प्लास्टिक का प्रोटीन विकल्प

गभग एक सदी पहले आविष्कृत प्लास्टिक अत्यंत उपयोगी पदार्थ साबित हुआ है। वज़न में हल्का होने के बावजूद भी यह अत्यधिक लचीला और सख्त हो सकता है। और सबसे बड़ी बात तो यह कि यह लगभग अनश्वर है। और यही अनश्वरता इसकी समस्या बन गई है।

हर वर्ष दुनिया में 38 करोड़ टन प्लास्टिक का उत्पादन किया जाता है। इसमें से अधिक से अधिक 10 प्रतिशत का रीसायक्लिंग होता है। बाकी कचरे के रूप में जमा होता रहता है। एक अनुमान के मुताबिक हम 6.3 अरब टन प्लास्टिक कचरा उत्पन्न कर चुके हैं। आज के रुझान को देखते हुए लगता है कि वर्ष 2050 तक पर्यावरण में 12 अरब टन प्लास्टिक कचरा मौजूद होगा।

एक ओर तो प्लास्टिक का उपयोग कम करने की कोशिशें की जा रही हैं, तो दूसरी ओर प्लास्टिक रीयाक्लिंग को बढ़ावा देने के प्रयास चल रहे हैं। इसी बीच नए किस्म का प्लास्टिक बनाने पर भी अनुसंधान चल रहा है जो लचीला व सख्त तो हो लेकिन प्रकृति में इसका विघटन हो सके।

इस संदर्भ में मेलबोर्न विश्वविद्यालय के प्रोफेसर ग्रेग कियाओ का प्रयास है कि अमीनो अम्लों के पोलीमर बनाए जाएं जिनमें प्लास्टिक की खूबियां हों। जीव-जंतु, पेड़-पौधे अमीनो अम्लों को जोड़-जोड़कर पेप्टाइड और प्रोटीन तो बनाते ही हैं। और प्रकृति में ऐसे कई एंज़ाइम मौजूद हैं जो इन प्रोटीन अणुओं को तोड़ भी सकते हैं। कियाओ के मुताबिक प्रोटीन प्लास्टिक का सही विकल्प हो सकता है।

उनकी प्रयोगशाला में ऐसे प्रोटीन बनाए जा चुके हैं जो काफी लचीले व सख्त हैं, जिनके रेशे बनाए जा सकते हैं, चादरें बनाई जा सकती हैं। ये वाटरप्रूफ हैं और अम्ल वगैरह का सामना कर सकते हैं।

जहां प्रकृति में प्रोटीन नुमा पोलीमर बनाने का काम एंज़ाइमों की उपस्थिति में होता है वहीं कियाओ की टीम इसी काम को रासायनिक विधि से करने में लगी हुई है। यदि वे सही किस्म के अमीनो अम्ल पोलीमर (यानी पेप्टाइड) बनाने में सफल रहे तो यह एक अच्छा विकल्प साबित हो सकता है। मगर इसमें एक दिक्कत आएगी। प्लास्टिक उत्पादन के लिए कच्चा माल तो पेट्रोलियम व अन्य जीवाश्म र्इंधनों से प्राप्त हो जाता है। मगर प्रोटीन-प्लास्टिक का कच्चा माल कहां से आएगा? यह संभवत: पेड़-पौधों से प्राप्त होगा। पहले ही हम फसलों का इस्तेमाल जैव-र्इंधन बनाने में कर रहे हैं। यदि प्लास्टिक भी उन्हीं से बनना है तो खाद्यान्न की कीमतों पर भारी असर पड़ेगा। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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अमेज़न में लगी आग जंगल काटने का नतीजा है

ब्राज़ील में अमेज़न के वर्षा वनों में भयानक आग लगी हुई है, धुएं के स्तंभ उठते दिख रहे हैं। जहां सरकारी प्रवक्ता का कहना है कि इस साल जंगलों में लगी इस भीषण आग का कारण सूखा मौसम, हवाएं और गर्मी है, वहीं ब्रााज़ील व अन्य देशों के वैज्ञानिकों का स्पष्ट मत है कि आग का प्रमुख कारण जंगल कटाई की गतिविधियों में हुई वृद्धि है।

साओ पौलो विश्वविद्यालय में वायुमंडलीय भौतिक शास्त्री पौलो आर्टक्सो का कहना है कि आग के फैलाव का पैटर्न जंगल कटाई से जुड़ा नज़र आता है। सबसे ज़्यादा आग कृषि क्षेत्र से सटे क्षेत्रों में लगी दिख रही है। ब्राज़ील के नेशनल इंस्टिट्यूट फॉर स्पेस रिसर्च ने अब ब्रााज़ील के अमेज़न में 41,000 अग्नि स्थल पता किए हैं। पिछले वर्ष इसी अवधि में 22,000 ऐसे स्थल पहचाने गए थे। यही स्थिति कैलिफोर्निया स्थित ग्लोबल फायर एमिशन डैटाबेस प्रोजेक्ट ने भी रिकॉर्ड की है। वैसे दोनों एजेंसियों के पास आंकड़ों का रुाोत एक ही है मगर विश्लेषण के तरीकों में अंतर के कारण ग्लोबल फायर एमिशन डैटाबेस ने कुछ अधिक ऐसे स्थलों की गिनती है जहां आग लगी हुई है।

इस वर्ष अग्नि स्थलों की संख्या 2010 के बाद सबसे अधिक है। लेकिन 2010 में एल निनो तथा अटलांटिक के गर्म होने की वजह से भीषण सूखा पड़ा था जिसे दावानलों के लिए दोषी ठहराया गया था। मगर इस वर्ष सूखा ज़्यादा नहीं पड़ा है। गैर सरकारी संगठन अमेज़न एन्वायर्मेंट रिसर्च इंस्टिट्यूट के पौलो मूटिन्हो का मत है कि इस साल जंगल की आग में सबसे बड़ा योगदान निर्वनीकरण का है। उनका कहना है कि जिन 10 नगर पालिकाओं में सबसे ज़्यादा दावानल की घटनाएं हुई हैं, वे वही हैं जहां इस वर्ष सबसे अधिक जंगल कटाई रिकॉर्ड की गई है। ये 10 नगरपालिकाएं बहुत बड़ी-बड़ी हैं, कुछ तो छोटे-मोटे युरोपीय देशों से भी बड़ी हैं। आम तौर किया यह जाता है कि जंगल की किसी पट्टी को साफ करने के बाद वहां आग लगा दी जाती है ताकि झाड़-झंखाड़ जल जाएं। परिणास्वरूप जो आग लगती है उसे बुझने में महीनों लग जाते हैं। आग बुझने के बाद इस पट्टी को चारागाह अथवा कृषि भूमि में तबदील कर दिया जाता है।

कई लोगों का मानना है कि ब्रााज़ील में जंगल कटाई की गतिविधियों में वृद्धि का प्रमुख कारण नव निर्वाचित राष्ट्रपति जायर बोलसोनेरो की नीतियां हैं। इन नीतियों में विकास के नाम पर पर्यावरण की बलि देना शामिल है। ब्राज़ील के एक पर्यावरणविद कार्लोस पेरेस के मुताबिक उन्होंने “अपने जीवन में ऐसा पर्यावरण-विरोधी माहौल नहीं देखा है।” (स्रोत फीचर्स)

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पहले की तुलना में धरती तेज़ी से गर्म हो रही है

नेचर जियोसाइंस में प्रकाशित एक हालिया शोध के अनुसार पिछले 2000 वर्षों में पृथ्वी के गर्म होने की गति इतनी तेज़ कभी नहीं रही जितनी आज है। यह अध्ययन युनिवर्सिटी ऑफ मेलबोर्न के डॉ. बेन्जमिल हेनले और युनिवर्सिटी ऑफ बर्न के डॉ. राफेल न्यूकोम ने संयुक्त रूप से किया है।

दरअसल, यह अध्ययन पहले माइकल मान, रेमंड ब्रोडले और मालकोम ह्रूजेस द्वारा 1999 में किए गए अध्ययन को आगे बढ़ाता है जिसमें उन पुरा-जलवायु वेत्ताओं ने यह बताया था कि बीसवीं सदी में उत्तरी गोलार्ध में गर्मी जिस तेज़ी से बढ़ी है वैसी पिछले 1000 वर्षों में नहीं देखी गई थी। हज़ारों साल पहले की जलवायु के बारे में अनुमान हम प्राय: प्रकृति में छूटे चिंहों की मदद से लगाते हैं क्योंकि उस ज़माने में आधुनिक टेक्नॉलॉजी तो थी नहीं।

अतीत की जलवाय़ु के बारे में सुराग देने के लिए पुरा-जलवायु वेत्ता कोरल (मूंगा चट्टानों), बर्फ के अंदरूनी हिस्से, पेड़ों में बनने वाली वार्षिक वलयों, झीलों और समुद्रों में जमी तलछट वगैरह का सहारा लेते हैं। इनसे प्राप्त परोक्ष आंकड़ों का उपयोग करके वैज्ञानिक अथक मेहनत करके अतीत की जलवायु की तस्वीर बनाने की कोशिश करते हैं। वर्तमान शोध पत्र की विशेषता यह है कि इसमें सात अलग-अलग तरह की विधियों से विश्लेषण करने पर एक समान नतीजे प्राप्त हुए। अत: इनके सच्चाई के करीब होने की ज़्यादा संभावना है।

