पुरुष प्रधान माहौल में एक महिला वैज्ञानिक

बिमला बूटी

ज जब पीछे मुड़कर देखती हूं, तो यह समझना काफी मुश्किल लगता है कि मैंने भौतिकी को अपने करियर के रूप में क्यों चुना था, क्योंकि तब तक मेरे परिवार में किसी ने भी शुद्ध विज्ञान की पढ़ाई नहीं की थी।

भारत के विभाजन के समय जब हम लाहौर से दिल्ली आए, तो मुझे एक सरकारी स्कूल में दाखिला मिला, लेकिन वहां विज्ञान का विकल्प नहीं था। इसलिए मैंने हाई स्कूल में कला को चुना जबकि गणित मेरा पसंदीदा विषय था। मेरे पिता पंजाब विश्वविद्यालय से गणित में स्वर्ण पदक विजेता थे, लेकिन बाद में उन्होंने वकालत को चुना। चूंकि मैंने मैट्रिक की परीक्षा दी थी, न कि हायर सेकेंडरी की, इसलिए बी.एससी. (ऑनर्स) में दाखिला लेने से पहले मुझे दिल्ली विश्वविद्यालय में एक साल का कोर्स करना पड़ा। इस समय मैंने जीव विज्ञान की बजाय भौतिकी, रसायन और गणित को चुना। कारण सीधा-सा था कि मुझे मेंढक काटने से डर लगता था शायद इसलिए कि मैं शाकाहारी थी। मेरे डॉक्टर जीजा ने मुझे मेडिकल की पढ़ाई के लिए राज़ी करने का प्रयास किया लेकिन पिताजी ने मुझे अपनी पसंद का करियर चुनने के लिए प्रोत्साहित किया। मुझे रसायन शास्त्र पसंद नहीं था, लेकिन भौतिकी अच्छा लगता था, शायद इसलिए कि मुझे एप्लाइड (अनुप्रयुक्त) गणित में दिलचस्पी थी। मैंने इंजीनियरिंग करने के बारे में भी विचार किया, लेकिन इसके लिए मुझे दिल्ली से बाहर जाना पड़ता, जो मुझे और मेरे परिवार को पसंद नहीं था। शायद यही कारण था कि मैंने दिल्ली विश्वविद्यालय में भौतिकी (ऑनर्स) को चुना।

दिल्ली विश्वविद्यालय से बी.एससी. (ऑनर्स) और भौतिकी में एम.एससी. करने के बाद, मैं पीएच.डी. के लिए शिकागो विश्वविद्यालय चली गई। यहां मुझे नोबेल पुरस्कार विजेता प्रोफेसर एस. चंद्रशेखर के साथ काम करने का सौभाग्य मिला। मेरे शुरुआती जीवन में मेरे पिता ने मुझे जिस तरह से प्रेरित किया था, उसी तरह मेरे गुरू चंद्रा (प्रो. चंद्रशेखर को उनके विद्यार्थी, सहयोगी और मित्र ‘चंद्रा’ कहकर बुलाते थे) का भी मेरे पेशेवर जीवन पर गहरा असर पड़ा। आत्मनिर्भरता, मुश्किलों का सामना करने का आत्मविश्वास और अन्याय के समक्ष न झुकने जैसे गुण मुझमें बचपन से रोप दिए गए थे, जो चंद्रा के साथ जुड़ने के बाद और भी मज़बूत हो गए। मैं हमेशा बेधड़क होकर अपनी बात कहती थी, जो मेरे कई वरिष्ठ सहयोगियों को पसंद नहीं था। इस कारण और लैंगिक भेदभाव के चलते मुझे पेशेवर स्तर पर कठिनाइयों का सामना करना पड़ा, लेकिन मुझे इसका कोई पछतावा नहीं है।

अपने पेशे की खातिर मैंने शुरू से ही शादी न करने का फैसला किया था। मैंने यह फैसला इसलिए लिया था क्योंकि मुझे अपने काम के साथ पूरी तरह न्याय करने और हर काम को मेहनत से पूरा करने की आदत थी। शादी करने पर न तो मैं अपने परिवार और न ही अपने पेशे से पूरा न्याय कर पाती। अविवाहित रहकर मैं अपने पेशेवर दायित्वों पर पूरी तरह ध्यान केंद्रित कर सकती थी। 

प्रो. चंद्रशेखर ने विविध क्षेत्रों में काम किया था। वे एक क्षेत्र में गहराई से काम करते, उस पर एक किताब लिखते, और फिर किसी नए क्षेत्र में चले जाते। जब मैंने उनके साथ काम करना शुरू किया, तब उनकी रुचि मैग्नेटो-हाइड्रोडायनेमिक्स और प्लाज़्मा भौतिकी में थी। मैंने प्लाज़्मा भौतिकी में विशेषज्ञता हासिल की थी। अपनी थीसिस के लिए मैंने रिलेटिविस्टिक प्लाज़्मा पर काम किया। काम करने का ममेरा तरीका यह रहा है कि पहले एक सामान्य मॉडल तैयार करती हूं और फिर उसे अंतरिक्ष, खगोल भौतिकी और प्रयोगशाला प्लाज़्मा से जुड़े रुचि के मुद्दों पर लागू करती हूं। मैंने गैर-रैखिक (nonlinear) डायनेमिक्स तकनीकों का उपयोग करके कई अवलोकनों की व्याख्या गैर-रैखिक, अशांत (turbulent) और बेतरतीब (chaotic) प्लाज़्मा प्रक्रियाओं के रूप में की है।

शिकागो से पीएच.डी. करने के बाद, मैं भारत लौटी और दो साल तक अपने पुराने संस्थान, दिल्ली विश्वविद्यालय में शिक्षण कार्य किया। इसके बाद मैंने अमेरिका वापस जाने का फैसला किया, जहां मुझे नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ में नासा के गोडार्ड स्पेस फ्लाइट सेंटर में रेसिडेंट रिसर्च एसोसिएट के रूप में काम करने का मौका मिला। वहां मैं सैद्धांतिक विभाग से जुड़ी, जिसका नेतृत्व प्रतिभाशाली प्लाज़्मा भौतिकविद टी. जी. नॉर्थरॉप कर रहे थे। वहां का जीवन शिकागो के मेरे छात्र जीवन से बिल्कुल अलग था, लेकिन वहां बिताया गया दो से अधिक वर्षों का समय बहुत ही फलदायी और आनंददायक रहा।

इसके बाद, मैंने भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (IIT), दिल्ली के भौतिकी विभाग में वरिष्ठ वैज्ञानिक अधिकारी के रूप में काम किया। इसी दौरान, चंद्रा (प्रो. चंद्रशेखर) को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने नेहरू स्मृति व्याख्यान देने के लिए आमंत्रित किया था। व्याख्यान के बाद श्रीमती गांधी ने चंद्रा के सम्मान में रात्रिभोज का आयोजन किया था, और चंद्रा की छात्र के रूप में मुझे भी इसमें आमंत्रित किया गया। इस समारोह में विक्रम साराभाई, डी. एस. कोठारी और भारतीय राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी (INSA) के अध्यक्ष जैसे विशिष्ट व्यक्ति मौजूद थे, और मैं उनके बीच एक नगण्य उपस्थिति थी। वहीं पहली बार मेरी मुलाकात प्रो. साराभाई से हुई। उन्होंने उसी वक्त मुझे भौतिकी अनुसंधान प्रयोगशाला (PRL), जिसके वे निदेशक थे, में काम करने के लिए आमंत्रित किया। इस तरह मैं PRL से जुड़ी और वहां 23 साल तक एसोसिएट प्रोफेसर, प्रोफेसर, सीनियर प्रोफेसर और डीन के रूप में काम किया।

PRL का शोध वातावरण IIT और दिल्ली विश्वविद्यालय से बहुत अलग था। साराभाई ऊंच-नीच के पदानुक्रम में विश्वास नहीं रखते थे और उन्होंने वैज्ञानिकों को पूरी आज़ादी और ज़िम्मेदारियां दी थीं। हमने PRL में सैद्धांतिक और प्रायोगिक दोनों स्तरों पर प्लाज़्मा भौतिकी का एक सशक्त समूह स्थापित किया। मैंने भारत में प्लाज़्मा साइंस सोसायटी की स्थापना की, जिसका पंजीकृत कार्यालय आज भी PRL में है। मुझे गर्व है कि मेरे सभी विद्यार्थी, जो भारत और अमेरिका में बस गए हैं, पेशेवर रूप से और अन्यथा बहुत अच्छा प्रदर्शन कर रहे हैं।

PRL में काम करते हुए मुझे NASA के अन्य केंद्रों, जैसे कैलिफोर्निया स्थित एम्स रिसर्च सेंटर और जेट प्रपल्शन लेबोरेटरी (JPL) में अपेक्षाकृत लंबे समय तक काम करने का और दौरे करने का अवसर मिला। इसके अलावा, 1986 से 1987 तक मैंने लॉस एंजेल्स स्थित कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय में भी काम किया। 1985 से 2003 के दौरान, इटली के ट्रीएस्ट स्थित इंटरनेशनल सेंटर फॉर थ्योरिटिकल फिजिक्स (ICTP) में प्लाज़्मा भौतिकी के निदेशक के रूप में मुझे कई विकासशील और विकसित देशों के वैज्ञानिकों के साथ काम करने का मौका मिला। मुझे हर दूसरे साल वहां विकासशील देशों के प्रतिभागियों के लिए प्लाज़्मा भौतिकी अध्ययन शाला के आयोजन में काफी समय देना पड़ता था। लेकिन मुझे लगता है कि यह मेहनत सार्थक थी, क्योंकि इन अध्ययन शालाओं के प्रतिभागियों को प्रमुख प्लाज़्मा भौतिकविदों का मार्गदर्शन मिलता था जो वहां व्याख्यान देने के लिए आते थे।

मैं काफी सौभाग्यशाली रही कि मुझे 1990 में इंडियन नेशनल साइंस एकेडमी (INSA), नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ (NAS), अमेरिकन फिज़िकल सोसाइटी (APS), और दी एकेडमी ऑफ साइंसेज ऑफ दी डेवलपिंग वर्ल्ड (TWAS)  की फेलो चुना गया। उस समय TWAS में कुछ ही भारतीय फेलो थे। मैं TWAS की पहली भारतीय महिला फेलो और INSA की पहली महिला भौतिक विज्ञानी फेलो बनी। मैंने ‘सौभाग्यशाली’ शब्द का इस्तेमाल इसलिए किया क्योंकि किसी भी सम्मानजनक पुरस्कार या साइंस अकादमी की फेलोशिप के लिए नामांकित होना पड़ता है, और पुरुष-प्रधान क्षेत्र में एक महिला वैज्ञानिक के लिए भटनागर पुरस्कार जैसे प्रतिष्ठित पुरस्कारों के लिए नामांकित होना लगभग असंभव था। लैंगिक भेदभाव का एक प्रसंग 1980 के दशक के मध्य में PRL के निदेशक के चयन के समय भी स्पष्ट था। मुझे अक्सर अपने पुरुष सहकर्मियों की ईर्ष्या का सामना करना पड़ा।

यह सुनने में अजीब लग सकता है, लेकिन यह सच है कि किसी वैज्ञानिक के कार्य की सराहना अपने देश से ज़्यादा विदेशों में होती है। भारत में विज्ञान जगत में लैंगिक भेदभाव के बावजूद मुझे 1977 में विक्रम साराभाई पुरस्कार (ग्रह विज्ञान), 1993 में जवाहरलाल नेहरू जन्म शताब्दी व्याख्याता पुरस्कार, 1994 में वेणु बप्पू अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार (खगोल भौतिकी), और 1996 में शिकागो विश्वविद्यालय का लाइफटाइम अचीवमेंट पुरस्कार मिला।

PRL से सेवानिवृत्त होने के बाद, मैंने चार साल फिर से कैलिफोर्निया की जेट प्रपल्शन लैब में बिताए। इसके बाद मैंने दिल्ली में रहकर अपना शोध कार्य जारी रखा और साथ ही 2003 में स्थापित ‘बूटी फाउंडेशन’ (www.butifoundation.org) के माध्यम से सामाजिक कार्य किया। मुझे इस बात का बहुत संतोष है कि फाउंडेशन बहुत अच्छी प्रगति कर रहा है। (स्रोत फीचर्स)

बिमला बूटी का यह जीवन परिचय लीलावती डॉटर्स पुस्तक में उनके द्वारा लिखी गई अपनी एक संक्षिप्त जीवनी से लिया गया है।

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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बिमला बूटी का यह जीवन परिचय लीलावती डॉटर्स पुस्तक में उनके द्वारा लिखी गई अपनी एक संक्षिप्त जीवनी से लिया गया है।

