कैंसर कोशिकाएं गाढ़े द्रव में तेज़ चलती हैं

कैंसर फैलने में अहम मोड़ मेटास्टेसिस चरण में आता है, जब कोशिकाएं प्रारंभिक ट्यूमर से अलग होकर शरीर में फैलने लगती हैं और नए ट्यूमर बनाने लगती हैं। लेकिन कैंसर कोशिकाओं को आगे बढ़ने के लिए शरीर में मौजूद तरल माध्यम से गुज़रते हुए उसके प्रतिरोध का सामना पड़ता है। पूर्व में हुए प्रयोगशाला अध्ययनों में पता चला था कि (सहज बोध के विपरीत) ये कोशिकाएं गाढ़े द्रव में अधिक तेज़ी से आगे बढ़ती हैं।

अब, नेचर पत्रिका में प्रकाशित एक अध्ययन में पता चला है कि कैंसर कोशिकाएं शारीरिक द्रव के गाढ़ेपन को भांप लेती हैं और उसके मुताबिक प्रतिक्रिया देती हैं। सिरप जैसे द्रव में रखे जाने पर देखा गया कि कोशिकाएं अपनी बनावट में ऐसे परिवर्तन करती हैं जो उन्हें बाहरी प्रतिरोध में अधिक कुशलता से आगे बढ़ने में मदद करते हैं। यहां तक कि वे द्रव के गाढ़ेपन की स्मृति को सहेजकर रखती हैं और अपेक्षाकृत पतले द्रव में लौटने पर भी तेज़ी से आगे बढ़ना जारी रखती हैं।

यह जानने के लिए कि कोशिकाएं गाढ़े माध्यम में कैसे आगे बढ़ती हैं, पोम्पे फेबरा युनिवर्सिटी के आणविक जीव विज्ञानी मिगुएल वेल्वरडे और उनके साथियों ने कोशिकाओं की चाल पता करने के लिए उपयोग किए गए अपने गणितीय मॉडल को थोड़ा बदलकर इसे गाढ़े द्रव के लिए अनुकूलित किया।

संशोधित मॉडल ने बताया कि बाहरी प्रतिरोध कोशिकाओं को उनके अग्रभाग की ओर एक्टिन को पुनर्गठित करने के लिए उकसाता है – एक्टिन एक प्रोटीन है जो कोशिका का आंतरिक कंकाल बनाता है। इसके बाद NHE1 नामक परिवहन प्रोटीन झिल्ली पर इकट्ठा होने लगता है और पानी के अवशोषण में मदद करता है। इससे कोशिका फूल जाती है, जिसकी वजह से झिल्ली में तनाव पैदा हो जाता है। इस तनाव के परिणामस्वरूप TRPV4 आयन चैनल खुल जाता है। इससे कैल्शियम आयन कोशिका में भर जाते हैं जो इसे सिकुड़ने के लिए उकसाते हैं। इससे एक बल उत्पन्न होता है जो कोशिका को अधिक गाढ़े द्रव के प्रतिरोध का सामना करके आगे बढ़ने में मदद करता है।

पुष्टि के लिए शोधकर्ताओं ने मानव स्तन कैंसर कोशिकाओं को अत्यधिक आवर्धन क्षमता वाले सूक्ष्मदर्शी से देखा। पाया गया कि जब कोशिकाएं गाढ़े माध्यम में होती हैं तो उनके अग्रभाग पर एक्टिन जमा होता है। फिर शोधकर्ताओं ने व्यवस्थित रूप से प्रत्येक घटक की जांच करके घटनाओं के क्रम की पुष्टि की। उदाहरण के लिए, NHE1 रहित कोशिकाओं में जब TRPV4 को सक्रिय किया गया तो कोशिकाओं में तेज़ी से चलने की क्षमता बहाल हो गई, जिससे पता चलता है कि TRPV4 चैनल तरल के बहाव की विपरीत दिशा में कार्य करता है। ये नतीजे इस मान्यता को चुनौती देते हैं कि बाहरी चीज़ों के प्रति प्रतिक्रिया देने की शुरुआत आयन चैनल करती हैं।

यह भी देखा गया कि गाढ़े द्रव की परिस्थितियों की स्मृति कोशिकाएं बरकरार रखती है: मानव स्तन कैंसर कोशिकाओं को गाढ़े द्रव में छह दिनों तक रखकर फिर पानी जितनी सांद्रता वाले में माध्यम में स्थानांतरित करने पर पाया गया कि इन कोशिकाओं ने अपनी गति बरकरार रखी। इसी तरह, लसलसे तरल में कोशिकाओं को पनपाने के बाद जब इन्हें चूहों के शरीर में डाला गया तो इन कोशिकाओं ने कम लसलसे तरल में पनपाई गई कोशिकाओं की तुलना में अधिक व्यापक मेटास्टेसिस किया। इसी तरह के नतीजे ज़ेब्राफिश और भ्रूण-चूज़े में भी देखे गए।

ऐसा लगता है कि इस स्मृति का विकास TRPV4 पर निर्भर करता है। कोशिकाओं को एक लसलसे घोल में छह दिन तक रखने के बाद पानी के समान द्रव में स्थानांतरित किया गया तो पता चला कि जिन कोशिकाओं में आयन चैनल व्यक्त नहीं हुआ था उन्होंने चूहों में तुलनात्मक रूप से कम ट्यूमर बनाए। इससे पता चलता है कि आयन चैनल के अभाव में गाढ़ापन गति को प्रभावित नहीं करता।

शोधकर्ताओं का कहना है कि कैंसर के मेटास्टेसिस को अवरुद्ध करने के लिए TRPV4 एक संभावित लक्ष्य हो सकता है। लेकिन अन्य शोधकर्ताओं का कहना है कि पहले सामान्य कोशिकाओं में TRPV4 की भूमिका को पूरी तरह समझना ज़रूरी है। यदि यह कोई खास भूमिका निभाता होगा तो इसे अवरुद्ध करने के घाटे भी हो सकते हैं। इसके अलावा, निष्कर्षों की सावधानीपूर्वक व्याख्या की जानी चाहिए। कोशिकाएं गाढ़े घोल में तेज़ चलती हैं, इसका मतलब यह नहीं है कि वे अधिक कैंसर गठानें (द्वितियक कैंसर) बनाएंगी; ट्यूमर मेटास्टेसिस एक बहुत ही जटिल घटना है जिसके कई चरण होते हैं, इनमें से कुछ चरण कोशिका के विचरण से स्वतंत्र हैं।

बहरहाल, भले ही ये नतीजे सीधे तौर पर कैंसर चिकित्सा में मदद न करें लेकिन ये कोशिका-आधारित कैंसर अनुसंधान में बदलाव ला सकते हैं। फिलहाल अधिकांश अध्ययन पानी जैसी सांद्रता वाले द्रवों में किए जाते हैं। शरीर के तरल जैसी सांद्रता वाले द्रव का उपयोग मेटास्टेसिस-अवरुद्ध करने वाले लक्ष्य पहचानने में अधिक मदद कर सकते हैं। कृत्रिम वातावरण जितना अधिक शरीर के वातावरण के समान होगा उतने सटीक परिणाम मिलने की उम्मीद की जा सकती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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नींद क्यों ज़रूरी है? – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