हेनले और न्यूकोम ने इस विश्लेषण के आधार पर निष्कर्ष निकाला है कि औद्योगिक क्रांति से पूर्व वै·िाक तापमान में होने वाले उतार-चढ़ाव का मुख्य कारण ज्वालामुखी के विस्फोट से निकलने वाली धूल आदि थे। सूर्य से आने वाली गर्मी से इनका कोई सम्बंध नहीं था। अर्थात मानवीय गतिविधियों के ज़ोर पकड़ने से पहले ज्वालामुखी ही जलवायु के प्रमुख नियंत्रक थे। वे यह भी अंदाज़ा लगा पाए कि पिछले 2000 वर्षों में गर्मी और ठंड की रफ्तार क्या रही है। उनका निष्कर्ष है कि धरती के गर्म होने की रफ्तार पहले कभी आज जैसी नहीं रही। इसका सीधा-सा मतलब है कि वर्तमान तपन मुख्य रूप से मानवीय गतिविधियों के कारण हो रही है। (स्रोत फीचर्स)

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शहरों का पर्यावरण भी काफी समृद्ध है – हरिनी नागेन्द्र, सीमा मुंडोली

म बहुत मुश्किल दौर में जी रहे हैं; इंटरगवरमेंटल पैनल आन क्लाइमेट चेंज (IPCC) की विशेष रिपोर्ट ने चेताया है कि ग्लोबल वार्मिंग की वजह से वर्ष 2030 से 2052 के बीच तापमान में 1.5 डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी हो जाएगी, जो मानव और प्रकृति को खतरे में डाल सकती है। इंटरगवरमेंटल साइंस पॉलिसी प्लेटफार्म ऑन बायोडायवर्सिटी एंड इकोसिस्टम सर्विस (IPBES) ने 2019 की ग्लोबल असेसमेंट रिपोर्ट में बताया है कि इसकी वजह से करीब 10 लाख जंतु और वनस्पति प्रजातियों पर विलुप्ति का खतरा मंडरा रहा है।

जलवायु परिवर्तन और जैव विविधता की क्षति का करीबी सम्बंध दुनिया में कई क्षेत्रों मे तेज़ी से हो रहे शहरीकरण से है। एक अनुमान के मुताबिक, भारत में 2050 तक शहरों में 41.6 करोड़ नए निवासी जुड़ जाएंगे और देश की शहरी आबादी कुल आबादी का 50 प्रतिशत तक हो जाएगी। सतत विकास लक्ष्यों में लक्ष्य क्रमांक 11 टिकाऊ शहरों और समुदायों के विकास पर केंद्रित है। इस लक्ष्य को अमल में लाने पर हम जलवायु परिवर्तन और विलुप्ति के संकट में वृद्धि किए बिना ही, कुछ चुनौतियों को संबोधित करने और सतत विकास व आर्थिक वृद्धि को प्राप्त कर सकेंगे। लक्ष्य 11 के अंतर्गत पर्यावरण में शहरी पदचिन्हों को कम करना, हरियाली को सुलभ एवं समावेशी बनाना, और शहरों में प्राकृतिक धरोहरों की रक्षा करना शामिल है।

भारतीय शहर, जैसे मुंबई, कोलकाता और चैन्नई जैव विविधता से रहित नहीं हैं। र्इंट, डामर और कांक्रीट से बने इन शहरों का विकास उपजाऊ तटीय मैंग्रोव और कछारों में हुआ था जो जैव विविधता से समृद्ध थे। कई भारतीय शहर उनके निकटवर्ती ग्रामीण क्षेत्रों की तुलना में अधिक हरे-भरे हैं; ये पेड़ वहां राजाओं और आम लोगों द्वारा लगाए गए होंगे। इन शहरों में समृद्ध वानस्पतिक विविधता है, जिसमें स्थानीय व बाहरी दोनों तरह के पेड़-पौधे हैं। इसके अलावा स्लेंडर लोरिस (मराठी में लाजवंती या तमिल में कुट्टी तेवांग), टोपीवाला बंदर या बोनेट मेकॉक, किस्म-किस्म के उभयचर, कीट, मकड़ियां और पक्षी भी पाए जाते हैं।

हम न केवल भारतीय शहरों की पारिस्थितिक विविधता से बल्कि इस बात से भी अनजान हैं कि शहरी क्षेत्रों की प्रकृति मानव स्वास्थ्य और खुशहाली के लिए कितनी महत्वपूर्ण है। शहरी योजनाकार, आर्किटेक्ट्स और बिल्डर्स इमारतों व अन्य निर्माण कार्यों को ही डिज़ाइन करने पर ध्यान केंद्रित करते हैं। दूसरी ओर, परिस्थितिकीविद शहरों की जैव विविधता को अनदेखा करके केवल वनों और संरक्षित क्षेत्रों पर ध्यान केंद्रित करते हैं।

शहरी जैव विविधता हमें भोजन, ऊर्जा, और जड़ी-बूटियां उपलब्ध कराती है, जो गरीब लोगों के जीवन के लिए महत्वपूर्ण है। हमारे शहरों का न सिर्फ विस्तार हो रहा है बल्कि वे गैर-बराबरी के स्थल भी बनते जा रहे हैं। शहर की झुग्गी बस्तियों और ग्रामीण क्षेत्र के प्रवासियों को बहुत-सी समस्याओं का सामना करना पड़ता है और जीवन की बुनियादी ज़रूरतों के लिए जूझना पड़ता है। यह ज़ोखिमग्रस्त आबादी र्इंधन, भोजन और दवाओं के लिए अक्सर पेड़ों पर निर्भर रहती है।

सहजन के पेड़ दक्षिण भारतीय झुग्गी बस्तियों में आम हैं। इनके फूल, पत्तियां और फलियां प्रचुर मात्रा में पोषक तत्व मुफ्त प्रदान करते हैं। सड़क के किनारे लगे नीम और बरगद के पेड़ कई छोटी-मोटी बीमारियों से लड़ने में मदद करते है और दवाओं पर होने वाला खर्च बच जाता है।

ऐसे ही जामुन, आम, इमली और कटहल के पेड़ से भी हमें पोषक फल मिलते हैं, बच्चे इन पर चढ़ते और खेलते हैं जिससे उनकी कसरत और मनोरंजन भी हो जाता है। वही करंज के वृक्ष (पौंगेमिया पिन्नाटा) से लोग र्इंधन के लिए लकड़ी प्राप्त करते हैं और इसके बीज से तेल भी निकालते हैं।

हमारे जीवन में प्रकृति की भूमिका काफी महत्वपूर्ण है जो इन भौतिक वस्तुओं से कहीं आगे जाती है। शहरों में रहने वाले बच्चे घर की चारदीवारी के अंदर रहकर ही अपनी आभासी दुनिया में बड़े होते हैं, जिससे उनके व्यवहार और मानसिक स्वास्थ्य पर बुरा असर होता है। प्रकृति अतिसक्रियता और एकाग्रता की कमी के विकार से उभरने में बहुत मदद करती है, इससे बच्चों और उनके पालकों, दोनों को राहत मिलती है। नेचर डेफिसिट डिसऑर्डर एक प्रकार का मानसिक विकार होता है जो प्रकृति से दूरी बनने से पैदा होता है।

पेड़, चाहे एक पेड़ हो, के करीब रहकर भी शहरी जीवन शैली की समस्या को कम कर सकते हैं। अध्ययन दर्शाते हैं कि प्रकृति की गोद में रहने से खुशहाली बढ़ती है, न सिर्फ बीमारियों से जल्दी उबरने में मदद मिलती है, बल्कि हम शांत, खुश, और तनावमुक्त रहते हैं। आजकल कई अस्पताल अपने आसपास हरियाली बनाए रखने की कोशिश कर रहे हैं ताकि उनके मरीज़ों को जल्दी स्वस्थ होने में मदद मिले।

