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ग्लासगो में आयोजित 26वें संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन
सम्मेलन (कॉप-26) के शुरुआती दिनों में विश्व भर के राजनेताओं द्वारा जलवायु
परिवर्तन से निपटने के लिए कई घोषणाएं की गईं। इन घोषणाओं में चरणबद्ध तरीके से
कोयला-आधारित ऊर्जा संयंत्रों को वित्तीय सहायता बंद करने से लेकर वनों की कटाई पर
प्रतिबंध लगाना तक शामिल थे। नेचर पत्रिका ने इस वार्ता में अब तक लिए गए
निर्णयों और संकल्पों पर शोधकर्ताओं के विचार जानने के प्रयास किए हैं।
मीथेन उत्सर्जन
वार्ता के पहले सप्ताह में मीथेन उत्सर्जन को रोकने के प्रयासों पर चर्चा हुई
जो कार्बन डाईऑक्साइड के बाद जलवायु को सबसे अधिक प्रभावित करती है। 100 से अधिक
देशों ने वर्ष 2030 तक वैश्विक मीथेन उत्सर्जन को 30 प्रतिशत तक कम करने का संकल्प
लिया।
वैसे,
वैज्ञानिकों का मानना है कि 2030 तक मीथेन उत्सर्जन में 50
प्रतिशत तक की कमी करने का संकल्प बेहतर होता। फिर भी, वे 30
प्रतिशत को भी एक अच्छी शुरुआत के रूप में देखते हैं। शोध से पता चला है कि उपलब्ध
तकनीकों का उपयोग करके मीथेन उत्सर्जन पर अंकुश लगाने से वर्ष 2100 तक वैश्विक
तापमान में 0.5 डिग्री सेल्सियस की कमी आ सकती है।
गौरतलब है कि यूएस संसद में जलवायु के मुद्दे से जूझ रहे अमेरिकी राष्ट्रपति
ने ग्लासगो सम्मलेन में तेल और गैस उद्योगों द्वारा मीथेन उत्सर्जन को रोकने के
लिए नए नियमों की घोषणा की है। यूएस पर्यावरण सुरक्षा एजेंसी द्वारा प्रस्तावित
नियमों के मुताबिक कंपनियों को 2005 की तुलना में आने वाले दशक में मीथेन उत्सर्जन
में 74 प्रतिशत तक कमी करना होगी। ऐसा हुआ तो 2035 तक लगभग 3.7 करोड़ टन मीथेन
उत्सर्जन रोका जा सकेगा। यह अमेरिका में यात्री वाहनों और वाणिज्यिक विमानों से
होने वाले वार्षिक कार्बन उत्सर्जन के बराबर है।
भारत का नेट-ज़ीरो लक्ष्य
भारत की ओर से प्रधानमंत्री द्वारा वर्ष 2070 तक नेट-ज़ीरो कार्बन उत्सर्जन की
घोषणा उत्साह का केंद्र रही। वैसे भारत द्वारा निर्धारित समय सीमा कई अन्य देशों
से दशकों बाद की है और घोषणा में यह भी स्पष्ट नहीं है कि भारत केवल कार्बन
डाईऑक्साइड उत्सर्जन पर अंकुश लगाने के लिए प्रतिबद्ध है या इसमें अन्य ग्रीनहाउस
गैसें भी शामिल हैं। फिर भी यह काफी महत्वपूर्ण घोषणा है और अमल किया जाए तो अच्छे
परिणाम मिल सकते हैं।
वैसे सालों बाद नेट-ज़ीरो उत्सर्जन के संकल्पों को लेकर वैज्ञानिकों का मत है
इस तरह के दीर्घकालिक वादे करना तो आसान होता है लेकिन इन्हें पूरा करने के लिए
अल्पकालिक निर्णय लेना काफी कठिन होता है। लेकिन भारत के संकल्प में निकट-अवधि के
मापन योग्य लक्ष्य शामिल किए गए हैं। उदाहरण के लिए भारत ने 2030 तक देश की बिजली
का 50 प्रतिशत अक्षय संसाधनों के माध्यम से प्रदान करने और कार्बन डाईऑक्साइड
उत्सर्जन को एक अरब टन कम करने का वादा किया है। फिर भी इन लक्ष्यों को परिभाषित
और उनके मापन की प्रकिया पर सवाल बना हुआ है।
कुछ मॉडल्स से ऐसे संकेत मिलते हैं कि यदि सभी देशों द्वारा नेट-ज़ीरो संकल्पों
को लागू किया जाए तो 50 प्रतिशत संभावना है कि ग्लोबल वार्मिंग को 2 डिग्री सेल्सियस
या उससे कम तक सीमित किया जा सकता है।
जलवायु वित्त
वित्तीय क्षेत्र के 450 से अधिक संगठन जैसे बैंक, फंड
मेनेजर्स और बीमा कंपनियों ने 45 देशों में अपने नियंत्रण में 130 ट्रिलियन
अमेरिकी डॉलर के फंड को ऐसे क्षेत्रों में निवेश करने का निर्णय लिया है जो 2050
तक नेट-ज़ीरो उत्सर्जन के लिए प्रतिबद्ध हैं। हालांकि संस्थानों ने अभी तक इन
लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए कोई अंतरिम लक्ष्य या समय सारणी प्रस्तुत नहीं की
है।
सरकारों ने स्वच्छ प्रौद्योगिकियों में निवेश की भी घोषणा की है। यूके, पोलैंड,
दक्षिण कोरिया और वियतनाम सहित 40 देशों ने घोषणा की है
2030 तक (बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के लिए) या 2040 तक (वैश्विक स्तर पर) कोयला बिजली
संयंत्रों को चरणबद्ध रूप से समाप्त किया जाएगा और नए कोयला आधारित बिजली
संयंत्रों के लिए सरकारी धन के उपयोग पर रोक लगाई जाएगी।
एक दिक्कत यह है कि ऐसी घोषणाओं को आम तौर पर सरकारों द्वारा अनदेखा कर दिया
जाता है। उदाहरण के लिए 2009 में निम्न और मध्यम आय वाले देशों को 2020 तक जलवायु
वित्त के तौर पर वार्षिक 100 अरब डॉलर देने के वचन को पूरा करने में सरकारें विफल
रही हैं। रिपोर्ट के अनुसार इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए अभी 2 वर्ष का समय
और लगेगा और 70 प्रतिशत वित्त तो कर्ज़ के रूप में दिया जाएगा। ऐसे कर्ज़ों के
पीछे कई शर्तें छिपी रहती हैं।
निर्वनीकरण पर रोक
सम्मेलन में 130 से अधिक देशों ने 2030 तक वनों को होने वाली क्षति और
भूमि-क्षरण को रोकने का संकल्प लिया है। ब्राज़ील, डेमोक्रेटिक
रिपब्लिक ऑफ कांगो और इंडोनेशिया (जहां दुनिया के 90 प्रतिशत जंगल हैं) ने भी इस
संकल्प पर हस्ताक्षर किए हैं। गौरतलब है कि ऐसे संकल्प पहली बार नहीं लिए गए हैं।
2014 में न्यूयॉर्क डिक्लेरेशन ऑफ फॉरेस्ट में लगभग 200 से अधिक देशों, कंपनियों,
देशज समूहों और अन्य गठबंधनों ने 2020 तक वनों की कटाई दर
को आधा करने और 2030 तक इसे पूरी तरह खत्म करने का आह्वान किया था। इसमें जैव
विविधता को होने वाली क्षति को धीमा करने और अंततः उसको उलटने के लिए संयुक्त
राष्ट्र का लंबे समय से चला आ रहा संकल्प भी शामिल है। लेकिन बिना किसी आधिकारिक
निगरानी के यह निरर्थक ही है। शोधकर्ताओं के अनुसार एक प्रवर्तन तंत्र के बिना इन
लक्ष्यों को प्राप्त करना असंभव है।
इसके अलावा, उच्च आय वाले देशों के एक समूह ने 2021 और 2025 के बीच वन संरक्षण के लिए 12 अरब डॉलर का सरकारी वित्त प्रदान करने का संकल्प लिया था लेकिन यह स्पष्ट नहीं किया था कि यह धन राशि कैसे प्रदान की जाएगी। कनाडा, अमेरिका, यूके और युरोपीय संघ सहित कई देशों के संयुक्त वक्तव्य में बताया गया कि सरकारें “निजी क्षेत्र के साथ मिलकर काम करेंगी” ताकि “बड़े स्तर पर बदलाव के लिए निजी स्रोतों से धन मिल सके।” ज़ाहिर है, वित्त मुख्य रूप से ऋण के रूप में दिया जाएगा। फिर भी, ये निर्णय काफी आशाजनक हैं। पिछले कुछ जलवायु सम्मेलनों और इस वर्ष ग्लासगो में प्रकृति और वनों पर काफी चर्चाएं हुई हैं। इससे पहले की बैठकों में जैव विविधता पर बात नहीं होती थी। संयुक्त राष्ट्र जैव विविधता और जलवायु को अलग-अलग चुनौतियों के रूप में देखता था। इन विषयों पर चर्चा भविष्य के लिए काफी महत्वपूर्ण हो सकती है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://static.dw.com/image/59812388_101.jpg
अक्षय उर्जा की ओर बढ़ने में सबसे बड़ी वित्तीय बाधा जीवाश्म
ईंधनों को मिलने वाली सब्सिडी है। हर वर्ष, दुनिया
भर की सरकारें जीवाश्म ईंधनों की कीमत कम रखने के लिए लगभग 5 खरब डॉलर खर्च करती
हैं। यह नवीकरणीय उर्जा पर किए जाने वाले खर्च से तीन गुना अधिक है। इसे खत्म करने
के संकल्पों के बाद भी स्थिति बदली नहीं है।
वैसे,
इस तरह के परिवर्तन लाना असंभव नहीं है। जिनेवा स्थित एक शोध
समूह ग्लोबल सब्सिडीज़ इनिशिएटिव (जीएसआई) के अनुसार 2015 से 2020 के बीच लगभग 53
