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ओमिक्रॉन संस्करण के उभार ने एक बार फिर चिंता बढ़ा दी है। हाल ही में प्रकाशित एक अध्ययन से पता चला है कि ओमिक्रॉन ऐसे लोगों को संक्रमित करने की क्षमता रखता है जो पूर्व में वायरस के प्रभाव से उबर चुके हैं। अर्थात यह नया संस्करण प्रतिरक्षा तंत्र के कुछ हिस्सों को चकमा देने में सक्षम है। कुछ विशेषज्ञों के अनुसार यह संस्करण टीका-प्रेरित प्रतिरक्षा से भी बच सकता है।
दक्षिण अफ्रीका बड़े पैमाने पर कोविड-19 की तीन लहरों – मूल वायरस, बीटा संस्करण और डेल्टा संस्करण – का सामना कर चुका है। अध्ययनों से पता चलता है कि पूर्व-संक्रमण ने बीटा और डेल्टा के विरुद्ध अपूर्ण लेकिन महत्वपूर्ण सुरक्षा प्रदान की थी और उम्मीद थी कि दक्षिण अफ्रीका ने झुंड-प्रतिरक्षा विकसित कर ली होगी। लेकिन वैज्ञानिकों को डर है कि ओमिक्रॉन में ऐसे कई उत्परिवर्तन हैं जो प्रतिरक्षा को भेदने में सक्षम हैं।
हाल ही में किए गए एक अध्ययन में 28 लाख पॉज़िटिव मामलों में से 35,670 पुन: संक्रमण के मामले थे। हालांकि, इस अध्ययन में न तो यह बताया गया है कि ओमिक्रॉन किस हद तक लोगों को बीमार करता है और न ही इसमें टीकाकृत लोगों की स्थिति पर कोई चर्चा की गई है। संभावना है कि पूर्व संक्रमण या टीकाकरण गंभीर बीमारी से कुछ हद तक बचा सकेगा।
दक्षिण अफ्रीका की महामारीविद जूलियट पुलियम और उनके सहयोगियों ने पाया कि प्रयोगशाला में बीटा संस्करण पूर्व में संक्रमित लोगों की प्रतिरक्षा से बच निकलने में सक्षम है। वे इस व्यवहार को वास्तविक परिस्थिति में समझना चाहते थे।
शोधकर्ताओं ने व्यापक डैटा का उपयोग करते हुए पुन:संक्रमण की संख्या का विश्लेषण किया। पुन:संक्रमण को प्रारंभिक संक्रमण के 90 दिनों से अधिक समय बाद पॉज़िटिव परीक्षण के रूप में परिभाषित किया गया। उन्होंने पाया कि पूर्व-संक्रमणों ने बीटा और डेल्टा लहरों के दौरान लोगों के संक्रमित होने के जोखिम को कम किया है। इस वर्ष अक्टूबर में जब संक्रमण दर काफी कम थी तब पुलियम ने कुछ विचित्र डैटा देखा। उन्होंने पाया कि पहली बार संक्रमण का जोखिम तो कम हो रहा है (संभवतः टीकाकरण में वृद्धि के कारण) लेकिन पुन: संक्रमण का जोखिम तेज़ी से बढ़ रहा है। ओमिक्रॉन की खोज ने कुछ हद तक इस गुत्थी को सुलझा दिया।
हालांकि इस बारे में काफी अनिश्चितताएं हैं लेकिन कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि पूर्व-संक्रमण डेल्टा की तुलना में ओमिक्रॉन के विरुद्ध सिर्फ आधी सुरक्षा देता है।
फिलहाल तो सभी की निगाहें दक्षिण अफ्रीका के अस्पतालों पर टिकी हैं जो एक बार फिर कोविड-19 रोगियों से भरने लगे हैं। इन्हीं स्थानों पर शोधकर्ताओं को कुछ सुराग मिलने की उम्मीद है जिससे यह पता चल सकेगा कि पूर्व के संक्रमण या टीकाकरण किस हद तक पुन:संक्रमण की संभावना व गंभीरता को कम करते हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.economist.com/sites/default/files/images/print-edition/20211204_FBM952.png
प्रोटीन कामकाजी इकाई बन जाएं इसके लिए उन्हें एक सटीक त्रि-आयामी आकार में ढलना पड़ता है। ऐसा न होने पर कई विकार उत्पन्न होते हैं। प्रोटीन का एक विशेष समूह प्रोटीन्स को सही ढंग से तह करने में मदद करता है। इन्हें शेपरॉन प्रोटीन कहते हैं।
डीएनए न्यूक्लियोटाइड्स की एक सीधी शृंखला है, जिसके कुछ हिस्सों का सटीक अनुलेखन संदेशवाहक आरएनए (mRNA) में किया जाता है। फिर आरएनए में निहित संदेश अमीनो अम्लों की एक शृंखला यानी प्रोटीन में बदले जाते हैं। प्रोटीन कामकाजी इकाई बन जाएं इसके लिए उन्हें एक सटीक त्रि-आयामी आकार में ढलना पड़ता है। और अक्सर इस आकार में ढलने के लिए प्रोटीन में तहें अपने आप नहीं बनती हैं। प्रोटीन का एक विशेष समूह इन्हें सही ढंग से तह करने में मदद करता है। इन्हें शेपरॉन (सहचर) प्रोटीन कहते हैं।
जीव विज्ञान में शेपरॉन
वैसे शेपरॉन का विचार विचित्र और पुरातनपंथी लग सकता है, लेकिन जैविक कार्यों में ये महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। नई प्रोटीन शृंखला को सही आकार देने के बाद शेपरॉन वहां से हट जाते हैं। या फिर नई शृंखला हटा दी जाती है। शेपरॉन के बिना नव-संश्लेषित प्रोटीन्स जल्द ही अघुलनशील उलझे गुच्छे बन जाते हैं, जो कोशिकीय प्रक्रियाओं में बाधा डालते हैं।
कई शेपरॉन ‘हीट शॉक’ प्रोटीन (या ऊष्मा-प्रघात प्रोटीन) की श्रेणी में आते हैं। जब भी किसी जीव को उच्च तापमान का झटका (हीट शॉक) लगता है तो उसके प्रोटीन अपना मूल आकार खोने लगते हैं। व्यवस्था को बहाल करने के लिए बड़ी संख्या में शेपरॉन बनते हैं।
शरीर में सामान्य कोशिकीय क्रियाओं के संचालन लिए भी शेपरॉन की आवश्यकता होती है।
प्रोटीन का गलत जगह या गलत तरीके से मुड़ना कई रोगों का कारण बन सकता है। उदाहरण के लिए तंत्रिकाओं में अल्फा-सायन्यूक्लीन प्रोटीन पाया जाता है। यह गलत तह किया गया हो तो पार्किंसन रोग होता है। अल्ज़ाइमर के रोगियों के मस्तिष्क में एमिलॉयड बीटा-पेप्टाइड के गुच्छों से बने प्लाक होते हैं। एमिलॉयड तंतुओं का यह जमाव विषैला होता है जो व्यापक पैमाने पर तंत्रिकाओं का नाश करता है – यह एक ‘तंत्रिका-विघटन’ विकार है। आंख के लेंस के प्रोटीन (क्रिस्टेलिन) के गलत ढंग से तह हो जाने के कारण मोतियाबिंद होता है। आंखों के लेंस में अल्फा-क्रिस्टेलिन नामक प्रोटीन्स प्रचुर मात्रा में होते हैं जो स्वयं शेपरॉन के रूप में कार्य करते हैं – मानव अल्फा क्रिस्टेलिन में एक अकेला उत्परिवर्तन कतिपय जन्मजात मोतियाबिंद के लिए ज़िम्मेदार होता है।
आणविक तापमापी
मनुष्यों में प्रमुख शेपरॉन में HSP70, HSC70 और HSP90 शामिल हैं। इन नामों में जो संख्याएं हैं वे प्रोटीन की साइज़ (किलोडाल्टन में) दर्शाती हैं। सामान्य कोशिकाओं में पाए जाने वाले प्रोटीन्स में से 1-2 प्रतिशत प्रोटीन हीट शॉक प्रोटीन होते हैं। तनाव की स्थिति में इनकी संख्या तीन गुना तक बढ़ जाती है।