शहरी लोग कुछ विशेष प्रकार के पेड़ों से आजीवन रिश्ता बनाकर रखते हैं। यह उनकी बचपन की यादों की वजह से हो सकता है या सांस्कृतिक महत्व की वजह से भी। किसी पार्क या प्राकृतिक स्थान के नज़दीक रहने से जीवन शैली से जुड़ी समस्याएं, जैसे मोटापे, डायबिटीज़ और ब्लड प्रेशर को कम करने में मदद मिलती है। पेड़ सामुदायिक सम्मेलन के लिए भी जगह उपलब्ध कराते हैं। खासकर भारत में आम तौर पर यह देखा जाता है कि शहरों में जब बैठक का आयोजन करना हो तब नीम और पीपल जैसे वृक्ष की छाया में चबूतरे पर बैठकर लोग बातें करते हैं। सड़क पर फल विक्रेताओं, बच्चों के लिए क्रिकेट खेलने और महिलाओं के लिए पेड़ों की छाया बैठकर गप्पे मारने की जगह बन जाती है। साथ ही साथ लोग दोपहर की तेज़ धूप में इन पेड़ों की छाया में बैठकर शतरंज और ताश के पत्तों का खेल खेलते और आराम फरमाते हैं। बुज़ुर्ग लोग पेड़ों की छाया में दोपहर की झपकी भी ले लेते हैं। उन शहरों में, जहां लोग अपने पड़ोसियों से भी मेलजोल नही रखते, वहां एक पेड़ भी मेल-मिलाप और सामूहिक क्रियाकलाप का स्थान बन जाता है।

वर्तमान में शहरों की बढ़ती हुई सुस्त जीवन शैली ऐसी है जो मोटापे, ब्लड प्रेशर और मानसिक तनाव जैसी कई समस्याओं को जन्म देती है। अध्ययनों से पता चलता है कि प्रकृति के पास रहकर मनुष्य कई परेशानियों से छुटकारा पा सकता है। कही-सुनी बातों के अलावा भारतीय परिप्रेक्ष्य में हमें इस बात की बहुत कम जानकारी है कि प्रकृति के करीब रहने से तनाव को दूर करने तथा शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य व खुशहाली में कितनी मदद मिलती है।

पेड़ शहरी वातावरण में लगातार बढ़ रहे वायु प्रदूषण के खतरे को कम करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। वे हवा और सड़क पर बिछे डामर को ठंडा रखते हैं जो लू के दौरान बहुत महत्वपूर्ण होता है। दोपहर की तपती गर्मी मे जी-तोड़ मेहनत करने वाले मज़दूर या गलियों मे घूमते फेरी वालों और घरेलू कामगारों के लिए इन पेड़ों का होना बहुत आवश्यक हो जाता है जो गर्मी के प्रभाव को कम करता है।

यह देखकर आश्चर्य होता है और नियोजन की कलई खुल जाती है कि दिल्ली और बैंगलुरु जैसे बड़े शहर एक तरफ तो बड़े राजमार्गों पर लगे हुए पेड़ों कि अंधाधुन्ध कटाई मे लगे हैं और दूसरी तरफ प्रदूषण को कम करने के लिए जगह-जगह स्मोक स्क्रबर टॉवर लगवा रहे हैं। हमें तत्काल इस बात को लेकर रिसर्च करने की आवश्यकता है कि कौन सी प्रजाति के पेड़ प्रदूषण प्रतिरोधी और ताप प्रतिरोधी हैं और भविष्य में शहरी योजनाओं के लिए आवश्यक है। इस एंथ्रोपोसीन युग में इस तरह का अनुसंधान ज़रूरी है क्योंकि इन तपते शहरी टापुओं और ग्लोबल वार्मिंग के मिले-जुले असर से पेड़ों की मृत्यु दर बढ़ने वाली है। दूसरा सबसे महत्वपूर्ण शोध ‘पेड़ों के आपस में होने वाले संचार’ को लेकर हो रहा है। जिसमें हमें हाल के अध्ययनों से पता चला है कि पेड़ भी हवा में कुछ केमिकल छोड़कर और जमीन के नीचे फैले फफूंद मायसेलीया के नेटवर्क से जुड़कर आपस में संचार स्थापित करते हैं। वैज्ञानिकों ने इसे  “वुड वाइड वेब” का नाम दिया है। इस भूमिगत नेटवर्क के द्वारा समान और अलग-अलग प्रजाति के पेड़ आपस में संचार स्थापित करके एक दूसरे का सहयोग करते हैं। इससे वे कीटों के हमले से बचाव करते हैं, और भोजन का आदान-प्रदान भी करते हैं। शोध का विषय यह है कि जब ये पेड़ शहरों में एक ही पंक्ति में लगाए जाते हैं उस स्थिति में क्या इनका संचार तंत्र स्थापित हो पाता होगा, जहां जमीन पर डामर और कांक्रीट की परतें बिछी होती हैं?

वुड वाइड वेब पर ताज़ा रिसर्च से यह भी पता चला है कि मातृ वृक्ष ‘किसी जंगल या उपवन का सबसे पुराना पेड़’ आसपास के पेड़ों के लिए महत्वपूर्ण होता है। किसी जंगल में पास-पास के ये पेड़ परस्पर आनुवंशिक रूप से जुड़े होते हैं और एक-दूसरे की मदद करते हैं जबकि मातृ वृक्ष एक क्रिटिकल सेंट्रल नोड का काम करता है। भारतीय शहरों में हम मान सकते हैं कि मातृ वृक्ष सबसे बड़े और पुराने पेड़ होंगे। लिहाज़ा इन पर सबसे अधिक खतरा है क्योंकि शहरी योजनाकार उन्हें ये कहकर कटवा देते हैं कि ये अति प्रौढ़ और वयस्क हो चुके हैं और लोगों और उनकी सम्पत्ति के लिए नुकसानदायक हैं।

अगर शहरी परिवेश से इन मातृ वृक्षों को हटा दिया जाए तो क्या परिणाम होंगे, और परस्पर सम्बद्ध नेटवर्क पर क्या असर होंगे? हमारे पास इस सवाल का कोई जवाब नहीं है क्योंकि आज तक इस को लेकर कोई भी शोध या अध्ययन देश में नही हुआ है। हमें तो अंदाज़ भी नहीं है कि क्या भारतीय शहरों मे ऐसा कोई वृक्ष-संचार है भी या नहीं, वह कैसे काम करता है और करता भी है या नहीं।

उपरोक्त चर्चा दर्शाती है कि शहरी क्षेत्रों के पेड़ अनुसंधान के आकर्षक क्षेत्र उपलब्ध कराते हैं और जिसके लिए बढ़िया परिस्थितिकी रिसर्च स्टेशन की ज़रूरत है। भारत में ऐसे अनुसंधान की भारी कमी है चाहे वह पेड़ों को लेकर हो या फिर शहरी स्थायित्व को लेकर। वर्तमान में शहरी स्थायित्व पर 2008 से 2017 के बीच हुए 1000 शोधपत्रों में से सिर्फ 10 पेपर ही भारत से थे। यह दुखद है कि शहरी क्षेत्रों के प्रशासन सम्बंधी हमारा अधिकांश ज्ञान उन शोधो पर आधारित है जो यूएस, चीन और युरोप में किए गए हैं, जबकि इन देशों की परिस्थितिकी, पर्यावरण, विकास और संस्कृति भारतीय शहरों से सर्वथा भिन्न है। शहरी विकास के इन मॉडलों को हम जस-का-तस अपना नहीं सकते क्योंकि हमारे देश का राजनैतिक, आर्थिक, पारिस्थितिक, पर्यावरणीय और संस्थागत संदर्भ भिन्न है। लेकिन ये बात दुखद है कि हमारे अधिकतर शहरों का विकास इन्हीं तरीकों से किया जा रहा है।

शोध आवश्यक है लेकिन वह अपने आप में पर्याप्त नहीं है। शहरी पारिस्थितिकी पर शोध कार्य को गति देने के साथ-साथ, भारतीय वैज्ञानिकों को चाहिए कि शहरी विकास के सम्बंध में वे शहर में रहने वाले लोगों के साथ संवाद करें। भारत में इसका एक रास्ता यह भी हो सकता है कि नागरिक विज्ञान में बढ़ती रुचि का इस्तेमाल किया जाए। सीज़न वॉच एक राष्ट्रव्यापी कार्यक्रम है जिसमें लोग किसी एक पेड़ को चुनते हैं और इसमें साल भर में होने वाले बदलावों, जैसे फूलों और फलों का आना आदि का अध्ययन करते हैं। इस तरह वे महत्वपूर्ण वैज्ञानिक जानकारी का संकलन तो करते ही हैं, साथ-साथ इस प्रकिया के तहत वे बच्चों और बड़ों को प्रकृति से जोड़ने का काम भी करते हैं। बैंगलुरु का शहरी स्लेंडर लॉरिस प्रोजेक्ट नागरिक विज्ञान का एक बेहतरीन उदाहरण है जो एक जोखिमग्रस्त दुर्लभ प्रायमेट प्रजाति पर केंद्रित है।

