हाथी शरीर का 10 प्रतिशत तक पानी गंवा सकते हैं

क हालिया अध्ययन से पता चला है कि किसी गर्म दिन में हाथी अपने शरीर का 10 प्रतिशत तक पानी गंवा देते हैं। यह ज़मीन पर पाए जाने वाले किसी भी जीव की तुलना में अधिक है।

यह समाचार लाड़-प्यार में पलने वाले चिड़ियाघर के हाथियों के लिए तो कोई मायने नहीं रखता, लेकिन वैश्विक तापमान में वृद्धि को देखते हुए जंगली हाथियों के लिए यह चिंता का विषय है। गौरतलब है कि हाथियों पर पहले से ही विलुप्त होने का खतरा मंडरा रहा है, ऐसे में पानी की कमी से उनकी जन्म-दर में कमी, बच्चे के लिए दूध की कमी और निर्जलीकरण के कारण मृत्यु की संभावना बढ़ जाएगी।

हाथियों को हर दिन सैकड़ों लीटर पानी की आवश्यकता होती है, लेकिन जलवायु परिवर्तन से उनकी पानी की ज़रूरतों में किस तरह के बदलाव होंगे यह अभी तक स्पष्ट नहीं है। इसके लिए संरक्षण जीव विज्ञानी खोरीन केंडल ने नार्थ कैरोलिना चिड़ियाघर के पांच अफ्रीकी सवाना हाथियों पर अध्ययन किया। साधारण पानी हाइड्रोजन और ऑक्सीजन से बना अणु होता है। केंडल और उनकी टीम ने तीन वर्षों के दौरान छह अवसरों पर हाथियों को हाइड्रोजन की बजाय हाइड्रोजन के भारी समस्थानिक ड्यूटेरियम से बने पानी (‘भारी पानी’) की खुराक दी। ड्यूटेरियम हानिरहित है। यह भारी पानी शरीर के पानी में घुल जाता है और जीवों द्वारा उत्सर्जित तरल में ट्रेस किया जा सकता है। वैज्ञानिकों ने नियमित रूप से 10 दिनों तक ‘भारी पानी’ की नपी-तुली खुराक देने के बाद रक्त के नमूने लिए और ड्यूटेरियम की बची हुई मात्रा के आधार पर यह पता लगाया कि हाथी कितनी तेज़ी से शरीर का पानी गंवा रहे हैं।  

रॉयल सोसाइटी ओपन साइंस में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार ठंडे मौसम (6 से 14 डिग्री सेल्सियस तापमान पर) में नर हाथी औसतन 325 लीटर तक पानी गंवा देते हैं जबकि गर्म दिनों (24 डिग्री सेल्सियस तापमान पर) में यह मात्रा औसतन 427 लीटर होती है और कभी-कभी 516 लीटर तक हो सकती है। यह मात्रा शरीर में उपस्थित कुल पानी का 10 प्रतिशत या शरीर के द्रव्यमान का 7.5 प्रतिशत तक है। इसलिए हाथियों को निर्जलीकरण के खतरनाक स्तर से बचने के लिए हर 2 से 3 दिन में कम से कम एक बार खूब पानी पीना पड़ता है। तुलना के लिए किसी गर्म वातावरण में घोड़े प्रतिदिन 40 लीटर पानी गंवाते हैं जो उनके शरीर के द्रव्यमान का 6 प्रतिशत है। मनुष्यों में यह मात्रा 3-5 लीटर प्रतिदिन है जो हमारे शरीर के द्रव्यमान का 5 प्रतिशत है। यह मात्रा मैराथन धावकों और फौजियों में दो गुनी होती है।

इस चर्चा में एक महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि वैश्विक तापमान में बढ़ोतरी के साथ हाथियों को अधिक पानी की आवश्यकता होगी। लेकिन पानी के स्रोत और पानी से भरपूर पेड़ों में कमी आने से समस्या काफी जटिल हो सकती है। ऐसे में संसाधनों की कमी के चलते मनुष्यों और हाथियों में संघर्ष के हालात और बिगड़ सकते हैं। कभी-कभी हाथी फसलों पर हमला कर देते हैं या फिर भूमिगत जल संरचनाओं को नष्ट करते हैं। इससे दोनों प्रजातियों में टकराव घातक हो जाता है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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बिल्लियों की धारियां कैसे बनती हैं?

चीतों, तेंदुओं के शरीर पर धब्बे या बिल्लियों के शरीर पर धारियां पाई जाती हैं। यह सवाल अनसुलझा रहा है कि कुछ जानवरों के शरीर के पैटर्न कैसे बनते हैं? अब, हडसनअल्फा इंस्टीट्यूट फॉर बायोटेक्नॉलॉजी के ग्रेगरी बार्श बताते हैं कि प्रकृति में पैटर्नों की व्याख्या करने वाला 70 साल पुराना सिद्धांत इस पहेली को सुलझाने में भी सक्षम है।

दरअसल 1952 में कंप्यूटिंग में अग्रणी एलन ट्यूरिंग ने बताया था कि प्रकृति में दिखने वाले पैटर्न संभवत: तब बनते हैं जब एक-दूसरे के कार्य को प्रेरित और बाधित करने वाले अणु ऊतकों में अलग-अलग गति से बहते हैं। इसके तीस साल बाद कुछ वैज्ञानिकों ने ट्यूरिंग के इस सिद्धांत पर एक परिकल्पना बनाई थी कि उत्प्रेरक अणु कोशिकाओं को रंग प्रदान करते हैं लेकिन साथ ही वे अणु अवरोधकों का भी निर्माण करने लगते हैं। अवरोधक अणु प्रेरकों की तुलना में अधिक तेज़ी से फैलते हैं और रंजकों का निर्माण रोक देते हैं। इस सिद्धांत के आधार पर विभिन्न रंग के फर या बालों के रंजक के पैटर्न के स्रोत का स्पष्टीकरण तो हुआ लेकिन शरीर पर पैटर्न बनने की शुरुआत कब और कहां होती है, यह सवाल अनसुलझा ही था।

इसलिए बार्श की टीम ने घरेलू बिल्लियों की चमड़ी के रंग के प्रेरकों और अवरोधकों को देखा। करीब एक दशक पहले उन्होंने बिल्लियों में टैबी नामक जीन की पहचान की थी। इस जीन में उत्परिवर्तन हो जाए तो टैबी बिल्लियों में धारियों की जगह काले धब्बे बन जाते हैं। हडसनअल्फा के आनुवंशिकीविद क्रिस्टोफर कैलिन ने बड़े और काले धब्बों वाले किंग चीतों में भी इसी जीन का उत्परिवर्तन पाया था। इससे लगता है कि जंगली व घरेलू दोनों बिल्लियों में रंग एक ही जीन के कारण आता है।

