छोटा-सा बाल बना दर्दनाक

पैर में कांटा चुभने पर दर्द का अनुभव तो कमोबेश सभी ने किया होगा लेकिन क्या छोटा-सा बाल भी दर्द का कारण बन सकता है?

मानव शरीर पर बाल हर जगह होते हैं, लेकिन ब्राज़ील में एक व्यक्ति के लिए एक बाल परेशानी का कारण बन गया। वास्तव में बाल का एक टुकड़ा उसके पैर की त्वचा के अंदर घुस गया। ऐसा बहुत कम देखा गया है और इस स्थिति को ‘हेयर स्प्लिन्टर’ कहा जाता है। एक मायने वह बाल उसके लिए फांस बन गया।

दी जर्नल ऑफ इमरजेंसी मेडिसिन में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार एक 35 वर्षीय व्यक्ति को दाहिनी एड़ी में अकारण दर्द होने लगा। दर्द बढ़ने पर उसे आपातकालीन कक्ष में ले जाया गया।

गौरतलब है कि इससे पहले उसे कभी भी पैर या टखने में चोट नहीं लगी थी। शुरुआती जांच में डॉक्टरों को भी दर्द की वजह समझ नहीं आई और न ही किसी प्रकार की चोट नज़र आई। डॉक्टरों ने उसे पहले पंजे के बल और फिर एड़ी के बल चलने को कहा तो उसने दार्इं एड़ी में दर्द महसूस किया।

साओ पौलो विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं के अनुसार एड़ी को करीब से देखने पर बाल का एक किनारा दिखाई दिया। लेंस से जांच करने पर मालूम चला कि एक छोटा-सा बाल एड़ी की त्वचा को भेदते हुए अंदर घुस गया है। चिमटी की मदद से जो बाल निकाला गया वह 1 से.मी. लंबा था। बाल निकल जाने के बाद व्यक्ति को तुरंत राहत महसूस हुई।

दरअसल उस व्यक्ति को जो तकलीफ हुई थी वह त्वचीय रोम प्रवासन की वजह से हुई थी। इसमें बाल या उसका टुकड़ा त्वचा की सतह के नीचे घुस जाता है। 2016 में मेडिकल जर्नल आर्मड फोर्सेस इंडिया में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार पिछले 60 वर्षों में ऐसे मात्र 26 मामले रिकॉर्ड हुए हैं।

एक बार त्वचा में घुसने के बाद, यह बाल रोगी की हलचल से रेंगते हुए और अंदर घुसता चला जाता है। यह रेंगने वाला आकार हुकवर्म के कारण होने वाली त्वचा की समस्या त्वचीय लार्वा प्रवासन से ग्रस्त लागों में पाए जाने वाले चकत्ते के जैसा दिखता है। लेकिन यह लाल और उभरा हुआ नहीं होता बल्कि त्वचा के नीचे काले, धागे जैसा दिखाई देता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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रक्त समूह A को O में बदलने की संभावना

आम तौर पर दुनिया में चार तरह के रक्त समूह (A, B, AB, और O) होते है। हर व्यक्ति इनमें से किसी एक रक्त समूह का होता है। इन रक्त समूहों की पहचान लाल रक्त कोशिकाओं की सतह की बनावट या उन पर मौजूद एंटीजन से होती है। किसी व्यक्ति को ज़रूरत पड़ने पर सही समूह का रक्त चढ़ाना ज़रूरी होता है अन्यथा शरीर की एंटीबॉडी लाल रक्त कोशिकाओं पर उपस्थित एंटीजन को भांपकर उसे बाहरी समझकर मार देती है। यह जानलेवा साबित हो सकता है।

चूंकि O रक्त समूह की कोशिकाओं पर कोई एंटीजन मौजूद नहीं होता इसलिए इस समूह का रक्त किसी भी व्यक्ति को चढ़ाया जा सकता है। और इसी कारण कई बार आपात स्थिति में ज़रूरी होने पर मरीज़ के रक्त समूह की जांच किए बिना O समूह का रक्त चढ़ा दिया जाता है। अर्थात इस समूह का रक्त अत्यंत कीमती है। यह रक्त समूह और भी सहजता से उपलब्ध हो सके, इसके लिए शोधकर्ता पिछले कुछ वर्षों से A रक्त समूह की सतह पर मौजूद एंटीजन को हटाकर इसे O रक्त समूह में परिवर्तित करने की कोशिश कर रहे हैं। और इस दिशा में हाल ही में वेन्कूवर स्थित ब्रिाटिश कोलंबिया युनिवर्सिटी के स्टीफन वीथर्स ने दो ऐसे एंज़ाइम्स की पहचान की है जो A रक्त समूह की सतह पर मौजूद एंटीजन को पचाने में सक्षम है।

शोधकर्ताओं ने देखा कि मानव आंत में मौजूद कुछ बैक्टीरिया म्यूसिन का पाचन करते हैं। म्यूसिन दरअसल श्लेष्मा में पाया जाने वाला एक ग्लायकोप्रोटीन है जिसकी बनावट A रक्त समूह की सतह पर मौजूद एंटीजन के समान होती है। इसलिए शोधकर्ताओं ने अपना ध्यान मानव आंत में मौजूद उन बैक्टीरिया पर केन्द्रित किया जिनमें म्यूसिन पचाने की क्षमता थी।

उन्होंने मानव मल से डीएनए के उन हिस्सों को अलग किया जिनमें म्यूसिन पचाने वाले जीन मौजूद थे। फिर हर हिस्से को ई. कोली बैक्टीरिया के साथ जोड़ दिया और देखा कि क्या कोई बैक्टीरिया A रक्त समूह की सतह पर मौजूद एंटीजन को पचाने वाला एंज़ाइम बनाता है। उन्होंने पाया कि ऐसे दो एंजाइम का एक साथ उपयोग करने पर वे A रक्त समूह के एंटीजन को हटाने में सक्षम थे। शोधकर्ताओं ने अपने अध्ययन के बारे में शोध पत्रिका नेचर माइक्रोबायोलॉजी में बताया है कि इन एंजाइम्स का निर्माण फ्लेवोनिफ्रेक्टर प्लॉटी नामक बैक्टीरिया द्वारा किया जाता है। इसके बाद उन्होंने रक्त के नमूनों साथ भी यही परीक्षण दोहराया और उन्हें संतोषजनक परिणाम मिले। हालांकि अभी इस बात की पुष्टि बाकी है कि इन एंजाइम्स द्वारा सारे एंटीजन हटा दिए जाते हैं या नहीं। साथ ही इस बात की पुष्टि की भी ज़रूरत है कि ये एंजाइम्स लाल रक्त कोशिकाओं की सतह से एंटीजन हटाने के अलावा कोई अन्य फेरबदल तो नहीं करते। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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खोपड़ी में इतनी हड्डियां क्यों?

