मलावी सरकार ने सूचना दी है कि पकिस्तान में पाया जाने वाला प्राकृतिक पोलियोवायरस संस्करण अब अफ्रीकी महाद्वीप पहुंच चुका है। 1992 के बाद से देश में प्राकृतिक पोलियोवायरस का यह पहला मामला है जिसने एक तीन वर्षीय बच्ची को लकवाग्रस्त कर दिया है। इस नए मामले ने पोलियो को जड़ से खत्म करने के वैश्विक अभियान को काफी धक्का पहुंचाया है। हालांकि, ग्लोबल पोलियो उन्मूलन अभियान (जीपीईआई) को उम्मीद है कि इस प्रकोप को जल्द से जल्द नियंत्रित किया जा सकेगा।
वर्तमान में पाकिस्तान और अफगानिस्तान ही ऐसे देश हैं जहां वायरस फैलने की घटनाएं निरंतर होती रही हैं। इसका पिछला मामला 2013 में देखने को मिला था जिसमें पाकिस्तान से निकले वायरस ने सीरिया में प्रकोप बरपाया था। गौरतलब है कि अफ्रीका महाद्वीप पहले से ही टीका-जनित पोलियो वायरस के बड़े प्रकोप से जूझ रहा है।
इस तरह का वायरस मुख्य रूप से कम टीकाकरण वाले क्षेत्रों में पाया जाता है जहां ओरल पोलियो टीके में पाया जाने वाला जीवित लेकिन निष्क्रिय वायरस लकवाग्रस्त करने की क्षमता विकसित कर लेता है। हालांकि अफ्रीकी महाद्वीप में प्राकृतिक पोलियो का आखिरी मामला 2016 में पाया गया था और अगस्त 2020 में अफ्रीका को प्राकृतिक पोलियो मुक्त घोषित कर दिया गया था।
गौरतलब है कि पोलियो संक्रमण खामोशी से फैलता है और 200 संक्रमित बच्चों में से मात्र एक बच्चे को लकवाग्रस्त करता है। ऐसे में यदि वायरस का एक भी मामला सामने आता है तो उसे प्रकोप माना जाता है। वैसे जीपीईआई का इतिहास रहा है कि 6 माह के अंदर इस प्रकार के आयातित प्रकोपों को खत्म किया गया है। मलावी में पाया गया वाइल्ड टाइप 1 पोलियोवायरस का निकट सम्बंधी निकला जो अक्टूबर 2019 में सिंध प्रांत में फैला था। लगता है, वायरस तभी से ही गुप्त रूप से उपस्थित था।
पिछले दो वर्षों में कोविड महामारी के कारण जीपीईआई के विश्लेषकों के पास वायरस के आगमन और फैलाव के बारे में कोई स्पष्ट जानकारी नहीं है। मलावी से मोज़ांबिक, ज़ाम्बिया और तंज़ानिया में लोगों की अत्यधिक आवाजाही के कारण अन्य देशों में वायरस के फैलने के जोखिम का आकलन और व्यापक टीकाकरण रणनीति पर भी विचार किया जा रहा है।
पोलियो के इस नए मामले से इतना तो स्पष्ट है कि इस वायरस का खतरा अभी भी बच्चों पर मंडरा रहा है। विशेषज्ञों के अनुसार पाकिस्तान और अफगानिस्तान में पोलियो संचरण को स्थायी रूप से बाधित करने पर ध्यान केंद्रित करते हुए दुनिया भर में टीकाकरण को प्राथमिकता देने की ज़रूरत है। (स्रोत फीचर्स)
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जेनेटिक रूप से परिवर्तित (जीएम) खाद्यों के नियमन के लिए सरकारी नीति पर हाल के समय पर तीखी बहस देखी गई है। सरकारी स्तर पर जनता व विशेषज्ञों से इस बारे में राय मांगी गई। अनेक संगठनों व संस्थानों ने कहा कि जीएम खाद्यों पर पहले से जो पूर्ण प्रतिबंध चला आ रहा है, वही जारी रहना चाहिए। हाल ही में भारत के 160 डॉक्टरों का एक संयुक्त बयान जारी हुआ है जिसमें जीएम खाद्यों के अनेक खतरों को बताते हुए इन पर लगे प्रतिबंध को जारी रखने का आग्रह किया गया है।
भारत में जीएम सरसों व बीटी बैंगन पर बहस के दौरान भी जीएम खाद्यों पर पर्याप्त जानकारियां सामने आ चुकी हैं। दूसरी ओर, आयातित जीएम खाद्यों व विशेषकर प्रोसेस्ड आयातों पर से रोक हटाने के लिए दबाव बढ़ रहा है।
जेनेटिक इंजीनियरिंग से प्राप्त की गई फसलों का मनुष्यों व सभी जीवों के स्वास्थ्य पर बहुत प्रतिकूल असर पड़ सकता है। निष्ठावान वैज्ञानिकों के अथक प्रयासों से जीएम फसलों के गंभीर खतरों को बताने वाले दर्जनों अध्ययन उपलब्ध हैं। जैफरी एम. स्मिथ की पुस्तक जेनेटिक रुले (जुआ) में ऐसे दर्जनों अध्ययनों का सार-संक्षेप उपलब्ध है। इनमें चूहों पर हुए अनुसंधानों में आमाशय, लीवर, आंतों जैसे विभिन्न अंगों के बुरी तरह क्षतिग्रस्त होने की चर्चा है। जीएम फसल या उत्पाद खाने वाले पशु-पक्षियों के मरने या बीमार होने तथा मनुष्यों में भी गंभीर स्वास्थ्य समस्याओं का वर्णन है।
