निजी स्वास्थ्य सेवा में सुधार की तत्काल आवश्यकता – डॉ. अभय शुक्ला

कोविड-19 महामारी के दौरान इलाज के लिए भटकते लाखों भारतीयों को दर्दनाक अनुभवों का सामना करना पड़ा था। इसने हमारे स्वास्थ्य सेवा तंत्र में दो परस्पर सम्बंधित परिवर्तनों की तत्काल आवश्यकता को रेखांकित किया है। एक तो सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं को मज़बूत करना और दूसरा निजी स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं का नियमन। चूंकि भारत में स्वास्थ्य सेवा का लगभग 70 प्रतिशत हिस्सा निजी क्षेत्र के नियंत्रण में है, इसलिए स्वास्थ्य क्षेत्र में सुधार की कोई भी पहल निजी स्वास्थ्य सेवा को शामिल किए बिना पूरी नहीं हो सकती।

गौरतलब है कि फोर्ब्स द्वारा 2024 में जारी अरबपतियों की सूची में 200 भारतीय शामिल हैं। विनिर्माण (मैन्यूफेक्चरिंग) के बाद, भारत में अरबपतियों की दूसरी सबसे बड़ी संख्या (36) स्वास्थ्य सेवा (फार्मास्यूटिकल्स सहित) उद्योग से है। और यह संख्या हर साल बढ़ रही है, खासकर कोविड-19 महामारी के दौरान और उसके बाद। भारत में निजी स्वास्थ्य सेवा उद्योग भरपूर मुनाफा कमाता है क्योंकि इसका समुचित नियमन नहीं होता है, और अक्सर मरीज़ों से अनाप-शनाप शुल्क वसूला जाता है।

यह परिदृश्य हाल ही में जन स्वास्थ्य अभियान द्वारा प्रकाशित 18 सूत्री जन स्वास्थ्य घोषणापत्र में शामिल नीतिगत सिफारिशों की प्रासंगिकता को रेखांकित करता है। इसमें सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा, निजी स्वास्थ्य सेवा, औषधि नीति और सबके लिए स्वास्थ्य सेवा के अधिकार सहित विविध विषयों को शामिल किया गया है और परस्पर-सम्बंधित नीतिगत सिफारिशें प्रस्तुत की गई हैं। इस लेख में भारत में निजी स्वास्थ्य सेवा से सम्बंधित कुछ प्रमुख उपायों की संक्षिप्त रूपरेखा दी गई है।

पारदर्शिता और सेवा दरों का मानकीकरण

भारत में निजी स्वास्थ्य सेवा प्रदाता सभी व्यावसायिक सेवाओं में सबसे अनोखे हैं। अनोखापन यह है कि इनकी दरें आम तौर पर सार्वजनिक डोमेन में पारदर्शी रूप से उपलब्ध नहीं होती हैं। ये दरें एक ही प्रक्रिया या उपचार के लिए बहुत अलग-अलग होती हैं – न केवल एक ही क्षेत्र के विभिन्न अस्पतालों में बल्कि एक ही अस्पताल के अंदर विभिन्न रोगियों के लिए भी अलग-अलग हो सकती हैं। चिकित्सा प्रतिष्ठान (केंद्र सरकार) नियम, 2012 के अनुसार सभी स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं को अपनी दरें प्रदर्शित करना अनिवार्य है और समय-समय पर सरकार द्वारा निर्धारित मानक दरों पर शुल्क लेना भी अनिवार्य है। लेकिन यह काफी दुर्भाग्यपूर्ण है कि इन कानूनी प्रावधानों के अधिनियमित होने के 12 साल बाद भी इन्हें अभी तक लागू नहीं किया गया है।

हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में हस्तक्षेप करते हुए केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय से स्वास्थ्य सेवा दरों को कानून के अनुसार मानकीकृत करने का आदेश दिया है। अब समय आ गया है कि स्वास्थ्य सेवा दरों में पारदर्शिता सुनिश्चित की जाए और दरों के मानकीकरण को उचित तरीके से लागू किया जाए। यह तकनीकी रूप से संभव भी है। चूंकि हज़ारों निजी अस्पताल केंद्र सरकार स्वास्थ्य योजना और प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना जैसे बड़े सरकारी कार्यक्रमों के तहत सभी सामान्य चिकित्सा प्रक्रियाओं के लिए मानक दरों पर भुगतान स्वीकार करते हैं, इसलिए इन उपायों को कानूनी रूप से लागू करना कोई मुश्किल काम नहीं है। यह चिकित्सा प्रतिष्ठान अधिनियम या राज्य सरकारों द्वारा अपनाए जाने वाले अधिक बेहतर अधिनियमों को लागू करते हुए सुनिश्चित किया जा सकता है।

बेतुके स्वास्थ्य हस्तक्षेपों को रोकने के लिए भी मानक प्रोटोकॉल लागू करना अनिवार्य है। वर्तमान में व्यापारिक उद्देश्यों से ऐसे बेतुके हस्तक्षेपों को व्यापक पैमाने पर प्रचारित किया जाता है। उदाहरण के लिए, भारत में सिज़ेरियन डिलीवरी का अनुपात निजी अस्पतालों (48%) में सरकारी अस्पतालों (14%) की तुलना में तीन गुना अधिक है। चिकित्सकीय रूप से सीज़ेरियन प्रक्रिया की दर कुल प्रसवों का 10-15% अनुशंसित है जबकि निजी अस्पतालों में ये कहीं अधिक होते हैं। उपचार पद्धतियों को तर्कसंगत बनाने और ज़रूरत से ज़्यादा चिकित्सीय प्रक्रियाओं पर अंकुश लगाने से न केवल निजी अस्पतालों द्वारा वसूले जाने वाले भारी-भरकम बिलों में कमी आएगी, बल्कि रोगियों के लिए स्वास्थ्य सेवा परिणामों में भी महत्वपूर्ण सुधार होगा।

रोगियों के अधिकार

रोगियों और अस्पतालों के बीच जानकारी और शक्ति की भारी असमानता होती है। इसे देखते हुए रोगियों की सुरक्षा के लिए कुछ अधिकारों को सार्वभौमिक रूप से स्वीकार किया गया है। इनमें शामिल हैं: प्रत्येक रोगी को अपने स्वास्थ्य की स्थिति और उपचार की बुनियादी जानकारी प्राप्त करने का अधिकार; चिकित्सा की अपेक्षित लागत तथा उसका मदवार बिल प्राप्त करने का अधिकार; दूसरी राय लेने का अधिकार; पूरी जानकारी के आधार पर सहमति देने का अधिकार; गोपनीयता और औषधियां व नैदानिक परीक्षण के लिए प्रदाता चुनने का अधिकार; और यह सुनिश्चित करना कि कोई भी अस्पताल किसी भी बहाने से रोगी के शव को रोके न रखे।

भारतीय संदर्भ में, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने 2018 में रोगियों के अधिकारों और ज़िम्मेदारियों की एक सूची तैयार की थी। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने 2019 में इस चार्टर का संक्षिप्त रूप और फिर 2021 में एक समग्र चार्टर सभी राज्य सरकारों को भेजा था जिसमें रोगियों के 20 अधिकारों को शामिल किया गया था। अलबत्ता, अब तक इन अधिकारों पर आधिकारिक स्तर पर कम ही ध्यान दिया गया है। संपूर्ण रोगी अधिकार चार्टर (कुछ अस्पतालों में अपनाया गया कमज़ोर संस्करण नहीं) को देश की सभी स्वास्थ्य संस्थाओं में प्रभावी ढंग से लागू किया जाना चाहिए। इससे रोगियों और उनकी देखभाल करने वालों को अनुकूल वातावरण में स्वास्थ्य सेवा का लाभ मिल सकेगा। ऐसा सुरक्षित माहौल बनाने से रोगियों और प्रदाताओं के बीच आवश्यक विश्वास को फिर से स्थापित करने में मदद मिलेगी।

इसके अलावा, रोगियों की निजी अस्पतालों से सम्बंधित गंभीर शिकायतों के लिए न्याय सुनिश्चित करने में मेडिकल काउंसिल जैसे मौजूदा तंत्र की विफलता को देखते हुए ज़रूरी है कि जिला स्तरीय उपयोगकर्ता-अनुकूल शिकायत निवारण प्रणाली शुरू हो, जिसकी निगरानी विविध हितधारकों द्वारा हो।