ब मेरे जैसे अति-बुज़ुर्ग बच्चे हुआ करते थे तब हमें रात 8 बजे तक सो जाना पड़ता था। फिर सुबह 4 बजे उठकर मंजन करना, नहाना, फिर बचा-खुचा होमवर्क पूरा करना, नाश्ता करना और टिफिन बॉक्स लेकर स्कूल के लिए निकल जाना होता था।

स्कूल और खेलने के बाद हम शाम 6 बजे तक घर वापस आ जाते थे। वापिस आकर अपना होमवर्क करते, रेडियो सुनते, अखबार पढ़ते, रात का खाना खाते और रात 8 बजे तक बिस्तर पर गिरते और सो जाते। लेकिन अफसोस कि आजकल चीज़ें बदल गई हैं।

आईआईटी या आईआईएम जैसे पेशेवर संस्थानों में दाखिला पाने की चाह रखने वाले विद्यार्थियों के लिए सेवा निवृत्त प्रोफेसरों द्वारा चलाई जा रही कोचिंग क्लासेस (जो अल्सुबह – आम तौर पर सुबह 4 या 5 बजे) शुरू होती हैं, के चलते नींद का समय कम हो गया है जबकि यह उनके लिए ज़रूरी है।

अमेरिकन एकेडमी ऑफ स्लीप मेडिसिन ने सिफारिश की है कि 6-12 साल के बच्चों को रोज़ाना 9-12 घंटे की नींद लेनी चाहिए। और 13-18 साल के किशोरों के लिए रोज़ाना 8-10 घंटे की नींद ज़रूरी है।

लेकिन हम देख रहे हैं कि आजकल के बच्चों को इतनी नींद नहीं मिल रही है, क्योंकि वे पूरे दिन कक्षाओं में रहते हैं। और तो और, उनके ‘प्रशिक्षक’ भी पर्याप्त नींद नहीं ले पाते हैं, जो आम तौर पर 40-70 साल के होते हैं, और स्वस्थ जीवन के लिए उन्हें सात घंटे की नींद की ज़रूरत है।

हाल ही में डॉ. जे. एलन हॉब्सन ने नेचर पत्रिका में प्रकाशित एक समीक्षा का आकर्षक शीर्षक दिया है: ‘नींद दिमाग की, दिमाग के द्वारा, दिमाग के लिए होती है’ (Sleep is of the brain, by the brain and for the brain)। इसमें वे बताते हैं कि हमारी नींद के दो चरण होते हैं। एक जिसे रैपिड आई मूवमेंट (REM) कहा जाता है, और दूसरा गैर-REM कहलाता है। REM नींद कुल नींद के लगभग 20 प्रतिशत समय होती है और इसमें सपने आते हैं, जबकि गैर- REM नींद कुल नींद के लगभग 80 प्रतिशत समय होती है और इसे सुदृढ़ता लाने, याददाश्त को मज़बूत करने और नई चीजें सीखने के लिए जाना जाता है।

पोषण और नींद

यूएस नेशनल लाइब्रेरी ऑफ मेडिसिन की वेबसाइट मेडिसिन प्लस बताती है कि पोषण का सम्बंध स्वस्थ और संतुलित आहार लेने से है। भोजन और पेय आपको स्वस्थ रहने के लिए आवश्यक ऊर्जा और पोषक तत्व प्रदान करते हैं। पोषण सम्बंधी इन बातों को समझने से आपके लिए भोजन के बेहतर विकल्प चुनना आसान हो सकता है।

यूएस का स्लीप फाउंडेशन बताता है कि आहार और पोषण आपकी नींद की गुणवत्ता को प्रभावित कर सकते हैं, और कुछ फल और पेय आपके लिए आवश्यक नींद लेने को मुश्किल बना सकते हैं। कैल्शियम, विटामिन A, C, D, E और K जैसे प्रमुख पोषक तत्वों की कमी के कारण नींद की समस्या हो सकती है।

रात के भोजन में उच्च ग्लायसेमिक सूचकांक वाले कार्बोहाइड्रेट युक्त भोजन (जैसे, पॉलिश किया हुआ चावल या मैदा. शकर), शराब या तम्बाकू के सेवन से व्यक्ति उनींदा बन सकता है। यह बार-बार जगाकर आवश्यक नींद की अवधि कम कर सकता है।

स्लीप फाउंडेशन आगे बताता है कि हमें मेडिटेरेनियन आहार अपनाना चाहिए, जिसमें वनस्पति आधारित खाद्य, वसारहित मांस, अंडे और उच्च फाइबर वाले खाद्य पदार्थ शामिल हैं। ऐसा आहार न केवल व्यक्ति के हृदय की सेहत में सुधार करता है बल्कि नींद की गुणवत्ता में भी सुधार लाता है।

खुशी की यह बात है कि अधिकांश भारतीय भोजन मेडिटेरेनियन आहार का ही थोड़ा बदला हुआ रूप है। और हमें यह सलाह भी दी जाती है कि अच्छी नींद लेने के लिए पर्याप्त भोजन करना चाहिए। तो आइए हम कामना करते हैं कि सभी को स्वस्थ और ‘अच्छी’ नींद आए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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स्वास्थ्य के लिए ज़रूरी है पर्याप्त निद्रा – डॉ. आर. बी. चौधरी

साइंस डेली में छपे एक अध्ययन के अनुसार 5 घंटे से कम सोने से शरीर में कई बीमारी पैदा होने का खतरा बढ़ जाता है। दी न्यूयॉर्क टाइम्स के अनुसार, 50 साल की उम्र के आसपास पांच घंटे या उससे कम सोने वालों को सात घंटे सोने वालों की तुलना में कहीं अधिक बीमारियों घेर लेती हैं।

एक अध्ययन में पाया गया कि 50 प्रतिशत से कम नींद किसी भी व्यक्ति के लिए बड़ा खतरा हो सकती है। ब्रेन कम्यूनिकेशंस के अनुसार नींद की कमी से अल्ज़ाइमर विकसित होने का खतरा बढ़ जाता है। इसी प्रकार, वाशिंगटन स्टेट युनिवर्सिटी के एक अध्ययन में भी बताया गया है कि नींद की गुणवत्ता का सीधा प्रभाव महिलाओं के मूड, उनकी महत्वाकांक्षा और करियर आगे बढ़ने पर पड़ता है। इसके विपरीत, नींद की गुणवत्ता पुरुषों की भावनाओं पर ज़्यादा असरकारी नहीं पाई गई।

