महासागरों में अम्लीयता बढ़ने के जलवायु पर असर

हासागर (Oceans) वातावरण से कार्बन डाईऑक्साइड (Carbon Dioxide) को अवशोषित कर जलवायु परिवर्तन (Climate Change) की गति को धीमा करने में मदद करते हैं। कार्बन डाईऑक्साइड सोखने पर समुद्रों (Seas) का पानी अधिक अम्लीय (Ocean Acidification) हो जाता है। एक नए अध्ययन (New Research) में चेतावनी दी गई है कि अगले 50 वर्षों में बढ़ती अम्लीयता के कारण महासागरों की कार्बन डाईऑक्साइड सोखने की क्षमता कमज़ोर हो सकती है, जिससे ग्लोबल वार्मिंग (Global Warming) में वृद्धि होगी।

इस संदर्भ में वनस्पति-प्लवकों (Phytoplankton) की भूमिका महत्वपूर्ण है। वनस्पति-प्लवक सूक्ष्म एक-कोशिकीय जीव (Microorganisms) हैं, जो समुद्र की सतह के पास तैरते रहते हैं। वे सूर्य के प्रकाश का उपयोग करके कार्बन डाईऑक्साइड को जैविक पदार्थ में बदलते हैं। कार्बन डाईऑक्साइड जज़्ब करने की उनकी क्षमता का अंदाज़ इसी बात से लगाया जा सकता है कि वे लगभग उतनी ही कार्बन डाईऑक्साइड सोखते हैं जितनी थलचर पेड़-पौधे (Terrestrial Plants) सोखते हैं।

और मरने के बाद वनस्पति-प्लवक समुद्र के पेंदे में बैठ जाते हैं, और इस तरह से कार्बन समुद्र की गहराई (Deep Ocean Carbon Storage) में हज़ारों वर्षों के लिए संग्रहित हो जाता है। यह प्राकृतिक प्रक्रिया पृथ्वी के जलवायु संतुलन (Climate Balance) को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।

लेकिन, कार्बन डाईऑक्साइड के घुलने से समुद्री जल अधिक अम्लीय हो जाता है। पिछले 170 वर्षों में, मानवीय गतिविधियों (Human Activities) के कारण वायुमंडल में कार्बन डाईऑक्साइड का स्तर 280 से बढ़कर 420ppm हो गया है, जिससे समुद्र की अम्लीयता लगभग 30 प्रतिशत बढ़ गई है। यह अम्लीयता विशेष रूप से बड़े वनस्पति-प्लवकों के विकास को बाधित कर सकती है, जिससे महासागरों की कार्बन डाईऑक्साइड अवशोषित करने की क्षमता घट सकती है।

वनस्पति-प्लवकों पर बढ़ती अम्लीयता के प्रभाव को लेकर हुए पूर्व अध्ययनों (Previous Studies) के नतीजों में भिन्नता रही है। कुछ शोधों (Scientific Research) में पाया गया कि पोषक तत्वों से भरपूर तटीय क्षेत्रों में कुछ वनस्पति-प्लवकों की संख्या बढ़ सकती है, लेकिन ये शोध छोटे क्षेत्रों तक सीमित थे।

इस समस्या को हल करने के लिए, प्रिंसटन विश्वविद्यालय (Princeton University) के फ्रांस्वा मोरेल और जियामेन विश्वविद्यालय (Xiamen University) के डालिन शी के नेतृत्व में वैज्ञानिकों (Scientists) ने एक बड़ा महासागर सर्वेक्षण (Ocean Survey) किया। उन्होंने छह वर्षों तक प्रशांत महासागर (Pacific Ocean) और दक्षिणी चीन सागर (South China Sea) में 45 जगहों से पानी के नमूने इकट्ठा किए। प्रयोगों में उन्होंने अलग-अलग स्थानों से प्राप्त नमूनों में कार्बन डाईऑक्साइड का स्तर कृत्रिम रूप से बढ़ाया ताकि यह देखा जा सके कि यदि वायुमंडलीय कार्बन डाईऑक्साइड 700 ppm तक पहुंचती है (जो 2075 से 2100 के बीच संभव है), तो वनस्पति-प्लवकों पर क्या प्रभाव पड़ेगा। वैज्ञानिकों ने दो प्रमुख प्रकार के वनस्पति-प्लवकों पर अध्ययन किया: छोटे बैक्टीरियल वनस्पति-प्लवक (Bacterial Phytoplankton), जो पोषक तत्वों की कमी में भी जीवित रहने में सक्षम होते हैं; और बड़े केंद्रकधारी वनस्पति-प्लवक, जिन्हें अधिक पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है और वे पर्यावरण में बदलाव के प्रति अधिक संवेदनशील होते हैं।

अध्ययन के निष्कर्ष (Study Findings) चौंकाने वाले थे। छोटे बैक्टीरियल वनस्पति-प्लवकों पर अम्लीयता का कोई खास प्रभाव नहीं पड़ा, लेकिन बड़े वनस्पति-प्लवकों की वृद्धि उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों (Tropical Regions) में गर्मियों के दौरान 30 प्रतिशत तक घट गई, जबकि इस समय उनकी वृद्धि अधिक होनी चाहिए थी। ठंडे, पोषक तत्वों से भरपूर क्षेत्रों में यह प्रभाव थोड़ा कम था, क्योंकि गहरे समुद्र से पोषक तत्व ऊपर आते रहते हैं।

वैज्ञानिकों ने यह भी पाया कि महासागर की अम्लीयता (Ocean Acidification Effects) का वनस्पति-प्लवकों पर प्रभाव नाइट्रोजन (Nitrogen Availability) की उपलब्धता से जुड़ा है। नाइट्रोजन वनस्पति-प्लवकों के विकास के लिए एक आवश्यक पोषक तत्व है। जिन क्षेत्रों में पहले से ही नाइट्रेट की मात्रा कम थी, वहां बढ़ती अम्लीयता ने समस्या को और बढ़ा दिया, जिससे बड़े वनस्पति-प्लवकों का विकास कठिन हो गया।

जब इन नमूनों में नाइट्रेट (nitrate) मिलाया गया, तो वनस्पति-प्लवकों की वृद्धि फिर से बढ़ गई। इसका मतलब है कि अम्लीयता (acidification) किसी न किसी तरह वनस्पति-प्लवकों के लिए नाइट्रोजन (nitrogen) को ग्रहण करना मुश्किल बना देती है।

यदि महासागर की अम्लीयता वनस्पति-प्लवकों को प्रभावित करती रही तो इसके गंभीर परिणाम (Severe Consequences) हो सकते हैं। अध्ययन के अनुसार, अगले 50 वर्षों में वनस्पति-प्लवकों की धीमी वृद्धि के कारण महासागर हर साल लगभग 5 ट्रिलियन किलोग्राम कम कार्बन डाईऑक्साइड अवशोषित करेंगे। इससे वातावरण में कार्बन डाईऑक्साइड का स्तर बढ़ेगा और जलवायु परिवर्तन की गति तेज़ हो सकती है।

समस्या को और बढ़ाने वाला एक अन्य कारक बढ़ता समुद्री तापमान (Rising Ocean Temperature) है। गर्म सतही जल (Surface Water) ठंडे, पोषक तत्वों से भरपूर गहरे जल (Deep Ocean Water) के साथ मिश्रित नहीं हो पाता, जिससे सतह पर पोषक तत्वों की कमी हो जाती है। उपग्रह डैटा (satellite data) से पता चला है कि उष्णकटिबंधीय महासागरों में कम पोषक तत्वों वाले क्षेत्र तेज़ी से फैल रहे हैं। 1998 से 2006 के बीच, कम क्लोरोफिल (chlorophyll वनस्पति-प्लवकों की मात्रा का एक प्रमुख संकेतक) वाले क्षेत्र 15 प्रतिशत बढ़ गए। यदि अम्लीयता पोषक तत्व की कमी को और बढ़ाती है तो महासागरीय पारिस्थितिकी तंत्र पर ‘दोहरा आघात’ होगा।