लेकिन विकास के दौरान अन्य जीन और उनमें हुए उत्परिवर्तन क्या करते हैं यह जानने के लिए कैलिन और उनके साथियों ने कई वर्षों तक जंगली बिल्लियों का गर्भाशय निकालकर बांझ बनाने वाले क्लीनिक से उनके हटाए गए ऊतकों का अध्ययन किया, इनमें कई गर्भवती बिल्लियों के भी ऊतक थे। उन्हें पहली बार त्वचा में अस्थायी मोटाई 28 से 30 दिन के भ्रूण में दिखी, बाद में इन्हीं जगहों पर काली धारियां बनती हैं।

इसके बाद शोधकर्ताओं ने प्रारंभिक अवस्था के भ्रूण की एक-एक त्वचा कोशिका से सक्रिय जीन पृथक किए और उन्हें अनुक्रमित किया। लगभग 20 दिन के भ्रूण में त्वचा के उस हिस्से में, जहां स्थायी रूप से काली धारियां बनने वाली थीं, Wnt संकेतों से सम्बंधित कुछ जीन्स की गतिविधि में तेज़ी दिखाई दी। Wnt संकेत कई जानवरों में विकास के दौरान कोशिका की भूमिका तय करने और वृद्धि के लिए ज़िम्मेदार होते हैं। इनमें सबसे सक्रिय जीन था Dkk4। बायोआर्काइव में शोधकर्ताओं ने बताया है कि Dkk4 जीन को निष्क्रिय करने वाले उत्परिवर्तन के कारण ही बिल्लियों की कुछ किस्मों (एबिसिनियन और सिंगापुरा) के शरीर के निशान बहुत छोटे-छोटे हो गए हैं। यह भी पाया गया कि घरेलू बिल्लियों में Wnt और Dkk4 जीन्स प्रेरक और अवरोधक की तरह कार्य करते हैं। गहरे रंग की त्वचा में ये लगभग समान मात्रा में मौजूद रहते हैं। लेकिन पीली रंगत वाली त्वचा में तेज़ी से फैलने वाला Dkk4 प्रोटीन Wnt संकेतों को बाधित कर देता है जिससे रंजक का निर्माण बंद हो जाता है। इसी के परिणामस्वरूप धारियां बनती हैं।(स्रोत फीचर्स)

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छिपकलियां भी परागण करती हैं!

मकरंद पान करती स्यूडोकॉर्डिलस सबविरिडिस

साल 2017 के अंत में दक्षिण अफ्रीका के ड्रैकन्सबर्ग पहाड़ों में परागण पारिस्थितिकी विज्ञानी रूथ कोज़ियन की नज़र एक अजीब से पौधे पर पड़ी। इस पौधे के फूलों का रंग हरा था और वे पौधे की पत्तियों के बीच नज़र नहीं आ रहे थे। फूल की गंध बहुत तीखी थी, और उनमें इतना मकरंद था कि कोई कीट उसमें डूब ही जाए।

आम तौर पर फूल चटख रंग के होते हैं जो पक्षियों, मधुमक्खियों और तितलियों जैसे परागणकर्ताओं को आकर्षित करते हैं। लेकिन इस पौधे के फूल हरे रंग के थे जो पत्तियों के बीच दिखाई ही नहीं पड़ते थे, और ज़मीन से बहुत करीब खिले थे। कोज़ियन को लगा कि यह पौधा, गुथरीया कैपेंसिस, पौधों की उस प्रजाति से सम्बंधित होगा जिनका परागण चूहे, हाथीनुमा छछूंदर जैसे छोटे स्तनधारी जीव करते हैं।

इसलिए शुरुआत में उन्होंने कैमरे से रिकार्डिंग सिर्फ रात में की। लेकिन जब पांच दिन तक कैमरे की पकड़ में वह परागणकर्ता नहीं आ सका तो उन्होंने कैमरे की गति-संवेदनशीलता सेटिंग्स बदलकर पूरे 24 घंटों की रिकॉर्डिंग करना शुरू कर दिया।

ऐसा करने पर उन्हें फूलों पर आती-जाती छिपकली की छवि दिखाई दी। यह ड्रेकेन्सबर्ग में पाई जाने वाली 26 सेंटीमीटर लंबी स्यूडोकॉर्डिलस सबविरिडिस थी। शोधकर्ताओं ने फुटेज में पाया कि मकरंद पीने के लिए ये छिपकलियां फूलों में अपने थूथन को अंदर तक धंसा देती हैं।

वैसे गेको और छिपकलियों की लगभग 40 प्रजातियां देखी गई हैं जो फूलों का मकरंद पीती हैं। लेकिन मकरंद पीने और परागण करने में अंतर है। अक्सर छिपकलियां पूरा फूल ही खा जाती हैं।

इसके बाद शोधकर्ताओं ने कुछ छिपकलियां पकड़ी तो पाया कि छिपकलियों के चिकने थूथन पर गुथरीया पौधे के पराग कण चिपके हुए थे। इसके बाद शोधकर्ताओं ने कुछ पौधों के पास छिपकलियों को जाने से रोका। तो उन्होंने पाया कि जिन पौधों के पास छिपकलियों को नहीं जाने दिया गया था, कुछ हफ्तों के बाद उन पौधों पर अन्य की तुलना में 95 प्रतिशत कम फल आए थे। फल बनने के लिए परागण आवश्यक होता है। फिर, शोधकर्ताओं ने प्रयोगशाला में कुछ नर फूलों के पराग कोशों को साफ किया और उन पर रंगीन पावडर छिड़का, और देखा कि अब भी ये छिपकलियां मादा फूलों के प्रजनन अंग तक रंगीन पावडर ले जाती हैं।

गुथरीया फूल

परागण विशेषज्ञ आज भी यह समझने में लगे हैं कि छिपकलियों को इन फूलों की ओर क्या चीज़ आकर्षित करती है और सरिसृपों द्वारा परागण किन परिस्थितियों में विकसित होता है और यह कितना महत्व रखता है। कारण यह है कि छिपकली द्वारा परागण की प्रक्रिया कठिन पर्यावरणों में ही विकसित होती है।

गुथरिया अब तक का ज्ञात दूसरा ऐसा पौधा है जो परागणकर्ता के रूप में छिपकली जैसे सरीसृपों का उपयोग करता है। इसके पहले मॉरीशस द्वीप पर पाए जाने वाले ट्रोकेशिया ब्लैकबर्नियाना के बारे में पता चला था। ट्रोकेशिया ब्लैकबर्नियाना का पेड़ औसतन तीन मीटर ऊंचा होता है जिस पर सुर्ख लाल रंग के फूल खिलते है, इस पेड़ का परागण एक गेको द्वारा किया जाता है। यह दिलचस्प है कि ट्रोकेशिया के लाल फूलों का रंग गेको के शरीर के लाल धब्बों से मेल खाता है और गुथरीया के फूलों के नीचे के हिस्से का नारंगी रंग छिपकली के शरीर के नारंगी धब्बों से मेल खाता है। इससे लगता है पौधों के फूल परागणकर्ता के अनुरूप हो गए थे।

