सर्पदंश से होने वाली मौतों को रोका जा सकता है – भारत डोगरा

जुलाई माह में सेंटर आफ ग्लोबल हेल्थ रिसर्च द्वारा सर्पदंश सम्बंधी अध्ययन से पता चला है कि भारत में सांप के काटने से प्रति वर्ष 58 हज़ार मौतें होती हैं। इससे तीन गुना अधिक लोग इस कारण अपंगता या गंभीर क्षति से प्रभावित होते हैं। इस अध्ययन में भारतीय शोधकर्ता भी जुड़े हैं। अध्ययन के अनुसार वर्ष 2000 के बाद भारत में लगभग 12 लाख मौतें सर्पदंश से हुई व एक वर्ष का औसत लगभग 58 हज़ार रहा।

इन मौतों को पूरी तरह नहीं रोका जा सकता है पर इनमें बड़ी कमी अवश्य लाई जा सकती है। सर्पदंश की अधिक वारदातें जून से सितंबर के महीनों में व रात के समय होती हैं। खेत में रात को देखरेख या सिंचाई आदि के लिए जाना हो या घर के आसपास निकलना हो तो अच्छी रोशनी वाली टार्च का उपयोग करना मुख्य सावधानी होगी। खेत, बाग या वन में, दुर्गम रास्ते पर, किसी भी कार्यस्थल पर जहां सांप की अधिक संभावना है, मोटे जूते या दस्ताने का उपयोग करना उपयोगी है।

सांप के काटने पर प्राथमिक उपचार के साथ शीघ्र से शीघ्र अस्पताल ले जाना आवश्यक है। प्राथमिक उपचार की विज्ञान-सम्मत जानकारी बहुत कम है व दूर के गांवों से निकटतम अस्पताल पहुंचने में समय लगता है। इस कारण बहुत-सी ऐसी मौतें होती हैं जिन्हें रोका जा सकता है। झाड़-फूंक में समय व्यर्थ करने से समस्या और बढ़ जाती है।

अनेक अस्पतालों में सर्पदंश की दवा की कमी रहती है। प्राय: सर्पदंश की दवा (एंटी स्नेक वेनम) सांप की चार प्रमुख ज़हरीली प्रजातियों को ध्यान में रखकर दी जाती है पर कुछ विशेष क्षेत्रों में सांप की अन्य प्रजातियां पाई जाती हैं। अत: इन क्षेत्रों के लिए उचित दवाओं की व्यवस्था ज़रूरी है।

सरकारी आंकड़ों में सर्पदंश की केवल वे मौतें ही दर्ज़ होती हैं जो अस्पताल में होती हैं। तथ्य यह है कि सर्पदंश से प्रभावित कई लोग तो अस्पताल पहुंचने से पहले ही दम तोड़ देते हैं। अत: सर्पदंश की समस्या की जानकारी का सही आधार तैयार नहीं हो पाता है। इस संदर्भ में नवीनतम अध्ययन में एक सुझाव यह आया है कि सर्पदंश को ‘नोटिफाइड डिसीज़’ घोषित कर दिया जाए ताकि रोग निरीक्षण के समग्र कार्यक्रम के अंतर्गत इसकी जानकारी नियमित रूप से उपलब्ध होती रहे।

फिलहाल जितनी जानकारी उपलब्ध है उसके आधार पर भी सर्पदंश से होने वाली मौतों में कमी लाने का एक समग्र कार्यक्रम तैयार किया जा सकता है। विशेषकर ग्रामीण स्वास्थ्य कार्यक्रमों व स्वास्थ्य मिशन में इस पर अधिक ध्यान देने की ज़रूरत है।

तमिलनाडु में सपेरों का एक सहकारिता आधारित उद्यम स्थापित हुआ है। चेन्नई स्थित इरुला संपेरा औद्योगिक सहकार सोसायटी ने दवा उद्योग से सम्बंध स्थापित किए व दवा बनाने की अनेक कंपनियां उनसे दवा की ज़रूरी सामग्री लेती हैं। उत्तर भारत में भी संपेरों की अनेक बस्तियां हैं। उनका परंपरागत व्यवसाय कम होता जा रहा है। अत: इरुला मॉडल पर उन्हें भी दवा उपलब्ध करवाने या अन्य उपयोगी गतिविधियों से जोड़ा जा सकता है।

सर्वेक्षणों में यह पाया गया है कि मेडिकल शिक्षा शहरी स्वास्थ्य ज़रूरतों पर अधिक आधारित है व उसमें सर्पदंश के इलाज पर समुचित ध्यान नहीं दिया जाता है। अत: जहां ज़रूरी हो, वहां सर्पदंश के इलाज का प्रशिक्षण नए सिरे से देना चाहिए। ज़रूरी सावधानियों से जुड़ी जानकारी सरल भाषा में लिखित पर्चों व अन्य प्रसार माध्यमों से विशेषकर मानसून के महीनों में प्रसारित करनी चाहिए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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प्राचीन इम्यूनिटी और आज की बीमारियां

हाल ही में कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय की पैथॉलॉजिस्ट निस्सी वर्की ने बताया कि मनुष्य जिन घातक रोगों (जैसे टाइफॉइड, हैज़ा, गलसुआ, काली खांसी, गनोरिया वगैरह) से पीड़ित होता है, वे कपियों और अन्य स्तनधारी जीवों को नहीं होती। हमारी कोशिका में घुसने के लिए ये रोगाणु शर्करा अणुओं (सियालिक एसिड) का उपयोग करते हैं। और यह देखा गया है कि कपियों का सियालिक एसिड मनुष्यों से भिन्न होता है।

और अब वर्की और उनकी टीम ने आधुनिक मानव जीनोम और हमारे विलुप्त सम्बंधियों – निएंडरथल और डेनिसोवन्स – के डीएनए का विश्लेषण कर पता लगाया है कि लगभग 6 लाख साल पहले हमारे पूर्वजों की प्रतिरक्षा कोशिकाओं में परिवर्तन होना शुरू हुआ था। जीनोम बायोलॉजी एंड इवोल्यूशन में शोधकर्ता बताते हैं कि जेनेटिक परिवर्तनों ने तब सियालिक एसिड का इस्तेमाल करने वाले रोगजनकों से सुरक्षा दी थी, लेकिन साथ ही नई दुर्बलताओं को भी जन्म दिया था। जिस सियालिक एसिड की मदद से आज रोगजनक हमें बीमार करते हैं किसी समय यही सियालिक एसिड हमें रोगों से सुरक्षा देता था।

चूंकि सियालिक एसिड कोशिकाओं की ऊपरी सतह पर लाखों की संख्या में होते हैं इसलिए हमलावर रोगजनकों से इनका सामना सबसे पहले होता है। मानव कोशिकाओं पर Neu5Ac सियालिक एसिड का आवरण होता है जबकि वानरों और अन्य स्तनधारियों में Neu5Gc सियालिक एसिड होता है।

कई आणविक घड़ी विधियों से पता चला है कि कोई 20 लाख साल पहले गुणसूत्र-6 के CMAH जीन में हुए उत्परिवर्तन ने हमारे पूर्वजों में Neu5Gc बनना असंभव कर दिया था। और उनमें Neu5Ac अधिक बनने लगा था। इस परिवर्तन से कुछ रोगों के प्रति सुरक्षा विकसित हुई। लेकिन अगले कुछ लाख सालों में Neu5Ac कई अन्य रोगजनकों के लिए मानव कोशिका में प्रवेश करने का साधन बना गया।