अनुमान लगाइए आपकी खोपड़ी में कितनी हड्डियां होंगी। शायद आपका अनुमान दो, या शायद कुछ अधिक हड्डियों का हो। लेकिन वास्तव में मानव खोपड़ी में अनुमान से कहीं अधिक हड्डियां होती हैं। नेशनल सेंटर फॉर बॉयोटेक्नॉलॉजी इंफॉर्मेशन के मुताबिक मानव खोपड़ी में हड्डियों की संख्या 22 होती है: 8 हड्डियां कपाल में और 14 हड्डियां चेहरे की।  

अलग-अलग जीवों की खोपड़ी में हड्डियों की संख्या अलग-अलग होती है। ओहायो युनिवर्सिटी के शोधकर्ता के मुताबिक मगरमच्छ की खोपड़ी में 53 हड्डियां होती हैं। अब तक खोपड़ी में सबसे अधिक हड्डियां लुप्त हो चुकी एक मछली के जीवाश्म में मिली है (156)। सामान्यत: मछलियों की खोपड़ी में तकरीबन 130 हड्डियां होती हैं।

विभिन्न रीढ़धारी जीवों में जन्म के समय खोपड़ी में हड्डियों की संख्या अधिक होती है, लेकिन कुछ में युवावस्था आने तक कुछ हड्डियां आपस में जुड़ जाती हैं जबकि कुछ जीवों में ये हड्डियां अलग-अलग बनी रहती हैं। जैसे स्तनधारी जीवों के भ्रूण की खोपड़ी में लगभग 43 हड्डियां होती हैं, लेकिन उम्र के साथ इनमें से कुछ हड्डियां आपस में जुड़ जाती हैं। मानव शिशु में जन्म के समय के माथे की दो हड्डियां होती हैं जो उम्र बढ़ने पर जुड़कर एक हो जाती हैं।

प्रत्येक रीढ़धारी जीव की खोपड़ी में हड्डियों की संख्या, आगे चलकर कितनी हड्डियां जुड़ेंगी, जुड़ाव का स्थान और समय में विविधता होती है। और इससे पता लगता है कि उस जीव की खोपड़ी का उपयोग कैसा है, और खोपड़ी में कितने लचीलेपन की ज़रूरत है। जीव की खोपड़ी जितनी अधिक लचीली होगी, उसकी खोपड़ी में उतनी अधिक हड्डियां होंगी। मसलन मछिलयों की खोपड़ी बहुत लचीली होती है और उनकी खोपड़ी में हड्डियों की संख्या बहुत अधिक होती है और उनमें बहुत कम हड्डियां आपस में जुड़ती हैं। वैसे ज़मीन पर रहने वाले रीढ़धारी जीवों की तुलना में मछलियों को अपने सिर का संतुलन बनाए रखने के लिए गुरुत्व बल से जूझना नहीं पड़ता, इसलिए उनकी हड्डियां हल्की और लचीली होती हैं। पक्षियों की भी खोपड़ी काफी लचीली होती है। जैव विकास में जीवों की खोपड़ी अलग-अलग तरह से विकसित हुर्इं हैं। खोपड़ी की हड्डियों में यह विविधता जीव विकास की समृद्ध प्रक्रिया के बारे में बताती है। (स्रोत फीचर्स)

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कैंसर कोशिकाओं को मारने हेतु लेज़र

अर्कान्सास आयुर्विज्ञान विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने एक नई तकनीक विकसित की है जिसकी मदद से खून में से उन कैंसर कोशिकाओं को नष्ट किया जा सकेगा जो किसी कैंसर गठान से टूटकर अलग हुई हैं। ऐसी कोशिकाएं शरीर में कैंसर के फैलने की प्रमुख वजह होती हैं। यह तकनीक एक विशेष किस्म के लेज़र पर आधारित है।

फिलहाल कैंसर के फैलने का पता लगाने के लिए डॉक्टर रक्त के नमूनों का परीक्षण करके उनमें कैंसर कोशिकाओं की उपस्थिति का पता लगाते हैं। किंतु यह परीक्षण तभी सही परिणाम देता है जब रक्त में ऐसी कोशिकाओं की संख्या काफी ज़्यादा हो, जिसका मतलब है कि उस समय तक कैंसर काफी फैल चुका होता है।

शोध के प्रमुख व्लादिमिर ज़ारोव द्वारा विकसित तकनीक को सायटोफोन नाम दिया गया है। इसमें त्वचा पर लेज़र प्रकाश के पुंज दागे जाते हैं ताकि रक्त की कोशिकाएं गर्म हो जाएं। लेज़र की खूबी यह होती है कि वह सिर्फ मेलेनोमा कोशिकाओं को गर्म करता है, स्वस्थ कोशिकाओं को नहीं। मेलेनोमा एक किस्म का कैंसर होता है। इसकी कोशिकाओं में मेलेनीन नामक रंजक पाया जाता है जो लेज़र किरणों को अवशोषित कर कोशिका को गर्म कर देता है। जब ये पर्याप्त गर्म हो जाती हैं, तो इस ऊष्मन प्रभाव से उत्पन्न सूक्ष्म ध्वनि तरंगों को सायटोफोन द्वारा पकड़ा जाता है।

साइंस ट्रासंसलेशन मेडिसिन नामक शोध पत्रिका में प्रकाशित शोध पत्र में बताया गया है कि तकनीक का परीक्षण सबसे पहले हल्के रंग की त्वचा वाले मरीज़ों पर किया गया। इनमें से 28 को मेलेनोमा था जबकि 19 स्वस्थ थे। उन्होंने इनके हाथों पर लेज़र चमकाया और पाया कि 10 सेकंड से 60 मिनट के अंदर वे 28 में से 27 के रक्त प्रवाह में भटकती कैंसर कोशिकाओं को पहचानने में सफल रहे। सबसे अच्छी बात यह रही कि इस तकनीक ने एक भी स्वस्थ व्यक्ति के बारे में मिथ्या पॉजि़टिव परिणाम नहीं दिए। इसके कोई साइड प्रभाव भी नहीं देखे गए।

गौरतलब बात है कि त्वचा की कोशिकाओं में भी मेलेनीन पाया जाता है किंतु परीक्षण के दौरान उन कोशिकाओं को कोई क्षति नहीं पहुंची। कारण यह है कि लेज़र पुंज को इस तरह फोकस किया गया था कि वह त्वचा पर नहीं बल्कि थोड़ी गहराई में जाकर रक्त वाहिनियों पर केंद्रित होता है।

परीक्षण का एक अनपेक्षित परिणाम यह रहा कि परीक्षण के बाद मरीज़ों के शरीर में रक्त प्रवाह में भटकती कैंसर कोशिकाओं की संख्या में कमी आई। अर्थात यह तकनीक कैंसर कोशिकाओं को खत्म करने में भी उपयोगी साबित हो सकती है। ऐसा प्रतीत होता है कि जब मेलेनीन लेज़र द्वारा उत्पन्न ऊष्मा को सोखता है तो कोशिका में उसके आसपास उपस्थित पानी वाष्पित होने लगता है और एक बुलबुला बना लेता है। यह बुलबुला पहले तो फैलता है और फिर पिचक जाता है। इस प्रक्रिया में कोशिका मारी जाती है।

अभी इस तकनीक का परीक्षण गहरे रंग की त्वचा वाले व्यक्तियों पर नहीं किया गया है, जिनकी त्वचा कोशिकाओं में मेलेनीन काफी अधिक होता है।

अभी यह तकनीक सिर्फ मेलेनोमा से उत्पन्न कोशिकाओं पर आज़माई गई है। शोधकर्ता दल इसे अन्य किस्म की कैंसर कोशिकाओं के लिए भी विकसित करना चाहता है। इनमें मेलेनीन तो होता नहीं, इसलिए पहले इनको किसी मार्कर से चिंहित करना होगा।

टीम का कहना है कि अभी इस तकनीक को नैदानिक तकनीक में विकसित करने में समय लगेगा। वैसे उन्होंने प्रयोगशाला में उपलब्ध स्तन कैंसर की कोशिकाओं पर इसे कारगर साबित किया है। (स्रोत फीचर्स)

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आंखों पर इतने बैक्टीरिया का अड्डा क्यों है?