ट्रोकेशिया और गुथरीया के बीच सिर्फ यही समानता नहीं है, बल्कि दोनों पौधों के फूल कप के आकार के होते हैं जिनमें पीले-नारंगी रंग का मकरंद होता है। देखा गया है कि ट्रोकेशिया के फूलों का रंगीन मकरंद परागणकर्ता गेको को आकर्षित करता है, इसलिए ऐसा लगता है कि गुथरिया में भी मकरंद का यह रंग पत्थरों के नीचे भी फूलों को खोजने में परागणकर्ता की मदद करता होगा।

बहरहाल, शोधकर्ता इस अनपेक्षित परागणकर्ता की खोज को लेकर काफी उत्साहित हैं।(स्रोत फीचर्स)

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पतंगों का ध्वनि-शोषक लबादा

ब्रिस्टल विश्वविद्यालय के ध्वनि जीव विज्ञानी मार्क होल्डरीड और उनकी टीम ने हाल ही में पता लगाया है कि पतंगों के ध्वनि-शोषक पंख उन्हें चमगादड़ों का शिकार बनने से बचाते हैं। पतंगों के पंख से जुड़ी शल्कों की परतें चमगादड़ द्वारा भेजी गई पराध्वनि (यानी ऊंची आवृत्ति की ध्वनि) को सोख लेती हैं। जिससे प्रतिध्वनि चमगादड़ों तक नहीं पहुंच पाती और पतंगे बच जाते हैं। गौरतलब है कि चमगादड़ आवाज़ें फेंकते हैं और किसी वस्तु से टकराकर आई उनकी प्रतिध्वनि की मदद से वस्तुओं की स्थिति का अनुमान लगाते हैं।

टीम को ये शल्की लबादे पतंगों की दो प्रजातियां, चीनी टसर मोथ (एंथेरा पेर्नी) और अफ्रीकी पतंगा डैक्टिलोसेरस ल्यूसिना, में दिखे। कांटे (फोर्क) जैसी संरचना वाले इन शल्कों की कई परतें पतंगों के पंखों की झिल्ली से जुड़ी होती हैं। शिकारी चमगादड़ों द्वारा छोड़ी गई अल्ट्रासाउंड आवृत्तियां जब इन शल्कों से टकराती हैं तो वे मुड़ जाते हैं और ध्वनि की ऊर्जा गतिज ऊर्जा में परिवर्तित हो जाती है। इससे वापस चमगादड़ों तक पहुंचने वाली प्रतिध्वनि बहुत दुर्बल होती है। अर्थात ये पतंगे चमगादड़ों के सोनार से ओझल या लगभग ओझल रहते हैं और शिकार होने से बच जाते हैं। इन दो पतंगों के चयन का एक विशेष कारण यह भी था कि इनमें चमगादड़ों द्वारा प्रेषित आवाज़ को सुनने के लिए कान नहीं होते। इन पतंगों में यह क्षमता शायद इसलिए विकसित हुई होगी क्योंकि ये निकट आते शिकारी चमगादड़ की ध्वनि को सुन नहीं सकते।

ये शल्क एक मिलीमीटर से भी छोटे होते हैं, और इनकी मोटाई केवल चंद सौ माइक्रोमीटर होती है। प्रत्येक शल्क ध्वनि की एक विशेष आवृत्ति पर अनुनाद करता है। लेकिन दसियों हज़ार शल्क मिलकर ध्वनि के कम से कम तीन सप्तक को अवशोषित कर सकते हैं। कुल मिलाकर स्थिति यह है कि प्रत्येक शल्क एक खास आवृत्ति पर अनुनाद करके उसे सोख लेता है लेकिन इनकी जमावट कुछ ऐसी होती है कि सब मिलकर एक महा-अवशोषक की तरह काम करते हैं।

पंख पर उभरे फोर्क जैसे शल्क

यह ध्वनि-शोषक लबादा 20 किलोहर्ट्ज़ से 160 किलोहर्ट्ज़ आवृत्ति के बीच काम करता है। और यह सबसे बढ़िया काम उन निम्नतर आवृत्तियों पर करता है जो चमगादड़ अपने शिकार का पता करने के लिए उपयोग करते हैं। लबादे ने 78 किलोहर्ट्ज़ पर सबसे अधिक ध्वनि, लगभग 72 प्रतिशत का अवशोषण किया।

पहले ये शोधकर्ता दर्शा चुके हैं कि कुछ पतंगों के पंखों पर उपस्थित रोम भी ध्वनि को सोखकर बचाव में मदद करते हैं। अब उन्होंने यह नई तकनीक खोज निकाली है। उम्मीद है कि ध्वनि अवशोषण की नई तकनीक से बेहतर ध्वनि अवशोषक उपकरण बनाने में मदद मिलेगी। घरों-दफ्तरों में ध्वनि-अवशोषक पैनल का स्थान ध्वनि-अवशोषक वॉलपेपर ले सकते हैं।(स्रोत फीचर्स)

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नरों को युद्ध करने पर मज़बूर करती मादाएं – डॉ. विपुल कीर्ति शर्मा

ब बेन्डेड नेवलों की दो सेनाएं आमने-सामने आती हैं तो उनके बीच वैसा ही युद्ध होता है जैसा मानव प्रतिद्वंद्वियों के बीच होता है। अक्सर विजेता समूह हारने वाले समूह के अड़ियल नेवलों को घेरकर खून से लथपथ कर देते हैं। जब नर युद्धरत होते हैं, एक मादा नेवला चुपके से अपने बच्चों के जीन में विविधता तथा जीवित रहने की संभावना बढ़ाने के लिए दुश्मन गुट में से अपना प्रजनन साथी तलाश लेती है।

प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेस में प्रकाशित शोधपत्र के मुताबिक अफ्रीकी बेन्डेड नेवलों (मंगोस मंगो) के गुटों में आपसी संघर्ष आम घटना है। परंतु आश्चर्यजनक बात तो यह है कि इन लड़ाइयों के पीछे एक मादा नेवला होती है। नेवलों के इस झगड़े में हमेशा मादा के दोनों हाथों में लड्डू होते हैं। एक तो नरों के कत्लेआम के चलते उनकी आबादी संतुलित रहती है। दूसरा, मादा को दुश्मन गुट के बहादुर नरों से प्रजनन करके बेहतर जीन्स प्राप्ति का फायदा मिलता है।