सिग्लेक्स (यानी सियालिक एसिड-बाइंडिंग इम्यूनोग्लोबुलिन-टाइप लेक्टिन) सियालिक एसिड की जांच करते हैं। यदि सिग्लेक्स द्वारा सियालिक एसिड क्षतिग्रस्त या गायब पाया जाता है तो वे प्रतिरक्षा कोशिकाओं को सक्रिय होने संकेत देते हैं। यदि सियालिक एसिड सामान्य दिखाई देता है तो सिग्लेक्स प्रतिरक्षा तंत्र को अपने ही ऊतकों पर हमला करने से रोक देते हैं।

शोधकर्ताओं को मनुष्यों, निएंडरथल और डेनिसोवन्स के गुणसूत्र-19 के CD33 जीन में 13 सिग्लेक्स कोड में से 8 सिग्लेक्स के जीनोमिक डीएनए में परिवर्तन दिखे। यह परिवर्तन केवल सिग्लेक जीन में दिखे निकटवर्ती अन्य जीन में नहीं। इससे लगता है कि प्राकृतिक चयन इन परिवर्तनों के पक्ष में था, संभवत: इसलिए क्योंकि तब वे ऐसे रोगजनकों से लड़ने में मदद करते थे जो Neu5Gc को निशाना बनाते थे। लेकिन जो सिग्लेक्स रोगजनकों से बचाते हैं, वे अन्य बीमारियों के लिए ज़िम्मेदार भी हो सकते हैं। परिवर्तित सिग्लेक्स में से कुछ सूजन और अस्थमा जैसे ऑटोइम्यून विकार से जुड़े हैं।

कुछ शोधकर्ताओं का कहना है कि यह शोध व्यापक वैकासिक सिद्धांतों को रेखांकित करता है। इससे पता चलता है कि प्राकृतिक चयन हमेशा इष्टतम समाधान के लिए नहीं होता, क्योंकि इष्टतम समाधान हर समय बदलता रहता है। जो परिवर्तन आज के लिए बेहतर हैं, हो सकता है वे आने वाले समय के लिए सही साबित ना हों।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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क्या व्यायाम की गोली बन सकती है?

हाल ही में साइन्स में प्रकाशित एक शोध पत्र से यह आशा पैदा हुई है कि जो लोग व्यायाम करने में असमर्थ होते हैं, उन्हें व्यायाम के फायदे एक गोली के रूप में दिए जा सकेंगे।

यह बात तो भलीभांति ज्ञात है कि व्यायाम करने से दिमागी स्वास्थ्य में सुधार आता है। देखा गया है कि जो बुज़ुर्ग लोग शारीरिक रूप से सक्रिय रहते हैं, उनमें स्मृतिलोप जैसी समस्याएं कम देखी जाती हैं। चूहों पर किए गए प्रयोगों से भी पता है कि व्यायाम करने वाले चूहों का संज्ञानात्मक प्रदर्शन बेहतर होता है। शोधकर्ता यह भी दर्शा चुके थे किसी युवा चूहे का खून बुज़ुर्ग चूहे को देने पर उसके दिमाग तथा मांसपेशियों की हालत में सुधार आता है।

लेकिन अब कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के वृद्धावस्था शोधकर्ता सौल विलेडा ने बताया है कि यदि नियमित व्यायाम करने वाले चूहों का खून निठल्ले चूहों को दे दिया जाए तो उनका दिमाग भी बेहतर काम करने लगता है। यानी बात सिर्फ युवा खून की नहीं है, बल्कि व्यायाम के लाभ की भी है। और अब शोधकर्ताओं ने व्यायाम करने वाले (सक्रिय) चूहों के खून में एक प्रोटीन खोज निकाला है जो इस असर के लिए ज़िम्मेदार है।

प्रयोग के लिए चूहों के दो दड़बे बनाए गए। इनमें से एक में एक पहिया रखा गया था। ऐसा करने पर निष्क्रिय चूहे भी रात भर में कई मील दौड़ लेते थे। शोधकर्ताओं ने उन चूहों (बुज़ुर्ग और अधेड़) का खून लिया जिनके दड़बे में छ: सप्ताह तक पहिया रखा गया था। यह खून उन चूहों को दिया गया जिनके दड़बे में पहिया नहीं था। तीन सप्ताह की अवधि में आठ बार यह खून देने पर ये निठल्ले चूहे सीखने व स्मृति के परीक्षणों में लगभग पहिए वाले चूहों के समकक्ष आ गए। यह भी देखा गया कि सक्रिय चूहों का खून मिलने के बाद निठल्ले चूहों के दिमाग के हिप्पोकैम्पस वाले हिस्से में तंत्रिकाएं भी ज़्यादा बनी थीं। चूहों का एक समूह और भी था जिसे उतनी ही उम्र के निष्क्रिय चूहों का खून दिया गया था लेकिन इनमें कोई परिवर्तन नहीं देखा गया।

इसके बाद शोधकर्ताओं ने व्यायाम करने वाले चूहों के खून में प्रोटीन्स का विश्लेषण किया। पता चला कि लीवर में बनने वाला एक एंज़ाइम (Gpld1) इनमें ज़्यादा था। जब इस एंज़ाइम का जीन निठल्ले चूहों के लीवर में पहुंचाया गया तो वहां यह एंज़ाइम ज़्यादा बनने लगा और वे लगभग उन चूहों के समकक्ष पहुंच गए जिन्हें तीन सप्ताह तक व्यायाम करने वाले चूहों का खून दिया गया था।

टीम ने यह भी पाया कि नियमित रूप से व्यायाम करने वाले इंसानों में Gpld1 का स्तर ज़्यादा था। इसका मतलब है कि चूहों पर मिले नतीजे शायद मनुष्यों पर लागू हो सकते हैं।

अब विलेडा की टीम का विचार है कि इसके आधार पर एक औषधि तैयार की जाए, जो उन लोगों की मदद कर सकेगी जो उम्र या किसी अन्य कारण से व्यायाम नहीं कर सकते। लेकिन साथ ही वे कहते हैं कि सामान्य नियमित व्यायाम का कोई विकल्प नहीं है क्योंकि औषधि शायद किसी एक घटक पर काम करती है। व्यायाम से मिलने वाला लाभ कई कारकों का मिला-जुला रूप हो सकता है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कोविड-19 का टीका और टीकों का राष्ट्रवाद

ब कोविड-19 का टीका बनकर तैयार होगा, वैश्विक आवश्यकता की तुलना में इसकी आपूर्ति सीमित होगी। कई स्वास्थ्य विशेषज्ञों का कहना है कि टीका सबसे पहले दुनिया भर के स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं को, फिर गंभीर जोखिम वाले लोगों को, फिर उन क्षेत्रों को जहां बीमारी तेज़ी से फैल रही है, और आखिर में बाकी लोगों को मिलना चाहिए। टीका वितरण की यह रणनीति सबसे अधिक ज़िंदगियां बचाएगी और संक्रमण के प्रसार को रोकेगी। यह बेतुका होगा कि टीका दक्षिण अफ्रीका के स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं की बजाय अमीर देशों के कम जोखिम वाले लोगों को पहले मिले।

