समुद्री प्लास्टिक प्रदूषण पर बढ़ती चिंता

प्लास्टिक माउंट एवरेस्ट से लेकर अंटार्कटिका तक पहुंच चुका है। हर वर्ष, लाखों टन प्लास्टिक कचरा समुद्र में बहा दिया जाता है। इनमें से कुछ बड़े टुकड़े तो समुद्र में तैरते रहते हैं, कुछ छोटे कण समुद्र के पेंदे में पहुंच जाते हैं तो कुछ का ठिकाना समुद्र की गहरी खाइयों के क्रस्टेशियन जीवों तक में होता है।

पिछले कुछ वर्षों में समुद्री प्लास्टिक पर प्रकाशित शोध पत्रों की संख्या में काफी वृद्धि हुई है। राष्ट्र संघ की विज्ञान की स्थिति सम्बंधी एक रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2011 में यह संख्या 46 थी जो 2019 में बढ़कर 853 हो गई।

युनिवर्सिटी ऑफ काडिज़ के कारमेन मोराल्स कहते हैं कि धातुओं या कार्बन यौगिकों जैसे प्रदूषकों की तुलना में प्लास्टिक ज़्यादा नज़र आता है जिसके चलते यह जनता और नीति निर्माताओं का अधिक ध्यान आकर्षित करता है। वैज्ञानिक यह पता लगाने का प्रयास कर रहे हैं कि यह प्लास्टिक कहां से आता है, कहां जाता है और पर्यावरण व मानव स्वास्थ्य को कैसे प्रभावित करता है।

इन शोध प्रकाशनों में अभी भी ज़्यादा ध्यान समुद्र तटों, समुद्र के पेंदे या जंतुओं में प्लास्टिक की उपस्थिति पर दिया जा रहा है जबकि प्लास्टिक के रुाोतों और समाधानों पर काफी कम शोध पत्र प्रकाशित हो रहे हैं। हाल ही में मोराल्स और उनकी टीम ने विभिन्न अध्ययनों के डैटा के आधार पर कचरे से 1.2 करोड़ वस्तुओं की सूची तैयार की है जिनका आकार दो सेंटीमीटर से अधिक है। भोजन और पेय पदार्थों के पैकिंग में उपयोग होने वाली बोतलें, कंटेनर, रैपर और बैग्स कुल पर्यावरणीय कचरे का लगभग 44 प्रतिशत है।

प्लास्टिक प्रदूषण के पारिस्थितिकी प्रभाव को समझने के प्रयास भी चल रहे हैं। प्लास्टिक स्वयं तो अक्रिय पदार्थ हैं लेकिन इनमें अग्निरोधी पदार्थों और रंजकों के अलावा इन्हें लचीला और टिकाऊ बनाने के लिए योजक मिलाए जाते हैं। यही चिंता का कारण हैं। हानिकारक पॉलीसाइक्लिक एरोमेटिक हाइड्रोकार्बन भी बहते प्लास्टिक से चिपककर पर्यावरण में प्रवेश कर सकते हैं।

इसके अलावा, माइक्रोप्लास्टिक कण प्लवकों के आकार के होते हैं जिन्हें समुद्री जंतु भोजन समझकर निगल लेते हैं। छोटे नैनोप्लास्टिक तो और अधिक हानिकारक हो सकते हैं जो ऊतकों में प्रवेश कर जाते हैं और सूजन का कारण बन सकते हैं। अभी तक प्लास्टिक के विषैले प्रभावों को ठीक तरह से समझा नहीं जा सका है और पर्यावरण में पाए जाने वाले प्लास्टिक जैसा सम्मिश्रण प्रयोगशाला में बनाना कठिन कार्य है।

एक समाधान के तौर पर 2018 से लेकर अब तक 127 देशों ने प्लास्टिक बैग का उपयोग नियंत्रित करने के लिए कानून पारित किए हैं। लेकिन कुछ रिपोर्ट के अनुसार प्लास्टिक पुनर्चक्रण की धीमी गति को देखते हुए ऐसे प्रतिबंध लगाना पर्याप्त नहीं है। इसके लिए जैव-विघटनशील विकल्प ज़रूरी हैं।

ऐसे में वनस्पति-आधारित हाइड्रोकार्बन से प्राप्त सामग्री पर अनुसंधान में काफी तेज़ी आई है। लेकिन इसकी रफ्तार अभी भी समस्या की विकरालता के सामने काफी धीमी है। प्लास्टिक के पर्यावरण विकल्पों पर प्रकाशन 2011 में 404 से बढ़कर 2019 में 1111 हो गए हैं। युनिवर्सिटी ऑफ साओ पाउलो के रासायनिक इंजीनियर इन दिनों कसावा स्टार्च से बायोडीग्रेडेबल प्लास्टिक विकसित करने का प्रयास कर रहे हैं।       

कुछ वैज्ञानिक प्लास्टिक प्रदूषण और परमाणु कचरे की समस्या में समानता देखते हैं। कहा जाता था कि विज्ञान के विकास के साथ नाभिकीय अपशिष्ट निपटान की तकनीकें विकसित होती जाएंगी। लेकिन आज भी परमाणु कचरे के निपटान की तकनीकें समस्या से काफी पीछे ही हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_image_-1280w__no_aspect/public/microplastics_1280x720.jpg?itok=GbajQIot

युरोपीय लोगों के आगमन से पर्यावरण को नुकसान

गभग पांच सौ वर्ष पूर्व युरोपीय खोजकर्ताओं ने न केवल कैरेबिया के मूल निवासियों के जीवन को तहस-नहस किया बल्कि पूरे पारिस्थितिकी तंत्र को भी काफी नुकसान पहुंचाया था। एक नए अध्ययन से पता चला है कि इस द्वीप पर रहने वाले लगभग 70 प्रतिशत सांप और छिपकलियां खत्म हो चुके हैं। इसके पीछे उपनिवेशकों के साथ आए बिल्ली, चूहों और रैकून को ज़िम्मेदार बताया जा रहा है। कुछ वैज्ञानिकों के अनुसार कमज़ोर प्रजातियों के लिए समस्याएं मनुष्यों के कारण नहीं बल्कि मनुष्यों की पर्यावरण से परस्पर क्रिया से उत्पन्न हुई हैं।

गौरतलब है कि पांडा जैसे लोकप्रिय जीवों की तुलना में छिपकली, सांप और अन्य सरिसृपों और उनके इतिहास के बारे में हम कम ही जानते हैं। फिर भी ऐसा माना जाता है कि ये प्रजातियां पारिस्थितिकी तंत्र में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। ये जीव पौधों का परागण करते हैं, बीजों को फैलाते हैं, छोटे जीवों को खाते हैं और स्वयं भी बड़े जीवों द्वारा खाए जाते हैं। इनमें से कुछ तो धरती के नीचे बिलों में रहते हुए पूरे भूपटल को ही बदल देते हैं।

ऐसे में मैक्स प्लांक इंस्टीट्यूट फॉर साइंस ऑफ ह्यूमन हिस्ट्री के पुराजंतु वैज्ञानिक कोरंतन बुशातों ने कैरेबिया की संवेदनशील जैव विविधता के अध्ययन हेतु अपने सहयोगियों के साथ पूर्वी कैरेबिया स्थित गुआदेलूप के छह द्वीपों पर पहले से खुदाई की गई गुफाओं का अध्ययन किया। ये छह द्वीप पूर्व में फ्रांस के अधीन थे। टीम ने गुफाओं के फर्श की विभिन्न परतों को हटाते हुए हड्डियों के हज़ारों टुकड़े एकत्रित किए जिनमें से कुछ तो तीन मिलीमीटर से भी छोटे थे।  

खोजे गए 43,000 जीवाश्मों में से शोधकर्ताओं ने 16 विभिन्न प्रकार की छिपकलियों और सांपों की पहचान की। जीवाश्मों को चार समूहों में विभाजित किया गया: 32,000 से 11,000 वर्ष पुराने, 11,650 से 2540 वर्ष पुराने, 2450 से 458 वर्ष पुराने (वह अवधि जब मूल निवासी बस चुके थे लेकिन युरोपीय नहीं पहुंचे थे) और 458 से वर्तमान समय तक।

साइंस एडवांसेज़ में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार एक द्वीप पर 11,000 वर्ष पूर्व चार प्रकार के सांप और पांच प्रकार की छिपकलियां पाई जाती थीं जो अब नहीं पाई जातीं। इनकी जगह छिपकलियों की चार अन्य प्रजातियों ने ली, जिनमें से दो प्रजातियां लगभग 2000 वर्ष पूर्व प्रकट हुई थीं जबकि अन्य दो युरोपियों के आगमन के बाद। संभावना है कि ये कैरेबिया के अन्य हिस्सों से आई हैं। बुशातों और उनकी टीम ने गुआदेलूप में छिपकलियों और सांपों के 40,000 वर्ष के जैव विकास इतिहास पर ध्यान दिया। उन्होंने पाया कि 1493 में क्रिस्टोफर कोलंबस के आने से पूर्व कैरेबिया में 13 सरिसृप प्रजातियां उपस्थित थीं। जलवायु परिवर्तन और मूल निवासियों की उपस्थिति उनके लिए कोई समस्या नहीं रही।