गेइया परिकल्पना के प्रवर्तक जेम्स लवलॉक का निधन – ज़ुबैर सिद्दिकी

त 26 जुलाई को जेम्स लवलॉक का 103 वर्ष की आयु में निधन हो गया। एक स्वतंत्र वैज्ञानिक और पर्यावरणविद के रूप में लवलॉक ने मानव जाति के वैश्विक प्रभाव पर हमारी समझ और धरती से अन्यत्र जीवन की खोज को व्यापक स्तर पर प्रभावित किया। लेखन और भाषण में उत्कृष्ट क्षमताओं के चलते वे हरित आंदोलन के नायकों में से रहे जबकि वे इसके कट्टर आलोचक भी थे। वे आजीवन नए-नए विचार प्रस्तुत करते रहे। उन्हें मुख्यत: विवादास्पद गेइया परिकल्पना के लिए जाना जाता है।    

लवलॉक ने 20वीं सदी के अंत और 21वीं सदी की शुरुआत की सबसे गंभीर पर्यावरणीय समस्याओं पर अध्ययन किए। इन अध्ययनों में मुख्य रूप से औद्योगिक प्रदूषकों का जीवजगत में प्रसार, ओज़ोन परत का ह्रास, और वैश्विक तापमान वृद्धि से होने वाले संभावित खतरे शामिल हैं। उन्होंने परमाणु उर्जा और रासायनिक उद्योगों की पैरवी भी की। उनकी चेतावनियां अक्सर विनाश का नज़ारा दिखाती थीं। बढ़ते वैश्विक तापमान पर चिंता जताते हुए लवलॉक ने कहा था कि हम काफी तेज़ी से 5.5 करोड़ वर्ष पूर्व की गर्म अवस्था में पहुंच सकते हैं और यदि ऐसा हुआ तो हम और हमारे अधिकांश वंशज मारे जाएंगे।

26 जुलाई, 1919 को हर्टफोर्डशायर में जन्मे लवलॉक की परवरिश ब्रिक्सटन (दक्षिण लंदन) में हुई। प्रारंभिक शिक्षा के दौरान एक सार्वजनिक पुस्तकालय ने उनमें विज्ञान के प्रति आकर्षण पैदा किया और उन्हें इतना प्रभावित किया कि स्कूल में पढ़ाए जाने वाले विज्ञान के पाठ उन्हें नीरस लगने लगे। पुस्तकालय में उन्होंने खगोल विज्ञान, प्राकृतिक इतिहास, जीव विज्ञान, भौतिकी और रसायन विज्ञान की जानकारियां हासिल कीं। लवलॉक ने अपने इस ज्ञान को व्यावहारिक रूप भी दिया। उन्होंने अपने स्कूल के दिनों में एक पवन-गति सूचक तैयार किया था जिसका इस्तेमाल वे ट्रेन यात्रा के दौरान किया करते थे।

कमज़ोर आर्थिक स्थिति के चलते पढ़ाई के लिए वे एक कंपनी में तकनीशियन का काम करते थे और शाम को बी.एससी. की पढ़ाई के लिए कक्षाओं में जाते थे। 1940 में उन्होंने मिल हिल स्थित नेशनल इंस्टीट्यूट फॉर मेडिकल रिसर्च (एनआईएमआर) में काम करना शुरू किया और 20 अगले वर्ष तक यहीं काम करते रहे।           

एनआईएमआर में काम करते हुए उन्होंने बायोमेडिकल साइंस में पीएच.डी. हासिल की और इलेक्ट्रॉन कैप्चर डिटेक्टर का आविष्कार किया। यह एक माचिस की डिबिया के आकार का उपकरण था जो विषैले रसायनों का पता लगाने और उनका मापन करने में सक्षम था।

लवलॉक के कार्य में एक बड़ा परिवर्तन 1961 में आया जब उन्होंने एनआईएमआर छोड़कर नासा के लिए काम करना शुरू किया। नासा में उन्हें मानव रहित अंतरिक्ष यान ‘सर्वेयर सीरीज़’ के प्रयोगों को डिज़ाइन करने के लिए आमंत्रित किया गया था ताकि मनुष्य के चंद्रमा पर उतरने से पूर्व चंद्रमा की सतह की जांच की जा सके। इस परियोजना के बाद लवलॉक ने मंगल ग्रह पर जीवन की तलाश के लिए जेट प्रपल्शन लेबोरेटरी (जेपीएल) में अंतरग्रही खोजी टीम के साथ काम करना शुरू किया। इस परियोजना में काम करते हुए उन्होंने पाया कि मंगल ग्रह के जैविक पहलुओं पर अध्ययन करने के लिए विश्वविद्यालयों और शोध संस्थानों की ओर से बहुत कम सुझाव आए थे।      

लवलॉक का विचार था कि इसका कारण आणविक जीव विज्ञान और जेनेटिक उद्विकास के प्रति वह जुनून है जो फ्रांसिस क्रिक और जेम्स वाटसन द्वारा डीएनए की रचना की खोज के बाद पैदा हुआ था। वे काफी निराश थे कि जीव विज्ञान में अनुसंधान का फोकस व्यापक तस्वीर की बजाय छोटे-छोटे हिस्सों पर हो गया है – जीवन का अध्ययन सम्पूर्ण जीव की बजाय अणुओं और परमाणुओं के अध्ययन पर अधिक केंद्रित है।

मंगल ग्रह पर जीवन के संकेतों को समझने के लिए लवलॉक के प्रयोग काफी अलग ढंग से डिज़ाइन किए गए थे जिनमें अलग-अलग घटकों की बजाय संपूर्ण जीव पर ध्यान देना निहित था। गेइया परिकल्पना को स्थापित करने में यह दृष्टिकोण काफी महत्वपूर्ण साबित हुआ।      

शुरुआत में नासा ने धरती से परे जीवन का पता लगाने के लिए पृथ्वी के पड़ोसी ग्रह शुक्र और मंगल को चुना था। इन दोनों ग्रहों के वायुमंडल के रासायनिक संघटन के आधार पर लवलॉक का अनुमान था कि दोनों ही जीवन-रहित होंगे।

फिर थोड़ा विचार करने के बाद वे यह सोचने लगे कि किसी बाहरी बुद्धिमान जीव को पृथ्वी कैसी दिखेगी। अपने सहयोगी डियान हिचकॉक के साथ वार्तालाप में उन्होंने यह समझने का प्रयास किया कि पृथ्वी, मंगल और शुक्र ग्रह के वातावरण में इतना अंतर क्यों है। इस विषय पर काम करते हुए विवादास्पद गेइया परिकल्पना का जन्म हुआ। 

नया नज़रिया

तथ्य यह है कि मंगल और शुक्र के वायुमंडलों में 95% कार्बन डाईऑक्साइड और कम मात्रा में नाइट्रोजन, ऑक्सीजन और अन्य गैसें हैं। दूसरी ओर, पृथ्वी के वायुमंडल में 77% नाइट्रोजन, 21% ऑक्सीजन और मामूली मात्रा में कार्बन डाईऑक्साइड व अन्य गैसें हैं। यह समझना ज़रूरी है कि अन्य ग्रहों की तुलना में पृथ्वी इतनी अलग और अद्वितीय क्यों है।

एक विचारणीय बात यह भी है कि पिछले 3.5 अरब वर्षों में सूर्य की ऊर्जा में 30 प्रतिशत की वृद्धि होने के बाद भी पृथ्वी का तापमान स्थिर कैसे बना हुआ है। भौतिकी के अनुसार इस तापमान पर तो हमारे ग्रह की सतह को उबल जाना चाहिए था लेकिन पृथ्वी काफी ठंडी बनी हुई है।

इसका एकमात्र स्पष्टीकरण पृथ्वी का स्व-नियमन तंत्र है जिसने संतुलन बनाए रखने का एक तरीका खोज निकाला है और यहां रहने वाले जीवों ने इसके वातावरण को स्थिर बनाए रखने में योगदान दिया है। लवलॉक के अनुसार पृथ्वी का वायुमंडल जीवित और सांस लेने वाले जीवों के कारण गैसों में लगातार होते परिवर्तन को संतुलित रखे हुए हैं जबकि मंगल ग्रह का वातावरण अचर है।

यही गेइया परिकल्पना है जिसे लवलॉक ने 1960 के दशक में प्रस्तावित किया था और 1970 के दशक में अमेरिकी जीव विज्ञानी लिन मार्गुलिस के साथ विकसित किया था। इस परिकल्पना के अनुसार पृथ्वी केवल एक चट्टान का टुकड़ा नहीं है बल्कि पौधों और जीवों की लाखों प्रजातियों की मेज़बानी करती है जो खुद को इस पर्यावरण के अनुकूल कर पाए हैं। गेइया के अनुसार इन अनगिनत प्रजातियों ने न सिर्फ जद्दोजहद के ज़रिए खुद को अनुकूलित किया बल्कि एक ऐसा वातावरण बनाए रखने में भी सहयोग किया जिससे पृथ्वी पर जीवन को कायम रखा जा सके। सह-विकास इस स्व-नियमन का एक उदाहरण है। लवलॉक का यह सिद्धांत रिचर्ड डॉकिंस जैसे कई विद्वानों को रास नहीं आता था। वे इस सिद्धांत को चार्ल्स डार्विन के प्राकृतिक चयन के सिद्धांत के विरुद्ध मानते थे।   

लवलॉक के सिद्धांत के अनुसार पृथ्वी के इस नियामक तंत्र की शुरुआत तब हुई जब प्राचीन महासागरों में शुरुआती जीवन ने वातावरण से कार्बन डाईऑक्साइड को सोखकर ऑक्सीजन मुक्त करना शुरू किया। कई अरब वर्षों तक जारी इस प्रक्रिया से पृथ्वी के वायुमंडल में कार्बन डाईऑक्साइड में कमी होती गई और वातावरण ऑक्सीजन पर निर्भर जीवों के पक्ष में होता गया। लवलॉक और उनके सहयोगियों का मत था कि पृथ्वी के जैव-मंडल को एक स्व-विकास और स्व-नियमन करने वाला तंत्र माना जा सकता है जो स्वयं के लाभ के लिए वायुमंडल, पानी और चट्टानों में परिवर्तन करता है।

गेइया परिकल्पना के उदाहरण के रूप में लवलॉक ने डेज़ीवर्ल्ड मॉडल विकसित किया। डेज़ीवर्ल्ड में काले और सफेद डेज़ी फूलों का एक खेत है। यदि तापमान में वृद्धि होती है तो सफेद फूल की तुलना में काले फूल अधिक गर्मी को अवशोषित करते हैं और मुरझा जाते हैं जबकि सफेद डेज़ी अच्छे से पनपते हैं। अंततः सफेद डेज़ी अधिक गर्मी को अंतरिक्ष में परावर्तित करते हैं और ग्रह को फिर से ठंडा करते हैं ताकि काले डेज़ी एक बार फिर से पनप सकें। 

गेइया सिद्धांत ने हरित आंदोलन को काफी प्रभावित किया लेकिन लवलॉक कभी भी पूर्ण रूप से पर्यावरणवाद के समर्थक नहीं रहे। यहां तक कि कई पर्यावरणविदों के विपरीत वे हमेशा परमाणु ऊर्जा के समर्थक रहे। गेइया परिकल्पना को वैज्ञानिक समुदाय में मान्यता मिलने में काफी समय लगा। 1988 में सैन डिएगो में आयोजित अमेरिकन जियोफिज़िकल यूनियन की एक बैठक में गेइया के साक्ष्यों पर प्रमुख जीव विज्ञानियों, भौतिकविदों और जलवायु विज्ञानियों को विचार-विमर्श के लिए आमंत्रित किया गया। अंतत: वर्ष 2001 में 1000 से अधिक वैज्ञानिकों ने यह माना कि हमारा ग्रह भौतिक, रासायनिक, जैविक और मानव घटकों से युक्त एकीकृत स्व-नियमन तंत्र के रूप में व्यवहार करता है। हालांकि, इसकी बारीकियों पर चर्चा अभी भी बाकी थी लेकिन इस सिद्धांत को मोटे तौर पर स्वीकार कर लिया गया था।       

गेइया सिद्धांत से हटकर लवलॉक ने अपने शुरुआती कार्यकाल में कई नई-नई तकनीकों का भी आविष्कार किया। उन्होंने कोशिका ऊतकों और यहां तक कि हैमस्टर जैसे पूरे जीव को फ्रीज़ करने और उसे पुन: जीवित करने की तकनीक भी विकसित की। 1954 में उन्होंने सिर्फ मज़े के लिए मैग्नेट्रान से निकले माइक्रोवेव विकिरण से आलू पकाया। 