फिर भी पैसा और राष्ट्रीय हित जीत सकते हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका और युरोप पहले ही टीका निर्माताओं को करोड़ों खुराक का ऑर्डर दे रहे हैं जिससे शायद दुनिया के गरीब देशों के लिए बहुत कम टीके बचेंगे। इस स्थिति से बचने के लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन और अन्य अंतर्राष्ट्रीय संगठनों ने टीके के समतामूलक वितरण का एक तरीका निकाला है: कोविड-19 वैक्सीन ग्लोबल एक्सेस (COVAX) फेसिलिटी। वे अमीर देशों से इस पर हस्ताक्षर करवा कर टीकों पर उनकी अनुचित दावेदारी के खतरे को कम करना चाहते हैं।

वैसे टीका या औषधि वितरण का इतिहास आशाजनक नहीं रहा है। 1996 में एचआईवी संक्रमण के उपचार में एंटीवायरल औषधि ने पश्चिम देशों में कई ज़िंदगियां बचाई, लेकिन इसे व्यापक रूप से अफ्रीका तक पहुंचने में 7 साल लग गए। 2009 में H1N1 इन्फ्लूएंज़ा महामारी के दौरान कई देशों को बहुत कम संख्या में टीके मिले थे वह भी लंबे इंतज़ार के बाद।

इस बार भी अमीर देशों की चिंता अपने नागरिकों तक सीमित है। यूएस ने टीका कंपनियों के साथ 6 अरब डॉलर के समझौते किए हैं और युरोपीय संघ ने एस्ट्राज़ेनेका के साथ 40 करोड़ टीके खरीदने के सौदे पर हस्ताक्षर किए हैं। यूके ने भी यही रणनीति अपनाई है।

COVAX के पीछे विचार यह है कि विभिन्न 12 टीकों में निवेश किया जाए और उन तक आसान पहुंच सुनिश्चित की जाए। 2021 के अंत तक टीकों की 2 अरब खुराक प्राप्त करने का लक्ष्य है: 95 करोड़ उच्च व उच्च-मध्यम आय वाले देशों के लिए, 95 करोड़ निम्न व निम्न-मध्यम आय वाले देशों के लिए और 10 करोड़ आपात उपयोग के लिए।

COVAX के अधिकारी जानते हैं कि COVAX से जुड़ने के बावजूद कई अमीर देश टीका निर्माता कंपनियों के साथ सौदे तो करेंगे। लेकिन COVAX अनुबंध एक प्रकार का बीमा है कि यदि उनके खरीदे टीके असफल रहे तो COVAX के माध्यम से उनकी पहुंच अन्य टीकों तक रहेगी।

टीकों के असफल होने के जोखिम को कम करने के लिए COVAX की योजना विभिन्न प्रकार के टीकों में निवेश करने की है। इसके अलावा COVAX विभिन्न देशों की कंपनियों से टीके लेना चाहता है ताकि कोई भी देश उनका निर्यात रोक ना सके।

अब तक, 70 से अधिक देशों ने COVAX में रुचि दिखाई है। यह बात और है कि वे इस पर हस्ताक्षर करते हैं या नहीं। वहीं युरोपीय संघ के कुछ देश, जो अक्सर वैश्विक एकजुटता के महत्व पर बल देते हैं, COVAX को वित्तीय मदद देने का इरादा रखते हैं लेकिन COVAX के माध्यम से खुद के लिए टीके नहीं लेंगे। डॉक्टर्स विदाउट बॉर्डर्स एक्सेस अभियान की टीका विशेषज्ञ कैट एल्डर का कहना है कि COVAX समतामूलक वितरण का अच्छा तरीका है लेकिन यह अधिक पारदर्शी होना चाहिए।(स्रोत फीचर्स)

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युवाओं से ज़्यादा एंटीबॉडी बुज़ुर्गों में

शंघाई के एक अस्पताल से फरवरी में डिस्चार्ज हुए कोरोना के हल्के संक्रमण वाले 175 लोगों की जांच में बुज़ुर्गों में युवाओं के मुकाबले वायरस निष्क्रिय करने वाली एंटीबॉडी ज़्यादा पाई गई हैं।

शोधकर्ताओं का कहना है कि अधेड़ उम्र से लेकर बुज़ुर्ग मरीज़ों के प्लाज़्मा में निष्क्रियकारी और स्पाइक से जुड़ने वाली एंटीबॉडी का स्तर तुलनात्मक रूप से ज़्यादा था। 30 फीसदी युवाओं में तो उम्मीद के उलट एंटीबॉडी का स्तर मानक से कम पाया गया। 10 में तो इनका स्तर इतना कम था कि ये पकड़ में ही नहीं आ पार्इं। वहीं, सिर्फ 2 मरीज़ों में एंटीबॉडी का स्तर बहुत अधिक था।

वैज्ञानिकों को मरीज़ों के नमूनों से वायरल डीएनए का पता न लग पाने के कारण इनमें संक्रमण के स्तर का सही आकलन नहीं हो पाया। इसलिए यह भी स्पष्ट नहीं हो पाया है कि क्या युवाओं में संक्रमण हल्का होने के कारण ही एंटीबॉडी कम बनी थीं।

इस परिणाम से वैज्ञानिक भी चकित हैं। दरअसल, अधिक एंटीबॉडी होने के बाद भी बुज़ुर्ग जल्दी ठीक नहीं हो पाए थे। यानी बुज़ुर्ग और युवा मरीज़ों को ठीक होने में एक समान समय लगा। ठीक हुए इन लोगों की बीमारी की औसत अवधि 21 दिन, अस्पताल में भर्ती रहने का औसत समय 16 दिन और औसत आयु 50 साल थी।

वैज्ञानिकों का कहना है कि बुज़ुर्गों में एंटीबॉडी का अधिक स्तर उनके मज़बूत प्रतिरक्षा तंत्र के कारण भी हो सकता है। हालांकि, सिर्फ एंटीबॉडी की अधिक उपस्थिति के कारण उनमें गंभीर संक्रमण से बचाव के पुख्ता प्रमाण नहीं मिले हैं। दुनिया भर में तो देखा गया है कि कोरोना के प्रति बुज़ुर्ग ज़्यादा कमज़ोर हैं।

शोधकर्ताओं ने मरीज़ों में संक्रमण के 10-15 दिन में ही कोरोना वायरस के लिए बनने वाली निष्क्रियकारी एंटीबॉडी ढूंढ ली थी, जिनका स्तर बाद तक भी स्थिर ही रहा। युवाओं में कम एंटीबॉडी के चलते उनके दोबारा संक्रमित होने की आशंका पर शोधकर्ताओं ने गहन अध्ययन की ज़रूरत बताई है।(स्रोत फीचर्स)

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क्या उत्परिवर्तित कोरोनावायरस अधिक खतरनाक है?

हामारी की शुरुआत में ही सार्स-कोव-2 जीनोम के 30 हज़ार क्षारों में से एक एडीनोसिन (A) से गुवानीन (G) में परिवर्तित हो गया था। जीनोम के 23,403वें स्थान पर यह उत्परिवर्तित वायरस दुनिया भर में फैल गया है। ऐसे में वैज्ञानिक जगत में यह सवाल उठा है कि क्या यह परिवर्तन इसलिए व्यापक हो गया है क्योंकि इससे वायरस को तेज़ी से फैलने में मदद मिलती है या फिर यह सिर्फ एक संयोग है?  