उपरोक्त नतीजे युगांडा के क्वीन एलिज़ाबेथ नेशनल पार्क में 20 वर्षों के अध्ययन से मिले हैं। सवाना में पाए जाने वाले बेन्डेड नेवले औसतन 20-20 सदस्यों के समूहों में रहते हैं जिनमें नर, मादा एवं बच्चे सम्मिलित होते हैं। इनका आवास भूमिगत सुरंगों में होता है जिसके बहुत से द्वार होते हैं। ये अपने मूल गुट में बने रहते हैं। निष्कासन अथवा सदस्यों की अधिक संख्या के कारण समूह के कुछ सदस्य नए गुट बनाते हैं। मूल गुट के साथ बने रहने से सदस्यों की सुरक्षा तो होती है किंतु एक ही समूह में प्रजनन होने के कारण आनुवंशिक विविधता की हानि होती है। ऐसे में गुट की मादाएं प्रजनन के लिए दूसरे गुटों के नरों की ओर आकर्षित होती हैं। अपनी प्रजाति और संतति के अस्तित्व को सुनिश्चित करने के लिए मादा अक्सर प्रतिद्वंद्वी समूहों के उपयुक्त नरों से प्रजनन करने के लिए अपने समूह के नरों को दूसरों के इलाके में ले जाकर युद्ध शुरू करवा देती है।

जब कोई मादा नेवला प्रजननशील होती है तो गुट के चौकीदार उसकी चौबीसों घंटे सुरक्षा करते हैं और गुट का प्रमुख नर ही उससे प्रजनन करता है। चौकीदारों की उपस्थिति में मादा का बाहरी गुट के नरों से प्रजनन करना असंभव होता है। ऐसी परिस्थितियों में चौकीदार नरों को दुश्मन गुट के इलाके में ले जाकर मादा उन्हें युद्ध में झोंक देती है। वैज्ञानिकों ने पाया कि प्रजननशील मादाएं गुट के फैसलों को नरों की तुलना में अधिक प्रभावित करती हैं। मादा के नरों के साथ इस अनुचित व्यवहार को वैज्ञानिक ‘शोषणमूलक नेतृत्व’ कहते हैं, जहां मादा को शायद ही कभी नुकसान होता है और कई बार बहुत सारे नर मारे जाते हैं। वयस्क नरों में से 10 प्रतिशत की मृत्यु अक्सर इसी प्रकार होती है। जैव विकास के नज़रिए से मादा की करतूत उचित लगती है। वैज्ञानिकों का आकलन है कि गुट के बाहर के नरों से उत्पन्न बच्चों के जीवित रहने की संभावना समूह के नरों से उत्पन्न बच्चों से अधिक होती है। अन्य किसी सामाजिक स्तनधारी में ऐसी घटना नहीं देखी गई है। प्लिस्टोसिन तथा होलोसिन युग के प्रारंभ में मानव की शिकारी आबादी में भी ‘शोषणमूलक नेतृत्व’ के कारण गुटीय युद्धों के दौरान 14-18 प्रतिशत नर मारे जाते थे। क्या अफ्रीकी बेन्डेड नेवले के समान मनुष्यों में भी शीर्ष नेतृत्व, बाकी समुदाय को युद्ध में भेजकर खुद सुरक्षित व फायदे में नहीं बना रहता?(स्रोत फीचर्स)

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क्या व्हेल नौकाओं पर हमला करती हैं?

पिछले दिनों स्पेन और पुर्तगाल के तटों पर किलर व्हेल द्वारा नौकाओं पर हमले की लगभग 40 घटनाएं रिपोर्ट हुई हैं। एक घटना में पुर्तगाल तट से 30 कि.मी. दूर नाविकों की शुरुआती जिज्ञासा तब डर में बदल गई जब किलर व्हेल लगभग 2 घंटों तक उनकी 45 फीट लंबी नौका के पेंदे में ज़ोरदार टक्कर मारती रहीं। किशोर व्हेल सबसे अधिक सक्रिय थीं। और लगता था कि वे जान-बूझकर नौकाओं पर हमला कर रही हैं। 

इस वर्ष जुलाई से अक्टूबर के दौरान स्पेन और पुर्तगाल के तटों पर इन जीवों द्वारा नौकाओं पर हमला करने के कई मामले सामने आए हैं। फॉरेंसिक समुद्र वैज्ञानिक अभी भी इन जटिल, बुद्धिमान और अत्यधिक सामाजिक समुद्री स्तनधारियों (तथाकथित ‘दुष्ट किलर व्हेल’) के इस व्यवहार को समझने की कोशिश कर रहे हैं।

अटलांटिक में किलर व्हेल का होना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। ये हज़ारों वर्षों से पुर्तगाल और स्पेन से सैकड़ों किलोमीटर के तट पर प्रवास करती ब्लूफिन ट्यूना मछलियों का शिकार करती हैं। लेकिन जब से मनुष्यों ने ब्लूफिन ट्यूना का शिकार करना शुरू किया है तब से किलर व्हेल्स के साथ हमारे सम्बंध काफी तनावपूर्ण हो गए हैं। स्पैनिश संरक्षण संगठन के अनुसार मनुष्यों द्वारा ब्लूफिन ट्यूना के शिकार के कारण 2011 में किलर व्हेल की संख्या घटकर 39 रह गई थी। लेकिन 2010 में अंतर्राष्ट्रीय नियंत्रण के बाद से वार्षिक कैच में कमी के बाद से जैसे ही ब्लूफिन ट्यूना की संख्या में वृद्धि हुई वैसे ही किलर व्हेल की संख्या भी बढ़कर 60 हो गई। फिर भी यह विलुप्तप्राय प्रजाति की श्रेणी में है।