देशों ने अपनी जीवाश्म ईंधन सब्सिडी में सुधार किया है। इंटरनेशनल एनर्जी एजेंसी
(आईए) ने 2021 में जारी रिपोर्ट में कहा है कि नेट-ज़ीरो कार्बन उत्सर्जन के लिए
आने वाले वर्षों में सभी सरकारों को जीवाश्म ईंधन सब्सिडी को समाप्त करना होगा।
सब्सिडी के प्रकार
आम तौर पर जीवाश्म ईंधन पर दो प्रकार की सब्सिडी दी जाती हैं। पहली, उत्पादन सब्सिडी जिसमें कर में छूट से कोयला, तेल, या गैस की उत्पादन लागत में कमी होती है। यह पश्चिमी देशों में अधिक देखने को
मिलती हैं। आयल चेंज इंटरनेशनल, कनाडा के विश्लेषक ब्रॉनवेन
टकर के अनुसार यह सब्सिडी बुनियादी ढांचा स्थापित करने में उपयोगी होती है।
दूसरी उपभोग सब्सिडी होती हैं जो उपयोगकर्ताओं के लिए ईंधन के दामों में कमी
करती हैं। पेट्रोल पंपों पर दाम बाज़ार दर से कम रखे जाते हैं। यह सब्सिडी आम तौर
पर कम आय वाले देशों में अधिक देखने को मिलती है जहां लोग खाना पकाने के लिए
स्वच्छ ईंधन का खर्च नहीं उठा सकते हैं। मध्य पूर्व के देशों में इन सब्सिडीज़ को
लोगों को प्राकृतिक संसाधनों से लाभान्वित करने के रूप में देखा जाता है।
आईए और आर्गेनाईज़ेशन फॉर इकॉनॉमिक कोऑपरेशन एंड डेवलपमेंट (ओईसीडी) का अनुमान
है कि विश्व के 90 प्रतिशत जीवाश्म ईंधन की आपूर्ति करने वाली 52 उन्नत और उभरती
हुई अर्थव्यवस्थाओं ने 2017 से 2019 के बीच औसतन 555 अरब अमेरिकी डॉलर की सब्सिडी
प्रदान की है। हालांकि, 2020 में कोविड-19 महामारी के दौरान कम
ईंधन खपत और गिरते दामों के कारण यह 345 अरब डॉलर रही।
लेकिन कई संगठन सब्सिडी का अनुमान लगाने की प्रक्रिया से असहमत हैं। एक बड़ी
जटिलता यह है कि जीवाश्म ईंधन के कुछ सार्वजनिक फंडिंग में सब्सिडी और गैर-सब्सिडी
दोनों के तत्व मौजूद हैं। फिर भी पिछले वर्ष नवंबर में इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फॉर
सस्टेनेबल डेवलपमेंट (आईआईएसडी) ने सभी सार्वजनिक फंडिंग को ध्यान में रखते हुए
अनुमान लगाया है कि केवल G20 समूह के देशों ने 2017 से
2019 के बीच प्रति वर्ष 584 अरब डॉलर की सब्सिडी दी है जो ओईसीडी-आईए के विश्लेषण
से काफी अधिक है। इनमें सबसे बड़े सब्सिडी प्रदाताओं में चीन, रूस,
सऊदी अरब और भारत शामिल हैं।
कुछ विश्लेषकों का तर्क है कि जीवाश्म ईंधनों की छिपी हुई लागत जैसे वायु
प्रदूषण और ग्लोबल वार्मिंग पर उनके प्रभाव को अनदेखा करना भी एक प्रकार की
सब्सिडी है। पिछले माह जारी एक रिपोर्ट में अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोश ने इन सभी
को ध्यान में रखते हुए 2020 में कुल जीवाश्म-ईंधन सब्सिडी की गणना 59 खरब डॉलर की
है जो वैश्विक जीडीपी का 9 प्रतिशत है।
सब्सिडी बंद करना कठिन क्यों?
एक बड़ी समस्या तो परिभाषा की है। G7 और G20
देशों ने अकार्यक्षम जीवाश्म ईंधन सब्सिडी को खत्म करने का वादा तो किया है लेकिन
उन्होंने इस जुम्ले को स्पष्ट रूप से परिभाषित नहीं किया है। कुछ देशों का तो दावा
है कि वे सब्सिडी देते ही नहीं हैं जिसे खत्म किया जाए। एक उदाहरण यूके का है जो
जीवाश्म ईंधन के उपयोग पर कुछ टैक्स को छोड़ देता है और सीधे अपने तेल और गैस
उद्योग का फंडिंग करता है।
इसके अलावा,
प्रत्येक राष्ट्र के पास जीवाश्म ईंधन पर सब्सिडी देने के
अपने कारण हैं जो अक्सर उनकी औद्योगिक नीतियों से जुड़े हैं। उत्पादन सब्सिडी को
हटाने में तीन मुख्य बाधाएं हैं। पहली, जीवाश्म ईंधन कंपनियां
राजनैतिक रूप से शक्तिशाली हैं। दूसरा, लोगों की नौकरी जाने का
खतरा। और तीसरा,
यह चिंता कि ऊर्जा की बढ़ती कीमतों से आर्थिक विकास में कमी
और मुद्रास्फीति में तेज़ी आ सकती है।
वैसे,
इन सभी बाधाओं को दूर किया जा सकता है। जैसे जीवाश्म ईंधन
कंपनियों को धन न देकर उसका उपयोग उर्जा की बढ़ती कीमतों के प्रभावों की भरपाई के
लिए किया जा सकता है। जीएसआई के अनुसार फिलीपींस, इंडोनेशिया, घाना और मोरक्को ने सब्सिडी हटाने की क्षतिपूर्ति करने के लिए नगद हस्तांतरण
और शिक्षा निधि और गरीब परिवारों को स्वास्थ्य बीमा जैसी सहायता प्रदान की है।
इसके साथ ही सरकार को जीवाश्म ईंधन श्रमिकों को वैकल्पिक रोज़गार खोजने में मदद की
भी योजना बनाना चाहिए।
ऊर्जा सब्सिडी को हटाने के लिए राजनैतिक झिझक को दूर करने का एक तरीका यह है
कि समर्थन जारी रखा जाए किंतु उसे हरित ऊर्जा को बढ़ावा देने से जोड़ दिया जाए।
जीवाश्म ईंधन उद्योगों को नवीकरणीय उर्जा के क्षेत्र में कदम रखना चाहिए। उदाहरण
के लिए,
डेनमार्क की ओर्स्टेड नामक एक सरकारी कंपनी जीवाश्म ईंधन से
विश्व की सबसे बड़ी नवीकरणीय उर्जा उत्पादक में परिवर्तित हुई है।
इसके अतिरिक्त, तेल की कम कीमतों के दौरान खपत सब्सिडीज़ को
हटाना एक अच्छा विचार है। आईआईएसडी के अनुसार, तेल का
आयात करने वाले देश भारत ने तेल की कम कीमतों का लाभ उठाते हुए 2014 से 2019 के
बीच तेल और गैस सब्सिडी काफी कम कर दी है।
तेल की कम कीमतों ने सऊदी अरब को अपने भारी सब्सिडी वाले घरेलू जीवाश्म ईंधन
और बिजली की कीमतों में वृद्धि करने में मदद की। इस देश ने 2016 से ईंधन की कीमतों
में धीरे-धीरे वृद्धि करके काफी तेज़ी से विकास किया है। इसने कम आय वाले परिवारों
को नगद मदद प्रदान करके मूल्य वृद्धि के प्रभावों को कुछ हद तक कम कर दिया है।
हालांकि,
कोविड-19 महामारी के मद्देनज़र कुछ कदम वापिस ले लिए गए हैं।
यह ध्यान रखना ज़रूरी है कि जलवायु नीतियां कम आय वाले समुदायों को नुकसान न
पहुंचाएं। जब 2019 में इक्वेडोर ने तेज़ी से ईंधन कर में वृद्धि की तो नागरिकों के
व्यापक विरोध ने सरकार को पुन: सब्सिडी शुरू करने को मजबूर किया। जब भारत ने
एलपीजी गैस के लिए अपनी सब्सिडी को कम किया तो उम्मीद थी कि ग्रामीण आबादी को खाना
पकाने के लिए मुफ्त एलपीजी सिलिंडर देकर ऊंची कीमतों की भरपाई हो जाएगी।
जलवायु परिवर्तन पर प्रभाव
आईआईएसडी की जुलाई की रिपोर्ट के अनुसार, 32
देशों में खपत सब्सिडी को हटाने से वर्ष 2025 तक उनके ग्रीनहाउस उत्सर्जन में औसतन
6 प्रतिशत की कमी आएगी। यह वर्ष 2018 की संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट से भी मेल
खाती है जिसमें जीवाश्म ईंधन को चरणबद्ध तरीके से खत्म करने से 2020 से 2030 तक
वैश्विक उत्सर्जन में 1 प्रतिशत से 11 प्रतिशत की कमी आ सकती है। इसका सबसे बड़ा
प्रभाव मध्य पूर्व और उत्तरी अफ्रीका में होगा। इस कमी की भरपाई नवीकरणीय उर्जा के
उपयोग को प्रोत्साहित करके की जा सकती है।
इंटरनेशनल रिन्यूएबल एनर्जी एजेंसी (आईआरईएनए) की एक रिपोर्ट के अनुसार
ऊर्जा-क्षेत्र की 634 अरब डॉलर सब्सिडी में से लगभग 70 प्रतिशत जीवाश्म ईंधन, 20 प्रतिशत अक्षय उर्जा, 6 प्रतिशत जैव ईंधन और 3
प्रतिशत परमाणु उर्जा के लिए है। इस प्रकार का असंतुलन पेरिस जलवायु लक्ष्यों को
प्राप्त करने में एक बड़ी बाधा है।
आईआरईएनए ने अपनी रिपोर्ट में एक खाका भी पेश किया है कि 2050 तक वैश्विक
तापमान में वृद्धि को 2 डिग्री सेल्सियस से कम रखने के लिए वैश्विक उर्जा सब्सिडी
में किस तरह के परिवर्तन करना होंगे।
परिवर्तन की संभावनाएं
ग्लासगो,
यूके में नवंबर में होने वाले जलवायु शिखर सम्मलेन COP26 से पहले इतालवी राष्ट्रपति ने जीवाश्म ईंधन सब्सिडी को चरणबद्ध तरीके से
