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आयुष अनुसंधान पर मंत्रालय का अवैज्ञानिक दृष्टिकोण – लखोटिया, पटवर्धन, रस्तोगी

आयुष मंत्रालय द्वारा हाल ही में जारी एक परामर्श पत्र की पड़ताल जिसमें आयुर्वेद पर किसी भी अध्ययन में आयुष विशेषज्ञों को शामिल करने का निर्देश दिया गया है।

 

आयुर्वेद, योग और प्राकृतिक चिकित्सा, यूनानी, सिद्ध और होम्योपैथी (आयुष) मंत्रालय द्वारा दिनांक 2 अप्रैल 2019 को जारी एक परामर्श पत्र (एडवायज़री) में “गैर-आयुष वैज्ञानिकों/शोधकर्ताओं द्वारा आयुष औषधियों और उपचारों को लेकर बेबुनियाद वक्तव्यों तथा निष्कर्षों वाले शोध पत्रों के प्रकाशन तथा वैज्ञानिक अध्ययनों, जो पूरी प्रणाली की वि·ासनीयता और शुचिता को नुकसान पहुंचाते हैं,” पर चिंता व्यक्त की गई है क्योंकि “इन शोध पत्रों व अध्ययनों में योग्यता प्राप्त आयुष विशेषज्ञों को शामिल नहीं किया गया या उनसे परामर्श नहीं किया गया।”

परामर्श पत्र में आगे कहा गया है कि “सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा में आयुष की संभावना और विस्तार को खतरे में नहीं डाला जा सकता है। साथ ही आयुष से सम्बंधित वैज्ञानिक अध्ययन और अनुसंधान में मनमाने बयानों तथा बेबुनियाद निष्कर्षों से जनता को आयुष का उपयोग करने से विमुख नहीं किया जा सकता है।” इसलिए परामर्श पत्र में कहा गया है कि “सभी गैर-आयुष शोधकर्ताओं, वैज्ञानिकों, संस्थानों और चिकित्सा/वैज्ञानिक पत्रिकाओं के संपादकों को सलाह दी जाती है कि वे किसी भी आयुष औषधि या उपचार का आकलन करने हेतु किए गए वैज्ञानिक अध्ययन/नैदानिक परीक्षण/अनुसंधान हस्तक्षेप के संचालन के लिए या ऐसे परीक्षणों के परिणामों के पुनरीक्षण हेतु उपयुक्त आयुष विशेषज्ञ/संस्थान/अनुसंधान परिषद को शामिल करें ताकि आयुष के बारे में गलत, मनमाने और अस्पष्ट बयानों एवं निष्कर्षों से बचा जा सके।” 

हालांकि हम आयुष मंत्रालय की इस चिंता से पूरी तरह सहमत हैं कि कुछ शोध प्रकाशनों में प्रस्तुत निराधार, एकतरफा और दोटूक निष्कर्षों के कारण पारंपरिक चिकित्सा प्रणालियों की छवि को क्षति पहुंचना संभव है, लेकिन हमारा मानना है कि इन्हें रोकने के लिए इस परामर्श पत्र में अनुशंसित व्यवस्था उपयुक्त नहीं है।

परामर्श पत्र में आग्रह किया गया है कि इसकी अनुशंसाओं पर “सम्बंधित शोधकर्ता/वैज्ञानिक/जांचकर्ता” ध्यान दें और इनका पालन करें, लेकिन देखा जाए, तो इनका अनुपालन और क्रियांवयन लगभग असंभव है। अलबत्ता, इस परामर्श अधिक गंभीर और चिंताजनक अर्थ यह है कि इस तरह के कदमों से न केवल इन पारंपरिक चिकित्सा प्रणालियों में आवश्यक निष्पक्ष शोध पर अंकुश लगेगा, बल्कि सोचने की स्वतंत्रता पर भी काफी असर पड़ेगा। निष्पक्ष शोध और सोचने की स्वतंत्रता, ये दोनों ही किसी भी क्षेत्र में हमारी समझ में सुधार के लिए बुनियादी ज़रूरतें हैं। 

हमारा मानना है कि आयुर्वेद सहित विभिन्न पारंपरिक भारतीय स्वास्थ्य प्रणालियों की प्रतिष्ठा में कमी का वास्तविक कारण निम्न-गुणवत्ता वाली शोध पत्रिकाओं का तेज़ी से उभरना है। ये पत्रिकाएं खुद आयुष ‘विशेषज्ञों’ द्वारा किए गए घटिया गुणवत्ता के शोध को प्रकाशित करती रहती हैं। यह निम्न गुणवत्ता का शोध कुकुरमुत्तों की तरह तेज़ी से पनपते कॉलेजों और वि·ाविद्यालयों में किए जा रहे स्नातकोत्तर/पीएचडी शोध ग्रंथों में अप्रामाणिक डेटा को शामिल करने का परिणाम है। यह बात भी किसी छुपी नहीं है कि इनमें से कई आयुष कॉलेज ‘छद्म’ रोगियों, शिक्षकों और यहां तक कि फजऱ्ी छात्रों के माध्यम से अपनी मान्यता बनाए रखे हैं। ज़ाहिर  है, ऐसे संस्थानों में किया गया छद्म शोध न केवल आयुष को बदनाम करता है, बल्कि एक ऐसा कार्य-बल तैयार करता है जो इन प्रणालियों को नुकसान पहुंचा सकता है।

अप्रामाणिक व संदिग्ध फार्मेसियों द्वारा खराब गुणवत्ता वाली औषधियों का विपणन भी आयुष को बदनाम कर रहा है। पारंपरिक विचारों से पूरी तरह सहमत न होने वाले अध्ययनों पर प्रतिबंध और ऐसे शोध और आवाज़ों को दबाने की बजाय मंत्रालय की वास्तविक चिंता इन मुद्दों पर होनी चाहिए।

यह भी संभव है कि ऐसे गैर-आयुष शोधकर्ता मौजूद हैं जो घटिया अनुसंधान करके प्रकाशित करते हैं। हालांकि, जैसे अच्छे और गुणवत्ता के प्रति सजग आयुष शोधकर्ता होते हैं, वैसे ही गैर-आयुष शोधकर्ता भी हैं जिन्होंने इन उपचारों की क्रियाविधियों और सिद्धांतों को समझने में सकारात्मक और महत्वपूर्ण योगदान दिया है और दे रहे हैं। उदाहरण के लिए, कार्बनिक रसायन विज्ञानी आसीमा चटर्जी, टी. टी. गोविंदाचारी और अन्य द्वारा आयुर्वेद में प्रयुक्त हर्बल उत्पादों के रसायन शास्त्र के क्षेत्र में अग्रणी और व्यापक योगदान जाना-माना है। इसी तरह, कई प्रकार के हर्बल और आयुर्वेदिक औषधि मिश्रणों की क्रियाविधियों पर किए गए बुनियादी वैज्ञानिक अध्ययनों ने उनकी जैविक क्रियाविधियों को उजागर करके नए एवं प्रभावी चिकित्सीय अनुप्रयोग के रास्ते खोले हैं। ऐसे कई अध्ययनों ने हर्बल और आधुनिक दवाइयों के बीच सकारात्मक और नकारात्मक अंतर्क्रियाओं को समझने में मदद दी है। कुछ जीनोमिक और आणविक जीव विज्ञानियों ने आयुर्वेद की त्रिदोष/प्रकृति जैसी अवधारणाओं को वर्तमान जीव विज्ञान के परिप्रेक्ष्य में समझने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। ये गैर-आयुष शोधकर्ताओं के योगदान के कुछ चंद उदाहरण भर हैं, जो वास्तव में आयुष को समृद्ध बना रहे हैं।

यह कहना ठीक नहीं होगा कि समकालीन संदर्भों में बगैर प्रमाणित किए, प्राचीन ज्ञान और तौर-तरीकों को सिर्फ इसलिए बगैर सोचे-समझे स्वीकार कर लिया जाए कि वे पारंपरिक हैं। आयुष प्रथाओं और नुस्खों को प्रमाणों की बुनियाद मिलना आवश्यक है। शोध चाहे आयुष शोधकर्ताओं द्वारा किया जाए या गैर-आयुष शोधकर्ताओं द्वारा, यदि वह परंपरागत रूप से मान्य वि·ाासों पर सवाल उठाता है और ऐसे व्यवस्थित प्रमाण उपलब्ध कराता है जो उनकी तार्किकता को चुनौती दें, तो इसे प्राचीन ज्ञान का ‘अपमान’ न समझकर गंभीरता से लेना चाहिए। बुद्धि और सामाजिक व्यवस्था केवल उस ज्ञान और समझ के साथ आगे बढ़ती है जो हमारे पूर्वजों के ज्ञान और समझ से भी आगे ले जाए।

यदि इस परामर्श पत्र को गंभीरता से लिया गया, तो यह केवल एक ही विचार को पनपने देगा और उन सभी लोगों को अपने विचार रखने से रोकेगा जो इससे असहमत हैं। एक अच्छा विज्ञान बाहरी सत्यापन के लिए सदैव खुला रहना चाहिए। वास्तव में, सारे दरवाज़े बंद करने की व्यवस्था, जिसमें सिर्फ सहमत लोग हों, अपनाने की बजाय, निष्पक्ष बहु-विषयी अनुसंधान को बढ़ावा देने की आवश्यकता है। बंद दरवाज़ा व्यवस्था आयुष के लिए खतरनाक साबित होगी। कल्पना कीजिए, अगर जीव विज्ञान के शोधकर्ताओं ने बीसवीं सदी में श्रोडिंजर, डेलब्राुक, पौलिंग, क्रिक, रोसलिंड फ्रेंंकलिन, बेन्ज़र जैसे गैर-जीव वैज्ञानिकों को जीव विज्ञान में कार्य न करने देने का फैसला किया होता, तो आज जीव विज्ञान या आधुनिक विज्ञान कहां होता?