सितंबर माह से शोधकर्ताओं ने कुछ तथ्य जुटाने का प्रयास शुरू किया। उन्होंने इन जीवों की पहचान करने के लिए संरक्षण संगठन द्वारा ली गई तस्वीरों का उपयोग किया। गौरतलब है कि प्रत्येक किलर व्हेल के पृष्ठीय पंख के पीछे एक विशिष्ट मटमैला पैच होता है जो फिंगरप्रिंट के रूप में काम करता है। इन तस्वीरों और वीडियो से अधिकांश घटनाओं में तीन युवा किलर व्हेल – ब्लैक ग्लैडिस, वाइट ग्लैडिस और ग्रे ग्लैडिस – को अधिक सक्रिय पाया गया। आम तौर पर किलर व्हेल (Orcinus orca) अपने परिवार के साथ काफी निकटता से जुड़े होते हैं। ये परिवार मातृ-प्रधान होते हैं और कई की अपनी बोली होती है। हालांकि अब तक के अध्ययन से शोधकर्ता यह नहीं बता पाए हैं कि ये तीन किस परिवार से सम्बंधित हैं। शोधकर्ताओं ने यह भी देखा है कि वाइट ग्लैडिस के सिर पर गंभीर चोट है जो शायद नौका की पतवारों को टक्कर मारने के कारण हो सकती है। ऐसी खबरें आते ही सोशल मीडिया पर कहा जाने लगा कि ये किलर व्हेल ‘बदले की कार्रवाई’ कर रही हैं। अलबत्ता, वैज्ञानिकों का निष्कर्ष है कि यह किलर व्हेल्स का एक खेल है जिसमें वे नौकाओं को टक्कर मारती हैं।

व्हेल सैंक्चुअरी प्रोजेक्ट की प्रमुख और तंत्रिका वैज्ञानिक लोरी मरीनो और उनके सहयोगियों ने वर्ष 2004 में एक मृत किलर व्हेल के मस्तिष्क का अध्ययन किया था। लोरी बताती हैं कि हम अक्सर प्रजातियों के व्यवहार को अच्छे या बुरे, आक्रामक या चंचल जैसी सरल श्रेणियों में रखने का प्रयास करते हैं जो उनको समझने का गलत तरीका है। हम इन घटनाओं का विवरण देने के लिए जिस भाषा का इस्तेमाल करते हैं वही घटना को रंगत देती है। लोरी और उनकी टीम इन घटनाओं को हमला नहीं बल्कि अंतर्क्रिया का नाम देते हैं।

समुद्र वैज्ञानिक रेनॉड स्टेफैनिस कुछ अलग तरह के व्यवहारों का संकेत देते हैं। अपनी नौका में जाते समय वे बताते हैं कि एक किशोर किलर व्हेल उनकी नौका का ऐसे पीछा कर रहा था जैसे वह उसे अपने जैसा कोई जीव समझ रहा हो। ऐसा करते हुए वो अपने चेहरे को नौका के प्रोपेलर में धकेल रहा था। ऐसे व्यवहार का कारण जो भी हो लेकिन यह चिंता का विषय तो है क्योंकि यह स्वयं किलर व्हेल्स के लिए और मछुआरों के लिए खतरनाक साबित हो सकता है। रेनॉड का एक अंदाज़ा यह भी है कि ऐसी घटनाओं से इन जीवों का मछुआरों से सीधे संघर्ष भी हो सकता है क्योंकि मछुआरों को ये अपनी रोज़ी-रोटी और जान दोनों के लिए खतरा नज़र आएंगे। यह स्थिति वास्तव में ऐसी कई जगहों पर देखी जा सकती है जहां मनुष्य तेंदुओं, बाघों या भेड़ियों जैसे जीवों को अपने करीब होने पर मार देते हैं। यदि इस तरह की घटनाएं होती रहीं तो मनुष्य किलर व्हेल को भी अपने लिए जानलेवा मानते हुए उनकी जान ले सकते हैं।

अंत में यह एक ऐसी जैविक पहेली है जिसको हल करना काफी महत्वपूर्ण है। रेनॉड अभी भी किलर व्हेल द्वारा बदला लेने की भावना के आम विचार को खारिज करते हैं। वे दशकों के अनुसंधान का हवाला देते हुए कहते हैं की यह एक सांस्कृतिक बदलाव का हिस्सा हो सकता है जो वास्तव में जीवों को जीवित रहने में मदद करता है। उदाहरण के रूप में वे बताते हैं कि एक समय पर कुछ किलर व्हेल्स ने नौकाओं से ट्यूना चुराने का हुनर हासिल कर लिया था और ऐसे किलर व्हेल परिवारों की संख्या काफी बढ़ गई थी। उनके पास कोई प्रमाण तो नहीं है, लेकिन हो सकता है कि उक्त ग्लैडिस उसी कुल के सदस्य हों।(स्रोत फीचर्स)

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एक बच्चा-चोर जंतु: नैकेड मोल रैट – डॉ. विपुल कीर्ति शर्मा

पूर्वी अफ्रीका के शुष्क घास के मैदानों के नीचे भूल-भूलैया जैसी सुरंगों में एक प्रकार की बदसूरत छछूंदर, नैकेड मोल रैट(Heterocephalusglaber) पाई जाती है। त्वचा पर बाल नहीं होते, इसलिए इन्हें नग्न मोल रैट कहते हैं। अधिकांश कृंतकों के विपरीत ये सामाजिक होती हैं। इनके समूहों में सदस्यों की संख्या 300 तक हो जाती है। पूरे समुदाय में केवल एक प्रजननशील जोड़ा रहता है और शेष सभी मज़दूर होते हैं।

हाल ही के शोध में पाया गया है कि चींटी और दीमकों के समान ही यह मोल रैट भी भोजन की उपलब्धता और इलाके में विस्तार करने के लिए आसपास मौजूद अन्य मोल रैट कॉलोनियों पर आक्रमण करते हैं और उनके बच्चों को चुराकर अपने समूह के मज़दूरों की संख्या में वृद्धि करते हैं। इनके इस व्यवहार से छोटी एवं कम एकजुटता वाली मोल रैट कॉलोनियां सिकुड़ती हैं और आक्रामक कॉलोनियों का विस्तार होता जाता है।

कीन्या के मेरु राष्ट्रीय उद्यान में शोध टीम को उपरोक्त व्यवहार नैकेड मोल रैट की गतिविधियों के अध्ययन के दौरान संयोगवश देखने को मिला।