कुछ वैज्ञानिकों का मानना है कि अभी यह कहना जल्दबाज़ी होगी कि वनस्पति-प्लवकों की घटती संख्या निश्चित रूप से महासागर की कार्बन डाईऑक्साइड अवशोषित करने की क्षमता (Carbon Sequestration) को कम करेगी। संभव है कि ठंडे क्षेत्रों, जहां पोषक तत्व अधिक उपलब्ध हैं, में वनस्पति-प्लवक तेज़ी से बढ़ें और उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों के नुकसान की भरपाई कर दें। लेकिन, समुद्र वैज्ञानिक मैट चर्च कहते हैं कि समग्र रूप से पृथ्वी के कार्बन चक्र पर इसका सकारात्मक प्रभाव पड़ने की संभावना बहुत कम है।

वैज्ञानिक और अधिक शोध (Further Research) की ज़रूरत पर ज़ोर दे रहे हैं। बहरहाल, इतना स्पष्ट है कि हम जितनी अधिक कार्बन डाईऑक्साइड वातावरण में छोड़ेंगे, महासागरों का संतुलन उतना ही डगमगाएगा। इसलिए कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन (CO₂ Emissions) को कम करना अब पहले से कहीं अधिक ज़रूरी हो गया है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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हमारी जोखिमग्रस्त डॉल्फिन की गणना

डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन, सुशील चंदानी

विगत 3 मार्च को पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (ministry of environment, forest and climate change) ने भारतीय नदियों में पाई जाने वाली डॉल्फिन (ganges river dolphin) की जनगणना सम्बंधी अध्ययन के निष्कर्ष जारी किए; डॉल्फिन की संख्या 6327 पाई गई है। टारपीडो जैसे शरीर वाले ये चंचल जीव जब भी दिखते हैं, दर्शकों को रोमांचित कर देते हैं। उन्हें देखने लोग उमड़ पड़ते हैं। शहरी किशोर उन्हें ‘प्यारा’ (cute) कहते हैं।

नदी डॉल्फिन (River Dolphin) दो तरह की होती हैं। एक, ऐच्छिक (फैकल्टेटिव) नदी डॉल्फिन, जो खारे पानी और मीठे पानी दोनों में रहती हैं। भारत में, इरावदी (Irrawaddy Dolphin) (या इरावती) डॉल्फिन चिल्का झील (Chilika Lake) के आसपास पाई जाती हैं। यहां लगभग 155 की संख्या में मौजूद ये डॉल्फिन पर्यटकों का प्रमुख आकर्षण हैं, और सुंदरबन (Sundarbans) के पास मौजूद डॉल्फिन भी।

दूसरी, बाध्य (ऑब्लिगेट) नदी डॉल्फिन, जो केवल मीठी जल राशियों में पाई जाती हैं। माना जाता है कि चीन की यांग्त्ज़ी नदी डॉल्फिन (Yangtze River Dolphin) विलुप्त हो गई है, इसे आखिरी बार वर्ष 2007 में देखा गया था। अनोखे गुलाबी रंग वाली अमेज़ॉन नदी की डॉल्फिन (Amazon River Dolphin) 2.5 मीटर से भी अधिक लंबी होती है। लगभग इतनी ही बड़ी गंगा नदी में रहने वाली डॉल्फिन होती है, जो गंगा (Ganga River) और ब्रह्मपुत्र (Brahmaputra River) की मुख्य नदियों और कुछ सहायक नदियों में पाई जाती है।

गंगा डॉल्फिन (Gangetic Dolphin) की निकट सम्बंधी, सिंधु नदी डॉल्फिन (Indus River Dolphin), पंजाब का राजकीय जलीय जीव है। यहां ये डॉल्फिन तरनतारन ज़िले में ब्यास नदी (Beas River) और हरिके आर्द्रभूमि (Harike Wetland) में पाई जाती है। पर्यावरण मंत्रालय के अध्ययन में सिर्फ तीन सिंधु डॉल्फिन मिली हैं, जो इनके अस्तित्व पर मंडराते खतरे (Endangered Species) को दर्शाता है। पाकिस्तान में बहती सिंधु नदी में ये डॉल्फिन सिर्फ 1800 ही जीवित बची हैं।

मटमैले पानी के अनुकूल

डॉल्फिन और दांतों वाली व्हेल (Toothed Whales) के माथे पर एक विशिष्ट मांसल उभार होता है जिसे मेलन (Melon) कहा जाता है। यह एक लेंस की तरह काम करता है जो (प्रकाश को नहीं) ध्वनि को संकेंद्रित करता है, और इकोलोकेशन (Echolocation) में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। हमारे यहां पाई जाने वाली नदी डॉल्फिन मटमैले और कम लवण वाले पानी में रहना पसंद करती हैं। गंगा और सिंधु नदी की डॉल्फिन की एक असामान्य विशेषता उनकी कमज़ोर नज़र (blind river dolphin) है। वे इकोलोकेशन द्वारा मार्ग निर्धारण करती हैं और भोजन ढूंढती हैं; इसमें वे अपनी स्वर-रज्जु से खास क्लिक रूपी अल्ट्रासाउंड तरंगें (ultrasound waves) निकालती हैं, और ललाट पर बने मेलन की मदद से आसपास की वस्तुओं से टकराकर लौटने वाली तरंगों की प्रतिध्वनि को महसूस करती हैं। ये डॉल्फिन करवट पर तैरने की प्रवृत्ति भी दिखाती हैं, भोजन की तलाश में नदी के पेंदे को खंगलाने के लिए वे फिन (dorsal fin) का उपयोग करती हैं।

हमारी नदी डॉल्फिन प्रजातियों की आंख बमुश्किल एक सेंटीमीटर चौड़ी है; इसमें एक मोटा कॉर्निया होता है और कोई लेंस नहीं होता है। प्रकाश को दर्ज़ करने के लिए रेटिना में बहुत कम कोशिकाएं होती हैं। और दृश्य संवेदनाओं को मस्तिष्क तक पहुंचाने वाली प्रकाश तंत्रिका बहुत क्षीण होती है, यह बमुश्किल एक तंतु जितनी पतली होती है। ऐसा लगता है कि उनमें दृश्य बोध सिर्फ प्रकाश और प्रकाश की दिशा पता लगाने तक ही सीमित होता है। हमारी नदी डॉल्फिन और समुद्री बॉटलनोज़ डॉल्फिन (bottlenose dolphin) के संवेदना बोध में शामिल मस्तिष्क क्षेत्रों की तुलना करने पर पता चला कि नदी डॉल्फिन का दृष्टि बोध सम्बंधी क्षेत्र असामान्य रूप से छोटा है जबकि उनका श्रवण बोध सम्बंधी क्षेत्र बहुत बड़ा है। यह ध्वनि पर उनकी निर्भरता को दर्शाता है। प्रयोगों में पाया गया है कि सिंधु नदी की डॉल्फिन नायलॉन धागे से लटके 4 मिलीमीटर छोटे बॉल बेयरिंग (ball bearing – छर्रों) की उपस्थिति भी भांप लेती हैं, और उसकी उपस्थिति भांपकर उसकी ओर बढ़ सकती हैं।

गठिया से लेकर मांसपेशीय ऐंठन के उपचार में इस्तेमाल होने वाले तेल का दोहन नदी डॉल्फिन से ही किया जाता है, और उनके इसी उपयोग के चलते उन पर खतरा मंडरा रहा है। अत्यधिक मत्स्याखेट (over fishing) से उनकी भोजन आपूर्ति कम होती है, और अन्य मछलियां के लिए फेंके गए जाल में भी वे फंस जाती हैं। फिर, रासायनिक प्रदूषक (chemical pollution) एक और खतरा पैदा करते हैं।

