कौवे मनुष्यों के समान गिनती करते हैं

वैसे तो पहले भी कुछ अध्ययनों में देखा जा चुका है कि कौवों में संख्या ताड़ने की क्षमता होती है। जैसे यदि उनके सामने कई डिब्बे रखकर मात्र 6 डिब्बों में खाने की चीज़ें रखी जाएं तो वे मात्र 6 डिब्बों को पलटाने के बाद रुक जाते हैं। या यदि कौवे किसी बगीचे में हैं और कुछ मनुष्य वहां घुसें तो वे छिप जाते हैं। और तब तक छिपे रहते हैं जब तक कि सारे मनुष्य निकल न जाएं। ऐसा देखा गया था कि वे यह ‘गिनती’ 16 तक कर पाते हैं। इसी प्रकार से एक प्रयोग में यह भी देखा गया था कि यदि किसी स्क्रीन पर कुछ बिंदु अंकित हों तो वे ताड़ सकते हैं कि दो समूहों में बिंदुओं की संख्या बराबर है या नहीं।

और अब जर्मनी के टुबिंजेन विश्वविद्यालय के जंतु वैज्ञानिक एंड्रियास नीडर और उनके साथियों ने इसमें एक नया आयाम जोड़ा है। साइन्स पत्रिका में प्रकाशित अपने शोधपत्र में इस टीम ने बताया है कि कौवों की यह क्षमता मनुष्यों में संख्या कौशल के विकास को समझने में सहायक हो सकती है।

जर्मनी के शोधकर्ताओं ने तीन कैरियन कौवों (Corvus corone) के साथ काम किया। इन कौवों को आदेशानुसार कांव करने का प्रशिक्षण दिया जा चुका था। इसके बाद अगले कुछ महीनों तक इन्हें यह सिखाया गया कि स्क्रीन पर 1, 2, 3 या 4 के दृश्य संकेत दिखने पर उन्हें उतनी ही संख्या में कांव करना है। उन्हें ऐसे श्रव्य संकेतों से भी परिचित कराया गया जो एक-एक अंक से जुड़े थे।

प्रयोग के दौरान ये कौवे स्क्रीन के सामने खड़े होते थे और उन्हें दृश्य या श्रव्य संकेत दिया जाता था। उनसे अपेक्षा की जाती थी कि वे उस संकेत से मेल खाती संख्या में कांव करेंगे और यह काम पूरा करने के बाद वे ‘एंटर कुंजी’ पर चोंच मारेंगे। यदि वे सही करते तो उन्हें पुरस्कार स्वरूप लजीज़ व्यंजन दिया जाता।

कौवे अधिकांश बारी सही रहे। कम से कम उनके प्रदर्शन को मात्र संयोग का परिणाम तो नहीं कहा जा सकता।

प्रयोग करते-करते शोधकर्ताओं को यह भी समझ आया कि वे कौवे की पहली कांव को सुनकर यह अंदाज़ लगा सकते हैं कि वह कुल कितनी बार कांव करेगा। इसका मतलब यह हुआ कि कौवा पहले से ही कांव की संख्या की योजना बना लेता है अर्थात यह प्रक्रिया सचमुच संज्ञानात्मक नियंत्रण में है। अलबत्ता, ऐसा नहीं था कि कौवे हर बार सटीक होते थे। कभी-कभार वे कम या ज़्यादा बार कांव भी कर देते थे। लेकिन यह भी पूर्वानुमान किया जा सकता था।

लिहाज़ा, यह तो नहीं कहा जा सकता कि ये तीन कौवे वास्तव में गिन रहे थे जिसके लिए संख्याओं की सांकेतिक समझ ज़रूरी है लेकिन हो सकता है कि उनका प्रदर्शन इस समझ के विकास का अग्रदूत हो। आगे और शोध ही इस सवाल पर रोशनी डाल सकेगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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खोपड़ी मिली, तो पक्षी के गुण पता चले

र्ष 1893 में दक्षिण ऑस्ट्रेलिया की कैलाबोना झील से जीवाश्म विज्ञानियों को लगभग साबुत एक अश्मीभूत कंकाल मिला था। कंकाल का धड़ वाला हिस्सा तो पूरी तरह सलामत था, लेकिन इसकी खोपड़ी भुरभुरी, दबी-कुचली और विकृत स्थिति में थी।

वैज्ञानिकों ने कंकाल की बनावट देखकर इतना तो अनुमान लगा लिया था कि यह मुर्गे, एमू या शुतुरमुर्ग जैसे किसी बड़े पक्षी का कंकाल है, जो उड़ नहीं सकता था। नाम दिया था गेन्योर्निस न्यूटोनी (Genyornis newtoni)। लेकिन इसके बारे में और अनुमान लगाना अच्छी हालात की खोपड़ी के बिना मुश्किल था, क्योंकि सभी बड़े पक्षी गर्दन से नीचे लगभग एक जैसे दिखते हैं – बड़े शरीर पर छोटे पंख, चौड़ी दुम, वज़नी पैर। खोपड़ी से यह पता लगाना आसान हो जाता है कि कंकाल किस कुल का सदस्य है।

इसलिए ऑस्ट्रेलिया की फ्लिंडर्स युनिवर्सिटी की वैकासिक जीवविज्ञानी फीब मैकइनर्नी को एक सही-सलामत अश्मीभूत खोपड़ी की तलाश थी। अंतत: उन्हें ऐसी खोपड़ी मिल गई। हिस्टॉरिकल बायोलॉजी जर्नल में उन्होंने गेन्योर्निस की खोपड़ी का वर्णन और तस्वीर प्रकाशित की है और इसे ‘गीगा गूज़’ नाम दिया है। पता चला है कि गीगा गूज़ वर्तमान में जीवित या विलुप्त किसी पक्षी की तरह नहीं है बल्कि जल पक्षियों से सम्बंधित है, जिसमें बत्तख से लेकर हंस जैसे पक्षी आते हैं।

