगरों में इसकी अच्छी संभावना है। ऐसे प्रयासों की चर्चा तो अब दिल्ली में भी चल रही है। बड़े शहरों में कई संस्थाओं को आपसी मेलजोल व तालमेल से कार्य करना होगा। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : http://bhoomimagazine.org/wp-content/uploads/2017/04/traditional_water_conservation/image2-678×381.jpg
सूर्य से आने वाले विकिरण के
कारण पृथ्वी और उसके चारों ओर मौजूद वायुमंडल गर्म हो जाता है। होता यह है कि
पृथ्वी की सतह से वापिस निकलने वाली ऊष्मा को वायुमंडल में मौजूद कुछ गैसें,
जैसे कार्बन डाईऑक्साइड, सोख लेती हैं और इसे वापस पृथ्वी पर भेज देती हैं। इस तरह
समुद्र और भूमि सहित पूरी पृथ्वी पर मनुष्यों और अन्य जीवों के रहने के लिए
आरामदायक या अनुकूल तापमान बना रहता है। तो हम एक विशाल ‘ग्रीनहाउस’ में रहते हैं।
लेकिन तब क्या होगा जब ग्रीनहाउस
गैसें वायुमंडल में एक निश्चित सीमा से अधिक हो जाएंगी? ऐसा होने पर तापमान में वृद्धि होगी। और यह वृद्धि मूलत:
कार्बन उत्सर्जन करने वाले र्इंधन जैसे कोयला, लकड़ी, पेट्रोलियम आदि जलाने के फलस्वरूप बनने वाली कार्बन डाईऑक्साइड और अन्य गैसों
के वायुमंडल में बढ़ते स्तर के कारण होती है। सिर्फ पिछले सौ वर्षों में वैश्विक
तापमान में लगभग 2 डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी हुई है। और यदि हमने इन र्इंधनों का
उपयोग बंद या कम करके, ऊर्जा के अन्य
विकल्पों (जैसे सौर, पवन वगैरह) को
नहीं अपनाया तो वैश्विक तापमान इसी तरह बढ़ता जाएगा।
पिछले कुछ समय में हम बढ़ते
तापमान के परिणाम हिमच्छदों (आइस कैप्स) और ग्लेशियरों के पिघलने के रूप में देख
चुके हैं, जिसके
फलस्वरूप समुद्र का जलस्तर बढ़ रहा है। समुद्रों के बढ़ते जलस्तर के चलते मालदीव
और मॉरीशस जैसे द्वीप-राष्ट्र जलमग्न हो सकते हैं। बढ़ते तापमान से वैश्विक जलवायु
में परिवर्तन आया है जिससे अनिश्चित मानसून, चक्रवात, सुनामी, एल-नीनो
प्रभावित हुए। इसके अलावा भूमि और समुद्र दोनों ही जगह पर जीवन (मछलियां,
शैवाल, मूंगा चट्टानें) भी प्रभावित हुआ है।
बढ़ते तापमान और जलवायु
परिवर्तन से सिर्फ कुछ देश नहीं बल्कि पूरी धरती ही प्रभावित हो रही है। इस धरती
पर मानव, जंतु,
पेड़-पौधे, मछलियां, सूक्ष्मजीव
सहित विभिन्न प्रजातियां रहती हैं। यदि बढ़ते तापमान और जलवायु परिवर्तन पर
नियंत्रण नहीं किया गया तो पृथ्वी पर मौजूद समस्त जीवन पर संकट गहराता जाएगा। जलवायु
परिवर्तन के साथ निरंतर औद्योगिक खेती और मत्स्याखेट के चलते कुछ ही दशकों में
पृथ्वी से लगभग दस लाख प्रजातियां विलुप्त हो जाएंगी।
पेरिस समझौता 2015
इस तबाही को रोकने के लिए
राष्ट्र संघ ने विश्व के देशों को एकजुट किया और 2015 में पेरिस समझौता पारित किया,
जिसके तहत सभी देशों को मिलकर प्रयास करना था कि वैश्विक
तापमान में 1.5 डिग्री से अधिक की वृद्धि न हो। पेरिस समझौते पर दुनिया के लगभग