वैज्ञानिकों के संगठन युनियन ऑफ कंसर्न्ड साइंटिस्ट्स ने कुछ समय पहले कहा था कि जेनेटिक इंजीनियरिंग उत्पादों पर फिलहाल रोक लगनी चाहिए क्योंकि ये असुरक्षित हैं। इनसे उपभोक्ताओं, किसानों व पर्यावरण को कई खतरे हैं। 11 देशों के वैज्ञानिकों की इंडिपेंडेंट साइंस पैनल ने जीएम फसलों के स्वास्थ्य के लिए अनेक संभावित दुष्परिणामों की ओर ध्यान दिलाया है। जैसे प्रतिरोधक क्षमता पर प्रतिकूल असर, एलर्जी, जन्मजात विकार, गर्भपात आदि। भारत में सेंटर फॉर सेल्यूलर एंड मॉलीक्यूलर बायोलॉजी के पूर्व निदेशक प्रो. पुष्प भार्गव ने कहा था कि बीटी बैंगन को स्वीकृति देना एक बड़ी आपदा बुलाने जैसा है।
भारत में बीटी बैंगन के संदर्भ में विश्व के 17 विख्यात वैज्ञानिकों ने एक पत्र लिखकर इस बारे में नवीनतम जानकारी उपलब्ध करवाई थी। पत्र में कहा गया है कि जीएम प्रक्रिया से गुज़रने वाले पौधे का जैव-रासायनिक संघटन व कार्यिकी बुरी तरह अस्त-व्यस्त हो जाते हैं जिससे उसमें नए विषैले या एलर्जी उत्पन्न करने वाले तत्त्वों का प्रवेश हो सकता है व उसके पोषण गुण/परिवर्तित हो सकते हैं। उदाहरण के लिए गैर-जीएम मक्का की तुलना में मक्के की जीएम किस्म जीएम एमओएन 810 में 40 प्रोटीनों की उपस्थिति महत्त्वपूर्ण हद तक बदल जाती है।
जीव-जंतुओं पर जीएम खाद्य के नकारात्मक स्वास्थ्य असर किडनी, लीवर, आहार नली, रक्त कोशिका, रक्त जैव रसायन व प्रतिरोधक क्षमता पर सामने आ चुके हैं।
17 वैज्ञानिकों के इस पत्र में आगे कहा गया कि जिन जीएम फसलों को स्वीकृति मिल चुकी है उनके संदर्भ में भी अध्ययनों में यही नकारात्मक स्वास्थ्य परिणाम नज़र आए हैं, जिससे पता चलता है कि कितनी अपूर्ण जानकारी के आधार पर जीएम फसलों स्वीकृति दे दी जाती है।
बीटी मक्का पर मानसेंटो कंपनी के अनुसंधान का जब पुनर्मूल्यांकन हुआ तो अल्प-कालीन अध्ययन में भी नकारात्मक स्वास्थ्य परिणाम दिखाई दिए। बीटी के विषैलेपन से एलर्जी का खतरा जुड़ा हुआ है। बीटी बैंगन जंतुओं को खिलाने के अध्ययनों पर महिको-मानसेंटो ने के दस्तावेज में लीवर, किडनी, खून व पैंक्रियास पर नकारात्मक स्वास्थ्य परिणाम नज़र आते हैं। अल्पकालीन (केवल 90 दिन या उससे भी कम) अध्ययन में भी प्रतिकूल परिणाम नज़र आए। लंबे समय के अध्ययन से और भी प्रतिकूल परिणाम सामने आते। अत: इन वैज्ञानिकों ने कहा कि बीटी बैंगन के सुरक्षित होने के दावे का कोई औचित्य नहीं है।
बीटी कपास या उसके अवशेष खाने के बाद या ऐसे खेत में चरने के बाद अनेक भेड़-बकरियों के मरने व अनेक पशुओं के बीमार होने के समाचार मिले हैं। डॉ. सागरी रामदास ने इस मामले पर विस्तृत अनुसंधान किया है। उन्होंने बताया है कि ऐसे मामले विशेषकर आंध्र प्रदेश, हरियाणा, कर्नाटक व महाराष्ट्र में सामने आए हैं। पर अनुसंधान तंत्र ने इस पर बहुत कम ध्यान दिया है। भेड़ बकरी चराने वालों ने स्पष्ट बताया कि सामान्य कपास के खेतों में चरने पर ऐसी स्वास्थ्य समस्याएं पहले नहीं देखी गई थीं। हरियाणा में दुधारू पशुओं को बीटी काटन बीज व खली खिलाने के बाद उनमें दूध कम होने व प्रजनन की गंभीर समस्याएं सामने आईं।
बीटी बैंगन पर रोक लगाते हुए तत्कालीन पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने जो दस्तावेज जारी किया था, उसमें उन्होंने बताया था कि स्वास्थ्य के खतरे के बारे में उन्होंने भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद के महानिदेशक व भारतीय सरकार के औषधि नियंत्रक से चर्चा की थी। इन दोनों अधिकारियों ने कहा कि विषैलेपन व स्वास्थ्य के खतरे सम्बंधी स्वतंत्र परीक्षण होने चाहिए।
लगभग 100 डाक्टरों के एक संगठन ‘खाद्य व सुरक्षा के लिए डाक्टर’ ने भी पर्यावरण मंत्री को जीएम खाद्य व विशेषकर बीटी बैंगन के खतरे के बारे में जानकारी भेजी। उनके दस्तावेज में बताया गया कि पारिस्थितिकीय चिकित्सा शास्त्र की अमेरिका अकादमी ने अपनी संस्तुति में कहा है कि जीएम खाद्य से बहुत खतरे जुड़े हैं व इन पर मनुष्य के स्वास्थ्य की सुरक्षा की दृष्टि से पर्याप्त परीक्षण नहीं हुए हैं।
