भारत में लगभग सितंबर 2020 से कोविड मामलों में निरंतर गिरावट
से ऐसा माना जा रहा था कि अब महामारी का प्रभाव कम हो रहा है। लेकिन फरवरी माह के
मध्य में देशव्यापी मामलों की संख्या 11000 प्रतिदिन से बढ़कर मार्च के अंतिम
सप्ताह में 50,000 प्रतिदिन हो गई। इन बढ़ते मामलों से निपटने के लिए नए प्रतिबंधों
के साथ टीकाकरण अभियान भी चलाया जा रहा है लेकिन इसकी गति धीमी है।
एंटीबॉडी सर्वेक्षण का निष्कर्ष था कि दिल्ली और मुंबई जैसे घनी आबादी वाले
क्षेत्रों में लगभग झुंड प्रतिरक्षा प्राप्त कर ली गई है। महामारी के जल्द अंत की
उम्मीद की जाने लगी थी लेकिन 700 ज़िलों में किए गए सर्वेक्षण में केवल 22 प्रतिशत
भारतीय ही वायरस के प्रभाव में आए हैं। इस दौरान कई नियंत्रण उपायों में काफी ढील
दी गई।
इस महामारी के दोबारा पनपने का कारण वायरस में उत्परिवर्तन बताया जा रहा है।
10,000 से अधिक नमूनों के जीनोम अनुक्रमण पर 736 में अधिक संक्रामक बी.1.1.7
संस्करण पाया गया है। यह संस्करण सबसे पहले यूके में पाया गया था। वर्तमान में
वैज्ञानिक अत्यधिक मामलों वाले ज़िलों में पाए गए दो उत्परिवर्तित संस्करणों का
अध्ययन कर रहे हैं – E484Q और L452L। ये दोनों उत्परिवर्तन प्रतिरक्षा प्रणाली से बच निकलने, एंटीबॉडी को चकमा देकर संक्रमण में वृद्धि के लिए ज़िम्मेदार माने जा रहे हैं
लेकिन अभी स्पष्ट प्रमाण नहीं है कि नए मामलों में वृद्धि इन संस्करणों के कारण
हुई है।
जलवायु की भूमिका को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता। कुछ वैज्ञानिकों के अनुसार
जिस तरह युरोप और अमेरिका में लोग ठंड के मौसम में अधिकांश समय घरों में बिताते
हैं उसी तरह भारत के लोग गर्मियों में घरों के अंदर रहना पसंद करते हैं। बंद
परिवेश में वायरस अधिक तेज़ी से फैलता है।
टीकाकरण के मामले में 5 प्रतिशत से कम भारतीयों को कम से कम टीके की पहली
खुराक मिल पाई है। कोविशील्ड और कोवैक्सीन दोनों ही टीकों की दो खुराक आवश्यक है।
वर्तमान में प्रतिदिन 20 से 30 लाख टीके दिए जा रहे हैं जिसे बढ़ाने के निरंतर
प्रयास जारी हैं। पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया के महामारी विज्ञानी गिरिधर
बाबू के अनुसार सरकार को प्रतिदिन एक करोड़ टीके का लक्ष्य निर्धारित करना चाहिए
ताकि 30 करोड़ लोगों को जल्द से जल्द कवर किया जा सके।
हालांकि अधिकारियों के अनुसार टीकों की आपूर्ति कोई समस्या नहीं है लेकिन
रॉयटर के अनुसार भारत ने घरेलू मांग को पूरा करने के लिए एस्ट्राज़ेनेका टीके के
निर्यात पर रोक लगा दी है। भारत ने जनवरी से लेकर अब तक ‘टीका कूटनीति’ के तहत 80
देशों को 6 करोड़ खुराकों का निर्यात किया है। वैसे सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया ने
चेतावनी दी है कि अमेरिका द्वारा निर्यात पर अस्थायी रोक से टीके के लिए आवश्यक
कच्चे माल की कमी से टीका आपूर्ति प्रभावित हो सकती है।
देखा जाए तो टीका लगवाने वालों में मध्यम और उच्च वर्ग के लोगों की संख्या
अधिक है और निम्न वर्ग के लोगों की संख्या काफी कम है। इसका मुख्य कारण जागरूकता
में कमी और श्रमिकों द्वारा दिन भर के काम से समय न निकाल पाना हो सकता है।
हालांकि मुंबई की झुग्गी बस्तियों में टीकाकरण शिविर लगाए जा रहे हैं लेकिन
टीकाकरण के भय को दूर करने के लिए बड़े पैमाने पर समुदाय-आधारित कार्यक्रम चलाने की
ज़रूरत है। टीकाकरण के प्रति शंका का एक कारण कोवैक्सीन को जल्दबाज़ी में दी गई
मंज़ूरी भी है।
इसके अलावा परीक्षणों के दौरान सहमति के उल्लंघन के समाचार और अपर्याप्त
पारदर्शिता ने भी लोगों के आत्मविश्वास को डिगाया है। मार्च में 29 डॉक्टरों और
शोधकर्ताओं के एक समूह ने जनवरी में शुरू हुए टीकाकरण अभियान के बाद से 80 लोगों
के मरने की सूचना दी है। यह मान भी लिया जाए कि मौतें टीके के कारण नहीं हुई हैं
तो भी याचिकाकर्ताओं के अनुसार सरकार को इसकी जांच करके निष्कर्षों का खुलासा करना
चाहिए। भारत ने अभी तक कोविशील्ड के उपयोग को रोका नहीं है जबकि क्लॉटिंग के गंभीर
मामलों के चलते 20 युरोपीय देशों ने इसके उपयोग को रोक दिया है।
फिलहाल दूसरी लहर को रोकने के लिए कई राज्यों और शहरों में सामाजिक समारोहों
पर रोक और अस्थायी तालाबंदी लगाई गई है। इसके साथ ही परीक्षण और ट्रेसिंग की
प्रक्रिया को भी अपनाया जा रहा है। हरिद्वार में महाकुम्भ आयोजन में कई प्रतिबंध
लगाए गए हैं। देखना यह कि पालन कितना हो पाता है। यहां 30 लाख से ज़्यादा लोगों के
शामिल होने का अनुमान है।
एक बात तय है कि यह वायरस अभी भी मौजूद है और समय-समय पर नए संस्करणों के साथ हमें आश्चर्यचकित करता रहेगा। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_image_-1280w__no_aspect/public/mumbai_1280p.jpg?itok=sPh5mCRF
सदियों से आर्सेनिक (संखिया) का इस्तेमाल विष की तरह किया
जाता रहा है। खानपान में मिला देने पर इसके गंध-स्वाद पता नहीं चलते। पहचान की नई
विधियां आने से अब हत्याओं में इसका उपयोग तो कम हो गया है लेकिन प्राकृतिक रूप
में मौजूद आर्सेनिक अब भी मानव स्वास्थ्य के लिए खतरा बना हुआ है। आर्सेनिक से
लंबे समय तक संपर्क कैंसर, मधुमेह और हृदय रोग जैसी
बीमारियों का खतरा बढ़ाता है।
लोगों के शरीर में विषाक्त अकार्बनिक आर्सेनिक पहुंचने का प्रमुख स्रोत है
दूषित पेयजल। इसे नियंत्रित करने के काफी प्रयास किए जा रहे हैं और इस पर काफी शोध
भी चल रहे हैं। वैसे चावल व कुछ अन्य खाद्य पदार्थों में भी थोड़ी मात्रा में
आर्सेनिक पाया जाता है लेकिन मात्रा इतनी कम होती है कि इससे लोगों के स्वास्थ्य
को खतरा बहुत कम होता है। इसके अलावा सीफूड में भी अन्य रूप में आर्सेनिक पाया
जाता है जो मानव स्वास्थ्य के लिए इतना घातक नहीं होता।
विश्व स्वास्थ्य संगठन ने पेयजल में आर्सेनिक का अधिकतम सुरक्षित स्तर 10 पार्ट्स
प्रति बिलियन (पीपीबी) माना है। और वर्तमान में दुनिया के लगभग 14 करोड़ लोग नियमित
रूप से इससे अधिक आर्सेनिक युक्त पानी पी रहे हैं।
वर्ष 2006 में, शोधकर्ताओं ने बताया था कि भ्रूण और नवजात
शिशुओं के शरीर में आर्सेनिक संदूषित पानी पहुंचने से आगे जाकर उनकी फेफड़ों के
कैंसर से मरने की संभावना छह गुना अधिक थी। इसे समझने के लिए जीव विज्ञानी रेबेका
फ्राय ने दक्षिणी बैंकाक के एक पूर्व खनन क्षेत्र में गर्भवती महिलाओं और उनके
बच्चों पर अध्ययन कर मानव कोशिकाओं और जीन्स पर होने वाले आर्सेनिक के प्रभावों की
गहराई से पड़ताल की। इसके बाद 2008 में उनकी टीम ने भ्रूण विकास में आर्सेनिक के
प्रभाव को समझा।
वे बताती हैं कि आर्सेनिक प्रभावित लोगों की सबसे अधिक संख्या भारत के पश्चिम
बंगाल के इलाकों और बांग्लादेश में है। बांग्लादेश के लगभग 40 प्रतिशत पानी के
नमूनों में 50 पीपीबी से अधिक और 5 प्रतिशत नमूनों में 500 पीपीबी से अधिक
आर्सेनिक पाया गया है। इसी तरह यूएस में उत्तरी कैरोलिना से प्राप्त कुल नमूनों
में से 1400 में आर्सेनिक का स्तर 800 पीपीबी था। संभावना यह है कि वैज्ञानिक 100
