क्यों कुछ जानवर स्वजाति भक्षी बन जाते हैं?

किसी को इस बात का बिलकुल भी अंदाजा नहीं था कि कैलिफोर्निया में कपास के खेतों को माहू (एफिड्स) के हमले से बचाने का एक प्रयास स्वजातिभक्षण विस्फोट का रूप ले लेगा। दरअसल हरे रंग के भुक्खड़ छोटे माहू पौधों से रस चूसकर उन पर फफूंदयुक्त अपशिष्ट और घातक विषाणु छोड़ जाते हैं। इससे फसल तबाह हो जाती है। कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के कीट विज्ञानी जे रोसेनहाइम की टीम ने कपास की फसल को इनके प्रकोप से बचाने के लिए उन पर स्थानीय माहू छोड़े जिन्हें बिग आइड एफिड्स कहते हैं।

कुछ समय के लिए तो सब ठीक-ठाक चला, हरे माहू पर नियंत्रण भी हुआ। लेकिन फिर, जैसे ही पौधों पर जगह कम पड़ने लगी तब कुछ अप्रत्याशित घटा: बिग आइड माहुओं ने हरे माहुओं पर हमला करना बंद कर दिया और एक-दूसरे का शिकार करने लगे, यहां तक कि वे अपने ही अंडों को भी खा गए।

इकॉलॉजी में प्रकाशित अपनी समीक्षा में शोधकर्ता बताते हैं कि जीव जगत में, एक-कोशिकीय अमीबा से लेकर सैलेमेण्डर तक में, स्वजाति भक्षण यानी अपने जैसे जीवों का भक्षण देखा जाता है। लेकिन यह इतना भी आम नहीं है; शोधकर्ताओं ने इसका कारण भी स्पष्ट किया है।

पहला तो स्वजाति भक्षण जोखिम भरा है। यदि किसी जानवर के पास पैने पंजे और दांत हैं, तो ज़ाहिर है कि उसके बंधुओं और साथियों के पास भी पैने पंजे और दांत होंगे। उदाहरण के लिए, मादा मेंटिस संभोग के दौरान अपने से छोटे कद-काठी के नर का सरकलम करने के लिए कुख्यात है, लेकिन कभी-कभी प्रतिस्पर्धा समान कद-काठी वाली अन्य मादा के साथ हो जाती है। जब एक मादा दूसरी की टांग को चबा डालती है तो दूसरी किसी भी तरह अपनी प्रतिद्वंद्वी मादा को मार डालती है।

रोगों की दृष्टि से भी स्वजाति भक्षण जोखिम पूर्ण लगता है। कई रोगजनक मेजबान विशिष्ट होते हैं, इसलिए यदि कोई स्वजाति भक्षी अपने किसी संक्रमित साथी को खाता है तो उस साथी का संक्रमण मिलने की भी संभावना होती है। कुछ मानव समुदायों या समूहों को इसके कारण मुश्किलों का सामना करना पड़ा है। इसका सबसे प्रसिद्ध उदाहरण है कुरु नामक दुर्लभ और घातक मस्तिष्क रोग का प्रसार। इसने 1950 के दशक में न्यू गिनी के फोर लोगों को तबाह कर दिया था। कुरु रोग समुदाय के एक अंत्येष्टि अनुष्ठान के माध्यम से पूरे फोर समुदाय में फैला था। इसमें मृतक का परिवार मृतक का मांस (मस्तिष्क सहित) पका कर खाते हैं। जब फोर समुदाय ने इस अनुष्ठान को बंद कर दिया तो उनमें कुरु का प्रसार रुक गया था।

अंत में स्वजाति भक्षण किसी जीन को हस्तांतरित करने का सबसे बुरा तरीका है। जैव विकास के दृष्टिकोण से अंतिम चीज़ है अपनी संतान को खाना। यही एक कारण है कि बड़ी आंखों वाले एफिड अपनी संतानों को खाकर अपनी आबादी को सीमित रखते हैं। यदि वे संख्या में बहुत अधिक हो जाते हैं – जैसा कि एफिड प्रयोग के मामले में हुआ – तो सभी जगह उनके अंडे होते हैं। और चूंकि वे अपने अंडों को नहीं पहचान पाते तो वे स्वयं के अंडे भी खा जाते हैं।

हालांकि स्वजातिभक्षण कोई वांछनीय चीज़ नहीं है, लेकिन कुछ परिस्थितियां इस जोखिम पूर्ण व्यवहार को उपयुक्त बना देती हैं। यदि कोई जीव भूख से मरने वाला है तो अपने किसी सगे या वारिस को खाकर वह अपना अस्तित्व तो बचा ही रहा है। देखा गया है कि भूख कभी-कभी सैलेमेण्डर के लार्वा को अपने साथी को कुतरने या खाने के लिए उकसाती है।

अपनी समीक्षा में शोधकर्ता बताते हैं कि विशिष्ट हार्मोन – अकशेरुकियों में ऑक्टोपामाइन और कशेरुकी जीवों में एपिनेफ्रिन – स्वजाति भक्षण में वृद्धि के लिए ज़िम्मेदार हैं। जैसे-जैसे प्रजाति की आबादी अधिक होने लगती है और भोजन मिलना मुश्किल हो जाता है तो इन हार्मोन की मात्रा बढ़ने लगती है। और भूख से त्रस्त जीव जो भी सामने आता है उसे झपटने लगते हैं।

अध्ययन यह भी बताता है कि कैसे कुछ परिस्थितियां कुछ युवा उभयचरों जैसे टाइगर सेलेमैण्डर और कुदाल जैसे पैर वाले मेंढक को महास्वजातिभक्षी बना देते हैं। जब किसी तालाब में बहुत सारे लार्वा होते हैं तो कुछ टैडपोल स्वजातिभक्षी रूप धारण कर लेते हैं। इनमें जबड़े बड़े हो जाते हैं और नकली दांत निकल आते हैं। इसी तरह का स्वजाति भक्षण घुन, मछली और यहां तक कि फल मक्खियों में भी पनपता है। फल मक्खियों में तो ऐसे जीव अपने साथियों की तुलना में 20 प्रतिशत अधिक दांतों से लैस हो जाते हैं।

अन्य जीव जैसे खूंखार केन टोड इसका विपरीत तरीका अपनाते हैं। यदि भूखे स्वजाति भक्षी केन टोड आसपास होते हैं तो अन्य टैडपोल का विकास तेज़ हो जाता है और वे इतने बड़े हो जाते हैं कि उन्हें निगलना असंभव हो जाता है।

रोसेनहाइम के मुताबिक स्वजाति भक्षण का परिणाम सकारात्मक होता है: इसके चलते कम संख्या वाली, स्वस्थ आबादी विकसित होती है। इसी कारण वे इसे बर्बर कहने से कतराते हैं। उनके मुताबिक मनुष्यों की बात हो तो अच्छी नहीं लगती लेकिन प्रकृति में संतुलन लाने में स्वजातिभक्षण का काफी योगदान है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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मोनार्क तितलियां संकटग्रस्त सूची में

हाल ही में वैज्ञानिकों ने नारंगी-काले पंखों वाली मोनार्क तितली की तेज़ी से घटती संख्या के मद्देनज़र संकटग्रस्त प्रजाति की सूची में डाल दिया है। अनुमान है कि उत्तरी अमेरिका में मोनार्क तितलियों की आबादी 10 वर्षों में 22-72 प्रतिशत के बीच घटी है।

