मच्छर की आंखों से बनी कृत्रिम दृष्टि – एस. अनंतनारायणन

आंखें और दृष्टि, विकास और विशिष्टीकरण का ज़बर्दस्त चमत्कार हैं। अंधकार और प्रकाश के प्रति संवेदनशील कोशिकाएं लेंस द्वारा संकेंद्रित छवियां बनाने के लिए परिष्कृत की गर्इं। प्रकाश-संवेदी कोशिकाओं से मिलकर परदे बने। ये परदे और कुछ नहीं, बेजोड़ संवेदनशीलता और रंग भेद करने वाले ग्राहियों की जमावट हैं। उसके बाद आता है प्रोसेसिंग का कार्य ताकि इस तंत्र द्वारा एकत्रित सूचना से कुछ मतलब निकाला जा सके।   

जंतु एक कदम आगे बढ़े हैं और उनके पास दो आंखें होती हैं। इससे उनको गहराई की अनुभूति करने में मदद मिलती है। संधिपाद प्राणियों या बाह्र कंकाल वाले प्राणियों (आर्थोपोड्स) में इस विशेषता की इंतहा हो जाती है। उनमें एक जोड़ी संयुक्त आंखें होती हैं। या यों कहें कि जोड़ी की प्रत्येक आंख हज़ारों इकाइयों में विभाजित होती है जिससे दृश्य पटल काफी विस्तृत हो जाता है।

टेक्नॉलॉजी ने प्रकाश संवेदना का उपयोग कैमरे के रूप में किया है। कैमरे के लेंस और अधिक विशिष्ट हो गए हैं। और रेटिना का स्थान फोटो फिल्म के सूक्ष्म कणों या कैमरा स्क्रीन के पिक्सेल ने ले लिया है। संयुक्त नेत्र की नकल करते हुए, वैज्ञानिकों ने पोलीमर शीट्स पर लेंस का ताना-बाना विकसित किया है। इसे एक अर्धगोलाकार रूप दिया जा सकता है। ये लेंस सिलिकॉन फोटो-डिटेक्टर के एक ताने-बाने पर अलग-अलग छवियां छोड़ते हैं। 180 ऐसे सक्रिय लेंस वाले 2 से.मी. से भी छोटे एक उपकरण से और बढ़िया काम की उम्मीद जगी थी। लेकिन प्रकृति में मौजूद आंखों के नैनोमीटर स्तर के खंडों की नकल उतारना और ऐसे खंडों की पर्याप्त संख्या बनाकर एक बड़ी संयुक्त आंख तैयार करना पहुंच से बाहर साबित हुआ है।    

अमेरिकन केमिकल सोसाइटी के जर्नल एसीएस एप्लाइड मटेरियल्स एंड इंटरफेसेस में जॉन हॉपकिंस युनिवर्सिटी के डोंगली शिन, तियानज़ू हुआंग, डेनिस नीब्लूम, माइकल ए. बेवन और जोएल फ्रेशेट ने एक विधि का विवरण दिया है जिसकी मदद से इन बाधाओं से पार पाया जा सकता है। सूक्ष्म घटकों के स्तर पर काम करने की बजाय जोएल फ्रेशेट की टीम ने नैनोमीटर आकार की तेल की बूंदों का उपयोग लेंस के रूप में किया है। इनको तेल की एक और बूंद पर एक परत के रूप में जमा किया गया ताकि यह एक लचीली कृत्रिम संयुक्त आंख के रूप में काम कर सके।    

बाल्टिमोर के इस समूह ने मच्छर की आंख के मॉडल का उपयोग किया है। पेपर के अनुसार मच्छर की आंख के प्रकाशीय और सतह के गुणों ने टीम के लिए प्रेरणा स्रोत का काम किया। सूक्ष्म-लेंस के नैनो स्तर गुणधर्म एंटीफॉगिंग और एंटीरेफ्लेक्टिव गुण प्रदान करते हैं। लेंस की फोकस दूरी बहुत कम है, इसलिए सभी वस्तुएं फोकस में रहती हैं। सूक्ष्म लेंसों की गोलार्ध में जमावट चारों ओर से छवियों को पकड़ती है। मस्तिष्क इन्हें एकीकृत करता है। इसकी मदद से आंख को बगैर हिलाए-डुलाए आंखों की परिधि पर स्थित वस्तुएं भी देखी जा सकती हैं।

इस छोटी संयुक्त आंख की विशेषता यह है कि इसकी इकाइयां कम विभेदन वाली और काफी किफायती होती हैं। यह मस्तिष्क को भोजन की तलाश या खतरे को भांपने में कुशल बनाता है, जबकि गंध जैसी अन्य इंद्रियां बारीकियों का ख्याल रखती हैं। एएससी की एक प्रेस विज्ञप्ति के अनुसार “संयुक्त आंख की सरलता और बहु-सक्षमता उन्हें दृष्टि की सूक्ष्म प्रणालियों के काबिल बनाती हैं जिसका उपयोग ड्रोन या रोबोट में किया जा सकता है।”  

पेपर के अनुसार इस संरचना की नकल करना काफी चुनौतीपूर्ण रहा है। पूरा ध्यान लचीले धरातल पर कृत्रिम लेंसों को जमाकर इस संरचना की नकल करने पर रहा है, किंतु वास्तविक आंख की सूक्ष्मस्तरीय विशेषताएं भी नदारद रहीं और कृत्रिम संयुक्त नेत्र में एक साथ कई लेंसों के निर्माण की विधि भी। वर्तमान कार्य में, टीम ने इस चुनौती को बूंद-रूपी नैनो कणों में निहित वक्रता से संभाला। यह एक ऐसी संरचना है जिसे तरल कंचा कहते हैं।  

तरल कंचा वास्तव में एक बूंद है जिस पर एक ऐसी सामग्री का लेप किया जाता है जो तरल पदार्थ को अन्य सामग्रियों से अलग रखता है। सामान्यत: पानी की गोलाकार बूंद कांच की शीट पर रखने पर फैल जाती है। अलबत्ता, कांच की शीट पर ग्रीस लगाकर इसे रोका जा सकता है। एक अन्य तरीका यह है कि बूंद पर ऐसी सामग्री का लेप किया जाए कि अंदर का तरल पदार्थ कांच के संपर्क में न आए। इस तरह से बूंद एक लचीली वस्तु होगी जो कंचे की तरह गोल बनी रहेगी। जब तेल और पानी को मिलाया जाता है तो तेल की बूंदें बन जाती हैं, लेकिन इन छोटी बूंदों को एकसार ढंग से पानी में फैलाया जा सकता है, जैसे पायस में होता है। लेकिन यदि इन बूंदों पर किसी पदार्थ का लेप करके उनको सीधे संपर्क में आने से न रोका जाए, तो ये छोटी-छोटी बूंदें आपस में जुड़कर बड़ी बूंदें बन जाएंगी।  

बाल्टिमोर टीम ने तेल की नैनो बूंदें बनाने के लिए केश-नलिका उपकरण का उपयोग किया और इन बूंदों को सिलिकॉन के नैनो कणों से लेप दिया। लेप की वजह से बूंदें जुड़ी नहीं बल्कि एक नियमित, तैरते पटिए के आकार की इकहरी परत के रूप में जम गर्इं। इस तरह से एक बड़ी बूंद पर छोटी-छोटी बूंदों की एक परत बन गई। परिणामस्वरूप एक नैनोमीटर आकार के गोले पर उसी सामग्री की छोटी-छोटी बूंदों वाला एक तरल कंचा तैयार हो गया। यह संरचना ठीक संयुक्त आंख की संरचना जैसी होती है।       