HSP70 तो ऊष्मा का संपर्क होने पर बनता है जबकि HSC70 हमेशा सामान्य कोशिकाओं में काफी मात्रा में मौजूद होता है। ऐसा प्रतीत होता है कि HSC70 एक आणविक तापमापी की तरह काम करता है, जिसमें ठंडे (कम तापमान) को महसूस करने की क्षमता है। यह बात कुछ पेचीदा विकारों के अध्ययन से पता चली है। ऐसे विकारों का एक उदाहरण दुर्लभ फैमिलियल कोल्ड ऑटोइन्फ्लेमेटरी सिंड्रोम यानी खानदानी शीत आत्म-प्रतिरक्षा विकार (FCAS) है। इस समूह के विकारों के लक्षणों में त्वचा पर चकत्ते, जोड़ों में दर्द और बुखार शामिल हैं। ये लक्षण कुछ घंटों से लेकर कुछ हफ्तों तक बने रह सकते हैं। इनकी शुरुआत कम उम्र में हो जाती है, और ये ठंड के कारण या थकान जैसे तनाव के कारण शुरू होते हैं। इस विकार के भ्रामक लक्षणों के कारण इसका निदान मुश्किल होता है – पहली बार प्रकट होने के बाद पक्का निदान करने में दस-दस साल लग जाते हैं।
भारत में FCAS ग्रस्त पहला परिवार इस साल अगस्त में पहचाना गया था। बेंगलुरु स्थित एस्टर सीएमआई अस्पताल के सागर भट्टड़ और उनके सहयोगियों ने चार साल के एक लड़के, जिसे अक्सर जाड़ों में चकत्ते पड़ जाते थे, में FCAS के आनुवंशिक आधार का पता लगाया। पता चला है कि उसके दादा सहित परिवार के कई सदस्यों में यही दिक्कतें थी (इंडियन जर्नल ऑफ पीडियाट्रिक्स, अगस्त 2021)।
ठंडा महसूस करने में HSC70 की भूमिका को लेकर सेंटर फॉर सेल्यूलर एंड मॉलीक्यूलर बायोलॉजी के घनश्याम स्वरूप और उनके समूह ने आत्म-प्रतिरक्षा जनित शोथ (ऑटोइन्फ्लेमेशन) की स्थिति शुरू होने की एक रूपरेखा तैयार की है (FEBS जर्नल, सितंबर 2021)।
शीत संवेदना से सम्बंधित विकार उन प्रोटीन्स में उत्परिवर्तन के कारण होते हैं जो शोथ को नियंत्रित करते हैं। शरीर के सामान्य तापमान पर तो HSC70 इन उत्परिवर्तित प्रोटीनों को भी सही ढंग से तह होने के लिए तैयार कर लेता है, और इस तरह ये उत्परिवर्तित प्रोटीन भी सामान्य ढंग से कार्य करते रहते हैं। ठंड की स्थिति में, HSC70 अणु का आकार खुद थोड़ा बदल जाता है और शोथ के लिए ज़िम्मेदार उत्परिवर्तित अणुओं के साथ यह उतनी मुस्तैदी से निपट नहीं पाता। इस कारण दो घंटे के भीतर ही ठंड लगना, जोड़ों में दर्द और त्वचा पर लाल चकत्ते जैसे लक्षण दिखाई देने लगते हैं।
कैंसर कोशिकाएं अंधाधुंध तरह से विभाजित होती हैं। कैंसर की ऐसी तनावपूर्ण स्थिति को बनाए रखने में हीट शॉक प्रोटीन बहुत महत्वपूर्ण होते हैं। कैंसर कोशिकाओं में हीट शॉक प्रोटीन की अधिकता रोग के बिगड़ने का संकेत होता है। कैंसर कोशिकाओं में ऐसे प्रोटीन्स, जो सामान्य रूप से ट्यूमर का दमन करते हैं, में उत्परिवर्तन इकट्ठे होते चले जाते हैं। इस मामले में HSP70 और HSP90 खलनायक की भूमिका निभाते हैं, क्योंकि वे उत्परिवर्तित प्रोटीन को तह करना जारी रखते हैं और ट्यूमर को बढ़ने का मौका देते हैं। प्रयोगशाला में, HSP90 के अवरोधकों ने कैंसर विरोधी एजेंटों के रूप में आशाजनक परिणाम दिए हैं। अलबत्ता, मनुष्यों पर उपयोग के लिए अब तक किसी भी अवरोधक को मंज़ूरी नहीं मिली है, क्योंकि प्रभावी होने के लिए इन रसायनों की जितनी अधिक मात्रा की ज़रूरत होती है वह मानव शरीर के हानिकारक है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://th.thgim.com/sci-tech/science/yls6kc/article37933815.ece/ALTERNATES/FREE_660/12TH-SCIAMINO-ACIDjpg
मच्छर वाहित बीमारियां हज़ारों वर्षों से अभिशाप रही हैं, इनकी वजह से कई सेनाएं परास्त हुईं और अर्थव्यवस्थाएं डगमगाई हैं। ऐसे में मलेरिया के लिए एक प्रभावी टीका आने की रिपोर्ट हमें राहत देती है। इस टीके के क्लीनिकल परीक्षण ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय, सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया और अन्य ने बुर्किना फासो में किए हैं।
पश्चिम अफ्रीकी देश बुर्किना फासो में
मानसून के बाद लंबे समय तक गर्मी पड़ती है,
और तब ही मच्छर बड़े
झुंडों में निकलते हैं। R21 नामक टीके ने 77 प्रतिशत प्रभाविता
दर्शाई है। यह टीका मलेरिया परजीवी, प्लास्मोडियम फाल्सीपेरम, के
सर्कमस्पोरोज़ाइट प्रोटीन (CSP) को लक्षित करता है। इस परजीवी की
स्पोरोज़ाइट अवस्था CSP स्रावित करती है। मच्छर के काटने से CSP और
स्पोरोज़ाइट्स मानव रक्तप्रवाह में प्रवेश कर जाते हैं। CSP
परजीवी को यकृत (लीवर)
में ले जाता है जहां यह यकृत कोशिकाओं में प्रवेश कर जाता है, परिपक्व
होता है और संख्या वृद्धि करता है। फिर, परिपक्व मेरोज़ाइट्स मुक्त होते हैं और
मलेरिया के लक्षण दिखाई देने शुरू हो जाते हैं।
मलेरिया के टीके
हाल ही में डब्ल्यूएचओ ने एक टीके, मॉस्क्यूरिक्स, को
मंज़ूरी दी है। यह टीका यूके के ग्लैक्सो स्मिथ क्लाइन (जीएसके) ने लंदन स्कूल ऑफ
हाइजीन एंड ट्रॉपिकल मेडिसिन के सहयोग से तैयार किया है। इस टीके का परीक्षण
केन्या, मलावी और घाना के 8 लाख से अधिक बच्चों पर किया गया है।
टीका लेने के पहले साल में इसकी प्रभाविता 50 प्रतिशत से अधिक देखी गई है, लेकिन
वक्त बीतने के साथ प्रभाविता कम होती गई। ग्लोबल वैक्सीन एलायंस (जीएवीआई) उन
देशों के लिए टीके खरीदने की योजना बना रहा है जिन्होंने इसकी मांग की है।
हैदराबाद की भारत बायोटेक ने भारत में इस
टीके को विकसित करने के लिए जीएसके के साथ अनुबंध किया है,
जिसके लिए भुवनेश्वर
में विशेष व्यवस्था होगी।
डेंगू से जंग
एक और तेज़ी से फैलने वाली बीमारी है
डेंगू। यह एडीज़ एजिप्टी मच्छरों से फैलती है,
जो ठहरे हुए पानी में
पनपते हैं, जैसे टायर वगैरह में भरा पानी। डेंगू वायरस के चार सीरोटाइप
पाए जाते हैं। सीरोटाइप टीका निर्माण को मुश्किल बनाते हैं, क्योंकि
प्रत्येक सीरोटाइप के लिए अलग टीके की आवश्यकता होती है। सेनोफी पाश्चर द्वारा
डेंगू के खिलाफ तैयार किया गया टीका, डेंगवैक्सिया,
कई देशों में स्वीकृत
है और वायरस के चारों सीरोटाइप के खिलाफ 42 प्रतिशत से 78 प्रतिशत तक कारगर है।
भारत में ज़ायडस कैडिला डेंगू के खिलाफ
