कोविड-19 का अंत कैसे होगा?

कोई भी घातक महामारी हमेशा टिकी नहीं रहती। उदाहरण के लिए 1918 में फैले इन्फ्लूएंज़ा ने तब दुनिया के लाखों लोगों की जान ले ली थी लेकिन अब इसका वायरस बहुत कम घातक हो गया है। अब यह साधारण मौसमी फ्लू का कारण बनता है। अतीत की कुछ महामारियां लंबे समय भी चली थीं। जैसे 1346 में फैला ब्यूबोनिक प्लेग (ब्लैक डेथ)। इसने युरोप और एशिया के कुछ हिस्सों के लगभग एक तिहाई लोगों की जान ली थी। प्लेग के बैक्टीरिया की घातकता में कमी नहीं आई थी। सात साल बाद इस महामारी का अंत संभवत: इसलिए हुआ था क्योंकि बहुत से लोग मर गए थे या उनमें इसके खिलाफ प्रतिरक्षा विकसित हो गई थी। इन्फ्लूएंज़ा की तरह 2009 में फैले H1N1 का रोगजनक सूक्ष्मजीव भी कम घातक हो गया था। तो क्या सार्स-कोव-2 वायरस भी इसी रास्ते चलेगा?

कुछ वैज्ञानिकों का कहना है कि अब यह वायरस इस तरह से विकसित हो चुका है कि यह लोगों में आसानी से फैल सके। हालांकि यह कहना अभी जल्दबाज़ी होगी लेकिन मुमकिन है कि यह कम घातक होता जाएगा। शायद अतीत में झांकने पर इसके बारे में कुछ कहा जा सके।

यह विचार काफी पुराना है कि समय के साथ धीरे-धीरे संक्रमण फैलाने वाले रोगजनक कम घातक हो जाते हैं। 19वीं सदी के चिकित्सक थियोबाल्ड स्मिथ ने पहली बार बताया था कि परजीवी और मेज़बान के बीच ‘नाज़ुक संतुलन’ होता है; समय के साथ रोगजनकों की घातकता में कमी आनी चाहिए क्योंकि अपने मेज़बान को मारना किसी भी सूक्ष्मजीव के लिए हितकर नहीं होगा।

1980 के दशक में शोधकर्ताओं ने इस विचार को चुनौती दी। गणितीय जीव विज्ञानी रॉय एंडरसन और रॉबर्ट मे ने बताया कि रोगाणु अन्य लोगों में तब सबसे अच्छे से फैलते हैं जब उनका मेज़बान बहुत सारे रोगाणु बिखराता या छोड़ता है। यह स्थिति अधिकतर तब बनती है जब मेज़बान अच्छे से बीमार पड़ जाए। इसलिए रोगजनक की घातकता और फैलने की क्षमता एक संतुलन में रहती है। यदि रोगजनक इतना घातक हो जाए कि वह बहुत जल्द अपने मेज़बान की जान ले ले तो आगे फैल नहीं पाएगा। इसे ‘प्रसार-घातकता संतुलन’ कहते हैं।

दूसरा सिद्धांत विकासवादी महामारी विशेषज्ञ पॉल इवाल्ड द्वारा दिया गया था जिसे ‘घातकता का सिद्धांत’ कहते हैं। इसके अनुसार, कोई रोगजनक जितना अधिक घातक होगा उसके फैलने की संभावना उतनी ही कम होगी। क्योंकि यदि व्यक्ति संक्रमित होकर जल्द ही बिस्तर पकड़ लेगा (जैसे इबोला में होता है) तो अन्य लोगों में संक्रमण आसानी से नहीं फैल सकेगा। इस हिसाब से किसी भी रोगजनक को फैलने के लिए चलता-फिरता मेज़बान चाहिए, यानी रोजगनक कम घातक होते जाना चाहिए। लेकिन सिद्धांत यह भी कहता है कि प्रत्येक रोगाणु के फैलने की अपनी रणनीति होती है, कुछ रोगाणु उच्च घातकता और उच्च प्रसार क्षमता, दोनों बनाए रख सकते हैं।

इनमें से एक रणनीति है टिकाऊपन। जैसे चेचक का वायरस शरीर से बाहर बहुत लंबे समय तक टिका रह सकता है। ऐसे टिकाऊ रोगाणु को इवाल्ड ‘बैठकर प्रतीक्षा करो’ रोगजनक कहते हैं। कुछ घातक संक्रमण अत्यंत गंभीर मरीज़ों से पिस्सू, जूं, मच्छर सरीखे वाहक जंतुओं के माध्यम से फैलते हैं। हैज़ा जैसे कुछ संक्रमण पानी से फैलते हैं। और कुछ संक्रमण बीमार या मरणासन्न लोगों की देखभाल से फैलते हैं, जैसे स्टेफिलोकोकस बैक्टीरिया संक्रमण। इवाल्ड के अनुसार ये सभी रणनीतियां रोगाणु को कम घातक होने से रोक सकती हैं।

लेकिन सवाल है कि क्या यह कोरोनावायरस कभी कम घातक होगा? साल 2002-03 में फैले सार्स को देखें। यह संक्रमण एक से दूसरे व्यक्ति में तभी फैलता है जब रोगी में संक्रमण गंभीर रूप धारण कर चुका हो। इससे फायदा यह होता था कि संक्रमित रोगी की पहचान कर उसे अलग-थलग करके वायरस के प्रसार को थामा जा सकता था। लेकिन सार्स-कोव-2 संक्रमण की शुरुआती अवस्था से ही अन्य लोगों में फैलने लगता है। इसलिए यहां वायरस के फैलने की क्षमता और उसकी घातकता के बीच सम्बंध ज़रूरी नहीं है। लक्षण-विहीन संक्रमित व्यक्ति भी काफी वायरस बिखराते रहते हैं। इसलिए ज़रूरी नहीं कि मात्र गंभीर बीमार हो चुके व्यक्ति के संपर्क में आने पर ही जोखिम हो।

इसलिए सार्स-कोव-2 वायरस में प्रसार-घातकता संतुलन मॉडल शायद न दिखे। लेकिन इवाल्ड इसके टिकाऊपन को देखते हैं। सार्स-कोव-2 वायरस के संक्रामक कण विभिन्न सतहों पर कुछ घंटों और दिनों तक टिके रह सकते हैं। यानी यह इन्फ्लूएंज़ा वायरस के बराबर ही टिकाऊ है। अत:, उनका तर्क है कि सार्स-कोव-2 मौसमी इन्फ्लूएंज़ा के समान घातकता विकसित करेगा, जिसकी मृत्यु दर 0.1 प्रतिशत है।

लेकिन अब भी निश्चित रूप से यह नहीं कहा जा सकता कि सार्स-कोव-2 किस ओर जाएगा। वैज्ञानिकों ने वायरस के वैकासिक परिवर्तनों का अवलोकन किया है जो दर्शाते हैं कि सार्स-कोव-2 का प्रसार बढ़ा है, लेकिन घातकता के बारे में निश्चित रूप से कुछ कहा नहीं जा सकता। लॉस एलामोस नेशनल लेबोरेटरी की कंप्यूटेशनल जीव विज्ञानी बेट्टे कोरबर द्वारा जुलाई माह की सेल पत्रिका में प्रकाशित पेपर बताता है कि अब वुहान में मिले मूल वायरस की जगह उसका D614G उत्परिवर्तित संस्करण ले रहा है। संवर्धित कोशिकाओं पर किए गए अध्ययन के आधार पर कोरबर का कहना है कि उत्परिवर्तित वायरस में मूल वायरस की अपेक्षा फैलने की क्षमता अधिक है। बहरहाल, कई शोधकर्ताओं का कहना है कि ज़रूरी नहीं कि संवर्धित कोशिकाओं पर किए गए प्रयोगों के परिणाम वास्तविक परिस्थिति में लागू हों।