लेकिन इनकी लगभग आधी आबादी युरोपीय लोगों के आने के बाद गायब हो गई, जिनमें सांप की तीन और छिपकलियों की पांच प्रजातियां थीं। कुछ द्वीपों पर तो 70 प्रतिशत तक सरिसृप प्रजातियां खत्म हो गर्इं। ऐसी आशंका है कि छिपकलियां या तो युरोपीय लोगों द्वारा लाए गए आक्रामक जीवों का शिकार हो गर्इं या फिर गन्ने की खेती के कारण उन्होंने अपना प्राकृतवास खो दिया।

हालांकि, यह अभी तक स्पष्ट नहीं है कि इस तरह की क्षति का पारिस्थितिकी तंत्र पर क्या प्रभाव पड़ सकता है। इस निष्कर्ष से वैज्ञानिकों के बीच प्रचलित एक आम सिद्धांत को बल मिलता है कि जब तक देशज लोगों ने अपनी पारंपरिक प्रथाओं के साथ भूमि प्रबंधन किया है, तब तक जैव विविधता भी मनुष्यों के साथ-साथ सहजता से उपस्थित रह सकी है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_image_-1280w__no_aspect/public/Iguana_Guadalupe_1280x720.jpg?itok=cYa__1km

अमेरिकी शहद में परमाणु बमों के अवशेष

हाल ही में हुए एक अध्ययन के अनुसार लगभग पांच दशक पूर्व किए परमाणु बम परीक्षणों के अवशेष आज भी दिखाई दे रहे हैं। शोधकर्ताओं ने शहद में रेडियोधर्मी तत्व मौजूद पाया है। हालांकि शहद में रेडियोधर्मी तत्व का स्तर खतरनाक नहीं है, लेकिन अंदाज़ है कि 1970-80 के दशक में यह स्तर काफी अधिक रहा होगा।

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद, संयुक्त राज्य अमेरिका, पूर्व सोवियत संघ और अन्य कई देशों ने सैकड़ों परमाणु बम परीक्षण धरती की सतह पर किए थे। इन बमों से रेडियोधर्मी सीज़ियम निकला और ऊपरी वायुमंडल में पहुंचा। हवाओं ने इसे दुनिया भर में फैलाया, हालांकि हर जगह यह एक समान मात्रा में नहीं फैला था। उदाहरण के लिए, क्षेत्रीय हवाओं और वर्षा के पैटर्न के कारण अमेरिका के पूर्वी तट पर बहुत अधिक रेडियोधर्मी कण पहुंचे।

रेडियोधर्मी सीज़ियम पानी में घुलनशील है, और चूंकि इसके रासायनिक गुण पोटेशियम के समान हैं इसलिए पौधे इसे पोटेशियम मानकर उपयोग कर लेते हैं। यह देखने के लिए कि क्या अब भी पौधों में यह परमाणु संदूषण पहुंच रहा है, विलियम एंड मैरी कॉलेज के भूविज्ञानी जेम्स कास्ट ने विभिन्न स्थानों के स्थानीय खाद्य पदार्थों में रेडियोधर्मी सीज़ियम की जांच की।

उत्तरी कैरोलिना से लिए गए शहद के नमूनों के परिणाम आश्चर्यजनक थे। उन्हें इस शहद में रेडियोधर्मी सीज़ियम का स्तर अन्य खाद्य पदार्थों की तुलना में 100 गुना अधिक मिला। यह जानने के लिए कि क्या पूर्वी यूएस में मधुमक्खियां पौधों से मकरंद लेकर शहद बना रही हैं, और सीज़ियम का सांद्रण कर रही हैं, उनकी टीम ने पूर्वी यूएस के विभिन्न स्थानों से शहद के 122 नमूने एकत्रित किए और उनमें रेडियोधर्मी सीज़ियम का मापन किया। उन्हें 68 नमूनों में प्रति किलोग्राम 0.03 बेकरेल से अधिक रेडियोधर्मी सीज़ियम मिला (यानी लगभग एक चम्मच शहद में 8,70,000 रेडियोधर्मी सीज़ियम परमाणु)। सबसे अधिक (19.1 बेकरेल प्रति किलोग्राम) रेडियोधर्मी सीज़ियम फ्लोरिडा से प्राप्त नमूने में मिला।

नेचर कम्युनिकेशंस में प्रकाशित शोध पत्र के मुताबिक परमाणु बम परीक्षण स्थल से हज़ारों किलोमीटर दूर और बम परीक्षण के 50 साल बाद तक रेडियोधर्मी तत्व पौधों और जानवरों के माध्यम से पर्यावरण में घूम रहा है। हालांकि अमेरिकी खाद्य एवं औषधि प्रशासन ने स्पष्ट किया है यह स्तर चिंताजनक नहीं है। यह सुरक्षित स्तर (1200 बेकरेल प्रति किलोग्राम) से बहुत कम है।

समय के साथ रेडियोधर्मी तत्वों की मात्रा कम होती जाती है। इसलिए भले ही वर्तमान में रेडियोधर्मी सीज़ियम का स्तर कम है, लेकिन पूर्व में यह स्तर काफी अधिक रहा होगा। पूर्व में यह मात्रा कितनी होगी यह जानने के लिए शोधकर्ताओं ने दूध के नमूनों में सीज़ियम का स्तर मापा, और संग्रहालय में रखे पौधों के नमूनों का विश्लेषण किया। शोधकर्ताओं ने पाया कि 1960 के दशक के बाद से दोनों तरह के नमूनों में रेडियोधर्मी सीज़ियम का स्तर बहुत कम हुआ है, और कमी आने की यही प्रवृत्ति शहद में भी रही होगी। अनुमान है कि 1970 के दशक में शहद में सीज़ियम का स्तर मौजूदा स्तर से 10 गुना अधिक रहा होगा। सवाल उठता है कि पिछले 50 सालों में रेडियोधर्मी सीज़ियम ने मधुमक्खियों को किस तरह प्रभावित किया होगा? कीटनाशकों के अलावा अन्य मानव जनित प्रभाव भी इनके अस्तित्व को खतरे में डाल सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://i.dailymail.co.uk/1s/2021/04/21/22/42053826-0-image-a-8_1619038949972.jpg

तीन अरब साल पहले आए थे एरोबिक सूक्ष्मजीव

हाल ही में विभिन्न कुलों के सूक्ष्मजीवों के आनुवंशिक विश्लेषण से पता चला है कि ऑक्सीजन में सांस लेने वाले या कम से कम इसका उपयोग करने वाले सबसे पहले जीव 3.1 अरब साल पहले अस्तित्व में आए थे। यह खोज इसलिए चौंकाती है क्योंकि पृथ्वी को ऑक्सीजनमय करने वाली महान ऑक्सीकरण घटना तो इसके लगभग 50 करोड़ वर्ष बाद शुरू हुई थी।

ऑक्सीजन का उपयोग करने वाले प्रोटीनों का अस्तित्व में आना, ऑक्सीजन का उपयोग करने वाले सूक्ष्मजीवों के उद्भव में एक महत्वपूर्ण कदम था। और अनॉक्सी जीवों से लदी पृथ्वी का अधिकांशत: ऑक्सी जीवों वाली पृथ्वी में परिवर्तित होना जीवन का एक अहम नवाचार था।

वैज्ञानिक इस बात से तो सहमत हैं कि पृथ्वी का प्रारंभिक वायुमंडल और महासागर ऑक्सीजन रहित थे। लेकिन ऐसे संकेत मिले हैं जो बताते हैं कि इस समय भी पृथ्वी पर कुछ मात्रा में तो ऑक्सीजन मौजूद थी। जैसे वैज्ञानिकों ने लगभग 3 अरब साल पहले के ऐसे खनिज भंडार खोजे हैं जो सिर्फ ऑक्सीजन की उपस्थिति में बन सकते थे। इसके अलावा कुछ साक्ष्य बताते हैं कि अपशिष्ट उत्पाद के रूप में ऑक्सीजन छोड़ने वाले सबसे पहले प्रकाश संश्लेषक जीव, सायनोबैक्टीरिया, भी 3.5 अरब साल पहले अस्तित्व में आए थे। वे इस ऑक्सीजन का उपयोग नहीं करते थे।

लेकिन इस पर आपत्ति यह है कि यदि ऑक्सीजन उत्पादक और उपयोगकर्ता इतनी जल्दी आए होते तो वे पूरी पृथ्वी पर तेज़ी से फैल गए होते, क्योंकि ऑक्सीजन का उपयोग भोजन से अधिक ऊर्जा प्राप्त करने में मदद करता है। लेकिन महान ऑक्सीकरण की घटना 2.4 अरब साल पूर्व से पहले शुरू नहीं हुई थी।

