गर्भस्थ शिशु को पोषण की ज़रूरत होती है, और इसकी पूर्ति सुनिश्चित करने के लिए गर्भावस्था के दौरान मां की शरीर क्रिया
में व्यापक परिवर्तन होते हैं। इनमें से एक परिवर्तन है इंसुलिन के प्रति
संवेदनशीलता में कमी है; यानी कोशिकाएं रक्त से ग्लूकोज़
लेने का संकेत देने वाले इंसुलिन संकेतों के प्रति कम संवेदी हो जाती हैं। पांच से
नौ प्रतिशत गर्भवती महिलाओं में कोशिकाएं इतनी इंसुलिन प्रतिरोधी हो जाती हैं कि
रक्त में शर्करा का स्तर नियंत्रित नहीं रह पाता। इसे गर्भकालीन मधुमेह (जीडीएम)
कहते हैं। अस्थायी होने के बावजूद यह गर्भवतियों और उनके बच्चे में भविष्य में
टाइप-2 मधुमेह और अन्य बीमारियां का खतरा बढ़ा देता है।
पूर्व में,
मैसाचुसेट्स विश्वविद्यालय की रेज़ील रोजास-रॉड्रिग्ज़ ने
जीडीएम से ग्रस्त और जीडीएम से मुक्त गर्भवतियों के वसा ऊतक में अंतर पाया था।
वैसे तो गर्भावस्था के दौरान गर्भवतियों में वसा की मात्रा में वृद्धि सामान्य बात
है,
लेकिन जीडीएम-पीड़ित गर्भवतियों में बड़ी-बड़ी वसा कोशिकाएं
अंगों के आसपास जमा हो जाती हैं। यह भी देखा गया था कि जीडीएम रहित गर्भवतियों की
तुलना में जीडीएम-पीड़ित गर्भवतियों के वसा ऊतकों में इंसुलिन संकेत से सम्बंधित
कुछ जीन्स की अभिव्यक्ति कम होती है। शोधकर्ता जानना चाहते थे कि क्या गर्भावस्था
के दौरान वसा ऊतकों के पुनर्गठन और इंसुलिन प्रतिरोध विकसित होने के बीच कोई
सम्बंध है?
यह जानने के लिए उन्होंने गर्भावस्था से जुड़े प्लाज़्मा प्रोटीन-ए (PAPPA) का अध्ययन किया। PAPPA मुख्य रूप से प्लेसेंटा
द्वारा बनाया जाता है, यह इंसुलिन संकेतों का नियंत्रण करता है और
गर्भावस्था के दौरान रक्त में इन संकेतों को बढ़ाता है। परखनली अध्ययन में पाया गया
कि PAPPA मानव वसा ऊतक के पुनर्गठन में
भूमिका निभाता है और रक्त वाहिनियों के विकास को बढ़ावा देता है। गर्भवती जंगली
चूहों पर अध्ययन में पाया गया कि PAPPA की कमी वाली चुहियाओं में उनके यकृत के आसपास अधिक वसा जमा थी, और उनमें इंसुलिन संवेदनशीलता भी कम पाई गई थी।
शोधकर्ताओं ने 6361 गर्भवती महिलाओं की प्रथम तिमाही में PAPPA परीक्षण और तीसरी तिमाही में
ग्लूकोज़ परीक्षण के डैटा का अध्ययन भी किया। टीम ने पाया कि PAPPA में कमी जीडीएम होने की
संभावना बढ़ाती है। इससे लगता है कि PAPPA जीडीएम की स्थिति बनने से रोक सकता है।
अन्य शोधकर्ताओं का कहना है कि PAPPA के स्तर और जीडीएम के बीच सम्बंध स्पष्ट नहीं है क्योंकि संभावना है कि किसी
व्यक्ति में जीडीएम किन्हीं अन्य वजहों से होता हो। और जिन चूहों में PAPPA प्रोटीन खामोश कर दिया गया था
वे चूहे मानव गर्भावस्था की सभी विशेषताएं भी नहीं दर्शाते। मसलन, भले ही PAPPA विहीन चूहों में अन्य की
तुलना में इंसुलिन के प्रति संवेदनशीलता कम हो गई थी, लेकिन उनमें
ग्लूकोज़ के प्रति सहनशीलता बढ़ी हुई थी। शोधदल का कहना है कि ऐसा इसलिए हो सकता है
क्योंकि इन चूहों की मांसपेशियां सामान्य से अधिक मात्रा में ग्लूकोज़ खर्च करती
हैं – शायद अधिक दौड़-भाग के कारण।
शोधकर्ता अब पूरी गर्भावस्था के दौरान PAPPA प्रोटीन को मापना चाहती हैं। वे बताती हैं कि इस प्रोटीन का उपयोग जीडीएम के बायोमार्कर की तरह किया जा सकता है और संभवत: गर्भकालीन मधुमेह के निदान के लिए उपयोग किया जा सकता है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://cdn.the-scientist.com/assets/articleNo/69020/iImg/43045/Medilit-August2021-Infographic.jpg
एक ओर कोविड-19 की तीसरी लहर की बातें हो रही हैं और टीकाकरण
की रफ्तार बहुत धीमी है। वैज्ञानिकों और चिकित्सकों का मानना है कि वर्तमान में
टीकों को पूर्ण स्वीकृति की बजाय आपातकालीन उपयोग की मंज़ूरी मिलने की वजह से कई
लोग टीका लगवाने में झिझक रहे हैं। इसके अतिरिक्त कई देशों में टीका विरोधी
कार्यकर्ताओं,
टॉक शो और दक्षिणपंथी राजनेताओं द्वारा भी टीकाकरण का विरोध
किया जा रहा है।
कैलिफोर्निया युनिवर्सिटी की संक्रामक रोग चिकित्सक मोनिका गांधी के अनुसार
यूएस के खाद्य एवं औषधि प्रशासन (एफडीए) द्वारा टीकों के पूर्ण अनुमोदन के बाद ही
लोगों में टीकाकरण के प्रति संदेह खत्म किया जा सकता है। वर्तमान में फाइज़र और
मॉडर्ना ने टीकों के पूर्ण अनुमोदन के लिए एफडीए में आवेदन दिया है लेकिन इस
प्रक्रिया में कई महीने लग सकते हैं। टीकों की पूर्ण स्वीकृति के संदर्भ में कुछ
सवालों पर चर्चा की गई है। चर्चा एफडीए के संदर्भ में है लेकिन दुनिया भर के सभी
नियामकों पर लागू होती है।
टीकों को अभी तक पूर्ण स्वीकृति क्यों नहीं मिली है?
महामारी के संकट को देखते हुए एफडीए तथा कई अन्य नियामकों ने फाइज़र, मॉडर्ना,
जॉनसन एंड जॉनसन (जे-एंड-जे) व अन्य द्वारा निर्मित टीकों
को आपातकालीन उपयोग की अनुमति (ईयूए) प्रदान की है। पूर्व में भी दवाओं को
आपातकालीन उपयोग की अनुमति दी गई थी लेकिन ऐसा पहली बार हुआ है कि टीकों को
आपातकालीन उपयोग की अनुमति दी गई है। गौरतलब है कि ईयूए प्राप्त करने के लिए भी
टीका निर्माताओं को कई दिशा-निर्देशों का पालन करना होता है। इसमें सैकड़ों-हज़ारों
प्रतिभागियों के साथ क्लीनिकल परीक्षणों से सुरक्षा और प्रभाविता डैटा के अलावा
टीकों की स्थिरता और उत्पादन की गुणवत्ता सम्बंधी जानकारी भी मांगी जाती है। फाइज़र
और मॉडर्ना को यह स्वीकृति दिसंबर 2020 में मिली थी जबकि जे-एंड-जे को फरवरी 2021
में। तब से लेकर अब तक जुटाए गए वास्तविक उपयोग के डैटा के आधार पर फाइज़र ने इस
वर्ष मई की शुरुआत में और मॉडर्ना ने जून में पूर्ण अनुमोदन के लिए आवेदन दिया है, और जे-एंड-जे जल्द ही आवेदन देने वाला है।
पूर्ण अनुमोदन और ईयूए में अंतर?
पूर्ण अनुमोदन प्रदान करने के लिए एफडीए को लंबी अवधि में एकत्रित किए गए
विस्तृत डैटा की समीक्षा करनी होती है। इसके तहत टीकों की प्रभाविता और सुरक्षा के
लिए अतिरिक्त क्लीनिकल परीक्षण डैटा के साथ-साथ वास्तविक उपयोग के डैटा का गहराई
से अध्ययन करना होता है। इसके साथ ही एफडीए द्वारा टीका उत्पादन सुविधाओं का
निरीक्षण और गुणवत्ता का बहुत ही सख्ती से ध्यान रखा जाता है। इसमें टीकों के
बिरले दुष्प्रभावों पर ध्यान दिया जाता है जो शायद क्लीनिकल परीक्षण में सामने न
आए हों।
स्वीकृति कब तक मिल सकती है?
16 जुलाई को एफडीए ने फाइज़र का आवेदन ‘प्राथमिकता’ के आधार पर स्वीकार किया
है। यानी इसकी समीक्षा जल्द की जाएगी; यह निर्णय अगले दो महीने
में आने की संभावना है। वहीं, मॉडर्ना द्वारा आवश्यक
दस्तावेज़ जमा न करने के कारण एफडीए ने कंपनी के आवेदन को औपचारिक रूप से स्वीकार
नहीं किया है।
टीके की जल्द से जल्द स्वीकृति की मांग क्यों की जा रही है?
ज़ाहिर है कि पूर्ण अनुमोदन से टीकाकरण के प्रति लोगों की हिचक कम हो सकती है।
ऐसे में कई चिकित्सक और जन स्वास्थ्य अधिकारी भी टीकों को जल्द से जल्द अनुमोदन की
प्रतीक्षा कर रहे हैं।
क्या पूर्ण अनुमोदन से अधिक लोग टीकाकरण के लिए तैयार होंगे?