आयुष को अन्य शोधकर्ताओं से केवल समर्थक साक्ष्य की उम्मीद नहीं करनी चाहिए। यदि हम अलग-अलग राय रखते हैं, तो बहस को आगे बढ़ाने और तर्क-वितर्क के लिए अकादमिक मंच और पत्रिकाएं मौजूद हैं। यह समझना चाहिए कि आयुष और गैर-आयुष शोधकर्ताओं के जो शोध-परिणाम आयुर्वेद और अन्य पारंपरिक चिकित्सा प्रणालियों को समर्पित अच्छी पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए हैं, वे अच्छी सहकर्मी-समीक्षा प्रणाली से गुज़रे होंगे और इस प्रकार वे वास्तव में पारंपरिक स्वास्थ्य प्रणाली के विकास में योगदान दे रहे हैं। संपादकों से यह कहना कि शोध पत्र में एक लेखक के रूप में आयुष विशेषज्ञ को अनिवार्य रूप से शामिल करें, न केवल शोधकर्ताओं की स्वायत्तता के खिलाफ है, बल्कि ऐसे  ‘विज्ञान प्रकाशन’ की प्रतिष्ठा के लिए काफी अपमानजनक भी है जहां प्रकाशन से पूर्व लेखक की औपचारिक शैक्षणिक योग्यता की बजाय सिर्फ यह देखा जाता है कि शोध पत्र में व्यक्त विज्ञान अच्छी गुणवत्ता का है या नहीं। उक्त परामर्श पत्र संभावित रूप से आयुष और गैर-आयुष विशेषज्ञों के बीच गलतफहमी पैदा कर सकता है। क्लीनिकल ट्रायल सम्बंधी अनुसंधान में आयुष विशेषज्ञों को शामिल करना वांछनीय होगा, लेकिन प्रयोगशाला में और/या जंतु अध्ययनों में आयुष प्रभाविता की जांच करने वाले सभी अध्ययनों में यह अनिवार्य नहीं किया जा सकता। जैसे भी हो, आयुष विशेषज्ञ मॉनिटर या वॉचडॉग नहीं बल्कि सहयोगी होंगे। 

आयुष मंत्रालय और आयुर्वेद चिकित्सकों को यह नहीं भूलना चाहिए कि एक दशक से थोड़ा अधिक समय पहले शुरू किए गए ‘आयुर्वेदिक जीव विज्ञान’ मिशन के अंतर्गत विभिन्न शोधकर्ताओं ने आयुर्वेद में उल्लेखनीय योगदान दिया है। आयुर्वेदिक जीव विज्ञान के उत्प्रेरक, मूलत: एक ह्मदय शल्य चिकित्सक और नवाचारकर्ता एम.एस. वालियाथन की टिप्पणी है, “इस समय कोई ऐसा सामान्य धरातल नहीं है जहां भौतिक विज्ञानी, रसायनज्ञ, प्रतिरक्षा विज्ञानी और आणविक जीव विज्ञानी आयुर्वेदिक चिकित्सकों के साथ बातचीत कर सकें। भारत में आयुर्वेद केवल चिकित्सा विज्ञान की ही नहीं, सारे जीव विज्ञानों की जननी है। इसके बावजूद, विज्ञान आयुर्वेद से पूरी तरह अलग हो चुका है।” ज़ाहिर है, पारंपरिक और आधुनिक चिकित्सा प्रणालियों का एकीकरण हासिल करने के लिए विभिन्न क्षेत्रों के शोधकर्ताओं की स्वतंत्र और निष्पक्ष भागीदारी तथा सचमुच के अंतर-विषयी अध्ययनों की आवश्यकता है। ऐसा एकीकरण ही मानव समाज को गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य सेवा प्रदान कर सकेगा।

हमारा मानना है कि आयुष मंत्रालय के लिए सही दृष्टिकोण यह होगा कि वह पारंपरिक स्वास्थ्य प्रणालियों के क्षेत्र में खराब गुणवत्ता वाली शोध पत्रिकाओं पर रोक लगाए बनिस्बत इसके कि विभिन्न विषयों के उन शोधकर्ताओं पर रोक लगाए जो वास्तव में आयुर्वेदिक सिद्धांतों और कामकाज का सत्यापन आधुनिक वैज्ञानिक गहनता के तहत कर सकते हैं जो आय़ुर्वेद के लिए ज़रूरी है। आयुष की प्रामाणिकता को बढ़ावा देने के लिए, एक ऐसी प्रणाली विकसित करनी होगी जो मज़बूत वैज्ञानिक प्रमाणों पर आधारित हो। आयुष मंत्रालय विभिन्न आयुष महाविद्यालयों और उनके शैक्षणिक कार्यक्रमों में शिक्षण और अनुसंधान के उच्च मानक स्थापित करके इसको बढ़ावा दे सकता है। आगे की सोच और आगे बढ़ना आयुष के लिए लाभदायक होगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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स्मार्टफोन के उपयोग से खोपड़ी में परिवर्तन

हमारी खोपड़ी में एक परिवर्तन देखने को मिल रहा है और कई चिकित्सकों का मत है कि यह परिवर्तन कई घंटों तक गर्दन झुकाकर स्मार्टफोन के उपयोग की वजह से हो रहा है। वैसे तो कुछ लोगों में गर्दन के ऊपर खोपड़ी के निचले हिस्से की हड्डी थोड़ी उभरी होती है। इसे बाहरी पश्चकपाल गूमड़ कहते हैं। मगर हाल के कुछ अध्ययनों में पाया गया है कि सामान्य से ज़्यादा लोगों में, विशेष रूप से युवाओं में, यह गूमड़ कुछ ज़्यादा ही उभरने लगा है।

20 वर्षों से चिकित्सक रहे यूनिवर्सिटी ऑफ दी सनशाइन कोस्ट, ऑस्ट्रेलिया के स्वास्थ्य वैज्ञानिक डेविड शाहर के अनुसार उनको पिछले एक दशक में इस तरह के बदलाव देखने को मिले हैं। इसके कारण की स्पष्ट पहचान तो नहीं हो सकी है, लेकिन इस बात की संभावना है कि स्मार्ट उपकरणों को देखने के लिए असहज कोणों पर गर्दन को झुकाने से इस खोपड़ी के पिछले भाग की हड्डी बढ़ रही है। लंबे समय तक सर को झुकाकर रखने से गर्दन पर भारी तनाव पड़ता है। इसको कई बार ‘पढ़ाकू गर्दन’ (टेक्स्ट नेक) के नाम से भी जाना जाता है।

शाहर के  अनुसार पढ़ाकू गर्दन की वजह से गर्दन और खोपड़ी से जुड़ी मांसपेशियों पर दबाव बढ़ता है जिसके  जवाब में खोपड़ी के पिछले भाग (पश्चकपाल) की हड्डी बढ़ने लगती है। यह हड्डी सिर के वज़न को एक बड़े क्षेत्र में वितरित कर देती है।

वर्ष 2016 में शाहर और उनके सहयोगियों ने इस गूमड़ का अध्ययन करने के  लिए 18 से 30 वर्ष की आयु के 218 युवा रोगियों के रेडियोग्राफ देखे। एक सामान्य नियमित उभार 5 मि.मी. माना गया और 10 मि.मी. से बड़े उभार को बढ़ा हुआ माना गया।

कुल मिलाकर समूह के 41 प्रतिशत लोगों में उभार बढ़ा हुआ निकला और 10 प्रतिशत में उभार 20 मि.मी. से बड़ा पाया गया। सामान्य तौर पर, महिलाओं की अपेक्षा पुरुषों में यह उभार अधिक देखा गया। सबसे बड़ा उभार एक पुरुष में 35.7 मि.मी. का था।