कई सर्वेक्षणों में स्पष्ट हुआ है कि कोरोना की महामारी ने हमारे सोने के पैटर्न को गड़बड़ा दिया है। सोशल मीडिया कम्यूनिटी प्लेटफॉर्म द्वारा किए गए एक सर्वेक्षण में पाया गया है कि अध्ययन में शामिल 52 प्रतिशत भारतीयों ने यह स्वीकार किया कि महामारी के बाद उनकी नींद के पैटर्न में बदलाव आया है।

प्रत्येक 2 भारतीयों में से 1 ने कहा कि उसे हर रात 6 घंटे से भी कम नींद आती है जबकि 4 में से 1 व्यक्ति 4 घंटे से कम सो रहा है। कोविड से प्रभावित लोग मानसिक और शारीरिक रूप से तनावग्रस्त होते हैं। यह काफी हद तक नींद के पैटर्न को प्रभावित करता है। मन में भय पैदा हो जाता है और ऐसे लोग अलग-थलग पड़ जाते हैं और सामान्य दिनचर्या नहीं व्यतीत कर पाते हैं। यह सब बहुत अधिक मानसिक दबाव के कारण होता है। अध्ययन में यह भी बताया गया है कि अगर कोई ठीक से नहीं सोता है तो शरीर की प्रतिरोधक क्षमता और मस्तिष्क की संज्ञानात्मक क्षमता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।

अच्छी नींद तंदुरुस्ती बनाए रखने के लिए महत्वपूर्ण है। जिसके लिए रात का खाना समय पर लेना चाहिए और सोने तथा अंतिम भोजन के बीच कम से कम 2 घंटे का अंतराल होना चाहिए। सोने से कम से कम 1 घंटे पहले से मोबाइल फोन, लैपटॉप का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए। जिस बिस्तर पर सोते हैं उसे केवल सोने के लिए ही इस्तेमाल किया जाना चाहिए; कार्यालय के काम के लिए इसका इस्तेमाल नहीं करना चाहिए। दिन के दौरान झपकी से बचना चाहिए। स्वास्थ्य विशेषज्ञों के अनुसार रोज़ाना व्यायाम ज़रूरी है तथा हल्का भोजन करना चाहिए। अच्छी नींद के लिए शराब और कैफीन का सेवन नहीं करना चाहिए। ये सामाजिक सम्बंधों को प्रभावित कर सकते हैं और कार्डियोवैस्कुलर और चयापचय सम्बंधी जटिलताओं और बीमारियों में वृद्धि का कारण बन सकते हैं। इनसे शरीर में कमज़ोरी आती है और रोग प्रतिरोधक क्षमता लगातार घटती जाती है।

दिन का करीब एक तिहाई हिस्सा सोने के लिए उपयोग किया जाना चाहिए। 1950 के दशक से पहले, ज़्यादातर लोगों का मानना था कि नींद एक ऐसी अवस्था है जिसके दौरान शरीर क्रिया और मस्तिष्क निष्क्रिय रहता है। इस दौरान मस्तिष्क कई प्रक्रियाओं से गुज़रता है और मस्तिष्क में होने वाली गतिविधियों का सीधा सम्बंध हमारी दिनचर्या से होता है। शोधकर्ता इन प्रक्रियाओं के बारे में अधिक जानने की कोशिश कर रहे हैं ताकि मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य को प्रभावित करने वाले कारकों के बारे में अधिक से अधिक जानकारी प्राप्त की जा सके। नींद पर अनुसंधान कर रहे वैज्ञानिकों का मानना है कि सोते समय मस्तिष्क दो अलग-अलग प्रकार की निद्राओं के माध्यम से मस्तिष्क की प्रक्रिया के कई चक्रों को पूरा करता है। इसमें रैपिड-आई मूवमेंट (आरईएम) नींद और गैर-आरईएम नींद को प्रमुख माना जाता है।

इस चक्र का पहला भाग गैर-आरईएम नींद है, जो चार चरणों से बना है। पहला चरण जागने और सो जाने के बीच आता है। दूसरा है हल्की नींद, जब हृदय गति और श्वास नियंत्रित होते हैं और शरीर का तापमान गिर जाता है। तीसरा और चौथा चरण है गहरी नींद। हालांकि आरईएम नींद को पहले सीखने और स्मृति के लिए सबसे महत्वपूर्ण चरण माना जाता था, नए आंकड़ों से पता चलता है कि इन कार्यों के लिए गैर-आरईएम नींद अधिक महत्वपूर्ण है। साथ ही अधिक आरामदायक नींद और पुनर्स्थापना चरण की नींद भी शामिल है। जैसे ही कोई व्यक्ति नींद में जाता है तो आंखें बंद होने लगती हैं और आंखों की पुतलियां पलकों के पीछे तेज़ी से गति करती हैं। हालांकि, मस्तिष्क तरंगें जागृत अवस्था के समान होती हैं। जब कोई व्यक्ति सपना देखता है तो सांस की गति बढ़ जाती है और शरीर अस्थायी रूप से शून्य जैसी अवस्था में चला जाता है। यह चक्र कई बार दोहराया जाता है। इस प्रकार सामान्यत: रात में चार या पांच चक्र होते हैं।

अमेरिका की जॉन्स हापकिंस युनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने वर्ष 2014 में फ्रूट फ्लाई पर किए गए प्रयोगों के माध्यम यह पता लगाया था कि न सो पाने वाली फ्रूट फ्लाई के अंदर एक खास उत्परिवर्ती जीन नींद का नियंत्रण करता है। इस जीन को उन्होंने वाइड अवेक नाम दिया। उन्होंने यह स्पष्ट किया कि यह उत्परिवर्ती वाइड अवेक जीन जैविक घड़ी को अनियमित करके नींद उड़ाने का काम करता है। उन्होंने पाया था कि यह सामान्य वाइड अवेक जीन एक प्रोटीन बनाता है जो रात में नींद के लिए ज़िम्मेदार होता है और नींद के चक्र को नियंत्रित करता है।

इसी क्रम में यह भी पाया गया कि मनुष्यों और चूहों में भी ऐसा ही निद्रा जीन मौजूद होता है। हमारे अंदर एक जैविक घड़ी होती है जिसके द्वारा मस्तिष्क को समय की सूचना मिलती है। इसका काफी सम्बंध हमें मिलने वाले प्रकाश से होता है जैसे भोजन के बिना हमें भूख लगती है और उसकी आपूर्ति ज़रूरी हो जाती है, उसी प्रकार से नींद की कमी की दशा में पूरे दिन नींद की इच्छा बनी रहती है और हमें सोने की ज़रूरत महसूस होती है। अलबत्ता, नींद और भूख के बीच एक अंतर भी है। भूख लगने पर हमारा शरीर भोजन के लिए सीमा से परे मजबूर नहीं कर सकता है। लेकिन थका व्यक्ति सोने को बाध्य हो जाता है। आंखें अपने आप बंद होने लगती हैं। भले ही आंखें खुली हो लेकिन नींद पूरी न होने की दशा में कुछ मिनट के लिए झपकी मजबूरन आ जाती है। पर्याप्त नींद स्वास्थ्य के लिए अनिवार्य है। (स्रोत फीचर्स)

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मलेरिया टीके के आशाजनक परिणाम

लेरिया एक बड़ी जन स्वास्थ्य समस्या है। हर वर्ष लाखों लोग मलेरिया का शिकार होते हैं। वर्ष 2020 में मलेरिया से 24 करोड़ लोग संक्रमित हुए थे और 6.27 लाख लोगों की मृत्यु हुई थी। यह आंकड़ा 2019 की तुलना में 12 प्रतिशत अधिक है। इसमें से अफ्रीका में होने वाली लगभग दो-तिहाई मौतें 5 वर्ष से कम आयु के बच्चों की हैं। मलेरिया परजीवियों ने कई दवाओं के विरुद्ध प्रतिरोध विकसित कर लिया है और इसे प्रसारित करने वाले मच्छरों ने तो कीटनाशकों को भी चकमा देने की क्षमता विकसित की है।

पिछले वर्ष WHO द्वारा अनुमोदित और जीएसके द्वारा निर्मित मलेरिया का टीका आया था लेकिन यह सिर्फ औसत दर्जे की सुरक्षा ही प्रदान करता है। युनिवर्सिटी ऑफ ऑक्सफोर्ड द्वारा तैयार किए गए टीके के परिणाम आना बाकी हैं।

लेकिन हाल ही में वैज्ञानिकों ने इसकी रोकथाम के लिए एक नए तरीके की खोज की है। अमेरिका में नौ वालंटियर्स पर किए गए एंटीबॉडी परीक्षण में सकारात्मक परिणाम देखने को मिले हैं। दी न्यू इंग्लैंड जर्नल ऑफ मेडिसिन में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार प्रयोगशाला में विकसित मोनोक्लोनल एंटीबॉडीज़ की एक खुराक मलेरिया से 6 महीने तक सुरक्षा प्रदान कर सकती है।

दिक्कत यह है कि मोनोक्लोनल एंटीबॉडीज़ का उत्पादन काफी महंगा है और इन्हें इंट्रावीनस देना होता है, जिसके लिए चिकित्सकीय देखभाल ज़रूरी होती है। लिहाज़ा, संभवत: यह तकनीक केवल उच्च आय वाले लोगों और पर्यटकों के लिए उपयोगी होगी। शोधकर्ता यह टीका देने का आसान तरीका खोजने और इसकी लागत को कम करने का प्रयास कर रहे हैं।

यह पहली बार है कि वैज्ञानिकों ने मलेरिया से निपटने के लिए मोनोक्लोनल एंटीबॉडीज़ का उपयोग किया है। प्रयोगशाला में विकसित मोनोक्लोनल एंटीबॉडी सबसे घातक मलेरिया परजीवी, प्लाज़्मोडियम फाल्सीपैरम, को खत्म करने की क्षमता रखती है। यह बच्चों, गर्भवती महिलाओं और कमज़ोर स्वास्थ्य वाले लोगों को सुरक्षा प्रदान करने के लिए प्रभावी है। इसको तैयार करने के लिए यूएस नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ एलर्जी एंड इंफेक्शियस डिसीज़ेस के रॉबर्ट सेडर की टीम ने CIS43LS नामक एंटीबॉडी एक ऐसे व्यक्ति के खून से प्राप्त की जिसे परीक्षण के दौरान मलेरिया का टीका दिया गया था। यह एंटीबॉडी परजीवी की बीजाणु अवस्था में सतह पर मौजूद प्रोटीन से जुड़ जाती है और उसे यकृत कोशिकाओं पर हमला करने से रोकती है। शोधकर्ताओं ने इस इस एंटीबॉडी को मानव शरीर में जल्द नष्ट होने से बचाने के लिए इसमें कुछ परिवर्तन किए हैं। पिछले वर्ष प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार इस एंटीबॉडी को मलेरिया परजीवी के संपर्क में आए 9 वालंटियर्स को दिया गया तो उनमें से किसी में भी संक्रमण नहीं हुआ।

बमाको स्थित युनिवर्सिटी ऑफ साइंस, टेक्नीक और टेक्नॉलॉजी द्वारा आयोजित क्लीनिकल परीक्षण में 330 वालंटियर्स को उच्च और कम मात्रा में एंटीबॉडी या प्लेसिबो की खुराक दी गई। इन वालंटियर्स के रक्त नमूनों की जांच में देखा गया कि 6 माह की अवधि में उच्च खुराक प्राप्त लोगों में से 18 प्रतिशत लोग संक्रमित हुए जबकि न्यून खुराक वालों में यह संख्या 36 प्रतिशत रही और प्लेसिबो प्राप्त में 78 प्रतिशत लोग संक्रमित हुए। वैज्ञानिकों ने पाया कि प्लेसिबो की तुलना में उच्च खुराक प्राप्त लोग संक्रमण को रोकने में 88 प्रतिशत और न्यून खुराक प्राप्त लोग 75 प्रतिशत सफल रहे। 6 महीने के अंत में ज़रूर प्रभाविता में कमी देखने को मिली। अलबत्ता परिणाम कुल मिलाकर सकारात्मक रहे।

वैसे कुछ अन्य वैज्ञानिक इन परिणामों को लेकर शंका में हैं। उनके अनुसार इस अध्ययन में परजीवियों का पता लगाने के लिए खून की सूक्ष्मदर्शी जांच का उपयोग किया गया था जो पोलीमरेज़ चेन रिएक्शन (पीसीआर) तकनीक से कम संवेदनशील है। शोधकर्ता अब संग्रहित नमूनों का पीसीआर विधि से भी अध्ययन कर रहे हैं।         

इसके अलावा कुछ अन्य वैज्ञानिकों का मानना है कि इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने केवल संक्रमण का मापन किया, बीमारी के प्रकोप पर ध्यान नहीं दिया जो बेहतर परिणाम दे सकता था। कुछ वैज्ञानिकों का ऐसा भी मानना है कि मोनोक्लोकल एंटीबॉडीज़ संक्रमण को रोकने में सक्षम हैं लेकिन इनकी भी कुछ कमियां हैं। सबसे बड़ी चुनौती इनकी लागत है। इसके आलावा, एंटीबॉडी को शरीर में प्रवेश कराने की इंट्रावीनस प्रक्रिया छोटे बच्चों के लिए उपयुक्त नहीं है।