195 देशों ने हस्ताक्षर किए थे और इन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए ज़रूरी कदम
उठाने का वादा किया था, लेकिन कुछ तेल निर्माता या निर्यात करने वाले देश जैसे टर्की,
सीरिया, ईरान और अमेरिका इससे पीछे हट गए। अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रम्प का तो कहना है
कि ग्लोबल वार्मिंग या जलवायु परिवर्तन कोरी कल्पना है।
इस बारे में हमें 2 कदम तत्काल
उठाने की ज़रूरत है। पहले तो कार्बन उत्सर्जन करने वाले र्इंधन के उपयोग को समाप्त
नहीं तो कम करके इनकी जगह अन्य वैकल्पिक ऊर्जा रुाोतों का उपयोग करना होगा,
जो ग्रीन हाऊस गैस का उत्सर्जन नहीं करते (जैसे सौर ऊर्जा,
पवन ऊर्जा)।
दूसरा, कार्बन डाईऑक्साइड को प्राकृतिक रूप से सोखने के तरीकों को
बढ़ावा देना होगा। और यह काम जंगल और पेड़-पौधे बहुत अच्छे से करते हैं। पानी में
शैवाल, तटीय इलाके के
मैंग्रोव, जमीन पर उगने
वाली फसलें और वन सभी तरह के पौधे प्रकाश संश्लेषण करते हैं। ये वायुमंडल से
कार्बन डाईऑक्साइड लेकर ऑक्सीजन छोड़ते हैं। ऊष्णकटिबंधीय वन यह काम बेहतर करते
हैं। इसलिए अमेज़न, अफ्रीका और
भारत में हो रही वनों की अंधाधुंध कटाई को बंद किया जाना चाहिए। इन क्षेत्रों में
वनस्पतियों, जानवरों और
कवकों की 20 करोड़ से अधिक प्रजातियां रहती हैं। इसलिए इन्हें प्रमुख जैव विविधता
क्षेत्र (Key Biodiversity Areas) कहा जाता है। इसी तरह समुद्री संरक्षण क्षेत्र (Marine Protection Areas) भी हैं। ये जैव विविधता को बहाल करते हैं और उसकी रक्षा करते हैं,
पैदावार बढ़ाते हैं और पारिस्थितिकी तंत्र के बचाव और
सुरक्षा को सुदृढ़ करते हैं। केवल ये क्षेत्र 2020 तक लगभग 17 प्रतिशत भूमि और 10 प्रतिशत
जलीय क्षेत्र का संरक्षण करेंगे और लाखों प्रजातियों को विलुप्त होने से बचाएंगे।
लेकिन आने वाले सालों में हमें इससेअधिक करने की ज़रूरत है।
वैश्विक प्रकृति समझौता
इन्ही सब बातों को ध्यान में
रखते हुए विश्व के वैज्ञानिकों और पर्यावरणविदों के समूह ने पेरिस समझौते का एक
सह-समझौता प्रस्तावित किया है जिसे
उन्होंने नाम दिया है: ‘प्रकृति के लिए वैश्विक समझौता: मार्गदर्शक सिद्धांत,
पड़ाव और लक्ष्य’। यह नीति दस्तावेज़ साइंस एडवांसेस
पत्रिका के 19 अप्रैल 2019 के अंक में प्रकाशित हुआ है। पर्यावरण और पर्यावरणीय
मुद्दों से सरोकार रखने वाले प्रत्येक नागरिक और सरकार को यह नीति दस्तावेज़ अवश्य
पढ़ना चाहिए। प्रकृति के लिए समझौते के पांच मूलभूत लक्ष्य हैं: (1) स्थानीय
पारिस्थितिक तंत्रों की सभी किस्मों और अवस्थाओं तथा उनमें प्राकृतिक विविधता का
निरूपण; (2)
‘प्रजातियों को बचाना’ अर्थात स्थानीय प्रजातियों की आबादियों को उनके प्राकृतिक
बाहुल्य और वितरण के मुताबिक बनाए रखना; (3) पारिस्थितिक कार्यों और सेवाओं को बनाए रखना; (4) प्राकृतिक पारिस्थितिक तंत्र द्वारा कार्बन डाईऑक्साइड अवशोषण