अभी तक स्पष्ट नहीं है कि यह वायरस भविष्य में और अधिक भयानक होने वाला है या फिर समय के साथ कमज़ोर हो जाएगा। कुछ वायरस विज्ञानियों का मत है कि पूर्व में तो मनुष्य सार्स-कोव-2 से अच्छी तरह से अनुकूलित थे लेकिन 2019 के अंत में इसका ऐसा रूप सामने आया जिसने कई लोगों को संक्रमित कर दिया। अध्ययन से पता चला है कि औसतन इस वायरस के जीनोम में प्रति माह 2 उत्परिवर्तन होते हैं। अधिकांश परिवर्तन वायरस के व्यवहार को प्रभावित नहीं करते हैं जबकि कुछ परिवर्तन रोग की गंभीरता को ज़रूर बदल देते हैं। 

परिवर्तन का एक मामला ओआरएफ-8 नामक जीन की 382 क्षार जोड़ियों के विलोपन के साथ हुआ। साल 2003 में कोरोनावायरस के करीबी सार्स के जीन में भी इसी तरह का विलोपन हुआ था। बाद में प्रयोगशाला में किए गए अध्ययन से पता चला था कि यह संस्करण कम कुशलता से प्रतिकृतियां बनाता था। लगता है कि सार्स महामारी को धीमा करने में इसका हाथ था। लेकिन सेल कल्चर प्रयोगों से पता चलता है कि सार्स-कोव-2 के प्रसार पर उत्परिवर्तन का कोई गंभीर प्रभाव नहीं पड़ा है। इससे रोग के कम गंभीर होने के संकेत मिले हैं। 

सार्स-कोव-2 में 23,403वें स्थान पर उत्परिवर्तन ने मानव कोशिकाओं से जुड़ने वाले वायरस की सतह पर उपस्थित प्रोटीन स्पाइक में परिवर्तन किया है। इस उत्परिवर्तन को G614 नाम दिया गया है। सेल में प्रकाशित एक अध्ययन से पता चला है कि वायरस का  G614 संस्करण अब सभी देशों में सामान्य रूप से पाया जाने लगा है जबकि मूल संस्करण लगभग सभी जगह से खत्म हो गया है। प्रयोगों से पता चलता है कि G614 मूल वायरस की तुलना में 1.2 गुना ज़्यादा तेज़ी से फैलता है। सेल कल्चर प्रयोगों से यह भी पता चला है कि G614 संस्करण वाले स्पाइक प्रोटीन कोशिकाओं में प्रवेश करने में अधिक सक्षम हैं। G614 के स्पाइक में मामूली परिवर्तन से प्रोटीन में संरचनात्मक बदलाव हुए हैं जिससे वायरस की झिल्ली और मनुष्य की कोशिकाओं का जुड़ना आसान हो गया है। पता चला है कि यह वायरस तीन से दस गुना अधिक संक्रामक हो गया है। लेकिन कई वैज्ञानिकों का कहना है कि कल्चर में वायरस के व्यवहार के आधार पर वास्तविक परिस्थिति के बारे में सीधे-सीधे निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता। इसके लिए गंधबिलाव जैसे जंतुओं पर प्रयोग ज़रूरी हैं।

एक सवाल यह भी है कि इतना फैल जाने के बाद भी उत्परिवर्तन इसके व्यवहार को प्रभावित क्यों नहीं कर पाए हैं? वैज्ञानिकों का मानना है कि अभी शायद वायरस पर कोई चयन दबाव नहीं है क्योंकि इतने सारे असंक्रमित व्यक्ति प्रसार के लिए मौजूद हैं। हो सकता है कि टीका या नए उपचारों के आगमन के साथ स्थिति बदल जाए।(स्रोत फीचर्स)

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गरीबों को महामारी के खिलाफ तैयार करना – भाग 2 – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

दीहिंदू के 19 जुलाई के अंक में प्रकाशित मेरे लेख गरीबों को महामारी के खिलाफ तैयार करना पर मिले सुझावों और समालोचना से प्रेरित होकर इस लेख का दूसरा परिवर्धित भाग लिखा गया है।

पहला अपडेट है फ्रंटियर्स इन एंडोक्रायनोलॉजी पत्रिका के 9 अगस्त 2019 के अंक में प्रकाशित सी.वी. हरिनारायण और एच. अखिला का एक विस्तृत और प्रमाणिक पेपर (आधुनिक भारत और जुड़वां पोषक तत्व कैल्शियम और विटामिन डी की कमी की कहानी पिछले 50 वर्षों का पोषण सम्बंधी डैटा जांच, आत्मनिरीक्षण और संभावना)। डॉ. हरिनारायण इस क्षेत्र में दशकों से काम कर रहे हैं, परीक्षण कर रहे हैं और तिरुपति और अन्य जगहों पर कैल्शियम और विटामिन डी के स्तर की तुलना ग्रामीण, शहरी, गरीब, थोड़ी बेहतर आर्थिक स्थिति वाले लोगों और सम्पन्न लोगों में कर रहे हैं। इस पेपर के संभावना वाले हिस्से में लेखकों ने कुछ आवश्यक कदम सुझाए हैं कि कैसे विशेषज्ञों की मदद और बड़े पैमाने पर पूरक पोषण के माध्यम से पोषण सम्बंधी कमियों को दूर किया जा सकता है, जिन्हें स्कूलों और कॉलेजों, और फोन, टीवी और रेडियो जैसे सोशल मीडिया के माध्यम से प्रचारित करना चाहिए। (मेरा सुझाव है कि सभी को यह महत्वपूर्ण पेपर पढ़ना चाहिए – https://doi.org/10.3389/fen-do.2019.00493)। हालांकि इनमें से कई सुझावों का पहले से ही क्रियान्वयन जा रहा है, लेकिन इससे अधिक करने की आवश्यकता है।

विटामिन डी की कमी

यह दिलचस्प है कि एक तरफ जब इस पेपर में लेखक (और 2017 के पेपर में सेल्वाराजन भी) यह सवाल पूछते हैं कि सूर्य के प्रकाश से भरपूर देश में अभी भी विटामिन डी की कमी क्यों दिखती है, अन्य रिपोर्ट इस ओर ध्यान दिलाती हैं कि ग्रेट ब्रिटेन में बसे भारतीय मूल के लोगों में भी इसी तरह की कमी दिखती है (इंटरनेशनल जर्नल ऑफ कार्डियोलॉजी में 2013 में पटेल द्वारा प्रकाशित पेपर, doi: 10.1016 / j.ijcard.2012.05.081)। इससे एक सवाल पैदा होता है कि क्या इस कमी के लिए कोई जेनेटिक कारक ज़िम्मेदार हैं। (त्वचा पर पड़ने वाला प्रकाश एक पूर्ववर्ती अणु बनाता है जिसे अंगों की कोशिकाओं में परिवर्तित कर विटामिन डी बनाया जाता है। यदि किसी आनुवंशिक या चयापचय त्रुटि के कारण यह विकृत हो जाता है, तो शरीर में विटामिन डी की कमी हो जाती है)। रोजर बूलोन नेचर रिव्यू एंडोक्रायनोलॉजी पत्रिका में लिखते हैं कि इस संदर्भ में कम से कम चार तरह की आनुवंशिक गड़बड़ियां हो सकती हैं। भारतीय आनुवांशिक विशेषज्ञों द्वारा देश के विटामिन डी की कमी वाले लोगों में इस संभावना की जांच-पड़ताल करना फायदेमंद होगा।