आजकल यह बात तो आम जानकारी का विषय है कि हमारी आंतों में बड़ी संख्या में सूक्ष्मजीव निवास करते हैं और इनमें से कई हमें स्वस्थ रहने में मदद करते हैं। हमारी आंतों का यह सूक्ष्मजीव जगत असंतुलित हो जाए तो कई तकलीफों का सबब बन जाता है। मगर यह बात नई है कि हमारी आंखों का भी अपना सूक्ष्मजीव जगत (माइक्रोबायोम) होता है और इसमें असंतुलन कई बीमारियों को जन्म दे सकता है।

हाल ही में एक अध्ययन का निष्कर्ष है कि हमारी आंख की सतह पर रहने वाले कुछ बैक्टीरिया प्रतिरक्षा तंत्र को प्रोत्साहित करते हैं। पिछले दशक में आंखों की तंदुरुस्ती में सूक्ष्मजीवों की भूमिका विवादास्पद थी। और तो और, वैज्ञानिकों का ख्याल था कि आंखों में कोई सुगठित सूक्ष्मजीव संसार नहीं होता है। अध्ययन बताते थे कि हवा से, हाथों से आंखों पर बैक्टीरिया पहुंच सकते हैं जिन्हें आंसुओं के साथ बहा दिया जाता है। हाल ही में वैज्ञानिकों ने निष्कर्ष निकाला है कि आंखों में एक सूक्ष्मजीव संसार बसता है और इसका संघटन उम्र, भौगोलिक क्षेत्र, जनजातीय सम्बद्धता, कॉन्टैक्ट लेंस पहनने और आंखों की बीमारी से निर्धारित होता है। आंखों के इस सूक्ष्मजीव संसार का ‘प्रमुख हिस्सा’ बैक्टीरिया के चार वंशों से मिलकर बनता है: स्टेफिलोकॉकस, डिफ्थेरॉइड्स, प्रोपियोनीबैक्टीरिया और स्ट्रेप्टोकॉकस। इनके अलावा एक वायरस (टॉर्क टेनो वायरस) भी इस सूक्ष्मजीव संसार का मूल निवासी है।

इसका पहला मतलब तो यह है कि नेत्र विशेषज्ञों को एंटीबायोटिक दवाइयां देते समय इस सूक्ष्मजीव संसार का ध्यान रखना चाहिए क्योंकि हो सकता है कि एंटीबायोटिक कुछ लाभदायक बैक्टीरिया को भी मार डालें। यू.एस. के करीब साढ़े तीन लाख मरीज़ों पर किए एक अध्ययन में पता चला था कि कंजंक्टिवाइटिस के 60 प्रतिशत मामलों में एंटीबायोटिक्स का धड़ल्ले से इस्तेमाल किया गया जबकि यह बीमारी एक वायरस के कारण होती है और स्वत: ठीक हो जाती है।

2016 में रेशेल कास्पी और उनके साथियों द्वारा किए गए एक अध्ययन में पता चला था कि चूहे की आंखों में एक बैक्टीरिया सी. मास्ट पाया जाता है जो प्रतिरक्षा कोशिकाओं को सूक्ष्मजीवरोधी रसायन बनाने को प्रेरित करता है। ऐसे और अध्ययनों की आवश्यकता है ताकि सूक्ष्मजीव संसार के असर को परखा जा सके। (स्रोत फीचर्स)

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कुछ लोगों को मच्छर ज़्यादा क्यों काटते हैं?

यह तो जानी-मानी बात है कि कुछ लोगों को मच्छर बहुत ज़्यादा काटते हैं जबकि कुछ लोग खुले में बैठे रहें तो भी मच्छर उन्हें नहीं काटते। वैज्ञानिकों का मत है कि मच्छरों द्वारा व्यक्तियों के बीच यह भेदभाव उन व्यक्तियों के आसपास उपस्थित निजी वायुमंडल के कारण होता है। मच्छर इस वायुमंडल में छोटे-छोटे परिवर्तनों का लाभ उठाते हैं।

सबसे पहले तो मच्छर कार्बन डाईऑक्साइड की मदद से अपने शिकार को ढूंढते हैं। हम जो सांस छोड़ते हैं उसमें कार्बन डाईऑक्साइड अधिक मात्रा में होती है। यह कार्बन डाईऑक्साइड तुरंत आसपास की हवा में विलीन नहीं हो जाती बल्कि कुछ समय तक हमारे आसपास ही टिकी रहती है। मच्छर इस कार्बन डाईऑक्साइड के सहारे आपकी ओर बढ़ते हैं।

मच्छर कार्बन डाईऑक्साइड की बढ़ती सांद्रता की ओर रुख करके उड़ते रहते हैं जो उन्हें आपके करीब ले आता है। देखा गया है कि मच्छर कार्बन डाईऑक्साइड की सांद्रता की मदद से 50 मीटर दूर के लक्ष्य को भांप सकते हैं। यह तो हुई सामान्य सी बात – कार्बन डाईऑक्साइड के पैमाने पर तो सारे मनुष्य लगभग बराबर होंगे। इसके बाद आती है बात व्यक्तियों के बीच भेद करने की।

वैज्ञानिकों का मत है कि इस मामले में मच्छर कई चीज़ों का सहारा लेते हैं। इनमें त्वचा का तापमान, व्यक्ति के आसपास मौजूद जलवाष्प और व्यक्ति का रंग महत्वपूर्ण हैं। मगर सबसे महत्वपूर्ण अंतर उन रसायनों से पड़ता है जो व्यक्ति की त्वचा पर उपस्थित सूक्ष्मजीव हवा में छोड़ते रहते हैं। त्वचा पर मौजूद बैक्टीरिया हमारे पसीने के साथ निकलने वाले रसायनों को वाष्पशील रसायनों में तबदील कर देते हैं जो हमारे आसपास की हवा में तैरते रहते हैं। जब मच्छर व्यक्ति से करीब 1 मीटर दूर पहुंच जाता है तो वह इन रसायनों की उपस्थिति को अपने गंध संवेदना तंत्र से ग्रहण करके इनके बीच भेद कर सकता है। सूक्ष्मजीवों द्वारा उत्पन्न इस रासायनिक गुलदस्ते में 300 से ज़्यादा यौगिक पाए गए हैं और यह मिश्रण व्यक्ति की जेनेटिक बनावट और उसकी त्वचा पर मौजूद सूक्ष्मजीवों से तय होता है। तो यह है आपकी युनीक आइडेंटिटी मच्छर के दृष्टिकोण से।

