शायद पहली बार एक यूएस न्यायाधीश ने सार्वजनिक डीएनए डैटाबेस, GED match, को आदेश दिया है कि वह पुलिस को उसके पास
उपलब्ध 13 लाख डीएनए प्रोफाइल को खंगालने दे। वास्तव में यह अनुमति एक आदतन
बलात्कारी को पकड़ने के लिए दी गई है। पुलिस चाहती है कि बलात्कारी व्यक्ति के दूर
के रिश्तेदारों की जानकारी प्राप्त हो जाए ताकि संदिग्ध व्यक्ति को पहचाना जा
सके।
उपभोक्ताओं का मानना है कि इस तरह के
अधिकार मिलने से ancestry.com और 23and Me ग्ड्ढ जैसी डीएनए साइट्स पर भी पुलिस द्वारा खोज की संभावना बन सकती है।
गौरतलब है कि कंपनी की इन साइट्स पर लोग स्वेच्छा से अपने डीएनए का नमूना जमा करते
हैं और यह जानकारी गोपनीय रहती है।
पुलिस ने पहले भी अपराध स्थल से मिले डीएनए
की GEDmatch डैटाबेस से तुलना करके कई अन्य मामलों को
सुलझाया है। लेकिन उपभोक्ताओं में इसकी वास्तविक चिंता डैटा की गोपनीयता को लेकर
है। साथ ही ऐसी आशंका भी है कि जिन रिश्तेदारों ने कभी डीएनए परीक्षण नहीं करवाया
है वो भी संदेह के दायरे में आ सकते हैं। ज्ञात रहे कि इससे पहले GEDmatch केवल उन्हीं लोगों के डीएनए प्रोफाइल
उपलब्ध कराती थी जिसकी सहमति खुद लोगों ने दी थी। यू.एस. डिपार्टमेंट ऑफ जस्टिस ने
भी एक संशोधन जारी करके केवल हिंसक अपराधों और उपभोक्ताओं की अनुमति से ही जानकारी
देने की व्यवस्था कर दी। ताज़ा आदेश इस सबको अनदेखा करके आया है।
मेरीलैंड केरी स्कूल ऑफ लॉ की प्रोफेसर
नताली रैम से साक्षात्कार में कुछ बातें सामने आई हैं। इस मामले को एक विशेष
परिस्थिति के रूप में लिया जा सकता है। लेकिन यदि 13 लाख लोगों के डैटाबेस में 60
प्रतिशत युरोपीय मूल के अमेरिकी हैं जिनका दूर का चचेरा भाई या बहन या कोई करीबी
रिश्तेदार इस डैटाबेस में है तो उसको ट्रैक करना काफी आसान हो जाएगा। इस संदर्भ
में केवल डीएनए के आधार पर कुछ गुनहगारों को पकड़ने के लिए पुलिस एजेंसियों के हाथ
कई बेगुनाह लोगों का डीएनए होगा।
हालांकि GEDmatch तो एक छोटा मोटा डैटाबेस है लेकिन 23and Me और ancestry.com जैसी अन्य कंपनियों के पास यदि कोई ऐसा
वारंट आता है तो वे इसे चुनौती देने के लिए तैयार हैं।
यदि कोई कंपनी इस वारंट का अनुपालन करने से
मना कर देती है तब इस वारंट पर और अधिक कार्य किया जाएगा ताकि इसको वैध बनाया जा
सके। वैकल्पिक रूप से यदि कंपनियां जानकारी दे भी देती हैं और किसी व्यक्ति के
अभियोजन की संभावना भी बनती है तो व्यक्ति गैर-कानूनी खोज के खिलाफ आवाज़ उठाकर
वारंट पर ही सवाल उठा सकता है। नताली का मानना है कि यह प्रक्रिया काफी जटिल है।
इस विषय में यह स्पष्ट नहीं है कि डीएनए कंपनी या अपराधी गोपनीयता के अधिकार के
तहत इस वारंट को चुनौती दे सकते हैं। ऐसी परिस्थिति में प्रभावी ढंग से वारंट को
चुनौती देना मुश्किल है।
नताली का ऐसा मानना है कि यदि इस तरह के वारंट जारी होते रहे तो डीएनए डैटा रखने वाली साइट्स को काफी परेशानी का सामना करना पड़ेगा। इसमें सबसे पहले तो सार्वजनिक आक्रोश का सामना करना पड़ सकता है। एक रास्ता है कि एक कानून बना दिया जाए जिसके तहत शासकीय एजेंसियों द्वारा फॉरेंसिक वंशावली खोजों पर प्रतिबंध लगा दिया जाए। डिपार्टमेंट ऑफ जस्टिस द्वारा आनुवंशिक वंशावली की खोज पर कुछ सीमाएं लगाई जा सकती हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.revealnews.org/wp-content/uploads/2019/10/DNA-740×481.jpg
एक नए आनुवंशिक अध्ययन का दावा है कि आधुनिक मनुष्य (होमो
सेपियन्स) की उत्पत्ति का विशिष्ट स्थान पता चल गया है। जीवाश्म और डीएनए
अध्ययनों के आधार पर यह तो पहले ही पता चल चुका है कि आधुनिक मानव की उत्पत्ति
अफ्रीका में लगभग ढाई से तीन लाख वर्ष पहले हुई थी। लेकिन होमो सेपियन्स के
प्राचीन जीवाश्म पूरे अफ्रीका में पाए जाते हैं और अफ्रीकी जीवाश्मों में डीएनए
बहुत कम मिला है। इसलिए वैज्ञानिक एक विशिष्ट जन्मस्थान का पता लगाने में असमर्थ
रहे हैं।
इस नए अध्ययन में शोधकर्ताओं ने 200 जीवित
लोगों के रक्त के नमूने लिए जिनके डीएनए के बारे में अधिक जानकारी नहीं है। इनमें
खोइसन भाषा बोलने वाले नामीबिया और दक्षिण अफ्रीका के शिकारी और संग्रहकर्ता भी
शामिल थे। शोधकर्ताओं ने उनके माइटोकॉन्ड्रियल डीएनए (mtDNA) की तुलना डैटाबेस में उपलब्ध 1000 से
अधिक अफ्रीकियों, खासकर दक्षिण अफ्रीकी लोगों,
के माइटोकॉन्ड्रियल
डीएनए से की। गौरतलब है कि mtDNA एक ऐसा डीएनए है जो केवल माताओं से विरासत में मिलता है।
इसके बाद शोधकर्ताओं ने सभी डीएनए नमूनों में आपस में सम्बंध देखने की कोशिश
की।
पूर्व में किए गए अध्ययनों के इस निष्कर्ष
की पुष्टि इस अध्ययन से प्राप्त डैटा से हुई कि खोइसन भाषियों में पाया जाने वाला mtDNA क्रम – L0 – जीवित लोगों में सबसे पुराना mtDNA वंशानुक्रम है। नेचर में प्रकाशित
रिपोर्ट के अनुसार इस शोध से L0 की उत्पत्ति का समय भी निर्धारित हो जाता है – आज से लगभग
2 लाख वर्ष पूर्व। चूंकि यह क्रम आज केवल दक्षिण अफ्रीका के लोगों में पाया जाता
है तो इसका मतलब है कि L0 क्रम वाले लोग दक्षिण अफ्रीका में रहा करते थे और वही
समस्त जीवित मनुष्यों के पूर्वज हैं। सिडनी स्थित गार्वन मेडिकल रिसर्च इंस्टीट्यूट
की वेनेसा हेस और उनके साथियों का मानना है कि विशिष्ट रूप से यह स्थान आज के
उत्तरी बोत्सवाना का कालाहारी क्षेत्र है। हालांकि इसका अधिकतर क्षेत्र रेगिस्तान
में बदल चुका है लेकिन जलवायु आंकड़ों के अनुसार,
डेढ़-दो लाख वर्ष
पूर्व यह काफी हरा-भरा था जिसके नज़दीक अफ्रीका की सबसे बड़ी झील स्थित थी। टीम का
मानना है कि L0 mtDNA वाले लोग लगभग 1.3 से 1.1 लाख साल पूर्व
कालाहारी क्षेत्र में रहते थे।
बहरहाल,
कई विशेषज्ञ दक्षिण
अफ्रीका को मानव विकास का महत्वपूर्ण क्षेत्र तो मानते हैं लेकिन इस अध्ययन को