हरिनारायण और अखिला बताते हैं कि कैल्शियम की कमी ना केवल भारत के गरीबों लोगों में है बल्कि सम्पन्न लोगों में भी है। राष्ट्रीय पोषण निगरानी समिति (NNMB) के आंकड़ों से पता चलता है कि पिछले 50 वर्षों में औसत भारतीय आबादी में कैल्शियम का स्तर 700 युनिट प्रतिदिन से 300-400 युनिट प्रतिदिन तक गिर गया है जो कि सामान्य व आवश्यक स्तर (800-1000 युनिट प्रतिदिन) से काफी कम है। यह फिर एक सवाल पैदा करता है कि प्रतिदिन अधिकतम दूध उत्पादन करने वाले दुनिया के शीर्ष देश में यह स्थिति कैसे? दुग्ध उत्पाद कैल्शियम के समृद्ध रुाोत हैं। कैल्शियम की कमी से हड्डियां कमज़ोर होती हैं और रिकेट्स जैसी बीमारियां होती हैं। कैल्शियम विटामिन डी के कार्य के लिए भी आवश्यक है। कैल्शियम और विटामिन डी दोनों की कमी दोहरी बाधा है! इसलिए हरिनारायण और अखिला के पेपर में संभावना वाले हिस्से में सुझाव दिया गया है कि स्वस्थ भारत के लिए इन दोनों की पूरक खुराक आवश्यक है, साथ ही यह भी ज़रूरी है कि सभी स्कूल अपने छात्रों को प्रतिदिन 20-30 मिनट धूप में खड़ा करें, और एक घंटा शारीरिक व्यायाम और खेल करवाएं। इससे जो लाभ होगा वह सभी छात्रों (और शिक्षकों) को दिए जाने वाले दैनिक मध्यांह भोजन के अतिरिक्त होगा।

छिपी भूख से लड़ना

केंद्र और राज्य सरकारें, कई एनजीओ और सह्मदय लोग मुफ्त गेहूं/चावल और दाल देकर गरीबों की मदद कर रहे हैं। इसके अलावा वे चीनी, दूध और सब्ज़ियों जैसे अत्यधिक सब्सिडी वाले खाद्य पदार्थ भी दे रहे हैं। लेकिन पका हुआ भोजन नहीं देते। भारत के पोषण विशेषज्ञ इस बात पर ज़ोर देते हैं कि विटामिन डी और कैल्शियम के अलावा सूक्ष्म पोषक तत्वों (जैसे, बी कॉम्प्लेक्स विटामिन, कैल्शियम प्लस, आयरन, ज़िंक, आयोडीन, सेलेनियम) से युक्त भोजन भी दिया जाना चाहिए, ताकि किसी भी संक्रमण के खिलाफ प्रतिरक्षा हासिल की जा सके। ये पूरक पोषण, पोषक तत्वों की कमी वाले लोगों की ‘छिपी भूख’ को भी शांत करेंगे। जिन कई राज्यों की आंगनवाड़ियों और स्कूलों में पका हुआ भोजन दिया जाता है, वहां वे चीज़ें भी शामिल होना चाहिए जो सब्ज़ियों के तत्वों या घटकों का बेहतर संयोजन देते हों। कई पोषण विशेषज्ञ सुझाव देते हैं कि दाल (या सांबर) के अलावा भोजन में पालक और अन्य हरी पत्तेदार सब्ज़ियां, फलियां, मटर, गाजर, टमाटर, आलू, दूध या दही और केले जैसे फल के अलावा ओमेगा 3 और 6 फैटी एसिड (और अंडा) शामिल होना चाहिए। इसी तरह वे यह भी बताते हैं कि संतुलित मांसाहारी भोजन कैसा हो सकता हो, जो पौष्टिक और किफायती हो।

किफायती क्या है? MSSRF की मधुरा स्वामीनाथन के अनुसार, एफएओ की खाद्य सुरक्षा और पोषण की स्थिति रिपोर्ट के अनुसार पर्याप्त पोषण से युक्त भोजन की कीमत 25 रुपए प्रति व्यक्ति प्रति भोजन पड़ती है या दो वक्त के लिए 50 रुपए प्रति व्यक्ति पड़ती है। और एक ‘तंदुरुस्त आहार’ की कीमत 100 रुपए प्रति व्यक्ति प्रतिदिन पड़ती है। 37 करोड़ से अधिक गरीब लोगों वाले भारत देश के लिए यह एक बड़ा आंकड़ा है! यह स्पष्ट है कि केंद्र और राज्य सरकारों के सराहनीय प्रयासों के अलावा निजी संस्थाओं (भारतीय और अंतर्राष्ट्रीय), बड़े उद्योगों और व्यक्तिगत दाताओं से योगदान मिलना चाहिए, ताकि हम 100 रुपए प्रतिदिन भोजन का खर्च वहन कर सकें। यह किया जा सकता है।

समुद्री शैवाल से पोषण

दैनिक भोजन के पोषण में समुद्री शैवाल शामिल कर सकते हैं। भारत के मुख्य भू-भाग की समुद्री तटरेखा 7500 किलोमीटर लंबी है, और इसके द्वीपों की समुद्री तटरेखा 5500 किलोमीटर लंबी है। जहां भोजन सहित अन्य उपयोग के लिए समुद्री शैवाल उगाई जाती हैं। जापान, कोरिया, चीन और अधिकांश दक्षिण-पूर्वी एशियाई देश इन्हें खाते हैं। ये शाकाहारी हैं। और विटामिन, खनिज, आयोडीन और ओमेगा 3 फैटी एसिड से भरपूर हैं। भावनगर स्थित केंद्रीय नमक और समुद्री रसायन अनुसंधान संस्थान के डी.सी. दीक्षित द्वारा जर्नल ऑफ एक्वेटिक फूड प्रोडक्ट टेक्नॉलॉजी में एक पेपर प्रकाशित किया गया है जिसका शीर्षक है मानव भोजन के रूप में कच्छ तट के पास उगने वाली आठ उष्णकटिबंधीय मैक्रो शैवाल के पोषक, जैव रासायनिक, एंटीऑक्सिडेंट और जीवाणुरोधी क्षमता का आकलन। अब समय है कि हम भारतीय भी अपने भोजन में समुद्री शैवाल शामिल करें।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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रंग बदलती स्याही बताएगी आपकी थकान

जकल स्मार्ट वॉच या इलेक्ट्रॉनिक पैच जैसे पहने जा सकने वाले इलेक्ट्रॉनिक संवेदी उपकरण की मदद से रक्तचाप, रक्त शर्करा की मात्रा वगैरह की निगरानी करना संभव है। और अब एडवांस्ड मटेरियल में प्रकाशित एक ताज़ा अध्ययन कहता है कि रंग बदलने वाली स्याही स्वास्थ्य जांच और पर्यावरण निगरानी में सहायक हो सकती है।