तेज़ी से परिष्कृत और उन्नत होती जा रही गणना विधियों के बावजूद, नदी डॉल्फिन की आबादी अस्पष्ट बनी हुई है – उनकी संख्या अधिक भी हो सकती है और कम भी। दोनों स्थितियों में से चाहे जो हो लेकिन फिर भी उनकी संख्या बहुत ही कम है। हमें इन अनूठे जीवों के बारे में सार्वजनिक जागरूकता (public awareness) बढ़ाना होगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कचरे से ऊर्जा निर्माण फैला सकता है प्रदूषण

सुदर्शन सोलंकी

हाल ही में विश्व बैंक (World Bank) ने गुजरात में कचरे को जलाकर ऊर्जा (waste to energy) बनाने की एक परियोजना को मिलने वाली धनराशि पर रोक लगा दी है। विश्व बैंक की शाखा अंतर्राष्ट्रीय वित्त निगम (International Finance Corporation – IFC) गुजरात में अपशिष्ट से ऊर्जा (waste to energy – WTE) परियोजनाओं के लिए 4 करोड़ डॉलर का कर्ज देने वाली थी।

इस परियोजना पर रोक राज्य के पर्यावरण समूहों (environmental groups) द्वारा लगातार विरोध का परिणाम है। उनका मानना है कि इससे जल (water pollution) व वायु (air pollution) दोनों क्षेत्रों में प्रदूषण फैलेगा। अधिकांश नागरिक संगठनों ने इस परियोजना से होने वाले प्रदूषण को सार्वजनिक स्वास्थ्य (public health) के लिए खतरा बताया है।

परियोजना संयंत्र से लगभग 18,75,000 कारों के उत्सर्जन (carbon emissions) जितना कार्बन डाईऑक्साइड (CO2 emissions) उत्सर्जन होता; यह न सिर्फ आईएफसी के अपने प्रदर्शन मानकों (performance standards) का उल्लंघन है बल्कि कई भारतीय कानूनों का भी उल्लंघन करता है। यह दर्शाता है कि आईएफसी अपने सुरक्षा उपायों और पेरिस समझौते (Paris Agreement) का अनुपालन नहीं कर रहा है।

अपशिष्ट से ऊर्जा (waste to energy) में गैर-नवीकरणीय अपशिष्ट (non-renewable waste) को ऊष्मा (heat), ईंधन (fuel) और बिजली (electricity) तथा ऊर्जा के इस्तेमाल योग्य अन्य रूपों में परिवर्तित किया जाता है। अपशिष्ट से ऊर्जा उत्पादन कई प्रक्रियाओं के माध्यम से हो सकता है; जैसे भस्मीकरण (incineration), गैसीकरण (gasification), पायरोलिसिस (pyrolysis), अवायवीय पाचन (anaerobic digestion) और लैंडफिल गैस रिकवरी (landfill gas recovery)।

डब्ल्यूटीई (WTE) शब्द का उपयोग आम तौर पर भस्मीकरण (incineration) के संदर्भ में किया जाता है, जिसमें ऊर्जा के लिए अति-उच्च तापमान (high-temperature combustion) पर कचरे को जलाया जाता है। आधुनिक भस्मीकरण सुविधाएं पर्यावरण में उत्सर्जन (emission control) को रोकने के लिए प्रदूषण नियंत्रण उपकरणों का उपयोग करती हैं। वर्तमान में भस्मीकरण एकमात्र डब्ल्यूटीई तकनीक है जो आर्थिक (economically viable) और वाणिज्यिक रूप से व्यवहार्य साबित हुई है।

डब्ल्यूटीई का एक और उदाहरण अवायवीय पाचन (anaerobic digestion) है, जो एक पुरानी लेकिन प्रभावी तकनीक है जो कार्बनिक पदार्थों (organic waste) को जैविक रूप से खाद (compost) के साथ-साथ ऊर्जा के लिए बायोगैस (biogas) में परिवर्तित करती है।

वर्तमान में, एबेलॉन (Abellon) द्वारा संचालित एक डब्ल्यूटीई भस्मक (WTE incinerator) जामनगर में चालू है। स्थानीय लोगों के अनुसार इससे बहुत ज़्यादा प्रदूषण (pollution) फैलता है। सेंटर फॉर फायनेंशियल अकाउंटेबिलिटी (Center for Financial Accountability – CFA) ने कहा है, “जामनगर में एबेलॉन के चालू डब्ल्यूटीई भस्मक संयंत्र ने नवंबर 2021 में परिचालन शुरू होने के बाद से ही वायु प्रदूषण (air pollution), ध्वनि प्रदूषण (noise pollution) और त्वचा रोग (skin diseases), अस्थमा (asthma), आंखों में जलन (eye irritation) आदि स्वास्थ्य समस्याओं का कारण बनकर अपने आसपास रहने वाले 25,000 लोगों पर उल्लेखनीय नकारात्मक प्रभाव डाला है।”

डब्ल्यूटीई संयंत्र (WTE plant) की जगह भारत को टिकाऊ अपशिष्ट प्रबंधन (sustainable waste management) समाधानों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। इसमें एकल-उपयोग प्लास्टिक (single-use plastic) को कम करना, अपशिष्ट पृथक्करण (waste segregation) को बढ़ावा देना, संग्रह (collection), पुन: उपयोग (reuse) और सुरक्षित व समावेशी रीसायक्लिंग सिस्टम (inclusive recycling system) जैसे समाधानों को अपनाना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)

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भारतीय हिमालय क्षेत्र में जलवायु परिवर्तन की चुनौतियां

कुमार सिद्धार्थ

भारतीय हिमालय क्षेत्र में जलवायु परिवर्तन (climate change in Himalayas) का प्रभाव महज भविष्य की चिंता नहीं रह गया है, बल्कि यह वर्तमान की एक गंभीर चुनौती बन गया है। हिमालय क्षेत्र न केवल भारत की जलवायु (Indian climate) और पारिस्थितिकी तंत्र (ecosystem) के लिए महत्वपूर्ण है, बल्कि यह देश के लाखों लोगों की आजीविका और जल स्रोतों (water resources) का आधार भी है।

अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय, बैंगलुरु के जलवायु प्रकोष्ठ द्वारा प्रकाशित एक रपट जलवायु परिवर्तन के मुख्य प्रभावों, उनके सामाजिक-आर्थिक परिणामों(socio-economic impact), और अनुकूलन रणनीतियों पर गहन दृष्टि प्रदान करती है। रपट के अनुसार, जलवायु परिवर्तन से हिमालयी ज़िलों में तापमान, वर्षा (rainfall pattern) और प्राकृतिक आपदाओं (natural disasters) के स्वरूप में बड़े बदलाव देखे जा रहे हैं।

जलवायु परिवर्तन न केवल पर्यावरण को बल्कि समाज, अर्थव्यवस्था और परिवारों के दैनिक जीवन को गहराई से प्रभावित करता है। भारत में मानसून का बदलता स्वरूप (monsoon pattern)  और तीव्र बारिश की घटनाएं कृषि, जल संसाधनों (water resources) और मानव जीवन (human life) पर गंभीर असर डाल रही हैं। रपट इस बात को रेखांकित करती है कि हमारे देश में जो सबसे वंचित और कमज़ोर वर्ग हैं, वे ही इस संकट का सबसे अधिक खामियाजा भुगत रहे हैं।

इस रपट में दिए गए आंकड़े ऐसे जलवायु मॉडलों पर आधारित हैं जो बहुत सटीक जानकारी देते हैं। ये मॉडल भारतीय हिमालय क्षेत्र के लिए 25×25 किलोमीटर के क्षेत्रों के लिए जलवायु अनुमान पेश करते हैं। इन मॉडलों में इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (IPCC) द्वारा तैयार किए गए साझा सामाजिक-आर्थिक मार्गों (SSPs) का उपयोग किया गया है, जो भविष्य की जलवायु परिस्थितियों का अनुमान लगाने में मदद करते हैं।