समाप्त करने का विचार रखा है। इसी तरह इस वर्ष जनवरी में अमेरिकी राष्ट्रपति
बाइडेन ने जीवाश्म ईंधन सब्सिडी में कटौती करने के कार्यकारी आदेश जारी किए हैं
जिनका अनुमोदन संसद द्वारा होने के बाद ही लागू होंगे। रूस अभी भी जीवाश्म ईंधन पर
निर्भर है इसलिए वह लगभग 2060 तक कार्बन तटस्थ होने की कोशिश करेगा।
कुछ जलवायु अधिवक्ताओं ने उत्सर्जन में कमी के नाम पर नई टेक्नॉलॉजी के लिए नई
सब्सिडी के खिलाफ चेतावनी दी है। उदाहरण के लिए, ‘ब्लू’
हाइड्रोजन के लिए सब्सिडी का विचार प्रस्तुत किया जा रहा है। गौरतलब है कि ‘ब्लू’
हाइड्रोजन वास्तव में एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें जीवाश्म ईंधन से हाइड्रोजन बनाई
जाती है और इसके उप-उत्पाद के रूप में उत्सर्जित कार्बन डाईऑक्साइड को एक जगह
संग्रहित कर दिया जाता है। विशेषज्ञों के अनुसार जीवाश्म ईंधन कंपनियां भारी-भरकम
सब्सिडी प्राप्त करने के लिए ऐसी परियोजनाओं को बढ़ावा दे रही हैं।
G20 और G7 शिखर सम्मलेन के दौरान, छोटे देशों के समूह काफी समय से सब्सिडी सुधार पर आम सहमति बनाने की कोशिश कर रहे हैं। 2019 में कोस्टा रिका, फिजी, आइसलैंड, न्यूज़ीलैंड और नॉर्वे द्वारा शुरू की गई व्यापार और जलवायु परिवर्तन पर एक पहल का उद्देश्य जीवाश्म ईंधन सब्सिडी को समाप्त करना और सदस्य देशों के बीच पर्यावरणीय वस्तुओं के व्यापार की बाधाओं को दूर करना है। वैसे ये देश सब्सिडी देने वाले बड़े देश तो नहीं हैं लेकिन इनके द्वारा इस तरह के निर्णय अन्य देशों के लिए मिसाल कायम कर सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.greenpeace.org/usa/wp-content/uploads/2021/02/GP0STPXHV_Medium_res.jpg
प्रकाश संश्लेषण के माध्यम से ऑक्सीजन उत्सर्जन की क्षमता के कारण पेड़ों को पृथ्वी के फेफड़े कहा जाता है। शहरी क्षेत्रों की वायु गुणवत्ता काफी खराब हो गई है जिसके मानव-जीवन पर भी प्रभाव पड़ रहे हैं। ऑक्सीजन स्पा या कृत्रिम ऑक्सीजन वातावरण को वायु प्रदूषण के विकल्प के रूप में पेश किया जा रहा है। इस पृष्ठभूमि में, शहरी क्षेत्रों में वृक्षों के आवरण को बढ़ाने के समर्थन में आवाज़ें उठ रही हैं ताकि ऑक्सीजन की उपलब्धता बढ़ सके। वायु प्रदूषकों को दूर करने के लिए वृक्षों की संख्या बढ़ाना तो तार्किक विचार है लेकिन अधिक वृक्ष लगाकर ऑक्सीजन की मात्रा में वृद्धि करके वायु की गुणवत्ता में सुधार करने के विचार के अधिक विश्लेषण की आवश्यकता है। इस संदर्भ में एक सवाल यह उभरता है – विभिन्न वृक्ष प्रजातियों द्वारा कितनी ऑक्सीजन का उत्पादन होता है और इसका मापन कैसे किया जाए? वायुमंडलीय शोधकर्ताओं के अनुसार वायुमंडल की ऑक्सीजन सांद्रता में काफी समय से कोई बदलाव नहीं आया है। इसके अलावा, स्थलीय पारिस्थितिकी तंत्र समुद्री और जलीय पारिस्थितिकी तंत्र की तुलना में ऑक्सीजन का उत्पादन कम करते हैं। वैसे भी, शहरी पेड़ों या शहरी हरियाली के कई अन्य फायदे भी हैं, तो क्या हमें वास्तव में शहरी वृक्षों से ऑक्सीजन उत्पादन के बारे में चिंता करने की ज़रूरत है?
यह लेख मूलत: करंट साइंस (सितंबर 2021) में प्रकाशित हुआ था। सुरेश रमणन एस. केन्द्रीय कृषि वानिकी अनुसंधान संस्थान, झांसी तथा अन्य तीन लेखक केन्द्रीय शुष्क भूमि अनुसंधान संस्थान से सम्बद्ध हैं।
वायु प्रदूषण, खराब वायु गुणवत्ता और कणीय
पदार्थ (पीएम2.5,
पीएम10) की उच्च सांद्रता कुछ ऐसे सामान्य जुम्ले हैं जो
अक्सर सुर्खियों में रहते हैं। समाचार पत्रों में ऑक्सीजन बार, ऑक्सीजन सिलिंडर और ऑक्सीजन स्पा के बारे में भी लेख देखने को मिलते हैं। औद्योगिक
क्रांति और शहरीकरण ने वायु गुणवत्ता को खराब कर दिया है जिसका मनुष्यों पर भी
गंभीर प्रभाव हुआ है। वायु प्रदूषण की समस्या को लेकर कोई विवाद नहीं है। लेकिन
वायु प्रदूषण के विकल्प के रूप में ऑक्सीजन स्पा या कृत्रिम ऑक्सीजन वातावरण की
पेशकश पर बहस निरंतर जारी है। ऑक्सीजन स्पा के विचार पर अभी तक पेशेवर चिकित्सक
किसी ठोस नतीजे पर नहीं पहुंचे हैं। दूसरी ओर, पर्यावरणविद
वायु प्रदूषण से सम्बंधित समस्याओं के समाधान के रूप में अधिक से अधिक पेड़ लगाने
और शहरों में हरित आवरण बढ़ाने पर ज़ोर दे रहे हैं। वृक्षारोपण के समर्थक अक्सर इस
कथन का उपयोग करते हैं – “पेड़ हमें ऑक्सीजन देते हैं और हमें जीने के लिए ऑक्सीजन
ज़रूरी है।”
1970 के दशक में भी, वायुमंडलीय हवा में ऑक्सीजन की
कमी पर काफी अस्पष्टता थी। वॉलेस स्मिथ ब्रोकर का कहना है कि यदि सभी प्रकार के
जीवाश्म ईंधनों के भंडार को जला भी दिया जाए तब भी वायुमंडल में ऑक्सीजन के घटने
की कोई संभावना नहीं है। साथ ही, अपने लेख में उन्होंने यह भी
बताया है कि मानवजनित गतिविधियों के कारण जलीय पारिस्थितिक तंत्र में ऑक्सीजन (घुलित
ऑक्सीजन) की कमी होने की काफी संभावना है। वे कहते हैं, “ऐसे
सैकड़ों अन्य तरीके हैं जिनसे हम ऑक्सीजन आपूर्ति में मामूली-सा नुकसान करने से
पहले अपनी संतानों के भविष्य को खतरे में डाल सकते हैं।” वायुमंडल में ऑक्सीजन की
मात्रा 21 प्रतिशत है जिसमें अधिक बदलाव नहीं आया है। लगभग 2.5 अरब वर्ष पहले
स्थिति अलग थी;
उस समय का वातावरण ऑक्सीजन रहित था। भूवैज्ञानिकों और
वायुमंडलीय शोधकर्ताओं ने उस समय का अंदाज़ दिया है जब पृथ्वी के वायुमंडल में
ऑक्सीजन की मात्रा में वृद्धि हुई थी। इस घटना को ग्रेट ऑक्सीजनेशन इवेंट (महा-ऑक्सीकरण
घटना) का नाम दिया गया है। इस क्षेत्र में ज़्यादा स्पष्टता के लिए शोधकर्ता आज भी
काम कर रहे हैं।
ग्रेट ऑक्सीजनेशन इवेंट की समयावधि पर अनिश्चितता के बावजूद, वैज्ञानिकों के बीच इस बात पर सहमति है कि स्थलीय के साथ-साथ समुद्री स्वपोषी
जीवों से (प्रकाश संश्लेषण द्वारा) मुक्त ऑक्सीजन ने ग्रह पर जीवन को आकार दिया
है। एक पर्यावरण समर्थक की दलील है कि वायु प्रदूषण से निपटने का ज़्यादा प्रभावी
तरीका वृक्षारोपण है। कई अध्ययनों में इस बात का मापन करके साबित किया गया है कि
पेड़ सल्फर डाईऑक्साइड (SO2), कण पदार्थों
(PM10) और ओज़ोन (O3) को हवा में से हटा सकते हैं। पेड़ों द्वारा कार्बन
डाईऑक्साइड (CO2) और अन्य गैसों को हटाना स्वाभाविक लग सकता है लेकिन पेड़ों की भी कुछ सीमाएं
होती हैं। इस संदर्भ में पेड़ों की विभिन्न प्रजातियों के बीच भिन्नता होती है।
वायु प्रदूषकों के विभिन्न स्तरों का पेड़ों की वृद्धि यानी चयापचय (प्रकाश
संश्लेषण और श्वसन दोनों) पर प्रभाव पड़ सकता है। यह अलग-अलग प्रजातियों की तनाव
सहन करने की क्षमता पर निर्भर करता है।
तकनीकी रूप से, वायु प्रदूषण वास्तव में हवा में अवांछनीय, हानिकारक गैसों और पदार्थों का जुड़ना है जो या तो प्राकृतिक रूप से या फिर
मानव-जनित गतिविधियों के माध्यम से आते हैं। शहरी क्षेत्रों में वायु गुणवत्ता
कभी-कभी इतनी खराब हो जाती है जो श्वसन के लिए अनुपयुक्त होती है। जैसा कि पहले भी
बताया गया है कि वायुमंडलीय ऑक्सीजन की सांद्रता में तो कोई बदलाव नहीं आया है
लेकिन कार्बन मोनोऑक्साइड (CO), SO2 और अन्य प्रदूषकों के शामिल
होने से यह अनुपयुक्त हो गई है। कुछ अध्ययनों में शहरी क्षेत्रों में ऑक्सीजन की
सांद्रता में कमी का उल्लेख हुआ है। हालांकि इस संदर्भ में काफी अनिश्चितता है, लेकिन वायु प्रदूषकों को दूर करने के लिए पेड़ों की संख्या में वृद्धि और