को बढ़ावा देना; और (5) जलवायु
परिवर्तन को संबोधित करना ताकि वैकासिक प्रक्रियाओं को बनाए रखा जा सके और जलवायु
परिवर्तन के साथ तालमेल बनाया जा सके।
इन पांच लक्ष्यों की तीन मुख्य
थीम हैं। पहली थीम है जैव विविधता को बचाना। इसके तहत विश्व के 846 पारिस्थितिकी
क्षेत्रों को चुना गया है और बताया गया है कि साल 2030 तक इन क्षेत्रों को कम से
कम 30 प्रतिशत तक कैसे बचाया जाए। दूसरी थीम है जलवायु परिवर्तन को रोकना। इसके
अंतर्गत कार्बन संग्रहण क्षेत्र और संरक्षण के अन्य क्षेत्र-आधारित उपायों की मदद
से जलवायु परिवर्तन को कम करना शामिल है। इसके तहत विश्व के मौजूदा क्षेत्रों
(जैसे टुंड्रा, वर्षावन) के
लगभग 18 प्रतिशत क्षेत्र को जलवायु स्थिरीकरण क्षेत्र की तरह संरक्षित करना और
लगभग 37 प्रतिशत क्षेत्र (जैसे अमेज़न कछार, कॉन्गो कछार, उत्तर-पूर्वी एशिया वगैरह में देशज लोगों की ज़मीनों) को क्षेत्र-आधारित
उपायों की तरह संरक्षित करना। तीसरी थीम है, पारिस्थितिकी के खतरों को कम करना और इसका मुख्य सरोकार
प्रमुख खतरों जैसे अत्यधिक मत्स्याखेट, वन्यजीवों का व्यापार, नई सड़कों के लिए जंगल कटाई, बड़े बांध बनाने जैसे जोखिमों को कम करने से है।
हम कर सकते हैं
इन उदेश्यों को पूरा करने में सालाना तकरीबन सौ करोड़ डॉलर का खर्च आएगा। और यह खर्चा दुनिया के 200 देशों (साथ ही प्रायवेट सेक्टर) को मिलकर करना है। यदि हम इस धरती को आने वाली पीढ़ी, जीवों और वनस्पतियों (जो पिछले 55 करोड़ वर्ष से पृथ्वी को समृद्ध बनाए हुए हैं) के लिए रहने लायक छोड़कर जाना चाहते हैं तो यह राशि बहुत अधिक नहीं है। और यदि कोई इस कार्य में लगाई गई लागत का लाभ जानना चाहता है तो उपरोक्त पेपर में बताया गया है कि जैव-विविधता संरक्षण से समुद्री खाद्य उद्योग का सालाना लाभ 50 अरब डॉलर तक हो सकता है और बाढ़ के कारण होने वाले नुकसान की भरपाई से बीमा उद्योग सालाना 52 अरब डॉलर की बचत कर सकता है। (स्रोत फीचर्स) नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://i.dailymail.co.uk/i/pix/2015/06/15/19/29A566B100000578-0-image-a-62_1434391429741.jpg
युनिसेफ के अनुसार, दुनिया भर में 78करोड़ से ज़्यादा लोगों (हर 10 में से एक) के
पास साफ पेयजल उपलब्ध नहीं है। ये लोग प्रतिदिन कुल मिलाकर 20 करोड़ घंटे दूर-दूर
से पानी लाने में खर्च करते हैं। भले ही दूषित पानी को शुद्ध करने के लिए तकनीकें
मौजूद हैं,
लेकिन महंगी होने के कारण ये कई समुदायों की पहुंच से परे
है।
टैंकनुमा उपकरण (सोलर स्टिल) में रखे गंदे पानी को वाष्पन की मदद से साफ करने
की प्रक्रिया काफी समय से उपयोग की जा रही है। सोलर स्टिल पानी से भरा एक काला
बर्तन होता है जिसे कांच या प्लास्टिक से ढंक दिया जाता है। काला बर्तन धूप को
सोखकर पानी को गर्म करके वाष्प में बदलता है और दूषित पदार्थों को पीछे छोड़ देता