2011 में प्लॉस वन पत्रिका में प्रकाशित एक अध्ययन का निष्कर्ष था कि जिन इंसानों की त्वचा पर सूक्ष्मजीवों की ज़्यादा विविधता पाई जाती है, उन्हें मच्छर कम काटते हैं। कम सूक्ष्मजीव विविधता वाले लोग मच्छरों को ज़्यादा लुभाते हैं। और तो और, यह भी देखा गया कि कम सूक्ष्मजीव विविधता वाले मनुष्यों के शरीर पर निम्नलिखित बैक्टीरिया पाए गए: लेप्टोट्रिचिया, डेल्फ्टिया, एक्टिनोबैक्टीरिया जीपी3, और स्टेफिलोकॉकस। दूसरी ओर, भरपूर सूक्ष्मजीव विविधता वाले मनुष्यों के शरी़र पर पाए जाने वाले बैक्टीरिया में स्यूडोमोनास और वेरिओवोरेक्स ज़्यादा पाए गए।

वॉशिगटन विश्वविद्यालय के जेफ रिफेल का कहना है कि इन रासायनिक गुलदस्तों के संघटन में छोटे-मोटे परिवर्तनों से मच्छरों द्वारा काटे जाने की संभावना में बहुत अंतर पड़ता है। वही व्यक्ति बीमार हो तो यह संघटन बदल भी सकता है। वैसे रिफेल यह भी कहते हैं कि सूक्ष्मजीव विविधता को बदलने के बारे में तो आप खास कुछ कर नहीं सकते मगर अपने शोध कार्य के आधार पर उन्होंने पाया है कि मच्छरों को काला रंग पसंद है। इसलिए उनकी सलाह है कि बाहर पिकनिक मनाने का इरादा हो, तो हल्के रंग के कपड़े पहनकर जाएं। (स्रोत फीचर्स)

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आयुष अनुसंधान पर मंत्रालय का अवैज्ञानिक दृष्टिकोण – लखोटिया, पटवर्धन, रस्तोगी

आयुष मंत्रालय द्वारा हाल ही में जारी एक परामर्श पत्र की पड़ताल जिसमें आयुर्वेद पर किसी भी अध्ययन में आयुष विशेषज्ञों को शामिल करने का निर्देश दिया गया है।

 

आयुर्वेद, योग और प्राकृतिक चिकित्सा, यूनानी, सिद्ध और होम्योपैथी (आयुष) मंत्रालय द्वारा दिनांक 2 अप्रैल 2019 को जारी एक परामर्श पत्र (एडवायज़री) में “गैर-आयुष वैज्ञानिकों/शोधकर्ताओं द्वारा आयुष औषधियों और उपचारों को लेकर बेबुनियाद वक्तव्यों तथा निष्कर्षों वाले शोध पत्रों के प्रकाशन तथा वैज्ञानिक अध्ययनों, जो पूरी प्रणाली की वि·ासनीयता और शुचिता को नुकसान पहुंचाते हैं,” पर चिंता व्यक्त की गई है क्योंकि “इन शोध पत्रों व अध्ययनों में योग्यता प्राप्त आयुष विशेषज्ञों को शामिल नहीं किया गया या उनसे परामर्श नहीं किया गया।”

परामर्श पत्र में आगे कहा गया है कि “सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा में आयुष की संभावना और विस्तार को खतरे में नहीं डाला जा सकता है। साथ ही आयुष से सम्बंधित वैज्ञानिक अध्ययन और अनुसंधान में मनमाने बयानों तथा बेबुनियाद निष्कर्षों से जनता को आयुष का उपयोग करने से विमुख नहीं किया जा सकता है।” इसलिए परामर्श पत्र में कहा गया है कि “सभी गैर-आयुष शोधकर्ताओं, वैज्ञानिकों, संस्थानों और चिकित्सा/वैज्ञानिक पत्रिकाओं के संपादकों को सलाह दी जाती है कि वे किसी भी आयुष औषधि या उपचार का आकलन करने हेतु किए गए वैज्ञानिक अध्ययन/नैदानिक परीक्षण/अनुसंधान हस्तक्षेप के संचालन के लिए या ऐसे परीक्षणों के परिणामों के पुनरीक्षण हेतु उपयुक्त आयुष विशेषज्ञ/संस्थान/अनुसंधान परिषद को शामिल करें ताकि आयुष के बारे में गलत, मनमाने और अस्पष्ट बयानों एवं निष्कर्षों से बचा जा सके।” 

हालांकि हम आयुष मंत्रालय की इस चिंता से पूरी तरह सहमत हैं कि कुछ शोध प्रकाशनों में प्रस्तुत निराधार, एकतरफा और दोटूक निष्कर्षों के कारण पारंपरिक चिकित्सा प्रणालियों की छवि को क्षति पहुंचना संभव है, लेकिन हमारा मानना है कि इन्हें रोकने के लिए इस परामर्श पत्र में अनुशंसित व्यवस्था उपयुक्त नहीं है।

परामर्श पत्र में आग्रह किया गया है कि इसकी अनुशंसाओं पर “सम्बंधित शोधकर्ता/वैज्ञानिक/जांचकर्ता” ध्यान दें और इनका पालन करें, लेकिन देखा जाए, तो इनका अनुपालन और क्रियांवयन लगभग असंभव है। अलबत्ता, इस परामर्श अधिक गंभीर और चिंताजनक अर्थ यह है कि इस तरह के कदमों से न केवल इन पारंपरिक चिकित्सा प्रणालियों में आवश्यक निष्पक्ष शोध पर अंकुश लगेगा, बल्कि सोचने की स्वतंत्रता पर भी काफी असर पड़ेगा। निष्पक्ष शोध और सोचने की स्वतंत्रता, ये दोनों ही किसी भी क्षेत्र में हमारी समझ में सुधार के लिए बुनियादी ज़रूरतें हैं। 

हमारा मानना है कि आयुर्वेद सहित विभिन्न पारंपरिक भारतीय स्वास्थ्य प्रणालियों की प्रतिष्ठा में कमी का वास्तविक कारण निम्न-गुणवत्ता वाली शोध पत्रिकाओं का तेज़ी से उभरना है। ये पत्रिकाएं खुद आयुष ‘विशेषज्ञों’ द्वारा किए गए घटिया गुणवत्ता के शोध को प्रकाशित करती रहती हैं। यह निम्न गुणवत्ता का शोध कुकुरमुत्तों की तरह तेज़ी से पनपते कॉलेजों और वि·ाविद्यालयों में किए जा रहे स्नातकोत्तर/पीएचडी शोध ग्रंथों में अप्रामाणिक डेटा को शामिल करने का परिणाम है। यह बात भी किसी छुपी नहीं है कि इनमें से कई आयुष कॉलेज ‘छद्म’ रोगियों, शिक्षकों और यहां तक कि फजऱ्ी छात्रों के माध्यम से अपनी मान्यता बनाए रखे हैं। ज़ाहिर  है, ऐसे संस्थानों में किया गया छद्म शोध न केवल आयुष को बदनाम करता है, बल्कि एक ऐसा कार्य-बल तैयार करता है जो इन प्रणालियों को नुकसान पहुंचा सकता है।