कई लोगों का कहना है कि सार्स-कोव-2 वायरस कम घातक हो रहा है। लेकिन अब तक इसके कोई साक्ष्य नहीं हैं। सामाजिक दूरी, परीक्षण, और उपचार बेहतर होने के कारण प्रमाण मिलना मुश्किल भी है। क्योंकि अब सार्स-कोव-2 का परीक्षण सुलभ होने से मरीज़ों को इलाज जल्द मिल जाता है, जो जीवित बचने का अवसर देता है। इसके अलावा परीक्षणाधीन उपचार मरीज़ों के लिए मददगार साबित हो सकते हैं। और जोखिमग्रस्त या कमज़ोर लोगों को अलग-थलग कर उन्हें संक्रमण के संपर्क से बचाया जा सकता है।

सार्स-कोव-2 वायरस शुरुआत में व्यक्ति को बहुत बीमार नहीं करता। इसके चलते संक्रमित व्यक्ति घूमता-फिरता रहता है और बीमार महसूस करने के पहले भी संक्रमण फैलाता रहता है। इस कारण सार्स-कोव-2 के कम घातक होने की दिशा में विकास की संभावना कम है।

कोलंबिया युनिवर्सिटी के विंसेंट रेकेनिएलो का कहना है कि वायरस में होने वाले परिवर्तनों के कारण ना सही, लेकिन सार्स-कोव-2 कम घातक हो जाएगा, क्योंकि एक समय ऐसा आएगा जब बहुत कम लोग ऐसे बचेंगे जिनमें इसके खिलाफ प्रतिरक्षा ना हो। रेकेनिएलो बताते हैं कि चार ऐसे कोरोनावायरस अभी मौजूद हैं जो अब सिर्फ सामान्य ज़ुकाम के ज़िम्मेदार बनते हैं जबकि वे शुरू में काफी घातक रहे होंगे।

इन्फ्लूएंज़ा वायरस से तुलना करें तो कोरोनावायरस थोड़ा अधिक टिकाऊ है और इस बात की संभावना कम है कि यह इंसानों में पहले से मौजूद प्रतिरक्षा के खिलाफ विकसित होगा। इसलिए कई विशेषज्ञों का कहना है कि कोविड-19 से बचने का सुरक्षित और प्रभावी तरीका है टीका। टीकों के बूस्टर नियमित रूप से लेने की ज़रूरत होगी; इसलिए नहीं कि वायरस तेज़ी से विकसित हो रहा है बल्कि इसलिए कि मानव प्रतिरक्षा क्षीण पड़ने लग सकती है।

बहरहाल, विशेषज्ञों के मुताबिक हमेशा के लिए ना सही, तो कुछ सालों तक तो वायरस के कुछ संस्करण बने रहेंगे।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कोरोनावायरस के चलते मिंक के कत्ले आम की तैयारी

कुछ समय पहले डेनमार्क के स्वास्थ्य अधिकारियों ने कहा था कि मिंक और लोगों में सार्स-कोव-2 के उत्परिवर्तनों के चलते कोविड-19 टीकों की प्रभावशीलता खतरे में पड़ सकती है। इस खबर के मद्देनज़र डेनमार्क के प्रधानमंत्री ने 4 नवंबर को घोषणा की कि मिंक-पालन समाप्त किया जाए और डेढ़ करोड़ से भी अधिक मिंक को मौत के घाट उतार दिया जाए। इस घोषणा से बहस छिड़ गई और वैज्ञानिकों द्वारा डैटा विश्लेषण किए जाने तक इस फैसले को स्थगित कर दिया गया। गौरतलब है कि मिंक एक प्रकार का उदबिलाव होता है जिसे विर्सक भी कहते हैं।

अब, डैटा की समीक्षा में युनिवर्सिटी ऑफ ऑक्सफोर्ड की एस्ट्रिड इवर्सन का कहना है कि ये उत्परिवर्तन अपने आप में चिंताजनक नहीं हैं क्योंकि इस बात के बहुत कम सबूत हैं कि मिंक में हुए ये उत्परिवर्तन सार्स-कोव-2 वायरस को लोगों में आसानी से फैलने में मदद करते हैं,या वायरस को अधिक घातक बनाते हैं या चिकित्सा और टीकों की प्रभाविता को कम करते हैं।

लेकिन फिर भी कुछ वैज्ञानिकों को लगता है कि मिंक को मारना शायद आवश्यक है क्योंकि जून के बाद से 200 से अधिक मिंक फार्म में यह वायरस तेज़ी से और अनियंत्रित तरीके से फैला है। इसके चलते ये वायरस के स्रोत हो गए हैं जहां से वह लोगों को आसानी से संक्रमित कर सकता है। डेनमार्क में मिंक की संख्या वहां की लोगों की आबादी की तीन गुना है, और देखा गया है कि जिन फार्म के मिंक संक्रमित हुए हैं उन इलाकों के लोगों में कोविड-19 के मामले बढ़े हैं। अंतत: 10 नवंबर को डेनमार्क सरकार ने किसानों से मिंक का खात्मा करने का आग्रह किया।

40 मिंक फार्म से लिए गए नमूनों में वायरस के 170 संस्करण दिखे। और डेनमार्क के कुल कोविड-19 मामलों के 20 प्रतिशत मामलों में लगभग 300 संस्करण दिखे, ये संस्करण मिंक में भी देखे गए। अत: माना जा रहा है कि ये उत्परिवर्तन पहले मिंक में उभरे थे।

मिंक और लोगों के सार्स-कोव-2 के स्पाइक प्रोटीन में भी कई उत्परिवर्तन देखे गए थे। यह वायरस स्पाइक प्रोटीन के ज़रिए ही कोशिकाओं में प्रवेश करता है। स्पाइक प्रोटीन में परिवर्तन प्रतिरक्षा प्रणाली की संक्रमण को पहचानने की क्षमता को प्रभावित कर सकता है। कई टीके प्रतिरक्षा प्रणाली को स्पाइक प्रोटीन की पहचान करवाकर उसे अवरुद्ध करने पर आधारित हैं। विशेष रूप से स्पाइक प्रोटीन का क्लस्टर-5 नामक उत्परिवर्तन अधिक चिंता का विषय है। इसमें तीन एमिनो एसिड में बदलाव और दो स्पाइक प्रोटीन में दो एमिनो एसिड का विलोपन देखा गया। प्रारंभिक प्रयोगों में, कोविड-19 से उबर चुके लोगों की एंटीबॉडीज़ के लिए अन्य उत्परिवर्तित वायरस के मुकाबले क्लस्टर-5 उत्परिवर्तन वाले वायरस की पहचान करना ज़्यादा मुश्किल था। इससे लगता है कि इस संस्करण पर एंटीबॉडी उपचार या टीकों का कम असर पड़ेगा। और इसलिए मिंक को मारने की सलाह दी गई। मिंक में हुआ एक अन्य उत्परिवर्तन (Y453F) 300 से अधिक लोगों में दिखा था। इस संस्करण के भी स्पाइक प्रोटीन के एमिनो एसिड परिवर्तन में परिवर्तन हुआ है। और यह भी मोनोक्लोनल एंटीबॉडी से बच निकलता है। समीक्षकों का कहना है कि ये दावे संदेहास्पद हैं क्योंकि क्लस्टर-5 संस्करण बहुत कम मामलों में दिखा है – 5 मिंक फार्म और 12 लोगों में। जो संक्रमित लोग मिले हैं उनमें से कई मिंक फार्म पर काम करते थे और सितंबर के बाद से यह संस्करण दिखा भी नहीं है। लिहाज़ा टीकों और उपचार की प्रभाविता को लेकर कोई भी निष्कर्ष निकालना जल्दबाज़ी होगी। अलबत्ता, मिंकों की बलि तो चढ़ाई ही जाएगी।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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सर्पदंश के मृतकों के स्मारक – कालूराम शर्मा

श्चिमी निमाड़ (मध्य प्रदेश) के एक गांव के स्कूल के गेट के निकट सर्प देवता के छोटे-छोटे मंदिरों की कतार ध्यान खींचती है। वैसे तो सर्प देवता के मंदिर निमाड़ अंचल में पग-पग पर दिखाई देंगे लेकिन यहां एक साथ इतने मंदिर देखकर आश्चर्य होता है। गांव के एक बुज़ुर्ग ने बताया कि ये सर्पदंश से मृतकों की समाधियां हैं।