कैसर फैमिली फाउंडेशन द्वारा जून में 1,888 लोगों पर किए गए सर्वेक्षण के
अनुसार लगभग 30 प्रतिशत लोग पूर्ण अनुमोदन के बाद टीका लगवाने के लिए तैयार हैं।
लेकिन अभी भी कई लोगों के लिए एफडीए द्वारा दिया जाने वाला अनुमोदन एक सामान्य
सुरक्षा का ही द्योतक होता है। ऐसा ज़रूरी नहीं कि जो लोग पूर्ण अनुमोदन का इंतज़ार
कर रहे हैं वो वास्तव में टीका लगवा ही लेंगे, क्योंकि
अनुमोदन प्रक्रिया को जल्दबाज़ी या राजनीतिक रूप से प्रेरित माना जा रहा है। जो लोग
पूरी तरह से टीकाकरण के विरोध में हैं उनके लिए एफडीए का अनुमोदन भी कोई मायने
नहीं रखता।
लेकिन पूर्ण स्वीकृति कुछ लोगों को प्रभावित भी कर सकती है। उदाहरण के तौर पर, कई लोगों को टीकाकरण के लिए एफडीए के सहमति फॉर्म पर हस्ताक्षर करना एक बड़ी
मनोवैज्ञानिक बाधा हो सकती है। एक ऐसे सहमति पत्र पर हस्ताक्षर करना जिसमें
‘प्रायोगिक’ शब्द का उपयोग किया गया हो, वह अश्वेत समुदायों में
एक गंभीर मुद्दा रहा है।
क्या अनुमोदन अनिवार्य टीकाकरण का मार्ग प्रशस्त करेगा?
देखा जाए तो अमेरिका के 500 से अधिक विश्वविद्यालयों और बड़े अस्पतालों ने अपने
छात्रों और कर्मचारियों को अनिवार्य टीकाकरण का आदेश जारी किया है। लेकिन तकनीकी
रूप से प्रायोगिक टीका लेने के लिए कई स्कूल, अस्पताल
और यहां तक कि अमेरिकी फौज भी संकोच कर रही है और पूर्ण अनुमोदन के इंतज़ार में है।
ऐसा दावा किया जा रहा है कि पूर्ण अनुमोदन मिलने पर कई संगठन और उद्योग टीकाकरण
अनिवार्य कर देंगे।
गौरतलब है कि फ्रांस में टीकाकरण के प्रति लोगों में संकोच के बाद भी सरकार ने
मॉल,
बार्स, रेस्टॉरेंट और अन्य सार्वजनिक
स्थानों पर ‘हेल्थ पास’ जारी करने की घोषणा की है जो टीकाकृत लोगों को प्रदान किया
जाएगा। इसके समर्थन में 10 लाख से अधिक लोग टीकाकरण के लिए तैयार हुए हैं जबकि
हज़ारों लोग इसके विरोध में सड़कों पर उतर आए हैं।
क्या एफडीए अनुमोदन की प्रक्रिया को तेज़ कर सकता है?
उच्च गुणवत्ता समीक्षा और मूल्यांकन की प्रक्रिया को पूरा किए बिना अनुमोदन
देना एफडीए की वैधानिक ज़िम्मेदारी को कमज़ोर करना होगा। इससे जनता के बीच एजेंसी पर
भरोसा कम होगा और टीकाकारण के प्रति झिझक और अधिक बढ़ जाएगी। mRNA आधारित टीकों के लिए तो यह और भी महत्वपूर्ण है क्योंकि ये
पूरी तरह से नई तकनीक पर आधारित हैं।
क्या आपातकालीन मंज़ूरी वाले टीके लगवाना सुरक्षित है?
विशेषज्ञों का मत है कि अब तक एकत्र किए गए डैटा के अनुसार आपातकालीन मंज़ूरी प्राप्त सभी टीके सुरक्षित और प्रभावी हैं। गांधी के अनुसार क्लीनिकल परीक्षणों में टीकों के इतने अच्छे परिणाम काफी आश्चर्यजनक हैं। इन परिणामों को देखते हुए फिलहाल चिकित्सकों और विशेषज्ञों का सुझाव है कि हर वयस्क को अनिवार्य रूप से टीका लगवाना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://media.npr.org/assets/img/2021/06/21/hbarczyk_npr_vaccines_finalrev2_wide-97832045a45081cb2483bdd2515ab9e394488872.jpg?s=1400
कोई व्यक्ति वर्तमान में कितना स्वस्थ है, यह पता लगाने के लिए वैज्ञानिक लंबे समय से आयु-घड़ी के विचार पर काम कर रहे
हैं। आयु-घड़ी का अर्थ है कि किसी व्यक्ति की अपनी वास्तविक उम्र की तुलना में
जैविक रूप से उम्र कितनी है। एपिजेनेटिक्स-आधारित घड़ियों ने इस क्षेत्र में कुछ
उम्मीद जगाई थी,
लेकिन डीएनए में हुए एपिजेनेटिक परिवर्तनों को मापकर किसी
व्यक्ति की जैविक उम्र पता करना थोड़ा जटिल काम है। एपिजेनेटिक परिवर्तन मतलब डीएनए
में अस्थायी परिवर्तन जो जीन्स की अभिव्यक्ति को प्रभावित करते हैं।
अब इस दिशा में शोधकर्ताओं ने एक नए तरह की आयु-घड़ी, iAge,
विकसित की है जो जीर्ण शोथ (इन्फ्लेमेशन) का आकलन कर यह बता
सकती है कि आपको उम्र-सम्बंधी किसी रोग, जैसे हृदय रोग या
तंत्रिका-विघटन सम्बंधी रोग, के विकसित होने का खतरा तो
नहीं है। यह घड़ी व्यक्ति की ‘जैविक आयु’ बताती है जो उसकी वास्तविक आयु से
कम-ज़्यादा हो सकती है।
दरअसल,
जब किसी व्यक्ति की उम्र बढ़ती है तो शरीर की कोशिकाएं
क्षतिग्रस्त होने लगती हैं और शोथ पैदा करने वाले अणु स्रावित करने लगती हैं, नतीजतन संपूर्ण देह में जीर्ण शोथ का अनुभव होता है। यह अंतत: ऊतकों और अंगों
की टूट-फूट का कारण बनता है। जिन लोगों की प्रतिरक्षा प्रणाली अच्छी होती है वे
कुछ हद तक इस शोथ को बेअसर करने में सक्षम होते हैं, लेकिन
कमज़ोर प्रतिरक्षा वाले लोगों की जैविक उम्र तेज़ी से बढ़ने लगती है।
इंफ्लेमेटरी एजिंग क्लॉक (iAge) को विकसित करने के लिए कैलिफोर्निया में स्टैनफोर्ड युनिवर्सिटी के सिस्टम
बायोलॉजिस्ट डेविड फरमैन और रक्त-वाहिनी विशेषज्ञ नाज़िश सैयद की टीम ने 8-96 वर्ष
की आयु के 1001 लोगों के रक्त के नमूनों का विश्लेषण किया। शोधकर्ताओं ने रक्त में
दैहिक शोथ का संकेत देने वाले प्रोटीन संकेतकों को पहचानने के लिए मशीन-लर्निंग
एल्गोरिदम की मदद ली। इसके अलावा उन्होंने प्रतिभागियों की वास्तविक उम्र और
स्वास्थ्य जानकारी का भी उपयोग किया। उन्होंने प्रतिरक्षा-संकेत प्रोटीन (या
साइटोकाइन) CXCL9 को
शोथ के मुख्य जैविक चिंह के तौर पर पहचाना; CXCL9 मुख्य रूप से रक्त वाहिकाओं
की आंतरिक परत द्वारा निर्मित होता है और इसके चलते हृदय रोग विकसित हो सकते हैं।
iAge के परीक्षण के लिए शोधकर्ताओं
ने कम से कम 99 वर्ष तक जीवित रहने वाले 19 लोगों के रक्त के नमूने लेकर iAge की मदद से उनकी जैविक आयु की
गणना की। ये लोग इम्यूनोम नामक एक प्रोजेक्ट के सदस्य थे। इस प्रोजेक्ट में इस बात
का अध्ययन किया जा रहा है कि उम्र बढ़ने के साथ लोगों में जीर्ण, तंत्रगत शोथ में कैसे परिवर्तन होते हैं। पाया गया कि उम्र की शतक लगाने वाले
इन लोगों की iAge आयु उनकी वास्तविक आयु से
औसतन 40 वर्ष कम थी – ये नतीजे इस विचार से मेल खाते हैं कि स्वस्थ प्रतिरक्षा
प्रणाली वाले लोग लंबे समय तक जीवित रहते हैं।
चूंकि रक्त परीक्षण करके शोथ को मापना आसान है, इसलिए
नैदानिक परीक्षण के लिए iAge जैसे साधन व्यावहारिक हो सकते हैं। इसके अलावा उम्मीद है कि iAge और अन्य आयुमापी घड़ियां
व्यक्ति के मुताबिक उपचार करना संभव कर सकती हैं।
दैहिक शोथ के जैविक चिंह के रूप में CXCL9 की जांच करते समय फरमैन और उनके साथियों ने मानव
एंडोथेलियल कोशिकाओं को विकसित किया है। उन्होंने तश्तरी में रक्त वाहिकाओं की
दीवारों को विकसित किया और उनमें बार-बार विभाजन करवाकर उनको कृत्रिम रूप से वृद्ध
बना दिया। शोधकर्ताओं ने पाया कि CXCL9 प्रोटीन का उच्च स्तर कोशिकाओं को निष्क्रिय कर देता है। जब शोधकर्ताओं ने CXCL9 को एनकोड करने वाले जीन की
अभिव्यक्ति को रोक दिया तो कोशिकाएं पुन: कुछ हद तक काम करने लगीं। इससे लगता है
कि प्रोटीन के हानिकारक प्रभाव को पलटा जा सकता है।
अगर शोथ की पहचान शुरुआत में ही कर ली जाए तो इसका इलाज किया जा सकता है। इसके
लिए हमारे पास कई साधन उपलब्ध हैं। जैसे सैलिसिलिक एसिड (एस्पिरिन बनाने की एक
प्रारंभिक सामग्री), और रूमेटोइड गठिया शोथ रोधी जैनस काइनेस
