क्या फ्रोज़न वन्य जीवों से कोविड फैल सकता है?

चीन में हुए कुछ अध्ययनों से पता चला है कि कोरोनावायरस फ्रोज़न सतहों से फैल सकता है। लेकिन डबल्यूएचओ की टीम ने कहा है कि महामारी की शुरुआत इस रास्ते से नहीं हुई है।      

फरवरी में एक प्रेसवार्ता में टीम ने कोरोनावायरस के चमगादड़ों से एक मध्यवर्ती जीव के मार्फत मनुष्यों में प्रवेश की बात की। टीम का मत है कि चीनी फार्मस में जंगली जीवों का फ्रोज़न मांस वायरस के शुरुआती मामलों का कारण हो सकता है। अलबत्ता टीम के एक सदस्य डोमिनिक डायर के मुताबिक यह जानना ज़रूरी है कि फ्रोज़न वन्यजीव संक्रमित कैसे हुए।

लगता तो यह है कि डबल्यूएचओ द्वारा फ्रोज़न मांस की जांच के सुझाव का गलत अर्थ निकाला गया है। वायरस के फ्रोज़न सतह से फैलने के विचार के आधार पर कहा गया कि यह वायरस विदेशों से आयात किए गए फ्रोज़न वन्यजीवों के साथ वुहान में आया है। इसी तरह बाद के मामलों के पीछे भी आयातित फ्रोज़न फूड को दोषी ठहराया गया। चीन के वैज्ञानिकों ने भी फ्रोज़न मांस से वायरस फैलने के साक्ष्य प्रस्तुत किए हैं।

दूसरी ओर, चीन के बाहर के कई वैज्ञानिकों ने इस ‘कोल्ड चेन’ सिद्धांत को खारिज कर दिया है और इसे आलोचनाओं से बचने का एक प्रयास बताया है। उनके अनुसार संक्रमित सतहों से सार्स-कोव-2 का फैलना बहुत कम संभव है।

बहरहाल, कुछ अध्ययन सतह से संक्रमण की संभावना को दर्शाते हैं। अगस्त में सिंगापुर के शोधकर्ताओं द्वारा बायोआर्काइव्स में प्रकाशित एक रिपोर्ट में बताया गया कि सार्स-कोव-2 वायरस फ्रोज़न या फ्रिज में रखे मांस पर तीन सप्ताह से अधिक समय तक संक्रामक रह सकता है। वैसे इस पेपर की समकक्ष समीक्षा नहीं की गई है। इसके दो माह बाद चीनी शोधकर्ताओं ने ज़िनफादी बाज़ार में जून में फैले प्रकोप को भी फ्रोज़न मांस से जोड़कर देखा। इसमें पहला मामला बिना किसी सामुदायिक प्रसार के 56 दिन के बाद सामने आया जिसमें सार्स-कोव-2 का एक विशिष्ट स्ट्रेन पाया गया। जांचकर्ताओं ने यही स्ट्रेन कोल्ड स्टोरेज में रखी साल्मन मछली पर भी पाया था।

इसी तरह नवंबर में प्रकाशित तीसरे अध्ययन में चीनी वैज्ञानिकों के एक अन्य समूह ने शैनडांग के पूर्वी प्रांत किंगडाओ बंदरगाह के कर्मचारियों में संक्रामक वायरस का पता लगाया जो फ्रोज़न कॉड मछली की पैकेजिंग का काम करते थे। वैज्ञानिक के अनुसार इस संक्रमण का कारण फ्रोज़न कॉड हो सकता है। इन रिपोर्ट्स के आधार पर चीनी अधिकारियों ने नवंबर में सभी फ्रोज़न सामग्रियों के अनिवार्य विसंक्रमण के निर्देश दिए थे। 

डबल्यूएचओ की टीम महामारी के शुरुआती मामलों के पीछे खाद्य सामग्री या पैकेजिंग से संक्रमण के विचार से सहमत नहीं है। जांचकर्ता ये ज़रूर मानते हैं कि वायरस से संक्रमित कोई जीव हुनान सीफूड बाज़ार में शुरुआती प्रकोप का कारण हो सकता है। डायर के अनुसार ऐसी भी संभावना है कि बाज़ार में किसी संक्रमित व्यक्ति या उत्पाद के आने से यह प्रकोप फैल गया हो।

देखा जाए तो जनवरी 2020 में हुनान बाज़ार के बंद होने से पहले तक वहां की 653 में से 10 दुकानों पर फार्म से लाए गए जीवित या फ्रोज़न वन्यजीव बेचे जाते थे। डायर के अनुसार रैकून और बिज्जू कोरोनावायरस के प्रति अतिसंवेदनशील होते हैं। लेकिन बाज़ार बंद होने के बाद जब मांस, जीव और यहां तक कि उनके फ्रोज़न मृत शरीर के नमूनों का अध्ययन किया गया तो किसी में भी सार्स-कोव-2 नहीं मिला, हालांकि नमूनों की कम संख्या को देखते हुए इस संभावना को खारिज नहीं किया जा सकता।

युनिवर्सिटी ऑफ क्वींसलैंड के एंड्रयू ब्रीड के अनुसार वायरस से संक्रमित फ्रोज़न शवों के हैंडलिंग के दौरान संक्रमण का खतरा हो सकता है। यह विशेष रूप से मध्यवर्ती जीवों के लिए सही हो सकता है जिनका प्रतिरक्षा तंत्र संक्रमण से निपटने के लिए अनुकूलित नहीं होता और वे काफी मात्रा में वायरस बिखेरते हैं। अफ्रीका में एबोला प्रकोप के दौरान ऐसा मामला देखा गया था। लेकिन पूरी जानकारी के अभाव में कुछ भी स्पष्ट कह पाना संभव नहीं है।

इसी बीच जीवित जानवरों से सार्स-कोव-2 के फैलने की संभावना भी जताई जा रही है। चीन में अधिकतर जीवित जानवरों का व्यापार किया जाता है जिससे जीवों से मनुष्यों में वायरस फैलने की अधिक संभावना रहती है। इनमें से कई जीव चीन के दूरदराज़ फार्म से बाज़ार में लाए जाते हैं। ऐसे में विभिन्न प्रजातियों के जीवों के एक स्थान पर आने से नए वायरस उत्पन्न होने की संभावना बनी रहती है। डायर के अनुसार वुहान बाज़ार में उत्पादों को पहुंचाने वाले वन्यजीव कर्मचारियों में सार्स-कोव-2 की एंटीबॉडी तलाशना इसमें काफी निर्णायक हो सकता है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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टीबी ने हमारी प्रतिरक्षा प्रणाली को कैसे बदला

मानव इतिहास में दर्ज सबसे जानलेवा बीमारियों के बारे में सोचें तो ब्लैक डेथ, प्लेग, स्पैनिश फ्लू और कोविड-19 की ओर ध्यान जाता है। इन जानलेवा महामारियों में लाखों लोग मारे गए। लेकिन आंकड़ों को देखें तो पता चलता है कि इन महामारियों की तुलना में टीबी से होने वाली मौतों की संख्या अधिक है। पिछले 2000 सालों में टीबी के कारण एक अरब से अधिक लोग मारे गए हैं, और वर्तमान में हर साल दुनिया भर में लगभग 15 लाख लोग टीबी की वजह से मारे जाते हैं। लेकिन यह रहस्य लंबे समय से बना हुआ है कि टीबी कब और कैसे इतनी घातक हो गई।

हाल ही में शोधकर्ताओं ने पता लगाया है कि किस तरह टीबी ने लौह युगीन युरोप में रहने वाले लोगों की प्रतिरक्षा प्रणाली में बदलाव किया था। दरअसल दो साल पूर्व युनिवर्सिटी ऑफ पेरिस के शोधकर्ता गैसपर्ड कर्नर ने पाया था कि जिन लोगों में TKY2 नामक प्रतिरक्षा जीन के P1104A नामक दुर्लभ संस्करण की दो प्रतियां होती हैं उन लोगों के टीबी से गंभीर रूप से संक्रमित होने की संभावना अधिक होती है। इसके बाद पॉश्चर इंस्टीट्यूट के साथ उन्होंने क्वीन्टाना-मर्सी के नेतृत्व में पिछले 10,000 साल के 1013 युरोपीय लोगों के जीनोम का विश्लेषण कर यह पता लगाया था कि यह दुर्लभ जीन संस्करण कब-कब और कितने अधिक लोगों में उभरा। इस दौरान शोधकर्ताओं को विचार आया कि इसकी मदद से यह भी पता लगाया जा सकता है कि प्रतिरक्षा जीन टीबी के साथ-साथ किस तरह सह-विकसित हुआ है।

