धरती के बदलते हालात का एक नया और चौंकाने वाला संकेत सामने आया है — दुनिया भर के जंगल अब धीरे-धीरे पहाड़ों पर ऊंचाइयों की ओर बढ़ रहे हैं। वैज्ञानिकों ने पहले ही अनुमान लगाया था कि जैसे-जैसे वैश्विक तापमान (global warming) बढ़ेगा, पेड़ ठंडे इलाकों की ओर खिसकेंगे। लेकिन अब साफ दिख रहा है कि यह परिवर्तन सिर्फ ध्रुवों की दिशा में नहीं, बल्कि पहाड़ों के ऊपरी हिस्सों की ओर (tree-line shift) भी हो रहा है।
बायोजियोसाइंसेज़ पत्रिका में प्रकाशित एक हालिया अध्ययन में 1984 से 2017 तक के पश्चिमी कनाडा से लेकर पनामा तक 115 पर्वत-शिखरों के उपग्रह डैटा (satellite data) का विश्लेषण किया गया है। वैज्ञानिकों को आश्चर्य हुआ कि जंगलों का सबसे तेज़ ऊर्ध्वगामी (ऊपर की ओर) विस्तार ठंडे उत्तरी क्षेत्रों में नहीं, बल्कि मेक्सिको और मध्य अमेरिका के उष्णकटिबंधीय पहाड़ों में दिखा। यहां पेड़ों की ऊपरी सीमा, जिसे ट्री-लाइन कहा जाता है, हर साल कई मीटर ऊपर जा रही है।
यह खोज इस आम धारणा को चुनौती देती है कि वैश्विक ऊष्मीकरण (climate change impact) का असर सबसे ज़्यादा ध्रुवीय इलाकों में होता है। जबकि जैव विविधता और नाज़ुक पारिस्थितिक तंत्रों से भरपूर उष्णकटिबंधीय क्षेत्र अब इस परिवर्तन की सबसे तेज़ गति दिखा रहे हैं। हालांकि वैज्ञानिकों का कहना है कि हर बदलाव को सीधे जलवायु परिवर्तन से जोड़ना उचित नहीं है। अध्ययन में उन पहाड़ों को शामिल नहीं किया गया था जहां मानव गतिविधियां जैसे खेती, चराई या वृक्ष कटाई का असर था।
एक समस्या ट्री-लाइन की परिभाषा को लेकर है। कुछ वैज्ञानिक इसे तापमान आधारित सीमा (temperature threshold) मानते हैं यानी जहां तापमान 6 डिग्री सेल्सियस से नीचे जाने पर पेड़ नहीं उग पाते। वहीं, कुछ इसे भौतिक सीमा के रूप में देखते हैं यानी वह ऊंचाई जहां पेड़ों की वृद्धि रुक जाती है।
अब तक ज़्यादातर ऐसे अध्ययन उत्तरी अमेरिका और युरोप तक सीमित थे। उदाहरण के लिए, आल्प्स पर्वत में शोध से पता चला था कि औद्योगिक युग से अब तक तापमान में लगभग 3 डिग्री सेल्सियस वृद्धि के कारण ट्री-लाइन ऊपर खिसकी है। लेकिन दुनिया के अन्य हिस्सों में यह रुझान स्पष्ट नहीं था। इसी कारण मैक्सिको के वैज्ञानिक डैनियल जिमेनेज़-गार्सिया और टाउनसेंड पीटरसन ने 15 ज्वालामुखी पर्वतों पर पुन: अध्ययन किया और पाया कि वहां सिर्फ तीन दशकों में ट्री-लाइन लगभग 500 मीटर ऊपर चली गई है। यही खोज आगे चलकर पूरे अमेरिका महाद्वीप में व्यापक अध्ययन का आधार बनी।
इस अध्ययन के लिए वैज्ञानिकों ने लैंडसैट उपग्रहों (Landsat images) से प्राप्त 40 वर्षों की तस्वीरों का विश्लेषण किया। और तो और पीटरसन ने खुद घूम-घूमकर ट्री-लाइन की सीमाएं चिन्हित कीं। इस लंबी मेहनत से अब तक का सबसे व्यापक वैश्विक डैटा रिकॉर्ड तैयार हुआ।
विशेषज्ञ मानते हैं कि यह तरीका पूर्णत: त्रुटिहीन तो नहीं है, परंतु बड़े पैमाने के रुझान समझने में बेहद कारगर है। कुछ मामलों में तो पेड़ पुराने चारागाहों या छोड़े गए इलाकों पर फिर से लौट रहे हैं, पर कुल मिलाकर जंगलों के ऊपर बढ़ने का रुझान स्पष्ट और व्यापक (forest expansion) है।
एक सवाल है कि उष्णकटिबंधीय जंगल इतनी तेज़ी से ऊपर क्यों बढ़ रहे हैं? वैज्ञानिकों के अनुसार, इसका एक कारण पानी की उपलब्धता है। ध्रुवों के ऊंचे इलाके अपेक्षाकृत सूखे रहते हैं जबकि भूमध्य रेखा के आसपास ऊंचे पहाड़ी इलाके आम तौर पर अधिक वर्षा और नमी वाले होते हैं। इसलिए तापमान में थोड़ी-सी भी वृद्धि हो तो यहां पेड़ अधिक ऊंचाई तक जीवित रह पाते हैं।
अब शोधकर्ता 1870 के दशक की पुरानी तस्वीरों की तुलना आधुनिक उपग्रह चित्रों (historical vs modern images) से कर रहे हैं, ताकि पता चल सके कि यह बदलाव कितनी तेज़ी और कितनी दूर-दूर तक हुआ है। शुरुआती नतीजे दिखाते हैं कि पुराने और नए डैटा में समानता है यानी जंगलों का ऊपर की ओर बढ़ना लगातार तेज़ हो रहा है।
भविष्य में टीम की कोशिश है कि कृत्रिम बुद्धि की मदद से दुनिया भर में इन परिवर्तनों को स्वचालित रूप से पहचाना जा सके (AI monitoring)। यह बदलाव समझना बेहद ज़रूरी है, क्योंकि जैसे-जैसे जंगल ऊपर बढ़ रहे हैं, वैसे-वैसे पहाड़ों की ऊंचाइयों पर रहने वाले नाज़ुक और ठंड पसंद पौधों व अन्य जीवों के लिए जगह कम होती जा रही है, इकोसिस्टम बदल (ecosystem change) रही है।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.science.org/content/article/forests-are-migrating-mountain-peaks
कोपी लुवाक (Kopi Luwak) नामक कॉफी (specialty coffee) का एक कप भी किसी आलीशान डिनर जितना महंगा हो सकता है। यह कॉफी अपने कड़क और अनोखे स्वाद के लिए जानी जाती है, जिसमें गिरियों, मिट्टी, चॉकलेट और कभी-कभी मछली की हल्की महक आती है (coffee flavor profile)।
इस कॉफी को स्वाद तब मिलता है जब एक एशियाई बिल्ली – पाम सिवेट (Paradoxurus hermaphroditus) – पकी हुई कॉफी बेरी (लाल गूदेदार फल) खाती है। सिवेट के पेट के एंज़ाइम इन बेरी (coffee cherry) की बाहरी परत को थोड़ा पचा देते हैं, लेकिन अंदर के बीज (बीन्स) साबुत ही रहते हैं। इन्हें सिवेट की विष्ठा से निकाल लिया जाता है, फिर उन्हें साफ करके भूना जाता है और इसी से बनती है कॉफी ‘कोपी लुवाक’।
इतनी लंबी श्रमसाध्य प्रक्रिया और इसकी कम उपलब्धता के कारण इसका एक प्याला जेब से 75 डॉलर (लगभग 6600 रुपए) खर्च करवाता (expensive coffee) है। लेकिन ऐसा स्वाद आता कैसे है?