कॉलेजों का व्यावसायीकरण

जन स्वास्थ्य अभियान के घोषणापत्र में निजी स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं पर लगाम कसने के साथ-साथ चिकित्सा शिक्षा से सम्बंधित कुछ उपायों का भी उल्लेख किया गया है। इसमें विशेष रूप से व्यावसायिक निजी मेडिकल कॉलेजों को नियंत्रित करने की तत्काल आवश्यकता है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि उनकी फीस सरकारी मेडिकल कॉलेजों से अधिक न हो। इसके अलावा, चिकित्सा शिक्षा का विस्तार व्यावसायिक निजी संस्थानों की बजाय सरकारी कॉलेजों पर आधारित होना चाहिए। राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग को स्वतंत्र, बहु-हितधारक समीक्षा और सुधार की आवश्यकता है। इस निकाय की आलोचना होती रही है कि इसमें विविध हितधारकों के प्रतिनिधित्व का अभाव है, निर्णय प्रक्रिया अत्यधिक केंद्रीकृत है और चिकित्सा शिक्षा को अधिक व्यावसायिक बनाने का रुझान है।

इसके अलावा, राष्ट्रीय पात्रता-सह-प्रवेश परीक्षा (एनईईटी) के पुनर्गठन की भी आवश्यकता है। वर्तमान स्वरूप में यह परीक्षा कमज़ोर वर्ग के उम्मीदवारों के लिए घाटे का सौदा प्रतीत हो रही है और राज्यों से स्वयं की मेडिकल प्रवेश प्रक्रियाओं को निर्धारित करने की स्वायत्तता छीन रही है।

जनहित में निजी स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार के इन उपायों को एक लोक-केंद्रित सार्वभौमिक स्वास्थ्य सेवा विकसित करने के व्यापक प्रयास के हिस्से के रूप में देखना चाहिए जो सार्वजनिक सेवाओं के सुदृढ़ीकरण और विस्तार पर आधारित हो और ज़रूरत पड़ने पर विनियमित निजी प्रदाताओं को भी शामिल किया जा सकता है। थाईलैंड के स्वास्थ्य सेवा तंत्र जैसे सफल मॉडलों का उदाहरण लेते हुए, भारत में भी मुफ्त और गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य सेवा तक अधिकार-आधारित पहुंच प्रदान की जानी चाहिए।

आज, सभी राजनीतिक दलों को इन परिवर्तनों को लागू करने के लिए प्रतिबद्ध होना चाहिए, जबकि एक नागरिक होने की हैसियत से हमें दृढ़तापूर्वक इनकी मांग करनी चाहिए। भारत में 2024 का विश्व स्वास्थ्य दिवस मनाने का यही सबसे उपयुक्त तरीका होगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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डिप्रेशन की दवाइयां और चूहों पर प्रयोग

जब डिप्रेशन यानी अवसाद के लिए कोई दवा विकसित होती है तो उसका परीक्षण कैसे किया जाता है? पिछले कुछ दशकों से वैज्ञानिकों के पास एक सरल सा परीक्षण रहा है। 1977 में निर्मित इस परीक्षण को जबरन तैराकी परीक्षण (forced swim test FST) कहते हैं। यह परीक्षण इस धारणा पर टिका है कि कोई अवसादग्रस्त जंतु जल्दी ही हाथ डाल देगा। लगता था कि यह परीक्षण कारगर है। देखा गया था कि डिप्रेशन-रोधी दवाइयां और इलेक्ट्रोकंवल्सिव थेरपी (ईसीटी या सरल शब्दों में बिजली के झटके) देने पर जंतु हार मानने से पहले थोड़ी ज़्यादा कोशिश करते हैं। यह परीक्षण इतना लोकप्रिय है कि हर साल लगभग 600 शोध पत्रों में इसका उल्लेख होता है।
जबरन तैराकी परीक्षण में किया यह जाता है कि किसी चूहे को पानी भरे एक टब में छोड़ दिया जाता है और यह देखा जाता है कि वह कब तक तैरने की कोशिश करता है और कितनी देर बाद कोशिश करना छोड़ देता है। ऐसा देखा गया है कि अवसाद-रोधी दवा देने के बाद चूहे ज़्यादा देर तक तैरने की कोशिश करते हैं।
परीक्षण में कई अगर-मगर होते हैं। जैसे चूहे के प्रदर्शन पर इस बात का असर पड़ता है कि वह पहले से कितने तनाव में था। यह भी देखा गया है कि चतुर चूहे समझ जाते हैं कि अंतत: शोधकर्ता उन्हें सुरक्षित बचा लेंगे। और सबसे बड़ी बात यह है कि चूहों पर असर के आधार पर यह नहीं कहा जा सकता कि वह दवा मनुष्यों पर भी काम करेगी। इन दिक्कतों के चलते जंतु अधिकार कार्यकर्ता (जैसे पीपुल फॉर एथिकल ट्रीटमेंट ऑफ एनिमल्स यानी पेटा) इस परीक्षण पर सवाल उठाते रहे हैं।
कुछ समय से शोधकर्ताओं के बीच भी इस परीक्षण को लेकर शंकाएं पैदा होने लगी हैं। खास तौर से इस बात को लेकर संदेह जताए जा रहे हैं कि क्या यह परीक्षण इस बात का सही पूर्वानुमान कर पाता है कि कोई अवसाद-रोधी दवा मनुष्यों पर कारगर होगी। इस परीक्षण का विरोध बढ़ता जा रहा है। एक चिंता यह है कि जबरन तैराकी परीक्षण निहायत क्रूर है और परिणाम सटीक नहीं होते।
2023 में ऑस्ट्रेलिया की राष्ट्रीय स्वास्थ्य व चिकित्सा अनुसंधान परिषद ने कह दिया था कि वह जबरन तैराकी परीक्षण करने वाले अनुसंधान के लिए पैसा नहीं देगी। यू.के. में निर्देश है कि यदि इस परीक्षण का उपयोग करना है तो उसे उचित ठहराने का कारण बताना होगा। फिर ऑस्ट्रेलिया के प्रांत न्यू साउथ वेल्स ने इसे गैर-कानूनी घोषित कर दिया। कम से कम 13 बड़ी दवा कंपनियों ने कहा है कि वे इस परीक्षण का उपयोग नहीं करेंगी। यूएस में प्रतिबंध तो नहीं लगाया गया है किंतु इसे निरुत्साहित करने की नीति बनाई है।
इस सबका एक सकारात्मक असर यह हुआ है कि शोधकर्ता अब नए वैकल्पिक परीक्षणों की तलाश कर रहे हैं। खास तौर से यह देखने की कोशिश की जा रही है कि मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े व्यवहारों की पड़ताल की जाए। जैसे जीवन का आनंद, नींद का उम्दा पैटर्न, तनाव के प्रति लचीलापन वगैरह। सोच यह है कि अवसाद को एक स्वतंत्र तकलीफ न माना जाए बल्कि कई मानसिक विकारों के हिस्से के रूप में देखा जाए। अलबत्ता, तथ्य यह है कि 2018 से 2020 के बीच अवसाद से सम्बंधित 60 प्रतिशत शोध पत्रों में जबरन तैराकी परीक्षण का उपयोग किया गया और बताया गया कि ‘यह अवसादनुमा व्यवहार’ का उपयुक्त द्योतक है।
बहरहाल, नए परीक्षणों की तलाश जारी है। जैसे फरवरी में न्यूरोसायकोफार्मेकोलॉजी जर्नल में प्रकाशित एक शोध पत्र में औषधि वैज्ञानिक मार्को बोर्टोलेटो ने ऐसे ही परीक्षण की जानकारी दी है। इस परीक्षण में चूहे को यह सीखना होता है कि वह पानी से बाहर निकलने के लिए वहां बने प्लेटफॉर्म्स पर चढ़ सकता है लेकिन जब वह उन पर चढ़ता है तो वे डूब जाते हैं। परीक्षण में यह देखा जाता है कि चूहा एक स्थिर प्लेटफॉर्म ढूंढने की कोशिश कब तक जारी रखता है। एक परीक्षण में पता चला कि चूहों को अवसाद-रोधी दवा प्लोक्ज़ेटिन देने पर या उन्हें कसरत कराने पर वे देर तक कोशिश करते रहे।
ऐसा ही एक विकल्प तंत्रिका वैज्ञानिक मॉरिट्ज़ रोसनर भी विकसित करने की कोशिश कर रहे हैं। अपने परीक्षण का उपयोग करते हुए उन्होंने दर्शाया है कि बायपोलर तकलीफ की दवा लीथियम देने पर चूहों का प्रदर्शन बेहतर रहा। उनके परीक्षण में एक नहीं बल्कि 11 व्यवहारों का अवलोकन किया जाता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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जेरोसाइंस: बढ़ती उम्र से सम्बंधित विज्ञान – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