टीबी का सबसे पहला प्रमाण कृषि के आविष्कार के तुरंत बाद, लगभग 9000 साल पहले के मध्य-पूर्व क्षेत्र में दफन कंकालों में मिलता है। लेकिन टीबी बैक्टीरिया का मौजूदा संस्करण – माइकोबैक्टीरियम ट्यूबरकुलोसिस – जो लोगों के लिए घातक साबित हो सकता है, वह लगभग 2000 साल पहले उभरा था, जब लोग पालतू जानवरों के साथ घनी बस्तियों में रहा करते थे। ये बस्तियां अक्सर टीबी बैक्टीरिया के भंडार की तरह काम करती थीं।

अध्ययन में शोधकर्ताओं ने पाया कि प्रतिरक्षा जीन का P1104A उत्परिवर्तन प्राचीन है। यह संस्करण लगभग 8500 साल पूर्व एनाटोलिया (आजकल का तुर्की) में रहने वाले एक किसान के डीएनए में पाया गया है और उनकी गणना के मुताबिक यह उत्परिवर्तन कम से कम 30,000 साल पुराना है। जब एनाटोलिया के किसानों और यमनाया चरवाहों ने मध्य युरोप का रुख किया तो उन्होंने जीन के इस संस्करण को फैलाया। अध्ययन में पाया गया कि लगभग 5000 साल पहले तक यह संस्करण लगभग तीन प्रतिशत युरोपीय आबादी में था। फिर कांस्य युग के मध्य, लगभग 3000 साल पहले तक, यह युरोप के लगभग 10 प्रतिशत लोगों में फैल चुका था। लेकिन इसके बाद फिर इसके प्रसार में कमी आई और तब से अब तक यह लगभग 2.9 प्रतिशत युरोपीय आबादी में दिखाई देता है।

प्राचीन डीएनए अध्ययनों के अनुसार, यह कमी उस दौरान आई जब टीबी का मौजूदा घातक संस्करण उभर रहा था। शोधकर्ताओं ने कंप्यूटर सिमुलेशन की मदद से यह भी पता किया कि कैसे आबादी के आकार और लोगों के प्रवास ने जीन के प्रसार की आवृत्ति को प्रभावित किया है। उन्होंने बताया कि जिन लोगों में प्रतिरक्षा जीन के दुर्लभ संस्करण की दो प्रतियां थीं उनमें से लगभग 20 प्रतिशत लोगों की जान टीबी के कारण गई थी या वे इससे गंभीर रूप से बीमार हुए थे। इनमें से कुछ ही लोगों की संतानें कांस्य युग के बाद तक जीवित रह सकी थीं। दी अमेरिकन जर्नल ऑफ ह्यूमन जेनेटिक्स में शोधकर्ता बताते हैं कि नतीजतन, इस घातक जीन को कम करने के लिए प्राकृतिक चयन ने तेज़ी और दृढ़ता से काम किया और इस संस्करण में कमी आई। यदि मनुष्य में इस जीन संस्करण की दो प्रतियां होंगी और साथ ही वहां टीबी फैला होगा तो यह आबादी के लिए जोखिमपूर्ण होगा।

यह अध्ययन तो यह समझने के लिए मात्र शुरुआत है कि हमारी प्रतिरक्षा प्रणाली विशिष्ट रोगजनकों के साथ किस तरह विकसित होती है। बहरहाल कुछ शोधकर्ता चिंता जताते हैं कि यह जानने की तत्काल आवश्यकता है कि P1104A संस्करण दुनिया में कितना फैला है। टीबी वाले देशों जैसे भारत, इंडोनेशिया, चीन और अफ्रीका के कुछ हिस्सों की आबादी में तो यह संस्करण दुर्लभ है, लेकिन यूके बायोबैंक डैटाबेस के अध्ययन में देखा गया है कि प्रत्येक 600 में से एक ब्रिटिश व्यक्ति में इस संस्करण की दो प्रतियां उपस्थित हैं। यदि वहां टीबी का प्रकोप होगा तो वे गंभीर संक्रमण या मृत्यु के अत्यधिक जोखिम में होंगे। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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टीके की प्रभाविता का क्या मतलब है?

न दिनों अमेरिकी कंपनी जॉनसन एंड जॉनसन के टीके को यूएस के खाद्य व औषधि प्रशासन ने आपात उपयोग की स्वीकृति दे दी है। स्वीकृति के निर्णय के पीछे कंपनी द्वारा टीके की प्रभाविता सम्बंधी आंकड़े महत्वपूर्ण रहे। समय-समय पर विभिन्न टीकों की प्रभाविता सम्बंधी आंकड़े प्रकाशित होते रहे हैं।

देखा जाए तो टीके के परीक्षणों में प्रभाविता का पता लगाना महत्वपूर्ण है लेकिन पेचीदा भी है। यदि किसी टीके की प्रभाविता 95 प्रतिशत है तो इसका मतलब यह नहीं कि टीका प्राप्त पांच प्रतिशत लोग कोविड-19 से बीमार हो जाएंगे। यह भी ज़रूरी नहीं कि परीक्षण के दौरान किसी टीके की अधिक प्रभाविता के कारण उसे अन्य टीकों की तुलना में बेहतर माना जाए।

वास्तव में प्रभाविता यह दर्शाती है कि एक टीका किस हद तक बीमार पड़ने के जोखिम को कम कर सकता है। उदाहरण के लिए, जॉनसन एंड जॉनसन कंपनी ने सबसे पहले यह देखा कि कितने लोग कोविड-19 टीका लगने के बावजूद बीमार हुए हैं। इसके बाद उन्होंने प्लेसिबो प्राप्त कोविड-19 से ग्रसित लोगों से इसकी तुलना की। इसके बाद जोखिम के अंतर की गणना प्रतिशत में की गई। यदि यह अंतर शून्य प्रतिशत हो तो इसका मतलब है टीकाकृत लोग उतने ही जोखिम में हैं जितना प्लेसिबो प्राप्त लोग। दूसरी ओर, यदि अंतर 100 प्रतिशत हो तो इसका मतलब होगा कि टीके द्वारा जोखिम को पूरी तरह से समाप्त कर दिया गया है। अमेरिका के परीक्षण स्थल पर जॉनसन एंड जॉनसन ने 72 प्रतिशत प्रभाविता पाई है।             

गौरतलब है कि प्रभाविता परीक्षण पर परीक्षण के स्थान जैसे कई कारकों का असर पड़ता है। जॉनसन एंड जॉनसन ने अमेरिका, लैटिन अमेरिका और दक्षिण अफ्रीका में परीक्षण किया है। इसमें तीनों स्थानों की समग्र प्रभाविता अमेरिका में अनुमानित प्रभाविता से कम पाई गई। इसका संभावित कारण यह हो सकता है दक्षिण अफ्रीका परीक्षण में नए (बी.1.351) संस्करण के आने के बाद किया गया था। इस संस्करण में कुछ ऐसे उत्परिवर्तन पाए गए हैं जो टीकाकरण से प्राप्त एंटीबॉडी से बच निकलने में सक्षम थे। हालांकि इससे टीका पूरी तरह असरहीन नहीं हुआ और दक्षिण अफ्रीका में भी प्रभाविता 64 प्रतिशत दर्ज की गई।

इसके अलावा, प्रभाविता का आंकड़ा इस बात पर भी निर्भर करता है कि किस परिणाम में अंतर को देखा जा रहा है। उदाहरण के लिए, जॉनसन एंड जॉनसन के टीके ने कोविड-19 के गंभीर मामलों के खिलाफ 85 प्रतिशत प्रभविता दर्शाई। यानी इस टीके से अस्पताल में भर्ती लोगों की संख्या और मौतों को कम किया जा सकता है।

पिछले वर्ष एफडीए ने कोरोनावायरस टीके के परीक्षण के लिए मापदंड निर्धारित किए थे। इसमें प्रत्येक टीका निर्माता को 50 प्रतिशत प्रभाविता और 30 प्रतिशत विश्वसनीयता प्रदर्शित करना अनिवार्य था। 30 प्रतिशत विश्वसनीयता या कॉन्फिडेन्स इंटरवल से पता चलता है कि वास्तविक मान किन आंकड़ों के बीच रहने की संभावना 30 प्रतिशत है। अभी तक फाइज़र एवं बायोएनटेक, मॉडर्ना और जॉनसन एंड जॉनसन द्वारा निर्मित तीन टीके एफडीए के निर्धारित लक्ष्यों को पूरा कर पाए हैं। इसके अलावा, एस्ट्राज़ेनेका और नोवावैक्स तथा स्पुतनिक वी ने अन्य देशों में किए गए प्रभाविता अध्ययन के परिणाम प्रकाशित किए हैं।    