पीपीबी से अधिक स्तर वाले अधिकांश स्थानों के बारे में तो जानते हैं क्योंकि यहां
प्रभावित लोगों में त्वचा के घाव दिखते हैं, लेकिन
इससे कम स्तर वाले आर्सेनिक दूषित कई स्थान अज्ञात हैं।
दरअसल अपरदन के माध्यम से चट्टानों में मौजूद खनिज मिट्टी में आर्सेनिक छोड़ते
रहते हैं। फिर मिट्टी से यह भूजल में चला जाता है। इस तरह की भूगर्भीय प्रक्रियाएं
भारत,
बांग्लादेश और संयुक्त राज्य अमेरिका सहित अधिकांश देशों
में आर्सेनिक दूषित पेयजल का मुख्य कारण हैं। मानव गतिविधियां, जैसे खनन और भूतापीय ऊष्मा उत्पादन, आर्सेनिक के पेयजल में
मिलने की प्रक्रिया को बढ़ाते हैं। इसका एक उदाहरण है कोयला जलने के बाद उसकी बची हुई
राख,
जिसमें आर्सेनिक व अन्य विषाक्त पदार्थ होते हैं।
शरीर में आर्सेनिक को अन्य यौगिकों में बदलने का काम मुख्यत: एक एंज़ाइम
आर्सेनाइट मिथाइलट्रांसफरेस द्वारा अधिकांशत: लिवर में किया जाता है। इसके
परिणामस्वरूप मोनोमिथाइलेटेड (MMA) और डाइमिथाइलेटेड (DMA) आर्सेनिक बनता है। अपरिवर्तित आर्सेनिक, MMA और DMA मूत्र के साथ शरीर से बाहर निकल जाते हैं। लेकिन आर्सेनिक के इन तीनों रूपों
का स्वास्थ्य पर अलग-अलग प्रभाव पड़ता है। अधिकतर लोगों के मूत्र में MMA की तुलना में DMA की मात्रा अधिक होती है।
आर्सेनिक के इन दोनों रूपों का अनुपात कई बातों पर निर्भर होता है। आर्सेनिक से
हाल में हुए संपर्क की पड़ताल पेशाब के नमूनों के ज़रिए हो जाती है। नाखूनों में
इनकी उपस्थिति अत्यधिक आर्सेनिक संदूषण दर्शाती है। और अंदेशा है कि मां के मूत्र
और गर्भनाल के ज़रिए भी भ्रूण का आर्सेनिक से प्रसव-पूर्व संपर्क हो सकता है।
शरीर में MMA और DMA के अनुपात पर निर्भर होता है कि आर्सेनिक मानव स्वास्थ्य
को किस तरह प्रभावित करेगा। यदि मूत्र में MMA का स्तर अधिक है तो यह विभिन्न तरह के कैंसर का खतरा बढ़ाता
है। इसमें फेफड़े,
मूत्राशय और त्वचा के कैंसर होने का खतरा सबसे अधिक होता
है। वहीं यदि मूत्र में DMA का स्तर अधिक है तो यह मधुमेह की आशंका को बढ़ाता है। इन जोखिमों की तीव्रता
क्षेत्र के पेयजल में आर्सेनिक के स्तर और व्यक्ति के शरीर में आर्सेनिक को
संसाधित करने के तरीके पर निर्भर होती है। अलग-अलग असर को देखते हुए एक बात तो तय
है कि हमें अभी इस बारे में काफी कुछ जानना है कि आर्सेनिक और उससे बने पदार्थ
विभिन्न कोशिकाओं और ऊतकों को किस तरह प्रभावित करते हैं।
चूंकि आर्सेनिक गर्भनाल को पार कर जाता है, इसलिए
भ्रूण का स्वास्थ्य भी चिंता का विषय है। कुछ अध्ययनों में देखा गया है कि
प्रसव-पूर्व और शैशव अवस्था में आर्सेनिक का संपर्क मस्तिष्क विकास को प्रभावित
करता है। मेक्सिको में किए गए अध्ययन में पाया गया कि जन्म के पूर्व आर्सेनिक से
संपर्क के चलते शिशु का वज़न कम रहता है। अन्य अध्ययनों से पता है कि जन्म के समय
कम वज़न आगे जाकर उच्च रक्तचाप, गुर्दों की बीमारी और मधुमेह
का खतरा बढ़ाता है।
वास्तव में किसी व्यक्ति के स्वास्थ्य को आर्सेनिक से कितना खतरा है यह
आर्सेनिक की मात्रा और व्यक्ति की आनुवंशिकी, दोनों
पर निर्भर करता है। आर्सेनिक को परिवर्तित करने वाले एंज़ाइम का प्रमुख जीन AS3MT है। इस जीन के कई संस्करण पाए
जाते हैं,
जिनसे उत्पन्न एंज़ाइम की कुशलता अलग-अलग होती है। आर्सेनिक
का तेज़ी से रूपांतरण हो, तो मूत्र में MMA की कम और DMA की अधिक मात्रा आती है।
आर्सेनिक का प्रभाव इस बात पर भी निर्भर करता है कि हमारे जीन किस तरह व्यवहार
करते हैं। हमारे शरीर में 2000 से अधिक प्रकार के माइक्रोआरएनए (miRNA) होते हैं। miRNA डीएनए अनुक्रमों द्वारा बने
छोटे अणु हैं जो प्रोटीन के कोड नहीं होते हैं। प्रत्येक miRNA सैकड़ों संदेशवाहक आरएनए (mRNA) अणुओं से जुड़कर प्रोटीन निर्माण को बाधित कर सकता है। और mRNA के ज़रिए जीन की अभिव्यक्ति
होती है। आर्सेनिक miRNA की
गतिविधि को संशोधित कर, जीन अभिव्यक्ति को बदल सकता है।
यह दिलचस्प है कि अतीत में हुए आर्सेनिक संपर्क का असर AS3MT जीन पर नज़र आता है। जैसे, अर्जेंटीना के एंडीज़ क्षेत्र के एक छोटे से इलाके के निवासी हज़ारों वर्षों से
अत्यधिक आर्सेनिक युक्त पानी पी रहे हैं। सामान्यत: उनमें कैंसर और असमय मृत्यु का
प्रकोप अधिक होना चाहिए। लेकिन प्राकृतिक चयन के माध्यम से ये लोग उच्च-आर्सेनिक
के साथ जीने के लिए अनुकूलित हो गए हैं।
आर्सेनिक के असर की क्रियाविधि काफी जटिल है, और यह
कोशिका के प्रकार पर निर्भर करता है। अलबत्ता, मुख्य
बात हमारे शरीर में जीन के अभिव्यक्त होने या न होने की है।
यदि यह हमारे डीएनए की मरम्मत करने वाले जीन को बंद कर देगा या ट्यूमर
कोशिकाओं की वृद्धि होने देगा तो परिणाम कैंसर के रूप में सामने आएगा। यदि यह उन
जीन्स को बाधित कर देगा जो अग्न्याशय में इंसुलिन स्रावित करवाते हैं या अन्य
कोशिकाओं को इंसुलिन के प्रति प्रतिक्रिया देने में मदद करते हैं तो परिणाम मधुमेह
के रूप में दिखेगा। इस तरह डीएनए अनुक्रम को बदले बिना जीन अभिव्यक्ति को बदलने की
क्रिया को एपिजेनेटिक्स कहते हैं।
एक एपिजेनेटिक तंत्र में miRNA की भूमिका होती है। अध्ययनों में देखा गया है कि आर्सेनिक miRNA की गतिविधि को प्रभावित कर
सकता है।
एक और एपिजेनेटिक विधि है डीएनए मिथाइलेशन। किसी विशिष्ट डीएनए अनुक्रम में
मिथाइल समूह के जुड़ने पर आर्सेनिक की भूमिका हो सकती है। जिससे जीन अभिव्यक्ति कम
हो सकती है या बाधित हो सकती है।
KCNQ1 जीन
एक दिलचस्प उदाहरण है। आम तौर पर हमारे माता-पिता दोनों से मिली जीन प्रतियां
हमारी कोशिकाओं में व्यक्त हो सकती हैं। लेकिन KCNQ1 उन चुनिंदा जीन्स में से है
जिनकी अभिव्यक्ति इस बात से तय होती है कि वह मां से आया है या पिता से। दूसरी
प्रति गर्भावस्था में ही मिथाइलेशन द्वारा बंद कर दी जाती है।
मेक्सिको में हुए अध्ययन में देखा गया कि प्रसव-पूर्व आर्सेनिक-संपर्क अधिक KCNQ1
मिथाइलेशन और निम्न जीन अभिव्यक्ति से जुड़ा है। KCNQ1 भ्रूण के विकास में
महत्वपूर्ण है। यही जीन अग्न्याशय में इंसुलिन स्रावित करने के लिए भी ज़िम्मेदार
है। यानी इस जीन की अभिव्यक्ति में कमी रक्त में शर्करा का स्तर बढ़ा सकती है।
आर्सेनिक के शरीर पर पड़ने वाले प्रभावों को कम करने की दिशा में जल उपचार, पोषण और आनुवंशिक हस्तक्षेप सम्बंधी अध्ययन किए जा रहे हैं।
उत्तरी कैरोलिना के अध्ययनों में देखा गया कि नलों में कम लागत का फिल्टर
लगाकर पानी में आर्सेनिक का स्तर कम किया जा सकता है। लेकिन समस्या यह है कि यह
धीमी गति से फिल्टर करता है। अन्य शोधकर्ता यह जानने का प्रयास कर रहे हैं कि
कितनी गहराई के नलकूपों में आर्सेनिक की मात्रा कम होती है। इससे नलकूप खनन के लिए
नए दिशानिर्देश बनाने में मदद मिलेगी।
पोषण सम्बंधी कारकों पर भी ध्यान दिया जा रहा है। जैसे, 2006 में बांग्लादेश में किए गए एक परीक्षण में पता चला था कि फोलिक एसिड की
खुराक वयस्कों में आर्सेनिक विषाक्तता के असर को कम करती है। आंत का सूक्ष्मजीव
संसार भी इस विषाक्तता को कम करने में मदद कर सकता है। देखा गया है कि चूहों की
