आजकल टेक्नॉलॉजी के बदलने की रफ्तार को देखकर आश्चर्य होता
है कि प्राचीन मनुष्य सात लाख वर्ष तक एक ही तकनीक से पत्थर के औज़ार बनाते रहे। अब
तक इसके कारण स्पष्ट नहीं थे लेकिन अब, केन्या स्थित एक प्राचीन झील की तलहटी से
प्राप्त डैटा से पता चला है कि लगभग चार लाख साल पहले जलवायु परिवर्तन, टेक्टॉनिक
हलचल और तेज़ी से बदलती पशु आबादी ने प्राचीन मनुष्यों में सामाजिक और तकनीकी
बदलावों को जन्म दिया था। इनमें नए किस्म के औज़ार और दूर-दूर तक व्यापार का फैलाव
शामिल थे।
लगभग 12 लाख साल पहले केन्या के ओलोरगेसेली
बेसिन में होमो प्रजातियों ने पत्थर के किनारों को तराशकर कुल्हाड़ियां बनाना शुरू
किया। ये कुल्हाड़ियां आकार में अंडाकार और नुकीली होती थीं। इनसे कई तरह के काम
किए जा सकते थे, जैसे जानवर मारना, खाल निकालना,
लकड़ी काटना और भूमि
से कंद निकालना। लगभग सात लाख सालों तक इसी एक्यूलीयन तकनीक से औज़ार बनते रहे। इस
दौरान जलवायु लगभग स्थिर बनी रही थी। लेकिन इसके बाद औज़ार बनाने की तकनीक में
अचानक परिवर्तन हुए। लेकिन इन परिवर्तनों के कारण अस्पष्ट थे।
2012 में नेशनल म्यूज़ियम ऑफ नेचुरल
हिस्ट्री के रिक पॉट्स और उनके दल ने कूरा बेसिन के निकट एक प्राचीन झील की तलछट
से ड्रिल करके 139 मीटर लंबा कोर निकाला था। यह कोर लगभग 10 लाख सालों में जमा हुआ
था। कोर का अध्ययन कर शोधकर्ताओं ने इस क्षेत्र की जलवायु और पारिस्थितिकी की एक
समयरेखा खींची। डायटम और शैवाल की मौजूदगी से झील के जल स्तर और लवणता के बारे में
पता चला। पत्तियों के मोम से पता चला कि आसपास जंगल था या घास का मैदान।
पता चला कि कोर बनने के शुरुआती छ: लाख
वर्षों तक पर्यावरण स्थिर रहा। वहां प्रचुर मात्रा में मीठे पानी की झील और विशाल
घास का मैदान था जिसमें जिराफ, भैंस और हाथी जैसे बड़े जानवर पाए जाते थे।
फिर, लगभग चार लाख साल पहले स्थिति बिगड़ी। मीठे पानी की आपूर्ति
में उतार-चढ़ाव होने लगे, जिससे यह स्थान तेज़ी से घास के मैदान और
जंगलों में बदलता रहा। पिछले पांच लाख से तीन लाख साल के बीच कूरा बेसिन की झील आठ
बार सूखी थी। जीवाश्म रिकॉर्ड से पता चलता है कि तब घास का मैदान जगह-जगह सूखने
लगा और दूर से दिखाई देने वाले बड़े जानवरों की जगह चिंकारा, हिरण
जैसे छोटे और फुर्तीले जानवरों ने ले ली।
पूर्व अध्ययनों से भी शोधकर्ता जानते थे कि लगभग 5 लाख साल पहले ज्वालामुखी विस्फोट के कारण इस क्षेत्र में दरारें पड़ी थी जिससे बड़ी झील बह गई और छोटे बेसिन बने। इनमें बहुत जल्दी बाढ़ आती थी और वे उतनी ही जल्दी सूख भी जाते थे। साइंस एडवांसेस पत्रिका में शोधकर्ता बताते हैं कि कुल मिलाकर इस क्षेत्र के मनुष्यों ने अस्थिर वातावरण का सामना किया। जिससे उन्होंने लावा पत्थर से ऐसे औज़ार बनाने शुरू किए कि वे छोटे और फुर्तीले जानवरों का शिकार कर पाएं। इन ब्लेडनुमा औज़ारों को लकड़ी में बांधकर भाले की तरह इस्तेमाल किया जाता था। इन पत्थरों का स्रोत कई किलोमीटर दूर था, इसलिए उनका आवागमन क्षेत्र बढ़ा और संचार के अधिक जटिल तरीके विकसित हुए और सामाजिक नेटवर्क स्थापित हुए। वैसे एक मत यह है कि एक क्षेत्र के आधार पर निष्कर्ष को व्यापक स्तर पर लागू करने में सावधानी रखनी चाहिए।(स्रोत फीचर्स) नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_image_-1280w__no_aspect/public/main_core_1280p.jpg?itok=kISHT_Tt
हाल ही में किए गए अध्ययनों से कोविड-19 से होने वाली मौतों
और वायु प्रदूषण के सम्बंध का पता चला है। शोधकर्ताओं के अनुसार वैश्विक स्तर पर
कोविड-19 से होने वाली 15 प्रतिशत मौतों का सम्बंध लंबे समय तक वायु प्रदूषण के
संपर्क में रहने से है। जर्मनी और साइप्रस के विशेषज्ञों ने संयुक्त राज्य अमेरिका
और चीन के वायु प्रदूषण, कोविड-19 और सार्स (कोविड-19 जैसी एक अन्य
सांस सम्बंधी बीमारी) के स्वास्थ्य एवं रोग के आकड़ों का विश्लेषण किया है। यह रिपोर्ट
कार्डियोवैस्कुलर रिसर्च नामक जर्नल में प्रकाशित हुई है।
इस डैटा में विशेषज्ञों ने वायु में
सूक्ष्म कणों की उपग्रह से प्राप्त जानकारी के साथ पृथ्वी पर उपस्थित प्रदूषण
निगरानी नेटवर्क का डैटा शामिल किया ताकि यह पता लगाया जा सके कि कोविड-19 से होने
वाली मौतों के पीछे वायु प्रदूषण का योगदान किस हद तक है। डैटा के आधार पर
विशेषज्ञों का अनुमान है कि पूर्वी एशिया,
जहां हानिकारक
प्रदूषण का स्तर सबसे अधिक है, में कोविड-19 से होने वाली 27 प्रतिशत
मौतों का दोष वायु प्रदूषण के स्वास्थ्य पर हुए असर को दिया जा सकता है। यह असर
युरोप और उत्तरी अमेरिका में क्रमश: 19 और 17 प्रतिशत पाया गया। पेपर के लेखकों के
अनुसार कोविड-19 और वायु प्रदूषण के बीच का यह सम्बंध बताता है कि यदि हवा
साफ-सुथरी होती तो इन अतिरिक्त मौतों को टाला जा सकता था।
यदि कोविड-19 वायरस और वायु प्रदूषण से
लंबे समय तक संपर्क एक साथ आ जाएं तो स्वास्थ्य पर,
विशेष रूप से ह्रदय
और फेफड़ों पर, काफी हानिकारक प्रभाव पड़ सकते हैं। टीम ने यह भी बताया कि
सूक्ष्म-कणों के उपस्थित होने से फेफड़ों की सतह के ACE2 ग्राही की सक्रियता
बढ़ जाती है और ACE2 ही सार्स-कोव-2 के कोशिका में प्रवेश का ज़रिया है। यानी मामला दोहरे हमले का
है – वायु प्रदूषण फेफड़ों को सीधे नुकसान पहुंचाता है और ACE2 ग्राहियों को अधिक
सक्रिय कर देता है जिसकी वजह से वायरस का कोशिका-प्रवेश आसान हो जाता है।
अन्य वैज्ञानिकों का मत है कि हवा में
उपस्थित सूक्ष्म-कण इस रोग को बढ़ाने में एक सह-कारक के रूप में काम करते हैं। एक
अनुमान है कि कोरोनावायरस से होने वाली कुल मौतों में से यू.के. में 6100 और
अमेरिका में 40,000 मौतों के लिए वायु प्रदूषण को ज़िम्मेदार ठहराया जा सकता है।
देखने वाली बात यह है कि कोविड-19 के लिए तो टीका तैयार हो जाएगा लेकिन खराब वायु गुणवत्ता और जलवायु परिवर्तन के खिलाफ कोई टीका नहीं है। इनका उपाय तो केवल उत्सर्जन को नियंत्रित करना ही है।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.aljazeera.com/wp-content/uploads/2020/10/000_8RT793.jpg?resize=770%2C513
संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) ने अपनी
रिपोर्ट में कहा है कि हर साल लगभग 80 लाख टन प्लास्टिक कूड़ा-कचरा समुद्रों में
फेंका जाता है। समुद्री किनारों, उनकी सतहों और पेंदे में जो कूड़ा-कचरा
इकट्ठा होता है उसमें से 60 से 90 फीसदी हिस्सा प्लास्टिक होता है। यह समुद्री
कूड़ा-कचरा 800 से भी ज़्यादा समुद्री प्रजातियों के लिए खतरा है। इनमें से 15
प्रजातियां विलुप्ति की कगार पर हैं। पिछले 20 वर्षों से तो प्लास्टिक के बारीक
कणों (माइक्रोप्लास्टिक) और सिर्फ एक बार ही इस्तेमाल होने वाले प्लास्टिक को
फेंके जाने से समस्या और भी ज़्यादा गंभीर हो गई है। प्लास्टिक के बारीक कण बहुत
बड़ा खतरा पैदा करते हैं। चूंकि ये आंखों से दिखाई नहीं देते, इसलिए
इनकी तरफ किसी का ध्यान भी नहीं जाता है।
समुद्र व समुद्री जीवों को प्लास्टिक
प्रदूषण से बचाने के लिए विश्व भर के कई संगठन प्रयासरत हैं लेकिन समुद्र में