टफ्ट्स युनिवर्सिटी की सिल्कलैब के बायोमेडिकल इंजीनियर फियोरेन्ज़ो ओमेनेटो और उनके साथियों द्वारा तैयार यह नई रेशम-आधारित स्याही आसपास मौजूद रसायनों की उपस्थिति और मात्रा के बारे में बता सकती है। इस स्याही से रंगे कपड़ों का रंग पसीने के संपर्क में आने पर बदल जाता है, या कमरे में कार्बन मोनोऑक्साइड के प्रवेश करने पर कपड़ों पर बने चित्रों या डिज़ाइन का रंग बदल जाता है। इस स्याही को टी-शर्ट से लेकर तम्बू तक, किसी भी चीज़ पर इस्तेमाल किया जा सकता है।

वैसे तो शोधकर्ता इसके पहले दस्तानों या पैबंद पर इंकजेट प्रिंटर की मदद से स्प्रे करके छोटे सेंसर उपकरण बना चुके थे। लेकिन अब वे स्याही को कई तत्वों के साथ बड़ी चीज़ों पर प्रिंट करना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने स्याही को सोडियम एल्जिनेट की मदद से गाढ़ा किया और उसमें विभिन्न अभिक्रियाशील पदार्थ मिलाए। रेशम-आधारित स्याही बनाने के लिए उन्होंने रेशम को उसके घटक प्रोटीन्स में तोड़ा, और फिर उन्हें पानी में निलंबित किया। इसके बाद उन्होंने इसमें अभिक्रियाशील रसायनों (जैसे पीएच-संवेदी सूचक और लैक्टेट ऑक्सीडेज़) मिलाए और देखा कि आसपास के वातावरण में परिवर्तन होने पर इसका परिणामी रंग कैसे बदलता है? इस स्याही से रंगे कपड़ों को पहनने पर इसमें मौजूद पीएच सूचक त्वचा के स्वास्थ्य या निर्जलीकरण के बारे में बता सकते हैं; लैक्टेट ऑक्सीडेज़ व्यक्ति की थकान के स्तर को माप सकता है। कपड़ों पर इन परिवर्तनों को आंखों से देखा जा सकता है, लेकिन विविध रंग में बदलाव को देखने और उनका डैटाबेस तैयार करने के लिए शोधकर्ताओं ने इसमें एक कैमरा-इमेजिंग विश्लेषण तकनीक का भी उपयोग किया है।

हुवाई विश्वविद्यालय के मैकेनिकल इंजीनियर टायलर रे कहते हैं कि आजकल उपलब्ध अधिकांश पहनने योग्य मॉनीटर कठोर, तार वाले और अपेक्षाकृत भारी होते हैं। वे आगे कहते हैं कि इस नई स्याही तकनीक में उपभोक्ता द्वारा शौकिया तौर पर पहनी जाने वाली वस्तुओं को नैदानिक उपकरणों में बदलने की क्षमता है जो चिकित्सकों को कार्रवाई-योग्य जानकारी दे सकती है। लेकिन किसी भी वर्णमापक तकनीक के साथ एक समस्या यह होती है कि विभिन्न पर्यावरणीय परिस्थितियां इसकी सटीकता को प्रभावित करती हैं, जैसे प्रकाश या कैमरा। अध्ययनों में इन मुद्दों पर ध्यान देने की ज़रूरत है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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गरीबों को महामारी के खिलाफ तैयार करना – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

कोविड-19 महामारी के इस दौर में वैज्ञानिकों के बीच विटामिन डी की महत्ता पर काफी चर्चाएं हुर्इं। इसी साल युरोपियन जर्नल ऑफ क्लीनिकल न्यूट्रिशन में मरियम एदाबी और एल्डो मोंटाना-लोज़ा का एक शोध पत्र प्रकाशित हुआ था जिसका शीर्षक है दृष्टिकोण: कोविड-19 के प्रबंधन में विटामिन डी के स्तर में सुधार की भूमिका। इसमें बताया गया है कि कैसे विटामिन डी की कमी कोविड-19 के गंभीर-जोखिम वाले मरीज़ों को प्रभावित कर सकती है। खासकर उन मरीज़ों को जो मधुमेह, ह्रदय की समस्या, निमोनिया, मोटापे के शिकार हैं और धूम्रपान करते हैं। विटामिन डी की कमी श्वांस मार्ग और फेफड़ों की क्षति से भी जुड़ी है। (लिंक: https://doi.org/10.1038/s41430-0200661)

इसके इतर, विटामिन डी हड्डियों में कैल्शियम की सही मात्रा बनाए रखता है, कोशिका झिल्ली को क्षतिग्रस्त होने से बचाने की प्रक्रिया को उत्प्रेरित करता है, ऊतकों में सूजन पैदा होने से रोकता है, ऊतकों को फाइबर बनाने से रोकता है और हड्डियों को भुरभुरी होकर कमज़ोर होने से बचाता है। इसलिए मनुष्यों (और जानवरों) में विटामिन डी (और कैल्शियम) के स्तर की जांच करते रहना ज़रूरी है। और आवश्यकता पड़ने पर चिकित्सक द्वारा इसकी उचित खुराक, उचित समय तक दी जानी चाहिए।

विटामिन डी की कमी

एक वेबसाइट (https://ods.od.nih.gov/factsheets/VitaminD-Consumer/) आसान शब्दों में विटामिन डी के बारे में विस्तारपूर्वक बताती है। विटामिन डी शरीर में तब बनता है जब सूर्य का प्रकाश या कृत्रिम प्रकाश (खासकर 190 से 400 नैनोमीटर तरंग लंबाई का पराबैंगनी प्रकाश) त्वचा पर पड़ता है। इसके असर से कोलेस्ट्रॉल-आधारित एक अणु की रासायनिक अभिक्रिया शुरू होती है, और इसे लीवर में कैल्सीडाईओल (जिसे 2,5 (OH)Dकहते हैं) में तथा किडनी में कैल्सीट्राईओल (1,2,5 (OH)2D) में परिवर्तित कर दिया जाता है। यही वे दो अणु हैं जो क्रियात्मक रूप से सक्रिय होते हैं। माना जाता है कि स्वस्थ शरीर के लिए 2,5-(OH)D का स्तर 30-100 नैनोग्राम प्रति मि.ली. के बीच पर्याप्त होता है; 21-29 नैनोग्राम प्रति मि.ली. के बीच अपर्याप्त माना जाता है, और 20 नैनोग्राम प्रति मि.ली. से कम स्तर व्यक्ति में विटामिन की कमी दर्शाता है।

चूंकि विटामिन डी के बनने के लिए सूर्य का प्रकाश आवश्यक है इसलिए उत्तरी देशों के मुकाबले उष्णकटिबंधीय देश फायदे में हैं। भारत भी उष्णकटिबंधीय देश है, तो इस नाते लगता है कि भारत में विटामिन डी का स्तर बेहतर होगा। लेकिन ऐसा नहीं है!