न्यूयॉर्क स्थित कोलंबिया विश्वविद्यालय (जहां से मैंने उच्च शिक्षा प्राप्त की) के महामारी विज्ञानी डॉ. डेनियल बेल्स्की ने एक नया शब्द गढ़ा है ‘जेरोसाइंस’, जिसका अर्थ है बुढ़ापा या बढ़ती उम्र सम्बंधी विज्ञान। इसके तहत, उन्होंने एक अनोखा रक्त परीक्षण तैयार किया है जो यह बताता है कि कोई व्यक्ति किस रफ्तार से बूढ़ा हो रहा है।
उनके दल ने एक विधि विकसित की है जिसमें वरिष्ठजनों के डीएनए में एक एंज़ाइम के ज़रिए मिथाइल समूहों के निर्माण का अध्ययन किया जाता है। उन्होंने पाया है कि डीएनए पर मिथाइल समूहों का जुड़ना (मिथाइलेशन) उम्र बढ़ने के प्रति संवेदनशील है। इस एंज़ाइम को अक्सर ‘जेरोज़ाइम’ कहा जाता है। (मिथाइलेशन डीएनए और अन्य अणुओं का रासायनिक संशोधन है जो तब होता है जब कोशिकाएं विभाजित होकर नई कोशिका बनाती हैं।)
जेरोज़ाइम को नियंत्रित करने के लिए कई शोध समूह औषधियों और अन्य तरीकों पर काम कर रहे हैं। ये प्रयास किसी भी व्यक्ति की बढ़ती उम्र को कैसे प्रभावित करते हैं? एक शोध समूह ने बताया है कि मेटफॉर्मिन नामक औषधि बढ़ती उम्र को लक्षित करने का एक साधन है (सेल मेटाबॉलिज़्म, जून 2016)। एक अन्य समूह ने पाया है कि यदि हम TORC1 एंजाइम को बाधित कर देते हैं, तो यह बुज़ुर्गों में प्रतिरक्षा को बढ़ा सकता है और संक्रमणों को कम कर सकता। हाल ही में, जोन बी. मेनिक और उनके दल ने नेचर एजिंग पत्रिका में प्रकाशित अपने शोध पत्र में मानव रोगों के पशु मॉडल्स की उम्र व जीवित रहने पर रैपामाइसिन औषधि के प्रभावों की समीक्षा की है। उन्होंने बताया है कि कैसे हम इस औषधि के अवरोधकों को वृद्धावस्था के रोगों की मानक देखभाल में शामिल कर सकते हैं।
डॉ. बेल्स्की के समूह ने विभिन्न सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि (अमीर-गरीब, ग्रामीण-शहरी) के लोगों में डीएनए मिथाइलेशन के स्तर का भी अध्ययन किया और पाया कि सामाजिक-आर्थिक स्तर की प्रतिकूल परिस्थितियां भी इसमें भूमिका निभाती हैं।
कोलंबिया एजिंग सेंटर ने पाया है कि संतुलित आहार शोथ को कम करके मस्तिष्क के स्वास्थ्य की देखभाल करता है, आवश्यक पोषक तत्वों की आपूर्ति करके उचित रक्त प्रवाह बनाए रखता है जो संज्ञानात्मक कार्य में सहायक होता है। वेबसाइट healthline.com बात को आगे बढ़ाते हुए बताती है कि प्रोटीन के स्वास्थ्यवर्धक स्रोत, स्वास्थ्यकर वसा और एंटीऑक्सीडेंट से भरपूर खाद्य पदार्थ, जैसे सब्ज़ियां, तेल से भरपूर खाद्य पदार्थ और बहुत सारे फल स्वस्थ बुढ़ाने में मदद करते हैं।
भारत में हमारे लिए यह और भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि हमारे यहां (143 करोड़ की कुल जनसंख्या में से) 60 वर्ष से अधिक आयु के लोगों की कुल संख्या लगभग 10 करोड़ है। healthline.com का सुझाव है कि (जंतु और वनस्पति) प्रोटीन, पौष्टिक अनाज (गेहूं, चावल, रागी, बाजरा), तेल, फल और सॉफ्ट ड्रिंक्स स्वस्थ बुढ़ाने में मदद करते हैं। ये मांसाहारियों और शाकाहारियों दोनों के लिए आसानी से उपलब्ध हैं।
व्यायाम से रोकथाम
स्टैनफर्ड युनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने पाया है कि घायल या बूढ़े चूहों की शक्ति बढ़ाने वाली एक औषधि तंत्रिकाओं और मांसपेशीय तंतुओं के बीच कड़ियों को बहाल करती है। यह औषधि उम्र बढ़ने से जुड़े जेरोज़ाइम, 15-PGDH, की गतिविधि को अवरुद्ध करती है। यह जेरोज़ाइम उम्र बढ़ने के साथ और न्यूरोमस्कुलर रोग के चलते मांसपेशियों में कुदरती रूप से बढ़ता है। लेकिन यह औषधि देने पर उम्रदराज़ चूहों की शारीरिक गतिविधि फिर से बढ़ गई थी।
मिनेसोटा का मेयो क्लीनिक नियमित शारीरिक गतिविधि के सात लाभ बताता है। ये लाभ हैं: वज़न पर नियंत्रण; स्ट्रोक, उच्च रक्तचाप, टाइप-2 डायबिटीज़ और कैंसर जैसी स्थितियों और बीमारियों से लड़ता है; मूड में सुधार; ऊर्जा देता है; अच्छी नींद लाता है; यौन जीवन बेहतर करता है; और कहना न होगा कि यह मज़ेदार और सामाजिक हो सकता है। जैसे दूसरों से मेल-जोल होना, घूमना या खेलना। हम सभी, विशेष रूप से वरिष्ठ नागरिकों को, व्यायाम से बहुत लाभ होगा, और इस प्रकार जेरोज़ाइम बाधित होगा।
संगीत भी जेरोज़ाइम को नियंत्रित कर सकता है और यह डिमेंशिया (स्मृतिभ्रंश) का इलाज भी हो सकता है! 2020 में, स्पेन के टोलेडो के एक समूह ने एक शोध पत्र प्रकाशित किया था, जिसका निष्कर्ष था – संगीत डिमेंशिया के उपचार का एक सशक्त तरीका हो सकता है। और हाल ही में, स्पेन के ही एक अन्य समूह द्वारा प्रकाशित पेपर का शीर्षक है: संगीत बढ़ती उम्र से सम्बंधित संज्ञानात्मक विकारों में परिवर्तित जीन अभिव्यक्ति की भरपाई कर देता है (Music compensates for altered gene expression in age-related cognitive disorders)। यह पेपर बताता है कि संगीत हमारे जेरोज़ाइम को नियंत्रित कर सकता है। तो दोस्तों! गाना गाएं या गा नहीं सकते तो कम से कम सुनें ज़रूर! (स्रोत फीचर्स)

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एआई निर्मित कैथेटर से संक्रमण की रोकथाम

विश्व भर में हर वर्ष 10 करोड़ से अधिक मूत्र कैथेटर लगाए जाते हैं जिनके रास्ते होने वाले मूत्र मार्ग संक्रमणों (यूटीआई) को रोकना चिकित्सकों के लिए एक महत्वपूर्ण समस्या होती है। साइंस एडवांसेस में प्रकाशित एक हालिया अध्ययन में कृत्रिम बुद्धि (एआई) की मदद से एक नवीन मूत्र कैथेटर डिज़ाइन प्रस्तुत हुई है। यह कैथेटर एंटीबायोटिक दवाओं का उपयोग किए बिना कैथेटर के रास्ते होने वाले मूत्रमार्ग संक्रमण (यूटीआई) के जोखिम को कम कर सकता है।

गौरतलब है कि पारंपरिक कैथेटर अंदर से चिकने होते हैं जिसके कारण बैक्टीरिया के लिए ऊपर की ओर बढ़ना और आंतरिक सतह पर टिकना सहज हो जाता है। यही बैक्टीरिया यूटीआई का कारण बनते हैं।

नवीन कैथेटर में एक अनोखा इंटीरियर तैयार किया गया है। इसकी अंदरुनी संरचना से एक ऐसा बाधापूर्ण मार्ग तैयार होता है जो बैक्टीरिया को पकड़ प्राप्त करने और मूत्राशय तक पहुंचने से रोकता है।

पूर्व में चिकित्सक बैक्टीरिया को मारने के लिए कैथेटर की आंतरिक सतह पर एंटीबायोटिक दवाओं या चांदी जैसे धातु एजेंटों का लेप करते थे। ये तरीके महंगे होते हैं और बैक्टीरिया में एंटीबायोटिक-प्रतिरोधी क्षमता विकसित होने की आशंका रहती है। नया उपकरण किसी विशेष अस्तर की बजाय सरल ज्यामिति पर काम करता है। 