तीन वैज्ञानिकों मे वान हो, हार्टमट मेयर व जो कमिन्स ने जेनेटिक इंजीनियंरिंग की विफलताओं की पोल खोलते हुए एक महत्त्वपूर्ण दस्तावेज इकॉलाजिस्ट पत्रिका में प्रकाशित किया है। इस दस्तावेज के अनुसार बहुचर्चित चमत्कारी ‘सूअर’ या ‘सुपरपिग’, जिसके लिए मनुष्य की वृद्वि के हारमोन प्राप्त किए गए थे, बुरी तरह ‘फ्लॉप’ हो चुका है। इस तरह जो सूअर वास्तव में तैयार हुआ उसको अल्सर थे, वह जोड़ों के दर्द से पीड़ित था, अंधा था और नपुसंक था।
इसी तरह तेज़ी से बढ़ने वाली मछलियों के जीन्स प्राप्त कर जो सुपरसैलमन मछली तैयार की गई उसका सिर बहुत बड़ा था, वह न तो ठीक से देख सकती थी, न सांस ले सकती थी, न भोजन ग्रहण कर सकती थी व इस कारण शीघ्र ही मर जाती थी।
बहुचर्चित भेड़ डॉली के जो क्लोन तैयार हुए वे असामान्य थे व सामान्य भेड़ के बच्चों की तुलना में जन्म के समय उनकी मृत्यु की संभावना आठ गुणा अधिक पाई गई।
इन अनुभवों को देखते हुए जीएम खााद्यों को हम कितना सुरक्षित मानेंगे यह विचारणीय विषय है। इनके बारे में सामान्य नागरिक को सावधान रहना चाहिए व उपभोक्ता संगठनों को नवीनतम जानकारी नागरिकों तक पहुंचानी चाहिए। पर सबसे ज़रूरी कदम तो यह उठाना चाहिए कि जीएम फसलों के प्रसार पर कड़ी रोक लगा देनी चाहिए।
इन सब तथ्यों को ध्यान में रखते हुए रेखांकित करना ज़रूरी है कि जीएम खाद्यों पर जो विज्ञान आधारित प्रतिबंध भारत में लगा हुआ है उसे जारी रहना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)
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महामारी की शुरुआत से ही संकेत मिलने लगे थे कि सार्स-कोव-2 से संक्रमित गंभीर रोगियों में हृदय और रक्त वाहिनियों में क्षति होती है। मुख्य रूप से खून के थक्के बनना, हृदय में सूजन, धड़कन की लय बिगड़ना, दिल का दौरा जैसी समस्याएं देखी गई थीं। हाल ही में किए गए एक व्यापक अध्ययन में पता चला है कि वायरस के ऐसे प्रभाव काफी लंबे समय तक बने रह सकते हैं।
अमेरिका के 1.1 करोड़ वृद्ध लोगों के स्वास्थ्य रिकॉर्ड के विश्लेषण में शोधकर्ताओं ने पाया कि 1 वर्ष पहले कोविड-19 से ग्रसित लोगों में 20 विभिन्न हृदय और रक्त वाहिनी सम्बंधी विकारों का जोखिम सामान्य की तुलना में काफी बढ़ गया है। यह जोखिम प्रारंभिक रोग की गंभीरता के साथ-साथ बढ़ता पाया गया।
इस अध्ययन से प्राप्त डैटा से स्पष्ट हो जाता है कि सार्स-कोव-2 संक्रमण सामान्य फ्लू से कहीं अधिक खतरनाक है। हालांकि, विशेषज्ञ इस अध्ययन को दोहराने का सुझाव देते हैं क्योंकि इसमें दोषपूर्ण निदान जैसी त्रुटियों की संभावना है।
फिलहाल तो शोधकर्ताओं को वायरस द्वारा दीर्घकालिक क्षति की प्रक्रिया के बारे में कोई स्पष्ट जानकारी नहीं है। लेकिन उनका मानना है कि हृदय सम्बंधी जोखिम और लॉन्ग कोविड लक्षणों के समूह (ब्रेन फॉग, थकान, कमज़ोरी और गंध संवेदना का ह्रास) का मूल कारण एक ही हो सकता है।
इसके लिए शोधकर्ताओं ने अमेरिका के डिपार्टमेंट ऑफ वेटरन्स अफेयर्स (वीए) के इलेक्ट्रॉनिक स्वास्थ्य रिकॉर्ड में लगभग डेढ़ लाख लोगों के डैटा का विश्लेषण किया जो मार्च 2020 से जनवरी 2021 के बीच कोविड से संक्रमित हुए और संक्रमित होने के कम से कम 30 दिन तक जीवित रहे। उन्होंने दो तुलना समूहों की भी पहचान की। एक समूह 56 लाख ऐसे लोगों का था जिन्होंने महामारी के दौरान देखभाल की मांग तो की थी लेकिन जांच में कोविड नहीं पाया गया था; दूसरा समूह ऐसे 59 लाख लोगों का था जिन्होंने 2017 में देखभाल चाही थी।
अध्ययन में टीके के व्यापक रूप से उपलब्ध होने से पहले का ही डैटा शामिल किया गया था। इस तरह से 99.7 प्रतिशत लोग संक्रमित होने के समय टीकाकृत नहीं थे। इसलिए इस अध्ययन में यह स्पष्ट नहीं है कि टीकाकृत लोगों में ब्रेकथ्रू संक्रमण के बाद दीर्घकालिक हृदय सम्बंधी समस्याएं उत्पन्न हो सकती हैं या नहीं। इसके अलावा, इस अध्ययन का झुकाव वृद्ध, श्वेत और पुरुष आबादी की ओर अधिक दिखाई देता है। तीनों समूहों में 90 प्रतिशत पुरुष और 71-76 प्रतिशत श्वेत रोगी थे और सभी की औसत उम्र 60 और 70 के बीच थी।