आंत में मौजूद सूक्ष्मजीव लगभग संपूर्ण आर्सेनिक को DMA में बदल देते हैं। अधिक DMA यानी कैंसर के जोखिम में कमी। यह अध्ययन भी जारी है कि
क्या पोषण की मदद से मानव आंत के सूक्ष्मजीव आर्सेनिक विषाक्तता को कम कर सकते
हैं।
जहां तक जेनेटिक हस्तक्षेप का सवाल है, तो यह
तो पता था कि चूहे बड़ी कुशलता से संपूर्ण आर्सेनिक को DMA में परिवर्तित कर लेते हैं, लेकिन
यह स्पष्ट नहीं था कि ये परिणाम मनुष्यों के संदर्भ में कितने कारगर होंगे। इस
संदर्भ में शोधकर्ताओं के एक दल ने एक नया माउस स्ट्रेन विकसित किया जिसमें AS3MT जीन का मानव संस्करण मौजूद
था। ऐसा करने पर उन्हें चूहों के मूत्र में भी मनुष्यों की तरह DMA और MMA का स्तर मिला। एक अन्य दल miRNA के प्रभावों का अध्ययन कर रहा है।
उम्मीद है कि विभिन्न रणनीतियों को अपना कर दुनिया भर में आर्सेनिक की विषाक्तता को कम करने के उपाय ढूंढने में मदद मिलेगी। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://static.scientificamerican.com/sciam/assets/Image/2021/G-dna-methylation-alt.png
चीन में हुए कुछ अध्ययनों से पता चला है कि कोरोनावायरस
फ्रोज़न सतहों से फैल सकता है। लेकिन डबल्यूएचओ की टीम ने कहा है कि महामारी की
शुरुआत इस रास्ते से नहीं हुई है।
फरवरी में एक प्रेसवार्ता में टीम ने कोरोनावायरस के चमगादड़ों से एक मध्यवर्ती
जीव के मार्फत मनुष्यों में प्रवेश की बात की। टीम का मत है कि चीनी फार्मस में जंगली जीवों का फ्रोज़न मांस वायरस के शुरुआती मामलों का कारण हो सकता है।
अलबत्ता टीम के एक सदस्य डोमिनिक डायर के मुताबिक यह जानना ज़रूरी है कि फ्रोज़न
वन्यजीव संक्रमित कैसे हुए।
लगता तो यह है कि डबल्यूएचओ द्वारा फ्रोज़न मांस की जांच के सुझाव का गलत अर्थ
निकाला गया है। वायरस के फ्रोज़न सतह से फैलने के विचार के आधार पर कहा गया कि यह
वायरस विदेशों से आयात किए गए फ्रोज़न वन्यजीवों के साथ वुहान में आया है। इसी तरह
बाद के मामलों के पीछे भी आयातित फ्रोज़न फूड को दोषी ठहराया गया। चीन के
वैज्ञानिकों ने भी फ्रोज़न मांस से वायरस फैलने के साक्ष्य प्रस्तुत किए हैं।
दूसरी ओर,
चीन के बाहर के कई वैज्ञानिकों ने इस ‘कोल्ड चेन’ सिद्धांत
को खारिज कर दिया है और इसे आलोचनाओं से बचने का एक प्रयास बताया है। उनके अनुसार
संक्रमित सतहों से सार्स-कोव-2 का फैलना बहुत कम संभव है।
बहरहाल,
कुछ अध्ययन सतह से संक्रमण की संभावना को दर्शाते हैं।
अगस्त में सिंगापुर के शोधकर्ताओं द्वारा बायोआर्काइव्स में प्रकाशित एक
रिपोर्ट में बताया गया कि सार्स-कोव-2 वायरस फ्रोज़न या फ्रिज में रखे मांस पर तीन
सप्ताह से अधिक समय तक संक्रामक रह सकता है। वैसे इस पेपर की समकक्ष समीक्षा नहीं
की गई है। इसके दो माह बाद चीनी शोधकर्ताओं ने ज़िनफादी बाज़ार में जून में फैले
प्रकोप को भी फ्रोज़न मांस से जोड़कर देखा। इसमें पहला मामला बिना किसी सामुदायिक
प्रसार के 56 दिन के बाद सामने आया जिसमें सार्स-कोव-2 का एक विशिष्ट स्ट्रेन पाया
गया। जांचकर्ताओं ने यही स्ट्रेन कोल्ड स्टोरेज में रखी साल्मन मछली पर भी पाया
था।
इसी तरह नवंबर में प्रकाशित तीसरे अध्ययन में चीनी वैज्ञानिकों के एक अन्य
समूह ने शैनडांग के पूर्वी प्रांत किंगडाओ बंदरगाह के कर्मचारियों में संक्रामक
वायरस का पता लगाया जो फ्रोज़न कॉड मछली की पैकेजिंग का काम करते थे। वैज्ञानिक के
अनुसार इस संक्रमण का कारण फ्रोज़न कॉड हो सकता है। इन रिपोर्ट्स के आधार पर चीनी
अधिकारियों ने नवंबर में सभी फ्रोज़न सामग्रियों के अनिवार्य विसंक्रमण के निर्देश
दिए थे।
डबल्यूएचओ की टीम महामारी के शुरुआती मामलों के पीछे खाद्य सामग्री या
पैकेजिंग से संक्रमण के विचार से सहमत नहीं है। जांचकर्ता ये ज़रूर मानते हैं कि
वायरस से संक्रमित कोई जीव हुनान सीफूड बाज़ार में शुरुआती प्रकोप का कारण हो सकता
है। डायर के अनुसार ऐसी भी संभावना है कि बाज़ार में किसी संक्रमित व्यक्ति या
उत्पाद के आने से यह प्रकोप फैल गया हो।
देखा जाए तो जनवरी 2020 में हुनान बाज़ार के बंद होने से पहले तक वहां की 653
में से 10 दुकानों पर फार्म से लाए गए जीवित या फ्रोज़न वन्यजीव बेचे जाते थे। डायर
के अनुसार रैकून और बिज्जू कोरोनावायरस के प्रति अतिसंवेदनशील होते हैं। लेकिन
बाज़ार बंद होने के बाद जब मांस, जीव और यहां तक कि उनके फ्रोज़न
मृत शरीर के नमूनों का अध्ययन किया गया तो किसी में भी सार्स-कोव-2 नहीं मिला, हालांकि नमूनों की कम संख्या को देखते हुए इस संभावना को खारिज नहीं किया जा
सकता।
युनिवर्सिटी ऑफ क्वींसलैंड के एंड्रयू ब्रीड के अनुसार वायरस से संक्रमित
फ्रोज़न शवों के हैंडलिंग के दौरान संक्रमण का खतरा हो सकता है। यह विशेष रूप से
मध्यवर्ती जीवों के लिए सही हो सकता है जिनका प्रतिरक्षा तंत्र संक्रमण से निपटने
के लिए अनुकूलित नहीं होता और वे काफी मात्रा में वायरस बिखेरते हैं। अफ्रीका में
एबोला प्रकोप के दौरान ऐसा मामला देखा गया था। लेकिन पूरी जानकारी के अभाव में कुछ
भी स्पष्ट कह पाना संभव नहीं है।
इसी बीच जीवित जानवरों से सार्स-कोव-2 के फैलने की संभावना भी जताई जा रही है। चीन में अधिकतर जीवित जानवरों का व्यापार किया जाता है जिससे जीवों से मनुष्यों में वायरस फैलने की अधिक संभावना रहती है। इनमें से कई जीव चीन के दूरदराज़ फार्म से बाज़ार में लाए जाते हैं। ऐसे में विभिन्न प्रजातियों के जीवों के एक स्थान पर आने से नए वायरस उत्पन्न होने की संभावना बनी रहती है। डायर के अनुसार वुहान बाज़ार में उत्पादों को पहुंचाने वाले वन्यजीव कर्मचारियों में सार्स-कोव-2 की एंटीबॉडी तलाशना इसमें काफी निर्णायक हो सकता है। (स्रोत फीचर्स) नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://media.nature.com/lw800/magazine-assets/d41586-021-00495-0/d41586-021-00495-0_18896774.jpg
मानव इतिहास में दर्ज सबसे जानलेवा बीमारियों के बारे में
सोचें तो ब्लैक डेथ, प्लेग, स्पैनिश
फ्लू और कोविड-19 की ओर ध्यान जाता है। इन जानलेवा महामारियों में लाखों लोग मारे
गए। लेकिन आंकड़ों को देखें तो पता चलता है कि इन महामारियों की तुलना में टीबी से
होने वाली मौतों की संख्या अधिक है। पिछले 2000 सालों में टीबी के कारण एक अरब से
अधिक लोग मारे गए हैं, और वर्तमान में हर साल दुनिया भर में लगभग
15 लाख लोग टीबी की वजह से मारे जाते हैं। लेकिन यह रहस्य लंबे समय से बना हुआ है
कि टीबी कब और कैसे इतनी घातक हो गई।
हाल ही में शोधकर्ताओं ने पता लगाया है कि किस तरह टीबी ने लौह युगीन युरोप
में रहने वाले लोगों की प्रतिरक्षा प्रणाली में बदलाव किया था। दरअसल दो साल पूर्व
युनिवर्सिटी ऑफ पेरिस के शोधकर्ता गैसपर्ड कर्नर ने पाया था कि जिन लोगों में TKY2 नामक प्रतिरक्षा जीन के P1104A नामक दुर्लभ संस्करण की दो प्रतियां होती हैं उन लोगों के
टीबी से गंभीर रूप से संक्रमित होने की संभावना अधिक होती है। इसके बाद पॉश्चर
इंस्टीट्यूट के साथ उन्होंने क्वीन्टाना-मर्सी के नेतृत्व में पिछले 10,000 साल के