गीगा गूज़ की चोंच की पकड़ की चौड़ाई, दमदार काटने की क्षमता और मांसपेशियों के जुड़ाव से पता चलता है कि इसका पकड़ सम्बंधी (मोटर) नियंत्रण काफी अच्छा था, इससे लगता है कि गेन्योर्निस पानी के किनारे लगे पौधों से पत्तियों और फलों को तोड़कर खाता होगा। खोपड़ी में ऐसी संरचनाएं दिखीं जो पानी को कान में घुसने से रोकती थीं, इससे पता चलता है कि यह पक्षी जलीय आवासों के लिए अनुकूलित था, और इसका प्राकृतवास मीठे पानी में था।

इस पक्षी की सम्पूर्ण तस्वीर और विशेषताएं प्राचीन ऑस्ट्रेलियाई आदिवासियों द्वारा बनाए गए विशालकाय शैलचित्रों और कहानियों के पात्रों से मेल खाती हैं। इससे लगता है कि प्राचीन ऑस्ट्रेलियाई आदिवासियों के समय यह जीव ऑस्ट्रेलिया में रहता होगा और उन्होंने इसे देखा होगा। और तो और, एक आदिवासी भाषा में इस पक्षी के लिए शब्द भी मिलता है, जिसका अर्थ होता है ‘विशाल एमू’। बड़े पैमाने पर अंडों के जले हुए छिलकों के अवशेषों के आधार पर कुछ शोधकर्ताओं का अनुमान है कि मनुष्य गेन्योर्निस के अंडे पकाकर खाते होंगे, लेकिन इन छिलकों की पहचान अभी जांच का मुद्दा है।

बहरहाल गीगा गूज़ के चेहरे का तो अंदाज़ा मिल गया लेकिन यह सवाल अनसुलझा ही है कि गीगा गूज़ समेत अन्य जीव-जंतु विलुप्त क्यों हो गए। (स्रोत फीचर्स)

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मल के ज़रिए बीज फैलाने वाला सबसे छोटा जीव

मात्र 1.1 सें.मी. लंबा, खुरदुरा-सा दिखने वाला वुडलाउज़ (Porcellio scaber) एक अकशेरुकी प्राणी है, जो सड़ती-गलती वनस्पतियों पर अपना जीवन यापन करता है। यह एक प्रकार की दीमक है। पीपल, प्लांट्स, प्लेनेट पत्रिका में प्रकाशित एक ताज़ा अध्ययन बताता है कि वुडलाउज़ एक कुशल माली की तरह काम करता है; साथ ही यह मल के ज़रिए बीज फैलाने वाला अब तक का ज्ञात सबसे छोटा जीव है।
बीजों को दूर-दूर तक फैलाने में बड़े जानवरों और पक्षियों की भूमिका तो काफी समय से पता है और सराही जाती है, लेकिन इसमें वुडलाउज़ और इस जैसे कई अन्य छोटे जीवों या कीटों की भूमिका को इतनी तवज्जो नहीं मिली है।
इसलिए कोबे युनिवर्सिटी के केंजी सुएत्सुगु और उनके दल ने कीटों की भूमिका पर थोड़ा प्रकाश डालने के उद्देश्य यह अध्ययन किया। उन्होंने एक पौधे सिल्वर ड्रैगन (Monotropastrum humile) और अकशेरुकी जीवों के आपसी सम्बंध या लेन-देन को समझने का प्रयास किया। गौरतलब है कि सिल्वर ड्रैगन के बीज धूल के कणों जैसे महीन होते हैं।
अध्ययन में उन्होंने पौधों के करीब कुछ स्वचालित डिजिटल कैमरे लगाकर इनके फलों को खाते कीटों व अन्य अकशेरुकी जीवों की 9000 से अधिक तस्वीरें प्राप्त कीं।
अब, यह पता करने की ज़रूरत थी कि कीटों के पाचन तंत्र से गुज़रने के बाद क्या फलों के बीज साबुत बचे रहते हैं? इसके लिए शोधकर्ताओं ने तीन अकशेरुकी जीवों – ऊंट-झींगुर, रफ वुडलाउज़ और कनखजूरे – को सिल्वर ड्रैगन के फल खिलाए और सूक्ष्मदर्शी से इनके मल का विश्लेषण किया।
अंत में उन्होंने यह पता किया कि मल से त्यागे गए बीज अंकुरित होने में सक्षम हैं या नहीं। ऊंट-झींगुर अंकुरण-क्षम बीजों को फैलाने में कुशल थे। इसके अलावा यह भी पता चला कि वुडलाउज़ और कनखजूरों द्वारा त्यागे गए बीजों में से करीब 30 प्रतिशत में अंकुरण की क्षमता बरकरार थी।
शोधकर्ताओं को उम्मीद है कि इस शोध से इसी तरह के बीज फैलाने वाले अन्य जीवों को पहचानने में और उनके महत्व के चलते उनका संरक्षण करने में मदद मिलेगी। क्योंकि किसी पौधे के जितने विविध बीज वाहक होंगे उतना उनके लिए बेहतर होगा। (स्रोत फीचर्स)

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जड़ी-बूटियों का उपयोग करता ओरांगुटान

क हालिया अवलोकन में, वैज्ञानिकों ने सुमात्रा में पाए जाने वाले एक जंगली ओरांगुटान को चेहरे के घाव के इलाज के लिए एक औषधीय पौधे के पुल्टिस का लेप करते देखा है। साइंटिफिक रिपोर्ट्स में प्रकाशित यह खोज किसी जंगली जीव द्वारा उपचार के लिए जड़ी-बूटी के उपयोग का पहला मामला है। इसका विडियो यहां देख सकते हैं: https://www.youtube.com/watch?v=xfYANAdmOrk.