इस अध्ययन की सह-लेखक और कंप्यूटर वैज्ञानिक अनिमाश्री आनंदकुमार बताती हैं कि यह डिज़ाइन सरल ज्यामिति से प्रेरित है जिसमें नुकीले त्रिकोण के आकार की लकीरों की एक शृंखला है। इस प्रकार के कैथेटर में जब बैक्टीरिया ऊपर की ओर तैरने का प्रयास करते हैं तो इन कंटकों के कारण उनकी ऊपर की ओर बढ़ने की गति बाधित होती है। इसको डिज़ाइन करते हुए शोधकर्ताओं ने सबसे प्रभावी बैक्टीरिया-विकर्षक रचना की पहचान करने के लिए एआई की मदद से हज़ारों डिज़ाइनों की डिजिटल अनुकृतियां तैयार कीं। सर्वोत्तम डिज़ाइन चुनने के बाद, उन्होंने कैथेटर का 3-डी प्रोटोटाइप तैयार किया और ई. कोली बैक्टीरिया पर इसका और सामान्य कैथेटर का परीक्षण किया। उन्होंने पाया कि 24 घंटों की अवधि में पारंपरिक कैथेटर की तुलना में नवनिर्मित प्रायोगिक कैथेटर में सौवें हिस्से से भी कम बैक्टीरिया जमा हुए थे।

फिलहाल वर्तमान डिज़ाइन यूटीआई से जुड़े एक सामान्य बैक्टीरिया ई. कोली के हिसाब से बनाई गई है लेकिन शोधकर्ता अन्य जीवाणु प्रजातियों को ध्यान में रखते हुए इस डिज़ाइन को और अधिक परिष्कृत करने का प्रयास कर रहे हैं ताकि इसे रोगाणुओं की एक विस्तृत शृंखला की रोकथाम के लिए तैयार किया जा सके। देखा जाए तो उपकरण डिज़ाइन में एआई की क्षमता कैथेटर से कहीं आगे तक है। फिलहाल आनंदकुमार एआई का उपयोग दवाएं विकसित करने, ऊर्जा-कुशल हवाई जहाज़ प्रोपेलर डिज़ाइन करने और कई अन्य चीज़ों के लिए कर रही हैं। (स्रोत फीचर्स)

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सर्पदंश: वक्त पर प्रभावी उपचार के प्रयास – प्रतिका गुप्ता

र्पदंश या सांप के काटने के कारण दुनिया भर में सालाना 81,000 से 1,38,000 लोगों की जान चली जाती है और करीब तीन-साढ़े तीन लाख लोग अक्षम हो जाते हें। फिर भी अफ्रीका, भारत जैसे देशों के स्वास्थ्य तंत्रों में सर्पदंश एक उपेक्षित स्वास्थ्य समस्या है। ऊपर से, सर्पदंश के लिए उपलब्ध उपचार और स्वास्थ्य प्रणालियों के साथ भी कई समस्याएं और जटिलताएं हैं।

वैज्ञानिक सर्पदंश के उपचार को बेहतर से बेहतर और समय पर उपलब्ध कराने की दिशा में प्रयास कर रहे हैं। दो ताज़ातरीन अध्ययनों की प्रगति से बेहतर उपचार की उम्मीद जागी है।

साइंस ट्रांसलेशनल मेडिसिन में प्रकाशित एक अध्ययन ने एक युनिवर्सल एंटीवेनम विकसित करने की दिशा में पहली सफलता हासिल की है। इससे एक ही एंटीवेनम से सांप की चार प्रजातियों के ज़हर को बेअसर किया जा सकेगा।

साइंटिफिक रिपोर्ट्स में प्रकाशित एक अन्य अध्ययन में एक ऐसे टेस्ट के बारे में बताया गया है जो वक्त रहते बता सकता है कि आपको किस सांप ने काटा है, और फिर तय किया जा सकता है कि आपको किस ज़हर के लिए उपचार (एंटीवेनम) देना है।

दरअसल सांप का ज़हर कोई एक यौगिक नहीं बल्कि दर्जनों – यहां तक कि सैकड़ों – यौगिकों का मिश्रण होता है। और खास बात यह है कि यह ज़हरीला मिश्रण हर प्रजाति के सांप में बहुत अलग होता है। यदि सांप काटे तो उपचार के लिए एंटीवेनम दिया जाता है, जो इस बात पर निर्भर करता है कि किस सांप ने काटा है।

सर्पदंश के इलाज में मुश्किलात यहीं से शुरू होती हैं। चूंकि हर प्रजाति के सांप का ज़हर अलग होता है – यहां तक कि विभिन्न इलाकों में पाए जाने वाले एक ही प्रजाति के सांप का ज़हर भी अलग होता है – इसलिए उपचार के लिए यह जानना आवश्यक होता है कि व्यक्ति को किस सांप ने काटा है। लेकिन उसे हमेशा पता नहीं होता कि उसे किस सांप ने डसा है, क्योंकि जब पता चलता है कि सांप ने डसा है तो पहले तो डर के मारे होश उड़ जाते हैं और बदहवासी में सांप पर गौर कर उसे पहचनाने का ध्यान नहीं रहता। फिर, कोई और देखकर पहचान ले इसकी संभावना भी अक्सर कम रहती है क्योंकि सर्पदंश के अधिकतर मामले खेतों या जंगल में काम करते हुए होते हैं, जहां लोग दूरियों पर या अकेले ही काम करते हैं। और किस्मत से कोई आपके साथ हो तो भी, जब तक समझ आता है तब तक सांप डस कर सरपट भाग चुका होता है। ऐसे में किस ज़हर के लिए एंटिवेनम दें?

यह तय करने के लिए चिकित्सकों को पीड़ित में लक्षणों के उभरने का इंतज़ार करना पड़ता है – ताकि सही एंटीवेनम दिया जा सके – हालांकि वे जानते हैं कि उपचार जितना जल्दी मिलेगा, उतना कारगर होगा। उपचार में देरी विकलांगता और जान गंवाने के जोखिम को बढ़ाती जाती है। हालांकि थोड़ा-बहुत अनुमान चिकित्सक इस जानकारी के आधार पर लगाने की कोशिश करते हैं कि किस क्षेत्र में सांप ने डंसा था, और उस इलाके में कौन-से सांप पाए जाते हैं। फिर भी एक इलाके में एक से अधिक तरह के सांप होने की संभावना होती है, और यदि अन्य ज़हर के लिए एंटीवेनम दे दिया गया तो या तो वह बेअसर रह सकता है, या मामला और बिगाड़ सकता है और रोगी की जान का जोखिम बढ़ जाता है।

फिर मानव शरीर द्वारा इन एंटीवेनम को अस्वीकार कर देने की भी संभावना रहती है। दरअसल घोड़ों या भेड़ों को वर्षों तक मामूली मात्रा में सांप का ज़हर देकर उनमें निर्मित एंटीबॉडी से एंटीवेनम तैयार किया जाता है। चूंकि ये एंटीवेनम पशु प्रोटीन से बने होते हैं, इसलिए प्रतिरक्षा प्रणाली इनके विरुद्ध प्रतिकूल प्रतिक्रिया भी कर सकती है जो जानलेवा भी हो सकती है।

फिर, एंटीवेनम का रख-रखाव भी बहुत मुश्किल होता है। अक्सर ग्रामीण स्वास्थ्य केंद्रों पर इन्हें संभालकर रखने के लिए मूलभूत सुविधा नहीं रहती, दूर-दराज के ग्रामीण क्षेत्रों में तो यह और भी मुश्किल है, जबकि सर्पदंश के मामले वहीं अधिक होते हैं।

इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइन्स के इवॉल्यूशनरी वेनोमिक्स विशेषज्ञ कार्तिक सुनगर सर्पदंश के उपचार में आने वाली इन्हीं अड़चनों को दूर करना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने कई तरह के सांपों के ज़हर के एक प्रमुख घटक थ्री-फिंगर अल्फा-न्यूरोटॉक्सिन (3FTx-L) का सिंथेटिक संस्करण तैयार किया। (गौरतलब है कि 3FTx-L एक विषाक्त पदार्थ है जो तंत्रिका कोशिकाओं के एक प्रमुख न्यूरोट्रांसमीटर की प्रतिक्रिया करने की क्षमता को कुंद कर देता है, और लकवे का कारण बनता है।) फिर उन्होंने एक बहुत बड़ी एंटीबॉडी लाइब्रेरी में सहेजी गईं लगभग 100 अरब कृत्रिम मानव एंटीबॉडी को इस ज़हर के प्रति जांचा और देखा कि कौन-सी एंटीबॉडी इस ज़हर को सबसे अच्छे से बेअसर करती है। उनकी यह खोज 95Mat5 नामक एंटीबॉडी पर आकर खत्म हुई, जो इस ज़हर पर बहुत ही कारगर पाई गई। इसकी बेहतरीन कारगरता का कारण है कि यह अल्फा-बंगारोटॉक्सिन पर ठीक उसी स्थान पर जाकर चिपकता है जहां से यह विष मानव तंत्रिकाओं और मांसपेशियों की कोशिकाओं के साथ बंधता है। अल्फा-बंगारोटॉक्सिन मल्टी-बैंडेड करैत (Bungarus multicinctus) के ज़हर का मुख्य 3FTx-L है।