अंतर्राष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ ने पहली बार प्रवासी मोनार्क तितली को संकटग्रस्त प्रजातियों की ‘रेड लिस्ट’ में शामिल किया है और यह ‘विलुप्ति’ से बस दो कदम दूर है।

मिशिगन स्टेट युनिवर्सिटी के संरक्षण जीवविज्ञानी निक हद्दाद कहते हैं कि इनकी गिरावट की दर चिंतनीय है। कल्पना की जा सकती है कि जल्द ही यह तितली और भी बुरी स्थिति में होगी। पूर्वी यू.एस.ए. की मोनार्क तितलियों पर किए गए अध्ययन के आधार पर हद्दाद का अनुमान है कि 1990 के दशक के बाद से तितलियों की आबादी में 85 से 95 प्रतिशत तक की गिरावट आई है।

ज्ञात कीट प्रजातियों में उत्तरी अमेरिका की मोनार्क तितलियां सबसे लंबा प्रवास करती हैं। मध्य मेक्सिको में जाड़ा बिताने के बाद ये तितलियां उत्तर की ओर प्रवास करती हैं। हज़ारों किलोमीटर लंबे सफर में ये कई पीढ़ियां पैदा करती हैं। दक्षिणी कनाडा पहुंचने वाली संतानें गर्मियों के अंत में वापस मैक्सिको की यात्रा शुरू कर देती हैं।

मोनार्क तितलियों का एक छोटा समूह तटीय कैलिफोर्निया में जाड़ा बिताता है, फिर वसंत और गर्मियों में रॉकी माउंटेन्स के पश्चिम में कई राज्यों में फैल जाता है। इस आबादी में पूर्वी मोनार्क की तुलना में और भी अधिक गिरावट देखी गई है। हालांकि पिछले जाड़ों में इनकी संख्या में थोड़ी वृद्धि दिखी थी।

मध्य और दक्षिण अमेरिका की गैर-प्रवासी मोनार्क तितलियों को लुप्तप्राय की श्रेणि में शामिल नहीं किया है।

पश्चिमी तितलियों की निगरानी करने वाली और गैर-मुनाफा संस्था ज़ेर्सेस सोसाइटी की एम्मा पेल्टन का कहना है कि तितलियां उनके घटते आवास स्थलों और खरपतवार-नाशकों व कीटनाशकों के बढ़ते उपयोग के साथ-साथ जलवायु परिवर्तन के कारण खतरे में हैं।

इन तितलियों की इल्लियां मिल्कवीड के पौधे पर पलती हैं। ऐसे पौधे लगाकर इन तितलियों को बचाया जा सकता है।

संयुक्त राज्य अमेरिका ने मोनार्क तितली को जोखिमग्रस्त प्रजाति अधिनियम के तहत अधिसूचित नहीं किया है, लेकिन कई पर्यावरण समूहों का मानना है कि इसे सूचीबद्ध किया जाना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कठफोड़वा के मस्तिष्क की सुरक्षा का सवाल

ह तो सब जानते हैं कि कठफोड़वा ज़ोरदार प्रहार करके पेड़ों में कोटर बनाता है। इस प्रहार के दौरान उसका दिमाग महफूज़ कैसे रहता है?

लंबे समय से वैज्ञानिक मानते आए हैं कि पेड़ पर चोंच से प्रहार करते समय कठफोड़वा की खोपड़ी की स्पंजी हड्डी उसके मस्तिष्क की सुरक्षा करती है। इसी से प्रेरणा लेकर इंजीनियरों ने सुरक्षा हेलमेट और शॉक-एब्सॉर्बिंग इलेक्ट्रॉनिक उपकरण डिज़ाइन किए हैं। लेकिन हालिया विश्लेषण से पता चला है कि कठफोड़वा का ध्यान अपने मस्तिष्क की सुरक्षा के बजाय प्रहार की ताकत पर अधिक होता है।

चाहे भोजन की तलाश हो, पेड़ में घर बनाना हो या अपने साथियों को लुभाना, कठफोड़वा प्रति सेकंड लगभग 20 बार अपनी चोंच से प्रहार करता है। और फिर अपने रोज़मर्रा के काम पर निकल जाता है।

यदि फुटबॉल मैच के दौरान विपरीत दिशा से आ रहे दो प्रतिद्वंदी आपस में टकराते हैं, तो टक्कर के बाद शरीर और सिर तो स्थिर हो जाते हैं लेकिन मस्तिष्क आगे गति करता रहता है। सामने वाला भाग दबाव और पिछला भाग खिंचाव महसूस करता है जिसके कारण कभी-कभी मस्तिष्क को गंभीर क्षति पहुंचती है।

इस विषय में युनिवर्सिटी ऑफ एंटवर्प के बायोमेकेनिस्ट और इस अध्ययन के प्रमुख लेखक सैम वान वासेनबर्ग बताते हैं कि कठफोड़वा मानव मस्तिष्काघात सीमा से तीन गुना अधिक त्वरण से चोंच मारने के बावजूद बिना किसी नुकसान के बच निकलता है। इस लचीलेपन ने पूर्व में शोधकर्ताओं को पक्षियों की रक्षा करने वाली विशेष संरचना की खोज करने के लिए प्रेरित किया था। कुछ विशेषज्ञों का अनुमान था कि इसकी खोपड़ी की स्पंजी हड्डी एयरबैग के रूप में कार्य करती है जबकि कुछ अन्य के अनुसार इसकी लंबी जीभ मस्तिष्क के लिए सीटबेल्ट का काम करती है।  

वैन वासेनबर्ग और उनके सहयोगियों ने एक नया तरीका अपनाया। उन्होंने चोंच मारने वाले पक्षियों में प्रशामक प्रभाव का पता लगाने का प्रयास किया। इसके लिए शोधकर्ताओं ने तीन प्रजातियों के छह कठफोड़वों के 109 हाई-स्पीड विडियो रिकॉर्ड किए। करंट बायोलॉजी में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार लकड़ी पर प्रहार करते कठफोड़वा की चोंच और सिर के विशेष बिंदुओं को ट्रैक करते हुए वैज्ञानिकों ने पाया कि कठफोड़वे की खोपड़ी सख्त बनी रही यानी उसका सिर चोंच की तुलना में जल्दी स्थिर नहीं हुआ।       

रिकॉर्डिंग के आधार पर एक सिमुलेशन मॉडल भी तैयार किया गया। इस मॉडल में शॉक-एब्सॉर्बर जोड़ने के बाद एक बार फिर से परीक्षण किया गया जिससे यह स्पष्ट हुआ कि इन पक्षियों के मस्तिष्क की रक्षा करने में शॉक-एब्सार्बर की कोई भूमिका नहीं है। यदि सिर इस टकराव के प्रभाव को अवशोषित कर ले तो यह पक्षी इतना अधिक बल नहीं लगा पाएगा। यानी कठफोड़वा अपनी चोंच से कम गहराई तक लकड़ी खोद पाएगा। यानी शॉक एब्सॉर्बर हो तो उतनी ही लकड़ी खोदने के लिए उसे ज़्यादा ज़ोरदार प्रहार करना होगा। यह वैसा ही होगा जैसे दीवार पर कील ठोकना है और हथौड़े और कील के बीच तकिया रख दिया जाए।  