अप्रामाणिक व संदिग्ध फार्मेसियों द्वारा खराब गुणवत्ता वाली औषधियों का विपणन भी आयुष को बदनाम कर रहा है। पारंपरिक विचारों से पूरी तरह सहमत न होने वाले अध्ययनों पर प्रतिबंध और ऐसे शोध और आवाज़ों को दबाने की बजाय मंत्रालय की वास्तविक चिंता इन मुद्दों पर होनी चाहिए।

यह भी संभव है कि ऐसे गैर-आयुष शोधकर्ता मौजूद हैं जो घटिया अनुसंधान करके प्रकाशित करते हैं। हालांकि, जैसे अच्छे और गुणवत्ता के प्रति सजग आयुष शोधकर्ता होते हैं, वैसे ही गैर-आयुष शोधकर्ता भी हैं जिन्होंने इन उपचारों की क्रियाविधियों और सिद्धांतों को समझने में सकारात्मक और महत्वपूर्ण योगदान दिया है और दे रहे हैं। उदाहरण के लिए, कार्बनिक रसायन विज्ञानी आसीमा चटर्जी, टी. टी. गोविंदाचारी और अन्य द्वारा आयुर्वेद में प्रयुक्त हर्बल उत्पादों के रसायन शास्त्र के क्षेत्र में अग्रणी और व्यापक योगदान जाना-माना है। इसी तरह, कई प्रकार के हर्बल और आयुर्वेदिक औषधि मिश्रणों की क्रियाविधियों पर किए गए बुनियादी वैज्ञानिक अध्ययनों ने उनकी जैविक क्रियाविधियों को उजागर करके नए एवं प्रभावी चिकित्सीय अनुप्रयोग के रास्ते खोले हैं। ऐसे कई अध्ययनों ने हर्बल और आधुनिक दवाइयों के बीच सकारात्मक और नकारात्मक अंतर्क्रियाओं को समझने में मदद दी है। कुछ जीनोमिक और आणविक जीव विज्ञानियों ने आयुर्वेद की त्रिदोष/प्रकृति जैसी अवधारणाओं को वर्तमान जीव विज्ञान के परिप्रेक्ष्य में समझने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। ये गैर-आयुष शोधकर्ताओं के योगदान के कुछ चंद उदाहरण भर हैं, जो वास्तव में आयुष को समृद्ध बना रहे हैं।

यह कहना ठीक नहीं होगा कि समकालीन संदर्भों में बगैर प्रमाणित किए, प्राचीन ज्ञान और तौर-तरीकों को सिर्फ इसलिए बगैर सोचे-समझे स्वीकार कर लिया जाए कि वे पारंपरिक हैं। आयुष प्रथाओं और नुस्खों को प्रमाणों की बुनियाद मिलना आवश्यक है। शोध चाहे आयुष शोधकर्ताओं द्वारा किया जाए या गैर-आयुष शोधकर्ताओं द्वारा, यदि वह परंपरागत रूप से मान्य वि·ाासों पर सवाल उठाता है और ऐसे व्यवस्थित प्रमाण उपलब्ध कराता है जो उनकी तार्किकता को चुनौती दें, तो इसे प्राचीन ज्ञान का ‘अपमान’ न समझकर गंभीरता से लेना चाहिए। बुद्धि और सामाजिक व्यवस्था केवल उस ज्ञान और समझ के साथ आगे बढ़ती है जो हमारे पूर्वजों के ज्ञान और समझ से भी आगे ले जाए।

यदि इस परामर्श पत्र को गंभीरता से लिया गया, तो यह केवल एक ही विचार को पनपने देगा और उन सभी लोगों को अपने विचार रखने से रोकेगा जो इससे असहमत हैं। एक अच्छा विज्ञान बाहरी सत्यापन के लिए सदैव खुला रहना चाहिए। वास्तव में, सारे दरवाज़े बंद करने की व्यवस्था, जिसमें सिर्फ सहमत लोग हों, अपनाने की बजाय, निष्पक्ष बहु-विषयी अनुसंधान को बढ़ावा देने की आवश्यकता है। बंद दरवाज़ा व्यवस्था आयुष के लिए खतरनाक साबित होगी। कल्पना कीजिए, अगर जीव विज्ञान के शोधकर्ताओं ने बीसवीं सदी में श्रोडिंजर, डेलब्राुक, पौलिंग, क्रिक, रोसलिंड फ्रेंंकलिन, बेन्ज़र जैसे गैर-जीव वैज्ञानिकों को जीव विज्ञान में कार्य न करने देने का फैसला किया होता, तो आज जीव विज्ञान या आधुनिक विज्ञान कहां होता?

आयुष को अन्य शोधकर्ताओं से केवल समर्थक साक्ष्य की उम्मीद नहीं करनी चाहिए। यदि हम अलग-अलग राय रखते हैं, तो बहस को आगे बढ़ाने और तर्क-वितर्क के लिए अकादमिक मंच और पत्रिकाएं मौजूद हैं। यह समझना चाहिए कि आयुष और गैर-आयुष शोधकर्ताओं के जो शोध-परिणाम आयुर्वेद और अन्य पारंपरिक चिकित्सा प्रणालियों को समर्पित अच्छी पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए हैं, वे अच्छी सहकर्मी-समीक्षा प्रणाली से गुज़रे होंगे और इस प्रकार वे वास्तव में पारंपरिक स्वास्थ्य प्रणाली के विकास में योगदान दे रहे हैं। संपादकों से यह कहना कि शोध पत्र में एक लेखक के रूप में आयुष विशेषज्ञ को अनिवार्य रूप से शामिल करें, न केवल शोधकर्ताओं की स्वायत्तता के खिलाफ है, बल्कि ऐसे  ‘विज्ञान प्रकाशन’ की प्रतिष्ठा के लिए काफी अपमानजनक भी है जहां प्रकाशन से पूर्व लेखक की औपचारिक शैक्षणिक योग्यता की बजाय सिर्फ यह देखा जाता है कि शोध पत्र में व्यक्त विज्ञान अच्छी गुणवत्ता का है या नहीं। उक्त परामर्श पत्र संभावित रूप से आयुष और गैर-आयुष विशेषज्ञों के बीच गलतफहमी पैदा कर सकता है। क्लीनिकल ट्रायल सम्बंधी अनुसंधान में आयुष विशेषज्ञों को शामिल करना वांछनीय होगा, लेकिन प्रयोगशाला में और/या जंतु अध्ययनों में आयुष प्रभाविता की जांच करने वाले सभी अध्ययनों में यह अनिवार्य नहीं किया जा सकता। जैसे भी हो, आयुष विशेषज्ञ मॉनिटर या वॉचडॉग नहीं बल्कि सहयोगी होंगे। 