शोधकर्ताओं ने पाया कि कोविड-19 के बाद हृदय रोग होने की संभावना में वृद्धि लगभग सभी लोगों – वृद्ध और युवा, मधुमेह और बिना मधुमेह, मोटापे और बिना मोटापे, धूम्रपान करने वाले और धूम्रपान न करने वाले – में एक जैसी थी।
कोविड-19 ने 20 तरह के हृदय रोगों के जोखिम को बढ़ा दिया है। जैसे कोविड से पीड़ित वृद्ध लोगों में संक्रमित होने के 12 महीने बाद नियंत्रण समूह की तुलना में 72 प्रतिशत अधिक हृदयाघात की संभावना देखी गई। 1000-1000 संक्रमित व असंक्रमित लोगों को लें तो किसी ना किसी हृदय सम्बंधी दिक्कत की संभावना असंक्रमित लोगों की अपेक्षा 45 अतिरिक्त संक्रमित लोगों में है।
फिलहाल वायरस द्वारा हृदय और रक्त वाहिनियों पर दीर्घकालिक असर शोध का विषय है। एक संभावित प्रक्रिया एंडोथेलियल कोशिकाओं की सूजन है जो हृदय और रक्त वाहिनियों का अंदरूनी अस्तर बनाती हैं। वैसे कई अन्य संभावनाएं भी हैं। जैसे वायरल आक्रमण से हृदय की मांसपेशियों की क्षति, साइटोकाइंस नामक सूजन बढ़ाने वाले रसायनों का उच्च स्तर जो हृदय पर सख्त धब्बे बनाता हो और वायरस का ऐसे स्थानों छिपे रहना जहां प्रतिरक्षा प्रणाली प्रभावी ढंग से निपट न सके।
शोधकर्ताओं का मानना है कि आने वाले समय में कोविड-19 से संक्रमित हो चुके लाखों लोगों को कोविड के दीर्घकालिक परिणाम भुगतने पड़ सकते हैं जिससे स्वास्थ्य प्रणालियों पर एक बार फिर दबाव बन सकता है। इसके लिए विश्व भर की सरकारों और स्वास्थ्य सेवाओं को हृदय सम्बंधी रोगों से निपटने के लिए ज़रूरी कदम उठाने होंगे। (स्रोत फीचर्स)
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हमारे शरीर में भीतर और बाहर अरबों-खरबों बैक्टीरिया पलते हैं और ये हमें स्वस्थ रखने और बीमार करने दोनों में भूमिका निभाते हैं। अब, फिनलैंड में हज़ारों लोगों पर किए गए अध्ययन से लगता है कि अवसाद (डिप्रेशन) के कुछ मामलों के लिए ज़िम्मेदार सूक्ष्मजीवों की पहचान हुई है।
वैज्ञानिक दिमागी स्वास्थ्य और आंत के सूक्ष्मजीवों के बीच सम्बंधों की छानबीन करते रहे हैं और बढ़ते क्रम में ऐसे सम्बंध देखे गए हैं। जैसे ऑटिज़्म और मूड की गड़बड़ी वाले लोगों की आंत में कुछ प्रमुख बैक्टीरिया की कमी दिखती है। फिलहाल यह स्पष्ट नहीं है कि आंत में इन सूक्ष्मजीवों की कमी क्या वास्तव में विकार पैदा करती है, लेकिन इन निष्कर्षों के आधार पर आंत के सूक्ष्मजीवों और उनके द्वारा उत्पादित पदार्थों का उपयोग विभिन्न तरह के मस्तिष्क विकारों के संभावित उपचार के रूप में करने की भागमभाग शुरू भी हो गई है।
हाल ही में शोधकर्ताओं ने फ्रंटियर्स इन साइकिएट्री में बताया है कि मल प्रत्यारोपण से दो अवसाद ग्रस्त रोगियों के लक्षणों में सुधार दिखा है।
बेकर हार्ट एंड डायबिटीज़ इंस्टीट्यूट के सूक्ष्मजीव जैव-सूचनाविद गिलौम मेरिक वास्तव में अवसाद के लिए ज़िम्मेदार सूक्ष्मजीव खोजने की दिशा में काम नहीं कर रहे थे। उनकी टीम तो फिनलैंड में किए गए स्वास्थ्य और जीवन शैली के एक बड़े अध्ययन के डैटा का विश्लेषण कर रही थी। यह अध्ययन 6000 प्रतिभागियों पर किया गया था जिसमें उनकी आनुवंशिक बनावट का आकलन किया गया, प्रतिभागियो की आंत में पल रहे सूक्ष्मजीव पता लगाए गए, और उनके आहार, जीवन शैली, ली गई औषधियों और स्वास्थ्य सम्बंधी व्यापक डैटा संकलित किया गया था। यह अध्ययन फिनिश लोगों में जीर्ण रोगों के अंतर्निहित कारणों को पहचानने के लिए 40 वर्षों से किए जा रहे प्रयास का हिस्सा था।
शोधकर्ता यह जानने का प्रयास कर रहे थे कि किसी व्यक्ति की आंतों के सूक्ष्मजीव संसार पर आहार और आनुवंशिकी का क्या प्रभाव होता है। नेचर जेनेटिक्स में शोधकर्ताओं ने बताया है कि मानव जीनोम के दो हिस्से इस बात को काफी प्रभावित करते हैं कि आंत में कौन से सूक्ष्मजीव मौजूद हैं। इनमें से एक हिस्से में दुग्ध शर्करा लैक्टोज़ को पचाने वाला जीन मौजूद है, और दूसरा हिस्सा रक्त समूह का निर्धारण करता है। (नेचर जेनेटिक्स में प्रकाशित एक अन्य अध्ययन में भी नीदरलैंड के 7700 लोगों के जीनोम और आंत के सूक्ष्मजीवों के बीच सम्बंधों के विश्लेषण किया गया था और उसमें भी इन्हीं आनुवंशिक हिस्सों की पहचान हुई थी।)