18 से 86 वर्ष के 1200 लोगों पर किए गए एक अन्य अध्ययन में पाया गया कि यह समस्या कम उम्र के लोगों में अधिक दिखती है। जहां पूरे समूह के 33 प्रतिशत लोगों में बढ़ा हुआ उभार देखा गया, वहीं 18-30 वर्ष की आयु के व्यक्तियों में यह स्थिति 40 प्रतिशत से अधिक में पाई गई। यह परिणाम चिंताजनक है क्योंकि आम तौर पर इस तरह की विकृतियां उम्र के साथ बढ़ती हैं मगर हो रहा है उसका एकदम उल्टा।

शाहर का मानना है कि इस हड्डी की यह हालत बनी रहेगी हालांकि यह स्वास्थ्य की समस्या शायद न बने। बहरहाल, यदि आपको इसके कारण असुविधा हो रही है तो अपने उठने-बैठने के ढंग में परिवर्तन ज़रूरी होगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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जीनोम का धंधा: डायरेक्ट टू कंज़्यूमर (डीटीसी) – शशांक एस. तिवारी

नेचर  पत्रिका में प्रकाशित एक हालिया लेख में उन तरीकों पर प्रकाश डाला गया है जिनसे विभिन्न भारतीय बायोटेक कंपनियां सरकार और मुक्त-प्रवाह उद्यम पूंजी (वेंचर केपिटल) की मदद से नवाचार का कारोबार कर रही हैं। इस लेख की शुरुआत एक युवा भारतीय उद्यमी द्वारा दो बायोटेक स्टार्टअप कंपनियों की स्थापना के वर्णन से होती है। इसमें से उसकी एक कंपनी डायरेक्ट-टू-कंज्यूमर (डीटीसी) आनुवंशिक परीक्षण कंपनी, पर ध्यान केंद्रित किया गया है। इस लेख का उद्देश्य भारत में डीटीसी आनुवंशिक परीक्षणों से जुड़े उभरते नैतिक, सामाजिक और नियामक मुद्दों का विश्लेषण करना है।

डीटीसी जेनेटिक टेस्ट का उद्भव

आनुवंशिक परीक्षण के व्यवसाय का श्रेय मानव जीनोम प्रोजेक्ट को दिया जाता है। मानव जीनोम प्रोजेक्ट की शुरुआत आधिकारिक तौर पर 1990 में हुई थी जिसका उद्देश्य मानव जीनोम के पूरे डीएनए अनुक्रम का मानचित्र तैयार करना था। 2003 तक पूरे मानव जीनोम का अनुक्रमण कर लिया गया था। और इसके साथ ही डीटीसी जेनेटिक्स के व्यापार का रास्ता खुल गया। जब मानव जीनोम परियोजना शुरू की गई थी, तब यह वादा किया गया था कि जीनोम अनुक्रम के ज्ञान से बीमारी और मानव जीव विज्ञान को समझने में मदद मिलेगी।

इस ज्ञान का फायदा उठाने के लिए, वर्ष 2007 में तीन कंपनियों ने संयुक्त राज्य अमेरिका में अपनी उपभोक्ता आनुवंशिक सेवाएं शुरू कीं। ये तीन कंपनियां थीं 23एंडमी (23andMe), डीकोडमी (deCODEMe) और नेवीजेनिक्स (Navigenics)। बाद के वर्षों में, कई अन्य कंपनियों ने संयुक्त राज्य अमेरिका और भारत सहित दुनिया के कई हिस्सों में जीनोमिक्स सेवाएं प्रदान करना शुरू कर दिया।

पिछले कुछ वर्षों में भारत में कई सारी डीटीसी आनुवंशिक परीक्षण कंपनियां उभरी हैं। कुछ उल्लेखनीय नाम हैं: मैपमायजीनोम (Mapmygenome), दी जीनबॉक्स (The GeneBox), डीएनए लैब्स इंडिया (DNA Labs India), इंडियन बायोसाइंसेस (Indian Biosciences), पॉजि़टिव बायोसाइंसेस (Positive Biosciences), एक्सकोड (Xcode) और इज़ीडीएनए (EasyDNA)। ये कंपनियां जनता को विभिन्न जीनोमिक्स सेवाएं प्रदान करती हैं। इनमें व्यक्तिगत जीनोमिक्स (व्यक्ति पर दवा प्रतिक्रिया का प्रोफाइल, पोषण सम्बंधी आवश्यकताएं, किसी रोग का अंदेशा), नैदानिक (गर्भधारण से पूर्व स्क्रीनिंग), न्यूट्रिजीनोमिक्स (डीएनए आधारित आहार योजना), फिटनेस, खेलकूद, पितृत्व, वंश और फार्माकोजेनेटिक्स (दवाओं की प्रतिक्रिया में मरीज की आनुवंशिकी की भूमिका) जैसे परीक्षण शामिल हैं। आम लोग जेनेटिक टेस्ट किट ऑनलाइन कंपनियों की वेबसाइट्स या अमेज़न जैसी ई-कॉमर्स कंपनियों के माध्यम से खरीद सकते हैं। टेस्ट के प्रकार के आधार पर एक टेस्ट की लागत 3,000 से लेकर 1,20,000 रुपए तक है।

डीएनए का नमूना (लार या गाल का फाहा) जमा करने के बाद कुछ ही दिनों में उपभोक्ता को परिणाम प्राप्त हो जाते हैं। पश्चिम देशों की तरह, भारत में भी डीटीसी आनुवंशिक परीक्षणों के प्रसार ने कई वैज्ञानिक, नैतिक, सामाजिक और नियामक मुद्दों को जन्म दिया है। जैसे निदान की वैधता और उपयोगिता, आनुवंशिक नियतिवाद और जीनोमिक्स डैटा का संभावित दुरुपयोग। इसके अलावा, कई कंपनियों की विपणन रणनीति ने भारत में वैज्ञानिक कामकाज की प्रकृति के बारे में कई सवाल उठाए हैं।

विपणन रणनीति की नैतिकता

जहां चिकित्सा आचार संहिता तथा विज्ञापन कानून का क्रियांवयन व अनुपालन कमज़ोर तरीके से किया जाता है, वहां डीटीसी आनुवंशिक परीक्षणों के लिए किसी दिशानिर्देश या नियम-कायदों के अभाव में, कंपनियां अपने परीक्षण के लाभों के बारे में अतिरंजित दावे करने के लिए स्वतंत्र हैं। वे आम लोगों की सामाजिक और सांस्कृतिक मान्यताओं का फायदा उठाने के लिए अपने उत्पादों को गलत तरीके से प्रस्तुत कर सकती हैं। उदाहरण के लिए, एक कंपनी ने व्यवसाय रणनीति के रूप में, जीनोमिक्स को ज्योतिष के साथ जोड़ दिया है ताकि अपने परीक्षणों को खरीदने के लिए उपभोक्ताओं को लुभा सके। इस उद्देश्य को मन में रखकर कंपनी ने अपने एक उत्पाद का नाम जीनोमपत्री रखा है, जो जन्मपत्री से मेल खाता है। कंपनी की सीईओ ने यूट्यूब पर एक प्रचार संदेश में ज्योतिष के महत्व पर प्रकाश डालते हुए ऑनलाइन आनुवंशिक परीक्षणों के लाभ पर ज़ोर दिया है। उन्होंने कहा है कि जिस तरह जन्मपत्री लोगों को जन्म के समय राशि, ग्रहदशा और गोत्र आदि समझने में मदद करती है, उसी तरह आनुवंशिक परीक्षण, जेनेटिक बनावट और जेनेटिक लक्षणों को समझने में मदद करेंगे, जिसमें यह भी पता चलेगा कि कोई उत्परिवर्तन तो उपस्थित नहीं है। इसके अलावा, उन्होंने विस्तार से बताया कि व्यक्ति जेनेटिक संरचना की जानकारी होने पर जीवनशैली में बदलाव के ज़रिए सकारात्मक (आनुवंशिक) लक्षणों को समृद्ध कर सकता है। उनके अनुसार, रोकथाम के ये उपाय ज्योतिष के समान ही हैं जिसमें लोग खुद को ग्रहों के बुरे प्रभाव से बचाने के लिए पूजा, यज्ञ आदि करते हैं।

उपरोक्त प्रचार संदेश को उपमा कहकर उचित ठहराया जा सकता है। जटिल वैज्ञानिक अवधारणा को आसान शब्दों में संप्रेषित करने के लिए उपमाओं का उपयोग करना एक आम बात है। हालांकि, जीनोमिक्स के संदर्भ में ज्योतिष की इस विशेष उपमा का भारत में विज्ञान के कामकाज पर दूरगामी प्रभाव पड़ सकता है। यह ध्यान देने योग्य है कि कमोबेश समूचा भारतीय वैज्ञानिक समुदाय ज्योतिष को एक छदम विज्ञान मानता है, और ज्योतिष को वैज्ञानिक मंच पर लाने के किसी भी प्रयास का कड़ा विरोध किया जाता रहा है। यह उपमा वैज्ञानिक स्वभाव की अवधारणा के विपरीत है।