आयुष मंत्रालय और आयुर्वेद चिकित्सकों को यह नहीं भूलना चाहिए कि एक दशक से थोड़ा अधिक समय पहले शुरू किए गए ‘आयुर्वेदिक जीव विज्ञान’ मिशन के अंतर्गत विभिन्न शोधकर्ताओं ने आयुर्वेद में उल्लेखनीय योगदान दिया है। आयुर्वेदिक जीव विज्ञान के उत्प्रेरक, मूलत: एक ह्मदय शल्य चिकित्सक और नवाचारकर्ता एम.एस. वालियाथन की टिप्पणी है, “इस समय कोई ऐसा सामान्य धरातल नहीं है जहां भौतिक विज्ञानी, रसायनज्ञ, प्रतिरक्षा विज्ञानी और आणविक जीव विज्ञानी आयुर्वेदिक चिकित्सकों के साथ बातचीत कर सकें। भारत में आयुर्वेद केवल चिकित्सा विज्ञान की ही नहीं, सारे जीव विज्ञानों की जननी है। इसके बावजूद, विज्ञान आयुर्वेद से पूरी तरह अलग हो चुका है।” ज़ाहिर है, पारंपरिक और आधुनिक चिकित्सा प्रणालियों का एकीकरण हासिल करने के लिए विभिन्न क्षेत्रों के शोधकर्ताओं की स्वतंत्र और निष्पक्ष भागीदारी तथा सचमुच के अंतर-विषयी अध्ययनों की आवश्यकता है। ऐसा एकीकरण ही मानव समाज को गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य सेवा प्रदान कर सकेगा।

हमारा मानना है कि आयुष मंत्रालय के लिए सही दृष्टिकोण यह होगा कि वह पारंपरिक स्वास्थ्य प्रणालियों के क्षेत्र में खराब गुणवत्ता वाली शोध पत्रिकाओं पर रोक लगाए बनिस्बत इसके कि विभिन्न विषयों के उन शोधकर्ताओं पर रोक लगाए जो वास्तव में आयुर्वेदिक सिद्धांतों और कामकाज का सत्यापन आधुनिक वैज्ञानिक गहनता के तहत कर सकते हैं जो आय़ुर्वेद के लिए ज़रूरी है। आयुष की प्रामाणिकता को बढ़ावा देने के लिए, एक ऐसी प्रणाली विकसित करनी होगी जो मज़बूत वैज्ञानिक प्रमाणों पर आधारित हो। आयुष मंत्रालय विभिन्न आयुष महाविद्यालयों और उनके शैक्षणिक कार्यक्रमों में शिक्षण और अनुसंधान के उच्च मानक स्थापित करके इसको बढ़ावा दे सकता है। आगे की सोच और आगे बढ़ना आयुष के लिए लाभदायक होगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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स्मार्टफोन के उपयोग से खोपड़ी में परिवर्तन

हमारी खोपड़ी में एक परिवर्तन देखने को मिल रहा है और कई चिकित्सकों का मत है कि यह परिवर्तन कई घंटों तक गर्दन झुकाकर स्मार्टफोन के उपयोग की वजह से हो रहा है। वैसे तो कुछ लोगों में गर्दन के ऊपर खोपड़ी के निचले हिस्से की हड्डी थोड़ी उभरी होती है। इसे बाहरी पश्चकपाल गूमड़ कहते हैं। मगर हाल के कुछ अध्ययनों में पाया गया है कि सामान्य से ज़्यादा लोगों में, विशेष रूप से युवाओं में, यह गूमड़ कुछ ज़्यादा ही उभरने लगा है।

20 वर्षों से चिकित्सक रहे यूनिवर्सिटी ऑफ दी सनशाइन कोस्ट, ऑस्ट्रेलिया के स्वास्थ्य वैज्ञानिक डेविड शाहर के अनुसार उनको पिछले एक दशक में इस तरह के बदलाव देखने को मिले हैं। इसके कारण की स्पष्ट पहचान तो नहीं हो सकी है, लेकिन इस बात की संभावना है कि स्मार्ट उपकरणों को देखने के लिए असहज कोणों पर गर्दन को झुकाने से इस खोपड़ी के पिछले भाग की हड्डी बढ़ रही है। लंबे समय तक सर को झुकाकर रखने से गर्दन पर भारी तनाव पड़ता है। इसको कई बार ‘पढ़ाकू गर्दन’ (टेक्स्ट नेक) के नाम से भी जाना जाता है।

शाहर के  अनुसार पढ़ाकू गर्दन की वजह से गर्दन और खोपड़ी से जुड़ी मांसपेशियों पर दबाव बढ़ता है जिसके  जवाब में खोपड़ी के पिछले भाग (पश्चकपाल) की हड्डी बढ़ने लगती है। यह हड्डी सिर के वज़न को एक बड़े क्षेत्र में वितरित कर देती है।

वर्ष 2016 में शाहर और उनके सहयोगियों ने इस गूमड़ का अध्ययन करने के  लिए 18 से 30 वर्ष की आयु के 218 युवा रोगियों के रेडियोग्राफ देखे। एक सामान्य नियमित उभार 5 मि.मी. माना गया और 10 मि.मी. से बड़े उभार को बढ़ा हुआ माना गया।

कुल मिलाकर समूह के 41 प्रतिशत लोगों में उभार बढ़ा हुआ निकला और 10 प्रतिशत में उभार 20 मि.मी. से बड़ा पाया गया। सामान्य तौर पर, महिलाओं की अपेक्षा पुरुषों में यह उभार अधिक देखा गया। सबसे बड़ा उभार एक पुरुष में 35.7 मि.मी. का था।

18 से 86 वर्ष के 1200 लोगों पर किए गए एक अन्य अध्ययन में पाया गया कि यह समस्या कम उम्र के लोगों में अधिक दिखती है। जहां पूरे समूह के 33 प्रतिशत लोगों में बढ़ा हुआ उभार देखा गया, वहीं 18-30 वर्ष की आयु के व्यक्तियों में यह स्थिति 40 प्रतिशत से अधिक में पाई गई। यह परिणाम चिंताजनक है क्योंकि आम तौर पर इस तरह की विकृतियां उम्र के साथ बढ़ती हैं मगर हो रहा है उसका एकदम उल्टा।

शाहर का मानना है कि इस हड्डी की यह हालत बनी रहेगी हालांकि यह स्वास्थ्य की समस्या शायद न बने। बहरहाल, यदि आपको इसके कारण असुविधा हो रही है तो अपने उठने-बैठने के ढंग में परिवर्तन ज़रूरी होगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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जीनोम का धंधा: डायरेक्ट टू कंज़्यूमर (डीटीसी) – शशांक एस. तिवारी