यह पता लगाया है भारतीय वैज्ञानिकों की एक टीम ने। केरल स्थित सेंट्रल युनिवर्सिटी के प्राणी विज्ञानी पालट्टी अलेश सीनू और उनकी टीम ने कर्नाटक के कोडगु जिले में पाए जाने वाले जंगली सिवेट के मल से कॉफी बीन्स इकट्ठे किए और उनकी तुलना सीधे पौधों से तोड़े गए कॉफी बीन्स से की (wild civet coffee)।
गैस क्रोमैटोग्राफी-मास स्पेक्ट्रोमेट्री तकनीक (GC–MS analysis) का इस्तेमाल करके वैज्ञानिकों ने सिवेट के पाचन तंत्र से गुज़रे बीन्स में कैप्रिलिक एसिड और कैप्रिक एसिड की मात्रा सामान्य बीन्स की तुलना में कहीं अधिक पाई। ये वही फैटी एसिड हैं जो डेयरी उत्पादों को स्वादिष्ट बनाने के काम आते हैं। सिवेट के पेट में मौजूद ग्लूकोनोबैक्टर नामक बैक्टीरिया और एंज़ाइम इन यौगिकों को बनाते या बढ़ाते हैं, जिससे कॉफी के स्वाद और खुशबू में परिवर्तन आता है।
पूर्व में किए गए अध्ययनों से पता चलता है कि सिवेट के पाचन तंत्र से गुज़रे कॉफी बीन्स सामान्य बीन्स की तुलना में ज़्यादा भुरभुरे होते हैं, उनमें प्रोटीन की मात्रा कम लेकिन वसा की मात्रा अधिक होती है (coffee bean chemistry)। इसके अलावा, यह भी देखा गया कि जंगली सिवेट हमेशा पकी और बड़ी कॉफी बेरी ही चुनते हैं।
फिलहाल यह अध्ययन भारत में मौजूद रोबस्टा कॉफी पर किया गया था लेकिन वाणिज्यिक तौर पर कोपी लुवाक अधिकतर अरेबिका (Arabica coffee) से बनती है। इसलिए वैज्ञानिक इसे अरेबिका बीन्स पर दोहराने का सुझाव देते हैं। इसके साथ ही, वे यह भी समझना चाहते हैं कि भूनने की प्रक्रिया के दौरान ये फैटी एसिड कैसे बदलते हैं और अंतिम स्वाद को कैसे प्रभावित करते हैं।
बेशक यह कॉफी स्वादिष्ट है जिसके मंहगे दाम चुकाकर हम इसे पी सकते हैं, लेकिन इस स्वाद का खामियाजा सिवेट को चुकाना (animal cruelty) पड़ता है। बीन्स के लिए सिवेट को छोटे पिंजरों में बंद कर जबरन कॉफी बेरी खिलाई जाती हैं। उम्मीद है सिवेट के पेट में होने वाली पाचन और किण्वन प्रक्रिया को समझकर सिवेट को इस अत्याचार से बचाया जा सकेगा और हमें स्वाद भी मिलेगा(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://static.scientificamerican.com/dam/m/43d6729d2e075d6/original/GettyImages-2208450062_resized.jpeg?m=1761598008.346
दुनिया के सबसे विशाल वर्षावन अमेज़न (Amazon rainforest) पर खतरा अब कोई दूर की आशंका नहीं, बल्कि एक आसन्न सच्चाई है। वनों की अंधाधुंध कटाई (deforestation), तेल और गैस के खनन तथा जलवायु परिवर्तन ने इसे उस बिंदु तक पहुंचा रहे हैं, जहां से लौटना शायद संभव नहीं रहेगा। वैज्ञानिक चेतावनी दे रहे हैं कि अमेज़न अब ‘कार्बन सोखने वाले’ वन से ‘कार्बन छोड़ने वाले’ क्षेत्र (carbon emitter) में बदलने की कगार पर है।
ऐसे समय में एक नई रिपोर्ट ने अमेज़न के विनाश के लिए ज़िम्मेदार वित्तीय ढांचे (financial systems) को बेनकाब किया है। पर्यावरण संगठन ‘स्टैंड.अर्थ’ की रिपोर्ट ‘बैंक्स वर्सेस दी अमेज़न स्कोरकार्ड’ बताती है कि 2016 में पेरिस समझौते के बाद से अमेज़न क्षेत्र में तेल और गैस परियोजनाओं को मिलने वाले वित्त का लगभग तीन-चौथाई हिस्सा सिर्फ दस बैंकों से आता रहा है। इनमें जेपी मॉर्गन चेज़, सिटी बैंक ऑफ अमेरिका, इताउ युनिबैंको (ब्राज़ील) और एचएसबीसी जैसे बड़े नाम शामिल हैं। इन बैंकों ने अमेज़न के भीतर जीवाश्म ईंधन से जुड़ी परियोजनाओं में 15 अरब डॉलर से अधिक झोंक दिए हैं (fossil fuel financing)।
युरोप पीछे हटा, अमेरिका आगे बढ़ा
पिछले कुछ वर्षों में युरोप के कई बैंकों ने अपने कदम पीछे खींचे हैं। फ्रांस का बीएनपी परिबा और ब्रिटेन का एचएसबीसी अब अमेज़न से जुड़ी कंपनियों को ऋण देना बंद कर चुके हैं (banking policy change)। उन्होंने ऐसी नीतियां अपनाई हैं जो अमेज़न में तेल और गैस खनन कंपनियों को वित्त नहीं देतीं।
लेकिन जहां युरोपीय बैंक पीछे हटे, वहीं अमेरिका और लैटिन अमेरिका के बैंक उस खाली जगह को भरने में लगे हैं। ब्राज़ील का इताउ युनिबैंको अब शीर्ष पर पहुंच गया है – पिछले 18 महीनों में उसने 37.8 करोड़ डॉलर की नई फंडिंग दी है। जेपी मॉर्गन चेज़ और बैंक ऑफ अमेरिका उससे थोड़ा पीछे हैं। इसी अवधि में पेरू के क्रेडिकॉर्प और कनाडा के स्कोटियाबैंक ने भी अपने निवेश को लगभग तीन गुना बढ़ा दिया है (Amazon oil projects)।
रिपोर्ट की प्रमुख शोधकर्ता डॉ. देवयानी सिंह का कहना है, “युरोपीय बैंकों ने अपेक्षाकृत सख्त नीतियां लागू की हैं, लेकिन कोई भी बैंक अब तक अपने वित्तपोषण को शून्य नहीं कर पाया है। हर बैंक को लूपहोल बंद करने होंगे और बिना देरी अमेज़न से बाहर निकलना होगा।”
तेल के धब्बे और बीमारियां
दी इकॉलॉजिस्ट में प्रकाशित एक लेख के अनुसार, अमेज़न में तेल और गैस की खुदाई (oil drilling impact) सिर्फ पर्यावरण को ही नहीं, बल्कि स्थानीय जीवन को भी गहराई से प्रभावित कर रही है। ब्राज़ील, इक्वाडोर, पेरू और कोलंबिया में 6000 से अधिक तेल-संदूषित स्थल दर्ज किए गए हैं। खनन क्षेत्रों के आसपास रहने वाले समुदायों में कैंसर, गर्भपात व श्वसन रोगों के मामले लगातार बढ़ रहे हैं (health impact)।
इसके बावजूद, सरकारें पीछे हटने को तैयार नहीं। ब्राज़ील ने इस साल की शुरुआत में 68 नए तेल ब्लॉक की नीलामी की। इक्वाडोर में 2023 में यासुनी नेशनल पार्क में ड्रिलिंग रोकने के पक्ष में हुए जनमत-संग्रह के बाद भी काम जारी है। पेरू में 31 नए तेल ब्लॉक आवंटित किए गए हैं, जिनमें से कई 400 से अधिक देशज समुदायों की भूमि से ओवरलैप करते हैं।