पेपर के अनुसार अंत में इस तरह बनी संरचना को संसाधित किया जाता है ताकि वह यांत्रिक दृष्टि से एक मज़बूत सामग्री के रूप में तैयार हो जाए। ठीक उसी तरह से जैसे एक संयुक्त आंख एक ही सामग्री के कई सारे लेंस से मिलकर बनी होती है।  

 यह प्रक्रिया निर्माण की पारंपरिक चुनौतियों से बचते हुए मच्छर की आंख के प्रकाशीय और एंटीफॉगिंग गुणों की नकल करती है। इस पेपर के अनुसार इस प्रक्रिया से तरल कंचा लेंस की आकृति में फेरबदल संभव हो जाता है। इसके चलते अन्य किस्म के लेंस भी बनाए जा सकेंगे। इस पेपर के अनुसार “इस प्रक्रिया का और विकास करके चिकित्सकीय इमेजिंग, टोही उपकरणों और रोबोटिक्स के क्षेत्र में लघुकरण को बढ़ावा मिलेगा।” (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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ऊंचे सुर और ऊंचे स्थान का सम्बंध

ब तक हुए कई अध्ययन इस बात की ओर इशारा करते हैं कि हम मनुष्य आम तौर पर उच्च तारत्व (या आवृत्ति) वाली ध्वनियों यानी तीखी आवाज़ों, जैसे सीटी की आवाज़ के साथ किसी ऊंची जगह की कल्पना करते हैं। और अब बायोलॉजी लेटर्स में प्रकाशित एक अध्ययन कहता है कि कुत्ते भी ऐसा ही करते हैं। शोधकर्ताओं के अनुसार यह अध्ययन इस बात को समझने में मदद कर सकता है कि क्यों हम कुछ आवाज़ों को खास भौतिक लक्षणों से जोड़कर देखते हैं।

दरअसल कई अध्ययन इस बात की ओर इशारा करते हैं कि हम उच्च तारत्व की ध्वनियों के साथ ऊंचाई, उजली या छोटी वस्तुओं की कल्पना करते हैं। लेकिन अब तक वैज्ञानिक आवाज़ के साथ इनके जुड़ाव के कारण की कोई तार्किक व्याख्या नहीं कर पाए हैं। जैसे अध्ययन कहते हैं कि संभवत: ध्वनि और स्थान, आकार या रंग आदि का यह जुड़ाव अनुभव से बना है। उदाहरण के तौर पर चूहे और पक्षियों जैसे छोटे जीव आम तौर पर तीखी (पतली) आवाज़ निकालते हैं जबकि भालू जैसे बड़े जानवर भारी (निम्न तारत्व वाली) आवाज़ें निकालते हैं। या यह भी हो सकता कि यह सम्बंध इसलिए बन गया कि अंग्रेजी में ‘हाई’ और ‘लो’ शब्दों का इस्तेमाल आवाज़ और ऊंचाई दोनों के लिए होता है।

युनिवर्सिटी ऑफ ससेक्स की जीव व्यवहार विज्ञानी ऐना कोर्ज़ेनिवोस्का और उनके साथियों का कुत्तों पर किया गया एक अध्ययन इस बात को और समझने में मदद कर सकता है। अध्ययन में शोधकर्ताओं ने 101 कुत्तों को एक गेंद के ऊपर-नीचे जाने का एनीमेशन दिखाया और कभी-कभी गेंद की गति के साथ ध्वनियां सुनाई गर्इं। कभी गेंद के ऊपर जाने के साथ ध्वनि का तारत्व बढ़ता और नीचे आने के साथ कम होता या, कभी इसके विपरीत होता। 64 प्रयोगों के बाद उन्होंने पाया कि जब गेंद के ऊपर जाने के साथ तारत्व बढ़ता है तो  कुत्तों ने गेंद को 10 प्रतिशत अधिक वक्त तक देखा। इससे लगता है कि जानवर आवाज़ का तारत्व बढ़ने को ऊंचे स्थान से जोड़कर देखते हैं। इस निष्कर्ष के आधार पर शोधकर्ताओं का अनुमान है कि आवाज़ के प्रकार के साथ स्थान का सम्बंध भाषा की वजह से नहीं बल्कि जन्मजात होता है और पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरित होता है।

बर्मिंगहैम युनिवर्सिटी के संज्ञान विज्ञानी मार्कस पर्लमेन का कहना है कि इस अध्ययन की डिज़ाइन तो उचित है लेकिन संभावना है कि कुछ अन्य कारक भी नतीजों पर असर डाल रहे हों। जैसे प्रयोग के दौरान कुत्तों के मालिक नज़दीक बैठे थे, हो सकता है गेंद के ऊपर जाने और उसके साथ उच्च तारत्व वाली आवाज़ बजने के वक्त अनजाने में उन्होंने कुत्तों को कुछ संकेत दिए हों। या हो सकता है कि कुत्तों के मालिकों ने पहले कभी कुत्तों को आवाज़ पर प्रतिक्रिया देने के लिए प्रशिक्षित किया हो।

लिहाज़ा, पर्लमैन का सुझाव है कि एक अन्य अध्ययन किया जाना चाहिए जिसमें कुत्ते के मालिक ऐसी भाषा बोलते हों जिसमें ध्वनि के तारत्व को स्थान सम्बंधी शब्द से संबोधित ना किया जाता हो, जैसे फारसी। फारसी भाषा में उच्च तारत्व की आवाज़ को पतली आवाज़ और निम्न तारत्व की आवाज़ को मोटी आवाज़ कहते हैं।

बहरहाल इस सम्बंध की व्याख्या के लिए आगे और विस्तार से अध्ययन करने की आवश्कता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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बैटरी चार्जिंग मात्र 10 मिनट में

कार कंपनियां काफी संख्या में बिजली-चालित वाहन (ईवी) बेच रही हैं। इलेक्ट्रिक वाहन की सबसे बड़ी समस्या इसके चार्ज होने का समय है। पेट्रोल-डीज़ल से चलने वाले वाहनों में जहां कुछ ही मिनटों में र्इंधन भरा सकता है, वहीं बिजली से चलने वाले वाहनों को सुपरचार्जर की मदद से चार्ज होने में भी 50 मिनट तक का समय लग जाता है। लेकिन एक नई तकनीक के उपयोग से इसमें बदलाव आ सकता है। 

बैटरी चार्जिंग की गति को बढ़ाने का एक तरीका तो यह है कि चार्जिंग के दौरान बैटरी का तापमान बढ़ाकर रखा जाए। तापमान बढ़ने पर बैटरी के अंदर की रासायनिक अभिक्रियाएं तेज़ हो जाती हैं। लेकिन उच्च तापमान पर बैटरी के घटक जल्दी खराब हो सकते हैं।