कई कारणों से इन सभी टीकों के बीच सटीक तुलना करना संभव नहीं है। ऐसा संभव है कि एक टीके का पॉइंट एस्टीमेट दूसरे टीके की तुलना में अधिक हो लेकिन उनके विश्वसनीयता के परास एक समान हो सकते हैं। ऐसे में उनके परिणामों की तुलना नहीं की जा सकती। इसके अलावा टीकों का परीक्षण महामारी के विभिन्न चरणों में विभिन्न लोगों पर किया गया है। प्रभाविता को भी अलग-अलग तरीकों से मापा गया है। उदाहरण के लिए जॉनसन एंड जॉनसन ने टीके की पहली खुराक के 28 दिन बाद प्रभाविता का मापन किया जबकि मॉडर्ना ने दूसरी खुराक के 14 दिन बाद मापा था। अलबत्ता, ये तीनों टीके कोविड-19 के जोखिम को काफी हद तक कम करते हैं।     

सभी टीकों ने अस्पताल में भर्ती होने की ज़रूरत और मृत्यु की रोकथाम में उच्च प्रभाविता दर्शाई है। उदाहरण के लिए जॉनसन एंड जॉनसन का टीका पाने वाले एक भी व्यक्ति को टीका लगने के 28 दिनों और उससे अधिक समय बाद भी कोविड-19 संक्रमण के कारण अस्पताल में भर्ती नहीं होना पड़ा था दूसरी ओर, प्लेसिबो प्राप्त 16 लोगों को भर्ती होना पड़ा था। यानी प्रभाविता 100 प्रतिशत है जिसमें 74.3 प्रतिशत से 100 प्रतिशत तक का कॉन्फिडेन्स इंटरवल पाया गया।  

गौरतलब है कि नैदानिक परीक्षण वास्तव में टीकों पर शोध की शुरुआत भर है। इनके व्यापक उपयोग के बाद प्रभाविता की बजाय प्रभावशीलता को मापा जाता है। इससे यह पता लगाया जा सकता है कि वास्तविक परिस्थिति में कोई टीका किस हद तक बीमारी के जोखिम से बचा सकता है। हालांकि शुरुआती अध्ययन से कोरोनावायरस टीकों द्वारा मज़बूत सुरक्षा मिलने की पुष्टि हुई है, लेकिन आने वाले समय में शोधकर्ताओं की नज़र टीके की प्रभावशीलता पर रहेगी। कुछ भी बदलाव होने पर नए टीकों का निर्माण किया जाएगा और टीका निर्माता प्रभाविता के नए आंकड़े प्रस्तुत करेंगे। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कोविड के स्रोत की जांच अभी भी जारी

विगत 9 फरवरी को वुहान में आयोजित पत्रकार वार्ता में विश्व स्वास्थ्य संगठन (डबल्यूएचओ) की टीम ने कोरोनावायरस की उत्पत्ति पर महीने भर की जांच के अपने निष्कर्ष प्रस्तुत किए हैं। अपनी रिपोर्ट में शोधकर्ताओं ने प्रयोगशाला से वायरस के गलती से लीक होने के विवादास्पद सिद्धांत को निरस्त कर दिया है। उनका अनुमान है कि सार्स-कोव-2 ने किसी जीव से मनुष्यों में प्रवेश किया है। यह अन्य शोधकर्ताओं के निष्कर्षों से मेल खाता है। टीम ने अपनी रिपोर्ट में चीन सरकार और मीडिया द्वारा प्रचारित दो अन्य परिकल्पनाएं भी प्रस्तुत की हैं: यह वायरस या इसका कोई पूर्वज चीन के बाहर किसी जीव से आया और एक बार लोगों में फैलने पर यह फ्रोज़न वन्य जीवों और अन्य कोल्ड पैकेज्ड सामान में भी फैल गया।

अलबत्ता, रिपोर्ट पर अन्य शोधकर्ताओं की प्रतिक्रिया मिली-जुली रही है। वाशिंगटन स्थित जॉर्जटाउन युनिवर्सिटी की वायरोलॉजिस्ट एंजेला रैसमुसेन के अनुसार वायरस उत्पत्ति सम्बंधी निष्कर्ष दो सप्ताह में दे पाना संभव नहीं है। हालांकि ये निष्कर्ष चीन सरकार के सहयोग से एक लंबी जांच का आधार तो बनाते ही हैं। कुछ शोधकर्ताओं के अनुसार चीनी और अंतर्राष्ट्रीय वैज्ञानिकों की इस टीम ने गंभीर सवाल उठाए हैं और व्यापक रूप से डैटा का भी अध्ययन किया है। आने वाले समय में अधिक विस्तृत रिपोर्ट की उम्मीद की जा सकती है।

लेकिन कुछ अन्य वैज्ञानिकों के अनुसार यह जांच कोई नई जानकारी प्रदान नहीं करती। इस रिपोर्ट में वायरस के किसी जंतु के माध्यम से फैलने के प्रचलित नज़रिए की ही बात कही गई है। इसके अलावा रिपोर्ट में चीनी सरकार द्वारा प्रचारित दो परिकल्पनाओं पर ज़ोर दिया गया है। साथ ही चीन में ‘कोल्ड फूड चेन’ के माध्यम से शुरुआती संक्रमण फैलने का विचार भी सीमित साक्ष्यों पर आधारित है। हालांकि, वैज्ञानिकों का मानना है कि टीम के पास अभी भी ऐसी जानकारी हो सकती है जिसे सार्वजनिक नहीं किया गया है। इस विषय में डबल्यूएचओ टीम के सदस्य और मेडिकल वायरोलॉजिस्ट डोमिनिक डायर का अनुमान है कि कोरोनावायरस का संक्रमण चीनी बाज़ारों में दूषित मछली और मांस के कारण फैला है जिसकी अधिक जानकारी लिखित रिपोर्ट में प्रस्तुत की जाएगी।

डबल्यूएचओ ने वायरस के प्रयोगशाला से लीक होने के विचार पर भी अध्ययन किया है। इस बारे में अध्ययन के प्रमुख और खाद्य-सुरक्षा एवं ज़ूनोसिस विशेषज्ञ पीटर बेन एम्बरेक ने इस संभावना को खारिज किया है। क्योंकि वैज्ञानिकों के पास दिसंबर 2019 के पहले इस वायरस की कोई जानकारी नहीं थी इसलिए प्रयोगशाला से लीक होने का विचार बेतुका है। इसके साथ ही टीम को प्रयोगशाला में किसी प्रकार की दुर्घटना के भी कोई साक्ष्य नहीं मिले हैं। हालांकि टीम ने प्रयोगशाला की फॉरेंसिक जांच नहीं की है।                      

कुछ वैज्ञानिकों के अनुसार यह निष्कर्ष वुहान में हुई घटनाओं को तो ठीक तरह से प्रस्तुत करते हैं लेकिन महामारी के बढ़ने और इसके राजनीतिकरण होने की वजह से प्रयोगशाला से वायरस के लीक होने और प्राकृतिक उत्पत्ति के सिद्धांतों के बीच टकराव अधिक गहरा हो गया है और टीम इसे सुलझाने में नाकाम रही है।

गौरतलब है कि टीम द्वारा अधिकांश जांच वुहान में वायरस के फैलने के शुरुआती दिनों पर केंद्रित है और रिपोर्ट में शहर के शुरुआती संक्रमण के समय को चित्रित करने का प्रयास किया गया है। टीम ने वर्ष 2019 की दूसरी छमाही में वुहान शहर और हुबेई प्रांत के स्वास्थ्य रिकॉर्ड का अध्ययन किया है। इसमें इन्फ्लुएंज़ा जैसी बीमारियों के असामान्य उतार-चढ़ावों पर ध्यान दिया गया है और यह देखा गया कि वहां खांसी-जुकाम की औषधियों की बिक्री में किस तरह के बदलाव आए थे। विशेष रूप से निमोनिया से सम्बंधित मौतों की तलाश की गई है। इसके अलावा टीम ने सार्स-कोव-2 वायरल आरएनए का पता लगाने के लिए 4500 रोगियों के नमूनों की जांच की और वायरस के विरुद्ध एंटीबॉडी के लिए रक्त के नमूनों का विश्लेषण किया। इन सभी जांचों में शोधकर्ताओं को वायरस के दिसंबर 2019 के पहले फैलने के कोई साक्ष्य नहीं मिले हैं।

फिर भी डायर का मानना है कि संक्रमण के स्पष्ट संकेतों की कमी का मतलब यह नहीं कि वायरस समुदाय में पहले ही फैल नहीं चुका था। देखा जाए तो टीम का विश्लेषण सीमित डैटा और एक ऐसी निगरानी प्रणाली पर आधारित था जो किसी नए वायरस के फैलाव को पकड़ पाने के लिए तैयार नहीं की गई थी। वायरस के फैलाव का सही तरह से आकलन करने के लिए शोधकर्ताओं को न केवल स्वास्थ्य केंद्रों में, बल्कि समुदाय स्तर पर अध्ययन करना होगा।