ताज़ा अध्ययन में वाइज़मैन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस के जैव-रसायनज्ञ डैन तौफीक और उनके साथियों ने केंद्रक-पूर्व जीवों के 130 कुलों के जीनोम का विश्लेषण किया। उन्होंने एक वंश वृक्ष बनाया जो लगभग 700 ऑक्सीजन निर्माता या उपयोगकर्ता एंज़ाइम्स पर आधारित था। इससे उन्होंने प्रोटीन में उत्परिवर्तन दर पता की और इसकी मदद से एक आणविक घड़ी तैयार की ताकि यह देखा जा सके कि प्रत्येक एंज़ाइम कब विकसित हुआ था। 130 कुलों में से सिर्फ 36 कुलों के विकसित होने का समय निर्धारित किया जा सका।

नेचर इकोलॉजी एंड इवोल्यूशन में शोधकर्ता बताते हैं कि 3 अरब से 3.1 अरब साल पहले ऑक्सीजन का उपयोग करने वाले सूक्ष्मजीव कुलों में अचानक उछाल आया था। इस समय 36 कुल में से 22 कुल के सूक्ष्मजीव विकसित हुए जबकि 12 कुल के सूक्ष्मजीव इसके बाद और दो कुल के सूक्ष्मजीव इसके पहले अस्तित्व में आए थे। और इन्हीं सूक्ष्मजीवों से ऐसे सूक्ष्मजीव विकसित हुए जो ऑक्सीजन का उपयोग कर भोजन से अधिक ऊर्जा हासिल करने में सक्षम थे।

यदि यह बदलाव लगभग 3 अरब साल पहले आया था तो स्पष्ट है कि ऑक्सीजन का उपयोग करने वाले जीव तुरंत ही पूरी पृथ्वी पर नहीं फैले थे, बल्कि ऑक्सीजन के उपयोग की क्षमता छोटे-छोटे इलाकों में विकसित हुई थी जो धीरे-धीरे करोड़ों सालों के दरम्यान फैलती गई।

फिर भी कुछ लोगों का कहना है कि आणविक घड़ी से काल निर्धारण का विज्ञान अभी विकसित ही हो रहा है इसलिए घटनाओं का क्रम शायद सही हो सकता है, लेकिन घटनाओं का वास्तविक समय भिन्न हो सकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.ucsfhealth.org/-/media/project/ucsf/ucsf-health/medical-tests/hero/aerobic-bacteria-2x.jpg

पर्यावरण अनुकूल प्लास्टिक बनाने का प्रयास

प्लास्टिक एक बड़ी पर्यावरण समस्या है। सामान्य प्लास्टिक बनाने में एथीलीन और कार्बन मोनोऑक्साइड जैसे जिन शुरुआती पदार्थों का उपयोग होता है उन्हें बनाने में जीवाश्म र्इंधन की काफी खपत होती है और काफी मात्रा में कार्बन डाईऑक्साइड का उत्सर्जन भी होता है। हालिया वर्षों में रसायनज्ञों ने ऐसे विद्युत रासायनिक सेल तैयार किए हैं जो नवीकरणीय बिजली का उपयोग करते हुए पानी और औद्योगिक प्रक्रियाओं से प्राप्त अपशिष्ट कार्बन डाईऑक्साइड से प्लास्टिक के लिए कच्चा माल प्रदान कर सकते हैं। लेकिन इसे पर्यावरण अनुकूल बनाने में अभी भी काफी समस्याएं हैं। आम तौर पर ये सेल काफी मात्रा में क्षारीय पदार्थों की खपत करते हैं जिन्हें बनाने में काफी उर्जा खर्च होती है।

इसके लिए युनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया के रसायनज्ञ पायडोंग यैंग की टीम और एक अन्य समूह ने इस क्षारीय बाधा को हल करने के प्रयास किए। एक टीम ने दो विद्युत रासायनिक सेल को जोड़कर समस्या को हल किया है, वहीं दूसरे समूह ने क्षारों के बिना वांछित रसायन प्राप्त करने के लिए एंज़ाइमनुमा उत्प्रेरक प्रयुक्त किया है।

वर्तमान में कंपनियां पेट्रोलियम के बड़े हाइड्रोकार्बन से उच्च दाब में अत्यधिक गर्म भाप का उपयोग करके मीठी-महक वाली एथीलीन गैस का उत्पादन करती हैं। इस प्रक्रिया का उपयोग कई दशकों से किया जा रहा है जिससे एथीलीन का उत्पादन लगभग 72,000 रुपए प्रति टन के हिसाब से होता है। लेकिन इससे प्रति वर्ष 20 करोड़ टन कार्बन डाईऑक्साइड का उत्सर्जन भी होता है जो वैश्विक उत्सर्जन का लगभग 0.6 प्रतिशत है। विद्युत-रासायनिक सेल अधिक पर्यावरण अनुकूल विकल्प प्रदान करते हैं। ये उत्प्रेरकों को बिजली प्रदान करते हैं जो वांछित रसायनों का निर्माण करते हैं।

दोनों सेल में दो इलेक्ट्रोड और उनके बीच इलेक्ट्रोलाइट भरा होता है जो आवेशित आयनों को एक से दूसरे इलेक्ट्रोड तक पहुंचाता है। विद्युत-रासायनिक सेल में कार्बन डाईऑक्साइड और पानी कैथोड पर प्रतिक्रिया करके एथीलीन और अन्य हाइड्रोकार्बन बनाते हैं। सेल के इलेक्ट्रोलाइट में पोटेशियम हाइड्रॉक्साइड मिलाया जाता है ताकि कम वोल्टेज पर ही रसायनिक परिवर्तन हो सके और ऊर्जा दक्षता बढ़ सके। इससे अधिकांश बिजली का उपयोग हाइड्रोकार्बन निर्माण में हो पाता है।

लेकिन स्टैनफोर्ड युनिवर्सिटी के इलेक्ट्रोकेमिस्ट मैथ्यू कानन ने पोटेशियम हाइड्रॉक्साइड के उपयोग को लेकर एक समस्या की ओर ध्यान खींचा है। वास्तव में कैथोड पर हाइड्रॉक्साइड आयन कार्बन डाईऑक्साइड के साथ क्रिया करके कार्बोनेट का निर्माण करता है। यह कार्बोनेट ठोस पदार्थ के रूप में जमा होता रहता है। इस कारण हाइड्रॉक्साइड की निरंतर पूर्ति करना पड़ती है। दिक्कत यह है कि हाइड्रॉक्साइड के निर्माण में काफी उर्जा खर्च होती है।     

इसके समाधान के लिए कानन और उनके सहयोगियों ने कार्बन डाईऑक्साइड की जगह कार्बन मोनोऑक्साइड का उपयोग किया जो हाइड्रॉक्साइड से क्रिया करके कार्बोनेट में परिवर्तित नहीं होती है। उन्होंने इस सेल को अधिक कुशल पाया। इसमें उत्प्रेरक को प्रदत्त 75 प्रतिशत इलेक्ट्रॉन ने एक कार्बनिक यौगिक एसीटेट का निर्माण किया जिसे औद्योगिक सूक्ष्मजीवों के आहार के रूप में उपयोग किया जा सकता है। इसमें बस एक समस्या है कि कार्बन मोनोऑक्साइड के लिए जीवाश्म र्इंधन की आवश्यकता होती है जो पर्यावरण के लिए हानिकारक है।

इसके बाद युनिवर्सिटी ऑफ टोरंटो के रसायनयज्ञ और उनकी टीम ने कुछ प्रयास किए हैं। उन्होंने बाज़ार में उपलब्ध ठोस ऑक्साइड विद्युत-रासायनिक सेल का उपयोग किया जो उच्च तापमान पर कार्बन डाईऑक्साइड को कार्बन मोनोऑक्साइड में परिवर्तित करती है और नवीकरणीय बिजली का उपयोग करती है। इस प्रक्रिया में विद्युत-रासायनिक सेल के उत्प्रेरक को इस तरह तैयार किया जाता है कि वे कार्बन मोनोऑक्साइड के संपर्क में आने पर एथीलीन का निर्माण करें। यह एसीटेट से अधिक उपयोगी रसायन है। जूल में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार यह सेल हाइड्रॉक्साइड का उपयोग नहीं करती और एथीलीन का निर्माण होता है।