इतना व्यापक नहीं मानते हैं कि जीवित लोगों के डीएनए से मानव प्रजाति के जन्मस्थान
का सटीकता से पता लगाया जा सके। इन विशेषज्ञों का मानना है कि mtDNA के अलावा यदि शोधकर्ता पिता से प्राप्त
वाय गुणसूत्र के विकास या माता-पिता से प्राप्त जीन का पता लगाते तो उन्हें अलग
जवाब मिल सकते थे। हेस का मत है कि mtDNA भ्रूण के विकास के दौरान अन्य डीएनए की तरह नहीं बदलता है।
इसलिए इसका उपयोग महिला पूर्वजों का पता लगाने के लिए किया जा सकता है।
कुछ आलोचकों का मानना है कि खोइसन बोलने वाली L0 mtDNA वाली महिला पूर्वज 2 लाख वर्ष पूर्व दक्षिण अफ्रीका की एक बड़ी आबादी का हिस्सा थीं जिनके वंशज दक्षिण अफ्रीका के बाहर फैल गए। लंदन स्थित फ्रांसिस क्रिक इंस्टीट्यूट के आनुवंशिकीविद पोंटस स्कोग्लुंड का मानना है कि आबादियों में इतना अधिक मेलजोल होता है कि जीवित मनुष्यों के डीएनए से 70 हज़ार से 2 लाख वर्ष पहले की जनसंख्या के बारे में पता कर पानी काफी हद तक सीमित हो जाता है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/inline__450w__no_aspect/public/homeland-map_1280p.jpg?itok=qH0hIqxX
ब्रिस्टल विश्वविद्यालय,
ब्रिटेन की जूली डन
के नेतृत्व में युरोप के पुरातत्वविदों की
एक टीम ने काफी दिलचस्प रिपोर्ट प्रस्तुत की है। “Milk
of ruminants in ceramic baby bottles from prehistoric child graves” (बच्चों की
प्रागैतिहासिक कब्रों में सिरेमिक बोतलों पर जुगाली करने वाले जानवरों के दूध के
अवशेष) शीर्षक से यह रिपोर्ट नेचर पत्रिका के 10 अक्टूबर के अंक में
प्रकाशित हुई है। इस टीम को बच्चों की प्राचीन कब्रों में शिशुओं की कुछ बोतलें
मिली है जिनमें कुछ अंडाकार और हैंडल वाली हैं और कुछ बोतलों में टोंटी जैसी रचना
है जिसके माध्यम से तरल पदार्थ को ढाला या चूसा जा सकता था। सबसे पुरानी बोतल
युरोपीय नवपाषाण युग (लगभग 10,000 वर्ष पहले) की है जबकि अन्य बोतलें कांस्य और
लौह युग (4000-1200 ईसा पूर्व) स्थलों से पाई गई हैं।
नेचर की इस रिपोर्ट में एक दिलचस्प बात और है। सिरेमिक से बनी
शिशु बोतलों के अंदरूनी हिस्से पर कुछ कार्बनिक रसायन के अवशेष चिपके मिले जिनका
विश्लेषण संभव था। टीम ने उन अवशेषों को अलग करके नवीनतम रासायनिक और
वर्णक्रमदर्शी विधियों की मदद से उनमें उपस्थित अणुओं का विश्लेषण किया। सभी
अवशेषों में वसा अम्ल (जैसे पामिटिक और स्टीयरिक अम्ल) पाए गए जो आम तौर पर
गाय-भैंस, भेड़ या अन्य पालतू जानवरों के दूध में तो पाए जाते हैं
लेकिन मानव दूध में नहीं। इस आधार पर टीम का निष्कर्ष है कि “रासायनिक प्रमाण और
बच्चों की कब्रों में पाए गए विशेष रूप से बने तीन पात्र दर्शाते हैं कि इनका
उपयोग शिशुओं और पूरक आहार के तौर पर बच्चों को (मानव दूध की बजाय) पशुओं का दूध
पिलाने के लिए किया जाता था।”
पशु दूध की शुरुआत
उपरोक्त शोध पत्र में राशेल हॉउक्रॉफ्ट और
स्टॉकहोम युनिवर्सिटी, स्वीडन की पुरातात्विक अनुसंधान प्रयोगशाला के अन्य लोगों
द्वारा पूर्व में प्रस्तुत एक दिलचस्प रिपोर्ट “The Milky Way: The
implications of using animal milk products in infant feeding” (दुग्धगंगा: शिशु आहार में जंतु दुग्ध उत्पादों के उपयोग
के निहितार्थ) का उल्लेख किया गया है। यह रिपोर्ट एंथ्रोपोज़ूओलॉजिका जर्नल
में प्रकाशित हुई है [47-31-43 (2012)], जो नेट से फ्री डाउनलोड की जा सकती है।
मेरी सलाह है कि इस विषय में रुचि रखने वाले इसे ज़रूर पढ़ें। प्रसंगवश बताया जा
सकता है कि एंथ्रोपोज़ूओलॉजिका का अर्थ होता है मनुष्यों और अन्य जंतुओं के
बीच अंतरक्रिया का अध्ययन।
मानव शिशुओं को पशुओं का दूध पिलाने की
प्रथा जानवरों के पालतूकरण के बाद ही शुरू हुई होगी। पालतूकरण की शुरुआत तब हुई
होगी जब मनुष्यों ने समुदाय में बसना शुरू किया तथा कृषि एवं अन्य कामों के लिए
पशुओं का उपयोग करना शुरू किया। ऐसा माना जाता है कि इसकी शुरुआत लगभग 12,000 वर्ष
पहले नव-पाषाण युग में हुई थी; सबसे पहले मध्य-पूर्व में और उसके बाद
पश्चिमी और मध्य एशिया तथा युरोप के कुछ हिस्सों में। सामुदायिक जीवन, कृषि
और खेती की शुरुआत के बाद से कुत्ते, मवेशियों,
बकरियों, ऊंटों
(बाद में घोड़ों) को पालतू बनाकर उनको मानवीय ज़रूरतों के लिए उपयोग में लाया गया।
उस समय मनुष्य शिकारी-संग्रहकर्ता हुआ करते थे और शिशुओं को दो वर्ष की आयु तक
सिर्फ मां का दूध ही पिलाया जाता था।
नव-पाषाण युग ने मानव व्यवहार को बदल डाला।
संतानों की संख्या में वृद्धि हुई, महिलाओं के कार्य करने के तरीकों में बदलाव
आए तथा शिशुओं में मां का दूध छुड़ाने की प्रक्रिया भी जल्दी होने लगी। जैसा
हॉउक्रॉफ्ट और उनके सहकर्मियों का तर्क है,
इसका अर्थ यह हुआ कि
इस समय तक मानव शिशुओं को पूरक भोजन के रूप में पशु का दूध दिया जाने लगा था। इसने
माताओं को अपनी प्रजनन रणनीति को बदलने में भी समर्थ बनाया (कितने बच्चे, कितने
समय में पैदा करें और कितनी जल्दी दूध छुड़ाएं)।
हमने कुत्तों को लगभग 10,000-4400 ईसा
पूर्व के आसपास, गाय और भेड़ों को लगभग 11,000-9000 ईसा पूर्व, ऊंटों
तथा घोड़ों को लगभग 3000 ईसा पूर्व में पालतू बनाया। हालांकि ऊपर बताए गए जीवों में
से हम केवल गायों, बकरियों और भेड़ों के दूध का उपयोग करते हैं लेकिन
अफ्रीकियों द्वारा ऊंटनी के दूध का भी उपयोग किया जाता था। दूध के लिए जुगाली करने
वाले जीवों को पसंद करना वास्तव में आज़माइश और उपयुक्तता के अनुभव से आया है।
जुगाली करने वाले प्राणियों में गाय-भैंस,
भेड़, बकरी
और ऊंट आते हैं। इनका पेट अलग-अलग भागों में बंटा होता है,
जिसमें भोजन जल्दी से
निगल लिया जाता है और बाद में जुगाली के बाद प्रथम आमाशय में जाता है जो इन जीवों
का मुख्य पाचन अंग है। ध्यान देने वाली बात यह है कि हमने कभी कुत्तों या घोड़ों के
दूध का उपयोग नहीं किया है – पता नहीं क्यों?