अमेज़न की ओलीविया बिसा कहती हैं, “जब जंगल खुद संकट में है, तब बैंक ऑफ अमेरिका, स्कोटियाबैंक और इताउ जैसे बैंक इन परियोजनाओं को बढ़ावा दे रहे हैं। दशकों से हमारे देशज समुदाय इस विनाश का सबसे बड़ा भार उठा रहे हैं। अब समय आ गया है कि बैंक अमेज़न को तेल की लत से मुक्त करें।”
भ्रष्टाचार और चुप्पी
रिपोर्ट में बताया गया है कि 2024 से अब तक अमेज़न क्षेत्र में 2 अरब डॉलर से अधिक की नई फंडिंग केवल छह कंपनियों को मिली है – पेट्रोब्रास, एनेवा, गनवोर, ग्रैन टिएरा, प्लसपेट्रोल कैमिसेआ एवं हंट ऑयल पेरू। इन सभी पर भ्रष्टाचार (corruption cases), पर्यावरणीय क्षति और देशज अधिकारों के उल्लंघन के आरोप हैं।
ब्राज़ील की कंपनी एनेवा को हाल ही में संघीय अदालत ने अपनी गतिविधियां रोकने का आदेश दिया था क्योंकि उसने देशज समुदायों के अधिकारों और पर्यावरण कानूनों का उल्लंघन किया था। फिर भी, उसे इताउ यूनिबैंको, बैंको डो ब्रासिल, सैंटेंडर और अन्य बैंकों से वित्त पोषण मिलता रहा।
इसी तरह, स्विस कंपनी गनवोर को 2013 से 2020 के बीच इक्वाडोर में अधिकारियों को रिश्वत देकर तेल अनुबंध हासिल करने का दोषी पाया गया था, लेकिन इसके बावजूद उसे आईएनजी बैंक से वित्तीय सहायता मिलती रही (oil corruption scandal)। इससे यह साफ होता है कि आंशिक प्रतिबंध और ‘परियोजना-स्तर’ की नीतियां अक्सर औपचारिकता से ज़्यादा कुछ नहीं होतीं।
वित्तीय नीतियों की ज़िम्मेदारी
रिपोर्ट में सभी बैंकों से अपील की गई है कि वे 2030 तक अमेज़न में तेल और गैस परियोजनाओं के वित्तपोषण को पूरी तरह समाप्त करें (fossil finance exit) – चाहे वह ऋण के रूप में हो, बॉन्ड में निवेश के रूप में हो या परामर्श सेवाओं के रूप में। साथ ही, संयुक्त राष्ट्र की देशज लोगों के अधिकारों पर घोषणा (UNDRIP rights) के अनुरूप नीतियां अपनाने की सिफारिश की गई है।
अमेज़न वह सांस है जिससे पृथ्वी जीवित है। पर यदि यह सांस रुक गई, तो इसका असर पूरे ग्रह पर पड़ेगा। आने वाला दशक तय करेगा कि यह महान वन जीवित रहेगा या इतिहास बन जाएगा? यह सवाल सिर्फ सरकारों या पर्यावरणविदों के लिए नहीं, बल्कि उन बैंकों के लिए भी है जिनके धन से यह विनाश चल रहा है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://gumlet.assettype.com/down-to-earth%2Fimport%2Flibrary%2Flarge%2F2022-11-17%2F0.19095600_1668668600_amazon.jpg?w=768&auto=format%2Ccompress&fit=max
यह लेख मूलत: रेवेलेटर एन्वायरमेंटल न्यूज़ एंड कमेंटरी में प्रकाशित हुआ था। मूल अंग्रेज़ी पढ़ने के लिए लिंक: https://therevelator.org/himalayas-climate-change/
हिमालय पर्वत (Himalayan Mountains) शृंखला दुनिया की सबसे नवीन और नाज़ुक पर्वत शृंखलाओं में से एक है लेकिन हम उसके साथ ऐसे बर्ताव करते हैं जैसे कि उसमें असीम लचीलापन और सहिष्णुता है। विकास (development projects) के नाम पर धमाके कर-करके पहाड़ों को चोटी-दर-चोटी उड़ाया जा रहा है, सुरंगें खोद-खोदकर सड़कें बनाई जा रही हैं, एक के बाद एक पनबिजली परियोजनाओं और पर्यटन स्थलों (hydropower and tourism) का निर्माण हो रहा है।
लेकिन हम यह भूल रहे हैं कि हिमालय केवल हमारी महत्वाकांक्षाओं के लिए धरातल नहीं बल्कि एक जीवित तंत्र (living ecosystem) है। किसी भी प्रकार का विस्फोट, ढलान को समतल करने का हर प्रयास, हर कटा हुआ पेड़ इन पहाड़ों को कमज़ोर कर रहा है और धीरे-धीरे उन्हें बिखरने की कगार पर ला रहा है।
जो लोग इन पहाड़ों में पले-बढ़े हैं, उनके लिए ये केवल पत्थरों के ढेर नहीं, बल्कि घर और इतिहास है। यही पर्वत अनगिनत पक्षियों, जीवों और नाज़ुक पारिस्थितिक तंत्रों (Himalayan biodiversity) का आश्रय है। जब हम जंगल काटते हैं या नदियों को बांधते हैं, तो हम केवल संसाधनों को नहीं खोते, बल्कि अपने घर, अपनी सुरक्षा और अपनी भावनाओं का एक हिस्सा भी खो देते हैं।
अव्यवस्था और विनाश
जब जंगल साफ किए जाते हैं, झीलें या दलदली ज़मीन सुखा दी जाती हैं, और पहाड़ी ढलानों को अस्त-व्यस्त कर दिया जाता है, तो समूचे पारिस्थितिक तंत्र अपना संतुलन (ecosystem destruction) खो देते हैं। इसके बाद आने वाली बाढ़, भूस्खलन (landslides) और भू-क्षरण इंसानों और जानवरों दोनों को प्रभावित करते हैं।
अगस्त 2025 में उत्तरकाशी के धराली गांव का एक बड़ा हिस्सा मिट्टी और मलबे के सैलाब (flash flood) में दब गया। इसी साल हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड और जम्मू-कश्मीर में भी कई ऐसे हादसे हुए जिन्होंने, कुछ समय के लिए ही सही, पूरी दुनिया का ध्यान खींचा। आज, महीनों बाद भी वहां के लोग अपने घर और ज़िंदगी दोबारा बसाने के लिए जूझ रहे हैं।
ये आपदाएं हमें तीन परस्पर सम्बंधित बातों का संकेत देती हैं: पहाड़ बहुत नाज़ुक हैं, मौसम का मिज़ाज अब पहले से ज़्यादा उग्र व इन्तहाई हो गया है, और इंसान हालात को बदतर कर रहे हैं।
अचानक आने वाली विशाल बाढ़ें (cloudburst disaster) अक्सर बादल फटने (बारिश बम) (cloudburst) के कारण होती हैं – जब ऊंचे पहाड़ मानसूनी बादलों को सारा पानी एकसाथ बरसाने पर मजबूर कर देते हैं। चूंकि अब हवा पहले से ज़्यादा गर्म है, इसलिए उसमें नमी धारण करने की क्षमता ज़्यादा है (जो जलवायु विज्ञान का एक अहम सिद्धांत है), जिससे ऐसी बादल फटने की घटनाएं ज़्यादा मर्तबा होती हैं और पहले से अधिक उग्र हो गई हैं।