लेकिन सवाल तो यह है कि कठफोड़वा खुद को चोट लगने से कैसे बचाता है? इस अध्ययन के लेखक के अनुसार मस्तिष्क का आकार और अभिविन्यास उसकी रक्षा करते हैं। यहां तक कि सबसे मज़बूत प्रहार भी उसके मस्तिष्क पर बहुत कम प्रभाव डालता है। इसके अलावा, संभवत: कठफोड़वा में मस्तिष्क को होने वाली मामूली क्षति को रोकने और मरम्मत करने के लिए विशेष प्रणालियां होती हैं।    

अलबत्ता, कुछ वैज्ञानिकों ने अभी भी पक्षी के भीतर शॉक-एब्सार्बर के विचार को खारिज नहीं किया है। फिर भी यह अध्ययन काफी महत्वपूर्ण है जो कठफोड़वा को बेहतर ढंग से समझने में मदद कर सकता है। (स्रोत फीचर्स)

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भ्रमों का शिकार अंधा सांप – हरेन्द्र श्रीवास्तव

बारिश के मौसम में तरह-तरह के सांप दिखाई देते हैं। करैत, कोबरा, वाइपर, वुल्फ स्नेक, चेकर्ड कीलबैक और सैंड बोआ आदि घरों के समीप, खेत-खलिहानों और बाग-बगीचों में अक्सर दिख जाते हैं। इन्हीं दिनों में नम जगहों पर एक बेहद छोटे और पतले आकार का केंचुए जैसा अत्यन्त चमकीला जीव भी बहुत तेज़ी से ज़मीन और फर्श पर रेंगता दिखता है। दरअसल, यह केंचुआ नहीं बल्कि एक सांप है। इसे अंधा सांप कहते हैं। अंधा सांप दुनिया का सबसे छोटा सांप है। इसे तेलिया सांप के नाम से भी जाना जाता है।

इसे अंधा सांप क्यों कहते हैं? दरअसल इस सांप की आंखों की बनावट ऐसी होती है कि यह केवल उजाले और अंधेरे में फर्क कर सकता है। वैसे भी सांपों की दृष्टि क्षमता बेहद कमज़ोर होती है और अंधा सांप तो इस मामले में और भी ज़्यादा कमज़ोर होता है। अंधे सांप की आंखें दो काले बिन्दुओं की तरह दिखाई देती हैं। इन्हीं सब कारणों के चलते इन सांपों को अंधा सांप कहते हैं। अंग्रेज़ी में इसे ब्लाइंड स्नेक या वार्म स्नेक के नाम से भी जाना जाता है।

दुनिया भर में अंधे सांपों की लगभग 250 प्रजातियां पाई जाती हैं। भारत में 15 से भी ज़्यादा प्रजातियां रिकॉर्ड की गई हैं, जिनमें ब्राह्मणी ब्लाइंड स्नेक सबसे आम है। अंधे सांप मुख्यतः नमीयुक्त जगहों, भूमिगत स्थानों और सड़े-गले पत्तों के ढेर के नीचे पाए जाते हैं। ये सांप तापमान के उतार-चढ़ाव के प्रति बेहद संवेदनशील होते हैं। भौगोलिक विविधता एवं जलवायु के अनुसार अंधे सांपों का रंग कत्थई, काला और हल्का लाल होता है। मैंने अपने ग्रामीण क्षेत्रों में अंधे सांपों का अवलोकन करते हुए पाया कि ये प्रायः संध्याकाल अथवा गोधूलि बेला में ही ज़्यादा सक्रिय होते हैं।

बारिश का मौसम आते ही अंधे सांपों की सक्रियता बढ़ जाती है। वर्षा काल में गीली ज़मीन और फर्श पर बेहद तेज़ी से रेंगते इन खूबसूरत एवं विषहीन सांपों को देखकर अधिकांश लोग भ्रमवश इन्हें कोबरा और करैत जैसे विषैले सांपों का बच्चा समझ लेते हैं। अंधे सांपों के बारे में उचित जानकारी ना होने तथा इन्हें कोबरा और करैत का बच्चा समझने के चलते लोग इन्हें जान से मार देते हैं।

अंधे सांप का मुख्य आहार चींटियों तथा दीमकों जैसे कीटों के लार्वा हैं। वहीं, कई पक्षी और मेंढक आदि प्राणी अपने भोजन हेतु इन अंधे सांपों पर निर्भर हैं।

आधुनिक ज्ञान-विज्ञान के युग में भी हमारे समाज में सांपों के विषय में लोगों को ज़्यादा जानकारी नहीं है। लोगों के बीच इन अंधे सांपों के प्रति फैले भ्रम के चलते पता नहीं कितने अंधे सांप मारे जाते हैं। चींटी एवं दीमकों की आबादी को नियंत्रित कर ये हमारे पर्यावरण तथा खाद्य-शृंखला के संतुलन में अहम भूमिका निभाते हैं। आज ज़रूरत है इन सांपों के संरक्षण की और यह तभी संभव है जब हम इनके विषय में ज़्यादा जानें, अवलोकन करें तथा इनके पर्यावरणीय महत्व को समझें। (स्रोत फीचर्स)

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प्राचीन भेड़ियों से कुत्तों की उत्पत्ति के सुराग

कुत्तों का पालतूकरण शोधकर्ताओं के लिए एक पहेली रहा है और कोई स्पष्ट जानकारी नहीं है कि कुत्तों की उत्पत्ति कब और कहां हुई। प्राचीन कुत्तों से लेकर आधुनिक कुत्तों तक की हड्डियों के डीएनए के विश्लेषण के बावजूद कोई निर्णायक परिणाम हासिल नहीं हुआ था। इस गुत्थी को सुलझाने के लिए हाल ही में शोधकर्ताओं ने उन प्राचीन भेड़ियों के आवासों का अध्ययन किया, जिन्होंने कुत्तों को जन्म दिया है।

इस नए अध्ययन में, पुख्ता निष्कर्ष तो नहीं निकले हैं लेकिन कुत्तों के पालतूकरण का मोटा-मोटा क्षेत्र तय किया गया है – पूर्वी-युरेशिया। अध्ययन से यह संकेत भी मिले हैं कि कुत्तों को शायद एक से अधिक बार पालतू बनाया गया है।

गौरतलब है कि लगभग 15,000 से 23,000 वर्ष पूर्व मनुष्यों और भेड़ियों के बीच पालतूकरण की प्रक्रिया की शुरुआत हुई थी। यह लगभग पिछले हिमयुग का दौर था जब उच्च अक्षांश वाले क्षेत्रों में कड़ाके की ठंड और शुष्क जलवायु हुआ करती थी। अभी तक के सबसे प्रचलित सिद्धांत के अनुसार थोड़े कम डरपोक मटमैले भेड़िए मनुष्यों की जूठन खाने के लिए उनके रिहायशी क्षेत्रों के करीब आने लगे। समय के साथ सौम्य व्यवहार और लक्षणों के जीन अगली पीढ़ियों में पहुंचने लगे। मनुष्यों को ये नए साथी शिकार और रखवाली के लिए उपयोगी लगे।

इस घटना का सही स्थान बता पाने के लिए अभी कोई ठोस जानकारी तो नहीं है लेकिन आधुनिक कुत्तों के आनुवंशिक विश्लेषण से पता चलता है कि कुत्तों की उत्पत्ति पूर्वी-एशिया में हुई थी जबकि कुछ अन्य आनुवंशिक और पुरातात्विक साक्ष्यों से पता चलता है कि इनकी उत्पत्ति साइबेरिया, मध्य-पूर्व, पश्चिमी युरोप या एकाधिक क्षेत्रों में हुई थी।