रपट के अनुसार, वर्ष 2021-2040 के बीच हिमालय क्षेत्र में औसत तापमान (average temperature) में 1.5 डिग्री सेल्सियस तक वृद्धि होने की संभावना है। पश्चिमी हिमालयी ज़िलों में यह वृद्धि 1.7 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच सकती है। तापमान वृद्धि से गर्मियों में ग्रीष्म लहरों (heat waves) की अवधि लंबी होने और उनकी आवृत्ति अधिक होने की संभावना है। यह न केवल पर्यावरण पर, बल्कि कृषि, जल स्रोतों और मानव स्वास्थ्य पर भी नकारात्मक प्रभाव डालेगा।

हिमालयी सर्दियों में अब लंबे शुष्क काल (dry period) देखे जा रहे हैं। सर्दियों के न्यूनतम तापमान में 2.1 डिग्री सेल्सियस तक वृद्धि होने की संभावना है, जिससे बर्फ की परत (ice sheet) पतली हो सकती है। इसका प्रभाव जलाशयों और कृषि पर पड़ रहा है। जल की कमी के कारण रबी फसलों (rabi crops) और पनबिजली उत्पादन पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। बर्फ पिघलने पर घराट (पनचक्की) जैसे पारंपरिक साधन अब अनिश्चित हो गए हैं।

ग्लेशियरों के तेज़ी से पिघलने (melting glaciers) के कारण जलाशयों के लिए खतरा उत्पन्न हो रहा है और हिमनद झील (glacial lake) विस्फोट बाढ़ की घटनाएं बढ़ा सकते हैं। उदाहरण के लिए वर्ष 2023 में सिक्किम की दक्षिण ल्होनक झील में ऐसा ही एक उदाहरण देखने में आया। हिमाचल प्रदेश के बागवान शिकायत करते हैं कि कम पड़ी सर्दियों के कारण सेबों का रंग और गुणवत्ता प्रभावित हो रही है।

जलवायु परिवर्तन हिमालय क्षेत्र की कृषि (himalayan farming area) और आजीविका (livelihood) पर गहरा प्रभाव डाल रहा है। तापमान और वर्षा के असामान्य पैटर्न के कारण पारंपरिक फसल चक्र प्रभावित हो रहा है। उदाहरण के लिए, लद्दाख में खुबानी (apricot production) उत्पादन तेज़ी से प्रभावित हो रहा है, और कुछ क्षेत्रों में नई फसलों की खेती को बढ़ावा मिला है। पश्चिमी हिमालयी ज़िलों में गेहूं (wheat) और मक्के (maize) की पैदावार में कमी दर्ज की जा सकती है, जबकि उच्च तापमान के कारण सेब उत्पादन (apple production) के लिए उपयुक्त क्षेत्र अधिक ऊंचाई की ओर स्थानांतरित हो रहे हैं।

मौसम की अनियमितता (vagaries of weather) हिमालय क्षेत्र के लिए एक बड़ी चुनौती बन गई है। पश्चिमी हिमालयी ज़िलों में दक्षिण-पश्चिम मानसून के दौरान 10-20 फीसदी अधिक वर्षा होगी, जबकि पूर्वी ज़िलों में कमी देखी जा सकती है। भारी बारिश के कारण अचानक बाढ़ (flash floods) और भूस्खलन (landslides) जैसी आपदाएं बढ़ रही हैं। उदाहरण के लिए वर्ष 2013 में उत्तराखंड में आई बाढ़ ने हज़ारों लोगों की जान ली थी और बुनियादी ढांचे को भारी क्षति पहुंचाई थी।

जलवायु परिवर्तन के प्रभाव सबसे अधिक समाज के कमज़ोर वर्गों (vulnerable group) पर पड़ रहे हैं। गुज्जर जैसे समुदाय, जो अपने मवेशियों के लिए चारागाहों पर निर्भर हैं, अब अधिक दूरी तय करने के लिए मजबूर हैं। जम्मू-कश्मीर के गुज्जर समुदाय (gujjar community) की शाहनाज़ अख्तर कहती हैं, “हमारे पारंपरिक प्रवास मार्ग अब बदल गए हैं। अनियमित बारिश (irregular rainfalls) और सूखा (draught) हमारे लिए बड़ी चुनौती बन गई है, जिससे हमें जल स्रोतों के लिए बहुत दूर जाना पड़ता है।” मेघालय की रसिन मोहसिना शाह कहती हैं, “गर्मियों में बढ़ती आर्द्रता और बदलते मौसम ने यहां के जलवायु संतुलन को बदल दिया है। अब वह ठंडक महसूस नहीं होती जो पहले होती थी।”

हिमालयी नदियां, जैसे ब्रह्मपुत्र(brahmaputra), गंगा(ganga) और यमुना(yamuna), इस क्षेत्र की जीवनरेखा हैं। जलवायु परिवर्तन के कारण इन नदियों के प्रवाह में अस्थिरता देखी जा रही है। जल संसाधन प्रबंधन के लिए स्थानीय जल स्रोतों का संरक्षण और पुनरुद्धार आवश्यक है। बावड़ी और तालाब जैसे पारंपरिक जल स्रोतों का पुनरुद्धार (revive) किया जाना चाहिए। अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में मानसूनी जल को संग्रहित कर सूखे के दौरान उपयोग किया जा सकता है। इसके अलावा, नदियों के प्रवाह (river flow) को नियंत्रित करने और उनके किनारों पर पारिस्थितिकी को संरक्षित रखने के लिए प्रभावी नीतियां बनाई जानी चाहिए।

जलवायु परिवर्तन के कारण आपदाओं (disasters) की बढ़ती आवृत्ति और तीव्रता को देखते हुए प्रभावी आपदा प्रबंधन नीतियां आवश्यक हैं। भूस्खलन, बाढ़ और अन्य प्राकृतिक आपदाओं के लिए सटीक और समय पर चेतावनी प्रणाली विकसित करना एक प्रमुख कदम है। संवेदनशील क्षेत्रों में बुनियादी ढांचों (basic infrastructure) का निर्माण आपदा-रोधी मानकों के अनुसार किया जाना चाहिए। आपदा प्रबंधन (disaster management) में स्थानीय समुदायों की सक्रिय भागीदारी सुनिश्चित करनी चाहिए, जिससे वे आपदाओं से निपटने के लिए सशक्त बन सकें। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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गर्म होते शहरों में चूहों की बढ़ती फौज

हरों में चूहों की बढ़ती आबादी (rat infestation) एक गंभीर समस्या बनती जा रही है, जिससे बीमारियों (diseases) और आर्थिक नुकसान (economic loss) का खतरा बढ़ रहा है।  अनुमान है कि अकेले अमेरिका में चूहों से जुड़ी समस्याओं के कारण हर साल करीब 3000 अरब रुपए का आर्थिक नुकसान होता है। लेकिन अलग-अलग शहरों में इनके प्रकोप की तुलना के लिए ठोस आंकड़ों की कमी है।

इस सम्बंध में युनिवर्सिटी ऑफ रिचमंड (university of richmond) के शहरी पारिस्थितिकीविद जोनाथन रिचर्डसन द्वारा साइंस एडवांसेज़(Science advances) में प्रकाशित एक अध्ययन में बताया गया है कि जलवायु परिवर्तन(climate change), जनसंख्या वृद्धि (Population growth) और घटते हरित क्षेत्र (declining green spaces) चूहों की बढ़ती संख्या के मुख्य कारण हैं। तापमान बढ़ने और बगीचों व खुले इलाकों को रिहायशी और व्यावसायिक क्षेत्रों में बदलने से चूहों को अनुकूल परिस्थितियां (favourable conditions) मिल रही हैं।

चूहे बहुत चालाक और अनुकूलनशील जीव (adaptive creature) हैं, जो हज़ारों सालों से इंसानों के साथ रह रहे हैं। वे कचरे, सीवर और सड़क किनारे मिट्टी के छोटे-छोटे टुकड़ों का इस्तेमाल बिल बनाने(nesting) और भोजन प्राप्त (food scavenging) करने के लिए बखूबी कर लेते हैं। 