इसी के साथ बढ़ती गर्मी हिमनदों को तेज़ी से पिघला (glacier melting) रही है, जिससे ग्लेशियर-जनित झीलें अस्थिर होकर फूट जाती हैं और पानी, बर्फ और चट्टानें नीचे की ओर बह निकलते हैं।
इंसानी दखल से यह प्राकृतिक खतरा और भी बढ़ जाता है। जंगलों की कटाई (deforestation), बिना सोचे-समझे सड़कों और बांधों का निर्माण पहाड़ों की ढलान को कमज़ोर कर देता है, जिससे भारी बारिश एक निश्चित आपदा में बदल जाती है।
जलवायु जोखिम का केंद्र
जलवायु परिवर्तन पर अंतरसरकारी पैनल (IPCC report) की छठी रिपोर्ट उस बात की पुष्टि करती है जिसकी आशंका पहाड़ी समुदायों को पहले से थी। मानव-जनित जलवायु परिवर्तन (human-induced climate change) के कारण भारी बारिश और बाढ़ की घटनाएं अब पहले से कहीं अधिक हो रही हैं।
1980 के दशक से उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में बाढ़ (flood risk) की घटनाएं चार गुना और उत्तरी मध्य अक्षांश इलाकों में ढाई गुना बढ़ी हैं। अगर तापमान 3–4 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ता है, तो नदियों की बाढ़ों से प्रभावित लोगों की संख्या दुगनी हो सकती है, और कुल नुकसान (1.5 डिग्री सेल्सियस वृद्धि की तुलना में) चार से पांच गुना तक बढ़ सकता है। यानी डिग्री का एक-एक अंश भी बहुत मायने रखता है।
हिमालय के लिए इसका क्या अर्थ है? एयर कंडीशनर, गाड़ियों और जीवाश्म ईंधनों (fossil fuels) के इस्तेमाल के नतीजे में बढ़ता तापमान हिमनदों को तेज़ी से पिघला रहा है, अस्थिर झीलें बन रही हैं, और बादल फटने व अचानक होने वाली तेज़ बरसातों (extreme rainfall) को बढ़ावा मिल रहा है। विश्व मौसमविज्ञान संगठन (WMO) के अनुसार वाहनों से निकलने वाला धुआं और शहरों की गर्मी हिमालयी कस्बों में स्थानीय तापमान को बढ़ाते हैं, जिससे हिमनदों (ग्लोशियर) के पिघलने की रफ्तार और तेज़ होती है।
इसके साथ ही, विकास के नाम पर लगातार पेड़ों की कटाई ने उन प्राकृतिक सोख्ताओं (‘स्पंज’) को नष्ट कर दिया है जो कभी बारिश का पानी सोखकर मिट्टी को थामे रखते थे। अब जब जंगल, आर्द्रभूमि और उपजाऊ मिट्टी (soil erosion) नष्ट हो रही हैं, तो हर मानसूनी लहर पहाड़ों से तेज़ी से नीचे उतरती है और तबाही मचा देती है।
जलवायु परिवर्तन का तनाव बढ़ने के साथ हिमालय का पारिस्थितिक तंत्र अपना प्राकृतिक सुरक्षा कवच खो रहा है। आज बादल फटने की कोई भी घटना तुरंत विनाशकारी बाढ़ में बदल सकती है; तेज़ बारिश भूस्खलन को जन्म दे सकती है; यहां तक कि मामूली तूफान भी अब भारी तबाही ला सकते हैं।
मानव-जनित तबाही इन समस्याओं को और बढ़ा रही है। नाज़ुक ढलानों पर विस्फोट करके सड़कों का निर्माण, बिना जलवायु जोखिम आकलन के पनबिजली परियोजनाओं और अनियंत्रित पर्यटन ने पहाड़ों को बेहद असुरक्षित बना दिया है। हर निर्माण कार्य हिमालय की उस स्वाभाविक मज़बूती को कम करता है जिस पर वह हज़ारों सालों से टिका रहा है।
हिमाचल प्रदेश का बेकर गांव ऐसे ही एक तूफान में सिर्फ बह नहीं गया था बल्कि एक चेतावनी बन गया: अगर हम खोखले पहाड़ों को और खोखला करते रहेंगे, तो वे हमें बचा नहीं पाएंगे। हमारे पास दो ही विकल्प हैं: या तो हम इन पहाड़ों को विकास के बोझ से ढहा दें, या समझदारी से उनका सम्मान करते हुए पुनर्निर्माण करें।
तीन आवश्यक कदम
हिमालयी इलाकों और वहां के लोगों को बचाने के लिए तीन फौरी कदम उठाने की ज़रूरत है। ये केवल सैद्धांतिक नीतिगत सुझाव नहीं हैं। ये वास्तविक अनुभवों पर आधारित अनिवार्यताएं हैं जो हमने सालों तक इस भूमि पर रहकर और इसके तेज़ी से बिगड़ते हालात को देखकर समझी हैं।
1.ऊंचाई वाले इलाकों में विस्फोट और निर्माण पर सीमा लगाएं: नाज़ुक पर्वतीय क्षेत्रों में विकास कार्य जलवायु जोखिम और पारिस्थितिक मूल्यांकन (ecological assessment) की कसौटी पर खरे उतरने पर ही हाथ में लिए जाएं। अगर सड़कें, बांध या इमारतें पहाड़ों की स्थिरता को नुकसान पहुंचा रहे हैं, तो उन्हें दोबारा डिज़ाइन किया जाए या किसी सुरक्षित जगह पर स्थानांतरित किया जाए।
इसके लिए भारत सरकार और राज्य सरकारों को बिना किसी अपवाद के पर्यावरणीय कानूनों का सख्ती से पालन करना होगा। किसी भी ढलान को समतल करने या उसमें सुरंग बनाने का निर्णय लेते समय इंसानी और पर्यावरणीय सुरक्षा दोनों का ध्यान रखना अनिवार्य होना चाहिए।
2. प्राकृतिक अवरोधों की बहाली: हमें अपने प्राकृतिक सुरक्षा कवच को फिर से मज़बूत करना होगा। इसका मतलब है नदियों के जलग्रहण क्षेत्रों में फिर से जंगल लगाना (reforestation), आर्द्रभूमियों और ऊंचाई वाले घास के मैदानों (alpine meadows) की रक्षा करना, और मिट्टी को स्वस्थ बनाए रखना। ये प्राकृतिक तंत्र बारिश का पानी सोखते हैं, बाढ़ का प्रभाव कम करते हैं और पहाड़ों की ढलानों को थामते हैं; यह सुरक्षा व्यवस्था किसी भी कॉन्क्रीट की दीवार से ज़्यादा प्रभावी होती है।
हर पेड़ लगाना, हर घास के मैदान को बचाना, हमारे भविष्य को सुरक्षित करने की दिशा में एक कदम है। इसके लिए स्थानीय समुदायों और सरकार, दोनों को मिलकर काम करना होगा। स्थानीय लोग अपनी भूमि को सबसे अच्छी तरह जानते हैं, और सरकार को इन महत्वपूर्ण प्रयासों को आर्थिक और नीतिगत समर्थन देना चाहिए।