इसके अलावा यैंग और उनके सहयोगियों ने क्षारीयता की समस्या को सुलझाने का एक और तरीका खोजा है। उन्होंने क्षारीय विद्युत-रासायनिक सेल के उत्प्रेरक को इस तरह से डिज़ाइन किया है कि पानी और हाइड्रॉक्साइड कार्बन डाईऑक्साइड के टूटने के स्थान पर नहीं पहुंच पाते। तो कार्बोनेट भी नहीं बनता। लेकिन ये सेल अभी भी कार्बन मोनोऑक्साइड और पानी से प्राप्त हाइड्रोजन को एथीलीन व अन्य हाइड्रोकार्बन में परिवर्तित नहीं करती।

लेकिन इस शोध का पूरा दारोमदार सिर्फ विद्युत रासायनिक सेल पर नहीं है। जैसे-जैसे पवन/सौर उर्जा का उत्पादन बढ़ रहा है, नवीकरणीय ऊर्जा सस्ती होती जा रही है। सस्ती ऊर्जा से विद्युत रासायनिक सेल की दक्षता में सुधार होगा और यह एथीलीन उत्पादन के मामले में जीवाश्म र्इंधन के समकक्ष आ जाएगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_image_-1280w__no_aspect/public/ca_0226NID_Polyethylene_Production_online.jpg?itok=Rq4_L0n4

पीपीई किट से जन्मी नई समस्या – सुदर्शन सोलंकी

लीडेन युनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं द्वारा किए गए अध्ययन से पता चला है कि पीपीई कचरा दुनिया भर में जीव-जंतुओं की जान ले रहा है। यह अध्ययन एनिमल बायोलॉजी में प्रकाशित हुआ है। कोविड-19 से बचने के लिए सामाजिक दूरी रखना और बड़े पैमाने पर दस्ताने व मास्क जैसे व्यक्तिगत सुरक्षा उपकरणों (पीपीई) का उपयोग एक मजबूरी है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन का अनुमान है कि दुनिया भर में कोरोना से बचने के लिए मेडिकल स्टाफ को हर महीने करीब 8 करोड़ दस्ताने, 16 लाख मेडिकल गॉगल्स और 9 करोड़ मेडिकल मास्क की ज़रूरत पड़ रही है। आम लोगों द्वारा उपयोग किए जा रहे मास्क की संख्या तो अरबों में पहुंच चुकी है। एक अन्य शोध से पता चला है कि वैश्विक स्तर पर हर वर्ष औसतन 12,900 करोड़ फेस मास्क और 6500 करोड़ दस्तानों का उपयोग किया जा रहा है। हांगकांग के सोको आइलैंड पर सिर्फ 100 मीटर की दूरी में 70 मास्क पाए गए थे, जबकि यह एक निर्जन स्थान है।

उपयोग पश्चात ठीक निपटान न होने व यहां-वहां फेंकने से सड़कों पर फैला यह मेडिकल कचरा इंसानों के साथ-साथ पशुओं के लिए भी खतरनाक है, और समुद्र में पहुंचकर जलीय जीवों को भी नुकसान पहुंचा रहा है।

सबसे अधिक प्रभावी अधिकांश थ्री-लेयर मास्क पॉलीप्रोपायलीन के और दस्ताने व पीपीई किट रबर व प्लास्टिक से बने होते हैं। प्लास्टिक की तरह ये पॉलीमर्स भी सैकड़ों सालों तक पर्यावरण के लिए खतरा बने रहेंगे।

पीपीई किट से महामारी से सुरक्षा तो हो रही है लेकिन इनके बढ़ते कचरे ने एक नई समस्या को जन्म दिया है। शोध से पता चला है कि यह कचरा ज़मीन पर रहने वाले जीवों के साथ ही जल में रहने वाले जीवों को भी प्रभावित कर रहा है। जीव इनमें फंस रहे हैं और उनके द्वारा कई बार इन्हें निगलने के मामले भी सामने आए हैं।

शोधकर्ताओं ने पहली बार लीडेन की नहर में एक मछली को लेटेक्स से बने दस्ताने में उलझा पाया था। आगे खोजबीन में यूके में लोमड़ी, कनाडा में पक्षी, हेजहॉग, सीगल, केंकड़े और चमगादड़ वगैरह इन मास्क में उलझे पाए गए। मछलियां पानी में तैरते मास्क और प्लास्टिक कचरे को अपना भोजन समझ रही हैं। विशेषकर डॉल्फिन पर तो बड़ा संकट है क्योंकि वे तटों के करीब आ जाती हैं।

संस्थान क्लीन-सीज़ की प्रमुख लौरा फॉस्टर का कहना है कि आपको नदियों में बहते मास्क दिख जाएंगे। कई बार ये मास्क आपस में उलझकर जाल-सा जैसे बना लेते हैं और जीव-जंतु इसमें फंस जाते हैं। कई बार ये आग लगने का कारण भी बनते हैं। ये सड़ते नहीं लेकिन टुकड़ों-टुकड़ों में बिखर सकते हैं। ऐसे में समुद्र में माइक्रोप्लास्टिक और बढ़ जाता है।

कई बार पक्षियों को इस कचरे को घोंसले के लिए भी इस्तेमाल करते हुए पाया गया है। नीदरलैंड्स में कूट्स पक्षियों को अपने घोंसले के लिए मास्क और ग्लव्स का उपयोग करते पाया गया था। यह इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि कई जानवरों में भी कोविड-19 के लक्षण सामने आए हैं।

पर्यावरणविदों ने चेतावनी दी है कि अगर यह मेडिकल कचरा जंगलों तक पहुंच गया तो परिणाम भीषण और दूरगामी होंगे। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://akm-img-a-in.tosshub.com/indiatoday/images/story/202008/ppe-kits-garbage-pti.jpeg?w6mWtXmeyZATl4ZCieVlUG_Mm73ZaWIe&size=1200:675

गर्मी में गर्म पेय ठंडक पहुंचा सकते हैं!

र्मी का मौसम आते ही गन्ने का रस, जलज़ीरा, नींबू पानी जैसे ठंडे पेय की दुकानें सज जाती है। ठंडे पेय लोगों को गर्मी से राहत देते हैं। किंतु कुछ लोगों का ऐसा भी कहना है कि गर्म पेय भी गर्मियों में ठंडक पहुंचा सकते हैं। अब तक वैज्ञानिकों को इस पर संदेह रहा है क्योंकि गर्म चीज़ें पीकर तो आप शरीर को ऊष्मा दे रहे हैं। लेकिन हाल ही में हुआ एक अध्ययन बताता है कि गर्मियों में कुछ विशेष परिस्थितियों में गर्म पेय वाकई आपको ठंडक दे सकते हैं।

होता यह है कि गर्म पेय पीने से हमारे शरीर की ऊष्मा में इज़ाफा होता है, जिससे हमें पसीना अधिक आता है। जब यह पसीना वाष्पीकृत होता है तो पसीने के साथ हमारे शरीर की ऊष्मा भी हवा में बिखर जाती है, जिसके परिणामस्वरूप हमारे शरीर की ऊष्मा में कमी आती है और हमें ठंडक महसूस होती है। शरीर की ऊष्मा में आई यह कमी उस ऊष्मा से अधिक होती है जितनी गर्म पेय पीने के कारण बढ़ी थी।

यह हो सकता है कि पसीना आना हमें अच्छा न लगता हो, लेकिन पसीना शरीर के लिए अच्छी बात है। ठंडक पहुंचाने में अधिक पसीना आना और उसका वाष्पन महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। पसीना जितना अधिक आएगा, उतनी अधिक ठंडक देगा लेकिन उस पसीने का वाष्पन ज़रूरी है।

यदि हम किसी ऐसी जगह पर हैं जहां नमी या उमस बहुत है, या किसी ने बहुत सारे कपड़े पहने हैं, या इतना अधिक पसीना आए कि वह चूने लगे और वाष्पीकृत न हो पाए, तो फिर गर्म पेय पीना घाटे का सौदा साबित होगा। क्योंकि वास्तव में तो गर्म पेय शरीर में गर्मी बढ़ाते हैं। इसलिए इन स्थितियों में जहां पसीना वाष्पीकृत न हो पाए, ठंडे पेय पीना ही राहत देगा।

गर्म पेय का सेवन ठंडक क्यों पहुंचाता है, यह जानने के लिए ओटावा विश्वविद्यालय के स्कूल फॉर ह्यूमन काइनेटिक्स के ओली जे और उनके साथियों ने प्रयोगशाला में सायकल चालकों पर अध्ययन किया। प्रत्येक सायकल चालक की त्वचा पर तापमान संवेदी यंत्र लगाए और शरीर के द्वारा उपयोग की गई ऑक्सीजन और बनाई गई कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा को नापने के लिए एक माउथपीस भी लगाया। ऑक्सीजन और कार्बन डाईऑक्साइड की मात्रा बताती है कि शरीर के चयापचय में कितनी ऊष्मा बनी। साथ ही उन्होंने हवा के तापमान और आर्द्रता के साथ-साथ अन्य कारकों की भी बारीकी से जांच की। इस तरह एकत्रित जानकारी की मदद से उन्होंने पता किया कि प्रत्येक सायकल चालक ने कुल कितनी ऊष्मा पैदा की और पर्यावरण में कितनी ऊष्मा स्थानांतरित की। देखा गया कि गर्म पानी (लगभग 50 डिग्री सेल्सियस तापमान पर) पीने वाले सायकल चालकों के शरीर में अन्य के मुकाबले में कम ऊष्मा थी।