अन्य गांवों की तरह यह गांव भी खेतों, खलिहानों व झाड़-झंखाड़ से घिरा है। गांव में प्रवेश करते ही खुली नालियां गांव के घरों से सटी हुई उफनती दिखती हैं। मकानों की छतों, आंगन व ज़मीन पर अनाज सुखाया व भंडारित किया जाता है। घास-चारा भी घरों के ही एक हिस्से में जमा किया जाता है। तो चूहों की मौजूदगी स्वाभाविक है।

भारत में सर्पदंश से मृत्यु के आंकड़े भयावह है। आज भी सर्पदंश से पीड़ित मरीज़ अस्पताल की दहलीज तक नहीं पहुंच पाते हैं। वे या तो जल्द ही काल के गाल में समा जाते हैं या फिर झाड़-फूंक, टोने-टोटके पर भरोसा किया जाता है। यह भरोसा तब और पुख्ता हो जाता है जब मरीज़ को विषहीन सर्प ने काटा हो। या अगर विषैले सर्प ने डसा भी हो तो दंश सूखा हो, अर्थात विष मरीज़ के शरीर में पहुंचा ही न हो। ऐसा तब होता है जब विषैले सर्प की विष थैलियों में विष बचा ही न हो और उसने अपनी जान बचाने के लिए डसा हो। इसलिए मरीज़ मृत्यु से बच जाते हैं।

सर्पदंश का खतरा अधिकतर ग्रामीण इलाकों व कृषि जगत से जुड़ा है। दुनिया भर में हर वर्ष सर्पदंश से लगभग एक लाख लोग दम तोड़ देते हैं। इनमें से आधी मौतें अकेले भारत में होती हैं। भारत में मौतों का आंकड़ा ज़्यादा भी हो सकता है क्योंकि आज भी भारत में सर्पदंश के कई मामले अस्पताल तक नहीं पहुंच पाते।

निमाड़ ज़िले के एक गांव में सर्पदंश से या अन्य कारणों से अकाल मृत्यु होने पर शव का दाह संस्कार करने की बजाय दफन किया जाता है।

उस गांव में एक शादीशुदा महिला को सांप ने काटा था। वह महिला खलिहान में कपास की काठी लेने को गई थी। जैसे ही महिला कपास के ढेर में से काठियां  उठाने लगी कि सांप ने डस लिया। उस परिवार में शादी तीज-त्यौहार के समय उक्त महिला के समाधि स्थल की पुताई की जाती है और पूजा की जाती है।

एक बालक की समाधि भी है। बताया जाता है कि वह खेत में गया था जहां उसे सांप ने डस लिया।

एक और समाधि गोविंद नामक एक अधेड़ व्यक्ति की है। बताते हैं कि गोविंद सांपों के बारे में थोड़ा-बहुत जानते थे। एक बार सांप दिखने पर गोविंद ने उसका मुंह पकड़ लिया। पकड़ थोड़ी ढीली हुई तो उसने हाथ में डस लिया। झाड़-फूंक वगैरह के बाद लगभग 15 किलोमीटर दूर अस्पताल पहुंचते-पहुंचते गोविंद ने दम तोड़ दिया।

गांववासी बताते हैं कि ऐसी समाधियां अन्य गांवों में भी हैं।

आंकड़े बताते हैं कि ऑस्ट्रेलिया महाद्वीप में भारत की तुलना में अधिक विषैले सांप हैं; फिर भी भारत में सर्पदंश से मृत्यु का आंकड़ा कहीं अधिक है। इसकी प्रमुख वजह यह है कि भारत में सर्पदंश को लेकर फ्रंटलाइन तैयारी कमज़ोर है। ग्रामीण क्षेत्रों में प्राथमिक चिकित्सा की व्यवस्था नहीं होती। दूसरी ओर, प्राथमिक चिकित्सा केंद्रों पर एंटी-वेनम सीरम का टीका उपलब्ध नहीं होता। इससे जुड़ी समस्या यह है कि एंटी-वेनम सीरम का टीका लगाने का अनुभव रखने वाले चिकित्सकों का अभाव है।

सेंटर फॉर ग्लोबल हेल्थ रिसर्च, युनिवर्सिटी ऑफ टोरंटो के साथ भारत व संयुक्त राज्य अमेरिका के साथियों द्वारा किए गए अध्ययन से पता चलता है कि 2000 से 2019 के दौरान 12 लाख लोगों की मृत्यु सर्पदंश से हुई (सालाना लगभग 58,000)।

सन 2009 से विश्व स्वास्थ्य संगठन ने विषैले सर्पदंश को ‘नेग्लेक्टेड ट्रॉपिकल डिसीज़’ यानी उपेक्षित उष्णकटिबंधीय रोग की श्रेणी में सूचीबद्ध किया है। सर्पदंश की सबसे अधिक घटनाएं दुनिया के 149 उष्णकटिबंधीय देशों में होती हैं। इससे अरबों डॉलर के नुकसान का आकलन है।

उपरोक्त अध्ययन का मकसद भारत में घातक सर्पदंश का शिकार होने वाले लोगों की पहचान करना और उनके जीवन पर होने वाले असर को जानना था। सर्पदंश की वजह से मृत्यु के अलावा लकवा मारना, रक्तस्राव, किडनी खराब होना और गैंग्रीन होना आम बात है। यह अध्ययन सिफारिश करता है कि सर्पदंश को भारत सरकार नोटिफाएबल डिसीज़ के रूप में शामिल करे।

भारत में सांपों की लगभग 3000 प्रजातियां पाई जाती हैं। इनमें से मात्र 15 प्रजातियों के सांप विषैले होते हैं। इन 15 में से भी केवल चार प्रजातियां ऐसी हैं जिनके दंश से मरीज़ मौत के मुंह में समा जाते हैं। इन्हें विषैली चौकड़ी के नाम से जाना जाता है। ये हैं नाग (कोबरा), दुबोइया (रसेल वाइपर), फुर्सा (सॉ-स्केल्ड वाइपर), और घोणस (करैत)। भारत में 20 वर्षों के आंकड़ों का विश्लेषण बताता है कि सर्पदंश से सबसे अधिक मौतें (लगभग 43.2 प्रतिशत) रसेल वाइपर के काटने से हुई। उसके बाद करैत (17.7 प्रतिशत) व कोबरा (11.7 प्रतिशत) आते हैं।

भारत में सर्पदंश से होने वाली मौतों में 97 फीसदी मौतें ग्रामीण इलाकों में होती है। सर्पदंश की कुल मौतों में 70 फीसदी बिहार, झारखंड, मध्यप्रदेश, ओडिशा, उत्तरप्रदेश, आंध्रप्रदेश, राजस्थान और गुजरात के ग्रामीण क्षेत्रों में हुई। अध्ययन बताते हैं कि सर्पदंश से मरने वालों में पुरुष (59 प्रतिशत) अधिक होते हैं। ये घटनाएं जून से सितंबर के बीच अधिक होती है। अधिकतर सांप मानसून के मौसम में ज़मीन पर आ जाते हैं और यहां-वहां अपने बचाव में, शिकार की खोज आदि के लिए भटकते हैं। सांप खेतों, जंगलों या ऐसी जगहों पर मिलते हैं जहां उनका भोजन उपलब्ध होता है। सर्पदंश की अधिकांश घटनाएं जंगल, खेतों में होती हैं जहां से मरीज़ को चिकित्सा केंद्र पर लाना भी संभव नहीं होता।

और सबसे महत्वपूर्ण बात है कि इन मौतों में से सत्तर फीसदी 20 से 50 बरस की आयु के वे पुरुष होते हैं जो रोज़ी-रोटी का इंतज़ाम करते हैं।

गांवों में अपर्याप्त बुनियादी सुविधाएं जैसे प्रकाश की व्यवस्था, सीवेज सिस्टम, स्वच्छता के अभाव में चूहों की बढ़ती आबादी सर्पदंश को बढ़ावा देती है।

अध्ययन में यह बात भी सामने आई कि अधिकांश मज़दूर और किसान खेत में काम करते वक्त जूते नहीं पहनते। लगभग 70 फीसदी सर्पदंश पैरों में होता है। ज़मीन पर सोना सर्पदंश को आमंत्रण देता है। घर के पास पशुओं को बांधा जाता है। परिणामस्वरूप चूहे और पीछे-पीछे सांप अधिक आते हैं।