रिचर्डसन के अध्ययन में पाया गया कि जिन शहरों में तापमान तेज़ी से बढ़ रहा है और जनसंख्या में वृद्धि हो रही है, वहां चूहों की संख्या भी तेज़ी से बढ़ रही है। ठंड का मौसम (cold weather) आम तौर पर चूहों के प्रजनन (rat breeding) और भोजन खोजने की गतिविधियों को धीमा कर देता है। लेकिन गर्म जलवायु में वे तेज़ी से प्रजनन करते हैं और आसानी से भोजन जुटा लेते हैं। इसके अलावा शहरी इलाकों की अधिक जनसंख्या (high urban population) का मतलब है अधिक रेस्टोरेंट, कूड़ेदान और कचरा, जो चूहों के लिए पर्याप्त भोजन स्रोत उपलब्ध कराते हैं।

अध्ययन में शामिल 16 शहरों में से वॉशिंगटन डी.सी. (Washington D.C.) सबसे ज़्यादा प्रभावित पाया गया। पिछले 20 वर्षों में यहां चूहों की संख्या बोस्टन (boston) की तुलना में तीन गुना और न्यूयॉर्क सिटी (New York city) की तुलना में 1.5 गुना तेज़ी से बढ़ी है हालांकि अमेरिका का नगरीय प्रशासन हर साल चूहों पर नियंत्रण के लिए करीब 50 करोड़ डॉलर (4250 करोड़ रुपए) खर्च कर रहा है। 

कुछ शहरों ने ज़रूर चूहों की संख्या को सफलतापूर्वक कम भी किया है। इनमें टोक्यो(tokyo), लुइविले (केंटकी) (Louisville, Kentucky)  और न्यू ऑरलियन्स (New Orleans) शामिल हैं, जिससे यह पता चलता है कि शहरी क्षेत्रों में चूहों की समस्या को कैसे नियंत्रित किया जा सकता है। जैसे: 

1. सख्त कचरा प्रबंधन (strict garbage management)– टोक्यो में कचरे के प्रभावी निपटान और कड़े नियमों के कारण चूहों को पनपने के लिए भोजन और आश्रय नहीं मिल पाता है। 

2. जागरूकता अभियान (awareness campaigns)– न्यू ऑरलियन्स में लोगों को सिखाया जाता है कि वे अपने घरों और कचरा क्षेत्रों को चूहों से मुक्त कैसे रखें और चूहे दिखने की सूचना जल्द से जल्द दें।

3. सामाजिक दबाव (social pressure)– टोक्यो में सोशल मीडिया (social media) पर चूहों की समस्या सामने आते ही होटलों और व्यवसायों द्वारा तुरंत कार्रवाई की जाती है।

4. दीर्घकालिक निगरानी (long term monitoring)– चूहों की संख्या पर सतत नज़र रखने से यह समझने में मदद मिलती है कि कौन से उपाय प्रभावी हैं और कहां सुधार की आवश्यकता है।

रिचर्डसन की टीम के मुताबिक चूहों की समस्या पर काबू पाने के लिए अधिक संसाधन लगाने और नियंत्रण टीमों का विस्तार करने की आवश्यकता है। नगरीय प्रशासन और नागरिक मिलकर कचरा प्रबंधन, जागरूकता और बेहतर शहरी योजनाओं (waste management, awareness and urban planning)को प्राथमिकता दें, तो समस्या को काफी हद तक नियंत्रित किया जा सकेगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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1.5 डिग्री की तापमान वृद्धि की सीमा लांघी गई

र्ष 2024 में पृथ्वी का औसत तापमान (global average temperature) पहली बार उद्योग-पूर्व स्तर (1850-1900 के औसत) के मुकाबले 1.5 डिग्री सेल्सियस ऊपर पहुंच गया। यह जलवायु (climate change) में एक बड़े बदलाव को दर्शाता है और संकेत देता है कि अस्थायी रूप से ही सही लेकिन हम पेरिस समझौते (Paris Agreement) द्वारा निर्धारित सीमा के भीतर रहने में असफल रहे हैं। हालांकि यह केवल एक वर्ष की बात है, फिर भी वैज्ञानिक चिंतित हैं कि वैश्विक तापमान (global warming)  पहले से अधिक तेज़ी से बढ़ सकता है।

गौरतलब है कि 1.5 डिग्री सेल्सियस का लक्ष्य (1.5°C temperature goal) 2015 में लगभग 200 देशों द्वारा तय किया गया था, ताकि जलवायु परिवर्तन (climate change effects) के प्रभावों, जैसे कि गंभीर मौसमी घटनाओं, समुद्र स्तर में वृद्धि (sea level rise) और जैव विविधता की हानि को रोका जा सके। कई अंतर्राष्ट्रीय जलवायु संगठनों द्वारा एकत्रित डैटा के अनुसार, 2024 में वैश्विक औसत तापमान उद्योग-पूर्व समय से 1.55 डिग्री सेल्सियस अधिक रहा। यह न सिर्फ एक महत्वपूर्ण सीमा का उल्लंघन है, बल्कि वृद्धि की प्रवृत्ति को भी दर्शाता है।

वैज्ञानिक यह समझने का प्रयास कर रहे हैं कि पिछले दो वर्षों में तापमान में हुई वृद्धि एक अस्थायी उतार-चढ़ाव (temporary fluctuations) है या जलवायु प्रणाली में किसी गंभीर प्रवृत्ति का संकेत। बहरहाल, इतना तो साफ है कि दुनिया तेज़ी से खतरनाक स्थिति की ओर बढ़ रही है। 1.5 डिग्री सेल्सियस की सीमा का पार होना तुरंत कार्रवाई की आवश्यकता पर ज़ोर देता है।

जलवायु विशेषज्ञों (climate experts)  का मानना है कि तापमान वृद्धि को धीमा करने के लिए तुरंत कदम उठाना ज़रूरी है। सौर और पवन ऊर्जा (solar and wind energy) जैसे नवीकरणीय स्रोतों के विकास के बावजूद जीवाश्म ईंधन (fossil fuels) से होने वाला उत्सर्जन बढ़ता जा रहा है जो तापमान वृद्धि का मुख्य कारण है। हालांकि नवीकरणीय ऊर्जा का प्रसार हो रहा है, लेकिन पिछले वर्ष में कार्बन उत्सर्जन (carbon emissions) ने एक नया रिकॉर्ड बनाया है।

संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरेस (UN Secretary-General António Guterres) के अनुसार एक वर्ष 1.5 डिग्री सेल्सियस की सीमा का पार होना चिंता का विषय है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि दीर्घकालिक लक्ष्य हासिल करना अब असंभव हो गया है। उन्होंने जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए वैश्विक स्तर पर नए प्रयासों (global climate action) की मांग की है और कहा है कि विश्व नेताओं को कदम उठाने होंगे।

वैज्ञानिकों का मानना है कि 1.5 डिग्री सेल्सियस का लक्ष्य दरअसल एक राजनीतिक मापदंड (political benchmark) है, न कि ऐसा बिंदु जहां जलवायु परिवर्तन बेकाबू हो जाएगा। लेकिन जैसे-जैसे तापमान बढ़ेगा, इसके प्रभाव (climate change impacts)  अधिक गंभीर और अपरिवर्तनीय होते जाएंगे। वर्तमान में पृथ्वी का तापमान औद्योगिक युग से पहले के स्तर से 1.3 डिग्री सेल्सियस अधिक है। यह सुनने में मामूली लग सकता है, लेकिन इसके असर नज़र आने लगे हैं; जैसे प्रचंड तूफान(severe storms), जंगल की भीषण आग(wildfires) और समुद्र का बढ़ता जल स्तर (rising sea levels) वगैरह। इसके अलावा, ग्रीनहाउस गैसों (greenhouse gases)  के कारण कैद अधिकांश गर्मी महासागरों, ज़मीन और बर्फ द्वारा सोख ली जाती है। इसके प्रभाव तब भी महसूस होते हैं जब तापमान धीरे-धीरे बढ़ता है।