वैसे यह अभी पूरी तरह स्पष्ट नहीं है कि गर्म पेय शरीर को अधिक पसीना पैदा करने के लिए क्यों उकसाते हैं, लेकिन शोधकर्ताओं का अनुमान है कि ऐसा करने में गले और मुंह में मौजूद ताप संवेदकों की भूमिका होगी। इस पर आगे अध्ययन की ज़रूरत है।

फिलहाल शोधकर्ताओं की सलाह के अनुसार यदि आप नमी वाले इलाकों में हैं तो गर्मी में गर्म पानी न पिएं। लेकिन सूखे रेगिस्तानी इलाकों के गर्म दिनों में गर्म चाय की चुस्की ठंडक पहुंचा सकती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://live-production.wcms.abc-cdn.net.au/a3a7be363238b5a0e0b02c428713ac4b?impolicy=wcms_crop_resize&cropH=1080&cropW=1618&xPos=151&yPos=0&width=862&height=575

प्लास्टिक का कचरा और नई प्लास्टिक अर्थव्यवस्था – सोमेश केलकर

दुनिया भर में प्लास्टिक प्रदूषण का खतरा बढ़ता जा रहा है और अब समुद्र भी इससे अछूते नहीं हैं। सार्वजनिक दबाव का नतीजा राष्ट्र-आधारित नियम कायदों और स्वैच्छिक प्रयासों के पैबंदों रूप में ही सामने आया है। लेकिन ये इस व्यापक समस्या को संबोधित करने में प्राय: नाकाम ही रहे हैं। अब कॉर्पोरेशन्स के एक वैश्विक समूह ने राष्ट्र संघ के माध्यम से एक संधि-आधारित, समन्वित चक्रीय रणनीति की पहल की है। सवाल इतना ही है कि क्या यह रणनीति सफल होगी या अतीत के प्रयासों की तरह नाकाम रहेगी।

पहल

नवीन प्लास्टिक अर्थ व्यवस्था का विचार एलन मैककार्थर फाउंडेशन का है। विचार यह है कि इस अर्थ व्यवस्था में प्लास्टिक कभी भी एक कचरा या प्रदूषक नहीं बनेगा। फाउंडेशन ने तीन सुझाव दिए हैं ताकि एक चक्रीय प्लास्टिक अर्थ व्यवस्था हासिल की जा सके। फाउंडेशन का दावा है कि समस्यामूलक प्लास्टिक वस्तुओं को हटाकर, यह सुनिश्चित करके कि सारा प्लास्टिक पुन:उपयोग, पुनर्चक्रण और कंपोस्ट-लायक हो, हम एक ऐसी अर्थ व्यवस्था हासिल कर सकते हैं कि सारा प्लास्टिक अर्थ व्यवस्था में ही बना रहे और पर्यावरण से बाहर रहे।

एलन मैककार्थर फाउंडेशन के ही शब्दों में शून्य प्लास्टिक कचरा उत्पन्न करने वाली अर्थव्यवस्था के कुछ तत्व निम्नानुसार होंगे:

1. रीडिज़ाइनिंग, नवाचार और डीलिवरी के नए मॉडल्स अपनाकर समस्यामूलक तथा अनावश्यक प्लास्टिक पैकेजिंग से मुक्ति पाई जा सकती है।

1क – प्लास्टिक के कई लाभ हैं। लेकिन बाज़ार में कुछ समस्यामूलक वस्तुएं भी हैं जिन्हें हटाना होगा ताकि चक्रीय अर्थ व्यवस्था हासिल की जा सके। कहीं-कहीं तो उपयोगिता से समझौता किए बगैर प्लास्टिक पैकेजिंग को पूरी तरह समाप्त भी किया जा सकता है।

2. जहां संभव और प्रासंगिक हो, पुन:उपयोग के मॉडल को लागू किया जाए, पैकेजिंग में एक बार-उपयोग की ज़रूरत को समाप्त किया जाए।

2क – हालांकि पुन:चक्रण को बेहतर बनाना महत्वपूर्ण है, लेकिन मात्र पुन:चक्रण के दम पर हम प्लास्टिक सम्बंधी वर्तमान मुद्दों को नहीं निपटा सकते।

2ख – जहां भी प्रासंगिक हो, पुन:उपयोग के मॉडल को सामने लाया जाना चाहिए ताकि एकबार-उपयोग वाले पैकेजिंग की ज़रूरत कम से कम हो।

3. सारा प्लास्टिक पैकेजिंग 100 फीसदी पुन:उपयोग, पुनर्चक्रण या कंपोÏस्टग के लायक हो।

3क – इसके लिए बिज़नेस मॉडल्स, पदार्थों, पैकेजिंग और डिज़ाइन तथा पुन:प्रसंस्करण की टेक्नॉलॉजी में रीडिज़ाइन और नवाचार की ज़रूरत होगी।

3ख – कंपोÏस्टग-योग्य प्लास्टिक पैकेजिंग कोई रामबाण समाधान नहीं है बल्कि विशिष्ट अनुप्रयोगों के लिए कारगर होगा।

4. सारे प्लास्टिक पैकेजिंग का पुन:उपयोग, पुनर्चक्रण या कंपोÏस्टग किया जाएगा।

4क – कोई भी प्लास्टिक पर्यावरण, कचरा भराव स्थलों, इंसनरेटरों या कचरे-से-ऊर्जा संयंत्रों में नहीं पहुंचना चाहिए। ये चक्रीय प्लास्टिक अर्थ व्यवस्था के हिस्से नहीं हैं।

4ख – पैकेजिंग का उत्पादन व बिक्री करने वाले कारोबारियों की ज़िम्मेदारी मात्र उनके पैकेजिंग का डिज़ाइन करने व उपयोग करने तक सीमित नहीं है; उन्हें यह भी ज़िम्मेदारी लेनी होगी कि उस प्लास्टिक का वापिस संग्रह किया जाए, पुन:चक्रण किया जाए या कंपोस्ट किया जाए।

4ग – कारगर संग्रह के लिए अधोरचना बनाने, सम्बंधित आत्म-निर्भर वित्त-पोषण की व्यवस्थाएं बनाने तथा उपयुक्त नियामक व नीतिगत माहौल तैयार करने के लिए सरकारों की भूमिका अनिवार्य है।

5. प्लास्टिक उपयोग को सीमित संसाधनों के उपभोग से पूरी तरह पृथक करना होगा।

5क – इस पृथक्करण का सबसे पहला चरण वर्जिन प्लास्टिक के उपयोग को कम करना होगा (पुन:उपयोग और पुन:चक्रण के माध्यम से)

5ख – पुन:चक्रित पदार्थों का उपयोग ज़रूरी है (जहां तकनीकी व कानूनी रूप से संभव हो) ताकि सीमित संसाधनों से इसे मुक्त किया जा सके और संग्रह व पुन:चक्रण को बढ़ावा दिया जा सके।

5ग – धीरे-धीरे प्लास्टिक का समस्त उत्पादन व पुन:चक्रण नवीकरणीय ऊर्जा से किया जाना चाहिए।

6. सारा प्लास्टिक पैकेजिंग हानिकारक रसायनों से मुक्त हो और सम्बंधित पक्षों के स्वास्थ्य व सुरक्षा अधिकारों का सम्मान किया जाए।

6क – पैकेजिंग, और उसके उत्पादन व पुन:चक्रण की प्रक्रियाओं में हानिकारक रसायनों का उपयोग समाप्त होना चाहिए।

6ख – प्लास्टिक कारोबार के समस्त क्षेत्रों में शामिल सारे लोगों के स्वास्थ्य, सुरक्षा व अधिकारों का सम्मान ज़रूरी है, खास तौर से अनौपचारिक क्षेत्र के कामगारों (कचरा बीनने वालों) के संदर्भ में।

राष्ट्र संघ संधि

दी बिज़नेस केस फॉर दी यूएन ट्रीटी ऑन प्लास्टिक पोल्यूशन (प्लास्टिक प्रदूषण पर राष्ट्र संघ संधि के लिए कारोबार का पक्ष) विश्व प्रकृति निधि (डब्लू.डब्लू.एफ.), एलन मैककार्थर फाउंडेशन तथा बोस्टन कंसÏल्टग ग्रुप द्वारा प्रस्तुत एक रिपोर्ट है। इन संस्थाओं का प्रयास है कि प्लास्टिक प्रदूषण पर एक नई राष्ट्र संघ संधि विकसित हो।

इस रिपोर्ट के आधार पर प्रमुख कंपनियों ने 13 अक्टूबर 2020 को आव्हान किया था कि प्लास्टिक प्रदूषण पर एक राष्ट्र संघ संधि तैयार की जाए ताकि नियमन के टुकड़ा-टुकड़ा ढांचे की समस्या को संबोधित किया जा सके और वर्तमान स्वैच्छिक प्रयासों को व्यवस्थित रूप दिया जा सके।

इस तरह की संधि पर बातचीत शुरू करने के लिए एक प्रस्ताव राष्ट्र संघ पर्यावरण सभा के पांचवे सत्र में फरवरी 2021 में पेश हुआ था। इसमें सभा ने प्लास्टिक प्रदूषण को एक समस्या के रूप में मान्यता दी और 2017 में राष्ट्र संघ पर्यावरण सभा द्वारा निर्धारित छानबीन के उपरांत यह स्वीकार किया कि प्लास्टिक प्रदूषण सम्बंधी वर्तमान कानूनी प्रावधान अपर्याप्त हैं।

क्या यह सफल होगा?