सर्पदंश से पीड़ित मरीज़ पर वित्तीय बोझ भी पड़ता है। एक ओर जहां मरीज़ों को अस्पताल का भारी खर्च उठाना पड़ता है वहीं वह श्रम से हाथ धो बैठता है। यह भी देखा गया है कि सर्पदंश से ग्रसित मरीज़ अगर बच भी जाता है तो वह मनोवैज्ञानिक तनाव से गुज़रता है। खासकर रसेल वाइपर व फुर्सा के दंश के मामले में मरीज़ बच तो जाते हैं लेकिन उनके दंश वाले अंगों में गैंग्रीन हो जाता है और उस अंग को काटना पड़ता है।

अध्ययन अनुशंसा करता है कि सांपों व सर्पदंश के बारे में लोगों को शिक्षित व जागरूक किया जाए। सांपों से बचाव के लिए खेत-जंगल में काम करने के दौरान जूते व दस्ताने पहनना और रोशनी के लिए टार्च का इस्तेमाल सर्पदंश के जोखिम को कम कर सकता है। मच्छरदानी का व्यापक वितरण व इस्तेमाल मच्छरों के साथ ही रात में सांपों से बचा सकता है।

यह अध्ययन इस ओर भी ध्यान दिलाता है कि समस्या चिकित्सा विज्ञान की प्राथमिकता की भी है। चिकित्सा विज्ञान के पाठ्यक्रम में सर्पदंश को हाशिए पर रखा हुआ है। छात्रों को सर्पदंश का पाठ पढ़ाया तो जाता है लेकिन जो डॉक्टर तैयार होते हैं उन्हें सर्पदंश का मैदानी अनुभव न के बराबर मिल पाता है। ऐसे में सर्पदंश के लक्षणों के आधार पर पता लगाना कि किस सांप ने काटा है और एंटी-वेनम की खुराक कितनी देनी है, जैसी बारीकियों के अनुभव से वे वंचित होते हैं।

अध्ययन एक और बात की ओर इशारा करता है। वर्तमान में जो एंटी-वेनम सीरम उपलब्ध है वह केवल स्पेक्टेकल्ड कोबरा, कॉमन करैत, रसेल वाइपर व सॉ-स्केल्ड वाइपर के विष को बेअसर कर पाता है। 12 अन्य विषैली प्रजातियों के खिलाफ यह असरकारक नहीं होता।

वर्तमान में चैन्नई के पास इरूला को-ऑपरेटिव सोसायटी एंटी-वेनम के निर्माण के लिए सांपों का विष उपलब्ध कराती है। उल्लेखनीय है कि इरूला जाति के लोग सांपों को पकड़ने में निपुण माने जाते हैं। रोमुलस व्हिटेकर की पहल पर इरूला को-ऑपरेटिव सोसायटी का गठन किया गया जो सांपों का विष निकालते हैं और वापस उन्हें जंगल में छोड़ देते हैं। सोसायटी विष प्राप्त करके एंटी-वेनम सीरम का निर्माण करती है और कुछ दवा कंपनियों को उपलब्ध करवाती है।

लेकिन यह देखने में आया है कि दक्षिण भारत में पाए जाने वाले स्पेक्टेकल्ड कोबरा या रसेल वाइपर का विष पूर्वी भारत में पाए जाने वाली उसी प्रजाति के विष से भिन्न होता है। यह फर्क होने से भी कई बार एंटी-वेनम सीरम कारगर नहीं होता।

निमाड़ ज़िले के एक गांव में सर्पदंश से या अन्य कारणों से अकाल मृत्यु होने पर शव का दाह संस्कार करने की बजाय दफन किया जाता है। उस गांव में एक शादीशुदा महिला को सांप ने काटा था। वह महिला खलिहान में कपास की काठी लेने को गई थी। जैसे ही महिला कपास के ढेर में से काठियां  उठाने लगी कि सांप ने डस लिया। उस परिवार में शादी तीज-त्यौहार के समय उक्त महिला के समाधि स्थल की पुताई की जाती है और पूजा की जाती है। एक बालक की समाधि भी है। बताया जाता है कि वह खेत में गया था जहां उसे सांप ने डस लिया। एक और समाधि गोविंद नामक एक अधेड़ व्यक्ति की है। बताते हैं कि गोविंद सांपों के बारे में थोड़ा-बहुत जानते थे। एक बार सांप दिखने पर गोविंद ने उसका मुंह पकड़ लिया। पकड़ थोड़ी ढीली हुई तो उसने हाथ में डस लिया। झाड़-फूंक वगैरह के बाद लगभग 15 किलोमीटर दूर अस्पताल पहुंचते-पहुंचते गोविंद ने दम तोड़ दिया। गांववासी बताते हैं कि ऐसी समाधियां अन्य गांवों में भी हैं।  

विश्व स्वास्थ्य संगठन ने यह लक्ष्य निर्धारित किया है कि वर्ष 2030 तक सर्पदंश को नियंत्रित कर मृत्यु दर को आधा कर लिया जाएगा। सर्पदंश के खिलाफ तभी प्रभावी नियंत्रण किया जा सकता है जब सार्वजनिक चिकित्सा का दृष्टिकोण सकारात्मक हो। सर्पदंश के मामले में हस्तक्षेप स्थानीय स्तर पर ही किया जाना चाहिए। तभी मरीज़ों को मृत्यु से बचाया जा सकता है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।

कोविड-19 का तंत्रिका तंत्र पर प्रभाव

सार्स-कोव-2 से संक्रमित रोगियों ने कई ऐसी तकलीफों का अनुभव किया है जिनका सम्बंध तंत्रिका तंत्र से हो सकता है। जैसे सिरदर्द, जोड़ों और मांसपेशियों में दर्द, थकान, सोचने-समझने में परेशानी, गंध/स्वाद महसूस न होना वगैरह। कुछ गंभीर स्थितियों में तो मस्तिष्क में सूजन और स्ट्रोक के मामले भी सामने आए हैं। स्पष्ट है कि यह वायरस तंत्रिका तंत्र को प्रभावित करता है। लेकिन कैसे?

एक व्याख्या यह थी कि शायद ये प्रतिरक्षा तंत्र के अति सक्रिय होने के परिणाम हैं। लेकिन ऐसे भी मामले सामने आए जिनमें रोगियों में थकान और सोचने-समझने की दिक्कतें तो थीं किंतु प्रतिरक्षा प्रणाली अनियंत्रित नहीं हुई थी। ऐसे में यह स्पष्ट नहीं है कि क्या ऐसे लक्षण प्रतिरक्षा प्रणाली के अति-सक्रिय होने के कारण हैं या फिर वायरस सीधे तंत्रिका तंत्र पर हमला करता है। यह भी संभव है कि ये लक्षण वायरस द्वारा उत्पन्न शरीर-व्यापी सूजन के परिणाम हों।

इस सवाल की खोज करने के लिए युनिवर्सिटी ऑफ डैलास के तंत्रिका विज्ञानी थिओडोर प्राइस ने ऐसे कुछ लक्षणों पर ध्यान दिया। इन लक्षणों में गले में खराश, सिरदर्द, शरीर-व्यापी दर्द और गंभीर खांसी शामिल है। खांसी तो तंत्रिकाओं की उत्तेजना से होती है। कुछ मरीज़ों ने रासायनिक संवेदना की क्षति भी बताई थी और इसकी संवेदना स्वाद तंत्रिकाओं के ज़रिए नहीं बल्कि दर्द-तंत्रिकाओं द्वारा प्रेषित की जाती है। जब मामूली रोगियों में भी ऐसे लक्षण दिखें तो लगता है कि संवेदी तंत्रिकाएं सीधे प्रभावित हो रही हैं।

कोशिका पर ACE2 ग्राही की उपस्थिति से पता चलता है कि कोई कोशिका सार्स-कोव-2 से संक्रमित होगी या नहीं। आरएनए अनुक्रमण से पता चला कि मेरु-रज्जू के बाहर पाए जाने वाली कुछ तंत्रिका कोशिकाओं पर ACE2 ग्राही उपस्थित होते हैं।     