अब शोधकर्ताओं ने एक नई तकनीक खोज निकाली है। उनके अनुसार यदि चार्जिंग के दौरान बैटरी का तापमान बीच-बीच में कुछ समय के लिए बढ़ाया जाए तो घटकों के बिगड़ने की प्रक्रिया को रोका जा सकता है और चार्जिंग भी तेज़ी से किया जा सकता है। एक चार्जिंग उपकरण को केवल 10 मिनट के लिए 60 डिग्री सेल्सियस तक गर्म करके वे लीथियम आयनों को ग्रेफाइट की परतों में शामिल करने में कामयाब रहे। एनोड का संघटन यही होता है। यह बैटरी को रिचार्ज करने का प्रमुख चरण होता है। जूल पत्रिका में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार यदि इस प्रक्रिया को बड़े पैमाने पर लागू किया जा सके तो पारंपरिक लीथियम आयन बैटरियों की ड्राइविंग रेंज को 320 किलोमीटर बढ़ाया जा सकता है। परीक्षण के दौरान गर्म की गई बैटरियां काफी स्थिर रहीं और 1700 बार चार्ज-डिस्चार्ज करने के बाद भी उनमें ज़्यादा बिगाड़ नहीं हुआ।  

आगे शोधकर्ता चार्जिंग समय को और कम करके आधा करने की कोशिश कर रहे हैं ताकि बिजली चालित वाहनों को 5 मिनट में चार्ज किया जा सके। (स्रोत फीचर्स)

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भारत में जीनोम मैपिंग – प्रदीप

हाल ही में वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद (सीएसआईआर) द्वारा एक परियोजना के तहत भारत के एक हज़ार ग्रामीण युवाओं के जीनोम की सिक्वेंसिंग (अनुक्रमण) की योजना तैयार की गई है। इसके अंतर्गत लगभग दस हज़ार भारतीय लोगों के जीनोम को अनुक्रमित करने का लक्ष्य है। यह पहला मौका होगा जब भारत में इतने बड़े स्तर पर जीनोम के गहन अध्ययन के लिए खून के नमूने एकत्रित किए जाएंगे।

हम जीव विज्ञान की सदी में रह रहे हैं। अगर 20वीं सदी भौतिक विज्ञान की सदी थी तो 21वीं सदी निश्चित तौर पर जैव-प्रौद्योगिकी (बायोटेक्नॉलॉजी) की सदी होगी। पिछले दो-तीन दशकों में जैव-प्रौद्योगिकी में, विशेषकर आणविक जीव विज्ञान और जीन विज्ञान के क्षेत्र में, चमत्कृत कर देने वाले नए अनुसंधान तेज़ी से बढ़े हैं। 

मात्र दो अक्षरों का शब्द ‘जीन’ आज मानव इतिहास की दशा और दिशा बदलने में समर्थ है। जीन सजीवों में सूचना की बुनियादी इकाई और डीएनए का एक हिस्सा होता है। जीन माता-पिता और पूर्वजों के गुण और रूप-रंग संतान में पहुंचाते हैं। डीएनए के उलट-पलट जाने से जीन्स में विकार पैदा होता है और इससे आनुवंशिक बीमारियां उत्पन्न होती हैं, जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलती रहती हैं।

जीन्स के पूरे समूह को ‘जीनोम’ नाम से जाना जाता है। जीनोम के अध्ययन को जीनोमिक्स कहा जाता है। वैज्ञानिक लंबे समय से अन्य जीवों के अलावा मनुष्य के जीनोम को पढ़ने में जुटे हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार मानव शरीर में जीन्स की कुल संख्या अस्सी हज़ार से एक लाख तक होती है। 

1988 में अमेरिकी सरकार ने अपनी महत्वाकांक्षी परियोजना ‘ह्यूमन जीनोम प्रोजेक्ट’ की शुरुआत की जिसे 2003 में पूरा किया गया। वैज्ञानिकों ने इस प्रोजेक्ट के ज़रिए इंसान के पूरे जीनोम को पढ़ा। इस परियोजना में अमेरिका के साथ ब्रिटेन, फ्रांस, ऑस्ट्रेलिया, जर्मनी, जापान और चीन ने भाग लिया था। इस परियोजना का लक्ष्य जीनोम सिक्वेंसिंग के जरिए बीमारियों को बेहतर समझने, दवाओं के शरीर पर प्रभाव की सटीक भविष्यवाणी, अपराध विज्ञान में उन्नति और मानव विकास को समझने में मदद करना था। उस समय भारत का इस परियोजना से अपने को अलग रखना हमारे नीति निर्धारकों की अदूरदर्शिता का परिणाम कहा जा सकता है। अब सीएसआईआर द्वारा दस हज़ार ग्रामीण युवाओं के जीनोम की सिक्वेंसिंग की योजना ने जीनोमिक्स के क्षेत्र में भारत के प्रवेश की भूमिका तैयार कर दी है जिससे चिकित्सा विज्ञान में नई संभावनाओं के द्वार खुलेंगे।

सीएसआईआर की इस परियोजना के अंतर्गत सेंटर फॉर सेल्यूलर एंड मॉलीक्यूलर बायोलॉजी, हैदराबाद और इंस्टीट्यूट ऑफ जीनोमिक्स एंड इंटीग्रेटेड बायोलॉजी, नई दिल्ली संयुक्त रूप से काम करेंगे। जीनोम की सिक्वेंसिंग खून के नमूने के आधार पर की जाएगी। प्रत्येक व्यक्ति के डीएनए में मौजूद चार क्षारों (एडेनीन, गुआनीन, साइटोसीन और थायमीन) के क्रम का पता लगाया जाएगा।

डीएनए सीक्वेंसिंग से लोगों की बीमारियों का पता लगाकर समय रहते इलाज किया जा सकता है और साथ ही भावी पीढ़ी को रोगमुक्त करना संभव होगा। इस परियोजना में भाग लेने वाले युवा छात्रों को बताया जाएगा कि क्या उनमे परिवर्तित जीन हैं जो उन्हें कुछ दवाओं के प्रति कम संवेदनशील बनाते हैं। दुनिया के कई देश अब अपने नागरिकों की जीनोम मैपिंग करके उनके अनूठे जेनेटिक लक्षणों को समझने में लगे हैं ताकि किसी बीमारी विशेष के प्रति उनकी संवेदनशीलता के मद्देनजर व्यक्ति-आधारित दवाइयां तैयार करने में मदद मिल सके।

2003 में मानव जीनोम के अनुक्रमण के बाद प्रत्येक व्यक्ति की अद्वितीय आनुवंशिक संरचना तथा रोग के बीच सम्बंध को लेकर वैज्ञानिकों को एक नई संभावना दिख रही है। जीनोम अनुक्रम को जान लेने से यह पता लग जाएगा कि कुछ लोग कैंसर, कुछ मधुमेह और कुछ अल्ज़ाइमर या अन्य बीमारियों से ग्रस्त क्यों होते हैं। जीनोम मैपिंग के ज़रिए हम यह जान सकते हैं कि किसको कौन सी बीमारी हो सकती है और उसके क्या लक्षण हो सकते हैं। जीनोम मैपिंग से बीमारी होने का इंतजार किए बगैर व्यक्ति के जीनोम को देखते हुए उसका इलाज पहले से शुरू किया जा सकेगा। इसके माध्यम से पहले से ही पता लगाया जा सकेगा कि भविष्य में कौन-सी बीमारी हो सकती है। वह बीमारी न होने पाए तथा इसके नुकसान से कैसे बचा जाए इसकी तैयारी आज से ही शुरू की जा सकती है। सिस्टिक फाइब्रोसिस, थैलेसीमिया जैसी लगभग दस हज़ार बीमारियां हैं जिनके लिए एकल जीन में खराबी को ज़िम्मेदार माना जाता है। जीनोम उपचार के ज़रिए दोषपूर्ण जीन को निकाल कर स्वस्थ जीन जोड़ना संभव हो सकेगा।