इस औषधि का उपयोग करने वाले राकस नामक ओरांगुटान को सबसे पहले जर्मनी स्थित मैक्स प्लैंक इंस्टीट्यूट ऑफ एनिमल बिहेवियर के शोधकर्ताओं ने देखा। गौरतलब है कि 2009 में जब राकस इस जंगल में आया था तब वह युवा था और गालों के पैड अविकसित थे। 2021 तक राकस वयस्क हो गया चुका था और उसके गालों पर फ्लैंज दिखाई देने लगे थे। इस जीव के अवलोकन के दौरान वर्ष 2022 में शोधकर्ताओं ने उसके चेहरे पर एक खुला घाव देखा, जो संभवत: अन्य नरों के साथ ‘इलाके’ के झगड़े के दौरान लगा था।

हैरानी की बात यह थी कि घाव लगने के कुछ दिनों बाद राकस को अकर कुनिंग नामक पौधे के तने और पत्तियों का सेवन करते देखा गया। इस पौधे का उपयोग मधुमेह और पेचिश जैसी विभिन्न बीमारियों के इलाज में किया जाता है। आश्चर्य इसलिए भी था क्योंकि इस क्षेत्र में ओरांगुटान शायद ही कभी इस पौधे को खाते हैं। राकस ने न केवल पत्तियों को खाया बल्कि पत्तियों को चबाकर घाव पर लगभग 7 मिनट तक लगाया भी। आठ दिनों के भीतर उसका घाव पूरी तरह ठीक हो गया।

यह व्यवहार पशु बुद्धिमत्ता और आत्म-चेतना की पिछली धारणाओं को चुनौती देता है। हालांकि स्वयं इलाज की प्रवृत्ति विभिन्न प्रजातियों में देखी गई है, लेकिन किसी जीव द्वारा कुछ दिनों तक घाव का इलाज करने के लिए किसी विशिष्ट पौधे का उपयोग करने का यह पहला अवलोकन है।

शोधकर्ताओं को लगता है कि संभवत: मनुष्यों ने जीवों के व्यवहार को देखकर उपचार के बारे में सीखा होगा। इस तरह के ज्ञान का संचार, चाहे मनुष्यों के बीच हो या विभिन्न पशु प्रजातियों के बीच, पीढ़ियों तक बना रह सकता है, और सभी जीवन रूपों के  परस्पर सम्बंध को उजागर करता है। (स्रोत फीचर्स)

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हिमालय के मैगपाई – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन, सुशील चंदानी

हियर या मैगपाई पक्षी कॉर्विडे (Corvidae) कुल के सदस्य हैं, जिसमें कौवा, नीलकण्ठ और रैवन आते हैं। आम तौर पर इस कुल के पक्षियों को कांव-कांव करने वाले और जिज्ञासु पक्षी के तौर पर देखा जाता है। दुनिया भर की लोककथाओं में अक्सर इन्हें शगुन-अपशगुन के साथ भी जोड़ा जाता है। जैसे कुछ युरोपीय संस्कृतियों में इन्हें चुड़ैलों का साथी माना जाता हैं। अंग्रेज़ी की एक तुकबंदी कहती है कि यदि एक अकेली मैगपाई दिखे तो बुरी खबर सुनने को मिलती है: “One for sorrow, two for joy; three for a girl, four for a boy; Five for silver, six for gold; Seven for a secret never to be told,” (हिंदी में यह कुछ इस तरह होगी: “एक यानी दुख, दो यानी खुशी; तीन यानी लड़की, चार यानी लड़का; पांच यानी चांदी, छह यानी सोना; सात यानी किसी को न बताने वाला राज़।”

लेकिन यह तो सभी मानेंगे कि मैगपाई दिखने में आकर्षक होती हैं। और इसकी कुछ सबसे सजीली (रंग-बिरंगी) प्रजातियां हिमालय में पाई जाती हैं।

नीली मैगपाई की कुछ निकट सम्बंधी प्रजातियां कश्मीर से लेकर म्यांमार तक में दिखना आम हैं। सुनहरी चोंच वाली मैगपाई (Urocissa flavirostris, जिसे पीली चोंच वाली नीली मैगपाई भी कहते हैं) की आंखें शरारती लगती हैं, और यह समुद्रतल से 2000 से 3000 मीटर ऊंचे स्थलों पर मिलती है। इससे थोड़ी कम ऊंचाई पर हमें लाल चोंच वाली मैगपाई दिखाई देती हैं, और नीली मैगपाई निचले इलाकों पर पाई जाती है जहां बड़ी तादाद में इंसान रहते हैं।