स्थानीय स्तर पर ऑक्सीजन की सांद्रता को बढ़ाकर वायु की गुणवत्ता में सुधार करना एक
तर्कसंगत विचार है। इससे एक सवाल उठता है: पेड़ों की विभिन्न प्रजातियों द्वारा
कितनी ऑक्सीजन का उत्पादन होता है और उसकी मात्रा कैसे नापी जाती है? यह सवाल शोध का विषय बना हुआ है।
प्रकाश संश्लेषी ऑक्सीजन
प्रकाश संश्लेषण एक जैव रासायनिक प्रक्रिया है जो पृथ्वी पर जीवन यापन के लिए
ऊर्जा प्रदान करती है। इस प्रक्रिया के दौरान, ऑक्सीजन
एक सह-उत्पाद के रूप में मुक्त होती है जिसने ग्रह के जैव विकास के इतिहास को ही
बदल दिया है। इसी प्रकार, पौधों में प्रकाशीय श्वसन की
प्रक्रिया उनकी वृद्धि और विकास को सुनिश्चित करती है। इसलिए प्रकाश संश्लेषण और
श्वसन ऐसी महत्वपूर्ण प्रक्रियाएं हैं जिन्होंने शोधकर्ताओं को काफी उलझाया है।
विभिन्न स्वपोषी जीवों में प्रकाश संश्लेषण और श्वसन दर के मापन के प्रयास आज भी
पादप कार्यिकी में अनुसंधान का प्रमुख विषय है। पादप कार्यिकी अनुसंधान में यह
माना जाता है कि पौधों में प्रकाश संश्लेषण की दर गैस विनिमय की दर, यानी CO2 और O2 प्रवाह,
के बराबर होती है। अत: ओटो वारबर्ग जैसे शुरुआती शोधकर्ताओं
ने पौधों में प्रकाश संश्लेषण दर की मात्रा निर्धारित करने के लिए गैस विनिमय दर
के मापन का प्रयास किया था।
1937 में पृथक्कृत क्लोरोप्लास्ट से प्रकाश संश्लेषी ऑक्सीजन मापन का प्रयास
किया गया था। इसी प्रकार के एक प्रयोग के माध्यम से, मेहलर
और ब्राउन ने ऑक्सीजन के समस्थानिक (18O2) का उपयोग करके यह साबित
किया था कि प्रकाश संश्लेषण के दौरान मुक्त ऑक्सीजन पानी के अणु के विभाजन से
प्राप्त होती है। 1980 के दशक में प्रकाश संश्लेषी ऑक्सीजन मापन पर अन्य
महत्वपूर्ण कार्य हुए हैं।
वैज्ञानिक दृष्टि से, ऑक्सीजन मापन का कार्य दो
स्थितियों में किया जाता है – एक जलीय (तरल माध्यम) में और दूसरा गैसीय माध्यम
में। मीठे पानी के अलावा समुद्री पारिस्थितिक तंत्र में घुलित ऑक्सीजन मापन के लिए
भी काफी प्रभावी तरीके हैं। हालांकि, प्रकाश संश्लेषी ऑक्सीजन
उत्सर्जन और मीठे पानी में घुलित ऑक्सीजन के बीच काफी अंतर होता है। कई शोधकर्ताओं
ने प्रकाश संश्लेषी ऑक्सीजन के मापन के लिए कई विधियां और उपकरण विकसित किए हैं।
कई प्रयासों के बावजूद कुछ सवाल अनुत्तरित हैं। उदाहरण के लिए, जर्नल ऑफ प्लांट फिज़ियोलॉजी में प्रकाशित एक शोध पत्र पर
टिप्पणी में होलोवे फिलिप्स ने कहा था कि पिछले 20 वर्षों में सजीवों में in vivo (यानी स्वयं जीव के अंदर) ऑक्सीजन प्रवाह सम्बंधी अनुसंधानों में गिरावट आई है।
एक अन्य शोध कार्य में एकीकृत बायोसेंसर का उपयोग करके ऑक्सीजन की रियल-टाइम
इमेजिंग का भी प्रयास किया गया लेकिन यह अध्ययन पौधे से अलग की गई पत्तियों पर
किया गया था।
कुल मिलाकर,
ऐसा लगता है कि स्वपोषी जीवों द्वारा उत्सर्जित ऑक्सीजन के
आकलन के लिए उपलब्ध विभिन्न तरीकों में से प्रत्येक के कुछ फायदे हैं तो कुछ
नुकसान भी हैं। इस विषय में 100 वर्षों से अधिक समय से चल रहे अनुसंधान के बाद भी
अनिश्चितता बनी हुई है। अर्थात शहरी पेड़ों के ऑक्सीजन उत्पादन के अनुमानों के बारे
में थोड़ा संदेह रखना ठीक है।
वृक्षों में ऑक्सीजन उत्पादन
ऐसे अध्ययन भी हुए हैं जो पेड़ों द्वारा ऑक्सीजन उत्पादन की मात्रा (कभी-कभी तो
धन के रूप में) निर्धारित करते हैं। पेड़ों द्वारा ऑक्सीजन उत्पादन की मात्रा
निर्धारित करने के लिए व्यापक रूप से दो तरीके अपनाए जाते हैं:
(i)
शुद्ध प्राथमिक उत्पादकता (नेट प्राइमरी प्रोडक्टिविटी या
एनपीपी) का मापन एक पोर्टेबल प्रकाश संश्लेषी यंत्र की मदद से किया जाता है। इसकी
मदद से यह पता चल जाता है कि पत्ती ने एक निश्चित समय में कितनी कार्बन डाईऑक्साइड
का अंगीकरण किया है। इसके आधार पर मुक्त ऑक्सीजन की मात्रा (पत्ती के प्रति इकाई
क्षेत्रफल) की गणना की जाती है।
(ii) कार्बन के स्थिरीकरण के आधार
पर मुक्त ऑक्सीजन की मात्रा निर्धारित करने के एक अनुभवजन्य समीकरण का उपयोग भी
किया जा सकता है।
दोनों ही तरीके श्वसन प्रक्रिया के दौरान ऑक्सीजन खपत को ध्यान में रखते हुए
एक पेड़ द्वारा उत्सर्जित ऑक्सीजन की नेट मात्रा निर्धारित करते हैं। इन दोनों ही विधियों
में व्यापक अंतर है। पहली विधि में कुल ऑक्सीजन उत्पादन की मात्रा एक विशिष्ट
समयावधि की ज्ञात होती है क्योंकि उसका मापन पत्तियों की वास्तविक संख्या और
पत्तियों की अन्य विशेषताओं (जैसे वाष्पोत्सर्जन दर, रंध्री
प्रवाह,
अंत: कोशिकीय CO2 सांद्रता और अन्य
मापदंडों) पर निर्भर करता है। और दूसरी विधि पेड़ द्वारा उस समय तक उत्पादित कुल
ऑक्सीजन का मापन करती है क्योंकि यह अतीत में स्थिरीकृत कार्बन पर निर्भर है। इस
विधि में यह भी माना जाता है कि कार्बन स्थिरीकरण की उच्च मात्रा का मतलब यह है कि
कुल ऑक्सीजन उत्पादन भी अधिक है। इसके अलावा, अनुभवजन्य
पद्धति का सबसे बड़ा नुकसान यह है कि इसमें पेड़ की प्रकृति, उसकी
विकास दर,
वृक्ष की बनावट और पत्ती के क्षेत्रफल आदि का ध्यान नहीं
रखा जाता है। उदाहरण के तौर पर, अनुभवजन्य समीकरण के आधार पर
कैज़ोरीना जैसे तेज़ी से बढ़ने वाले पेड़ों का ऑक्सीजन उत्पादन भी अधिक होता है।
वास्तव में,
किसी पेड़ द्वारा अपने अब तक के जीवन काल में उत्सर्जित
ऑक्सीजन की बजाय ऑक्सीजन उत्पादन क्षमता का अनुमान लगाना अधिक महत्व रखता है।
गंभीर मुद्दा: समय की ज़रूरत
प्रकाश संश्लेषण और प्रकाश श्वसन दर मापन के वैज्ञानिक प्रयास सदियों पुराने
हैं। शोधकर्ता सटीक और अचूक अनुमान लगाने के तरीकों पर काम कर रहे हैं। कुछ
अध्ययनों को छोड़कर पेड़ों से उत्सर्जित ऑक्सीजन या ऑक्सीजन उत्पादन क्षमता अब तक
वैज्ञानिक सवाल नहीं रहा है। हालांकि, तरीकों पर सहमति के अभाव
के चलते,
ऑक्सीजन उत्सर्जन या उत्पादन के आधार पर पेड़ों के मूल्यांकन
को लेकर सवाल उठाए जाते रहे हैं। लेकिन इस विषय पर विशेष रूप से ध्यान देने की
ज़रूरत है क्योंकि कुछ वृक्ष प्रजातियों की उच्च ऑक्सीजन उत्पादन क्षमता को लेकर
गलत सूचनाएं व्याप्त हैं।
खास तौर पर बंगाल फ्लाईओवर परियोजना से सम्बंधित मुकदमे को देखा जा सकता है।
स्थानीय प्रशासन ने पुलों के निर्माण के लिए 356 पेड़ों को काटने का प्रस्ताव रखा
था। भारत के मुख्य न्यायाधीश ने पेड़ों द्वारा ऑक्सीजन उत्सर्जित करने के आधार पर
पेड़ों के महत्व का विचार पेश किया। बाद में शीर्ष अदालत में इसी विचार के आधार पर
कृष्णा-गोदावरी सड़क परियोजना के लिए 2940 पेड़ों को काटने की अनुमति नहीं दी गई।
आम तौर पर,
पेड़ों की क्षतिपूर्ति उनकी इमारती लकड़ी और जैव-पदार्थ मान
के आधार पर की जाती है। इस मान को या तो वृद्धि समीकरणों या उपज तालिकाओं और
कभी-कभी वास्तविक जैव-पदार्थ मापन के आधार पर निर्धारित किया जाता है। भारतीय
संदर्भ में पेड़ों के कुल वर्तमान मूल्य का अनुमान लगाने से लिए अधिक व्यवस्थित
विधियों का उपयोग भी किया जा रहा है।
वास्तव में विवाद पेड़ों के मूल्यांकन की पद्धति का नहीं बल्कि ऑक्सीजन के
स्रोत के रूप में उनकी उपयोगिता के आधार पर मूल्यांकन का है। देखा जाए तो शहरी
पेड़ों या शहरी हरियाली के कई अन्य लाभ भी हैं, तो
क्या हमें वास्तव में शहरी पेड़ों द्वारा ऑक्सीजन उत्पादन की चिंता करने की ज़रूरत
है?