अब समय आ गया है कि भारत अपनी खुद की जीनोमिक्स क्रांति की शुरुआत करे। तकनीकी समझ और इसे सफलतापूर्वक लॉन्च करने की क्षमता हमारे देश के वैज्ञानिकों तथा औषधि उद्योग में मौजूद है। इसके लिए राष्ट्रीय स्तर पर एक दृष्टि तथा कुशल नेतृत्व की आवश्यकता है। (स्रोत फीचर्स)

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तकनीक से बेहतर होता फिंगरप्रिंट विज्ञान – नवनीत कुमार गुप्ता

र्षों से व्यक्तियों की पहचान के लिए उंगलियों के निशान की मदद ली जाती रही है। बैंक, जीवन बीमा आदि अनेक स्थानों पर उंगलियों या अंगूठे के निशान लिए जाते हैं। ऐसा माना जाता है कि फिंगरप्रिंट विज्ञान का आरंभ प्राचीन काल में एशिया में हुआ था। भारतीय सामुद्रिक शास्त्र में शंख, चक्र तथा चापों का विचार भविष्य गणना में किया जाता रहा है। चीन में दो हज़ार वर्ष से भी पहले फिंगरप्रिंट का उपयोग व्यक्ति की पहचान के लिए होता था।

आधुनिक फिंगरप्रिंट विज्ञान का जन्म हम सन 1823 से मान सकते हैं, जब पोलैंड स्थित ब्रेसला विश्वविद्यालय के प्राध्यापक जोहान एवेंजेलिस्टा परकिंजे ने फिंगरप्रिंट के स्थायित्व को स्थापित किया था। वर्तमान फिंगरप्रिंट प्रणाली का प्रारंभ 1858 में इंडियन सिविल सर्विस के सर विलियम हरशेल ने बंगाल के हुगली ज़िले में किया था। 1892 में प्रसिद्ध अंग्रेज़ वैज्ञानिक सर फ्रांसिस गाल्टन ने फिंगरप्रिंट पर अपनी एक पुस्तक प्रकाशित की थी जिसमें उन्होंने हुगली के सब-रजिस्ट्रार श्री रामगति बंद्योपाध्याय द्वारा दी गई सहायता के लिए कृतज्ञता प्रकट की थी। उन्होंने फिंगरप्रिंट का स्थायित्व सिद्ध करते हुए उनके वर्गीकरण तथा उनका अभिलेख रखने की एक प्रणाली बनाई जिससे संदिग्ध व्यक्ति की ठीक से पहचान हो सके। किंतु यह प्रणाली कुछ कठिन थी। दक्षिण प्रांत (बंगाल) के पुलिस इंस्पेक्टर जनरल सर ई. आर. हेनरी ने उक्त प्रणाली में सुधार करके फिंगरप्रिंट के वर्गीकरण की सरल प्रणाली विकसित की। इसका वास्तविक श्रेय पुलिस सब-इंस्पेक्टर श्री अजीज़ुल हक को जाता है, जिन्हें सरकार ने 5000 रुपए का पुरस्कार भी दिया था। इस प्रणाली की अचूकता देखकर भारत सरकार ने 1897 में फिंगरप्रिंट द्वारा पूर्व दंडित व्यक्तियों की पहचान के लिए विश्व का प्रथम फिंगरप्रिंट कार्यालय कलकत्ता में स्थापित किया था।

फिंगरप्रिंट द्वारा पहचान दो सिद्धांतों पर टिकी है। एक तो यह कि दो व्यक्तियों के फिंगरप्रिंट कभी एक-से नहीं हो सकते और दूसरा यह कि व्यक्तियों के फिंगरप्रिंट जीवन भर ही नहीं अपितु जीवनोपरांत भी नहीं बदलते। अत: किसी भी विचाराधीन फिंगरप्रिंट को किसी व्यक्ति के फिंगरप्रिंट से तुलना करके यह निश्चित किया जा सकता है कि विचाराधीन फिंगरप्रिंट उसके हैं या नहीं। घटनास्थल की विभिन्न वस्तुओं पर अंकित फिंगरप्रिंट की तुलना संदिग्ध व्यक्ति के फिंगरप्रिंट से करके वह निश्चित किया जा सकता है कि अपराध किसने किया है।

अनेक अपराधी ऐसे होते हैं जो स्वेच्छा से अपने फिंगरप्रिंट नहीं देना चाहते। अत: कैदी पहचान अधिनियम, 1920 द्वारा भारतीय पुलिस को बंदियों के फिंगरप्रिंट लेने का अधिकार दिया गया है। भारत के प्रत्येक राज्य में एक सरकारी फिंगरप्रिंट कार्यालय है जिसमें दंडित व्यक्तियों के फिंगरप्रिंट के अभिलेख रखे जाते हैं।

फिंगरप्रिंट का प्रयोग पुलिस विभाग तक ही सीमित नहीं है, अपितु अनेक सार्वजनिक कार्यों में यह अचूक पहचान के लिए उपयोगी साबित हुआ है। नवजात बच्चों की अदला-बदली रोकने के लिए विदेशों के अस्पतालों में प्रारंभ में ही शिशुओं की पद छाप तथा उनकी माताओं के फिंगरप्रिंट ले लिए जाते हैं।

आम तौर पर उंगलियों के निशान इंसानों के शरीर समेत किसी भी ठोस सतह पर पाए जा सकते हैं। जांच करने वाले फिंगरप्रिंट को तीन वर्गों में बांटते हैं। ये वर्गीकरण उस सतह के प्रकार पर निर्भर करता है, जिन पर वे पाए जाते हैं और देखे जा सकते हैं या अदृश्य रहते हैं। साबुन, वैक्स तथा गीले पेंट जैसी कोमल सतहों पर पाए जाने वाले उंगलियों के निशान त्रि-आयामी प्लाटिक निशान होते हैं। कठोर सतहों के निशान प्रत्यक्ष या छिपे हुए हो सकते हैं। जब रक्त, धूल, स्याही, पेंट आदि किसी उंगली से या अंगूठे से होकर सतह पर गिरता है तो प्रत्यक्ष या दिखने वाले निशान बनते हैं। ऐसे निशान, चिकनी, खुरदरी, छिद्रयुक्त या बिना छिद्रयुक्त सतहों पर पाए जा सकते हैं। शरीर से उत्पन्न प्राकृतिक तेल या त्वचा का पसीना किसी दूसरी सतह पर जमा होता है तो छिपे हुए या अदृश्य निशान बनते हैं। इंसानों की उंगलियों की टोपोलॉजी के मुताबिक वे किसी सतह के संपर्क में आने पर अनोखे निशान बनाती हैं। लिहाजा अपने अनोखेपन तथा पैटर्न की पेचीदगी के चलते अपराध विज्ञान में व्यक्तिगत पहचान के लिए उंगलियों के निशान सर्वश्रेष्ठ सुराग होते हैं।