ऐसे न्यूरॉन्स के सिरे शरीर की सतहों जैसे त्वचा और फेफड़ों सहित आंतरिक अंगों पर केंद्रित होते हैं। यहां से इनके लिए वायरस को ग्रहण करना आसान होता है। प्राइस के अनुसार तंत्रिका संक्रमण कोविड के उग्र और स्थायी लक्षणों में से एक है।

लेकिन टीम का कहना है कि तंत्रिका सम्बंधी लक्षणों के लिए तंत्रिकाओं का वायरस संक्रमित होना ज़रूरी नहीं है। संक्रमित रोगियों में काफी मात्रा में साइटोकाइन्स नामक प्रतिरक्षा प्रोटीन्स मिले हैं जो न्यूरॉन को प्रभावित कर सकते हैं।

एक अन्य अध्ययन में पता चला कि सार्स-कोव-2 का कोशिकाओं में प्रवेश करने का कारण केवल ACE2 ग्राही नहीं बल्कि एक अन्य प्रोटीन NRP1 भी है। चूहों पर किए गए अध्ययन से मालूम चला है कि NRP1 वायरस के स्पाइक प्रोटीन के संपर्क में आने के बाद उसे कोशिकाओं में प्रवेश करने में मदद करता है। शायद यह एक सह-कारक के रूप में कार्य करता है।

इसके अलावा एक अन्य परिकल्पना है कि स्पाइक प्रोटीन NRP1 को प्रभावित करके रोगियों में नोसिसेप्टर्स को शांत कर सकता है जो संक्रमण की शुरुआत में दर्द-सम्बंधी लक्षणों को दबा देता है। यह प्रोटीन सार्स-कोव-2 से प्रभावित व्यक्ति में संवेदनाहारी प्रभाव प्रदान करता है जिससे वायरस अधिक आसानी से फैल सकता है।

अध्ययन से इतना तो स्पष्ट है कि कोविड-19 तंत्रिका तंत्र को प्रभावित करता है। लेकिन यह स्पष्ट नहीं है कि तंत्रिका कोशिकाएं संक्रमित होती हैं या नहीं। न्यूरॉन्स को संक्रमित किए बगैर भी यह वायरस कोशिकाओं के लिए घातक सिद्ध हो सकता है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कोविड-19 और भू-चुंबकत्व: शोध पत्र हटाया गया

ल्सवियर की एक पत्रिका में प्रकाशित एक पेपर में यह दावा किया गया था कि कोविड-19 रोग सार्स-कोव-2 वायरस से नहीं बल्कि चुंबकीय विसंगतियों के कारण हुआ है। यह पेपर 8 अक्टूबर को साइंस ऑफ दी टोटल एनवायरनमेंट में प्रकाशन के बाद से ही आलोचना का केंद्र रहा है। 29 अक्टूबर को इसे वेबसाइट से हटा लिया गया है।    

इस पेपर के प्रमुख लेखक और पिट्सबर्ग विश्वविद्यालय के सहायक प्रोफेसर मोसेज़ बिलिटी संक्रामक रोगों का अध्ययन करते हैं। दी साइंटिस्ट से चर्चा करते हुए वे बताते हैं कि इस अध्ययन की शुरुआत पिछले वर्ष हुई जब अचानक उनकी प्रयोशाला के चूहे बीमार हुए और उन्हें मारना पड़ा। बिलिटी ने चूहों के फेफड़ों तथा गुर्दों के ऊतकों में कुछ बदलाव देखे। बदलाव उन चोटों के समान थे जो मनुष्यों में वैपिंग (इलेक्ट्रॉनिक सिगरेट से धूम्रपान) के कारण होते हैं।

मनुष्यों में वैपिंग के कारण होने वाली क्षति और प्रायोगिक चूहों, दोनों के फेफड़ों में आयरन ऑक्साइड पाया गया। बिलिटी के अनुसार मनुष्यों में आयरन ऑक्साइड वैपिंग के कारण जमा हुआ था जो किसी तरह से धरती के चुंबकीय क्षेत्र से क्रिया करता है। इसी के कारण चुंबकीय उत्प्रेरण की प्रक्रिया सक्रिय हो गई। दूसरी ओर चूहे में कमज़ोर प्रतिरक्षा के चलते आयरन की मात्रा अनियंत्रित होने के कारण ऐसे परिणाम सामने आए।     

बिलिटी के समूह ने इस वर्ष फरवरी और मार्च में उसी तरह और चूहों को मृत पाया। उन्होंने इस घटना को अमेरिका में कोविड-19 के बढ़ रहे मामलों के साथ जोड़कर देखा और बताया कि यह वसंत विषुव है जिसमें भू-चुंबकीय परिवर्तन होते हैं और यही इस रोग का मुख्य कारण है। पेपर में कहा गया था कि सार्स-कोव-2 तो वास्तव में मानव जीनोम में पहले से ही उपस्थित था जो पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र में परिवर्तन के साथ फिर से जागृत हो गया है। कोविड-19 तो चुंबकीय क्षेत्र द्वारा उत्प्रेरित अन्य रासायनिक प्रक्रियाओं के कारण हुआ है।

कैल्टेक के भू-विज्ञानी जो किर्शविंक के अनुसार इस पेपर में कई बुनियादी त्रुटियां है। यह सही है शक्तिशाली चुंबकीय क्षेत्र रासायनिक क्रियाओं को प्रभावित करते हैं लेकिन इसके लिए विसंगतियों का तीन-चार गुना अधिक होना ज़रूरी है। इसके अलावा इस अध्ययन में बिना किसी प्रायोगिक साक्ष्य के यह दावा किया गया है कि जेड तावीज़ के उपयोग से ऐसी विसंगतियों के प्रभाव को कम किया जा सकता है। बिलिटी के अनुसार इसका उपयोग प्राचीन चीनी लोगों द्वारा उस समय किया जाता था जब भू-चुंबकत्व की स्थिति आज के समान थी। किर्शविंक जेड तावीज़ के चुंबकीय गुणों के वर्णन को गलत बताते हैं। इस तावीज़ में चुंबकत्व बहुत दुर्बल होता है जो कोई सकारात्मक परिणाम देने के लिए काफी नहीं है। 

इस अध्ययन की काफी आलोचना की जा रही है। कई वैज्ञानिकों ने इस पेपर को ‘छदम विज्ञान’ की संज्ञा दी है और निरस्त करने पर ज़ोर दिया है। इस पेपर के प्रकाशन-पूर्व समीक्षकों पर भी सवाल उठाए गए हैं। पिट्सबर्ग युनिवर्सिटी के प्रवक्ता ने इस मामले पर टिप्पणी करने से इन्कार किया है लेकिन बिलिटी और सह-लेखक इस गलती की पूरी ज़िम्मेदारी ले रहे हैं। बिलिटी कहते हैं कि उनका उद्देश्य जन स्वास्थ्य अधिकारियों को नीचा दिखाना नहीं बल्कि आगे चर्चा और जांच के लिए एक परिकल्पना प्रस्तुत करना है। अब वे अकेले लेखक के रूप में, तावीज़ या पारंपरिक चीनी चिकित्सा का ज़िक्र किए बगैर, इसे पुन: प्रकाशित करने की योजना बना रहे हैं।(स्रोत फीचर्स)

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न्यूयॉर्क युनिवर्सिटी ने हटाया सैकलर परिवार का नाम

हाल ही में अमेरिकी न्याय विभाग द्वारा ओपिओइड महामारी में पर्ड्यू फार्मा कंपनी की भूमिका के लिए तीन अपराधिक मामलों में दोषी करार दिया गया है। दोषी पाए जाने के बाद न्यूयॉर्क युनिवर्सिटी के लैंगोन मेडिकल सेंटर ने अपने संस्थान, इंस्टीट्यूट ऑफ ग्रेजुएट बायोमेडिकल साइंसेज़ से पर्ड्यू फार्मा कंपनी के संस्थापक सैकलर परिवार का नाम हटाने का फैसला लिया है।

ओपियोइड महामारी में अफीमनुमा दर्द निवारक दवाओं (जिनकी आदत पड़ जाती है) के चिकित्सा में अति में उपयोग और दुरुपयोग ने कई समस्याओं को जन्म दिया था और इनका अधिक इस्तेमाल लाखों लोगों की मौत का कारण बना था। अफीमी दवाओं में सबसे अधिक लिखी जाने वाली दवाएं हैं मेथाडॉन, ऑक्सीकोडोन (जो ऑक्सीकोन्टीन नाम से बेची जाती है), और पाइड्रोकोडोन।