नए अध्ययन में फ्रांसिस क्रिक इंस्टीट्यूट के पोंटस स्कोगलुंड और 16 देशों के विभिन्न सहयोगियों ने कुछ अलग तरीका अपनाया। उन्होंने पालतूकरण के शुरुआती समय के दौरान भेड़िया वंश का एक विशाल नक्शा तैयार किया। 81 शोधकर्ताओं ने इस विषय से सम्बंधित सूचनाओं को जमा किया और 66 प्राचीन भेड़ियों के जीनोम को अनुक्रमित किया। इसके अलावा पूर्व में प्रकाशित युरोप, साइबेरिया और उत्तरी अमेरिका के स्थलों से प्राप्त डैटा को भी शामिल किया। इन जीवों का काल लगभग 1 लाख वर्षों में फैला था। फिर टीम ने 72 प्राचीन जीनोम की तुलना एक कंप्यूटर सॉफ्टवेयर की मदद से करके एक भेड़िया वंश वृक्ष तैयार किया।

स्कोगलुंड के अनुसार इस अध्ययन से एक बात यह स्पष्ट हुई कि भेड़ियों की ये दूर-दूर की आबादियां आपस में किस कदर जुड़ी हुई थीं। पिछले हज़ारों वर्षों से एक-दूसरे से दूर रहने वाले भेड़ियों के बीच हालिया पूर्वज साझा हैं। इससे यह पता चलता है कि ये जीव भटकते रहते थे और समय-समय पर परस्पर संतानोत्पत्ति भी करते थे।

प्राचीन भेड़ियों के जीनोम की तुलना आधुनिक और प्राचीन कुत्तों के साथ करने पर शोधकर्ताओं का निष्कर्ष है कि कुत्ते युरोप के प्राचीन भेड़ियों की तुलना में पूर्वी एशिया के प्राचीन भेड़ियों से अधिक निकटता से सम्बंधित हैं। इससे लगता है कि कुत्तों का मूल प्रदेश पूर्वी युरेशिया था और पश्चिमी युरेशिया का दावा रद्द हो जाता है। लेकिन कोई भी प्राचीन भेड़िया कुत्तों का निकटतम पूर्वज साबित नहीं हुआ जिसका मतलब है कि कुत्तों के पालतूकरण का वास्तविक क्षेत्र अब भी एक रहस्य बना हुआ है।

एक विचित्र बात यह है कि युरोप के प्राचीन भेड़ियों और पश्चिमी युरेशिया और अफ्रीका के आधुनिक कुत्तों के बीच कुछ जीन साझा हैं। इससे लगता है कि युरोपीय भेड़िए या तो कुत्तों की पश्चिमी आबादी के संपर्क में रहे होंगे या इन्हें अलग से पालतू बनाया गया होगा।

प्राचीन भेड़ियों के जीनोम से यह भी देखने को मिलता है कि लगभग 30,000 पीढ़ियों के दौरान इन प्रजातियों में कौन से जीन्स आगे बढ़ते रहे। चेहरे और खोपड़ी के विकास से सम्बंधित जीन्स लगभग 40,000 वर्ष पहले से भेड़ियों में फैलता रहा था। शुरुआत में यह एक बिरला जीन था लेकिन 10,000 वर्ष की अवधि के भीतर यह 100 प्रतिशत भेड़ियों में पाया जाने लगा। यह आज के आधुनिक भेड़ियों और कुत्तों में भी पाया जाता है। इसी तरह से 45,000 से 25,000 वर्ष पूर्व की अवधि में गंध सम्बंधी जीन्स के समूह का भी इसी तरह प्रसार हुआ था।

स्कोगलुंड का मानना है कि भेड़िये मज़बूत जबड़ों और अधिक संवेदनशील नाक के विकास के साथ अनुकूलित हुए जिसने उन्हें हिमयुग की कठोर परिस्थितियों में जीवित रहने में मदद की होगी। (स्रोत फीचर्स)

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कृत्रिम रोशनी से जुगनुओं पर संकट

जुगनू अपनी टिमटिमाती रोशनी के लिए जाने जाते हैं। लेकिन लगता है कि हमारी भावी पीढ़ियां जुगनू देखने से वंचित रह जाएंगी। हाल में किए गए एक अध्ययन में यह खुलासा हुआ है कि भारत में कृत्रिम रोशनी जुगनुओं के प्रजनन पर असर डाल रही है। इस वजह से ये कीट प्रजनन नहीं कर पा रहे हैं। इससे इनके अस्तित्व पर खतरा मंडराने लगा है।

यह अध्ययन दुनिया भर में प्रकाश प्रदूषण के कारण बढ़ते पर्यावरणीय खतरों के प्रति सचेत करता है। आंकड़े बताते हैं कि पिछले 30 वर्षों में जुगनुओं की संख्या में भारी गिरावट देखी गई है। नेशनल सेंटर फॉर कोस्टल रिसर्च के शोधकर्ताओं ने आंध्र प्रदेश में एब्सकॉन्डिटा चाइनेंसिस प्रजाति के जुगनुओं की आबादी को रिकॉर्ड करने का प्रयास किया है। उनके शोध के मुताबिक, 2019 में बरनकुला गांव में 10 वर्ग मीटर क्षेत्र में जुगनुओं की संख्या औसतन 10 से 20 पाई गई जबकि 1996 में यह संख्या 500 से ज़्यादा थी।

ऐसे में कृत्रिम रोशनी के चलते लगातार जुगनुओं की घटती आबादी चिंता का विषय है। गौरतलब है कि देश में जुगनुओं पर अब तक बेहद कम अध्ययन किए गए हैं। ऐसे में इनकी लगातार घटती आबादी पर अंकुश लगाने को लेकर विशेष ध्यान नहीं दिया जा सका।

दरअसल, रात के समय में पड़ने वाली कृत्रिम रोशनी ने जीव-जंतुओं के जीवन को खासा प्रभावित किया है। पारिस्थितिकी तंत्र के संतुलन को बनाए रखने में छोटे-छोटे कीटों का अहम योगदान रहता है। इनका विनाश पारिस्थितिकी असंतुलन को बढ़ाने वाला है। आधुनिक ब्रॉड-स्पेक्ट्रम प्रकाश व्यवस्था इंसानों को रात में अधिक आसानी से रंगों को देखने में सक्षम बनाती है। लेकिन ये आधुनिक प्रकाश स्रोत अन्य जीव-जंतुओं की दृष्टि पर बहुत ज़्यादा नकारात्मक प्रभाव डालते है। इसके पीछे की वजह यह है कि मानव दृष्टि के लिए डिज़ाइन की गई कृत्रिम रोशनी में नीली और पराबैंगनी श्रेणियों का अभाव होता है, जो इन कीटों की रंगों को देखने की दृष्टि क्षमता के निर्धारण में अहम है। यह स्थिति कई परिस्थितियों में किसी भी रंग को देखने की कीटों की क्षमता को अवरुद्ध कर देती है।