इस बारे में इंडियन जर्नल ऑफ एंडोक्रायनोलॉजी एंड मेटाबॉलिज़्म में सितंबर 2017 में संध्या सेल्वराजन और उनके साथियों का एक पेपर प्रकाशित हुआ था, जिसका शीर्षक था भारत की स्वस्थ दिखने वाली आबादी में विटामिन डी के स्तर की व्यवस्थित समीक्षा और इसके कारकों का विश्लेषण (लिंक: http://www.ijem.in/text.asp?2017/21/5/7652/21/5/765/214773)। शोधकर्ताओं ने 2998 से अधिक प्रकाशित शोध पत्रों और रिपोर्टों का, और भारत के विभिन्न राज्यों में किए गए अध्ययनों के डैटा का गहन और विस्तृत विश्लेषण किया। इन 40 अध्ययनों में कुल 19,761 व्यक्तियों के नमूने शामिल थे। इन सभी अध्ययनों में शामिल लोगों में विटामिन डी का स्तर 3.15 नैनोग्राम प्रति मि.ली. से 52.9 नैनोग्राम प्रति मि.ली. के बीच था। और दक्षिण भारतीय लोगों में विटामिन डी का स्तर 20 नैनोग्राम प्रति मि.ली. से कम (15.74 नैनोग्राम प्रति मि.ली. से 19.16 नैनोग्राम प्रति मि.ली. के बीच) था। इसके अलावा, पुरुषों की तुलना महिलाओं में विटामिन डी की कमी अधिक देखी गई।

लेखक अपने निष्कर्ष में कहते हैं कि भारत सूर्य के प्रकाश से भरपूर देश है, फिर भी यहां आश्चर्यजनक रूप से लोगों में विटामिन डी की भारी कमी दिखती है। यह कमी सभी तरह के लोगों, चाहे वे शहरी हों या ग्रामीण, हर उम्र या हर लिंग, गरीब हों या अमीर, में दिखती है। इसलिए यह तो स्पष्ट है कि अधिकांश भारतीय लोगों में इस कमी को दूर करने के लिए विटामिन डी की पूरक खुराक की ज़रूरत है।

पौष्टिक भोजन

केंद्र और राज्य सरकारें, समाज के लिए समर्पित फाउंडेशन, कंपनियां और यहां तक कि सह्रदय लोग लाखों-करोड़ों गरीब लोगों, खासकर प्रवासी मज़दूरों के लिए मुफ्त भोजन मुहैया करा रहे हैं। इनमें से अधिकतर लोग बेहद गरीब भी हैं और उन्हें इसी तरह के भोजन पर निर्भर रहना पड़ा है। उनका विटामिन डी का स्तर निश्चित रूप से 10 नैनोग्राम प्रति मि.ली. से कम (बहुत कम) होगा। आम तौर पर इन लोगों को दी जाने वाली खाद्य आपूर्ति में गेहूं या चावल जैसे अनाज, दालें (जैसे चना, उड़द वगैरह) और कुछ अत्यधिक सब्सिडी वाली चीज़ें (जैसे शक्कर, दूध वगैरह) होते हैं। सब्ज़ियां किसी भी रूप में (पकी या बिना पकी) नहीं दी जाती हालांकि शहरों और कस्बों में राज्य सरकार और कुछ निजी संस्थाओं द्वारा पका भोजन लोगों को सस्ती कीमत पर उपलब्ध कराया जाता है। इसके अलावा, सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले छात्रों के लिए मुफ्त मध्यान्ह भोजन की योजना है और एकीकृत बाल विकास कार्यक्रम के तहत आंगनवाड़ी में आने वाले बच्चों और गर्भवती महिलाओं को भोजन दिया जाता है। ये सभी उपयोगी रहे हैं।

विटामिन डी की (वास्तव में कई अन्य विटामिनों और कैल्शियम की भी) कमी को देखते हुए सरकार को चाहिए कि (1) वह पोषण विशेषज्ञों और संस्थानों से सलाह और सुझाव ले कि वर्तमान में गरीबों को उपलब्ध कराए जा रहे राशन में और स्कूली बच्चों को दिए जा रहे भोजन में किस तरह के अन्य पोषक तत्व शामिल किए जा सकते हैं, (2) नि:शुल्क मुहैया कराए जा रहे विटामिन डी, अन्य विटामिन और कैल्शियम की आपूर्ति में इनकी उचित खुराक, दिए जाने की अवधि और अन्य जानकारी चिकित्सा और जन स्वास्थ्य विशेषज्ञों के परामर्श के मुताबिक हो। कई उत्कृष्ट भारतीय कंपनियां हैं जो इनका निर्माण करती हैं। इस तरह के कदम उठाकर, भारत अपने मुल्क के गरीब लोगों को न केवल वर्तमान बल्कि भविष्य की महामारियों के खिलाफ लड़ने के लिए तैयार कर सकेगा।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कोविड-19 – सामूहिक परीक्षण के तरीके

वैज्ञानिकों का कहना है कि कोरोनावायरस के प्रकोप को नियंत्रित करने के लिए व्यापक तौर पर परीक्षण की आवश्यकता है। लेकिन कई जगहों पर परीक्षण करने के लिए ज़रूरी रसायनों की कमी है। इससे निपटने और समय बचाने के लिए चीन, भारत, अमेरिका और जर्मनी समेत कई देशों में स्वास्थ्य अधिकारी सामूहिक परीक्षण की विधि का उपयोग कर रहे हैं। यह तरीका सबसे पहले द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान प्रस्तावित किया गया था। शोधकर्ताओं का कहना है कि एक साथ कई लोगों के नमूनों का परीक्षण करके समय, रासायनिक अभिकारकों और धन की बचत की जा सकती है। सामूहिक परीक्षण कई तरीकों से किया जा सकता है। इनमें से वर्तमान में उपयोग किए जा रहे चार तरीकों का यहां ज़िक्र किया जा रहा है।

विधि 1

सामूहिक परीक्षण करने का सबसे सहज तरीका अर्थशास्त्री रॉबर्ट डोर्फमैन द्वारा 1940 के दशक में सैनिकों में सिफलिस के परीक्षण के लिए सुझाया गया था।

इस तरीके में, एकत्रित किए गए सभी नमूनों में से एक निश्चित संख्या में नमूने लिए जाते हैं (कोरोनावयरस से संक्रमण के मामले में नाक और गले से एकत्र किए गए फोहे के नमूने)। फिर इन्हें एक साथ मिला लिया जाता है और इन मिश्रित नमूनों का परीक्षण किया जाता है। जिन मिश्रित नमूनों के परीक्षण का परिणाम निगेटिव आता है उस समूह के सारे नमूनों को खारिज कर दिया जाता है। लेकिन यदि किसी मिश्रित नमूने का परिणाम पॉज़िटिव आता है, तो उस समूह के प्रत्येक नमूने का अलग-अलग परीक्षण किया जाता है। एक-एक समूह में कितने नमूने मिश्रित किए जाएंगे इसकी संख्या का अनुमान समुदाय में वायरस के फैलाव के आधार पर लगाया जाता है – ताकि परीक्षण कम से कम बार करना पड़े।

मई में, चीन के वुहान में अधिकारियों ने शहर की आबादी का परीक्षण करने के लिए इसी तरीके का उपयोग किया था। उन्होंने मात्र दो सप्ताह में लगभग एक करोड़ लोगों का परीक्षण कर लिया था। लगभग 23 लाख लोगों के मिश्रित नमूनों का परीक्षण किया गया – प्रत्येक समूह में 5 व्यक्तियों के नमूने थे। परीक्षण में 56 लोग संक्रमित पाए गए थे।