है। वाष्पित पानी को संघनित करके जमा कर लिया जाता है।
लेकिन इसका उत्पादन काफी कम है। धूप से पूरा पानी गर्म होने तक वाष्पीकरण की प्रक्रिया
शुरू नहीं होती। एक वर्ग मीटर सतह हो तो
एक घंटे में 300 मिलीलीटर पानी का उत्पादन होता है। व्यक्ति को पीने के लिए एक दिन
में औसतन 3 लीटर पानी की आवश्यकता होती
है। एक छोटे परिवार के लिए पर्याप्त पानी के लिए लगभग 5 वर्ग मीटर सतह वाला बर्तन
चाहिए।
टेक्सास विश्वविद्यालय, ऑस्टिन के पदार्थ वैज्ञानिक
गुहुआ यू और सहयोगियों ने हाल ही में इसके लिए एक रास्ता सुझाया है। इसमें
हाइड्रोजेल और पोलीमर के मिश्रण से बना एक छिद्रमय जल-अवशोषक नेटवर्क होता है। टीम
ने इस तरह का एक स्पंज तैयार किया जो दो पोलीमर से मिलकर बना है – एक पानी को
बांधकर रखने वाला (पीवीए) और दूसरा प्रकाश सोखने वाला (पीपीवाय)। स्पंज को सौर
स्टिल में पानी की सतह के ऊपर रखा जाता है।
स्पंज में पानी के अणुओं की एक परत पीवीए से हाइड्रोजन बांड के ज़रिए कसकर
बंधी होती है। लेकिन पीवीए के साथ बंधे होने के कारण पानी के अणु आस-पास के अन्य
पानी के अणुओं से शिथिल रूप से बंधे होते हैं। इन कमज़ोर रूप से जुड़े पानी के
अणुओं को यू ‘मध्यवर्ती पानी’ कहते हैं। ये अपने आसपास के अणुओं के साथ कम बंधन
साझा करते हैं,
इसलिए वे अधिक तेज़ी से वाष्पित होते हैं। इनके वाष्पित होते
ही स्टिल में मौजूद पानी के अन्य अणु इनकी जगह ले लेते हैं। नेचर
नैनोटेक्नॉलॉजी में पिछले वर्ष प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार इस तकनीक का
उपयोग करते हुए,
यू ने एक घंटे में प्रति वर्ग मीटर 3.2 लीटर पानी का
उत्पादन किया था।
अब यू की टीम ने इसे और बेहतर बनाया है। उन्होंने स्पंज में चिटोसन नाम का एक तीसरा पोलीमर जोड़ा है जो पानी को और भी मज़बूती से पकड़ता करता है। इसको मिलाने से मध्यवर्ती पानी की मात्रा में वृद्धि होती है। साइंस एडवांसेज़ की ताज़ा रिपोर्ट के अनुसार नए स्पंज के उपयोग से 1 वर्ग मीटर से प्रतिदिन 30 लीटर स्वच्छ पेयजल मिल सकता है। हाइड्रोजेल में उपयोग किए गए तीनों पोलीमर व्यावसायिक रूप से उपलब्ध और सस्ते हैं। मतलब अब ऐसे इलाकों में भी साफ पेयजल उपलब्ध कराया जा सकता है जहां इसकी सबसे अधिक ज़रूरत है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/inline__450w__no_aspect/public/solar%20still-1280×720.jpg?itok=z3tQrZAa
प्लास्टिक आज पर्यावरण के लिए सबसे बड़ा संकट है। प्लास्टिक प्राकृतिक रूप से सड़ता नहीं है। इस कारण यह तेज़ी से पर्यावरण को प्रदूषित कर रहा है। इंसान प्लास्टिक कचरे का समुचित निपटारा नहीं कर पा रहा है। ज़्यादातर प्लास्टिक कचरा समुद्रों में फेंक दिया जाता है जहां यह समुद्री जीवों के लिए भी संकट बनता जा रहा है। आज समुद्रों में 10 करोड़ टन प्लास्टिक मौजूद है।