जुगाली पशुओं का दूध
हॉउक्रॉफ्ट और उनकी टीम ने अपने पेपर में
मानव और जुगाली करने वाले जीवों के दूध के संघटन की तुलना की है। मानव की तुलना
में भेड़ के दूध में उच्च ठोस घटक होता है: कम पानी,
कम कार्बोहाइड्रेट, अधिक
प्रोटीन तथा लिपिड और भरपूर उर्जा। जहां उच्च प्रोटीन युक्त दूध बोतल से दूध पीने
वाले शिशुओं में तेज़ विकास में मदद कर सकता है,
वहीं यह एसिडिटी और
अतिसार का कारण भी बन सकता है। भेड़ की तुलना में गाय के दूध में प्रोटीन और वसा की
मात्रा थोड़ी कम होती है (हालांकि, मानव दूध की तुलना में तीन गुना अधिक होती
है), फिर भी यह भेड़ के दूध के समान लक्षण पैदा कर सकता है। इसके
साथ ही जुगाली करने वाले जीवों के दूध में कुछ ऐसे एंज़ाइम की कमी होती है जो मानव
दूध में पाए जाते हैं। ये एंज़ाइम संक्रमण से लड़ने और ज़रूरी खनिज पदार्थों को
अवशोषित करने में मदद करते हैं। कुछ सुरक्षात्मक और हानिकारक अंतरों के साथ, मानव
दूध के स्थान पर पूरी तरह जुगाली-जीवों के दूध का उपयोग करने की बजाय इनका उपयोग
पूरक के तौर पर करना बेहतर है। इसी चीज़ को शुरुआती मनुष्यों ने कर-करके सीखा होगा।
इसी के आधार पर उन्होंने ‘फीडिंग बोतल’ और चीनी मिट्टी के पात्र बनाने तथा उपयोग
करना शुरू किया होगा।
शोधकर्ता आगे बताते हैं कि दूध से दही
बनाकर इसे संरक्षित किया जा सकता है। यह लैक्टोज़ की मात्रा कम करता है और पाचन में
मदद करता है। इसके पीछे एंज़ाइम लैक्टेज़ की भूमिका है। उनका निष्कर्ष है कि
“प्रागैतिहासिक शिशुओं के लिए यह दुग्धगंगा शायद इतनी अच्छी न रही हो, लेकिन दही उनके लिए और लैक्टेज़ एंज़ाइम के
प्रसार के लिए अच्छा रहा होगा।”
गौरतलब है कि वसंत शिंदे और पुणे के कुछ सहयोगियों ने भारत में हड़प्पा सभ्यता के स्थानों का व्यापक सर्वेक्षण किया था। उन्होंने 2500 ईसा पूर्व के कालीबंगन के हड़प्पा स्थल से सिरेमिक फीडिंग बोतल के ठोस सबूत पाए थे। हड़प्पावासियों ने भी अपने बच्चों को जानवरों के दूध का सेवन करवाया था। लेकिन वह पशु कौन-सा था? यदि हम इन बोतलों से कोई अवशेष प्राप्त करके अपनी प्रयोगशालाओं में विश्लेषण करने में कामयाब होते हैं तो यह काफी रोमांचक होगा। (स्रोत फीचर्स) नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://th.thgim.com/sci-tech/science/edqphy/article29807337.ece/alternates/FREE_660/27TH-SCIBabyfeeding-HelenaSeididaFonsecajpg
भारत सरकार, कॉर्पोरेट सामाजिक दायित्व (CSR) की तर्ज़ पर,
विज्ञान के क्षेत्र
में वैज्ञानिक सामाजिक दायित्व (Scientific Social Responsibility) के लिए एक नई नीति लागू करने जा रही है।
इस नई नीति का प्रारूप तैयार कर लिया गया है जिसे विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग
की वेबसाइट (www.dst.gov.in) पर टिप्पणियों के लिए उपलब्ध कराया गया
है।
अगर यह नीति लागू हो जाती है तो विज्ञान के
क्षेत्र में सामाजिक दायित्व के लिए ऐसी नीति बनाने वाला भारत दुनिया का संभवत:
पहला देश होगा।
यह नीति भारत में विज्ञान और प्रौद्योगिकी
के क्षेत्र में कार्यरत संस्थानों और वैज्ञानिकों को विज्ञान संचार और प्रसार के
कार्यों में बढ़-चढ़ कर भागीदारी के लिए प्रोत्साहित करेगी। ऐसा होने से वैज्ञानिकों
और समाज के बीच संवाद बढ़ेगा जिससे दोनों के बीच ज्ञान आधारित खाई को भरा जा सकेगा।
इस नीति का मुख्य उद्देश्य भारतीय वैज्ञानिक समुदाय में सुप्त पड़ी क्षमता का भरपूर
उपयोग कर विज्ञान और समाज के बीच सम्बंधों को मज़बूत करना और देश में विज्ञान और
प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में ऐसी परिस्थितियों का निर्माण करना है जिससे इस
क्षेत्र को नई ऊर्जा मिल सके।
यह नीति वैज्ञानिक ज्ञान और संसाधनों तक
जनमानस की पहुंच को सुनिश्चित करने और आसान बनाने के लिए एक तंत्र विकसित करने, वर्तमान
और भावी सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु विज्ञान के लाभों का उपयोग करने, तथा
विचारों और संसाधनों को साझा करने के लिए एक सक्षम वातावरण बनाने, और
सामाजिक समस्याओं को पहचानने एवं इनके हल खोजने के लिए सहयोग को बढ़ावा देने की
दिशा में भी मार्गदर्शन करेगी। इस ड्राफ्ट नीति के अनुसार देश में विज्ञान एवं
प्रौद्योगिकी से सम्बंधित सभी संस्थानों
और व्यक्तिगत रूप से सभी वैज्ञानिकों को उनके वैज्ञानिक सामाजिक दायित्व के बारे
में जागरूक और प्रेरित करना होगा।
भारत सरकार ने पहले भी विज्ञान से सम्बंधित
कुछ नीतियां बनाई हैं। वैज्ञानिक नीति संकल्प 1958,
प्रौद्योगिकी नीति
वक्तव्य 1983, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी नीति 2003 और विज्ञान, प्रौद्योगिकी
एवं नवाचार नीति 2013 इनमें प्रमुख हैं। वर्तमान वैज्ञानिक सामाजिक दायित्व नीति
का प्रारूप भी इन नीतियों को आगे बढ़ाता है। हालांकि इस नई नीति में कुछ व्यावहारिक
और प्रासंगिक प्रावधान हैं जिससे विज्ञान व प्रौद्योगिक संस्थानों और वैज्ञानिकों
(यानी ज्ञानकर्मियों) को समाज के प्रति अधिक उत्तरदायी और ज़िम्मेदार बनाया जा सकता
है।
ड्राफ्ट नीति के अनुसार प्रत्येक वैज्ञानिक
को व्यक्तिगत रूप से अपने वैज्ञानिक सामाजिक दायित्व को पूरा करने के लिए कम से कम
10 दिन प्रति वर्ष अवश्य देने होंगे। इसके अंतर्गत विज्ञान और समाज के बीच