इसके चलते, अधिक इन्तहाई मौसम(extreme weather conditions), पारिस्थितिकी तंत्र में क्षति (ecosystem damage) और समुद्र स्तर बढ़ने से विस्थापन जैसी समस्याएं झेलना पड़ सकती हैं, विशेष रूप से निचले द्वीपों और तटीय इलाकों के रहवासियों को। कहने का मतलब है कि तापमान में हर छोटा बदलाव भी मायने रखता है।

वैज्ञानिक अपनी ओर से, निरंतर तापमान वृद्धि पर लगाम कसने के प्रयास कर रहे हैं लेकिन समय तेज़ी से निकल रहा है। फिर भी, उम्मीद अभी बाकी है। समय की मांग है कि सरकारों और जनता (governments and citizens) दोनों की ओर से कार्रवाई की जाए, इससे पहले कि बहुत देर हो जाए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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घटते बादलों से ग्लोबल वार्मिंग का खतरा

पिछले दो दशकों में पृथ्वी के सौर ऊर्जा संतुलन (Earth’s solar energy balance)  में एक चिंताजनक प्रवृत्ति देखी गई है: ग्रह पर जितनी ऊर्जा आ रही है, उससे कम बाहर जा रही है। ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन (greenhouse gas emissions) इसका एक प्रमुख कारण है लेकिन वैज्ञानिक इस असंतुलन को पूरी तरह समझने के लिए काफी समय से प्रयास करते आए हैं। बर्फ के पिघलने की वजह से उनके नीचे की गर्मी सोखने वाली सतहों (heat-absorbing surfaces)  के बढ़ने और वायुमंडलीय प्रदूषण (atmospheric pollution) के घटने ने भी इसमें योगदान दिया है।

हाल ही में इसमें एक संभावित कड़ी सामने आई है: घटते बादल (declining clouds)। नासा के गोडार्ड इंस्टीट्यूट फॉर स्पेस स्टडीज़ (NASA Goddard Institute for Space Studies) के जॉर्ज सेलियोडिस के नेतृत्व में हुए शोध में पाया गया है कि पिछले 20 वर्षों में परावर्तक बादलों (reflective clouds) की मात्रा में कमी आई है, जिससे पृथ्वी की सतह पर सूर्य की किरणें अधिक पहुंच रही हैं। सेलियोडिस को पूरा यकीन है कि नासा के टेरा उपग्रह (NASA Terra satellite)  द्वारा दर्ज की गई इस मामूली लेकिन उल्लेखनीय कमी ने वैश्विक तापमान में अधिक वृद्धि की है।

गौरतलब है कि बादल सूर्य की किरणों को अंतरिक्ष में परावर्तित करके पृथ्वी के तापमान (Earth’s temperature) को नियंत्रित करने में अहम भूमिका निभाते हैं। ये बादल मुख्य रूप से भूमध्य रेखा के आसपास और मध्य अक्षांशीय क्षेत्रों (mid-latitude regions)  में बनते हैं, जहां तूफानी प्रणालियां (storm systems) हावी रहती हैं।

पिछले 35 वर्षों में उपग्रह तस्वीरों (satellite imagery) से पता चला है कि भूमध्य रेखा के आसपास के बादल के पट्टे (cloud belts) सिकुड़ रहे हैं और मध्य अक्षांशीय क्षेत्रों में तूफान के मार्ग ध्रुवों की ओर खिसक रहे हैं – बादलों की मात्रा में हर दशक में 1.5 प्रतिशत की कमी हो रही है। यह कमी भले ही मामूली दिखती है लेकिन इसका संचयी प्रभाव (cumulative impact)  बहुत गंभीर है और यह जलवायु परिवर्तन (climate change) को और तेज़ करने वाले चक्रों को जन्म दे सकता है।

सेलियोडिस के अनुसार, परावर्तनीयता (reflectivity) में 80 प्रतिशत बदलाव बादलों के संकुचन (cloud contraction) के कारण है, न कि बादलों की प्रकृति कम परावर्तक होने की वजह से।

वैसे, यही जलवायु मॉडल (climate model) कुछ अन्य संकेत भी देता है। जैसे ग्लोबल वार्मिंग से, खासकर प्रशांत महासागर के ऊपर बड़े पैमाने पर वायु संचरण (air circulation) कमज़ोर हो सकता है। लेकिन पिछले कुछ दशकों में पूर्वी प्रशांत ठंडा हुआ है जिसके चलते हवाएं अस्थायी रूप से बलवती हुई हैं। इन विविध पैटर्न (weather patterns) के चलते स्थिति का विश्लेषण मुश्किल हुआ है।

बादलों के घटने से जलवायु परिवर्तन में तेज़ी (accelerated climate change) आने का खतरा है। यदि ऐसा ही चलता रहा तो इससे एक दुष्चक्र शुरू हो सकता है: उच्च तापमान (high temperatures) के कारण बादल आवरण कम होगा जिससे गर्मी और अधिक बढ़ेगी।

हालांकि घटते बादल परस्पर सम्बंधित कई कारणों का केवल एक हिस्सा है। उत्तरी गोलार्ध में प्रदूषण में कमी की भी एक भूमिका हो सकती है। अलबत्ता, संदेश साफ है: पृथ्वी के बादल और उनकी भूमिका में बदलाव हो रहे हैं, जिसके परिणाम गंभीर हो सकते हैं।

ये परिणाम एक चेतावनी देते हैं। बादलों के घटने के कारणों की व्याख्या और समाधान, वैश्विक तापमान (global temperature impact) पर उनके प्रभाव को कम करने के लिए आवश्यक है। (स्रोत फीचर्स)

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वृक्षों का पलायन: हिमालय के पारिस्थितिक तंत्र में बदलाव

हालिया समय में भव्य हिमालय (The Himalayas) पर्वत एक मौन लेकिन महत्वपूर्ण बदलाव के साक्षी बन रहे हैं। नेचर प्लांट्स में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार, जलवायु परिवर्तन (Climate Change) के कारण इस क्षेत्र के वृक्षों की सीमा में परिवर्तन हो रहा है, जिससे इसके नाज़ुक पारिस्थितिकी तंत्र (Ecosystem) का संतुलन प्रभावित हो रहा है। यह बदलाव केवल पेड़ों पर नहीं, बल्कि वन्यजीवों, चारागाहों और स्थानीय समुदायों की आजीविका पर भी असर डाल सकता है।

सदियों से, हिमालय के मध्य क्षेत्र में चट्टानी इलाकों पर भोजपत्र (Betula utilis) के पेड़ों का दबदबा रहा है, जबकि ऊंचे इलाकों में देवदार (Abies spectabilis) के पेड़ सह-अस्तित्व में रहे हैं। लेकिन हालिया डैटा से पता चला है कि देवदार के पेड़ धीरे-धीरे भोजपत्र पर हावी हो रहे हैं। हिमालय में वैश्विक औसत से अधिक गति से बढ़ रहे तापमान और सूखे की बढ़ती स्थिति ने देवदार के पेड़ों को भोजपत्र की तुलना में तेज़ी से फैलने का मौका दिया है। देवदार के पेड़ हर साल 11 सेंटीमीटर ऊंचे स्थानों तक फैल रहे हैं, जो भोजपत्र की गति से लगभग दुगना है। यह अंतर तापमान (temperature) में और अधिक वृद्धि के साथ तेज़ हो सकता है।

शोधकर्ताओं ने माउंट एवरेस्ट (Mount Everest) और अन्नपूर्णा संरक्षण क्षेत्र (Annapurna conservation area) के पास के जंगलों का अध्ययन किया, जिसमें उन्होंने 700 से अधिक पेड़ों की उम्र और वृद्धि के पैटर्न को ट्रैक करने के लिए ट्री कोर सैंपलिंग (tree core sampling) जैसी तकनीकों का उपयोग किया। उनके निष्कर्ष बताते हैं कि भोजपत्र के पेड़ों का प्रजनन 1920 से 1970 के बीच अपने चरम पर था, लेकिन इसके बाद इसमें गिरावट आई है। वहीं, देवदार के पेड़ वर्तमान गर्म होते माहौल में तेज़ी से फल-फूल रहे हैं। अनुमान है कि 2100 तक, बदलते तापमान व जलवायु के विभिन्न परिदृश्यों में, देवदार के पेड़ ऊंचे इलाकों की ओर बढ़ते रहेंगे, जबकि भोजपत्र या तो स्थिर रहेंगे या कम हो सकते हैं। 