अवरोधक/सिग्नल ट्रांसड्यूसर एंड एक्टिवेटर ऑफ ट्रांसक्रिप्शन (JK/STAT) अवरोधक। चूंकि शोथ का उपचार किया जा सकता है इसलिए उम्मीद
है कि यह साधन यह निर्धारित करने में मदद कर सकता है कि उपचार से किसे लाभ हो सकता
है – संभवत: यह किसी व्यक्ति के तंदुरुस्त वर्षों में इज़ाफा कर सकता है। उम्मीद है
कि भविष्य में कोई भी व्यक्ति नियमित रूप से अपनी शोथ-जैविक चिंह प्रोफायलिंग करा
सकेगा ताकि वह आयु-सम्बंधी रोग होने की संभावना देख सके।
इसके अलावा, अध्ययन इस तथ्य को भी पुख्ता करता है कि प्रतिरक्षा प्रणाली महत्वपूर्ण है, न केवल स्वस्थ उम्र की भविष्यवाणी करने के लिए बल्कि इसका संचालन करने वाले तंत्र के रूप में भी। (स्रोत फीचर्स)
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विश्व स्वास्थ्य संगठन का अनुमान है कि दुनिया की 15 प्रतिशत
आबादी (लगभग 78.5 करोड़ लोग) स्मृतिभ्रंश (डिमेंशिया), याददाश्त
की कमज़ोरी,
दुश्चिंता व तनाव सम्बंधी विकार, अल्ज़ाइमर
या इसी तरह की मानसिक अक्षमताओं से पीड़ित हैं। दी हिंदू में प्रकाशित एक
हालिया अध्ययन के अनुसार भारत में कोविड-19 महामारी और इसके कारण हुई तालाबंदी के
बाद 74 प्रतिशत वरिष्ठ नागरिकों (60 वर्ष से अधिक उम्र के लोग) में तनाव और 88
प्रतिशत वरिष्ठ नागरिकों में दुश्चिंता की समस्या देखी गई। वर्ष 2050 तक भारत में
वरिष्ठ नागरिकों की संख्या कुल जनसंख्या का लगभग 20 प्रतिशत होगी।
वृद्ध लोगों का इलाज
इस स्थिति में हमें वरिष्ठ नागरिकों में (साथ ही ‘कनिष्ठ नागरिकों’ में भी, उनके वरिष्ठ होने के पहले) इस तरह की मानसिक अक्षमताओं का पता लगाने और उनका
इलाज करने के विभिन्न तरीकों की आवश्यकता है। आयुर्वेद, यूनानी, योग और प्राणायाम जैसी कई पारंपरिक पद्धतियां सदियों से अपनाई जा रही हैं। फिर
भी,
हमें आधुनिक विज्ञान और प्रौद्योगिकी, नई पहचान और उपचार विधियां अपनाने की आवश्यकता है।
दुश्चिंता में कमी
इस संदर्भ में इस्राइल के वाइज़मैन इंस्टीट्यूट के एक समूह की हालिया रिपोर्ट
काफी दिलचस्प है। इस रिपोर्ट में बताया गया है कि बीटा-सिटोस्टेरॉल (BSS) नामक यौगिक दुश्चिंता कम करता है और चूहों में यह जानी-मानी दुश्चिंता की औषधियों के सहायक की
तरह काम करता है। सेल रिपोर्ट्स मेडिसिन में प्रकाशित यह पेपर मस्तिष्क के
विभिन्न हिस्सों और उनके रसायन विज्ञान पर BSS के प्रभाव की जांच करता है (इसे इंटरनेट पर पढ़ सकते हैं – (Panayotis et al., 2021, Cell
Reports Medicine 2,100281)।
दुश्चिंता और तनाव सम्बंधी विकारों के इलाज के लिए हमें और भी औषधियों की
आवश्यकता है। इस तरह के यौगिकों की खोज करना और उन्हें विकसित करना एक चुनौती भरा
काम है। BSS एक फायटोस्टेरॉल है और पौधे
इसका मुख्य स्रोत हैं। पारंपरिक भारतीय औषधियों में फायटोस्टेरॉल्स का उपयोग होता
आया है। और चूंकि ये पौधों से प्राप्त की जाती हैं तो ये शाकाहार हैं। सबसे प्रचुर
मात्रा में BSS सफेद सरसों (कैनोला) के तेल
में पाया जाता है; प्रति 100 ग्राम सफेद सरसों के तेल में यह
400 मिलीग्राम से भी अधिक होता है। और लगभग इतना ही BSS मक्का और इसके तेल में भी पाया जाता है। हालांकि, सफेद
सरसों भारत में आसानी से उपलब्ध नहीं है। लेकिन BSS के सबसे सुलभ स्रोत हैं पिस्ता, बादाम, अखरोट और चने जो भारतीय दुकानों पर आसानी से मिल जाते हैं। इनमें प्रति 100
ग्राम में क्रमश: 198, 132, 103 और
160 मिलीग्राम BSS होता है।
स्मृतिभ्रंश,
मस्तिष्क के कामकाज में क्रमिक क्षति की स्थितियां दर्शाता
है। यह स्मृतिलोप, और संज्ञान क्षमता और गतिशीलता में गड़बड़ी
से सम्बंधित है। इस तरह की समस्या किसी व्यक्ति का व्यक्तित्व भी बदल सकती हैं, और समस्या बढ़ने पर काम करने की क्षमता कम हो जाती है। स्मृतिभ्रंश की समस्या
पीड़ित और उसके परिवार पर बोझ बन सकती है। इस संदर्भ में इंडियन जर्नल ऑफ
साइकिएट्री में आर. साथियानाथन और एस. जे. कांतिपुड़ी ने एक उत्कृष्ट और व्यापक
समीक्षा प्रकाशित की है जिसका शीर्षक है स्मृतिभ्रंश महामारी: प्रभाव, बचाव और भारत के लिए चुनौतियां (The Dementia Epidemic: Impact, Prevention and
Challenges for India – Indian Journal of Psychiatry (2018, Vol
60(2), p 165-167)। इसे नेट पर मुफ्त में पढ़ा जा सकता है।
स्मृतिभ्रंश के जैविक चिंह
वैज्ञानिक और चिकित्सक स्मृतिभ्रंश और अल्ज़ाइमर को शुरुआती अवस्था में ही पता
लगाने की कोशिश में हैं। इसके लिए वे तंत्रिका-क्षति के द्योतक जैविक चिंहों की
तलाश कर रहे हैं – जैसे अघुलनशील प्लाक का जमाव। इसके अलावा, मैग्नेटिक रेसोनेंस इमेंजिंग (MRI) और पॉज़िट्रॉन एमिशन टोमोग्राफी (PET) जैसी इमेजिंग विधियां समय से पहले स्मृतिभ्रंश की स्थिति का पता लगा सकती
हैं। हमारे कई शहरों में MRI और PET स्कैनिंग के लिए केंद्र हैं।
लेकिन हमें ऐसी चिकित्सकीय व जैविक प्रयोगशालाओं की आवश्यकता है जो इमेजिंग
तकनीकों के उपयोग के पहले ही आनुवंशिक और तंत्रिका-जीव वैज्ञानिक पहलुओं की भूमिका
पता लगा सके। हमें ऐसे कार्बनिक रसायनज्ञों की भी आवश्यकता है, जो तंत्रिका सम्बंधी समस्याओं पर शुरुआती चरण में ही कार्य करने वाले नए और
अधिक कुशल औषधि अणु संश्लेषित करें, ताकि तंत्रिका तंत्र को विघटन
से बचाया जा सके।
भारत प्राकृतिक उत्पादों के रसायन विज्ञान के क्षेत्र में अग्रणी रहा है – स्वास्थ्य के लिए लाभकारी अणुओं की पहचान तथा उनका संश्लेषण करके देश व दुनिया भर में विपणन करता रहा है। हमारे पास विश्व स्तरीय जीव विज्ञान प्रयोगशालाएं भी हैं जो आनुवंशिक और आणविक जैविक पहलुओं का अध्ययन करती हैं। हमारे पास सदियों पुराने जड़ी-बूटी औषधि केंद्र (आयुर्वेद और यूनानी प्रणाली के) भी हैं जो समृतिभ्रंश का प्रभावी इलाज विकसित करते रहते हैं। यदि केंद्र व राज्य सरकारें और निजी प्रतिष्ठान मिलकर अनुसंधान का समर्थन करें, तो कोई कारण नहीं कि हम स्मृतिभ्रंश और अल्ज़ाइमर के मामलों को कम न कर सकें। वरिष्ठ (और कनिष्ठ) नागरिक शरीर और दिमाग को चुस्त-दुरुस्त रखने वाले उपाय अपनाकर – जैसे BSS समृद्ध आहार, शाकीय भोजन और गिरियां खाकर, पैदल चलना, साइकिल चलाना, कोई खेल खेलना जैसे व्यायाम और योग अभ्यास करके इन रोगों से लड़ने में मदद कर सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.thehindu.com/sci-tech/science/yicffh/article35513073.ece/ALTERNATES/LANDSCAPE_615/25TH-SCIDEMENTIAjpg
हाल ही में यूएस फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन (एफडीए) ने
सोट्रोविमैब को आपातकालीन उपयोग की अनुमति दी है। सोट्रोविमैब सार्स-कोव-2 के
विरुद्ध एक प्रभावी हथियार है जिसे भविष्य में विभिन्न कोरोनावायरस के कारण होने
वाली संभावित महामारियों के लिए भी प्रभावी माना जा रहा है। शोधकर्ताओं के अनुसार
सोट्रोविमैब जैसी तथाकथित सुपर-एंटीबॉडीज़ की वर्तमान वायरस संस्करणों के विरुद्ध
व्यापक प्रभाविता इसे कोविड-19 के लिए पहली पीढ़ी के मोनोक्लोनल एंटीबॉडी (mAb) उपचारों से बेहतर बनाती है।
चिकित्सकों के लिए यह तो संभव नहीं है कि हर बार वायरस का अनुक्रमण करके इलाज
करें। इसलिए ऐसी एंटीबॉडीज़ बेहतर हैं जो प्रतिरोध पैदा न होने दें और विभिन्न