इसके साथ ही, क्या पेड़ों द्वारा मुक्त
ऑक्सीजन वास्तव में हमारी सांस की हवा की गुणवत्ता में सुधार करती है? यह सवाल इसलिए उभरकर सामने आता है क्योंकि हमारे समक्ष ऐसे अध्ययन हैं जिनमें
यह बताया गया है कि शहरी क्षेत्रों में वायु गुणवत्ता SO2, PM2.5 या PM10 जैसे प्रदूषकों के कारण खराब हुई है, लेकिन
इस बात का समर्थन करने के लिए पर्याप्त अध्ययन नहीं हैं कि शहरी क्षेत्रों में
ऑक्सीजन सांद्रता आसपास हरियाली वाले क्षेत्रों की तुलना में कम है।
इसी तरह, भारत में ऐसी मान्यता है कि कुछ वृक्षों जैसे बरगद (फायकस बेंगालेंसिस), पीपल (फायकस रिलीजिओसा), नीम (एज़ाडिरेक्टा इंडिका) आदि में उच्च ऑक्सीजन उत्पादन क्षमता होती है। इस विषय में अधिक वैज्ञानिक अध्ययन की आवश्यकता है ताकि शहरी वृक्षारोपण कार्यक्रमों में कुछ वृक्ष प्रजातियों के प्रभुत्व को रोका जा सके। हाल ही में, शोधकर्ता शहरी क्षेत्रों की हरियाली और शहरी वनों का उपयोगिता मूल्य बढ़ाने के लिए पेड़ों में विविधता की हिमायत कर रहे हैं। इसके अलावा, शहरी क्षेत्रों में रोपण के लिए वृक्ष प्रजातियों को उनकी उपयोगिता के आधार पर प्राथमिकता देने का विचार कई परिस्थितियों में भ्रामक हो सकता है। क्योंकि ऐसा कोई भी चयन स्थान-विशिष्ट होना चाहिए न कि हर जगह के लिए एक-सा। अच्छा तो यह होगा कि शहरी वृक्षारोपण कार्यक्रमों में स्थानीय वृक्ष प्रजातियां पहली पसंद हों, जब तक किसी प्रजाति का खास तौर से PM2.5 निवारण या ऑक्सीजन उत्पादन क्षमता जैसे उपयोगिता मूल्यों के आधार पर सुव्यवस्थित मूल्यांकन न हो जाए। (स्रोत फीचर्स)
यह लेख मूलत: करंट साइन्स (सितंबर 2021) में प्रकाशित हुआ था। सुरेश रमणन एस. केन्द्रीय कृषि वानिकी अनुसंधान संस्थान, झांसी तथा अन्य तीन लेखक केन्द्रीय शुष्क भूमि कृषि अनुसंधान संस्थान से सम्बद्ध हैं।
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://wiki.nurserylive.com/uploads/default/original/2X/3/3bb4636ee45a843ce874be470ed7d988530fa535.jpg
गर्म शहरी टापुओं का तापमान बढ़ाने में डामर की सड़कें भी
भूमिका निभाती हैं। हाल ही में एरिज़ोना स्टेट युनिवर्सिटी और फीनिक्स शहर द्वारा
किए गए एक अध्ययन में पाया गया कि डामर की सड़क पर भूरे रंग की परावर्तक पुताई
करने से सड़क की सतह के औसत तापमान में 6 से 7 डिग्री सेल्सियस की कमी आती है, और सुबह के समय तापमान में औसतन 1 डिग्री सेल्सियस की गिरावट देखी गई।
गर्मी के दिनों में फीनिक्स शहर की सड़कें 82 डिग्री सेल्सियस तक गर्म हो जाती
हैं। सड़कों द्वारा अवशोषित यह ऊष्मा रात में वापस वातावरण में फैल जाती है, फलस्वरूप रात का तापमान बढ़ जाता है। और रात गर्म होने से सुबहें भी गर्म होती
है। इस तरह गर्मी का यह चक्र चलता ही रहता है।
शोधकर्ताओं ने पाया कि सड़कों को परावर्तक रंग से पोतने के बाद तापमान में
सबसे अधिक अंतर सड़क की सतह के पास पड़ा था और सबसे कम अंतर जमीन से 6 फीट ऊपर था।
फिर भी,
डामर की काली सड़कों की तुलना में परावर्तक से पुती सड़कों
के पास की जगह पर दिन-रात के तापमान में थोड़ी कमी तो आई थी।
लेकिन ऐसी पुताई सारी सतहों पर एक-सा असर नहीं डालतीं। एरिज़ोना की शहरी
जलवायु विज्ञानी और सहायक प्रोफेसर एरियन मिडल का कहना है कि तापमान मापने का
सार्थक तरीका विकिरण आधारित होगा अर्थात यह देखा जाए कि शरीर गर्मी का अनुभव कैसे
करता है।
जब शोधकर्ता ताप संवेदी यंत्रों से लैस एक छोटी गाड़ी लेकर परावर्तक सड़कों पर
चले तो पता चला कि सतह से परावर्तन के कारण दोपहर और दोपहर के बाद लोग सबसे अधिक
गर्मी महसूस करते हैं, लेकिन यह गर्मी कांक्रीट के फुटपाथों जैसी
ही थी। यानी सतह के तापमान में तो कमी होती है लेकिन व्यक्ति द्वारा महसूस की गई
गर्मी अधिक होती है।
फीनिक्स स्ट्रीट ट्रांसपोर्टेशन डिपार्टमेंट की प्रवक्ता हीदर मर्फी का कहना
है कि सड़कों को पोतने के बाद लोगों की प्रतिक्रिया प्राय: सकारात्मक रही। चकाचौंध
और दृश्यता के बारे में कुछ चिंता ज़रूर ज़ाहिर हुई लेकिन पता चला कि सड़क सूखने
के बाद यह दिक्कत भी जाती रही।
वैसे तो अभी और अध्ययन किए जाएंगे लेकिन अधिकारी चेताते हैं कि शहरी गर्मी से बचने के लिए सड़कों को रंगना कोई रामबाण उपाय नहीं है। इन सड़कों पर खड़े होंगे तो गर्मी तो लगेगी, छाया का सहारा तो लेना होगा। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://images.adsttc.com/media/images/5ae0/9314/f197/cccc/c100/0069/newsletter/white-streets-heat-climate-change-los-angeles-2.jpg?1524667152
हिमालय क्षेत्र में समय-समय पर ऐसे समाचार मिलते हैं कि किसी बीमार महिला या वृद्ध को कुर्सी या चारपाई
या पीठ पर ही बिठाकर 5 से 15 कि.मी. की दूरी तय करते हुए इलाज के लिए ले जाना पड़ा। जहां एक ओर ग्रामीण
संपर्क मार्गों व छोटी सड़कों की कमी है या उनकी दुर्दशा है, वहीं दूसरी ओर हाइवे व सुरंगों की सैकड़ों करोड़ रुपए की परियोजनाओं
को इतनी तेज़ गति से बढ़ाया जा रहा है जितनी पहले कभी नहीं देखी गई।
मसूरी सुरंग बायपास की घोषणा हाल ही में की गई। ट्राफिक कम करने के नाम पर 700 करोड़ रुपए की ऐसी सुरंग परियोजना लाई गई है जिससे लगभग 3000 पेड़ कटेंगे। इसके अतिरिक्त चूने-पत्थर की चट्टानों में उपस्थित प्राकृतिक जल-व्यवस्था ध्वस्त होगी।
मसूरी के पहाड़ गंगा व यमुना के जल-ग्रहण क्षेत्रों
के बीच के पहाड़ हैं व यहां के जल-स्रोतों
को क्षतिग्रस्त करना देश को बहुत महंगा पड़ सकता है। ध्यान रहे कि जब पानी को सोखने
की क्षमता रखने वाली, संरक्षित रखने वाली इन चट्टानों
को खनन से नष्ट व तबाह किया जा रहा था और बहुत से भूस्खलनों ने अनेक गांवों के जीवन
को संकटग्रस्त कर दिया था, उस समय
सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों पर ही मसूरी व आसपास के क्षेत्र में चूना पत्थर के खनन
को रोका गया था। इन चट्टानों में जो संरक्षित पानी है, उससे अनेक गांवों के जल-स्रोतों
व झरनों में पानी बना रहता है।
हिमालय की अनेक हाइवे परियोजनाओं के क्रियान्वयन के दौरान देखा गया है कि अनेक
भूस्खलन क्षेत्र सक्रिय हो गए हैं व कुछ नए भूस्खलन क्षेत्र उत्पन्न हो गए हैं। खर्च
बचाने के लिए या जल्दबाज़ी में सड़क के लिए सीधा रास्ता दिया जाता है व ज़रूरी सावधानियों
की उपेक्षा की जाती है। जो तरीके आज़माए जाते हैं या भूस्खलन रोकने के प्रयास किए जाते
हैं वे प्रायः पर्याप्त नहीं होते हैं। परिणाम यह है कि भूस्खलनों के कारण बहुत से
मार्ग समय-समय पर अवरुद्ध होने लगते हैं व ट्राफिक को
गति देने का लक्ष्य भी वास्तव में प्राप्त नहीं हो पाता है।
यह सच है कि लोगों को अधिक चौड़ी सड़कों पर गाड़ी चलाना अच्छा लगता है, पर हिमालय क्षेत्र में जहां एक-एक पेड़ अमूल्य है, वहां यह पूछना भी ज़रूरी
है कि हाइवे को अधिक चौड़ा करने के प्रयास में कितने पेड़ काटे गए। सरकारी आंकड़ों के
आधार पर ही ऐसी एक ही परियोजना में हज़ारों पेड़ कट सकते हैं, कट रहे हैं, पर वास्तविक
क्षति इससे भी अधिक है। चारधाम हाइवे परियोजना क्षेत्र (उत्तराखंड) में एक अनुभवी सामाजिक कार्यकर्ता ने बताया
कि एक बड़े पेड़ को काटने के प्रयास में अनेक छोटे पेड़ भी क्षतिग्रस्त होते हैं। पूरे
हिमालय क्षेत्र में इस तरह गिरने वाले पेड़ों की संख्या लाखों में है।