अब तक पारंपरिक विधियों में चिकनी या बिना छिद्र वाली सतह पर काला पाउडर डालकर विभिन्न प्रकाशीय तस्वीरें खींचने की विधियों से सफलतापूर्वक उंगलियों के निशान प्राप्त किए जाते थे। लेकिन प्रकाशीय तस्वीरों से जांच की विधियों में कुछ खामियां थीं। उंगलियों के निशान तलाशने से जुड़ी सभी संभावित खामियों को दूर करने के लिए दुर्गापुर के राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान में भौतिकी विभाग की सूक्ष्म विज्ञान प्रयोगशाला में प्रोफेसर पथिक कुम्भकार के नेतृत्व में वैज्ञानिकों की एक टीम ने एक विधि विकसित की है। इस विधि में पारंपरिक विधियों की खामियों को दूर कर स्मार्ट फोन की मदद से उंगलियों के निशान तलाशने के लिए सूक्ष्म प्रौद्योगिकी पर आधारित एक अनोखा पदार्थ विकसित किया गया है।

प्रोफेसर कुम्भकार के अनुसार “अपराध विज्ञान समेत विभिन्न शाखाओं में सूक्ष्म विज्ञान तकनीकी के विस्तृत अनुप्रयोग हैं। इनमें उंगलियों के छिपे हुए निशान तलाशना हमेशा महत्वपूर्ण रहा है। हमने तांबा तथा मैंगनीज़ आधारित एक द्विआयामी जिंक सल्फाइड तैयार किया है। इस पदार्थ का उपयोग उंगलियों के छिपे निशान तलाशने के लिए किया जाता है।”

राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान, दुर्गापुर के निदेशक प्रोफेसर अनुपम बसु के अनुसार “यह एक बेहतरीन कार्य है तथा विकास की दिशा में वास्तविक कदम है। इसके द्वारा अपराध वैज्ञानिक कार्यों के लिए उंगलियों के निशान प्राप्त करने में मदद मिलेगी।” इस तकनीक में सूक्ष्म पदार्थ का उपयोग किया जाता है, जो तस्वीर को सटीक तथा सुरक्षित बनाता है। प्रोफेसर पथिक तथा उनकी टीम के द्वारा किया गया यह कार्य निश्चित रूप से प्रशंसनीय है, जिसमें सूक्ष्म विज्ञान तथा अपराध वैज्ञानिक जांच के क्षेत्र के लिए भारी संभावना है।  (स्रोत फीचर्स)

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दा विंची द्वारा डिज़ाइन किया गया सबसे लंबा पुल

लियोनार्डो दा विंची बहुज्ञानी व्यक्ति थे जिन्होंने अपने समय के पर्यवेक्षकों को कई विषयों में फैले अपने जटिल डिज़ाइनों से प्रभावित किया था। वैसे तो दा विंची मोनालिसा और लास्ट सपर जैसी प्रसिद्ध पेंटिंग्स के लिए जाने जाते हैं, लेकिन उनका एक काम ऐसा भी है जिससे काफी कम लोग परिचित हैं। 16वीं सदी में दा विंची ने ओटोमान साम्राज्य के लिए उस समय के सबसे लंबे पुल का डिज़ाइन तैयार किया था।        

1502 में सुल्तान बेज़िद द्वितीय ने कॉन्स्टेनटिनोपल (आजकल का इस्तांबुल) से गलाटा तक पुल तैयार करने के प्रस्ताव आमंत्रित किए थे। एक प्रस्ताव दा विंची का भी था लेकिन जाने-माने कलाकार और आविष्कारक होने के बाद भी उनके डिज़ाइन को स्वीकार नहीं किया गया। हाल ही में एमआईटी के शोधकर्ताओं ने यह परखने की कोशिश की है कि यदि इस पुल का निर्माण होता तो यह कितना मज़बूत होता। 

शोधकर्ताओं ने 500 वर्ष पहले उपलब्ध निर्माण सामग्री और औज़ारों तथा उस इलाके की भूवैज्ञानिक स्थितियों पर विचार करते हुए पुल का प्रतिरूप तैयार किया। इस अध्ययन में शामिल एमआईटी की छात्र कार्ली बास्ट के अनुसार उस समय पत्थर ही एक ऐसा विकल्प था जिसके उपयोग से पुल को मज़बूती मिल सकती थी। शोधकर्ताओं ने यह भी माना कि पुल बिना किसी गारे के केवल पत्थरों की मदद से खड़ा रहने के लिए डिज़ाइन किया गया था।   

पुल की मज़बूती को जांचने के लिए, टीम ने 126 3-डी ब्लाक तैयार किए जो पुल के हज़ारों पत्थरों का प्रतिनिधित्व करते हैं। उनका मॉडल दा विंची की डिज़ाइन से 500 गुना छोटा था, जो लगभग 280 मीटर लंबा रहा होगा। हालांकि यह आधुनिक पुलों की तुलना में बहुत छोटा होता लेकिन यह अपने समय का सबसे लंबा पुल होता।

टीम ने बताया कि उस समय बनाए जाने वाले अधिकांश पुल अर्ध-वृत्ताकार मेहराब के रूप में तैयार किए जाते थे जिनमें 10 या उससे अधिक खम्बों की आवश्यकता होती थी। लेकिन दा विंची का डिज़ाइन एक ही मेहराब से बना था जिसे ऊपर से सपाट किया गया था। इसके नीचे से पाल वाली नावें आसानी से गुज़र सकती थी। टीम ने पुल का निर्माण करते समय मचान का सहारा दिया था लेकिन आखिरी पत्थर रखते ही मचान को हटा दिया गया। दिलचस्प बात यह रही कि पुल खड़ा रहा। शोधकर्ताओं के अनुसार यह अपने ही वज़न के दबाव से खड़ा है। दा विंची जानते थे कि इस क्षेत्र में भूकंप का भी खतरा है, इसलिए डिज़ाइन में ऐसी संरचनाएं (एबटमेंट्स) बनाई थीं जो इसके किनारों पर किसी भी प्रकार की हरकत होने पर पुल को स्थिर रखें।

इस परीक्षण पर ध्यान दिया जाए तो यह बात स्पष्ट है कि दा विंची ने इस विषय में काफी सोचने-समझने के बाद यह डिज़ाइन तैयार किया होगा। 

टीम ने अपने परिणामों को बार्सिलोना, स्पेन में आयोजित इंटरनेशनल एसोसिएशन फॉर शेल एंड स्पेशियल स्ट्रक्चर्स सम्मेलन में प्रस्तुत किया है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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रबर बैंड से बना फ्रिज

ह सुनने में तो थोड़ा अजीब लगता है लेकिन रबर बैंड से भी रेफ्रीजरेटर बनाया जा सकता है। इसका एक छोटा-सा अनुभव आप भी कर सकते हैं। रबर बैंड को खींचते हुए अपने होंठों के पास लाइए, आप थोड़ी थोड़ी गर्माहट महसूस करेंगे। वापस छोड़ने पर यह ठंडा भी हो जाता है। इसे इलास्टोकैलोरिक प्रभाव कहते हैं जो ठीक उसी तरह गर्मी को स्थानांतरित करता है जिस तरह रेफ्रीजरेटर या एयर कंडीशनर में तरल को दबाकर और फिर फैलाकर किया जाता है। वैज्ञानिकों ने इसका एक ऐसा संस्करण भी तैयार किया है जिसमें रबर बैंड को खींचने के अलावा मरोड़ा या ऐंठा भी जाता है।    