मौजूद प्लास्टिक कचरा कम होने की बजाय लगातार बढ़ता जा रहा है। इसी संदर्भ में हाल
ही में हुए एक अध्ययन से पता चला है कि गहरे समुद्र में अनुमानित 1.4 करोड़ टन
माइक्रोप्लास्टिक मौजूद है। प्रति वर्ष महासागरों में बड़ी मात्रा में कचरा एकत्रित
होता है। ऑस्ट्रेलिया की राष्ट्रीय विज्ञान एजेंसी ने अध्ययन में बताया है कि
समुद्र में मौजूद छोटे प्रदूषकों की मात्रा पिछले साल किए गए एक स्थानीय अध्ययन की
तुलना में 25 गुना अधिक थी।
माइक्रोप्लास्टिक 5 मिलीमीटर से छोटे
प्लास्टिक के कण होते हैं जो जीवों के लिए हानिकारक हैं। प्लास्टिक सूक्ष्म कणों
में टूटता है जो सरलता से एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुंच सकता है।
माइक्रोप्लास्टिक बनने का मुख्य स्रोत ओपन डंपिंग,
लैंडफिल साइट और
विनिर्माण इकाइयां है। माइक्रोप्लास्टिक जल प्रवाह के साथ भूजल प्रणाली में भी
पहुंच जाता है।
सामान्यत: घरेलू अपशिष्ट जल में
फाइबर/सिंथेटिक ऊन के कपड़े धोने से छोटे-छोटे कणों का प्रवाह होता है। विशेष रूप
से ऐसे एक्वीफर्स में जहां सतह का पानी और भूजल संपर्क में होते हैं।
माइक्रोब्लेड्स एक प्रकार का माइक्रोप्लास्टिक है,
जो पॉलीएथिलीन
प्लास्टिक के बहुत छोटे टुकड़े होते हैं, जिन्हें स्वास्थ्यवर्धक और सौंदर्य
उत्पादों (जैसे कुछ क्लींज़र और टूथपेस्ट) में मिलाया जाता है। ये छोटे कण आसानी से
जल फिल्टरेशन प्रणालियों से गुजर जाते हैं। कुछ सफाई और सौंदर्य प्रसाधन उत्पादों
के उपयोग के बाद ये अपशिष्ट जल के साथ मिल सकते हैं,
जो कुछ समय बाद
मिट्टी-भूजल प्रणाली में मिल जाते हैं और पर्यावरण प्रदूषित करते हैं।
ऑस्ट्रेलिया में वैज्ञानिक शोध की सरकारी
एजेंसी – कॉमनवेल्थ साइंटिफिक एंड इंडस्ट्रियल रिसर्च ऑर्गनाइज़ेशन – के शोधकर्ताओं
ने दक्षिण ऑस्ट्रेलियाई तट से 380 कि.मी. की दूरी तक 3,000 मीटर गहराई तक के नमूने
इकट्ठे किए। इस कार्य के लिए लिए उन्होंने एक रोबोटिक पनडुब्बी का उपयोग किया।
नमूनों में, एक ग्राम सूखी समुद्री तलछट में 14 प्लास्टिक कण तक देखे
गए। इसके आधार पर वैज्ञानिकों ने गणना की कि समुद्र तल पर माइक्रोप्लास्टिक्स की
कुल वैश्विक मात्रा 1.4 करोड़ टन है। एजेंसी ने इसे सी-फ्लोर माइक्रोप्लास्टिक्स का
पहला वैश्विक अनुमान माना है।
फ्रंटियर इन मरीन साइंस पत्रिका में प्रकाशित इस शोध के वैज्ञानिकों
ने कहा है कि जहां तैरते हुए कचरे की मात्रा ज़्यादा थी,
उस क्षेत्र में
समुद्र के पेंदे में माइक्रोप्लास्टिक के टुकड़े अधिक पाए गए। अध्ययन का नेतृत्व
करने वाले जस्टिन बैरेट ने कहा, जो प्लास्टिक कचरा समुद्र में जाता है उसी
से माइक्रोप्लास्टिक बनता है। समुद्री प्लास्टिक प्रदूषण से निपटने के लिए तत्काल
समाधान खोजने की ज़रूरत है क्योंकि इससे पारिस्थितिकी तंत्र, वन्य
जीव और वन्य जीवन के साथ मानव स्वास्थ्य भी बुरी तरह प्रभावित होता है।
प्लास्टिक से समुद्री जीवों के शरीर पर
प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। क्वीन्स युनिवर्सिटी,
बेलफास्ट और लिवरपूल
जॉन मूर्स युनिवर्सिटी द्वारा किया गया शोध जर्नल बायोलॉजी लेटर्स में
प्रकाशित हुआ है, जिसमें हर्मिट केंकड़ों पर प्लास्टिक के प्रभाव का अध्ययन
किया गया है। ये केंकड़े समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र का एक अहम हिस्सा होते हैं।
ये केंकड़े स्वयं के लिए कवच विकसित नहीं
करते, बल्कि अपने शरीर को बचाने के लिए घोंघे की कवच का उपयोग
करते हैं। एक हर्मिट केंकड़े को बढ़ने में सालों लग जाते हैं। जैसे-जैसे यह बढ़ता
जाता है, उसे अपने लिए नए बड़े कवच की आवश्यकता होती है। यह कवच इन
केंकड़ों को बढ़ने, प्रजनन करने और सुरक्षा देने में मदद करते हैं। पर इस नए
अध्ययन से पता चला है कि जैसे ही ये केंकड़े माइक्रोप्लास्टिक के संपर्क में आते
हैं, उनके द्वारा शैलों को पहचानने और उनमें घुसने की क्षमता
कमज़ोर होती जाती है।
इससे स्पष्ट है कि माइक्रोप्लास्टिक जैव
विवधता को हमारे अनुमान से कहीं ज़्यादा नुकसान पहुंचा रहा है। इसलिए यह अत्यंत
आवश्यक हो गया है कि माइक्रोप्लास्टिक से हो रहे प्रदूषण पर रोक लगाई जाए।
एक शोध से ज्ञात हुआ है कि पानी और नमक में
माइक्रोप्लास्टिक्स मौजूद होते हैं। शायद आप सिर्फ नमक के साथ ही हर साल 100 माइक्रोग्राम
से अधिक माइक्रोप्लास्टिक्स खा रहे हों। यह जानकारी हाल ही में आईआईटी, मुंबई
के शोध में सामने आई है।
आईआईटी,
मुंबई के सेंटर फॉर
एन्वॉयरमेंट साइंस एंड इंजीनियरिंग के दो सदस्यों द्वारा किए गए शोध में नमक के
शीर्ष 8 ब्रांड्स की जांच की गई। जांच के नमूनों में प्रति किलोग्राम नमक में
63.76 माइक्रोग्राम माइक्रोप्लास्टिक पाया गया। लोकप्रिय नमक ब्रांड्स के सैंपल
में जो कण निकले, उनमें 63 फीसदी प्लास्टिक और 37 फीसदी प्लास्टिक फाइबर्स
थे। विशेषज्ञों के अनुसार माइक्रोप्लास्टिक के कुछ कण 5 माइक्रॉन से भी छोटे होते
हैं जो नमक उत्पादकों के ट्रीटमेंट से भी आसानी से पार निकल जाते हैं।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के दिशा-निर्देशों
के आधार पर एक व्यस्क आदमी को प्रतिदिन कम से कम 5 ग्राम नमक खाना चाहिए। इस आधार
पर साल भर में सिर्फ नमक के ज़रिए हम करीब 100 माइक्रोग्राम माइक्रोप्लास्टिक्स खा
रहे हैं। और तो और, हमारे शरीर में माइक्रोप्लास्टिक्स पहुंचने का यह एकमात्र
रास्ता नहीं है।
माइक्रोप्लास्टिक से बचने का कोई रास्ता नहीं है। कॉन्टेमिनेशन ऑफ इंडियन सी साल्ट्स विद माइक्रोप्लास्टिक्स एंड ए पोटेंशियल प्रिवेंशन स्ट्रेटजी में पाया गया कि यह वैश्विक परिघटना है एवं सूचना के अभाव के कारण अभी इससे बचाव की कोई रणनीति उपलब्ध नहीं है। सभी समुद्री जल स्रोत प्रदूषित हो रहे हैं। जब इस प्रदूषित जल को किसी भी सामग्री के उत्पादन में प्रयोग किया जाता है, तब ये माइक्रोप्लास्टिक उसमें आ जाते हैं। परंतु यदि हम प्लास्टिक का उपयोग कम से कम से करें और कम कचरा पैदा करें और साथ ही इसे समुद्र में न फेंका जाए, तो काफी हद तक इससे बचा जा सकता है। इसके अतिरिक्त सामान्य रेत फिल्टरेशन के ज़रिए समुद्री नमक में माइक्रोप्लास्टिक्स के ट्रांसफर को कम किया जा सकता है।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://cdn.shopify.com/s/files/1/1094/4634/articles/Microplastic-Pollution_1400x.progressive.jpg?v=1561410999
प्रथम औद्योगिक क्रांति (वर्ष 1870) के समय से अब तक वैश्विक
तापमान में लगभग 2 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हुई है। तापमान में बढ़ोतरी पेट्रोल, प्राकृतिक
गैस, कोयला जैसे जीवाश्म र्इंधनों के दहन का परिणाम है, और
इसी वजह से वायुमंडल में कार्बन डाईऑक्साइड (CO2) का स्तर 280 पीपीएम (पार्ट्स पर मिलियन) से बढ़कर 400 पीपीएम हो गया। गर्म होती जलवायु के कारण हिमनद
(ग्लेशियर) पिघलने लगे और समुद्रों का जल स्तर बढ़ गया है। नेशनल जियोग्राफिक
पत्रिका के 2 अक्टूबर के अंक में डेनियल ग्लिक आगाह करते हैं कि 2035 तक गढ़वाल
(उत्तराखंड) के ग्लेशियर लगभग गायब हो सकते हैं!