अतः क्या यह उचित नहीं है कि हाइवे व सुरंगों की परियोजनाएं बनाते समय यह ध्यान
में रखा जाए कि पर्यावरणीय व सामाजिक क्षति को कैसे न्यूनतम किया जा सकता है। परवाणू
सोलन हाइवे (हिमाचल प्रदेश) को हाल ही में बहुत चौड़ा कर दिया गया है। आज धर्मफर, कुमारहट्टी जैसे अनेक स्थानों पर आपको आसपास के गांववासी व दुकानदार बताएंगे कि
उनका रोज़गार उजड़ गया व मुआवज़ा बहुत कम मिला। यदि आप थोड़ा और कष्ट कर आसपास के गांवों
में पहुंचेंगे तो स्थिति और भी दर्दनाक हो सकती है। लगभग दो वर्ष पहले जब मैं गांव
में गया तो लोगों ने बताया है कि यह एक समय बहुत खूबसूरत दृश्यों वाला खुशहाल गांव
था पर हाइवे को चौड़ा करने के दौरान जो भूस्खलन व अस्थिरता हुई तो मकान, दुकान, गोशाला
सबकी क्षति हुई व पूरा गांव ही संकटग्रस्त हो चुका है।
हाइवे पर नए मॉडल की कार दौड़ाते हुए सैलानियों को प्रायः इतनी फुरसत नहीं होती
है, पर हमें यह जानने का प्रयास करना चाहिए कि हाइवे
व सुरंगों का गांववासियों, वृक्षों, हरियाली, जल-स्रोतों व पगडंडियों पर क्या असर हुआ। ऐसी अनेक रिपोर्टें आई
हैं कि निर्माण कार्य में हुई असावधानियों के कारण आसपास के किसी गांव में मलबा व वर्षा
का जल प्रवेश कर गया, या मलबे के नीचे गांव की
पगडंडी बाधित हो गई। यदि इन सभी पर्यावरणीय व सामाजिक तथ्यों का सही आकलन हो, तो कम से कम सरकार के पास एक महत्वपूर्ण संदेश जाएगा कि इन उपेक्षित
पक्षों पर भी ध्यान देना ज़रूरी है।
हाल ही में जून में जब मसूरी सुरंग बायपास योजना की घोषणा उच्च स्तर पर हुई तो
अनेक स्थानीय लोगों ने ही नहीं, विशेषज्ञों
व अधिकारियों तक ने इस बारे में आश्चर्य व्यक्त किया कि उनसे तो इस बारे में कोई परामर्श
नहीं किया गया। मसूरी के बहुत पास देहरादून है जो देश में वानिकी व भू-विज्ञान विशेषज्ञों का एक बड़ा केंद्र है। इनमें से कुछ विशेषज्ञों
ने भी कहा कि उन्हें इस परियोजना के बारे में पहले कुछ नहीं पता था।
दूसरी ओर अनेक स्थानीय लोग बताते हैं कि यदि समुचित स्थानीय परामर्श किया जाए तो
सामाजिक व पर्यावरणीय दुष्परिणामों को न्यूनतम करने के साथ आर्थिक बजट को भी बहुत कम
रखते हुए ट्राफिक समस्याओं को सुलझाया जा सकता है। दूसरी ओर, कुछ लोग कहते हैं कि अधिक बजट की योजना बनती है तो अधिक कमीशन
मिलता है।
पर यदि पर्वतीय विकास को सही राह पर लाना है तो पहाड़ी लोगों की समस्याओं को कम करने वाले छोटे संपर्क मार्गों की स्थिति सुधारने पर अधिक ध्यान देना होगा व हिमालयवासियों की वास्तविक ज़रूरतों को समझते हुए हिमालय का विकास करना होगा। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://static.toiimg.com/thumb/83401695/Mussoorie.jpg?width=1200&height=900
हाल ही में चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने संयुक्त राष्ट्र
महासभा में यह वचन दिया है कि उनका देश विदेशों में कोयला आधारित नई बिजली
परियोजनाओं का निर्माण नहीं करेगा। यह निर्णय वैश्विक जलवायु के हिसाब से काफी
स्वागत योग्य है। चीन दुनिया में नए कोयला संयंत्रों का सबसे बड़ा वित्तपोषक रहा
है। लिहाज़ा,
यह निर्णय काफी महत्वपूर्ण हो सकता है।
वैसे,
शंघाई स्थित फुडान युनिवर्सिटी के विकास अर्थशास्त्री
क्रिस्टोफ नेडोपिल के मुताबिक यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है क्योंकि चीन के
सरकारी संस्थान कई वर्षों से संभावित कोयला मुक्ति का मूल्यांकन करने के लिए चीनी
और अंतर्राष्ट्रीय भागीदारों के साथ काम करते रहे हैं। नेडोपिल द्वारा जून में
जारी रिपोर्ट के अनुसार विकाशसील देशों में बुनियादी ढांचे के निर्माण की व्यापक
योजना,
चाइना बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई), से सम्बंधित 52 कोयला आधारित उर्जा संयंत्रों में से 33 या तो हटा दिया गए हैं
या फिर रद्द कर दिए गए हैं, सात निर्माणाधीन हैं, 11 नियोजन में हैं और केवल एक संयंत्र अभी क्रियाशील है।
इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि 2020 में पहली बार सौर, पवन और पनबिजली ऊर्जा में बीआरआई का निवेश जीवाश्म र्इंधन पर खर्च से काफी
अधिक रहा है। इससे यह कहा जा सकता है कि नवीकरणीय उर्जा की लगातार घटती लागत चीन
के कोयले में निवेश को कम कर रही है।
इस विषय में बोस्टन युनिवर्सिटी के वैश्विक विकास विशेषज्ञ केविन गैलागर के
अनुसार चीन विदेशी कोयला परियोजनाओं के लिए सरकारी वित्तीय सहायता को समाप्त करने
वाला अंतिम प्रमुख देश है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि विकासशील देशों में
कोयले से चलने वाले बिजली संयंत्रों का निर्माण रुक जाएगा। आम तौर पर माना जाता है
कि अधिकांश कोयला संयंत्रों का वित्तपोषण चीन के सरकारी बैंकों द्वारा किया जाता
है लेकिन ग्लोबल डेवलपमेंट पॉलिसी सेंटर के अनुसार तथ्य यह है कि विदेशी कोयला
संयंत्रों में वैश्विक निवेश में 87 प्रतिशत तो जापान और पश्चिमी देशों के वित्तीय
संस्थानों से आता है। ऐसे निजी संस्थानों द्वारा कोयला संयंत्रों के लिए वित्तीय
सहायता जारी रही तो वैश्विक जलवायु के लक्ष्यों को प्राप्त नहीं किया जा सकेगा।
शी के वक्तव्य के बाद चीन की घरेलू कोयला परियोजनाओं पर भी ध्यान देना होगा। इंटरनेशनल एनर्जी एजेंसी के अनुसार 2020 में चीन एकमात्र ऐसी बड़ी अर्थव्यवस्था थी जिसका वार्षिक कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन बढ़ा है। ग्लोबल एनर्जी मॉनिटर के अनुसार चीन ने पिछले वर्ष 38.4 गीगावाट क्षमता के नए कोयला संयंत्र शुरू किए हैं। संस्था का दावा है कि चीन के कई प्रांतों ने कोविड-19 महामारी के मद्देनज़र अपनी अर्थव्यवस्था को मज़बूत करने के लिए कई कोयला परियोजनाओं का उपयोग किया है। चीन ने यह भी वादा किया है कि उसका कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन 2030 में अधिकतम को छूकर कम होने लगेगा। इस लक्ष्य के मद्देनज़र चीन को चाहिए कि अन्य विकासशील देशों में कोयले के संयंत्रों के निर्माण पर रोक लगाने के साथ-साथ कोयले पर घरेलू निर्भरता को कम करने का भी प्रयास करे। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.acx9171/full/_20210922_on_china-stopping-funding-of-overseas-coal-plants.jpg
हर साल लगभग 70 लाख लोग वायु प्रदूषण के कारण मारे जाते हैं।
इनमें से अधिकांश वे लोग हैं जो निम्न और मध्यम आय वाले देशों में रहते हैं। वायु
प्रदूषण के कारण क्रॉनिक ऑब्सट्रक्टिव पल्मोनरी डिसीज़ (सीओपीडी), हृदय रोग,
फेफड़े के कैंसर, निमोनिया और स्ट्रोक का
जोखिम रहता है। गत 22 सितंबर को विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने वायु गुणवत्ता के लिए नए वैश्विक दिशानिर्देश जारी
किए। इनमें प्रमुख प्रदूषकों की सांद्रता के नए स्तर के साथ-साथ अंतरिम तौर पर कुछ
नए प्रदूषकों के स्तर भी सुझाए हैं। इसके अलावा, कुछ
तरह के कणीय पदार्थ (जैसे ब्लैक कार्बन) के नियंत्रण के लिए भी अच्छे कामकाज की
अनुशंसाएं जारी की हैं क्योंकि इनके मानक तय करने के लिए फिलहाल पर्याप्त प्रमाण
नहीं हैं।
डब्ल्यूएचओ ने पिछले वायु गुणवत्ता दिशानिर्देश 2005 में जारी किए थे। तब से, वायु प्रदूषण के स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभावों के प्रमाणों में काफी वृद्धि