इस मरोड़ने की तकनीक पर आधारित फ्रिज पर अध्ययन करते हुए चीन स्थित नंकाई युनिवर्सिटी, तियांजिन के इंजीनियरिंग स्नातक रन वांग और उनके सहयोगियों ने रबर फाइबर, नायलॉन, पॉलीएथिलीन के तार और निकल-टाइटेनियम तारों की शीतलन शक्ति की तुलना की। प्रत्येक सामग्री के 3 सेंटीमीटर लचीले फाइबर को रोटरी उपकरण की मदद से मरोड़ा गया। ऐसा करने पर ऐंठन की वजह से कुंडलियां बनीं और कुंडलियों से सुपर-कुंडलियां बन गर्इं। ऐसा करने पर विभिन्न फाइबर 15 डिग्री सेल्सियस तक गर्म हुए और ढीला छोड़ने पर उतने ही ठंडे भी हो गए।

मरोड़ने पर गर्म होने की प्रक्रिया को समझने के लिए शोधकर्ताओं ने प्रत्येक फाइबर की आणविक संरचना को देखने के लिए एक्स-रे का उपयोग किया। मरोड़ने के बल ने अणुओं को अधिक व्यवस्थित कर दिया। चूंकि कुल व्यवस्था में कोई बदलाव नहीं आता है, इसलिए आणविक कंपन में वृद्धि हुई और तापमान बढ़ा।  

इस प्रक्रिया की ठंडा करने की क्षमता देखने के लिए शोधकर्ताओं ने मरोड़ने और खोलने की प्रक्रिया को पानी में करके देखा। रबर फाइबर में उन्होंने लगभग 20 जूल प्रति ग्राम ऊष्मा विनिमय दर्ज किया। यह माप मरोड़ने वाले उपकरण द्वारा खर्च की गई ऊर्जा की तुलना में आठ गुना अधिक था। अन्य फाइबरों का प्रदर्शन भी ऐसा ही रहा। साइंस में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार इनकी दक्षता का स्तर मानक शीतलकों से तुलनीय है और बिना मरोड़े केवल खींचने से दो गुना अधिक।    

यह डिज़ाइन उन शीतलन तरलों की ज़रूरत को कम कर सकती है जो ग्लोबल वार्मिंग में योगदान देते हैं। हालांकि शीतलन उपकरणों में ओज़ोन को क्षति पहुंचाने वाले क्लोरोफ्लोरोकार्बन को तो खत्म किया जा चुका है लेकिन उसकी जगह इस्तेमाल किए जाने वाले अन्य रसायन ग्रीनहाउस गैसों की श्रेणी में आते हैं जो कार्बन डाईऑक्साइड से अधिक घातक हैं।  

इस शोधपत्र के लेखक और युनिवर्सिटी ऑफ टेक्सास, डलास के भौतिक विज्ञानी रे बॉगमैन और उनकी टीम ने नमूने के तौर पर निकल टाइटेनियम तारों की मदद से बॉल पॉइंट पेन के आकार का एक छोटा फ्रिज तैयार किया है। इस ट्विस्टोकैलोरिक विधि की मदद से उन्होंने चंद सेकंड में पानी की थोड़ी-सी मात्रा को 8 डिग्री सेल्सियस तक ठंडा कर दिया। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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समस्याओं का समाधान विज्ञान के रास्ते – गंगानंद झा

सत्य को झूठ से अलग करने के लिए वैज्ञानिक मिज़ाज की ज़रूरत होती है। विज्ञान के सिद्धान्त चौकस दिमाग का निर्माण करते हैं और तथ्य को भ्रामक जानकारियों से अलग समझने में मदद करते हैं।” – नोबेल विजेता वैज्ञानिक सर्ज हैरोशे ff

दिम मनुष्य बादल, आसमान, सागर, तूफान नदी, पहाड़, तरह-तरह के पेड़ पौधों, जीव-जंतुओं के बीच अपने आपको असुरक्षित, असहाय और असमर्थ महसूस करता था। वह भय, कौतुहल और जिज्ञासा से व्याकुल हो जाता था।

उसका जीवित रह पाना उसके अपने परिवेश की जानकारी और अवलोकन पर निर्भर था, इसलिए अपने देखे-अनदेखे दृश्यों से उसने अनेकों पौराणिक कथाओं की रचना की। इन कथाओं के ज़रिए मनुष्य, विभिन्न जानवरों और पेड़-पौधों की उत्पत्ति की कल्पना तथा व्याख्या की गई। इन कथाओं में जानवर और पौधे मनुष्य की भाषा समझते और बोलते थे। वे एक-दूसरे का रूप धारण किया करते थे। इन कथाओं में ईश्वररूपी सृष्टा की बात कही गई। मनुष्य की चेतना ने सृष्टि के संचालक, नियन्ता, करुणामय ईश्वर का आविष्कार किया। आत्मा तथा परमात्मा की अनुभूति की उसने। वह प्रकृति के साथ एकात्मकता महसूस करने लगा। उसे सुरक्षा का आश्वासन मिला।

समय के साथ विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों में जानकारियां इकठ्ठी होती रहीं। समाज, संस्कृतियों का विकास होता गया। हिन्दू, बौद्ध, ईसाई, कनफ्यूशियसवाद, इस्लाम इत्यादि ज्ञान की परंपराएं विकसित और स्थापित हुर्इं। इन सभी परंपराओं की स्थापना है कि इस संसार में जो भी जानने लायक महत्वपूर्ण बातें हैं उन्हें जाना जा चुका है। ईश्वर ने ब्राहृांड की सृष्टि की, मनुष्य और अन्य जीवों का निर्माण किया। माना गया कि प्राचीन ऋषिगण, पैगंबर और धर्मप्रवर्तक व्यापक ज्ञान से युक्त थे और यह ज्ञान धर्मग्रंथों तथा मौखिक परंपराओं में हमें उपलब्ध है। हम इन ग्रंथों तथा परंपराओं के सम्यक अध्ययन से ही ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। मनीषियों के उपदेशों और वाणियों से हमें इस गूढ़ ज्ञान की उपलब्धि हो सकती है। इस स्थापना में यह अकल्पनीय है कि वेद, बाइबल या कुरान में ब्राहृांड के किसी महत्वपूर्ण रहस्य की जानकारी न हो जिसे कोई हाड़-मांस का जीव उद्घाटित कर सके।

सोलहवीं सदी से ज्ञान की एक अनोखी परंपरा का विकास हुआ। यह परंपरा विज्ञान की परंपरा है। इसकी बुनियाद में यह स्वीकृति है कि ब्राहृांड के सारे महत्वपूर्ण सवालों के जवाब हमें नहीं मालूम, उनकी तलाश करनी है।

वह महान आविष्कार जिसने वैज्ञानिक क्रांति का आगाज़ किया, वह इसी बात का आविष्कार था कि मनुष्य अपने सबसे अधिक महत्वपूर्ण सवालों के जवाब नहीं जानता। वैसे तो हर काल में, सर्वाधिक धार्मिक और कट्टर समय में भी, ऐसे लोग हुए हैं जिन्होंने कहा कि ऐसी कई महत्वपूर्ण बातें हैं, जिनकी जानकारी पूरी परंपरा को नहीं है। ये लोग हाशिए पर कर दिए गए या सज़ा के भागी हुए अथवा ऐसा हुआ कि उन्होंने अपना नया मत प्रतिपादित किया और कालांतर में यह मत कहने लगा कि उसके पास सारे सवालों के जवाब हैं।       