पर्ड्यू फार्मा कंपनी ऑक्सीकोन्टीन नामक दर्द निवारक दवा बनाती है। पर्ड्यू फार्मा ने देश से धोखा करने और  रिश्वतखोरी कानून का उल्लंघन करने के दोष में आठ अरब डॉलर के भुगतान का समझौता किया है। अलबत्ता, इस भुगतान से ना तो कंपनी के अधिकारी और ना ही सैकलर परिवार आरोप से मुक्त होगा, उन पर आपराधिक जांच जारी रहेगी।

एसोसिएटेड प्रेस को दिए गए बयान में न्यूयॉर्क युनिवर्सिटी के अधिकारियों का कहना है कि पर्ड्यू फार्मा से सैकलर परिवार का सम्बंध और अफीमी दवाइयों के उपयोग को अधिकाधिक प्रोत्साहित करने में पर्ड्यू फार्मा की भूमिका को देखते हुए हमें लगता है कि संस्थान के साथ उनका नाम जोड़े रखना संस्थान के मूल्यों और उद्देश्य से मेल नहीं खाता।

सैकलर परिवार के वकील डैनियल कोनोली ने न्यूयॉर्क युनिवर्सिटी के इस फैसले की आलोचना की है। उनका कहना है कि जैसे ही पर्ड्यू कंपनी के दस्तावेज़ उजागर किए जाएंगे, स्पष्ट हो जाएगा कि कंपनी और कंपनी के निदेशक सदस्यों, सैकलर परिवार, ने हमेशा नैतिक और कानूनी रूप से कार्य किया है। न्यूयॉर्क युनिवर्सिटी का जल्दबाज़ी में फैसला लेना निराशजनक है।

1980 में उक्त संस्थान की स्थापना के समय से ही सैकलर परिवार के नाम पर संस्थान का नाम रखा गया था। लेकिन संस्थान ने पिछली गर्मियों से इस परिवार से औपचारिक रूप से डोनेशन लेना बंद कर दिया है।

संस्थानों से सैकलर का नाम हटाने वालों में लूवरे और टफ्ट्स युनिवर्सिटी के बाद अब न्यूयॉर्क युनिवर्सिटी भी शामिल हो गई है। विश्वविद्यालयों पर काफी समय से दबाव रहा है कि वे अपने संस्थानों से सैकलर परिवार का नाम हटाएं और उससे अतीत में प्राप्त धनराशि लौटा दें।(स्रोत फीचर्स)

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अल्ज़ाइमर की संभावना बताएगी कृत्रिम बुद्धि

ल्द ही कृत्रिम बुद्धि किसी व्यक्ति में अल्ज़ाइमर होने के आसार के बारे में पहले ही पता लगा लेगी। आईबीएम की टीम ने लेखन में उपयोग किए गए शब्दों/वाक्यों के पैटर्न से अल्ज़ाइमर के शुरुआती संकेत पहचानने के लिए कृत्रिम बुद्धि को प्रशिक्षित किया है।

वैसे तो कई शोध दलों द्वारा मस्तिष्क स्कैन या शारीरिक जांच के डैटा का उपयोग करके अल्ज़ाइमर जैसी संज्ञानात्मक गड़बड़ियों की पूर्व-पहचान के लिए कृत्रिम बुद्धि को प्रशिक्षित किया जा रहा है। लेकिन यह अध्ययन इस मायने में अलग है कि इसमें प्रशिक्षण के लिए फ्रामिंगहैम हार्ट स्टडी का ऐतिहासिक डैटा लिया गया है। फ्रामिंगहैम हार्ट स्टडी वर्ष 1948 के बाद से अब तक लगभग तीन पीढ़ियों के 14,000 से अधिक लोगों के स्वास्थ्य पर नज़र रखे हुए है।

इस स्टडी में प्रतिभागियों से एक तस्वीर का वर्णन भी लिखवाया गया था। इन वर्णनों की सिर्फ डिजिटल प्रतियां उपलब्ध थी, हस्तलिखित मूल प्रतियां सहेजी नहीं गर्इं थीं।

अपने कृत्रिम बुद्धि मॉडल के प्रशिक्षण के लिए शोधकर्ताओं ने प्रतिभागियों के द्वारा लिखे गए इन विवरणों का डिजिटल ट्रांस्क्रिप्शन कृत्रिम बुद्धि को पढ़ाया। इस तरह मॉडल ने संज्ञानात्मक क्षति के शुरुआती भाषागत लक्षणों को पहचानना सीखा। जैसे गलत वर्तनी, कुछ शब्दों का बार-बार उपयोग और व्याकरण की दृष्टि से जटिल वाक्यों की जगह सरल वाक्यों का उपयोग।

मॉडल ने 70 प्रतिशत सही अनुमान लगाया कि किन प्रतिभागियों को 85 वर्ष की उम्र के पहले अल्ज़ाइमर से सम्बंधित स्मृतिभ्रंश की शिकायत हुई होगी।

एक तो यह घटित हो चुकी घटनाओं के अतीत के डैटा के आधार पर आकलन है। इस मॉडल की कुछ अन्य सीमाएं भी हैं। इस मॉडल में फ्रामिंगहैम स्टडी के मात्र वृद्ध प्रतिभागियों का डैटा शामिल किया गया था जो प्राय: एंग्लो-अमेरिकन गोरे लोग थे। इसलिए संपूर्ण अमेरिका और विश्व पर इन नतीजों का सामान्यीकरण मुश्किल है। इस मॉडल में विश्लेषण के लिए केवल 80 लोगों का डैटा लिया गया था – 40 ऐसे लोगों का जिन्हें अल्ज़ाइमर की समस्या हुई थी और 40 कंट्रोल समूह। इसलिए यह स्पष्ट नहीं है कि मॉडल अधिक डैटा पर कैसा प्रदर्शन करेगा। इसके अलावा यह भी सवाल उठता है कि निदान पूर्व, अलग-अलग उम्र पर अल्ज़ाइमर की संभावना का अनुमान क्या इतनी ही सटीकता से लगा पाएगा?

यह मॉडल और भी सटीक हो सकता था यदि इसमें मूल लिखावट को शामिल किया जा सकता। इससे अल्ज़ाइमर की पहचान के कुछ अन्य संकेत शामिल हो जाते। जैसे लिखते समय हाथ हल्का कांपना, कहीं-कहीं प्रिंट और कहीं-कहीं कर्सिव में लिखना और बहुत बारीक अक्षर में लिखना। और यदि मौखिक भाषा का डैटा शामिल किया जाता तो बोलते-बोलते बीच में रुकने जैसे संकेतों को भी पहचाना जा सकता था, जो लेखन से संभव नहीं है। लेखन में सिर्फ साक्षर लोगों का डैटा होता है।

बहरहाल ये मॉडल लोगों के संज्ञानात्मक स्वास्थ्य की निगरानी बिना तकलीफ पहुंचाए कर पाएंगे। हालांकि लोगों की सहमति और डैटा की गोपनीयता का सवाल भी उठेगा क्योंकि हो सकता है कुछ लोग पहले से अपनी बीमारी के बारे में ना जानना चाहें।

फिलहाल दोनों मॉडल, मौखिक और डिजिटल पेन की मदद से लिखित, को शामिल करने पर काम चल रहा है। आईबीएम का भी भविष्य में इसी तरह के मॉडल पर काम करने का इरादा है।(स्रोत फीचर्स)

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कोविड-19 मौतों में वायु प्रदूषण का योगदान

हाल ही में किए गए अध्ययनों से कोविड-19 से होने वाली मौतों और वायु प्रदूषण के सम्बंध का पता चला है। शोधकर्ताओं के अनुसार वैश्विक स्तर पर कोविड-19 से होने वाली 15 प्रतिशत मौतों का सम्बंध लंबे समय तक वायु प्रदूषण के संपर्क में रहने से है। जर्मनी और साइप्रस के विशेषज्ञों ने संयुक्त राज्य अमेरिका और चीन के वायु प्रदूषण, कोविड-19 और सार्स (कोविड-19 जैसी एक अन्य सांस सम्बंधी बीमारी) के स्वास्थ्य एवं रोग के आकड़ों का विश्लेषण किया है। यह रिपोर्ट कार्डियोवैस्कुलर रिसर्च नामक जर्नल में प्रकाशित हुई है।  