डीएनए आधारित एक टीका विकसित कर रही है। तिरुवनंतपुरम स्थित राजीव गांधी सेंटर फॉर
बायोटेक्नॉलॉजी के डॉ. ईश्वरन श्रीकुमार ने चारों सीरोटाइप का एक साझा संस्करण
तैयार किया है जो ज़ायडस कैडिला के डीएनए आधारित टीके की बुनियाद है। इस कार्य में
कोविड-19 टीका विकसित करने के अनुभव का लाभ मिल रहा है।
डेंगू से लड़ने के अन्य नए तरीकों पर भी
काम चल रहा है। इनमें से एक दिलचस्प तरीके में एक बैक्टीरिया, वॉल्बेचिया
पाइपिएंटिस, का उपयोग किया जाता है। वॉल्बेचिया पाइपिएंटिस
एक-कोशिकीय परजीवी है। यह परजीवी सामान्यत: कई कीटों में पाया जाता है, लेकिन
यह डेंगू फैलाने वाले मच्छरों में नहीं होता। जब इस परजीवी को डेंगू फैलाने वाले
मच्छरों की कोशिकाओं में प्रवेश कराया जाता है तो यह डेंगू, चिकनगुनिया, पीत
ज्वर और ज़ीका का कारण बनने वाले अन्य परजीवियों से सफल प्रतिस्पर्धा करता है।
प्रयोगशाला में वॉल्बेचिया से ग्रस्त किए
गए एडीज़ मच्छर उन इलाकों में छोड़े जाते हैं जहां यह बीमारी अधिक होती है। ये
मच्छर फौरन ही स्थानीय एडीज़ मच्छरों में इस बैक्टीरिया को फैला देते हैं, और
डेंगू के नए मामले कम होने लगते हैं। गादजाह मादा विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने
जकार्ता में किए गए एक नियंत्रित अध्ययन में दिसंबर 2017 में शहर के 12 इलाकों में
वॉल्बेचिया से संक्रमित एडीज़ मच्छर के अंडे रखे (9 अन्य इलाकों में नियंत्रण के
तौर पर वॉल्बेचिया-रहित अंडे रखे गए)। मार्च 2020 में कोविड महामारी के कारण
अध्ययन थम जाने तक नियंत्रण वाले 9 इलाकों की तुलना में 12 प्रायोगिक इलाकों में
डेंगू के 77 प्रतिशत कम मामले दर्ज हुए थे। डेंगू के कारण अस्पताल में भर्ती होने
वालों की संख्या में 86 प्रतिशत की गिरावट देखी गई थी और बुखार की तीव्रता भी कम
हुई थी।
रोकथाम
मच्छर वाहित बीमारियों का इलाज करने की
बजाय उनसे बचाव का एक और तरीका यह है इनके अगले प्रकोप की सटीक भविष्यवाणी कर ली
जाए। और उसके मुताबिक अपने स्वास्थ्य तंत्र और मच्छर नियंत्रण प्रणालियों का उपयोग
किया जाए।
मच्छर और प्लास्मोडियम परजीवी दोनों को पनपने के लिए गर्म और नम मौसम की आवश्यकता होती है। NOAA-19 जैसे पर्यावरण उपग्रहों द्वारा लगातार एकत्रित किए गए डैटा का उपयोग करते हुए भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ मलेरिया रिसर्च के वैज्ञानिकों ने ऐसे मॉडल तैयार किए हैं जो मासिक वर्षा डैटा और डेंगू और मलेरिया के वार्षिक राज्य-वार प्रकोप के डैटा को अल-नीनो-सदर्न ऑसीलेशन के साथ जोड़ता है। अल-नीनो-सदर्न ऑसीलेशन वैश्विक वायुमंडलीय प्रवाह को प्रभावित करता है। इस तरह, यह एक पूर्व-चेतावनी उपकरण है जो प्रकोप के शुरू होने, उसके फैलने और संभावित मामलों की संख्या का पूर्वानुमान लगाता है। इस तरह स्वास्थ्य अधिकारी प्रकोप के प्रभाव को कम करने के लिए कई हफ्तों पहले से ही एहतियाती उपाय शुरू कर सकते हैं। भारत में वर्तमान में यह जानकारी राज्य स्तर के लिए उपलब्ध है। अगला कदम ज़िला स्तर पर जानकारी उपलब्ध कराना होना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.thehindu.com/sci-tech/science/9he5xs/article37475340.ece/ALTERNATES/LANDSCAPE_1200/14TH-SCIAEDESjpg
आश्चर्य की बात है कि लोगों के एक ही प्रोटीन की साइज़ में
अंतर हो सकता है – कुछ में छोटा तो कुछ में बड़ा। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि इन
प्रोटीन को कोड करने वाले जीन में डीएनए शृंखला के कुछ खंडों का कई बार दोहराव हो
जाता है। इस दोहराव की संख्या हर व्यक्ति में अलग-अलग हो सकती है। डीएनए खंड का
प्रत्येक दोहराव प्रोटीन में अमीनो अम्ल की एक अतिरिक्त शृंखला जोड़ देता है। जीन
में दोहराव जितनी अधिक बार होगा प्रोटीन का आकार उतना ही बड़ा होगा।
शोधकर्ताओं के अनुसार, जीन के छोटे संस्करण द्वारा
निर्मित प्रोटीन में 1000 अमीनो अम्ल और जीन के लंबे संस्करण द्वारा निर्मित
प्रोटीन में 2000 अमीनो अम्ल तक हो सकते हैं। जीन में यह दोहराव वेरियेबल नंबर ऑफ
टेंडम रिपीट (वीएनटीआर) कहलाता है।
हाल ही में हुए वीएनटीआर के एक व्यापक विश्लेषण में पाया गया है कि ये दोहराव
व्यक्ति के कद और गंजेपन जैसे लक्षणों को काफी प्रभावित करते हैं। साइंस
पत्रिका में प्रकाशित नतीजों के अनुसार वीएनटीआर की मदद से ओझल आनुवंशिकता को
समझने में मदद मिलेगी: देखा गया है कि ज्ञात आनुवंशिक संस्करण मनुष्यों में
बीमारियों,
व्यवहार और अन्य शारीरिक लक्षणों (यानी फीनोटाइप) की व्याख्या
के लिए पर्याप्त नहीं होते।
वैसे तो आनुवंशिकीविद काफी समय से वीएनटीआर के संभावित प्रभावों के बारे में
जानते हैं लेकिन इनका अध्ययन करना तकनीकी कारणों से मुश्किल है। इसलिए ब्रॉड
इंस्टीट्यूट के आनुवंशिकीविद रोनेन मुकामेल और उनके साथियों ने उपलब्ध डीएनए
अनुक्रमण डैटा और सांख्यिकीय तकनीक की मदद से वीएनटीआर के आकार का अनुमान लगाया।
शोधकर्ताओं ने यूके बायोबैंक प्रोजेक्ट के चार लाख से अधिक प्रतिभागियों के
118 प्रोटीन को कोड करने वाले जीन्स में वीएनटीआर के प्रभाव का विश्लेषण किया।
उन्होंने इन वीएनटीआर की लंबाई और 786 विभिन्न फीनोटाइप के बीच सम्बंध देखा। यूके
बायोबैंक में बड़े पैमाने पर लोगों की विस्तृत आनुवंशिक और स्वास्थ्य जानकारी है।
शोधकर्ताओं को विश्लेषण में प्रोटीन के आकार और मनुष्यों के फीनोटाइप के बीच
मज़बूत सम्बंध दिखा। और कई मामलों में वीएनटीआर का प्रभाव किसी अन्य ज्ञात
आनुवंशिक परिवर्तन से अधिक मिला। कुल 19 फीनोटाइप और पांच विभिन्न वीएनटीआर के बीच
मज़बूत सम्बंध दिखा। वीएनटीआर के स्वास्थ्य सम्बंधी प्रभावों में लिपोप्रोटीन(ए)
का उच्च स्तर (जो हृदय धमनी रोग का प्रमुख कारक है) और किडनी कार्यों से जुड़े कई
लक्षण शामिल हैं। यह कद से भी स्पष्ट रूप से जुड़ा दिखा। एग्रेकेन प्रोटीन को कोड
करने वाले ACAN जीन की भिन्न-भिन्न वीएनटीआर लंबाई के कारण लोगों की ऊंचाई में औसतन 3.2 सेमी
अंतर दिखा।