उन्होंने लियो मैककर्न और जोन ग्रीनवुड जैसे अभिनेताओं के साथ भी हाथ आज़माया।

लवलॉक ने ऐसे असाधारण संवेदी उपकरण बनाए जो गैसों में मानव निर्मित रसायनों की छोटी से छोटी मात्रा का पता लगा सकते थे। जब इन उपकरणों का उपयोग वायुमंडल के रासायनिक संघटन के अध्ययन में किया गया तो क्लोरोफ्लोरोकार्बन की उपस्थिति उजागर हुई जो ओज़ोन के ह्रास के लिए ज़िम्मेदार है। इसी तरह उन्होंने सभी प्राणियों के ऊतकों से लेकर युरोप एवं अमेरिका में स्त्रियों के दूध में कीटनाशकों की उपस्थिति का खुलासा किया। लंदन स्थित विज्ञान संग्रहालय के निदेशक रहते हुए उन्होंने एक ऐसी तकनीक का प्रस्ताव दिया जिसके द्वारा महासागरों में शैवाल के विकास के लिए योजना तैयार की जा सकती है, वायुमंडल से अतिरिक्त कार्बन डाईऑक्साइड को हटाया जा सकता है और साथ ही सूर्य के प्रकाश को परावर्तित करने वाले बादलों के निर्माण को बढ़ावा दिया जा सकता है ताकि वैश्विक तापमान को कम किया जा सके।       

उन्होंने 40 पेटेंट दायर किए, 200 से अधिक शोध पत्र लिखे और गेइया सिद्धांत पर कई किताबें लिखीं। उन्हें कई वैज्ञानिक पदकों से सम्मानित किया गया और ब्रिटिश एवं अन्य विश्वविद्यालयों से कई अंतरराष्ट्रीय स्तर के पुरस्कार और मानद डॉक्टरेट से नवाज़ा गया। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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दीपक धर: बोल्ट्ज़मैन पदक से सम्मानित प्रथम भारतीय – नवनीत कुमार गुप्ता

हाल ही में, प्रसिद्ध भौतिकीविद् एवं भारतीय विज्ञान शिक्षा एवं अनुसंधान संस्थान (आईआईएसईआर),  पुणे के विज़िटिंग प्रोफेसर दीपक धर को वर्ष 2022 के प्रतिष्ठित बोल्ट्ज़मैन पदक के लिए चुना गया है। प्रोफेसर दीपक धर के अलावा  प्रिंसटन युनिवर्सिटी के प्रोफेसर जॉन होपफील्ड को भी सम्मानित किया गया है।

इंटरनेशनल यूनियन ऑफ प्योर एंड एप्लाइड फिज़िक्स (आईयूपीएपी) के सांख्यिकीय भौतिकी पर सी3 (C3) आयोग द्वारा स्थापित बोल्ट्ज़मैन पदक सांख्यिकीय भौतिकी में उत्कृष्ट उपलब्धियों के लिए 3 साल में एक बार दिया जाता है।

प्रोफेसर धर का जन्म 30 अक्टूबर 1951 को उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ में हुआ था। इलाहाबाद विश्वविद्यालय और आईआईटी कानपुर के पूर्व छात्र प्रोफेसर धर ने सांख्यिकीय भौतिकी और स्टोकेस्टिक प्रक्रियाओं पर अनुसंधान में एक लंबा सफर तय किया है। उनके शोध कार्य का आरंभ 1978 में कैलिफोर्निया इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी में पीएचडी के साथ हुआ था। पीएचडी की उपाधि प्राप्त करने के बाद प्रोफेसर धर ने भारत लौटकर टाटा मूलभूत अनुसंधान संस्थान (टीआईएफआर) में एक रिसर्च फेलो के रूप में अपना करियर शुरू किया। दो साल के शोध के बाद 1980 में वे पूर्णकालिक फेलो बन गए और 1986 में उन्हें रीडर के रूप में पदोन्नत किया गया था। प्रोफेसर धर ने संस्थान में विभिन्न पदों पर सेवाएं दीं।

उन्होंने 1984-85 के दौरान पेरिस विश्वविद्यालय में विज़िटिंग वैज्ञानिक के रूप में एक साल तक कार्य किया। मई 2006 में आइज़ैक न्यूटन इंस्टीट्यूट में रोथ्सचाइल्ड प्रोफेसर के रूप में भी एक महीने उन्होंने कार्य किया। वर्ष 2016 से वे आईआईएसईआर, पुणे में कार्यरत हैं।

प्रोफेसर धर भारत की तीनों प्रमुख भारतीय विज्ञान अकादमियों – इंडियन एकेडमी ऑफ साइंसेज़, इंडियन नेशनल साइंस एकेडमी और नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ – के अलावा दी वर्ल्ड एकेडमी ऑफ साइंस के निर्वाचित फेलो हैं। 1991 में वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद (सीएसआईआर) द्वारा प्रोफेसर धर को भौतिक विज्ञान में उनके योगदान के लिए विज्ञान और प्रौद्योगिकी के लिए शांति स्वरूप भटनागर पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कैंसर वैज्ञानिक डॉ. कमल रणदिवे – नवनीत कुमार गुप्ता

बायोमेडिकल शोधकर्ता के रूप में मशहूर डॉ. कमल जयसिंह रणदिवे को कैंसर पर शोध के लिए जाना जाता है। उन्होंने कैंसर और वायरसों के सम्बंधों का अध्ययन किया था। 8 नवंबर 1917 को पुणे में जन्मीं कमल रणदिवे आज भी भारतीयों के लिए प्रेरणा स्रोत हैं।

उनके पिता दिनेश दत्तात्रेय समर्थ पुणे के फर्ग्यूसन कॉलेज में जीव विज्ञान के प्रोफेसर थे और चाहते थे कि घर के सभी बच्चों, खासकर बेटियों को अच्छी से अच्छी शिक्षा मिले। कमल ने हर परीक्षा अच्छे अंकों से पास की। कमल के पिता चाहते थे कि वे चिकित्सा के क्षेत्र में शिक्षा प्राप्त करे और उनकी शादी किसी डॉक्टर से हो। लेकिन कमल की जीव विज्ञान के प्रति अधिक रुचि थी। माता शांताबाई भी हमेशा उनको प्रोत्साहित करती थीं।

कमल ने फर्ग्यूसन कॉलेज से जीव विज्ञान में बीएससी डिस्टिंक्शन के साथ पूरी की। पुणे के कृषि कॉलेज से स्नातकोत्तर शिक्षा पूरी करने के बाद उन्होंने 1939 में गणितज्ञ जे. टी. रणदिवे से विवाह किया। जे. टी. रणदिवे ने उनकी पोस्ट ग्रोजुएशन की पढ़ाई में बहुत मदद की थी। उच्च अध्ययन के लिए वे विदेश भी गईं। उन्हें बाल्टीमोर, मैरीलैंड, यूएसए में जॉन्स हॉपकिन्स विश्वविद्यालय में फेलोशिप मिली थी।

फेलोशिप के बाद, वे मुंबई और भारतीय कैंसर अनुसंधान केंद्र (आईसीआरसी) लौट आईं, जहां उन्होंने देश की पहली टिशू कल्चर लैब की स्थापना की। 1949 में, आईसीआरसी में एक शोधकर्ता के रूप में काम करते हुए, उन्होंने कोशिका विज्ञान में डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की। बाद में आईसीआरसी की निदेशक और कैंसर के लिए एनिमल मॉडलिंग की अग्रणी के तौर पर डॉ. रणदिवे ने कई शोध किए। उन्होंने कार्सिनोजेनेसिस, सेल बायोलॉजी और इम्यूनोलॉजी में नई शोध इकाइयों की स्थापना में अहम भूमिका निभाई।

डॉ. रणदिवे की शोध उपलब्धियों में जानवरों के माध्यम से कैंसर की पैथोफिज़ियोलॉजी पर शोध शामिल है, जिससे ल्यूकेमिया, स्तन कैंसर और ग्रसनी कैंसर जैसी बीमारियों के कारणों को जानने का प्रयास किया। उनकी सर्वाधिक उल्लेखनीय उपलब्धि कैंसर, हार्मोन और ट्यूमर वायरस के बीच सम्बंध स्थापित करना था। स्तन कैंसर और जेनेटिक्स के बीच सम्बंध का प्रस्ताव रखने वाली वे पहली वैज्ञानिक थीं। कुष्ठ जैसी असाध्य मानी जाने वाली बीमारी का टीका भी डॉ. रणदिवे के शोध की बदौलत ही संभव हुआ।

उनका मानना था कि जो वैज्ञानिक पोस्ट-डॉक्टरल कार्य के लिए विदेश जाते हैं, उन्हें भारत लौटकर अपने क्षेत्र से सम्बंधित प्रयोगशालाओं में अनुसंधान के नए आयामों का विकास करना चाहिए। उनके प्रयासों से उनके कई साथी भारत लौटे, जिससे आईसीआरसी कैंसर अनुसंधान का एक प्रसिद्ध केंद्र बन गया।

डॉ. रणदिवे भारतीय महिला वैज्ञानिक संघ (IWSA) की प्रमुख संस्थापक सदस्य भी थीं। भारतीय महिला वैज्ञानिक संघ विज्ञान में महिलाओं के लिए छात्रवृत्ति और चाइल्डकेयर सम्बंधी सुविधाओं के लिए प्रयासरत संस्थान है। वर्ष 2011 में गूगल ने उनके 104वें जन्मदिन के अवसर पर उन पर डूडल बनाया था। 1982 में उन्हें पद्मभूषण से सम्मानित किया गया। अपने उल्लेखनीय कैंसर अनुसंधान के अलावा, रणदिवे को विज्ञान और शिक्षा के माध्यम से अधिक समतामूलक समाज बनाने के लिए समर्पण के लिए जाना जाता है। 11 अप्रैल 2001 को उन्होंने अंतिम सांस ली। उनके पति जे. टी. रणदिवे ने मृत्यु तक उनके कार्यों में उनका सहयोग किया। उन दोनों का जीवन शोध कार्यों में एक-दूसरे को प्रोत्साहित करने वाला रहा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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राजेश्वरी चटर्जी: एक प्रेरक व्यक्तित्व – नवनीत कुमार गुप्ता

स्वतंत्रता पूर्व उच्च शिक्षा के लिए महिलाओं का आगे आना एक चुनौती से कम नहीं था। ऐसे विषम समय में भी अनेक भारतीय महिलाओं ने विज्ञान के क्षेत्र में अहम योगदान दिया। ऐसी ही महिलाओं में राजेश्वरी चटर्जी का नाम उल्लेखनीय है जिनका जन्म 24 जनवरी 1922 को कर्नाटक में हुआ था। राजेश्वरी चटर्जी कर्नाटक से पहली महिला इंजीनियर थी।

उन्होंने अपनी प्राथमिक शिक्षा विशेष अंग्रेज़ी स्कूल में ली। विद्यालय स्तर की शिक्षा के बाद उनका मन इतिहास का अध्ययन करने का था लेकिन आखिरकार उन्होंने भौतिकी और गणित को चुना। उन्होंने सेंट्रल कॉलेज ऑफ बैंगलोर से गणित में बीएससी (ऑनर्स) और एमएससी की डिग्री प्राप्त की। वे मैसूर युनिवर्सिटी में प्रथम स्थान पर रहीं। बीएससी और एमएससी परीक्षाओं में उम्दा प्रदर्शन के लिए उन्हें क्रमशः मम्मदी कृष्णराज वोडेयार पुरस्कार और एम. टी. नारायण अयंगर पुरस्कार और वाल्टर्स मेमोरियल पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

एमएससी की डिग्री प्राप्त करने के बाद राजेश्वरी चटर्जी ने 1943 में भारतीय विज्ञान संस्थान में शोध कार्य आरंभ किया। वे भारतीय विज्ञान संस्थान में सर सी. वी. रमन के साथ कार्य करना चाहती थी लेकिन ऐसा नहीं हुआ।

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद, ब्रिटिशों से भारतीयों को सत्ता हस्तांतरित करने के लिए भारत में एक अंतरिम सरकार स्थापित की गई, जिसने प्रतिभाशाली भारतीयों को छात्रवृत्ति की पेशकश की ताकि ऐसे वैज्ञानिक उच्च अध्ययन के लिए विदेश जा सकें। राजेश्वरी चटर्जी को 1946 में इलेक्ट्रॉनिक्स और इसके अनुप्रयोगों के क्षेत्र में चुना गया और मिशिगन विश्वविद्यालय में उच्च शिक्षा के लिए छात्रवृत्ति प्रदान की गई।