इसके अलावा टीम ने इस वायरस के पीछे एक जंतु को ज़िम्मेदार तो ठहराया है लेकिन संभावित जंतुओं की पहचान नहीं कर पाई है। चीनी शोधकर्ताओं ने देश के कई घरेलू, पालतू और जंगली जीवों का परीक्षण किया था लेकिन ऐसा कोई साक्ष्य नहीं मिल पाया था कि इन प्रजातियों में वायरस मौजूद है। लेकिन यदि इस महामारी को प्राकृतिक संचरण की घटना मानते हैं तो भविष्य में भी जीवों से मनुष्यों में वायरस संचरण की घटनाओं की संभावना बनी रहेगी।

टीम ने कहा है कि वुहान और आसपास के क्षेत्रों में जांच जारी रखना चाहिए। इसमें विशेष रूप से शुरुआती मामलों को ट्रैक करने का प्रयास करना चाहिए ताकि महामारी की शुरुआत का पता लगाने में मदद मिले। टीम के मुताबिक, ज़रूरत इस बात की है कि वुहान प्रांत और अन्य क्षेत्रों में ब्लड बैंक से पुराने नमूनों का विशेषण किया जाए जिनमें संक्रमण का पता लगाने के लिए एंटीबॉडी परीक्षण भी शामिल हों। इसके साथ ही फ्रोज़न वन्य जीवों की संभावित भूमिका का पता लगाने के लिए और अधिक अध्ययन करने की ज़रूरत है। जंतु स्रोत की संभावना का पता लगाने के लिए भी व्यापक परीक्षण करना होंगे।

हाल ही में जापान, कंबोडिया और थाईलैंड के चमगादड़ों में सार्स-कोव-2 से सम्बंधित कोरोनावायरस के मिलने की खबर है। ऐसे में डबल्यूएचओ की टीम ने चीन के बाहर वायरस उत्पत्ति की खोज करने की भी सिफारिश की है। इस विषय पर नेचर कम्युनिकेशन्स में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार जून 2020 में थाईलैंड की गुफाओं में पाए जाने वाले हॉर्सशू चमगादड़ में नया कोरोनावायरस मिला है जिसे RaTG203 नाम दिया गया है। इस वायरस का 91.5 प्रतिशत जीनोम सार्स-कोव-2 से मेल खाता है। इसी तरह के नज़दीक से सम्बंधित अन्य वायरसों का पता चला है। इससे यह कहा जा सकता है कि दक्षिण-पूर्वी एशिया में इस महामारी वायरस के करीबी सम्बंधी अभी भी उपस्थित है।

इसके अलावा शोधकर्ताओं ने कंबोडिया और जापान में संग्रहित फ्रोज़न चमगादड़ों के नमूनों में सार्स-कोव-2 से सम्बंधित कई अन्य कोरोनावायरस की पहचान की है। सार्स-कोव-2 का सबसे करीबी सम्बंधी RaTG13 चीन में पाया गया है। इसका लगभग 96 प्रतिशत जीनोम सार्स-कोव-2 से मेल खाता है। वैज्ञानिकों का मानना है कि यदि चीन में किए गए अध्ययन जितना पैसा और मेहनत दक्षिण-पूर्वी एशिया में लगाए जाएं तो वायरस का और अधिक गहराई से पता लगाया जा सकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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महामारी में वैज्ञानिक मांओं ने अधिक चुनौतियां झेलीं

मार्च 2020 में मिशिगन विश्वविद्यालय की कैंसर विज्ञानी रेशमा जग्सी ने कोविड-19 महामारी के महिला वैज्ञानिकों के काम पर पड़ने वाले प्रतिकूल प्रभाव के बारे में पूर्वानुमान लगाते हुए एक राय लिखी थी। डैटा न होने के कारण संपादकों ने इस राय को प्रकाशित करने से मना कर दिया था। लेकिन इसके बाद से कई टिप्पणीकार यही बात दोहराते आए हैं। अब अध्ययन से प्राप्त प्रमाणों से स्पष्ट हो गया है कि कोविड-19 महामारी में पहले से व्याप्त असमानताएं और बढ़ गर्इं हैं, इस दौर ने महिला वैज्ञानिकों के लिए नई चुनौतियां खड़ी की हैं। खासकर जिन महिला वैज्ञानिकों के बच्चे हैं उन्होंने अपना अनुसंधान कार्य करते रहने के लिए अतिरिक्त संघर्ष किया है।

कुछ विषयों में किए गए अध्ययन के डैटा से पता चलता है कि कोरोना महामारी के शुरुआती महीनों में भेजे गए प्रीप्रिंट्स, पांडुलिपियों, और प्रकाशित शोधपत्रों में महिला लेखकों की संख्या में कमी आई है। 20,000 शोधकर्ताओं पर वैश्विक स्तर पर किए गए सर्वेक्षण में पाया गया है कि इस दौरान पिता-वैज्ञानिकों की तुलना में माता-वैज्ञानिकों के अनुसंधान कार्यों के घंटों में 33 प्रतिशत अधिक की कमी आई है। मई 2020 से जुलाई 2020 तक हुए सर्वेक्षण में यह भी पाया गया कि माता-वैज्ञानिकों ने पिता-वैज्ञानिकों की तुलना में अधिक घरेलू दायित्व निभाए और बच्चों की देखभाल करने में अधिक समय बिताया।

लेकिन इस दौरान थोड़ी सकारात्मक बातें भी दिखीं। एक फंडिंग एजेंसी ने महामारी के दौरान बढ़ी लैंगिक असमानता को पहचाना और उसमें सुधार के प्रयास किए। दरअसल, फरवरी 2020 में केनेडियन स्वास्थ्य अनुसंधान संस्थान ने कोविड-19 सम्बंधी शोध कार्यों के लिए अनुदान की पेशकश की थी, जिसमें एजेंसी ने शोधकर्ताओं को प्रस्ताव भेजने के लिए महज़ 8 दिन की मोहलत दी थी। यह कनाडा में तालाबंदी के पहले की बात है। लेकिन उन्होंने देखा कि प्राप्त प्रस्तावों में से केवल 29 प्रतिशत प्रस्ताव ही महिला शोधकर्ताओं द्वारा भेजे गए थे, यह संख्या पूर्व में भेजे जाने वाले प्रस्तावों की संख्या से लगभग सात प्रतिशत कम थी।

संख्या में इतना अंतर देखने के बाद संस्थान के इंस्टीट्यूट ऑफ जेंडर एंड हेल्थ की निदेशक कारा तेनेनबॉम को लगा कि हमने कहीं कुछ गलती कर दी है। इसीलिए जब संस्थान ने दो महीने बाद कोविड-19 शोध कार्यों के लिए दोबारा प्रस्ताव मंगाए तो उन्होंने प्रस्ताव भेजने की समय सीमा को 8 दिन से बढ़ाकर 19 दिन कर दी और दस्तावेज़ी कार्रवाइयां भी कम कर दीं। प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ में के अनुसार दूसरे दौर में महिलाओं द्वारा भेजे गए प्रस्तावों की संख्या बढ़कर 39 प्रतिशत हो गई थी।

संस्थान द्वारा मांगे गए प्रस्तावों के संदर्भ में लावल युनिवर्सिटी की स्वास्थ्य शोधकर्ता होली विटमैन अपना अनुभव बताती हैं, “जब पहली बार मैंने प्रस्ताव भेजने की समय सीमा महज़ 8 दिन देखी तो मैंने सोचा कि दो बच्चों और अपनी स्वास्थ्य स्थिति के साथ इतने कम समय में अनुदान के लिए देर रात तक बैठकर प्रस्ताव लिखना और भेजना संभव नहीं है। लेकिन जब अनुदान के लिए दोबारा प्रस्ताव मांगे गए तो प्रस्ताव लिखने के लिए पर्याप्त समय था, जिसमें अंतत: मुझे अनुदान मिला भी।”

महामारी के दौर में अधिकांश शोधकर्ताओं के शोध कार्य के घंटों में कमी आई। ताज़ा अध्ययन बताते हैं कि पालक-शोधकर्ताओं, खासकर माता-शोधकर्ताओं के काम के घंटों में बहुत कमी आई है। पिता की तुलना में माताओं ने बच्चे की देखभाल और गृहकार्य करने में अधिक समय बिताया। इस संदर्भ में सान्ता क्लारा युनिवर्सिटी की रॉबिन नेल्सन बताती हैं कि पिछले साल की तुलना में कोरोनाकाल में उनके काम के घंटे घटकर आधे हो गए हैं क्योंकि उनके दो बच्चे अब घर पर होते हैं। कुछ शोधकर्ता अन्य की तुलना में अधिक बाधाओं में काम कर रहे हैं। इसलिए हमें अब अनुदान की प्रक्रिया, समय सीमा, नीतियों आदि पर सवाल उठाने चाहिए।

बोस्टन विश्वविद्यालय के इकॉलॉजिस्ट रॉबिन्सन फुलवाइलर का कहना है कि विश्वविद्यालयों और फंडिंग एजेंसियों को वैज्ञानिकों को यह बताने का भी विकल्प देना चाहिए कि कोविड-19 ने उनके काम में किस तरह की बाधा डाली या प्रभावित किया। इसके अलावा नियोक्ताओं को यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि सभी शोधकर्ताओं को ठीक-ठाक झूलाघर जैसी सुविधाएं मिलें। फुलवाइलर और अन्य माता-वैज्ञानिकों ने प्लॉस बायोलॉजी में इस तरह की व कई अन्य सिफारिशें की हैं। कोरोनाकाल में और स्पष्ट होती असमानता को अब दूर करने के प्रयास करने का वक्त है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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क्या टीके की दूसरी खुराक में देरी सुरक्षित है?