हुई है। दिशानिर्देश विकसित करने वाले समूह के एक सदस्य माइकल ब्रावर के मुताबिक
पूर्व में दिशानिर्देश उत्तरी अमेरिका और पश्चिमी युरोप में हुए अध्ययनों से
प्राप्त डैटा पर बहुत अधिक निर्भर थे और इन्हें पूरी दुनिया के लिए लागू किया गया
था लेकिन अब हमारे पास निम्न और मध्यम आय वाले क्षेत्रों का भी काफी डैटा है। इसके
अलावा,
आज वायु प्रदूषकों के स्तर और रुझानों को मापने और उनके
जोखिम का आकलन करने के बेहतर तरीके हैं, और वैश्विक स्तर पर कुछ
वायु प्रदूषकों के आबादी से संपर्क के बारे में बेहतर जानकारी है। अध्ययनों में
पता चला है कि वायु प्रदूषण का बहुत कम स्तर भी स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव
डालता है।
2021 के दिशानिर्देशों में लगभग हर प्रदूषक के लिए 2005 में जारी किए गए
स्वीकार्य स्तर से बहुत कम स्तर की सिफारिश की गई है। वर्तमान सिफारिश में, 2.5 माइक्रोमीटर व्यास (पीएम2.5) के या उससे छोटे कणीय पदार्थ के लिए औसत
वार्षिक सीमा पिछली सीमा से आधी कर दी गई है। पीएम2.5 के कण र्इंधन जलने के कारण
उत्पन्न होते हैं जो स्वास्थ्य के लिए बहुत ही खतरनाक होते हैं। ये कण न सिर्फ
फेफड़ों में भीतर तक जाते हैं बल्कि रक्तप्रवाह में भी प्रवेश कर सकते हैं।
नए दिशानिर्देशों में ज़हरीली गैस नाइट्रोजन डाईऑक्साइड का स्तर भी पिछले स्तर
से 75 प्रतिशत तक कम कर दिया गया है। ओज़ोन के लिए ग्रीष्मकालीन माध्य सांद्रता का
स्तर भी जारी किया गया है। कार्बन मोनोऑक्साइड, पीएम10
और सल्फर डाईऑक्साइड के लिए संशोधित दिशानिर्देश भी जारी किए गए हैं।
डब्ल्यूएचओ का कहना है कि यदि नए दिशानिर्देशों को विश्व स्तर पर हासिल कर
लिया जाता है तो पीएम2.5 के संपर्क में आने के कारण होने वाली मौतों की संख्या लगभग
80 प्रतिशत कम हो जाएगी। लेकिन दिल्ली अभी दूर है। वर्तमान में, विश्व की 90 प्रतिशत से अधिक आबादी वर्ष 2005 में पीएम2.5 के लिए जारी किए गए
स्तर से भी अधिक स्तर के संपर्क में है।
वायु गुणवत्ता दिशानिर्देश वास्तव में सार्वजनिक स्वास्थ्य की रक्षा के लिए एक
साधन (टूल) है। डब्ल्यूएचओ का देशों से आग्रह है कि इस साधन का उपयोग कर देश वायु
प्रदूषण को कम करने वाली नीतियां तैयार करें/लागू करें। इसके अलावा, डब्ल्यूएचओ का आग्रह है कि सदस्य देश वायु गुणवत्ता निगरानी प्रणाली स्थापित
करें,
वायु गुणवत्ता सम्बंधी डैटा तक लोगों की पहुंच सुनिश्चित
करें और डब्ल्यूएचओ के दिशानिर्देशों को कानूनी मानकों का रूप दें।
बर्मिंघम विश्वविद्यालय में पर्यावरण स्वास्थ्य के प्रोफेसर रॉय हैरिसन का
कहना है कि दिशानिर्देश बहुत महत्वपूर्ण हैं लेकिन इन्हें हासिल करना बेहद
चुनौतीपूर्ण है,
और इसकी संभावना बहुत कम है कि कई देश कई दशकों तक इन्हें
हासिल कर पाएंगे। हालांकि कोविड-19 के दौरान के अनुभव से हम जानते हैं कि मोटर
वाहनों की गतिविधि कम करने से वायु गुणवत्ता पर नाटकीय प्रभाव पड़ सकता है। वैश्विक
स्तर पर यातायात में बहुत अधिक कमी होने की उम्मीद करना अवास्तविक है लेकिन वायु
गुणवत्ता को कम करने के प्रयास में सड़क वाहनों का विद्युतीकरण किया जा सकता है।
हालांकि कुछ वैज्ञानिकों का कहना है कि सुझाए गए नए स्तर से भी कम स्तर पर प्रदूषकों की उपस्थिति स्वास्थ्य को प्रभावित कर सकती है। महत्वपूर्ण यह है हर साल जितना हो सके इस प्रदूषण से संपर्क को कम करने की दिशा में प्रयास किए जाएं, ताकि आबादी को स्वास्थ्य सम्बंधी उल्लेखनीय लाभ मिल सकें। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://akm-img-a-in.tosshub.com/indiatoday/images/story/202109/Air_pollution_3.jpg?2LjNbSV_urqP4QJYa.B1XB_hDlO4pb_s&size=770:433
हाल ही में नेचर में प्रकाशित एक अध्ययन का निष्कर्ष है कि यदि हम धरती के बढ़ते तापमान को थामना चाहते हैं तो हमें अपने जीवाश्म ईंधन के 90 प्रतिशत आर्थिक रूप से व्यावहारिक भंडार को अछूता छोड़ देना पड़ेगा। जलवायु सम्बंधी पैरिस संधि में कहा गया है कि धरती का तापमान औद्योगिक-पूर्व ज़माने से 1.5 डिग्री सेल्सियस से अधिक नहीं बढ़ने देना है। और इस लक्ष्य को पाने के लिए वर्ष 2100 से पूर्व दुनिया में कार्बन डाईऑक्साइड का उत्सर्जन 580 गिगाटन से ज़्यादा नहीं हो सकता। यदि इसे मानें तो, युनिवर्सिटी कॉलेज लंदन के पर्यावरण व ऊर्जा अर्थ शास्त्री डैन वेलस्बी ने गणना की है कि हमें 89 प्रतिशत कोयला, 58 प्रतिशत तेल और 59 प्रतिशत गैस भंडारों को हाथ लगाने की सोचना भी नहीं चाहिए। और तो और, उनके मुताबिक ये सीमाएं और कठोर बनानी पड़ सकती हैं।
दरअसल,
यह नया अध्ययन 2015 में विकसित एक मॉडल को विस्तार देता है।
वह मॉडल धरती के औसत तापमान को उद्योग-पूर्व काल से 2 डिग्री सेल्सियस अधिक होने
से रोकने के लक्ष्य को ध्यान में रखकर बनाया गया था। लेकिन वेलस्बी का मत है कि 2
डिग्री की वृद्धि बहुत अधिक साबित होगी।
वेलस्बी के मॉडल में सारे प्राथमिक ऊर्जा स्रोतों को ध्यान में रखा गया है – जीवाश्म ईंधन, जैव-पदार्थ, परमाणु तथा नवीकरणीय ऊर्जा। मॉडल में मांग, आर्थिक कारकों, संसाधनों के भौगोलिक वितरण और उत्सर्जन जैसी सभी बातों को शामिल किया गया है और देखा गया है कि समय के साथ इनमें क्या परिवर्तन आएंगे। मॉडल में ऋणात्मक उत्सर्जन टेक्नॉलॉजी (यानी वातावरण में से कार्बन डाईऑक्साइड को हटाने) पर भी ध्यान दिया गया है।
वेलस्बी के मॉडल के मुताबिक वर्ष 2050 तक तेल व गैस उत्पादन प्रति वर्ष 3 प्रतिशत कम होते जाना चाहिए। वैसे इस संदर्भ में क्षेत्रीय अंतर भी देखे जा सकते हैं। इसका मतलब होगा कि अधिकतम जीवाश्म ईंधन उत्पादन इसी दशक में आ जाएगा।
मॉडल में वातावरण में से कार्बन डाईऑक्साइड को हटाने की रणनीतियों पर भी विचार किया गया है। ऐसी टेक्नॉलॉजी से आशय है कि पहले आप वातावरण में कार्बन डाईऑक्साइड छोड़ें और फिर उसे हटाने के उपाय करें। लेकिन कई वैज्ञानिकों के अनुसार यह जोखिमभरा हो सकता है। उनके मुताबिक इसका मतलब सिर्फ इतना ही है कि हम समस्या को थोड़ा आगे सरका रहे हैं। क्योंकि उत्सर्जन तो बदस्तूर जारी रहेगा। (स्रोत फीचर्स)
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हाल ही में देखा गया है कि प्रदूषण के कारण विशाल सीप (क्लैम)
अपने पूर्वजों की अपेक्षा तेज़ी से वृद्धि करती हैं।
प्रदूषण और समुद्र के बढ़ते तापमान के कारण
कोरल रीफ का पारिस्थितिकी तंत्र तबाह हो रहा है। लेकिन कोरल को तबाह करने वाली
स्थितियां उत्तरी लाल सागर में पाई जाने वाली विशाल सीप को बढ़ने में मदद कर रही
हैं।
विशाल सीप पश्चिमी प्रशांत महासागर और हिंद
महासागर की उथली चट्टानों में पाई जाती हैं। वृद्धि के दौरान उनकी खोल पर पट्टियां
बनती जाती हैं जो उनकी वार्षिक वृद्धि, यहां तक कि दैनिक वृद्धि, को
दर्शाती हैं। कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के डैनियल किलम और उनके साथियों ने लाल
सागर के उत्तरी छोर से एकत्रित विशाल सीप की आधुनिक और जीवाश्मित तीन प्रजातियों (ट्राइडेकना
स्क्वामोसा, टी. मैक्सिमा और टी. स्क्वामोसिना) के कवच में विकास पट्टियों का
विश्लेषण किया।