सन 1543 में निकोलस कॉपर्निकस की पुस्तक De revolutionibus orbium का प्रकाशन हुआ। यह मानव सभ्यता के विकास में एक क्रांति की सूचना थी। इस क्रांति का नाम वैज्ञानिक क्रांति है। इस पुस्तक ने स्पष्ट तौर पर घोषणा की कि आकाशीय पिंडों का केंद्र धरती नहीं, सूरज है। यह घोषणा उस समय के स्वीकृत ज्ञान को नकारती थी, जिसके अनुसार धरती ब्राहृांड का केंद्र है। यह बात आज साधारण लगती है, पर कॉपर्निकस के समय (1473 -1543) यह कहना धर्मविरोधी माना जाता था। उस समय चर्च समाजपति की भूमिका में था। चर्च की मान्यता थी कि धरती ईश्वर के आकाश का केंद्र है। कॉपर्निकस को विश्वास था कि धर्म-न्यायाधिकरण उसे और उसके सिद्धांत दोनों को ही नष्ट कर डालेगा। इसलिए उसने इसके प्रकाशन के लिए मृत्युशय्या पर जाने की प्रतीक्षा की। अपनी सुरक्षा के लिए कॉपर्निकस की चिंता पूरी तरह सही थी। सत्तावन साल बाद जियार्डेनो ब्रूनो ने खुले तौर पर कॉपर्निकस के सिद्धांत के पक्ष में वक्तव्य देने की ‘धृष्टता’ की तो उन्हें इस ‘कुकर्म’ के लिए ज़िंदा जला दिया गया था।

गैलीलियो(1564-1642) ने प्रतिपादित किया कि प्रकृति की किताब गणित की भाषा में लिखी गई है। इस कथन ने प्राकृतिक दर्शन को मौखिक गुणात्मक विवरण से गणितीय विवरण में बदल दिया। इसमें प्राकृतिक तथ्यों की खोज के लिए प्रयोग आयोजित करना स्वीकृत एवं मान्य पद्धति हो गई। अंत में उनके टेलीस्कोप ने खगोल विज्ञान में क्रांतिकारी प्रभाव डाला और कॉपर्निकस की सूर्य केंद्रित ब्राहृांड की अवधारणा के मान्य होने का रास्ता साफ किया। लेकिन  इस सिस्टम की वकालत करने के कारण उन्हें धर्म-न्यायाधिकरण का सामना करना पड़ा था।

एक सदी बाद, फ्रांसीसी गणितज्ञ और दार्शनिक रेने देकार्ते ने सारे स्थापित सत्य की वैधता का परीक्षण करने के लिए एक सर्वथा नई पद्धति की वकालत की। आध्यात्मिक संसार के अदृश्य सत्य का इस पद्धति से विश्लेषण नहीं किया जा सकता था। आधुनिक काल में वैज्ञानिक प्राकृतिक संसार के अध्ययन के लिए प्रवृत्त हुए। आध्यात्मिक सत्य का अध्ययन सम्मानित नहीं रहा। क्योंकि उसके सत्य की समीक्षा विज्ञान के विश्लेषणात्मक तरीकों से नहीं की जा सकती। जीवन और ब्राहृांड के महत्वपूर्ण तथ्य तर्क-संगत वैज्ञानिकों की गवेषणा के क्षेत्र हो गए। देकार्ते ने ईश्वर की जगह मनुष्य को सत्य का अंतिम दायित्व दिया, जबकि पारंपरिक अवधारणा में एक बाहरी शक्ति सत्य को परिभाषित करती है। देकार्ते के मुताबिक सत्य व्यक्ति के विवेक पर निर्भर करता है। विज्ञान मौलिकता को महान उपलब्धि का निशान मानता है। मौलिकता स्वाधीनता का परिणाम होती है, प्रदत्त ज्ञान से असहमति है।

सन 1859 में चार्ल्स डार्विन के जैव विकासवाद के सिद्धान्त के प्रकाशन के साथ विज्ञान और आत्मा के रिश्ते के तार-तार होने की बुनियाद एकदम पक्की हो गई।

आधुनिक विज्ञान इस मायने में अनोखा है कि यह खुले तौर पर सामूहिक अज्ञान की घोषणा करता है। डार्विन ने नहीं कहा कि उन्होंने जीवन की पहेली का अंतिम समाधान कर दिया है और इसके आगे कोई और बात नहीं हो सकती। सदियों के व्यापक वैज्ञानिक शोध के बाद भी जीव वैज्ञानिक स्वीकार करते हैं कि वे नहीं जानते कि मस्तिष्क में चेतना कैसे उत्पन्न होती है। पदार्थ वैज्ञानिक स्वीकार करते हैं कि उन्हें नहीं मालूम कि बिग बैंग कैसे हुआ या सामान्य सापेक्षता के सिद्धांत और क्वांटम मेकेनिक्स के बीच सामंजस्य कैसे स्थापित किया जाए। 

वैज्ञानिक क्रांति के पहले अधिकतर संस्कृतियों में विकास और प्रगति की अवधारणा नहीं थी। समझ यह थी कि सृष्टि का स्वर्णिम काल अतीत में था। मानवीय बुद्धि से रोज़मर्रा ज़िंदगी के कुछ पहलुओं में यदा-कदा कुछ उन्नति हो सकती है लेकिन संसार का संचालन ईश्वरीय विधान करता है। प्राचीन काल की प्रज्ञा का अनुपालन करने से हम सृष्टि और समाज को संकटग्रस्त होने से रोक सकते हैं। लेकिन मानव समाज की मौलिक समस्याओं से उबरना नामुमकिन माना जाता था। जब सर्वज्ञाता ऋषि, ईसा, मोहम्मद और कन्फ्यूशियस अकाल, रोग, गरीबी, युद्ध का नाश नहीं कर पाए तो हम साधारण मनुष्य किस खेत की मूली हैं?

वैज्ञानिक क्रांति के फलस्वरूप एक नई संस्कृति की शुरुआत हुई। उसके केंद्र में यह विचार है कि वैज्ञानिक आविष्कार हमें नई क्षमताओं से लैस कर सकते हैं। जैसे-जैसे विज्ञान एक के बाद एक जटिल समस्याओं का समाधान देने लगा, लोगों को विश्वास होने लगा कि नई जानकारियां हासिल करके और इनका उपयोग कर हम अपनी समस्याओं को सुलझा सकते हैं। दरिद्रता, रोग, युद्ध, अकाल, बुढ़ापा, मृत्यु विधि का विधान नहीं है। ये बस हमारे अज्ञान का नतीजा हैं।

विज्ञान का कोई पूर्व-निर्धारित मत/सिद्धांत नहीं है, अलबत्ता, इसकी गवेषणा की कुछ सामान्य विधियां हैं। सभी अवलोकनों पर आधारित हैं। हम अपनी ज्ञानेंद्रियों के जरिए ये अवलोकन करते हैं और गणितीय औज़ारों की मदद से इनका विश्लेषण करते हैं। (स्रोत फीचर्स)
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स्थिर विद्युत का चौंकाने वाला रहस्य

चपन में आपने अपने सिर पर गुब्बारा रगड़कर बाल खड़े करने या उसे दीवार पर चिपकाने वाला खेल ज़रूर खेला या देखा होगा। ये करतब स्थिर विद्युत की वजह से होते हैं। हालांकि, स्थिर विद्युत से मनुष्य काफी प्राचीन समय से ही परिचित थे, फिर भी आज तक वैज्ञानिक यह नहीं समझ पाए थे कि कुछ सामग्रियों को रगड़ने से कैसे विद्युत आवेश उत्पन्न होता है।

किसी बिजली के तार में विद्युत धारा प्रवाहित होने के विपरीत, स्थिर विद्युत एक जगह पर स्थिर रहती है। इस प्रकार की बिजली को ट्राइबोइलेक्ट्रिसिटी कहा जाता है। यह आम तौर पर उन रबड़ या प्लास्टिक जैसी सामग्रियों में टिकी रह जाती है जो विद्युत के चालक नहीं हैं। ऐसे कुचालक पदार्थ आपस में रगड़े जाने पर स्थिर आवेश जमा कर लेते हैं। यह आवेश दो प्रकार का होता है। समान आवेश वाली वस्तुएं एक-दूसरे को परे धकेलती है जबकि असमान आवेश होने पर वस्तुएं एक-दूसरे को आकर्षित करती हैं।       

ताज़ा अध्ययन में शोधकर्ता दरअसल एक अन्य विद्युत परिघटना फ्लेक्सोइलेक्ट्रिसिटी को समझने की कोशिश कर रहे थे। फ्लेक्सोइलेक्ट्रिसिटी एक ऐसी परिघटना है जिसमें किसी सामग्री को नैनोस्तर पर निरंतर लेकिन बेतरतीब ढंग मोड़ने या झुकाने पर विद्युत क्षेत्र उत्पन्न होता है। जैसे आप प्लास्टिक के कंघे के दांतों पर अपनी उंगली चलाएं। शोधकर्ताओं को लगा कि शायद इस आधार पर स्थिर विद्युत की व्याख्या हो सकती है।    

बहुत सूक्ष्म स्तर पर देखें, तो चिकनी नज़र आने वाली वस्तुएं भी खुरदरी होती हैं। फिजिकल रिव्यू लेटर्स में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार शोधकर्ताओं ने पाया कि दो वस्तुओं को आपस में रगड़ने से उनकी सतह पर उपस्थित छोटे-छोटे उभार मुड़ते या झुकते हैं। तब फ्लेक्सोइलेक्ट्रिक प्रभाव के कारण स्थिर विद्युत जमा होने लगती है। इस व्याख्या से यह भी मालूम चला कि एक ही पदार्थ से बनी दो कुचालक को आपस में रगड़ने से भी वोल्टेज क्यों उत्पन्न होता है। इससे पहले वैज्ञानिकों का ऐसा मानना था कि स्थिर विद्युत जमा होने के लिए दोनों पदार्थों में कुछ कुदरती अंतर होना चाहिए। इसलिए एक ही पदार्थ की वस्तुओं को आपस में रगड़ने पर स्थित विद्युत पैदा होने की बात चक्कर में डालने वाली लगती थी।    

इससे यह भी मालूम चला कि प्लास्टिक स्थिर विद्युत उत्पन्न करने में विशेष रूप से अच्छा काम करते हैं। इस व्याख्या से इंजीनियरों को ऐसी सामग्री तैयार करने में मदद मिल सकती है जिससे स्थिर विद्युत का अधिक उत्पादन करके उन उपकरणों में उपयोग किया जा सकेगा जिन्हें पहना जाता है। रिफाइनरी जैसी जगहों में भी सुरक्षा में सुधार करने में भी यह मददगार सिद्ध हो सकती है। (स्रोत फीचर्स)

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दा विंची की पेंटिंग के पीछे छिपी तस्वीर

लंदन के नेशनल आर्ट म्यूज़ियम में रखी लियोनार्डो दा विंची की बेजोड़ पेंटिंग – दी वर्जिन ऑफ दी रॉक्स – के पीछे एक और तस्वीर छिपी है। हाल ही में उस ओझल तस्वीर के बारे में नई जानकारी सामने आई है। इस पेंटिंग में वर्जिन मैरी, शिशु जीसस और शिशु सेंट जॉन और एक फरिश्ता हैं।

दरअसल 2005 में नेशनल आर्ट गैलरी ने दी वर्जिन ऑफ दी रॉक्स पेंटिंग की इंफ्रारेड रिफ्लेक्टोग्राफी की मदद से इमेंज़िंग की थी जिसमें उन्हें पता चला था कि एक अन्य चित्र इस पेंटिंग के पीछे छिपा हुआ है जिसमें मैरी की आंखे बिलकुल अलग जगह पर बनी हुई थीं जिसे बाद में बनाए गए चित्र के रंगों से पूरा ढंक दिया गया था।

और अब पेंटिंग के पीछे ढंके चित्र के बारे में तफसील से जानने के लिए नेशनल आर्ट गैलरी ने तीन तकनीकों – इंफ्रारेड रेफ्लेक्टोग्राफी, एक्स-रे फ्लोरोसेंस स्केनिंग और हायपर स्पेक्ट्रल इमेंजिंग – की मदद ली है।

इंफ्रारेड रेफ्लेक्टोग्राफी में डाले गए इंफ्रारेड प्रकाश में ऊपरी रंगों के पीछे छिपे वे सभी ब्रश स्ट्रोक भी दिखाई देते हैं जो सामान्य प्रकाश में दिखाई नहीं देते। इनसे पता चलता है कि इस पेंटिंग में कलाकार ने पहले मैरी को बार्इं ओर बनाया था जो शिशु जीसस की ओर देख रही थी, और फरिश्ता दार्इं ओर था। चित्रों से लगता है कि दा विंची ने अंतत: जो पेंटिंग बनाई उसकी दिशा शुरुआती पेंटिंग से एकदम विपरीत है।

इसके अलावा एक्स-रे फ्लोरोसेंस करने पर पता चला कि पीछे छिपे चित्र के रंगो में ज़िंक था। दरअसल ज़िंक के कण एक्स-रे प्रकाश डालने पर चमकने लगते हैं। हायपर स्पेक्ट्रल इमेंजिंग में किसी चीज़ से आने वाली विद्युत-चुम्बकीय ऊर्जा का पता लगता है।

हालांकि अभी तक यह स्पष्ट नहीं हुआ है कि दा विंची ने नीचे वाले चित्र को नई पेंटिंग से क्यों ढंका? वैसे यह पेंटिंग मूल पेंटिंग का दूसरा संस्करण है। उन्होंने अपनी मूल पेंटिंग चर्च के लिए बनाई थी जो किसी विवाद के बाद उन्होंने पेरिस में रहने वाले एक ग्राहक को बेच दी थी। उन्होंने दूसरी पेंटिंग हू-ब-हू पहली पेंटिंग की तरह बनाने की बजाय उसमें थोड़े बदलाव किए थे। जैसे दूसरी पेंटिंग में रंगों से उन्होंने अलग प्रकाश प्रभाव दिया है। चित्र में मौजूद लोगों की मुद्राएं भी थोड़ी अलग हैं। इमेंज़िंग से प्राप्त चित्रों का प्रदर्शन नवंबर से जनवरी के बीच किया जाएगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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