ऐसी किसी योजना की सफलता की संभावना कुछ वर्षों पूर्व नगण्य ही होती। अलबत्ता, हाल ही में जैविक विकल्पों में हुई तरक्की ने एक ऐसी अंतर्राष्ट्रीय संधि के लिए पृष्ठभूमि तैयार कर दी है जो व्यावसायिक नवाचारों को बढ़ावा दे।

कोका कोला इस मामले में नवीन टेक्नॉलॉजी को अपनाने में आगे आया है और उसने 2009 में अमरीका के कुछ प्रांतों में ‘प्लांटबॉटल’ (‘PlantBottel’) लॉन्च की है।

इसके अलावा, पेट्रोकेमिकल पुन:चक्रण की अगली पीढ़ी की टेक्नॉलॉजी के विकास ने यह संभावना पैदा कर दी है कि फोम, पोलीस्टायरीन, पोलीथीन जैसे मुश्किल से पुन:चक्रित प्लास्टिक्स और मिश्रित कचरे का पुन:चक्रण किया जा सके।

यूएस के नीति निर्माताओं ने इस क्षेत्र में आर्थिक विकास की संभावना को पहचाना है। हाल ही में यूएस के ऊर्जा विभाग ने डेलावेयर विश्वविद्यालय को उसके नए सेंटर फॉर प्लास्टिक इनोवेशन के लिए 1.16 करोड़ डॉलर का वित्तीय समर्थन दिया है। ऐसा माना जा रहा है कि यह अनुसंधान एकबार-उपयोग वाले प्लास्टिक पैकेजिंग के क्षेत्र में और अन्य क्षेत्रों में भी 100 फीसदी पुन:चक्रण योग्य उत्पाद बनाने के प्रयासों में मददगार होगा। एडिडास द्वारा 100 प्रतिशत पुन:चक्रण योग्य जूतों का विकास इसी का एक उदाहरण है।

सन 2020 में यूएस के ऊर्जा विभाग ने 12 नए प्रोजेक्ट्स के लिए 2.7 करोड़ डॉलर की सहायता का वचन दिया है। इनमें जैविक उत्पादों के विकास के प्रोजेक्ट्स शामिल हैं।

इसके अलावा, यूएस में कुछ एकबारी उपयोग वाले प्लास्टिक पैकेजिंग उपयोगकर्ता अब प्लास्टिक संसाधनों के विकास के लिए अपने आपूर्तिकर्ताओं पर निर्भर नहीं हैं। वे स्वयं ऐसे अनुसंधान को वित्तीय सहायता दे रहे हैं जो ज़्यादा टिकाऊ उत्पाद व कच्चा माल तैयार करने में मददगार हो। इसका एक उदाहरण लोरियाल है जिसने पीईटी बोतलों के विकास के लिए फ्रांसीसी जैव-औद्योगिक अनुसंधान कंपनी कार्बिओस के साथ आणविक-स्तर की पुन:चक्रण टेक्नॉलॉजी पर काम शुरू किया है।

बिज़नेस की दृष्टि

यूएस की कंपनियों के उपरोक्त प्रयासों के अलावा, हाई-टेक पुन:चक्रण के क्षेत्र नवीन आर्थिक गतिविधियों का एक संकेत पेनसिल्वेनिया की प्रांतीय सीनेट में पारित एक विधेयक से भी मिलता है। इस विधेयक के तहत पुन:चक्रण को एक अलग क्षेत्र मानने की बजाय निर्माण उद्योग का ही अंग माना जाएगा। इस कदम से पता चलता है कि पारंपरिक कचरे-से-ऊर्जा की दहन टेक्नॉलॉजी और आधुनिक पायरोलिसिस टेक्नॉलॉजी में कितना अंतर है।

दहन के विपरीत पायरोलिसिस एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें प्लास्टिक को पिघलाकर पुन: उपयोग के काबिल कच्चे माल में परिवर्तित किया जाता है और इसमें गैसों का उत्सर्जन भी बहुत कम होता है। पायरोलिसिस का इस्तेमाल प्लास्टिक से तरल र्इंधन प्राप्त करने में भी किया जा सकता है। अलबत्ता, इस प्रक्रिया के लिए जो ऊर्जा लगती है, उसके लिए पर्यावरण-अनुकूल मार्ग खोजने की ज़रूरत है और पेनसिल्वेनिया में यही कोशिश चल रही है। सौर ऊर्जा के उपयोग पर काम चल रहा है।

पेनसिल्वेनिया में चल रहे प्लास्टिक पुन:चक्रण के अगली पीढ़ी के इन प्रयासों की खास बात यह है कि इनमें सरकार एक भागीदार है और यह ऊर्जा विभाग की एक वर्तमान योजना का हिस्सा है। यह एक और उदाहरण है कि प्लास्टिक पुन:चक्रण की उपलब्ध टेक्नॉलॉजी को व्यवहार में उतारने की ज़रूरत है।

उपभोक्ता की दृष्टि

प्लास्टिक में कमी लाने के सारे प्रयासों के लिए सबसे महत्वपूर्ण घटक उपभोक्ताओं का समर्थन है और इसका अभाव भी सबसे ज़्यादा है। निजी आदतों को बदलना मुश्किल होता है और दुनिया के कई हिस्सों में पुन:चक्रण के क्षेत्र में धीमी प्रगति इसका प्रमाण है। भारत में भी यदि हम अपने घरों के बाहर नज़र डालें तो देख सकते हैं कि हममें से कितने लोग कचरे का पृथक्करण करते हैं और उसे कचरा गाड़ियों में सही जगह पर डालते हैं। लेकिन एकल-उपयोग प्लास्टिक की बजाय पुन:उपयोगी पैकेजिंग के उपयोग को बढ़ावा देने के लिए उपभोक्ताओं की भागीदारी ज़रूरी है और इस बात के प्रमाण मिल रहे हैं कि प्लास्टिक प्रदूषण की रोकथाम की जागरूकता बढ़ रही है। विश्व प्रकृति निधि व अन्य संस्थाओं के प्रयासों से प्लास्टिक प्रदूषण का संकट मुख्यधारा के विमर्श का हिस्सा बन गया है।

बिज़नेस केस फॉर ए यूएन ट्रीटी में कहा गया है, “दुनिया भर में प्लास्टिक प्रदूषण को नंबर तीन का पर्यावरणीय संकट माना गया है।” रिपोर्ट में 2017 को एक निर्णायक मोड़ का बिंदु भी कहा गया है। यूएस में एक अध्ययन में पाया गया कि “प्लास्टिक को उपभोक्ता वस्तुओं में सबसे नकारात्मक पदार्थ माना जाता है। और अध्ययन में शामिल किए गए 65 प्रतिशत उपभोक्ताओं ने माना था इसका सम्बंध समुद्री प्रदूषण से है और 75 प्रतिशत ने इसे पर्यावरण के लिए हानिकारक माना था।”

भारत में क्रियांवयन

पूर्व के अध्ययनों के लिए उदाहरण यूएस से लिए गए थे क्योंकि वहां प्लास्टिक की एक चक्राकार अर्थ व्यवस्था सम्बंधी छिटपुट प्रयास शुरू हो चुके हैं। अब भारत पर एक नज़र डालते हैं। कुछ मायनों में भारत एक अनूठा देश है। इसलिए यहां ऐसी चक्राकार अर्थ व्यवस्था के विकास के समक्ष कुछ विशिष्ट चुनौतियां उपस्थित होंगी। उदाहरण के लिए, सड़कों-गलियों में कचरा फेंकना हमारे यहां बहुत बुरी बात नहीं माना जाता। इसलिए इस बात पर अमल करना थोड़ा मुश्किल होगा कि कोई प्लास्टिक पर्यावरण में न पहुंचे।