ट्रेकिंग पथ

पीली और लाल चोंच वाली मैगपाई सबसे अधिक दिखाई देती हैं पश्चिमी सिक्किम के ट्रैकिंग पथ पर, जो समुद्र तल से 1780 मीटर की ऊंचाई पर स्थित युकसोम कस्बे से शुरू होता है और लगभग 4700 मीटर की ऊंचाई पर गोचे ला दर्रे तक जाता है जहां से कंचनजंगा के शानदार नज़ारे दिखते हैं। इस ट्रेकिंग में आपका सफर थोड़ी ऊंचाई पर उष्णकटिबंधीय आर्द्र चौड़ी पत्ती वाले वन से शुरू होता है, उप-अल्पाइन जंगलों से गुज़रते हुए ऊंचाई पर आप वृक्षविहीन, जुनिपर झाड़ियों वाली जगह पर पहुंचते हैं। बीच में कहीं-कहीं ऐसे जंगल भी मिलते हैं जिनके घने आच्छादन से आप ढंके होते हैं, और जहां आपको पक्षियों की हैरतअंगेज़ विविधता और आबादी दिखती है।

सिक्किम गवर्नमेंट कॉलेज के प्राणी शास्त्रियों द्वारा किए गए क्षेत्रीय अध्ययनों से पता चला है कि इस क्षेत्र में पक्षियों की 250 से अधिक प्रजातियां पाई जाती हैं, और समुद्र तल से लगभग 2500 मीटर की ऊंचाई पर आप हर पांच मिनट के अंतराल पर लगभग 60 अलग-अलग पक्षियों को देख या सुन सकते हैं। सुनहरी चोंच वाली मैगपाई की कूक अक्सर इन पक्षियों के कलरव के साथ सुनाई देती है। इस मैगपाई का शरीर लगभग कबूतर जितना बड़ा होता है, लेकिन इसकी पूंछ 45 सेंटीमीटर लंबी होती है, जिससे इसकी कुल लंबाई 66 सेंटीमीटर हो जाती है। ज़मीन पर कीड़े-मकोड़ों-कृमियों की तलाश करते समय इसकी पूंछ ऊपर की ओर उठी रहती है; लेकिन पेड़ों से जामुन तोड़ते समय इसकी पूंछ नीचे की ओर झुक जाती है। इसकी उड़ान भी खास होती है: शुरुआत में थोड़े समय तक यह लगातार पंख फड़फड़ाती है, और फिर उसके बाद देर तक हवा में शांत तैरती रहती है।

फूलदार बुरुंश

सुनहरी चोंच वाली मैगपाई बुरुंश वृक्ष पर उस जगह घोंसला बनाती है जहां शाखाएं दो में बंटती हैं। उसका घोंसला टहनियों पर जल्दबाज़ी में घास की मुलायम तह लगाकर बनाया गया लगता है। इन घोंसलों में मई-जून में तीन से छह अंडे दिए जाते हैं। चूज़ों का पालन-पोषण माता-पिता दोनों मिलकर करते हैं। अच्छी बात है, जैसा कि तुकबंदी में कहा गया है – ‘दो यानी खुशी’।

नीली मैगपाई और लाल चोंच वाली मैगपाई दिखने में बहुत हद तक एक जैसी दिखती हैं, बस एक थोड़ी छोटी होती है। नीली मैगपाई जंगलवासी पक्षी नहीं है, और अक्सर गांवों के आसपास पाई जाती हैं। मैगपाई की सभी प्रजातियां या तो अकेले फुदकते हुए, या जोड़े में, या शोरगुल मचाते हुए 8-10 के झुंड में देखी जा सकती हैं।

जैसे-जैसे इंसानों की जंगलों में मौजूदगी बढ़ रही है, इस बात की चिंता बढ़ रही है कि ये पक्षी इस दखल का कितना सामना कर पाएंगे। बुरुंश झाड़ी के रंग-बिरंगे फूल पर्यटकों को आकर्षित करते हैं। पर्यटकों को ठहराने और उनकी सुविधाओं के लिए ग्रामीण अक्सर जलाऊ लकड़ी जैसे वन संसाधनों को दोहते हैं। आशा है कि कृषि की तरह पर्यटन भी एक वहनीय व्यापार करना सीखेगा। (स्रोत फीचर्स)

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डायनासौर की चोंच ने एक पारिस्थितिक नियम तोड़ा

न 1847 में जर्मन जीवविज्ञानी कार्ल बर्गमैन ने प्राणि विज्ञान की एक प्रवृत्ति को एक नियम के रूप में व्यक्त किया था: ‘किसी भी प्रजाति में, अपेक्षाकृत बड़ी साइज़ के जानवर तुलनात्मक रूप से ठंडे वातावरण में पाए जाते हैं, जबकि गर्म क्षेत्रों में तुलनात्मक रूप से छोटे कद-काठी के जानवर पाए जाते हैं।’ यह नियम अक्सर पक्षियों और स्तनधारियों पर लागू किया जाता है।

मसलन, सबसे बड़े पेंगुइन अंटार्कटिका में पाए जाते हैं। उत्तर की ओर (यानी भूमध्य रेखा की ओर) थोड़ा बढ़ें तो वहां औसत साइज़ के पेंगुइन मिलते हैं, जैसे मैगेलैनिक पेंगुइन। और लगभग भूमध्य रेखा पर सबसे छोटे पेंगुइन, गैलापागोस पेंगुइन, मिलते हैं। ऐसी ही प्रवृत्ति मनुष्यों में भी देखी जा सकती है। ऊंचे कद के लोग उच्च अक्षांशों वाले स्थानों, जैसे स्कैंडिनेविया और उत्तरी युरोप, में पाए जाते हैं।

लेकिन नेचर कम्युनिकेशंस में प्रकाशित एक हालिया पेपर कहता है कि यह नियम हमेशा लागू नहीं होता है। अपने विश्लेषण में शोधकर्ताओं ने इस नियम को केवल समतापी जानवरों (जो अपने शरीर का तापमान स्थिर बनाए रखते हैं) के एक उपसमूह पर ही लागू होता पाया है, और वह भी तब जब अन्य कारकों को शामिल न कर सिर्फ तापमान पर विचार किया गया हो। इससे लगता है कि बर्गमैन का ‘नियम’ वास्तव में नियम की बजाय अपवाद ही है।