बता दें कि जुगनू प्रकाश संकेतों के प्रति अत्यधिक संवेदनशील होते हैं। उनकी प्रजनन गतिविधियां एक विशेष समय के लिए सीमित होती है। कृत्रिम प्रकाश की वजह से वे भटक जाते हैं। इससे उनके अंधे होने का भी डर बना रहता है। दुनिया भर में कृत्रिम प्रकाश बढ़ा है, जिस वजह से इनकी संख्या घट रही है। 

विशेषज्ञों का कहना है कि जुगनू आबादी को प्रभावित करने वाले दो प्रमुख कारक कीटनाशकों का उपयोग और बढ़ता प्रकाश प्रदूषण है। यदि इन कारकों को नियंत्रित नहीं किया गया, तो अंततः जुगनू विलुप्त हो जाएंगे।

2018 के एक अध्ययन के मुताबिक, चीन और ताइवान के कुछ हिस्सों में पाए जाने वाली एक्वाटिका फिक्टा प्रजाति के जुगनुओं में रोशनी के पैटर्न अलग-अलग देखे गए हैं। इसकी वजह कृत्रिम प्रकाश है। इस वजह से साथी को खोजने की उनकी संभावना कम हुई है। प्रजनन के मौसम में जुगनू अपने प्रकाश के विशेष पैटर्न से एक-दूसरे को आकर्षित करते हैं। लेकिन कृत्रिम प्रकाश की वजह से जुगनुओं को अपने साथी को आकर्षित करने के लिए ज़्यादा ऊर्जा खर्च करनी पड़ती है।

चिंताजनक बात यह भी है कि तेज़ी से शहरीकरण के कारण दलदली भूमि के सिकुड़ने से जुगनुओं का आवास समाप्त हो गया है। जुगनू का जीवनकाल कुछ ही हफ्तों का होता है। वे गर्म, आर्द्र क्षेत्रों से प्यार करते हैं और नदियों और तालाबों के पास दलदलों, जंगलों और खेतों में पनपते हैं। स्वच्छ वातावरण की तलाश में और मच्छरों द्वारा फैलने वाली बीमारियों से निपटने के लिए, लोगों ने दलदलों को नष्ट कर दिया है और फलस्वरूप जुगनू के लिए अनुकूल माहौल नष्ट हो गया है।

पिछले कुछ वर्षों में कृत्रिम रोशनी के हस्तक्षेप के चलते न केवल जुगनुओं बल्कि सभी प्रकार के जीव-जंतुओं पर प्रभाव पड़ा है। यह देखा गया है कि पूरी दुनिया में रात के समय में प्रकाश व्यवस्था का स्वरूप पिछले करीब 20 वर्षों में नाटकीय रूप से बदला है।‌ एलईडी जैसे विविध प्रकार के आधुनिक रोशनी उपकरणों का चलन बढ़ा है। लेकिन हमें यह समझना होगा कि कृत्रिम प्रकाश से होने वाला प्रदूषण समस्त वातावरण को प्रदूषित करता है। प्रकाश प्रदूषण अमूमन पारिस्थितिकी तंत्र को बाधित करता है। कृत्रिम प्रकाश की तीव्रता बेचैनी को बढ़ा देती है और मानव स्वास्थ्य पर भी प्रतिकूल प्रभाव डालती है। कृत्रिम प्रकाश व्यवस्था को दुरुस्त करके न केवल हम कीटों पर पड़ने वाले विनाशी प्रभाव को कम कर सकते हैं, बल्कि हमारे अपने स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रतिकूल प्रभावों से भी बच सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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समुद्री खीरा खुद के ज़हर से नहीं मरता – प्रतिका गुप्ता

मुलायम और सुस्त चाल होने के बावजूद समुद्री खीरे यानी सी-कुकम्बर (Actinopyga echinites) वास्तव में जंतु हैं जो आश्चर्यजनक रूप से सख्तजान होते हैं। ये समुद्र के दुरूह और लगातार बदलते पेंदे में भोजन तलाशते हैं और विषैले बैक्टीरिया का सामना करते हैं। ये अपने सहोदर स्टारफिश की तरह शिकारियों और रोगजनकों से खुद को बचाने के लिए सैपोनिन्स नामक रक्षात्मक विषैले पदार्थ बनाते हैं।

अब, हालिया अध्ययन बताता है कि सी-कुकम्बर इकाइनोडर्म समूह के एकमात्र और उन गिने-चुने जीवों में से हैं जो ट्राइटरपेनॉइड सैपोनिन रसायन बनाते हैं। और तो और, उनका अद्वितीय चयापचय स्वयं उनको इस विष से सुरक्षित रखता है।

नेचर केमिकल बायोलॉजी में प्रकाशित अध्ययन के अनुसार सी-कुकम्बर ने अन्य इकाइनोडर्म तथा अन्य जंतुओं की अपेक्षा सैपोनिन्स को संश्लेषित करने का अलग ही तरीका विकसित किया है जिसके लिए वे भिन्न एंज़ाइम्स का उपयोग करते हैं। इसके फलस्वरूप उनमें ऐसी क्रियाविधि विकसित हुई है जो उन्हें स्वयं के सैपोनिन्स के विषैले प्रभाव से सुरक्षित रखती है।

वैज्ञानिक यह तो जानते थे कि सी-कुकम्बर ऐसे ट्राइटरपेनॉइड सैपोनिन्स बनाते हैं, जो जानवरों की तुलना में पौधों में अधिक पाए जाते हैं। ये ट्राइटरपेनॉइड सैपोनिन्स कोशिका झिल्ली में मौजूद कोलेस्टरॉल अणुओं से जुड़ जाते हैं और कोशिका की मृत्यु का कारण बनते हैं। नए अध्ययन में शोधकर्ताओं ने पाया कि सी-कुकम्बर कोलेस्टरॉल नहीं बनाते हैं और उनकी कोशिका झिल्लियों में भी इसकी बहुत कम मात्रा होती है; लिहाज़ा, वे सैपोनिन्स से अप्रभावित रहते हैं।

दरअसल पूर्व में पौधों के ट्राइटरपेनॉइड्स पर काम कर चुके नोइडा की एमिटी युनिवर्सिटी उत्तर के जीव विज्ञानी रमेश थिमप्पा और उनके साथी जानना चाहते थे कि सी-कुकम्बर में ये दुर्लभ यौगिक (ट्राइटरपेनॉइड्स) क्यों और कैसे बनते हैं।

सी-स्टार्स के सैपोनिन्स स्टेरॉयड आधारित होते हैं। ट्राइटरपेनॉइड्स और स्टेरॉल एक जैसे अणुओं से ही बनते हैं, और दोनों को बनाने के आणविक परिपथ में ऑक्सीडोस्क्वेलेन साइक्लेज़ (OSC) समूह के एंजाइमों की भूमिका होती है।

इकाइनोडर्म समूह के जंतुओं में इन विभिन्न क्रियापथों को समझने के लिए शोधकर्ताओं ने मनुष्यों, समुद्री अर्चिन और सी-स्टार के जीनोम में एक विशिष्ट OSC पर ध्यान दिया – लैनोस्टेरॉल सिंथेज़ (LSS)। LSS एंज़ाइम अधिकांश जंतु प्रजातियों में कोलेस्टरॉल व अन्य स्टेरोल निर्माण के लिए और स्टारफिश में सैपोनिन उत्पादन के लिए ज़रूरी है।