दुनिया भर में पेड़ों के बारे में लोकप्रिय किताबें लिखने का चलन फिर से उभरा है। जैसे डी. जे. हास्केल की दी सॉन्ग ऑफ ट्रीज़: स्टोरीस फ्रॉम नेचर्स ग्रेट कनेक्टर्स (पेंÏग्वन वाइकिंग 2017); पी. वोहलेबेन, दी हिडन लाइफ ऑफ ट्रीज़, व्हाट दे फील, हाऊ दे कम्युनिकेट: डिस्कवरीज़ फ्रॉम अ सीक्रेट वर्ल्ड, ग्रे स्टोन बुक्स, 2016)। हमें भी भारतीय जन, बच्चों और बड़ों के लिए संरक्षण, विलुप्ति और जलवायु परिवर्तन जैसे पर्यावरणीय व पारिस्थितिकी सम्बंधी विभिन्न विविध मुद्दों पर पुस्तकों की आवश्यकता है। इससे व्यक्ति, स्कूल, कॉलेज और समुदाय भी नागरिक विज्ञान और जन विज्ञान में सम्मिलित हो सकेंगे। जैसे एच. नगेंद्र और एस मंदोली लिखित सिटीज़ एंड केनॉपीज़; ट्रीज़ इन इंडियन सिटीज़ पेंग्विन रैंडम हाउस इंडिया, दिल्ली 2019)। शहरी पारिस्थितिकी पर सहयोगी अनुसंधान की भी आवश्यकता है ताकि हम यह समझ पाएं कि लोगों के हितों को ध्यान में रखते हुए अपने शहरों की पारिस्थितिक दृष्टि से डिज़ाइन कैसे करें। (स्रोत फीचर्स)

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अमेज़न के जंगल बचाना धरती की रक्षा के लिए ज़रूरी – भारत डोगरा

व्यक्तिगत, ब्राज़ील के अमेज़न वर्षा वनों के व्यापक पर्यावरणीय महत्व को देखते हुए इन्हें बचाना सदा ज़रूरी रहा है, पर जलवायु बदलाव के इस दौर में तो यह पूरे विश्व के लिए भी बहुत महत्वपूर्ण हो गया है। इन घने जंगलों में बहुत कार्बन समाता है व इनके कटने से इतने बड़े पैमाने पर ग्रीनहाऊस गैसों का उत्सर्जन होगा कि विश्व स्तर के जलवायु सम्बंधी लक्ष्य प्राप्त करना मुश्किल हो जाएगा। अत: जब ब्राज़ील के अमेज़न वर्षावन में क्षति की बात होती है तो पूरे विश्व के पर्यावरणविद चौकन्ने हो जाते हैं।

इसके अतिरिक्त अमेज़न वर्षावनों की रक्षा से ब्राज़ील के आदिवासियों का जीवन भी बहुत नज़दीकी तौर पर जुड़ा है। 274 भाषाएं बोलने वाले लगभग 300 आदिवासी समूहों की आजीविका और दैनिक जीवन भी इन वनों से नज़दीकी तौर पर जुड़े हुए हैं।

इस महत्व को देखते हुए ब्राज़ील के 1988 के संविधान में आदिवासी समुदायों के संरक्षित क्षेत्रों की पहचान व संरक्षण की व्यवस्था की गई थी। फुनाय नाम से विशेष सरकारी विभाग आदिवासी हकदारी की रक्षा के लिए बनाया गया। अमेज़न के आदिवासियों को इतिहास में बहुत अत्याचार सहने पड़े हैं, अत: बचे-खुचे लगभग नौ लाख आदिवासियों की रक्षा को बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है। जर्मनी और नार्वे की सहायता से इन वनों की रक्षा के लिए संरक्षण कोश भी स्थापित किया गया है।

जहां ब्राज़ील में कुछ महत्वपूर्ण कदम सही दिशा में उठाए गए थे, वहीं दूसरी ओर इससे भी बड़ा सच यह है कि अनेक शक्तिशाली तत्व इन वनों को उजाड़ने के पीछे पड़े हैं। इसमें मांस (विशेषकर बीफ) बेचने वाली बड़ी कंपनियां हैं जो जंगल काटकर पशु फार्म बना रही हैं। कुछ अन्य कंपनियां खनन व अन्य स्रोतों से कमाई करना चाहती हैं। पर इनका सामान्य लक्ष्य यह है कि जंगल काटे जाएं व आदिवासियों को उनकी वन-आधारित जीवन पद्धति से हटाया जाए।

इन व्यावसायिक हितों को इस वर्ष राष्ट्रपति पद पर जैर बोल्सोनारो के निर्वाचन से बहुत बल मिला है क्योंकि बोल्सोनारो उनके पक्ष में व आदिवासियों के विरुद्ध बयान देते रहे हैं। बोल्सोनारो के राष्ट्रपति बनने के बाद आदिवासी हितों की संवैधानिक व्यवस्था को बहुत कमज़ोर किया गया है तथा वनों पर अतिक्रमण करने वाले व्यापारिक हितों को बढ़ावा दिया गया है।

उपग्रह चित्रों से प्राप्त आरंभिक जानकारी के अनुसार जहां वर्ष 2016 में 3183 वर्ग किलोमीटर वन क्षेत्र पर वन उजड़े थे, वहीं इस वर्ष सात महीने से भी कम समय में 3700 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र पर वन उजड़ गए हैं। वन विनाश की गति और भी तीव्र हो रही है। 2017 में जुलाई महीने में 457 वर्ग किलोमीटर वन उजड़े थे, जबकि इस वर्ष जुलाई के पहले तीन हफ्तों में ही 1260 वर्ग किलोमीटर वन उजड़े।

इसके साथ आदिवासी हितों पर हमले भी बढ़ गए हैं। हाल ही में वाइअपी समुदाय के मुखिया की हत्या कर दी गई। इस समुदाय के क्षेत्र में बहुत खनिज संपदा है। इस हत्या की संयुक्त मानवाधिकार उच्चायुक्त ने कड़ी निंदा की है। इस स्थिति में ब्राज़ील के अमेज़न वर्षावनों तथा यहां के आदिवासियों की आजीविका व संस्कृति की रक्षा की मांग को विश्व स्तर पर व्यापक समर्थन मिलना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)

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5जी शुरु होने से मौसम पूर्वानुमान पर असर

मरीका में जल्द ही शुरू होने वाली 5जी सेवाओं पर मौसम विज्ञानियों की चिंता है कि यदि आवंटित स्पेक्ट्रम पर 5जी सेवाएं शुरू हुर्इं तो मौसम सम्बंधी भविष्यवाणी का काम प्रभावित होगा।

मार्च 2019 में फेडरल कम्युनिकेशन कमीशन (FCC) द्वारा 5जी सेवाओं के लिए स्पेक्ट्रम आवंटन किया गया था, जिसके बाद वायरलेस कंपनियां 24 गीगा हर्ट्ज़ पर 5जी सेवाएं देना शुरु कर सकती हैं। 5जी शुरू होने के बाद सेवा की रफ्तार 100 गुना तक बढ़ जाएगी।

वहीं नेशनल ओशिएनिक एंड एटमॉस्फरिक एडमिनिस्ट्रेशन (NOAA) के प्रमुख नील जैकब्स की आशंका है कि 5जी का उपयोग मौसम पूर्वानुमान की सटीकता को 30 प्रतिशत तक कम कर सकता है। तब मौसम भविष्यवाणी की स्थिति वैसी हो जाएगी जैसे 1980 के दशक में हुआ करती थी। जिससे तटीय इलाकों में रहने वाले लोगों को 2-3 दिन देर से चेतावनी मिल पाएगी। विसकॉन्सिन मेडिसन युनिवर्सिटी के मौसम विज्ञानी जॉर्डन गर्थ का कहना है कि दरअसल वायुमंडल में जलवाष्प मौजूदगी बताने वाले संकेत 23.6 गीगा हर्ट्ज़ से 24 गीगा हर्टज़ के बीच काम करते हैं और 5जी नेटवर्क 24 गीगा हर्ट्ज़ पर शुरू होगा। तो 5जी से होने वाला प्रसारण इन सेंसरों को आसानी से प्रभावित कर सकता है जैसे कोई शोरगुल करने वाला पड़ोसी हो।

लेकिन सेल्युलर टेलीकम्युनिकेशन इंडस्ट्री संघ (CTIA) के उपाध्यक्ष ब्राड गिलेन का कहना है कि मौसम पूर्वानुमान पर 5जी के प्रभाव पर जो गंभीर चिंताएं व्यक्त की जा रही हैं वे गलत हैं। जो लोग 5जी के उपयोग पर रोक लगाना चाहते हैं वे यह सोच रहे हैं कि यह मौसम के बारे में अनुमान देने वाले सेंसर, कोनिकल माइक्रोवेव इमेजर साउंडर (CMIS) को प्रभावित करेगा। लेकिन तथ्य यह है कि इन्हें (CMIS) को 2006 में ही खारिज कर दिया गया था ये कभी इस्तेमाल ही नहीं किए गए हैं।

इस पर गर्थ का कहना है कि CMIS के उन्नत तकनीक के सेंसर (एडवांस्ड टेक्नॉलॉजी माइक्रोवेव साउंडर, ATMS) मौसम पूर्वानुमान में उपयोग किए जाते हैं जो 23.8 गीगा हर्ट्ज़ पर काम करते हैं जो 5जी की सीमा के नज़दीक ही है। इस पर CTIA के निक ल्युडलम का कहना है कि CMIS की तुलना में ATMS सेंसर काफी छोटे हैं और उनकी रेंज सीमित है जिससे यह आसपास की स्पेक्ट्रम के प्रति कम संवेदी है।  