सार्स-कोव-2 महामारी को नियंत्रित करने के प्रयासों में एक बड़ी समस्या टीकों की कमी और उसका वितरण है। ऐसे में कुछ वैज्ञानिकों ने दूसरी खुराक को स्थगित करने का सुझाव दिया है ताकि अधिक से अधिक लोगों को पहली खुराक मिल सके। अमेरिका में अधिकृत फाइज़र टीके की दो खुराकों के बीच 21 दिन और मॉडर्ना के लिए 28 दिन की अवधि तय की गई थी। अब सेंटर फॉर डिसीज़ कंट्रोल एंड प्रिवेंशन ने 42 दिन के अंतराल के निर्देश दिए हैं। ऑक्सफोर्ड युनिवर्सिटी-एस्ट्राज़ेनेका द्वारा निर्मित टीके की दो खुराकों के बीच 12 सप्ताह के अंतराल का सुझाव दिया गया है और दावा है कि यह शायद बेहतर होगा। तो टीके की एक खुराक के बाद आप कितने सुरक्षित हैं और यदि दूसरी खुराक न मिले तो क्या होगा? ऐसे ही कुछ सवालों पर चर्चा।             

दो खुराक क्यों ज़रूरी?

वास्तव में टीकों को प्रतिरक्षा स्मृति बनाने की दृष्टि से तैयार किया जाता है। इसकी मदद से हमारी प्रतिरक्षा प्रणाली को हमलावर वायरसों की पहचान करने और उनसे बचाव करने की क्षमता मिलती है, भले ही प्रणाली ने पहले कभी इनका सामना न किया हो। अधिकांश कोविड टीके नए कोरोनावायरस स्पाइक प्रोटीन की प्रतियों के माध्यम से प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया विकसित करते हैं। दो खुराक देने का मतलब अधिक सुरक्षा प्रदान करना है। ड्यूक ह्यूमन वैक्सीन इंस्टिट्यूट के मुख्य परिचालन अधिकारी थॉमस डेनी के अनुसार पहली खुराक प्रतिरक्षात्मक स्मृति शुरू करती है, तो दूसरी खुराक इसे और ठोस बनाती है। उदाहरण के लिए फाइज़र टीके की एक खुराक से लाक्षणिक संक्रमण के जोखिम में लगभग 50 प्रतिशत की कमी आ सकती है जबकि मॉडर्ना टीके की एक खुराक से यह जोखिम 80 प्रतिशत कम हो जाता है। दोनों खुराकें मिलने पर दोनों टीकों के द्वारा जोखिम लगभग 95 प्रतिशत कम हो जाता है।      

42 दिन के अंतर अनुमति क्यों?

सीडीसी के अनुसार दो खुराकों के बीच 42 दिनों तक की अनुमति का निर्णय इस फीडबैक के आधार पर लिया गया है कि तारीखों का लचीलापन लोगों के लिए मददगार है। जहां यूके में दो खुराकों के बीच की अवधि को बढ़ाने का उद्देश्य अधिक लोगों का टीकाकरण करना है, वहीं सीडीसी का मानना है कि इससे दूसरी खुराक की जटिलता कम होगी। गौरतलब है कि अमेरिका में टीकाकरण देर से शुरू हुआ है और पहली खुराक मिलने के दो महीने बाद मात्र 3 प्रतिशत लोगों को ही दूसरी खुराक मिल पाई है। टीका निर्माता मांग को पूरा करने की कोशिश कर रहे हैं, ऐसे में पूरा टीकाकरण करने में कुछ समझौते तो करने ही होंगे। वैज्ञानिकों के अनुसार पर्याप्त मात्रा में टीके उपलब्ध होने पर अलग रणनीति अपनाई जा सकती है लेकिन फिलहाल उपलब्ध संसाधनों से ही काम चलाना होगा।           

42 दिनों तक आप कितने सुरक्षित हैं

फाइज़र और मॉडर्ना के परीक्षण के आकड़ों के अनुसार लोगों में पहली खुराक के लगभग 14 दिनों बाद सुरक्षा देखी गई है। इस दौरान टीकाकृत लोगों में मरीज़ों की संख्या में कमी और गैर-टीकाकृत लोगों में मरीज़ों की संख्या में वृद्धि देखी जा सकती है। देखा जाए तो दोनों ही टीकों की पहली खुराक कोविड के मामलों को रोकने में 50 प्रतिशत (फाइज़र) और 80 प्रतिशत (मॉडर्ना) प्रभावी थे। परीक्षण किए गए अधिकांश लोगों को दूसरी खुराक 21 या 28 दिन में मिली थी। बहुत थोड़े से लोगों (0.5 प्रतिशत) को 42 दिन इंतज़ार करना पड़ा। इतनी छोटी संख्या के आधार पर कोई निष्कर्ष निकालना कठिन है।    

क्या आंशिक प्रतिरक्षा अधिक खतरनाक वायरस पैदा करेगी?

चूंकि महामारी की शुरुआत में इस वायरस के विरुद्ध किसी तरह की प्रतिरक्षा नहीं थी इसलिए नए कोरोनावायरस के विकसित होने की संभावना बहुत कम थी। लेकिन वर्तमान में लाखों लोगों के संक्रमित होने और एंटीबॉडी विकसित होने से उत्परिवर्तित वायरसों के विकास की संभावना काफी बढ़ गई है। रॉकफेलर युनिवर्सिटी के रेट्रोवायरोलॉजिस्ट पॉल बीनियाज़ के अनुसार टीके किसी भी तरह लगाए जाएं, एंटीबॉडी के जवाब में वायरस विकसित होता ही है।

जिस तरह से एंटीबायोटिक दवाओं का पूरा कोर्स न करने पर एंटीबायोटिक-प्रतिरोधी बैक्टीरिया विकसित होने लगते हैं, उसी तरह ठीक से टीकाकरण न होने पर आपका शरीर एंटीबॉडी-प्रतिरोधी वायरस के लिए स्वर्ग बन जाता है। लेकिन कुछ वैज्ञानिकों के अनुसार नए-नए वायरसों के पैदा होने की गति सिर्फ प्रतिरक्षा प्रणाली के मज़बूत या कमज़ोर होने पर नहीं, बल्कि जनसंख्या में उपस्थित वायरस की कुल संख्या पर भी निर्भर करती है। बड़े स्तर पर टीकाकरण के बिना नए संस्करणों की संख्या बढ़ने का खतरा है।   

क्या पहली और दूसरी खुराक के बीच लंबा अंतराल टीके को अधिक प्रभावी बना सकता है?

ऐसी संभावना से इन्कार तो नहीं किया जा सकता। देखा जाए तो सभी कोविड टीके एक समान नहीं हैं और खुराक देने का तरीका भी विशिष्ट डिज़ाइन पर निर्भर करता है। कुछ टीके mRNA टीके अस्थिर आनुवंशिक सामग्री पर आधारित होते हैं, कुछ स्थिर डीएनए पर तो कुछ अन्य प्रोटीन अंशों पर निर्भर होते हैं। इनको छोटी वसा की बूंदों या फिर निष्क्रिय चिम्पैंज़ी वायरस के साथ दिया जाता है।

ऐसी भिन्नताओं को देखते हुए डीएनए आधारित ऑक्सफोर्ड-एस्ट्राज़ेनेका टीके की दो खुराकों के बीच 12 सप्ताह के अंतराल के बाद भी प्रभाविता बनी रही। यह mRNA आधारित मॉडर्ना और फाइज़र की अनुशंसित अवधि की तुलना में लगभग तीन से चार गुना अधिक है। उम्मीद है कि समय के साथ-साथ शोधकर्ता टीके की खुराक देने की ऐसी योजना बना पाएंगे जो नैदानिक परीक्षणों के दौरान निर्धारित खुराक योजना से भिन्न होगी। (स्रोत फीचर्स)

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क्या टीकों का मिला-जुला उपयोग हो?