शोधकर्ताओं के अनुसार यह तरीका तब सबसे अधिक कारगर होता है जब आबादी में संक्रमण कम फैला हो (कुल जनसंख्या के लगभग एक प्रतिशत में), क्योंकि तब संभावना यह होती है कि अधिकांश मिश्रित परीक्षण निगेटिव आएंगे। इस तरह से हम बहुत सारे लोगों का अलग-अलग अनावश्यक परीक्षण करने से बच जाते हैं।

विधि 2

दूसरा तरीका डोर्फमैन के तरीके का थोड़ा परिष्कृत रूप है। इसमें मिश्रित नमूने का परिणाम पॉज़िटिव आने के बाद, हरेक नमूने का अलग-अलग परीक्षण करने से पूर्व, सामूहिक परीक्षण का एक और चरण होता है। किया यह जाता है कि जिस मिश्रित नमूने का परिणाम पॉज़िटिव आया है उसके व्यक्तिगत नमूनों के थोड़े छोटे-छोटे समूह बनाए जाते हैं, और फिर इन छोटे समूहों से जो नमूना पॉज़िटिव परिणाम देता है उसके सारे व्यक्तियों के नमूनों का अलग-अलग परीक्षण किया जाता है। इस तरीके में मिश्रित परीक्षण की संख्या तो बढ़ जाती है लेकिन व्यक्तिगत नमूनों की जांच की संख्या में कमी आती है। सामूहिक परीक्षण का यह तरीका थोड़ा धीमा भी है क्योंकि प्रत्येक चरण के मिश्रित नमूने के परिणाम आने में कई घंटे का समय लगता है। कोविड-19 का संक्रमण तेज़ी से फैलने वाला है इसलिए इस तरह के संक्रमण के मामलों में हमें सामूहिक परीक्षण के उन तरीकों को अपनाना चाहिए जो परीक्षण के नतीजे जल्दी बता पाएं।

विधि 3: बहुआयामी तरीका

सामूहिक परीक्षण का तीसरा तरीका रवांडा के विल्फ्रेड एनडीफॉन और उनके सहयोगियों ने सामूहिक परीक्षण की संख्या को कम करने के लिए डोर्फमैन के तरीके में बदलाव करके विकसित किया है। इस तरीके में परीक्षण का पहला चरण डोर्फमैन के पहले चरण जैसा ही है जिसमें मिश्रित नमूनों का परीक्षण किया जाता है। फिर, सकारात्मक परिणाम वाले समूहों को अगले चरण के सामूहिक परीक्षण के लिए समूहों में इस तरह बांटते हैं कि एक नमूना एक से अधिक समूह में हो। इसे ऐसे समझते हैं। एक नौ इकाइयों वाली मैट्रिक्स की कल्पना कीजिए, जिसमें हर इकाई एक व्यक्ति के नमूने का प्रतिनिधित्व करती है। अब, इस मैट्रिक्स की हर खड़ी पंक्ति नमूनों का एक समूह है, और हर आड़ी पंक्ति भी नमूनों का एक समूह है। आड़ी पंक्ति के नमूनों का मिश्रित परीक्षण किया जाता है। इसी तरह खड़ी पंक्ति से बने समूहों का मिश्रित परीक्षण किया जाता है। यानी कुल 6 परीक्षण हुए। प्रत्येक व्यक्ति का नमूना दो समूहों में है। यदि किसी समूह में एक नमूना संक्रमित है, उन दोनों समूह के परीक्षण परिणाम पॉज़िटिव होंगे जिनमें वह नमूना है। इस तरीके में 9 नमूनों के सिर्फ 6 परीक्षण करके संक्रमित की पहचान की जा सकती है। इसमें कुछ परिवर्तन करके (जैसे वर्गाकार मैट्रिक्स की बजाय घनाकार मैट्रिक्स लेकर) बेहतर दक्षता हासिल की जा सकती है।

एनडिफॉन की टीम का अनुमान है कि सामूहिक परीक्षण का यह तरीका परीक्षण का खर्च प्रति व्यक्ति 9 डॉलर से कम करके मात्र 75 सेंट तक कर सकता है।

जर्मनी के सारलैंड युनिवर्सिटी मेडिकल सेंटर की आणविक वायरस विज्ञानी सिग्रन स्मोला ने अपने सामूहिक परीक्षण में व्यक्तिगत नमूनों की संख्या 20 तक रखी है। उनका कहना है कि परीक्षण की सटीकता सुनिश्चित करने के लिए एक सामूहिक परीक्षण में नमूनों की संख्या 30 से अधिक नहीं रखनी चाहिए। समूह में नमूनों की अधिक संख्या पॉज़िटिव परिणाम के नज़रअंदाज़ होने की संभावना बढ़ा देती है।

विधि 4: एकचरण समाधान

कुछ शोधकर्ताओं का कहना है कि सार्स-कोव-2 जैसे तेज़ी से फैलने वाले वायरस को रोकने के लिए दो चरणीय परीक्षण में लगने वाला समय बहुत अधिक है। आईआईटी मुंबई के कंप्यूटर वैज्ञानिक मनोज गोपालकृष्णन कहते हैं कि इन तरीकों में लैब तकनीशियनों को संक्रमण की पुष्टि करने के लिए कम से कम पहले चरण के नतीजे आने तक का इंतज़ार करना पड़ता है, जिसकी वजह से जांच प्रक्रिया धीमी हो जाती है।

इसकी बजाय वे एक ही चरण में, एक नमूने को कई समूह में रखते हुए परीक्षण करने की सिफारिश करते हैं। उनका कहना है कि इस तरीके में सामूहिक परीक्षणों की संख्या ज़रूर बढ़ जाएगी, लेकिन समय की बचत होगी हालांकि शुरुआती सेटअप करने में थोड़ा समय लगेगा।

इस तरीके में नमूनों को समूह में बांटने की विधि में एक नमूने को कई समूह में रखकर परीक्षण किया जाता है। इसमें नमूनों को बांटने लिए किर्कमैन तिकड़ियों का उपयोग किया जाता है। इसे समझने के लिए एक ऐसी सपाट मैट्रिक्स की कल्पना कीजिए जिसमें हर आड़ी पंक्ति एक परीक्षण समूह दर्शाती है और हर खड़ी पंक्ति एक व्यक्तिगत नमूने का द्योतक है। सामान्यत: हरेक परीक्षण में समान संख्या में नमूने और सभी नमूनों का परीक्षण समान बार होना चाहिए।

एक-चरण सामूहिक परीक्षण का मतलब है कि बड़ी संख्या में नमूनों पर एक साथ काम करना जो मुश्किल हो सकता है। इस प्रक्रिया को सरल बनाने के लिए गोपालकृष्णन और उनके साथियों ने एक स्मार्टफोन ऐप विकसित किया है जो परीक्षणकर्ताओं को बताता है कि नमूनों का समूह कैसे बनाना है। इज़राइल में भी शोधकर्ता एक-चरणीय परीक्षण प्रणाली लागू करने के लिए एक स्वचालित प्रणाली और एक ऐप का उपयोग कर रहे हैं।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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