1950 के दशक में भारतीय महिलाओं के लिए उच्च शिक्षा हासिल करने के लिए विदेश जाना बहुत मुश्किल था। 1947 में वे मिशिगन विश्वविद्यालय में दाखिल हुईं और इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग विभाग से मास्टर डिग्री प्राप्त की। फिर भारत सरकार के साथ अनुबंध का पालन करते हुए, उन्होंने वाशिंगटन डीसी में राष्ट्रीय मानक ब्यूरो में रेडियो फ्रीक्वेंसी मापन विभाग में आठ महीने का प्रायोगिक प्रशिक्षण लिया। 1953 की शुरुआत में उन्होंने प्रोफेसर विलियम गोल्ड डॉव के मार्गदर्शन में पीएचडी की डिग्री हासिल की।

1953 में भारत लौटकर उन्होंने भारतीय विज्ञान संस्थान, बैंगलुरु में प्रोफेसर के रूप में कार्य किया। बाद में यहीं पर वे इलेक्ट्रिकल कम्युनिकेशन इंजीनियरिंग विभाग की अध्यक्ष बनीं। इस क्षेत्र में विशेषज्ञता के चलते उन्हें विद्युत चुंबकीय सिद्धांत, इलेक्ट्रॉन ट्यूब सर्किट और माइक्रोवेव प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में कार्य करने का मौका मिला था। उनका प्रमुख योगदान विशेष उद्देश्यों के लिए एंटेना के क्षेत्र में मुख्य रूप से विमान और अंतरिक्ष यान में रहा है। अपने जीवनकाल में, उन्होंने 20 पीएचडी छात्रों का मार्गदर्शन किया। राजेश्वरी चटर्जी ने 100 से अधिक शोध पत्र लिखे और उनकी सात पुस्तकें प्रकाशित हुईं। 1982 में भारतीय विज्ञान संस्थान से सेवानिवृत्ति के बाद, उन्होंने इंडियन एसोसिएशन फॉर वुमेन स्टडीज़ सहित कई सामाजिक कार्यक्रमों में काम किया।

यदि उनके व्यक्तिगत जीवन की बात करें तो उनके पिता नानजंगुद में एक वकील थे। उनकी दादी कमलम्मा दासप्पा, तत्कालीन मैसूर राज्य में पहली महिला स्नातकों में से एक थीं। उनकी दादी शिक्षा के क्षेत्र में, विशेष रूप से विधवाओं और परित्यक्त पत्नियों के लिए, बहुत सक्रिय थीं। राजेश्वरी चटर्जी ने 1953 में भारतीय विज्ञान संस्थान के डॉ. शिशिर कुमार चटर्जी से शादी की। उन्होंने अपने पति के साथ माइक्रोवेव अनुसंधान प्रयोगशाला का निर्माण किया और माइक्रोवेव इंजीनियरिंग के क्षेत्र में शोध शुरू किया, जो भारत में इस तरह का पहला शोध था।

1994 में पति के निधन के बाद भी राजेश्वरी चटर्जी ने सक्रिय जीवन जीना जारी रखा। उनकी बेटी इंद्रा चटर्जी युनिवर्सिटी ऑफ नेवादा में इलेक्ट्रिकल और बायोमेडिकल इंजीनियरिंग में प्रोफेसर और सहायक संकाय अध्यक्ष हैं।

राजेश्वरी चटर्जी को अनेक पुरस्कारों से सम्मानित किया गया जिनमें इंस्टीट्यूट ऑफ इलेक्ट्रिकल एंड रेडियो इंजीनियरिंग, यूके से सर्वश्रेष्ठ शोध पत्र के लिए माउंटबैटन पुरस्कार, इंस्टीट्यूशन ऑफ इंजीनियर्स से सर्वश्रेष्ठ शोध के लिए जेसी बोस मेमोरियल पुरस्कार और इलेक्ट्रॉनिक एंड टेलीकम्यूनिकेशन्स संस्थान द्वारा सर्वश्रेष्ठ शोध और शिक्षण कार्य के लिए रामलाल वाधवा पुरस्कार शामिल हैं।

राजेश्वरी चटर्जी जैसे वैज्ञानिक एवं शिक्षक लाखों लोगों के लिए प्रेरणा स्रोत हैं जो विषम परिस्थितियों में भी विज्ञान के द्वारा समाज की सेवा के लिए लगे रहते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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बालासुब्रमण्यम राममूर्ति: भारत में न्यूरोसर्जरी के जनक – नवनीत कुमार गुप्ता

हान वैज्ञानिकों के योगदान ने सदियों से भारत को पूरे विश्व में गौरवान्वित किया है। ऐसे महान लोग सदियों तक जनमानस को प्रेरित करते हैं। प्रोफेसर बालासुब्रमण्यम राममूर्ति ऐसे ही बिरले वैज्ञानिकों में से थे।

प्रो. बालासुब्रमण्यम राममूर्ति को भारत में न्यूरोसर्जरी का जनक भी कहा जाता है। न्यूरोसर्जन के अलावा वे प्रसिद्ध लेखक और संपादक भी थे। उनका शोधकार्य तंत्रिका तंत्र की चोटों, ब्रेन ट्यूमर की सर्जरी, मस्तिष्क के तपेदिक संक्रमण, तंत्रिका-कार्यिकी, स्टीरियोटैक्टिक (त्रिविम स्थान निर्धारण) सर्जरी, चेतना और बायोफीडबैक विषयों पर केंद्रित था। उन्होंने स्टीरियोटैक्टिक सर्जरी के दौरान मस्तिष्क की गहरी संरचनाओं की तंत्रिका-कार्यिकी का अध्ययन किया। इससे मिर्गी सहित मस्तिष्क सम्बंधी विभिन्न बीमारियों को अच्छे से समझा जा सका।

प्रो. बालासुब्रमण्यम राममूर्ति संगीत और मस्तिष्क पर इसके प्रभाव में गहरी रुचि रखते थे। उन्होंने न्यूरोसर्जरी इंडिया की स्थापना की। उनकी आत्मकथा अपहिल ऑल द वे प्रेरणा का एक सतत स्रोत है।

प्रो. बालासुब्रमण्यम राममूर्ति का जन्म 30 जनवरी 1922 सिरकाज़ी में हुआ था। उनके पिता कैप्टन टी. एस. बालासुब्रमण्यम सरकारी अस्पताल में सहायक सर्जन थे। उनके दादा के भाई जी. सुब्रमण्यम अय्यर थे, जो अंग्रेजी दैनिक दी हिंदू के संस्थापकों में से एक थे। बालासुब्रमण्यम राममूर्ति ने त्रिची के ईआर हाई स्कूल में अध्ययन के उपरांत मद्रास मेडिकल कॉलेज से जनरल सर्जरी में एमएस और 1947 में एडिनबरा से एफआरसीएस की उपाधि प्राप्त की।

युवा राममूर्ति को मद्रास सरकार द्वारा न्यूरोसर्जरी में प्रशिक्षण के लिए चुना गया था और वे 2 जनवरी 1949 को न्यूकैसल पहुंचे। न्यूकैसल में उन्होंने जी. एफ. रोबोथम के अधीन प्रशिक्षण प्राप्त किया, और फिर मैनचेस्टर में प्रोफेसर जेफ्री जेफरसन के साथ समय बिताया। उन्होंने युरोप में विभिन्न केंद्रों का दौरा किया। 1950 में डॉ. राममूर्ति मॉन्ट्रियल न्यूरोलॉजिकल इंस्टीट्यूट में चले गए और प्रो. वाइल्डर पेनफील्ड के साथ चार महीने बिताए। प्रशिक्षण पूरा करने के बाद वे अपने साथ न्यूरोसर्जरी की ब्रिटिश, अमेरिकी, कनाडाई और युरोपीय घरानों की परंपराओं को लेकर मद्रास लौट आए।

24 अक्टूबर 1950 को बालासुब्रमण्यम राममूर्ति मद्रास जनरल अस्पताल और मद्रास मेडिकल कॉलेज में न्यूरोसर्जरी में सहायक सर्जन के रूप में शामिल हुए और मद्रास में न्यूरोसर्जरी का आयोजन शुरू किया। 1970 के दशक की शुरुआत में, प्रो. बालासुब्रमण्यम राममूर्ति ने कनाडा में मॉन्ट्रियल न्यूरोलॉजिकल इंस्टीट्यूट की तर्ज पर इंस्टीट्यूट ऑफ न्यूरोलॉजी, मद्रास की स्थापना की, जिसमें न्यूरोसाइंस की सभी शाखाएं एक छत के नीचे थीं। बड़ी बाधाओं और कठिनाइयों के खिलाफ, प्रो. बालासुब्रमण्यम राममूर्ति ने न्यूरोसर्जिकल विभाग का निर्माण और विकास किया, जो बाद में सरकारी जनरल अस्पताल में न्यूरोलॉजी संस्थान के रूप में विकसित हुआ, जहां वे 1978 में अपनी सेवानिवृत्ति तक प्रोफेसर और प्रमुख थे। प्रो. राममूर्ति और उनकी टीम स्टीरियोटैक्टिक सर्जरी करने वाली भारत की सबसे पहली टीम बनी।

उन्होंने 1977-1978 में अडयार में स्वैच्छिक स्वास्थ्य सेवा (वीएचएस) अस्पताल में डॉ. ए. लक्ष्मीपति न्यूरोसर्जिकल सेंटर की शुरुआत की। प्रो. बालासुब्रमण्यम राममूर्ति ने अस्पताल के डीन और मद्रास मेडिकल कॉलेज के प्रिंसिपल और मद्रास विश्वविद्यालय के मानद कुलपति के रूप में अपने लंबे और व्यापक वर्षों के दौरान एक शिक्षक, संरक्षक और मार्गदर्शक के रूप में कार्य किया। उन्हें 1987 में वर्ल्ड फेडरेशन ऑफ न्यूरोसर्जिकल सोसाइटीज़ के अध्यक्ष के रूप में नियुक्त किया गया था। वे भारत के राष्ट्रीय चिकित्सा परीक्षा बोर्ड के अध्यक्ष भी रहे।

उन्होंने डॉ. राजा सहित कई प्रतिष्ठित न्यूरोसर्जनों को प्रशिक्षित किया, जिन्हें अब कस्तूरबा मेडिकल कॉलेज, मणिपाल में न्यूरोसर्जरी विभाग के संस्थापक के रूप में जाना जाता है। प्रो. राममूर्ति स्वयं कस्तूरबा मेडिकल कॉलेज, मणिपाल में न्यूरोसर्जरी विभाग से जुड़े रहे हैं और उन्होंने अपने छात्र डॉ. राजा को वहां न्यूरोसर्जरी विभाग में शामिल होने के लिए राजी किया, और उन्नत चिकित्सा उपकरणों के उपयोग का उद्घाटन भी किया।

सीखने और लगातार अग्रिम शोध से संपर्क में रहने की उनकी उत्सुकता इस बात में झलकती है कि 1980 के दशक में, माइक्रोसर्जिकल तकनीकों के लाभों को देखते हुए, उन्होंने पहले खुद सीखा, अभ्यास किया और फिर न्यूरोसर्जरी में माइक्रोसर्जरी की पुरज़ोर वकालत की। वे सीटी और एमआरआई स्कैन पढ़ने में उतने ही माहिर थे, जितने एक्स-रे, ईईजी, न्यूमोएन्सेफेलोग्राम, वेंट्रिकुलोग्राम और एंजियोग्राम पढ़ने में थे।

देश में मस्तिष्क अनुसंधान के समन्वय के लिए एक शीर्ष निकाय के रूप में राष्ट्रीय मस्तिष्क अनुसंधान केंद्र, मानेसर की स्थापना में उनकी अहम भूमिका रही। इस दिशा में उनके दो दशकों से अधिक समय के प्रयासों का फल तब मिला जब भारत के राष्ट्रपति ने औपचारिक रूप से 16 दिसंबर 2003 को नई दिल्ली के पास मानेसर में राष्ट्रीय मस्तिष्क अनुसंधान केंद्र का उद्घाटन किया।

वे नेशनल एकेडमी ऑफ मेडिकल साइंसेज़, एकेडमी ऑफ साइंसेज़, इंडियन नेशनल साइंस एकेडमी सहित रॉयल सोसाइटी ऑफ मेडिसिन, लंदन के फेलो थे। वे उन बिरले लोगों में से थे जिन्हें भारत की तीनों विज्ञान अकादमियों का फेलो चुना गया था। भारत के सशस्त्र बलों ने उन्हें सेना में ब्रिगेडियर के मानद पद से सम्मानित किया।