फिलहाल 9 टीके हैं जो कोविड-19 की गंभीर बीमारी और मृत्यु की रोकथाम में असरदार पाए गए हैं। लेकिन टीकों की आपूर्ति में कमी को देखते हुए वैज्ञानिक इस सवाल पर विचार और परीक्षण कर रहे हैं कि क्या दो खुराक देने के लिए टीकों का मिला-जुला उपयोग किया जा सकता है। यानी पहली खुराक किसी टीके की दी जाए और बूस्टर किसी अन्य टीके का? यदि ऐसे कुछ सम्मिश्रण कारगर रहते हैं तो आपूर्ति की समस्या से कुछ हद तक निपटा जा सकेगा। यह भी सोचा जा रहा है कि क्या दो अलग-अलग टीकों के मिले-जुले उपयोग से बेहतर परिणाम मिल सकते हैं।

ऐसे मिश्रित उपयोग का एक परीक्षण चालू भी हो चुका है। इसमें यह देखा जा रहा है कि रूस के गामेलाया संस्थान द्वारा विकसित स्पूतनिक-5 का उपयोग एस्ट्राज़ेनेका-ऑक्सफोर्ड द्वारा बनाए गए टीके के बूस्टर डोज़ के साथ किया जा सकता है। इसी प्रकार के अन्य परीक्षण में एस्ट्राज़ेनेका-ऑक्सफोर्ड टीके और फाइज़र-बायोएनटेक द्वारा बनाए गए टीके के मिले-जुले उपयोग पर काम चल रहा है। ये दो टीके अलग-अलग टेक्नॉलॉजी का उपयोग करते हैं। कुछ अन्य परीक्षण अभी विचार के स्तर पर हैं। अलबत्ता, इन परीक्षणों के परिणाम आने तक सावधानी बरतना ज़रूरी है।

अतीत में भी टीकों के मिले-जुले उपयोग के प्रयास हो चुके हैं। जैसे एड्स के संदर्भ में दो टीकों का इस्तेमाल करके ज़्यादा शक्तिशाली प्रतिरक्षा प्राप्त करने के प्रयास असफल रहे थे। ऐसा ही परीक्षण एबोला के टीकों को लेकर भी किया गया था। कुछ मामलों में स्थिति बिगड़ भी गई थी। कोविड-19 के टीकों के मिले-जुले उपयोग की कुछ समस्याएं भी हैं। जैसे हो सकता है कि दो में से एक टीके को मंज़ूरी मिल चुकी हो लेकिन दूसरे को न मिली हो। एक समस्या यह भी हो सकती है कि दो टीके अलग-अलग टेक्नॉलॉजी पर आधारित हों – जैसे एक एमआरएनए पर आधारित हो और दूसरा प्रोटीन पर आधारित हो।

अलबत्ता, टीकों के ऐसे मिश्रित उपयोग का एक फायदा भी है। हरेक टीका प्रतिरक्षा तंत्र के किसी एक भाग को सक्रिय करता है। तो संभव है कि दो अलग-अलग टीकों का उपयोग करके हम दो अलग-अलग भागों को सक्रिय करके बेहतर सुरक्षा हासिल कर पाएं।

जैसे स्पूतनिक-5 टीके में दो अलग-अलग एडीनोवायरस (Ad26, Ad5) का उपयोग सम्बंधित जीन को शरीर में पहुंचाने के लिए किया गया है। दूसरी ओर, एस्ट्राज़ेनेका टीके में प्रमुख खुराक और बूस्टर दोनों में चिम्पैंज़ी एडीनोवायरस (ChAd) का ही उपयोग हुआ है। इसका परिणाम यह हो सकता है कि एक खुराक से उत्पन्न प्रतिरक्षा को दूसरी खुराक स्थगित कर दे। ऐसे में स्पूतनिक और एस्ट्राज़ेनेका के मिले-जुले उपयोग से यह समस्या नहीं आएगी। यह फायदा कई अन्य मिश्रणों में भी संभव है। वैसे सबसे बड़ी बात तो यह है कि ऐसा संभव हुआ तो आपूर्ति की समस्या से निपटा जा सकेगा। (स्रोत फीचर्स)

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अधिक संक्रामक कोविड-19 वायरस से खलबली

डेनमार्क में कोविड-19 संक्रमण दर में कमी राहत के संकेत देते हैं। देशव्यापी लॉकडाउन से दैनिक मामलों में काफी कमी आई है। दिसंबर 2020 के मध्य में प्रतिदिन 3000 मामले अब घटकर कुछ सौ रह गए हैं। लेकिन महामारी मॉडलिंग विशेषज्ञों की प्रमुख कैमिला होल्टन मोलर के अनुसार ये परिणाम आने वाले समय में एक तूफान से पहले की शांति के संकेत हो सकते हैं।

कोविड-19 का ग्राफ वास्तव में दो महामारियों को दर्शाता है। पहली तो वह है जो सार्स-कोव-2 के पुराने संस्करण के कारण हुई और अब तेज़ी से खत्म भी हो रही है। लेकिन यूके में पहली बार पहचाने गए बी.1.1.7 संस्करण का प्रकोप धीरे-धीरे बढ़ रहा है और तीसरी लहर के रूप में नज़र आ रहा है। यदि बी.1.1.7 संस्करण डेनमार्क में इसी रफ्तार से बढ़ता रहा तो यह इस माह के अंत तक वायरस का एक प्रमुख संस्करण बन जाएगा और एक बार फिर कोविड-19 मामलों की संख्या में वृद्धि होने लगेगी।      

ऐसे में अन्य देशों में भी इसी तरह के हालात की संभावना जताई जा रही है। तथ्य यह है कि 58 लाख आबादी वाले डेनमार्क में अन्य देशों की तुलना में व्यापक वायरस-अनुक्रमण तकनीक से कोविड-19 के नए संस्करण का पता चल सका। इन परिणामों के बाद सभी की नज़रें फिलहाल डेनमार्क पर हैं। डैनिश वैज्ञानिकों का अनुमान है कि बी.1.1.7 संस्करण पिछले संस्करणों की तुलना में 1.55 गुना तेज़ी से फैलता है। इस परिस्थिति में जब तक पर्याप्त लोगों को टीका नहीं लग जाता तब तक देश में एक बार फिर लॉकडाउन या अन्य नियंत्रण उपायों को अपनाना होगा। स्थितियों को देखते हुए कुछ महामारी विज्ञानियों का तो मत है कि समाज के अत्यधिक कमज़ोर वर्ग के टीकाकरण के बाद लॉकडाउन खोल देना चाहिए, भले नए मामलों में वृद्धि क्यों न होती रहे।

इस सम्बंध में जनवरी माह के परिणाम काफी चिंताजनक रहे। जनवरी की शुरुआत में ही हर सप्ताह बी.1.1.7 के मामलों में दुगनी रफ्तार से वृद्धि होती गई। इस स्थिति के पहले ही स्कूल और रेस्तरां बंद कर दिए गए, इस नए खतरे से बचने के लिए 10 लोगों के एक साथ इकट्ठा होने की अनुमति को कम करके 5 कर दिया गया, सामाजिक दूरी भी एक मीटर की बजाय दो मीटर कर दी गई। इन सावधानियों से कुल प्रसार दर 0.78 रह गई जो एक अच्छा संकेत है। लेकिन बी.1.1.7 की अनुमानित प्रसार दर 1.07 है जो तेज़ी से बढ़ रही है। इस बीच कुल संक्रमितों में नए संस्करण से संक्रमितों का प्रतिशत दिसंबर 2020 में 0.5 प्रतिशत था और जनवरी के अंत तक बढ़कर 13 प्रतिशत हो गया है।       

फिलहाल डेनमार्क में एक बार फिर लोगों को घर से काम करने के आदेश जारी किए जा सकते हैं और साथ ही कांटेक्ट ट्रेसिंग भी की जा सकती है। इसके साथ ही त्वरित परीक्षण और रोगियों को स्वयं आइसोलेट होने के लिए प्रोत्साहित किया जाएगा। वैज्ञानिकों को ऐसी उम्मीद है कि इस तरह की सावधानियों से बी.1.1.7 लहर को रोका जा सकता है। हालांकि कई लोगों का ऐसा मानना है कि इस लहर को रोका नहीं जा सकता है। यूके में बी.1.1.7 के मामलों में कमी का कारण लोगों का पहले से ही इस वायरस से संक्रमित होना है जो अब इस संस्करण के प्रति अतिसंवेदनशील नहीं हैं। फिलहाल डेनमार्क को इस संस्करण के लिए प्रसार दर को एक से कम रखने की कोशिश करना होगा जिससे उम्मीद है कि अप्रैल तक स्थिति को पूरी तरह से नियंत्रण में किया जा सकता है। उस समय तक मौसम भी मददगार होगा।