कार्बन डाईऑक्साइड के बढ़ते स्तर से सागर
अम्लीय भी हो गए हैं, जिससे समुद्री जीवों के खोल और कंकाल कमज़ोर पड़ रहे हैं (climate.org)। और भू-स्थल पर, कार्बन डाईऑक्साइड के बढ़ते स्तर के
सकारात्मक और नकारात्मक, दोनों तरह के प्रभाव पड़े हैं। कार्बन
डाइऑक्साइड एक ‘ग्रीन हाउस गैस’ है जो वायुमंडल में सूर्य की गर्मी को रोक कर रखती
है और तापमान बढ़ाती है। यह पौधों के प्रकाश संश्लेषण में सहायक होती है और पौधे
अधिक वृद्धि करते हैं, लेकिन साथ ही यह पौधे की नाइट्रोजन अवशोषित करने की क्षमता
को कम कर देती है जिससे फसलों की वृद्धि बाधित होती है (phys.org)।
लेकिन आने वाले सालों में बढ़ते कार्बन
डाईऑक्साइड स्तर की वजह से से बढ़ी हुई गर्मी खाद्य सुरक्षा को कैसे प्रभावित करेगी? डी.
एस. बेटिस्टी और आर. एल. नेलॉर ने वर्ष 2009 में साइंस पत्रिका में
प्रकाशित अपने पेपर में इसी बारे में आगाह किया था। पर्चे का शीर्षक था: अप्रत्याशित
मौसमी गर्मी से भविष्य की खाद्य असुरक्षा की ऐतिहासिक चेतावनी (DOI:10.1126/science.1164363)। पेपर में
उन्होंने चेताया है कि उष्णकटिबंधीय और उपोष्णकटिबंधीय क्षेत्रों (जैसे भारत और
उसके पड़ोसी देश, सहारा और उप-सहारा अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका के कुछ
हिस्सों) में फसलों की वृद्धि के मौसम में इतना अधिक तापमान फसलों की उत्पादकता को
बहुत प्रभावित करेगा, और यही ‘सामान्य’ हो जाएगा। समुद्री जीवन और खाद्य सुरक्षा
दोनों पर इस दोहरे हमले को देखते हुए अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प और ब्राज़ील
के राष्ट्रपति जायर बोल्सोनारो की नीतियां अक्षम्य हैं जिनमें जलवायु परिवर्तन को
अनदेखा करके उद्योगों को बढ़ावा देने की बात है।
प्रायोगिक परीक्षण
वैश्विक तापमान और कार्बन डाईऑक्साइड के
स्तर में वृद्धि पौधों की वृद्धि और पैदावार को कैसे प्रभावित करते हैं? क्या
ये पैदावार को बढ़ाते हैं, या क्या चयापचय प्रक्रिया में बाधा डालते
हैं और उसे नकारात्मक रूप से प्रभावित करते हैं?
क्या हम प्रयोगशाला
में कुछ मॉडल पौधों पर प्रयोग करके यह देख सकते हैं कि वर्तमान (सामान्य) तापमान
और भावी उच्च तापमान पर पौधों में क्या होता है;
इसी तरह क्या
प्रायोगिक रूप से कार्बन डाईऑक्साइड के वर्तमान सामान्य स्तर और भावी उच्च स्तर का
प्रभाव देखा जा सकता है?
जे. यू और उनके साथियों ने 2017 में फ्रंटियर्स
इन प्लांट साइंस पत्रिका में प्रकाशित अपने शोध में ऐसे ही प्रयोग करके देखे
थे, जिसका शीर्षक था: बढ़ी हुई कार्बन डाईऑक्साइड से बरमुडा
घास में गर्मी में वृद्धि को सहन करने के चयापचयी तरीके (https://doi.org/10.3389/fpls.2017.01506)। उन्होंने पाया कि पौधे की ताप सहिष्णुता
बेहतर हुई थी, और गर्मी के कारण होने वाले नुकसान में कमी आई थी। ये
परिणाम दिलचस्प हैं लेकिन घास खरगोशों और मवेशियों जैसे जानवरों के लिए अच्छी है, हम
मनुष्यों के लिए नहीं जिनके पास ना तो घास को पचाने वाला पेट है और ना ही लगातार
बढ़ने वाले दांत।
वनस्पति शास्त्री घासों को C4 पौधे कहते हैं और खाद्यान्न (हमारे मुख्य भोजन) को C3 पौधे। दोनों तरह के पौधों में प्रकाश संश्लेषण अलग-अलग
तरह से होता है। इसलिए उपरोक्त प्रयोग यदि सेम और फलीदार पौधों (जैसे चना, काबुली
चना) और इसी तरह के अन्य अनाज पर किए जाएं तो उपयोगी होगा।
इस दिशा में,
अंतर्राष्ट्रीय
एजेंसी इंटरनेशनल क्रॉप रिसर्च इंस्टीट्यूट फॉर दी सेमी-एरिड ट्रॉपिक्स (ICRISAT) के हैदराबाद सेंटर के एक समूह ने प्रयोग करने का सोचा।
उन्होंने देखा कि दो प्रकार के चने (देसी या बंगाली चना और काबुली चना जो मूल रूप
से अफगानिस्तान से आया है) कार्बन डाईऑक्साइड के अलग-अलग स्तरों – 380 पीपीएम का
वर्तमान स्तर, और 550 पीपीएम और 700 पीपीएम के उच्च स्तर – पर किस तरह
व्यवहार करेंगे? उन्होंने इन परिस्थितियों में पौधे बोए, और
वर्धी अवस्था में और पुष्पन अवस्था में (यानी अंकुरण के 15 दिन और 30 दिन बाद)
इन्हें काट लिया गया। परमिता पालित द्वारा प्लांट एंड सेल फिज़ियोलॉजी पत्रिका
में प्रकाशित इस अध्ययन का शीर्षक है: बढ़े हुए कार्बन डाईऑक्साइड स्तर पर चनों
में आणविक और भौतिक परिवर्तन (https: //academy.oup/pcp)।
पूर्व में वार्षनेय और उनका समूह नेचरबायोटेक्नॉलॉजी
पत्रिका में चने के पूरे जीनोम का अनुक्रम प्रकाशित कर चुका था। शोधकर्ताओं ने इस
संदर्भ में कम से कम 138 चयापचय तरीके पहचाने थे। इनमें मुख्य हैं शर्करा/स्टार्च
चयापचय, क्लोरोफिल और द्वितीयक मेटाबोलाइट्स का जैव संश्लेषण। इनका
अध्ययन करके वे उन तरीकों के बारे में पता कर सकते थे कि कैसे कार्बन डाईऑक्साइड
का उच्च स्तर चने के पौधों की वृद्धि को प्रभावित करता है। उन्होंने पौधों की जड़
और तने की लंबाई (या पौधे की ऊंचाई) में उल्लेखनीय वृद्धि पाई। इसके अलावा कार्बन
डाइऑक्साइड का स्तर अधिक होने पर जड़ों की गठानों (जहां नाइट्रोजन को स्थिर करने
वाले बैक्टीरिया रहते हैं) की संख्या भी प्रभावित हुई थी। गौरतलब है कि क्लोरोफिल
संश्लेषण में कमी से पत्तियां जल्दी पीली हो जाती हैं और पौधे बूढ़े होने लगते हैं।
विभिन्न प्रतिक्रियाएं
शोधकर्ताओं ने एक दिलचस्प बात यह भी पाई कि
कार्बन डाईऑक्साइड के उच्च स्तर के प्रति देसी चना और काबुली चना दोनों ने अलग-अलग
तरह से प्रतिक्रिया दी। इस पर और अधिक विस्तार से अध्ययन की ज़रूरत है।
और अब, पहचाने गए 138 चयापचय तरीकों की जानकारी के आधार पर इस बात का गहराई से पता लगाया जा सकता है कि हम अणुओं या एजेंटों का उपयोग किस तरह करें कि किसी विशिष्ट प्रणाली को बढ़ावा देकर या बाधित करके, पौधों की वृद्धि और पैदावार बढ़ाई जा सके, और उन फलीदार पौधों के बारे में पता लगाया जा सके जो स्थानीय परिस्थितियों के लिए सबसे उपयुक्त हों। अब, जब नोबेल विजेता जे. डाउडना और ई. शारपेंटिए ने बताया है कि जीन को कैसे संपादित किया जा सकता है, तो यह समय है कि जीन संपादन को खास स्थानीय फलीदार पौधों पर आज़माया जाए!(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.thehindu.com/sci-tech/science/omn6pb/article32882138.ece/ALTERNATES/LANDSCAPE_615/18TH-SCIGLOWARMjpg
चीन में शौकिया पक्षी प्रेमियों की बढ़ती संख्या ने जलवायु
परिवर्तन के नए पहलू को उजागर किया है। एक नए अध्ययन में पिछले 2 दशकों से अधिक
समय से चीन के नागरिक-वैज्ञानिकों द्वारा एकत्रित डैटा की मदद से पक्षियों की लगभग
1400 प्रजातियों का एक नक्शा तैयार किया गया है। इसमें लुप्तप्राय रेड-क्राउन
क्रेन से लेकर पाइड फाल्कोनेट प्रजातियां शामिल हैं। इस डैटा के आधार पर
शोधकर्ताओं ने 2070 तक के हालात का अनुमान लगाया गया है। इस नक्शे में प्रकृति
संरक्षण के लिहाज़ से 14 क्षेत्रों को प्राथमिकता की श्रेणी में रखा गया है।