उन्हें श्री राजा-लक्ष्मी फाउंडेशन चेन्नई द्वारा 1987 में राजा-लक्ष्मी पुरस्कार के अलावा भारत सरकार द्वारा पद्म भूषण और प्रतिष्ठित धनवंतरी पुरस्कार सहित कई पुरस्कारों से सम्मानित किया गया। चेन्नई में राममूर्ति तंत्रिका विज्ञान संग्रहालय का नाम उन्हीं के नाम पर रखा गया है। उन्होंने न्यूरोसर्जन्स की युवा पीढ़ी को अपने पेशेवर और व्यक्तिगत जीवन में उत्कृष्टता हासिल करने के लिए मार्गदर्शन दिया।(स्रोत फीचर्स)

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हरगोविन्द खुराना जन्म शताब्दी – नवनीत कुमार गुप्ता

कोरोना काल में अनेक वैज्ञानिक शब्द समाज में प्रचलित हो गए। उनमें से एक शब्द है जीनोम अनुक्रम। जीनोम अनुक्रम के द्वारा कोरोना वायरस के प्रकारों की पहचान करने में आसानी हुई। यह हम जानते हैं कि विज्ञान में अधिकतर सिद्धांतों और विधियों का विकास अनेक वैज्ञानिकों के योगदान से संभव हो पाता है। आधुनिक विज्ञान जगत में जिन भारतीय वैज्ञानिकों का योगदान अहम रहा है उनमें से प्रोफेसर हरगोविन्द खुराना प्रमुख हैं जिन्हें नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।

प्रोफेसर खुराना ने कोशिकाओं के अन्दर आनुवंशिक सूचनाओं के प्रोटीन में अनुदित होने की प्रक्रिया को विस्तार से समझाया था। इसी प्रक्रिया के ज़रिए कोशिकाओं में विभिन्न प्रक्रियाएं सम्पन्न होती हैं। खुराना को शरीर क्रिया विज्ञान के क्षेत्र में नोबेल पुरस्कार उनके इसी कार्य के लिए प्रदान किया गया था।

हरगोविन्द खुराना चार भाइयों और एक बहन में सबसे छोटे थे। उस समय उनके गांव में सिर्फ उनका परिवार ही साक्षर था। वर्तमान पश्चिमी पंजाब के मुल्तान (पाकिस्तान) में डी.ए.वी. कॉलेज से हाईस्कूल की पढ़ाई करने के बाद, हरगोविन्द खुराना ने पंजाब विश्वविद्यालय, लाहौर से बी.एससी. और एम.एससी. की डिग्री प्राप्त की। वे जीवन भर अपने प्रारम्भिक शिक्षकों में से रतन लाल और महान सिंह को याद करते रहे। अपने शिक्षकों के प्रति उनका सम्मान ताउम्र रहा। 1945 में उन्हें इंग्लैंड में पढ़ाई करने के लिए छात्रवृत्ति मिली। इस प्रकार अपने शोध कार्य के लिए इंग्लैंड के लिवरपूल विश्वविद्यालय चले गए। वहां उन्होंने प्रसिद्ध वैज्ञानिक रॉजर एस. बीअर के निर्देशन में शोध कार्य किया। पोस्ट-डॉक्टरल अनुसंधान के लिए वे स्विट्ज़रलैंड गए। वहां 1948-1949 में उन्होंने प्रोफेसर व्लादिमीर प्रेलॉग के साथ काम किया। एक शोध छात्र के रूप में उन्होंने विज्ञान को काफी बारीकी से समझा, उन्हें विज्ञान के प्रति नया नज़रिया मिला। इसके चलते उन्होंने आजीवन बिना थके लगातार विज्ञान की सेवा की।

सन 1949 में कुछ समय के लिए वे भारत आए और 1950 में वे फिर इंग्लैंड चले गए, जहां उन्होंने कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में प्रो. ए. आर. टॉड के साथ काम किया। यहीं पर उनकी रुचि न्यूक्लिक अम्लों और प्रोटीन्स में उत्पन्न हुई। 1952 में उन्हें काउंसिल ऑफ ब्रिटिश कोलम्बिया, कनाडा से नौकरी का प्रस्ताव आया और वे कनाडा चले आए। 1952 में ही उन्होंने अपने स्विटज़रलैंड के समय की दोस्त एस्थर सिब्लर से विवाह किया। 1960 में उनके जीवन में महत्वपूर्ण मोड़ आया। इस वर्ष वे शोध कार्य के लिये विस्कॉन्सिन विश्वविद्यालय, अमेरिका आ गए। नोबेल अनुसंधान उन्होंने अमेरिका स्थित इंस्टीट्यूट ऑफ एंज़ाइम्स रिसर्च में किया था। वे निरंतर शोध कार्य में आगे बढ़ते गए। 1966 में उन्होंने अमेरिकी नागरिकता स्वीकार कर ली। वर्ष 1970 में उन्हें मेसाच्युसेट्स इंस्टिट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी में सम्मानित अल्फ्रेड स्लोअन प्रोफेसर ऑफ केमिस्ट्री एंड बायोलॉजी का पद मिला। इस संस्थान में शोध कार्य करते हुये प्रोफेसर खुराना ने आनुवंशिकी से सम्बंधित कई महत्वपूर्ण क्षेत्रों में कार्य किया। सन 2007 में वे सेवानिवृत्त हो गए। अंतिम वर्षों में वे एम.आई.टी. में एमेरिटस प्रोफेसर थे और अंतिम समय तक विद्यार्थियों से लगातार मिलते रहे।

10 नवंबर 2011 को 89 वर्ष की आयु में उनका निधन हुआ। उस दिन मेसाच्युसेट्स इंस्टिट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी ने अपनी वेबसाइट पर घोषणा की कि रसायन शास्त्र और शरीर क्रिया विज्ञान के शिखरों में से एक प्रोफेसर हरगोविन्द खुराना हमें हमेशा के लिए छोड़कर चले गए। प्रोफेसर हरगोविन्द खुराना का सफर शून्य से शिखर तक का सफर कहा जा सकता है। उनके काम से कोशिका और उसके अंगों और उपांगों की क्रियाविधि के बारे में समझ विकसित हुई। 1953 में वॉटसन और क्रिक ने डीएनए की दोहरी कुंडली संरचना की खोज की थी जिसके लिए उन्हें नोबेल पुरस्कार मिला था। अलबत्ता, वॉटसन और क्रिक डीएनए से प्रोटीन निर्माण प्रक्रिया और अन्य आनुवंशिक और शारीरिक क्रियाविधियों में इसकी हिस्सेदारी के बारे में नहीं जानते थे। नीरेनबर्ग और प्रोफेसर हरगोविन्द खुराना ने पहली बार स्पष्ट किया कि कैसे न्यूक्लियोटाइड्स से बनी संरचना अमीनो अम्लों को पहचानती है जो कि प्रोटीन का एक अहम हिस्सा हैं। प्रोफेसर खुराना ने आरएनए में आनुवंशिक कोड की संरचना के बारे में विस्तार से बताया।

नोबेल पुरस्कार मिलने के चार साल बाद प्रोफेसर खुराना को रासायनिक विधियों द्वारा पूर्णतः कृत्रिम जीन का निर्माण करने में सफलता प्राप्त हुई। इसके बाद उन्होंने कई जीन्स का कृत्रिम तरीकों से निर्माण किया जिनमें से दृष्टिदोष से सम्बंधित जीन रोडोस्पिन का संश्लेषण प्रमुख था। इन खोजों ने मूलभूत विज्ञान और औद्योगिक क्षेत्र में क्रान्ति ला दी। उनके कार्यों का उपयोग मूलभूत विज्ञान से लेकर औद्योगिक क्षेत्र में लगातार हो रहा है। प्रोफेसर खुराना एक सफल शिक्षक भी थे, वे हमेशा छात्रों से घिरे रहते थे। उनके एक शोध छात्र माइकल स्मिथ को 1993 में डीएनए में फेरबदल करने की तकनीक खोजने के लिए नोबेल मिला।

ऐसे महान वैज्ञानिकों और उनके कार्यों के बारे में जनमानस में जागरूकता का प्रसार करना आवश्यक है ताकि भावी पीढ़ियां इनसे प्रेरणा प्राप्त कर सके। इसी दिशा में विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग के अंतर्गत विज्ञान प्रसार द्वारा प्रोफेसर खुराना सहित पांच अन्य प्रेरक वैज्ञानिकों की जन्म शताब्दी के उपलक्ष्य में पूरे वर्ष कई कार्यक्रम आयोजित किए जा रहे हैं। इन वैज्ञानिकों में, प्रोफेसर खुराना के अलावा डॉ. जी. एन. रामचंद्रन, डॉ. येलावर्ती नायुदम्मा, प्रोफेसर बालसुब्रमण्यम राममूर्ति, डॉ. जी.एस. लड्ढा और डॉ. राजेश्वरी चटर्जी शामिल हैं। (स्रोत फीचर्स)

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तीसरी पास कृषि वैज्ञानिक दादाजी खोब्रागड़े – गायत्री क्षीरसागर

तीसरी पास और कृषि वैज्ञानिक? बात कुछ अजीब लगती है। किंतु शोध कार्य करने के लिए केवल तीन बातें ज़रूरी होती हैं – इच्छा शक्ति, जिज्ञासा और कुछ नया सीखने की मानसिकता। इन्हीं तीन खूबियों के चलते नांदेड़, महाराष्ट्र के तीसरी पास दादाजी रामाजी खोब्रागड़े ने धान की नौ किस्में विकसित कीं।

दादाजी को स्कूल में भर्ती होने और सीखने की तीव्र इच्छा थी, किंतु परिवार की गरीबी के कारण वे तीसरी कक्षा तक ही पढ़ पाए। बचपन से ही उन्होंने अपने पिता के साथ खेती करके कृषि का व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त किया। सन 1983 में धान के खेत में काम करते समय उनका ध्यान कुछ ऐसी बालियों की ओर गया जो सामान्य बालियों से अलग थीं। दादाजी ने इस धान को सहेज कर उगाया तब उनके ज़ेहन में आया कि धान की इस किस्म की भरपूर फसल मिल सकती है। उन्होंने चार एकड़ में इस धान को लगाया और उन्हें 90 बोरी धान प्राप्त हुआ। सन 1989 में जब वे इस धान को बेचने के लिए कृषि उपज मंडी में ले गए तब इस किस्म का कोई नाम न होने के कारण उन्हें कुछ दिक्कतें आर्इं। उस समय एचएमटी की घड़ियां बहुत लोकप्रिय होने के कारण इस बढ़िया और खुशबूदार चावल की किस्म का नाम एचएमटी रखा गया। उदारमना दादाजी ने इस धान का बीज अपने गांव के अन्य किसानों को दे दिया जिससे उन किसानों को बहुत आर्थिक लाभ हुआ। इस तरह दादाजी का गांव एचएमटी धान के लिए मशहूर हो गया।

दादाजी केवल इतने पर ही नहीं रुके। उन्होंने अपने काम को बढ़ावा देते हुए अपनी चार एकड़ ज़मीन को प्रयोगशाला बनाया। किसी आधुनिक तकनीक की सहायता के बिना अगले 10 वर्षों में उन्होंने धान की नौ नई किस्में विकसित कीं जिन्हें उन्होंने अपने नाती-पोतों और गांव के नाम दिए – एचएमटी, विजय, नांदेड़, नांदेड़-92, नांदेड हीरा, डीआरके, नांदेड़ दीपक, काटे एचएमटी और डीआरके-2।

आज कई प्रदेशों के किसान धान की इन नई किस्मों का उत्पादन करके अच्छी कमाई कर रहे हैं। ये नई किस्में लोगों को भी पसंद आ रही हैं। किंतु तीसरी तक पढ़े दादाजी को यह ज्ञान नहीं था कि अपने द्वारा विकसित नई किस्मों का पेटेंट कैसे करवाएं। इसका कई लोगों ने फायदा उठाया और नतीजा यह हुआ कि दादाजी को उनके शोधकार्य के लिए उचित मेहनाताना कभी भी नहीं मिला। किंतु कई प्रकार की आर्थिक समस्याओं से जूझते हुए दादाजी ने अपना शोध कार्य जारी रखा। कुछ दिनों बाद बेटे की बीमारी के कारण दादाजी को अपनी प्रयोगशाला यानी ज़मीन गिरवी रखनी पड़ी और हालत अधिक खराब होने पर उसे बेचना ही पड़ा।

अब ऐसा लगने लगा था कि दादाजी का शोध कार्य हमेशा के लिए रुक जाएगा, किंतु उनके एक रिश्तेदार ने उन्हें डेढ़ एकड़ ज़मीन दे दी। पहले की प्रयोगशाला की तुलना में यह ज़मीन छोटी होते हुए भी दादाजी अपनी ज़बरदस्त इच्छाशक्ति और ध्येय तक पहुंचने की ज़िद के आधार पर नए-नए प्रयोग करते रहे। उनके ज्ञान और शोध कार्य को समाज ने लगातार नज़रअंदाज़ किया किंतु विकट आर्थिक स्थिति में भी दादाजी ने किसी भी प्रकार के मान-सम्मान की उम्मीद नहीं रखी।