1013 युरोपीय लोगों के जीनोम का विश्लेषण कर यह पता लगाया था कि यह दुर्लभ जीन
संस्करण कब-कब और कितने अधिक लोगों में उभरा। इस दौरान शोधकर्ताओं को विचार आया कि
इसकी मदद से यह भी पता लगाया जा सकता है कि प्रतिरक्षा जीन टीबी के साथ-साथ किस
तरह सह-विकसित हुआ है।
टीबी का सबसे पहला प्रमाण कृषि के आविष्कार के तुरंत बाद, लगभग 9000 साल पहले के मध्य-पूर्व क्षेत्र में दफन कंकालों में मिलता है।
लेकिन टीबी बैक्टीरिया का मौजूदा संस्करण – माइकोबैक्टीरियम ट्यूबरकुलोसिस
– जो लोगों के लिए घातक साबित हो सकता है, वह
लगभग 2000 साल पहले उभरा था, जब लोग पालतू जानवरों के साथ
घनी बस्तियों में रहा करते थे। ये बस्तियां अक्सर टीबी बैक्टीरिया के भंडार की तरह
काम करती थीं।
अध्ययन में शोधकर्ताओं ने पाया कि प्रतिरक्षा जीन का P1104A उत्परिवर्तन प्राचीन है। यह संस्करण लगभग 8500 साल पूर्व एनाटोलिया (आजकल का
तुर्की) में रहने वाले एक किसान के डीएनए में पाया गया है और उनकी गणना के मुताबिक
यह उत्परिवर्तन कम से कम 30,000 साल पुराना है। जब एनाटोलिया के किसानों और यमनाया
चरवाहों ने मध्य युरोप का रुख किया तो उन्होंने जीन के इस संस्करण को फैलाया।
अध्ययन में पाया गया कि लगभग 5000 साल पहले तक यह संस्करण लगभग तीन प्रतिशत
युरोपीय आबादी में था। फिर कांस्य युग के मध्य, लगभग
3000 साल पहले तक, यह युरोप के लगभग 10 प्रतिशत लोगों में फैल
चुका था। लेकिन इसके बाद फिर इसके प्रसार में कमी आई और तब से अब तक यह लगभग 2.9
प्रतिशत युरोपीय आबादी में दिखाई देता है।
प्राचीन डीएनए अध्ययनों के अनुसार, यह कमी उस दौरान आई जब
टीबी का मौजूदा घातक संस्करण उभर रहा था। शोधकर्ताओं ने कंप्यूटर सिमुलेशन की मदद
से यह भी पता किया कि कैसे आबादी के आकार और लोगों के प्रवास ने जीन के प्रसार की
आवृत्ति को प्रभावित किया है। उन्होंने बताया कि जिन लोगों में प्रतिरक्षा जीन के
दुर्लभ संस्करण की दो प्रतियां थीं उनमें से लगभग 20 प्रतिशत लोगों की जान टीबी के
कारण गई थी या वे इससे गंभीर रूप से बीमार हुए थे। इनमें से कुछ ही लोगों की
संतानें कांस्य युग के बाद तक जीवित रह सकी थीं। दी अमेरिकन जर्नल ऑफ ह्यूमन
जेनेटिक्स में शोधकर्ता बताते हैं कि नतीजतन, इस
घातक जीन को कम करने के लिए प्राकृतिक चयन ने तेज़ी और दृढ़ता से काम किया और इस संस्करण
में कमी आई। यदि मनुष्य में इस जीन संस्करण की दो प्रतियां होंगी और साथ ही वहां
टीबी फैला होगा तो यह आबादी के लिए जोखिमपूर्ण होगा।
यह अध्ययन तो यह समझने के लिए मात्र शुरुआत है कि हमारी प्रतिरक्षा प्रणाली विशिष्ट रोगजनकों के साथ किस तरह विकसित होती है। बहरहाल कुछ शोधकर्ता चिंता जताते हैं कि यह जानने की तत्काल आवश्यकता है कि P1104A संस्करण दुनिया में कितना फैला है। टीबी वाले देशों जैसे भारत, इंडोनेशिया, चीन और अफ्रीका के कुछ हिस्सों की आबादी में तो यह संस्करण दुर्लभ है, लेकिन यूके बायोबैंक डैटाबेस के अध्ययन में देखा गया है कि प्रत्येक 600 में से एक ब्रिटिश व्यक्ति में इस संस्करण की दो प्रतियां उपस्थित हैं। यदि वहां टीबी का प्रकोप होगा तो वे गंभीर संक्रमण या मृत्यु के अत्यधिक जोखिम में होंगे। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_image_-1280w__no_aspect/public/TBGB_1280p.jpg?itok=lYNmjqW1
इन दिनों अमेरिकी कंपनी जॉनसन एंड जॉनसन के टीके को यूएस के
खाद्य व औषधि प्रशासन ने आपात उपयोग की स्वीकृति दे दी है। स्वीकृति के निर्णय के
पीछे कंपनी द्वारा टीके की प्रभाविता सम्बंधी आंकड़े महत्वपूर्ण रहे। समय-समय पर
विभिन्न टीकों की प्रभाविता सम्बंधी आंकड़े प्रकाशित होते रहे हैं।
देखा जाए तो टीके के परीक्षणों में प्रभाविता का पता लगाना महत्वपूर्ण है
लेकिन पेचीदा भी है। यदि किसी टीके की प्रभाविता 95 प्रतिशत है तो इसका मतलब यह
नहीं कि टीका प्राप्त पांच प्रतिशत लोग कोविड-19 से बीमार हो जाएंगे। यह भी ज़रूरी
नहीं कि परीक्षण के दौरान किसी टीके की अधिक प्रभाविता के कारण उसे अन्य टीकों की
तुलना में बेहतर माना जाए।
वास्तव में प्रभाविता यह दर्शाती है कि एक टीका किस हद तक बीमार पड़ने के जोखिम
को कम कर सकता है। उदाहरण के लिए, जॉनसन एंड जॉनसन कंपनी ने सबसे
पहले यह देखा कि कितने लोग कोविड-19 टीका लगने के बावजूद बीमार हुए हैं। इसके बाद
उन्होंने प्लेसिबो प्राप्त कोविड-19 से ग्रसित लोगों से इसकी तुलना की। इसके बाद
जोखिम के अंतर की गणना प्रतिशत में की गई। यदि यह अंतर शून्य प्रतिशत हो तो इसका
मतलब है टीकाकृत लोग उतने ही जोखिम में हैं जितना प्लेसिबो प्राप्त लोग। दूसरी ओर, यदि अंतर 100 प्रतिशत हो तो इसका मतलब होगा कि टीके द्वारा जोखिम को पूरी तरह
से समाप्त कर दिया गया है। अमेरिका के परीक्षण स्थल पर जॉनसन एंड जॉनसन ने 72
प्रतिशत प्रभाविता पाई है।
गौरतलब है कि प्रभाविता परीक्षण पर परीक्षण के स्थान जैसे कई कारकों का असर
पड़ता है। जॉनसन एंड जॉनसन ने अमेरिका, लैटिन अमेरिका और दक्षिण
अफ्रीका में परीक्षण किया है। इसमें तीनों स्थानों की समग्र प्रभाविता अमेरिका में
अनुमानित प्रभाविता से कम पाई गई। इसका संभावित कारण यह हो सकता है दक्षिण अफ्रीका
परीक्षण में नए (बी.1.351) संस्करण के आने के बाद किया गया था। इस संस्करण में कुछ
ऐसे उत्परिवर्तन पाए गए हैं जो टीकाकरण से प्राप्त एंटीबॉडी से बच निकलने में
सक्षम थे। हालांकि इससे टीका पूरी तरह असरहीन नहीं हुआ और दक्षिण अफ्रीका में भी
प्रभाविता 64 प्रतिशत दर्ज की गई।
इसके अलावा,
प्रभाविता का आंकड़ा इस बात पर भी निर्भर करता है कि किस
परिणाम में अंतर को देखा जा रहा है। उदाहरण के लिए, जॉनसन
एंड जॉनसन के टीके ने कोविड-19 के गंभीर मामलों के खिलाफ 85 प्रतिशत प्रभविता
दर्शाई। यानी इस टीके से अस्पताल में भर्ती लोगों की संख्या और मौतों को कम किया
जा सकता है।
पिछले वर्ष एफडीए ने कोरोनावायरस टीके के परीक्षण के लिए मापदंड निर्धारित किए
थे। इसमें प्रत्येक टीका निर्माता को 50 प्रतिशत प्रभाविता और 30 प्रतिशत विश्वसनीयता
प्रदर्शित करना अनिवार्य था। 30 प्रतिशत विश्वसनीयता या कॉन्फिडेन्स इंटरवल से पता
चलता है कि वास्तविक मान किन आंकड़ों के बीच रहने की संभावना 30 प्रतिशत है। अभी तक
फाइज़र एवं बायोएनटेक, मॉडर्ना और जॉनसन एंड जॉनसन द्वारा निर्मित
तीन टीके एफडीए के निर्धारित लक्ष्यों को पूरा कर पाए हैं। इसके अलावा, एस्ट्राज़ेनेका और नोवावैक्स तथा स्पुतनिक वी ने अन्य देशों में किए गए
प्रभाविता अध्ययन के परिणाम प्रकाशित किए हैं।
कई कारणों से इन सभी टीकों के बीच सटीक तुलना करना संभव नहीं है। ऐसा संभव है
कि एक टीके का पॉइंट एस्टीमेट दूसरे टीके की तुलना में अधिक हो लेकिन उनके विश्वसनीयता
के परास एक समान हो सकते हैं। ऐसे में उनके परिणामों की तुलना नहीं की जा सकती।
इसके अलावा टीकों का परीक्षण महामारी के विभिन्न चरणों में विभिन्न लोगों पर किया
गया है। प्रभाविता को भी अलग-अलग तरीकों से मापा गया है। उदाहरण के लिए जॉनसन एंड
जॉनसन ने टीके की पहली खुराक के 28 दिन बाद प्रभाविता का मापन किया जबकि मॉडर्ना