इस डैटा में विशेषज्ञों ने वायु में सूक्ष्म कणों की उपग्रह से प्राप्त जानकारी के साथ पृथ्वी पर उपस्थित प्रदूषण निगरानी नेटवर्क का डैटा शामिल किया ताकि यह पता लगाया जा सके कि कोविड-19 से होने वाली मौतों के पीछे वायु प्रदूषण का योगदान किस हद तक है। डैटा के आधार पर विशेषज्ञों का अनुमान है कि पूर्वी एशिया, जहां हानिकारक प्रदूषण का स्तर सबसे अधिक है, में कोविड-19 से होने वाली 27 प्रतिशत मौतों का दोष वायु प्रदूषण के स्वास्थ्य पर हुए असर को दिया जा सकता है। यह असर युरोप और उत्तरी अमेरिका में क्रमश: 19 और 17 प्रतिशत पाया गया। पेपर के लेखकों के अनुसार कोविड-19 और वायु प्रदूषण के बीच का यह सम्बंध बताता है कि यदि हवा साफ-सुथरी होती तो इन अतिरिक्त मौतों को टाला जा सकता था।

यदि कोविड-19 वायरस और वायु प्रदूषण से लंबे समय तक संपर्क एक साथ आ जाएं तो स्वास्थ्य पर, विशेष रूप से ह्रदय और फेफड़ों पर, काफी हानिकारक प्रभाव पड़ सकते हैं। टीम ने यह भी बताया कि सूक्ष्म-कणों के उपस्थित होने से फेफड़ों की सतह के ACE2 ग्राही की सक्रियता बढ़ जाती है और ACE2 ही सार्स-कोव-2 के कोशिका में प्रवेश का ज़रिया है। यानी मामला दोहरे हमले का है – वायु प्रदूषण फेफड़ों को सीधे नुकसान पहुंचाता है और ACE2 ग्राहियों को अधिक सक्रिय कर देता है जिसकी वजह से वायरस का कोशिका-प्रवेश आसान हो जाता है।

अन्य वैज्ञानिकों का मत है कि हवा में उपस्थित सूक्ष्म-कण इस रोग को बढ़ाने में एक सह-कारक के रूप में काम करते हैं। एक अनुमान है कि कोरोनावायरस से होने वाली कुल मौतों में से यू.के. में 6100 और अमेरिका में 40,000 मौतों के लिए वायु प्रदूषण को ज़िम्मेदार ठहराया जा सकता है।

देखने वाली बात यह है कि कोविड-19 के लिए तो टीका तैयार हो जाएगा लेकिन खराब वायु गुणवत्ता और जलवायु परिवर्तन के खिलाफ कोई टीका नहीं है। इनका उपाय तो केवल उत्सर्जन को नियंत्रित करना ही है।(स्रोत फीचर्स)

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मायोपिया से बचाव के उपाय – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

मायोपिया (निकट-दृष्टिता) उस स्थिति को कहते हैं जब व्यक्ति को दूर का देखने में कठिनाई होती है। यह पूरे भारत में महामारी का रूप लेता जा रहा है; दक्षिण-पूर्वी एशिया में तो यह समस्या और भी गंभीर है। मायोपिया किन्हीं हानिकारक कीटाणुओं के संक्रमण की वजह से नहीं बल्कि संभवत: मायोपिक जीन्स की भूमिका और आसपास की परिस्थितियों (जैसे लंबे समय तक पास से देखने वाले काम करना और/या धूप से कम संपर्क) के कारण होता है। कोविड-19 की तरह इसने अभी वैश्विक महामारी का रूप नहीं लिया है लेकिन हमारी परिवर्तित जीवन शैली (कमरों में सिमटी जीवन शैली) और खुली धूप में बिताए समय और स्तर में आई कमी के कारण यह एक वैश्विक महामारी बन सकती है। वक्त आ गया है कि मायोपिया से मुकाबले के उपाय किए जाएं।

मायोपिया क्या है?

मायोपिया या निकट-दृष्टिता तब होती है जब कॉर्निया और लेंस की फोकस करने की क्षमता के मुकाबले आंखों का नेत्रगोलक बड़ा हो जाता है, जिससे फोकस रेटिना की सतह पर ना होकर उसके पहले कहीं होने लगता है। इस कारण दूर की चीज़ें साफ दिखाई नहीं देतीं जबकि नज़दीक की चीज़ें स्पष्ट दिखाई दे सकती हैं, जैसे पढ़ने या कंप्यूटर पर काम करने में कोई परेशानी नहीं आती (allaboutvision.com)। वर्ष 2000 में दुनिया की लगभग 25 प्रतिशत आबादी निकट-दृष्टिता से पीड़ित थी। वर्ष 2050 तक (यानी अब से 30 वर्ष बाद) 50 प्रतिशत से अधिक लोगों के मायोपिया-पीड़ित होने की संभावना है।

वर्तमान में भारत में मायोपिया के बढ़ते प्रसार के आधार पर एल. वी. प्रसाद आई इंस्टीट्यूट के वैज्ञानिकों का अनुमान है कि यदि मायोपिया को नियंत्रित करने के उपाय न किए गए तो वर्ष 2050 तक भारत के सिर्फ शहरी क्षेत्रों में रहने वाले 5-15 वर्ष की उम्र के लगभग 6.4 करोड़ बच्चे मायोपिया से पीड़ित होंगे।

इस समस्या की रोकथाम के कई उपायों के बारे में हम पहले से ही जानते हैं। लेकिन हाल ही में हुआ एक अध्ययन बताता है कि बाहर या खुले में कम समय बिताने से मायोपिया हो सकता है। दिन के समय अंदर की तुलना में बाहर (खुले में) सूर्य का प्रकाश 10 से 100 गुना अधिक होता है। बाहर की रोशनी कई तरह से आंखों को मायोपिक होने से बचाने में मदद करती है। जैसे: (1) यदि आप किसी खुली जगह पर हैं और पास देखने वाला कोई काम नहीं कर रहे हैं तो आंखों पर ज़ोर कम पड़ता है। (2) बाहरी वातावरण रेटिना के किनारों के विभिन्न भागों को एक समान प्रकाश देता है और बाहर के परिवेश में इंद्रधनुष के सभी रंगों (तथाकथित vivgyor) से समान संपर्क होता है, जबकि अंदर के कृत्रिम प्रकाश में कुछ विशिष्ट तरंगदैर्ध्य नहीं होतीं। (3) सूर्य के तेज़ प्रकाश में आंखों की पुतली छोटी हो जाती है जो धुंधलापन कम करती है, और फोकस रेंज बढ़ाती है। (4) सूर्य के प्रकाश के संपर्क से अधिक विटामिन डी बनाने में मदद मिलती है। (5) अधिक प्रकाश का संपर्क डोपामाइन हार्मोन स्रावित करता है जो नेत्रगोलक की लंबाई नियंत्रित करता है; यह छोटा रहेगा तो मायोपिया नहीं होगा। (इस सम्बंध में, करंट साइंस में प्रकाशित रोहित ढकाल और पवन के. वर्किचार्ला का पेपर देखें: बाहर रहने का वक्त बढ़ाकर भारत के स्कूली बच्चों में मायोपिया के बढ़ते प्रसार को थामा जा सकता है)।

परिवार और शिक्षकों की तरफ से बच्चों पर पढ़ाई में श्रेष्ठ प्रदर्शन का बढ़ता दबाव, अत्यधिक होमवर्क, प्रवेश परीक्षाओं के लिए देर शाम या स्कूल के पहले की कोचिंग क्लासेस हाई स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों से सूरज की रोशनी छीन रहे हैं जिससे मायोपिया महामारी फैल रही है, और मध्य और पूर्वी एशियाई उपमहाद्वीप में एक उप-वैश्विक महामारी का रूप ले रही है।