लेकिन लंबे समय तक देश भर में लॉकडाउन लगाना काफी कठिन हो सकता है। वर्तमान में जनता ने नए मामलों में कमी आने के बाद भी सरकार के लॉकडाउन के फैसले को स्वीकार कर लिया है लेकिन भविष्य में इसे खत्म करने का दबाव आने की संभावना है। ऐसे में 8 फरवरी से कक्षा 1 से लेकर 4 तक के स्कूल शुरू करते हुए लॉकडाउन में ढील देने की शुरुआत की जा चुकी है। कुछ वैज्ञानिकों के अनुसार लॉकडाउन को देर से खत्म करना काफी महंगा पड़ सकता है। इसकी बजाय वैज्ञानिकों का सुझाव है कि 50 वर्ष से अधिक और अन्य अतिसंवेदनशील समूहों के टीकाकरण के बाद लॉकडाउन को खत्म करना अधिक उचित होगा। इस स्थिति में कोविड के मामलों में वृद्धि तथा कुछ लोगों की मौत की भी संभावना रहेगी।     

लेकिन इस तरीके को कुछ वैज्ञानिकों ने अभी भी पसंद नहीं किया है। उनका मानना है कि इस तरह से मामलों में वृद्धि होने देना सही उपाय नहीं है। अधिक संक्रमण का मतलब और अधिक उत्परिवर्तित वायरसों के खतरे को बढ़ाना है। ऐसे में हल्के संक्रमण वाले लोगों में दीर्घकालिक स्वास्थ्य समस्याएं बढ़ सकती हैं। (स्रोत फीचर्स)

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आईबीएस का दर्द: स्थानीय प्रतिरक्षा की भूमिका

दुनिया में लाखों लोग इरीटेबल बॉवेल सिंड्रोम (IBS) से पीड़ित हैं। इस समस्या से पीड़ित लोगों को अक्सर पेट में मरोड़, अतिसार, या कब्ज़ का एहसास होता है। स्थिति तब और भी बुरी हो जाती है जब डॉक्टर कहते हैं कि ऐसा किसी चिंता की वजह से हो रहा है, या यह परेशानी महज उनके दिमाग की उपज है।

के.यू. ल्युवेन के गैस्ट्रोएन्टरोलॉजिस्ट गाय बोक्सटेन्स डॉक्टरों के इन तर्कों को नज़रअंदाज करके, वर्षों से आईबीएस के एक महत्वपूर्ण लक्षण को समझने की कोशिश कर रहे थे। लक्षण यह है कि इससे पीड़ित लोगों को पेटदर्द अक्सर खाने के बाद शुरू होता है। हाल ही में उन्होंने और उनके साथियों ने नेचर पत्रिका में बताया है कि आईबीएस से पीड़ित लोगों को दर्द का यह एहसास आंत में खाद्य पदार्थ के प्रति स्थानीय एलर्जी के कारण होता है।

तकरीबन 15 साल पहले बोलोग्ना विश्वविद्यालय के गैस्ट्रोएन्टेरोलॉजिस्ट जियोवानी बारबरा ने अपने अध्ययन में इस सिंड्रोंम से पीड़ित लोगों का प्रतिरक्षा तंत्र थोड़ा भिन्न पाया था। उन्होंने पीड़ितों की आंतों के ऊतकों की बायोप्सी करने पर इनमें मास्ट कोशिका नामक प्रतिरक्षा कोशिकाएं सक्रिय पाई थीं। आम तौर पर मास्ट कोशिकाएं शरीर के लिए एक चेतावनी प्रणाली की तरह कार्य करती हैं – संक्रमण होने पर या परजीवी जैसे किसी घुसपैठिए के हमले पर हिस्टेमीन जैसे रसायन पैदा करती हैं। उन्होंने यह भी देखा कि आईबीएस से पीड़ित लोगों में (जिनमें वास्तव में कोई संक्रमण नहीं था) न सिर्फ मास्ट कोशिकाएं सक्रिय थीं बल्कि वे असामान्य रूप से तंत्रिका कोशिकाओं के नज़दीक थीं और उन्हें अत्यधिक सक्रिय होने के लिए उकसा रही थीं। तब, कई वैज्ञानिकों ने उनकी इस बात पर यकीन नहीं किया कि आईबीएस का दर्द आंत के जीव विज्ञान के कारण हो सकता है।

लेकिन बोक्सटेन्स ने इस पर और विस्तार से अध्ययन करना शुरू किया। उन्होंने आईबीएस की शुरुआत करने वाले ट्रिगर का अध्ययन किया। कतिपय लक्षणहीन संक्रमण या फूड पॉइज़निंग आईबीएस को शुरू कर सकते हैं। पाया गया कि 10 प्रतिशत लोग आंतों के संक्रमण से तो उबर गए थे लेकिन आईबीएस से पीड़ित हो गए थे। इस आधार पर उन्होंने सोचा कि हो सकता है संक्रमण के बाद आंतों में थोड़ी सूजन बनी रहती हो, जो आईबीएस के जीर्ण दर्द का कारण बनती हो। लेकिन आईबीएस से पीड़ित लोगों की आंतों के ऊतक की बायोप्सी में सूजन नहीं दिखी।

तब शोधकर्ताओं ने सोचा कि आंत का संक्रमण इस बात पर असर डालता है कि वह खाद्य पदार्थों में मौजूद एंटीजन नामक प्रोटीन अवशेषों को कैसे बरदाश्त करेगी। संक्रमण होने पर आंत की प्रतिरक्षा प्रणाली जाग जाती है और हो सकता है कि खाद्य पदार्थ में मौजूद एंटीजन को अपना शत्रु समझने लगे। यदि संक्रमण खत्म होने के बाद भी आंत में प्रतिरक्षा प्रणाली की यही प्रतिक्रिया बनी रहती है तो हो सकता है कि यही आईबीएस दर्द का कारण बन जाए।

अपनी इस परिकल्पना को जांचने के लिए शोधकर्ताओं ने कुछ चूहों को आंत के लिए हानिकारक बैक्टीरिया से संक्रमित किया, और साथ में उन्हें अंडे की सफेदी (एंटीजन के स्रोत के रूप में) खिलाई। आंत का संक्रमण खत्म होने के बाद इन चूहों को फिर वही एंटीजन खिलाया गया। ऐसा करने पर चूहों को पेट में दर्द का अनुभव हुआ, जो पेट की मांसपेशियों के संकुचन से नापा गया। दूसरी ओर, नियंत्रण समूह के चूहे, जिन्हें संक्रमण के समय अंडे की सफेदी नहीं खिलाई गई थी, उन्हें संक्रमण ठीक होने का बाद सफेदी खिलाने पर कोई परेशानी नहीं हुई।

शोधकर्ताओं ने यह भी पाया कि संक्रमण के बाद अंडे के सफेद हिस्से का प्रोटीन उसी तरह की शृंखला अभिक्रिया शुरू कर देता है जैसी किसी खाद्य पदार्थ से एलर्जी के समय होती है। सफेद हिस्से का प्रोटीन मास्ट कोशिकाओं के इम्युनोग्लोबुलिन ई (IgE) एंटीबॉडी से जुड़ जाता है। चूहों में भी मास्ट कोशिकाएं सक्रिय हो जाती हैं और अपने रसायन रुाावित करती हैं। शोधकर्ताओं ने पाया कि चूहों में अंडे के प्रोटीन के प्रति प्रतिक्रिया चार सप्ताह तक बनी रही। उन्होंने यह भी देखा कि मास्ट कोशिकाओं की नज़दीकी तंत्रिकाएं अतिसंवेदनशील और उत्तेजित हो जाती हैं जिससे दर्द का एहसास होता है।

शोधकर्ता बताते हैं कि यह फूड एलर्जी नहीं है क्योंकि प्रतिरक्षा प्रणाली की प्रतिक्रिया आंत तक ही सीमित थी। खाद्य पदार्थों से होने वाली एलर्जी, जैसे मूंगफली या गाय के दूध से एलर्जी, में लोगों में IgE एंटीबॉडीज़ रक्त प्रवाह में प्रवेश कर पूरे शरीर में एलर्जी के लक्षण पैदा कर सकती है। लेकिन इन चूहों के रक्त में IgE नदारद थे।

इस संभावना को मनुष्यों में जांचने के लिए शोधकर्ताओं ने गाय के दूध, ग्लूटेन, गेहूं और सोयाबीन की एलर्जी से मुक्त लेकिन संभवत: आईबीएस से पीड़ित 12 लोगों को ये चार एलर्जीजनक गुदा के माध्यम से दिए। पाया गया कि प्रत्येक प्रतिभागी ने इन चारों में से कम से कम एक तरह के एंटीजन के प्रति स्थानीय प्रतिक्रिया दी। जबकि आठ स्वस्थ प्रतिभागियों पर यही परीक्षण करने पर सिर्फ दो लोगों की आंत में सोयाबीन या ग्लूटेन के प्रति आंशिक प्रतिक्रिया दिखी। (लगता है कि कई लोगों में हल्की प्रतिक्रिया होती है जो उनकी आंत सहन कर जाती है।)