3. पनबिजली और ऊर्जा योजनाएं जलवायु के अनुरूप बनें: पनबिजली परियोजनाओं का आकलन केवल लाभ के आधार पर नहीं, बल्कि जलवायु सुरक्षा (climate resilience) के दृष्टिकोण से होना चाहिए — जैसे वे हिमनद झील फटने या बादल को कैसे प्रभावित करती हैं।
साथ ही, वाहन प्रदूषण को कम करना, अत्यधिक ऊर्जा खर्च करने वाली ठंडक प्रणालियों (energy efficiency) को नियंत्रित करना, और टिकाऊ ऊर्जा स्रोतों को बढ़ावा देना ज़रूरी है। इससे ग्लेशियरों का पिघलना धीमा होगा और अचानक भारी वर्षा की घटनाएं कम होंगी।
वैश्विक जलवायु लक्ष्यों को पूरा करने की ज़िम्मेदारी वैसे तो पूरे विश्व समुदाय की है, लेकिन भारत को इसमें अग्रणी भूमिका निभानी होगी; खासकर हिमालय जैसे सबसे ऊंचे और नाज़ुक क्षेत्र में हरित ऊर्जा और पर्यावरण संरक्षण को प्राथमिकता देकर।
अगर इन कदमों को न अपनाया गया, तो हिमालयी पर्वत जवानी (Himalayas conservation) में ही मर जाएंगे। लेकिन अगर हम आज से ही टिकाऊ बदलाव (sustainable change) को अपनाएं, तो ये पर्वत, यहां का वन्य जीवन और यहां के लोग आने वाली कई सदियों तक सुरक्षित जीवन जी सकते हैं। आइए, हम सब मिलकर ऐसा हरित भविष्य बनाएं, जहां हर छोटा कदम और हर महत्वाकांक्षा प्रकृति के प्रति सम्मान पर आधारित हो। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://therevelator.org/wp-content/uploads/2025/11/james-chou-60tWv_X-avM-unsplash.jpg
समुद्र (ocean) तरह-तरह की आवाज़ों से गुंजायमान (sound waves) है – मनुष्य के जहाज़ों की धीमी गड़गड़ाहट से लेकर उसके नैसर्गिक रहवासियों जैसे व्हेल(whales), डॉल्फिन और झींगों की धीमी-तेज़ आवाज़ों तक से। और अब, शोधकर्ताओं ने पाया है कि समुद्र की ये नैसर्गिक आवाज़ें यह बताने में मदद कर सकती हैं कि पानी कितना अम्लीय है: ये आवाज़ें समुद्री अम्लीयकरण (ocean acidification) जैसे गंभीर पर्यावरणीय खतरे को समझने का नया तरीका बन सकती हैं।
जर्नल ऑफ जियोफिज़िकल रिसर्च: ओशियन (Journal of Geophysical Research: Oceans) में प्रकाशित अध्ययन के अनुसार लहरों, हवा और बारिश की आवाज़ें पानी की अम्लीयता को दूर तक और गहराई तक मापने में मददगार हो सकती हैं।
गौरतलब है कि समुद्र हर वर्ष मानव गतिविधियों (carbon emissions) से उत्सर्जित कार्बन डाईऑक्साइड का लगभग एक-तिहाई भाग सोख लेता है। इससे ग्लोबल वार्मिंग (global warming) में कुछ हद तक कमी तो होती है, लेकिन परिणामस्वरूप समुद्र के पानी की pH घटती है और वह अधिक अम्लीय हो जाता है। 1985 से अब तक समुद्र की सतह का pH 8.11 से घटकर 8.04 हो गई है। यह मामूली फर्क भी कोरल रीफ(coral reefs), समुद्री जीवों की खोल और पूरे समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र के लिए खतरा है।
इसी समस्या को समझने के लिए कनाडा के वैज्ञानिक डेविड बार्कले और उनकी टीम ने एक नया तरीका खोजा। उन्होंने हाइड्रोफोन (hydrophone technology) से लैस ‘डीप साउंड’ नामक उपकरण को 5000 मीटर गहराई तक भेजा और पाया कि इतनी गहराई में भी सतह की लहरों की आवाज़ें सुनी जा सकती है। शोध में पता चला कि समुद्र में मौजूद बोरिक एसिड और मैग्नीशियम सल्फेट जैसे रसायन अलग-अलग आवृत्तियों की ध्वनि (sound frequency) सोखते हैं। और अम्लीयता बढ़ने पर दोनों पर अलग-अलग असर होते हैं – जहां बोरिक एसिड घटता जाता है (और उसके द्वारा सोखी गई ध्वनि भी), वहीं मैग्नीशियम सल्फेट अप्रभावित रहता है। जैसे-जैसे समुद्र अम्लीय होता है, यह संतुलन बदलता है और ध्वनि की आवृत्ति की मदद से वैज्ञानिक समुद्र की pH माप सकते हैं। इस खोज (scientific discovery) को मुकम्मल करने में टीम को लगभग 15 साल लगे। लेकिन अब उनका नया उपकरण 10,000 मीटर की गहराई (मैरियाना ट्रेंच के चैलेंजर डीप) (Mariana Trench) तक काम कर सकता है। यह तकनीक बड़े पैमाने पर pH मॉनीटरिंग (pH monitoring) को संभव बनाती है।
हालांकि कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि यह तरीका अभी पारंपरिक रासायनिक मापों जितना सटीक नहीं है। अलबत्ता, मौजूदा रोबोटिक सेंसर आधारित BGC-Argo तकनीकें फंडिंग और सप्लाई की दिक्कतों से जूझ रही हैं, ऐसे में यह ध्वनि-आधारित तकनीक एक महत्वपूर्ण विकल्प (alternative technology) बन सकती है।
बहरहाल, योजना इन उपकरणों को महीनों तक समुद्र तल पर छोड़कर दीर्घकालिक डैटा (long-term data) जुटाने की है।(स्रोत फीचर्स)
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कई वर्षों से वैज्ञानिक चेतावनी दे रहे हैं कि इंसानी गतिविधियां तूफान (Storms), सूखा (Drought) और ग्रीष्म लहर (Heatwave) जैसी चरम घटनाओं को बढ़ा रही हैं। नेचर पत्रिका में प्रकाशित एक अध्ययन में वर्ष 2000 से 2023 के बीच दुनिया भर में दर्ज हुई कई ग्रीष्म लहरों का सीधा सम्बंध बड़ी जीवाश्म ईंधन कंपनियों से पाया गया है।
शोध के अनुसार, इस अवधि की लगभग एक-चौथाई ग्रीष्म लहरें कोयला (Coal), तेल (Oil) और गैस उत्पादन करने वाली बड़ी ऊर्जा कंपनियों के उत्सर्जन से जुड़ी हैं। वैज्ञानिक यान क्विलकाइल का मानना है कि ये बड़े कार्बन उत्सर्जक (Carbon Emitters) न केवल ग्रीष्म लहर की घटनाओं को बढ़ा रहे हैं बल्कि उन्हें और अधिक खतरनाक बना रहे हैं।
अध्ययन में पाया गया है कि 2000 से 2023 के बीच दर्ज की गई 213 ग्रीष्म लहरों में से एक-चौथाई से ज़्यादा होती ही नहीं यदि मानव-जनित ग्लोबल वार्मिंग (Global Warming) न हुआ होता। और भी चौंकाने वाली बात यह है कि इन कंपनियों के उत्सर्जन ने 53 ग्रीष्म लहरों की संभावना को 10,000 गुना तक बढ़ा दिया।