शोधकर्ता बताते हैं कि इस परिवर्तन के दुष्परिणाम भी सामने आएंगे। बर्फीले तेंदुए (snow leopard) जैसे प्राणियों को शिकार के लिए खुले स्थानों की ज़रूरत होती है। जंगल का विस्तार इनके प्राकृतवासों (habitat) को घटा रहा है। साथ ही, स्थानीय पशुपालकों के लिए आवश्यक चारागाहों (grazing land) पर पेड़ अतिक्रमण कर रहे हैं। लंगटांग घाटी जैसे क्षेत्रों में, स्थानीय लोग याक और भेड़ों के लिए ज़मीन वापस पाने के लिए पेड़ों को काट रहे हैं।

विशेषज्ञ मानते हैं कि ऐसे अध्ययन जंगल प्रबंधकों और स्थानीय समुदायों को इन बदलावों का अनुमान लगाने और उनके अनुसार खुद को ढालने में मदद करते हैं। यह शोध जलवायु परिवर्तन और इसके प्रकृति व मानवता पर पड़ने वाले प्रभावों को संभालने की ज़रूरत को रेखांकित करता है और हमें याद दिलाता है कि पारिस्थितिकी तंत्र के घटक परस्पर जुड़े हुए हैं और इन ऊंचे पहाड़ों में जीवन को बनाए रखने के लिए इनका संतुलन कितना महत्वपूर्ण है। (स्रोत फीचर्स)

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प्लास्टिक प्रदूषण पर लगाम के प्रयास और अड़चनें

प्लास्टिक प्रदूषण(plastic pollution) की बढ़ती समस्या को थामने के लिए लोगों में जागरूकता फैलाने के प्रयास करीब-करीब विफल ही रहे हैं। जो थोड़ी-बहुत सफलता मिलती है वह इसके उत्पादन(plastic production) की मात्रा के सामने फीकी है। प्रति वर्ष करीब 46 करोड़ टन नए प्लास्टिक(new plastic) का उत्पादन होता है, और 2060 तक इसका उत्पादन तिगुना होने की संभावना है। इसमें भी एक बार इस्तेमाल करके फेंक दिया जाने वाला प्लास्टिक अधिक होता है।

प्लास्टिक प्रदूषण को थामने के प्रयासों में सफलता बहुत सीमित रही है – कुल उत्पादन का महज़ 10 प्रतिशत प्लास्टिक ही पुनर्चक्रित (recycle) हो पाता है, बाकी समुद्रों में और यहां-वहां फेंक दिया जाता है। यह पर्यावरण(environment), जीव-जंतुओं(wildlife) और मानव स्वास्थ्य(human health) के लिए समस्या पैदा करता है।

ऐसे में स्थानीय, राज्य या राष्ट्र के स्तर पर किए जा रहे प्रयासों से बढ़कर वैश्विक स्तर(global level) पर कार्रवाई की ज़रूरत लगती है। इस प्रयास में वर्ष 2022 में दुनिया भर के देशों ने मिलकर प्लास्टिक प्रदूषण को थामने के लिए एक वैश्विक संधि(global treaty) के तहत प्लास्टिक प्रदूषण को थामने के लिए नियम-कायदे तय करने की शुरुआत की थी। पिछले दिनों, दक्षिण कोरिया के बुसान में 175 देशों के वार्ताकार इस संधि के पांचवें और अंतिम सत्र के लिए एकत्रित हुए थे। उम्मीद की जा रही थी कि दक्षिण कोरिया के बुसान में जारी वार्ता के परिणामस्वरूप दुनिया को प्लास्टिक प्रदूषण से बचाने के लिए एक सशक्त संधि मिलेगी। लेकिन 1 दिसंबर को वार्ता बगैर किसी निर्णय के समाप्त हो गई। हालांकि, वैश्विक स्तर पर सहमति बनने तक कई शहर और देश अपनी-अपनी नीतियां बना रहे हैं।

बैठक में आए सभी प्रतिनिधियों के अपने-अपने मत हैं। वैज्ञानिकों समेत सहित कुछ समूह चाहते हैं कि गैर-ज़रूरी (non-essential plastic) प्लास्टिक के उत्पादन को कम किया जाए, जो तेज़ी से अनियंत्रित स्तर तक बढ़ गया है। लेकिन कुछ राष्ट्र, विशेष रूप से पेट्रोकेमिकल्स उत्पादनकर्ता राष्ट्र (petrochemical-producing nations) चाहते हैं कि संधि में उत्पादन रोकने की बजाय रीसाइक्लिंग सहित अपशिष्ट प्रबंधन पर अधिक ज़ोर हो।

अब तक, 90 से ज़्यादा देशों ने एक बार उपयोग वाले प्लास्टिक उत्पादों (जैसे पोलीथीन थैलियों) (single use plastic) पर पूर्ण या आंशिक प्रतिबंध लगाया है। ये प्रतिबंध काफी प्रभावी हो सकते हैं। एक विश्लेषण बताता है कि पांच अमेरिकी राज्यों और शहरों में इस तरह के प्रतिबंधों ने प्रति वर्ष एक बार उपयोग की जाने वाली लगभग छह अरब पोलीथीन थैलियों की खपत में कमी की है। जलनिकास मार्ग/जलमार्गों में बहने/फंसने वाले प्लास्टिक में भारी कमी भी दिखाई दी है।

प्लास्टिक उपयोग पर शुल्क वसूलना (plastic tax) भी काम कर सकता है। यूके में एक सर्वेक्षण में पाया गया है कि एक बार उपयोग वाली थैलियों के उपयोग पर शुल्क लगाने के बाद समुद्र तटों पर प्लास्टिक की थैलियों की संख्या में 80 प्रतिशत की कमी आई, हालांकि इससे अन्य तरह का कूड़ा बढ़ गया है।

खराब डिज़ाइन किए गए या लागू किए गए प्रतिबंध अप्रभावी होने की संभावना भी होती है। इसका एक उदाहरण कैलिफोर्निया में देखने को मिला है: वहां दुकानों को मोटी और पुन: उपयोग (reusable plastic bags) की जा सकने वाली प्लास्टिक थैलियों का इस्तेमाल करने की अनुमति दी गई थी – लेकिन लोगों ने पुन: उपयोग करने के बजाय उन्हें भी फेंक दिया, जिससे पहले की तुलना में प्लास्टिक कचरा बढ़ गया। इसलिए लागू की जानी वाली नीतियों की सतत निगरानी और समीक्षा की ज़रूरत है।

फिर, कई देशों में प्लास्टिक पैकेजिंग निर्माता (plastic packaging manufaturers) कंपनियों से उनके द्वारा बनाए गए प्लास्टिक को पुनर्चक्रित करने के लिए पैसा लिया जाता है। ऐसा करने से पुनर्चक्रण की दर बढ़ी है। जैसे स्पेन ने ‘उत्पादक की विस्तारित ज़िम्मेदारी’ (extended producer responsibility) नीति शुरू की, जिससे कागज़ और प्लास्टिक के पुनर्चक्रण की दर 5 प्रतिशत से बढ़कर 81 प्रतिशत हो गई है। ऐसी नीतियों का उद्देश्य कंपनियों को अपनी पैकेजिंग को नए सिरे से, नए तरीके से डिज़ाइन करने के लिए प्रोत्साहित करना भी है। लेकिन चूंकि पैकेज़िंग के लिए अधिकांश शुल्क वज़न के हिसाब से लिया जाता है इसलिए यह तरीका मुख्य रूप से सिर्फ पैकेजिंग की मात्रा को कम करने में प्रभावी होता है, न कि पैकेजिंग की सामग्री को बदलने में। विशेषज्ञों का सुझाव है कि ऐसी नीतियां अधिक कारगर हो सकती हैं जो पैकेजिंग को पुनर्चक्रित सामग्री से बनाने का प्रोत्साहन देती हों। जैसे यूके में प्लास्टिक उत्पादकों को प्रति टन प्लास्टिक पर कर देना होता है, लेकिन सिर्फ उन उत्पादों पर जिन्हें बनाने में 30 प्रतिशत से कम पुनर्चक्रित सामग्री का इस्तेमाल किया गया हो। ऐसे प्रोत्साहन प्लास्टिक मांग की सही तरीके से आपूर्ति कर सकते हैं।