अलास्का फेयरबैंक्स विश्वविद्यालय के लॉरेन विल्सन देखना चाहते थे कि क्या बर्गमैन का नियम डायनासौर पर भी लागू होता है। यह देखने के लिए उन्होंने मीसोज़ोइक युग (साढ़े 25 करोड़ से साढ़े 6 करोड़ वर्ष पूर्व) में विभिन्न जलवायु परिस्थितयों में रहने वाले डायनासौर और स्तनधारियों का डैटा एक मॉडल में डाला – इसमें सबसे उत्तरी स्थल, प्रिंस क्रीक फॉर्मेशन, के डायनासौर फॉसिल का डैटा भी था। विश्लेषण में अक्षांश और जंतुओं की साइज़ के बीच कोई सम्बंध नहीं दिखा।

जब यही विश्लेषण आधुनिक स्तनधारियों और पक्षियों के लिए किया गया तो परिणाम काफी हद तक वैसे ही थे, हालांकि आधुनिक पक्षियों में कुछ हद तक बर्गमैन का नियम लागू होता दिखा।

बहरहाल यह अध्ययन पारिस्थितिकी सिद्धांतों को समझने में जीवाश्मों के महत्व को रेखांकित करता है और बताता है कि जैविक नियम प्राचीन प्राणियों पर उसी तरह लागू होने चाहिए जैसे वे वर्तमान में जीवित प्राणियों पर लागू होते हैं। यदि हम आधुनिक पारिस्थितिकी प्रणालियों की वैकासिक उत्पत्ति को नज़रअंदाज करेंगे तो हम उन्हें समझ नहीं सकते हैं। मामले को और स्पष्ट करने के लिए और विस्तृत तथा विभिन्न जंतुओं पर अध्ययन की आवश्यकता है। (स्रोत फीचर्स)

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क्या यादों को मिटने से टाला जा सकता है

मारी याददाश्त एकदम पक्की हो, यह तो हम सभी की इच्छा होती है। लेकिन फिर भी हमारे दिमाग से कई बातें बिसर जाती हैं। बिसरना, स्मृति का दूसरा पहलू है जो जीवों को बदलते पर्यावरण के अनुरूप ढलने में मदद करता है। इसलिए स्मृति को पूरी तरह से समझने के लिए उनके बनने के साथ-साथ उनके बिसरने को भी समझने की ज़रूरत है, जिसके प्रयास वैज्ञानिक करते आए हैं।

ऐसे ही एक प्रयास में, तेल अवीव युनिवर्सिटी के अनुवांशिकीविद ओदेद रेचावी और उनकी एक छात्रा डैना लैंडशाफ्ट बर्लिनर ने गोलकृमि (Caenorhabditis elegans) की अल्पकालिक याददाश्त बढ़ाने का प्रयास किया। दरअसल, C. elegans कोई भी नई जानकारी सीखने के दो-तीन घंटे बाद ही उसे भूल जाते हैं।

तो, पहले तो शोधकर्ताओं ने कृमियों को उनकी एक पसंदीदा गंध को नापसंद करने के लिए प्रशिक्षित किया। इसके लिए उन्होंने इस गंध को कृमियों को तब सुंघाया जब वे बहुत देर के भूखे थे। गंध नापसंद करना सीखने के दो घंटे बाद कृमि गंध के साथ बने इस नकारात्मक सम्बंध को भूल जाते थे और गंध की ओर फिर खिंचे चले जाते थे। यानी यदि वे गंध की ओर जाने लगें तो माना गया कि वे नापसंदगी को भूल गए हैं।

फिर शोधकर्ताओं ने कृमियों को बर्फ में रखा। पाया कि कम से कम 16 घंटे तक ठंडे में रखने पर कृमियों की गंध सम्बंधी स्मृति बनी रहीं। लेकिन, जैसे ही उन्हें बर्फ से हटाया गया तो उनके स्मृति लोप की घड़ी चालू हो गई और तीन घंटे बाद वे गंध के प्रति अपनी घृणा को भूल गए।

एक अन्य प्रयोग में शोधकर्ताओं ने कृमियों को पहले रात भर बर्फ में रखा ताकि वे ठंडे वातावरण के प्रति अनुकूलित हो जाएं और फिर उन्हें गंध प्रशिक्षण दिया। और इसके बाद उनकी स्मृति बने रहने का समय मापा। वे हमेशा की तरह जल्दी ही गंध को भूल गए थे।

एक और प्रयोग में उन्होंने कृमियों के एक समूह को लीथियम औषधि (दरअसल लीथियम का लवण) दी और एक को कंट्रोल के तौर पर रखा। फिर उन्होंने कृमियों में गंध से नापसंद का सम्बंध बैठाया। उन्होंने पाया कि लीथियम ने सामान्य तापमान पर भी उनकी स्मृति 5 घंटे बरकरार रखी थी। लेकिन ठंडे वातावरण के प्रति अनुकूलित कृमियों में लीथियम देने से उनकी स्मृति पर कोई असर नहीं पड़ा था; उनकी स्मृति उसी रफ्तार से मिटी जितनी रफ्तार से गैर-लीथियम समूह की मिटी थी।