मेरिक की टीम ने यह भी पता लगाया कि कौन से आनुवंशिक संस्करण कुछ सूक्ष्म जीवों की संख्या को प्रभावित कर सकते हैं – और उनमें से कौन से संस्करण 46 सामान्य बीमारियों से जुड़े हैं। दो बैक्टीरिया, मोर्गनेला और क्लेबसिएला, अवसाद में भूमिका निभाते हैं। और एक सूक्ष्मजीवी सर्वेक्षण में 181 लोगों में मोर्गनेला बैक्टीरिया की काफी वृद्धि देखी गई थी, आगे जाकर ये लोग अवसाद से ग्रसित हुए थे।
पूर्व के अध्ययनों में भी अवसाद में मोर्गनेला की भूमिका पहचानी गई है। वर्ष 2008 में हुए अध्ययन में शोधकर्ता अवसाद और शोथ के बीच एक कड़ी तलाश रहे थे, इसमें उन्होंने अवसाद से ग्रसित लोगों में मोर्गनेला और आंत में मौजूद अन्य ग्राम-ऋणात्मक बैक्टीरिया द्वारा उत्पादित रसायनों के प्रति मज़बूत प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया देखी थी। अब, यह नवीनतम अध्ययन पूर्व के इन निष्कर्षों को मज़बूती प्रदान करता है कि आंत के रोगाणुओं के कारण होने वाली शोथ मूड को प्रभावित कर सकती है।
बहरहाल, इस क्षेत्र के अध्ययन अभी प्रारंभिक अवस्था में है; अवसाद कई तरह के होते हैं और सूक्ष्मजीव कई तरीकों से इसे प्रभावित कर सकते हैं। कुछ लोग इसके आधार पर चिकित्सकीय हस्तक्षेप की बात कह रहे हैं लेकिन इन निष्कर्षों को चिकित्सा में लागू करना अभी दूर की कौड़ी ही है। (स्रोत फीचर्स)
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वर्तमान महामारी के संदर्भ में एंडेमिक (स्थानिक) शब्द का काफी दुरूपयोग हुआ है और इसने काफी मुगालता पैदा किया है। इसका मतलब यह निकाला जा रहा है कि कोविड-19 का प्राकृतिक रूप से अंत हो जाएगा।
महामारी विज्ञानियों की भाषा में एंडेमिक संक्रमण उसे कहते हैं जिसमें संक्रमण की समग्र दर संतुलित रहती है। उदाहरण के तौर पर, साधारण सर्दी जुकाम, लासा बुखार, मलेरिया, पोलियो वगैरह एंडेमिक हैं। टीके की मदद से समाप्त किए जाने से पहले चेचक भी एंडेमिक था।
कोई बीमारी एंडेमिक होने के साथ-साथ व्यापक और घातक दोनों हो सकती है। 2020 में मलेरिया से 6 लाख से अधिक लोगों की मृत्यु हुई थी तथा टीबी से 1 करोड़ लोग बीमार हुए और 15 लाख लोगों की मृत्यु हुई थी। अर्थात एंडेमिक संक्रमण का मतलब यह नहीं होता कि सब कुछ नियंत्रण में है और सामान्य जीवन चल सकता है।
विशेषज्ञों के अनुसार नीति-निर्माता एंडेमिक शब्द का उपयोग हाथ पर हाथ धरे बैठे रहने के लिए करते हैं। जबकि ऐसे एंडेमिक रोगजनकों के साथ जीते रहने की बजाय स्वास्थ्य नीति सम्बंधी ठोस निर्णय लेना अधिक महत्वपूर्ण है।
वास्तव में किसी संक्रमण को एंडेमिक कहने से न तो यह पता चलता है कि वह स्थिर अवस्था में कब पहुंचेगा, मामलों की दर क्या होगी, और न ही यह पता चलता है कि बीमारी की गंभीरता या मृत्यु दर क्या होगी। इससे यह गारंटी भी नहीं मिलती कि संक्रमण में स्थिरता आ जाएगी।
वास्तव में स्वास्थ्य नीतियां और व्यक्तिगत व्यवहार ही कोविड-19 के रूप को निर्धारित कर सकते हैं। 2020 के अंत में अल्फा संस्करण के उभरने के बाद विशेषज्ञों ने यह कहा था कि जब तक संक्रमण को दबा नहीं दिया जाता तब तक वायरस का विकास काफी तेज़ और अप्रत्याशित ढंग से होगा। इसी विकास ने अधिक संक्रामक डेल्टा संस्करण को जन्म दिया और अब हम प्रतिरक्षा प्रणाली को चकमा देने वाले ओमिक्रॉन को झेल रहे हैं। बीटा और गामा संस्करण भी काफी खतरनाक थे लेकिन ये उस रफ्तार से फैले नहीं।
वायरस का फैलाव और असर लोगों के व्यवहार, जनसांख्यिकी संरचना, संवेदनशीलता और प्रतिरक्षा और उभरते हुए वायरस संस्करणों पर निर्भर करता है।