छोटे गांव में रह कर लगातार शोध कार्य करने के लिए उन्हें सन 2005 में नेशनल इनोवेशन फाउंडेशन का पुरस्कार दिया गया। इसी प्रकार, तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. अब्दुल कलाम के हाथों उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार दिया गया। इसके बाद दादाजी का नाम पूरे देश में जाना जाने लगा। सन 2006 में महाराष्ट्र सरकार ने उन्हें कृषिभूषण पुरस्कार से सम्मानित किया। इस अवसर पर उन्हें केवल 25 हज़ार रुपए नकद और सोने का मेडल दिया गया। कुछ समय बाद दादाजी की आर्थिक हालत और भी खराब हो गई और उन्होंने अपना सोने का मेडल बेचने का विचार किया। किंतु उन्हें गहरा धक्का तब लगा जब यह पता चला कि वह मेडल खालिस सोने का नहीं था। जब इस मुद्दे को मीडिया ने और जनप्रतिनिधियों ने उठाया तब उन्हें उचित न्याय मिला।

सन 2010 में अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका फोर्ब्स ने दुनिया के सबसे उत्तम ग्रामीण उद्यमियों की सूची में दादाजी को शामिल किया, तब हमारे प्रशासन की नींद खुली। इसके बाद सारी मशीनरी इस या उस बहाने से दादाजी को सम्मानित करने के आयोजनों में जुट गई। उन्हें सौ से अधिक पुरस्कार दिए गए, अनगिनत शालें, हार और तोहफे दिए गए किंतु उनके शोध कार्य को आगे बढ़ाने के लिए जिस प्रकार की आर्थिक सहायता की आवश्यकता थी, वह नहीं मिली। उन्हें अपनी ज़िंदगी का अंतिम पड़ाव गरीबी और अभाव में बिताना पड़ा। 3 जून 2018 को उनका निधन हो गया।

आज भारत में ही नहीं, अपितु सारी दुनिया में कई शोधकर्ताओं का नाम होता है, किंतु कई शोधकर्ताओं को उनके शोध कार्य का उचित आर्थिक मुआवज़ा और समाज में सम्मान नहीं मिल पाता। हमारे देश में कई किसान फसलों के साथ नए-नए प्रयोग कर रहे हैं किंतु जानकारी के अभाव में उनके द्वारा विकसित फसलों को पहचान नहीं मिल पाती और उनका ज्ञान उन्हीं तक सिमट कर रह जाता है। यह आवश्यक है कि अनुभवों से उपजे उनके ज्ञान को सहेजा जाए। दादाजी खोब्रागडे के समान ऐसे अनेक व्यक्ति हैं जो अनपढ़ होते हुए भी अपनी शोध प्रवृत्ति और जिज्ञासा के चलते समाज के विकास के लिए प्रयास कर रहे हैं। ऐसे व्यक्तियों को सभी स्तरों से सहायता प्राप्त होने पर नई खोजें करने के लिए प्रोत्साहन मिल सकेगा।

यदि भारत को सही अर्थों में एक विकसित देश बनाना है तो यह ज़रूरी है कि बिलकुल निचले स्तर के व्यक्ति के मन में भी शोध कार्य के प्रति रुचि जागृत हो। इसके साथ ही यह भी आवश्यक है कि गांवों और छोटे-बड़े शहरों में शोध कार्य के प्रति रुचि रखने वाले और खोजी प्रवृत्ति के ऐसे व्यक्तियों को यथोचित सम्मान और उचित पारिश्रमिक देकर उनके साथ न्याय किया जाए। (स्रोत फीचर्स)

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विज्ञान के दर्शन और इतिहास के पुरोधा: देबीप्रसाद चट्टोपाध्याय – डॉ. रामकृष्ण भट्टाचार्य

यह आलेख दी एशियाटिक सोसाइटी, कोलकाता और ऑल इंडिया पीपुल्स साइंस नेटवर्क द्वारा 19-20 नवंबर 2018 को आयोजित जन्म शताब्दी सेमिनार-सह-कार्यशाला के अवसर पर दिए गए मुख्य भाषण पर आधारित है।

ह मेरे लिए गौरव की बात है कि मुझे एशियाटिक सोसाइटी, कोलकाता के तत्वावधान में देबीप्रसाद चट्टोपाध्याय (1918-1993) पर आयोजित संगोष्ठी में मुख्य भाषण देने के लिए आमंत्रित किया गया है। स्वयं देबीप्रसादजी युवावस्था से ही एशियाई अध्ययन के इस सबसे पुराने केंद्र से जुड़े और अपने जीवन के अंतिम दिन तक जुड़े रहे। वे हमेशा कृतज्ञतापूर्वक याद करते थे कि कैसे प्रोफेसर निहार रंजन राय (1903-1981) ने काम के दौरान सोसाइटी लाइब्रेरी में उनकी पढ़ाई में मदद की और इस काम की बदौलत अंग्रेज़ी में लोकायत (1959) के रूप में एक महान कृति हमारे सामने आई।

देबीप्रसादजी का सम्बंध उस पीढ़ी से था जिसे सही मायने में यंग बंगाल नामक समूह का उन्नीसवीं सदी में पुनर्जन्म कहा जा सकता है। उनकी जीवन शैली में उसी तरह की लापरवाही नज़र आती है; धर्म और पारंपरिक मूल्यों के प्रति वही अश्रद्धा, और खुली सोच और यथार्थ का वैसा ही गुणगान।

कलाकार, निबंधकार, चित्रकार, नाटककार, कवि और अन्य प्रतिभाएं लगभग 1940 के दशक में संस्कृति के सभी क्षेत्रों में दिखाई देने लगी थीं। जाने-माने विद्वान गोपाल हलधर ने इस घटना को माक्र्सवादी पुनर्जागरण का नाम दिया है।

देबीप्रसादजी इस दूसरे पुनर्जागरण के उत्पाद थे। उन्होंने अपने साहित्यिक जीवन की शुरुआत आधुनिक घराने के एक कवि के रूप में की थी। वे स्वयं को समर सेन का चेला कहते थे। 1960 के दशक में समर सेन के साथ गंभीर राजनीतिक मतभेद होने के बाद भी आपसी सम्मान और सौहार्द पर आधारित उनके रिश्ते पर न तो कोई प्रभाव पड़ा और ना ही कोई बाधा आई।

जैसा कि उनके शानदार अकादमिक कैरियर से पता चलता है, देबीप्रसादजी जीवन भर दर्शनशास्त्र के छात्र रहे। हालांकि, उनकी शुरुआती युवावस्था में साहित्य और कला, विशेष रूप से कविता, ज़्यादा प्रमुख रहे। 1940 के दशक के अंत और 1950 के दशक के पूर्वार्ध में वे अधिकतर बांगला भाषा में कविता, पेंटिंग और यहां तक कि फिल्मों पर लेखन में व्यस्त रहे। कुछ समय के लिए उनकी रुचि सिगमंड फ्रायड और उनकी मनोविश्लेषण प्रणाली में भी रही। लेकिन मार्क्सवादी नामक पत्रिका के पन्नों पर भवानी शंकर सेनगुप्ता द्वारा उनकी पुस्तक यौन जिज्ञासा की तीखी समीक्षा ने उनको फ्रायड के विचारों से दूर कर दिया। मार्क्सवादी अनौपचारिक ढंग से भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की पत्रिका थी। इसके बाद 1951 में, प्राचीन काल में भारतीय दर्शन और भौतिकवाद के बारे में भवानी सेन के साथ विवाद सुलझने के बाद, स्वयं भवानी सेन ने उन्हें इस बात के लिए तैयार किया कि वे प्राचीन भारतीय सोच की सकारात्मक विरासत को सबके सामने लाएं ताकि भारतीयों के बीच व्याप्त रूढ़िवाद का मुकाबला किया जा सके। भवानी सेन के साथ इस विवाद की चर्चा देबीप्रसाद की अग्रंथिता वितर्क, अबाभास, 2012 में संकलित है। (देबीप्रसादजी ने ये बातें अपने आलेख ए क्रिएटिव मार्क्सट एज़ आई न्यू हिम में दर्ज की हैं। यह आलेख उन्होंने भवानी सेन के स्मरण में प्रकाशित पुस्तक ट्रिब्यूट: भवानी सेन (1972) में लिखा था।

लोकायती देबीप्रसाद

यह देबीप्रसादजी के जीवन का एक महत्वपूर्ण मोड़ था। वे 1940 के दशक के अंत से ही युवा पाठकों के लिए लोकप्रिय विज्ञान के लेखन कार्य में व्यस्त रहे। उन्होंने पाठकों के लिए एक-दो नहीं बल्कि कई शृंखलाओं का संपादन किया। वे पहले से ही साहित्यकार के रूप में इतने प्रसिद्ध थे कि लखनऊ में 1954 में आयोजित अखिल भारतीय बंगाली साहित्य सम्मेलन के 30वें सत्र में उन्हें किशोर साहित्य अनुभाग का अध्यक्ष मनोनीत किया गया था। उस समय उनकी आयु केवल 36 वर्ष थी। सम्मेलन में दिया गया उनका भाषण एक क्लासिक रहा है। सोमेश चट्टोपाध्याय और शांतनु चक्रवर्ती द्वारा संपादित लोकायत देबीप्रसाद (1994) में इसे शामिल किया गया।

बहरहाल, 1953-54 से उन्होंने खुद को प्राचीन भारतीय दर्शन में भौतिकवादी परंपरा के अध्ययन की ओर समर्पित कर दिया था। एक मार्क्सवादी-लेनिनवादी होने के नाते उन्होंने सभी प्रमुख ग्रंथों का अध्ययन किया। इससे सीखी बातों को प्राचीन भारतीय विचारों पर लागू करना उनकी सबसे बड़ी चुनौती थी। इंग्लैंड यात्रा और बर्मिंगहैम के प्रोफेसर जॉर्ज थॉमसन के साथ चर्चा उन्हें सही परिप्रेक्ष्य हासिल करने में मददगार हुई। इसका परिणाम उनकी बांगला पुस्तक लोकायत दर्शन (1956) और उसके बाद अंग्रेज़ी में आई लोकायत (1959) के रूप में देखने को मिला। इसकी देश-विदेश में खूब सराहना भी हुई और विरोध की कुछ आवाज़ें भी उठी। पूरी दुनिया में विद्वानों और सामान्य पाठकों से मिली प्रशंसा ने इन आवाज़ों को दबा दिया। लोकायत आज भी एक बेस्टसेलर है और भारत में भौतिकवादी परंपरा में रुचि रखने वाले विद्यार्थी आज भी इस किताब को पढ़ते हैं। 1959 के बाद से भले ही इस क्षेत्र में कई महत्वपूर्ण अध्ययन सामने आए हैं, लेकिन इस काम का मूल्य कभी कम नहीं होगा।

दर्शन से विज्ञान के इतिहास की ओर

यह तो स्पष्ट नहीं है कि देबीप्रसाद जी ने अपने अनुसंधान का फोकस दर्शन शास्त्र से हटाकर विज्ञान के इतिहास की ओर क्यों मोड़ा। न तो उन्होंने इसके बारे में कुछ लिखा है और न ही उनके सहयोगियों को विज्ञान के इतिहास में उनकी दिलचस्पी के बारे में कुछ पता है। उनकी किताब व्हाट इज़ लिविंग एंड व्हाट इज़ डेड इन इंडियन फिलॉसफी (1976) और हिस्ट्री ऑफ़ साइंस एंड टेक्नॉलॉजी इन एनशंट इंडिया (खंड 1, 1986) के बीच साइंस एंड सोसाइटी इन एनशंट इंडिया (1977) नाम से एक किताब प्रकाशित हुई थी। इस पुस्तक की प्रस्तावना में वे लिखते हैं, वर्तमान अध्ययन का उद्देश्य मेरी हाल ही में प्रकाशित व्हाट इज़ लिविंग एंड व्हाट इज़ डेड इन इंडियन फिलॉसफी को संपूर्णता प्रदान करना है। जैसा कि शीर्षक से स्पष्ट है वह पुस्तक विशेष रूप से दर्शन शास्त्र पर केंद्रित थी। यहां तक कि साइंस एंड सोसाइटी इन एनशंट इंडिया की योजना भी मूल रूप से तीन खंडों में बनाई गई थी, जिसमें तीसरा खंड प्राचीन भारतीय चिकित्सा के बुनियादी सिद्धांतों में न्याय-वैशेषिका दर्शन के स्रोतों पर चर्चा करना था। हालांकि, जैसा कि उन्होंने बाद में कहा, विचार करने पर उन्होंने तीसरे खंड को अलग-अलग दो पुस्तकों के रूप में लिखने का फैसला किया था – साइंस एंड काउंटर आइडियोलॉजी और दी सोर्स-बुक्स रीएक्ज़ामिन्ड। उनका ऐसा मानना था कि यह तकनीकी विवरणों से भरा है इसलिए सामान्य पाठकों के रुचि का नहीं होगा। अलबत्ता, वह तीसरी पुस्तक कभी नहीं लिखी गई।