फिलहाल तो यह 95Mat5 एंटीबॉडी चूहों में कारगर पाई गई है। यहां तक कि 95Mat5 ने चूहों को करैत सांप के ज़हर से भी बचा लिया। इस सांप के बारे में माना जाता है कि इसमें कम से कम चार दर्जन विभिन्न ज़हर होते हैं। इसकी कारगरता सर्पदंश के 20 मिनट विलंब से उपचार दिए जाने पर भी दिखी। और तो और, यह मोनोसेलेट कोबरा (Naja kaouthia) और ब्लैक मंबा (Dendroaspis polylepis) के ज़हर पर भी काम कर गया। लेकिन कुछ ज़हर, जैसे किंग कोबरा (Ophiophagus hannah) के ज़हर को बेअसर नहीं कर पाया, हालांकि इसने चूहों की मृत्यु को थोड़ा टाल ज़रूर दिया था। इस तरह इस एंटीबॉडी से निर्मित एक एंटीवेनम चार प्रजातियों के ज़हर को बेअसर करने के लिए किया जा सकता है।

साथ ही जो एंटीवेनम 3FTx-L के खिलाफ बहुत प्रभावी नहीं रहते हैं उनके स्थान पर 95Mat5 आधारित एंटीवेनम दिया जा सकता है। इसके अलावा यह पशु एंटीबॉडी पर आधारित न होकर मनुष्यों की कृत्रिम एंटीबॉडी है, तो इसमें उपचार के अवांछित दुष्प्रभाव और जोखिम की संभावना भी कम है।

दूसरी ओर, विभिन्न शोध टीमें एक ऐसा परीक्षण तैयार करने की दिशा में काम कर रही हैं जिसके ज़रिए पता किया जा सके कि पीड़ित को किस सांप ने काटा है। और इस तरह लक्षण उभरने तक इंतज़ार करने के समय को कम करके एंटीवेनम को अधिक कारगर बनाया जा सके और विकलांगता और जान गंवाने के प्रतिक्षण बढ़ते जोखिम को कम किया जा सके।

लेकिन ऐसे परीक्षणों में मुख्य बात यह होनी चाहिए कि परीक्षण बहुत आसान हो, दूर-दराज़ के सुविधा रहित इलाकों में पहुंच सके और उपयोग किया जा सके, और परीक्षण के नतीजे फौरन प्राप्त हो जाएं। जैसे कि प्रेग्नेंसी टेस्ट देने वाली स्ट्रिप से मिलते हैं – पेशाब पड़ने के मिनट भर बाद वह रंग बदलकर (या न बदलकर) बता देती है कि गर्भ ठहरा है या नहीं।

दरअसल गर्भ ठहरने का निर्धारण करने वाली स्ट्रिप में ऐसे एंटीबॉडी होते हैं जो गर्भ ठहरने के कारण स्रावित होने वाले हारमोन ह्यूमन कोरियॉनिक गोनेडोट्रॉपिन से जुड़ते हैं। यदि गर्भ ठहरता है तो पेशाब में यह हारमोन बढ़ जाता है और स्ट्रिप में उपस्थित एंटीबॉडीज़ जब इस हारमोन से जुड़ती हैं तो रंग परिवर्तन की हुई दो धारियां मिलती हैं।

लेकिन सर्पदंश के मामले में इस तरह से सार्वभौमिक परीक्षण विकसित करने में समस्या यह है कि प्रेग्नेंसी में स्रावित हारमोन के विपरीत हर सांप का ज़हर एक समान नहीं होता और कई यौगिकों का मिश्रण होता है। फिर भी क्षेत्र विशेष के लिए क्षेत्रीय परीक्षण विकसित किए जा सकते हैं। उदाहरण के लिए, भारत में सर्पदंश के अधिकांश मामले सिर्फ चार प्रजातियों के कारण होते हैं। तो शोधकर्ता क्षेत्रीय परीक्षण स्ट्रिप के लिए एक ऐसी एंटीबॉडी तैयार कर रहे हैं जो इन चारों विष को पहचान सके और बता सके कि कौन-सा ज़हर है। इस दिशा में उन्हें कुछ सफलता मिली है। कुछ परीक्षणों और अनुमोदन के बाद यह परीक्षण इस साल के अंत या अगले साल की शुरुआत तक उपलब्ध हो सकेगा।

लेकिन उपरोक्त एंटीवेनम और परीक्षणों का उत्पादन करने के लिए काफी धन लगेगा। ज़ाहिर है दवा कंपनियां यदि इन्हें बनाएंगी तो ये महंगे होंगे, और उन लोगों की पहुंच से बाहर होंगे जो सर्पदंश के शिकार होते हैं – सर्पदंश की समस्या से मुख्यत: निम्न और मध्यम आय वाले देशों के गरीब और खेतों-जंगलों में काम करने वाले लोग प्रभावित होते हैं। इन देशों में यह पहले ही एक उपेक्षित स्वास्थ्य समस्या है। इसलिए विज्ञान और प्रौद्योगिकी में प्रगति के साथ इससे सम्बंधी अर्थव्यवस्था, रणनीतिक निर्णयों और स्वास्थ्य देखभाल प्रणालियों के स्तर पर भी काम करने की ज़रूरत है, तभी वास्तव में वक्त पर बेहतर उपचार मुहैया हो सकेगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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उपवास: फायदेमंद या नुकसानदेह?

लाखों लोग या तो वज़न घटाने या फिर धार्मिक आस्था के चलते नियमित उपवास करते हैं, और व्रत-उपवास करने से शरीर को होने वाले फायदे भी गिनाते हैं। लेकिन उपवास करने के कारण शरीर पर पड़ने वाले प्रभावों को वास्तव में बहुत कम जाना-समझा गया है। एक ताज़ा अध्ययन में शोधकर्ताओं ने लंबे उपवास के कारण विभिन्न अंगों में होने वाले आणविक परिवर्तनों पर बारीकी से निगरानी रखी, और पाया कि उपवास से स्वास्थ्य पर सकारात्मक और नकारात्मक दोनों तरह के प्रभाव पड़ते हैं।

अध्ययन में महज़ 12 प्रतिभागियों को सात दिन तक उपवास करने कहा गया – इस दौरान उन्हें सिर्फ पानी पीने की अनुमति थी, किसी भी तरह के भोजन की नहीं। रोज़ाना उनके शरीर के लगभग 3000 विभिन्न रक्त प्रोटीनों में हो रहे परिवर्तनों को मापा गया। यह पहली बार है कि उपवास के दौरान पूरे शरीर में आणविक स्तर पर निगरानी रखी गई है।

नेचर मेटाबोलिज़्म में प्रकाशित नतीजों के अनुसार उपवास के पहले कुछ दिनों में ही शरीर ने ऊर्जा हासिल करने का अपना स्रोत बदल लिया था, और ग्लूकोज़ की बजाय संग्रहित वसा का उपयोग शुरू कर दिया था। नतीजतन, पूरे सप्ताह में प्रतिभागियों का वज़न औसतन 5.7 किलोग्राम कम हुआ, और दोबारा भोजन शुरू करने के बाद भी उनका वज़न कम ही रहा।

अध्ययन में उपवास के प्रथम दो दिनों में रक्त प्रोटीन के स्तर में कोई बड़ा फर्क नहीं दिखा। लेकिन तीसरे दिन से सैकड़ों प्रोटीन के स्तर में नाटकीय रूप से घट-बढ़ हुई।

इसके बाद शोधकर्ताओं ने पूर्व में हुए उन अध्ययनों को खंगाला जिनमें विभिन्न प्रोटीनों के घटते-बढ़ते स्तर और विभिन्न बीमारियों का सम्बंध देखा गया था। इस तरह शोधकर्ता उपवास के दौरान 212 प्लाज़्मा अणुओं में हुए बदलावों के स्वास्थ्य पर प्रभाव का आकलन कर पाए।

मसलन, उन्होंने पाया कि तीन दिनों से अधिक समय तक भोजन न करने के कारण प्लाज़्मा में स्विच-एसोसिएटेड प्रोटीन-70 का स्तर घट गया था। ज्ञात हो कि इसका स्तर कम हो तो रुमेटिक ऑर्थराइटिस का जोखिम कम होता है। संभवत: इसी कारण रुमेटिक ऑर्थराइटिस के रोगियों को लंबा उपवास करने से दर्द में राहत मिलती होगी। इसके अलावा, हाइपॉक्सिया अप-रेगुलेटेड-1 नामक प्रोटीन, जो हृदय धमनी रोग से जुड़ा है, के स्तर में कमी देखी गई। इससे लगता है कि लंबे समय तक ना खाना हृदय को तंदुरुस्त रखने में मददगार हो सकता है।

लेकिन अध्ययन में उपवास के स्वास्थ्य पर कई नकारात्मक परिणाम भी दिखे। जैसे, उन्होंने थक्का जमाने वाले कारक-XI में वृद्धि दिखी, जिसके चलते थ्रम्बोसिस होने का खतरा बढ़ सकता है।

कुल मिलाकर लगता है कि उपवास करने के फायदे भी हैं और नुकसान भी। बिना सोचे-समझे, या सिर्फ फायदों के बारे में सोचकर उपवास करना आपके स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचा सकता है। इसलिए अपने शरीर और उसकी क्षमताओं से अवगत रहें और उस आधार पर तय करें कि व्रत करें या नहीं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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माइक्रोप्लास्टिक के स्वास्थ्य प्रभाव

ज प्लास्टिक हर जगह उपस्थित है। खाद्य पैकेजिंग, टायर, कपड़ा, पाइप आदि में उपयोग होने वाले प्लास्टिक से बारीक प्लास्टिक कण निकलते हैं जिसे माइक्रोप्लास्टिक कहा जाता है। यह पर्यावरण में व्याप्त है और अनजाने में मनुष्यों द्वारा उपभोग या श्वसन के माध्यम से शरीर में प्रवेश कर रहा है।

सर्जरी से गुज़रे 200 से अधिक रोगियों पर किए गए हालिया अध्ययन से पता चला है कि लगभग 60 प्रतिशत लोगों की किसी मुख्य धमनी में माइक्रोप्लास्टिक या नैनोप्लास्टिक मौजूद है। चौंकाने वाली बात यह है कि इन प्लास्टिक कणों वाले व्यक्तियों में सर्जरी के बाद लगभग 34 महीनों के भीतर दिल के दौरे या स्ट्रोक जैसी हृदय सम्बंधी समस्याओं से पीड़ित होने की संभावना 4.5 गुना अधिक होती है।

वैसे दी न्यू इंगलैंड जर्नल ऑफ मेडिसिन में प्रकाशित यह अध्ययन केवल माइक्रोप्लास्टिक को इसका ज़िम्मेदार नहीं बताता है। सामाजिक-आर्थिक स्थिति जैसे अन्य कारक भी स्वास्थ्य को प्रभावित कर सकते हैं, जिन पर इस अध्ययन में विचार नहीं किया गया है।

दरअसल, जल्दी नष्ट न होने के कारण माइक्रोप्लास्टिक सजीवों के शरीर में जमा होते रहते हैं और पर्यावरण में भी टिके रहते हैं। माइक्रोप्लास्टिक मानव रक्त, फेफड़े और प्लेसेंटा में भी पाए गए हैं, लेकिन इनके स्वास्थ्य सम्बंधी प्रभाव स्पष्ट नहीं हैं।

इसी विषय में अध्ययन करते हुए इटली स्थित युनिवर्सिटी ऑफ कैम्पेनिया लुइगी वानविटेली के चिकित्सक ग्यूसेप पाओलिसो और उनकी टीम जानती थी माइक्रोप्लास्टिक्स वसा अणुओं की ओर आकर्षित होते हैं। लिहाज़ा, उन्होंने यह देखने का प्रयास किया कि क्या ये कण रक्त वाहिकाओं के भीतर प्लाक (वसा की जमावट) के भीतर इकट्ठे होते हैं। इसके बाद टीम ने ऐसे 257 लोगों को ट्रैक किया जो गर्दन की धमनी से प्लाक हटाकर स्ट्रोक के जोखिम को कम करने की सर्जरी करवा रहे थे।

प्लाक की जांच करने पर पता चला कि 150 प्रतिभागियों के नमूनों में कोशिकाओं और अपशिष्ट उत्पादों के साथ माइक्रोप्लास्टिक वाले दांतेदार थक्के मौजूद हैं। इनके रासायनिक विश्लेषण से पॉलीथीन और पॉलीविनाइल क्लोराइड जैसे प्रमुख प्लास्टिक घटक मिले जो आम तौर पर रोज़मर्रा की वस्तुओं में पाए जाते हैं। अधिक माइक्रोप्लास्टिक वाले लोगों में सूजन वाले आणविक चिंह मिले जो स्वास्थ्य सम्बंधी समस्याओं का संकेत देते हैं।

इसके अलावा, जिन व्यक्तियों के प्लाक में माइक्रोप्लास्टिक पाया गया वे युवा, पुरुष, धूम्रपान करने वाले थे और उन्हें पहले से मधुमेह या हृदय रोग जैसी समस्याएं थी। चूंकि यह अध्ययन केवल उन लोगों पर किया गया था जो स्ट्रोक का जोखिम कम करने के लिए सर्जरी करवा रहे थे, इसलिए इसके सामान्य प्रभाव पर अभी अनिश्चितता है।

शोधकर्ताओं को यह देखकर आश्चर्य हुआ कि 40 प्रतिशत प्रतिभागियों में माइक्रोप्लास्टिक्स अनुपस्थित थे क्योंकि प्लास्टिक से पूरी तरह बचना तो मुश्किल है। इसलिए यह समझने के लिए आगे के शोध की आवश्यकता है कि कुछ लोगों में माइक्रोप्लास्टिक क्यों नहीं पाया गया।

यह अध्ययन प्लास्टिक प्रदूषण को खत्म करने के उद्देश्य से एक वैश्विक संधि तैयार करने के राजनयिक प्रयासों से मेल खाता है। 2022 में, 175 देशों द्वारा लिए गए निर्णय के अनुसार इस संधि को 2024 के अंत तक कानूनी रूप से बाध्यकारी समझौते का रूप देना है, हालांकि प्रगति काफी धीमी है। अध्ययन के निष्कर्षों से उम्मीद की जा रही है कि अप्रैल में ओटावा में होने वाली वार्ता में निर्णय लिए जाएंगे। तब तक, अपनी निजी आदतों में बदलाव लाना आवश्यक है ताकि प्लास्टिक उपयोग को कम से कम किया जा सके। (स्रोत फीचर्स)

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अति-संसाधित भोजन नुकसानदेह है

सोडा, कैंडी और फ्रोज़न फूड जैसे अति-संसाधित खाद्य पदार्थ हमारी लालसा को तो संतुष्ट कर सकते हैं, लेकिन अनुसंधान से पता चल रहा है कि ये हृदय और मस्तिष्क के लिए हानिकारक हो सकते हैं। ब्रिटिश मेडिकल जर्नल में प्रकाशित शोध सारांश में इन खाद्य पदार्थों की अधिक खपत का हृदय रोग, मधुमेह, मोटापा, सांस की दिक्कत, चिंता, अवसाद और संज्ञानात्मक क्षति के जोखिमों से सीधा सम्बंध बताया गया है। एक अन्य अध्ययन के मुताबिक ऐसे खाद्य पदार्थों का अत्यधिक सेवन अवसाद और चिंता के जोखिम में क्रमश: 44 और 48 प्रतिशत की वृद्धि करता है। अध्ययन यह भी बताते हैं कि कुल कैलोरी उपभोग में से इन खाद्य पदार्थों का कुछ हिस्सा ही जोखिम को बढ़ा देता है। इंग्लैंड, स्कॉटलैंड और वेल्स में 5 लाख लोगों पर किए गए एक अध्ययन में अति-संसाधित खाद्य उपभोग में केवल 10 प्रतिशत वृद्धि से मनोभ्रंश के जोखिम में 25 प्रतिशत की वृद्धि पाई गई है। वैसे अभी भी यह स्पष्ट नहीं है कि ऐसे खाद्य पदार्थों और स्वास्थ्य के बीच कार्य-कारण सम्बंध क्या है।

यह तो सब जानते हैं उच्च मात्रा में नमक, चीनी और संतृप्त वसा लेने के कारण जीर्ण शोथ, उच्च रक्तचाप और टाइप-2 मधुमेह होने की संभावना होती है। लेकिन अधिकतर लोग इस बात से अनभिज्ञ हैं कि ये परिस्थितियां मस्तिष्क के स्वास्थ्य पर भी प्रतिकूल प्रभाव डालती हैं। कृत्रिम मिठास और मोनोसोडियम ग्लूटामेट जैसे पदार्थ मस्तिष्क द्वारा कतिपय रसायनों (जैसे डोपामाइन, सीरोटोनिन, नॉरएपिनेफ्रीन) के उत्पादन और विमोचन को बाधित कर सकते हैं, जिससे मानसिक और भावनात्मक स्वास्थ्य सम्बंधी समस्याएं बढ़ सकती हैं।