शोधकर्ताओं ने पाया कि सी-कुकम्बर में LSS बनाने वाला जीन तो नदारद था ही, इसके अलावा अन्य प्रजातियों में स्टेरॉल बनाने के लिए ज़िम्मेदार तीन अन्य एंज़ाइम भी नदारद थे। देखा गया कि इनकी बजाय सी-कुकम्बर के जीनोम में OSC एंज़ाइम बनाने के लिए दो अन्य जीन मौजूद थे।

आगे की जांच के लिए शोधकर्ताओं ने दो सी-कुकम्बर प्रजातियों (Apostichopus japonicus और Parastichopus parvimensis) से OSC एंज़ाइम्स के जीन लेकर एक ऐसी खमीर कोशिका में प्रत्यारोपित किए जिसमें LSS जीन नहीं था। दोनों ही जीन खमीर में LSS का निर्माण करवाने में विफल रहे। इससे पता चलता है कि सी-कुकम्बर के ये जीन LSS के कोड नहीं हैं।

शोधकर्ताओं ने पाया कि सी-कुकम्बर के OSC जीन्स स्टेरोल जैसे दो अणुओं का निर्माण करते हैं, और ये दोनों अणु ट्राइटरपेनॉयड के उत्पादन में शामिल थे। इन अणुओं ने यौगिकों को कोलेस्टरॉल जैसे अणुओं में भी परिवर्तित किया जो सी-कुकम्बर की कोशिका झिल्ली में पाए जाते हैं। ये अणु काम तो कोलेस्टरॉल के समान करते हैं, लेकिन कोलेस्टरॉल और इनके बीच जो अंतर है, वह सी-कुकम्बर को सैपोनिन्स की विषाक्तता से बचाता है।

एक अन्य प्रयोग में, शोधकर्ताओं ने सी-कुकम्बर के OSC जीन की उत्परिवर्तित प्रतियां खमीर कोशिकाओं में डालीं। पाया गया कि दो अलग-अलग उत्परिवर्तन LSS जीन द्वारा कोड किए गए एक एमिनो एसिड को प्रभावित करते हैं जो दोनों सी-कुकम्बर में OSC एंज़ाइमों के परिवर्तित कार्य के लिए ज़िम्मेदार हैं।

शोधकर्ता बताते हैं कि सी-कुकम्बर एकमात्र ऐसे ज्ञात जानवर हैं जिनमें दो OSC-कोडिंग जीन तो हैं लेकिन वे कोलेस्टरॉल नहीं बनाते। सी-कुकम्बर में दो ऐसे OSC-कोडिंग जीन का होना जंतुओं के लिहाज़ से एक असाधारण बात है जो दोनों LSS नहीं बनाते हैं।

सी-कुकम्बर से प्राप्त अर्क, विशेषकर सैपोनिन्स, औषधीय रूप से काफी मूल्यवान है। सैपोनिन्स का उपयोग टीकों में प्रतिरक्षा सहायक के रूप में किया जाता है, और इनमें शोथ-रोधी और कैंसर-रोधी गुण भी हो सकते हैं। शोधकर्ताओं को उम्मीद है कि भविष्य में वे सी-कुकम्बर, जो कि कई जगहों पर लुप्तप्राय है, को पीसे बिना पौधों और खमीर से इन यौगिकों को प्राप्त करने के तरीके विकसित कर लेंगे।

थिमप्पा कहते हैं कि इन प्राणियों को संरक्षित करना इस लिहाज़ से महत्वपूर्ण है कि ये मिट्टी में केंचुओं जैसा कार्य करते हैं। वे समुद्र तल के मलबे को साफ करते हैं और ऑक्सीजन युक्त रेत उत्सर्जित करते हैं। ये भूमिकाएं पर्यावरण के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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चाय पत्ती से जीवों की उपस्थिति के सुराग

र्षों से शोधकर्ता यह पता लगाते रहे हैं कि किसी क्षेत्र में कौन सी प्रजाति रहती हैं/थीं। इसके लिए वे कैमरा ट्रैप जैसे कई पारंपरिक तरीकों के अलावा हाल के वर्षों की नई विधियों का उपयोग करते हैं जो उन्हें उस क्षेत्र की हवा, पानी, मिट्टी वगैरह जैसी चीज़ों से भी जीवों के डीएनए (पर्यावरणीय डीएनए या ई-डीएनए) ढूंढने और निकालने में मदद करती हैं।

हाल ही में बायोलॉजी लेटर्स में प्रकाशित अध्ययन में ई-डीएनए के एक सर्वथा नए स्रोत, पौधों की सूखी पत्ती वगैरह, के बारे में बताया गया है। शोधकर्ताओं को सूखी चाय पत्ती के पाउच के विश्लेषण से कीटों की सैकड़ों प्रजातियां की उपस्थिति का पता चला है।

ट्रायर युनिवर्सिटी के पारिस्थितिकी आनुवंशिकीविद और अध्ययन के लेखक हेनरिक क्रेहेनविन्केल ने दी साइंटिस्ट को बताया है कि दरअसल यह समझने के लिए कि कीटों में परिवर्तन कैसे हुए हमें लंबे समय के डैटा की आवश्यकता है। जब कीटों की प्रजातियों में गिरावट सम्बंधी अध्ययन पहली बार प्रकाशित हुए थे, तो कई लोगों ने यह शिकायत की थी कि इसका कोई वास्तविक दीर्घकालिक डैटा नहीं है।

वे आगे बताते हैं कि ट्रायर युनिवर्सिटी में नमूना बैंक है जिसमें पिछले 35 सालों से जर्मनी के विभिन्न पारिस्थितिक तंत्रों से विभिन्न पेड़ों के पत्ते एकत्रित किए जा रहे हैं। विचार यह आया कि क्या इन पत्तों पर रहने वाले कीटों के डीएनए को इन पत्तों से प्राप्त किया जा सकता है? चूंकि ये नमूने तरल नाइट्रोजन में सहेजे गए थे इसलिए इनमें डीएनए अच्छी तरह संरक्षित होने की संभावना थी। इसलिए पहले तो इन नमूनों से डीएनए अलग किए गए, और इस डीएनए की मदद से इन पर आते-जाते रहने वाले संधिपादों (आर्थ्रोपोड) को पहचानकर उनका वर्गीकरण करने का प्रयास किया गया।

पूरी तरह से फ्रोज़न पत्तों से ई-डीएनए निकालने में सफलता के बाद सवाल आया कि क्या अन्य सतहों/परतों (सबस्ट्रेट्स) से भी डीएनए प्राप्त किए जा सकते हैं? और क्या अन्य तरह के सबस्ट्रेट्स पर डीएनए सलामत होंगे? कीटों में परिवर्तन कैसे हुए इसे समझने के लिए क्या संग्रहालयों में सहेजे गए पौधे मददगार हो सकते हैं? कई अध्ययन बताते हैं कि यदि कोई कीट पत्ती कुतरता है तो वह अपनी लार के माध्यम से डीएनए अवशेष उस पर छोड़ जाता है। परंतु कई अध्ययन यह भी बताते हैं कि ये डीएनए बहुत टिकाऊ नहीं होते; ये पराबैंगनी प्रकाश में खराब हो जाते हैं या बारिश में धुल जाते हैं। लेकिन हर्बेरियम में तो डीएनए को सहेजे रखने के लिए आदर्श स्थितियां होती हैं – सूखा और अंधेरा माहौल।