इसके अतिरिक्त, कंपनियों की वेबसाइट्स पर प्रख्यात हस्तियों के प्रशंसा पत्रों का प्रकाशन चिकित्सा नैतिकता से सम्बंधित मुद्दों को भी जन्म देता है। कभी-कभी, इनमें प्रमुख राजनेताओं, उद्योगपतियों और देश की अन्य जानी-मानी हस्तियों के बयान होते हैं। क्योंकि देश के अत्यधिक प्रतिष्ठित और शिक्षित माने जाने वाले लोग इन उत्पादों की सिफारिश करते हैं, इस तरह के प्रशंसा पत्र आम जनता को गुमराह करने की क्षमता रखते हैं। उपरोक्त महत्वपूर्ण मुद्दों के अलावा, आनुवंशिक परीक्षणों के साथ प्रमुख वैज्ञानिक चिंताएं भी हैं जो विशेष रूप से भारत में प्रासंगिक हैं।

विज्ञान सम्बंधी मुद्दे

डीटीसी आनुवांशिक परीक्षणों में से कुछ परीक्षण डीएनए-आधारित आहार योजना, फिटनेस, खेलकूद, पितृत्व और वंशावली जैसे विकल्प उपलब्ध कराते हैं जो गैर-नैदानिक हैं (यानी ये किसी रोग या तकलीफ का पता नहीं लगाते)। वैसे भी, तथ्य यह है कि ये व्यक्तिगत ऑनलाइन परीक्षण किसी बीमारी की उपस्थिति या अनुपस्थिति का सटीक निदान नहीं कर सकते; ये केवल उसकी संभाविता का अनुमान लगाते हैं। ये परीक्षण किसी डॉक्टर से चर्चा किए बिना सीधे आम जनता के लिए पेश किए जाते हैं, इसलिए इस बात की काफी संभावना है कि उपभोक्ता इन परिणामों की गलत व्याख्या कर बैठेंगे। भारत में योग्य आनुवंशिक परामर्शदाताओं और आनुवंशिकीविदों की संख्या नगण्य है जिसकी वजह से स्थिति और भी पेचीदा हो जाती है।

भारत के लोगों के बारे में प्रामाणिक आनुवंशिक डैटा का अभाव है। यह डीटीसी आनुवंशिक सेवाओं के साथ एक और स्पष्ट समस्या है। इस मुद्दे को मीडिया कवरेज भी मिला है। शायद यही कारण है कि कई भारतीय कंपनियां अपने परीक्षणों में तुलना हेतु कॉकेशियन आबादी से प्राप्त डेटा का उपयोग संदर्भ-डैटा के रूप में कर रही हैं।

समापन टिप्पणी

जीनोमिक्स में नवाचारों को नैतिक, सामाजिक, वैज्ञानिक और नियामक मुद्दों के प्रति संवेदनशील होना चाहिए। हालांकि भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद पूरी तरह से इस स्थिति से अवगत है लेकिन दुर्भाग्य से, इस समय भारत में जीनोमिक चिकित्सा के लिए कोई दिशानिर्देश या नियम नहीं हैं। भारतीय बायोमेडिकल एजेंसियों, स्वास्थ्य पेशवरों और वैज्ञानिकों को उपभोक्ताओं को संभावित स्वास्थ्य जोखिमों और डीटीसी आनुवंशिक परीक्षणों से जुड़े आर्थिक शोषण से बचाने के लिए एक नियामक ढांचा तैयार करने के लिए आगे आना होगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit :  https://www.youtube.com/watch?v=coJVok2f0JY

अल्जीरिया और अर्जेंटाइना मलेरिया मुक्त घोषित

विश्व स्वास्थ्य संगठन ने 22 मई के दिन अल्जीरिया और अर्जेंटाइना को मलेरिया मुक्त घोषित कर दिया। यह निर्णय तब किया गया जब इन दोनों देशों में पिछले तीन सालों से अधिक समय से मलेरिया का कोई मामला नहीं देखा गया। इसके साथ ही मलेरिया मुक्त देशों की संख्या 38 हो गई है।

गौरतलब है कि दुनिया के 80 देशों में हर साल करीब 20 करोड़ मलेरिया के मामले सामने आते हैं। 2017 में तकरीबन 4 लाख 35 हज़ार लोग मलेरिया की वजह से मारे गए थे।

अफ्रीकी देश अल्जीरिया में मलेरिया परजीवी पहली बार 1880 में देखा गया था। यहां मलेरिया का आखिरी मामला 2013 में सामने आया था। दक्षिण अमरीकी देश अर्जेंटाइना में मलेरिया आखिरी बार 2010 में पाया गया था। दोनों ही देशों में कई दशकों में मलेरिया प्रसार की दर काफी कम रही है। यहां मलेरिया से संघर्ष में प्रमुख भूमिका सबके लिए स्वास्थ्य की उपलब्धता और मलेरिया की गहन निगरानी की रही है। इसके अलावा अर्जेंटाइना ने विशेष प्रयास यह भी किया कि पड़ोसी देशों को राज़ी किया कि वे अपने यहां कीटनाशक छिड़काव करें और बुखारग्रस्त लोगों की मलेरिया के लिए जांच करें ताकि सीमापार फैलाव को रोका जा सके।

पहले तो विश्व स्वास्थ्य संगठन ने विश्व स्तर पर मलेरिया उन्मूलन कार्यक्रम चलाया था जो मुख्य रूप से डीडीटी के छिड़काव और मलेरिया-रोधी दवाइयों पर टिका था। इस कार्यक्रम के अंतर्गत 27 देश मलेरिया मुक्त हुए थे। लेकिन साल 1969 में संगठन ने मलेरिया उन्मूलन कार्यक्रम को त्याग दिया था क्योंकि वैज्ञानिकों ने स्पष्ट किया कि विश्व स्तर पर मलेरिया का उन्मूलन अल्प अवधि में संभव नहीं है।

अलबत्ता, 2000 के दशक में एक बार फिर कोशिशें शुरू हुर्इं और इस बार लक्ष्य यह रखा गया कि 2020 तक 21 देशों को मलेरिया मुक्त कर दिया जाएगा। इनमें से 2 (पेरागुए और अल्जीरिया) अब पूरी तरह मलेरिया मुक्त हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit :  https://www.atlasobscura.com/articles/algeria-argentina-malaria-free

आंतों के बैक्टीरिया और ऑटिज़्म का सम्बंध

वैसे तो माना जाता है कि ऑटिज़्म के लिए जीन्स ज़िम्मेदार है मगर एक ताज़ा अध्ययन बताता है कि शायद आंतों में पलने वाले बैक्टीरिया का भी इस स्थिति में योगदान हो सकता है। कहना न होगा कि यह अध्ययन चूहों पर किया गया है और इसके परिणामों को तत्काल मनुष्यों पर लागू नहीं किया जा सकता।

दरअसल, ऑटिज़्म के लक्षण व्यवहार में नज़र आते हैं। जैसे ऑटिज़्म पीड़ित व्यक्ति को सामाजिक सम्बंध बनाने में दिक्कत होती है, उसमें एक ही क्रिया को बार-बार करने की प्रवृत्ति होती है और वह सामान्यत: बोलने-संवाद करने से कतराता है।

आंतों में पल रहे बैक्टीरिया का असर व्यवहार पर देखने के लिए कैलिफोर्निया इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी के सार्किस मेज़मानियन और उनके साथियों ने चूहों पर कुछ प्रयोग किए। पहले उन्होंने कुछ चूहों को पूरी तरह कीटाणु मुक्त कर दिया। इसके बाद उन्होंने ऑटिज़्म पीड़ित और ऑटिज़्म मुक्त बच्चों के मल के नमूने लिए। कुछ चूहों के पेट में ऑटिज़्म पीड़ित बच्चों का और कुछ चूहों में ऑटिज़्म मुक्त बच्चों का मल डाला गया। इसके बाद उन्होंने एक ही किस्म के बैक्टीरिया से युक्त चूहों के बीच प्रजनन करवाया। अर्थात इनकी संतानें शुरू से ही एक ही किस्म के बैक्टीरिया के संपर्क में रहीं।

इन संतानों पर कई सारे व्यवहारगत परीक्षण किए गए ताकि ऑटिज़्मनुमा लक्षण पहचाने जा सकें। जैसे यह देखा गया कि अलग-अलग चूहे कितनी बार आवाज़ें निकालते हैं और कितनी बार साथ के चूहों के नज़दीक आते हैं या मेलजोल करते हैं। शोधकर्ताओं ने बार-बार दोहराए जाने वाले व्यवहार को भी परखा। इसके लिए उन्होंने दड़बे में कई कंचे रख दिए थे। देखा यह गया कि कोई चूहा कितने कंचों को मिट्टी में दबाता है।

सेल नामक शोध पत्रिका में शोधकर्ताओं ने बताया है कि ऑटिज़्म-मुक्त बच्चों के मल की अपेक्षा ऑटिज़्म पीड़ित बच्चों के मल युक्त चूहे कम सामाजिक रहे, और उनमें बार-बार दोहराए जाने वाला व्यवहार भी ज़्यादा देखने को मिला।