ने दूसरी खुराक के 14 दिन बाद मापा था। अलबत्ता, ये
तीनों टीके कोविड-19 के जोखिम को काफी हद तक कम करते हैं।
सभी टीकों ने अस्पताल में भर्ती होने की ज़रूरत और मृत्यु की रोकथाम में उच्च
प्रभाविता दर्शाई है। उदाहरण के लिए जॉनसन एंड जॉनसन का टीका पाने वाले एक भी
व्यक्ति को टीका लगने के 28 दिनों और उससे अधिक समय बाद भी कोविड-19 संक्रमण के
कारण अस्पताल में भर्ती नहीं होना पड़ा था दूसरी ओर, प्लेसिबो
प्राप्त 16 लोगों को भर्ती होना पड़ा था। यानी प्रभाविता 100 प्रतिशत है जिसमें
74.3 प्रतिशत से 100 प्रतिशत तक का कॉन्फिडेन्स इंटरवल पाया गया।
गौरतलब है कि नैदानिक परीक्षण वास्तव में टीकों पर शोध की शुरुआत भर है। इनके व्यापक उपयोग के बाद प्रभाविता की बजाय प्रभावशीलता को मापा जाता है। इससे यह पता लगाया जा सकता है कि वास्तविक परिस्थिति में कोई टीका किस हद तक बीमारी के जोखिम से बचा सकता है। हालांकि शुरुआती अध्ययन से कोरोनावायरस टीकों द्वारा मज़बूत सुरक्षा मिलने की पुष्टि हुई है, लेकिन आने वाले समय में शोधकर्ताओं की नज़र टीके की प्रभावशीलता पर रहेगी। कुछ भी बदलाव होने पर नए टीकों का निर्माण किया जाएगा और टीका निर्माता प्रभाविता के नए आंकड़े प्रस्तुत करेंगे। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.nytimes.com/interactive/2021/03/03/science/vaccine-efficacy-coronavirus.html
विगत 9 फरवरी को वुहान में आयोजित पत्रकार वार्ता में विश्व
स्वास्थ्य संगठन (डबल्यूएचओ) की टीम ने कोरोनावायरस की उत्पत्ति पर महीने भर की
जांच के अपने निष्कर्ष प्रस्तुत किए हैं। अपनी रिपोर्ट में शोधकर्ताओं ने
प्रयोगशाला से वायरस के गलती से लीक होने के विवादास्पद सिद्धांत को निरस्त कर
दिया है। उनका अनुमान है कि सार्स-कोव-2 ने किसी जीव से मनुष्यों में प्रवेश किया
है। यह अन्य शोधकर्ताओं के निष्कर्षों से मेल खाता है। टीम ने अपनी रिपोर्ट में
चीन सरकार और मीडिया द्वारा प्रचारित दो अन्य परिकल्पनाएं भी प्रस्तुत की हैं: यह
वायरस या इसका कोई पूर्वज चीन के बाहर किसी जीव से आया और एक बार लोगों में फैलने
पर यह फ्रोज़न वन्य जीवों और अन्य कोल्ड पैकेज्ड सामान में भी फैल गया।
अलबत्ता,
रिपोर्ट पर अन्य शोधकर्ताओं की प्रतिक्रिया मिली-जुली रही
है। वाशिंगटन स्थित जॉर्जटाउन युनिवर्सिटी की वायरोलॉजिस्ट एंजेला रैसमुसेन के
अनुसार वायरस उत्पत्ति सम्बंधी निष्कर्ष दो सप्ताह में दे पाना संभव नहीं है।
हालांकि ये निष्कर्ष चीन सरकार के सहयोग से एक लंबी जांच का आधार तो बनाते ही हैं।
कुछ शोधकर्ताओं के अनुसार चीनी और अंतर्राष्ट्रीय वैज्ञानिकों की इस टीम ने गंभीर
सवाल उठाए हैं और व्यापक रूप से डैटा का भी अध्ययन किया है। आने वाले समय में अधिक
विस्तृत रिपोर्ट की उम्मीद की जा सकती है।
लेकिन कुछ अन्य वैज्ञानिकों के अनुसार यह जांच कोई नई जानकारी प्रदान नहीं
करती। इस रिपोर्ट में वायरस के किसी जंतु के माध्यम से फैलने के प्रचलित नज़रिए की
ही बात कही गई है। इसके अलावा रिपोर्ट में चीनी सरकार द्वारा प्रचारित दो
परिकल्पनाओं पर ज़ोर दिया गया है। साथ ही चीन में ‘कोल्ड फूड चेन’ के माध्यम से
शुरुआती संक्रमण फैलने का विचार भी सीमित साक्ष्यों पर आधारित है। हालांकि, वैज्ञानिकों का मानना है कि टीम के पास अभी भी ऐसी जानकारी हो सकती है जिसे
सार्वजनिक नहीं किया गया है। इस विषय में डबल्यूएचओ टीम के सदस्य और मेडिकल
वायरोलॉजिस्ट डोमिनिक डायर का अनुमान है कि कोरोनावायरस का संक्रमण चीनी बाज़ारों
में दूषित मछली और मांस के कारण फैला है जिसकी अधिक जानकारी लिखित रिपोर्ट में
प्रस्तुत की जाएगी।
डबल्यूएचओ ने वायरस के प्रयोगशाला से लीक होने के विचार पर भी अध्ययन किया है।
इस बारे में अध्ययन के प्रमुख और खाद्य-सुरक्षा एवं ज़ूनोसिस विशेषज्ञ पीटर बेन
एम्बरेक ने इस संभावना को खारिज किया है। क्योंकि वैज्ञानिकों के पास दिसंबर 2019
के पहले इस वायरस की कोई जानकारी नहीं थी इसलिए प्रयोगशाला से लीक होने का विचार
बेतुका है। इसके साथ ही टीम को प्रयोगशाला में किसी प्रकार की दुर्घटना के भी कोई
साक्ष्य नहीं मिले हैं। हालांकि टीम ने प्रयोगशाला की फॉरेंसिक जांच नहीं की
है।
कुछ वैज्ञानिकों के अनुसार यह निष्कर्ष वुहान में हुई घटनाओं को तो ठीक तरह से
प्रस्तुत करते हैं लेकिन महामारी के बढ़ने और इसके राजनीतिकरण होने की वजह से
प्रयोगशाला से वायरस के लीक होने और प्राकृतिक उत्पत्ति के सिद्धांतों के बीच
टकराव अधिक गहरा हो गया है और टीम इसे सुलझाने में नाकाम रही है।
गौरतलब है कि टीम द्वारा अधिकांश जांच वुहान में वायरस के फैलने के शुरुआती
दिनों पर केंद्रित है और रिपोर्ट में शहर के शुरुआती संक्रमण के समय को चित्रित
करने का प्रयास किया गया है। टीम ने वर्ष 2019 की दूसरी छमाही में वुहान शहर और
हुबेई प्रांत के स्वास्थ्य रिकॉर्ड का अध्ययन किया है। इसमें इन्फ्लुएंज़ा जैसी
बीमारियों के असामान्य उतार-चढ़ावों पर ध्यान दिया गया है और यह देखा गया कि वहां
खांसी-जुकाम की औषधियों की बिक्री में किस तरह के बदलाव आए थे। विशेष रूप से
निमोनिया से सम्बंधित मौतों की तलाश की गई है। इसके अलावा टीम ने सार्स-कोव-2
वायरल आरएनए का पता लगाने के लिए 4500 रोगियों के नमूनों की जांच की और वायरस के
विरुद्ध एंटीबॉडी के लिए रक्त के नमूनों का विश्लेषण किया। इन सभी जांचों में
शोधकर्ताओं को वायरस के दिसंबर 2019 के पहले फैलने के कोई साक्ष्य नहीं मिले हैं।
फिर भी डायर का मानना है कि संक्रमण के स्पष्ट संकेतों की कमी का मतलब यह नहीं
कि वायरस समुदाय में पहले ही फैल नहीं चुका था। देखा जाए तो टीम का विश्लेषण सीमित
डैटा और एक ऐसी निगरानी प्रणाली पर आधारित था जो किसी नए वायरस के फैलाव को पकड़
पाने के लिए तैयार नहीं की गई थी। वायरस के फैलाव का सही तरह से आकलन करने के लिए
शोधकर्ताओं को न केवल स्वास्थ्य केंद्रों में, बल्कि
समुदाय स्तर पर अध्ययन करना होगा।
इसके अलावा टीम ने इस वायरस के पीछे एक जंतु को ज़िम्मेदार तो ठहराया है लेकिन
संभावित जंतुओं की पहचान नहीं कर पाई है। चीनी शोधकर्ताओं ने देश के कई घरेलू, पालतू और जंगली जीवों का परीक्षण किया था लेकिन ऐसा कोई साक्ष्य नहीं मिल पाया
था कि इन प्रजातियों में वायरस मौजूद है। लेकिन यदि इस महामारी को प्राकृतिक संचरण
की घटना मानते हैं तो भविष्य में भी जीवों से मनुष्यों में वायरस संचरण की घटनाओं
की संभावना बनी रहेगी।
टीम ने कहा है कि वुहान और आसपास के क्षेत्रों में जांच जारी रखना चाहिए।
इसमें विशेष रूप से शुरुआती मामलों को ट्रैक करने का प्रयास करना चाहिए ताकि
महामारी की शुरुआत का पता लगाने में मदद मिले। टीम के मुताबिक, ज़रूरत इस बात की है कि वुहान प्रांत और अन्य क्षेत्रों में ब्लड बैंक से
पुराने नमूनों का विशेषण किया जाए जिनमें संक्रमण का पता लगाने के लिए एंटीबॉडी
परीक्षण भी शामिल हों। इसके साथ ही फ्रोज़न वन्य जीवों की संभावित भूमिका का पता
लगाने के लिए और अधिक अध्ययन करने की ज़रूरत है। जंतु स्रोत की संभावना का पता