5जी के उपयोग के मसले पर मोबाइल कंपनियों और अमरीकी सरकार के बीच असहमति और बहस तो कई महीनों से चल रही है लेकिन यह उजागर कुछ समय पहले हुई है। लोग चाहते हैं कि 28 अक्टूबर को मिरुा में होने वाली वर्ल्ड कम्युनिकेशन कॉन्फ्रेंस के पहले इस मुद्दे पर चल रही बहस को सुलझा लिया जाए। 

वैसे यदि 5जी किसी अन्य स्पेक्ट्रम पर शुरू होता है तो वह भी नई बहस शुरू कर सकता है। गर्थ का कहना है कि 5जी के उपयोग पर विवाद तो 36-37 गीगा हर्ट्ज पर भी हो सकता है जिसका उपयोग बारिश और बर्फ गिरने के अनुमान के लिए किया जाता है या 50 गीगाहर्ट्ज़ पर भी हो सकता है जिस पर वायुमंडलीय तापमान का पता किया जाता है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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ओज़ोन परत पर एक और हमला – एस. अनंतनारायणन

मारे वायुमंडल के ऊपरी भाग में मौजूद ओज़ोन परत, सूरज से आने वाले पराबैंगनी विकिरण से पृथ्वी की रक्षा करती है। इस सुरक्षा कवच पर खतरा पैदा हुआ था, लेकिन मॉन्ट्रियल संधि के माध्यम से अंतर्राष्ट्रीय कार्रवाई की बदौलत इसे बचा लिया गया। संधि में इस बात को पहचाना गया था कि कुछ मानव निर्मित रसायन, मुख्य रूप से क्लोरोफ्लोरोकार्बन, ओज़ोन परत को नुकसान पहुंचा रहे हैं। इस संधि ने इन पदार्थों के उपयोग और वायुमंडल में इनके उत्सर्जन में कटौती करने के लिए एक वैश्विक अभियान को गति दी थी।

क्लोरोफ्लोरोकार्बन के उपयोग के मामले में मुख्य रूप से एयरोसोल स्प्रे, औद्योगिक विलायकों और शीतलक तरल पदार्थों को दोषी माना गया और इस अभियान का केंद्रीय मुद्दा उन्हें हटाना था। क्लोरोफॉर्म जैसे कुछ अन्य पदार्थ भी ओज़ोन परत को प्रभावित करते हैं, लेकिन ये बहुत तेज़ी से विघटित हो जाते हैं, इसलिए इन्हें संधि में शामिल नहीं किया गया था। यह संधि काफी सफल रही और उम्मीद की गई थी कि अंटार्कटिक के ऊपर बन रहा ‘ओज़ोन छिद्र’ 2050 तक खत्म हो जाएगा।

एमआईटी, कैलिफोर्निया और ब्रिस्टल विश्वविद्यालयों, दक्षिण कोरिया के क्युंगपुक राष्ट्रीय विश्वविद्यालय, ऑस्ट्रेलिया के दी क्लाइमेट साइंस सेंटर और एक्सेटर के दी मेट ऑफिस के वैज्ञानिकों के एक समूह ने नेचर जियोसाइंस जर्नल में प्रकाशित शोध पत्र में बताया है कि क्लोरोफॉर्म जैसे पदार्थों के स्तर में वृद्धि जारी है और इसके चलते ‘ओज़ोन छिद्र’ में हो रहे सुधार की गति धीमी पड़ सकती है।

ओज़ोन का ह्रास

ओज़ोन गैस ऑक्सीजन का ही एक रूप है जो वायुमंडल में काफी ऊंचाई पर बनती है। गैस की यह परत सूरज से आने वाली पराबैंगनी किरणों को सोखकर पृथ्वी की रक्षा करती है। ऑक्सीजन के परमाणु में बाहरी इलेक्ट्रॉन शेल अधूरा होता है जिसकी वजह से ऑक्सीजन का परमाणु अन्य परमाणुओं के साथ संयोजन करता है। ऑक्सीजन का अणु दो ऑक्सीजन परमाणुओं से मिलकर बनता है। ये दो परमाणु बाहरी शेल के इलेक्ट्रॉनों को साझा करके एक स्थिर इकाई बनाते हैं। वायुमंडल की ऊपरी परतों में पराबैंगनी प्रकाश के ऊर्जावान फोटोन ऑक्सीजन अणुओं को घटक परमाणुओं में विभक्त कर देते हैं। एक अकेला परमाणु उच्च ऊर्जा स्तर पर होता है और स्थिरता के लिए उसे बंधन बनाने की आवश्यकता होती है। वे अन्य ऑक्सीजन अणुओं के साथ बंधन बनाकर ऑक्सीजन के तीन परमाणुओं वाला ओज़ोन का अणु बनाते हैं। ओज़ोन अणु फिर पराबैंगनी प्रकाश को अवशोषित करते हैं और एक ‘अकेला’ ऑक्सीजन परमाणु मुक्त करते हैं, जो फिर से ऑक्सीजन अणुओं के साथ गठबंधन करके ओज़ोन बनाते हैं। और यह प्रक्रिया ऐसे ही चलती रहती है। यह चक्र तब तक चलता रहता है जब तक अकेले परमाणुओं की संख्या कम नहीं हो जाती। ऐसा तब होता है, जब दो अकेले परमाणु ऑक्सीजन का अणु बना लेते हैं।

इस प्रकार से ओज़ोन निर्माण और विघटन की एक प्रक्रिया चलती है। यह शुरू होती है पराबैंगनी प्रकाश द्वारा ऑक्सीजन अणुओं के विभाजन के साथ। इस क्रिया में उत्पन्न अकेले ऑक्सीजन परमाणु ऑक्सीजन के अणुओं के साथ गठबंधन करके ओज़ोन का निर्माण करते हैं। ओज़ोन में से एक बार फिर ऑक्सीजन परमाणु मुक्त होते हैं और ये ऑक्सीजन परमाणु आपस में जुड़कर ऑक्सीजन बना लेते हैं। इस तरह वायुमंडल में ऊंचाई पर ओज़ोन की मात्रा का एक संतुलन बना रहता है। यह ओज़ोन पराबैंगनी विकिरण को अवशोषित करके और उसे पृथ्वी की सतह तक पहुंचने से दूर रखने की प्रक्रिया जारी रखती है। सतह पर पराबैंगनी विकिरण जितना कम होगा उतना मनुष्यों और अन्य जंतुओं के लिए बेहतर है।

लेकिन ओज़ोन की इस संतुलित सुकूनदायक स्थिति में परिवर्तन तब आता है जब ओज़ोन को ऑक्सीजन में तोड़ने वाले पदार्थ ऊपरी वायुमंडल में पहुंच जाते हैं। इनमें से सबसे प्रमुख हैं पानी के अणु का ऋणावेशित OH हिस्सा, नाइट्रिक ऑक्साइड का NO हिस्सा, मुक्त क्लोरीन या ब्रोमीन परमाणु। ये पदार्थ ओज़ोन से अतिरिक्त ऑक्सीजन परमाणुओं को खींचने में सक्षम होते हैं और फिर ये ऑक्सीजन परमाणुओं को अन्य यौगिक बनाने के लिए छोड़ते हैं। इसके बाद ये पदार्थ अन्य ओज़ोन अणुओं से ऑक्सीजन परमाणुओं को खींचते हैं और लंबे समय तक ऐसा करते रहते हैं। ऊंचाई पर इनमें से सबसे अधिक महत्वपूर्ण क्लोरीन है और एक क्लोरीन परमाणु 1,00,000 ओज़ोन अणुओं के साथ प्रतिक्रिया करते हुए दो साल तक सक्रिय रहता है।

ओज़ोन का विघटन करने वाले पदार्थों को वायुमंडल में भेजने वाली प्राकृतिक प्रक्रियाएं बहुत कम हैं। लेकिन फिर भी 1970 के दशक के बाद से ऊंचाइयों पर ओज़ोन परत में गंभीर क्षति देखी गई है। इसका कारण विभिन्न क्लोरोफ्लोरोकार्बन यौगिकों का वायुमंडल में छोड़ा जाना पहचाना गया था जिनका उपयोग उस समय उद्योगों में बढ़ने लगा था। ये यौगिक वाष्पशील होते हैं और वायुमंडल की ऊंचाइयों तक पहुंच जाते हैं और क्लोरीन के एकल परमाणु मुक्त करते हैं। ये क्लोरीन परमाणु ओज़ोन परत पर कहर बरपाते हैं।