हर्बेरियम रिकॉर्ड पर काम शुरू करने से पहले शोधकर्ताओं ने सोचा कि किसी ऐसी चीज़ का अध्ययन करना चाहिए जो हर्बेरियम रिकॉर्ड जैसी ही हो। और संरचना के हिसाब से चाय (पत्ती) हर्बेरियम रिकॉर्ड के जैसी ही है। ये सूखी पत्तियां होती हैं जिन्हें अंधेरे में रखा जाता है।

परीक्षण में चाय पत्ती में काफी जैव विविधता दिखी। लगभग 100-150 मिलीग्राम के टी-बैग में कीटों की लगभग 400 प्रजातियों के डीएनए मिले। ये नतीजे चौंकाने वाले थे, क्योंकि ये नमूने महीन पावडर थे। तो चाय बागान के सभी हिस्सों के ईडीएनए पूरी चाय पत्ती में वितरित हो गए थे।

उम्मीद है कि इससे कीटों में हुए परिवर्तनों को समझने में मदद मिलेगी, और हमें ऐसे नए पदार्थ मिलेंगे जो अतीत के समय की जानकारी दे सकें। आप चाहें तो फूलों को इकट्ठा कर लें और इन्हें सिलिका जेल की मदद से सुखा लें। फूल को एक छोटे से लिफाफे में रखकर इसे ज़िपलॉक फ्रीज़र बैग में थोड़े से सिलिका जेल के साथ रखें तो एक दिन में फूल पूरी तरह सूख जाएगा। यानी सिद्धांतत: हम कमरे के तापमान पर भी नमूनों को सहेज सकते हैं, तरल नाइट्रोजन वगैरह की ज़रूरत नहीं होगी।

शोधकर्ता बताते हैं कि केवल यह जानना पर्याप्त नहीं है कि किसी क्षेत्र में कौन सी या कितनी प्रजातियां मौजूद थीं; यह भी पता लगाना होगा कि ये कीट किस तरह अंतर्क्रिया करते हैं और क्या खाते हैं। उदाहरण के लिए, हम जानते हैं कि कई कीट प्रजातियां बहुत विशिष्ट होती हैं, केवल एक निश्चित पौधे पर ही रहती हैं और यदि यह पौधा विलुप्त हो जाता है तो कीट प्रजाति भी उसके साथ विलुप्त हो जाती है। हैरानी की बात है कि हम इन अंतर्क्रियाओं के बारे में बहुत कम जानते हैं। फसलों को नुकसान पहुंचाने वाले कीटों के बारे में तो हम यह अच्छे से जानते हैं, लेकिन बाकी कीट प्रजातियों के बारे में नहीं पता। यह तरीका पौधों से नमूना लेने और पौधे पर रहने वाले कीटों को पहचानने में मदद कर सकता है।

आम तौर पर हर्बेरियम संग्रह बहुत कीमती होते हैं और शोधकर्ता नमूनों को पीसकर नुकसान पहुंचाए बिना डीएनए को सावधानीपूर्वक निकालने के तरीके विकसित कर रहे हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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आधुनिक मनुष्य की आंत में घटते सूक्ष्मजीव

Chimpanzees eat their lunch at the Lwiro Primate Rehabilitation Center, 45 km from the city of Bukavu, February 14, 2022. – Alone or in groups, great apes jump from one branch to another, females carrying young on their backs make their way through the verdant reserve of the Lwiro Primate Rehabilitation Center (CRPL), in the east of the Democratic Republic of Congo. (Photo by Guerchom NDEBO / AFP) (Photo by GUERCHOM NDEBO/AFP via Getty Images)

मारी आंतों में उपस्थित असंख्य अच्छे बैक्टीरिया और अन्य सूक्ष्मजीव भोजन को पचाने में मदद करते हैं। इतना ही नहीं, ये हमारी प्रतिरक्षा, चयापचय क्रियाओं और तंत्रिका तंत्र को प्रभावित कर हमारे शरीर को स्वस्थ भी रखते हैं। इनमें से कई सूक्ष्मजीव तो मनुष्यों के अस्तित्व में आने से पहले से मौजूद थे। इनमें से कई सूक्ष्मजीव लगभग सारे प्रायमेट प्राणियों में पाए जाते हैं जिससे संकेत मिलता है कि इन्होंने बहुत पहले इन सबके किसी साझा पूर्वज के शरीर में घर बनाया था।

लेकिन हाल ही में किए गए एक अध्ययन से पता चला है कि मनुष्यों में इन सूक्ष्मजीवों की विविधता घट रही है और जैसे-जैसे मनुष्य शहरों की ओर बढ़ रहे हैं उनकी आंतों में विभिन्न सूक्ष्मजीवों कि संख्या में और गिरावट आ रही है। इसका मनुष्यों के स्वास्थ्य पर गंभीर प्रभाव पड़ सकता है।

हमारी आंतों में पाए जाने विभिन्न प्रजातियों के सूक्ष्मजीवों के समूचे समूह को माइक्रोबायोम यानी सूक्ष्मजीव संसार कहा जाता है। इस माइक्रोबायोम में बैक्टीरिया, फफूंद, वायरस और अन्य सूक्ष्मजीव शामिल हैं जो किसी जीव (व्यक्ति या पौधे) में पाए जाते हैं। मनुष्यों और कई अन्य प्रजातियों में सबसे अधिक बैक्टीरिया आंतों में पाए जाते हैं। ये बैक्टीरिया रोगजनकों और एलर्जी के प्रति प्रतिरक्षा प्रणाली की प्रतिक्रिया को तो प्रभावित करते ही हैं, मस्तिष्क के साथ अंतर्क्रिया के ज़रिए हमारे मूड को भी प्रभावित करते हैं।

कॉर्नेल विश्वविद्यालय के जीवविज्ञानी एंड्रयू मोएलर ने सबसे पहले बताया था कि आंत के सूक्ष्मजीवों और मनुष्यों के बीच सम्बंध लंबे समय में विकसित हुए हैं। उनके दल ने बताया था कि मनुष्य और प्रायमेट प्राणियों की आंत के सूक्ष्मजीवों के बीच समानताएं हैं जिससे यह स्पष्ट हुआ कि इनकी उपस्थिति मनुष्यों की उत्पत्ति से भी पहले की है।

लेकिन इसके बाद किए गए अध्ययनों से पता चला है कि मानव आंत के माइक्रोबायोम में विविधता वर्तमान प्रायमेट्स की तुलना में काफी कम हो गई है। एक अध्ययन के अनुसार जंगली वानरों की आंतों में बैक्टेरॉइड्स और बाइफिडोबैक्टीरियम जैसे 85 सूक्ष्मजीव वंश उपस्थित हैं जबकि अमेरिकी शहरियों में यह संख्या केवल 55 है। कम विकसित देशों के लोगों में सूक्ष्मजीव समूहों की संख्या 60 से 65 के बीच है। ऐसे में यह अध्ययन शहरीकरण और सूक्ष्मजीव विविधता में कमी का सम्बंध दर्शाता है।      

युनिवर्सिटी ऑफ वाशिंगटन की सूक्ष्मजीव विज्ञानी रेशमी उपरेती के अनुसार शहरों में प्रवास के साथ शिकार-संग्रह आधारित आहार में बदलाव, एंटीबायोटिक का उपयोग, तनावपूर्ण जीवन और बेहतर स्वच्छता के कारण मनुष्यों के आंतों के सूक्ष्मजीवों में काफी कमी आई है। शोधकर्ताओं का मानना है कि आंत के माइक्रोबायोम में कमी के कारण दमा जैसी बीमारियां बढ़ सकती हैं।

इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने विशेष रूप से उन सूक्ष्मजीवों को खोजने का प्रयास किया है जो मनुष्यों की आंतों से गायब हो चुके हैं। उन्होंने अफ्रीकी चिम्पैंज़ी और बोनोबोस के कई समूहों के मल का अध्ययन किया। इसके बाद उन्होंने मल के नमूनों से सूक्ष्मजीव डीएनए को अलग करके अनुक्रमित किया। इस अध्ययन के दौरान अन्य शोधकर्ताओं द्वारा पूर्व में एकत्रित गोरिल्ला और अन्य प्रायमेट्स के आंत के सूक्ष्मजीवों के डीएनए डैटा का भी उपयोग किया गया। इस तरह से कुल 22 मानवेतर प्रायमेट्स के डैटा का अध्ययन किया गया। कंप्यूटर की मदद से सूक्ष्मजीवों के पूरे जीनोम में डीएनए के टुकड़ों को अनुक्रमित किया गया। मनुष्यों के 49 समूहों से आंत के माइक्रोबायोम डैटा और मनुष्यों के जीवाश्मित मल से लिए गए डीएनए को प्रायमेट्स के साथ तुलना करने पर मोएलर विभिन्न सूक्ष्मजीव समूहों के बीच बदलते सम्बंधों को समझने में कामयाब हुए।

उन्होंने दर्शाया कि विकास के दौरान कुछ माइक्रोबायोम में विविधता आई जबकि कई अन्य गायब हो गए थे। इन सूक्ष्मजीवों में मनुष्य 100 में से 57 सूक्ष्मजीव गंवा चुके हैं जो वर्तमान में चिम्पैंज़ी या बोनोबोस में पाए जाते हैं। मोएलर ने यह भी अनुमान लगाने का प्रयास किया है कि ये सूक्ष्मजीव मनुष्य की आंतों से कब गायब हुए। इनमें से कई सूक्ष्मजीव तो कई हज़ारों वर्ष पहले गायब हो चुके थे जबकि कुछ हाल ही में गायब हुए हैं जिसमें से शहर में रहने वालों ने अधिक संख्या में इन सूक्ष्मजीवों को गंवाया है।

यह पता लगाना एक चुनौती है कि कोई सूक्ष्मजीव किसी मेज़बान की आंत से गायब हो चुका है। कई सूक्ष्मजीव इतनी कम संख्या में होते हैं कि शायद वे मल में प्रकट न हों। इस विषय में अध्ययन जारी है और शहर से दूर रहने वालों के माइक्रोबायोम को एकत्रित कर संरक्षित किया जा रहा है। वैसे कुछ वैज्ञानिकों का मत है कि यह कोई बड़ी क्षति नहीं है। शायद अब मनुष्यों को उन सूक्ष्मजीवों की ज़रूरत ही नहीं है। अन्य शोधकर्ताओं के अनुसार आवश्यक सूक्ष्मजीवों को दोबारा से हासिल करने के लिए उनकी पहचान करना सबसे ज़रूरी है। हो सकता है कि इन सूक्ष्मजीवों को प्रोबायोटिक्स की मदद से बहाल किया जा सके। (स्रोत फीचर्स)

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कॉकरोच का नया करतब

नुसंधान बताता है कि कॉकरोचों ने मीठे के प्रति नफरत पैदा कर ली है और इसके चलते हमारे द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले कई कीटनाशक नुस्खे नाकाम साबित होने लगे हैं।

जब भी कोई नर कॉकरोच किसी मादा से संभोग करना चाहता है तो वह अपना पिछला भाग उसकी तरफ करके अपने पंख खोलता है और पंखों के नीचे छिपा मीठा भोजन उसे पेश कर देता है। यह भोजन एक रस होता है जिसे नर की टर्गल ग्रंथि स्रावित करती है। मादा जब इस भोजन को चट करने में व्यस्त होती है, उस दौरान नर उसे अपने एक शिश्न से पकड़े रखता है और दूसरे से अपने शुक्राणु उसके शरीर में पहुंचा देता है। इसमें लगभग 90 मिनट का समय लगता है।

लेकिन वर्ष 1993 में नॉर्थ कैरोलिना स्टेट विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने पता लगाया था कि जर्मन कॉकरोच में ग्लूकोज़ नामक शर्करा के लिए कोई लगाव नहीं होता। यह थोड़ा अजीब था क्योंकि ग्लूकोज़ इन जंतुओं के लिए ऊर्जा का महत्वपूर्ण स्रोत है। तो सवाल उठा कि ऐसे कॉकरोच क्यों और कहां से पैदा हुए।

ऐसा लगता है कि हमारे द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले मीठे पावडरों और द्रवों ने यह असर किया है। इन मीठे पदार्थों में विष मिलाकर कॉकरोच पर नियंत्रण के प्रयास होते हैं। मिठास से आकर्षित होकर कॉकरोच इसका सेवन करते हैं और मारे जाते हैं। लेकिन कुछ कॉकरोच कुदरती रूप से ग्लूकोज़ के प्रति इतने लालायित नहीं थे; वे जीवित रहे, संतानोत्पत्ति करते रहे और यह गुण अगली पीढ़ी को सौंपते रहे।

अब कहानी में नया मोड़ आया है। नॉर्थ कैरोलिना स्टेट विश्वविद्यालय की कीट विज्ञानी आयको वाडा-कात्सुमाता ने कम्यूनिकेशंस बायोलॉजी में बताया है कि जो गुणधर्म मादा कॉकरोच को मीठे ज़हर से दूर रहने को उकसाता है, वही उसे सामान्य कॉकरोच नर के साथ संभोग करने से भी रोकता है।

कारण यह है कि कॉकरोच की लार नर के रस में उपस्थित जटिल शर्कराओं को तोड़कर उन्हें ग्लूकोज़ जैसी सरल शर्कराओं में बदल देती है। जैसे ही ग्लूकोज़ से नफरत करने वाली मादा कॉकरोच इस तोहफे का पहला निवाला लेती है, वह उसके मुंह में कड़वा हो जाता है और वह मैथुन से पहले ही भाग निकलती है।

आप शायद सोच रहे होंगे कि यह तो अच्छी बात है। कॉकरोच की आबादी स्वत: कम होती जाएगी। लेकिन ग्लूकोज़ से चिढ़ने वाले ये कॉकरोच प्रजनन का जुगाड़ जमा ही लेते हैं।

प्रयोगों के दौरान वाडा-कात्सुमाता ने देखा कि जंगली कॉकरोच के मुकाबले ग्लूकोज़ से दूर भागने वाले मादा कॉकरोच नर कॉकरोच से दूर रहना पसंद करते हैं। लेकिन साथ ही यह भी देखा गया कि ऐसे नर कॉकरोच अपने शुक्राणु कम समय में मादा को देने में माहिर हो गए हैं। और तो और, इन आबादियों में नर द्वारा मादा को पेश की जाने वाली पोषक सामग्री के रासायनिक संघटन में भी बदलाव आया है।

स्पष्ट है कि मनुष्य जंतुओं के विकास पर महत्वपूर्ण असर डालते हैं। और जंतु इस तरह के दबाव से निपटने की नई-नई रणनीतियां भी विकसित करते रहते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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