देखा जाए तो कोविड-19 विश्व की पहली महामारी नहीं है। हमारी प्रतिरक्षा प्रणाली निरंतर संक्रमण से निपटने के लिए विकसित हुई है और हमारे जीनोम में वायरल आनुवंशिक सामग्री के अवशेष इस तथ्य की पुष्टि करते हैं। कुछ वायरस अपने आप ही ‘विलुप्त’ तो हो गए लेकिन जाते-जाते उच्च मृत्यु दर का कारण भी रहे।
एक व्यापक भ्रम यह फैला है कि वायरस समय के साथ विकसित होकर ‘भले’ या कम हानिकारक हो जाते हैं। ऐसा नहीं है और आज कुछ नहीं कहा जा सकता कि वायरस किस दिशा में विकसित होगा। सार्स-कोव-2 के अल्फा और डेल्टा संस्करण वुहान में पाए गए पहले स्ट्रेन की तुलना में अधिक खतरनाक साबित हुए। पूर्व में भी 1918 इन्फ्लुएंज़ा महामारी की दूसरी लहर पहली की तुलना में अधिक घातक थी।
यह ज़रूर है कि इस विकास को मानवता के पक्ष में बदलने के लिए काफी कुछ किया जा सकता है। लेकिन सबसे पहले तो अकर्मण्य आशावाद को छोड़ना होगा। दूसरा, हमें मृत्यु, विकलांगता और बीमारी के संभावित स्तरों के बारे में यथार्थवादी होना पड़ेगा। यह भी ध्यान रखना होगा कि वायरस के नए-नए संस्करणों के विकास की संभावना को कम करने के लिए संक्रमण को फैलने से रोकना ज़रूरी है। तीसरा, हमें टीकाकरण, एंटीवायरल दवाओं, नैदानिक परीक्षण जैसी तकनीकों का उपयोग करने के साथ-साथ मास्क के उपयोग, शारीरिक दूरी, वेंटिलेशन वगैरह के माध्यम से हवा से फैलने वाले वायरस को रोकना होगा। वायरस को जितना अधिक फैलने का मौका मिलेगा, नए-नए संस्करणों के उभरने की संभावना बढ़ती जाएगी। चौथा, हमें ऐसे टीकों में निवेश करना होगा जो एकाधिक वायरस संस्करणों से सुरक्षा प्रदान करते हैं। इसके अलावा दुनिया भर में टीकों की समतामूलक उपलब्धता सुनिश्चित करना भी महत्वपूर्ण होगा।
ऐसे में किसी वायरस को एंडेमिक समझना सिर्फ गलत नहीं, खतरनाक भी है। बेहतर होगा कि वायरस को हावी होने का अवसर न दें और वायरस के नए संस्करणों को उभरने का मौका न दें। (स्रोत फीचर्स)
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हींग (जिसे अंग्रेज़ी में एसाफीटिडा, तमिल में पेरुंगायम, तेलुगु में इंगुवा और कन्नड़ में इंगु कहते हैं) एक सुगंधित मसाला है जिसका हमारे पकवानों और पारंपरिक चिकित्सा में उपयोग किया जाता रहा है। महाभारत काल से हम हींग के बारे में जानते हैं, और यह अफगानिस्तान से आयात की जाती है। भागवत पुराण में उल्लेख है कि देवताओं का पूजन करने से पहले हींग नहीं खाना चाहिए। भारतीय ऐतिहासिक रिकॉर्ड बताते हैं कि हम ईसा पूर्व 12वीं शताब्दी से हींग का आयात करते रहे हैं। हींग के लिए अंग्रेज़ी शब्द Asafoetida (एसाफीटिडा) फारसी शब्द Asa (जिसका अर्थ है गोंद), और लैटिन शब्द foetidus (जिसका अर्थ है तीक्ष्ण बदबू) से मिलकर बना है। विकीपीडिया के अनुसार प्रारंभिक यहूदी साहित्य में इसका ज़िक्र मिश्नाहा के रूप में मिलता है। रविंद्रनाथ टैगोर ने लिखा है कि वे कैसे ‘काबुलीवाला’ से मेवे खरीदते थे लेकिन उनकी रचनाओं में हींग का उल्लेख नहीं मिलता, जबकि निश्चित ही यह उनके घर की रसोई में उपयोग की जाती होगी!
हींग एक गाढ़ा गोंद या राल है, जो अम्बेलीफेरी कुल के फेरुला वंश के बारहमासी पौधे की मूसला जड़ से मिलता है। इंडियन मिरर में एसाफीटिडा शीर्षक से प्रकाशित लेख में बताया गया है कि चिकित्सा के क्षेत्र में हींग का उपयोग तरह-तरह से होता है। यह भी कहा गया है कि हींग इन्फ्लूएंज़ा जैसे वायरस के विरुद्ध कारगर है। इसलिए वर्तमान समय के औषधि रसायनज्ञों और आणविक जीव विज्ञानियों द्वारा इसकी क्रियाविधि का अध्ययन सार्थक हो सकता है। (और, मणिपाल एकेडमी ऑफ हायर एजुकेशन के प्रोफेसर एम. एस. वलियातन और उनके साथियों ने यह किया भी है)।
आयुर्वेद में शरीर में तीन तरह के दोष बताए गए हैं – वात, पित्त, और कफ। इन तीनों के अपने विशिष्ट कार्य हैं। वात दोष को शांत करने के लिए मसालों में हींग को सबसे अच्छा मसाला माना गया है। होम रेमेडीज़ फॉर हिक्कप नामक वेबसाइट बताती है कि हिचकी रोकने के लिए हींग उत्तम उपाय है! इसे मक्खन के साथ अच्छी तरह मिलाओ और निगल लो, और हिचकी बंद!