वैज्ञानिक ज्ञान के आदान-प्रदान में योगदान देना होगा। इस दिशा में संस्थागत स्तर
पर और व्यक्तिगत स्तर पर सही प्रयास हो सकें और ऐसे प्रयासों को बढ़ावा देने के लिए
पर्याप्त प्रोत्साहनों के साथ-साथ आवश्यक आर्थिक सहायता प्रदान करने का भी
प्रावधान होगा। वैज्ञानिक सामाजिक दायित्व के क्षेत्र में जो वैज्ञानिक व्यक्तिगत
प्रयास करेंगे उन्हें उनके वार्षिक प्रदर्शन मूल्यांकन में उचित श्रेय देने का भी
प्रस्ताव किया गया है।
इस नीति का एक महत्वपूर्ण पहलू यह भी है कि
किसी भी संस्थान को अपने वैज्ञानिक सामाजिक दायित्व से सम्बंधित गतिविधियों और
परियोजनाओं को आउटसोर्स या किसी अन्य को अनुबंधित करने की अनुमति नहीं होगी।
अर्थात सभी संस्थानों को अपनी SSR गतिविधियों और परियोजनाओं को लागू करने के
लिए अंदरूनी क्षमताएं विकसित करना होगा।
जब भारत में लगभग सभी विज्ञान व
प्रौद्योगिक शोध करदाताओं के पैसे से चल रहा है,
तो ऐसे में वैज्ञानिक
संस्थानों का यह एक नैतिक दायित्व है कि वे समाज और अन्य हितधारकों को कुछ वापस भी
दें। यहां पर हमें यह समझना होगा कि SSR न केवल समाज पर वैज्ञानिक प्रभाव के बारे में है,
बल्कि यह विज्ञान पर
सामाजिक प्रभाव के बारे में भी है। इसलिए SSR विज्ञान के क्षेत्र में ज्ञान पारिस्थितिकी तंत्र को मजबूत करेगा और समाज के
लाभ के लिए विज्ञान का उपयोग करने में दक्षता लाएगा।
इस नीति दस्तावेज़ में समझाया गया है कि
विज्ञान और प्रौद्योगिकी के सभी क्षेत्रों में कार्यरत सभी ज्ञानकर्मियों का समाज
में सभी हितधारकों के साथ ज्ञान और संसाधनों को स्वेच्छा से और सेवा भाव एवं
जागरूक पारस्परिकता की भावना से साझा करने के प्रति नैतिक दायित्व ही वैज्ञानिक
सामाजिक दायित्व (SSR) है। यहां,
ज्ञानकर्मियों से
अभिप्राय हर उस व्यक्ति से है जो ज्ञान अर्थव्यवस्था में मानव, सामाजिक, प्राकृतिक, भौतिक, जैविक, चिकित्सा, गणितीय
और कंप्यूटर/डैटा विज्ञान और इनसे सम्बंधित प्रौद्योगिकी के क्षेत्रों में भाग
लेता है।
ड्राफ्ट नीति के अनुसार देश में SSR गतिविधियों की निगरानी और कार्यान्वयन के लिए DST में एक केंद्रीय और नोडल एजेंसी की स्थापना की जाएगी। इस
नीति के एक बार औपचारिक हो जाने के बाद, केंद्र सरकार के सभी मंत्रालयों, राज्य
सरकारों और S&T संस्थानों को अपने कार्यक्षेत्र के अनुसार
SSR को लागू करने के लिए अपनी योजना बनाने की
आवश्यकता होगी। विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी से सम्बंधित सभी संस्थानों को अपने
ज्ञानकर्मियों को समाज के प्रति उनकी नैतिक सामाजिक जिम्मेदारी के बारे में
संवेदनशील बनाने, SSR से सम्बंधित संस्थागत परियोजनाओं और व्यक्तिगत गतिविधियों का आकलन करने के
लिए एक SSR निगरानी प्रणाली बनानी होगी और SSR गतिविधियों पर
आधारित एक वार्षिक रिपोर्ट भी प्रकाशित करनी होगी। संस्थागत और व्यक्तिगत दोनों
स्तरों पर SSR गतिविधियों की निगरानी एवं मूल्यांकन के
लिए उपयुक्त संकेतक विकसित किए जाएंगे जो इन गतिविधियों के प्रभाव को लघु-अवधि, मध्यम-अवधि
और दीर्घ-अवधि के स्तर पर मापेंगे।
नीति को प्रभावी ढंग से लागू करने के लिए, एक
राष्ट्रीय डिजिटल पोर्टल की स्थापना की जाएगी जिस पर ऐसी सामाजिक समस्याओं का
विवरण होगा जिन्हें वैज्ञानिक हस्तक्षेप की आवश्यकता है। यह पोर्टल
कार्यान्वयनकर्ताओं के लिए और SSR गतिविधियों की
रिपोर्टिंग के लिए एक मंच के रूप में भी काम करेगा।
नई नीति के अनुसार सभी फंडिंग एजेंसियों को
SSR का समर्थन करने के लिए:
क) व्यक्तिगत SSR परियोजनाओं को वित्तीय सहायता प्रदान करनी होगी,
ख) हर प्रोजेक्ट में SSR के लिए वित्तीय सहायता के लिए एक निश्चित प्रतिशत तय करना
होगा,
ग) वित्तीय समर्थन के लिए प्रस्तुत किसी भी
परियोजना के लिए उपयुक्त SSR की आवश्यकता की
सिफारिश करनी होगी।
यदि इसे ठीक से और कुशलतापूर्वक लागू किया जाता है, तो यह नीति विज्ञान संचार के मौजूदा प्रयासों को मज़बूत करते हुए, सामाजिक समस्याओं के लिए वैज्ञानिक और अभिनव समाधान लाने में एक परिवर्तनकारी भूमिका निभाएगी। इस के साथ-साथ, क्षमता निर्माण, कौशल विकास के माध्यम से सभी के जीवन स्तर को ऊपर उठाने, ग्रामीण नवाचारों को प्रोत्साहित करने, महिलाओं और कमज़ोर वर्गों को सशक्त बनाने, उद्योगों और स्टार्ट-अप की मदद करने आदि में यह नीति योगदान दे सकती है। सतत विकास लक्ष्यों, पर्यावरण लक्ष्यों और प्रौद्योगिकी विज़न 2035 की प्राप्ति में भी यह नीति योगदान दे सकती है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://i0.wp.com/www.researchstash.com/wp-content/uploads/2019/09/New-Policy-Coming-for-Scientific-Social-Responsibility.jpg?resize=1280,672&ssl=1
हाल में बीएमजे ओपन गैस्ट्रोएंटरोलॉजी नामक जर्नल में
प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार एक 46 वर्षीय व्यक्ति आत्म-शराब उत्पादन सिंड्रोम
(एबीएस) से ग्रस्त पाया गया। यह एक ऐसी स्थिति है जिसमें आंत में उपस्थित
सूक्ष्मजीव कार्बोहाइड्रेट्स को नशीली शराब में बदल देते हैं। गेहूं, चावल, शकर, आलू
वगैरह के रूप में कार्बोहाइड्रेट हमारे भोजन का प्रमुख हिस्सा होते हैं। ऐसे में
जब इस विकार से ग्रस्त व्यक्ति शकर या अधिक कार्बोहाइड्रेट्स युक्त भोजन या पेय
पदार्थों का सेवन करता है, तब उसकी हालत किसी नशेड़ी के समान हो जाती