ज्ञात संस्करणों के खिलाफ कारगर हों।
विर बायोटेक्नोलॉजी और ग्लैक्सो-स्मिथ-क्लाइन द्वारा निर्मित एंटीबॉडी उपचार
वास्तव में तीसरा mAb
आधारित उपचार है जो हल्के से मध्यम कोविड-19 से पीड़ित व्यक्तियों के लिए उपयोग
किया जा रहा है ताकि उन्हें गंभीर रूप से बीमार होने से बचाया जा सके। हालांकि, टीकाकरण में वृद्धि के साथ ऐसे उत्पादों की आवश्यकता कम हो जाएगी लेकिन जिन
लोगों को किसी वजह से टीका नहीं लगता या टीकाकरण से पर्याप्त प्रतिरक्षा नहीं मिल
पाती,
उनके लिए mAb हमेशा आवश्यक रहेंगी।
हालांकि कुछ अन्य क्रॉस-रिएक्टिव mAb भी जल्द ही बाज़ार में आने वाले हैं। एडैजिओ थेराप्यूटिक्स ने व्यापक स्तर पर ADG20 नामक mAb के परीक्षण के लिए काफी निवेश
किया है। इसका उपयोग उपचार और रोकथाम के लिए किया जाएगा। इस क्षेत्र में कई
स्टार्ट-अप भी कोविड-19 के लिए अगली पीढ़ी के mAb पर काम कर रहे हैं।
दरअसल,
सोट्रोविमैब की शुरुआत 2013 में हुई थी जब 2003 के सार्स
प्रकोप से उबर चुके एक व्यक्ति के रक्त का नमूना लिया गया था। ADG20 को भी इसी तरह से तैयार
किया गया है। दूसरी ओर, अधिकांश अन्य mAb हाल ही में कोविड-19 से उबर चुके लोगों के एंटीबॉडीज़ से
प्रेरित हैं। कई कंपनियों ने mAb को अनुकूलित करने के लिए उनके अर्ध-जीवनकाल में विस्तार, निष्प्रभावन क्रिया में वृद्धि, स्थिर क्षेत्र में हेरफेर या
फिर इन सभी के संयोजन का उपयोग किया है।
हालांकि,
यूके बायोइंडस्ट्री एसोसिएशन की पूर्व प्रमुख जेन ओस्बॉर्न
के अनुसार mAb विकसित करने में वायरस के
विकास का विशेष ध्यान रखना होगा। कई परीक्षणों में नए संस्करणों के विरुद्ध
नकारात्मक परिणाम मिले हैं। ऐसे में वायरस के उत्परिवर्तन पर काफी गंभीरता से
सोचने की आवश्यकता है। हालांकि प्रयोगशाला में किए गए अध्ययनों में सोट्रोविमैब ने
दक्षिण अफ्रीका,
ज़ील और भारत में पाए गए सबसे चिंताजनक संस्करणों के प्रति
निष्प्रभावन क्षमता को बनाए रखा है। कई अन्य mAb ने तीसरे चरण में अच्छे परिणाम दर्शाए हैं। लेकिन कुछ अन्य
नए संस्करण के विरुद्ध कम प्रभावी रहे हैं। कुछ विशेषज्ञों का दावा है कि एकल
एंटीबॉडीज़ एकल उत्परिवर्तन के विरुद्ध कमज़ोर हो सकते हैं जबकि एंटीबॉडीज़ का मिश्रण
अधिक प्रभावी और शक्तिशाली हो सकता है।
लेकिन एक बेहतर रणनीति के तहत एडैजिओ और विर दोनों ने स्वतंत्र रूप से ऐसी mAb की जांच की जो सार्स जैसे
कोरोनावायरस परिवार में पाए जाने वाले लगभग स्थिर चिंहों की पहचान करते हैं। ऐसे
स्थिर हिस्से आम तौर पर वायरस के लिए आवश्यक कार्य करते हैं, ऐसे में वायरस अपने जीवन को दांव पर लगाकर ही इनमें उत्परिवर्तन का जोखिम मोल
ले सकता है।
हालांकि,
एंटीबॉडी सिर्फ इतना नहीं करते कि वायरल प्रोटीन को
निष्क्रिय कर दें। mAb
जन्मजात और अनुकूली प्रतिरक्षा को भी प्रेरित करते हैं जो संक्रमित कोशिकाओं को
नष्ट करने में मदद करती हैं और यही द्वितीयक क्रियाएं सार्स और कोविड-19 के उपचार
के लिए काफी महत्वपूर्ण हैं।
चूहों पर किए गए अध्ययन (सेल और जर्नल ऑफ एक्सपेरिमेंटल मेडिसिन
में प्रकाशित) से इस विचार को समर्थन मिला है। लेकिन पिछले वर्ष जब कोविड-19 mAb काफी चर्चा में थे तब
एस्ट्राज़ेनेका,
एली लिली, एबप्रो और अन्य कंपनियों
अपने-अपने mAb में इन क्रियाओं का दमन करने
का निर्णय लिया था। वे वायरल संक्रमण में एंटीबॉडी-निर्भर वृद्धि के जोखिम को कम
से कम करना चाहते थे जिसमें एंटीबॉडीज़ रोग को कम करने की बजाय बढ़ावा दे सकते हैं।
कुछ रोगजनकों के मामले में यह एक वास्तविक समस्या हो सकती है। लेकिन शोधकर्ताओं को
जल्दी ही समझ आ गया कि सार्स-कोव-2 के साथ ऐसी कोई समस्या नहीं है। ऐसे में विर ने
ऐसी क्रियाओं को रोकने पर ध्यान देना बंद कर दिया। इस कंपनी ने सोट्रोविमैब के लिए
न सिर्फ इन क्रियाओं को अछूता छोड़ दिया बल्कि इन्हें बढ़ाने के प्रयास भी किए।
वास्तव में इसका मुख्य उद्देश्य एक ऐसी एंटीबॉडी का निर्माण करना है जो न सिर्फ
सुरक्षा प्रदान करे बल्कि एक दीर्घावधि प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया विकसित करे। इसके
लिए पिछले वर्ष विर की एक टीम ने चूहों में एंटी-इन्फ्लुएंजा mAb पर काम किया है।
इस संदर्भ में एक टीम ने 2003 के सार्स संक्रमण के जवाब में तैयार किए गए
प्राकृतिक mAb से शुरुआत की। इसके पहले चरण
के परीक्षण में चिकित्सकों ने पाया कि ADG20 की एक खुराक से रक्त में वायरस को निष्क्रिय करने वाली क्रिया उतनी ही थी
जितनी mRNA आधारित टीकाकारण के बाद लोगों
में देखने को मिली थी। अध्ययनों से संकेत मिले हैं कि यह सुरक्षा एक वर्ष तक बनी
रहती है। दो वैश्विक परीक्षण अभी जारी हैं।
कुछ कंपनियां मांसपेशियों में देने वाले टीके के साथ-साथ श्वसन के माध्यम से भी इसे देने के तरीकों की खोज कर रही हैं। इस नेज़ल स्प्रे को संक्रमण के स्थान पर ही वायरस को कमज़ोर करने के लिए तैयार किया गया है। बहरहाल जो भी तरीका हो लेकिन यह काफी अच्छी खबर है कि कोविड-19 के जवाब में ऐसे प्रयोग किया जा रहे हैं ताकि भविष्य में ऐसे हालात का डटकर सामना किया जा सके। गौरतलब है कि फिलहाल ये सभी अनुमानित लाभ है जिनको लोगों में नहीं देखा गया है। वास्तविक परिस्थिति में परीक्षण के बाद ही स्थिति स्पष्ट होगी। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://media.springernature.com/relative-r300-703_m1050/springer-static/image/art%3A10.1038%2Fs41587-021-00980-x/MediaObjects/41587_2021_980_Figa_HTML.jpg?as=webp
कुछ लोग कितना भी व्यायाम कर लें, डाइटिंग
कर लें लेकिन उनका वज़न है कि कम ही नहीं होता। वहीं दूसरी ओर कुछ ऐसे भी लोग होते
हैं कि वे कितना भी खा लें, चर्बी उनके शरीर पर चढ़ती ही
नहीं। हाल ही में वैज्ञानिकों ने मोटापे की आनुवंशिकी के एक विस्तृत अध्ययन में
ऐसे दुर्लभ जीन संस्करणों की पहचान की है जो वज़न बढ़ने से रोकते हैं।
आम तौर पर आनुवंशिकीविद ऐसे उत्परिवर्तनों की तलाश करते हैं जो किसी न किसी
बीमारी का कारण बनते हैं। लेकिन शरीर में ऐसे जीन संस्करण भी मौजूद होते हैं जो
स्वास्थ्य को बेहतर बनाते हैं, और इन जीन संस्करणों को
पहचानना मुश्किल होता है क्योंकि इसके लिए बड़े पैमाने पर जीनोम अनुक्रमण करने की
ज़रूरत पड़ती है।
हर साल तकरीबन 28 लाख लोगों की मृत्यु अधिक वज़न या मोटापे की वजह से होती है।
मोटापा विभिन्न रोगों जैसे टाइप-2 मधुमेह, हृदय
रोग,
कुछ तरह के कैंसर और गंभीर कोविड-19 के जोखिम को बढ़ाता है।
आहार और व्यायाम वज़न कम करने में मदद कर सकते हैं, लेकिन
आनुवंशिकी भी इसे प्रभावित करती है। अत्यधिक मोटापे से ग्रसित लोगों पर हुए
अध्ययनों में कुछ आम जीन संस्करण पहचाने गए थे जो मोटापे की संभावना बढ़ाते हैं –
जैसे MC4R जीन की ‘खण्डित’ प्रति जो भूख
के नियमन से जुड़ी है। अन्य अध्ययनों में हज़ारों ऐसे जीन संस्करण पहचाने गए थे जो
स्वयं तो वज़न को बहुत प्रभावित नहीं करते, लेकिन
ये संयुक्त रूप से मोटापे की संभावना बढ़ाते हैं।
हालिया अध्ययन में शोधकर्ताओं ने यूएस और यूके के 6,40,000 से अधिक लोगों के
जीनोम का अनुक्रमण किया। उन्होंने जीनोम के सिर्फ एक्सोम यानी उस हिस्से पर ध्यान
केंद्रित किया जो प्रोटीन्स के लिए कोड करता है। उन्होंने ऐसे जीन तलाशे जो
दुबलेपन या मोटापे से जुड़े थे। इस तरह उन्हें 16 जीन मिले। इनमें से पांच जीन कोशिका
की सतह के जी-प्रोटीन युग्मित ग्राही के कोड हैं। ये पांचों जीन मस्तिष्क के उस
हिस्से,
हायपोथैलेमस, में व्यक्त होते हैं जो भूख और
चयापचय को नियंत्रित करता है। इनमें से एक जीन (GPR75) में एक उत्परिवर्तन मोटापे को सबसे अधिक प्रभावित करता
है।
साइंस पत्रिका में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार, इस उत्परिवर्तन वाले व्यक्तियों में वज़न बढ़ाने वाले जीन की एक प्रति निष्क्रिय
थी जिसकी वजह से उनके वज़न में औसतन 5.3 किलोग्राम की कमी आई थी और सक्रिय जीन वाले
लोगों की तुलना में इनके मोटे होने की संभावना आधी थी।
GPR75 जीन वज़न बढ़ने को किस तरह
प्रभावित करता है, यह जानने के लिए शोधकर्ताओं ने कुछ चूहों
में इस जीन को निष्क्रिय किया और फिर उन्हें उच्च वसा वाला भोजन खिलाया।
अपरिवर्तित नियंत्रण समूह की तुलना में परिवर्तित चूहों का वज़न 44 प्रतिशत कम बढ़ा।
इसके अलावा उनमें रक्त शर्करा का बेहतर नियंत्रण था और वे इंसुलिन के प्रति अधिक
संवेदनशील थे।
लेकिन GPR75 के ऐसे उत्परिवर्तन दुर्लभ
हैं जो जीन की एक प्रति को अक्रिय करते हैं – ऐसा 3,000 में से केवल एक ही व्यक्ति
में होता है। लेकिन चूहों पर किए गए प्रयोग से स्पष्ट है कि इसका प्रभाव काफी अधिक
होता है।
शोधकर्ताओं का कहना है कि मोटापा कम करने के लिए GPR75 एक संभावित लक्ष्य हो सकता है; GPR75 ग्राहियों को निष्क्रिय करने वाले अणु मोटापे से जूझ रहे
लोगों की मदद कर सकते हैं।
शोध का यह तरीका अन्य बीमारियों जैसे टाइप-2 मधुमेह या अन्य चयापचय सम्बंधी विकारों के अध्ययन के लिए भी उपयोगी हो सकता है। लेकिन इसके लिए बड़े पैमाने पर अनुक्रमण ज़रूरी होगा। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/inline__450w__no_aspect/public/scale_1280p_0.jpg?itok=wZlkk0Dv
पिछला एक वर्ष हम सभी के लिए चुनौती भरा दौर रहा है। एक ओर तो
महामारी का दंश तथा दूसरी ओर लॉकडाउन के कारण मानसिक तनाव। साथ ही समस्त शिक्षण का
ऑनलाइन हो जाना। इस एक वर्ष में प्रारंभिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा एवं शोध
कार्य प्रभावित हुए हैं। पहली बार स्कूल जाने वाले बच्चों को तो यह भी नहीं मालूम
कि स्कूल कैसा दिखता है।
लेकिन इस वर्ष मार्च में अमेरिका के कई क्षेत्रों में स्कूल दोबारा से शुरू
करने के विचार पर गरमागरम बहस छिड़ गई है। अमेरिका के सेंटर फॉर डिसीज़ कंट्रोल एंड
प्रिवेंशन (सीडीसी) ने वायरस संचरण को रोकने के सुरक्षात्मक प्रयासों के साथ स्कूल
दोबारा से खोलने का सुझाव दिया लेकिन इस घोषणा से अभिभावक, स्कूल
कर्मचारी और यहां तक कि वैज्ञानिक भी असंतुष्ट नज़र आए। कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय
की संक्रामक रोग शोधकर्ता मोनिका गांधी ने स्कूल खोलने का पक्ष लिया तो उन्हें
काफी विरोध का सामना करना पड़ा और उन पर बच्चों की जान से खिलवाड़ करने जैसे आरोप
लगे।
जैसे-जैसे यह शैक्षिक सत्र समाप्त हो रहा है, कई
देशों में स्कूल प्रबंधन अपने पुराने अनुभव के आधार पर नए सत्र की तैयारी कर रहे
हैं। वे चाहते हैं कि स्वास्थ्य महकमा उनका मार्गदर्शन करे। यूके में बच्चों ने
मार्च-अप्रैल में स्कूल जाना शुरू कर दिया। फ्रांस में तीसरी लहर के कारण कुछ समय
के लिए तो स्कूल बंद रहे लेकिन मई में दोबारा शुरू कर दिए गए। अमेरिका में भी जून
के अंत तक लगभग आधे से अधिक शाला संकुल खोल दिए गए थे और सभी स्कूलों में
प्रत्यक्ष शिक्षण शुरू कर दिया गया।
लेकिन सच तो यह है कि विश्व भर में 77 करोड़ बच्चे ऐसे हैं जो अभी तक भी
पूर्णकालिक रूप से स्कूल नहीं जा पा रहे हैं। इसके अलावा 19 देशों के 15 करोड़
बच्चों के पास प्रत्यक्ष शिक्षण तक भी पहुंच नहीं है। ऐसे बच्चे या तो वर्चुअल ढंग
से पढ़ रहे हैं या फिर पढ़ाई से पूरी तरह कटे हुए हैं। ऐसी संभावना भी है कि यदि
स्कूल खुल भी जाते हैं तो कई बच्चे वापस स्कूल नहीं जा पाएंगे।
युनेस्को ने पिछले वर्ष अनुमान व्यक्त किया था कि महामारी के कारण लगभग 2.4
करोड़ बच्चे स्कूल छोड़ देंगे। न्यूयॉर्क में युनिसेफ के शिक्षा प्रमुख रॉबर्ट
जेनकिंस का मत है कि स्कूल शिक्षण के अलावा भी बहुत सारी सेवाएं प्रदान करते हैं।
अत: स्कूल सबसे आखरी में बंद और सबसे पहले खुलना चाहिए। अजीब बात है कि कई देशों
में माता-पिता परिवार के साथ बाहर खाना खाने तो जा सकते हैं लेकिन उनके बच्चे स्कूल
नहीं जा पा रहे हैं।
हालांकि,
इस सम्बंध में काफी प्रमाण मौजूद हैं कि स्कूलों को सुरक्षित
रूप से खोला जा सकता है लेकिन यह बहस अभी भी जारी है कि स्कूल खोले जाएं या नहीं
और वायरस संचरण को नियंत्रित करने के लिए क्या उपाय अपनाए जाएं। संभावना है कि कई
देशों में सितंबर में नए सत्र में स्कूल शुरू होने पर यह बहस एक बार फिर शुरू हो
जाएगी।
जहां अमेरिका और अन्य सम्पन्न देशों में किशोरों और बच्चों को भी टीका लग चुका
है वहीं कम और मध्यम आय वाले देशों में टीकों तक पहुंच अभी भी सीमित ही है।
टीकाकरण के लिए इन देशों में बच्चों को अभी काफी इंतज़ार करना है। और वायरस के
नए-नए संस्करण चिंता का विषय बने रहेंगे।
पिछले वर्ष सार्स-कोव-2 के बारे में हमारी पास बहुत कम जानकारी थी और ऐसा माना
गया कि बीमारी का सबसे अधिक जोखिम बच्चों पर होगा इसलिए मार्च में सभी स्कूलों को
बंद कर दिया गया। लेकिन जल्द ही वैज्ञानिकों ने बताया कि बच्चों में गंभीर बीमारी
विकसित होने की संभावना कम है। लेकिन यह स्पष्ट नहीं था कि क्या बच्चे भी संक्रमित
हो सकते हैं और क्या वे अन्य लोगों को संक्रमित कर सकते हैं। कुछ शोधकर्ताओं का
मानना था कि बच्चों को स्कूल भेजने से महामारी और अधिक फैल सकती है। लेकिन जल्दी
ही यह बहस वैज्ञानिक न रहकर राजनीतिक हो गई।
तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने जुलाई 2020 में सितंबर से
स्कूल शुरू करने की बात कही। वैज्ञानिक समुदाय स्कूल खोलने के पक्ष में था। ट्रम्प
के प्रति अविश्वास के चलते स्कूल दोबारा से शुरू करने की बात का समर्थन करना
मुश्किल हो गया। अन्य देशों में भी इस तरह की तकरार देखने को मिली। अप्रैल 2020
में डेनमार्क में प्राथमिक स्कूल शुरू करने पर अभिभावकों के विरोध का सामना करना
पड़ा। फ्रांस में अधिकांश स्कूल खुले रहे लेकिन नवंबर माह में विद्यार्थियों ने
विरोध किया कि कक्षाओं के अंदर कोविड-19 से सुरक्षा के पर्याप्त उपाय नहीं किए जा
रहे हैं। कुछ ज़िलों में सामुदायिक प्रसार के कारण शिक्षक भी स्कूल से गैर-हाज़िर
रहे। इसी तरह बर्लिन में इस वर्ष जनवरी में आंशिक रूप से स्कूल खोलने की योजना को
अभिभावकों,
शिक्षकों और सरकारी अधिकारियों के विरोध के बाद रद्द कर
दिया गया।
इस बीच टीकाकारण में प्राथमिकता का भी एक महत्वपूर्ण मुद्दा रहा। मार्च-अप्रैल
में स्कूल खुलने के बाद भी अधिकांश शिक्षकों का टीकाकारण नहीं हुआ था। इस कारण
स्कूल शिक्षकों और अन्य कर्मचारियों पर बीमार होने का जोखिम बना रहा और इसके चलते
कक्षा में शिक्षकों की अनुपस्थिति भी रही।
इसके अलावा,
शोधकर्ताओं ने दावा किया कि दूरस्थ शिक्षा से कई देशों के श्वेत
और अश्वेत विद्यार्थियों के बीच असमानताओं में वृद्धि होगी। सिर्फ यही नहीं इससे
विकलांग और भिन्न सक्षम बच्चों के पिछड़ने की भी आशंका है। महामारी से पहले भी यूएस
की शिक्षा प्रणाली अश्वेत लोगों को साथ लेकर चलने में विफल रही है।
अब महामारी को एक वर्ष से अधिक हो चुका है और शोधकर्ताओं के पास कोविड-19 और
उसके संचरण के बारे में काफी जानकारी है। हालांकि, कुछ
बच्चे और शिक्षक कोविड-19 से पीड़ित अवश्य हुए लेकिन स्कूलों का वातावरण ऐसा नहीं है
जहां व्यापक स्तर पर कोविड-19 के फैलने की संभावना हो। देखा गया है कि स्कूल में
संक्रमण की दर समुदाय में संक्रमण की तुलना में काफी कम हैं।
अमेरिका के स्कूलों में कोविड-19 पर कई व्यापक अध्ययन किए गए हैं। इनमें से
शरद ऋतु में उत्तरी कैरोलिना में 90,000 से अधिक विद्यार्थियों और शिक्षकों का
अध्ययन शामिल है। इस अध्ययन की शुरुआत में वैज्ञानिकों ने सामुदायिक संक्रमण दर के
आधार पर स्कूलों में लगभग 900 मामलों का अनुमान लगाया था लेकिन विश्लेषण करने पर
स्कूल-संचारित 32 मामले ही सामने आए। इन परिणामों के बाद भी अधिकांश स्कूल बंद
रहे। एक अन्य अध्ययन में विस्कॉन्सिन के ग्रामीण क्षेत्र के 17 स्कूलों का अध्ययन
किया गया। शरद ऋतु के 13 सप्ताह के दौरान जब संक्रमण काफी तेज़ी से फैल रहा था तब
स्कूल कर्मचारियों और विद्यार्थियों में कुल 191 मामलों का पता चला जिनमें से केवल
सात मामले स्कूल से उत्पन्न हुए थे। इसके अलावा नेब्राास्का में किए गए एक
अप्रकाशित अध्ययन में पता चला था कि साल भर संचालित 20,000 से अधिक छात्रों और
कर्मचारियों वाले स्कूल में पूरी अवधि के दौरान संचरण के केवल दो मामले ही सामने
आए।
हालांकि,
आलोचकों का कहना है कि इस अध्ययन में बिना लक्षण वाले
बच्चों की पहचान नहीं की गई थी, इसलिए वास्तविक संख्या अधिक हो
सकती है। शोधकर्ताओं का कहना है कि इन आंकड़ों को यदि दुगना या तिगुना भी कर दिया
जाए तब भी स्कूल की संक्रमण दर सामुदायिक संक्रमण दर से काफी कम रहेगी। नॉर्वे के
एक स्कूल में 5 से 13 वर्ष की आयु के 13 संपुष्ट मामलों की पहचान के बाद उन बच्चों
के 300 निकटतम संपर्कों का भी परीक्षण किया गया। संपर्क में आए केवल 0.9 प्रतिशत
बच्चों में और 1.7 प्रतिशत वयस्कों में वायरस संक्रमण के मामले पाए गए।
साल्ट लेक सिटी में शोधकर्ताओं ने ऐसे 700 से अधिक विद्यार्थियों और स्कूल
कर्मचारियों का कोविड-19 परीक्षण किया जो 51 कोविड पॉज़िटिव विद्यार्थियों में से
किसी भी एक के संपर्क में आए थे। इनमें से केवल 12 मामले पॉज़िटिव पाए गए जिनमें से
केवल पांच मामले स्कूल से सम्बंधित थे। इससे पता चलता है कि वायरस से संक्रमित
विद्यार्थियों के माध्यम से स्कूल में संक्रमण नहीं फैला है। न्यूयॉर्क में किए गए
इसी तरह के अध्ययन में भी ऐसे परिणाम मिले।
हालांकि,
सुरक्षात्मक उपायों के अभाव में संचरण दर काफी अधिक हो सकती
है। जैसे इरुााइल में मई 2020 में स्कूल खोलने पर मात्र दो सप्ताह में ही एक
माध्यमिक शाला में बड़ा प्रकोप उभरा। यहां विद्यार्थियों में 13.2 प्रतिशत और स्कूल
कर्मचारियों एवं शिक्षकों में 16.6 प्रतिशत की संक्रमण दर दर्ज की गई। जून के मध्य
तक इन लोगों के निकटतम संपर्कों में 90 मामले देखने को मिले।
कई अध्ययनों से यह साबित हुआ है कि स्कूल के बच्चे वायरस संक्रमण नहीं फैला
रहे हैं। फिर भी यह कहना तो उचित नहीं है कि बच्चों में किसी प्रकार का कोई जोखिम
नहीं है। इस रोग से कुछ बच्चों की मृत्यु भी हुई है। मार्च 2020 से फरवरी 2021 के
बीच सात देशों में कोविड-19 से सम्बंधित मौतों में 231 बच्चे शामिल थे। अमेरिका
में जून तक यह संख्या 471 थी। अध्ययनों में यह भी देखा गया कि संक्रमित बच्चों में
काफी लंबे समय तक लक्षण बने रहे। लिहाज़ा कुछ विशेषज्ञ बच्चों को इस वायरस के
प्रकोप से दूर रखने का ही सुझाव देते हैं।
लेकिन बच्चों का स्कूल से दूर रहना भी किसी जोखिम से कम नहीं है। बच्चों का
सामाजिक अलगाव और ऑनलाइन शिक्षण काफी चुनौतीपूर्ण रहा है। कुछ हालिया अध्ययनों से
पता चला है कि दूरस्थ शिक्षा प्राप्त करने वाले बच्चे अकादमिक रूप से पिछड़ रहे
हैं। स्कूल शिक्षा के अलावा भी बहुत कुछ प्रदान करता है। यह बच्चों को सुरक्षा
प्रदान करता है,
मुफ्त खाना और अपना दिन गुज़ारने के लिए एक सुरक्षित स्थान
देता है। स्कूल में आने वाले बच्चों पर घरेलू हिंसा या यौन शोषण के लक्षण भी
शिक्षक और स्कूल काउंसलर समझ जाते हैं और आवश्यक हस्तक्षेप भी कर पाते हैं।
कामकाजी अविभावकों के लिए स्कूल बंद होना किसी आपदा से कम नहीं है। ऐसे में उनको
अपनी ज़िम्मेदारियां निभाना काफी मुश्किल हो गया है। ऐसी परिस्थिति में भी स्कूल का
खुलना काफी ज़रूरी हो गया है।
गौरतलब है कि जिन देशों में टीकाकारण कार्यक्रम तेज़ी से आगे बढ़ रहे हैं वहां
कुछ प्रतिबंधों और सुरक्षात्मक उपायों के साथ स्कूल खुलने की संभावना है। हालांकि, वायरस के नए संस्करणों से काफी अनिश्चितता बनी हुई है। डेल्टा संस्करण अल्फा
संस्करण की तुलना में 40 से 60 प्रतिशत अधिक संक्रामक बताया जा रहा है। यूके में
इस संस्करण के मामले काफी तेज़ी से बढ़े हैं। इसमें चिंताजनक बात यह है कि पांच से
12 वर्ष के बच्चों में इसका प्रभाव अधिक पाया गया है।
स्कूलों में वायरस के अधिक संक्रामक संस्करणों के प्रसार को रोकने के लिए
मास्क पहनने और बेहतर वेंटिलेशन जैसे तरीके अपनाए जा सकते हैं। अलबत्ता, इन सुरक्षात्मक उपायों को लेकर असमंजस की स्थिति है। जैसे, पहले सीडीसी ने स्कूलों में छह फुट की दूरी रखने की सलाह दी थी लेकिन मार्च
में कुछ अध्ययनों के आधार पर इसे आधा कर दिया गया। यूके में केवल यथासंभव दूरी
बनाए रखने के दिशानिर्देश जारी किए गए। देखा जाए तो वसंत ऋतु में विस्कॉन्सिन के
स्कूलों में कक्षा में तीन फुट से भी कम दूरी पर बच्चों को बैठाया गया। इसके बाद
भी परीक्षण में केवल दो ही मामले सामने आए।
बंद जगहों में मास्क के उपयोग को लेकर भी दुविधा है। मार्च में इंग्लैंड में
स्कूल खुलने पर सिर्फ माध्यमिक शाला के विद्यार्थियों को मास्क पहनना आवश्यक था
लेकिन यूके डिपार्टमेंट ऑफ एजुकेशन ने 17 मई को बच्चों तथा शिक्षकों और स्कूल
कर्मचारियों को मास्क न लगाने का सुझाव दिया। फिर जिन स्कूलों में मामले बढ़ने लगे
वहां एक बार फिर मास्क का उपयोग करने की घोषणा की गई। इसी तरह अमेरिका के अलग-अलग
ज़िलों तथा राज्यों में भी मास्क के उपयोग को लेकर विभिन्न निर्णय लिए गए। मई में
सीडीसी ने मास्क के उपयोग में बदलाव करते हुए बताया कि टीकाकृत लोगों को मास्क का
उपयोग करने की ज़रूरत नहीं है।
फिर भी कुछ विशेषज्ञों का मत है कि एहतियात के तौर पर मास्क का उपयोग किया
जाना चाहिए। क्योंकि अमेरिका में बिना टीकाकृत लोगों में अभी भी संक्रमण का जोखिम
काफी अधिक है और बच्चों का अभी तक टीकाकरण नहीं हो पाया है। इसलिए अभी भी सावधानी
बरतना आवश्यक है। कुछ विशेषज्ञों को उम्मीद है कि स्कूलों का बंद होना स्कूल प्रणाली
की पुन: रचना करने का मौका देगा। इस महामारी ने वर्तमान शिक्षा प्रणाली की व्यापक
खामियों को उजागर किया है।
युनिसेफ के जेनकिंस के अनुसार ऐसी परिस्थितियों में शिक्षकों और स्कूल प्रबंधन को रचनात्मक तरीके सीखने व अपनाने की आवश्यकता है। किस प्रकार से वे प्रौद्योगिकी का उपयोग करते हुए वर्चुअल शिक्षण प्रदान कर सकते हैं, सवाल छुड़ाने जैसे महत्वपूर्ण कौशल को कैसे पढ़ाएंगे, शिक्षण के साथ-साथ मानसिक स्वास्थ्य, पोषण, सामाजिक-भावनात्मक विकास को कैसे सम्बोधित करेंगे। देखा जाए तो हमें कुछ बदलाव लाने का मौका मिला है। इस अवसर से फायदा न उठा पाना हमारे लिए काफी शर्म की बात होगी। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://media.npr.org/assets/img/2020/07/31/schoolreopening-promo_wide-e6eec4f6547cf3793ae8536e89b49771770a61bc-s800-c85.jpg
हर वर्ष मलेरिया से लगभग चार लाख लोगों की मौत होती है।
दवाइयों तथा कीटनाशक युक्त मच्छरदानी वगैरह से मलेरिया पर नियंत्रण में मदद मिली
है लेकिन टीका मलेरिया नियंत्रण में मील का पत्थर साबित हो सकता है। मलेरिया के एक
प्रायोगिक टीके के शुरुआती चरण में आशाजनक परिणाम मिले हैं।
नेचर में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार इस टीके में जीवित मलेरिया
परजीवी (प्लाज़्मोडियम फाल्सीपैरम) का उपयोग किया गया है। टीके के साथ ऐसी
दवाइयां भी दी गई थीं जो लीवर या रक्तप्रवाह में पहुंचने वाले परजीवियों को खत्म
करती हैं। टीकाकरण के तीन माह बाद प्रतिभागियों को मलेरिया से संक्रमित किया गया।
शोधकर्ताओं ने पाया कि टीके में प्रयुक्त संस्करण से लगभग 87.5 प्रतिशत लोगों को
सुरक्षा प्राप्त हुई जबकि अन्य संस्करणों से 77.5 प्रतिशत लोगों को सुरक्षा मिली।
जीवित परजीवी पर आधारित टीकों में इसे महत्वपूर्ण उपलब्धि माना जा रहा है।
वर्तमान में कई मलेरिया टीके विकसित किए जा रहे हैं। इनमें से सबसे विकसित RTS,S टीका है जिसकी प्रभाविता और
सुरक्षा का पता लगाने के लिए तीन अफ्रीकी देशों में पायलट कार्यक्रम के तहत 6.5
लाख से अधिक बच्चों को टीका दिया जा चुका है। इसके अलावा R21 नामक एक अन्य टीके का हाल ही में 450 छोटे बच्चों पर
परीक्षण किया गया जिसमें 77 प्रतिशत प्रभाविता दर्ज की गई। एक व्यापक अध्ययन जारी
है। गौरतलब है कि प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया को ट्रिगर करने के लिए इन दोनों ही टीको
में एक ही मलेरिया प्रोटीन, सर्कमस्पोरोज़ॉइट प्रोटीन, का उपयोग किया गया है। यह प्रोटीन परजीवी की स्पोरोज़ॉइट अवस्था के बाह्य आवरण
पर पाया जाता है। मच्छरों से मानव शरीर में यही अवस्था प्रवेश करती है।
पिछले कई दशकों से टीका निर्माण के लिए संपूर्ण स्पोरोज़ॉइट्स का उपयोग करने के
तरीकों की खोज चल रही है। संपूर्ण परजीवी के उपयोग से प्रतिरक्षा प्रणाली को कई
लक्ष्य मिल जाते हैं। वायरसों के मामले में यह रणनीति कारगर रही है लेकिन मलेरिया
के संदर्भ में सफलता सीमित रही है। एक अध्ययन में देखा गया कि दुर्बलीकृत
स्पोरोज़ॉइट्स टीके के बाद व्यक्ति को परजीवी के अलग संस्करण से संक्रमित करने पर
मात्र 20 प्रतिशत सुरक्षा मिली।
कई वैज्ञानिकों का तर्क था कि जीवित परजीवी शरीर में खुद की प्रतिलिपियां
बनाएगा और इस प्रक्रिया में अधिक से अधिक प्रोटीन पैदा करेगा, इसलिए प्रतिरक्षा भी अधिक उत्पन्न होनी चाहिए। इस संदर्भ में प्रयास जारी
हैं।
नए टीके में शोधकर्ताओं ने 42 लोगों में जीवित स्पोरोज़ॉइट्स इंजेक्ट किए। साथ
ही उन्हें दवाइयां भी दी गर्इं ताकि परजीवी को लीवर या रक्त में बीमारी पैदा करने
से रोका जा सके। यह तरीका काफी प्रभावी पाया गया और परजीवी के दक्षिण अमेरिका में
पाए जाने वाले एक अन्य संस्करण के विरुद्ध भी प्रभावी साबित हुआ। फिलहाल माली में
वयस्कों पर परीक्षण किया जा रहा है।
आशाजनक परिणाम के बावजूद बड़े पैमाने पर स्पोरोज़ॉइट टीकों का उत्पादन सबसे बड़ी
चुनौती है। स्पोरोज़ॉइट्स को मच्छरों की लार ग्रंथियों से प्राप्त करना और उनको
अत्यधिक कम तापमान पर रखना आवश्यक है जो वितरण में एक बड़ी बाधा है। पूर्व में इतने
बड़े स्तर पर मच्छरों का उपयोग करके कोई भी टीका नहीं बनाया गया है।
लेकिन मैरीलैंड स्थित एक जैव प्रौद्योगिकी कंपनी सनारिया स्पोरोज़ॉइट्स का उत्पादन मच्छरों के बिना करने के प्रयास कर रही है। कंपनी का प्रयास है कि जीन संपादन तकनीकों की मदद से मलेरिया परजीवी को जेनेटिक स्तर पर कमज़ोर किया जा सके ताकि टीके के साथ दवाइयां न देनी पड़ें। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://media.nature.com/lw800/magazine-assets/d41586-021-01806-1/d41586-021-01806-1_19314502.jp
कोरोनावायरस का डेल्टा संस्करण
सबसे पहले दिसंबर 2020 में महाराष्ट्र में
देखे जाने के बाद कुछ ही महीनों में दिल्ली में इसके विनाशकारी परिणाम देखने को मिले
और अप्रैल के अंत तक इसके प्रतिदिन लगभग 30,000 मामले दर्ज हुए। इंस्टीट्यूट ऑफ जीनोमिक्स एंड इंटीग्रेटिव
बायोलॉजी के प्रमुख अनुराग अग्रवाल के अनुसार यह संस्करण काफी प्रभावी रहा जिसने अल्फा
संस्करण को बाहर कर दिया है।
वैसे दिल्ली में अधिकांश लोगों
के पहले से संक्रमित होने या टीकाकरण हो जाने के चलते बड़े प्रकोप की संभावना नहीं थी
लेकिन डेल्टा संस्करण की अधिक संक्रामकता और प्रतिरक्षा से बच निकलने की क्षमता के
कारण ये सुरक्षा अप्रभावी प्रतीत हुई। यह संस्करण दिल्ली से निकलकर अन्य देशों में
भी काफी तेज़ी से फैल गया और एक नई लहर के जोखिम को बढ़ा दिया।
यूके में 90 प्रतिशत मामलों में डेल्टा संस्करण पाया गया है।
इस कारण एक बार फिर कोविड-19 के मामलों में वृद्धि
हुई है जिसके चलते विभिन्न देशों में सुरक्षा के उपाय बढ़ा दिए गए। यह चेतावनी दी गई
है कि अगस्त के अंत तक युरोपीय यूनियन के कुल मामलों में 90 प्रतिशत डेल्टा संस्करण के होंगे। इसे ‘चिंताजनक संस्करण’ की
श्रेणी में रखा गया है।
संभावना है कि गर्मियों के
मौसम में यह अत्यधिक फैलेगा और विशेष रूप से उन युवाओं को लक्षित करेगा जिनका टीकाकरण
नहीं हुआ है। ऐसे हालात में गैर-टीकाकृत लोगों के लिए यह जानलेवा भी हो सकता है। ऐसे
में इसके प्रभाव, उत्परिवर्तन के पैटर्न
जैसे पहलुओं को समझना आवश्यक है।
इसमें सबसे पहले बात आती है
टीकों की। इंग्लैंड और स्कॉटलैंड से प्राप्त डैटा से संकेत मिलते हैं कि फाइज़र-बायोएनटेक
और एस्ट्राज़ेनेका टीके अल्फा संस्करण की तुलना में इस नए संस्करण के प्रति थोड़ी कम
सुरक्षा प्रदान करते हैं। लेकिन कोविड-19 के बारे में बहुत कम जानकारी के कारण वि·ा भर में उपयोग किए जाने वाले अन्य टीकों द्वारा
सुरक्षा प्रदान करने के संदर्भ में कोई स्पष्टता नहीं है।
डेल्टा संस्करण के संदर्भ
में दो बातों, अधिक संक्रामकता और
प्रतिरक्षा को चकमा देने, को महत्वपूर्ण माना
जा रहा है। माना जा रहा है कि डेल्टा संस्करण मूल संस्करण के मुकाबले दुगनी रफ्तार
से फैल सकता है।
इसके साथ ही, अल्फा संस्करण की तुलना में डेल्टा संस्करण से बिना
टीकाकृत लोगों के अस्पताल में पहुंचने की संभावना ज़्यादा है। अस्पताल में भर्ती होने
का जोखिम दुगना तक हो सकता है।
वैज्ञानिक डेल्टा संस्करण
की घातकता को समझने का प्रयास कर रहे हैं। वे वायरस की सतह के स्पाइक प्रोटीन (जो वायरस
को मानव कोशिका से जुड़ने में मदद करता है) के जीन में नौ उत्परिवर्तनों के सेट पर अध्ययन
कर रहे हैं। ऐसा एक उत्परिवर्तन P681R है जो ऐसे स्थान पर एमिनो एसिड में बदलाव करता
है जो वायरस के कोशिका-प्रवेश की प्रक्रिया का सबसे महत्वपूर्ण चरण है। अल्फा संस्करण
के उत्परिवर्तन ने इसे अधिक कुशल बनाया था जबकि डेल्टा संस्करण में यह और सुगम हो गया
है। यानी ये परिवर्तन वायरस को अधिक संक्रामक बनाते हैं।
वैसे जापानी शोधकर्ताओं द्वारा
प्रयोगशाला में बनाए गए कूट-वायरस में किए गए ऐसे ही उत्परिवर्तनों से संक्रामकता में
कोई वृद्धि नहीं हुई। भारत में भी समान उत्परिवर्तनों वाले अन्य कोरोनावायरस डेल्टा
जैसे सफल साबित नहीं हुए। लगता है कि इसके जीनोम में कुछ अन्य परिवर्तन भी हो रहे हैं।
कुछ वैज्ञानिक यह समझने की
कोशिश कर रहे हैं कि डेल्टा संस्करण प्रतिरक्षा को चकमा कैसे देता है। सेल में प्रकाशित
एक पेपर में एक स्पॉट को ‘सुपरसाइट’ के रूप में पहचाना गया है। बीमारी से स्वस्थ हो
चुके लोगों में अति-प्रबल एंटीबॉडी इसी सुपरसाइट को लक्षित करती हैं। डेल्टा के विशिष्ट
उत्परिवर्तनों के चलते एंटीबॉडी को वायरस से जुड़ने के लिए सीधा रास्ता समाप्त हो जाता
है। कई एक अन्य उत्परिवर्तन भी एंटीबॉडीज़ को
चकमा देने में मदद करते हैं। इसे समझने के लिए डेल्टा संस्करण के स्पाइक प्रोटीन में
परिवर्तनों की और गहराई से जांच करना होगी।
वैज्ञानिकों का मत है कि नए
संस्करण को तेज़ी से फैलने से रोकने के लिए कुछ महत्वपूर्ण कदम ज़रूरी हैं। टीकाकरण के
प्रयासों में तेज़ी लाने की आवश्यकता है, विशेष रूप से ऐसे क्षेत्रों में जहां डेल्टा संस्करण के मामलों में तेज़ी से वृद्धि
हो रही है। इसके साथ ही कोविड-19 से बचने के लिए आवश्यक
सावधानियां जारी रखना भी ज़रूरी है।
ऐसे प्रयासों से जानें तो बचेंगी ही बल्कि वायरस को और अधिक विकसित होने से भी रोका जा सकेगा। उत्परिवर्तन के माध्यम से वायरस ज़्यादा संक्रामक और घातक हो सकता है, इसलिए यदि इसे फैलने का मौका मिला तो भविष्य में और ज़्यादा खतरनाक वायरस सामने आ सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://cdn.dnaindia.com/sites/default/files/styles/full/public/2021/06/17/980048-covid-protocol-ians.jpg
यह गहरी चिंता का विषय है कि भारत में मुंह का कैंसर तेज़ी से बढ़ रहा है। वैश्विक कैंसर वेधशाला (ग्लोबो-कैन) के अनुसार वर्ष 2012-18 के बीच ही इसके मामलों में 114 प्रतिशत की वृद्धि हुई। भारत व उसके पड़ोसी देश पाकिस्तान व बांग्लादेश अब विश्व स्तर पर मुंह के कैंसर के सबसे बड़े केंद्र माने जाते हैं। भारत में पुरुषों को होने वाले कैंसर में 11 प्रतिशत मामले मुंह के कैंसर के हैं जबकि महिलाओं को होने वाले कैंसर में मुंह के कैंसर 4 प्रतिशत से कुछ अधिक हैं। एक अध्ययन के अनुसार बांग्लादेश में प्रति वर्ष कैंसर के कुल नए मामलों में से 20 प्रतिशत मुंह के कैंसर के होते हैं। पाकिस्तान में भी ऐसी ही स्थिति है। यह गंभीर चिंता का विषय है कि दक्षिण एशिया में यह कैंसर इतना क्यों बढ़ गया है, और बढ़ रहा है।
टाटा मेमोरियल सेंटर के हाल
के अध्ययन के अनुसार मुंह के कैंसर के इलाज पर वर्ष 2020 में भारत में 2386 करोड़ रुपए खर्च किए गए। इससे पता चलता है कि यह इलाज कितना महंगा पड़ रहा है। इसके
ठीक होने की अधिक संभावना आरंभ में ही होती है, पर प्राय: दक्षिण एशिया में इसका निदान व इलाज बाद के चरणों
में होता है। इसका कारण यह है कि अपेक्षाकृत निर्धन लोग इससे अधिक प्रभावित होते हैं।
स्पष्ट है कि बचाव पर ही अधिक
ध्यान देना बेहतर है क्योंकि बचाव के उपायों को भलीभांति अपना कर मुंह के कैंसर के
खतरे को काफी कम किया जा सकता है। इस रोग के बढ़ने के मुख्य कारणों की पहचान करके कमी
लाने का प्रयास करना चाहिए।
इस रोग का सबसे बड़ा कारण विभिन्न
रूपों में तंबाकू का उपयोग है, जैसे सिगरेट,
बीड़ी, गुटखा, आदि। मुंह के कैंसर के 80 प्रतिशत मामलों में तंबाकू की कुछ न कुछ भूमिका
होती है, हालांकि बहुत से मामलों में
साथ में अन्य कारक भी होते हैं। भारत में तंबाकू का उपयोग (या दुरुपयोग) करने वाले
60 प्रतिशत लोग धूम्र रहित तंबाकू
(पावडर या किसी सूखे रूप में) का उपयोग करते हैं। गुटखे का उपयोग बहुत तेज़ी से बढ़ा
है तथा दक्षिण एशिया में मुंह के कैंसर में गुटखे की मुख्य भूमिका है।
गुटखे में तंबाकू के अलावा
कई अन्य पदार्थ होते हैं। इसके स्वास्थ्य सम्बंधी खतरों पर एक अदालत द्वारा केंद्रीय
समिति से जांच करवाई गई थी। समिति ने इसके स्वास्थ्य गंभीर संकटों के मद्दे नज़र इस
पर प्रतिबंध की संस्तुति की। कुछ राज्य सरकारों ने अपने-अपने ढंग से प्रतिबंध लगाए,
पर यह करोड़ों का व्यवसाय बन चुका है। अत: इसमें
कठिनाई आई व बिक्री जारी रखने के रास्ते निकाल लिए गए। एक रास्ता यह था कि तंबाकू व
अन्य पदार्थों को अलग-अलग पाउचों में बेचा जाए।
गुटखे में तंबाकू,
प्रोसेस्ड चूना, कत्था, सुपारी, मिठास-ताज़गी-सुगंध के पदार्थ होते हैं। तीखापन बढ़ाने
के लिए अनेक हानिकारक पदार्थों के होने के आरोप लगते रहे हैं। प्रतिदिन करोड़ों की संख्या
में इसके पाउच इधर-उधर फेंके जाने, इसे थूकने से गंदगी
व स्वास्थ्य समस्याएं बढ़ती हैं। गुटखे को देर तक मुंह में रखने, चूसते रहने की आदत कई लोगों पर इतनी हावी हो जाती
है कि वे दिन की शुरुआत तक इससे करते हैं।
मुंह के कैंसर के अतिरिक्त
गुटखे से अनेक दर्दनाक स्थितियां व स्वास्थ्य समस्याएं भी जुड़ी हैं। जैसे ओरल सबम्यूकस
फायब्राोेसिस। इस स्थिति में मुंह खोलने की क्षमता निरंतर कम होती जाती है व अंत में
ऐसी स्थिति आ सकती है कि कुछ पीने के लिए मात्र एक नली ही कठिनाई से मुंह में डाली
जा सकती है।
तंबाकू के अतिरिक्त मुंह के
कैंसर की एक बड़ी वजह शराब का सेवन है। बहुत लंबे समय तक धूप में रहना भी होंठ के कैंसर
का कारण बन सकता है। मुख की स्वच्छता की कमी भी कैंसर का कारण बन सकती है, विशेषकर उन वृद्धों में जो लगभग 15 वर्ष से बत्तीसी उपयोग कर रहे हैं। पांचवा कारण
एच.पी.वी.-16 (एक यौन संचारित वायरस)
है। अंतिम कारण है सब्ज़ी व फल कम खाना तथा जंक फूड अधिक मात्रा में खाना।
इन सभी कारकों को कम करने के प्रयासों से मुख कैंसर में कमी आएगी। अलबत्ता, सबसे अधिक भूमिका तंबाकू, गुटखे व शराब को कम करने की है। यह ऐसी राह है जिससे अनेक अन्य समस्याएं भी कम होंगी। अत: इस बचाव की राह को जन अभियान का रूप देते हुए मुख कैंसर में कमी लाने की ओर बढ़ना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.researchgate.net/profile/Prakash-Gupta-12/publication/269767367/figure/fig2/AS:392066380124165@1470487317503/Mouth-cancer-incidence-rates-in-cohorts-of-men-15-years-per-100-000-by-5-year-age.png