स्वदेशी?
हमें कब तक हींग आयात करनी पड़ेगी? ऐसा लगता है अब और नहीं! दी हिंदू के 10 नवंबर, 2020 के अंक में प्रकाशित और दी वायर व साइंस में उद्धृत एक रिपोर्ट में सीएसआईआर के इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन बायोटेक्नोलॉजी (CSIR-IHBT) के निदेशक डॉ. संजय कुमार बताते हैं कि हिमाचल प्रदेश के लाहौल-स्पीति की ठंडी रेगिस्तानी जलवायु ईरान और अफगानिस्तान की जलवायु से काफी मिलती-जुलती है। उन्होंने सोचा कि क्यों न हींग भारत में भी उगाई जाए। इस विचार ने IHBT को अफगानिस्तान से हींग के बीज आयात करके नेशनल ब्यूरो ऑफ प्लांट जेनेटिक रिसोर्सेस के मार्गदर्शन में IHBT अनुसंधान केंद्र में इसे उगाने को प्रेरित किया। प्रयोग सफल रहा और दो तरह की हींग राल प्राप्त हो गई – दूधिया सफेद किस्म की और लाल किस्म की। वे आगे बताते हैं कि चूंकि वर्तमान में हिमाचल प्रदेश में किसान आलू और मटर ही उगाते हैं इसलिए उन्हें हींग उगाने के लिए प्रेरित कर और तकनीकी सहायता प्रदान कर उनकी आय में वृद्धि की जा सकती है। डॉ. कुमार ने टाइम्स ऑफ इंडिया में ‘स्वदेशी हींग’ होना क्यों बड़ी बात है (Why ‘made-in-India’ heeng is a big thing) शीर्षक से एक लेख प्रकाशित भी किया है।
लंबा इतिहास
इस जड़ी बूटी के पारंपरिक चिकित्सा में उपयोग का एक लंबा इतिहास रहा है। मिस्र के लोग लंबे समय से इसका उपयोग करते आ रहे हैं। आयुर्वेद के जानकार भी सदियों से इसके बारे में जानते हैं। प्रो. एम. एस. वलियातन और उनके साथियों ने फलमक्खी को एक मॉडल के रूप में उपयोग करके अध्ययन में पाया है कि शरीर में आयुर्वेदिक औषधियां प्रभावी हैं। इसी तरह जर्नल ऑफ एथ्नोफार्मेकोलॉजी में वर्ष 1999 में आइग्नर और उनके साथियों ने बताया था कि नेपाल की पारंपरिक चिकित्सा पद्धतियों और आहार में हींग कैसे प्रभावी है। इस संदर्भ में फार्मेकोग्नॉसी रिव्यूज़ जर्नल के वर्ष 2012 के अंक में जयपुर की सुरेश ज्ञान विहार युनिवर्सिटी की डॉ. पूनम महेंद्र और डॉ. श्रद्धा बिष्ट द्वारा एक उत्कृष्ट और अद्यतन रिपोर्ट प्रकाशित की गई है, जिसका शीर्षक है फेरुला एसाफीडिटा: ट्रेडिशनल यूज़ एंड फार्मेकोलॉजिकल एक्टिविटी।
हींग के रासायनिक घटकों के विश्लेषण से पता चलता है कि हींग के पौधे में लगभग 70 प्रतिशत कार्बोहायड्रेट, 5 प्रतिशत प्रोटीन, एक प्रतिशत वसा, 7 प्रतिशत खनिज होते हैं। इसके अलावा इसमें कैल्शियम, फास्फोरस, सल्फर के यौगिक और विभिन्न एलिफैटिक और एरोमेटिक अल्कोहल होते हैं। इसकी वसा में सल्फाइड होता है जिससे मलनुमा गंध आती है।
प्रयोगशाला में चूहों पर किए गए रासायनिक परीक्षणों से पता चलता है कि हींग पाचन में अहम भूमिका निभाती है। इसके अलावा शोधदल ने बताया है कि हींग का पौधा कैंसर-रोधी एजेंट के रूप में भी काम कर सकता है, और महिलाओं की कुछ बीमारियों के खिलाफ भी कारगर हो सकता है। उन्होंने हींग के लगभग 30 ऐसे अणुओं को सूचीबद्ध किया है जो एंटी-ऑक्सीडेंट, कैंसर-रोधी, जीवाणुरोधी, एंटीवायरल और यहां तक कि एड्स वायरस-रोधी की तरह काम करते हैं। इस सूची के मद्देनज़र देश भर के वैज्ञानिकों को आणविक जीव विज्ञान, प्रतिरक्षा विज्ञान और औषधि डिज़ाइन की नई तकनीकों का उपयोग करते हुए हींग से इन अणुओं को प्राप्त करके रोगों में इनकी निवारक भूमिका पर अध्ययन करना चाहिए। तो चलिए काम शुरू किया जाए। (स्रोत फीचर्स)
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प्रयोगशाला से प्राप्त डैटा से पता चला है कि व्यापक रूप से उपयोग किए जा रहे टीके तेज़ी से फैल रहे ओमिक्रॉन संस्करण के विरुद्ध न के बराबर सुरक्षा प्रदान करते हैं।
गौरतलब है कि कुछ टीकों में निष्क्रिय किए गए वायरस का उपयोग किया जाता है। ये टीके स्थिर होते हैं और इनका निर्माण अपेक्षाकृत रूप से आसान होता है। लेकिन प्रयोगों से यह साबित हुआ है कि ये ओमिक्रॉन के विरुद्ध अप्रभावी रहे हैं।