पराबैंगनी विकिरण को सोखने वाली ओज़ोन परत हज़ारों सालों से ही मौजूद रही है और जीवन का विकास ओज़ोन की मौजूदगी में ही हुआ है। हो सकता है कि थोड़ा पराबैंगनी विकिरण जीवन की उत्पत्ति के लिए एक पूर्व शर्त रहा हो। लेकिन अब ओज़ोन की कमी और पराबैंगनी विकिरण में वृद्धि के गंभीर स्वास्थ्य सम्बंधी प्रभाव हैं जिसका एक उदहारण त्वचा कैंसर की घटनाओं में वृद्धि में देखा जा सकता है। अंटार्कटिक के ऊपर के वायुमंडल में ओज़ोन में भारी कमी यानी ‘ओज़ोन छिद्र’ का पता लगने के परिणामस्वरूप मॉन्ट्रियल संधि अस्तित्व में आई और यह अनुमान लगाया गया कि सीएफसी उपयोग पर रोक लगाई जाए तो 2030 तक त्वचा कैंसर के 20 लाख मामलों को रोका जा सकेगा।

रुझान पलटा

जैसा कि हमने बताया, सीएफसी को ओज़ोन क्षति का मुख्य कारण माना गया था और इसलिए संधि में क्लोरोफॉर्म जैसे अन्य कारणों पर ध्यान नहीं दिया गया। ऐसा माना गया था कि वे ‘अत्यंत अल्पजीवी पदार्थ’ (या वीएसएलएस) हैं और यह भी माना गया था कि ये मुख्य रूप से प्राकृतिक स्रोतों से उत्पन्न होते हैं। फिर भी, नेचर जियोसाइंस में प्रकाशित शोध पत्र के अनुसार निचले समताप मंडल में वीएसएलएस का स्तर बढ़ता जा रहा है। अध्ययन के अनुसार दक्षिण ध्रुव के वायुमंडल में क्लोरोफॉर्म का स्तर 1920 में 3.7 खरबवां हिस्सा था जो बढ़ते-बढ़ते 1990 में 6.5 खरबवें हिस्से तक पहुंचा और फिर इसमें गिरावट देखने को मिली। इसी अवधि में उत्तर घ्रुव के वायुमंडल में क्लोरोफॉर्म 5.7 खरबवें भाग से बढ़कर 17 खरबवें भाग तक बढ़ने के बाद इसमें कमी आई। गिरावट का यह रुझान 2010 तक अलग-अलग अवलोकन स्टेशनों पर जारी रहा। लेकिन एक बार फिर यह बढ़ना शुरू हो गया। 2015 तक के आकड़ों के अनुसार यह वृद्धि मुख्य रूप से उत्तरी गोलार्ध में हुई है। शोध पत्र के अनुसार इससे पता चलता है कि वायुमंडल में प्रवेश करने वाले क्लोरोफॉर्म का मुख्य स्रोत उत्तरी गोलार्ध में है।

ऑस्ट्रेलिया, उत्तरी अमेरिका और युरोप के पश्चिमी तट के स्टेशनों के अनुसार 2007-2015 के दौरान निकटवर्ती स्रोतों से उत्सर्जन के कारण क्लोरोफॉर्म स्तर में वृद्धि अधिक नहीं थी। दूसरी ओर, 2010-2015 के दौरान जापान और दक्षिण कोरिया के स्टेशनों पर काफी वृद्धि दर्ज की गई थी।

इस परिदृश्य का आकलन करने के लिए, शोधकर्ताओं ने संभावित स्रोतों से प्रेक्षण स्थलों तक क्लोरोफॉर्म के स्थानांतरण का पता करने के लिए मॉडल का उपयोग किया। इस अध्ययन से पता चला कि 2010 के बाद से पूर्वी चीन से उत्सर्जन में तेज़ी से वृद्धि हुई है, जबकि जापान और दक्षिण कोरिया दूसरे स्थान पर हैं। अन्य पूर्वी एशियाई देशों से कोई महत्वपूर्ण वृद्धि देखने को नहीं मिली है। चीन में वृद्धि ऐसे क्षेत्रों में है जहां घनी आबादी के साथ-साथ औद्योगीकरण के कारण क्लोरोफॉर्म गैस का उत्सर्जन करने वाले कारखाने हैं। शोध पत्र में यह स्पष्ट किया गया है कि हवा में क्लोरोफॉर्म का एक बड़ा हिस्सा उद्योगों से आता है और क्लोरोफॉर्म के स्तर में वृद्धि मानव निर्मित है।

शोध पत्र के अनुसार क्लोरोफॉर्म जैसे अत्यंत अल्पजीवी पदार्थों में वृद्धि का वर्तमान स्तर, ओज़ोन छिद्र के सुधार में कई वर्षों की देरी कर सकता है। नेचर जियोसाइंस में जर्मनी के जियोमर हेल्महोल्ट्ज़ सेंटर फॉर ओशन रिसर्च के सुसैन टेग्टमीयर ने टिप्पणी की है कि “यह निष्कर्ष मानव-जनित अत्यंत अल्पजीवी पदार्थों के उत्सर्जन का नियमन करने की चर्चा को शुरू करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है।” (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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क्या बिजली-वाहन प्रदूषण कम करने में कारगर होंगे? – कुमार सिद्धार्थ

देश के महानगरों और शहरों में जिस तेज़ी से वायु प्रदूषण बढ़ रहा है, उसमें सबसे ज्यादा योगदान वाहनों से होने वाले प्रदूषण का है। इस मुद्दे पर वर्षों से चिंता जताई जा रही है, लेकिन ठोस परिणाम देखने में नहीं आ रहे हैं। वहीं देश में दो-पहिया और चार-पहिया वाहनों की संख्या तेज़ी से बढ़ती जा रही है और रोज़ाना लाखों नए वाहन पंजीकृत हो रहे हैं। आज देश में पेट्रोल और डीज़ल से चलने वाले करोड़ों वाहन हैं, और इनसे निकलने वाला काला धुआं कार्बन उत्सर्जन का बड़ा कारण है।

पेरिस समझौते के प्रति अपनी प्रतिबद्धता के चलते भारत सरकार ने सन 2030 तक बिजली से चलने वाले वाहनों को बढ़ावा देने के लिए एक वृहद योजना तैयार की है। उम्मीद की जा रही है कि पूरे देश में विद्युत वाहनों का उपयोग बढ़ने से बिजली क्षेत्र में बड़ा बदलाव आएगा और उत्सर्जन में 40 से 50 प्रतिशत की कमी आएगी। इससे देश में कार्बन उत्सर्जन के लक्ष्य को हासिल करने में मदद मिलेगी।

इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए केंद्रीय मंत्रिमंडल ने नीति आयोग की अगुवाई में विद्युत गतिशीलता के मिशन को मंज़ूरी दी है। ध्यान रहे कि विद्युत गतिशीलता को सार्वजनिक परिवहन से जोड़ने के लिए केंद्र सरकार ने 2015 में हाइब्रिाड (बिजली और र्इंधन दोनों से चलने वाले) और इलेक्ट्रिक वाहनों को तेज़ी से अपनाने और उनके निर्माण की नीति शुरू की थी – फास्टर एडॉप्शन एंड मैन्युफैक्चरिंग ऑफ हायब्रिाड एंड इलेक्ट्रिक वेहिकल्स (एफएएमई)। इसका पुनरीक्षण किया जा रहा है। इसके तहत नीति आयोग ने बिजली से चलने वाले वाहनों की ज़रूरत, उनके निर्माण और इससे सम्बंधित ज़रूरी नीतियां बनाने की शुरुआत की है।

दरअसल, भारत विद्युत वाहनों के लिए दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा बाज़ार है। भारत में इस वक्त लगभग 4 लाख इलेक्ट्रिक दो-पहिया वाहन और 1 लाख ई-रिक्शा हैं, कारें तो हज़ारों की संख्या में ही हैं। सोसाइटी ऑफ मैन्युफैक्चरर्स ऑफ इलेक्ट्रिक वेहिकल्स (एसएमईवी) के अनुसार, भारत में 2017 में बेचे गए आंतरिक दहन इंजन वाहनों में से एक लाख से भी कम बिजली से चलने वाले वाहन थे। इनमें से 93 प्रतिशत से अधिक इलेक्ट्रिक तीन-पहिया वाहन और 6 प्रतिशत दो-पहिया वाहन थे।

भारत भले ही इलेक्ट्रिक कारों में दूसरे देशों से पीछे हो, लेकिन बैटरी से चलने वाले ई-रिक्शा की बदौलत भारत ने चीन को पीछे छोड़ दिया है। रिपोर्ट्स के मुताबिक मौजूदा समय में भारत में करीब 15 लाख ई-रिक्शा चल रहे हैं। कंसÏल्टग फर्म ए.टी. कर्नी की एक की रिपोर्ट में बताया गया है कि हर महीने भारत में करीब 11,000 नए ई-रिक्शा सड़कों पर उतारे जा रहे हैं। भारत में अभी इलेक्ट्रिक गाड़ियों को चार्ज करने के लिए कुल 425 पॉइंट बनाए गए हैं। सरकार 2022 तक इन प्वाइंट्स को 2800 करने वाली है।

गौरतलब है कि देश में बड़े पैमाने पर इलेक्ट्रिक वाहनों के उपयोग से बिजली की मांग भी बढ़ रही है। उद्योग मंडल एसोचैम और अन्स्र्ट एंड यंग एलएलपी के संयुक्त अध्ययन में कहा गया है कि सन 2030 तक इलेक्ट्रिक वाहनों के उपयोग से बिजली की मांग 69.6 अरब युनिट तक पहुंचने का अनुमान है।

आलोचकों का तर्क यह भी है कि भारत में 90 प्रतिशत बिजली का उत्पादन कोयले से होता है। ऐसे में इलेक्ट्रिक कारों से प्रदूषण कम करने की बात बेमानी लगती है। नॉर्वे के विज्ञान और प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय की ओर से कराए गए एक शोध के मुताबिक बिजली से चलने वाले वाहन पेट्रोल और डीज़ल से चलने वाले वाहनों से कहीं ज्यादा प्रदूषण के लिए ज़िम्मेदार हो सकते हैं। अध्ययन में कहा गया है कि यदि बिजली उत्पादन के लिए कोयले का इस्तेमाल होता है तो इससे निकलने वाली ग्रीन हाउस गैसें डीज़ल और पेट्रोल वाहनों की तुलना में कहीं ज़्यादा प्रदूषण फैलाती हैं। यही नहीं, जिन फैक्ट्रियों में बिजली से चलने वाली कारें बनती हैं वहां भी तुलनात्मक रूप में ज़्यादा विषैली गैसें निकलती हैं। हालांकि शोधकर्ताओं का कहना है कि इन खामियों के बावजूद कई मायनों में ये कारें फिर भी बेहतर हैं। लेकिन रिपोर्ट में कहा गया है कि ये कारें उन देशों के लिए फायदेमंद हैं जहां बिजली का उत्पादन अन्य स्रोतों से होता है।

अपने देश में इलेक्ट्रिक वाहन चलाने के लिए पर्याप्त बिजली मिल सके, अभी इस पर काम किया जाना है। उसके लिए बुनियादी सुविधाओं, संसाधनों और बजट का प्रावधान किया जाना है। वाहन निर्माता कंपनियों का कहना है कि अगर सरकार बैटरी निर्माण और चार्जिंग स्टेशनों की समस्या का समाधान कर दे तो बिजली चालित वाहन बड़ी तादाद में उतारे जा सकते हैं। ज़ाहिर है, बुनियादी सुविधाओं का बंदोबस्त सरकार को करना है और इसके लिए ठोस दीर्घावधि नीति की ज़रूरत है। (स्रोत फीचर्स)

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सोवियत संघ के विघटन से ग्रीनहाउस गैसों में कमी

क अनुमान के मुताबिक 1991 में सोवियत संघ के पतन के बाद जो आर्थिक संकट पैदा हुआ था, उसकी वजह से वहां ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में भारी कमी आई थी। इसका मुख्य कारण यह बताया गया है कि इस आर्थिक संकट के कारण लोगों ने मांस खाना बहुत कम कर दिया था।

सोवियत संघ में कम्युनिस्ट शासन के दौरान पशुपालन से प्राप्त मांस वहां के लोगों का मुख्य भोजन हुआ करता था। 1990 में एक औसत सोवियत नागरिक प्रति वर्ष 32 किलोग्राम मांस खाता था जो उस समय पश्चिमी युरोप की प्रति व्यक्ति खपत से सवा गुना और वैश्विक औसत से 4 गुना ज़्यादा था।

लेकिन सोवियत संघ के विघटन के बाद रोज़मर्रा की वस्तुओं की कीमतों में ज़बरदस्त वृद्धि हुई और रूबल की क्रय क्षमता बहुत कम हो गई। ऐसी स्थिति में मांस उत्पादन भी बहुत कम हो गया। बताते हैं कि उस दौर के बाद पूर्व-सोवियत संघ की एक-तिहाई कृषि भूमि खाली पड़ी है। सोवियत संघ के पतन के बाद उस क्षेत्र में औद्योगिक उत्पादन में भी काफी गिरावट हुई थी।

सोवियत खाद्य एवं कृषि व्यवस्था में उपरोक्त परिवर्तनों के चलते 1992-2011 के दौरान ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में 7.6 अरब टन प्रति वर्ष की कमी आई। सोवियत संघ में मांस के उपभोग और अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के आंकड़ों के आधार पर यह अनुमान जर्मनी के लीबनिज़ इंस्टीट्यूट ऑफ एग्रिकल्चरल डेवलपमेंट इन ट्रांज़िशन इकॉनॉमीज़ के एफ. शीयरहॉर्न व उनके साथियों ने एन्वायरमेंटल रिसर्च लेटर्स नामक शोध पत्रिका में प्रकाशित किया है। फिलहाल रूस 2.5 अरब टन ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन करता है।

शीयरहॉर्न का कहना है कि फिलहाल पशुपालन दुनिया भर में 14.5 प्रतिशत ग्रीनङाउस गैसों के लिए ज़िम्मेदार है। खास तौर से गौमांस का उत्पादन सबसे अधिक ग्रीनहाउस गैसों के लिए ज़िम्मेदार होता है क्योंकि इसके लिए जो चारागाह विकसित किए जाते हैं, वे जंगल काटकर बनते हैं। (स्रोत फीचर्स)
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जारी है मौसम की भविष्यवाणी के प्रयास – नरेन्द्र देवांगन

टली के आल्प्स पर्वतीय क्षेत्र में चार इंजनों वाला एक टर्बाइन चालित विमान उड़ान भर रहा था। विमान ने 1524 मीटर की ऊंचाई से गोता लगाया। इससे पहले कि वह फिर से अपनी सही अवस्था में आए, विमान सिर्फ 90 सेकंड में 213 मीटर की ऊंचाई तक आ चुका था। कुछ ही मिनटों में वह स्विट्ज़रलैंड के सेंट गाटहार्ड दर्रे में ऊपर-नीचे होता हुआ अपने पूर्व निश्चित लक्ष्य की ओर उड़ान भर रहा था। वह चारों ओर से बहुत ही खराब मौसम से घिर चुका था। 7 घंटे से भी अधिक समय तक यह विमान हिचकोले भरता हुआ आल्प्स के इर्द-गिर्द उड़ता रहा और अंत में भूमध्य सागर तथा 4 देशों की सीमाएं पार कर जेनेवा के कोयनट्रिन हवाई अड्डे पर उतरा।

विमान में सवार युरोप और अमरीका के 12 वायुमंडलीय वैज्ञानिकों में से किसी के भी चेहरे पर परेशानी का भाव नहीं था। उनके लिए यह कष्टकारी उड़ान उनके मिशन का एक हिस्सा थी। एल्पाइन एक्सपेरिमेंट (एलपेक्स) के अंतर्गत उड़ान भर रहे इस विमान का उद्देश्य यह अध्ययन करना था कि पर्वतमालाएं एक बड़े क्षेत्र के मौसम को किस तरह प्रभावित करती हैं। इस कार्य के लिए विमान में पूरी प्रयोगशाला थी जिसमें वायु गति मापने से ले कर बादलों में पानी की मात्रा आदि सभी चीज़ें दर्ज करने के लिए कंप्यूटर व अनेक सूक्ष्म यंत्र लगे हुए थे जो उन कारणों का पता लगा रहे थे जिनसे आल्प्स के मौसम से तेज़ हवाएं पैदा होती हैं और दक्षिण फ्रांस से होती हुई इटली के एड्रियाटिक सागर तट पर पहुंच कर तबाही मचाती हैं।

किसी भी वैज्ञानिक चुनौती की अपेक्षा मौसम की भविष्यवाणी करना अधिक रहस्यमय है। खेती-बाड़ी, परिवहन, जहाज़रानी, उड्डयन और यहां तक कि सैर-सपाटे के लिए भी मौसम की पूर्व जानकारी होना महत्वपूर्ण है। अनुमान है कि अकेले पश्चिमी युरोप के लिए ही मौसम की 7 दिन की पूर्ण विश्वसनीय भविष्यवाणी करने से हर साल करोड़ों डॉलर का फर्क पड़ जाता है।

मनुष्य सदियों से मौसम की भविष्यवाणी करने का प्रयास कर रहा है। युरोप के कुछ देशों में तो वर्षा और तापमान के 300 वर्ष पुराने रिकार्ड मिले हैं। परंतु पुराने समय के मौसम वैज्ञानिक बड़े-बड़े यंत्रों और गणना करने की उच्च क्षमता के बिना अपने अनुभवों के आधार पर ही भविष्यवाणियां किया करते थे।

लगभग 60 वर्ष पहले ब्रिटिश वैज्ञानिक एल. एफ. रिचर्डसन ने यह प्रमाणित किया कि भौतिकी के नियमों पर आधारित गणित के समीकरणों की सहायता से मौसम की भविष्यवाणी की जा सकती है। परंतु रिचर्डसन ने एक छोटे से इलाके के मौसम की 6 घंटे पहले भविष्यवाणी करने का जो प्रयास किया, उसकी गणना करने में उन्हें कई सप्ताह तक कड़ी मेहनत करनी पड़ी। अपने इस प्रयास के उपरांत वह इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि पूरे विश्व के मौसम की निरंतर भविष्यवाणी करने के लिए 64,000 व्यक्तियों को गणना करने वाली साधारण मशीनों पर लगातार काम करते रहना होगा।

1950 में गणितज्ञ जान फॉन नॉइमान और उनके सहयोगियों ने इस समस्या को कंप्यूटर की मदद से हल किया। आज के सशक्त और तेज़ कंप्यूटर तो इस विधि के मुख्य आधार हैं। लेकिन उन्नत तकनीकों ने मौसम के पूर्वानुमान को अत्यधिक खर्चीला बना दिया है। दुनिया की समस्त मौसम विज्ञान सेवाओं को चलाने की सालाना लागत दो अरब डॉलर से अधिक है।

आफनबाक (पश्चिमी जर्मनी) स्थित प्रेक्षणशाला में पूरी कमान कंप्यूटरों के हाथ में है। यहां विश्व के 9000 से अधिक केंद्रों से वायु की दिशा, आद्रता और वायु दाब के बारे में सूचनाएं एकत्र कर कंप्यूटर में डाली जाती हैं। कभी-कभी तो हज़ारों किलोमीटर दूर दर्ज किए गए आंकड़े भी घंटे भर के अंदर कंप्यूटर में भर दिए जाते हैं। जेनेवा स्थित विश्व मौसम विज्ञान संगठन विभिन्न देशों से तथा विमान चालकों, व्यापारिक जहाज़ों और मौसम उपग्रहों से प्राप्त मौसम के सैकड़ों नक्शे जारी करता है। युरोप का मौसम उपग्रह मेटियोसैट-2 भूमध्य रेखा के ऊपर 36,000 कि.मी. की ऊंचाई से हर आधे घंटे बाद वायुमंडल के चित्र भेजता है।

उपग्रहों द्वारा मौसम के बारे में एकत्रित की गई जानकारी हमें अंकों के रूप में प्राप्त होती है। इन अंकों में वायुमंडल की निश्चित समय की परिस्थितियों का पूर्ण विवरण होता है। इस विवरण से कंप्यूटर पूरे वायुमंडल का एक काल्पनिक चित्र तैयार करता है। इस चित्र में विभिन्न स्थान बिंदुओं की सहायता से दर्शाए जाते हैं। इस मानचित्र को गणित समीकरणों की बहुत ही जटिल प्रणाली में फिट किया जाता है। इसी से यह पता चलता है कि प्रत्येक बिंदु पर मौसम में कैसा-कैसा परिवर्तन होगा।

ऐसा माना जाता है कि इंग्लैंड के रीडिंग शहर में स्थित युरोपियन सेंटर फॉर मीडियम रेंज वेदर फोरकास्ट (ईसीएमडब्लूएफ) मौसम की भविष्यवाणी करने वाला सर्वश्रेष्ठ केंद्र है। इस केंद्र में लगा शक्तिशाली कंप्यूटर प्रति दिन लगभग 8 करोड़ सूचनाएं प्राप्त करता है तथा प्रति सेकंड एक साथ 5 करोड़ क्रियाएं कर सकता है।

मध्यम दूरी के मौसम की भविष्यवाणी करना किसी भी अकेले देश के तकनीकी और वित्तीय साधनों के बस के बाहर है, अत: यह केंद्र स्थापित किया गया। केंद्र के निदेशक के अनुसार, बादलों के लिए राष्ट्रों की सीमाओं का कोई महत्व नहीं है। अब 5-6 दिन तक के मौसम की सही भविष्यवाणी की जा सकती है। पहले केवल 2-3 दिन की भविष्यवाणी सही होती थी।

मौसम के बारे में दो-तीन दिन पहले की सूचना भी बहुत महत्वपूर्ण हो सकती है। नवंबर में जब इटली के दक्षिणी भाग में भूकंप आया तो ईसीएमडब्लूएफ ने आने वाले सप्ताह के दौरान ठंडे मौसम और तेज़ तूफान आने की बिलकुल सही भविष्यवाणी की थी। स्थानीय अधिकारी सचेत हो गए कि ढाई लाख बेघर भूकंप पीड़ितों के लिए गरम कपड़ों और शरण स्थलों की आवश्यकता होगी।

ईसीएमडब्लूएफ तथा अन्य सभी राष्ट्रीय केंद्रों द्वारा इस्तेमाल में लाए जाने वाले कंप्यूटर मॉडलों की बराबर सूक्ष्म ट्यूनिंग की जाती है ताकि वे सटीक काम करें। कई मौसम कार्यालयों में और भी सूक्ष्म ग्रिड लगाए गए हैं ताकि छोटे-छोटे क्षेत्रों के बारे में भविष्यवाणी की जा सके। कहते हैं कि 1982 में मध्य फ्रांस में तबाही मचाने वाले बर्फीले तूफान के बारे में पहले से भविष्यवाणी नहीं की जा सकी थी क्योंकि वह इलाका ग्रिड के हिसाब से बहुत ही छोटा था।

इसके बाद फ्रांस में सूक्ष्म ग्रिड इस्तेमाल किया जाने लगा जो बहुत कम दूरी पर स्थित बिंदुओं को भी अलग-अलग दर्शा सकता है। मौसम वैज्ञानिकों का लक्ष्य इन मॉडलों को और अधिक सटीक बनाना तथा पूर्वानुमान लगाने की सीमा को 10 दिन तक बढ़ाना है।

वैज्ञानिक मौसम की भविष्यवाणी के दूसरे पहलुओं पर भी काम करने लगे हैं। जैसे बहुत ही कम अवधि यानी कुछ ही घंटों के मौसम की जानकारी देना। इसे ‘नाऊकास्टिंग’ यानी तत्काल पूर्वानुमान कहते हैं। अलबत्ता, अल्प अवधि की ये भविष्यवाणियां पूरी तरह पक्की नहीं होतीं। जैसे ब्रिाटेन का मौसम कार्यालय आसमान साफ रहने या कहीं-कहीं वर्षा होने की भविष्यवाणी तो कर सकता है परंतु ठीक-ठीक नहीं बता सकता कि छिटपुट वर्षा कहां होगी तथा कहां ज़्यादा होगी।

इन प्रश्नों के उत्तर नाऊकाÏस्टग द्वारा दिए जा सकते हैं। राडार और उपग्रहों से प्राप्त संकेतों के ज़रिए स्थानीय मौसम के बारे में 6 घंटे पहले भविष्यवाणी की जा सकती है। आंकिक मॉडल से मौसम सम्बंधी जानकारी जहां हमें केवल वायुमंडल के तापमान, नमी और हवा की दिशा के रूप में मिलती है, वहां राडार की आंखें वर्षा को भी देख सकती हैं तथा कुछ किलोमीटर तक उसकी स्थिति दर्शा सकती है। उपग्रहों से प्राप्त इंफ्रारेड चित्रों और राडार की मदद से मौसम वैज्ञानिक बिजली गिरने अथवा जल प्लावन जैसी छोटी-मोटी घटनाओं के बारे में भविष्यवाणी कर सकते हैं। इसके अलावा कंप्यूटरों द्वारा यह भी मालूम कर सकते हैं कि वर्षा तूफान का रुख किधर होगा तथा उसकी तीव्रता में क्या-क्या परिवर्तन आ सकते हैं।

बहुत ही छोटे क्षेत्रों के मौसम का अध्ययन दक्षिण फ्रांस के तूलूज स्थित न्यू मेटियोरलॉजिकल नेशनल सेंटर में भी किया जाता है। इस केंद्र में अनुसंधानकर्ता जिस स्केल मॉडल की सहायता से परीक्षण करते हैं, वह स्थानीय क्षेत्रों की रूपरेखा का आंकिक मॉडल न हो कर भौतिक मॉडल है। 10 मीटर लंबे और 3 मीटर चौड़े इन मॉडलों को पानी के एक बड़े टैंक में रखा जाता है। इसके बाद पानी में हलचल पैदा की जाती है ताकि मॉडल के ऊपर और आसपास से पानी ठीक उसी तरह गुज़रे जिस तरह वास्तविक पर्वतों और घाटियों में से हवा गुज़रती है। अनुसंधानकर्ता लेसर किरणों की सहायता से पानी के वेग और हलचल को माप कर उसके आधार पर स्थानीय मौसम का एक विस्तृत मानचित्र तैयार कर लेते हैं।

मौसम की भविष्यवाणी के क्षेत्र में प्रगति धीमी अवश्य है, लेकिन नाऊकॉस्टिंग से लेकर मध्यम दूरी की भविष्यवाणी तक का दृष्टिकोण मौसम विज्ञान की प्रगति के लिए अति महत्वपूर्ण है। एलपेक्स के वैज्ञानिक डॉ. योआकिम क्यूटनर का कहना है, ‘जब तक आप यह नहीं समझेंगे कि मौसम की रचना कैसे होती है, तब तक आप उसकी सही-सही भविष्यवाणी नहीं कर सकते।’ (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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