अब प्लास्टिक कचरा उन्मूलन की दिशा में भारत, न्यूज़ीलैंड, ब्रााज़ील और कज़ाकिस्तान समेत दुनिया के 187 देशों की सरकारें बेसल समझौते में संशोधन करने पर सहमत हो गई हैं।
बेसल समझौता विषैले पदार्थों और कचरे को दूसरे देशों में भेजने से जुड़ा अंतर्राष्ट्रीय समझौता है। इसका उद्देश्य विभिन्न देशों के बीच विषैले पदार्थों का आवागमन कम करना है। समझौते में विशेषकर विकसित देशों से विषैले पदार्थों को विकासशील देशों में भेजने पर रोक लगाई गई है। ताज़ा संशोधन के बाद विषैले पदार्थों की सूची में प्लास्टिक को भी शामिल किया गया है। इससे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्लास्टिक कचरे का व्यापार ज़्यादा पारदर्शी होगा और इंसानों के स्वास्थ्य और पर्यावरण को साफ रखने की दृष्टि से इसका बेहतर प्रबंधन होगा।
अमेरिका प्लास्टिक का सबसे ज़्यादा उत्पादन करने वाले देशों में एक है, लेकिन दुर्भाग्यवश वह इस संधि में शामिल नहीं है। प्लास्टिक कचरे की रोकथाम लागू करने में मदद के लिए व्यापार, सरकारों, अकादमिक जगत और नागरिक समुदाय के संसाधनों से जुड़ा एक नया सहयोग शुरू किया गया है।
इसके अलावा, विषैले पदार्थों की सूची में दो नए रसायन समूह जोड़े गए हैं: डिकोफॉल और परफ्लोरोऑक्टेनोइक एसिड। इन दो समूहों के लगभग 4000 रसायन संधि में शामिल किए गए हैं। इनमें कुछ रसायन फिलहाल औद्योगिक और घरेलू उत्पादों में भारी मात्रा में इस्तेमाल किए जा रहे हैं। जैसे नॉन-स्टिक बर्तन और खाद्य प्रसंस्करण उपकरण। टेक्सटाइल, कालीन, कागज़, पेंट और अग्निशामक फोम तैयार करने में भी इन रसायनों का खूब इस्तेमाल होता है।
सालों से लाखों टन प्लास्टिक कचरा विकासशील देशों में जमा कर दिया गया है। अब तक जिन देशों में बाहर से प्लास्टिक आता था, अब वे इसके आयात पर रोक लगा सकते हैं। इससे मजबूर होकर निर्यात करने वाले देश साफ और रिसायकल करने लायक प्लास्टिक का इस्तेमाल करेंगे। कचरे का वातावरण के अनुकूल प्रबंधन करना दीर्घकालीन विकास के लिए ज़रूरी है। दूसरी ओर, आर्थिक विकास के साथ-साथ कचरे का उत्पादन भी बढ़ रहा है। उचित प्रबंधन के अभाव में इसका असर इंसानों की सेहत और पर्यावरण पर पड़ रहा है। अब 187 देशों की सहमति से तैयार कानून पर्यावरण के संरक्षण में मदद करेगा। ये संधि प्लास्टिक कचरे पर रोक लगाने और उसके असंतुलित वितरण पर नियंत्रण रखने में मददगार साबित होगी और प्लास्टिक कचरे का उचित प्रबंधन सुनिश्चित करेगी। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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इंटरनेशनल टेलीकम्यूनिकेशंस यूनियन (आईटीयू) के आंकड़ों के अनुसार भारत चीन और कुछ अन्य देशों में मोबाइल फोन की संख्या इंसानी आबादी को पीछे छोड़ चुकी है। सिर्फ भारत और चीन में मोबाइल फोन का आंकड़ा 8 अरब पार कर चुका है। चीन की तरह भारत में भी सस्ते से सस्ता फोन उपलब्ध है। लेकिन गंभीर और खतरनाक बात यह है कि इससे इलेक्ट्रॉनिक क्रांति में खतरे ही खतरे उत्पन्न हो जाएंगे जो इस धरती की हर चीज़ को नुकसान पहुंचाएंगे।
फिलहाल भारत में एक अरब से ज़्यादा मोबाइल ग्राहक है। मोबाइल सेवाएं शुरू होने के 20 साल बाद भारत ने यह आंकड़ा इसी साल जनवरी में पार किया है। फिलहाल चीन और भारत में एक-एक अरब से ज़्यादा लोग मोबाइल फोन से जुड़े हैं। देश में मोबाइल फोन इंडस्ट्री को अपने पहले 10 लाख ग्राहक जुटाने में करीब 5 साल लग गए थे, पर अब भारत-चीन जैसे आबादी बहुल देशों की बदौलत पूरी दुनिया में मोबाइल फोन की संख्या इंसानी आबादी के आंकड़े यानी 8 अरब को भी पीछे छोड़ चुकी है। ये आंकड़े बताते हैं कि अब गरीब देशों के नागरिक भी ज़िंदगी में बेहद ज़रूरी बन गई संचार सेवाओं का लाभ उठाने की स्थिति में हैं, वहीं यह इलेक्ट्रॉनिक क्रांति दुनिया को एक ऐसे खतरे की तरफ ले जा रही है जिस पर अभी ज़्यादा ध्यान नहीं दिया जा रहा है। यह खतरा है इलेक्ट्रॉनिक कचरे यानी ई-कचरे का।
सालाना 8 लाख टन
आईटीयू के मुताबिक, भारत, रूस, ब्रााज़ील समेत करीब 10 देश ऐसे हैं जहां मानव आबादी के मुकाबले मोबाइल फोनों की संख्या ज़्यादा है। रूस में 25 करोड़ से ज़्यादा मोबाइल हैं जो वहां की आबादी का 1.8 गुना है। ब्राज़ील में 24 करोड़ मोबाइल हैं, जो आबादी से 1.2 गुना हैं। इसी तरह मोबाइल फोनधारकों के मामले में अमेरिका और रूस को पीछे छोड़ चुके भारत में भी स्थिति यह बन गई है कि यहां करीब आधी आबादी के पास मोबाइल फोन हैं। भारत की विशाल आबादी और फिर बाज़ार में सस्ते से सस्ते मोबाइल हैंडसेट उपलब्ध होने की सूचनाओं के आधार पर इस दावे में कोई संदेह भी नहीं लगता। पर यह तरक्की हमें इतिहास के एक ऐसे विचित्र मोड़ पर ले आई है, जहां हमें पक्के तौर पर मालूम नहीं है कि आगे कितना खतरा है? हालांकि इस बारे में थोड़े-बहुत आकलन-अनुमान अवश्य हैं जिनसे समस्या का आभास होता है। जैसे वर्ष 2015 में इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्निकल एजूकेशन एंड रिसर्च (आईटीईआर) द्वारा मैनेजमेंट एंड हैंडलिंग ऑफ ई-वेस्ट विषय पर आयोजित सेमिनार में पर्यावरण एवं वन मंत्रालय के विज्ञानियों ने एक आकलन करके बताया था कि भारत हर साल 8 लाख टन इलेक्ट्रॉनिक कचरा पैदा कर रहा है। इस कचरे में देश के 65 शहरों का योगदान है पर सबसे ज़्यादा ई-वेस्ट देश की वाणिज्यिक राजधानी मुंबई में पैदा हो रहा है। हम अभी यह कहकर संतोष जता सकते हैं कि नियंत्रण स्तर पर हमारा पड़ोसी मुल्क चीन इस मामले में हमसे मीलों आगे है।
बैटरी और पानी प्रदूषण
संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के मुताबिक चीन दुनिया का सबसे बड़ा ई-वेस्ट डंपिंग ग्राउंड है। उल्लेखनीय यह है कि जो टीवी, फ्रिज, एयर कंडीशनर, मोबाइल फोन, कंप्यूटर आदि चीन में बनाकर पूरी दुनिया में सप्लाई किए जाते हैं, कुछ वर्षों बाद चलन से बाहर हो जाने और कबाड़ में तब्दील हो जाने के बाद वे सारे उपकरण चीन या भारत लौट आते हैं। निसंदेह अभी पूरी दुनिया का ध्यान विकास की ओर है। टेक्नॉलॉजी की तरक्की ने हमें जो साधन और सुविधाएं मुहैया कराई हैं, उनसे हमारा जीवन पहले के मुकाबले आसान भी हुआ है। कंप्यूटर और मोबाइल फोन जैसी चीजों ने हमारा कामकाज काफी सुविधाजनक बना दिया है। हम फैक्स मशीन, फोटो कॉपियर, डिजिटल कैमरों, लैपटॉप, प्रिंटर, इलेक्ट्रॉनिक खिलौने व गैजेट, एयर कंडीशनर, माइक्रोवेव, कुकर, थर्मामीटर आदि चीजों से घिर चुके हैं। दुविधा यह है कि आधुनिक विज्ञान की देन पर सवार हमारा समाज जब इन उपकरणों के पुराना पड़ने पर उनसे पीछा छुड़ाएगा, तो ई-कचरे की विकराल समस्या से कैसे निपट पाएगा। यह चिंता भारत-चीन जैसे तीसरी दुनिया के मुल्कों के लिए ज़्यादा बड़ी है क्योंकि यह कचरा ब्रिटेन-अमेरिका जैसे विकसित देशों की सेहत पर कोई असर नहीं डाल रहा है। इसकी एक वजह यह है कि तकरीबन सभी विकसित देशों ने ई-कचरे से निपटने के प्रबंध पहले ही कर लिए हैं, और दूसरे, वे ऐसा कबाड़ हमारे जैसे गरीब मुल्कों की तरफ ठेल रहे हैं। अर्थात हमारे लिए चुनौती दोहरी है। पहले तो हमें देश के भीतर पैदा होने वाली समस्या से जूझना है और फिर विदेशी ई-कचरे से निपटना है। हमारी चिंताओं को असल में इससे मिलने वाली पूंजी ने ढांप रखा है। विकसित देशों से मिलने वाले चंद डॉलरों के बदले हम यह मुसीबत खुद ही अपने यहां बुला रहे हैं।
ई-कचरा पर्यावरण और मानव सेहत की बलि भी ले सकता है। मोबाइल फोन की ही बात करें, तो कबाड़ में फेंके गए इन फोनों में इस्तेमाल होने वाले प्लास्टिक और विकिरण पैदा करने वाले कलपुर्जे सैकड़ों साल तक ज़मीन में स्वाभाविक रूप से घुलकर नष्ट नहीं होते। सिर्फ एक मोबाइल फोन की बैटरी 6 लाख लीटर पानी दूषित कर सकती है। इसके अलावा एक पर्सनल कंप्यूटर में 3.8 पौंड घातक सीसा तथा फास्फोरस, कैडमियम व मरकरी जैसे तत्व होते हैं, जो जलाए जाने पर सीधे वातावरण में घुलते हैं और विषैले प्रभाव उत्पन्न करते हैं। कंप्यूटरों के स्क्रीन के रूप में इस्तेमाल होने वाली कैथोड रे पिक्चर ट्यूब जिस मात्रा में सीसा (लेड) पर्यावरण में छोड़ती है, वह भी काफी नुकसानदेह होता है।
कानून
समस्या इस वजह से भी ज़्यादा विनाशकारी है क्योंकि हम सिर्फ अपने ही देश के ई-कबाड़ से काम की चीज़ें निकालने की आत्मघाती कोशिश नहीं करते, बल्कि विदेशों से भी ऐसा खतरनाक कचरा अपने स्वार्थ के लिए आयात करते हैं। पर्यावरण स्वयंसेवी संस्था ग्रीनपीस ने अपनी रिपोर्ट ‘टॉक्सिक टेक: रीसाइÏक्लग इलेक्ट्रॉनिक वेस्ट्स इन चाइना एंड इंडिया’ में साफ किया है कि जिस ई-कचरे की रिसाइÏक्लग पर युरोप में 20 डॉलर का खर्च आता है, वही काम भारत-चीन जैसे मुल्कों में महज चार डॉलर में हो जाता है। वैसे तो हमारे देश में ई-कचरे पर रोक लगाने वाले कानून हैं। खतरनाक कचरा प्रबंधन और निगरानी नियम 1989 की धारा 11(1) के तहत ऐसे कबाड़ की खुले में रिसायÏक्लग और आयात पर रोक है, लेकिन कायदों को अमल में नहीं लाने की लापरवाही ही वह वजह है, जिसके कारण अकेले दिल्ली की सीलमपुर, जाफराबाद, मायापुरी, बुराड़ी आदि बस्तियों में संपूर्ण देश से आने वाले ई-कचरे का 40 फीसदी हिस्सा रिसायकिल किया जाता है।