ऐसे निष्क्रिय-वायरस आधारित टीकों की दोनों खुराकें मिलने के बाद भी ऐसे प्रतिरक्षा अणुओं का निर्माण नहीं हुआ जो ओमिक्रॉन संक्रमण का मुकाबला कर सकें। और तो और, तीसरी खुराक के बाद भी ‘न्यूट्रलाइज़िंग’ एंटीबॉडी का स्तर कम पाया गया जो कोशिकाओं को संक्रमण के खिलाफ शक्तिशाली सुरक्षा प्रदान करती हैं। दूसरी ओर, mRNA या प्रोटीन-आधारित टीकों की तीसरी खुराक ओमिक्रॉन के विरुद्ध बेहतर सुरक्षा प्रदान करती है।
ये निष्कर्ष निष्क्रिय-वायरस आधारित टीकों की भूमिका का पुनर्मूल्यांकन करने की ज़रूरत दर्शाते हैं।
पिछले वर्ष विश्वभर के टीकाकरण अभियान में निष्क्रिय -वायरस टीकों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। अब तक वितरित 11 अरब टीकों में से चीन द्वारा निर्मित सायनोवैक और सायनोफार्म की हिस्सेदारी 5 अरब रही है। इसके अलावा भारत में निर्मित कोवैक्सिन, ईरान द्वारा निर्मित कोविरॉन बरेकत और कज़ाकिस्तान द्वारा निर्मित क्वैज़वैक जैसे टीकों की भी 20 करोड़ से अधिक खुराकें वितरित की जा चुकी हैं। ये सभी टीके गंभीर बीमारी या मृत्यु से सुरक्षा प्रदान करने में सक्षम रहे हैं।
हांगकांग के शोधकर्ताओं द्वारा कोरोनावैक टीका प्राप्त 25 लोगों के रक्त के विश्लेषण में एक भी व्यक्ति में ओमिक्रॉन संस्करण के विरुद्ध न्यूट्रलाइज़िंग एंटीबॉडी नहीं पाई गई। शोधकर्ताओं का मत है कि इस टीके से ओमिक्रॉन संक्रमण का जोखिम बना रहता हैं। वैसे सायनोवैक ने अपने आंतरिक आंकड़ों का हवाला देते हुए बताया है कि कंपनी का टीका प्राप्त करने वाले 20 में से 7 लोगों में ओमिक्रॉन को निष्क्रिय करने वाली एंटीबॉडी पाई गई हैं। भारत बायोटेक (कोवैक्सिन) और चीनी कंपनी सायनोफार्म (बीबीआईबीपी-कोरवी) ने भी ओमिक्रॉन के विरुद्ध निष्क्रिय -वायरस टीकों के कुछ हद तक प्रभावी होने का दावा किया है।
इस टीके की तीसरी खुराक से कई लोगों में न्यूट्रलाइज़िंग गतिविधि बहाल हुई है। शंघाई जियाओ टोंग युनिवर्सिटी स्कूल ऑफ मेडिसिन में 292 लोगों पर किए गए एक अध्ययन में तीसरी खुराक मिलने पर 228 में न्यूट्रलाइज़िंग एंटीबॉडी मिली हालांकि स्तर कम ही रहा।
इस सम्बंध में पोंटिफिकल कैथोलिक युनिवर्सिटी ऑफ चिली के मॉलिक्यूलर वायरोलॉजिस्ट राफेल मेडिना ने प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया के अन्य भागों की भूमिका की ओर ध्यान दिलाया है।
विशेषज्ञों के अनुसार परिणाम भले ही दर्शाते हों कि निष्क्रिय-वायरस आधारित टीके ओमिक्रॉन से सुरक्षा प्रदान नहीं करते लेकिन ये कोविड-19 के गंभीर प्रभावों से रक्षा ज़रूर करते हैं।(स्रोत फीचर्स)
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बाहर से देखने पर तो मनुष्य एकदम सुडौल, सममित लगते हैं यानी दाहिनी तरफ और बाईं तरफ एक से हाथ, पैर, आंखें, कान वगैरह होते हैं। लेकिन अंदर झांकेंगे तो मामला अलग होता है। सबको पता है कि दिल सीने में थोड़ा बाईं ओर होता है जबकि जिगर उदर में दाईं ओर। कुछ लोगों में ज़रूर इनमें से कुछ अंगों की स्थिति पलट जाती है। सवाल यह रहा है कि आखिर इन अंगों को अपनी सही स्थिति में पहुंचने का आदेश कहां से मिलता है। अब शोधकर्ताओं ने एक जीन खोज निकाला है जो इस व्यवस्था के लिए ज़िम्मेदार है।
भ्रूण के विकास का अध्ययन करने वाले वैज्ञानिकों को यह तो काफी समय से पता रहा है कि कुछ जीन्स ऐसे होते हैं जो भ्रूण की शुरुआती सममिति को तोड़ते हैं और अंगों को अपना पाला तय करने में मदद करते हैं। शोधकर्ता यह भी जानते थे कि दिल तथा कतिपय अन्य अंगों को मध्यरेखा से अलग स्थिति में पहुंचाने में कुछ कोशिकाओं की भूमिका है जिन्हें दायां-बायां व्यवस्थापक कहते हैं। 1998 में चूहों पर किए गए अध्ययनों के आधार पर जापान के वैज्ञानिकों ने सुझाया था कि इनमें से कुछ व्यवस्थापक-कोशिकाओं में रोम होते हैं और इन रोग की गति कुछ ