अम्लीय होते समुद्र के प्रभाव

डेढ़ सौ साल पुराने प्लैंकटन (सूक्ष्म जलीय वनस्पति) के अध्ययन के आधार पर किंग्सटन युनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने जलवायु परिवर्तन के बारे में काफी महत्वपूर्ण निष्कर्ष निकाले हैं।

सन 1872-76 तक चले एचएमएस चैलेंजर अभियान के दौरान एकत्रित किए गए एक-कोशिकीय, कवच बनाने वाले जीव फोरामिनीफेरा लंदन स्थित म्यूज़ियम ऑफ नेचुरल हिस्ट्री में रखे हुए थे। सूक्ष्मजीवाश्म विज्ञानी लिंडसे फॉक्स ने इन फोरामिनीफेरा नमूनों का अध्ययन किया और पाया कि वर्तमान फोरामिनीफेरा की तुलना में प्राचीन फोरामिनीफेरा के कवच कहीं अधिक मोटे थे। उनका निष्कर्ष है कि कवच की मोटाई में यह परिवर्तन समुद्री पानी के तेज़ी से अम्लीय होने की वजह से हुआ है।

वैसे तो वैज्ञानिक इस बात को पहले से जानते थे कि वातावरण में मौजूद अतिरिक्त कार्बन डाईआऑक्साइड के समुद्र में घुलने के परिणामस्वरूप महासागर अम्लीय होते जा रहे हैं जिसके कारण समुद्री जीवन बुरी तरह प्रभावित हो रहा है। अम्लीय पानी कैल्शियम कार्बोनेट और जीवों के बाह्र कंकाल को झीना कर देता है और उनके लिए इस तरह की संरचना बना पाना ही मुश्किल हो जाता है। लेकिन अधिकांश नतीजे प्रयोगशाला में किए गए प्रयोगों से मिले थे जो बहुत लंबी अवधि के नहीं होते। वैज्ञानिक खुले समुद्र में अम्लीय होते महासागरों के दीर्घकालिक प्रभाव जांचने में सक्षम नहीं थे।

तुलना के लिए शोधकर्ताओं ने दो प्रजातियों Neogloboquadrina dutertrei और Globigerinoides ruber को चुना। एचएमएस चैलेंजर द्वारा एकत्रित नमूनों के सटीक स्थान और समय के बारे में जानकारी प्राप्त की और इनकी तुलना उन्होंने साल 2011 में प्रशांत महासागर में चले तारा अभियान से प्राप्त उन्हीं प्रजातियों के नमूनों से की। 

उन्होंने सी.टी. स्कैन की मदद से इनके कवच का 3-डी मॉडल बनाया। उन्होंने पाया कि प्राचीन नमूनों की तुलना में औसतन सभी आधुनिक कवच झीने थे। N. dutertrei का आवरण तो 76 प्रतिशत झीना था। साइंटिफिक रिपोर्ट्स में प्रकाशित शोध पत्र में बताया गया है कि कुछ वर्तमान कवच तो इतने पतले थे कि उनका 3-डी मॉडल तक बनाना मुश्किल था।

शोधकर्ताओं का कहना है कि ऐसी संभावना है कि कवच समुद्रों की बढ़ती अम्लीयता के कारण झीने हुए हों। हालांकि वे यह भी कहते हैं कि इसमें महासागरों के बढ़ते तापमान और ऑक्सीजन की कमी की भी भूमिका हो सकती है।

फॉक्स ऐसी ही तुलना संग्रहालयों में रखे हज़ारों प्लैंकटन जीवाश्मों के साथ करना चाहती हैं। वे उम्मीद करती हैं कि यह अध्ययन अन्य वैज्ञानिकों को भी संग्रहालयों की पड़ताल करने को प्रेरित करेगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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वैकल्पिक र्इंधन की ओर भारत के बढ़ते कदम – नरेन्द्र देवांगन

रसों से दुनिया जिन ऊर्जा स्रोतों को र्इंधन के रूप में उपयोग करती आ रही है, वे सीमित हैं। जहां एक ओर उनको बनने में लाखों साल लग जाते हैं, वहीं उनके अत्यधिक दोहन से समय के साथ-साथ वे चुक जाएंगे। ऐसे में आशा की एक नई किरण वैकल्पिक र्इंधन के रूप में सामने आई है। वैकल्पिक र्इंधन देश के कच्चे तेल के आयात बिल को कम करने में मदद कर सकते हैं। वर्तमान में भारत की अर्थव्यवस्था के मुख्य चालक डीज़ल और पेट्रोल हैं अर्थात भारत की अधिकतम ऊर्जा ज़रूरतें डीज़ल और पेट्रोल से पूरी होती हैं। अब स्थिति को बदलने की दिशा में काम हो रहा है।

वैश्विक स्तर पर वैकल्पिक र्इंधन के रूप में मेथेनॉल का उत्पादन और उपयोग बढ़ रहा है। इसके मुख्य कारण हैं कोयले और प्राकृतिक गैस जैसे सस्ते माल की कमी, तेल की कीमतों में वृद्धि, तेल आयात बिल में कमी करने की ख्वाहिश और प्रदूषण तथा जलवायु परिवर्तन जैसे पर्यावरणीय मुद्दे।

र्इंधन के रूप में और रासायनिक उद्योग में मध्यवर्ती पदार्थ रूप में मेथेनॉल का उपयोग ऑटोमोबाइल और उपभोक्ता क्षेत्रों में तेज़ी से बढ़ रहा है। मेथेनॉल अपने उच्च ऑक्टेन नंबर के कारण एक कुशल र्इंधन माना जाता है और यह गैसोलीन की तुलना में सल्फर ऑक्साइड्स (एसओएक्स), नाइट्रोजन ऑक्साइड्स (एनओक्स) और कणीय पदार्थ व गैसीय प्रदूषक तत्व कम उत्सर्जित करता है।

‘मेथेनॉल अर्थव्यवस्था’ का शाब्दिक अर्थ ऐसी अर्थव्यवस्था से है जो डीज़ल और पेट्रोल की बजाय मेथेनॉल के बढ़ते प्रयोग पर आधारित हो। मेथेनॉल अर्थव्यवस्था की अवधारणा को सक्रिय रूप से चीन, इटली, स्वीडन, इस्राइल, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, जापान और कई अन्य युरोपीय देशों द्वारा लागू किया गया है। वर्तमान में चीन में लगभग 9 प्रतिशत परिवहन र्इंधन के रूप में मेथेनॉल का इस्तेमाल किया जा रहा है। इसके अलावा इस्राइल, इटली ने पेट्रोल के साथ मेथेनॉल के 15 प्रतिशत मिश्रण की योजना बनाई है।

भारतीय र्इंधन में मेथेनॉल की शुरुआत अप्रत्यक्ष रूप से हुई थी, जब बॉयोडीज़ल, मेथेनॉल और गैर खाद्य पौधों से बने तेल जैसे रतनजोत तेल को 2009 में जैव र्इंधन हेतु राष्ट्रीय नीति में शामिल किया गया था। मेथेनॉल अर्थव्यवस्था बनाने के पीछे मुख्य उद्देश्य देश की अर्थव्यवस्था के विकास को टिकाऊ बनाना है ताकि वर्तमान पीढ़ी की आवश्यकताओं की पूर्ति करते हुए भावी पीढ़ियों की ज़रूरतों के साथ कोई समझौता न हो।

गैसोलीन में 15 प्रतिशत तक सम्मिश्रण के लिए मेथेनॉल अपेक्षाकृत एक आसान विकल्प है। यह वाहनों, स्वचालित यंत्रों या कृषि उपकरणों में कोई बदलाव किए बिना वायु गुणवत्ता सम्बंधी तत्काल लाभ प्रदान करता है। हालांकि दो अन्य अनिवार्यताओं, ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में कमी और र्इंधन आयात से विदेशी मुद्रा के बहिर्वाह में कमी के संदर्भ में भारत में अधिक मेथेनॉल क्षमता स्थापित करना आवश्यक होगा।

मोटे तौर पर देखा जाए तो मेथेनॉल र्इंधन हो या आजकल का मूल स्रोत हाइड्रोकार्बन हो इनमें वनस्पति जगत का मुख्य योगदान है। स्पष्ट है कि तमाम कार्बनिक पदार्थों के विश्लेषण से मेथेनॉल प्राप्त करना संभव है। जैव पदार्थ का बेहतरीन उपयोग कर 75 प्रतिशत तक मेथेनॉल प्राप्त किया जा सकता है। धरती की हरियाली से प्राप्त मेथेनॉल की उपयोगिता को भारतीय वैज्ञानिकों ने समझा और उसका उपयोग वाहनों को गति देने के लिए कर दिखाया। परीक्षणों में पाया गया है कि मेथेनॉल को 12 प्रतिशत की दर से मूल र्इंधन में मिलाकर वाहन चलाना संभव है।

वर्ष 1989 में नई दिल्ली स्थित इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी में वैज्ञानिकों ने पेट्रोल में मेथेनॉल मिलाकर एक स्कूटर पहले आईआईटी कैम्पस में बतौर परीक्षण और फिर दिल्ली की सड़कों पर चलाया। इस सफलता से प्रेरित होकर भारतीय पेट्रोलियम संस्थान के वैज्ञानिकों ने मेथेनॉल-पेट्रोल के मिश्रण से पहली खेप में 15 स्कूटर और बाद में कई स्कूटर चलाए। इससे प्रभावित होकर कई निजी कंपनियां सामने आर्इं। वड़ोदरा में तो इनकी प्रायोगिक तौर पर बिक्री भी की गई।

पेट्रोल के अलावा मेथेनॉल को डीज़ल में मिलाकर भी कुछ सफलता प्राप्त हुई है। डीज़ल-मेथेनॉल के इस रूप को ‘डीज़ोहॉल’ नाम दिया गया है। भारतीय पेट्रोलियम संस्थान द्वारा डीज़ल में 15 से 20 प्रतिशत तक मेथेनॉल मिलाकर बसें भी चलाई जा चुकी हैं। भारत सहित कई अन्य देशों में डीज़ोहॉल को लेकर व्यावसायिक परीक्षण भी किए जा रहे हैं। महत्वपूर्ण बात यह है कि डीज़ोहॉल अधिक ऊर्जा क्षमता वाला र्इंधन होने के अलावा प्रदूषण भी कम पैदा करता है। कहना न होगा कि यह आर्थिक रूप से बेहतर और पर्यावरण हितैषी भी है।

वर्तमान में भारत को प्रति वर्ष 2900  करोड़ लीटर पेट्रोल और 9000 करोड़ लीटर डीज़ल की ज़रूरत होती है। भारत दुनिया में छठवां सबसे ज़्यादा तेल उपभोक्ता देश है। 2030 तक यह खपत दुगनी हो जाएगी और भारत दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा तेल उपभोक्ता देश बन जाएगा।

इसके अलावा भारत दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जक देश है। दिल्ली जैसे शहरों में लगभग 30 प्रतिशत प्रदूषण वाहनों से होता है और सड़क पर कारों और अन्य वाहनों की बढ़ती संख्या प्रदूषण की इस स्थिति को आने वाले दिनों में और भी विकट बनाएगी। इसलिए बढ़ते आयात बिल और प्रदूषण की समस्या के समाधान के लिए भारत का नीति आयोग देश की अर्थव्यवस्था को मेथेनॉल अर्थव्यवस्था में बदलने पर विचार कर रहा है।

हमारे देश में मेथेनॉल अर्थव्यवस्था एक व्यावहारिक, आवश्यक और किफायती रूप लिए उभर रही है। गर्व की बात है कि हमने प्रति वर्ष दो मीट्रिक टन मेथेनॉल पैदा करने की क्षमता हासिल कर ली है। उम्मीद की जा रही है कि वर्ष 2030 तक भारत के र्इंधन बिल में 30 प्रतिशत तक की कटौती हो जाएगी, जो मेथेनॉल के दम पर ही संभव होगी। भारत द्वारा मूल र्इंधन में 15 प्रतिशत मेथेनॉल मिलाए जाने का कार्यक्रम बनाया जा रहा है। इसके लिए इस्राइल जैसे देशों से मदद लेने की भी संभावना है। नीति आयोग द्वारा मेथेनॉल अर्थव्यवस्था फंड भी निर्धारित करने की योजना है जिसमें मेथेनॉल आधारित परियोजनाओं के लिए चार-पांच हज़ार करोड़ रुपए का प्रावधान है।

देश में बढ़ते प्रदूषण और कच्चे तेल के बढ़ते आयात बिल को देखते हुए भारत के लिए मेथेनॉल का उपयोग न सिर्फ ज़रूरी है बल्कि पर्यावरण की मांग भी है। यदि मेथेनॉल का उपयोग भारत में व्यापक पैमाने पर शुरू कर दिया जाता है तो भारत में होने वाला विकास टिकाऊ विकास हो जाएगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कयामत से मात्र 100 सेकंड दूर कयामत की घड़ी

बुलेटिन ऑफ दी एटॉमिक साइंटिस्ट्स ने इस साल कयामत की घड़ी के कांटों को मध्यरात्रि से बस 100 सेकंड की देरी पर सेट किया है। जब 1947 में इस घड़ी की शुरुआत हुई थी तब से यह कयामत के सबसे नज़दीक रखी गई है। यह इस बात की चेतावनी है कि पिछले वर्ष की तुलना में इस वर्ष हम विनाश के और करीब आ गए हैं। पिछले वर्ष घड़ी के कांटे मध्यरात्रि से दो मिनट (120 सेकंड) की दूरी पर थे।

कयामत की घड़ी (डूम्सडे क्लॉक) बुलेटिन ऑफ दी एटॉमिक साइंटिस्ट्स द्वारा संचालित एक प्रतीकात्मक घड़ी है, जिसके कांटों का ठीक मध्यरात्रि पर होना सर्वनाश या कयामत का प्रतीक माना जाता है। घड़ी के कांटों को हर साल विश्व में बढ़ती गंभीर समस्याओं को देखते हुए सेट किया जाता है।

इस वर्ष बढ़ते सूचना संग्राम और अंतरिक्ष हथियारों की होड़ से बढ़ते खतरों को देखते हुए वैज्ञानिकों ने घड़ी को मध्यरात्रि से 100 सेकंड की देरी पर सेट करना तय किया। इसके अलावा परमाणु हथियारों के तनाव को कम करने में विफलता और जलवायु परिवर्तन की बढ़ती चिंता ने भी घड़ी को मध्यरात्रि के और करीब ला दिया है।

इस दौरान, अमेरिका और ईरान के बीच सैन्य टकराव बढ़ा है, उत्तर कोरिया ने अमेरिका के साथ परमाणु समझौता तोड़ दिया है, और अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रम्प ने रूस के साथ मध्यम रेंज परमाणु बल संधि तोड़ दी है, जिसके चलते लोगों की चिंताएं और बढ़ गई हैं। जॉर्ज वाशिंगटन युनिवर्सिटी से परमाणु हथियार का अध्ययन करने वाली शेरन स्केवसनी का कहना है कि परमाणु हथियारों के मामले में असमंजस बहुत तेज़ी से बढ़ता जा रहा है। साथ ही, हथियार विकास के लिए अंतरिक्ष एक नया क्षेत्र बनता जा रहा है। भारत, रूस और अमेरिका द्वारा उपग्रह-भेदी हथियारों को विकसित करने के कदम अंतरिक्ष हथियारों को बढ़ावा दे सकते हैं। इसके अलावा भ्रामक और झूठी खबरें, अनियंत्रित जेनेटिक इंजीनियरिंग और अमेरिका और रूस द्वारा हायपरसोनिक हथियारों के विकास से उत्पन्न संभावित खतरों ने घड़ी के कांटों को आधी रात के और नज़दीक ला दिया है।

इन हालात पर कैलिफोर्निया के पूर्व गवर्नर और वर्तमान में बुलेटिन के कार्यकारी अध्यक्ष जेरी ब्राउन ने आव्हान किया है, “जागो अमेरिका, जागो विश्व, हमें बहुत कुछ करने की ज़रूरत है…  अभी कयामत की घड़ी आई नहीं है। हम अभी भी वक्त को पीछे खींच सकते हैं।” वे आगे कहते हैं कि हमारे पास अभी भी वक्त है कि हम परमाणु हथियारों की होड़, कार्बन उत्सर्जन और खतरनाक और विनाशकारी टेक्नॉलॉजी छोड़ दें और इस धरती को बचा लें। हम सब कुछ ना कुछ तो कर ही सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)

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2019 में पर्यावरण बचाने के प्रेरक प्रयास – डॉ. ओ.पी. जोशी

र्यावरण वैज्ञानिकों ने वर्ष 2019 को पुन: काफी गर्म बताया, परंतु इस गर्म वर्ष में भी दुनिया भर में पर्यावरण बचाने के अनुकरणीय एवं प्रेरक प्रयास हुए।

कोलंबिया की सरकार ने दक्षिण अफ्रीका की एक कंपनी एंग्लोगोल्ड को छोटे से गांव काज़मारका में ज़मीन के नीचे दबे सोने के खनन की अनुमति प्रदान की थी। यहां लगभग 680 टन सोना होने की संभावना बताई गई थी। लगभग 30 हज़ार की आबादी वाले इस गांव में खनन कार्य के संदर्भ में अप्रैल में एक जनमत संग्रह का आयोजन किया। केवल 80 लोगों ने खनन के पक्ष मत रखा एवं शेष लोगों ने विरोध किया। लोगों का कहना था कि सोने से ज़्यादा महत्वपूर्ण पर्यावरण है; पर्यावरण बचेगा तो ही हम बचेंगे। हम चाहते हैं कि हमारी आने वाली पीढ़ियों को बेहतर पर्यावरण मिले। जनमत के परिणाम से सरकार काफी परेशान हो गई।

इसी तरह, म.प्र. के सतपुड़ा टाइगर रिज़र्व में केंद्र सरकार के युरेनियम खनन के प्रस्ताव का राज्य सरकार ने विरोध किया एवं कहा कि वन्य प्राणियों की कीमत पर युरेनियम खनन नहीं करने दिया जाएगा। बैतूल ज़िले में युरेनियम होने की संभावना बताई गई थी।

मंगोलिया के दक्षिण गोबी रेगिस्तान में बड़े पैमाने पर खनन की योजना लगभग 10 वर्ष पूर्व वहां की सरकार ने बनाई थी। यह वह क्षेत्र है जहां हिम तेंदुए बहुतायत में पाए जाते हैं। अन्य स्थानों पर शिकार एवं अन्य पर्यावरणीय कारकों की वजह से इनकी संख्या काफी कम हो गई थी। दक्षिण मंगोलिया की 50 वर्षीय शिक्षिका बयारजारगल आगवांतसेरेन ने खनन की इस योजना का विरोध शुरू किया। उन्होंने लोगों को समझाया कि हिम तेंदुए उनकी पहचान हैं। खनन कार्य से यदि हिम तेंदुए समाप्त होते हैं तो उनकी पहचान भी मिट जाएगी। किसानों, चरवाहों एवं स्थानीय ग्रामीणों को लेकर अगवांतसेरेन ने कई स्थानों पर इस योजना का लगातार विरोध किया। बढ़ते जन-विरोध को देखते हुए सरकार ने 34 खदानों के लायसेंस निरस्त कर दिए और 18 लाख एकड़ क्षेत्र को प्राकृतिक संरक्षित पार्क घोषित किया। अगवांतसेरेन को इस कार्य के लिए 2019 में एशिया का प्रसिद्ध गोल्डमैन पुरस्कार प्रदान किया गया।

समुद्र के अंदर पाई जाने वाली मूंगे की चट्टानें (कोरल रीफ) कई समुद्री जीवों के लिए प्राकृतिक आवास तथा प्रजनन स्थल होती हैं। पिछले 30-40 वर्षों में प्रदूषण के कारण लगभग आधी कोरल रीफ समाप्त हो गई हैं। इस समस्या से निपटने हेतु दो युवाओं – सेम टीचर तथा गैटोर हाल्पर्न – ने केरेबियन द्वीप के बहामास नामक स्थान पर 14 करोड़ रुपए की लागत से दुनिया का पहला व्यावसायिक कोरल-रीफ फार्म प्रारंभ किया। फार्म में कोरल रीफ के छोटे-छोटे टुकड़े समुद्र से लाकर ज़मीन पर बनी पानी की टंकियों में उगाए जाते हैं। इन टंकियों में कोरल के टुकड़े 50 गुना तेज़ी से बढ़ते हैं। उगे हुए टुकड़ों को समुद्र में डाल दिया जाता है।

वाहनों से पैदा वायु प्रदूषण को थोड़ा नियंत्रित करने हेतु लंदन में प्रदूषण फैलाने वाले वाहनों पर 8 अप्रैल से प्रदूषण टैक्स लगाया गया। लंदन के मध्य में अल्ट्रा-लो-टूरिज़्म ज़ोन बनाया गया जिसमें प्रवेश करने पर प्रदूषण फैलाने वाले वाहनों को 1150 से 9000 रुपए तक टैक्स देना होगा।

पर्यावरण में कार्बन उत्सर्जन कम करने एवं र्इंधन की बचत करने हेतु सिंगापुर में छत पर बगीचे वाली बसें शुरू की गर्इं। अभी सिंगापुर के चार मार्गों पर दस बसें चलाई जा रही हैं एवं धीरे-धीरे इनकी संख्या 400 तक बढ़ाई जाएगी। प्रत्येक बस से कार्बन उत्सर्जन में 52 प्रतिशत कमी तथा 25 प्रतिशत ईधन बचने का अनुमान है।

प्रदूषण की सही ढंग से रोकथाम नहीं करने एवं इसके कारण स्वास्थ्य बिगड़ने से मांट्रल (फ्रांस) की प्रशासनिक अदालत में एक मां-बेटी ने याचिका दायर कर सरकार से 1.25 करोड़ रुपए के हर्जाने की मांग की।

अधिकांश विकसित देश अपना प्लास्टिक व इलेक्ट्रॉनिक कचरा विकासशील देशों को भेज देते हैं। कई देश इस खतरनाक कचरे का अवैज्ञानिक तरीके से निपटान करते हैं जिससे पर्यावरण प्रदूषित होता है तथा मानव स्वास्थ्य प्रभावित होता है। इस खतरनाक सच्चाई को जानकर मलेशिया की महिला पर्यावरण मंत्री यिओ बी यीन ने 3000 मीट्रिक टन कचरा अमेरिका, चीन, ब्रिटेन, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया सहित अन्य देशों को वापस भेजने का निर्णय लिया।

पानी पर्यावरण का महत्वपूर्ण भाग है परंतु इसकी उपलब्धता घटती जा रही है। इसी संदर्भ में सूखे से प्रभावित ऑस्ट्रेलिया के शहर सिडनी में जल प्रतिबंध नियमों के तहत जल खुला छोड़ना अपराध घोषित किया गया। न्यू साउथ वेल्स सरकार के अनुसार यह नियम जून से लागू कर दिया गया है।

जंगल एवं पेड़ भी पर्यावरण के अहम भाग होते हैं। अत: उनको बचाने के प्रयास भी सराहनीय है। ब्रिाटिश कोलंबिया प्रान्त (कनाडा) के डार्कवुड नामक संरक्षित क्षेत्र में पेड़ पौधों एवं जीवों की 40 दुर्लभ प्रजातियां पाई जाती हैं। नेचर कंज़रवेंसी ऑफ कनाडा नामक एक स्वैच्छिक संगठन इस क्षेत्र की देखभाल करता है। इस क्षेत्र का लगभग 80 वर्ग कि.मी. का भाग किसी की निजी मिल्कियत में था जो संरक्षण कार्य में बाधा पैदा करता था। इस परेशानी को देखकर उपरोक्त संगठन ने जुलाई 2019 में यह निजी मिल्कियत का भाग 104 करोड़ रुपए में खरीद लिया एवं संरक्षण का कार्य बेहतर तरीके से किया।

लगभग ऐसा ही स्कॉटलैंड में भी हुआ। यहां एक पहाड़ी पर देवदार के प्राचीन पेड़ बड़ी संख्या में लगे हैं। सरकारी रिकॉर्ड में यह पहाड़ी किसी की निजी संपत्ति के रूप में दर्ज थी। पहाड़ी के आसपास बसे लोगों को यह डर हमेशा बना रहता था कि संपत्ति का मालिक कभी भी देवदार के प्राचीन पेड़ों को कटवा देगा। इन प्राचीन पेड़ों को बचाने हेतु लोगों ने एक ट्रस्ट बनाया। ट्रस्ट के माध्यम से धन एकत्र करके 15 करोड़ रुपए में पहाड़ी को ही खरीद लिया। ट्रस्ट के लोग अब देवदार पेड़ों को तो बचा ही रहे हैं, साथ में अन्य पेड़ पौधे भी लगा रहे हैं ताकि पूरी पहाड़ी हरी-भरी हो जाएं।

जापान के हिरोशिमा तथा नागासाकी पर गिराए गए परमाणु बमों से पैदा विकिरण के कारण ज़्यादातर पेड़ क्षतिग्रस्त हो गए थे। वर्तमान में 4 कि.मी. के क्षेत्र में 46 में से 30 पेड़ ज़्यादा क्षतिग्रस्त पाए गए। इन सभी पेड़ों को बचाने हेतु अगस्त 2019 तक लगभग 1.60 करोड़ रुपए की राशि एकत्र हो गई थी। पेड़ों को बचाने हेतु प्रभावित भाग हटाए जाएंगे एवं रसायनों का लेप लगाया जाएगा ताकि भविष्य में और संक्रमण न हो। कमज़ोर तनों एवं शाखाओं को सहारा देकर जड़ों में खाद भी दी जाएगी।

ब्रिटेन के कई शहरों (डार्लिंगटन, बकिंगहैम, ग्लॉचेस्टर, वार्विकशावर) में भवन निर्माताओं ने 500 पेड़ों को जालियों से ढंक दिया ताकि पक्षी घोंसला न बनाएं एवं गंदगी न फैले। स्थानीय लोग इस कार्य से नाराज़ हुए एवं इसके विरोध में न्यायालय में याचिका दायर की। विरोध स्वरूप कई स्थानों पर जालियां तोड़ी गई एवं पेड़ों पर हरी पट्टियां बांधी गई। लगातार बढ़ता विरोध देखकर भवन निर्माताओं ने सारे पेड़ों से जालियां हटा लीं।

हमारे देश में हरियाणा, दिल्ली तथा छत्तीसगढ़ में पेड़ बचाने के प्रयास हुए। हरियाणा सरकार ने 24 फरवरी 2019 को विधान सभा में पंजाब भूमि संरक्षण अधिनियम में संशोधन को स्वीकृति प्रदान की थी। इस स्वीकृति से 60 हज़ार एकड़ वन भूमि पर गैर-वानिकी एवं निर्माण कार्य को छूट दी गई। इसके विरोध में फरीदाबाद तथा गुड़गांव में कई प्रदर्शन हुए एवं कहा गया कि इससे अरावली का बड़ा जंगल क्षेत्र समाप्त हो जाएगा। विरोध के मद्देनज़र सुप्रीम कोर्ट ने भी इस पर नाराज़ी व्यक्त करते हुए संशोधन पर रोक लगाई। दिल्ली सरकार ने कहा कि विकास कार्यों के लिए पेड़ काटने की अनुमति तभी मिलेगी जब पेड़ों की कुल संख्या में से 80 प्रतिशत स्थानांतरित किए जाएंगे। इस अधिसूचना पर लोगों से सुझाव भी मांगे गए थे।

जगदलपुर (छत्तीसगढ़) के बेलाडीला में खनन की अनुमति के विरोध में जून में 200 गांवों के लोगों ने कई दिनों तक प्रदर्शन किए। खनन हेतु 20 हज़ार पेड़ काटे जाने थे। कई स्थानों पर तीर-कमान के साथ पेड़ों की पहरेदारी की गई। (स्रोत फीचर्स)

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बढ़ते समुद्र से बचाव के लिए एक प्राचीन दीवार

आज से लगभग 7000 वर्ष पूर्व विश्व भर के महासागरों के जलस्तर में वृद्धि होने लगी थी। हिमयुग के बाद हिमनदों के पिघलने से भूमध्य सागर के तट पर बसे लोगों को इस बढ़ते जलस्तर से काफी परेशानी का सामना करना पड़ा। लेकिन इस परेशानी से निपटने के लिए उन्होंने एक दीवार का निर्माण किया जिससे वे अपनी फसलों और गांव को तूफानी लहरों और नमकीन पानी की घुसपैठ से बचा सकें। हाल ही में पुरातत्वविदों ने इरुााइल के तट पर उस डूबी हुई दीवार को खोज निकाला है जो एक समय में एक गांव की रक्षा के लिए तैयार की गई थी।    

इस्राइल स्थित युनिवर्सिटी ऑफ हायफा के पुरातत्वविद एहुद गैलिली के अनुसार इरुााइल की अधिकतर खेतिहर बस्तियां, जो अब जलमग्न हैं, उत्तरी तट पर मिली हैं। ये बस्तियां रेत की एक मीटर मोटी परत के नीचे संरक्षित हैं। कभी-कभी रेत बहने पर ये बस्तियां सतह पर उभर आती हैं।   

गैलिली और उनकी टीम ने इस दीवार को 2012 में खोज निकाला था। यह दीवार तेल हराइज़ नामक डूबी हुई बस्ती के निकट मिली है। बस्ती समुद्र तट से 90 मीटर दूर तक फैली हुई थी और 4 मीटर पानी में डूबी हुई थी। टीम ने स्कूबा गियर की मदद से अधिक से अधिक जानकारी खोजने की कोशिश की। इसके बाद वर्ष 2015 के एक तूफान ने उन्हें एक मौका और दिया। उन्हें पत्थर और लकड़ी से बने घरों के खंडहर, मवेशियों की हड्डियां, जैतून के तेल उत्पादन के लिए किए गए सैकड़ों गड्ढे, कुछ उपकरण, एक चूल्हा और दो कब्रों भी मिलीं। लकड़ी और हड्डियों के रेडियोकार्बन डेटिंग के आधार पर बस्ती 7000 वर्ष पुरानी है।        

प्लॉस वन में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार यह दीवार 100 मीटर लंबी थी और बड़े-बड़े पत्थरों से बनाई गई थी जिनका वज़न लगभग 1000 किलोग्राम तक था। गैलिली का अनुमान है कि यह गांव 200-300 वर्ष तक अस्तित्व में रहा होगा और लोगों ने सर्दियों के भयावाह तूफान कई बार देखे होंगे। आधुनिक समुद्र की दीवारों की तरह इसने भी ऐसे तूफानों से निपटने में मदद की होगी। गैलिली के अनुसार मानवों द्वारा समुद्र पानी से खुद को बचाने का यह पहला प्रमाण है।

गैलिली का ऐसा मानना है कि तेल हराइज़ पर समुद्र का जल स्तर प्रति वर्ष 4-5 मिलीमीटर बढ़ रहा है। यह प्रक्रिया सदियों से चली आ रही है। कुछ समय बाद उस क्षेत्र में रहने वाले लोग समझ गए होंगे कि अब वहां से निकल जाना ही बेहतर है। समुद्र का स्तर बढ़ता रहा होगा और पानी दीवारनुमा रुकावट को पार करके रिहाइशी इलाकों में भर गया होगा। लोगों ने बचाव के प्रयास तो किए होंगे लेकिन अंतत: समुद्र को रोक नहीं पाए होंगे और अन्यत्र चले गए होंगे। (स्रोत फीचर्स)  

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ब्लैक होल की पहली तस्वीर और कार्बन कुनबे का विस्तार – चक्रेश जैन

र्ष 2019 विज्ञान जगत के इतिहास में एक ऐसे वर्ष के रूप में याद किया जाएगा, जब वैज्ञानिकों ने पहली बार ब्लैक होल की तस्वीर जारी की। यह वही वर्ष था, जब वैज्ञानिकों ने प्रयोगशाला में कार्बन के एक और नए रूप का निर्माण कर लिया। विदा हुए साल में गूगल ने क्वांटम प्रोसेसर में श्रेष्ठता हासिल की। अनुसंधानकर्ताओं ने प्रयोगशाला में आठ रासायनिक अक्षरों वाले डीएनए अणु बनाने की घोषणा की।

इस वर्ष 10 अप्रैल को खगोल वैज्ञानिकों ने ब्लैक होल की पहली तस्वीर जारी की। यह तस्वीर विज्ञान की परिभाषाओं में की गई कल्पना से पूरी तरह मेल खाती है। भौतिकीविद अल्बर्ट आइंस्टीन ने पहली बार 1916 में सापेक्षता के सिद्धांत के साथ ब्लैक होल की भविष्यवाणी की थी। ब्लैक होल शब्द 1967 में अमेरिकी खगोलविद जॉन व्हीलर ने गढ़ा था। 1971 में पहली बार एक ब्लैक होल खोजा गया था।

इस घटना को विज्ञान जगत की बहुत बड़ी उपलब्धि कहा जा सकता है। ब्लैक होल का चित्र इवेंट होराइज़न दूरबीन से लिया गया, जो हवाई, एरिज़ोना, स्पेन, मेक्सिको, चिली और दक्षिण ध्रुव में लगी है। वस्तुत: इवेंट होराइज़न दूरबीन एक संघ है। इस परियोजना के साथ दो दशकों से लगभग 200 वैज्ञानिक जुड़े हुए हैं। इसी टीम की सदस्य मैसाचूसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी की 29 वर्षीय कैरी बोमेन ने एक कम्प्यूटर एल्गोरिदम से ब्लैक होल की पहली तस्वीर बनाने में सहायता की। विज्ञान जगत की अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका साइंस ने वर्ष 2019 की दस प्रमुख खोजों में ब्लैक होल सम्बंधी अनुसंधान को प्रथम स्थान पर रखा है।

उक्त ब्लैक होल हमसे पांच करोड़ वर्ष दूर एम-87 नामक निहारिका में स्थित है। ब्लैक होल हमेशा ही भौतिक वैज्ञानिकों के लिए उत्सुकता के विषय रहे हैं। ब्लैक होल का गुरूत्वाकर्षण अत्यधिक शक्तिशाली होता है जिसके खिंचाव से कुछ भी नहीं बच सकता; प्रकाश भी यहां प्रवेश करने के बाद बाहर नहीं निकल पाता है। ब्लैक होल में वस्तुएं गिर सकती हैं, लेकिन वापस नहीं लौट सकतीं।

इसी वर्ष 21 फरवरी को अनुसंधानकर्ताओं ने प्रयोगशाला में बनाए गए नए डीएनए अणु की घोषणा की। डीएनए का पूरा नाम डीऑक्सीराइबो न्यूक्लिक एसिड है। नए संश्लेषित डीएनए में आठ अक्षर हैं, जबकि प्रकृति में विद्यमान डीएनए अणु में चार अक्षर ही होते हैं। यहां अक्षर से तात्पर्य क्षारों से है। संश्लेषित डीएनए को ‘हैचीमोजी’ नाम दिया गया है। ‘हैचीमोजी’ जापानी भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ है आठ अक्षर। एक-कोशिकीय अमीबा से लेकर बहुकोशिकीय मनुष्य तक में डीएनए होता है। डीएनए की दोहरी कुंडलीनुमा संरचना का खुलासा 1953 में जेम्स वाट्सन और फ्रांसिक क्रिक ने किया था। यह वही डीएनए अणु है, जिसने जीवन के रहस्यों को सुलझाने और आनुवंशिक बीमारियों पर विजय पाने में अहम योगदान दिया है। मातृत्व-पितृत्व का विवाद हो या अपराधों की जांच, डीएनए की अहम भूमिका रही है।

सुपरकम्प्यूटिंग के क्षेत्र में वर्ष 2019 यादगार रहेगा। इसी वर्ष गूगल ने 54 क्यूबिट साइकैमोर प्रोसेसर की घोषणा की जो एक क्वांटम प्रोसेसर है। गूगल ने दावा किया है कि साइकैमोर वह कार्य 200 सेकंड में कर देता है, जिसे पूरा करने में सुपर कम्प्यूटर दस हज़ार वर्ष लेगा। इस उपलब्धि के आधार पर कहा जा सकता है कि भविष्य क्वांटम कम्यूटरों का होगा।

वर्ष 2019 में रासायनिक तत्वों की प्रथम आवर्त सारणी के प्रकाशन की 150वीं वर्षगांठ मनाई गई। युनेस्को ने 2019 को अंतर्राष्ट्रीय आवर्त सारणी वर्ष मनाने की घोषणा की थी, जिसका उद्देश्य आवर्त सारणी के बारे में जागरूकता का विस्तार करना था। विख्यात रूसी रसायनविद दिमित्री मेंडेलीव ने सन 1869 में प्रथम आवर्त सारणी प्रकाशित की थी। आवर्त सारणी की रचना में विशेष योगदान के लिए मेंडेलीव को अनेक सम्मान मिले थे। सारणी के 101वें तत्व का नाम मेंडेलेवियम रखा गया। इस तत्व की खोज 1955 में हुई थी। इसी वर्ष जुलाई में इंटरनेशनल यूनियन ऑफ प्योर एंड एप्लाइड केमिस्ट्री (IUPAC) का शताब्दी वर्ष मनाया गया। इस संस्था की स्थापना 28 जुलाई 1919 में उद्योग जगत के प्रतिनिधियों और रसायन विज्ञानियों ने मिलकर की थी। तत्वों के नामकरण में युनियन का अहम योगदान रहा है।

विज्ञान की अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका नेचर के अनुसार गुज़िश्ता साल रसायन वैज्ञानिकों ने कार्बन के एक और नए रूप सी-18 सायक्लोकार्बन का सृजन किया। इसके साथ ही कार्बन कुनबे में एक और नया सदस्य शामिल हो गया। इस अणु में 18 कार्बन परमाणु हैं, जो आपस में जुड़कर अंगूठी जैसी आकृति बनाते हैं। शोधकर्ताओं के अनुसार इसकी संरचना से संकेत मिलता है कि यह एक अर्धचालक की तरह व्यवहार करेगा। लिहाज़ा, कहा जा सकता है कि आगे चलकर इलेक्ट्रॉनिकी में इसके उपयोग की संभावनाएं हैं।

गुज़रे साल भी ब्रह्मांड के नए-नए रहस्यों के उद्घाटन का सिलसिला जारी रहा। इस वर्ष शनि बृहस्पति को पीछे छोड़कर सबसे अधिक चंद्रमा वाला ग्रह बन गया। 20 नए चंद्रमाओं की खोज के बाद शनि के चंद्रमाओं की संख्या 82 हो गई। जबकि बृहस्पति के 79 चंद्रमा हैं।

गत वर्ष बृहस्पति के चंद्रमा यूरोपा पर जल वाष्प होने के प्रमाण मिले। विज्ञान पत्रिका नेचर में प्रकाशित रिपोर्ट में बताया गया है कि यूरोपा की मोटी बर्फ की चादर के नीचे तरल पानी का सागर लहरा रहा है। अनुसंधानकर्ताओं के अनुसार इससे यह संकेत मिलता है कि यहां पर जीवन के सभी आवश्यक तत्व विद्यमान हैं।

कनाडा स्थित मांट्रियल विश्वविद्यालय के प्रोफेसर बियर्न बेनेक के नेतृत्व में वैज्ञानिकों ने हबल दूरबीन से हमारे सौर मंडल के बाहर एक ऐसे ग्रह (के-टू-18 बी) का पता लगाया है, जहां पर जीवन की प्रबल संभावनाएं हैं। यह पृथ्वी से दो गुना बड़ा है। यहां न केवल पानी है, बल्कि तापमान भी अनुकूल है।

साल की शुरुआत में चीन ने रोबोट अंतरिक्ष यान चांग-4 को चंद्रमा के अनदेखे हिस्से पर सफलतापूर्वक उतारा और ऐसा करने वाला दुनिया का पहला देश बन गया। चांग-4 जीवन सम्बंधी महत्वपूर्ण प्रयोगों के लिए अपने साथ रेशम के कीड़े और कपास के बीज भी ले गया था।

अप्रैल में पहली बार नेपाल का अपना उपग्रह नेपालीसैट-1 सफलतापूर्वक लांच किया गया। दो करोड़ रुपए की लागत से बने उपग्रह का वज़न 1.3 किलोग्राम है। इस उपग्रह की मदद से नेपाल की भौगोलिक तस्वीरें जुटाई जा रही हैं। दिसंबर के उत्तरार्ध में युरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी ने बाह्य ग्रह खोजी उपग्रह केऑप्स सफलतापूर्वक भेजा। इसी साल अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा द्वारा भेजा गया अपार्च्युनिटी रोवर पूरी तरह निष्क्रिय हो गया। अपाच्र्युनिटी ने 14 वर्षों के दौरान लाखों चित्र भेजे। इन चित्रों ने मंगल ग्रह के बारे में हमारी सीमित जानकारी का विस्तार किया।

बीते वर्ष में जीन सम्पादन तकनीक का विस्तार हुआ। आलोचना और विवादों के बावजूद अनुसंधानकर्ता नए-नए प्रयोगों की ओर अग्रसर होते रहे। वैज्ञानिकों ने जीन सम्पादन तकनीक क्रिसपर कॉस-9 तकनीक की मदद से डिज़ाइनर बच्चे पैदा करने के प्रयास जारी रखे। जीन सम्पादन तकनीक से बेहतर चिकित्सा और नई औषधियां बनाने का मार्ग पहले ही प्रशस्त हो चुका है। चीन ने जीन एडिटिंग तकनीक से चूहों और बंदरों के निर्माण का दावा किया है। साल के उत्तरार्ध में ड्यूक विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने शरीर की नरम हड्डी अर्थात उपास्थि की मरम्मत के लिए एक तकनीक खोजी, जिससे जोड़ों को पुनर्जीवित किया जा सकता है।

बीते साल भी जलवायु परिवर्तन को लेकर चिंता की लकीर लंबी होती गई। बायोसाइंस जर्नल में प्रकाशित शोध पत्र के अनुसार पहली बार विश्व के 153 देशों के 11,258 वैज्ञानिकों ने जलवायु परिवर्तन पर एक स्वर में चिंता जताई। वैज्ञानिकों ने ‘क्लाइमेट इमरजेंसी’ की चेतावनी देते हुए जलवायु परिवर्तन का सबसे प्रमुख कारण कार्बन उत्सर्जन को बताया। दिसंबर में स्पेन की राजधानी मैड्रिड में संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन हुआ। सम्मेलन में विचार मंथन का मुख्य मुद्दा पृथ्वी का तापमान दो डिग्री सेल्सियस से ज़्यादा बढ़ने से रोकना था।

इसी साल हीलियम की खोज के 150 वर्ष पूरे हुए। इस तत्व की खोज 1869 में हुई थी। हीलियम का उपयोग गुब्बारों, मौसम विज्ञान सम्बंधी उपकरणों में हो रहा है। इसी वर्ष विज्ञान की अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका नेचर के प्रकाशन के 150 वर्ष पूरे हुए। नेचर को विज्ञान की अति प्रतिष्ठित और प्रामाणिक पत्रिकाओं में गिना जाता है। इस वर्ष भौतिकीविद रिचर्ड फाइनमैन द्वारा पदार्थ में शोध के पूर्व अनुमानों को लेकर दिसंबर 1959 में दिए गए ऐतिहासिक व्याख्यान की हीरक जयंती मनाई गई।

विदा हो चुके वर्ष में अंतर्राष्ट्रीय खगोल संघ (IAU) की स्थापना का शताब्दी वर्ष मनाया गया। इसकी स्थापना 28 जुलाई 1919 को ब्रुसेल्स में की गई थी। वर्तमान में अंतर्राष्ट्रीय खगोल संघ के 13,701 सदस्य हैं। इसी साल मानव के चंद्रमा पर पहुंचने की 50वीं वर्षगांठ मनाई गई। 21 जुलाई 1969 को अमेरिकी अंतरिक्ष यात्री नील आर्मस्ट्रांग ने चांद की सतह पर कदम रखा था।

इसी वर्ष विश्व मापन दिवस 20 मई के दिन 101 देशों ने किलोग्राम की नई परिभाषा को अपना लिया। हालांकि रोज़मर्रा के जीवन में इससे कोई अंतर नहीं आएगा, लेकिन अब पाठ्य पुस्तकों में किलोग्राम की परिभाषा बदल जाएगी। किलोग्राम की नई परिभाषा प्लैंक स्थिरांक की मूलभूत इकाई पर आधारित है।

गत वर्ष अक्टूबर में साहित्य, शांति, अर्थशास्त्र और विज्ञान के नोबेल पुरस्कारों की घोषणा की गई। विज्ञान के नोबेल पुरस्कार विजेताओं में अमेरिका का वर्चस्व दिखाई दिया। रसायन शास्त्र में लीथियम आयन बैटरी के विकास के लिए तीन वैज्ञानिकों को पुरस्कृत किया गया – जॉन गुडइनफ, एम. विटिंगहैम और अकीरा योशिनो। लीथियम बैटरी का उपयोग मोबाइल फोन, इलेक्ट्रिक कार, लैपटॉप आदि में होता है। 97 वर्षीय गुडइनफ नोबेल सम्मान प्राप्त करने वाले सबसे उम्रदराज व्यक्ति हो गए हैं। चिकित्सा विज्ञान का नोबेल पुरस्कार संयुक्त रूप से तीन वैज्ञानिकों को प्रदान किया गया – विलियम केलिन जूनियर, ग्रेग एल. सेमेंज़ा और पीटर रैटक्लिफ। इन्होंने कोशिका द्वारा ऑक्सीजन के उपयोग पर शोध करके कैंसर और एनीमिया जैसे रोगों की चिकित्सा के लिए नई राह दिखाई है। इस वर्ष का भौतिकी का नोबेल पुरस्कार जेम्स पीबल्स, मिशेल मेयर और डिडिएर क्वेलोज़ को दिया गया। तीनों अनुसंधानकर्ताओं ने बाह्य ग्रहों खोज की और ब्रह्मांड के रहस्यों से पर्दा हटाया।

ऑस्ट्रेलिया के कार्ल क्रूसलेंकी को वर्ष 2019 का विज्ञान संचार का अंतर्राष्ट्रीय कलिंग पुरस्कार प्रदान किया गया। यह प्रतिष्ठित सम्मान पाने वाले वे पहले ऑस्ट्रेलियाई हैं।

वर्ष 2019 का गणित का प्रतिष्ठित एबेल पुरस्कार अमेरिका की प्रोफेसर केरन उहलेनबेक को दिया गया है। इसे गणित का नोबेल पुरस्कार कहा जाता है। इसकी स्थापना 2002 में की गई थी। पुरस्कार की स्थापना के बाद यह सम्मान ग्रहण करने वाली केरन उहलेनबेक पहली महिला हैं।

अंतर्राष्ट्रीय विज्ञान पत्रिका नेचर ने वर्ष 2019 के दस प्रमुख वैज्ञानिकों की सूची में स्वीडिश पर्यावरण कार्यकर्ता ग्रेटा थनबर्ग को शामिल किया है। टाइम पत्रिका ने भी ग्रेटा थनबर्ग को वर्ष 2019 का ‘टाइम पर्सन ऑफ दी ईयर’ चुना है। उन्होंने विद्यार्थी जीवन से ही पर्यावरण कार्यकर्ता के रूप में पहचान बनाई और जलवायु परिवर्तन रोकने के प्रयासों का ज़ोरदार अभियान चलाया।

5 अप्रैल को नोबेल सम्मानित सिडनी ब्रेनर का 92 वर्ष की आयु में निधन हो गया। उन्हें 2002 में मेडिसिन का नोबेल सम्मान दिया गया था। उन्होंने सिनोरेब्डाइटिस एलेगेंस नामक एक कृमि को रिसर्च का प्रमुख मॉडल बनाया था। 11 अक्टूबर को सोवियत अंतरिक्ष यात्री अलेक्सी लीनोव का 85 वर्ष की आयु में देहांत हो गया। लीनोव पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने अंतरिक्ष में चहलकदमी करके इतिहास रचा था। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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करीबी प्रजातियों पर जलवायु परिवर्तन का उल्टा असर

मानव बसाहट से दूर होने के बावजूद अंटार्कटिका की पारिस्थितिकी और जीवन मानव गतिविधियों से प्रभावित रहा है। जैसे व्हेल और सील के अंधाधुंध शिकार के चलते वे लगभग विलुप्त हो गर्इं थीं। व्हेल और सील की संख्या में कमी आने की वजह से क्रिल नामक एक क्रस्टेशियन जंतु की संख्या काफी बढ़ गई थी, जो उनका भोजन है। और अब, मानव गतिविधियों चलते तेज़ी से हो रहा जलवायु परिवर्तन सीधे-सीधे अंटार्कटिका के जीवन को प्रभावित कर रहा है। इस संदर्भ में प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेस में प्रकाशित अध्ययन कहता है कि जलवायु परिवर्तन से पेंगुइन की दो प्रजातियां विपरीत तरह से प्रभावित हुई हैं: पेंगुइन की एक प्रजाति की संख्या में काफी वृद्धि हुई है, वहीं दूसरी प्रजाति विलुप्ति की कगार पर पहुंच चुकी है।

दरअसल, लुइसिआना स्टेट युनिवर्सिटी के माइकल पोलिटो और उनके साथी अपने अध्ययन में यह देखना चाहते थे कि पिछली एक सदी में अंटार्कटिका की पारिस्थितिकी में हुए मानव हस्तक्षेप के कारण पेंगुइन के मुख्य भोजन, अंटार्कटिका क्रिल, की संख्या किस तरह प्रभावित हुई है। चूंकि मानवों ने कभी पेंगुइन का व्यावसायिक स्तर पर आखेट नहीं किया और क्रिल पेंगुइन का मुख्य भोजन हैं इसलिए उन्होंने पेंगुइन के आहार में बदलाव से क्रिल की आबादी का हिसाब लगाने का सोचा। और, चूंकि अंटार्कटिका में पिछले 50 सालों में गेन्टू पेंगुइन (पाएगोसेलिस पेपुआ) की आबादी में लगभग 6 गुना वृद्धि दिखी है और चिनस्ट्रेप पेंगुइन (पाएगोसेलिस अंटार्कटिका) की आबादी में काफी कमी दिखी है इसलिए अध्ययन के लिए शोधकर्ताओं ने इन दोनों प्रजातियों को चुना। पिछली एक सदी के दौरान इन पेंगुइन का आहार कैसा था यह जानने के लिए अध्ययनकर्ताओं ने म्यूज़ियम में रखे पेंगुइन के पंखों में अमीनो अम्लों में नाइट्रोजन के स्थिर समस्थानिकों की मात्रा पता लगाई।

उन्होंने पाया कि शुरुआत में, 1900 के दशक में, जब क्रिल प्रचुर मात्रा में उपलब्ध थे तो दोनों ही प्रजाति का मुख्य आहार क्रिल थे। लेकिन लगभग पिछले 50 सालों में, तेज़ी से बदलती जलवायु के चलते समुद्र जल के बढ़ते तापमान और बर्फ-आच्छादन में कमी से क्रिल की संख्या में काफी कमी हुई। तब गेन्टू पेंगुइन ने अपना आहार सिर्फ क्रिल तक सीमित ना रखकर मछली और श्रिम्प को भी आहार में शामिल कर लिया। लिहाज़ा वे फलती-फूलती रहीं। दूसरी ओर, चिनस्ट्रेप पेंगुइन ने अपने आहार में कोई परिवर्तन नहीं किया और विलुप्ति की कगार पर पहुंच गर्इं। शोधकर्ताओं का कहना है कि पेंगुइन का यह व्यवहार दर्शाता है कि विशिष्ट आहार पर निर्भर प्रजातियां जैसे चिनस्ट्रेप पेंगुइन पर्यावरणीय बदलाव के प्रभाव की चपेट में अधिक हैं और अतीत में हुए आखेट और हालिया जलवायु परिवर्तन ने अंटार्कटिक समुद्री खाद्य शृंखला को प्रभावित किया है। पिछले कुछ सालों में व्हेल और सील की आबादी में सुधार देखा गया है और यह देखना रोचक होगा कि इसका पेंगुइन की उक्त दो प्रजातियों पर कैसा असर होता है। (स्रोत फीचर्स)
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5जी सेवाओं से मौसम पूर्वानुमान पर प्रभाव

हाल ही में मिस्र के शहर शर्म अल शेख में आयोजित विश्व रेडियो संचार सम्मेलन में 5जी सेवाओं से उत्सर्जित इलेक्ट्रॉनिक शोर के लिए मानक निर्धारित कर दिए गए हैं। लेकिन मौसम विज्ञानियों का कहना है कि निर्धारित मानक के बावजूद यह शोर मौसम सम्बंधी अवलोकनों को प्रभावित करेगा।

दरअसल मार्च 2019 में अमरीका के फेडरल कम्युनिकेशन कमीशन (FCC) ने 5जी सेवाओं के लिए स्पेक्ट्रम आवंटन किया था, जिसके अनुसार वायरलेस कंपनियां 24 गीगा हर्टज़ पर अपनी सेवाएं देना शुरू कर सकती थीं। लेकिन इस पर मौसम विज्ञानियों की चिंता थी कि 5जी सेवाओं के लिए इस स्पेक्ट्रम पर होने वाले प्रसारण मौसम पूर्वानुमान के काम को प्रभावित करेंगे क्योंकि आवंटित स्पेक्ट्रम मौसम सम्बंधी अवलोकन करने वाले सेंसर्स के स्पेक्ट्रम (23.6 गीगा हर्टज़) के करीब ही है और प्रसारण से होने वाला शोर सेंसर्स को प्रभावित करेगा।

उपरोक्त राष्ट्र संघ विश्व रेडियो-संचार सम्मेलन में 5जी सेवाओं के लिए प्रस्तावित 24 गीगाहर्टज़ पर होने वाले प्रसारण से उत्पन्न शोर को -33 डेसिबल वॉट (dBW) तक सीमित रखना तय किया गया है। और यह मानते हुए कि 8 साल बाद 5जी सेवाएं इतने व्यापक स्तर पर नहीं रहेगीं, 8 साल बाद प्रसारण से उत्पन्न ध्वनि को -39 dBW तक सीमित कर दिया जाएगा।

वैसे विश्व मौसम संगठन की मांग प्रसारण से उत्पन्न शोर को -55 dBW पर सीमित रखने की थी ताकि वातावरण में उपस्थित जलवाष्प स्तर सम्बंधी अवलोकन प्रभावित ना हो। लेकिन तय मानक इससे कम हैं, हालांकि ये युरोपीय सिफारिशों के अनुरूप हैं और पूर्व में FCC द्वारा तय मानक (-20 dBW) से अधिक सख्त हैं। विश्व मौसम संगठन के अध्यक्ष एरिक एलेक्स का कहना है कि जब 5जी सेवाएं पूरी तरह शुरू हो जाएंगी तो जलवाष्प संकेतों को थोड़ा कमज़ोर तो करेंगी ही (स्रोत फीचर्स)
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जलवायु परिवर्तन और भारत की चुनौतियां – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

न्यूयॉर्क में जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर हाल ही में आयोजित बैठक में स्वीडिश छात्रा ग्रेटा थनबर्ग ने सौ से भी अधिक देशों के प्रतिनिधियों को दो तीखे बयान दिए। पहला, “आपने अपनी खोखली बातों से मुझसे मेरा बचपन छीन लिया।” और दूसरा, “आप सभी, हम युवाओं के पास (पर्यावरण को पहुंचे नुकसान को कम करने की…) उम्मीद लेकर आए हैं। आप लोगों की हिम्मत कैसे हुई?” जैसा कि ग्रेटा के वक्तव्य पर दी हिंदू के 1 नवंबर के अंक में कृष्ण कुमार का संवेदनशील विश्लेषण कहता है, वहां मौजूद (देश के प्रतिनिधि) श्रोताओं ने यह नहीं स्वीकारा कि जलवायु परिवर्तन के लिए उनके उद्योग ज़िम्मेदार हैं; इसकी बजाय वे इस बात पर सहमत हुए कि वे आने वाले दशक में कार्बन उत्सर्जन में कमी लाने के सुविधाजनक लक्ष्यों को पूरा करेंगे। कृष्ण कुमार अपने लेख में आगे बताते हैं कि ना सिर्फ हर अमीर देश, बल्कि सभी देशों में रहने वाले प्रत्येक अमीर व्यक्ति को अब भी यह लगता है कि वे अपने और अपनी संतानों के लिए जलवायु परिवर्तन की समस्याओं से राहत खरीद सकते हैं और उन्हें जलवायु परिवर्तन के परिणामों से बचा सकते हैं।

कार्बन-प्रचुर जीवाश्म र्इंधन को जला-जलाकर, जो 1750 के दशक में औद्योगिक क्रांति के साथ शुरू हुआ था, ही पृथ्वी का तापमान 2 डिग्री सेल्सियस बढ़ गया है। तापमान में यह वृद्धि मानव जीवन, जानवरों, पेड़-पौधों और सूक्ष्मजीवों को प्रभावित कर रही है। समुद्र गर्म हो रहे हैं, बर्फ पिघल रही है, और इसलिए ग्रेटा का यह आरोप पत्र है।

भारत की चुनौतियां

2015 में दुनिया भर के देश पेरिस में इकट्ठे हुए थे और तब 197 देशों ने इस समझौते पर हस्ताक्षर किए थे कि वे साल 2030 तक वैश्विक तापमान को उद्योग-पूर्व स्तर से 1.5 डिग्री से अधिक नहीं होने देंगे। इन हस्ताक्षरकर्ता देशों में भारत भी शामिल था। विष्णु पद्मनाभन ने अपने ब्लॉग में भारत के समक्ष तीन बड़ी जलवायु चुनौतियों का ज़िक्र किया है। भारत ने वादा किया है कि वह साल 2015 की तुलना में, साल 2030 तक अपने कार्बन उत्सर्जन को 33-35 प्रतिशत तक कम करेगा। ऐसा लगता है कि यह ज़रूरी है और इसे पूरा भी किया जा सकता है। लेकिन इसे पूरा करने में भारत के सामने पहली चुनौती यह है कि भारत का ज़्यादातर कार्बन उत्सर्जन (लगभग 68 प्रतिशत) ऊर्जा उत्पादन से होता है, जो अधिकतर कोयला आधारित है। इसके बाद उद्योगों (लगभग 20 प्रतिशत) और खेती, खाद्य और भूमि उपयोग (10 प्रतिशत) का नंबर है। इसलिए यह महत्वपूर्ण हो जाता है कि हम ऊर्जा के अन्य साधनों या रुाोतों का उपयोग करें, जैसे पनबिजली, पवन, सौर, नाभिकीय ऊर्जा वगैरह। भारत को उम्मीद है कि वह अपनी 40 प्रतिशत ऊर्जा इस तरह के गैर-कोयला रुाोतों से प्राप्त कर पाएगा।

दूसरी चुनौती: खेती, भूमि उपयोग और जल संसाधनों की बात करें तो ये भी जलवायु परिवर्तन में योगदान देते हैं। कैसे? न्यूनतम समर्थन मूल्य, सब्सिडी (रियायतें), 24 घंटे मुफ्त बिजली प्रदाय और अधिक पानी की ज़रूरत वाली फसलें इसके कुछ कारण हैं। समय आ गया है कि हमें इन्हें रोकें और जांचे-परखे तरीकों को अपनाएं और नवाचारी तरीकों पर काम करें। इनमें से कुछ तरीके हैं ड्रिप या टपक सिंचाई (जैसा कि इरुााइल ने किया है), एयरोबिक खेती (जो पानी की बचत के लिए खेती का एक तरीका है और इसमें खास गुणधर्मों के विकास पर शोध किया जाता है ताकि जड़ें अच्छे से फैलें और ज़मीन में गहराई तक जाएं (जैसा कि बैंगलुरू की युनिवर्सिटी ऑफ एग्रीकल्चर साइंस ने किया है), बेहतर और अधिक पौष्टिक अनाज। भारत की सबसे अधिक पानी की खपत करने वाली फसल धान पर इस तरीके को आज़मा कर पानी की बचत की जा सकती है। किसानों के बीच अधिक पौष्टिक किस्मों (जैसे सीसीएमबी और एनआईपीजीआर द्वारा विकसित साम्बा मसूरी) को बढ़ावा देना चाहिए। इत्तफाकन इस किस्म में कार्बोहाईड्रेट भी कम है तो यह डायबिटीज़ के मरीज़ों के लिए अच्छी भी है। नरवाई (पराली) जलाना पूरी तरह बंद होना चाहिए, हमें इसके बेहतर रास्ते तलाशने होंगे। इसके लिए किसी रॉकेट साइंस की ज़रूरत नहीं है, भारतीय वैज्ञानिक और तकनीकी विशेषज्ञ यह कर सकते हैं। उन्हें इससे निपटने के बेहतर और सुरक्षित तरीके ढूंढने चाहिए।

और तीसरी चुनौती है प्राकृतिक तरीकों से वायुमंडल में कार्बन डाईऑक्साइड के स्तर को कम करना। इसके लिए वनीकरण और स्थानीय किस्मों के पौधारोपण बढ़ाना चाहिए। यहां फिलीपींस सरकार द्वारा उठाए गए कदमों का अनुसरण करना फायदेमंद होगा। फिलीपींस में प्रत्येक छात्र/छात्रा को अपना स्कूली प्रमाण पत्र या कॉलेज की डिग्री प्राप्त करने के पहले 10 स्थानीय पेड़ लगाकर उनकी देखभाल करनी होती है। दरअसल स्थानीय पेड़ पानी सोखकर उसे जमीन में पहुंचाते हैं। भारत ने वृक्षारोपण और वनीकरण के माध्यम से अतिरिक्त ‘कार्बन सोख्ता’ बनाने की योजना बनाई है ताकि ढाई से तीन अरब टन कार्बन डाईऑक्साइड कम की जा सके।

स्वास्थ्य के मुद्दे

कई अध्ययन बताते हैं कि कैसे जलवायु परिवर्तन और बढ़ता वैश्विक तापमान धीरे-धीरे स्वास्थ्य के लिए हानिकारक बन गए हैं। 2010 में दी न्यू इंग्लैंड जर्नल ऑफ मेडिसिन में प्रकाशित एमिली शुमैन का पेपर – वैश्विक जलवायु परिवर्तन और संक्रामक रोग (Global climate change and infectious diseases) – बताता है कि जब हम जीवाश्म र्इंधन जलाते हैं तो तापमान में वृद्धि होती है, जिससे ग्रीष्म लहर (लू) चलती है और भारी वर्षा होती है। यह कीटों (और उनमें पलने वाले जीवाणुओं और वायरस) के पनपने के लिए माकूल वातावरण होता है। गर्म होती जलवायु की बदौलत ही हैजा, डायरिया जैसे जल-वाहित रोगों के अलावा मलेरिया, डेंगू और चिकनगुनिया जैसी बीमारियां भी बढ़ी हैं। ये बीमारियां हर भौगोलिक परिवेश में बढ़ रही हैं: पहाड़ी इलाके, ठंडे इलाके, रेगिस्तान जैसे गर्म इलाके और तटीय इलाके। इसी संदर्भ में वी. रमना धारा द्वारा साल 2013 में इंडियन जर्नल ऑफ मेडिकल रिसर्च में प्रकाशित एक अन्य महत्वपूर्ण पेपर – जलवायु परिवर्तन और भारत में संक्रामक रोग: स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं के लिए निहितार्थ (Climate change and infectious diseases in India: implications for health care providers) – बताता है कि किस तरह समुद्र की सतह के बढ़ते तापमान के कारण ऊष्णकटिबंधीय इलाकों में चक्रवात और तूफानों की संख्या बढ़ रही है जिससे बंगाल की खाड़ी और अरब सागर के तटीय इलाकों में प्रदूषित पानी, अस्वास्थ्यकर परिस्थितियां, जनसंख्या का विस्थापन, विषैलापन, भूख और कुपोषण जैसी समस्याएं बढ़ रही हैं। कुछ बीमारियां जानवरों से मानवों में फैलती हैं और कुछ मानव से मानव में। इसका सबसे हालिया उदाहरण है निपाह वायरस जो चमगाड़ों से मानव में फैलता है। इस मामले में केरल सरकार द्वारा उठाए गए त्वरित कदम सराहनीय हैं जिसमें सरकार ने संक्रमित लोगों को अलग-थलग करने की फौरी व्यवस्था की थी।

सौभाग्य से, हमारी कई प्रयोगशालाएं और दवा कंपनियां, अन्य बीमारियों के लिए स्थानीय वनस्पति रुाोतों से दवाइयों और टीकों का निर्माण करने में स्वयं व अन्य सहयोगियों के साथ मिलकर अनुसंधान कर रही हैं। हम इस कार्य को बखूबी कर सकते हैं और विश्व में इस क्षेत्र के अग्रणी भी बन सकते हैं। ध्यान रखने वाली बात है कि हमारी दवा कंपनियां विश्व भर में लोगों को वहनीय कीमत पर दवाइयां उपलब्ध कराती रही हैं, हमारी दवा कंपनियां विश्व के लगभग 40 प्रतिशत बचपन के टीके उपलब्ध कराती हैं और इनमें से कुछ दवा कंपनियां मौजूदा महामारियों के टीके बनाने के लिए प्रयासरत हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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जलवायु परिवर्तन के साथ तालमेल – एस. अनंतनारायण

तीत में हुर्इं जलवायु परिवर्तन से जुड़ी आपदाओं ने बड़ी संख्या में प्रजातियों को खत्म कर दिया था, लेकिन उस वक्त कई प्रजातियों को इतना वक्त मिला था कि वे इस परिवर्तन के साथ तालमेल बना सकीं और बेहतर समय आने तक अपने वंश को जीवित रख सकीं। लेकिन ग्लोबल वार्मिंग की हालिया रफ्तार को देखते हुए एक सवाल यह उठता है कि क्या वर्तमान जलवायु परिवर्तन प्रकृति को इतनी गुंजाइश देगा।

इस संदर्भ में विक्टोरिया रैडचक और जर्मनी, आयरलैंड, फ्रांस, नेदरलैंड, यू.के., चेक गणतंत्र, बेल्जियम, स्वीडन, कनाडा, स्पेन, यू.एस., जापान, फिनलैंड, नॉर्वे, स्विटज़रलैंड और पोलैंड के 60 अन्य वैज्ञानिकों ने नेचर कम्युनिकेशंस जर्नल में प्रकाशित पेपर में इस सवाल का जवाब देने का प्रयास किया है। यह पेपर 58 पत्रिकाओं में प्रकाशित 10,090 अध्ययनों के सार और 71 अध्ययनों के डैटा पर आधारित है। इसमें उन्होंने इस बात का आकलन किया है कि जीवों में हो रहे शारीरिक बदलाव क्या जलवायु परिवर्तन के साथ अनुकूलन बनाने की दृष्टि से हो रहे हैं। अध्ययन के अनुसार कई प्रजातियों में तो अनुकूलन हो रहा है लेकिन अधिकांश प्रजातियां इस दौड़ में हारती नज़र आ रही हैं।

अध्ययन के अनुसार, जलवायु परिवर्तन प्रजातियों के जीवित रहने की क्षमता को प्रभावित कर सकता है और प्रजातियों की विलुप्ति के चलते पारिस्थितिक तंत्र में प्रजातियों के परस्पर समर्थक संतुलन में कमी आती है। जीव अपनी आबादी को तब ही बनाए रख सकते हैं जब उनमें जलवायु परिवर्तन की प्रतिक्रिया स्वरूप इस तरह के शारीरिक या व्यावहारिक  बदलाव हों, जो जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को कम करते हों या उसके अनुकूल हों। ऐसा या तो शारीरिक अनुकूलन के द्वारा हो सकता है (जैसे आहार में परिवर्तन के साथ-साथ पाचक रसों में परिवर्तन) या विकास के छोटे-छोटे कदमों से हो सकता है, या फिर किसी अन्य क्षेत्र में प्रवास करने से संभव हो सकता है। लेकिन शारीरिक अनुकूलन में भी वक्त लगता है। जैसे पर्वतारोही अधिक ऊंचाइयों पर चढ़ने के पहले बीच में रुककर खुद को पर्यावरण के अनुरूप ढालते हैं, तब आगे चढ़ाई करते हैं। किसी प्रजाति में वैकासिक परिवर्तन पर्यावरण के प्रति ज़्यादा अनुकूलित किस्मों के चयन द्वारा होता है, और ऐसा होने में तो कई पीढ़ियां लग जाती हैं। पेपर के अनुसार, प्रजातियों की संख्या का पूर्वानुमान लगाने और योजनाबद्ध तरीके से हस्तक्षेप करने के लिए यह पता करना महत्वपूर्ण है कि पिछले कुछ दशकों में प्रजातियों में आए बदलावों में से कितने ऐसे हैं जो जलवायु परिवर्तन के जवाब में हुए हैं।

अनुकूलन का एक उदहारण है  – प्रजनन करने या अंडे देने का समय इस तरह बदलना कि उस समय संतान को खिलाने के लिए भोजन के स्रोत प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हों। लेखकों ने एक अध्ययन का हवाला देते हुए बताया है कि यूके में पिछले 47 वर्षों में पक्षियों की एक प्रजाति के अंडे देने का समय औसतन 14 दिन पहले खिसक गया है। अध्ययन के अनुसार यह एक ऐसा मामला है जहां “पर्यावरण के हिसाब से एक-एक जीव के व्यवहार में बदलाव ने पूरी प्रजाति को तेज़ी से बदलते परिवेश के साथ बारीकी से समायोजन करने में सक्षम बनाया है।”

एक अन्य अध्ययन में, प्रतिकूल-अनुकूलन का एक मामला सामने आया है। एक पक्षी प्रजाति है जो आर्कटिक ग्रीष्मकाल के दौरान प्रजनन करती है। जब ये पक्षी जाड़ों में उष्णकटिबंधीय इलाके की ओर पलायन करते हैं तब वे काफी अनफिट साबित होते हैं। गर्मियों में जन्मे चूज़ों में अनुकूलन यह होता है कि वे छोटे आकार के होते हैं ताकि शरीर से अधिक ऊष्मा बिखेरकर गर्मियों का सामना अधिक कुशलता से कर सकें। लेकिन छोटे पक्षियों की चोंच भी छोटी होती है जिससे उनको सर्दियों में प्रवास के दौरान काफी नुकसान होता है क्योंकि इन इलाकों में भोजन थोड़ा गहराई में दबा होता है और छोटी चोंच के कारण वे पर्याप्त भोजन नहीं जुटा पाते।

रेनडियर जैसे शाकाहारी ऐसे मौसम में संतान पैदा करने के लिए विकसित हुए थे जब पौधे उगने का सबसे अच्छा मौसम होता है। प्रजनन काल तो दिन की लंबाई से जुड़ा होने के कारण यथावत रहा जबकि पौधों की वृद्धि का मौसम स्थानीय तापमान से जुड़ा था। जलवायु परिवर्तन के साथ यह समय बदल गया (जबकि दिन-रात की अवधि नहीं बदली)। एक अध्ययन के अनुसार इन प्राणियों में मृत्यु दर तो बढ़ी ही है, साथ-साथ जन्म दर में चार गुना कमी आई है।

वैसे तो समय के साथ सभी प्रजातियों के रूप और व्यवहार में परिवर्तन होते हैं, लेकिन इस अध्ययन का उद्देश्य उन परिवर्तनों की पहचान करना था जो जलवायु परिवर्तन के प्रति अनुकूलन के उदाहरण हों। इस पेपर के अनुसार ऐसा तभी माना जा सकता है जब तीन चीज़ें हुई हों। पहली यह कि जलवायु परिवर्तन हुआ हो। दूसरी यह कि जीवों की शारीरिक विशेषताओं में बदलाव सिर्फ जलवायु परिवर्तन के कारण हुआ हो, किसी अन्य कारण से नहीं। और तीसरी यह कि परिवर्तन उन लक्षणों के चयन के कारण हुआ हो जो जीवों को जलवायु परिवर्तन से निपटने में मदद करते हैं।

लेखकों के अनुसार तीसरी स्थिति के परीक्षण के लिए ऐसे डैटा की आवश्यकता होगी जो किसी एक प्रजाति की निश्चित आबादी की कई पीढ़ियों के लिए एकत्रित किए गए हों। शोधकर्ताओं की इस विशाल टीम ने उन अध्ययनों को खोजा है जो इस बात की पड़ताल करते हैं कि तापमान और वर्षा या दोनों विभिन्न जीवों की शारीरिक बनावट या जीवन की घटनाओं को किस तरह प्रभावित करते हैं। विशाल उपलब्ध डैटा में से उन्हें पक्षियों के सम्बंध में उपयोगी जानकारी मिली। और यह इसलिए संभव हुआ क्योंकि पक्षियों के बारे में लंबी अवधियों की जानकारी प्राप्त करना अपेक्षाकृत आसान है – घोंसला बनाने का समय, अंडे देने और उनके फूटने का समय, और गतिशीलता।

पेपर के अनुसार, जलवायु परिवर्तन पर जीवों की प्रतिक्रिया सम्बंधी कई पूर्व में किए गए अध्ययन प्रजातियों के फैलाव और उनकी संख्या में आए बदलाव पर केंद्रित थे। जलवायु परिवर्तन के चलते जीवों के व्यवहार, आकार या शरीर विज्ञान में हो रहे परिवर्तनों का अध्ययन बहुत कम किया गया है। और प्रजातियों के फैलाव तथा आबादी की गणना करने वाले मॉडल्स में इस संभावना को ध्यान में नहीं रखा गया था कि प्रजाति में अनुकूलन भी हो सकता है। लिहाज़ा, लेखकों के अनुसार उनके वर्तमान “अध्ययन ने बदलते पर्यावरण में प्रजातियों की प्रतिक्रियाओं के समयगत पहलू पर ध्यान केंद्रित करके महत्वपूर्ण योगदान दिया है।” उनके अनुसार “हमने दर्शाया है कि कुछ पक्षियों ने गर्म जलवायु के मुताबिक अपने जीवनचक्र की घटनाओं के समय को बदल लिया है। अध्ययन इस बात को रेखांकित करता है कि प्रजातियां अपनी ऊष्मा सम्बंधी ज़रूरतों का समाधान उसी स्थान पर खोज सकती हैं और इसके लिए भौगोलिक सीमाओं में बदलाव ज़रूरी नहीं है। अलबत्ता, हमें सभी प्रजातियों में जलवायु परिवर्तन के प्रति अनुकूलन के प्रमाण नहीं मिले हैं, और इस बात की भी कोई गारंटी नहीं है कि अनुकूल परिवर्तन करने वाले जीव भविष्य में बने ही रहेंगे।”

लेखक आगे बताते हैं कि जिन प्रजातियों का अध्ययन किया गया है वे सुलभ और काफी संख्या में उपलब्ध हैं और इनके बारे में डैटा आसानी से एकत्रित किया जा सकता है। शोधकर्ताओं का कहना है कि “हमें डर है कि दुर्लभ और लुप्तप्राय प्रजातियों की आबादियों की निरंतरता का पूर्वानुमान अधिक निराशाजनक होगा।”

निष्कर्ष के रूप में हम यह कह सकते हैं कि इस सदी के अंत तक बहुत-सी प्रजातियों के विलुप्त होने की संभावना है जो काफी चिंताजनक है। ऐसे कई लोग हैं जो यह मानते हैं कि जैव तकनीक ही वह नैया है जो हमें 21 सदी पार करा देगी।

सच है, उपरोक्त अध्ययन वनस्पति प्रजातियों पर नहीं हुए हैं। जलवायु परिवर्तन से पेड़-पौधे भी प्रभावित होते हैं। और जंतु वनस्पतियों पर निर्भर होते हैं। इस अध्ययन के परिणाम शायद बैक्टीरिया और सूक्ष्मजीवों के मामले में भी सच्चाई से बहुत दूर न हों। इसलिए जैव विविधता में भारी गिरावट वनस्पति जगत में भी दिखाई देगी और आने वाले दशकों में यह पौधों की भूमिका के लिए ठीक नहीं होगा जिसको लेकर हम इतने आश्वस्त हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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