हमारी तरक्की ही हमारे खिलाफ न हो जाए और हमारा देश दुनिया के ई-कचरे के डंपिंग ग्राउंड में तब्दील होकर नहीं रह जाए; इस बाबत सरकार और जनता, दोनों स्तरों पर जागृति की ज़रूरत है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://th.thgim.com/sci-tech/energy-and-environment/article22429946.ece/alternates/FREE_660/14SME-WASTE2jpg
महासागरों में मौजूद कूड़े का लगभग 70 प्रतिशत हिस्सा प्लास्टिक है। यह प्लास्टिक अनगिनत समुद्री प्रजातियों को जोखिम में डाल रहा है। लेकिन हाल ही में वैज्ञानिकों ने एक ऐसे सूक्ष्मजीवों का पता लगाया है जो प्लास्टिक को धीरे-धीरे तोड़कर को खा रहे हैं। इसके चलते कचरा विघटित हो रहा है।
अध्ययन के लिए शोधकर्ताओं ने यूनान के चानिया के दो अलग-अलग समुद्र तटों से मौसम के कारण खराब हुए प्लास्टिक को एकत्र किया है। यह कूड़ा धूप के संपर्क में आकर रासायनिक परिवर्तनों से गुज़र चुका था जिसके कारण यह अधिक भुरभुरा हो गया था। सूक्ष्मजीवों द्वारा प्लास्टिक को कुतरने से पहले उसका भुरभुरा होना ज़रूरी है।
प्लास्टिक के टुकड़े या तो किराने के सामान में उपयोग होने वाले पोलीथीन के थे या खाद्य पैकेजिंग और इलेक्ट्रॉनिक्स में पाए जाने वाले कठोर प्लास्टिक पोलीस्टायरीन। शोधकर्ताओं ने दोनों को नमकीन पानी में डाल दिया। और साथ में या तो प्राकृतिक रूप से मौजूद समुद्री सूक्ष्मजीव डाले या विशेष रूप से तैयार किए गए कार्बन-भक्षी सूक्ष्मजीव डाल दिए। ये सूक्ष्मजीव पूरी तरह से प्लास्टिक में मौजूद कार्बन पर जीवित रह सकते थे। वैज्ञानिकों ने 5 महीनों तक सामग्री में हो रहे बदलावों का विश्लेषण किया।
जर्नल ऑफ हैज़ार्डस मटेरियल में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार प्राकृतिक और तकनीकी रूप से विकसित सूक्ष्मजीवों, दोनों के संपर्क में आने के बाद प्लास्टिक के वज़न में काफी कमी देखी गई। सूक्ष्मजीवों ने सामग्री की रासायनिक संरचना को और भी बदला जिससे पोलीथीन का वज़न 7 प्रतिशत और पोलीस्टायरीन का वज़न 11 प्रतिशत कम हो गया।
ये परिणाम समुद्री प्रदूषण से निपटने में काफी मददगार सिद्ध हो सकते हैं। संभवत: प्लास्टिक कचरा खाने के लिए समुद्री सूक्ष्मजीवों को तैनात किया जा सकता है। वैसे अभी यह देखना शेष है कि इन सूक्ष्मजीवों का विश्व स्तर पर क्या असर होगा।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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