शोधकर्ताओं का कहना है कि इसमें डायएसाइलग्लिसरॉल नामक एक संकेतक अणु की भूमिका लगती है। C. elegans में यह अणु स्मृति और सीखने से सम्बंधित कोशिकीय प्रक्रिया को घटाने-बढ़ाने का काम करता है, और गंध-स्मृति के लिए अहम होता है। उनके इस निष्कर्ष का आधार यह है कि जब बर्फ एवं लीथियम से स्मृति लंबे समय तक बनी रही थी, तब उनमें डायएसाइलग्लिसरॉल के स्तर में कमी देखी गई थी। यह इसलिए भी उचित लगता है कि लीथियम उस एंज़ाइम को बाधित करने के लिए जाना जाता है जो डायएसाइलग्लिसरॉल का जनक है। बायपोलर समस्या-ग्रस्त व्यक्तियों में लीथियम की उपयोगिता का आधार शायद यही प्रक्रिया है।

यह भी दिखा कि स्मृति का बने रहना कोशिका झिल्ली की कठोरता से भी जुड़ा है, जो ठंड के कारण बढ़ जाती है। जिन कृमियों की कोशिका झिल्ली सामान्य कृमियों की कोशिका झिल्ली से अधिक सख्त थी, उनकी भूलने की दर सामान्य कृमियों की तुलना में धीमी थी, यहां तक कि सामान्य तापमान पर भी। इससे लगता है कि झिल्ली का सख्त होना भूलने को टालता है।

ये नतीजे बायोआर्काइव प्रीप्रिंट में प्रकाशित हुए हैं और समकक्ष समीक्षा के मुंतज़िर है। स्मृति बनने-बिगड़ने के महत्व के मद्देनज़र शोधकर्ता अन्य जीवों पर भी प्रयोग कर रहे हैं। (स्रोत फीचर्स)

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क्या वुली मैमथ फिर से जी उठेगा?

क कंपनी है कोलोसल जिसका उद्देश्य है विलुप्त हो चुके जंतुओं को फिर से साकार करना। इस बार यह कंपनी कोशिश कर रही है कि वुली मैमथ नाम के विशाल प्राणि को पुन: प्रकट किया जाए।

अपने इस प्रयास में कंपनी के वैज्ञानिक आजकल के हाथियों की त्वचा कोशिकाओं को स्टेम कोशिकाओं में परिवर्तित करने में सफल हो गए हैं। स्टेम कोशिकाएं वे कोशिकाएं होती हैं जो किसी खास अंग की कोशिका में विभेदित नहीं हो चुकी होती हैं और सही परिवेश मिलने पर शरीर की कोई भी कोशिश बनाने में समर्थ होती हैं। योजना यह है कि इन स्टेम कोशिकाओं में जेनेटिक इंजीनियरिंग की तकनीकों की मदद से मैमथ के जीन्स रोपे जाएंगे और उम्मीद है कि यह कोशिका विकसित होकर एक मैमथ का रूप ले लेगी।

कोलोसल का उद्देश्य है कि एशियाई हाथियों (Elephas maximus) का ऐसा कुनबा तैयार किया जाए जिसके शरीर पर वुली मैमथ (Mammuthus primigenius) जैसे लंबे-लंबे बाल हों, अतिरिक्त चर्बी हो और मैमथ के अन्य गुणधर्म हों।

देखने में तो बात सीधी-सी लगती है क्योंकि सामान्य कोशिकाओं को बहुसक्षम स्टेम कोशिकाओं में बदलने में पहले भी सफलता मिल चुकी है और जेनेटिक इंजीनियरिंग भी अब कोई अजूबा नहीं है। जैसे एक शोधकर्ता दल ने 2011 में श्वेत राइनोसिरस (Ceratotherium simum cottoni) और ड्रिल नामक एक बंदर (Mandrillus leucophaeus) से स्टेम कोशिकाएं तैयार कर ली थीं। इसके बाद कई अन्य जोखिमग्रस्त प्रजातियों के साथ भी ऐसा किया जा चुका है। जैसे, तेंदुए (Panthera uncia), सुमात्रा का ओरांगुटान (Pongo abelii) वगैरह। लेकिन पूरे काम में कई अगर-मगर हैं।

अव्वल तो कई दल हाथी की स्टेम कोशिकाएं तैयार करने में असफल रह चुके हैं। जैसे कोलोसल की ही एक टीम एशियाई हाथी की कोशिकाओं को स्टेम कोशिकाओं में तबदील करने में असफल रही थी। उन्होंने शिन्या यामानाका द्वारा वर्णित रीप्रोग्रामिंग कारकों का उपयोग किया था। अधिकांश स्टेम कोशिकाएं तैयार करने के लिए इसी विधि का इस्तेमाल किया जाता है।

इस असफलता के बाद एरिओना ह्योसोली की टीम ने उस रासायनिक मिश्रण का उपयोग किया जिसके उपयोग से मानव व मूषक कोशिकाओं को स्टेम कोशिकाओं का रूप देने में सफलता मिल चुकी थी। लेकिन इस उपचार के बाद हाथियों की अधिकांश कोशिकाएं या तो मर गईं, या उनमें विभाजन रुक गया या कई मामलों में वे इस उपचार से अप्राभावित रहीं। लेकिन चंद कोशिकाओं ने गोल आकार हासिल कर लिया जो स्टेम कोशिका जैसा था। अब टीम ने इन कोशिकाओं को यामानाका कारकों से उपचारित किया। लेकिन सफलता तो तब हाथ लगी जब उन्होंने एक कैंसर-रोधी जीन TP53 की अभिव्यक्ति को ठप कर दिया। इस तरह से शोधकर्ताओं ने एक हाथी से चार कोशिका वंश तैयार किए हैं।

अब अगला कदम होगा हाथी की कोशिकाओं में जेनेटिक संपादन करके मैमथ जैसे गुणधर्म जोड़ना। इसके लिए उन्हें यह पहचानना होगा कि वे कौन-से जेनेटिक परिवर्तन हैं जो हाथी को मैमथनुमा बना देंगे। यह काम पहले तो सामान्य कोशिकाओं में किया जाएगा और फिर स्टेम कोशिकाओं में। पहले संपादित स्टेम कोशिकाएं तैयार की जाएगी और फिर उन्हें ऊतकों (जैसे बाल या रक्त) में विकसित करने का काम करना होगा।

लेकिन उससे पहले और भी कई काम होंगे। जैसे संपादित स्टेम कोशिकाओं को किसी प्रकार से शुक्राणुओं व अंडाणुओं में बदलना ताकि उनके निषेचन से भ्रूण बन सके। यह काम चूहों में किया जा चुका है। इसका दूसरा रास्ता भी है – इन स्टेम कोशिकाओं को ‘संश्लेषित’ भ्रूण में तबदील कर देना।

एक समस्या यह भी आएगी कि भ्रूण तैयार हो जाने के बाद उनके विकास के लिए कोख का इंतज़ाम करना। इसके लिए टीम को कृत्रिम कोख का इस्तेमाल करना ज़्यादा मुफीद लग रहा है क्योंकि हाथी की कोख में विकसित होने के दौरान मैमथ भ्रूण का विकास प्रभावित हो सकता है। लिहाज़ा स्टेम कोशिकाओं से ही कोख तैयार करने की योजना है।

दरअसल, शोधकर्ताओं के लिए यह प्रयास जोखिमग्रस्त प्रजातियों के संरक्षण की दिशा में कदम है। और इससे जीव वैज्ञानिक शोध में मदद मिलने की भी उम्मीद है। जैसे वैकासिक जीव वैज्ञानिक विंसेंट लिंच का विचार है कि हाथियों की स्टेम कोशिकाओं पर प्रयोग यह समझा सकते हैं कि हाथियों को कैंसर इतना कम क्यों होता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://upload.wikimedia.org/wikipedia/commons/thumb/9/9c/Woolly_mammoth_model_Royal_BC_Museum_in_Victoria.jpg/1200px-Woolly_mammoth_model_Royal_BC_Museum_in_Victoria.jpg

पक्षी भी करते हैं ‘पहले आप!’, ‘पहले आप!’

हाथ हिलाकर विदा कहना, झुककर अभिवादन करना, ठेंगा दिखाना, ऐसे कई इशारे या भंगिमाएं हम अभिव्यक्ति के लिए इस्तेमाल करते हैं। हाल ही में वैज्ञानिकों ने आपस में इसी तरह मेलजोल करते एक ‘शिष्ट’ पक्षी जोड़े को देखा है।
जापान के नागानो में लिए गए वीडियो में दो जापानी टिट पक्षी (Parus minor) कैद हुए हैं। वीडियो में दिखता है कि जब पक्षियों का ये जोड़ा अपने चूज़ों के लिए भोजन लेकर घोंसले को लौटता है तो मादा घोंसले के पास वाली डाल पर जाकर बैठ जाती है और पंख फड़फड़ा कर अपने साथी को पहले घोंसले में जाने का इशारा करती है। जब साथी घोंसले के अंदर चला जाता है तो उसके पीछे-पीछे वह भी घोंसले मे चली जाती है।
करीब 8 पैरस माइनर जोड़ों के 300 से अधिक बार घोंसले में लौटने के अवलोकनों से पता चला कि मादाओं का फड़फड़ाना अधिक था; वे फड़फड़ा कर ज़ाहिर करती हैं कि उनके साथी पहले घोंसले में जाएं और वे उनके अंदर जाने तक रुकी रहती हैं। लेकिन जब मादा पंख नहीं फड़फड़ाती तो इसका मतलब होता है वह पहले घोंसले में जाना चाहती है। पक्षियों में ‘पहले आप’ की शिष्टता उजागर करते ये नतीजे करंट बायोलॉजी में प्रकाशित हुए हैं।
मादा पंख फड़फड़ाते हुए अपने साथी की ओर मुखातिब थी, न कि घोंसले की ओर। इससे पता चलता है वह केवल घोंसले का पता नहीं बता रही थी बल्कि कोई संदेश भी दे रही थी। रुचि की किसी चीज़ की ओर ध्यान आकर्षित करने का व्यवहार कौवों सहित अन्य पक्षियों में देखा गया है, लेकिन सांकेतिक इशारों को अधिक जटिल माना जाता है। इस तरह से संदेश देने के व्यवहार इसके पहले प्रायमेट्स के अलावा अन्य किसी प्राणि में नहीं देखे गए हैं।
इसका वीडियो यहां देख सकते हैं: https://www.science.org/content/article/after-you-female-bird-s-flutter-conveys-polite-message-her-mate (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://upload.wikimedia.org/wikipedia/commons/0/00/Parus_minor_%28side_s2%29.JPG