इस तरह की खोजें किसी व्यक्ति में रोग विकसित होने की संभावना के बारे में पता करने के आनुवंशिक परीक्षण के नए तरीके देती है। यह रोग निदान का एक नया तरीका हो सकता है जो लक्षण प्रकट होने से पूर्व संकेत दे सकेगा। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://cdn.the-scientist.com/assets/articleNo/69219/aImg/43651/height-article-l.jpg
हाल ही में विश्व स्वास्थ्य संगठन (डबल्यूएचओ) ने कोविड-19 महामारी की उत्पत्ति की जांच के लिए एक नई पैनल गठित की है। साइंटिफिक एडवायज़री
ग्रुप ऑन दी ओरिजिंस ऑफ नावेल पैथोजेंस (एसएजीओ) नामक इस टीम को भविष्य के प्रकोपों और महामारियों की उत्पत्ति
तथा उभरते रोगजनकों के अध्ययन के लिए सुझाव देने का भी काम सौंपा गया है।
एसएजीओ में 26 देशों के 26 शोधकर्ताओं को शामिल किया गया है। 6 सदस्य पूर्व अंतर्राष्ट्रीय टीम का भी हिस्सा रहे हैं जिसने सार्स-कोव-2 की प्राकृतिक
उत्पत्ति का समर्थन किया था। गौरतलब है कि डबल्यूएचओ ने 700 से अधिक आवेदनों में से इन सदस्यों का चयन किया है और औपचारिक घोषणा 2 सप्ताह बाद की जाएगी।
वैश्विक स्वास्थ्य की विशेषज्ञ और जॉर्जटाउन युनिवर्सिटी की वकील एलेक्ज़ेंड्रा
फेलन इस टीम को एक प्रभावशाली समूह के रूप में देखती हैं लेकिन मानती हैं कि महिलाओं
की भागीदारी अधिक होनी चाहिए थी। साथ ही उनका मत है कि पैनल में नैतिकता और समाज शास्त्र
के विशेषज्ञों का भी अभाव है।
उत्पत्ति सम्बंधी डबल्यूएचओ का पूर्व अध्ययन राजनीति, हितों के टकराव और अपुष्ट सिद्धांतों के चलते भंवर में उलझा था। ऐसी ही दिक्कतें
पिछले प्रकोपों की जांच के दौरान भी उत्पन्न हुई थीं। डबल्यूएचओ को उम्मीद है कि एक
स्थायी पैनल गठित करने से कोविड-19 के स्रोत
पर चल रही तनाव की स्थिति में कमी आएगी और भविष्य के रोगजनकों की जांच अधिक सलीके से
हो सकेगी। संगठन का उद्देश्य इसे राजनीतिक बहस से दूर रखते हुए वैज्ञानिक बहस की ओर
ले जाना है।
मोटे तौर पर एसएजीओ का ध्यान इस बात पर होगा कि खतरनाक रोगजनक जीव कब, कहां और कैसे मनुष्यों को संक्रमित करते हैं, कैसे इनके प्रसार को कम किया जा सकता है और प्रकोप का रूप लेने
से रोका जा सकता है। एसएजीओ के विचारार्थ मुद्दों में वर्तमान महामारी की उत्पत्ति
के बारे में उपलब्ध सबूतों का स्वतंत्र मूल्यांकन और आगे के अध्ययन के लिए सलाह देना
शामिल है।
इसके चलते तनाव की स्थिति भी बन सकती है। डबल्यूएचओ के प्रारंभिक मिशन का निष्कर्ष
था कि नए कोरोनावायरस की प्रयोगशाला में उत्पत्ति संभव नहीं है और इस विषय में आगे
जांच न करने की भी बात कही गई थी। लेकिन डबल्यूएचओ के निदेशक टेड्रोस ने इस निष्कर्ष
को “जल्दबाज़ी” बताया था। यानी पैनल को प्रयोगशाला उत्पत्ति पर विचार करना होगा। इससे टकराव की
स्थिति उत्पन्न हो सकती है। चीन पहले ही स्पष्ट कर चुका है कि भविष्य में वह ऐसी किसी
जांच में सहयोग नहीं करेगा।
बहरहाल, एसएजीओ को उत्पत्ति सम्बंधी अध्ययन को वापस
उचित दिशा देने का मौका है। यदि इसकी संभावना नहीं होती तो एसएजीओ की स्थापना ही क्यों
की जाती। डबल्यूएचओ के प्रारंभिक मिशन से जुड़े कुछ वैज्ञानिकों के अनुसार यह काफी महत्वपूर्ण
है कि एसएजीओ की स्थापना से ज़मीनी स्तर पर काम करने वाले स्वतंत्र समूहों के काम में
बाधा नहीं आनी चाहिए जो किसी प्रकोप के उभरने के बाद तुरंत जांच में लग जाते हैं। संभावना
है कि पैनल कई अलग-अलग समूहों को भी अपने साथ
शामिल कर सकती है जो अलग-अलग परिकल्पनाओं
की छानबीन तथा पहली समिति द्वारा सुझाए गए अध्ययनों को आगे बढ़ा सकते हैं।
एसएजीओ के पास कई रास्ते हैं – वुहान और
उसके आसपास के बाज़ारों में बेचे जाने वाले वन्यजीवों और चीन तथा दक्षिण पूर्वी एशिया
के चमगादड़ों में सार्स वायरस का अध्ययन; चीन में
दिसंबर 2019 से पहले पाए गए मामलों की जांच; और वुहान और आसपास के क्षेत्रों के ब्लड बैंकों में 2019 से संग्रहित रक्त नमूनों का विश्लेषण और मौतों का विस्तृत अध्ययन।
डबल्यूएचओ की प्रथम समिति ने वुहान के ब्लड बैंकों में संग्रहित 2 लाख नमूनों की जांच का सुझाव दिया था। इनमें से कुछ नमूने तो
दिसंबर 2019 के भी पहले के हैं। चीन ने वायदा
किया है कि वह उन नमूनों के विश्लेषण से प्राप्त निष्कर्षों को साझा करेगा लेकिन कुछ
कानूनी कारणों से नमूनों की संग्रह तिथि के 2 वर्ष बाद तक जांच नहीं की जा सकती। संभावना है कि 2 वर्ष की अवधि पूरे होते ही जांच शुरू कर दी जाएगी।
एक बात तो स्पष्ट है कि एसएजीओ को काम करने के लिए राष्ट्रों, मीडिया और आम जनता का सहयोग ज़रूरी है। यह हमारे पार वायरस की उत्पत्ति को जानने का शायद आखिरी मौका हो। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.chula.ac.th/wp-content/uploads/2021/10/2021-10_ENG_WHO-Proposes-26-Scientists-to-study-COVID-origin.jpg
हाल ही में वैज्ञानिकों को लाओस में चमगादड़ों में तीन ऐसे
वायरस मिले हैं जो किसी ज्ञात वायरस की तुलना में सार्स-कोव-2 से अधिक मेल खाते
हैं। शोधकर्ताओं के अनुसार इस वायरस के जेनेटिक कोड के कुछ हिस्सों का अध्ययन करने
से पता चला है कि सार्स-कोव-2 वायरस प्राकृतिक रूप से उत्पन्न हुआ है। साथ ही इस
खोज से यह खतरा भी सामने आया है कि मनुष्यों को संक्रमित करने की क्षमता वाले कई
अन्य कोरोनावायरस मौजूद हैं।
वैसे प्रीप्रिंट सर्वर रिसर्च स्क्वेयर में प्रकाशित इस अध्ययन की
समकक्ष समीक्षा फिलहाल नहीं हुई है। सबसे चिंताजनक बात यह है कि इस वायरस में पाए
जाने वाले रिसेप्टर बंधन डोमेन लगभग सार्स-कोव-2 के समान होते हैं जो मानव
कोशिकाओं को संक्रमित करने में सक्षम होते हैं। रिसेप्टर बंधन डोमेन सार्स-कोव-2
को मानव कोशिकाओं की सतह पर मौजूद ACE-2 नामक ग्राही से जुड़कर उनके
भीतर प्रवेश करने की अनुमति देते हैं।
पेरिस स्थित पाश्चर इंस्टीट्यूट के वायरोलॉजिस्ट मार्क एलियट और फ्रांस तथा
लाओस में उनके सहयोगियों ने उत्तरी लाओस की गुफाओं से 645 चमगादड़ों की लार, मल और मूत्र के नमूने प्राप्त किए। चमगादड़ों की तीन हॉर्सशू (राइनोलोफस)
प्रजातियों से प्राप्त वायरस सार्स-कोव-2 से 95 प्रतिशत तक मेल खाते हैं। इन
वायरसों को BANAL-52,
BANAL-103 और BANAL-236 नाम दिया गया है।
युनिवर्सिटी ऑफ सिडनी के वायरोलॉजिस्ट एडवर्ड होम्स के अनुसार जब सार्स-कोव-2
को पहली बार अनुक्रमित किया गया था तब रिसेप्टर बंधन डोमेन के बारे में हमारे पास
पहले से कोई जानकारी नहीं थी। इस आधार पर यह अनुमान लगाया गया था कि इस वायरस को
प्रयोगशाला में विकसित किया गया है। लेकिन लाओस से प्राप्त कोरोनावायरस पुष्टि
करते हैं कि सार्स-कोव-2 में ये डोमन प्राकृतिक रूप से उपस्थित रहे हैं। देखा जाए
तो थाईलैंड,
कम्बोडिया और दक्षिण चीन स्थित युनान में पाए गए
सार्स-कोव-2 के निकटतम सम्बंधित वायरसों पर किए गए अध्ययन इस बात के संकेत देते हैं
कि दक्षिणपूर्वी एशिया सार्स-कोव-2 सम्बंधित विविध वायरसों का हॉटस्पॉट है।
इस अध्ययन में एक कदम आगे जाते हुए एलियट और उनकी टीम ने प्रयोगों के माध्यम
से यह बताया कि इन वायरसों के रिसेप्टर बंधन डोमेन मानव कोशिकाओं पर उपस्थित ACE-2 रिसेप्टर से उतनी ही कुशलता से जुड़ सकते हैं जितनी कुशलता से सार्स-कोव-2 के
शुरुआती संस्करण जुड़ते थे। शोधकर्ताओं ने BANAL-236 को
कोशिकाओं में कल्चर किया है जिसका उपयोग वे जीवों में वायरस के प्रभाव को समझने के
लिए करेंगे।
गौरतलब है कि पिछले वर्ष शोधकर्ताओं ने सार्स-कोव-2 के एक निकटतम सम्बंधी RaTG13 का भी पता लगाया था जो युनान के चमगादड़ों में पाया गया था। यह वायरस
सार्स-कोव-2 से 96.1 प्रतिशत तक मेल खाता है जिससे यह कहा जा सकता है कि 40 से 70
वर्ष पूर्व इन दोनों वायरसों का एक साझा पूर्वज रहा होगा।
एलियट के अनुसार BANAL-52 वायरस सार्स-कोव-2 से 96.8 प्रतिशत तक
मेल खाता है। एलियट के अनुसार खोज किए गए तीन वायरसों में अलग-अलग वर्ग हैं जो
अन्य वायरसों की तुलना में सार्स-कोव-2 के कुछ भागों से अधिक मेल खाते हैं। गौरतलब
है कि वायरस एक दूसरे के साथ RNA के टुकड़ों की अदला-बदली करते
रहते हैं।
हालांकि, इस अध्ययन से महामारी के स्रोत के बारे में काफी जानकारी प्राप्त हुई है लेकिन इसमें कुछ कड़ियां अभी भी अनुपस्थित हैं। जैसे कि लाओस वायरस के स्पाइक प्रोटीन पर तथाकथित फ्यूरिन क्लीवेज साइट नहीं है जो मानव कोशिकाओं में सार्स-कोव-2 या अन्य कोरोनावायरसों को प्रवेश करने में सहायता करती हैं। यह भी स्पष्ट नहीं है कि वायरस वुहान तक कैसे पहुंचे जहां कोविड-19 के पहले ज्ञात मामले की जानकारी मिली थी। क्या यह वायरस किसी मध्यवर्ती जीव के माध्यम से वहां पहुंचा था? इसका जवाब तो दक्षिण-पूर्वी एशिया में चमगादड़ों व अन्य वन्यजीवों के नमूनों के विश्लेषण से ही मिल सकता है जिस पर कई शोध समूह कार्य कर रहे हैं। प्रीप्रिंट में एक और अध्ययन प्रकाशित हुआ है जो पूर्व में चीन में किया गया था। इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने 2016 और 2021 के बीच 13,000 से अधिक चमगादड़ों के नमूनों पर अध्ययन किया था जिनमें से सार्स-कोव-2 वायरस के किसी भी निकट सम्बंधी की जानकारी प्राप्त नहीं हुई थी। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि इस वायरस के वाहक चमगादड़ों की संख्या चीन में काफी कम है। इस पर भी कई अन्य शोधकर्ताओं ने असहमति जताई है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://akm-img-a-in.tosshub.com/indiatoday/images/story/202109/bats_1.jpg?EloAEXKc2NQKe9m1i5RY5pxNS32YpMzc&size=1200:675
हाल ही में हुए अध्ययन के आधार पर ज्यूरिख विश्वविद्यालय में वैकासिक
जीवविज्ञान और पर्यावरण अध्ययन विभाग में कार्यरत जोर्डी बसकोम्प्टे बताते हैं कि जब
भी कोई भाषा विलुप्त होती है तो उसके साथ उसके विचारों की अभिव्यक्ति चली जाती है, वास्तविकता को देखने का, प्रकृति के साथ जुड़ने का, जानवरों
और पौधों के वर्णन करने का और उन्हें नाम देने का एक तरीका गुम हो जाता है।
एथ्नोलॉग परियोजना के अनुसार, दुनिया
की मौजूदा 7,000 से अधिक भाषाओं में से लगभग 42 प्रतिशत पर विलुप्ति का खतरा मंडरा रहा है। भाषा अनुसंधान की
गैर-मुनाफा संस्था एसआईएल इंटरनेशनल के अनुसार, सन 1500 में पुर्तगालियों
के ब्राज़ील आने के पहले ब्राज़ील में बोली जाने वाली 1000 देशज भाषाओं में से अब सिर्फ 160 ही जीवित
बची हैं।
वर्तमान में बाज़ार में उपलब्ध अधिकतर दवाएं – एस्पिरिन से लेकर से लेकर मॉर्फिन तक – औषधीय पौधों से प्राप्त की जाती हैं। एस्पिरिन व्हाइट विलो (सेलिक्स अल्बा) नामक पौधे से प्राप्त की जाती है और मॉर्फिन खसखस (पेपावर सोम्निफेरम) से निकाला
जाता है।
शोधकर्ता बताते हैं कि स्थानिक या देशज समुदायों में पारंपरिक ज्ञान का अगली पीढ़ी
में हस्तांतरण मौखिक रूप से किया जाता है, इसलिए इन भाषाओं के विलुप्त होने के साथ औषधीय पौधों के बारे में पारंपरिक ज्ञान
और जानकारियों का यह भंडार भी लुप्त हो जाएगा। जिससे भविष्य में औषधियों की खोज की
संभावना कम हो सकती है।
अध्ययन में शोधकर्ताओं ने 12,495 औषधीय उपयोगों
वाली 3,597 वनस्पति प्रजातियों का विश्लेषण
किया और पाया कि औषधीय पौधों के औषधीय उपयोग या गुणों की 75 प्रतिशत जानकारी सिर्फ एक ही एक भाषा में है। और अद्वितीय ज्ञान वाली ये भाषाएं
और साथ में उस भाषा से जुड़ा ज्ञान भी विलुप्त होने की कगार पर हैं।
यह दोहरी समस्या विशेष रूप से उत्तर-पश्चिमी
अमेज़ॉन में दिखी है। 645 पौधों और 37 भाषाओं में इन पौधों के मौखिक तौर पर बताए जाने वाले औषधीय उपयोग
के मूल्यांकन में पाया गया कि इनके औषधीय उपयोग का 91 प्रतिशत ज्ञान सिर्फ एक ही एक भाषा में मौजूद है।
इसके अलावा, इन औषधीय प्रजातियों की विलुप्ति के जोखिम का
अध्ययन करने पर पाया गया कि अंतर्राष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ (आईयूसीएन) ने उत्तरी
अमेरिका और उत्तर-पश्चिमी अमेज़ॉन में लुप्तप्राय
भाषाओं से जुड़े क्रमश: 64 प्रतिशत
और 69 प्रतिशत पौधों की संकटग्रस्त स्थिति
का मूल्यांकन ही नहीं किया है। मूल्यांकन न होने के कारण क्रमश: चार प्रतिशत और एक प्रतिशत से कम प्रजातियां ही वर्तमान में