है।
इस रिपोर्ट के सह-लेखक डॉ. फहाद मलिक के
अनुसार उक्त व्यक्ति कार्य करने में काफी असमर्थ होता था,
खासकर भोजन करने के
बाद। इन लक्षणों की शुरुआत वर्ष 2011 में हुई थी जब उसे अंगूठे की चोट के कारण
एंटीबायोटिक दवाइयां दी गई थीं। डॉक्टरों ने ऐसी संभावना जताई है कि एंटीबायोटिक्स
के सेवन से आंत के सूक्ष्मजीवों की आबादी (माइक्रोबायोम) को क्षति पहुंची होगी।
उसमें निरंतर अस्वाभाविक रूप से आक्रामक व्यवहार देखा गया और यहां तक कि उसे नशे
में गाड़ी चलाने के मामले में गिरफ्तारी भी झेलनी पड़ी जबकि उसने बूंद भर भी शराब का
सेवन नहीं किया था।
इसी दौरान उसके किसी रिश्तेदार को ओहायो
में इसी तरह के एक मामले के बारे में पता चला और उसने ओहायो के डॉक्टरों से
परामर्श किया। डॉक्टरों ने उस व्यक्ति के मल का परीक्षण शराब उत्पादक सूक्ष्मजीवों
की उपस्थिति देखने के लिए किया। इसमें सेकरोमायसेस बूलार्डी (Saccharomyces
boulardii) और सेकरोमायसेस
सेरेविसी (Saccharomyces
cerevisiae) पाए गए। दोनों शराब
बनाने वाले खमीर हैं। पुष्टि के लिए डॉक्टरों ने उसे कार्बोहाइड्रेट्स का सेवन
करने को कहा। आठ घंटे बाद, उसके रक्त में अल्कोहल की सांद्रता बढ़कर 0.05 प्रतिशत हो गई
जिससे इस विचित्र निदान की पुष्टि हुई।
आखिरकार स्टेटन आइलैंड स्थित रिचमंड युनिवर्सिटी मेडिकल सेंटर, न्यू यॉर्क में उपचार के दौरान डॉक्टरों ने उसे एंटीबायोटिक दवाइयां देकर दो महीने तक निगरानी में रखा। इस उपचार के बाद शराब उत्पादक सूक्ष्मजीवों की संख्या कम तो हुई लेकिन कार्बोहाइड्रेट युक्त खुराक लेने पर समस्या फिर बिगड़ गई। इसके बाद उसकी आंत में बैक्टीरिया को बढ़ावा देने के लिए प्रोबायोटिक्स दिए गए जो काफी सहायक सिद्ध हुआ और धीरे-धीरे वह आहार में कार्बोहाइड्रेट्स शामिल कर सका – नशे और लीवर क्षति से डरे बिना। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://d3l207izes6a7a.cloudfront.net/images/share/autobrewery-syndrome_share.jpg
एक स्तर पर हर कोई जानता है कि वह मरने वाला है। इस्राइल के
बार इलान विश्वविद्यालय के अध्ययनकर्ताओं की परिकल्पना थी कि जब बात खुद की मृत्यु
की आती है तब हमारे मस्तिष्क में ऐसा कुछ है जो “पूर्ण समाप्ति, अंत, शून्यता”
जैसे विचारों को समझने से इन्कार करता है।
इस्राइल के एक शोधकर्ता याइर डोर-ज़िडरमन का
यह अध्ययन एक ओर मृत्यु के शाश्वत सत्य और मस्तिष्क के सीखने के तरीके के बीच
तालमेल बैठाने का एक प्रयास है। उनका मानना है कि हमारा मस्तिष्क ‘पूर्वानुमान
करने वाली मशीन’ है जो पुरानी जानकारी का उपयोग करके भविष्य में वैसी ही परिस्थिति
में होने वाली घटनाओं का अनुमान लगाता है। यह जीवित रहने के लिए महत्वपूर्ण है। एक
सत्य यह है कि एक न एक दिन हम सबको मरना है। तो हमारे मस्तिष्क के पास कोई तरीका
होना चाहिए कि वह स्वयं हमारी मृत्यु का अनुमान लगा सके। लेकिन ऐसा होता नहीं है।
इस विषय पर अध्ययन करने के लिए शोधकर्ताओं
ने 24 लोगों को चुना और यह समझने की कोशिश की कि स्वयं उनकी मृत्यु के मामले में
उनके मस्तिष्क का पूर्वानुमान तंत्र कैसे काम करता है।
ज़िडरमैन और उनकी टीम ने मस्तिष्क के एक
विशेष संकेत पर ध्यान दिया जो ‘अचंभे’ का द्योतक होता है। यह संकेत दर्शाता है कि
मस्तिष्क पैटर्न को देख रहा है और उनके आधार पर भविष्यवाणी कर रहा है। उदाहरण के
लिए, यदि आप किसी व्यक्ति को संतरे के तीन चित्र दिखाते हैं और
फिर उसके बाद एक सेब का चित्र दिखाते हैं तब मस्तिष्क में ‘अचंभे’ का संकेत पैदा
होता है क्योंकि पूर्व पैटर्न के आधार पर भविष्यवाणी संतरा देखने की थी।
टीम ने वालंटियर्स को चेहरों की तस्वीरें
दिखार्इं – या तो उनका अपना या किसी अजनबी का। इन सभी तस्वीरों के साथ कुछ
नकारात्मक शब्द या मृत्यु से जुड़े शब्द, जैसे ‘कब्र’ जोड़े गए थे। इसी दौरान
मैग्नेटोएनसेफेलोग्राफी की मदद से इन वालंटियर्स की मस्तिष्क की गतिविधियों को
मापा गया।
किसी चेहरे को मृत्यु सम्बंधी शब्दों से
जोड़ना सीखने के बाद, वालंटियर्स को एक अलग चेहरा दिखाया गया। ऐसा करने पर उनके
मस्तिष्क में ‘अचंभा’ संकेत देखा गया। क्योंकि उन्होंने एक विशिष्ट अजनबी चेहरे के
साथ मृत्यु की अवधारणा को जोड़ना सीख लिया था,
एक नया चेहरा दिखाई
देने पर वह आश्चर्यचकित थे।
लेकिन एक दूसरे परीक्षण में वालंटियर्स को
मृत्यु शब्द के साथ उनकी अपनी तस्वीर दिखाई गई। इसके बाद जब उनको एक अलग चेहरे की
तस्वीर दिखाई गई तब मस्तिष्क ने ‘अचंभा’ संकेत नहीं दिया। यानी जब एक व्यक्ति को
खुद की मौत से जोड़ने की बात आई तब उसके भविष्यवाणी तंत्र ने काम करना बंद कर
दिया।
दिक्कत यह है कि जैव विकास की प्रक्रिया में चेतना का जन्म हुआ और इसके साथ ही हम समझने लगे कि मृत्यु अवश्यंभावी है। कुछ सिद्धांतकारों के अनुसार, मृत्यु के बारे में जागरूकता से प्रजनन की संभावना कम हो सकती है क्योंकि आप मौत से डरकर जीवन साथी चुनने के लिए आवश्यक जोखिम नहीं उठाएंगे। एक परिकल्पना है कि दिमाग के विकास के साथ मौत जैसी वास्तविकता से इन्कार करने की क्षमता विकसित होना अनिवार्य था। अध्ययन के निष्कर्ष जल्द ही न्यूरोइमेज जर्नल में प्रकाशित किए जाएंगे। (स्रोत फीचर्स) नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://i.guim.co.uk/img/media/858dbd8314f317c533287ad5b2a4f11a6d3d5d47/0_264_2304_1382/master/2304.jpg?width=300&quality=85&auto=format&fit=max&s=688368de6c021ef737061ce75ff55590