इस अध्ययन की खासियत यह है कि इसने जलवायु आपदाओं (Global Warming) को सीधे कुछ बड़ी कंपनियों से जोड़ा है, जैसे सऊदी अरामको (Saudi Aramco), गज़प्रोम (Gazprom) और भारत-चीन के बड़े कोयला व सीमेंट उत्पादक। ऐसी कुल 180 ‘कार्बन मेजर’ कंपनियों (Carbon Major Companies) को अब तक के लगभग 57 प्रतिशत ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के लिए ज़िम्मेदार पाया गया है। अन्य बड़े प्रदूषकों में सोवियत संघ के पुराने उद्योग, एक्सॉन मोबिल (ExxonMobil), शेवरॉन (Chevron), ईरान की राष्ट्रीय तेल कंपनी, ब्रिटिश पेट्रोलियम (BP) और शेल (Shell) शामिल हैं।
शोधकर्ताओं ने जलवायु मॉडल (Climate Model) का उपयोग करके यह भी बताया है कि दुनिया ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के साथ और बिना कैसी दिखती। इसके बाद उन्होंने कंपनियों के उत्सर्जन को दर्ज ग्रीष्म लहर की घटनाओं से जोड़ा।
कानूनी विशेषज्ञों (Legal Experts) का मानना है कि यह अध्ययन अदालतों में सबूत के तौर पर इस्तेमाल हो सकता है। मसलन, अमेरिका के ओरेगन राज्य (Oregon State) ने 2021 की ग्रीष्म लहर के लिए जीवाश्म ईंधन कंपनियों पर 52 अरब डॉलर का मुकदमा दायर किया है जहां इस तरह के अध्ययन साक्ष्य बन सकते हैं। ऐसे अध्ययन यह दिखाते हैं कि ज़िम्मेदारी को महज ‘सामूहिक दोष’ मानने की बजाय कंपनियों को दोषी (Corporate Accountability) ठहराया जा सकता है।(स्रोतफीचर्स)
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एक हालिया अध्ययन के अनुसार, पृथ्वी की कार्बन डाईऑक्साइड (carbon dioxide) को सुरक्षित रूप से भूमिगत भंडारण (carbon storage) की करने क्षमता पूर्व अनुमानों से कहीं कम है और यह साल 2200 तक खत्म भी हो सकती है। इसका मतलब है कि जलवायु परिवर्तन (climate change) से निपटने के लिए कार्बन कैप्चर और स्टोरेज जैसी तकनीकों को लंबी अवधि का हल मानना मुश्किल है।
पेरिस समझौते (Paris Agreement) के तहत धरती के तापमान को औद्योगिक-पूर्व स्तर से डेढ़ से दो डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखने के लिए वातावरण से काफी मात्रा में कार्बन डाईऑक्साइड को हटाना (CO2 removal) होगा। इसका एक तरीका है उद्योगों से निकलने वाली गैस को कैद करके गहराई में चट्टानों के बीच संग्रहित करना। पहले माना गया था कि धरती 10 से 40 हज़ार गीगाटन कार्बन डाईऑक्साइड संभाल सकती है, लेकिन ऑस्ट्रिया के वैज्ञानिकों का नया अध्ययन बताता है कि सुरक्षित क्षमता सिर्फ 1460 गीगाटन है।
इस अनुमान में भूकंप (earthquake risk) से होने वाले रिसाव, तकनीकी दिक्कतों और ज़मीन के उपयोग पर राजनीतिक पाबंदियों (land use restrictions) जैसे कारकों को भी शामिल किया गया है। अध्ययन में स्थिर तलछटी चट्टानों (sedimentary rocks) पर ही गौर किया गया है, जहां फिलहाल अधिकांश कार्बन भंडारण की योजनाएं बनाई जा रही हैं।
फिलहाल, कार्बन कैप्चर और स्टोरेज (CCS technology) तकनीक हर साल लगभग 4.9 करोड़ टन कार्बन डाईऑक्साइड हटाती है। योजना है कि इसे बढ़ाकर 41.6 करोड़ टन सालाना किया जाए। लेकिन पेरिस समझौते का लक्ष्य हासिल करने के लिए 2050 तक प्रति वर्ष 8.7 गीगाटन कार्बन डाईऑक्साइड हटाना होगा – यानी अगले 30 सालों में 175 गुना बढ़ोतरी (emission reduction target)।
वैज्ञानिकों का अनुमान है कि अगर धरती की सारी सुरक्षित क्षमता भी उपयोग कर ली जाए, तो भी तापमान केवल 0.7 डिग्री सेल्सियस ही घटेगा। जबकि इस सदी में तापमान 3 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ने का अंदेशा है। इसलिए सिर्फ कार्बन कैप्चर के भरोसे नहीं रहा जा सकता। ग्रीनहाउस गैस (greenhouse gases) उत्सर्जन को तेज़ी से घटाना होगा, नवीकरणीय ऊर्जा (renewable energy) को बढ़ाना होगा और टिकाऊ तरीकों को अपनाना होगा।
अध्ययन यह भी बताता है कि ज़मीन में दफन कार्बन डाईऑक्साइड (CO2 leakage) का रिसाव ज़मीन के पानी में घुलकर कार्बोनिक एसिड बना सकता है। इस तरह बढ़ी हुई अम्लीयता से खनिज घुल सकते हैं और ज़हरीली धातुएं निकल सकती हैं, जो पर्यावरण (environmental risk) और मानव स्वास्थ्य दोनों के लिए खतरनाक है।(स्रोतफीचर्स)
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वैश्विक तपन (global warming) अब कोई दूर का खतरा नहीं रह गया है। यह हमारी ज़िंदगी, काम और जीने के तरीकों को बदल रहा है। जैसे-जैसे गर्मियां और अधिक गर्म और प्रचंड हो रही हैं, गर्मी में सिर्फ सूती कपड़े पहनना ठंडक के लिए पर्याप्त नहीं है। ऐसे में ठंडक देने के नए उपाय खोजने की मांग बढ़ रही है – ऐसे उपाय (cooling solutions) जो बिना अधिक बिजली खर्च किए गर्मी से बचा सकें।
इसके लिए सबसे पहले यह समझना होगा कि हमें ठंडक कैसे मिलती है। शरीर को ठंडक मुख्यत: चार प्रमुख तरीके से मिलती है:
विकिरण – जब गर्मी अदृश्य ऊर्जा (इन्फ्रारेड विकिरण – (infrared radiation)) के रूप में बाहर निकलती है।
संचरण – जब गर्मी छूने से स्थानांतरित होती है, जैसे गरम तवे को छूना।
संवहन – जब बहती हवा (air circulation) गर्मी को साथ ले जाती है, जैसे ठंडी हवा का झोंका।
वाष्पीकरण – जब पसीना वाष्पित (sweat evaporation) होकर शरीर से गर्मी बाहर ले जाता है।