संकटग्रस्त घोषित हैं। शोधकर्ताओं का कहना है कि पौधों की इन प्रजातियों का आईयूसीएन
आकलन तत्काल आवश्यक है।
अध्ययन यह भी बताता है कि जैव विविधता के ह्रास की तुलना में भाषाओं के विलुप्त
होने का औषधीय ज्ञान खत्म होने पर अधिक प्रभाव पड़ेगा। सांस्कृतिक विरासत को बनाए रखना
भी उतना ही महत्वपूर्ण है जितना पौधों को बचाना। हम प्रकृति और संस्कृति के बीच के
सम्बंध को अनदेखा नहीं कर सकते, सिर्फ पौधों
के बारे में या सिर्फ संस्कृति के बारे में नहीं सोच सकते।
एक उदाहरण औपनिवेशिक काल के बाद ब्राज़ील में देखने को मिलता है। ब्राज़ील में
अभिभावक अपने बच्चों की सामाजिक सफलता के लिए स्थानिक भाषाएं बोलना छोड़ औपनिवेशिक काल
से प्रभावी रहीं पुर्तगाली और स्पेनिश भाषा को अपनाने लगे। भाषाविद किसी भाषा को विलुप्ति
के जोखिम में तब मानते हैं जब अभिभावक अपने बच्चों के साथ अपनी मातृभाषा में बात करना
बंद कर देते हैं।
ब्राज़ील में जब हम संरक्षण की बात करते हैं तो इसमें स्थानीय स्कूल महत्वपूर्ण
भूमिका निभाते दिखते हैं। गांवों में स्थित स्थानीय स्कूलों में बच्चे पुर्तगाली और
समुदाय की अपनी भाषा दोनों में सीखते हैं। कारितियाना समुदाय की संस्कृति को संरक्षित
करने की एक शुरुआत ब्राज़ील में हुई। इस परियोजना की शुरुआत कारितियाना भाषा में संरक्षित
पौधों और जानवरों की सूची बनाने और जानकारी दर्ज करने के साथ हुई। दस्तावेज़ीकरण की
इस प्रक्रिया में समुदाय के बुज़ुर्ग, मुखिया, संग्रहकर्ता और शिक्षक शामिल थे जिन्होंने अमेज़ॉन की जैव विविधता
का पारंपरिक ज्ञान दर्ज किया।
इसी तरह, बाहिया और उत्तरी मिनस गेरैस में शोधकर्ताओं
के एक समूह ने पेटाक्सो भाषा का अध्ययन कर पुनर्जीवित किया जिसे वर्षों से लुप्त माना
जा रहा था। पेटाक्सो युवाओं और शिक्षकों के साथ मिलकर शोधकर्ताओं ने दस्तावेज़ों का
अध्ययन किया और साथ में फील्डवर्क भी किया। पेटाक्सो भाषा अब कई गांवों में पढ़ाई जा
रही है।
दुनिया भर में देशज या स्थानिक समुदायों की भाषाओं को संरक्षित करने, पुनर्जीवित करने और बढ़ावा देने के लिए युनेस्को ने 2022-2032 को देशज भाषा कार्रवाई दशक घोषित किया है। बेसकोम्प्टे कहते हैं कि अंग्रेज़ी के बाहर भी जीवन है। जिन भाषाओं को हम भूल जाते हैं या ध्यान नहीं देते वे भाषाएं उन गरीब या अनजान लोगों की हैं जो राष्ट्रीय स्तर पर किसी भूमिका में नहीं दिखते हैं। सांस्कृतिक विविधता के बारे में जागरूकता बढ़ाने के प्रयास ज़रूरी हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://imgs.mongabay.com/wp-content/uploads/sites/20/2021/09/20162313/5391247104_27177bfe7b_c-768×512.jpg https://www.pnas.org/content/pnas/118/24/e2103683118/F1.large.jpg
इस वर्ष कोविड-19 टीकों को नोबेल पुरस्कार मिलने की अपेक्षा की जा रही थी। लेकिन नोबेल समिति ने
विश्व भर में अनगिनत लोगों की जान बचाने वाले टीकों पर किए गए शोध कार्य पर विचार नहीं
किया। हर बार की तरह इस बार भी विज्ञान में बुनियादी शोध को पुरस्कृत किया गया। इस
निर्णय पर कई वैज्ञानिकों ने आश्चर्य और निराशा व्यक्त की है, खासकर mRNA तकनीक का
उपयोग करते हुए एक नए प्रकार के टीके विकसित करने से सम्बंधित शोध को शामिल न करने
पर।
इस विषय में सीएटल स्थित युनिवर्सिटी ऑफ वाशिंगटन के कोशिका जीव विज्ञानी एलेक्सी
मर्ज़ ने कहा है कि इस वर्ष नोबेल पुरस्कार समितियों को इस महामारी के दौरान वैश्विक
स्वास्थ्य प्रयासों को पुरस्कृत करना चाहिए था। मर्ज़ इसे समिति की लापरवाही के रूप
में देखते हैं जो भविष्य में हानिकारक हो सकती है।
लेकिन नोबेल समितियों के अंदरूनी सूत्रों की मानें तो वक्त, तकनीकी बारीकियों और राजनीति के लिहाज़ से कोविड टीकों को पुरस्कार
मिलना संभव नहीं लग रहा था। अलबत्ता, इस योगदान
के लिए जल्द ही सकारात्मक नोबेल संकेत प्राप्त हो सकते हैं।
मसलन, स्टॉकहोम स्थित रॉयल स्वीडिश एकेडमी ऑफ साइंसेज़
के महासचिव ग्योरान हैंसों mRNA आधारित
टीकों के विकास को एक अद्भुत सफलता के रूप में देखते हैं जिसके मानव जाति पर बहुत सकारात्मक
परिणाम हुए हैं और इसके लिए वे वैज्ञानिकों के बहुत आभारी हैं। वे भविष्य में इस खोज
के लिए नामांकन की उम्मीद रखते हैं।
समस्या वक्त की है। इस वर्ष के नोबेल पुरस्कारों के लिए नामांकन 1 फरवरी तक जमा करना थे। लेकिन mRNA टीके इसके दो महीने से अधिक समय बाद उपयोग में लाए गए। कुछ अन्य टीकों ने नैदानिक
परीक्षणों में अपनी प्रभाविता भी साबित की लेकिन तब तक महामारी पर इनका प्रभाव पूरी
तरह स्पष्ट नहीं था।
नोबेल पुरस्कारों का इतिहास भी mRNA आधारित टीकों के पक्ष में नहीं रहा। पिछले कुछ वर्षों से किसी आविष्कार/खोज और पुरस्कार के बीच की अवधि बढ़ती गई है। वर्तमान में यह
औसतन 30 वर्षों से अधिक हो गई है।
प्रायोगिक mRNA टीकों का सबसे पहला परीक्षण 1990 के दशक के मध्य में हुआ था जबकि 2000 के दशक तक टीकों पर खास प्रगति नहीं हुई थी। और इस वर्ष (2020-21) तक इस प्रौद्योगिकी के प्रभाव ठीक तरह से स्पष्ट नहीं हुए थे।
अलबत्ता, ब्लूमिंगटन स्थित इंडियाना युनिवर्सिटी नेटवर्क
साइंस इंस्टिट्यूट के भौतिक विज्ञानी और निदेशक सैंटो फार्चूनेटो के अनुसार प्रमुख
खोजों को अपेक्षाकृत जल्दी पुरस्कृत किया गया है। जैसे गुरुत्वाकर्षण तरंगों की खोज
को ही लें। अल्बर्ट आइंस्टाइन ने गुरुत्वाकर्षण तरंगों के अस्तिव की भविष्यवाणी 1915 में की थी लेकिन शोधकर्ताओं को इन तरंगों का पता लगाने में एक
सदी का समय लग गया। शोधकर्ताओं ने इस खोज की घोषणा फरवरी 2016 में की थी और 2017 में इसे
भौतिकी नोबेल पुरस्कार दे दिया गया था।
कुछ वैज्ञानिकों का मानना है कि नोबेल पुरस्कार उन लोगों को दिया जाता है जो ऐसा
बुनियादी शोध कार्य करते हैं जिनकी मदद से एक नहीं, कई समस्याओं को हल किया जा सकता है। शायद भविष्य में जब mRNA टीका तकनीक अन्य संक्रमणों के विरुद्ध प्रभावी साबित हो और नोबेल