नेचर  पत्रिका में प्रकाशित एक हालिया लेख में उन तरीकों पर प्रकाश डाला गया है जिनसे विभिन्न भारतीय बायोटेक कंपनियां सरकार और मुक्त-प्रवाह उद्यम पूंजी (वेंचर केपिटल) की मदद से नवाचार का कारोबार कर रही हैं। इस लेख की शुरुआत एक युवा भारतीय उद्यमी द्वारा दो बायोटेक स्टार्टअप कंपनियों की स्थापना के वर्णन से होती है। इसमें से उसकी एक कंपनी डायरेक्ट-टू-कंज्यूमर (डीटीसी) आनुवंशिक परीक्षण कंपनी, पर ध्यान केंद्रित किया गया है। इस लेख का उद्देश्य भारत में डीटीसी आनुवंशिक परीक्षणों से जुड़े उभरते नैतिक, सामाजिक और नियामक मुद्दों का विश्लेषण करना है।

डीटीसी जेनेटिक टेस्ट का उद्भव

आनुवंशिक परीक्षण के व्यवसाय का श्रेय मानव जीनोम प्रोजेक्ट को दिया जाता है। मानव जीनोम प्रोजेक्ट की शुरुआत आधिकारिक तौर पर 1990 में हुई थी जिसका उद्देश्य मानव जीनोम के पूरे डीएनए अनुक्रम का मानचित्र तैयार करना था। 2003 तक पूरे मानव जीनोम का अनुक्रमण कर लिया गया था। और इसके साथ ही डीटीसी जेनेटिक्स के व्यापार का रास्ता खुल गया। जब मानव जीनोम परियोजना शुरू की गई थी, तब यह वादा किया गया था कि जीनोम अनुक्रम के ज्ञान से बीमारी और मानव जीव विज्ञान को समझने में मदद मिलेगी।

इस ज्ञान का फायदा उठाने के लिए, वर्ष 2007 में तीन कंपनियों ने संयुक्त राज्य अमेरिका में अपनी उपभोक्ता आनुवंशिक सेवाएं शुरू कीं। ये तीन कंपनियां थीं 23एंडमी (23andMe), डीकोडमी (deCODEMe) और नेवीजेनिक्स (Navigenics)। बाद के वर्षों में, कई अन्य कंपनियों ने संयुक्त राज्य अमेरिका और भारत सहित दुनिया के कई हिस्सों में जीनोमिक्स सेवाएं प्रदान करना शुरू कर दिया।

पिछले कुछ वर्षों में भारत में कई सारी डीटीसी आनुवंशिक परीक्षण कंपनियां उभरी हैं। कुछ उल्लेखनीय नाम हैं: मैपमायजीनोम (Mapmygenome), दी जीनबॉक्स (The GeneBox), डीएनए लैब्स इंडिया (DNA Labs India), इंडियन बायोसाइंसेस (Indian Biosciences), पॉजि़टिव बायोसाइंसेस (Positive Biosciences), एक्सकोड (Xcode) और इज़ीडीएनए (EasyDNA)। ये कंपनियां जनता को विभिन्न जीनोमिक्स सेवाएं प्रदान करती हैं। इनमें व्यक्तिगत जीनोमिक्स (व्यक्ति पर दवा प्रतिक्रिया का प्रोफाइल, पोषण सम्बंधी आवश्यकताएं, किसी रोग का अंदेशा), नैदानिक (गर्भधारण से पूर्व स्क्रीनिंग), न्यूट्रिजीनोमिक्स (डीएनए आधारित आहार योजना), फिटनेस, खेलकूद, पितृत्व, वंश और फार्माकोजेनेटिक्स (दवाओं की प्रतिक्रिया में मरीज की आनुवंशिकी की भूमिका) जैसे परीक्षण शामिल हैं। आम लोग जेनेटिक टेस्ट किट ऑनलाइन कंपनियों की वेबसाइट्स या अमेज़न जैसी ई-कॉमर्स कंपनियों के माध्यम से खरीद सकते हैं। टेस्ट के प्रकार के आधार पर एक टेस्ट की लागत 3,000 से लेकर 1,20,000 रुपए तक है।

डीएनए का नमूना (लार या गाल का फाहा) जमा करने के बाद कुछ ही दिनों में उपभोक्ता को परिणाम प्राप्त हो जाते हैं। पश्चिम देशों की तरह, भारत में भी डीटीसी आनुवंशिक परीक्षणों के प्रसार ने कई वैज्ञानिक, नैतिक, सामाजिक और नियामक मुद्दों को जन्म दिया है। जैसे निदान की वैधता और उपयोगिता, आनुवंशिक नियतिवाद और जीनोमिक्स डैटा का संभावित दुरुपयोग। इसके अलावा, कई कंपनियों की विपणन रणनीति ने भारत में वैज्ञानिक कामकाज की प्रकृति के बारे में कई सवाल उठाए हैं।

विपणन रणनीति की नैतिकता

जहां चिकित्सा आचार संहिता तथा विज्ञापन कानून का क्रियांवयन व अनुपालन कमज़ोर तरीके से किया जाता है, वहां डीटीसी आनुवंशिक परीक्षणों के लिए किसी दिशानिर्देश या नियम-कायदों के अभाव में, कंपनियां अपने परीक्षण के लाभों के बारे में अतिरंजित दावे करने के लिए स्वतंत्र हैं। वे आम लोगों की सामाजिक और सांस्कृतिक मान्यताओं का फायदा उठाने के लिए अपने उत्पादों को गलत तरीके से प्रस्तुत कर सकती हैं। उदाहरण के लिए, एक कंपनी ने व्यवसाय रणनीति के रूप में, जीनोमिक्स को ज्योतिष के साथ जोड़ दिया है ताकि अपने परीक्षणों को खरीदने के लिए उपभोक्ताओं को लुभा सके। इस उद्देश्य को मन में रखकर कंपनी ने अपने एक उत्पाद का नाम जीनोमपत्री रखा है, जो जन्मपत्री से मेल खाता है। कंपनी की सीईओ ने यूट्यूब पर एक प्रचार संदेश में ज्योतिष के महत्व पर प्रकाश डालते हुए ऑनलाइन आनुवंशिक परीक्षणों के लाभ पर ज़ोर दिया है। उन्होंने कहा है कि जिस तरह जन्मपत्री लोगों को जन्म के समय राशि, ग्रहदशा और गोत्र आदि समझने में मदद करती है, उसी तरह आनुवंशिक परीक्षण, जेनेटिक बनावट और जेनेटिक लक्षणों को समझने में मदद करेंगे, जिसमें यह भी पता चलेगा कि कोई उत्परिवर्तन तो उपस्थित नहीं है। इसके अलावा, उन्होंने विस्तार से बताया कि व्यक्ति जेनेटिक संरचना की जानकारी होने पर जीवनशैली में बदलाव के ज़रिए सकारात्मक (आनुवंशिक) लक्षणों को समृद्ध कर सकता है। उनके अनुसार, रोकथाम के ये उपाय ज्योतिष के समान ही हैं जिसमें लोग खुद को ग्रहों के बुरे प्रभाव से बचाने के लिए पूजा, यज्ञ आदि करते हैं।