अति-संसाधित खाद्य पदार्थ की लत भी लग सकती है जिसे कंपनियां भोजन चुनाव सम्बंधी हमारे निर्णयों को प्रभावित करने के लिए इस्तेमाल करती हैं।

नैसर्गिक तौर पर मिलने वाले फल या तो मीठे होते हैं (जैसे सेब) या वसा से भरपूर होते हैं (जैसे मूंगफली)। प्रकृति में सामान्यत: ऐसे खाद्य पदार्थ नहीं मिलेंगे जिनमें शकर, नमक और वसा तीनों हों। दूसरी ओर, अति-संसाधित खाद्य पदार्थों में चीनी और वसा दोनों एक साथ होते हैं, और ऊपर से नमक, कृत्रिम गंध और रंग-रोगन। ऐसे में, दिमाग बेकाबू हो जाता है। इन खाद्य पदार्थों की खपत कम करने और कम संसाधित विकल्पों को चुनने से बेहतर शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य परिणाम हासिल हो सकते हैं।

हम तीन तरह की चीज़ें खाते हैं – अ-संसाधित, संसाधित और अति-संसाधित। असंसाधित खाद्य पदार्थ यानी ताज़ा या फ्रिज में रखे फल-सब्ज़ियां, आटा वगैरह। इनमें प्राय: एक ही पोषक पदार्थ होता है।

संसाधित पदार्थ वे कहलाते हैं जिन्हें असंसाधित खाद्य से सीधे प्राप्त किया जाता है – जैसे वनस्पति तेल, शकर वगैरह।

इसके बाद आते हैं थोड़े संसाधित खाद्य पदार्थ जैसे मक्खन, प्रिज़र्वेटिव रहित ब्रेड, अचार वगैरह। इनमें भी घटकों की सूची बहुत छोटी होती है।

फिर आते हैं अति-संसाधित खाद्य – केक, ऊर्जादायक बार वगैरह, प्रिज़र्वेटिव्स के साथ रखे गए तैयारशुदा भोजन वगैरह। इनमें अक्सर भरपूर वसा, शकर, नमक वगैरह होते हैं और ऊपर से तमाम खुशबुएं, रंग-रोगन वगैरह डाले जाते हैं। इनमें उपस्थित घटकों की फेहरिस्त काफी लंबी हो सकती है।

अति-संसाधित खाद्य पदार्थों का अधिक सेवन मस्तिष्क के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकता है। ये खाद्य पदार्थ कैलोरी से भरपूर होते हैं, जिससे मोटापा बढ़ता है। शरीर की वसा कोशिकाएं निष्क्रिय होकर शोथजनक अणु मुक्त करने लगती है जिनसे अवसाद, चिंता और मनोभ्रंश जैसी समस्याएं उत्पन्न होती हैं।

कई शोध अध्ययनों से पता चला है कि संभावना रहती है कि आबादी का एक बड़ा हिस्सा इन खाद्य पदार्थों का आदी हो जाएगा, जिससे उनकी खपत में और अधिक वृद्धि हो सकती है। इसके अतिरिक्त, अति-संसाधित खाद्य पदार्थों का सेवन करने वाले व्यक्ति फलों, सब्ज़ियों और साबुत अनाज में पाए जाने वाले आवश्यक पोषक तत्वों से वंचित रह जाएंगे जो मस्तिष्क के स्वास्थ्य के लिए फायदेमंद होते हैं। इन आवश्यक तत्वों की कमी से अवसाद जैसी मानसिक समस्याएं हो सकती हैं।

यह देखा गया है कि गरीब लोग ऐसे खाद्य पदार्थों का अत्यधिक सेवन करते हैं। लुभावने विज्ञापनों और हर गली-नुक्कड़ पर मौजूद गुमठियों में आसानी से मिलने के कारण अति-संसाधित खाद्य पदार्थ लोगों को आकर्षित करते हैं, और खुद को रोक पाना काफी मुश्किल होता है।

अति-संसाधित खाद्य पदार्थों से बचने के लिए, विशेषज्ञ कुछ सुझाव देते हैं:

  1. खुद को दोष देने की बजाय इस बात को जानें कि इन खाद्यों के आदी होने के लिए पूरा माहौल बनाया गया है।
  2.  भूख से प्रेरित लालसा से बचने के लिए नियमित समय पर भोजन करें।
  3. अति-संसाधित खाद्य पदार्थों की जगह गिरियों और ताज़े फलों जैसे विकल्प अपनाएं।
  4. कम सोडियम और कम शर्करा वाले खाद्य पदार्थों को प्राथमिकता दें।
  5. कुछ अति-संसाधित खाद्य पदार्थ अन्य अति-संसाधित खाद्य पदार्थ की तुलना में स्वास्थ्यवर्धक विकल्प हो सकते हैं, जैसे मैदे की बजाय आटे की ब्रेड।
  6. बच्चों को खाद्य विपणन की तिकड़मों के बारे में शिक्षित करें।

मुख्तसर सी बात है कि अति-संसाधित खाद्यों के प्रति सजग रहें और स्वयं को इनकी गिरफ्त से बचाएं। (स्रोत फीचर्स)

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आप सूंघकर बीमारी पता कर सकते हैं

सूंघने की शक्ति कई खतरों को टालने में मदद करती है; जैसे हम खराब खाना खाने से बचने के लिए उसे सूंघकर देखते हैं या हम गैस रिसने या कुछ जलने जैसी गंध के प्रति सचेत रहते हैं। तो क्या हम सूंघकर बीमारी की आहट नहीं भांप सकते?

वैज्ञानिकों का कहना है कि दुरुस्त घ्राण इंद्रियों वाला कोई भी व्यक्ति किसी ‘बीमारी की गंध’ पहचान सकता है। वैज्ञानिकों ने देखा है कि कई बीमारियों की अपनी एक विशेष गंध होती है, जिसे पहचान कर आप बता सकते हैं कि कोई व्यक्ति उस बीमारी से पीड़ित है या नहीं। जैसे डायबिटीज़ के रोगी के मूत्र से सड़े हुए सेब जैसी गंध आती है, टायफाइड के कारण शरीर की गंध ब्रेड जैसी हो सकती है, यहां तक कि पीत-ज्वर के कारण आपका शरीर कसाई की दुकान (कच्चे मांस) की तरह गंध मार सकता है।

दरअसल, हमारा शरीर हवा में लगातार वाष्पशील रासायनिक पदार्थ छोड़ता रहता है, जो हमारी सांस और त्वचा के सूक्ष्म छिद्रों द्वारा बाहर निकलते रहते हैं। इनकी अपनी एक विशिष्ट गंध हो सकती है। हमारे चयापचय तंत्र में उम्र, आहार, या किसी बीमारी के कारण आए बदलाव के कारण बाहर निकलने वाले वाष्पशील अणु बदल सकते हैं, जिसके चलते गंध भी अलग हो सकती है। फिर, हमारी आंत और त्वचा पर रहने वाले सूक्ष्मजीव भी चयापचय उप-उत्पादों के विघटन से विभिन्न गंधयुक्त अणु पैदा कर सकते हैं।

कुल मिलाकर हमारा शरीर गंध का एक कारखाना है। और यदि हम गंधों पर ध्यान दें, अपनी घ्राण शक्ति का भरपूर उपयोग करें और उसे प्रशिक्षित करें तो संभवत: हम बीमारियों की गंध पहचान पाएंगे।

कुछ समय पहले ऐसा ही एक मामला सामने आया था, जिसमें पता चला था कि एक महिला पार्किंसन रोग की गंध सूंघ सकती है। गौरतलब है कि समय रहते पार्किंसन का पता करना बेहद मुश्किल है, और जब तक इस बीमारी के लक्षण सामने आते हैं और इसकी पुष्टि हो पाती है तब तक काफी देर हो चुकी होती है। दरअसल, इस महिला के पति को पार्किंसन से ग्रसित पाया गया था। लेकिन पति में पार्किंसन का पता चलने के छह साल पहले से ही इस महिला को अपने पति में से कुछ अजीब सी गंध आने लगी थी – यह गंध थोड़ी लकड़ी, थोड़ी कस्तूरी जैसी थी। बाद में महिला जब पार्किंसन के रोगियों से भरे वार्ड में गई तो उन्हें अहसास हुआ कि ऐसी गंध सिर्फ उनके पति से ही नहीं, बल्कि सभी पार्किंसन रोगियों से आती है।

उनकी इस क्षमता को परखा गया। इसके लिए उन्हें छह पार्किंसन-पीड़ित और छह स्वस्थ लोगों की टी-शर्ट सुंघाई गई, और उन्हें पार्किंसन रोगियों की टी-शर्ट पहचानना था। उन्होंने छह के छह पार्किंसन पीड़ितों की टी-शर्ट की सही पहचान की, लेकिन उन्होंने कंट्रोल (यानी स्वस्थ व्यक्तियों वाले) समूह में से भी एक व्यक्ति को पार्किसन पीड़ित बताया।