सुझाव                                                             

एल. वी. प्रसाद आई इंस्टीट्यूट में मायोपिया का अध्ययन करने वाले शोधकर्ताओं, रोहित ढकाल और पवन वर्किचार्ला, ने सार्वजनिक स्वास्थ्य नीति के कुछ सुझाव दिए हैं। नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति के साथ इन सुझावों को अभी लागू किया जा सकता है। ये सुझाव हैं: सभी स्कूलों में प्रायमरी से लेकर हाई स्कूल तक के सभी छात्रों के लिए हर दिन एक घंटे का अवकाश (रेसेस) हो, जिस दौरान कक्षाओं के कमरे बंद कर दिए जाएं ताकि बच्चे धूप के संपर्क में रह सकें। रेसेस पाठ्यक्रम का व्यवस्थित अंग हो। स्कूलों में खेल का पर्याप्त मैदान अनिवार्य हो। पालकों में स्वस्थ दृष्टि के महत्व और स्मार्टफोन जैसी पास से देखी जाने वाली डिवाइसेस के उपयोग पर नियंत्रण के बारे में जागरूकता पैदा की जाए। प्रत्येक इलाके के सामुदायिक केंद्र के लिए सप्ताह में एक बार या कम से कम महीने में दो बार बाहर के कार्यक्रम आयोजित करने की सिफारिश की जाए/प्रचार किया जाए।

ये सभी बहुत सामान्य से सुझाव हैं मगर आर्थिक, वित्तीय, भवन सम्बंधी और सामाजिक कारणों से अब तक इन पर अमल नहीं किया गया है। लेकिन राज्य और केंद्र सरकारों के अधीन स्कूलों और कॉलेजों में तो कम से कम ये प्रयास किए जाने चाहिए। भविष्य हमें निहार रहा है – कहीं ऐसा ना हो कि हम एक से अधिक मायनों में दूरदर्शिता के अभाव से ग्रसित हो जाएं।

हाल ही में साइंटिफिक रिपोर्ट्समें एक्स. एन. लियू द्वारा प्रकाशित एक अध्ययन कहता है कि चीन में स्कूल जाने वाले बच्चों में देर से सोना मायोपिया का एक कारण हो सकता है। इस पेपर में शोधकर्ता बताते हैं कि कई वर्षों के अध्ययन से मायोपिया के लिए ज़िम्मेदार कई कारकों के बारे में पता चला है। जैसे, फैमिली हिस्ट्री, जेनेटिक कारण, शहरी जीवन शैली या परिवेश। अध्ययन यह भी बताता है कि सोने की कम अवधि और अच्छी नींद ना होना भी मायोपिया को जन्म दे सकते हैं। ये शरीर की सर्केडियन लय (जैविक घड़ी) में बाधा डालते हैं, खासकर मस्तिष्क में, और रेटिना को तनाव देते हैं। जल्दी सोना और गहरी नींद लेना मायोपिया की रोकथाम के उपाय हैं।

अंत में, हम जानते हैं कि वेब कक्षाओं के माध्यम से ऑनलाइन शिक्षण और टेलीविज़न के माध्यम से पढ़ाई मुश्किल हो रही है, खासकर ग्रामीण क्षेत्रों के गरीब बच्चों के लिए जिनके पास स्मार्टफोन नहीं है। यह पद्धति लॉकडाउन के दिनों के लिए तो मुनासिब हो सकती है लेकिन हमेशा के लिए शिक्षण की पद्धति नहीं बनना चाहिए। स्कूल खोले जाने चाहिए और दिन में कक्षाएं लगना चाहिए।(स्रोत फीचर्स)

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कुछ टीकों से एड्स जोखिम में वृद्धि की चेतावनी

हाल ही में दी लैंसेट पत्रिका में शोधकर्ताओं के एक समूह ने आगाह किया है कि कोविड-19 के कुछ टीकों से लोगों में एड्स वायरस (एचआईवी) के प्रति संवेदनशीलता बढ़ सकती है।

दरअसल साल 2007 में एडिनोवायरस-5 (Ad5) वेक्टर का उपयोग करके एचआईवी के लिए एक टीका बनाया गया था, जिसका प्लेसिबो-नियंत्रित परीक्षण किया गया था। परीक्षण में यह टीका असफल रहा और पाया गया कि जिन लोगों में एचआईवी संक्रमण की उच्च संभावना थी, टीका दिए जाने के बाद वे लोग एड्स के वायरस की चपेट में अधिक आए। इन नतीजों को देखते हुए दक्षिण अफ्रीका में चल रहे इसी टीके के अन्य अध्ययन को भी रोक दिया गया था।

अब, कोविड-19 की रोकथाम के लिए जो टीके बनाए जा रहे हैं उनमें से कुछ टीकों को बनाने में अलग-अलग एडिनोवायरस का उपयोग किया जा रहा है। विभिन्न एडिनोवायरस मामूली सर्दी-जुकाम, बुखार, डायरिया से लेकर तंत्रिका सम्बंधी समस्याओं तक के लिए ज़िम्मेदार हो सकते हैं। लेकिन कोविड-19 के चार प्रत्याशित टीकों में वेक्टर के रूप में एडिनोवायरस-5 का उपयोग किया गया है। इनमें से एक टीका चीन की केनसाइनो कंपनी द्वारा बनाया गया है, जिसका परीक्षण रूस और पाकिस्तान में लगभग 40,000 लोगों पर चल रहा है। इसके अलावा सऊदी अरब, ब्राज़ील, चिली और मेक्सिको में भी इसका परीक्षण करने का विचार है। एक अन्य टीका रूस के गेमालेया रिसर्च इंस्टीट्यूट द्वारा तैयार किया गया है जिसमें उन्होंने Ad5 और Ad26 वेक्टर के संयोजन का उपयोग किया है। इम्यूनिटीबायो नामक कंपनी द्वारा बनाए गए Ad5 आधारित टीके को भी अमेरिकी खाद्य एवं औषधि प्रशासन द्वारा मानव परीक्षण की मंज़ूरी मिल गई है। दक्षिण अफ्रीका में भी इसका परीक्षण होने की संभावना है।

चूंकि पूर्व में Ad5 आधारित टीके से लोगों में एचआईवी संक्रमण का जोखिम बढ़ गया था और अब कोविड-19 के लिए बने Ad5 आधारित टीकों का परीक्षण जल्द ही दक्षिण अफ्रीका जैसी उन जगहों पर भी शुरू होने की संभावना है जहां एचआईवी का प्रसार अधिक है, इसलिए एचआईवी टीके के अध्ययन में शामिल शोधकर्ताओं ने कोविड-19 के इन टीकों से एचआईवी संक्रमण का जोखिम बढ़ने की चेतावनी दी है। कोविड-19 रोकथाम नेटवर्क में शामिल लॉरेंस कोरे का मत है कि यदि कोविड-19 टीके के अन्य विकल्प हैं तो एचआईवी के जोखिम वाली जगहों पर ऐसे टीके नहीं चुनना चाहिए जिनसे एचआईवी का जोखिम और बढ़े। हालांकि यह तो पूरी तरह स्पष्ट नहीं है कि Ad5 आधारित टीका कैसे एचआईवी का जोखिम बढ़ाता है लेकिन लैंसेट में बताया गया है शायद यह एचआईवी इम्यूनिटी कम कर देता है, एड्स वायरस की प्रतियां बनाना बढ़ा देता है या अधिक कोशिकाएं मार गिराता है।

वहीं, इम्यूनिटीबायो कंपनी का कहना है कि पूर्व अध्ययन के परिणाम अस्पष्ट थे। नए टीके में Ad5 वायरस से चार ऐसे जीन्स हटा दिए गए हैं जो इस संभावना को ट्रिगर कर सकते हैं। उपयुक्त Ad5 वायरस 90 प्रतिशत उत्परिवर्तित है। इम्यूनिटीबायो ने दक्षिण अफ्रीका के वैज्ञानिकों और नियामकों के साथ वहां अपने टीके का परीक्षण करने के जोखिमों पर चर्चा की है। और उन्हें लगता है कि कम जोखिम वाले लोगों पर इसका परीक्षण किया जा सकता है। हो सकता है टीका वास्तव में प्रभावी हो।(स्रोत फीचर्स)

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