और, आधुनिक विज्ञान अब ऐसे कपड़े और पहनने योग्य उपकरण (wearable devices) बना रहा है, जो इन चारों तरीकों को और ज़्यादा असरदार बना सकें।
ठंडक देने वाले स्मार्ट कपड़े
वैज्ञानिक ऐसे खास कपड़े (spectrum-selective textiles) (smart textiles) बना रहे हैं, जो सूरज की हानिकारक गर्मी को रोकें और शरीर की प्राकृतिक इन्फ्रारेड ऊर्जा को बाहर निकलने दें। इसके कुछ उदहारण हैं:
नैनोपोरस पॉलीएथिलीन कपड़ा – यह सूती कपड़े से लगभग 2 डिग्री सेल्सियस ज़्यादा ठंडा रखता है, क्योंकि यह शरीर की गर्मी को बाहर जाने देता है और सूरज की रोशनी को रोकता है।
मेटाफैब्रिक – यह कपड़ा अलग-अलग तरंगदैर्घ्य के प्रकाश को परावर्तित करता है और शरीर की गर्मी को ‘वायुमंडलीय झरोखे’ (यानी वे किरणें जो अंतरिक्ष में बिखर जाती हैं) (atmospheric window) के ज़रिए बाहर निकलने देता है।
लेकिन ये कपड़े कभी-कभी शहर की इमारतों और सड़कों से निकलने वाली गर्मी को सोख लेते हैं। इसके अलावा नमी और वायु प्रदूषण भी इनके काम में बाधा डालते हैं। इसलिए वैज्ञानिक अब विकिरण प्रक्रिया को संवहन और वाष्पीकरण के साथ मिलाकर ऐसे कपड़े बनाने की कोशिश कर रहे हैं जो वास्तविक परिस्थितियों में भी काम करें।
संचरण और संवहन
संचरण (thermal conduction) एक कारण है जिससे कुछ कपड़े छूते ही ठंडे लगते हैं। यदि इनमें बोरोन नाइट्राइड जैसे उच्च ऊष्मा चालक कण मिलाए जाएं, तो ये कपड़े त्वचा की गर्मी को जल्दी बाहर खींच लेते हैं। दूसरी ओर, एयरोजेल फाइबर (जो ध्रुवीय भालू के फर से प्रेरित हैं) (aerogel fiber) इंसुलेटर का काम करते हैं और अत्यधिक गर्म माहौल में बाहर की गर्मी को रोकते हैं।
संवहन प्रकृति का अपना एयर कंडीशनर (natural cooling) है। ढीले, हवादार कपड़े गर्म हवा को बाहर निकालते हैं और ठंडी हवा को अंदर लाते हैं। कुछ स्मार्ट कपड़े तो ऐसे भी हैं जिनमें नमी-संवेदनशील रेशे होते हैं, जो पसीना बढ़ने पर छोटे-छोटे छिद्र खोल देते हैं और पसीने को तेज़ी से सुखा देते हैं।
वाष्पीकरण की भूमिका
साधारण कपड़ों की सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि वे पसीना (sweat) सोख लेते हैं और गीले हो जाते हैं, जिससे ये भारी व असुविधाजनक लगते हैं। अब वैज्ञानिक ऐसे कपड़े बना रहे हैं जो हमारी त्वचा (skin-like fabric) की तरह काम करें – यानी पसीने की बूंदों को बाहर निकाल दें। इससे शरीर सूखा बना रहता है। कुछ कपड़े तो छोटे-छोटे विद्युत आवेश का इस्तेमाल करके पसीने को सक्रिय रूप से बाहर पंप कर देते हैं। इससे न सिर्फ पहनने में आराम मिलता है बल्कि कपड़े की कूलिंग क्षमता (cooling capacity) भी बढ़ जाती है क्योंकि भीगे कपड़े ज़्यादा गर्मी सोखते हैं।
पहनने योग्य शीतलक
हमेशा सिर्फ कपड़े ही अत्यधिक गर्मी से नहीं बचा सकते। यहां काम आते हैं पहनने योग्य शीतलक। पंखे से लैस जैकेट (cooling jacket) और लिक्विड-कूलिंग वेस्ट पहले से मौजूद हैं, लेकिन ये भारी, ज़्यादा बैटरी खाने वाले और रोज़मर्रा के इस्तेमाल के लिए असुविधाजनक हैं।
एक नया विकल्प है किरिगामी-आधारित उपकरण (जापानी पेपर-फोल्डिंग कला से प्रेरित) (Kirigami cooling device)। यह आकार और सतह बदलकर गर्मी को नियंत्रित करता है और लैब टेस्ट में शरीर की आरामदायक सीमा को लगभग 5 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ा देता है।
एक और समाधान है सौर ऊर्जा से चलने वाले कपड़े (solar-powered clothing), जो ऑर्गेनिक सोलर पैनल और इलेक्ट्रोकैलोरिक डिवाइस की मदद से ज़रूरत के हिसाब से शरीर को ठंडा या गर्म रखते हैं। लेकिन अभी इनमें कई चुनौतियां हैं – जैसे बैटरी का जीवन, लचीलापन और तार की फिटिंग।
कृत्रिम बुद्धि और शीतलन
एक हालिया प्रयास स्मार्ट और निजी कूलिंग सिस्टम्स (AI cooling system) है। इसमें ऐसे पहनने योग्य सेंसर (wearable sensors) होंगे जो शरीर का तापमान, पसीना, हार्ट रेट और तनाव के स्तर को मापेंगे। इसके आधार पर एआई खुद ही पहचान लेगा कि शरीर ज़्यादा गर्म हो रहा है और तुरंत कूलिंग सिस्टम चालू कर देगा।
जल्द ही स्मार्ट कपड़ों में ऐसी तकनीकें भी आ सकती हैं जो खुद शरीर से ऊर्जा पैदा करें। जैसे: थर्मोइलेक्ट्रिक जनरेटर (thermoelectric generator), जो शरीर की गर्मी से ऊर्जा बनाएंगे। पिज़ोइलेक्ट्रिक सिस्टम, जो शरीर की हलचल से बिजली बनाएंगे। मॉइस्चर-इलेक्ट्रिक डिवाइस, जो पसीने से बिजली पैदा करेंगे।
लेकिन सिर्फ तकनीक काफी नहीं है। कूलिंग कपड़े तभी सफल होंगे जब वे रोज़ाना पहनने योग्य हों; मज़बूत और धोने योग्य हों; पर्यावरण के अनुकूल (eco-friendly) हों ताकि प्रदूषण न फैले।
पर्सनल कूलिंग (personal cooling) सिर्फ आराम का सवाल नहीं है। धूप में काम करने वाले मज़दूरों, किसानों, डिलीवरी कर्मचारियों और फायरफाइटर्स जैसे लोगों के लिए यह जीवन और मौत (life saving) का फर्क साबित हो सकता है। वहीं एथलीट्स (athletes) और साहसी यात्रियों के लिए भी ऐसे कपड़े मददगार होंगे, जो आपको गर्मी से बचाएं और ज़्यादा ऊर्जा भी न खाएं। (स्रोत फीचर्स)
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हाल ही में अमेरिका के ऊर्जा विभाग (Department of Energy, USA) द्वारा जारी एक रिपोर्ट से बड़ी बहस छिड़ गई है। रिपोर्ट में दावा किया गया है कि ग्लोबल वार्मिंग से होने वाला आर्थिक नुकसान पूर्व मान्यता की अपेक्षा कम होगा। लेकिन कई वैज्ञानिकों का कहना है कि यह रिपोर्ट जलवायु विज्ञान (climate science) को गलत तरीके से पेश कर रही है और इसका मकसद अमेरिकी सरकार को 2009 के उस अहम फैसले को रद्द करने में मदद करना है, जिसमें ग्रीनहाउस गैसों (greenhouse gases) को जन स्वास्थ्य के लिए खतरनाक माना गया था।