समिति पुरस्कार देने पर विचार करे। वास्तव में नोबेल समिति नवीनतम प्रगतियों के बजाय
उन शोध कार्यों को पुरस्कृत करने में रुचि रखती है जो समय की कसौटी पर खरे उतरते हैं।
बहरहाल, नोबेल पुरस्कार न सही, कोविड-19 टीकों को कई प्रमुख वैज्ञानिक पुरस्कार प्राप्त हो चुके हैं। हाल ही में 30 लाख अमेरिकी डॉलर के ब्रेकथ्रू पुरस्कार से दो वैज्ञानिकों को सम्मानित किया गया जिन्होंने mRNA अणु में ऐसे संशोधन किए जो प्रतिरक्षा प्रतिक्रियाओं को mRNA के विरुद्ध शांत करने में सक्षम थे। यह तकनीक टीकों के लिए काफी महत्वपूर्ण रही है। इन्हीं दोनों शोधकर्ताओं ने लास्कर पुरस्कार भी जीता है। इन पुरस्कार को कुछ लोग भविष्य के नोबेल पुरस्कार के तौर पर देखते हैं। फिर भी नोबेल पुरस्कार के लिए नामांकित होने से पहले अभी कोविड-19 टीकों के लिए कई अन्य पुरस्कार प्रतीक्षा कर रहे हैं। वैज्ञानिकों का ऐसा भी मानना है कि यदि टीकों को नोबेल पुरस्कार देना है तो समिति को कई शोधकर्ताओं द्वारा किए गए कार्य के विषय में कुछ कठिन निर्णय लेने होंगे कि पुरस्कार के लिए किसे चुना जाए। फिलहाल यह स्पष्ट नहीं है कि इस पुरस्कार के हकदार कौन हैं। (स्रोत फीचर्स)
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वर्ष 2021 का कार्यिकी/चिकित्सा शास्त्र का नोबेल पुरस्कार संयुक्त रूप से कैलिफोर्निया
विश्वविद्यालय के डेविड जूलियस और आर्डेम पैटापुटियन को दिया गया है। इन शोधकर्ताओं ने यह समझाने में मदद की है कि हमें स्पर्श की बारीकियों और गर्म-ठंडे का एहसास कैसे होता है। डेविड जूलियस ने गर्मी के एहसास की अपनी खोजबीन में एक जाने-माने पदार्थ कैप्सिसीन का उपयोग किया जो लाल मिर्च में भरपूर पाया जाता है और जलन पैदा करता है। दूसरी ओर, आर्डेम पैटापुटियन ने दाब-संवेदी कोशिकाओं की मदद से स्पर्श का रहस्य उजागर किया। किसी अनुभूति की प्रमुख बात यह होती है कि उससे जुड़े उद्दीपनों को कैसे तंत्रिका तंत्र विद्युत संकेतों में बदलकर मस्तिष्क तक पहुंचाता है।
जूलियस को यह विचार कौंधा कि यदि यह समझ में आ जाए कि मिर्च जलन कैसे पैदा करती है तो खोजबीन के नए रास्ते खुल जाएंगे। उन्हें यह तो पता था कि मिर्च में पाया जाने वाला कैप्सिसीन दर्द की अनुभूति पैदा करने वाली तंत्रिकाओं को उत्तेजित करता है। मामले को समझने के लिए जूलियस ने डीएनए का सहारा लिया। उन्होंने उन जीन्स पर ध्यान दिया जो दर्द, गर्मी और स्पर्श सम्बंधी तंत्रिकाओं में अभिव्यक्त होते हैं। उनका मानना था कि ऐसा कोई जीन ज़रूर होगा जो ऐसे प्रोटीन का कोड होगा जो कैप्सिसीन का संवेदी है। एक-एक करके विभिन्न जीन्स की जांच-पड़ताल की काफी मेहनत-मशक्कत के बाद वे एक जीन पहचान पाए जो किसी कोशिका को कैप्सिसीन-संवेदी बना सकता है। पता चला कि यह जीन जिस प्रोटीन का निर्माण करवाता है वह एक आयन चैनल प्रोटीन है। इसे नाम दिया गया TRPV1 और जूलियस ने पता लगा लिया कि यह प्रोटीन ऐसी गर्मी का एहसास करने में मददगार है जो दर्दनाक हो सकती है।
इस खोज ने आगे का रास्ता साफ कर दिया। आगे जूलियस और पैटापुटियन ने कई और ऐसे प्रोटीन खोजे जो अलग-अलग तापमान पर सक्रिय होते हैं और अनुभूति को जन्म देते हैं। अलग-अलग जंतु मॉडल्स पर प्रयोगों से इन निष्कर्षों की पुष्टि भी हुई।
अब अगला सवाल था कि स्पर्श (या ज़्यादा सामान्य रूप से दबाव) कैसे तंत्रिकाओं में विद्युत संकेतों का रूप लेता है। पैटापुटियन का अवलोकन था कि कोशिकाओं का एक प्रकार होता है जिन्हें माइक्रोपिपेट से टोंचा जाए तो उनमें विद्युत संकेत उत्पन्न हो जाता है। पैटापुटियन के दल ने भी जीन्स की जांच-पड़ताल का तरीका अपनाया। ऐसे 72 उम्मीदवार जीन्स पहचाने गए जिनके द्वारा बनाए गए प्रोटीन्स संभवत: दाब को विद्युत संकेत में बदलने का काम कर सकते हैं। एक-एक करके इन जीन्स को निष्क्रिय किया गया और अंतत: एक इकलौता जीन मिल गया जिसे निष्क्रिय करने पर कोशिका माइक्रोपिपेट
की नोक टोंचने पर विद्युत संकेत उतपन्न नहीं करती। इस प्रोटीन को Piezo1 नाम दिया गया और आगे चलकर एक और प्रोटीन Piezo2 और उसका जीन भी पहचाना गया। ये दोनों प्रोटीन ऐसे आयन चैनल हैं जो कोशिका की झिल्ली पर दबाव डालने से सक्रिय हो जाते हैं।
यह भी स्पष्ट हुआ कि शरीर के बाहरी अथवा आंतरिक पर्यावरण में बदलाव दोनों ही इन चैनल्स को सक्रिय करते हैं और विद्युत संकेत भेजते हैं। इस प्रकार मिली समझ का उपयोग चिकित्सा के क्षेत्र में किया जा रहा है। (स्रोतफीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.nobelprize.org/all-nobel-prizes-2021/
यह तो हम जानते हैं कि मास्क लगाना हमें कोविड-19 से सुरक्षा देता है। लेकिन स्वास्थ्य अधिकारियों की तरफ से इस बारे में बहुत कम जानकारी मिली है कि किस तरह के मास्क हमें सबसे अच्छी सुरक्षा देते हैं।
महामारी की शुरुआत में, यूएस सीडीसी और विश्व स्वास्थ्य संगठन ने आम जनता से कहा था कि वे N95 मास्क न पहनें क्योंकि एक तो उस समय इन मास्क की आपूर्ति बहुत कम थी और स्वास्थ्य कर्मियों को इनकी अधिक आवश्यकता थी। और दूसरा, उसी समय यह बात सामने आई थी कि सार्स-कोव-2 का एरोसोल के माध्यम से फैलने का जोखिम कम है। लेकिन इन मास्क की पर्याप्त आपूर्ति और इस वायरस के एरोसोल के माध्यम से फैलने के प्रमाण मिलने के बावजूद स्वास्थ्य एजेंसियां का आम लोगों के लिए कपड़े से बने मास्क लगाने पर ज़ोर रहा।
अब, N95 मास्क, चीन द्वारा निर्मित KN95 मास्क और दक्षिण कोरिया द्वारा निर्मित KF94 मास्क जैसे बेहतर बचाव देने वाले मास्क बाज़ार में पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हैं और पहले की तुलना में सस्ते हैं। फिर भी कुछ समय पहले तक सीडीसी ने आम लोगों के लिए इनका उपयोग करने की बात नहीं कही थी। 10 सितंबर को सीडीसी ने कहा कि चूंकि अब N95 और अन्य मेडिकल-ग्रेड के मास्क पर्याप्त रूप से उपलब्ध हैं तो आम लोग भी इस तरह के मास्क पहन सकते हैं। लेकिन प्राथमिकता अब भी स्वास्थ्य कर्मियों के लिए है। वैसे, कपड़े के मास्क भी स्वीकार्य हैं।