डिप्रेशन की दवाइयां और चूहों पर प्रयोग

जब डिप्रेशन यानी अवसाद के लिए कोई दवा विकसित होती है तो उसका परीक्षण कैसे किया जाता है? पिछले कुछ दशकों से वैज्ञानिकों के पास एक सरल सा परीक्षण रहा है। 1977 में निर्मित इस परीक्षण को जबरन तैराकी परीक्षण (forced swim test FST) कहते हैं। यह परीक्षण इस धारणा पर टिका है कि कोई अवसादग्रस्त जंतु जल्दी ही हाथ डाल देगा। लगता था कि यह परीक्षण कारगर है। देखा गया था कि डिप्रेशन-रोधी दवाइयां और इलेक्ट्रोकंवल्सिव थेरपी (ईसीटी या सरल शब्दों में बिजली के झटके) देने पर जंतु हार मानने से पहले थोड़ी ज़्यादा कोशिश करते हैं। यह परीक्षण इतना लोकप्रिय है कि हर साल लगभग 600 शोध पत्रों में इसका उल्लेख होता है।
जबरन तैराकी परीक्षण में किया यह जाता है कि किसी चूहे को पानी भरे एक टब में छोड़ दिया जाता है और यह देखा जाता है कि वह कब तक तैरने की कोशिश करता है और कितनी देर बाद कोशिश करना छोड़ देता है। ऐसा देखा गया है कि अवसाद-रोधी दवा देने के बाद चूहे ज़्यादा देर तक तैरने की कोशिश करते हैं।
परीक्षण में कई अगर-मगर होते हैं। जैसे चूहे के प्रदर्शन पर इस बात का असर पड़ता है कि वह पहले से कितने तनाव में था। यह भी देखा गया है कि चतुर चूहे समझ जाते हैं कि अंतत: शोधकर्ता उन्हें सुरक्षित बचा लेंगे। और सबसे बड़ी बात यह है कि चूहों पर असर के आधार पर यह नहीं कहा जा सकता कि वह दवा मनुष्यों पर भी काम करेगी। इन दिक्कतों के चलते जंतु अधिकार कार्यकर्ता (जैसे पीपुल फॉर एथिकल ट्रीटमेंट ऑफ एनिमल्स यानी पेटा) इस परीक्षण पर सवाल उठाते रहे हैं।
कुछ समय से शोधकर्ताओं के बीच भी इस परीक्षण को लेकर शंकाएं पैदा होने लगी हैं। खास तौर से इस बात को लेकर संदेह जताए जा रहे हैं कि क्या यह परीक्षण इस बात का सही पूर्वानुमान कर पाता है कि कोई अवसाद-रोधी दवा मनुष्यों पर कारगर होगी। इस परीक्षण का विरोध बढ़ता जा रहा है। एक चिंता यह है कि जबरन तैराकी परीक्षण निहायत क्रूर है और परिणाम सटीक नहीं होते।
2023 में ऑस्ट्रेलिया की राष्ट्रीय स्वास्थ्य व चिकित्सा अनुसंधान परिषद ने कह दिया था कि वह जबरन तैराकी परीक्षण करने वाले अनुसंधान के लिए पैसा नहीं देगी। यू.के. में निर्देश है कि यदि इस परीक्षण का उपयोग करना है तो उसे उचित ठहराने का कारण बताना होगा। फिर ऑस्ट्रेलिया के प्रांत न्यू साउथ वेल्स ने इसे गैर-कानूनी घोषित कर दिया। कम से कम 13 बड़ी दवा कंपनियों ने कहा है कि वे इस परीक्षण का उपयोग नहीं करेंगी। यूएस में प्रतिबंध तो नहीं लगाया गया है किंतु इसे निरुत्साहित करने की नीति बनाई है।
इस सबका एक सकारात्मक असर यह हुआ है कि शोधकर्ता अब नए वैकल्पिक परीक्षणों की तलाश कर रहे हैं। खास तौर से यह देखने की कोशिश की जा रही है कि मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े व्यवहारों की पड़ताल की जाए। जैसे जीवन का आनंद, नींद का उम्दा पैटर्न, तनाव के प्रति लचीलापन वगैरह। सोच यह है कि अवसाद को एक स्वतंत्र तकलीफ न माना जाए बल्कि कई मानसिक विकारों के हिस्से के रूप में देखा जाए। अलबत्ता, तथ्य यह है कि 2018 से 2020 के बीच अवसाद से सम्बंधित 60 प्रतिशत शोध पत्रों में जबरन तैराकी परीक्षण का उपयोग किया गया और बताया गया कि ‘यह अवसादनुमा व्यवहार’ का उपयुक्त द्योतक है।
बहरहाल, नए परीक्षणों की तलाश जारी है। जैसे फरवरी में न्यूरोसायकोफार्मेकोलॉजी जर्नल में प्रकाशित एक शोध पत्र में औषधि वैज्ञानिक मार्को बोर्टोलेटो ने ऐसे ही परीक्षण की जानकारी दी है। इस परीक्षण में चूहे को यह सीखना होता है कि वह पानी से बाहर निकलने के लिए वहां बने प्लेटफॉर्म्स पर चढ़ सकता है लेकिन जब वह उन पर चढ़ता है तो वे डूब जाते हैं। परीक्षण में यह देखा जाता है कि चूहा एक स्थिर प्लेटफॉर्म ढूंढने की कोशिश कब तक जारी रखता है। एक परीक्षण में पता चला कि चूहों को अवसाद-रोधी दवा प्लोक्ज़ेटिन देने पर या उन्हें कसरत कराने पर वे देर तक कोशिश करते रहे।
ऐसा ही एक विकल्प तंत्रिका वैज्ञानिक मॉरिट्ज़ रोसनर भी विकसित करने की कोशिश कर रहे हैं। अपने परीक्षण का उपयोग करते हुए उन्होंने दर्शाया है कि बायपोलर तकलीफ की दवा लीथियम देने पर चूहों का प्रदर्शन बेहतर रहा। उनके परीक्षण में एक नहीं बल्कि 11 व्यवहारों का अवलोकन किया जाता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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