तब तो यह लगा था कि उन्होंने पहचानने में गड़बड़ी की है, लेकिन आठ महीने बाद वास्तव में उस व्यक्ति को पार्किंसन से पीड़ित पाया गया।

लेकिन इस तरह की विशिष्ट क्षमता वाले किसी व्यक्ति को हमेशा बीमारी की पहचान के लिए बुलाना कहां तक संभव है? साथ ही यह भी समस्या है कि गंध की अदला-बदली भी हो सकती है: एक-दूसरे के कपड़े पहनने से, खचाखच भरी बस या ट्रेन में चिपक-चिपक कर बैठे हुए लोगों से।

इनमें से कुछ चुनौतियों से निपटने के लिए मैनचेस्टर इंस्टीट्यूट ऑफ बायोटेक्नॉलॉजी की एनालिटिकल केमिस्ट पर्डिटा बैरेन की टीम ने यह पहचानने का प्रयास किया है कि पार्किंसन की गंध के लिए कौन से अणु ज़िम्मेदार हैं। उन्हें ऐसे तीन अणु (आईकोसेन, हिपुरिक एसिड और ऑक्टाडेकेनल) मिले जो पार्किंसन पीड़ितों में अधिक होते हैं और एक अणु (पेरिलिक एल्डिहाइड) ऐसा मिला जो उनमें कम होता है। इन अणुओं के मिश्रण से उन्होंने पार्किंसन की विशिष्ट गंध बनाई। इसकी मदद से उन्होंने एक ऐसा परीक्षण बनाया जो गंध से लोगों में पार्किंसन की पहचान कर सके। प्रयोगशाला जांच में उनका यह परीक्षण 95 प्रतिशत सटीक रहा। अब वे इसे लोगों के उपयोग लायक बनाने की दिशा में काम कर रहे हैं।

लेकिन हमने जहां से बात शुरू की थी वापिस उसी पर आते हैं कि क्या हम जैसे साधारण लोग सूंघकर बीमारी पहचान सकते हैं? अध्ययनों ने पाया है कि हमारी घ्राण शक्ति बहुत शक्तिशाली है। हमारे मस्तिष्क के घ्राण बल्बों में न्यूरॉन्स की संख्या को देखकर पता चलता है कि मनुष्यों की सूंघने की क्षमता चूहों से बेहतर हो सकती है जबकि हम चूहों और कुत्तों की घ्राण शक्ति के कायल हैं और कई मामलों में उनकी इस क्षमता का उपयोग भी करते हैं। बस हमारे साथ दिक्कत यह है कि हम गंधों पर उतना गौर नहीं करते जितना करना चाहिए। फिर हमारे पास ‘गंध कैसी है’ इसका विवरण देने वाली भाषा भी सीमित है।

लेकिन ऐसा देखा गया है कि यदि हम बारीकी से गौर करें तो हम बीमारी पहचान सकते हैं। 2017 में हुए एक अध्ययन में प्रतिभागियों ने शरीर की गंध और तस्वीरों के आधार पर बीमार और स्वस्थ लोगों की पहचान कर ली थी। तो हम भी अपनी या अपनों की गंध पर बारीकी से गौर करने की और शरीर का हाल जानने की कोशिश तो कर ही सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)

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टीकों में सहायक पदार्थों का उपयोग

टीकों के विज्ञान में एक दिलचस्प रहस्य छिपा है जिसे एडजुवेंट (सहायक पदार्थ) कहते हैं। 1920 के दशक में फ्रांसीसी पशुचिकित्सक गैस्टन रेमन ने पाया था कि टीकों में ब्रेड का चूरा, कसावा या ऐसा ही कोई योजक मिलाने से टीके बेहतर काम करते हैं। सहायक पदार्थों की इस भूमिका को देखते हुए कुछ टीकों में इनका उपयोग किया जा रहा है। साथ ही नए टीके तैयार करने के लिए एडजुवेंट पर शोध जारी है ताकि लंबे समय तक कारगर टीके विकसित किए जा सकें।

टीके का मतलब है कि रोगजनक का मृत या दुर्बल रूप या उसके द्वारा बनाया जाने वाला विष शरीर में प्रविष्ट कराया जाता है। शरीर का प्रतिरक्षा तंत्र इसे एंटीजन के रूप में पहचान लेता है और जन्मजात प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया पैदा होती है जिसके फलस्वरूप सूजन पैदा होती है। इसके साथ ही, प्रतिरक्षा कोशिकाएं एंटीजन को लिम्फ नोड्स तक पहुंचाती हैं, जहां अनुकूली प्रतिरक्षा तंत्र सक्रिय हो जाता है। प्रतिरक्षा तंत्र मूलत: सूजन के ज़रिए ही काम करता है और कोशिश यही रहती है कि यह सूजन यथेष्ट मात्रा में पैदा हो।

एडजुवेंट प्रतिरक्षा तंत्र की प्रतिक्रिया में सुधार करते हैं। वे सुनिश्चित करते हैं कि टीकों से सूजन ठीक मात्रा में उत्पन्न हो – न बहुत ज़्यादा, न बहुत कम।

हालांकि, कुछ टीके प्रतिरक्षा उत्पन्न करने का अच्छा काम करते हैं, लेकिन प्रतिरक्षा प्रणाली को चकमा देने की क्षमता वाले जटिल रोगजनकों, जैसे एचआईवी, इन्फ्लूएंज़ा और मलेरिया, के लिए टीके विकसित करना काफी चुनौतीपूर्ण है। इसके लिए वैज्ञानिकों ने प्रतिरक्षा प्रणाली की जटिलताओं में गहराई से उतरकर ऐसे टीके बनाने का प्रयास किया जो व्यापक सुरक्षा प्रदान करते हैं। एडजुवेंट इस प्रयास में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। रेमन ने देखा था कि जब घोड़ों में टीके के स्थान के आसपास संक्रमण विकसित होता है तो उनमें अधिक शक्तिशाली एंटी-डिप्थीरिया सीरम बनता है। जल्द ही वे उसी प्रतिक्रिया को बढ़ाने और प्रतिरक्षा में सहायता करने के लिए टीकों में ब्रेड का चूरा वगैरह चीज़ें मिलाने लगे।

इसे आगे बढ़ाते हुए एल्युमीनियम लवण जैसे एडजुवेंट्स का विकास हुआ। एडजुवेंट पर काम कर रहे एमआईटी के डेरेल इरविन का विचार है कि एमआरएनए टीकों में संयोगवश चुने गए लिपिड नैनोकण शायद एडजुवेंट के समान कार्य करते हैं। कुछ टीकों में सहायक पदार्थ इस आधार पर चुने जाते हैं कि उनमें संक्रामक बैक्टीरिया के कुछ घटक होते हैं। ऐसे अणुओं के खिलाफ प्रतिक्रिया के ज़रिए एडजुवेंट सूजन बढ़ाते हैं और प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया मज़बूत होती है।

अंतत: एडजुवेंट प्रतिरक्षा कोशिकाओं की जीन गतिविधि को पुन: प्रोग्राम कर पाएंगे, जिससे एक साथ कई बीमारियों से सुरक्षा मिल सकेगी। चूहों पर हुए अध्ययनों से पता चला है कि एडजुवेंट युक्त तपेदिक का बीसीजी टीका विभिन्न संक्रमणों के खिलाफ सुरक्षा प्रदान करता है। इस शोध के आधार पर वैज्ञानिकों का लक्ष्य ऐसे एडजुवेंट विकसित करना है जो दीर्घकालिक एंटीवायरल प्रतिरक्षा प्रेरित कर सकें और विभिन्न रोगजनकों के खिलाफ व्यापक सुरक्षा प्रदान करें।

इरविन का मानना है कि एडजुवेंट पर अधिक अनुसंधान से कैंसर जैसी लाइलाज बीमारियों के विरुद्ध टीकों के निर्माण में मदद मिल सकती है। ट्यूमर द्वारा बनाए जाने वाले प्रोटीन और एडजुवेंट के मिश्रण के परीक्षण मेलेनोमा और अग्न्याशय के कैंसर के विरुद्ध प्रतिरक्षा को उत्तेजित करने में प्रभावी रहे हैं।

विशेषज्ञों का मत है कि भविष्य में एडजुवेंट सूजन पर हमारी समझ विकसित होने पर एचआईवी, मलेरिया, कैंसर, इन्फ्लूएंज़ा और सार्स-कोव-2 के नए स्ट्रेन जैसे संक्रामक खतरों सहित कई बीमारियों से एक साथ निपटने के लिए समाधान मिल सकेगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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