लेकिन किस तरह के मास्क लोगों को बेहतर सुरक्षा देंगे इस बारे में कोई बात नहीं कही गई है। इस सम्बंध में साइंटिफिक अमेरिकन ने कई विशेषज्ञों से बात की। इनमें से कुछ विशेषज्ञों ने बाज़ार में उपलब्ध विभिन्न मास्क का परीक्षण किया है। और उनका कहना है कि स्वास्थ्य अधिकारियों को लोगों को यह बताना चाहिए कि लोगों को अच्छी तरह से फिट होने वाले और बाहरी कणों को मास्क के भीतर जाने से रोकने की उच्च क्षमता वाले मास्क पहनने की ज़रूरत है। खासकर तब जब तेज़ी से फैलने वाला डेल्टा संस्करण मौजूद है और लोग बंद जगहों पर अधिक समय बिता रहे हैं।
अच्छा मास्क
कोई मास्क अच्छा होगा यदि वह अधिक से अधिक बाहरी कणों या बूंदों को पार जाने से रोके, चेहरे पर अच्छी तरह फिट हो और नाक और मुंह के आसपास कोई खाली जगह न छोड़े, और उसे पहनने से सांस लेने में दिक्कत न हो। मसलन, N95 मास्क कम से कम 95 प्रतिशत कणों को पार जाने से रोकता है। लेकिन यदि यही मास्क चेहरे पर ढीला-ढाला रहेगा तो यह उतनी अच्छी सुरक्षा नहीं दे सकेगा। और यदि मास्क ऐसा हो जिसे लगाने पर सांस में तकलीफ जैसी दिक्कत लगे तो भी लोग इसे नहीं लगाएंगे, और संक्रमण का जोखिम बढ़ेगा।
स्वास्थ्य एजेंसियों ने इस बारे में भी कुछ नहीं कहा है कि किस ब्रांड के मास्क सर्वोत्तम सुरक्षा देते हैं। लेकिन कुछ शौकिया लोगों ने इस बारे में जानकारी उपलब्ध कराई है। एरोसोल विज्ञान की पृष्ठभूमि वाले एरोन कोलिन्स उर्फ ‘मास्क नर्ड’ सीगेट टेक्नोलॉजी में मैकेनिकल इंजीनियर हैं। अपने खाली समय में वे यूट्यूब वीडियो बनाते हैं जिनमें वे विभिन्न मास्क निर्माताओं द्वारा बनाए गए मास्क का परीक्षण और समीक्षा करते हैं।
कोलिन्स ने बाथरूम में एक मास्क-परीक्षण सेटअप लगा रखा है, जहां वे सोडियम क्लोराइड (नमक) के एरोसोल बनाते हैं और यह मापते हैं कि कौन सा मास्क इन्हें रोकने की कितनी क्षमता रखता है।
कोलिन्स ‘प्रेशर ड्रॉप’ का भी परीक्षण करते हैं जो दर्शाता है कि किसी मास्क से सांस लेने में कितनी सुविधा है। उनके अनुसार कुछ कपड़े के मास्क – जिनमें कॉफी फिल्टर से बने मास्क भी शामिल हैं – से सांस लेने में दिक्कत होती है। इसलिए N95 मास्क कपड़े से नहीं बने होते।
आम तौर पर वे चीन की कंपनी पॉवेकॉम और अन्य द्वारा बनाए गए KN95 मास्क, ब्लूना फेस फिट के KF94 मास्क और 3M, मोल्डेक्स या हनीवेल द्वारा बनाए गए N95 मास्क की सिफारिश करते हैं। इन सभी मास्क की कणों को रोकने की क्षमता 99 प्रतिशत है, और उनके परीक्षण के आधार पर इन्हें पहनने पर सांस लेने में तकलीफ भी नहीं होती। जबकि अच्छी फिटिंग वाले सर्जिकल मास्क की कणों को रोकने की क्षमता लगभग 50 से 75 प्रतिशत है और एक अच्छे कपड़े के मास्क की लगभग 70 प्रतिशत। लेकिन अच्छा मास्क चुनने में आराम एक निर्णायक कारक होना चाहिए।
इसके अलावा डेल्टा संस्करण के लिए वे सर्जिकल मास्क को उतना बेहतर नहीं मानते, यहां वे KN95 या KF94 जैसे मास्क को ज़रूरी बताते हैं। वैसे कुछ अध्ययनों में पाया गया है कि सर्जिकल और कपड़े के मास्क कोविड-19 के खिलाफ कुछ हद तक सुरक्षा देते हैं। बांग्लादेश में हाल ही में हुए एक बड़े रैंडम अध्ययन में पाया गया कि सर्जिकल मास्क ने संक्रमण के जोखिम को काफी कम किया; कपड़े के मास्क को लेकर अस्पष्टता है।
बच्चों के लिए मास्क
अब जबकि बच्चों के स्कूल खुलने लगे हैं तो कई अभिभावकों को बच्चों की चिंता है, विशेषकर उन बच्चों की जो टीकाकरण के लिए अभी बहुत छोटे हैं। इस मामले में कणों को रोकने की उच्च क्षमता वाले मास्क बच्चों के लिए मददगार हो सकते हैं। बच्चों के लिए N95 मास्क के कोई मानक नहीं है, लेकिन कई निर्माता बच्चों के लिए KF94 या KN95 मास्क बना रहे हैं। इस तरह के मास्क छोटे चेहरों पर अच्छी तरह फिट होने के लिए और आसानी से पहने जाने के लिए डिज़ाइन किए गए हैं। कोलिन्स के अनुसार ऐसा कोई कारण नहीं दिखता है कि बच्चे मास्क बर्दाश्त नहीं कर पाएंगे। उनका बेटा गर्मी के पूरे मौसम में मास्क पहने रहा।
कहां मिलेंगे
सीडीसी ने चेतावनी दी है कि यूएस में बिकने वाले KN95 मास्क में से लगभग 60 प्रतिशत मास्क नकली हैं। समस्या यही है कि भारत में इस बारे में कोई जानकारी ही नहीं है कि अच्छे मास्क कहां से खरीदे जाएं।
दोबारा उपयोग
KN95 जैसे मास्क लगाने में लोग इसलिए भी अनिच्छुक हैं क्योंकि आम तौर पर इन मास्क को डिस्पोज़ेबल माना जाता है। लेकिन कई विशेषज्ञों का कहना है कि वास्तव में इन्हें कई बार पहना जा सकता है। इस तरह के मास्क को आप तब तक उपयोग करते जा सकते हैं जब तक ये फट न जाए या गंदे न हो जाएं। कोलिन्स के परीक्षण के अनुसार ये मास्क 40 घंटे तक उपयोग किए जा सकते हैं, और इतनी देर में इनकी कणों को रोकने की क्षमता में कोई कमी नहीं आती। लेकिन पैकेट से निकालने के छह महीने के भीतर उपयोग कर लेना चाहिए। वैसे तो, इन मास्क पर वायरस लंबे समय तक जीवित नहीं रहते हैं इसलिए कुछ दिन छोड़कर दोबारा उपयोग में कोई बुराई नहीं है।
डबल मास्क
प्रभावशीलता बढ़ाने का एक प्रचलित तरीका है सर्जिकल मास्क के ऊपर कपड़े का मास्क पहनना। लेकिन वास्तव में यह जोड़ कितनी अच्छी तरह काम करता है?
कोलिन्स ने पाया कि यह तरीका 90 प्रतिशत से अधिक कणों को भीतर जाने से रोकता है। लेकिन अकेले N95 की तुलना में इस तरीके में सांस लेने में दिक्कत होती है।
हालांकि कुछ विशेषज्ञ इस बात से सहमत नहीं हैं कि N95 सरीखे मास्क सभी के लिए ज़रूरी हैं। वे सर्जिकल मास्क या कपड़े के मास्क की सिफारिश करते हैं।
दाढ़ी-मूंछ
इस पर बहुत अधिक डैटा नहीं है, लेकिन कुछ शोध बताते हैं कि किसी व्यक्ति की दाढ़ी या मूंछें जितनी बड़ी होंगी मास्क उतना ही कम प्रभावी होगा। बहरहाल सुविधा एक महत्वपूर्ण कारक है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://news.llu.edu/sites/news.llu.edu/files/styles/featured_image_755x425/public/screen_shot_2020-08-11_at_9.15.07_am.png?itok=4wgL0Fl1&c=d840cfde9df530f5582918792e0040a0