लेकिन ये निष्कर्ष कई नए सवाल उठाते हैं। जैसे क्या यह स्थिति कुछ ही खाद्य पदार्थों के साथ बनती है या सामान्य है? वर्तमान के आईबीएस उपचार लक्षणों से राहत दिलाने के लिए होते हैं। लेकिन अगर सिंड्रोम मास्ट कोशिकाएं और IgE प्रतिक्रिया के कारण हो रहा है तो कुछ मामलों में ही सही, इम्यून थेरपी उपयोगी साबित हो सकती है। इसके अलावा, संक्रमण से प्रेरित आईबीएस तो मात्र एक प्रकार है, इसके अन्य प्रकार भी हैं। जैसे तनाव जनित आईबीएस। तो सवाल है कि क्या यह स्थानीय प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया सिर्फ संक्रमण-जनित आईबीएस का मामला है या सामान्य रूप से पाई जाती है। फिलहाल शोधकर्ता इसी सवाल का जवाब पता करने की कोशिश कर रहे हैं। (स्रोत फीचर्स)

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वायरस का नया संस्करण और प्रतिरक्षा

कुछ साक्ष्यों से पता चला है कि कोरोनावायरस के नए संस्करण टीकों और पिछले संक्रमणों से उत्पन्न प्रतिरक्षा को चकमा दे सकते हैं। फिलहाल शोधकर्ता प्रयोगशाला से प्राप्त अध्ययनों की मदद से इस वायरस के उभरते हुए संस्करणों और उत्परिवर्तनों को समझने का प्रयास कर रहे हैं। इम्पीरियल कॉलेज लंदन के प्रतिरक्षा विज्ञानी डेनियल ऑल्टमन के अनुसार कोविड-19 टीकों की प्रभाविता में कमी आ सकती है।

लेकिन ऑल्टमन और अन्य वैज्ञानिकों के अनुसार डैटा अभी तक पूरी तरह से स्पष्ट नहीं है। अध्ययनों में टीका प्राप्त या कोविड-19 से स्वस्थ हो चुके लोगों में मात्र एंटीबॉडीज़ द्वारा विभिन्न संस्करणों को बेअसर करने की ही जांच की गई है। प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया के अन्य घटकों के प्रभावों पर अध्ययन नहीं किया गया है। इसके अलावा अध्ययनों में इस सम्बंध में कोई संकेत नहीं मिले हैं कि एंटीबॉडी की गतिविधियों में परिवर्तन के कारण टीके की प्रभाविता या पुन:संक्रमण की संभावना पर कोई असर होगा या नहीं।

शोधकर्ता सबसे अधिक चिंतित 2020 के अंत में दक्षिण अफ्रीका में पाए गए संस्करण से है। डरबन स्थित युनिवर्सिटी ऑफ क्वाज़ूलू-नेटल के जैव-सूचना विज्ञानी टूलियो डी ओलिवेरा के नेतृत्व में एक टीम ने नए संस्करण (501Y.V2) को पूर्वी केप प्रांत में सबसे तेज़ी से फैलने वाला प्रकोप बताया है। यह दक्षिण अफ्रीका से अन्य देशों में भी फैल गया है। इसकी मुख्य विशेषताओं में स्पाइक प्रोटीन में उत्परिवर्तन हैं जो वायरस को मेज़बान कोशिकाओं की पहचान करने और संक्रमित करने में मदद करते हैं। इसमें कुछ बदलाव ऐसे भी हुए हैं जो वायरस के विरुद्ध एंटीबॉडी को भी कमज़ोर करते हैं। 

अधिक गहराई से जांच करने के लिए ओलिवेरा की टीम ने 501 Y.V2 को अलग किया। फिर उन्होंने इस संस्करण के नमूनों का परीक्षण रक्त में उपस्थित एंटीबॉडी युक्त भाग से किया जिसे सीरम कहते हैं। ये नमूने 6 ऐसे लोगों से लिए गए थे जो वायरस के किसी अन्य संस्करण से बीमार हुए थे और अब स्वस्थ हो चुके थे। उम्मीद थी कि स्वस्थ हो चुके लोगों की सीरम (उपशमक सीरम) में ऐसी एंटीबॉडीज़ होंगी जो संक्रमण को रोकने में सक्षम होंगी। लेकिन शोधकर्ताओं ने पाया कि यह उपशमक सीरम महामारी के शुरुआती वायरस संस्करणों की तुलना में 501 Y.V2 के विरुद्ध बेअसर रहा। हालांकि, कुछ लोगों के प्लाज़्मा ने 501 Y.V2 के विरुद्ध बेहतर प्रदर्शन किया लेकिन क्षमता काफी कम पाई गई।  

एक अन्य अध्ययन में नेशनल इंस्टीट्यूट फॉर कम्यूनिकेबल डिसीसेज़ के विषाणु विज्ञानी पेनी मूर के नेतृत्व में एक टीम ने 501 Y.V2 में पाए जाने वाले स्पाइक उत्परिवर्तनों के विभिन्न संयोजनों में इस उपशमक सीरम के प्रभावों की जांच की। यह उन्होंने एक ‘कूट-वायरस’ (यानी एच.आई.वी. का एक रूप जो स्पाइक प्रोटीन की मदद से कोशिका में प्रवेश करता है) की मदद से किया। इन प्रयोगों से पता चला कि 501 Y.V2 में ऐसे उत्परिवर्तन हुए हैं जो न्यूट्रलाइज़िंग एंटीबॉडी के प्रभावों को कमज़ोर करते हैं। 501 Y.V2 उत्परिवर्तन वाले कूट-वायरस 44 में से 21 प्रतिभागियों के उपशमक सीरम से अप्रभावित रहे और अन्य लोगों के सीरम के लिए भी आंशिक रूप से प्रतिरोधी रहे। इन परिणामों के बाद ओलिवेरा का अनुमान है कि दक्षिण अफ्रीका में पुन:संक्रमण के पीछे 501 Y.V2 संस्करण मुख्य कारण हो सकता है।

फिलहाल दोनों ही टीमें जल्द ही कोविड-19 टीका परीक्षण में शामिल लोगों के सीरम से 501 Y.V2 संस्करण का परीक्षण करने वाली हैं। गौरतलब है कि इन लोगों को जो टीका लगा था वह वायरस के मूल संस्करण के लिहाज़ से बना था। इसके अलावा अन्य प्रयोगशालाओं में भी फाइज़र या मॉडर्ना mRNA टीका प्राप्त लोगों के सीरम एकत्रित कर इस तरह के परीक्षण किए जा रहे हैं। अब तक के प्रयोग बताते हैं कि इन व्यक्तियों के सीरम की एंटीबॉडी कुछ हद तक नए संस्करण पर भी प्रभावी हैं। लेकिन अन्य उत्परिवर्तनों पर जांच करना ज़रूरी होगा।

कोविड-19 टीके उच्च स्तर की एंटीबॉडी जारी करते हैं जो स्पाइक प्रोटीन के विभिन्न क्षेत्रों को लक्षित करती हैं। ऐसे में कुछ अणु तो वायरस के संस्करणों को अवरुद्ध करने में सक्षम हो सकते हैं। और प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया के अन्य घटक (जैसे टी-कोशिकाएं) शायद वायरस में उत्परिवर्तनों से प्रभावित न हों।

फिलहाल चल रहे प्रभाविता परीक्षण और विभिन्न देशों के टीकाकरण अभियान वायरस के अलग-अलग संस्करणों पर टीकों के प्रभावों को उजागर कर पाएंगे। दक्षिण अफ्रीका में कई टीकों के परीक्षण चल रहे हैं और शोधकर्ता काफी गंभीरता से 501 Y.V2 संस्करण वाले कोविड-19 की क्षमता में गिरावट की उम्मीद कर रहे हैं।

इसके साथ ही यूके में तेज़ी से फैल रहे B.1.1.7 संस्करण के बारे में भी सुराग मिलने लगे हैं। बायोएनटेक द्वारा कूट-वायरस प्रयोगों से पता चला है कि B.1.1.7 के उत्परिवर्तित स्पाइक पर 16 लोगों के सीरम का बहुत कम प्रभाव पड़ा है। इन 16 लोगों को फाइज़र का टीका लगा था। इसी दौरान कैंब्रिज विश्वविद्यालय के विषाणु विज्ञानी रवीन्द्र गुप्ता ने 15 लोगों के सीरम पर अध्ययन किया, जिनको यही टीका लगा था। उन्होंने पाया कि 10 लोगों का सीरम अन्य सार्स-कोव-2 संस्करणों की तुलना में B.1.1.7 के विरुद्ध कम प्रभावी रहा।

देखा जाए तो हाल में प्राप्त परिणाम अभी काफी अस्पष्ट हैं। फिलहाल शोधकर्ताओं की पहली प्राथमिकता यह पता लगाने की है कि 501 Y.V2 उत्परिवर्तन पुन:संक्रमण के लिए ज़िम्मेदार है या नहीं। यदि है तो झुंड प्रतिरक्षा का विचार एक कल्पना मात्र ही रह जाएगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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