इस बात पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि देबीप्रसाद जी ने सिर्फ विद्वानों के लिए ही नहीं लिखा; उनके ज़हन में हमेशा सामान्य पाठक थे। यह एक ऐसा गुण था जो अकादमिक लोगों के कामों में प्राय: देखने को नहीं मिलता है। यह शायद प्रोफेसर वाल्टर रूबेन का प्रभाव था।

जिस तरह से कुछ लोगों की भूख खाना खाने के साथ बढ़ती है, उसी तरह देबीप्रसाद जी द्वारा चरक संहिता और सुश्रुत संहिता का अध्ययन उन्हें न्याय-वैशेषिका दर्शन से विज्ञान की अन्य शाखाओं की ओर ले गया। जैसे खगोल विज्ञान, वनस्पति विज्ञान, गणित आदि। चिकित्सा संहिताओं से जोड़कर न्याय-वैशेषिका की चर्चा का वादा पूरा नहीं किया गया। उन्होंने एक सर्वथा नए दृष्टिकोण से प्राचीन भारत में विज्ञान और प्रौद्योगिकी का इतिहास लिखने की ज़रूरत महसूस की। उन्होंने महसूस किया कि इतिहास के मौजूदा लेखन अपर्याप्त हैं और उनमें पुरातात्विक जानकारी तथा अन्य सांसारिक मुद्दों को शामिल नहीं किया गया है, जैसे शहरों का विकास, लोहे का उपयोग वगैरह। इतिहास में इस नई रुचि के चलते उन्होंने 1982 में एक एंथॉलॉजी (ग्रंथ सूचियों) के दो खंड संपादित किए – स्टडीज़ इन दी हिस्ट्री ऑफ साइंस इन इंडिया। पहले खंड में उन्होंने एक लम्बा परिचय देते हुए कार्य योजना की रूपरेखा प्रस्तुत की। इसमें उन्होंने जोसेफ नीडहैम की पुस्तक दी ग्रैंड टाइट्रेशन से एक लम्बा उद्धरण दिया था (जो इस भव्य वक्तव्य के साथ समाप्त होता है आधुनिक सार्वभौमिक विज्ञान अवश्य, लेकिन पाश्चात्य विज्ञान कदापि नहीं!)। आगे उन्होंने अपने पाठकों से कहा था; यह पुस्तक भारतीय इतिहास में विज्ञान नामक प्रोजेक्ट का एक हिस्सा है, जिस पर हम काम करते रहे हैं। प्रोजेक्ट के दायरे की व्याख्या करने से पहले, प्रोजेक्ट की प्रासंगिकता पर कुछ कहना उपयोगी होगा। जैसा कि प्रोफेसर जोसेफ नीडहैम ने स्पष्ट किया है, इस तरह के किसी भी प्रोजेक्ट की मुख्य मान्यताएं इस प्रकार हैं: (1) सामाजिक विकास ने मानव के प्रकृति सम्बंधी ज्ञान और बाहरी दुनिया पर उसके नियंत्रण में क्रमिक वृद्धि की है, (2) यह विज्ञान एक अंतिम मूल्य है और इसके उपयोग से एक एकता बनती है जिसमें विभिन्न सभ्यताओं (जो एक-दूसरे से अलग-थलग नहीं रही हैं) के बराबर योगदान शामिल हैं जो सभी नदियों की तरह समुद्र में मिलते रहे हैं और आज भी मिल रहे हैं। (3) इस प्रगतिशील प्रक्रिया के साथ यह मानव समाज लगातार बढ़ती एकता, जटिलता और संगठित स्वरूपों की ओर बढ़ रहा है।

देबीप्रसादजी के प्रोजेक्ट का साकार रूप 1986 में हिस्ट्री (हिस्ट्री ऑफ साइन्स इन एनशंट इंडिया) के पहले खंड के रूप में सामने आया। अर्थात दर्शन शास्त्र ही उन्हें विज्ञान के इतिहास की ओर ले गया था। अलबत्ता, यह नई रुचि सर्वग्राही साबित हुई और इसके परिणामस्वरूप अध्येताओं के एक ऐसे समूह का गठन हुआ जिन्होंने सही मायने में भारत में विज्ञान और प्रौद्योगिकी के इतिहास को उजागर करने के लिए साझा प्रयास किए। इस पुस्तक में चरक संहिता और न्यायसूत्र के साथ-साथ वैशेषिका के ज्ञान शास्त्र का मुद्दा उन्होंने अपने करीबी सहयोगी मृणाल कांति गंगोपाध्याय के लिए छोड़ दिया था। मृणाल कांति का उल्लेख उन्होंने सदा मेरे युवा मित्र और शिक्षक के रूप में किया है। 

विज्ञान के दर्शन और इतिहास दोनों क्षेत्रों में देबीप्रसादजी के योगदान को संक्षेप में इस तरह प्रस्तुत किया जा सकता है:

– चट्टोपाध्याय ने भारत में भौतिकवाद के अध्ययन को उस समय प्रचलित अतिशयोक्ति पूर्ण प्रस्तुतीकरण से बचाया। 1956 से लोकायत पर अपने काम (बंगला लोकायत) के माध्यम से, उन्होंने भारत में दर्शनों के मानचित्र पर चार्वाक/लोकायत प्रणाली को मज़बूती से स्थापित करने में सफलता प्राप्त की।

– उन्होंने ही इस बात पर ज़ोर दिया था चार्वाक दार्शनिक ज्ञान अर्जित करने की एक विधि के रूप में प्रमाणों के आधार पर निष्कर्ष के विरोध में नहीं थे। हालांकि सुरेंद्रनाथ दासगुप्ता, रिचर्ड गार्बे, मैसूर हिरियाना और सतकारी मुखर्जी ने पहले ही इस बात को पहचान लिया था, लेकिन इन सबने इसको ज़ोर देकर नहीं कहा था। देबीप्रसादजी ने इस सम्बंध में पुरंदर के कथन के आधार पर इसे दृढ़ता से प्रस्तुत किया था। पुरंदर का यह वक्तव्य शांतरक्षिता के तत्वसंग्रह पर कमलशिला की टीका में दर्ज हुआ था। मृणाल कांति गंगोपाध्याय ने भी भारतीय तर्कशास्त्र के अपने अध्ययन में इस तथ्य को दोहराया है।

– उन्होंने दर्शनशास्त्र और विज्ञान के बीच एक मज़बूत कड़ी स्थापित की।

– उन्होंने विज्ञान के इतिहास में प्रौद्योगिकी की भूमिका के महत्व को रेखांकित किया।

– उन्होंने प्राचीन भारत में भौतिकवाद, नास्तिकता, तर्कवाद जैसी धाराओं पर व्यवस्थित शोध की परंपरा शुरू की (जैसे उनकी पुस्तक इंडियन एथीज़्म: ए मार्क्सट एनालिसिस, 1969)। इससे इस प्रचलित धारणा को चुनौती मिली कि भारत मात्र अध्यात्म, आस्था और भक्ति की भूमि है। प्रोफेसर मृणाल कांति गंगोपाध्याय से लेकर ट्रिएस्ट (इटली) के डॉ. कृष्णा डेल टोसो तक कई विद्वान इस दूसरे भारत की अवधारणा पर काम करने में लगे हुए हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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पी. सी. वैद्य: एक गांधीवादी भौतिक शास्त्री – अपराजित रामनाथ

क भारी-भरकम गोलाकार तारे पर विचार कीजिए जो बाह्य अंतरिक्ष में विपुल मात्रा में विकिरण छोड़ रहा है। ऐसे किसी तारे के आसपास गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र का व्यवहार कैसा होगा? अल्बर्ट आइंस्टाइन द्वारा 1915 में प्रतिपादित क्रांतिकारी सामान्य सापेक्षता सिद्धांत को लागू करके कई सवालों को संबोधित किया जा सकता था। उपरोक्त सवाल उनमें से एक महत्वपूर्ण सवाल था। और इसका समाधान सबसे पहले गणितज्ञ और खगोलविद पी.सी. वैद्य (1918-2010) ने निकाला था। इसे वैद्य मेट्रिक्स के नाम से जाना जाता है। मई में उनकी जन्म शती थी।

सामान्य सापेक्षता के सिद्धांत को दस ‘क्षेत्र समीकरणों’ द्वारा व्यक्त किया जाता है जो समूचे ब्रह्मांड में वैध हैं। ये समीकरण कतिपय सरलीकृत मान्यताओं के अंतर्गत कुछ सटीक समाधान की गुंजाइश प्रदान करते हैं। पहला सटीक समाधान सिद्धांत के प्रतिपादन के फौरन बाद सामने आया था जब जर्मन वैज्ञानिक कार्ल श्वाजऱ्चाइल्ड ने अंतरिक्ष में विकिरण का उत्सर्जन न करने वाले किसी गोलाकार पिंड के आसपास के क्षेत्र का विवरण प्रस्तुत किया था।

इसके पूरे 26 साल बाद वैद्य ने 1943 में विकिरण करते गोलाकार पिंड के क्षेत्र की गणना की थी। 1960 के दशक में रेडियो दूरबीनों की मदद से दूरस्थ निहारिकाओं के मध्य में क्वासर (क्वासी-स्टेलर रेडियो स्रोतों) की खोज की गई जो विशाल मात्रा में ऊर्जा उत्पन्न करते हैं। वैद्य ने बाद में याद करके बताया था, “न्यूटन का (गुरुत्वाकर्षण) सिद्धांत इन पिंडों के अत्यंत तीव्र गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र के संदर्भ में अपर्याप्त साबित हुआ था और (इनके विवरण के लिए) आइंस्टाइन के सामान्य सापेक्षता सिद्धांत की आवश्यकता थी।”

वैद्य का समाधान इन परिस्थितियों के अध्ययन के लिए आदर्श था, और इसके चलते वे उच्च-ऊर्जा खगोल-भौतिकविदों की दुनिया में शामिल कर लिए गए।

महान, अनोखे

आने वाले दशकों में उन्होंने सामान्य सापेक्षता और खगोल-भौतिकी के संगम बिंदु पर कई महत्वपूर्ण योगदान दिए। उन्होंने सटीक समाधानों के अलावा अति-विशाल पिंडों और ब्लैक होल्स जैसे विषयों पर काम किया। अकेले या अपने शोध छात्रों के साथ काम करते हुए उन्होंने नेचर, फिजि़कल रिव्यू लेटर्स, एस्ट्रोफिजि़कल जर्नल और करंट साइन्स जैसी शोध पत्रिकाओं में कई शोध पत्र प्रकाशित किए।

वैद्य एक संस्था-निर्माता भी थे। इंडियन एसोसिएशन फॉर जनरल रिलेटिविटी के संस्थापक सदस्य के रूप में उन्होंने भारत में इस क्षेत्र में काम कर रहे वैज्ञानिकों को साथ लाने का महत्वपूर्ण कार्य किया। इन वैज्ञानिकों में सी.वी. विश्वेश्वरा, नरेश दधीच और जयंत नार्लीकर जैसे वैज्ञानिक शामिल थे। जयंत नार्लीकर आगे चलकर इंटरयुनिवर्सिटी सेंटर फॉर एस्ट्रोनॉमी एंड एस्ट्रोफिजि़क्स (IUCAA, पुणे) के प्रथम निदेशक बने।

हालांकि भारत में सामान्य सापेक्षता अनुसंधान के शुरुआती केंद्र जयंत नार्लीकर के पिता वी.वी. नार्लीकर और एन. आर. सेन के नेतृत्व में स्थापित हुए थे, अगली पीढ़ी पर वैद्य का ज़बर्दस्त प्रभाव रहा। सामान्य सापेक्षता के क्षेत्र में कार्यरत वैज्ञानिक कलकत्ता (अब कोलकाता) के गणितज्ञ अमल कुमार रायचौधरी के साथ-साथ वैद्य को अपना मार्गदर्शक मानते थे और 1985 में इन दोनों वैज्ञानिकों के सम्मान में पुस्तिका का प्रकाशन किया गया था।