गौरतलब है कि बराक ओबामा (Barack Obama) के कार्यकाल में पर्यावरण सुरक्षा एजेंसी (Environmental Protection Agency – EPA) ने ठोस सबूतों के आधार पर निष्कर्ष दिया था कि कार्बन डाईऑक्साइड (carbon dioxide) जैसी ग्रीनहाउस गैसें इंसानों और पर्यावरण के लिए हानिकारक हैं, और इसी के आधार पर वाहनों, बिजली संयंत्रों और अन्य स्रोतों से होने वाले उत्सर्जन पर नियंत्रण के नियम बने थे। लेकिन अब सरकार इस फैसले को पलटने की कोशिश कर रही है। गौरतलब है कि राष्ट्रपति ट्रंप (Donald Trump) जलवायु परिवर्तन को शिगूफा (climate change hoax) करार दे चुके हैं।
यह रिपोर्ट ऊर्जा सचिव क्रिस राइट (Chris Wright) ने पांच व्यक्तियों से तैयार करवाई है। इनमें वायुमंडलीय वैज्ञानिक जॉन क्रिस्टी, जलवायु वैज्ञानिक जूडिथ करी, भौतिक विज्ञानी स्टीवन कूनिन, अर्थशास्त्री रॉस मैक्किट्रिक व मौसम वैज्ञानिक रॉय स्पेंसर शामिल हैं।
रिपोर्ट के लेखकों ने कहा है कि वे तथ्यों पर आधारित खुली और पारदर्शी चर्चा (scientific debate) के लिए तैयार है, और अगर गंभीर वैज्ञानिक सुझाव मिलते हैं तो रिपोर्ट में बदलाव किया जाएगा। एजेंसी ने इस दस्तावेज़ को जनता और विशेषज्ञों द्वारा समीक्षा (public review) के लिए 2 सितंबर तक खुला रखा है।
लेकिन कई वैज्ञानिक नाराज़ हैं। एरिज़ोना विश्वविद्यालय (University of Arizona) की महासागर विज्ञानी जोएलेन रसेल का मानना है कि यह रिपोर्ट विज्ञान को आगे बढ़ाने की बजाय दबा रही है। फिलहाल कई शोधकर्ता रिपोर्ट के हर दावे का एक तथ्यात्मक जवाब (scientific rebuttal) तैयार कर रहे हैं। इस मामले में टेक्सास स्थित ए एंड एम युनिवर्सिटी के एंड्रयू डेस्लर सुप्रीम कोर्ट तक जाने को तैयार हैं। कुछ वैज्ञानिक बताते हैं कि वर्तमान जलवायु खतरे (climate risks) के सबूत पहले से कहीं अधिक मज़बूत हैं। ऐसे में इस तरह की रिपोर्ट दुर्भाग्यपूर्ण है।
यदि ट्रंप प्रशासन जोखिम सम्बंधी निष्कर्ष को रद्द करने में सफल हो जाता है, तो पर्यावरण सुरक्षा एजेंसी का ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को नियंत्रित करने का अधिकार समाप्त हो सकता है। इससे जलवायु प्रदूषण व परिवर्तन (climate pollution & change) पर कानूनी कार्रवाई मुश्किल हो जाएगी, और वैश्विक तापमान वृद्धि (global temperature rise) का प्रभाव और अधिक बदतर हो जाएगा। जलवायु वैज्ञानिकों (climate scientists) के लिए यह लड़ाई सिर्फ एक रिपोर्ट की नहीं है बल्कि दशकों के शोध परिणामों की रक्षा, विज्ञान पर भरोसा बनाए रखने और यह सुनिश्चित करने की है कि सार्वजनिक नीतियां ठोस सबूतों पर आधारित हों, न कि संकीर्ण राजनीतिक स्वार्थ पर। (स्रोत फीचर्स)
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हाल ही में भारत स्थित श्रीहरिकोटा से निसार (NISAR – NASA–ISRO Synthetic Aperture Radar) उपग्रह का प्रक्षेपण (satellite launch) हुआ है। यह उपग्रह वैज्ञानिकों को पृथ्वी की बदलती सतह की बेहद सटीक (1 सेंटीमीटर की सूक्ष्मता तक) तस्वीर दे सकता है। 1.2 अरब डॉलर की लागत वाला यह नासा (NASA) और इसरो (ISRO) का अब तक का सबसे बड़ा संयुक्त मिशन (joint mission) है, जिसका उद्देश्य ग्रह की निगरानी (planet monitoring) के तरीकों में क्रांतिकारी बदलाव लाना है।
सफलतापूर्क स्थापित हो जाने के बाद, अगले 90 दिनों में, निसार अपनी 12 मीटर चौड़ी रडार एंटेना (radar antenna) फैलाकर पृथ्वी पर सिग्नल (signal transmission) भेजना शुरू कर देगा। यह हर 12 दिन में लगभग पूरी पृथ्वी को दो बार स्कैन (earth scan) करेगा। और चाहे बादल हों या अंधेरा, किसी भी परिस्थिति में यह ज़मीन व बर्फ में होने वाले सभी बदलावों को दर्ज करेगा।
निसार में दो रडार सिस्टम (radar systems) हैं — एक नासा का और एक इसरो का — जो अलग-अलग तरंगदैर्घ्य पर काम करते हैं। ये दुनिया भर में मिट्टी की नमी, जंगलों में पेड़ों की संख्या (forest mapping), ग्लेशियरों की गति (glacier movement) और अन्य पर्यावरणीय बदलावों (environmental changes) पर नज़र रखेंगे।
इसके अलावा, निसार तेज़ निगरानी आपदा प्रबंधन में भी बड़ा बदलाव ला सकता है। यह भूकंप के बाद (earthquake monitoring) ज़मीन में आए बदलाव, भूस्खलन की आशंका वाले ढलानों (landslide detection) और बाढ़ग्रस्त (flood-affected areas) इलाकों का लगभग वास्तविक समय (real-time monitoring) में पता लगा सकता है। ऐसे समय पर मिले ये आंकड़े राहत दलों (rescue teams) को प्राथमिकता तय करने और तेज़ी से कार्रवाई करने में मदद करेंगे, जिससे जानें बचाई जा सकती है।
हालांकि वर्ष 2026 से अमेरिकी सरकार नासा के पृथ्वी विज्ञान बजट (Earth science budget) में 50 फीसदी से अधिक कटौती कर सकती है। इससे कई बड़े मिशन (space missions) रद्द हो सकते हैं और वर्तमान परियोजनाएं बंद हो सकती हैं। फिलहाल निसार को फंडिंग मिली हुई है। लेकिन भविष्य में फंडिग की अनिश्चितता का साया तो डोल ही रहा है। इतनी बड़ी कटौतियां पृथ्वी में हो रहे बदलावों (climate and earth changes) को समझने की क्षमता को कमज़ोर कर सकती हैं।(स्रोतफीचर्स)
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