लगभग साढ़े चार हज़ार साल पुरानी जर्मन कब्रगाहों के अवशेष और
उनमें मिले सामानों पर किए गए हालिया अध्ययन के नतीजों ने अध्ययनकर्ताओं को हैरत
में डाल दिया है। साइंस पत्रिका में प्रकाशित इस अध्ययन के नतीजों के
मुताबिक इन पुरानी जर्मन कब्रगाहों में वयस्क बेटियों के शव नदारद हैं।
ये अवशेष तकरीबन 20 साल पहले दक्षिण
ऑग्सबर्ग में लेक नदी के किनारे आवास निर्माण के लिए चल रही खुदाई में मिले थे।
हार्वर्ड मेडिकल स्कूल की एलिसा मिटनिक और उनके साथी खुदाई में मिले करीब 104 शवों
के डीएनए, शवों के साथ मिली वस्तुओं के विश्लेषण, रेडियोकार्बन
डेटिंग और दांतो में मौजूद स्ट्रॉन्टियम आइसोटोप की मात्रा के आधार पर उनके
सामाजिक ढांचे का अध्ययन कर रहे थे। अध्ययन में उन्होंने पाया कि इन कब्रगाहों में
वयस्क बेटियों का एक भी शव नहीं था। इसके विपरीत बेटों को पिता की ज़मीन पर दफनाया
गया था और उनके साथ उनकी संपत्ति भी रखी गई थी।
रोडियोकार्बन डेटिंग में उन्होंने पाया कि
ये लोग वहां 4750 से 3300 वर्ष पूर्व रहते थे। 200 वर्ष की इस अवधि में चार से
पांच पीढ़ियों का जीवन रहा। शवों के साथ मिली वस्तुओं और बर्तनों के आकार के आधार
पर अध्ययनकर्ताओं का कहना है कि शुरुआती पीढ़ी नव-पाषाण संस्कृति की थी। इसके बाद
की पीढ़ियों के लोग कांस्ययुग के थे, जिनके साथ उनकी कब्र में कांसे और तांबे के
खंजर, कुल्हाड़ी और छैनी मिली थी और इनमें पूर्व के लोगों के डीएनए
बरकरार थे। इनकी कब्र में दफन चीज़ों को देखकर पता चलता है कि ये उच्च श्रेणी के
लोग थे और धनवान थे। इनके वंशज आज भी युरोप में मौजूद हैं। इसके विपरीत कुछ लोगों
की कब्र में शव के साथ कोई सामान नहीं मिला है जिससे लगता है कि ये निम्न श्रेणी
के लोग थे। और इनके वाय गुणसूत्र उच्च श्रेणी के लोगों से भिन्न थे जिससे पता चलता
है कि वे अलग वंश के थे।
इसके अलावा एक तिहाई से भी अधिक महिलाएं
बहुत अधिक संपत्ति के साथ दफन की गई थीं। उनके डीएनए के विश्लेषण और स्ट्रॉन्टियम
आइसोटोप के विश्लेषण से पता चलता है कि ये महिलाएं मूलत: इस जगह की नहीं थी, किशोरावस्था
तक वे लेक नदी से दूर किसी अन्य स्थान पर रहती थीं। इन कब्रगाहों में इन महिलाओं
की बेटियों के कोई प्रमाण या निशान नहीं मिले हैं जिससे लगता है कि शादी के बाद वे
अपना घर छोड़ देती होंगी। इस जगह जिन भी स्थानीय स्त्रियों के शव मिले हैं वे या तो
15-17 वर्ष से कम उम्र की थीं या गरीब स्त्रियां थीं। तीन पुरुषों के दांतों में
मिले स्ट्रॉन्टियम की मात्रा से पता चलता है कि वे किशोरावस्था में उस जगह से कहीं
और चले गए थे और वयस्क होने पर लौट आए। जिससे पुरुषों की जीवन शैली का अंदाज़ा लग
सकता है।
इस समय सामाजिक स्तर पर तो असमानता दिखती
है लेकिन राजसी पुरुषों की कब्र में लगभग एक जैसी चीज़े थीं, जिससे
अंदाजा लगता है कि संपत्ति सिर्फ बड़े बेटे को नहीं बल्कि सभी बेटों को बराबर मिलती
थी।
ये नतीजे एक ही जगह और एक ही समय के हैं। ज़्यादा सामान्य नतीजे पर पहुंचने के लिए इसी तरह के विश्लेषण अलग-अलग समयों और जगहों पर करना होगा। (स्रोत फीचर्स) नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/inline__450w__no_aspect/public/TB_Brons_migration1_F2_online.jpg?itok=TJwG85ds
“सत्य को झूठ से अलग करने के लिए वैज्ञानिक मिज़ाज की ज़रूरत होती है। विज्ञान के सिद्धान्त चौकस दिमाग का निर्माण करते हैं और तथ्य को भ्रामक जानकारियों से अलग समझने में मदद करते हैं।” – नोबेल विजेता वैज्ञानिक सर्ज हैरोशे ff
आदिम मनुष्य बादल, आसमान,
सागर, तूफान
नदी, पहाड़, तरह-तरह के पेड़ पौधों, जीव-जंतुओं
के बीच अपने आपको असुरक्षित, असहाय और असमर्थ महसूस करता था। वह भय, कौतुहल
और जिज्ञासा से व्याकुल हो जाता था।
उसका जीवित रह पाना उसके अपने परिवेश की
जानकारी और अवलोकन पर निर्भर था, इसलिए अपने देखे-अनदेखे दृश्यों से उसने
अनेकों पौराणिक कथाओं की रचना की। इन कथाओं के ज़रिए मनुष्य, विभिन्न
जानवरों और पेड़-पौधों की उत्पत्ति की कल्पना तथा व्याख्या की गई। इन कथाओं में
जानवर और पौधे मनुष्य की भाषा समझते और बोलते थे। वे एक-दूसरे का रूप धारण किया
करते थे। इन कथाओं में ईश्वररूपी सृष्टा की बात कही गई। मनुष्य की चेतना ने सृष्टि
के संचालक, नियन्ता, करुणामय ईश्वर का आविष्कार किया। आत्मा तथा
परमात्मा की अनुभूति की उसने। वह प्रकृति के साथ एकात्मकता महसूस करने लगा। उसे
सुरक्षा का आश्वासन मिला।
समय के साथ विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों में
जानकारियां इकठ्ठी होती रहीं। समाज, संस्कृतियों का विकास होता गया। हिन्दू, बौद्ध, ईसाई, कनफ्यूशियसवाद, इस्लाम
इत्यादि ज्ञान की परंपराएं विकसित और स्थापित हुर्इं। इन सभी परंपराओं की स्थापना
है कि इस संसार में जो भी जानने लायक महत्वपूर्ण बातें हैं उन्हें जाना जा चुका
है। ईश्वर ने ब्राहृांड की सृष्टि की, मनुष्य और अन्य जीवों का निर्माण किया।
माना गया कि प्राचीन ऋषिगण, पैगंबर और धर्मप्रवर्तक व्यापक ज्ञान से
युक्त थे और यह ज्ञान धर्मग्रंथों तथा मौखिक परंपराओं में हमें उपलब्ध है। हम इन
ग्रंथों तथा परंपराओं के सम्यक अध्ययन से ही ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। मनीषियों
के उपदेशों और वाणियों से हमें इस गूढ़ ज्ञान की उपलब्धि हो सकती है। इस स्थापना
में यह अकल्पनीय है कि वेद, बाइबल या कुरान में ब्राहृांड के किसी
महत्वपूर्ण रहस्य की जानकारी न हो जिसे कोई हाड़-मांस का जीव उद्घाटित कर सके।
सोलहवीं सदी से ज्ञान की एक अनोखी परंपरा
का विकास हुआ। यह परंपरा विज्ञान की परंपरा है। इसकी बुनियाद में यह स्वीकृति है
कि ब्राहृांड के सारे महत्वपूर्ण सवालों के जवाब हमें नहीं मालूम, उनकी
तलाश करनी है।
वह महान आविष्कार जिसने वैज्ञानिक क्रांति
का आगाज़ किया, वह इसी बात का आविष्कार था कि मनुष्य अपने सबसे अधिक
महत्वपूर्ण सवालों के जवाब नहीं जानता। वैसे तो हर काल में, सर्वाधिक
धार्मिक और कट्टर समय में भी, ऐसे लोग हुए हैं जिन्होंने कहा कि ऐसी कई
महत्वपूर्ण बातें हैं, जिनकी जानकारी पूरी परंपरा को नहीं है। ये लोग हाशिए पर कर
दिए गए या सज़ा के भागी हुए अथवा ऐसा हुआ कि उन्होंने अपना नया मत प्रतिपादित किया
और कालांतर में यह मत कहने लगा कि उसके पास सारे सवालों के जवाब हैं।
सन 1543 में निकोलस कॉपर्निकस की पुस्तक De revolutionibus orbium का प्रकाशन हुआ। यह मानव सभ्यता के विकास
में एक क्रांति की सूचना थी। इस क्रांति का नाम वैज्ञानिक क्रांति है। इस पुस्तक
ने स्पष्ट तौर पर घोषणा की कि आकाशीय पिंडों का केंद्र धरती नहीं, सूरज
है। यह घोषणा उस समय के स्वीकृत ज्ञान को नकारती थी,
जिसके अनुसार धरती
ब्राहृांड का केंद्र है। यह बात आज साधारण लगती है,
पर कॉपर्निकस के समय
(1473 -1543) यह कहना धर्मविरोधी माना जाता था। उस समय चर्च समाजपति की भूमिका में
था। चर्च की मान्यता थी कि धरती ईश्वर के आकाश का केंद्र है। कॉपर्निकस को विश्वास
था कि धर्म-न्यायाधिकरण उसे और उसके सिद्धांत दोनों को ही नष्ट कर डालेगा। इसलिए
उसने इसके प्रकाशन के लिए मृत्युशय्या पर जाने की प्रतीक्षा की। अपनी सुरक्षा के
लिए कॉपर्निकस की चिंता पूरी तरह सही थी। सत्तावन साल बाद जियार्डेनो ब्रूनो ने
खुले तौर पर कॉपर्निकस के सिद्धांत के पक्ष में वक्तव्य देने की ‘धृष्टता’ की तो
उन्हें इस ‘कुकर्म’ के लिए ज़िंदा जला दिया गया था।
गैलीलियो(1564-1642) ने प्रतिपादित किया कि
प्रकृति की किताब गणित की भाषा में लिखी गई है। इस कथन ने प्राकृतिक दर्शन को
मौखिक गुणात्मक विवरण से गणितीय विवरण में बदल दिया। इसमें प्राकृतिक तथ्यों की
खोज के लिए प्रयोग आयोजित करना स्वीकृत एवं मान्य पद्धति हो गई। अंत में उनके
टेलीस्कोप ने खगोल विज्ञान में क्रांतिकारी प्रभाव डाला और कॉपर्निकस की सूर्य
केंद्रित ब्राहृांड की अवधारणा के मान्य होने का रास्ता साफ किया। लेकिन इस सिस्टम की वकालत करने के कारण उन्हें धर्म-न्यायाधिकरण
का सामना करना पड़ा था।
एक सदी बाद,
फ्रांसीसी गणितज्ञ और
दार्शनिक रेने देकार्ते ने सारे स्थापित सत्य की वैधता का परीक्षण करने के लिए एक
सर्वथा नई पद्धति की वकालत की। आध्यात्मिक संसार के अदृश्य सत्य का इस पद्धति से
विश्लेषण नहीं किया जा सकता था। आधुनिक काल में वैज्ञानिक प्राकृतिक संसार के
अध्ययन के लिए प्रवृत्त हुए। आध्यात्मिक सत्य का अध्ययन सम्मानित नहीं रहा।
क्योंकि उसके सत्य की समीक्षा विज्ञान के विश्लेषणात्मक तरीकों से नहीं की जा
सकती। जीवन और ब्राहृांड के महत्वपूर्ण तथ्य तर्क-संगत वैज्ञानिकों की गवेषणा के
क्षेत्र हो गए। देकार्ते ने ईश्वर की जगह मनुष्य को सत्य का अंतिम दायित्व दिया, जबकि
पारंपरिक अवधारणा में एक बाहरी शक्ति सत्य को परिभाषित करती है। देकार्ते के
मुताबिक सत्य व्यक्ति के विवेक पर निर्भर करता है। विज्ञान मौलिकता को महान
उपलब्धि का निशान मानता है। मौलिकता स्वाधीनता का परिणाम होती है, प्रदत्त
ज्ञान से असहमति है।
सन 1859 में चार्ल्स डार्विन के जैव
विकासवाद के सिद्धान्त के प्रकाशन के साथ विज्ञान और आत्मा के रिश्ते के तार-तार
होने की बुनियाद एकदम पक्की हो गई।
आधुनिक विज्ञान इस मायने में अनोखा है कि
यह खुले तौर पर सामूहिक अज्ञान की घोषणा करता है। डार्विन ने नहीं कहा कि उन्होंने
जीवन की पहेली का अंतिम समाधान कर दिया है और इसके आगे कोई और बात नहीं हो सकती।
सदियों के व्यापक वैज्ञानिक शोध के बाद भी जीव वैज्ञानिक स्वीकार करते हैं कि वे
नहीं जानते कि मस्तिष्क में चेतना कैसे उत्पन्न होती है। पदार्थ वैज्ञानिक स्वीकार
करते हैं कि उन्हें नहीं मालूम कि बिग बैंग कैसे हुआ या सामान्य सापेक्षता के
सिद्धांत और क्वांटम मेकेनिक्स के बीच सामंजस्य कैसे स्थापित किया जाए।
वैज्ञानिक क्रांति के पहले अधिकतर
संस्कृतियों में विकास और प्रगति की अवधारणा नहीं थी। समझ यह थी कि सृष्टि का
स्वर्णिम काल अतीत में था। मानवीय बुद्धि से रोज़मर्रा ज़िंदगी के कुछ पहलुओं में
यदा-कदा कुछ उन्नति हो सकती है लेकिन संसार का संचालन ईश्वरीय विधान करता है।
प्राचीन काल की प्रज्ञा का अनुपालन करने से हम सृष्टि और समाज को संकटग्रस्त होने
से रोक सकते हैं। लेकिन मानव समाज की मौलिक समस्याओं से उबरना नामुमकिन माना जाता
था। जब सर्वज्ञाता ऋषि, ईसा, मोहम्मद और कन्फ्यूशियस अकाल, रोग, गरीबी, युद्ध
का नाश नहीं कर पाए तो हम साधारण मनुष्य किस खेत की मूली हैं?