लगाने के लिए भी व्यापक परीक्षण करना होंगे।
हाल ही में जापान, कंबोडिया और थाईलैंड के चमगादड़ों में
सार्स-कोव-2 से सम्बंधित कोरोनावायरस के मिलने की खबर है। ऐसे में डबल्यूएचओ की
टीम ने चीन के बाहर वायरस उत्पत्ति की खोज करने की भी सिफारिश की है। इस विषय पर नेचर
कम्युनिकेशन्स में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार जून 2020 में थाईलैंड की गुफाओं
में पाए जाने वाले हॉर्सशू चमगादड़ में नया कोरोनावायरस मिला है जिसे RaTG203 नाम दिया गया है। इस वायरस
का 91.5 प्रतिशत जीनोम सार्स-कोव-2 से मेल खाता है। इसी तरह के नज़दीक से सम्बंधित
अन्य वायरसों का पता चला है। इससे यह कहा जा सकता है कि दक्षिण-पूर्वी एशिया में
इस महामारी वायरस के करीबी सम्बंधी अभी भी उपस्थित है।
इसके अलावा शोधकर्ताओं ने कंबोडिया और जापान में संग्रहित फ्रोज़न चमगादड़ों के नमूनों में सार्स-कोव-2 से सम्बंधित कई अन्य कोरोनावायरस की पहचान की है। सार्स-कोव-2 का सबसे करीबी सम्बंधी RaTG13 चीन में पाया गया है। इसका लगभग 96 प्रतिशत जीनोम सार्स-कोव-2 से मेल खाता है। वैज्ञानिकों का मानना है कि यदि चीन में किए गए अध्ययन जितना पैसा और मेहनत दक्षिण-पूर्वी एशिया में लगाए जाएं तो वायरस का और अधिक गहराई से पता लगाया जा सकता है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://image.thanhnien.vn/768/uploaded/minhhung/2021_02_09/000_92k3xe_gpdo.jpg
मार्च 2020 में मिशिगन विश्वविद्यालय की कैंसर विज्ञानी रेशमा
जग्सी ने कोविड-19 महामारी के महिला वैज्ञानिकों के काम पर पड़ने वाले प्रतिकूल
प्रभाव के बारे में पूर्वानुमान लगाते हुए एक राय लिखी थी। डैटा न होने के कारण संपादकों
ने इस राय को प्रकाशित करने से मना कर दिया था। लेकिन इसके बाद से कई टिप्पणीकार
यही बात दोहराते आए हैं। अब अध्ययन से प्राप्त प्रमाणों से स्पष्ट हो गया है कि
कोविड-19 महामारी में पहले से व्याप्त असमानताएं और बढ़ गर्इं हैं, इस दौर ने महिला वैज्ञानिकों के लिए नई चुनौतियां खड़ी की हैं। खासकर जिन
महिला वैज्ञानिकों के बच्चे हैं उन्होंने अपना अनुसंधान कार्य करते रहने के लिए
अतिरिक्त संघर्ष किया है।
कुछ विषयों में किए गए अध्ययन के डैटा से पता चलता है कि कोरोना महामारी के
शुरुआती महीनों में भेजे गए प्रीप्रिंट्स, पांडुलिपियों, और प्रकाशित शोधपत्रों में महिला लेखकों की संख्या में कमी आई है। 20,000
शोधकर्ताओं पर वैश्विक स्तर पर किए गए सर्वेक्षण में पाया गया है कि इस दौरान
पिता-वैज्ञानिकों की तुलना में माता-वैज्ञानिकों के अनुसंधान कार्यों के घंटों में
33 प्रतिशत अधिक की कमी आई है। मई 2020 से जुलाई 2020 तक हुए सर्वेक्षण में यह भी
पाया गया कि माता-वैज्ञानिकों ने पिता-वैज्ञानिकों की तुलना में अधिक घरेलू
दायित्व निभाए और बच्चों की देखभाल करने में अधिक समय बिताया।
लेकिन इस दौरान थोड़ी सकारात्मक बातें भी दिखीं। एक फंडिंग एजेंसी ने महामारी
के दौरान बढ़ी लैंगिक असमानता को पहचाना और उसमें सुधार के प्रयास किए। दरअसल, फरवरी 2020 में केनेडियन स्वास्थ्य अनुसंधान संस्थान ने कोविड-19 सम्बंधी शोध
कार्यों के लिए अनुदान की पेशकश की थी, जिसमें एजेंसी ने
शोधकर्ताओं को प्रस्ताव भेजने के लिए महज़ 8 दिन की मोहलत दी थी। यह कनाडा में
तालाबंदी के पहले की बात है। लेकिन उन्होंने देखा कि प्राप्त प्रस्तावों में से केवल
29 प्रतिशत प्रस्ताव ही महिला शोधकर्ताओं द्वारा भेजे गए थे, यह संख्या पूर्व में भेजे जाने वाले प्रस्तावों की संख्या से लगभग सात प्रतिशत
कम थी।
संख्या में इतना अंतर देखने के बाद संस्थान के इंस्टीट्यूट ऑफ जेंडर एंड हेल्थ
की निदेशक कारा तेनेनबॉम को लगा कि हमने कहीं कुछ गलती कर दी है। इसीलिए जब
संस्थान ने दो महीने बाद कोविड-19 शोध कार्यों के लिए दोबारा प्रस्ताव मंगाए तो
उन्होंने प्रस्ताव भेजने की समय सीमा को 8 दिन से बढ़ाकर 19 दिन कर दी और दस्तावेज़ी
कार्रवाइयां भी कम कर दीं। प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ में
के अनुसार दूसरे दौर में महिलाओं द्वारा भेजे गए प्रस्तावों की संख्या बढ़कर 39
प्रतिशत हो गई थी।
संस्थान द्वारा मांगे गए प्रस्तावों के संदर्भ में लावल युनिवर्सिटी की
स्वास्थ्य शोधकर्ता होली विटमैन अपना अनुभव बताती हैं, “जब
पहली बार मैंने प्रस्ताव भेजने की समय सीमा महज़ 8 दिन देखी तो मैंने सोचा कि दो
बच्चों और अपनी स्वास्थ्य स्थिति के साथ इतने कम समय में अनुदान के लिए देर रात तक
बैठकर प्रस्ताव लिखना और भेजना संभव नहीं है। लेकिन जब अनुदान के लिए दोबारा
प्रस्ताव मांगे गए तो प्रस्ताव लिखने के लिए पर्याप्त समय था, जिसमें अंतत: मुझे अनुदान मिला भी।”
महामारी के दौर में अधिकांश शोधकर्ताओं के शोध कार्य के घंटों में कमी आई।
ताज़ा अध्ययन बताते हैं कि पालक-शोधकर्ताओं, खासकर
माता-शोधकर्ताओं के काम के घंटों में बहुत कमी आई है। पिता की तुलना में माताओं ने
बच्चे की देखभाल और गृहकार्य करने में अधिक समय बिताया। इस संदर्भ में सान्ता
क्लारा युनिवर्सिटी की रॉबिन नेल्सन बताती हैं कि पिछले साल की तुलना में
कोरोनाकाल में उनके काम के घंटे घटकर आधे हो गए हैं क्योंकि उनके दो बच्चे अब घर
पर होते हैं। कुछ शोधकर्ता अन्य की तुलना में अधिक बाधाओं में काम कर रहे हैं।
इसलिए हमें अब अनुदान की प्रक्रिया, समय सीमा, नीतियों आदि पर सवाल उठाने चाहिए।
बोस्टन विश्वविद्यालय के इकॉलॉजिस्ट रॉबिन्सन फुलवाइलर का कहना है कि विश्वविद्यालयों और फंडिंग एजेंसियों को वैज्ञानिकों को यह बताने का भी विकल्प देना चाहिए कि कोविड-19 ने उनके काम में किस तरह की बाधा डाली या प्रभावित किया। इसके अलावा नियोक्ताओं को यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि सभी शोधकर्ताओं को ठीक-ठाक झूलाघर जैसी सुविधाएं मिलें। फुलवाइलर और अन्य माता-वैज्ञानिकों ने प्लॉस बायोलॉजी में इस तरह की व कई अन्य सिफारिशें की हैं। कोरोनाकाल में और स्पष्ट होती असमानता को अब दूर करने के प्रयास करने का वक्त है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_image_-1280w__no_aspect/public/ca_0212NID_Mother_Child_online.jpg?itok=KtvdvK2V
सार्स-कोव-2 महामारी को नियंत्रित करने के प्रयासों में एक
बड़ी समस्या टीकों की कमी और उसका वितरण है। ऐसे में कुछ वैज्ञानिकों ने दूसरी
खुराक को स्थगित करने का सुझाव दिया है ताकि अधिक से अधिक लोगों को पहली खुराक मिल
सके। अमेरिका में अधिकृत फाइज़र टीके की दो खुराकों के बीच 21 दिन और मॉडर्ना के
लिए 28 दिन की अवधि तय की गई थी। अब सेंटर फॉर डिसीज़ कंट्रोल एंड प्रिवेंशन ने 42
दिन के अंतराल के निर्देश दिए हैं। ऑक्सफोर्ड युनिवर्सिटी-एस्ट्राज़ेनेका द्वारा
निर्मित टीके की दो खुराकों के बीच 12 सप्ताह के अंतराल का सुझाव दिया गया है और
दावा है कि यह शायद बेहतर होगा। तो टीके की एक खुराक के बाद आप कितने सुरक्षित हैं
और यदि दूसरी खुराक न मिले तो क्या होगा? ऐसे ही कुछ सवालों पर
चर्चा।
दो खुराक क्यों ज़रूरी?