गौरतलब है कि पक्षी प्रेमी नागरिकों द्वारा
उपलब्ध कराए गए वैज्ञानिक डैटा का पहले भी शोधकर्ताओं ने उपयोग किया है लेकिन चीन
में पहली बार इसका उपयोग राष्ट्रव्यापी स्तर पर किया जा रहा है। देखा जाए तो चीन
में पिछले 20 वर्षों में पक्षी प्रेमियों की संख्या में तेज़ी से बढ़ोतरी हुई है। कई
विश्वविद्यालयों में भी इनकी टीमें तैयार की गई हैं। पक्षी प्रेमी अपने अनुभवों को
bird report नामक वेबसाइट पर दर्ज करते हैं, जिसकी
सटीकता और प्रामाणिकता की जांच अनुभवी पक्षी विशेषज्ञ करते हैं।
इस डैटा का उपयोग करते हुए पेकिंग
युनिवर्सिटी के रुओचेंग हू और उनके सहयोगियों ने 1000 से अधिक प्रजातियों के फैलाव
क्षेत्र के नक्शे तैयार किए। इसके बाद उन्होंने दो परिदृश्यों, वर्ष
2100 तक 2 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि और 3.7 डिग्री सेल्सियस या उससे अधिक की
वृद्धि, के साथ उनके फैलाव में आने वाले बदलाव को देखने के लिए एक
मॉडल तैयार किया। इस मॉडल में उन्होंने दैनिक और मासिक तापमान, मौसमी
वर्षा और ऊंचाई जैसे परिवर्तियों को शामिल किया है। प्लॉस वन पत्रिका में
प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार तापमान में अधिक वृद्धि होने से कई पक्षी उत्तर की ओर
या अधिक ऊंचे क्षेत्रों की ओर प्रवास कर जाएंगे। हालांकि लगभग 800 प्रजातियां ऐसी
होंगी जिनके इलाके में विस्तार होगा, लेकिन इनमें से अधिकांश क्षेत्र सघन आबादी
वाले और औद्योगिक क्षेत्र होंगे जो पक्षियों के लिए पूरी तरह से अनुपयुक्त हैं।
मोटे तौर पर 240 प्रजातियों के इलाके में कमी आएगी।
ऐसे में सबसे अधिक प्रवासी पक्षी और सिर्फ
चीन में पाए जाने वाली पक्षी प्रभावित होंगे। इस पेपर के लेखकों के अनुसार
प्रतिष्ठित रेड-क्राउन क्रेन का इलाका भी सिमटकर आधा रह जाएगा। चीन के मौजूदा
राष्ट्रीय आरक्षित क्षेत्र इन पक्षियों के प्राकृत वासों की रक्षा के लिए पर्याप्त
नहीं है। इस विनाश से बचने के लिए अध्ययन में इंगित 14 प्राथमिकता वाले क्षेत्रों
पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है।
नए आरक्षित क्षेत्रों के विकास में भी काफी चुनौतियों का सामना करना होगा। इसके लिए स्थानीय हितधारकों को आश्वस्त करना होगा और भीड़-भाड़ वाले क्षेत्रों में सीमाओं को तय करना होगा। विशेषकर ऐसे नए तरीकों का पता लगाना होगा जिससे शहरी उद्यानों और कृषि क्षेत्रों को पक्षियों के अनुकूल बनाया जा सके।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_image_-1280w__no_aspect/public/cranes_1280p.jpg?itok=4oj2zuRC
जलवायु परिवर्तन के साथ पेड़-पौधे और जीव-जंतु अपने इलाकों, प्रजनन
के मौसम या अन्य तौर-तरीकों में बदलाव करके खुद को इस परिवर्तन के अनुकूल कर रहे
हैं। अब ऐसा ही अनुकूलन फूलों में भी दिखा है। करंट बायोलॉजी में प्रकाशित
अध्ययन के अनुसार पिछले 75 वर्षों में बढ़ते तापमान और ओज़ोन ह्रास के साथ फूलों की
पंखुड़ियों के अल्ट्रावायलेट (यूवी) रंजकों में बदलाव आया है।
पंखुड़ियों पर यूवी किरणें सोखने वाले रंजक
मौजूद होते हैं, जो हमें तो नज़र नहीं आते लेकिन परागणकर्ताओं को आकर्षित
करते हैं और पौधों के लिए एक तरह से सनस्क्रीन का काम भी करते हैं। मनुष्यों की
तरह यूवी विकिरण फूलों के पराग के लिए भी हानिकारक होते हैं। पंखुड़ियों पर जितने
अधिक यूवी-अवशोषक रंजक होंगे, संवेदनशील कोशिकाओं तक यूवी किरणें उतनी कम
पहुंचेंगी।
क्लेम्सन युनिवर्सिटी के पादप
पारिस्थितिकीविद मैथ्यू कोस्की ने अपने पूर्व अध्ययन में पाया था कि जिन फूलों ने
यूवी विकिरण का सामना अधिक किया, उनमें यूवी-रंजक भी अधिक थे। ऐसा प्राय:
अधिक ऊंचाई या भूमध्य रेखा के निकट उगने वाले पौधों में होता है।
कोस्की जानना चाहते थे कि मानव गतिविधि की
वजह से ओज़ोन परत में हुई क्षति और बढ़ता तापमान क्या फूलों के यूवी-रंजकों को
प्रभावित करते हैं। यह जानने के लिए शोधकर्ताओं ने उत्तरी अमेरिका, युरोप
और ऑस्ट्रेलिया में पाई जाने वाली 42 अलग-अलग प्रजातियों के 1238 फूलों के वर्ष
1941 के संग्रह का अध्ययन किया। फिर विभिन्न समय पर एकत्रित किए गए इन्हीं
प्रजातियों के फूलों की पंखुड़ियों की यूवी-संवेदी कैमरे से तस्वीरें खींची। इस तरह
उन्होंने पंखुड़ियों में यूवी-रंजकों में आए बदलावों को देखा। इन बदलाव का मिलान
स्थानीय ओज़ोन स्तर और तापमान में बदलाव के डैटा के साथ किया।
पाया गया कि सभी स्थानों पर 1941-2017 के
बीच अल्ट्रावायलेट रंजकों में प्रति वर्ष औसतन 2 प्रतिशत वृद्धि हुई है। लेकिन
भिन्न-भिन्न बनावट के फूलों के यूवी-रंजकों में परिवर्तन में भिन्नता थी। मसलन, तश्तरी
आकार के बटरकप जैसे फूलों (जिनका पराग उजागर रहता है) में,जिन इलाकों में ओज़ोन में कमी हुई थी वहां
उनके यूवी-अवशोषक रंजकों में वृद्धि हुई और जिन स्थानों पर ओज़ोन में वृद्धि हुई थी
वहां ऐसे रंजकों में कमी आई। दूसरी ओर, कॉमन ब्लेडरवर्ट जैसे फूलों (जिनका पराग
उनकी पंखुड़ियों में छिपा होता है) में तापमान बढ़ने से यूवी-रंजकों में कमी आई, चाहे
फिर उस स्थान का ओज़ोन स्तर बढ़ा हो या कम हुआ हो।
पंखुड़ियों के भीतर छिपा पराग नैसर्गिक रूप
से यूवी विकिरण से सुरक्षित होता है। ऐसी स्थिति में पंखुड़ियों में मौजूद
यूवी-रंजकों की अतिरिक्त सुरक्षा ग्रीनहाउस की तरह कार्य करती है और गर्मी बढ़ाती
है। इसलिए जब फूल उच्च तापमान का सामना करते हैं तो पराग के झुलसने की संभावना
होती है। यदि पंखुड़ियों में कम यूवी-रंजक हों तो कम विकिरण अवशोषित होगा और ताप भी
कम रहेगा।
लेकिन यही यूवी-रंजक हमिंगबर्ड और मधुमक्खियों जैसे परागणकर्ताओं को आकर्षित भी करते हैं। अधिकांश परागणकर्ता उन फूलों पर बैठना पसंद करते हैं जिनकी पंखुड़ियों के किनारों पर यूवी-अवशोषक रंजक कम और बीच में अधिक हो। लेकिन यदि यूवी-अवशोषक रंजक बढ़े तो यह अंतर मिट जाएगा, नतीजतन परागणकर्ता ऐसे फूलों पर नहीं आएंगे। ये बदलाव पराग को तो सुरक्षित कर देंगे लेकिन परागणकर्ता दूर हो जाएंगे।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://thumbs-prod.si-cdn.com/tZYxg9LHYstecGHpqrqkWL83ljo=/fit-in/1600×0/https://public-media.si-cdn.com/filer/51/29/51299669-2c4c-41d2-8cb7-f0ed44b88795/bees-18192_1920.jpg
गर्मियों के मौसम में बाहर जाते समय अक्सर हमें डामर से
नव-निर्मित सड़क की गंध महसूस होती है। लेकिन बात सिर्फ गंध तक ही सीमित नहीं है।
हाल ही में किए गए अध्ययन से पता चला है कि ताज़ा डामर भी वायु प्रदूषण का एक
महत्वपूर्ण स्रोत है। गौरतलब है कि पिछले कुछ दशकों में संयुक्त राज्य अमेरिका के
कई हिस्सों में वायु गुणवत्ता में काफी सुधार हुआ है। यह वास्तव में वाहनों और
बिजली संयंत्रों से नियंत्रित और साफ निकासी के कारण संभव हो पाया है। लेकिन इसके