चक्राकार प्लास्टिक अर्थ व्यवस्था के लिए जो भी कारोबारी मॉडल अपनाया जाए, वह सरकार व बिज़नेस दोनों के लिए लाभदायक होना चाहिए। बिज़नेस को अपने उत्पादन के तौर-तरीकों में बदलाव करने होंगे ताकि प्लास्टिक कचरे को कम करने के नए तरीकों का समावेश किया जा सके। आम तौर पर सरकार के पास ऐसा कोई कदम उठाने का प्रलोभन नहीं होता जिससे वोट का सम्बंध न हो। देश में शिक्षा की अल्प अवस्था को देखते हुए शायद अधिकांश लोगों ने नई प्लास्टिक अर्थ व्यवस्था के बारे में सुना तक न होगा। यदि इस नए मॉडल को लागू करने से उद्योगों का मुनाफा कम होता है, तो वे शायद ऐसी नवीन चक्राकार प्लास्टिक अर्थ व्यवस्था के विरुद्ध मुहिम शुरू कर दें। और आम लोगों को ऐसे मॉडल को अपनाने के लिए प्रेरित करने के कोई तरीके भी नहीं हैं। लोगों को पुन:चक्रण के लिए तैयार करने के लिए कुछ तो नगद प्रलोभन देना होगा। लेकिन प्राय: देखा गया है कि ऐसे प्रलोभन गलत व्यवहार को बढ़ावा देने लगते हैं।

निष्कर्ष

यह सही है कि नई प्लास्टिक अर्थ व्यवस्था के लिए राष्ट्र संघ संधि सही दिशा में एक कदम है, लेकिन किसी इकलौते मॉडल को सब जगह लागू करना मुश्किल है क्योंकि हर देश की अपनी विशिष्ट चुनौतियां हैं। अभी निश्चित तौर पर नहीं कहा जा सकता कि जहां अन्य मॉडल्स नाकाम रहे हैं, वहां यह नया मॉडल किस हद तक सफल होगा। ज़रूरत यह है कि मात्र पुन:चक्रण, कंपोस्टिग और पुन:उपयोग से आगे बढ़कर कोई ऐसी चीज़ आज़माई जाए जो बदलाव पैदा कर दे।

एक नज़रिया तो यह है कि भरपूर उपयोग करके फिर कचरे को ठिकाने लगाने के बारे में सोचने की बजाय गैर-ज़रूरी उपयोग को कम किया जाए। अधिक उपभोग ही प्लास्टिक कचरे के पर्यावरण में जमा होने का प्रमुख कारण है। शायद चक्राकार अर्थ व्यवस्था में इस बात पर काफी ध्यान दिया जाना चाहिए कि हम मात्र ज़रूरी कार्यों में प्लास्टिक का उपयोग करें और जहां संभव हो वहां पुन:उपयोग करें। बहरहाल, नवीन प्लास्टिक अर्थ व्यवस्था एक अनोखा मॉडल है जो रोचक है और इस बात को लेकर एक ताज़ातरीन नज़रिया देता है कि हम कचरे के साथ कैसे व्यवहार करते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.ellenmacarthurfoundation.org/assets/images/_bigImage/NPEC-vision-EMFlogo.png

जलवायु बदलाव के दौर में कृषि – भारत डोगरा

लवायु बदलाव का संकट तेज़ी से विश्व के सबसे बड़े पर्यावरणीय संकट के रूप में उभरा है। जीवन के विभिन्न महत्त्वपूर्ण पक्षों के संदर्भ में इस संकट को समझना ज़रूरी हो गया है। भारत में आजीविका का सबसे महत्त्वपूर्ण स्रोत कृषि व इससे जुड़े विभिन्न कार्य हैं। अत: खेती-किसानी, पशुपालन, वृक्षारोपण आदि के संदर्भ में जलवायु बदलाव के संकट को समझना आवश्यक है।

पहला सवाल है कि खेती-किसानी पर जलवायु बदलाव का क्या असर पड़ सकता है? यह असर बहुत व्यापक व गंभीर हो सकता है। मौसम पहले से कहीं अधिक अप्रत्याशित व प्रतिकूल हो सकता है। प्राकृतिक आपदाएं बढ़ सकती हैं। जल संकट अधिक विकट हो सकता है। मौसम में बदलाव के साथ ऐसी कई समस्याएं पैदा हो सकती हैं जो पहले नहीं थीं। किसानों, पशुपालकों, घुमंतू समुदायों, वन-श्रमिकों आदि के लिए कुछ स्वास्थ्य समस्याएं बढ़ सकती हैं।

अगला प्रश्न है कि इसके लिए कैसी तैयारी लगेगी? इसके लिए खेती-किसानी के खर्च को तेज़ी से कम किया जाए व किसान-समुदायों की आत्म-निर्भरता को तेज़ी से बढ़ाया जाए। यदि किसान रासायनिक खाद, कीटनाशकों आदि पर निर्भरता कम कर लें और विविधता भरे परंपरागत बीजों को संजो लें तो खर्च बहुत कम हो जाएगा, कर्ज़ घटेगा व विपरीत स्थिति का सामना करने में वे अधिक समर्थ हो जाएंगे। स्थानीय निशुल्क उपलब्ध संसाधनों (जैसे गोबर, पत्ती की खाद, स्थानीय पौधों या नीम जैसी वनस्पतियों से प्राप्त छिड़काव) से आत्म-निर्भरता बढ़ जाएगी। परांपरागत बीज संजोने व संग्रहण करने, उनकी जानकारी बढ़ाने, उन्हें आपस में बांटने से आत्म-निर्भरता आएगी, प्रतिकूल या बदले मौसम के अनुकूल बीज भी परंपरागत विविधता भरे बीजों में से मिल जाएंगे।

आपदा-प्रबंधन व कठिन समय में सहायता के लिए सरकारी बजट बढ़ाना चाहिए। जल व मिट्टी संरक्षण पर अधिक ध्यान देना चाहिए व यह कार्य लोगों की नज़दीकी भागीदारी से होना चाहिए। यह कार्य, हरियाली बढ़ाने व वन-रक्षा के कार्य बड़े पैमाने पर, विशेषकर भूमिहीन परिवारों को रोज़गार देते हुए, होने चाहिए ताकि सभी ग्रामीण परिवारों का आजीविका आधार मज़बूत हो सके। इसके अलावा भूमिहीन परिवारों के लिए न्यूनतम भूमि की व्यवस्था भी ज़रूरी है।

कृषि व सम्बंधित आजीविकाओं की मज़बूती के कार्य में विकेंद्रीकरण बढ़ाना चाहिए व गांव समुदायों, ग्राम सभाओं व ग्राम पंचायतों की क्षमता व संसाधनों में भरपूर वृद्धि होनी चाहिए ताकि उन्हें बाहरी मार्गदर्शन पर निर्भर न होना पड़े व बदलती स्थिति में स्थानीय ज़रूरतों के अनुकूल निर्णय वे स्वयं ले सकें। अति-केंद्रीकृत निर्णय ऊपर से लादने की प्रवृत्ति आज भी कठिनाइयां उत्पन्न करती है व जलवायु बदलाव के दौर में ये कठिनाइयां और बढ़ सकती हैं।

आदिवासी क्षेत्रों में यह और भी महत्त्वपूर्ण हैं। वन-रक्षा के प्रयासों में भी आदिवासियों व वनों के पास के समुदायों की भूमिका को तेज़ी से बढ़ाना चाहिए।

तीसरा सवाल यह है कि जलवायु बदलाव के संकट को कम करने में कृषि का योगदान कैसे व कितना हो सकता है। यह योगदान बहुत महत्वपूर्ण हो सकता है। मज़े की बात तो यह है कि जिन उपायों से कृषि को जलवायु बदलाव का सामना करने में मदद मिलेगी, कमोबेश वही उपाय ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन कम करने व इस तरह जलवायु बदलाव का संकट कम करने में भी मददगार हो सकते हैं। रासायनिक खाद व कीटनाशक दवाइयों पर निर्भरता कम करने से किसानों के खर्च कम होंगे तो साथ में उनके उत्पादन, यातायात व उपयोग से जुड़ी ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन भी कम होगा। यदि छोटे नदी-नालों व नहरों से पानी उठाने के लिए डीज़ल के स्थान पर मंगल टरबाईन का उपयोग होगा, तो इससे किसानों का खर्च भी कम होगा व ग्रीनहाऊस गैसों का उत्सर्जन भी कम होगा। यदि चारागाह बचेंगे व हरियाली बढ़ेगी तथा मिट्टी संरक्षण के उपाय होंगे तो इससे किसानों की आजीविका बढ़ेगी पर साथ में इससे ग्रीनहाउस गैसों को सोखने की क्षमता भी बढ़ेगी।