वास्तव में टीकों को प्रतिरक्षा स्मृति बनाने की दृष्टि से तैयार किया जाता है।
इसकी मदद से हमारी प्रतिरक्षा प्रणाली को हमलावर वायरसों की पहचान करने और उनसे
बचाव करने की क्षमता मिलती है, भले ही प्रणाली ने पहले कभी
इनका सामना न किया हो। अधिकांश कोविड टीके नए कोरोनावायरस स्पाइक प्रोटीन की
प्रतियों के माध्यम से प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया विकसित करते हैं। दो खुराक देने का
मतलब अधिक सुरक्षा प्रदान करना है। ड्यूक ह्यूमन वैक्सीन इंस्टिट्यूट के मुख्य
परिचालन अधिकारी थॉमस डेनी के अनुसार पहली खुराक प्रतिरक्षात्मक स्मृति शुरू करती
है,
तो दूसरी खुराक इसे और ठोस बनाती है। उदाहरण के लिए फाइज़र
टीके की एक खुराक से लाक्षणिक संक्रमण के जोखिम में लगभग 50 प्रतिशत की कमी आ सकती
है जबकि मॉडर्ना टीके की एक खुराक से यह जोखिम 80 प्रतिशत कम हो जाता है। दोनों
खुराकें मिलने पर दोनों टीकों के द्वारा जोखिम लगभग 95 प्रतिशत कम हो जाता
है।
42 दिन के अंतर अनुमति क्यों?
सीडीसी के अनुसार दो खुराकों के बीच 42 दिनों तक की अनुमति का निर्णय इस
फीडबैक के आधार पर लिया गया है कि तारीखों का लचीलापन लोगों के लिए मददगार है।
जहां यूके में दो खुराकों के बीच की अवधि को बढ़ाने का उद्देश्य अधिक लोगों का
टीकाकरण करना है,
वहीं सीडीसी का मानना है कि इससे दूसरी खुराक की जटिलता कम
होगी। गौरतलब है कि अमेरिका में टीकाकरण देर से शुरू हुआ है और पहली खुराक मिलने
के दो महीने बाद मात्र 3 प्रतिशत लोगों को ही दूसरी खुराक मिल पाई है। टीका
निर्माता मांग को पूरा करने की कोशिश कर रहे हैं, ऐसे
में पूरा टीकाकरण करने में कुछ समझौते तो करने ही होंगे। वैज्ञानिकों के अनुसार
पर्याप्त मात्रा में टीके उपलब्ध होने पर अलग रणनीति अपनाई जा सकती है लेकिन
फिलहाल उपलब्ध संसाधनों से ही काम चलाना होगा।
42 दिनों तक आप कितने सुरक्षित हैं?
फाइज़र और मॉडर्ना के परीक्षण के आकड़ों के अनुसार लोगों में पहली खुराक के लगभग
14 दिनों बाद सुरक्षा देखी गई है। इस दौरान टीकाकृत लोगों में मरीज़ों की संख्या में
कमी और गैर-टीकाकृत लोगों में मरीज़ों की संख्या में वृद्धि देखी जा सकती है। देखा
जाए तो दोनों ही टीकों की पहली खुराक कोविड के मामलों को रोकने में 50 प्रतिशत
(फाइज़र) और 80 प्रतिशत (मॉडर्ना) प्रभावी थे। परीक्षण किए गए अधिकांश लोगों को
दूसरी खुराक 21 या 28 दिन में मिली थी। बहुत थोड़े से लोगों (0.5 प्रतिशत) को 42
दिन इंतज़ार करना पड़ा। इतनी छोटी संख्या के आधार पर कोई निष्कर्ष निकालना कठिन
है।
क्या आंशिक प्रतिरक्षा अधिक खतरनाक वायरस पैदा करेगी?
चूंकि महामारी की शुरुआत में इस वायरस के विरुद्ध किसी तरह की प्रतिरक्षा नहीं
थी इसलिए नए कोरोनावायरस के विकसित होने की संभावना बहुत कम थी। लेकिन वर्तमान में
लाखों लोगों के संक्रमित होने और एंटीबॉडी विकसित होने से उत्परिवर्तित वायरसों के
विकास की संभावना काफी बढ़ गई है। रॉकफेलर युनिवर्सिटी के रेट्रोवायरोलॉजिस्ट पॉल
बीनियाज़ के अनुसार टीके किसी भी तरह लगाए जाएं, एंटीबॉडी
के जवाब में वायरस विकसित होता ही है।
जिस तरह से एंटीबायोटिक दवाओं का पूरा कोर्स न करने पर एंटीबायोटिक-प्रतिरोधी
बैक्टीरिया विकसित होने लगते हैं, उसी तरह ठीक से टीकाकरण न होने
पर आपका शरीर एंटीबॉडी-प्रतिरोधी वायरस के लिए स्वर्ग बन जाता है। लेकिन कुछ
वैज्ञानिकों के अनुसार नए-नए वायरसों के पैदा होने की गति सिर्फ प्रतिरक्षा प्रणाली
के मज़बूत या कमज़ोर होने पर नहीं, बल्कि जनसंख्या में उपस्थित
वायरस की कुल संख्या पर भी निर्भर करती है। बड़े स्तर पर टीकाकरण के बिना नए
संस्करणों की संख्या बढ़ने का खतरा है।
क्या पहली और दूसरी खुराक के बीच लंबा अंतराल टीके को अधिक प्रभावी बना सकता
है?