इस बात में कोई संदेह नहीं कि पी. सी. वैद्य अव्वल दर्जे के वैज्ञानिक थे और आइंस्टाइन से लेकर स्टीफन हॉकिंग और गुरुत्वाकर्षण तरंगों की खोज करने वाली लिगो टीम तथा अन्य प्रायोगिक वैज्ञानिकों की परंपरा के हिस्से थे। और फिर भी – हालांकि मैं प्रशिक्षण और पेशे से विज्ञान का इतिहासकार हूं – मैंने चंह महीनों पहले तक पी.सी. वैद्य का नाम तक नहीं सुना था। मैंने उनका नाम पहली बार तब सुना जब एक मित्र ने हॉकिंग के जीवन और कार्य पर व्याख्यान देते हुए उनका जि़क्र किया।

यह मेरे अज्ञान का द्योतक हो सकता है किंतु एक गैर-वैज्ञानिक जनमतसंग्रह से लगता है कि बात इतनी ही नहीं है। गुजरात का यह महान व्यक्तित्व भारत के घर-घर में सी.वी. रामन, मेघनाथ साहा, एस.एस. भटनागर, सुब्रामण्यन चंद्रशेखर या होमी भाभा जैसा नाम नहीं बन पाया।

इसे कैसे समझें? इसका कुछ सम्बंध तो इस बात से है कि जिस परिवेश में उन्होंने अपना कैरियर बनाया और जिस असाधारण जीवन शैली को उन्होंने अपनाया। कई स्रोतों से हम उस कैरियर को पुनर्निर्मित कर सकते हैं। इनमें उनकी गुजराती स्मरण पुस्तिका चॉक एंड डस्टर तथा उनके सम्बंधियों और सहकर्मियों द्वारा लिखे गए जीवन वृत्त शामिल हैं।

शुरुआती वर्ष

प्रहलाद चुन्नीलाल वैद्य (कुछ लोगों के लिए वैद्य साहेब) का जन्म 1918 में जूनागढ़ रियासत के एक गांव शाहपुर में हुआ था। वे एक डाक अधिकारी के द्वितीय पुत्र थे। बचपन में ही उनके माता-पिता गुज़र गए और उनका लालन-पालन भावनगर के नज़दीक कुछ रिश्तेदारों ने किया, जहां 1933 तक वे अल्फ्रेड हाई स्कूल में पढ़े।

उनके भाई मधुसूदन को बंबई (अब मुंबई) में स्कूल शिक्षक की नौकरी मिल गई और पी. सी. वैद्य ने अपनी स्कूल शिक्षा वहीं पूरी की। रॉयल इंस्टीट्यूट ऑफ साइन्स से बी.एससी. (और आगे चलकर एम.एससी.) करने से पहले वे जोगेश्वरी स्थित इस्माइल यूसुफ कॉलेज में पढ़े। स्नातक शिक्षा के दौरान उन्हें डिस्टिंक्शन मिला और स्नातकोत्तर परीक्षा में बंबई विश्वविद्यालय के टॉपर रहे।

इस दौर में उनके व्यक्तित्व पर एक गहरी छाप बंबई विश्वविद्यालय में 1937 में वी.वी. नार्लीकर (कैंब्रिज विश्वविद्यालय में अध्ययन के बाद बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में प्रोफेसर) द्वारा दिए गए व्याख्यानों ने डाली। यहीं पी.सी. वैद्य ने पहली बार सुना था कि विकिरण करते तारों के गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र का विवरण अब तक सामान्य सापेक्षता के परिप्रेक्ष्य में नहीं दिया गया है।

उनके अकादिमक कैरियर के बावजूद, जिस ढंग से पी.सी. वैद्य का शोध कैरियर शुरू हुआ, उसमें संयोग का कुछ पुट अवश्य है। भावनगर में पी. सी. वैद्य और उनके भाई पर गांधी के विचारों का काफी असर पड़ा था। अब राजकोट में एक कॉलेज शिक्षक के रूप में थोड़े दिन काम करने के बाद उन्होंने अपने कैरियर में एक गैर-परंपरागत कदम उठाया। 1941 में उन्होंने बंबई लौटकर एक गांधी-प्रेरित स्वैच्छिक संस्था स्थापित की। अहिंसक व्यायाम संघ नामक यह संस्था सत्याग्रहियों के प्रशिक्षण के लिए बनाई गई थी।

यह कई भारतीय युवाओं के लिए जुनून का दौर था क्योंकि इसी समय भारतीय नेताओं ने ब्रिटेन द्वारा भारत को एकतरफा ढंग से द्वितीय विश्व युद्ध में झोंकने के निर्णय के खिलाफ संघर्ष करते हुए भारत छोड़ो आंदोलन की घोषणा कर दी थी। यह पी. सी. वैद्य के लिए निराशा का कारण बना कि व्यायाम संघ की प्रेरक शक्ति पृथ्वी सिंह की वैचारिक उलझनों के चलते संस्था को समेट दिया गया। सिंह का वैचारिक झुकाव कम्यूनिज़्म की ओर था और वे ब्रिटिशों का विरोध करने में खुद को असमर्थ पा रहे थे क्योंकि ब्रिटिश तब सोवियत संघ के सहयोगी थे।

खुद को मझधार में पाकर, पी. सी. वैद्य ने वी.वी. नार्लीकर का रुख किया। उन्होंने बनारस में नार्लीकर को चिट्ठी लिखकर पूछा कि क्या वे एक अनौपचारिक शोध छात्र के रूप में उनके साथ काम कर सकते हैं। अपनी बचत के भरोसे पी.सी. वैद्य अपने परिवार को लेकर बनारस आ गए, जहां उन्होंने नार्लीकर के मार्गदर्शन में काम करते हुए 1942 से कई शोध पत्र प्रकाशित किए। इनमें से एक – इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइन्स द्वारा प्रकाशित करंट साइन्स में 1943 में प्रकाशित शोध पत्र – उनकी पहली बड़ी सफलता थी। इस शोध पत्र का शीर्षक था: दी एक्सटरनल फील्ड ऑफ ए रेडिएटिंग स्टार इन जनरल रिलेटिविटी। इस पर्चे ने विज्ञान जगत को वैद्य मेट्रिक्स की सूचना दी।

वैद्य ने 1950 के शुरुआती दशक में प्रकाशित शोध पत्रों में इसे विस्तार दिया। ऐसे में कोई अचरज नहीं कि पी.सी. वैद्य ने नार्लीकर के साथ बिताए अपने वर्षों को ‘काशी यात्रा’ की संज्ञा दी जिसने उन्हें अगले जीवन के लिए नहीं बल्कि इसी जीवन के शेष वर्षों के लिए तैयार किया।

संस्था निर्माण

जब बचत के पैसे चुक गए, तो वैद्य ने सूरत के एक कॉलेज में अध्यापक की नौकरी ले ली। आगे चलकर उन्होंने नवोदित टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च (TIFR) में एक शोध छात्र के रूप में दाखिला लिया और 1948 में पीएच.डी. पूरी की। टीआईएफआर उस समय विकसित हो रहा था और वैद्य को होमी भाभा के साथ काम करने का मौका मिला। यह बात शायद अविश्वसनीय लगे किंतु पी.सी. वैद्य को बंबई छोड़ना पड़ा था क्योंकि परिवार के रहने के लिए वहां उन्हें मकान नहीं मिला।

तब पी. सी. वैद्य गुजरात में आनंद के नज़दीक उभरते शैक्षणिक शहर वल्लभ विद्यानगर में नए-नए खुले विट्ठलभाई पटेल कॉलेज में प्रोफेसर बने। उनके जीवन पर बनी आयूका-विज्ञान प्रसार की एक फिल्म में उन्होंने बताया है कि उस समय वे बगैर छत के कमरे में पढ़ाया करते थे। मगर वहां उन्होंने अपने छात्रों की जो बुनियाद तैयार की वह बहुत मज़बूत थी। जैसा कि उनके भतीजे अरुण वैद्य (जो स्वयं एक प्रतिष्ठित गणितज्ञ हैं) ने बताया, पी. सी. वैद्य न सिर्फ अपने शोध कार्य के लिए बल्कि उनके द्वारा आयोजित खेलकूद शिविरों व अन्य गतिविधियों के लिए भी याद किए जाते हैं। लगता है व्यायाम संघ के उनके दिन फालतू नहीं गए।

अन्य कॉलेजों में अध्यापन करने के बाद, वैद्य ने गुजरात विश्वविद्यालय में गणित विभाग स्थापित करने में योगदान दिया (1959)। यहीं उन्होंने अपना शेष कार्य-जीवन व्यतीत किया। यहां उन्होंने कई शोध छात्र तैयार किए। आगे चलकर उन्हें प्रशासनिक जि़म्मेदारियां सौंपी गई। 1971 में वे गुजरात लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष बने और 1977 में संघ लोक सेवा आयोग के सदस्य निर्वाचित किए गए। इसके बाद वे गुजरात विश्वविद्यालय के उपकुलपति रहे।

वैज्ञानिक अनुसंधान के क्षेत्र में अपनी हैसियत और उच्च पदों पर आसीन रहने के बावजूद, पी. सी. वैद्य कभी अपनी जड़ें नहीं भूले। आजीवन गांधीवादी रहे वैद्य की पहचान खादी के कुर्ते, सफेद गांधी टोपी और सायकिल से जुड़ी रही। जिन संस्थाओं की स्थापना को लेकर वे गर्व महसूस करते थे वे हर स्तर पर गणित शिक्षण को बेहतर बनाने से सम्बंधित थीं। इनमें गुजरात गणित मंडल (स्थापना 1963) शामिल है जो आज भी एक जीवंत संस्था है। इसी वर्ष उन्होंने एक पत्रिका सुगणितम की स्थापना की थी जो शिक्षकों व छात्रों के लिए गणित का एक उम्दा संसाधन है।

विनम्रता

वैद्य उस समय तक एक परिपक्व शोधकर्ता बन चुके थे जब नव-स्वतंत्र भारत विज्ञान में भारी निवेश कर रहा था। वैज्ञानिक एवं प्रौद्योगिकी अनुसंधान परिषद (CSIR) प्रयोगशालाओं के अपने नेटवर्क में विस्तार कर रहा था, अंतरिक्ष कार्यक्रम आकार ले रहा था और परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम पर पैसे और प्रतिष्ठा की बौछार की जा रही थी। मगर इन सबका एक उपयोगितावादी रुझान था जबकि वैद्य ज़्यादा ‘बुनियादी’ अनुसंधान कर रहे थे।

जैसा कि एक भौतिक शास्त्री साथी ने मुझे बताया था, पी. सी. वैद्य का क्षेत्र (सामान्य सापेक्षता) अपेक्षाकृत गूढ़ था। यह विषय भारत में स्नातकोत्तर स्तर भी कहीं-कहीं ही पढ़ाया जाता था। ज़ाहिर है, इसने लोगों का ध्यान उस तरह नहीं खींचा जैसे परमाणु ऊर्जा या रॉकेट खींचते हैं। परिणाम यह रहा कि वैद्य ने अपना लगभग पूरा कैरियर विज्ञान के मान्य केंद्रों से दूर ही व्यतीत किया और शोध में उनके योगदान को बहुत थोड़े से वैज्ञानिक ही समझते हैं।

अलबत्ता, वैद्य का कैरियर सिर्फ इन परिस्थितियों का नहीं बल्कि उनके निर्णयों का भी परिणाम था। वैद्य ने कभी सार्वजनिक परिदृश्य में रहने की इच्छा नहीं की। वे एक ‘जड़ें जमाए विश्व नागरिक’ थे जो पूरी दुनिया से संवाद करते थे किंतु सबसे प्रसन्न अपनी धरती पर ही रहते थे। वे अपनी मातृभाषा और अपने आसपास के लोगों की भाषा की मदद से ज्ञान का प्रजातांत्रीकरण करना चाहते थे। वे गांधीवादी परंपरा में ‘रचनात्मक कार्यकर्ता’ थे।

1990 के दशक के अंतिम वर्षों में भी, बुलेटिन ऑफ दी एस्ट्रॉनॉमिकल सोसायटी ऑफ इंडिया के संपादक के पत्र के जवाब में अपनी निशस्त्र कर देने वाली विनम्रता के साथ उन्होंने कहा था, “मैं हमेशा से स्वयं को एक शिक्षक मानता आया हूं और इतने वर्षों तक गणित पढ़ाकर ही अपनी जीविका अर्जित की है। यदि प्रतिष्ठित खगोल शास्त्रीय सोसायटी मुझे एक प्रतिष्ठित खगोल शास्त्री मानती है, तो मुझे गर्व महसूस हुआ और मैंने सोचना शुरू किया कि यह गणित शिक्षक एक खगोल शास्त्री के रूप में कैसे तबदील हो गया।” शायद यह तबदीली सितारों पर अंकित थी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।

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