इन चूहों का जैव-रासायनिक विश्लेषण भी किया गया। देखा गया कि ऑटिज़्म-उत्पन्न मल वाले चूहों में कई बैक्टीरिया प्रजातियों की संख्या कम थी। यह तो पहले से पता है कि हमारी आंतों के बैक्टीरिया अमीनो अम्लों में फेरबदल करते हैं और कई बार ये अमीनो अम्ल दिमाग तक भी पहुंच सकते हैं। पता यह चला कि दोनों समूहों के चूहों के दिमाग में डीएनए की अभिव्यक्ति में अंतर थे। खास तौर से ऑटिज़्म पीड़ित चूहों में दो अमीनो अम्लों (टॉरीन और 5-अमीनोवेलेरिक अम्ल) की मात्रा कम पाई गई। ये अमीनो अम्ल तंत्रिकाओं से जुड़कर उनकी क्रिया को रोकते हैं। शोधकर्ताओं का ख्याल है कि ये ऑटिज़्म के विकास में महत्वपूर्ण हो सकते हैं क्योंकि जब उन्होंने अलग से कुछ ऑटिस्टिक चूहों को इन रसायनों की खुराक दी तो उनमें सामाजिक मेलजोल में वृद्धि हुई और बार-बार की जाने वाली क्रियाओं में कमी आई।

बहरहाल, अभी यह शोध काफी प्रारंभिक अवस्था का है और इसके आधार पर यह कहना उचित नहीं होगा कि आंतों के बैक्टीरिया ऑटिज़्म के कारक हैं। इसके अलावा, चूहों में मिले परिणामों को मनुष्यों पर लागू करने में भी सावधानी की ज़रूरत होगी। इसलिए शायद फिलहाल इसके आधार पर सीधे-सीधे किसी उपचार के उभरने की संभावना तो नहीं है किंतु इसने ऑटिज़्म के उपचार की नई संभावनाओं को जन्म अवश्य दिया है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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एक फफूंद मच्छरों और मलेरिया से बचाएगी

1980 के दशक में बुर्किना फासो के गांव सूमोसो ने मलेरिया के खिलाफ एक ज़ोरदार हथियार मुहैया करया था। यह था कीटनाशक-उपचारित मच्छरदानी। इसने लाखों लोगों को मलेरिया से बचाने में मदद की थी। मगर मच्छरों में इन कीटनाशकों के खिलाफ प्रतिरोध विकसित हो गया और इन मच्छरदानियों का असर कम हो गया। अब यही गांव एक बार फिर मलेरिया के खिलाफ एक और हथियार उपलब्ध कराने जा रहा है।

इस बार एक फफूंद में जेनेटिक फेरबदल करके एक ऐसी फफूंद तैयार की गई है जो मलेरिया फैलाने वाले मच्छरों को मारती है। इसके परीक्षण सूमोसो में 600 वर्ग मीटर के एक ढांचे में किए गए हैं जिसे मॉस्किटोस्फीयर नाम दिया गया है। यह एक ग्रीनहाउस जैसा है, फर्क सिर्फ इतना है कि कांच के स्थान पर यह मच्छरदानी के कपड़े से बना है। परीक्षण में पता चला है कि यह फफूंद एक महीने में 90 फीसदी मच्छरों का सफाया कर देती है।

व्यापक उपयोग से पहले इसे कई नियम कानूनों से गुज़रना होगा क्योंकि फफूंद जेनेटिक रूप से परिवर्तित है। इसकी एक खूबी यह है कि यह मच्छरों के अलावा बाकी कीटों को बख्श देती है। तेज़ धूप में यह बहुत देर तक जीवित नहीं रह पाती। इसलिए इसके दूर-दूर तक फैलने की आशंका भी नहीं है।

फफूंदें कई कीटों को संक्रमित करती हैं और उनके आंतरिक अंगों को चट कर जाती है। इनका उपयोग कीट नियंत्रण में किया जाता रहा है। 2005 में शोधकर्ताओं ने पाया था कि मेटाराइज़ियम नामक फफूंद मलेरिया फैलाने वाले मच्छरों का सफाया कर देती है। किंतु उसकी क्रिया बहुत धीमी होती है और संक्रमण के बाद भी मच्छर काफी समय तक जीवित रहकर मलेरिया फैलाते रहते हैं। इसके बाद कई फफूंदों पर शोध किए गए और अंतत: शोधकर्ताओं ने इसी फफूंद की एक किस्म मेटाराइज़ियम पिंगशेंस में एक मकड़ी से प्राप्त जीन जोड़ दिया। यह जीन एक विष का निर्माण करता है और तभी सक्रिय होता है जब यह कीटों के रक्त (हीमोलिम्फ) के संपर्क में आता है। प्रयोगशाला में तो यह कामयाब रहा। इससे प्रेरित होकर बुर्किना फासो में मॉस्किटोस्फीयर स्थापित किया गया।

स्थानीय बाशिंदों की मदद से आसपास के डबरों से कीटनाशक प्रतिरोधी लार्वा इकट्ठे किए गए और इन्हें मॉस्किटोस्फीयर के अंदर मच्छर बनने दिया गया। यह देखा गया है कि मनुष्य को काटने के बाद मादा मच्छर आम तौर पर किसी गहरे रंग की सतह पर आराम फरमाना पसंद करती है। लिहाज़ा, मॉस्किटोस्फीयर टीम ने फफूंद को तिल के तेल में घोलकर काली चादरों पर पोत दिया और चादरों को स्फीयर के अंदर लटका दिया।

शोधकर्ताओं ने स्फीयर के अंदर अलग-अलग कक्षों में 500 मादा और 1000 नर मच्छर छोड़े। विभिन्न कक्षों में चादरों पर कुदरती फफूंद, जेनेटिक रूप से परिवर्तित फफूंद और बगैर फफूंद वाला तेल पोता गया था। मच्छरों को काटने के लिए बछड़े रखे गए थे। यह देखा गया कि मात्र 2 पीढ़ी के अंदर (यानी 45 दिनों में) जेनेटिक रूप से परिवर्तित फफूंद वाले कक्ष में मात्र 13 मच्छर बचे थे जबकि अन्य दो कक्षों में ढाई हज़ार और सात सौ मच्छर थे।

यह तो स्पष्ट है कि यह टेक्नॉलॉजी मलेरिया वाले इलाकों में महत्वपूर्ण होगी किंतु इसे एक व्यावहारिक रूप देने में समय लगेगा।  (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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प्रशांतक दवाइयों की लत लगती है – नरेन्द्र देवांगन

हर तरह की भावनात्मक परेशानी, दर्द या मांसपेशियों को आराम पहुंचाने के नुस्खे में चिकित्सक प्रशांतक (ट्रेंक्विलाइज़र) दवाएं लिखते हैं। ब्रिटेन में हर साल तंत्रिका रोगों के 2 करोड़ नुस्खे लिखे जाते हैं और 15 लाख लोग नियमित रूप से प्रशांतक दवाएं लेते हैं। चिकित्सकों को बहुत बाद में पता चला कि किसी व्यक्ति को इन रोगों से मुक्ति दिलाने में इन दवाओं का प्रभाव निश्चित रूप से बहुत कम समय के लिए पड़ता है और लंबी अवधि तक उनका इस्तेमाल करने के गंभीर प्रतिकूल प्रभाव होते हैं और लत लगने का खतरा भी रहता है। इसके प्रतिकूल प्रभावों में याददाश्त और एकाग्रता में कमी, बेहद थकान और आलस, संतुलन बिगड़ना और अलगाव की अनुभूति शामिल है।

न्यू कासल विश्वविद्यालय में मनौषधि विज्ञानी डॉ. हीथर ऐशटन के अनुसार प्रशांतकों के प्रभाव में कुछ स्वभाव से लड़ाकू लोग और ज़्यादा लड़ाकू हो जाते हैं। इन गोलियों का सम्बंध बच्चों को पीटने जैसे हिंसक कामों और दुकान से चोरी करने जैसे छोटे अपराधों से देखा गया है।

प्रशांतक दवाएं मुख्यत: बेंज़ोडाइज़ेपाइन वर्ग की होती हैं। इनमें अधिक प्रचलित हैं डाएज़ेपाम, क्लोरोडायज़ेपॉक्साइड, लोराज़ेपाम और नींद की गोली नाइट्राज़ेपाम। इन्हें वेलियम, लिब्रियम, ऐटिवन और मोगाडन के नाम से लिखा जाता है। ये सभी मस्तिष्क की तंत्रिका कोशिकाओं की सक्रियता को मंद करने की प्रक्रिया को बढ़ाते हैं। इसके कारण एक तरह की शांति का अनुभव होता है।

पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियां दोगुनी संख्या में प्रशांतक दवाओं का सेवन करती हैं। सबसे अधिक सेवन चालीस के आसपास की उम्र के लोग करते हैं। वृद्ध लोग नींद की गोलियों का अक्सर सेवन करते हैं। 1988 के एक सर्वेक्षण से पता चला कि 65 वर्ष से ऊपर के 15 प्रतिशत लोगों को हर रात नींद की गोलियां लेनी पड़ती हैं। कोई 5 लाख लोग प्रशांतक लेने के आदी हो चुके हैं जबकि हेरोइन के लती लोगों की अनुमानित संख्या दो लाख के करीब है। मनोरोग संस्थान के प्रोफेसर मैल्कम लेडर के अनुसार, “प्रशांतक की लत छुड़ाना हेरोइन से कहीं अधिक कठिन है। हेरोइन छोड़ने के बाद की परेशानियां कुछ दिनों में खत्म हो जाती हैं। लेकिन प्रशांतक छोड़ने के बाद के लक्षण (जैसे पेशियों में ऐंठन, वज़न और स्फूर्ति में कमी, दृष्टि और श्रवण दोष और खुले स्थान का भय) तीन या चार सप्ताह तक रहता है। कुछ लोगों में तो कई महीने तक यही हालत रहती है।”

लेकिन प्रशांतकों पर निर्भरता के खिलाफ संघर्ष में कई लोग सफल हो रहे हैं। बर्टन आन ट्रेंट में तीन गिरजों का संकुल चलाने वाले पादरी बर्नार्ड ब्राउन ने काम के दबाव से राहत पाने के लिए वेलियम लेना शुरू किया। उसके बाद वे कई प्रशांतकों को मिलाकर लेने लगे। परिणामस्वरूप वे गंभीर रूप से अवसादग्रस्त हो गए। उन्हें बिजली के झटके तक दिए गए। उनके चिकित्सक ने उन्हें अधिक तेज़ दवा ऐटिवन दी तब कहीं जाकर वे अधिक दवाओं के प्रभाव से मुक्ति की ओर बढ़े। प्रशांतक दवाइयां लेने की आदत छोड़ने के प्रयासरत लोगों को स्व-सहायता दल ज़बरदस्त सहारा देते हैं। समूह का हर सदस्य जानता है कि दूसरे पर क्या गुज़र रही है। वे एक दूसरे को प्रोत्साहित करते हैं और उनकी जीत में भागीदार बनते हैं। नवागंतुकों के लिए उनका संदेश होता है, ‘हमने किया। आप भी कर सकते हैं।’

जॉय एक फैशन मॉडल थी। वह चोटी के लिबास डिज़ाइनरों के लिए काम करती थी। 29 साल पहले वह तलाक के दर्दनाक मुकदमे में फंस गई थी, और तब नींद आने के लिए उसने प्रशांतकों का सेवन शुरू किया। फिर बड़े-बड़े फैशन शो के पहले उन्हें लेने लगी। जल्द ही उसे दिल की धड़कन बढ़ने का रोग हो गया और सांस लेने में तकलीफ होने लगी। आखिरकार उसे अपना काम छोड़ देना पड़ा और कई साल अस्पताल के अंदर-बाहर होती रही। चिकित्सक यह ज्ञात करने में असफल रहे कि उसे हो क्या गया है। वह कहती है, “मैंने ज़िंदगी के कई साल खो दिए। मेरे बच्चों को याद है कि मैं उनमें कोई दिलचस्पी नहीं लेती थी। मैं जैसे कुहासे में जी रही थी।” जॉय एक स्व-सहायता दल के पास गई और उनकी सहायता से प्रशांतकों से मुक्ति पा ली। आज उसका अपना व्यवसाय है और एक व्यस्त दादी मां के रूप में ज़िंदगी का आनंद उठा रही है।

प्रशांतकों का लंबी अवधि तक सेवन करने से वे उस हालत को और खराब कर देते हैं जिन्हें दुरुस्त करने की उनसे उम्मीद की जाती है। उनका अवरोधक प्रभाव मस्तिष्क की उस कार्य शैली को गड़बड़ा देता है जो एड्रिनेलीन के प्रवाह को नियंत्रित करती है और जिससे पूरी प्रणाली में उसकी बाढ़ आ जाती है। लिवरपूल की नर्स पैम आर्मस्ट्रांग उपरोक्त व्यसन मुक्ति परिषद चलाती हैं। वे समझाती हैं, “ऐड्रिनेलीन खून का प्रवाह और ह्मदय की धड़कन बढ़ाता है। सामान्य अवस्था में किसी खतरे को देखते हुए शरीर की यह प्रतिक्रिया होती है। लेकिन अगर कोई शांतिपूर्वक बैठा हो और उसके दिल की धड़कन बढ़ जाए तो उसे दिल का दौरा भी पड़ सकता है।” 

अनुसंधान से पता चला है कि गर्भ के अंतिम महीनों में प्रशांतक लेने से गर्भस्थ शिशु पर बुरा असर पड़ता है। इनसे बच्चा नशे में डूब जाता है, जिसके कारण उसे फ्लॉपी इंफेंट सिंड्रोम हो सकता है। इसका मतलब है नवजात शिशु ठीक तरह से स्तनपान करने में असमर्थ होता है और उसे सांस लेने और दूध पीने में दिक्कत होती है।

बेंज़ोडाइज़ेपाइन वर्ग के प्रशांतक 60 के दशक में आए थे। उस समय बार्बिच्युरेट का प्रयोग सबसे ज़्यादा प्रचलित प्रशांतक के रूप में होता था। बार्बिच्युरेट के विपरीत इनकी लत नहीं लगती प्रतीत होती थी और अधिक मात्रा में लेने से मौत भी नहीं होती थी। इसलिए चिकित्सकों ने कई समस्याओं से छुट्टी पाने के सरल उपाय के रूप में बेंज़ोडाइज़ेपाइन्स का स्वागत किया।

चिकित्सकों को पहले ही बोध होना चाहिए था कि जिस दवा के लेने से लोग अच्छा महसूस करने लगते हैं, उसकी लत पड़ने का भी खतरा है। लेकिन प्रशांतकों के नुस्खे बड़ी संख्या में लिखे जाने लगे। फिर मरीज़ों का भी दबाव था। लोगों ने उनके बारे में सुना और चिकित्सकों से उन्हें लिखने की फरमाइश भी करने लगे। इसलिए चिकित्सक परीक्षा के तनाव से परेशान छात्रों को प्रशांतक लिखने लगे। वे 25 साल बाद आज तक उन्हें ले रहे हैं। प्रसूति के बाद के अवसाद को दूर करने के लिए औरतों को प्रशांतक दिए गए, और वे आज दादी बन जाने तक उन्हें ले रही हैं।

70 के दशक के उत्तरार्ध के पहले प्रशांतकों की लत लगने का पता नहीं चला था। नशीली दवाओं की आदत छुड़ाने में सहायता करने वाली ‘रिलीज़’ नामक संस्था के उपनिदेशक को याद है, “पहले हम अवैध नशीली दवाओं से चिंतित रहते थे। उसके बाद वे लोग आने लगे जिन्हें चिकित्सकों द्वारा बताई गई दवाओं के कारण परेशानी होने लगी थी। और तब हमने इस नई स्थिति को महसूस किया। लेकिन इस समस्या को स्वीकार करने में चिकित्सकों को काफी देर लगी।” 

प्रोफेसर लेडर स्पष्ट करते हैं कि इस खतरे को समझने में चिकित्सकों को इतनी देर क्यों लगी। नशीली दवाइयों के व्यसन की विशेषता होती है कि प्रभाव को बरकरार रखने के लिए उस व्यक्ति को नशीली दवा की खुराक बढ़ानी पड़ती है। लेकिन प्रशांतक लेने वालों को दवा की मात्रा बढ़ाने की ज़रूरत नहीं होती। वे उतनी ही मात्रा लेते रह सकते हैं।

कुछ लोग प्रतिकूल प्रभावों के कारण प्रशांतक लेने की आदत छोड़ना चाहते हैं। उन्हें इस आदत का गुलाम बनना गंवारा नहीं। लॉर्ड एनल्स ने स्वीकार किया कि वे भी 17 साल तक वेलियम के आदी रहे थे। इसमें 1976 से 1979 का वह समय भी शामिल था जिन दिनों वे स्वास्थ्य विभाग के सचिव थे। उन्हें चिकित्सकों ने प्रशांतक लेने की सलाह दी थी। उन दिनों वे पारिवारिक परेशानियों में उलझे थे। प्रशांतकों का कोई प्रतिकूल प्रभाव तो नहीं हुआ, लेकिन वे गोलियों पर निर्भर रहना नहीं चाहते थे। इसलिए उन्होंने कई बार उनसे मुक्ति पाने की कोशिश की। आखिरकार उन्हें लेना अचानक बिलकुल बंद कर दिया। छह महीने तक बहुत परेशानी हुई, बुरे सपने आते, घबराहट होती और नींद नहीं आती थी।