एक दशक से चल रहे शोध में शोधकर्ताओं ने इनकी गतिविधियों पर नज़र रखने के लिए दर्जनों कॉलोनियों से मोल रैट पकड़-पकड़कर उनकी त्वचा के नीचे एक बहुत छोटी रेडियो फ्रिक्वेन्सी ट्रांसपॉन्डर चिप लगा दी थी। नई कॉलोनी के सदस्यों में चिप लगाने के दौरान शोधकर्ताओं को वहां पड़ोसी कालोनी के वे सदस्य दिखाई दिए जिन पर वे पहले ही चिप लगा चुके थे। आगे खोजबीन करने पर ज्ञात हुआ कि नई कॉलोनी की रानी के चेहरे पर युद्ध के दौरान बने घाव थे। शोध से जुड़े सेन्ट लुईस की वाशिंगटन युनिवर्सिटी के स्टेन ब्राउडे के लिए यह बात आश्चर्यजनक और नई थी क्योंकि इनकी कॉलोनियों के बीच प्रतिस्पर्धा की कोई बात ज्ञात ही नहीं थी बल्कि उन्हें तो आपसी सहयोग की भावना से रहने वाले जीव ही माना जाता था। ब्राउडे और उनके साथियों ने शोध के दौरान पाया कि 26 कॉलोनियों ने अपनी सुरंग की सरहदों को विस्तार देकर पड़ोसी कॉलोनियों पर अधिकार जमा लिया है। आक्रमण के आधे मामलों में तो छोटी कॉलोनी के सभी मोल रैट बेदखल कर दिए गए थे तथा आधे मामलों में छोटी कॉलोनी के सदस्यों को सुरंगों के किनारों तक खदेड़ दिया गया था। इसी अध्ययन के दौरान वैज्ञानिकों को ऐसा लगा कि हमले के दौरान छोटी कॉलोनी के बच्चों को भी चुरा लिया गया है। परंतु तब उन्नत जेनेटिक तकनीक के अभाव में वंशावली ज्ञात कर पुख्ता तथ्य परखना कठिन था। लेकिन बाद के वर्षों में ज्ञात हुआ कि अन्य कॉलोनियों के बच्चे मज़दूर बनकर बड़ी कॉलोनी के अंग बन गए थे। वैज्ञानिकों ने इन पर निगाह रखी और इनके जेनेटिक विश्लेषण से ज्ञात हुआ कि ये दूसरी कॉलोनी के चुराए हुए बच्चे थे। इन छछूंदरों के सामाजिक जीवन के अध्ययन से वैज्ञानिक यह जान पाए हैं कि इनके लिए सुरंगें बहुत मूल्यवान होती है। सुरंगों को खोदने के दौरान ही ज़मीन में पाए जाने वाले कंद इनका आहार होते हैं। कॉलोनी में जितने ज़्यादा मज़दूर होंगे सुरंगें उतनी ही बड़ी होंगी और अधिक भोजन उपलब्ध करा पाएंगी। इसलिए ये आस-पड़ोस की कॉलोनियों पर आक्रमण करके वयस्क सदस्यों को बेदखल कर देते हैं और केवल निश्चित उम्र के बच्चों को ही चुरा कर अपने समूह में सम्मिलित कर लेते हैं जो बड़े होकर इनके लिए मज़दूरी कर सकें।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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घुड़सवारी ने बनाया बहुजातीय साम्राज्य

ब तक, श्यून्गनू लोगों के बारे में जो भी लिखित जानकारी मिलती है वह उनके शत्रुओं द्वारा किए गए वर्णन से मिलती है। चीन के 2200 साल पुराने रिकॉर्ड बताते हैं कि कैसे मैदानों (वर्तमान के मंगोलिया) से आकर घुड़सवार-तीरंदाज़ श्यून्गनू लोगों ने चीन की उत्तर-पश्चिमी सीमा से प्रवेश कर आक्रमण किया।

श्यून्गनू साम्राज्य ने अपने बारे में कोई लिखित रिकार्ड नहीं छोड़े हैं। लेकिन जीव विज्ञान अब श्यून्गनू साम्राज्य की और अन्य मध्य एशियाई संस्कृति की कहानी बयां कर रहा है।

हाल ही में हुए दो अध्ययनों ने मध्य एशिया में मनुष्यों के फैलाव और इसमें घुड़सवारी की भूमिका की पड़ताल की है। इनमें से एक अध्ययन 6000 साल की अवधि के 200 से अधिक मनुष्यों के डीएनए का व्यापक सर्वेक्षण है। दूसरा अध्ययन श्यून्गनू साम्राज्य के उदय के ठीक पहले के घोड़ों के कंकालों का विश्लेषण है।

ये अध्ययन बताते हैं कि घोड़ों ने मनुष्यों के आवागमन के पैटर्न को नए आयाम दिए और लोगों को कम समय में लंबी दूरी तय करने में सक्षम बनाया।

संभवत: वर्तमान के कज़ाकस्तान के पास बोटाई संस्कृति ने लगभग 3500 ईसा पूर्व घोड़ों को पालतू बनाया था। शुरुआत में इन्हें मुख्यत: मांस और दूध के लिए पाला जाता था, और बाद में इनका इस्तेमाल घोड़ा-गाड़ी में किया जाने लगा।

पहला अध्ययन सेल पत्रिका में प्रकाशित हुआ है। सियोल नेशनल युनिवर्सिटी के चून्गवॉन जिओंग और उनकी टीम ने पूरे मध्य एशिया में मानव प्रवास को समझने के लिए मंगोलिया से प्राप्त मानव अवशेषों के डीएनए नमूनों का अनुक्रमण किया। नमूने 5000 ईसा पूर्व से लेकर चंगेज़ खान के मंगोल साम्राज्य की घुड़सवार संस्कृति के उदय तक यानी 1000 ईस्वीं तक के हैं।

पश्चिमी युरोपीय लोगों के आनुवंशिक अध्ययन से पता चल चुका है कि लगभग 3000 ईसा पूर्व यामन्या संस्कृति के चरवाहों ने मैदानों से आज के रूस और यूक्रेन की ओर प्रवास किया था और युरोप में एक बड़े आनुवंशिक बदलाव की शुरुआत की थी। कांस्य युगीन मंगोलियन कंकालों से मालूम पड़ता है कि यामन्या लोगों ने पूर्व का रुख भी किया था और वहां अपनी पशुपालक जीवनशैली की स्थापना की थी। लेकिन ताज़ा अध्ययन बताता है कि उन्होंने मंगोलिया में अपनी कोई स्थायी आनुवंशिक छाप नहीं छोड़ी।

जबकि इसके लगभग हज़ार साल बाद घास के मैदानों (स्टेपीस) की एक अन्य संस्कृति, सिंतश्ता, ने वहां अपनी स्थायी छाप छोड़ी। पूर्व में किए गए पुरातात्विक अध्ययनों से पता चला था कि वे मंगोलिया में दूरगामी सांस्कृतिक परिवर्तन लाए थे। 1200 ईसा पूर्व में घोड़ों से सम्बंधित कई नवाचार दिखे। जैसे घोड़ों के अच्छे डील-डौल और क्षमता के लिए चयनात्मक प्रजनन, नियंत्रण के लिए लगाम या नकेल, घुड़सवारी की पोशाक और काठी (जीन)।

प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज में प्रकाशित दूसरा अध्ययन इस बात की पुष्टि करता है कि इस समय मंगोलियाई लोग घुड़सवारी करने लगे थे। वर्तमान चीन के शिनजियांग प्रांत के तिआनशान पहाड़ों में मिले लगभग 350 ईसा पूर्व के ज़माने के घोड़े के कंकालों में घुड़सवारी के कारण होने वाले विकार दिखे। घुड़सवार के वज़न के कारण घोड़े की रीढ़ की हड्डी में चोट पहुंचती है और लगाम कसने और नकेल के कारण मुंह की हड्डियों का आकार बदल जाता है।