सेडर ने प्रयोगशाला में एक और एंटीबॉडी L9LS विकसित की है जो उसी प्रोटीन को लक्षित करती है और CIS43LS से तीन गुना अधिक शक्तिशाली है। हाल ही में किए गए एक अध्ययन में L9LS टीका पांच में से चार वालंटियर्स में से संक्रमण रोकने में सक्षम रहा। इसके अलावा इसे त्वचा के नीचे इंजेक्शन के माध्यम से दिया गया जो काफी तेज़ और कम जटिल प्रक्रिया है। वर्तमान में बच्चों में इंजेक्शन के माध्यम से L9LS टीके का परीक्षण किया जा रहा है। उम्मीद है कि अधिक उपयोग होने पर इसकी लागत को कम किया जा सकेगा। इसके अलावा सेडर वर्तमान में एक और टीका तैयार कर रहे हैं जो इससे भी अधिक शक्तिशाली होगा। (स्रोत फीचर्स)

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अकेले रह गए शुक्राणु भटक जाते हैं – डॉ. विपुल कीर्ति शर्मा

क अध्ययन से पता चला है कि सांड के शुक्राणु तब अधिक प्रभावी ढंग से आगे बढ़ते हैं और निषेचन कर पाते हैं जब वे समूह में हों। यह जानकारी मनुष्यों में निषेचन को समझने के लिए महत्वपूर्ण हो सकती है। भौतिक विज्ञानी चिह-कुआन तुंग और सहकर्मियों ने फ्रंटियर्स इन सेल एंड डेवलपमेन्ट बायोलॉजी में बताया है कि कृत्रिम प्रजनन पथ में मादा के अंडे को निषेचित करने के लिए शुक्राणुओं के समूह अधिक सटीकता से आगे बढ़ते हैं बनिस्बत अकेले शुक्राणु के। ऐसा नहीं है कि मादा जननांग पथ में शुक्राणुओं के समूह तेज़तर गति से तैरते हों। लेकिन वे सही दिशा में सटीकता से आगे बढ़ते हैं।

र्दिष्ट स्थान पर पहुंचने के लिए दो बिंदुओं के बीच की सबसे छोटी दूरी एक सीधी रेखा होती है। पर वास्तव में अकेले शुक्राणु सीधी रेखा में न तैरकर घुमावदार रास्ता अपनाते हैं। किंतु, जब शुक्राणु दो या दो से अधिक के समूह में एकत्रित होते हैं, तो वे सीधे मार्ग पर तैरते हैं। समूह की सीधी चाल तभी फायदेमंद हो सकती है जब वे अंडाणु की ओर जा रहे हों। पूरी प्रक्रिया के अध्ययन हेतु शोधकर्ताओं ने एक प्रयोगात्मक सेटअप विकसित किया जिसमें बहते तरल पदार्थ का उपयोग किया गया था।

दरअसल, शुक्राणु गर्भाशय में पहुंचकर अंडवाहिनी से आ रहे अंडाणु की ओर जाते हैं। इस यात्रा के दौरान शुक्राणुओं को म्यूकस (श्लेष्मा) के प्रवाह के विरुद्ध तैरना और रास्ता बनाना होता है। तुंग और उनके सहयोगियों ने प्रयोगशाला में मादा जननांग की कृत्रिम संरचना वाला उपकरण बनाया। उपकरण एक उथला, संकीर्ण, 4-सेंटीमीटर लंबा चैनल था जो प्राकृतिक म्यूकस के समान एक गाढ़े तरल पदार्थ से भरा था जिसके बहाव को शोधकर्ता नियंत्रित कर सकते हैं।

शुक्राणु स्वाभाविक रूप से आगे ऊपर की ओर तैरने लगते हैं। अलबत्ता, प्रयोग में शुक्राणु के समूहों ने म्यूकस के प्रवाह में आगे बढ़ने में बेहतर प्रदर्शन किया। अकेले शुक्राणुओं के अन्य दिशाओं में भटक जाने की संभावना अधिक थी। कुछ अकेले शुक्राणु तेज़ तैरने के बावजूद, लक्ष्य से भटक गए।

जब शोधकर्ताओं ने अपने उपकरण में म्यूकस के प्रवाह को चालू किया, तो कई अकेले शुक्राणु बहाव के साथ बह गए। जबकि शुक्राणु समूहों की बहाव के साथ नीचे की ओर बहने की संभावना बहुत रही।

सांड के शुक्राणुओं पर किए गए इन प्रयोगों से वैज्ञानिकों को लगता है कि परिणाम मनुष्यों पर भी लागू होंगे। दोनों प्रजातियों के शुक्राणुओं के आकार समान होते हैं। तुंग कहते हैं, बहते तरल पदार्थ में शुक्राणु का अध्ययन उन समस्याओं पर प्रकाश डाल सकता है जो स्थिर तरल पदार्थों में नहीं दिखते। एक आशा यह है कि इससे मनुष्यों में बांझपन या निसंतानता के कारणों को समझने में मदद मिल सकती है। (स्रोत फीचर्स)

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लीवर 100 वर्षों से भी अधिक जीवित रह सकता है

हाल ही में वैज्ञानिकों ने 1990 से लेकर 2022 के बीच प्रत्यारोपित 2,53,406 लीवर की उम्र का आकलन किया है। इस विश्लेषण के अनुसार 25 लीवर 100 से भी अधिक वर्षों तक जीवित रहे हैं। इन लीवर्स को वैज्ञानिकों ने ‘शतायु लीवर’ का नाम दिया है। इनमें से 14 लीवर अभी भी प्राप्तकर्ताओं के शरीर में काम कर रहे हैं। सबसे उम्रदराज लीवर की उम्र 108 वर्ष है।

इस अध्ययन के प्रमुख और युनिवर्सिटी ऑफ टेक्सास के मेडिकल स्कूल में कार्यरत यश कड़ाकिया और उनकी टीम ने किसी लीवर की कुल आयु निकालने के लिए प्रत्यारोपण के पहले लीवर की उम्र (यानी प्रत्यारोपण के समय अंगदाता की आयु) और प्राप्तकर्ता में प्रत्यारोपण के बाद लीवर की उम्र को जोड़ा। प्रत्यारोपण सम्बंधी आंकड़े युनाइटेड नेटवर्क फॉर ऑर्गन शेयरिंग के अंग प्रत्यारोपण डैटाबेस से लिए गए थे।

शोधकर्ताओं ने पाया कि 25 शतायु लीवर दाताओं की औसत आयु 84.7 वर्ष थी जबकि गैर-शतायु लीवर दाताओं की औसत आयु 38.5 वर्ष थी। प्रत्यारोपण के बाद सारे शतायु-लीवर कम से कम एक दशक तक जीवित रहे जबकि मात्र 60 प्रतिशत गैर-शतायु लीवर ही एक दशक बाद जीवित रहे। कड़ाकिया के अनुसार लीवर काफी लचीला अंग है और आज उम्रदराज दाताओं के लीवर प्रत्यारोपित किए जा रहे हैं। इसके मद्देनज़र प्रत्यारोपण के लिए अधिक लीवर उपलब्ध हो सकते हैं।