चिकित्सक अचानक प्रशांतक का सेवन रोकने की सलाह नहीं देते हैं। इससे तेज़ सिरदर्द हो सकता है और यह खतरनाक भी हो सकता है। एक महिला ने ऐटिवन लेना अचानक बंद कर दिया तो उसने आत्महत्या करने की कोशिश की। अत: रोगियों को इन दवाओं की खुराक धीरे-धीरे कम करने में सहायता दी जाती है। चिकित्सीय निरीक्षण में व्यक्ति 8 सप्ताह में प्रशांतकों से मुक्ति पा सकता है।

आज अधिकतर चिकित्सक यह देखने की कोशिश करते हैं कि बेंज़ोडाइज़ेपाइन का इस्तेमाल तीव्र भावनात्मक कष्टों के निवारण में अस्थायी तौर पर किया जाए। ब्रिाटेन की दवा सुरक्षा समिति के मुताबिक रोग के लक्षणों को नियंत्रित करने के लिए चिकित्सक कम से कम खुराक लेने की सलाह दें। प्रशांतक चार हफ्ते से अधिक तक न लिए जाएं और नींद की गोलियां नियमित रूप से लेने के बजाए रुक-रुक कर ली जाएं।

प्रशांतक की आदत छोड़ने के लिए संघर्षरत लोगों को परामर्शदाता अपने परिवारों से सहायता लेने की सलाह देते हैं जो कि उनकी समस्या को समझते हुए उनका हौसला बुलंद कर सकें। चिकित्सक ऐसी दवाएं लिख सकते हैं जिनकी आदत नहीं पड़ती। गहरे अवसाद से पीड़ित लोगों को व्यसन न बनने वाली अवसादरोधी गोलियां या ऐसे बीटा ब्लॉकर दे सकते हैं जो दवा छोड़ने के बाद के शारीरिक प्रभाव यानी घबराहट और ह्मदय गति का बढ़ना रोकती हैं। वे परामर्श लेने या मनोचिकित्सा कराने की भी सलाह दे सकते हैं।

आपको लगता है कि प्रशांतक या नींद की गोलियां आपके लिए समस्या बन गई हैं तो निसंकोच अपने चिकित्सक की सलाह लें। इसके अलावा स्वयंसेवी दल हैं और कुछ अस्पतालों से सम्बद्ध विशेष इकाइयां भी हैं, जो लोगों की प्रशांतकों की लत छुड़ाने में सहायता करती हैं। यह याद रखें कि प्रशांतक ‘आनंद की गोलियां’ नहीं हैं जैसा कभी उनके बारे में सोचा जाता था और जो लोग लंबे अरसे तक उनका सेवन करते हैं, उन्हें अस्थायी राहत की ऊंची कीमत चुकानी पड़ सकती है। (स्रोत फीचर्स)

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कोशिका भित्ती बंद, बैक्टीरिया संक्रमण से सुरक्षा – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

पृथ्वी पर बैक्टीरिया लगभग 3.8 से 4 अरब वर्ष पूर्व अस्तित्व में आए थे। पर्यावरण ने जीवित रहने और प्रजनन करने के लिए जो कुछ भी उपलब्ध कराया, वे उसी से काम चलाते रहे हैं। उनकी तुलना में मनुष्य पृथ्वी पर बहुत बाद में अस्तित्व में आए, कुछ लाख साल पहले। वर्तमान में पृथ्वी पर मनुष्य की कुल आबादी लगभग 7 अरब है। जबकि पृथ्वी पर बैक्टीरिया की कुल आबादी लगभग 50 लाख खरब खरब है। ब्राहृांड में जितने तारे हैं उससे भी कहीं ज़्यादा बैक्टीरिया पृथ्वी पर हैं।

कई बैक्टीरिया मनुष्यों से अपना पोषण प्राप्त करते हैं। इनमें से कई बैक्टीरिया मनुष्यों के लिए निरापद ही नहीं बल्कि फायदेमंद भी हैं। मनुष्य की आंत में लगभग 100 खरब बैक्टीरिया पाए जाते हैं जो हमारी वृद्धि और विकास में मदद करते हैं। लेकिन कुछ बैक्टीरिया हमें बीमार कर देते हैं और यहां तक कि जान भी ले लेते हैं। प्राचीन काल से ही मनुष्य ने जड़ी-बूटियों और औषधियों की मदद से इनके संक्रमण से निपटने के तमाम तरीके अपनाए हैं। इसी संदर्भ में डॉ. रुस्तम एमिनोव ने फ्रंटियर्स इन माइक्रोबॉयोलॉजी में प्रकाशित अपने शोघ पत्र “A brief history of the antibiotic era: Lessons learned and challenges for the future” (एंटीबायोटिक युग का संक्षिप्त इतिहास: सबक और भविष्य की चुनौतियां) में बताया है कि प्राचीन काल में मिरुा के लोग संक्रमण से निपटने के लिए फफूंद लगी ब्रोड की पुल्टिस लगाते थे। सूडान में पाए गए कंकालों में एंटीबायोटिक ट्रेट्रासायक्लीन के अवशेष मिले हैं, जो इस बात की ओर इशारा करते हैं कि वे लोग सूक्ष्मजीव से हुए संक्रमण के इलाज में किसी बूटी का उपयोग करते थे।

एक हालिया रास्ता

आधुनिक चिकित्सा आधारित उपचार कुछ ही वर्ष पुराना है। सन 1909 में डॉ. हारा ने सिफलिस संक्रमण से लड़ने के लिए आर्सफेनामाइन यौगिक खोजा था। फिर सन 1910 में डॉ. बर्थाइम ने इसका संश्लेषण किया और सेलवार्सन नाम दिया। इसके बाद 1928 में एलेक्ज़ेंडर फ्लेमिंग ने पेनिसिलीन की खोज की थी। पेनिसिलीन कई सारे संक्रामक बैक्टीरिया को मार सकती थी।

बैक्टीरिया से लड़ने के लिए हम जितनी नई दवाएं और रसायन खोजते हैं, उत्परिवर्तन (म्यूटेशन) के ज़रिए उतनी ही तेज़ी से बैक्टीरिया की जेनेटिक संरचना बदल जाती है और बैक्टीरिया उस दवा के खिलाफ प्रतिरोध हासिल कर लेते हैं। इस तरह वैज्ञानिक और बैक्टीरिया के बीच यह रस्साकशी चलती ही रहती है। अब हम यह समझ गए हैं कि जब तक हम बैक्टीरिया संक्रमण फैलने में शामिल बुनियादी जीव वैज्ञानिक चरणों को नहीं समझ नहीं लेते तब तक हम बैक्टीरिया पर विजय नहीं पा सकेंगे।

बैक्टीरिया के जीव विज्ञान को समझने की दिशा में सूक्ष्मजीव विज्ञानी एशरीशिया कोली (ई. कोली) नामक बैक्टीरिया पर अध्ययन कर रहे हैं। अब हम जानते हैं कि बैक्टीरिया की कोशिका एक रक्षात्मक कोशिका भित्ती से घिरी होती है। यह कोशिका भित्ती एक बड़ी थैली-नुमा संरचना से बनी होती है जिसे पेप्टीडोग्लायकेन या PG कहते हैं। जिस PG का उपयोग बैक्टीरिया करते हैं, वह सिर्फ बैक्टीरिया में पाया जाता है, अन्यत्र कहीं नहीं।

PG थैलीनुमा संरचना होती है जो दो शर्करा अणुओं (NAG और NAM) की शृंखलाओं से निर्मित कई परतों से मिलकर बनी होती हैं। ये परतें आपस में एक-दूसरे से जुड़ी होती हैं और बैक्टीरिया की कोशिका के इर्द-गिर्द एक निरंतर परत का निर्माण करती हैं। अर्थात जब बैक्टीरिया का आकार बढ़ता है तो ज़रूरी होता है कि यह PG थैली भी फैलती जाए। PG थैली फैलने के लिए पहले परतों के बीच की कड़िया खुलेंगी, फिर नए पदार्थ जुड़ेंगे और एक बार फिर ये परतें आपस में कड़ियों के माध्यम से जुड़ जाएंगी। तभी तो बैक्टीरिया की वृद्धि हो पाएगी।

 

निर्णायक चरण

बैक्टीरिया पर काबू पाने की दिशा में हैदराबाद स्थित कोशिकीय व आणविक जीव विज्ञान केंद्र (CCMB) की डॉ. मंजुला रेड्डी और उनके साथियों ने महत्वपूर्ण कदम उठाया है। उन्होंने इस बात का बारीकी से अध्ययन किया है कि बैक्टीरिया कैसे कोशिका भित्ती बनाता है और वृद्धि को संभव बनाने के लिए कैसे PG थैली खोलता है, और इस थैली को खोलने में कौन से रसायन मदद करते हैं। अध्ययन में उन्होंने PG थैली खुलने के लिए एंज़ाइम्स के खास समूह को ज़िम्मेदार पाया है (उनके शोध पत्र इस लिंक पर पढ़े जा सकते हैं https://doi.org/10.1073/pnas.1816893116)। उनके अनुसार, यदि जेनेटिक इंजीनियरिंग की मदद से बैक्टीरिया में से इनमें से किसी एक या सभी एंज़ाइम को हटा दिया जाए तो PG थैली नहीं खुलेगी, और बैक्टीरिया भूखा मर जाएगा।