ऐसी संभावना से इन्कार तो नहीं किया जा सकता। देखा जाए तो सभी कोविड टीके एक
समान नहीं हैं और खुराक देने का तरीका भी विशिष्ट डिज़ाइन पर निर्भर करता है। कुछ
टीके mRNA टीके अस्थिर आनुवंशिक सामग्री
पर आधारित होते हैं, कुछ स्थिर डीएनए पर तो कुछ अन्य प्रोटीन
अंशों पर निर्भर होते हैं। इनको छोटी वसा की बूंदों या फिर निष्क्रिय चिम्पैंज़ी वायरस
के साथ दिया जाता है।
ऐसी भिन्नताओं को देखते हुए डीएनए आधारित ऑक्सफोर्ड-एस्ट्राज़ेनेका टीके की दो खुराकों के बीच 12 सप्ताह के अंतराल के बाद भी प्रभाविता बनी रही। यह mRNA आधारित मॉडर्ना और फाइज़र की अनुशंसित अवधि की तुलना में लगभग तीन से चार गुना अधिक है। उम्मीद है कि समय के साथ-साथ शोधकर्ता टीके की खुराक देने की ऐसी योजना बना पाएंगे जो नैदानिक परीक्षणों के दौरान निर्धारित खुराक योजना से भिन्न होगी। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://static.scientificamerican.com/sciam/cache/file/C7D9D137-2CA9-4FF7-B828189142CC7531_source.jpg?w=590&h=800&318294A5-BDF3-4CD7-BABB6E080A5B42CC
फिलहाल 9 टीके हैं जो कोविड-19 की गंभीर बीमारी और मृत्यु की
रोकथाम में असरदार पाए गए हैं। लेकिन टीकों की आपूर्ति में कमी को देखते हुए
वैज्ञानिक इस सवाल पर विचार और परीक्षण कर रहे हैं कि क्या दो खुराक देने के लिए
टीकों का मिला-जुला उपयोग किया जा सकता है। यानी पहली खुराक किसी टीके की दी जाए
और बूस्टर किसी अन्य टीके का? यदि ऐसे कुछ सम्मिश्रण कारगर
रहते हैं तो आपूर्ति की समस्या से कुछ हद तक निपटा जा सकेगा। यह भी सोचा जा रहा है
कि क्या दो अलग-अलग टीकों के मिले-जुले उपयोग से बेहतर परिणाम मिल सकते हैं।
ऐसे मिश्रित उपयोग का एक परीक्षण चालू भी हो चुका है। इसमें यह देखा जा रहा है
कि रूस के गामेलाया संस्थान द्वारा विकसित स्पूतनिक-5 का उपयोग
एस्ट्राज़ेनेका-ऑक्सफोर्ड द्वारा बनाए गए टीके के बूस्टर डोज़ के साथ किया जा सकता
है। इसी प्रकार के अन्य परीक्षण में एस्ट्राज़ेनेका-ऑक्सफोर्ड टीके और
फाइज़र-बायोएनटेक द्वारा बनाए गए टीके के मिले-जुले उपयोग पर काम चल रहा है। ये दो
टीके अलग-अलग टेक्नॉलॉजी का उपयोग करते हैं। कुछ अन्य परीक्षण अभी विचार के स्तर
पर हैं। अलबत्ता,
इन परीक्षणों के परिणाम आने तक सावधानी बरतना ज़रूरी है।
अतीत में भी टीकों के मिले-जुले उपयोग के प्रयास हो चुके हैं। जैसे एड्स के
संदर्भ में दो टीकों का इस्तेमाल करके ज़्यादा शक्तिशाली प्रतिरक्षा प्राप्त करने
के प्रयास असफल रहे थे। ऐसा ही परीक्षण एबोला के टीकों को लेकर भी किया गया था।
कुछ मामलों में स्थिति बिगड़ भी गई थी। कोविड-19 के टीकों के मिले-जुले उपयोग की
कुछ समस्याएं भी हैं। जैसे हो सकता है कि दो में से एक टीके को मंज़ूरी मिल चुकी हो
लेकिन दूसरे को न मिली हो। एक समस्या यह भी हो सकती है कि दो टीके अलग-अलग
टेक्नॉलॉजी पर आधारित हों – जैसे एक एमआरएनए पर आधारित हो और दूसरा प्रोटीन पर
आधारित हो।
अलबत्ता,
टीकों के ऐसे मिश्रित उपयोग का एक फायदा भी है। हरेक टीका
प्रतिरक्षा तंत्र के किसी एक भाग को सक्रिय करता है। तो संभव है कि दो अलग-अलग
टीकों का उपयोग करके हम दो अलग-अलग भागों को सक्रिय करके बेहतर सुरक्षा हासिल कर
पाएं।
जैसे स्पूतनिक-5 टीके में दो अलग-अलग एडीनोवायरस (Ad26, Ad5) का उपयोग सम्बंधित जीन को शरीर में पहुंचाने के लिए किया गया है। दूसरी ओर, एस्ट्राज़ेनेका टीके में प्रमुख खुराक और बूस्टर दोनों में चिम्पैंज़ी एडीनोवायरस (ChAd) का ही उपयोग हुआ है। इसका परिणाम यह हो सकता है कि एक खुराक से उत्पन्न प्रतिरक्षा को दूसरी खुराक स्थगित कर दे। ऐसे में स्पूतनिक और एस्ट्राज़ेनेका के मिले-जुले उपयोग से यह समस्या नहीं आएगी। यह फायदा कई अन्य मिश्रणों में भी संभव है। वैसे सबसे बड़ी बात तो यह है कि ऐसा संभव हुआ तो आपूर्ति की समस्या से निपटा जा सकेगा। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_image_-1280w__no_aspect/public/vaccine_1280p_4.jpg?itok=EiQnsAsM
डेनमार्क में कोविड-19 संक्रमण दर में कमी राहत के संकेत देते
हैं। देशव्यापी लॉकडाउन से दैनिक मामलों में काफी कमी आई है। दिसंबर 2020 के मध्य
में प्रतिदिन 3000 मामले अब घटकर कुछ सौ रह गए हैं। लेकिन महामारी मॉडलिंग
विशेषज्ञों की प्रमुख कैमिला होल्टन मोलर के अनुसार ये परिणाम आने वाले समय में एक
तूफान से पहले की शांति के संकेत हो सकते हैं।
कोविड-19 का ग्राफ वास्तव में दो महामारियों को दर्शाता है। पहली तो वह है जो
सार्स-कोव-2 के पुराने संस्करण के कारण हुई और अब तेज़ी से खत्म भी हो रही है।
लेकिन यूके में पहली बार पहचाने गए बी.1.1.7 संस्करण का प्रकोप धीरे-धीरे बढ़ रहा
है और तीसरी लहर के रूप में नज़र आ रहा है। यदि बी.1.1.7 संस्करण डेनमार्क में इसी
रफ्तार से बढ़ता रहा तो यह इस माह के अंत तक वायरस का एक प्रमुख संस्करण बन जाएगा
और एक बार फिर कोविड-19 मामलों की संख्या में वृद्धि होने लगेगी।
ऐसे में अन्य देशों में भी इसी तरह के हालात की संभावना जताई जा रही है। तथ्य
यह है कि 58 लाख आबादी वाले डेनमार्क में अन्य देशों की तुलना में व्यापक
वायरस-अनुक्रमण तकनीक से कोविड-19 के नए संस्करण का पता चल सका। इन परिणामों के
बाद सभी की नज़रें फिलहाल डेनमार्क पर हैं। डैनिश वैज्ञानिकों का अनुमान है कि बी.1.1.7
संस्करण पिछले संस्करणों की तुलना में 1.55 गुना तेज़ी से फैलता है। इस परिस्थिति
में जब तक पर्याप्त लोगों को टीका नहीं लग जाता तब तक देश में एक बार फिर लॉकडाउन
या अन्य नियंत्रण उपायों को अपनाना होगा। स्थितियों को देखते हुए कुछ महामारी विज्ञानियों
का तो मत है कि समाज के अत्यधिक कमज़ोर वर्ग के टीकाकरण के बाद लॉकडाउन खोल देना
चाहिए,
भले नए मामलों में वृद्धि क्यों न होती रहे।
इस सम्बंध में जनवरी माह के परिणाम काफी चिंताजनक रहे। जनवरी की शुरुआत में ही
हर सप्ताह बी.1.1.7 के मामलों में दुगनी रफ्तार से वृद्धि होती गई। इस स्थिति के
पहले ही स्कूल और रेस्तरां बंद कर दिए गए, इस नए
खतरे से बचने के लिए 10 लोगों के एक साथ इकट्ठा होने की अनुमति को कम करके 5 कर
दिया गया,
सामाजिक दूरी भी एक मीटर की बजाय दो मीटर कर दी गई। इन
सावधानियों से कुल प्रसार दर 0.78 रह गई जो एक अच्छा संकेत है। लेकिन बी.1.1.7 की
अनुमानित प्रसार दर 1.07 है जो तेज़ी से बढ़ रही है। इस बीच कुल संक्रमितों में नए
संस्करण से संक्रमितों का प्रतिशत दिसंबर 2020 में 0.5 प्रतिशत था और जनवरी के अंत
तक बढ़कर 13 प्रतिशत हो गया है।
फिलहाल डेनमार्क में एक बार फिर लोगों को घर से काम करने के आदेश जारी किए जा
सकते हैं और साथ ही कांटेक्ट ट्रेसिंग भी की जा सकती है। इसके साथ ही त्वरित
परीक्षण और रोगियों को स्वयं आइसोलेट होने के लिए प्रोत्साहित किया जाएगा।
वैज्ञानिकों को ऐसी उम्मीद है कि इस तरह की सावधानियों से बी.1.1.7 लहर को रोका जा
सकता है। हालांकि कई लोगों का ऐसा मानना है कि इस लहर को रोका नहीं जा सकता है।
यूके में बी.1.1.7 के मामलों में कमी का कारण लोगों का पहले से ही इस वायरस से
संक्रमित होना है जो अब इस संस्करण के प्रति अतिसंवेदनशील नहीं हैं। फिलहाल
डेनमार्क को इस संस्करण के लिए प्रसार दर को एक से कम रखने की कोशिश करना होगा
जिससे उम्मीद है कि अप्रैल तक स्थिति को पूरी तरह से नियंत्रण में किया जा सकता
है। उस समय तक मौसम भी मददगार होगा।
लेकिन लंबे समय तक देश भर में लॉकडाउन लगाना काफी कठिन हो सकता है। वर्तमान
में जनता ने नए मामलों में कमी आने के बाद भी सरकार के लॉकडाउन के फैसले को
स्वीकार कर लिया है लेकिन भविष्य में इसे खत्म करने का दबाव आने की संभावना है।
ऐसे में 8 फरवरी से कक्षा 1 से लेकर 4 तक के स्कूल शुरू करते हुए लॉकडाउन में ढील
देने की शुरुआत की जा चुकी है। कुछ वैज्ञानिकों के अनुसार लॉकडाउन को देर से खत्म
करना काफी महंगा पड़ सकता है। इसकी बजाय वैज्ञानिकों का सुझाव है कि 50 वर्ष से
अधिक और अन्य अतिसंवेदनशील समूहों के टीकाकरण के बाद लॉकडाउन को खत्म करना अधिक
उचित होगा। इस स्थिति में कोविड के मामलों में वृद्धि तथा कुछ लोगों की मौत की भी
संभावना रहेगी।
लेकिन इस तरीके को कुछ वैज्ञानिकों ने अभी भी पसंद नहीं किया है। उनका मानना है कि इस तरह से मामलों में वृद्धि होने देना सही उपाय नहीं है। अधिक संक्रमण का मतलब और अधिक उत्परिवर्तित वायरसों के खतरे को बढ़ाना है। ऐसे में हल्के संक्रमण वाले लोगों में दीर्घकालिक स्वास्थ्य समस्याएं बढ़ सकती हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_image_-1280w__no_aspect/public/NID_Denmark_variants_1280x720.jpg?itok=CeHE5NVE