उपरोक्त प्रचार संदेश को उपमा कहकर उचित ठहराया जा सकता है। जटिल वैज्ञानिक अवधारणा को आसान शब्दों में संप्रेषित करने के लिए उपमाओं का उपयोग करना एक आम बात है। हालांकि, जीनोमिक्स के संदर्भ में ज्योतिष की इस विशेष उपमा का भारत में विज्ञान के कामकाज पर दूरगामी प्रभाव पड़ सकता है। यह ध्यान देने योग्य है कि कमोबेश समूचा भारतीय वैज्ञानिक समुदाय ज्योतिष को एक छदम विज्ञान मानता है, और ज्योतिष को वैज्ञानिक मंच पर लाने के किसी भी प्रयास का कड़ा विरोध किया जाता रहा है। यह उपमा वैज्ञानिक स्वभाव की अवधारणा के विपरीत है।

इसके अतिरिक्त, कंपनियों की वेबसाइट्स पर प्रख्यात हस्तियों के प्रशंसा पत्रों का प्रकाशन चिकित्सा नैतिकता से सम्बंधित मुद्दों को भी जन्म देता है। कभी-कभी, इनमें प्रमुख राजनेताओं, उद्योगपतियों और देश की अन्य जानी-मानी हस्तियों के बयान होते हैं। क्योंकि देश के अत्यधिक प्रतिष्ठित और शिक्षित माने जाने वाले लोग इन उत्पादों की सिफारिश करते हैं, इस तरह के प्रशंसा पत्र आम जनता को गुमराह करने की क्षमता रखते हैं। उपरोक्त महत्वपूर्ण मुद्दों के अलावा, आनुवंशिक परीक्षणों के साथ प्रमुख वैज्ञानिक चिंताएं भी हैं जो विशेष रूप से भारत में प्रासंगिक हैं।

विज्ञान सम्बंधी मुद्दे

डीटीसी आनुवांशिक परीक्षणों में से कुछ परीक्षण डीएनए-आधारित आहार योजना, फिटनेस, खेलकूद, पितृत्व और वंशावली जैसे विकल्प उपलब्ध कराते हैं जो गैर-नैदानिक हैं (यानी ये किसी रोग या तकलीफ का पता नहीं लगाते)। वैसे भी, तथ्य यह है कि ये व्यक्तिगत ऑनलाइन परीक्षण किसी बीमारी की उपस्थिति या अनुपस्थिति का सटीक निदान नहीं कर सकते; ये केवल उसकी संभाविता का अनुमान लगाते हैं। ये परीक्षण किसी डॉक्टर से चर्चा किए बिना सीधे आम जनता के लिए पेश किए जाते हैं, इसलिए इस बात की काफी संभावना है कि उपभोक्ता इन परिणामों की गलत व्याख्या कर बैठेंगे। भारत में योग्य आनुवंशिक परामर्शदाताओं और आनुवंशिकीविदों की संख्या नगण्य है जिसकी वजह से स्थिति और भी पेचीदा हो जाती है।

भारत के लोगों के बारे में प्रामाणिक आनुवंशिक डैटा का अभाव है। यह डीटीसी आनुवंशिक सेवाओं के साथ एक और स्पष्ट समस्या है। इस मुद्दे को मीडिया कवरेज भी मिला है। शायद यही कारण है कि कई भारतीय कंपनियां अपने परीक्षणों में तुलना हेतु कॉकेशियन आबादी से प्राप्त डेटा का उपयोग संदर्भ-डैटा के रूप में कर रही हैं।

समापन टिप्पणी

जीनोमिक्स में नवाचारों को नैतिक, सामाजिक, वैज्ञानिक और नियामक मुद्दों के प्रति संवेदनशील होना चाहिए। हालांकि भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद पूरी तरह से इस स्थिति से अवगत है लेकिन दुर्भाग्य से, इस समय भारत में जीनोमिक चिकित्सा के लिए कोई दिशानिर्देश या नियम नहीं हैं। भारतीय बायोमेडिकल एजेंसियों, स्वास्थ्य पेशवरों और वैज्ञानिकों को उपभोक्ताओं को संभावित स्वास्थ्य जोखिमों और डीटीसी आनुवंशिक परीक्षणों से जुड़े आर्थिक शोषण से बचाने के लिए एक नियामक ढांचा तैयार करने के लिए आगे आना होगा। (स्रोत फीचर्स)

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अल्जीरिया और अर्जेंटाइना मलेरिया मुक्त घोषित

विश्व स्वास्थ्य संगठन ने 22 मई के दिन अल्जीरिया और अर्जेंटाइना को मलेरिया मुक्त घोषित कर दिया। यह निर्णय तब किया गया जब इन दोनों देशों में पिछले तीन सालों से अधिक समय से मलेरिया का कोई मामला नहीं देखा गया। इसके साथ ही मलेरिया मुक्त देशों की संख्या 38 हो गई है।

गौरतलब है कि दुनिया के 80 देशों में हर साल करीब 20 करोड़ मलेरिया के मामले सामने आते हैं। 2017 में तकरीबन 4 लाख 35 हज़ार लोग मलेरिया की वजह से मारे गए थे।

अफ्रीकी देश अल्जीरिया में मलेरिया परजीवी पहली बार 1880 में देखा गया था। यहां मलेरिया का आखिरी मामला 2013 में सामने आया था। दक्षिण अमरीकी देश अर्जेंटाइना में मलेरिया आखिरी बार 2010 में पाया गया था। दोनों ही देशों में कई दशकों में मलेरिया प्रसार की दर काफी कम रही है। यहां मलेरिया से संघर्ष में प्रमुख भूमिका सबके लिए स्वास्थ्य की उपलब्धता और मलेरिया की गहन निगरानी की रही है। इसके अलावा अर्जेंटाइना ने विशेष प्रयास यह भी किया कि पड़ोसी देशों को राज़ी किया कि वे अपने यहां कीटनाशक छिड़काव करें और बुखारग्रस्त लोगों की मलेरिया के लिए जांच करें ताकि सीमापार फैलाव को रोका जा सके।

पहले तो विश्व स्वास्थ्य संगठन ने विश्व स्तर पर मलेरिया उन्मूलन कार्यक्रम चलाया था जो मुख्य रूप से डीडीटी के छिड़काव और मलेरिया-रोधी दवाइयों पर टिका था। इस कार्यक्रम के अंतर्गत 27 देश मलेरिया मुक्त हुए थे। लेकिन साल 1969 में संगठन ने मलेरिया उन्मूलन कार्यक्रम को त्याग दिया था क्योंकि वैज्ञानिकों ने स्पष्ट किया कि विश्व स्तर पर मलेरिया का उन्मूलन अल्प अवधि में संभव नहीं है।

अलबत्ता, 2000 के दशक में एक बार फिर कोशिशें शुरू हुर्इं और इस बार लक्ष्य यह रखा गया कि 2020 तक 21 देशों को मलेरिया मुक्त कर दिया जाएगा। इनमें से 2 (पेरागुए और अल्जीरिया) अब पूरी तरह मलेरिया मुक्त हैं। (स्रोत फीचर्स)

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