इसके थोड़े समय बाद ही श्यून्गनू साम्राज्य उभरा। उन्होंने अपने घुड़सवारी के कौशल का युद्ध में उपयोग किया और दूर-दूर तक अपना साम्राज्य फैलाया। लगभग 200 ईसा पूर्व श्यून्गनू लोगों ने युरेशिया की एक घुमंतू जनजाति को दुर्जेय सेना में तब्दील कर दिया, जिसने घास के मैदानों को पड़ोसी चीन का मुख्य प्रतिद्वंदी बना दिया।

श्यून्गनू साम्राज्य की 300 साल की अवधि के 60 मानव कंकालों के डीएनए अध्ययन से पता चलता है कि कैसे यह क्षेत्र एक बहुजातीय साम्राज्य बना। जब मंगोलिया के मैदानों में तीन घुड़सवार संस्कृतियां पास-पास रहती थी तब लगभग 200 ईसा पूर्व तेज़ी से आनुवंशिक विविधता बढ़ी। पश्चिमी और पूर्वी मंगोलियाई लोगों का आपस में मेल हुआ और वे अपने जीन्स दूर-दूर तक ले गए, वर्तमान ईरान और मध्य एशिया तक भी। जिओंग का कहना है कि इसके पहले तक इतने बड़े स्तर पर लोगों में मेल-जोल नहीं हुआ था। श्यून्गनू लोगों में पूरी युरेशियन आनुवंशिक प्रोफाइल दिखती है।

इन परिणामों से पता चलता है कि घोड़ों ने मध्य एशिया के मैदान तक पहुंच संभव बनाई। श्यून्गनू के उच्च वर्ग के लोगों की कब्रों से मिली पुरातात्विक सामग्री – जैसे रोमन ग्लास, फारसी वस्त्र और यूनानी चांदी के सिक्के – बताती हैं कि उनकी पहुंच दूर-दूर तक थी। लेकिन आनुवंशिक साक्ष्य बताते हैं कि बात सिर्फ व्यापार तक सीमित नहीं थी बल्कि इससे अधिक थी। श्यून्गनू काल के ग्यारह कंकालों के अध्ययन से पता चला है कि इनकी आनुवंशिक छाप उन सरमेशियाई घुमंतू योद्धाओं जैसी है जिन्होंने काले सागर के उत्तर में राज किया था।

शोधकर्ता अब जीनोम विश्लेषण की मदद से पता लगाना चाहते हैं कि इस खानाबदोश साम्राज्य ने किस तरह काम किया।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कोरोनावायरस के चलते मिंक के कत्ले आम की तैयारी

कुछ समय पहले डेनमार्क के स्वास्थ्य अधिकारियों ने कहा था कि मिंक और लोगों में सार्स-कोव-2 के उत्परिवर्तनों के चलते कोविड-19 टीकों की प्रभावशीलता खतरे में पड़ सकती है। इस खबर के मद्देनज़र डेनमार्क के प्रधानमंत्री ने 4 नवंबर को घोषणा की कि मिंक-पालन समाप्त किया जाए और डेढ़ करोड़ से भी अधिक मिंक को मौत के घाट उतार दिया जाए। इस घोषणा से बहस छिड़ गई और वैज्ञानिकों द्वारा डैटा विश्लेषण किए जाने तक इस फैसले को स्थगित कर दिया गया। गौरतलब है कि मिंक एक प्रकार का उदबिलाव होता है जिसे विर्सक भी कहते हैं।

अब, डैटा की समीक्षा में युनिवर्सिटी ऑफ ऑक्सफोर्ड की एस्ट्रिड इवर्सन का कहना है कि ये उत्परिवर्तन अपने आप में चिंताजनक नहीं हैं क्योंकि इस बात के बहुत कम सबूत हैं कि मिंक में हुए ये उत्परिवर्तन सार्स-कोव-2 वायरस को लोगों में आसानी से फैलने में मदद करते हैं,या वायरस को अधिक घातक बनाते हैं या चिकित्सा और टीकों की प्रभाविता को कम करते हैं।

लेकिन फिर भी कुछ वैज्ञानिकों को लगता है कि मिंक को मारना शायद आवश्यक है क्योंकि जून के बाद से 200 से अधिक मिंक फार्म में यह वायरस तेज़ी से और अनियंत्रित तरीके से फैला है। इसके चलते ये वायरस के स्रोत हो गए हैं जहां से वह लोगों को आसानी से संक्रमित कर सकता है। डेनमार्क में मिंक की संख्या वहां की लोगों की आबादी की तीन गुना है, और देखा गया है कि जिन फार्म के मिंक संक्रमित हुए हैं उन इलाकों के लोगों में कोविड-19 के मामले बढ़े हैं। अंतत: 10 नवंबर को डेनमार्क सरकार ने किसानों से मिंक का खात्मा करने का आग्रह किया।

40 मिंक फार्म से लिए गए नमूनों में वायरस के 170 संस्करण दिखे। और डेनमार्क के कुल कोविड-19 मामलों के 20 प्रतिशत मामलों में लगभग 300 संस्करण दिखे, ये संस्करण मिंक में भी देखे गए। अत: माना जा रहा है कि ये उत्परिवर्तन पहले मिंक में उभरे थे।

मिंक और लोगों के सार्स-कोव-2 के स्पाइक प्रोटीन में भी कई उत्परिवर्तन देखे गए थे। यह वायरस स्पाइक प्रोटीन के ज़रिए ही कोशिकाओं में प्रवेश करता है। स्पाइक प्रोटीन में परिवर्तन प्रतिरक्षा प्रणाली की संक्रमण को पहचानने की क्षमता को प्रभावित कर सकता है। कई टीके प्रतिरक्षा प्रणाली को स्पाइक प्रोटीन की पहचान करवाकर उसे अवरुद्ध करने पर आधारित हैं। विशेष रूप से स्पाइक प्रोटीन का क्लस्टर-5 नामक उत्परिवर्तन अधिक चिंता का विषय है। इसमें तीन एमिनो एसिड में बदलाव और दो स्पाइक प्रोटीन में दो एमिनो एसिड का विलोपन देखा गया। प्रारंभिक प्रयोगों में, कोविड-19 से उबर चुके लोगों की एंटीबॉडीज़ के लिए अन्य उत्परिवर्तित वायरस के मुकाबले क्लस्टर-5 उत्परिवर्तन वाले वायरस की पहचान करना ज़्यादा मुश्किल था। इससे लगता है कि इस संस्करण पर एंटीबॉडी उपचार या टीकों का कम असर पड़ेगा। और इसलिए मिंक को मारने की सलाह दी गई। मिंक में हुआ एक अन्य उत्परिवर्तन (Y453F) 300 से अधिक लोगों में दिखा था। इस संस्करण के भी स्पाइक प्रोटीन के एमिनो एसिड परिवर्तन में परिवर्तन हुआ है। और यह भी मोनोक्लोनल एंटीबॉडी से बच निकलता है। समीक्षकों का कहना है कि ये दावे संदेहास्पद हैं क्योंकि क्लस्टर-5 संस्करण बहुत कम मामलों में दिखा है – 5 मिंक फार्म और 12 लोगों में। जो संक्रमित लोग मिले हैं उनमें से कई मिंक फार्म पर काम करते थे और सितंबर के बाद से यह संस्करण दिखा भी नहीं है। लिहाज़ा टीकों और उपचार की प्रभाविता को लेकर कोई भी निष्कर्ष निकालना जल्दबाज़ी होगी। अलबत्ता, मिंकों की बलि तो चढ़ाई ही जाएगी।(स्रोत फीचर्स)