ज़ाहिर है, हर नीति के कुछ फायदे-नुकसान होते हैं। पुनर्चक्रण की नीतियों में भी ऐसा ही देखने को मिलता है; इनसे पुनर्चक्रण केंद्र और पुनर्चक्रण की दर तो बढ़ जाती है लेकिन पुनर्चक्रण कर्मचारियों के लिए सुरक्षा मानक न के बराबर होते हैं।

प्लास्टिक प्रदूषण के सबसे खतरनाक रूपों में से एक है माइक्रोप्लास्टिक(microplastic)। प्लास्टिक के बारीक-बारीक टुकड़े जो कार के टायरों के घिसने से, कपड़ों की धुलाई से या सौंदर्य प्रसाधनों आदि के उपयोग से पर्यावरण में झड़ते रहते हैं। ऐसा अनुमान है कि हर साल समुद्र में छोड़े जाने वाले करीब 10 लाख टन प्लास्टिक में 15-31 प्रतिशत माइक्रोप्लास्टिक होता है। इसे कम करने के प्रयास में कई देशों ने सौंदर्य प्रसाधनों में माइक्रोबीड्स के उपयोग पर प्रतिबंध लगा दिया है, जिससे कंपनियों पर इनका उपयोग बंद करने के लिए दबाव पड़ा है।

फ्रांस पहला ऐसा देश है जिसने नई वाशिंग मशीनों (washing machine) में माइक्रोफाइबर फिल्टर (microfiber filter) अनिवार्य कर दिया है। परीक्षणों में एक तरह का फिल्टर 75 प्रतिशत तक माइक्रोफाइबर कम करने में कारगर रहा। हालांकि कपड़ों में मौजूद माइक्रोप्लास्टिक के प्रसार को थामने के लिए फिल्टर लगाना बहुत प्रभावी उपाय नहीं है क्योंकि कपड़े पहनते-रखते समय भी करीब उतने ही महीन रेशे झड़ते हैं। और तो और, फिल्टर से निकाल कर भी रेशे पर्यावरण में ही कहीं फेंके जाएंगे। इसलिए बेहतर होगा कि कपड़ों को बनाने के तरीके में बदलाव किए जाएं, लेकिन राष्ट्रीय कानूनों के ज़रिए यह मुश्किल ही साबित हुआ है। इस तरह की अड़चनों और बाधाओं को कम करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय संधि (international treaty) आवश्यक है। राष्ट्र संघ (United Nations) का प्रस्ताव था कि सभी राष्ट्र एक संधि पर सहमत हों। लेकिन कई मुद्दों पर राष्ट्रों के बीच मतभेदों के चलते वार्ता टूट गई। अब बात वार्ता के अगले दौर तक के लिए टल गई है जो अगले साल होगा। (स्रोत फीचर्स)

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हिमालय की हिमनद झीलों से बाढ़ का खतरा

जलवायु परिवर्तन (climate change) के कारण हिमालय (Himalayas) की ऊंचाइयों में हिमनद झीलें (glacial lakes) तेज़ी से फैल रही हैं, जिससे नीचे के इलाकों में विनाशकारी बाढ़ (catastrophic floods) का खतरा बढ़ रहा है। एक हालिया अध्ययन में पाया गया है कि 2011 के बाद से भारत, चीन, नेपाल और भूटान (India, China, Nepal, Bhutan) में निरीक्षण की गई 902 हिमनद झीलों (lake expansion)  में से आधी से अधिक का क्षेत्रफल बढ़ता जा रहा है। बर्फ और हिमनदों के पिघलने से निर्मित इन झीलों का क्षेत्रफल अब तक 11 प्रतिशत तक बढ़ा है, जबकि कुछ झीलें तो 40 प्रतिशत से अधिक फैल गई हैं। 

यह चिंताजनक स्थिति वैश्विक तापमान (global warming) वृद्धि से जुड़ी है, जो हिमनदों के पिघलने की गति को तेज़ कर रही है। इन झीलों को अक्सर बर्फ और गिट्टियों जैसी नाज़ुक प्राकृतिक बाधाएं रोके रखती हैं, जो अचानक टूट सकती हैं और खतरनाक बाढ़ ला सकती हैं। इन्हें ‘आउटबर्स्ट फ्लड्स’ (outburst floods) कहा जाता है। बीते दशक में हिमालयी क्षेत्र में ऐसी घटनाओं ने भारी विनाश और जान-माल का नुकसान किया है। इन बाढ़ों की अप्रत्याशित प्रकृति के चलते हिमनद झीलों, खासकर छोटी लेकिन खतरनाक झीलों, की सख्त निगरानी (strict monitoring) निहायत आवश्यक है।

उपग्रह (satellite) और हवाई सर्वेक्षण (aerial surveys) इन परिवर्तनों को ट्रैक करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। इसरो (ISRO) ने एक अन्य अध्ययन में पाया है कि 1984 से 2016 के बीच अध्ययन की गई 2400 से अधिक झीलों में से लगभग 28 प्रतिशत झीलों के आकार में वृद्धि हुई है।

भारत सरकार (indian government) ने हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, सिक्किम और अरुणाचल प्रदेश (Himachal Pradesh, Uttarakhand, Sikkim, Arunachal Pradesh) में इन जोखिमों से निपटने के लिए 150 करोड़ रुपए की योजना शुरू की है। इसके तहत, झीलों की संवेदनशीलता (lake vulnerability) का आकलन और सुरक्षा उपाय (safety measures) लागू करने के प्रयास किए जा रहे हैं। इनमें निगरानी प्रणाली स्थापित करना और जल धारा का मार्ग बदलने के लिए चैनल (water channeling) बनाना शामिल है। इसके आलावा सिक्किम में शोधकर्ताओं ने सर्वाधिक जोखिम वाली झीलों (high risk lakes) के लिए प्राथमिकता के आधार पर रोकथाम रणनीतियां (prevention strategies) तैयार की हैं।

आपदा प्रबंधन अधिकारी (disaster management officials) इन झीलों के नीचे स्थित बांधों (dams) की तैयारियों का आकलन कर रहे हैं। 47 चिंहित बांधों में से 31 की रिपोर्ट में यह जांच की जा रही है कि उनके स्पिलवे संभावित बाढ़ का सामना कर सकते हैं या नहीं। पूर्वी हिमालय पर किए गए हालिया अध्ययन में बताया गया है कि ऐसी बाढ़ों से 10,000 से अधिक लोग, 2000 बस्तियां, पांच पुल और दो पनबिजली संयंत्र खतरे में पड़ सकते हैं। 

भौगोलिक स्थिति (geographical factors) और अंतर्राष्ट्रीय सरहदों (international borders) के लिहाज़ से इन झीलों के जलग्रहण क्षेत्र कई देशों में फैले हुए हैं। इसके लिए विशेषज्ञ हिमालयी देशों के बीच सीमापार सहयोग (joint efforts) की आवश्यकता पर ज़ोर देते हैं। इस नाज़ुक क्षेत्र में जीवन, बुनियादी ढांचे और पारिस्थितिक तंत्र पर बढ़ते खतरों से निपटने के लिए संयुक्त प्रयासों और सतत सतर्कता की आवश्यकता है। (स्रोत फीचर्स)

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