अत: इस बारे में उचित समझ बनाते हुए परंपरागत ज्ञान व नई वैज्ञानिक जानकारी का समावेश करते हुए हमें ऐसी कृषि की ओर बढ़ना है जो किसान की टिकाऊ आजीविका को मज़बूत करे है, आत्म-निर्भरता को बढ़ाए, खर्च व कर्ज़ कम करे व साथ में ग्रीनहाऊस गैसों का उत्सर्जन भी कम करे या उन्हें सोखने में मदद करे। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.ucsusa.org/sites/default/files/styles/original/public/images/fa-sus-climate-drought-soybeans.jpg?itok=cr5QRzxd

रसायन विज्ञान सुलझाएगा प्लास्टिक प्रदूषण की समस्या

र्ष 1907 में संश्लेषित प्लास्टिक के रूप में सबसे पहले बैकेलाइट का उपयोग किया गया था। वज़न में हल्का, मज़बूत और आसानी से किसी भी आकार में ढलने योग्य बैकेलाइट को विद्युत कुचालक के रूप में उपयोग किया जाता था।

प्लास्टिक आधुनिक दुनिया में काफी उपयोगी चीज़ है। देखा जाए तो प्लास्टिक उत्पादों की डिज़ाइन और निर्माण का एक प्रमुख घटक है। प्लास्टिक विशेष रूप से एकल उपयोग की चीज़ें बनाने में काम आता है – जैसे पानी की बोतलें और खाद्य उत्पादों के पैकेजिंग। फिलहाल प्रति वर्ष 38 करोड़ टन प्लास्टिक का उत्पादन होता है जो वर्ष 2050 तक 90 करोड़ टन होने की संभावना है।

लेकिन जिन जीवाश्म र्इंधनों से प्लास्टिक का निर्माण होता है उन्हीं की तरह प्लास्टिक के भी नकारात्मक पर्यावरणीय प्रभाव हो सकते हैं। एक अनुमान के मुताबिक 2050 तक 12 अरब टन प्लास्टिक लैंडफिल में पड़ा होगा और पर्यावरण को प्रदूषित कर रहा होगा। 2015 में इसकी मात्रा 4.9 अरब टन थी।

कचरे से ऊर्जा प्राप्त करने के लिए जो इंसिनरेटर उपयोग किए जाते हैं उनमें भी प्रमुख रूप से प्लास्टिक ही जलाया जाता है। इनमें भी काफी मात्रा में कार्बन उत्सर्जन होता है। कुछ वृत्त चित्रों में प्लास्टिक कचरे के कारण होने वाले पर्यावरणीय प्रदूषण पर ध्यान आकर्षित किया गया है।

वैसे आजकल प्लास्टिक पुनर्चक्रण किया जाता है लेकिन एक तो यह प्रक्रिया काफी खर्चीली है और पुनर्चक्रित प्लास्टिक कम गुणवत्ता वाले होते हैं और कमज़ोर भी होते हैं। आजकल बाज़ार में जैव-विघटनशील प्लास्टिक का भी उपयोग किया जा रहा है। इनका उत्पादन वनस्पति पदार्थों से किया जाता है या इनमें ऑक्सीजन या अन्य रसायन जोड़े जाते हैं ताकि ये समय के साथ सड़ जाएं। लेकिन ये प्लास्टिक सामान्य प्लास्टिक के पुनर्चक्रण में बाधा डालते हैं क्योंकि तब मिले-जुले पुनर्चक्रित प्लास्टिक की गुणवत्ता और भी खराब होती है। इन्हें अलग करना भी संभव नहीं होता।

ऐसे में अधिक निर्वहनीय प्लास्टिक का निर्माण रसायन विज्ञान का एक महत्वपूर्ण सवाल बन गया है। वर्तमान में शोधकर्ता प्लास्टिक कचरे को कम करने के प्रयास कर रहे हैं और साथ ही ऐसे प्लास्टिक बनाने की कोशिश कर रहे हैं जिनका बेहतर पुनर्चक्रण किया जा सके।

ऐसा एक प्रयास नेचर में प्रकाशित हुआ है। जर्मनी स्थित युनिवर्सिटी ऑफ कॉन्सटेंज़ के स्टीफन मेकिंग और उनके सहयोगियों ने एक नए प्रकार के पॉलिएथीलीन का वर्णन किया है। पॉलीएथीलीन (या पोलीथीन) सर्वाधिक इस्तेमाल होने वाला एकल-उपयोग प्लास्टिक है। मेकिंग द्वारा निर्मित पोलीथीन ऐसा पदार्थ है जिसकी अधिकांश शुरुआती सामग्री को पुर्नप्राप्त करके फिर से काम में लाया जा सकता है। वर्तमान पदार्थों और तकनीकों के साथ ऐसा कर पाना काफी मुश्किल है।

वैसे इस नए प्लास्टिक पर अभी और परीक्षण की आवश्यकता है। मौजूदा पुनर्चक्रण की अधोरचना पर इसके प्रभावों का आकलन भी करना होगा। इसके लिए मौजूदा पुनर्चक्रण केंद्रों में अलग प्रकार की तकनीक की आवश्यकता होगी। यदि इसके उपयोग को लेकर आम सहमति बनती है और इसे बड़े पैमाने पर किया जा सके तो पुनर्चक्रित प्लास्टिक के इस्तेमाल में वृद्धि होगी और शायद प्लास्टिक को पर्यावरण के लिए कम हानिकारक बनाया जा सकेगा।

वास्तव में प्लास्टिक आणविक इकाइयों की शृंखला से बने होते हैं। जाता है। पुन:उपयोग के लिए इस प्रक्रिया को उल्टा चलाकर शुरुआती पदार्थ प्राप्त करना कठिन कार्य है। प्लास्टिक पुनर्चक्रण में मुख्य बाधा यह है कि इकाइयों को जोड़ने वाले रासायनिक बंधनों को कम ऊर्जा खर्च करके इस तरह तोड़ा जाए कि मूल पदार्थों को पुनप्र्राप्त किया जा सके और एक बार फिर अच्छी गुणवत्ता का प्लास्टिक बनाने में इस्तेमाल किया जा सके।

वैसे तो इस तरीके की खोज में कई वैज्ञानिक समूह काम कर रहे थे लेकिन मेकिंग की टीम ने मज़बूत पॉलीएथीलीन-नुमा एक ऐसा पदार्थ विकसित किया जिसके रासायनिक बंधनों को आसानी से तोड़ा जा सकता है। इस प्रक्रिया में वैज्ञानिक लगभग सभी शुरुआती पदार्थ पुर्नप्राप्त करने में सफल रहे।

गौरतलब है कि इसी तरह की खोज एक अन्य टीम द्वारा भी की गई है। युनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया की सुज़ाना स्कॉट और उनके सहयोगियों ने एक उत्प्रेरक की मदद से पॉलीएथीलीन के अणुओं को तोड़कर अन्य किस्म की इकाइयां प्राप्त कीं जिनसे शुरू करके एक अलग प्रकार का प्लास्टिक बनाया जा सकता है। यह एक महत्वपूर्ण शोध है। इसे विभिन्न प्रकार के प्लास्टिक और बड़े पैमाने पर उपयोग में लाना चाहिए।

अलबत्ता, रसायन शास्त्र हमें यहीं तक ला सकता है। जब तक प्लास्टिक के उपयोग में वृद्धि जारी है, केवल पुनर्चक्रण से प्लास्टिक प्रदूषण को कम नहीं किया जा सकता है। प्लास्टिक को जलाने और इसे महासागरों या लैंडफिल में भरने से रोकने के लिए प्लास्टिक निर्माण की दर को कम करना होगा। कंपनियों को अपने प्लास्टिक उत्पादों के पूरी तरह से पुनर्चक्रण की ज़िम्मेदारी लेनी होगी। और इसके लिए सरकारों को अधिक नियम-कायदे बनाने होंगे और संयुक्त राष्ट्र की प्लास्टिक संधि को भी सफल बनाना होगा।

इसके लिए प्लास्टिक पैकेजिंग में शामिल 20 प्रतिशत कंपनियों ने न्यू प्लास्टिक्स इकॉनॉमी ग्लोबल कमिटमेंट के तरह यह वादा किया है कि प्लास्टिक पुनर्चक्रण में वृद्धि करेंगे। लेकिन हालिया रिपोर्ट दर्शाती है कि एकल-उपयोग प्लास्टिक को कम करने और पूर्ण रूप से पुन:उपयोगी पैकेजिंग को अपनाने में प्रगति उबड़-खाबड़ है।

ज़ाहिर है कि इस संदर्भ में कंपनियों को ठेलने की आवश्यकता है। यदि उन पर दबाव बनाया जाए कि उन्हें प्लास्टिक के पूरे जीवन चक्र की ज़िम्मेदारी लेनी होगी तो वे ऐसे पदार्थों का उपयोग करने को आगे आएंगी जिनका बार-बार उपयोग हो सके। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://media.nature.com/lw800/magazine-assets/d41586-021-00391-7/d41586-021-00391-7_18864090.jpg