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कठफोड़वा में अखाड़ेबाज़ी – डॉ. विपुल कीर्ति शर्मा

दो जंतुओं में भोजन एवं प्रजनन के लिए झगड़ा होना आम बात है परंतु झगड़े से पूरे समुदाय का दो पक्षों में बंटवारा और गुटों का निर्माण जंतुओं के समाज में कम ही देखा गया है। कठफोड़वा (मेलानिर्पस फार्मिसिवोरस) समूह में रहने और प्रजनन करने वाले पक्षी हैं। शरद ऋतु के आगमन पर ये मेवे (नट्स) एकत्रित कर, पेड़ों में बनाए गए छेदों (भंडार) में रख देते हैं। इससे भीषण ठंड के समय भोजन की उपलब्धता उनके जीवित रहने की संभावना और प्रजननशीलता दोनों को बढ़ाती है। प्रजननकारी सदस्य की असामयिक मृत्यु और उसके इलाके को हथियाने के लिए नर या मादाओं के बीच सत्ता संघर्ष प्रारंभ हो जाता है। पड़ोसी दल भी इस गुटबाज़ी में शरीक हो जाते हैं।

हाल ही में वैज्ञानिकों ने एक स्वचालित रेडियो-टेलीमेट्री प्रणाली का उपयोग कर कठफोड़वों में भोजन तथा प्रजनन के लिए संघर्ष, सत्ता परिवर्तन और सामाजिक ढांचे को बेहतर तरीके से समझा है। ओल्ड डोमेनियन युनिवर्सिटी के बायोलॉजिकल साइंस विभाग में कार्यरत डॉ. सहस बर्वे का शोध करंट बायोलॉजी नामक शोध पत्रिका में प्रकाशित हुआ है। डॉ. बर्वे और उनकी टीम ने अपना शोध कार्य कैलिफोर्निया और दक्षिण-पश्चिम संयुक्त राज्य अमेरिका के तटीय जंगलों में किया।

कठफोड़वा का समाज जटिल होता है। प्रत्येक परिवार में अधिकतम 7 वयस्क नर होते हैं जो रिश्ते में भाई होते हैं। पूरा परिवार लगभग 15 एकड़ के शाहबलूत (ओक) पेड़ों के इलाके की रखवाली करके एक साथ रहता है। प्रत्येक नर एक से तीन मादाओं से प्रजनन करता है जो अक्सर दूर के रिश्ते की बहनें होती हैं। इनके परिवार में बाद में जन्मे सदस्य भी होते हैं जिन्हें हेल्पर या मददगार कहते हैं। मददगार सदस्य अपने मूल परिवार के साथ 5-6 वर्षों तक बने रहकर अपने सहोदरों के लिए दाई मां यानी पालन-पोषण का कार्य करते हैं। जब वे खुद का परिवार बनाने जितने बड़े हो जाते हैं तो नए इलाके खोजकर मूल परिवार से दूर चले जाते हैं। यदि हेल्पर दाई मां के कार्य छोड़कर उसी समूह में प्रजनन का प्रयास करते हैं तो सत्ता संघर्ष प्रारंभ हो जाता है। ऐसी परिस्थितियां तब निर्मित होती हैं जब मुखिया और उसकी मादाएं वृद्ध और कमज़ोर हो जाते हैं।

डॉ. बर्वे और उनकी शोध टीम ने 2018 से 2019 के बीच मादाओं के अभाव के कारण तीन कठफोड़वा परिवारों के सत्ता संघर्ष का नज़दीकी से अध्ययन किया। इलाके पर अपना अधिकार जमाने के लिए बलशाली मादा या नर कठफोड़वों के बीच आपस में युद्ध होता है। प्रतिदिन युद्ध प्रारंभ होने के पहले ही सभी कठफोड़वों को संदेश मिल जाता है और तमाशा-ए-युद्ध को देखने के लिए एक ही घंटे में दूर-दूर से अनेक तमाशबीन कठफोड़वा जमा हो जाते हैं। प्रत्येक कठफोड़वा पंख फैलाकर तथा चोंच से हमले कर अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करता है और प्रतिद्वंदी को खून से लथपथ, अंधा तथा अपंग कर देता है। विजेता कठफोड़वा को दर्जन भर परिवारों की लगभग 50 मददगार मादाओं का साथ मिलता हैं।

नई वयस्क कठफोड़वा मादाएं प्रतिदिन आसपास के इलाकों से आकर युद्ध करती थीं और वापस अपने आवास में लौट जाती थीं। मादाएं कई बार चार दिनों तक लगातार दस-दस घंटों तक युद्ध करती थीं। वैज्ञानिकों ने अनुमान लगाया है कि इस दौरान सभी तमाशबीन कठफोड़वा अपने समाज के सदस्यों के बारे में जानकारी प्राप्त करते हैं। दर्शकों के रूप में मौजूद रहने से उनके लिए सहोदरों के साथ नए गठजोड़, नए इलाके, योद्धाओं का स्वास्थ्य, इलाकों की संपन्नता आदि का आकलन करना संभव होता हैं। दर्शक के रूप में आए कठफोड़वा अपने अनाज के भंडार, इलाकों की रखवाली, रोज़मर्रा के कार्य और युद्ध-स्थल तक पहुंचने की थकान जैसे जोखिम भी मोल ले लेते हैं। ऐसा लगता है कि इतने जोखिम लेने के फायदे भी होंगे। वैज्ञानिकों को लगता है कि कठफोड़वा समाज के प्रत्येक सदस्य का व्यवहार पूरे समाज को प्रभावित करता है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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