गौरतलब है कि अभी तक विशेषज्ञ प्रत्यारोपण के लिए बुज़ुर्ग दाताओं से लीवर लेने से बचते आए हैं, क्योंकि पुराने अंगों में शराब, मोटापा और संक्रमण से अधिक क्षतिचिन्ह जमा होने की संभावना होती है। लेकिन एक दिलचस्प बात यह देखी गई कि लीवर प्रत्यारोपण से मधुमेह और दाता संक्रमण जैसे दुष्प्रभाव अधिक पुराने यकृत पाने वाले लोगों में काफी कम थे।

भारत के स्वास्थ्य सेवा महानिदेशक (स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय) की वेब साइट पर उपलब्ध जानकारी के अनुसार भारत में प्रति वर्ष 50,000 तक लीवर प्रत्यारोपण की आवश्यकता है लेकिन किए जा रहे हैं मात्र 1500। यदि उम्रदराज अंगदाताओं से परहेज न किया जाए तो प्रत्यारोपण की बढ़ती आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए अब और अधिक दाता अंग मिल सकते हैं।

वैसे, अभी तक लीवर के जीवित रहने की अवधि में भिन्नता के कारण स्पष्ट नहीं हैं। अधिक शोध से अंग उपलब्धता में विस्तार हो सकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कोविड-19 की एक और लहर की आशंका

कोविड-19 वायरस निरंतर मनुष्य की प्रतिरक्षा भेदने का प्रयास कर रहा है। हाल ही में इस वायरस के नए और प्रतिरक्षा को चकमा देने वाले संस्करणों ने वैज्ञानिकों का ध्यान आकर्षित किया है। शायद इनमें से कोई एक आने वाले जाड़ों तक कोविड-19 की एक नई लहर ले आए।

आने वाली लहर शायद ऑमिक्रॉन संस्करण की होगी जो पूरे विश्व में फैल गया है। कई नए संस्करणों ने प्रतिरक्षा को चकमा देने के लिए एक जैसे उत्परिवर्तनों का सहारा लिया है जो अभिसारी विकास का एक बेहतरीन उदाहरण है। इन सभी संस्करणों के वायरल जीनोम में आधा दर्जन उत्परिवर्तन उन स्थानों पर हुए हैं जो टीकों या पिछले संक्रमण से प्राप्त एंटीबॉडी की क्षमता को प्रभावित करते हैं।

आम तौर पर प्रतिरक्षा को चकमा देने की क्षमता पता लगाने के लिए शोधकर्ता वायरस के स्पाइक प्रोटीन की प्रतिलिपियां तैयार करते हैं और उनका परीक्षण मोनोक्लोनल एंटीबॉडीज़ के साथ करते हैं। इससे यह पता लगाया जा सकता है कि एंटीबॉडीज़ कितनी अच्छी तरह से कोशिकाओं को संक्रमित होने से बचा सकती हैं। ऐसे परीक्षण की मदद से चीन और स्वीडन के शोधकर्ताओं ने पाया कि एक संस्करण (बीए2.75.2) काफी प्रभावी ढंग से लगभग सभी मोनोक्लोनल एंटीबॉडीज़ को चकमा दे सकता है। विशेषज्ञों की मानें तो यह अब तक का सबसे प्रतिरोधी संस्करण है।

एक शोध पत्र में बीजिंग युनिवर्सिटी के यूनलॉन्ग रिचर्ड काओ और उनके सहयोगियों ने बताया है कि नए संस्करणों द्वारा मानव कोशिकाओं पर ग्राहियों को कसकर बांधने की क्षमता भी पाई गई है। इसके अलावा यह भी पता चला है कि नए संस्करण से होने वाला संक्रमण अधिक मात्रा में लेकिन गलत प्रकार की एंटीबॉडीज़ पैदा करता है जो वायरस से कसकर बंध तो जाती हैं लेकिन कोशिकाओं को संक्रमित करने की वायरस की क्षमता पर असर नहीं डालतीं। कुल मिलाकर यह सब कोविड-19 की एक बड़ी लहर की संभावना के संकेत देते हैं।

वैसे कुछ वैज्ञानिक अत्यधिक संक्रमण की उम्मीद तो करते हैं लेकिन उनका मानना है कि अब काफी लोग संक्रमण से उबर चुके हैं और ऑमिक्रॉन-विशिष्ट टीके की खुराक भी प्राप्त की है। इससे एंटीबॉडी में यकीनन वृद्धि हुई होगी। यानी हम वायरस से लड़ने में शून्य स्तर पर तो नहीं हैं। (स्रोत फीचर्स)

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रोबोटिक कैप्सूल: दिलाएगा इंजेक्शन से निजात – डॉ. विपुल कीर्ति शर्मा

मुंह से ली जाने वाली प्रोटीनी-दवाइयां पाचन तंत्र में पहुंच कर वहां के वातावरण में नष्ट या विकृत हो जाती हैं। इसके अलावा पाचन तंत्र की म्यूकस (श्लेष्मा) झिल्ली दवा के अवशोषण को भी कम कर देती है। इसलिए हमें इस प्रकार की दवाओं को इंजेक्शन द्वारा लेना पड़ता है। इसका मतलब यह है कि इंसुलिन और अधिकांश अन्य ‘जैविक दवाइयां’ जिनमें प्रोटीन या न्यूक्लिक एसिड औषधियां शामिल हैं, उन्हें इंजेक्शन के रूप में देना होता है। किंतु इंजेक्शन का डर और उन्हें बार-बार लगाने की ज़रूरत मरीज़ के लिए असुविधाजनक होते हैं।

इस परेशानी का समाधान मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी की श्रिया श्रीनिवासन और गियोवानी ट्रावर्सो की टीम ने ‘रोबोकैप कैप्सूल’ बनाकर निकाला है। सम्बंधित शोध पत्र का प्रकाशन साइंस रोबोटिक्स नामक शोध पत्रिका में हाल ही में हुआ है। नया कैप्सूल एक दिन इंजेक्शन के इस्तेमाल से निजात दिला सकता है।

क्या है रोबोकैप कैप्सूल?

रोबोकैप कैप्सूल एक मल्टीविटामिन कैप्सूल के आकार का होता है। कैप्सूल के दो हिस्से होते हैं। पिछले हिस्से में दवा और अगले मुख्य हिस्से में सुरंग बनाने वाला रोबोटिक हिस्सा। कैप्सूल की सतह पर जिलेटिन का अस्तर होता है जो पाचन तंत्र की एक विशिष्ट अम्लीयता पर घुलनशील होता है।

कैप्सूल के रोबोटिक हिस्से में एक रोबोटिक कैप होती है जो छोटी आंत में पहुंचने पर श्लेष्मा की परत पर घूमती है और सुरंग बनाती है। इससे कैप्सूल में भरी दवा को आंतों की कोशिकाओं के बहुत करीब छोड़ दिया जाता है। इस प्रकार श्लेष्मा को उसकी जगह से हटाकर हम नियत क्षेत्र में दवा के प्रसार व अवशोषण को अधिकतम कर सकते हैं और दवा के छोटे और बड़े दोनों अणुओं का शरीर में अवशोषण बढ़ा सकते हैं।

शोधकर्ता बताते हैं कि रोबोटिक कैप्सूल का उपयोग इंसुलिन जैसे हार्मोन के अलावा वैन्कोमाइसिन व अन्य एंटीबायोटिक पेप्टाइड देने के लिए किया जा सकता है जिसे वर्तमान में इंजेक्शन द्वारा ही दिया जाता है।

कैप कैसे कार्य करती है?

जब मरीज़ कैप्सूल निगलता है तो यह सबसे पहले आमाशय में पहुंचता है। आमाशय का अम्लीय वातावरण कैप्सूल के जिलेटिन अस्तर को घोल कर हटा देता है। कुछ समय पश्चात कैप्सूल छोटी आंत में पहुंच जाता है। यहां के क्षारीय वातावरण से रोबोकैप कैप्सूल के अंदर एक छोटी मोटर घूमने लगती है जो आंत की श्लेष्मा झिल्ली को साफ कर रास्ता बनती है। यह गति कैप्सूल को श्लेष्मा में सुरंग बनाने और इसे हटाने में मदद करती है। कैप्सूल छोटे दांतों से लेपित होता है जो टूथब्रश जैसे कार्य कर श्लेष्मा को हटाते हैं।

सुरंग बनाने वाली मशीन के घूमने से दवा वाला पीछे का कक्ष टूट जाता है जिससे दवा धीरे-धीरे पाचन तंत्र की कोशिकाओं के समीप छोड़ी जाती है। रोबोकैप श्लेष्मा बाधा को केवल अस्थायी रूप से विस्थापित करता है और फिर स्थानीय स्तर पर दवा के फैलाव को अधिकतम करके अवशोषण को बढ़ाता है।

सुरंग बनाने वाले कैप्सूल

कई वर्षों से, श्रीनिवासन और ट्रावर्सो की प्रयोगशाला इंसुलिन जैसी प्रोटीनी दवाइयों को मुंह से लेने की बजाय अन्य तरीके विकसित कर रही है। इन बाधाओं को दूर करने के लिए, श्रीनिवासन को एक सुरक्षात्मक कैप्सूल बनाने का विचार आया जो म्यूकस को भेदकर एक सुरंग बना सके। बिल्कुल वैसे ही जैसे सुरंग खोदने वाली मशीनें मिट्टी और चट्टान में ड्रिलिंग करती हैं। तो उन्होंने सोचा कि यदि कैप्सूल म्यूकस को भेद कर सुरंग बना सकते हैं तो हम दवा सीधे आंत की भोजन सोखने वाली कोशिकाओं के पास पहुंचा सकते हैं।

वैज्ञानिकों ने रोबोकैप का प्रारंभिक परीक्षण जानवरों पर किया। परीक्षणों में, शोधकर्ताओं ने इस कैप्सूल से इंसुलिन या वैन्कोमाइसिन और इनके जैसे बड़े पेप्टाइड एंटीबायोटिक को सफलता पूर्वक पहुंचाया। रोबोकैप का उपयोग त्वचा संक्रमण के साथ-साथ आर्थोपेडिक प्रत्यारोपण को प्रभावित करने वाले संक्रमणों तथा संक्रमणों की एक विस्तृत शृंखला के इलाज के लिए किया जा सकता है। शोधकर्ताओं ने पाया कि सुरंग तंत्र वाले कैप्सूल की मदद से सामान्य कैप्सूल की तुलना में 20 से 40 गुना अधिक दवा विसरित की जा सकती है।

जब दवा कैप्सूल से निकल जाती है तो कैप्सूल खुद ही पाचन तंत्र से होकर शरीर से बाहर निकल जाता है। शोधकर्ताओं ने कैप्सूल के गुज़रने के बाद पाचन तंत्र में सूजन या जलन का कोई संकेत नहीं पाया, और उन्होंने यह भी देखा कि कैप्सूल द्वारा विस्थापित श्लेष्मा झिल्ली भी कुछ ही घंटों में ठीक हो जाती है।

वर्तमान अध्ययन में इस्तेमाल किए गए कैप्सूल ने छोटी आंत में कार्य किया था। लेकिन कैप्सूल को बड़ी आंत में या विशेष नियत स्थान पर दवा छोड़ने के लिए भी तैयार किया जा सकता है। शोधकर्ता जीएलपी1 रिसेप्टर एगोनिस्ट जैसी अन्य प्रोटीनी दवाइयां देने की संभावना तलाशने की भी योजना बना रहे हैं, जिसका उपयोग कभी-कभी टाइप 2 मधुमेह के इलाज के लिए किया जाता है। सूजन का इलाज करने में मदद करने के लिए ऊतक में नियत स्थान पर दवा की सांद्रता बढ़ाकर अधिकतम करके अल्सरेटिव कोलाइटिस और अन्य सूजन वाली स्थितियों के इलाज के लिए कैप्सूल का उपयोग सामयिक दवाओं को विसरित करने के लिए भी किया जा सकता है। (स्रोत फीचर्स)

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क्या ट्यूमर में छिपी फफूंद कैंसर को गति देती हैं?

र्षों से इस बात के प्रमाण मिलते रहे हैं कि बैक्टीरिया का सम्बंध कैंसर से है, और कभी-कभी बैक्टीरिया कैंसर की प्रगति में महत्वपूर्ण भूमिका भी निभाते हैं। अब, शोधकर्ताओं को कैंसर में एक अन्य प्रकार के सूक्ष्मजीव – फफूंद – की भूमिका दिखी है।

सेल पत्रिका में प्रकाशित दो अध्ययनों के मुताबिक अलग-अलग तरह की कैंसर गठानों में अलग-अलग प्रजाति की एक-कोशिकीय फफूंद पाई जाती हैं, और इन प्रजातियों का अध्ययन कैंसर के निदान या इसके विकास का अनुमान लगाने में मददगार हो सकता है।

बैक्टीरिया की तरह सूक्ष्मजीवी फफूंद भी मनुष्य के शरीर में मौजूद सूक्ष्मजीव संसार का एक महत्वपूर्ण अंग हैं। कैंसर पीड़ित लोगों में इनकी उपस्थिति कैसे भिन्न होती है इसे समझने के लिए इस्राइल के वाइज़मैन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस की कैंसर जीवविज्ञानी लियान नारुंस्की हज़िज़ा और उनके साथियों ने 35 तरह के कैंसर के 17,000 से अधिक ऊतक और रक्त के नमूनों में फफूंद आबादी पर गौर किया।

जैसा कि अपेक्षित था, यीस्ट (खमीर) समेत कई प्रकार की फफूंद सभी तरह के कैंसर में मौजूद मिली, लेकिन कुछ प्रजातियों का सम्बंध कैंसर के कुछ अलग परिणामों से देखा गया। जैसे, मेलेसेज़िया ग्लोबोसा फफूंद, जो पूर्व में अग्न्याशय के कैंसर से सम्बद्ध पाई गई थी, स्तन कैंसर में व्यक्ति के जीवित रहने की दर को काफी कम कर देती है। यह भी देखा गया कि अधिकांश प्रकार की फफूंद कतिपय बैक्टीरिया के साथ-साथ पाई जाती हैं; अर्थात ट्यूमर फफूंद और बैक्टीरिया दोनों के विकास को बढ़ावा दे सकते हैं – जबकि सामान्य परिस्थितियों में फफूंद और बैक्टीरिया एक-दूसरे के प्रतिस्पर्धी होते हैं।

दूसरे अध्ययन में, वैल कॉर्नेल मेडिसिन के प्रतिरक्षा विज्ञानी इलियन इलीव और उनके साथियों ने आंत, फेफड़े और स्तन कैंसर के ट्यूमर पर अध्ययन किया और पाया कि उनमें क्रमशः कैंडिडा, ब्लास्टोमाइसेस और मेलेसेज़िया फफूंद उपस्थित थीं। आंत की ट्यूमर कोशिकाओं में कैंडिडा का उच्च स्तर शोथ बढ़ाने वाले जीन की अधिक सक्रियता, कैंसर के अन्य स्थानों पर फैलने (मेटास्टेसिस) की उच्च दर और जीवित रहने की निम्न दर से जुड़ा था।

देखा जाए तो ट्यूमर में फफूंद कोशिकाओं को पहचानना घास के ढेर में सुई खोजने जैसा है। आम तौर पर प्रत्येक 10,000 ट्यूमर कोशिकाओं पर केवल एक फफूंद कोशिका होती है। इसके अलावा, ये फफूंद काफी व्यापक रूप से पाई जाती हैं और इसलिए नमूनों में संदूषण की संभावना रहती है।

इसके अलावा, उक्त अध्ययन केवल यह बताते हैं कि फफूंद की कुछ प्रजातियों और कैंसर के कतिपय प्रकारों बीच कोई सम्बंध है – इससे कार्य-कारण सम्बंध का निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता। यह समझने के लिए और अध्ययन की ज़रूरत है कि क्या फफूंद शोथ पैदा करके कैंसर की प्रगति में योगदान देती है, या ट्यूमर फफूंद को अनुकूल वातावरण देते हैं और फफूंद हावी हो जाती हैं।

इसके लिए अलग-अलग कैंसर कोशिका कल्चर पर प्रयोग ज़रूरी होंगे। (स्रोत फीचर्स)

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दिमाग क्रमिक रूप से सोता-जागता है

ह तो पता रहा है कि स्तनधारियों का मस्तिष्क हमेशा पूरी तरह जागृत या सुप्त नहीं होता है। जैसे, हो सकता है कि डॉल्फिन का आधा मस्तिष्क सो रहा हो जबकि बाकी आधा जागा हो। नींद से वंचित चूहों में कुछ तंत्रिकाएं सुप्त हो सकती हैं जबकि वे जागे होते हैं। मनुष्यों में इस तथाकथित ‘स्थानीय नींद’ का अध्ययन करना मुश्किल रहा है, क्योंकि अन्य स्तनधारियों की तरह मनुष्यों में इसके अध्ययन के लिए घुसपैठी तरीकों का उपयोग नहीं किया जा सकता।

अब PNAS में प्रकाशित एक अध्ययन ने इसे आसान कर दिया है। इसमें शोधकर्ताओं ने दो अलग-अलग तकनीकों का एक साथ उपयोग करके मानव मस्तिष्क संकेतों को देखा और स्थानीय स्तर पर तंत्रिकाओं के जागने या सोने की स्थिति पता की। इस तरह वे पहचान सके कि मस्तिष्क के कौन से क्षेत्र सबसे पहले सो जाते हैं और कौन से सबसे पहले जाग जाते हैं।

वैसे, मनुष्यों में नींद का अध्ययन इलेक्ट्रोएन्सेफेलोग्राफी (ईईजी) से किया जाता है। ईईजी तीव्र परिवर्तनों को मापने का अच्छा साधन है, लेकिन स्थान विशेष का सूक्ष्मता से अध्ययन करने में यह अच्छे परिणाम नहीं दे पाता। इसलिए कार्डिफ युनिवर्सिटी की चेन सोंग और उनके साथियों ने ईईजी के साथ fMRI (फंक्शनल मैग्नेटिक रेज़ोनेन्स इमेजिंग) का उपयोग किया। fMRI में तंत्रिकाओं की गतिविधि को रक्त प्रवाह के आधार पर नापा जाता है। fMRI छोटे और तीव्र परिवर्तनों को तो नहीं पकड़ पाता लेकिन मस्तिष्क की स्थानीय गतिविधियों को बारीकी से अलग-अलग देखने में मदद कर सकता है। शोधकर्ताओं ने देखा कि क्या ईईजी में दिखने वाले नींद के तंत्रिका संकेत fMRI से प्राप्त पैटर्न से मेल खाते हैं?

शोधकर्ताओं ने 36 लोगों की मस्तिष्क गतिविधि का विश्लेषण किया। इन्हें एक घंटे के लिए fMRI स्कैनर के अंदर ईईजी कैप पहनाकर सुलाया गया था। इस अवलोकन की तुलना ईईजी डैटा के साथ करने पर शोधकर्ताओं ने पाया कि नींद के विशिष्ट विद्युतीय पैटर्न fMRI से प्राप्त पैटर्न से मेल खाते हैं।

यह भी देखा गया कि पूरे मस्तिष्क में अलग-अलग स्थान और समय पर रक्त प्रवाह के अलग-अलग पैटर्न थे, जिससे लगता है कि कुछ हिस्से दूसरे हिस्सों की तुलना में पहले नींद में चले जाते हैं। उदाहरण के लिए, सबसे पहले थैलेमस वाले हिस्से में नींद से जुड़े रक्त प्रवाह पैटर्न दिखे। यह ईईजी डैटा के आधार पर निकाले गए निष्कर्षों से मेल खाता है कि सोने की प्रक्रिया में थैलेमस वाला हिस्सा अन्य हिस्सों की तुलना में पहले सोता है।

प्रतिभागियों के जागने के दौरान मस्तिष्क की गतिविधि के अलग पैटर्न मिले। मसलन, संभवत: कॉर्टेक्स का अग्रभाग सबसे पहले जागता है। यह पूर्व निष्कर्षों से भिन्न है जो मूलत: जंतु अध्ययनों और सैद्धांतिक आधार पर निकाले गए थे। वैसे, सोंग स्वीकारती हैं कि fMRI स्कैनर के अंदर सोना अस्वाभाविक है और संभव है कि लोगों को बहुत हल्की नींद लगी हो जिसके कारण ऐसे अवलोकन मिले हैं। बहरहाल, नींद सम्बंधी विकारों पर हमारी समझ बनाने में fMRI तकनीक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है। (स्रोत फीचर्स)

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