वैज्ञानिक क्रांति के फलस्वरूप एक नई
संस्कृति की शुरुआत हुई। उसके केंद्र में यह विचार है कि वैज्ञानिक आविष्कार हमें
नई क्षमताओं से लैस कर सकते हैं। जैसे-जैसे विज्ञान एक के बाद एक जटिल समस्याओं का
समाधान देने लगा, लोगों को विश्वास होने लगा कि नई जानकारियां हासिल करके और
इनका उपयोग कर हम अपनी समस्याओं को सुलझा सकते हैं। दरिद्रता, रोग, युद्ध, अकाल, बुढ़ापा, मृत्यु
विधि का विधान नहीं है। ये बस हमारे अज्ञान का नतीजा हैं।
विज्ञान का कोई पूर्व-निर्धारित मत/सिद्धांत नहीं है, अलबत्ता, इसकी गवेषणा की कुछ सामान्य विधियां हैं। सभी अवलोकनों पर आधारित हैं। हम अपनी ज्ञानेंद्रियों के जरिए ये अवलोकन करते हैं और गणितीय औज़ारों की मदद से इनका विश्लेषण करते हैं। (स्रोत फीचर्स) नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://familytimescny.com/wp-content/uploads/2016/09/STEM.jpg
हाल मानव मस्तिष्क को अपने हर एक भाग को नए कार्यों के लिए
आवंटित करना बखूबी आता है। दृष्टि जैसी अनुभूति के अभाव में मस्तिष्क दृष्टि से
सम्बंधित क्षेत्र को ध्वनि या स्पर्श जैसे नए इनपुट संभालने के लिए अनुकूलित कर
लेता है। कई दृष्टिहीन लोग मुंह से कुछ आवाज़ें निकालते हैं और उनकी प्रतिध्वनियों
की मदद से वस्तुओं की स्थिति का अंदाज़ लगाते हैं। ऐसे व्यक्तियों पर हाल ही में
किए गए एक अध्ययन से पता चला है कि मस्तिष्क में बेकार पड़े हिस्सों का उपयोग काफी
उच्च स्तर पर किया जाता है। पता चला है कि प्रारंभिक रूप से दृश्य प्रसंस्करण के
लिए समर्पित मस्तिष्क क्षेत्र उन्हीं सिद्धांतों का उपयोग करके प्रतिध्वनियों की
व्याख्या कर लेता है जैसे आंखों से मिले संकेतों की व्याख्या की जाती है।
दृष्टि वाले लोगों में, रेटिना
(दृष्टिपटल) के संदेशों को मस्तिष्क के पीछे वाले क्षेत्र (प्राइमरी विज़ुअल
कॉर्टेक्स) में भेजा जाता है। हम जानते हैं कि मस्तिष्क के इस क्षेत्र की जमावट
हमारे चारों ओर के वास्तविक स्थान की जमावट से मेल खाती है। हमारे पर्यावरण में
पास-पास के दो बिंदुओं की छवि हमारे रेटिना पर पास-पास के बिंदुओं पर बनती है और
इसके संदेश प्राइमरी विज़ुअल कॉर्टेक्स के भी पास-पास के बिंदुओं को सक्रिय करते
हैं। शोधकर्ता यह जानना चाहते थे कि क्या दृष्टिहीन लोग प्राइमरी विज़ुअल कॉर्टेक्स
में दृष्टि-आधारित स्थान मानचित्रण की तर्ज़ पर ही प्रतिध्वनियों का प्रोसेसिंग
करते हैं।
इसके लिए शोधकर्ताओं ने दृष्टिहीन और
दृष्टि वाले लोगों से कुछ रिकॉर्डिंग सुनने को कहा। यह रिकॉर्डेड आवाज़ें दरअसल
कमरे के अलग-अलग स्थानों पर रखी वस्तुओं से टकराकर आ रही थी। इस दौरान मस्तिष्क की
गतिविधि को समझने के लिए उन लोगों को मैग्नेटिक रेजोनेंस इमेजिंग (एमआरआई) स्कैनर
में रखा गया था। शोधकर्ताओं ने प्रतिध्वनि का उपयोग करने वाले लोगों के प्राइमरी
विज़ुअल कॉर्टेक्स में उसी प्रकार की सक्रियता देखी जैसी दृष्टि वाले लोगों में
दृश्य संकेतों से होती है।
प्रोसीडिंग ऑफ द रॉयल सोसाइटी-बी की रिपोर्ट से लगता है कि विज़ुअल कॉर्टेक्स की स्थान मानचित्रण क्षमता का उपयोग एक अलग अनुभूति के लिए किया जा सकता है। किसी व्यक्ति में सुनने और स्थान मानचित्रण की इस मस्तिष्क क्रिया के बीच जितनी अधिक समरूपता रही, वस्तुओं की स्थिति के अनुमान में भी उतनी ही सटीकता दिखी। इस शोध से तंत्रिका लचीलेपन का खुलासा हुआ है जिससे मस्तिष्क को स्थान सम्बंधी जानकारी का उपयोग करने के लिए प्रशिक्षित किया जा सकता है भले ही वह आंखों के माध्यम से प्राप्त न हुई हो। (स्रोत फीचर्स) नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://i.gzn.jp/img/2019/10/16/blind-people-using-adapted-visual-cortex/rspb20191910f04.jpg
आम तौर पर पीले रंग को खुशी और उमंग जैसी भावनाओं के साथ
जोड़कर देखा जाता है। लेकिन जर्नल ऑफ एनवॉयरमेंटलसाइकोलॉजी में
प्रकाशित ताज़ा अध्ययन बताता है कि सभी लोग पीले रंग को सुखद एहसास या अनुभूति के
साथ जोड़कर नहीं देखते।
दरअसल शोधकर्ता यह जानना चाहते थे कि रंगों
के साथ भावनाओं के जुड़ाव में कौन से कारक भूमिका निभाते हैं। यह जानने के लिए
उन्होंने एक नई परिकल्पना को जांचा कि क्या किसी खास रंग से उमड़ने वाली भावनाओं को
आसपास का भौतिक परिवेश प्रभावित करता है। उदाहरण के लिए क्या ठंडे या बरसाती इलाके
फिनलैंड में रहने वाले व्यक्ति में पीले रंग से जो भावनाएं उमड़ती हैं, वे
सहारा रेगिस्तान में रहने वाले व्यक्ति से अलग होंगी?
शोधकर्ताओं ने 55 देशों के लगभग 6625 लोगों
पर हुए सर्वे के डैटा को देखा। इस सर्वे में लोगों को 12 अलग-अलग रंगों को इस आधार
पर अंक देने को कहा गया था कि वे खुशी, गौरव,
डर और शर्म जैसी
भावनाओं का सम्बंध किस रंग से जोड़ते हैं।
अध्ययन में शोधकर्ताओं ने सिर्फ पीले रंग
से जुड़े डैटा का इस आधार पर विश्लेषण किया कि विभिन्न कारक जैसे धूप की अवधि, दिन
की रोशनी की अवधि और वर्षा की मात्रा कैसे लोगों द्वारा रंगों के लिए बताई गई
भावनाओं से जुड़ी हैं। लोग पीले रंग के प्रति कैसा अनुभव करते हैं इसका सबसे अधिक
सम्बंध दो बातों से देखा गया: वे जहां रहते हैं वहां सालाना कितनी बारिश होती है
और वह स्थान भूमध्य रेखा से कितनी दूरी पर है। शोधकर्ताओं ने पाया कि पीले रंग को
उमंग से जोड़कर देखने वाले लोगों की संख्या वर्षा वाले इलाकों में अधिक थी और
भूमध्य रेखा के नज़दीक कम। इसके अलावा भूमध्य रेखा से दूर रहने वाले लोगों ने उजले
रंगों की अधिक सराहना की। मिरुा (गर्म स्थान) में सिर्फ 5.7 लोगों ने पीले रंग को
खुशी के साथ जोड़ा जबकि बर्फीले फिनलैंड के 87.7 प्रतिशत लोगों ने पीले रंग को खुशी
से जोड़कर देखा। मध्यम जलवायु वाले यू.एस. में पीले रंग और खुशी का जुड़ाव 60-70
प्रतिशत लोगों ने जोड़ा।
अध्ययन में मौसम परिवर्तन के साथ रंगों में बदलती रुचि पर भी गौर किया गया – क्या किसी इलाके में लोग गर्मियों की बजाय सर्दियों में पीले रंग को ज़्यादा पसंद करते हैं? पाया गया कि रंगों को लेकर लोगों की राय साल भर लगभग एक जैसी ही रहती है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/inline__450w__no_aspect/public/155373600-1280×720.jpg?itok=4aQx0V5F