बावजूद वायु प्रदूषण के कारण दमा और ह्रदय सम्बंधी समस्याएं उभर रही हैं।
ऐसे में वैज्ञानिकों ने लॉस एंजेल्स और
उसके आसपास के क्षेत्रों से वायु प्रदूषण के सभी ज्ञात स्रोतों का अध्ययन किया।
सारे स्रोतों से होने वाले प्रदूषण का योग वास्तविक प्रदूषण से मेल नहीं खा रहा
था। अध्ययन में शामिल येल युनिवर्सिटी के पर्यावरण इंजीनियर ड्रयू जेंटनर बताते
हैं कि वे अपने अध्ययन में डामर से होने वाले वायु प्रदूषण को अनदेखा कर रहे थे।
वास्तव में कच्चे तेल या इसी तरह के पदार्थों से बनी चीज़ों में अर्ध-वाष्पशील
कार्बनिक यौगिक होते हैं जो किसी न किसी तरह से वायु प्रदूषण का कारण बनते हैं।
जेंटनर की टीम ने दो तरह के ताज़ा डामर एकत्रित किए और उनको प्रयोगशाला की भट्टी
में गर्म किया। टीम ने छत पर उपयोग किए जाने वाले डामर के पटरों और तरल डामर का भी
परीक्षण किया। उन्होंने पाया कि पुरानी सामग्री की तुलना में नई सामग्री से अधिक
रसायनों का उत्सर्जन होता है। वे यह भी देखना चाहते थे कि समय के साथ इस उत्सर्जन
में कैसे बदलाव आता है।
साइंस एडवांसेज़ में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार सामान्य डामर की सतह पर
सबसे अधिक अर्ध-वाष्पशील कार्बनिक यौगिकों का उत्सर्जन 140 डिग्री सेल्सियस तापमान
पर होता है। जैसे-जैसे डामर ठंडा होता है उत्सर्जन में कमी आती है लेकिन 60 डिग्री
सेल्सियस पर यह स्थिर हो जाता है और इसका प्रभाव भी अधिक रहता है। निष्कर्ष बताते
हैं कि डामर लंबे समय तक वायु प्रदूषण का स्रोत हो सकता है।
टीम ने उत्सर्जन के लिए धूप को भी काफी
महत्वपूर्ण माना है। मध्यम प्रकाश में उत्सर्जन में 300 प्रतिशत की वृद्धि हो सकती
है। यह उत्सर्जन हवा में छोटे कण (एयरोसोल) के रूप में उपस्थित रहता है जो सांस के
ज़रिए शरीर में प्रवेश करने पर काफी हानिकारक हो सकता है। गर्म मौसम में ज़्यादा
प्रदूषण होता है।
शोधकर्ताओं का अनुमान है कि डामर से निकलने वाले छोटे कणों की सालाना मात्रा 1000 से 2500 टन के करीब होती है जबकि पेट्रोल और डीज़ल गाड़ियों से यह 900 से 1400 टन के बीच निकलता है। ऐसे में यह प्रश्न काफी महत्वपूर्ण है कि डामर से होने वाला उत्सर्जन कितने समय तक जारी रहता है। जेंटनर के अनुसार इसका निरंतर मापन ज़रूरी है। हालांकि अभी तक डामर से होने वाले प्रदूषण की जानकारी अधूरी है लेकिन इतना स्पष्ट है कि यह वायु प्रदूषण के प्रमुख स्रोतों में से एक है। यह डैटा वायु प्रदूषण के अध्ययन के मॉडल्स के लिए काफी महत्वपूर्ण है। उम्मीद की जानी चाहिए कि आने वाले समय में कंपनियां डामर के कारण होने वाले उत्सर्जन को कम करने की दिशा में काम करेंगी।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_image_-1280w__no_aspect/public/1034911180-1280×720.jpg?itok=uJFF_TAD
सरकार
ने हाल ही में पर्यावरण प्रभाव आकलन (EIA) में बदलाव करने के
लिए एक अधिसूचना जारी की है जिस पर जनता की राय और सार्वजनिक टिप्पणियां मांगी गई
हैं। यदि यह अधिसूचना लागू हो जाती है तो 2006 के बाद की सभी परियोजनाओं के लिए पूर्व में
लागू पर्यावरण प्रभाव आकलन अधिसूचना, 2006 निरस्त हो जाएगी।
भोपाल
गैस त्रासदी के बाद 1986
में पर्यावरण संरक्षण अधिनियम लागू किया गया था ताकि यह
सुनिश्चित किया जा सके कि जीवन की इतनी बड़ी हानि फिर कभी ना हो। पर्यावरण प्रभाव
आकलन दरअसल पर्यावरण संरक्षण अधिनियम की एक प्रक्रिया है;
सभी प्रस्तावित परियोजनाओं को निर्माण शुरू करने से पहले इस
प्रक्रिया से गुज़रना होता है और उसके बाद ही उन्हें हरी झंडी मिलती है।
पर्यावरण
प्रभाव आकलन में सभी प्रस्तावित परियोजनाओं की उनके संभावित नकारात्मक प्रभावों और
पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभावों की जांच की जाती है और देखा जाता है कि प्रस्तावित
रूप में परियोजना शुरू की जा सकती है या नहीं। परियोजनाओं का आकलन विशेषज्ञ
मूल्यांकन समिति (EAC) करती है। यह समिति वैज्ञानिकों और परियोजना प्रबंधन विशेषज्ञों
से मिलकर बनी होती है। पर्यावरण प्रभाव आकलन के लिए विशेषज्ञ मूल्यांकन समिति
द्वारा परियोजना की जांच करके प्रारंभिक रिपोर्ट तैयार की जाती है। समिति इस जांच
के दायरे को भी निर्धारित करती है।
इस
रिपोर्ट के प्रकाशित होने के बाद, परियोजना पर
सार्वजनिक विचार-विमर्श
की प्रक्रिया शुरू हो जाती है जिसमें परियोजना से प्रभावित लोगों सहित अन्य लोगों
से आपत्तियां आमंत्रित की जाती हैं। इस प्रक्रिया के पूरी होने पर विशेषज्ञ
मूल्यांकन समिति परियोजना का अंतिम आकलन करती है और रिपोर्ट पर्यावरण और वन
मंत्रालय को सौंप देती है। सामान्यत: नियामक प्राधिकरण समिति द्वारा दिए गए निर्णय को स्वीकार
करने के लिए बाध्य होता है।
पर्यावरण
प्रभाव आकलन के वैश्विक पर्यावरण कानून का मकसद ऐहतियात बरतना है;
ऐहतियात इसलिए क्योंकि पर्यावरणीय नुकसान अक्सर अपरिवर्तनीय
होते हैं। जैसे वनों की कटाई के कारण हुए भू-क्षरण को ठीक नहीं किया जा सकता या वापस
पलटा नहीं जा सकता। आर्थिक और वित्तीय दृष्टि से देखें,
तो भी क्षति ना होने देना, उसे
ठीक करने की तुलना में बेहतर है। यही कारण है कि हम सुरक्षात्मक नीतियों की
अंतर्राष्ट्रीय संधियों और शर्तों और सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को मानने के लिए
बाध्य हैं।
चूंकि
सभी पर्यावरणीय नियम पर्यावरण की क्षति और सतत विकास के बीच संतुलन रखने के लिए
हैं, इसलिए निष्पक्ष आकलन अनिवार्य है। यह उन
नौकरियों और इंफ्रास्ट्रक्चर के नुकसान से भी बचाएगा जो तब होगा जब किसी परियोजना को
निर्वहनीय साबित करने से पहले शुरू कर दिया जाएगा। अलबत्ता,
व्यवसाय और उद्योग हमेशा से पर्यावरण प्रभाव आकलन को नई
परियोजना शुरू करने की राह में एक रोड़ा मानते रहे हैं।
ऐसा
कहा जा रहा है कि पर्यावरण प्रभाव आकलन की नई अधिसूचना पर्यावरण प्रभाव आकलन की
प्रक्रिया को सुगम बनाती है और इसे हाल के फैसलों के अनुरूप करती है। यह भी दावा
किया जा रहा है कि इन नए परिवर्तनों से कारोबार करने में आसानी होगी। जबकि
वास्तविकता इससे काफी अलग है। पर्यावरण प्रभाव आकलन प्रक्रिया को सुगम बनाने की आड़
में तैयार नया मसौदा इसे कमज़ोर कर रहा है, इसके
दायरे को कम कर रहा है और इसकी शक्तियां छीन रहा है। अधिसूचना में कई बदलाव
प्रस्तावित हैं, यहां हम उनमें से
कुछ मुख्य संशोधनों पर एक नज़र डालेंगे।
पर्यावरण
प्रभाव आकलन के संशोधन में सबसे विनाशकारी संशोधन एक्स-पोस्ट-फेक्टो क्लीयरेंस (यानी कार्य पूर्ण हो जाने के बाद मंज़ूरी) का विकल्प देना है।
यानी इस संशोधन से उन परियोजनाओं को भी मंज़ूरी प्राप्त करने का मौका मिलेगा जो
पर्यावरण नियमों का उल्लंघन करती हैं। ऐसी स्थिति में यदि परियोजनाओं द्वारा