पाया गया कि आधुनिक विशाल सीप प्राचीन विशाल सीप की तुलना में तेज़ी से बढ़ती हैं। सीप के कवच के कार्बनिक पदार्थों के विश्लेषण से पता चला कि आधुनिक सीप प्रदूषण कारक नाइट्रेट को खाती है, जो सीप की कोशिकाओं पर रहने वाली सहजीवी शैवाल को भी बढ़ने में मदद करती है जिससे उन्हें अतिरिक्त र्इंधन मिल जाता है। इसके अलावा, ठंड कम होने और मौसमी तूफानों में कमी भी सीप के विकास में मदद करती है। लेकिन सीप की तेज़तर वृद्धि उनके समग्र स्वास्थ्य में सुधार को प्रतिबिंबित नहीं करती है।(स्रोत फीचर्स)
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जलवायु बदलाव के संकट पर चर्चा चरम पर है। इस समस्या की
गंभीरता के बारे में आंकड़े और अध्ययन तो निरंतर बढ़ रहे हैं, किंतु दुख व चिंता की बात है कि समाधान की राह स्पष्ट नहीं हो रही है।
इस अनिश्चय की स्थिति में महात्मा गांधी के विचारों को नए सिरे से टटोलना
ज़रूरी है। उनके विचारों में मूलत: सादगी को बहुत महत्त्व दिया गया है, अत: ये विचार हमें जलवायु बदलाव तथा अन्य गंभीर पर्यावरणीय समस्याओं के समाधान
की ओर भी ले जाते हैं।
जानी-मानी बात है कि जलवायु बदलाव के संकट को समय रहते नियंत्रित करने के लिए
ग्रीनहाऊस गैसों के उत्सर्जन को कम करना बहुत ज़रूरी है। यह अपने में सही बात है, पर इसके साथ एक अधिक व्यापक सच्चाई है कि केवल तकनीकी उपायों से ही पर्यावरण
का संकट हल नहीं हो सकता है।
यदि कुछ तकनीकी उपाय अपना लिए जाएं, जीवाश्म र्इंधन को कम कर
नवीकरणीय ऊर्जा को अधिक अपनाया जाए तो यह अपने आप में बहुत अच्छा व ज़रूरी बदलाव
होगा। पर यदि साथ में सादगी व समता के सिद्धांत को न अपनाया गया, विलासिता व विषमता को बढ़ाया गया, छीना-छपटी व उपभोगवाद को
बढ़ाया गया,
तो आज नहीं तो कल, किसी न किसी रूप में
पर्यावरण समस्या बहुत गंभीर रूप ले लेगी।
महात्मा गांधी के समय में ग्रीनहाऊस गैसों का उत्सर्जन कम करने की ज़रूरत तो
नहीं महसूस की जा रही थी, पर उन्होंने उस समय ही
पर्यावरण की समस्या का मर्म पकड़ लिया था जब उन्होंने कहा था कि धरती के पास सबकी
ज़रूरतों को पूरा करने के लिए तो पर्याप्त संसाधन हैं, पर
लालच को पूरा करने के लिए नहीं।
उन्होंने अन्याय व विषमता के विरुद्ध लड़ते हुए विकल्प के रूप में ऐसे सब्ज़बाग
नहीं दिखाए कि सफलता मिलने पर तुम भी मौज-मस्ती से रहना। उन्होंने मौज-मस्ती और
विलासिता को नहीं, मेहनत और सादगी को प्रतिष्ठित किया। सभी
लोग मेहनत करें और इसके आधार पर किसी को कष्ट पहुंचाए बिना अपनी सभी बुनियादी
ज़रूरतों को पूरा कर सकें व मिल-जुल कर रहें, सार्थक
जीवन का यह बहुत सीधा-सरल रूप उन्होंने प्रस्तुत किया।
दूसरी ओर,
आज अंतहीन आर्थिक विकास की ही बात हो रही है जबकि विषमता व
विलासिता के विरुद्ध कुछ नहीं कहा जा रहा है। विकास के इस मॉडल में कुछ लोगों के
विलासितपूर्ण जीवन के लिए दूसरों के संसाधन छिनते हैं व पर्यावरण का संकट विकट
होता है। इसके बावजूद इस मॉडल पर ही अधिक तेज़ी से आगे बढ़ने को महत्व मिल रहा है।
इस कारण विषमता बढ़ रही है, अभाव बढ़ रहे हैं, असंतोष बढ़ रहा है और हिंसा व युद्ध के बुनियादी कारण बढ़ रहे हैं।
जबकि गांधी की सोच में अहिंसा, सादगी, समता, पर्यावरण की रक्षा का बेहद सार्थक मिलन है। अत: धरती पर आज जब जीवन के
अस्तित्व मात्र का संकट मौजूद है, मौजूदा विकास मॉडल के विकल्प तलाशने
में महात्मा गांधी के जीवन व विचार से बहुत सहायता व प्रेरणा मिल सकती है।
जलवायु बदलाव व ग्रीनहाऊस गैसों के उत्सर्जन को कम करने के लिए कभी-कभी कहा
जाता है कि ऊर्जा आवश्यकता को पूरा करने के लिए बहुत बड़े पैमाने पर परमाणु ऊर्जा
संयंत्र लगाए जाएं। पर खनन से लेकर अवशेष ठिकाने लगाने तक परमाणु ऊर्जा में भी खतरे
ही खतरे हैं,
गंभीर समस्याएं हैं। साथ में परमाणु बिजली उत्पादन के साथ
परमाणु हथियारों के उत्पादन की संभावना का मुद्दा भी जुड़ा हुआ है। अत: जलवायु
बदलाव के नियंत्रण के नाम पर परमाणु बिजली के उत्पादन में तेज़ी से वृद्धि करना
उचित नहीं है।
इसी तरह कुछ लोग पनबिजली परियोजनाओं के बड़े बांध बनाने पर ज़ोर दे रहे हैं।
लेकिन बांध-निर्माण से जुड़ी अनेक गंभीर सामाजिक व पर्यावरणीय समस्याएं पहले ही
सामने आ चुकी हैं। कृत्रिम जलाशयों में बहुत मीथेन गैस का उत्सर्जन भी होता है जो
कि एक ग्रीनहाऊस गैस है। अत: जलवायु बदलाव के नियंत्रण के नाम पर बांध निर्माण में
तेज़ी लाना किसी तरह उचित नहीं है।
जलवायु बदलाव के नियंत्रण को प्राय: एक तकनीकी मुद्दे के रूप में देखा जाता है, ऐसे तकनीकी उपायों के रूप में जिनसे ग्रीनहाऊस गैसों का उत्सर्जन कम हो सके।
यह सच है कि तकनीकी बदलाव ज़रूरी हैं पर जलवायु बदलाव का मुद्दा केवल इन तक सीमित
नहीं है।
जलवायु बदलाव को नियंत्रित करने के लिए जीवन-शैली में बदलाव ज़रूरी है, व इसके साथ जीवन-मूल्यों में बदलाव ज़रूरी है। उपभोगवाद का विरोध ज़रूरी है, विलासिता,
नशे, युद्ध व हथियारों की दौड़ व होड़
का विरोध बहुत ज़रूरी है। पर्यावरण पर अधिक बोझ डाले बिना सबकी ज़रूरतें पूरी करनी
है तो न्याय व साझेदारी की सोच ज़रूरी है।
अत: जलवायु बदलाव नियंत्रण का सामाजिक पक्ष बहुत महत्वपूर्ण है। आज विश्व के
अनेक बड़े मंचों से बार-बार कहा जा रहा है कि जलवायु बदलाव को समय रहते नियंत्रण
करना बहुत ज़रूरी है, पर क्या मात्र कह देने से या आह्वान करने
से समस्या हल हो जाएगी। वास्तव में लोग तभी बड़ी संख्या में इसके लिए आगे आएंगे जब
आम लोगों में,
युवाओं व छात्रों में, किसानों
व मज़दूरों के बीच न्यायसंगत व असरदार समाधानों के लिए तीन-चार वर्षों तक धैर्य से, निरंतरता व प्रतिबद्धता से कार्य किया जाए। तकनीकी पक्ष के साथ सामाजिक पक्ष
को समुचित महत्व देना बहुत ज़रूरी है।
एक अन्य सवाल यह है कि क्या मौजूदा आर्थिक विकास व संवृद्धि के दायरे में
जलवायु बदलाव जैसी गंभीर पर्यावरणीय समस्याओं का समाधान हो सकता है? मौजूदा विकास की गंभीर विसंगतियां और विकृतियां ऐसी ही बनी रहीं तो क्या
जलवायु बदलाव जैसी गंभीर पर्यावरणीय समस्याएं नियंत्रित हो सकेंगी? इस प्रश्न का उत्तर है ‘नहीं’। वजह यह है कि मौजूदा विकास की राह में बहुत
विषमता और अन्याय व प्रकृति का निर्मम दोहन है।
पहले यह कहा जाता था कि संसाधन सीमित है उनका सही वितरण करो। पर अब तो
ग्रीनहाऊस गैसों के उत्सर्जन से जुड़ी कार्बन की सीमा है। इस सीमा के अंदर ही हमें
सब लोगों की ज़रूरतों को टिकाऊ आधार पर पूरा करना है। अत: अब विषमता को दूर करना, विलासिता व अपव्यय को दूर करना, समता व न्याय को ध्यान में
रखना,
भावी पीढ़ी के हितों को ध्यान में रखना पहले से भी कहीं अधिक
ज़रूरी हो गया है।
सही व विस्तृत योजना बनाना इस कारण और ज़रूरी हो गया है कि ग्रीनहाऊस गैसों के उत्सर्जन को तेज़ी से कम करते हुए सब लोगों की बुनियादी ज़रूरतों को न्यायसंगत व टिकाऊ ढंग से पूरा करना है। यह एक बहुत बड़ी चुनौती है जिसके लिए बहुत रचनात्मक समाधान ढूंढने होंगे। जैसे, युद्ध व हथियारों की होड़ को समाप्त किया जाए या न्यूनतम किया जाए, बहुत बरबादीपूर्ण उत्पादन व उपभोग को समाप्त किया जाए या बहुत नियंत्रित किया जाए। पर्यावरण के प्रति समग्र दृष्टिकोण अपनाने से इन सभी प्रक्रियाओं में बहुत सहायता मिलेगी। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://delhigreens.com/wp-content/uploads/2017/10/gandhi-environment-and-sustainability.jpg