इसका क्या मतलब है? इसका मतलब है कि यदि हम ऐसे कोई अणु या तरीके ढूंढ लेते हैं जिनकी मदद से हम इन एंज़ाइम्स को रोकने में सफल हो जाते हैं तो हम जीवाणुओं को उनके सुरक्षा कवच यानी कोशिका भित्ती को बनाने से रोक पाएंगे। इस तरह से संक्रमण पर काबू पा सकेंगे और सुरक्षित हो सकेंगे।

अन्य तरीके

प्रसंगवश, एंटीबायोटिक पेनिसिलीन भी उन्हीं एंज़ाइम्स को रोकती है जो कोशिका भित्ती खुलने के बाद उसे बंद करने के लिए ज़िम्मेदार होते हैं। भित्ती बंद ना हो पाने के कारण जीवाणु कमज़ोर हो जाता है और उसकी मृत्यु हो जाती है। तो यह तरीका हुआ “भित्ती बंद ना होने देना”। CCMB के शोधकर्ताओं द्वारा सुझाया तरीका है “कोशिका भित्ती हमेशा बंद रहे, कभी ना खुले”। वर्तमान में लोकप्रिय एंटीबायोटिक औषधियां जिन्हें फ्लोरोक्विनोलॉन्स कहते हैं (जैसे सिप्रॉफ्लॉक्सेसिन) कोशिका भित्ती पर सीधे असर नहीं करती लेकिन उन एंज़ाइम्स को रोकती हैं जो बैक्टीरिया के डीएनए को खुलने और प्रतियां बनाने में मदद करता है। इस तरह की औषधियां संक्रमण फैलाने वाले बैक्टीरिया को अपनी प्रतियां बनाकर संख्यावृद्धि करने और अपने जीन्स की मरम्मत करने से रोकती हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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विलुप्त होती हड्डी दोबारा उभरने लगी

वैज्ञानिकों का मानना था कि मनुष्य के घुटने पर उभरने वाली हड्डी फेबेला विकास क्रम में विलुप्त होने लगी थी। लेकिन हालिया अध्ययन बताते हैं कि फेबेला फिर उभरने लगी है। इम्पीरियल कॉलेज की मिशेल बर्थोम और उनके साथियों का यह अध्ययन जर्नल ऑफ एनॉटॉमी में प्रकाशित हुआ है।

सेम की साइज़ की यह हड्डी सीसेमॉइड हड्डी है, जिसका मतलब है कि यह कंडरा के बीच धंसी रहती है। समय के साथ यह हड्डी कैसे विलुप्त हुई यह जानने के लिए शोधकर्ताओं ने 27 अलग-अलग देशों के 21,000 घुटनों के एक्स-रे, एमआरआई और अंग-विच्छेदन का अध्ययन किया। इन सभी से प्राप्त डैटा को एक साथ किया और उनका सांख्यिकीय विश्लेषण किया। उन्होंने पाया कि लगभग एक शताब्दी पूर्व की तुलना में वर्तमान समय में यह हड्डी तीन गुना अधिक मामलों में दिखती है। अध्ययन के अनुसार साल 1875 में लगभग 17.9 प्रतिशत लोगों में फेबेला उपस्थित थी जबकि वर्ष 1918 में यह लगभग 11.2 लोगों में उपस्थित थी। और 2018 में यह 39 प्रतिशत लोगों में देखी गई।

पूर्व में फेबेला बंदरों में नी कैप (घुटनों के कवच) की तरह काम करती थी। मनुष्य में विकास के साथ फेबेला की ज़रूरत कम होती गई। और यह विलुप्त होने लगी। लेकिन यह मनुष्यों में पुन: दिखने लगी है। ऐसा माना जाता है कि इस हड्डी की उपस्थित का सम्बंध घुटनों के दर्द वगैरह से है। फेबेला को गठिया या घुटनों की सूजन, दर्द और अन्य समस्याओं के साथ जोड़कर देखा जाता है। वास्तव में हड्डियों के गठिया से पीड़ित लोगों में सामान्य लोगों के मुकाबले फेबेला अधिक देखी गई है। तो आखिर किस वजह से यह लोगों में फिर उभरने लगी है।

मिशेल का कहना है कि सीसेमॉइड हड्डियां समान्यतः किसी यांत्रिक बल की प्रतिक्रिया स्वरूप विकसित होती हैं। आधुनिक मनुष्य अपने पूर्वजों की तुलना में बेहतर पोषित है, यानी पूर्वजों की तुलना में हम अधिक लंबे और भारी हैं। अधिक वज़न से घुटनों पर अधिक ज़ोर पड़ता है जिसके फलस्वरूप लोगों में फेबेला उभरने लगी है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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गर्म खून के जंतुओं में ह्रदय मरम्मत की क्षमता समाप्त हुई

कुछ वैज्ञानिकों का कहना है कि जो जंतु गर्म खून वाले होते हैं उनमें ह्दय की मरम्मत की क्षमता कम होती है। गर्म खून वाले जंतु से आशय उन जंतुओं से है जिनके खून का तापमान स्थिर रहता है, चाहे आसपास के पर्यावरण में कमी-बेशी होती रहे। शोधकर्ताओं का यह भी कहना है कि गर्म खून का विकास और ह्दय की मरम्मत की क्षमता का ह्यास परस्पर सम्बंधित हैं।

सैन फ्रांसिस्को स्थित कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के वैकासिक जीव विज्ञानी गुओ हुआंग और उनके साथियों ने विभिन्न जंतुओं के ह्दय का अध्ययन करके उक्त निष्कर्ष साइन्स शोध पत्रिका में प्रस्तुत किया है।

हुआंग की टीम दरअसल यह देखना चाहती थी कि विभिन्न जंतुओं के ह्दय की कोशिकाओं में कितने गुणसूत्र होते हैं। यह बात आम तौर पर ज्ञात नहीं है कि जंतुओं के शेष शरीर की कोशिकाओं में प्रत्येक गुणसूत्र यानी क्रोमोसोम की दो प्रतियां पाई जाती हैं किंतु ह्रदय  की अधिकांश कोशिकाओं में गुणसूत्रों की 4-4, 6-6 प्रतियां होती हैं।

जंतु कोशिकाओं में प्रत्येक गुणसूत्र की एक प्रति मां से और दूसरी पिता से आती है। इन कोशिकाओं को द्विगुणित कहते हैं। किंतु ह्रदय  की अधिकांश कोशिकाएं बहुगुणित होती हैं। इनमें दो या दो से अधिक प्रतियां पिता से और दो या दो से अधिक प्रतियां माता से आती हैं।

हुआंग की टीम को पता यह चला कि जब आप मछली से शुरू करके छिपकलियों, उभयचर जीवों और प्लेटीपस जैसी मध्यवर्ती प्रजातियों से लेकर स्तनधारियों की ओर बढ़ते हैं वैसे-वैसे ह्रदय  में बहुगुणित कोशिकाओं का अनुपात बढ़ता है। यह तथ्य तब महत्वपूर्ण हो जाता है जब आप यह देखें कि ज़्यादा द्विगुणित कोशिकाओं वाले ह्रदय  – जैसे ज़ेब्रा मछली का ह्रदय  – में पुनर्जनन हो सकता है और मरम्मत हो सकती है। जैसे-जैसे बहुगुणित कोशिकाओं की संख्या बढ़ती है (जैसे चूहों और मनुष्यों में) तो मरम्मत की क्षमता कम होने लगती है।

अब सवाल यह है कि किसी ह्रदय  में बहुगुणित कोशिकाओं का अनुपात कौन तय करता है। यह सवाल वैसे तो अनुत्तरित है किंतु हुआंग की टीम को एक जवाब मिला है। उन्होंने पाया है कि इस मामले में थायरॉइड हारमोन की कुछ भूमिका हो सकती है। थायरॉइड हारमोन शरीर क्रियाओं (मेटाबोलिज़्म) को नियंत्रित करता है और हमें गर्म खून वाला बनाता है। टीम ने देखा कि जब उन्होंने ज़ेब्रा मछली के टैंक में अतिरिक्त थायरॉइड हारमोन डाल दिया तो उनके ह्रदय  में पुनर्जनन नहीं हो पाया। दूसरी ओर, उन्होंने ऐसे चूहे विकसित किए जिनके ह्रदय  थायरॉइड के प्रति असंवेदी थे तो चोट लगने के बाद उनके ह्रदय  दुरुस्त हो गए। वैसे शोधकर्ताओं ने स्पष्ट किया है कि अभी कोई निष्कर्ष निकालना जल्दबाज़ी होगी क्योंकि इस संदर्भ में थायरॉइड शायद अकेला ज़िम्मेदार नहीं होगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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