शुरुआत में पर्यावरण प्रभाव आकलन की मंजूरी नहीं मांगी गई और परियोजना शुरु कर दी
गई तो भी परियोजना अधिकारी बाद में आकलन प्रक्रिया करवा सकते हैं। इस उल्लंघन के
लिए कुछ हर्जाना भरकर, परियोजना के लिए
मंज़ूरी ली जा सकती है।
पहले
भी परियोजनाओं को इस तरह एक्स-पोस्ट-फेक्टो मंज़ूरियां दी जा रही थीं लेकिन अवैध होने के कारण
अदालतों ने उन पर शिकंजा कस दिया था। अब नई अधिसूचना में प्रस्तावित संशोधन अदालत
के इन फैसलों को दरकिनार करता है, हालांकि यह देखना
बाकी है कि दरकिनार करने का हथकंडा वैध है या नहीं।
यह
संशोधन नई परियोजना शुरु करने वालों को यह विकल्प देता है कि वे या तो परियोजना शुरू
करने के पहले पर्यावरण प्रभाव आकलन की प्रक्रिया से गुज़रें या पहले परियोजना शुरू
कर लें और फिर बाद में जुर्माना अदा कर अपनी परियोजना को मान्यता दिलवा लें। वे
कौन-सा
विकल्प चुनते हैं, यह इस बात पर निर्भर
करेगा कि दोनों में से कौन-सा विकल्प व्यवसाय या परियोजना के लिए वित्तीय रूप से बेहतर
है। यानी यदि विकल्पों का यह नियम बन जाता है, पर्यावरण
प्रभाव आकलन का उद्देश्य ही पराजित हो जाएगा।
परियोजना
की निगरानी की व्यवस्था में भी कुछ ढील दी गई है। पर्यावरण प्रभाव आकलन के नवीन
मसौदे में वार्षिक रिपोर्ट देने की बजाए द्विवार्षिक रिपोर्ट देने की छूट दी गई
है। और खनन जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों के लिए एक बार मिली मंज़ूरी की वैधता की अवधि
को बढ़ा दिया गया है। ये कदम ना केवल पर्यावरण को होने वाले नुकसान को बढ़ाएंगे,
बल्कि ऐसे मामलों में पर्यावरण प्रभाव आकलन की पहुंच को भी
बाधित करने का काम करेंगे।
पर्यावरण
प्रभाव आकलन के अन्य महत्वपूर्ण संशोधनों में से एक संशोधन श्रेणी-बी की परियोजनाओं के
सम्बंध में किया गया है। चूंकि पर्यावरण प्रभाव आकलन की अनिवार्यता की सीमा को बी-2 श्रेणी की
परियोजनाओं के नीचे ले आया गया है, इसलिए ये परियोजनाएं
अब पूरी तरह से पर्यावरण प्रभाव आकलन और सार्वजनिक परामर्श प्रक्रिया से मुक्त
होंगी। इसका मतलब है कि 25 मेगावॉट
से कम की सभी पनबिजली परियोजनाओं और 2,000-10,000 हैक्टर के बीच सिंचित क्षेत्र वाली सभी सिंचाई परियोजनाओं
को मंज़ूरी के लिए पर्यावरण प्रभाव आकलन करवाने या सार्वजनिक विमर्श की आवश्यकता
नहीं रहेगी।
पर्यावरण
प्रभाव आकलन अधिसूचना, 2006 और वर्तमान में प्रस्तावित मसौदे में एक
अन्य महत्वपूर्ण अंतर है। 2006 की अधिसूचना में यदि श्रेणी-बी की किसी परियोजना का कुछ हिस्सा या पूरी
परियोजना संरक्षित क्षेत्र की सीमा, या
गंभीर रूप से प्रदूषित क्षेत्र, या पर्यावरण की
दृष्टि से संवेदनशील क्षेत्र या अंतर-राज्य और अंतर्राष्ट्रीय सीमा के 10 किलोमीटर के दायरे में स्थित होती थी तो
ऐसी श्रेणी-बी
की परियोजना को श्रेणी-ए
की परियोजना की तरह देखा जाता था। नए मसौदे में संशोधन किया गया है कि उपरोक्त
शर्तों को पूरा करने वाली सभी बी-1 श्रेणी की परियोजनाओं का विशेषज्ञ आकलन समिति द्वारा आकलन
तो किया जाएगा लेकिन अब उन्हें श्रेणी-ए की परियोजनाओं के रूप में नहीं देखा जाएगा। नए मसौदे के
इस स्पष्टीकरण से लगता है कि इन परियोजनाओं की आकलन प्रक्रिया उतनी गहन नहीं
रहेगी।
यह
मसौदा परियोजना पर जनता की टिप्पणी या प्रतिक्रिया देने की समयावधि को भी कम करता
है। परियोजना प्रभावित अधिकतर लोग या तो जंगलों में रहते हैं या टेक्नॉलॉजी या
जानकारी तक उनकी पहुंच मुश्किल होती है। यह संशोधन उनके प्रतिनिधित्व को कम करता
है।
पर्यावरण
प्रभाव आकलन के दायरे में कमी की वजह से वह अपने उद्देश्य से इतना भटक गया है कि
शायद अप्रासंगिक ही हो जाए। वे उद्योग जो पहले संपूर्ण आकलन की आवश्यकता वाली
श्रेणी में आते थे, अब उस श्रेणी में
नहीं रहे। इसका सबसे बड़ा लाभ निर्माण उद्योग को होगा जहां केवल बहुत बड़ी
परियोजनाओं की ही पूरी जांच की जाएगी। रक्षा और राष्ट्रीय सुरक्षा की परियाजनाओं
को तो हमेशा ही पर्यावरण प्रभाव आकलन से छूट रही है लेकिन अब परियोजनाओं की एक नई
श्रेणी प्रकट हुई है: ‘जिनमें
अन्य रणनीतिक आधार शामिल हों’। यह भी पर्यावरण प्रभाव आकलन से मुक्त होगी। तो सवाल यह
उठता है कि क्या परमाणु संयंत्र या पनबिजली परियोजनाएं ऐसी परियोजनाओं के अंतर्गत
आएंगे?
कुछ
लोग पर्यावरण प्रभाव आकलन के निशक्तीकरण को लोकतंत्र-विरोधी भी मान रहे हैं क्योंकि इससे
प्रभावित कुछ समुदायों के स्थानीय पर्यावरण में विनाशकारी बदलाव उनकी आजीविका को
नुकसान पहुंचा सकते हैं। सार्वजनिक विचार अस्तित्व-सम्बंधी खतरों पर एक जनमत संग्रह है।
सार्वजनिक विमर्श प्रक्रिया को कम या सीमित करना उसी तरह है जिस तरह उन लोगों की
आवाज़ को शांत करना जिनके पास बोलने के मौके पहले ही कम हैं।
सरकार
यह तर्क दे सकती है कि कोविड-19 महामारी के कारण अर्थव्यवस्था को नुकसान हुआ है और यह
अर्थव्यवस्था को दुरुस्त करने की दिशा में एक आवश्यक कदम है। लेकिन उसके कार्यों
से तो लगता है कि वह पर्यावरण नियमों को कारोबार करने की सुगमता में बाधा मानती
है। लॉकडाउन के दौरान, पर्यावरण और वन
मंत्रालय ने तेज़ी से परियोजनाओं को हरी झंडी देने का काम किया है। जब पर्यावरण व
वन मंत्री और भारी उद्योग मंत्री एक ही व्यक्ति हो तो हितों का टकराव होना तय है।
दो मंत्रालय जो सामान्यत: दूसरे
के विरोध में काम करते हैं, वे एक ही व्यक्ति के
पास हैं।
इस
ढिलाई के साथ और उदार तरीके से परियोजनाओं को मंज़ूरी देने का एक उदाहरण हाल ही में
देखने को मिला है। ऑयल इंडिया लिमिटेड के तेल के कुएं संरक्षित जंगलों से केवल कुछ
किलोमीटर की ही दूरी पर स्थित थे। पिछले दिनों जब इन तेल के कुओं से आग की लपटें उठीं,
तो नए सिरे से पर्यावरणीय मंजूरी की बजाय बहानेबाज़ी और
फेरबदल की नई प्रक्रियाएं शुरू कर दी गर्इं।
मंज़ूरी
ना लेने का एक अन्य उदाहरण विशाखापट्टनम स्थित एलजी पॉलीमर संयंत्र से घातक गैस
रिसाव के रूप में सामने आया, जिसमें बारह लोगों
की मौत हो गई और सैकड़ों लोगों को नुकसान पहुंचा। इस त्रासदी के बाद पता चला कि यह
संयंत्र एक दशक से भी अधिक समय से बिना पर्यावरणीय मंज़ूरी के काम कर रहा था।
यह स्पष्ट है कि पर्यावरणीय विनियमन एक संतुलन अधिनियम है जिसका उद्देश्य पर्यावरणीय और सामाजिक क्षति को कम करते हुए टिकाऊ वृद्धि और विकास की अनुमति देना है। लेकिन क्या लॉकडाउन के बाद अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के इरादे ने सरकार में औद्योगिक विकास का पक्ष लेने की आतुरता पैदा की, वह भी कारोबार को आसान बनाने के ढोंग और विदेशी निवेश आकर्षित करने के दावों के आधार पर? एक अन्य सवाल जो परेशान करता है कि जब तक पर्यावरण क्षति के परिणाम नज़र आने शुरू होंगे, तब तक क्या पर्यावरणीय क्षति को कम करने के हमारे प्रयासों में बहुत देरी नहीं हो जाएगी और क्या वे बहुत नाकाफी साबित नहीं होंगे?(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://images.indianexpress.com/2020/06/eia.jpg
डॉयाक्सीन
अत्यंत विषैले रसायनों का समूह है। इन्हें उन खतरनाक मानव निर्मित रसायनों में
शामिल किया गया है जिनकी सक्रियता रेडियो सक्रिय पदार्थ के बाद दूसरे नंबर पर आती
है।
डॉयाक्सीन
पर हमारा ध्यान इटली के सेवासो कस्बे में 10 जुलाई 1976 को एक कारखाने में हुए विस्फोट ने आकर्षित
किया था। इससे डॉयाक्सीन आसपास के वातावरण में फैल गया था। इसके विषैले प्रभाव से
हज़ारों पशु-पक्षी
मारे गए थे। मनुष्यों में भी एक चर्म रोग फैला था जो लंबे समय तक उपचार के बाद ठीक
हुआ। बाद में कैंसर एवं ह्रदय रोग के भी कई प्रकरण सामने आए। प्रारंभ में गर्भवती
महिलाओं एवं बच्चों पर कोई विशेष प्रभाव तो नहीं देखा गया था परंतु बाद में नर
बच्चों की जन्म दर काफी घट गई थी। अमरीका की पर्यावरण सुरक्षा एजेंसी ने वहां की
ज़्यादातर जनता को डॉयाक्सीन से प्रभावित बताया था। डॉयाक्सीन के प्रभावों में
कैंसर, चर्म रोग,
प्रतिरोध क्षमता में कमी, तंत्रिका
तंत्र पर प्रतिकूल प्रभाव एवं मृत शिशुओं का जन्म प्रमुख हैं।
रासायनिक
दृष्टि से डॉयाक्सीन क्लोरीन युक्त हाइड्रोकार्बन हैं जो काफी टिकाऊ होते हैं तथा
कीटनाशी डीडीटी के समान वसा में घुलनशील होते हैं। इस घुलनशीलता के कारण ये भोजन शृंखला
में प्रवेश कर वसायुक्त अंगों में एकत्र होते रहते हैं।
अभी
तक इनकी कोई सुरक्षित सीमा निर्धारित नहीं है परंतु स्वास्थ्य पर इनका प्रभाव चंद
अंश प्रति ट्रिलियन (यानी
10 खरब
अंशों में एक अंश) सांद्रता
पर ही देखा गया है। हमारे वायुमंडल में 95 प्रतिशत डॉयाक्सीन उन भस्मकों (इंसीनरेटर्स) से आते हैं जिनमें
क्लोरीन युक्त कचरा जलाया जाता है। कागज़ के उन कारखानों से भी इनका प्रसार होता है
जो ब्लीचिंग कार्य में क्लोरीन का उपयोग करते हैं। कई शहरों में सफाई के नाम पर
अवैध रूप से कचरा जलाने में भी डॉयाक्सीन पैदा होते हैं,
क्योंकि कचरे में प्लास्टिक एवं पीवीसी के अपशिष्ट भी होते
हैं।
पिछले
50 वर्षों
में क्लोरीन युक्त रसायनों व प्लास्टिक का निर्माण एवं उपयोग काफी बढ़ा है। रसायनों
में कीटनाशी व शाकनाशी तथा प्लास्टिक में पीवीसी की वस्तुएं प्रमुख हैं। वाहनों के
सीटकवर, टेलीफोन-बिजली के तार,
शैम्पू की बॉटल, बैग,
पर्स, सेनेटरी पाइप,
वॉलपेपर एवं कई अन्य वस्तुएं पीवीसी से ही बनती हैं। इन सभी
के निर्माण के समय एवं उपयोग के बाद कचरा जलाने से डॉयाक्सीन का ज़हर फैलता है।
जलने
के दौरान पैदा डॉयाक्सीन वायुमंडल में उपस्थित महीन कणीय पदार्थों के साथ सैकड़ों
किलोमीटर दूर तक फैल जाते हैं। फसलों एवं अन्य पौधों की पत्तियों तथा भूमि पर जमा
होकर फिर ये शाकाहारी एवं मांसाहारी प्राणियों से होते हुए अंत में मानव शरीर में
एकत्र होने लगते हैं। मानव शरीर में ज़्यादातर डॉयाक्सीन दूध,
मांस व अन्य डेयरी पदार्थों के ज़रिए पहुंचते हैं।
जापान
के स्वास्थ्य व कल्याण मंत्रालय ने कुछ वर्ष पूर्व महिलाओं के दूध का अध्ययन कर
बतलाया था कि महिलाएं जैसे-जैसे दूध व अन्य डेयरी पदार्थों का उपयोग बढ़ाती हैं वैसे-वैसे उनके दूध में
डॉयाक्सीन की मात्रा बढ़ती जाती है। भस्मकों के आसपास के क्षेत्र में रहने वाली
महिलाओं में इनकी मात्रा ज़्यादा आंकी गई। ब्रिटिश जर्नल ऑफ कैंसर में
प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार नगरीय निकायों का कचरा जलाने वाले भस्मकों के आसपास
सात किलोमीटर के क्षेत्र में बसे रहवासियों में डॉयाक्सीन के कारण कई प्रकार के
कैंसर होने की संभावना बढ़ जाती है। भस्मकों की चिमनी से निकले धुंए में कैंसरजन्य
रसायनों के साथ भारी धातुएं, अम्लीय गैसें,
अधजले कार्बनिक पदार्थ, पॉलीसायक्लिक
हाइड्रोकार्बन्स तथा फ्यूरॉन एवं डॉयाक्सीन की उपस्थिति भी वैज्ञानिकों ने दर्ज की
है। दुनिया में कई स्थानों पर, डॉयाक्सीन की मात्रा
बढ़ने से गांव व शहर खाली भी कराए गए हैं। इनमें लवकेनाल (नियाग्रा फॉल),टाइम्स बीच (मिसोरी), पैंसाकोला
(फ्लोरिडा) व मिडलैंड शहर
प्रमुख हैं।
वर्ष
2002 में
एंवायरमेंटल साइंस एंड टेक्नॉलॉजी पत्रिका में
प्रकाशित रिपोर्ट में बताया गया था कि डॉयाक्सीन का प्रदूषण भारत में भी बहुत है।
मनुष्य, डॉल्फिन,
मुर्गा, मछली,
बकरी एवं मांसाहारी पशुओं में इसकी उपस्थिति आंकी गई थी।
पक्षियों में सर्वाधिक 1800
तथा गंगा की डॉल्फिन में 20-120 पीपीजी (पिकोग्राम प्रति ग्राम) का आकलन किया गया था।
पर्यावरण एवं वन मंत्रालय के तत्कालीन सचिव ने भी इसे स्वीकारते हुए कहा था कि देश
में डॉयाक्सीन की व्यापकता अनुमान से अधिक है। कम्यूनिटी एंवायरमेंटल मॉनीटरिंग ने
स्मोक स्कैन नाम से एक रिपोर्ट लगभग 15 वर्ष पूर्व जारी की थी। इसमें देश के 13 स्थानों पर हवा के नमूनों में 45 ज़हरीले रसायनों की
उपस्थिति बतलाई थी। केरल के एक औद्योगिक क्षेत्र में एक रसायन हेक्साक्लोरो
ब्यूटाडाइन की पहचान की गई थी जो डॉयाक्सीन का निर्माण करता है।
देश
में डॉयाक्सीन की मात्रा पश्चिमी देशों द्वारा दिए गए घटिया तकनीक के भस्मकों तथा
क्लोरीन आधारित उद्योगों के कारण बढ़ी है जिनमें पीवीसी,
पल्प व कागज़ तथा कीटनाशी कारखाने प्रमुख हैं। खुलेआम
प्लास्टिक युक्त कचरा जलाना भी इसकी मात्रा बढ़ा रहा है। डॉयाक्सीन से पैदा प्रदूषण
पर ध्यान दिया जाना ज़रूरी है, अन्यथा यह स्वास्थ्य
का नया संकट पैदा करेगा। केंद्र सरकार ने 2009 में कई प्रदूषणकारी पदार्थों की मात्रा व
स्तर में संशोधन कर कुछ नए प्रदूषणकारी पदार्थं शामिल किए हैं परंतु इसमें
डॉयाक्सीन नहीं हैं।
भस्मकों में कचरा जलाए जाने से पैदा डॉयाक्सीन के प्रदूषण के कारण अब दुनिया के कई देशों में इसके विरुद्ध ना केवल आवाज़ उठाई जा रही है अपितु ये बंद भी किए जा रहे हैं। वर्ष 2002 में ज़्यादा डॉयाक्सीन उत्सर्जन के कारण जापान में लगभग 500 भस्मक बंद किए गए थे। यू.के में 28 में से 23 भस्मक बंद किए गए एवं यू.एस.ए. में 1985 से 1994 के मध्य 250 भस्मकों की प्रस्तावित योजनाएं निरस्त की गर्इं। फिलीपाइंस में भस्मक लगाना प्रतिबंधित किया गया है। हमारे देश में भी इस संदर्भ में ध्यान देकर सावधानी बरतना ज़रूरी है।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.itrcweb.org/Team/GetLogoImage?teamID=81
साल 2002 में औसत बारिश में
कमी या सूखे का पूर्वानुमान भारत या विदेश का कोई भी संस्थान नहीं लगा पाया था।
इसे मौजूदा मॉडल में पूरे विश्व में चुनौती माना गया। सवाल यह है कि गर्मी की
शुरुआत में आज से 35-40 साल
पहले भी आंधी-तूफान
आते रहे हैं, जिसे पूर्वी भारत
में काल बैसाखी कहते हैं। लेकिन पहले तूफान से तबाही नहीं मचती थी। फिर अब ऐसा
क्या होता है कि एक दिन के तूफान से ही तबाही मच जाती है?
इसे ठीक से समझने के लिए तीन बातों पर गौर करना होगा।
कोई
भी आंधी-तूफान
दो चीज़ों से ऊर्जा लेती हैं – गर्मी व हवा की नमी की मात्रा। ये दोनों चीजें जितनी ज़्यादा
होंगी, तूफान की मारक
क्षमता उतनी ही बढ़ेगी। पहले मई माह के बाद ही तेज़ गर्मी पड़ती थी। पर अब मार्च-अप्रैल महीने में ही
उत्तर, पश्चिम और दक्षिण
भारत के काफी बड़े हिस्से में तापमान 40 डिग्री सेल्सियस या इससे ऊपर पहुंच जाता है। इससे हवा की
गति बढ़ जाती है। साथ ही पश्चिमी विक्षोभ भी मौजूद रहता है और बंगाल की खाड़ी से नमी
लेकर हवा भी आ पहुंचती है। इन सबकी वजह से तूफान आने की स्थिति बनती है।
पिछले
तीन-चार
दशक से तापमान लगातार बढ़ रहा है। यह हवा की गति को भी बढ़ा रहा है। 1979-2013 की अवधि में मौसम
उपग्रह के रिकार्ड से पता चला कि धरती का ऊष्मा इंजन अब पहले से ज़्यादा सक्रिय हो
चुका है। परिणामस्वरूप तूफान-बवंडर ज़्यादा शक्तिशाली बन रहे हैं। आज ज़रूरत है इनको समय
से पूर्व जानकर देश की जनता और शासन-प्रशासन को सावधान करने की।
मौसम
का पूर्वानुमान तभी सफल हो पाता है जब उसे स्थान और काल की बारीकी से बताया जा
सके। भारतीय मौसम विभाग अभी इस काम को करने में पूरी तरह से परिपक्व नहीं हो सका
है। मानसून के बारे में मौसम विभाग का अनुमान हमारे किसी काम का नहीं होता क्योंकि
वह सिर्फ औसत बताता है। औसत तो तब भी बरकरार रहेगा जब किसी इलाके में सूखा पड़े और
किसी में अतिवृष्टि हो जाए। लेकिन दोनों स्थितियों में नुकसान तो हो ही जाएगा।
उन्हें स्थानीय स्तर पर जल्दी-जल्दी पूर्वानुमान बताना चाहिए ताकि तैयारी करने का समय मिल
सके।
मौसम
के पूर्वानुमान के लिए अलग-अलग मॉडल पर आधारित 5 तरह के पूर्वानुमान का इस्तेमाल कृषि,
यातायात, जल प्रबंधन आदि के
लिए किया जाता है। सही मायने में 5 दिन का पूर्वानुमान 60 फीसदी तक सही हो पाता है। ये पांच तरह के
हैं –
1. तात्कालिक (नाउकास्ट ) – अगले 24 घंटे का आकलन
2. लघु अवधि – 3 दिनों का
पूर्वानुमान
3. मध्यम अवधि – 3-10 दिनों का
पूर्वानुमान
4. विस्तारित अवधि – 10-30 दिनों का
पूर्वानुमान
5. दीर्घ अवधि – मानसून का
पूर्वानुमान
इस
संदर्भ में मराठवाड़ा में कुछ किसानों ने पुलिस केस दर्ज कराया है। उनका कहना है कि
मौसम विभाग द्वारा महाराष्ट्र या मराठवाड़ा (8 ज़िला क्षेत्र) के अनुमान से भी उन्हें लाभ नहीं होता,
क्योंकि एक ज़िले में भी बारिश कभी एक समान नहीं होती। इसलिए
कृषि के लिए ब्लॉक आधारित सूचना की ज़रूरत है। विशेषज्ञों के अनुसार मौसम विभाग को
पूरे देश को छोटे-छोटे
ज़ोन में बांटना चाहिए और हर ज़ोन के लिए दीर्घावधि पूर्वानुमान जारी करने चाहिए।
मौसम
विभाग ज़िला आधारित पूर्वानुमान जारी करता है। हालांकि इनमें भी सफलता दर कम है।
अगर मौसम विभाग पूर्वानुमान जारी करते हुए बताता है कि किसी ज़िले में अलग-अलग क्षेत्रों में
बारिश होगी तो इसका अर्थ होता है कि उस जिले के 26-50 फीसदी हिस्से में बारिश होगी। इसमें भी उन
क्षेत्रों की पहचान नहीं की जाती। मौसम विभाग तापमान,
आद्र्रता, हवा की गति और वर्षण
आदि के आंकड़े इकट्ठे करता है। देश में 679 स्वचालित मौसम केंद्र,
550 भू
वेधशालाएं, 43 रेडियोसोंड (मौसमी गुब्बारे), 24 राडार और 3 सेटेलाइट हैं,
जो दूसरे देश के सेटेलाइट आंकड़े भी जुटाते रहते हैं।
अति
आधुनिक गतिशील मॉडल (डायनैमिक
मॉडल) पर
आधारित पूर्वानुमान भी भारत में गलत हो जाते हैं। ब्लॉक स्तर तक के मौसम
पूर्वानुमान के लिए ज़रूरी है कि ब्लॉक स्तर तक के आंकड़े जुटाए जाएं। संसाधन काफी
कम हैं। धूल, एरोसॉल,
मिट्टी की आर्द्रता और समुद्र से जुड़े डैटा में भारी अंतर
हैं। वर्षापात के आंकड़े जुटाने के लिए देश में कम से कम 20 और राडार चाहिए ताकि व्यापक आंकड़े जुटाए जा
सकें।
मौसम
पूर्वानुमान के मॉडल की विफलता के बड़े कारण घटिया यंत्र भी हैं। एक मौसम विज्ञानी
के अनुसार पैसे बचाने के लिए कई स्वचालित मौसम केंद्र घटिया स्तर के खरीदे गए थे।
दूसरा मौजूदा मॉडल के उचित रखरखाव में कमी भी बड़ी समस्या है। इन्हें थोड़े-थोड़े अंतराल पर साफ
करके स्केल से मिलाना होता है। पर वास्तव में ऐसा हो नहीं पाता। इससे कई डैटा गलत
आते हैं। पूर्वानुमान के लिए इस्तेमाल किए जा रहे अधिकतर मॉडल विदेशों में विकसित
किए गए हैं जिनमें स्थानीय ज़रूरत के अनुसार बदलाव करके उपयोग किया जा रहा है।
ऊष्ण
कटिबंधीय वातावरण बहुत तेज़ी से बदलता रहता है। यह कभी स्थिर नहीं रहता। दरअसल ऊष्ण
कटिबंधीय मौसम के व्यवहार का अभी उचित अध्ययन हो ही नहीं सका है।
पर्याप्त
संख्या में मौसम विज्ञानी नहीं हैं। एकमात्र आईआईएससी के स्नातक ही मौसम केंद्र से
जुड़ते हैं। मौजूदा मॉडल और मौसम विज्ञानियों की उपलब्धता के आधार पर देखें तो एक
दिन के पूर्वानुमान की गणना करने में 10 वर्षों का समय लग सकता है।
आमतौर
पर माना जाता है कि मानसून के अप्रत्याशित व्यवहार के पीछे बढ़ता वैश्विक तापमान
है। लेकिन इसके वैज्ञानिक साक्ष्य नहीं मिले हैं।
तमाम
आलोचनाओं के बीच मौसम विभाग द्वारा जारी आंकड़ों में सुधार आए हैं। पहले की तुलना
में बेहतर तकनीक और नए मॉडलों का प्रभाव, धीरे-धीरे ही सही,
दिखने लगा है। दीर्घावधि औसत में 2003-15 के दौरान मौसम के पूर्वानुमान में 5.92 प्रतिशत की अशुद्धता
दर्ज की गई थी, जो 1990-2012 के बीच 7.94 प्रतिशत थी। 1988-2008 के बीच पूर्वानुमान 90 प्रतिशत सही रहा।
यानी 20 में
से 19 वर्षों
में।
बढ़ते मौसमी खतरे को देखते हुए हमें अपने पूर्वानुमान की सूक्ष्मता को बढ़ाना होगा। तूफान और बवंडर के लिए डॉप्लर राडार ज़्यादा उपयोगी है। अफसोस इस बात का है कि इनकी देश में कमी है। 2013 की उत्तराखंड आपदा में भी इनकी कमी सामने आई। यदि डॉप्लर राडार होता तो ज़्यादा बारीकी से तूफान का पता लगाकर चेतावनी दी जा सकती थी। अगर आने वाले खतरे को नजरअंदाज करते रहेंगे तो भारी कीमत चुकानी पड़ेगी। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://cdn.downtoearth.org.in/library/large/2017-08-10/0.71962100_1502365925_32-1-20170815-english.jpg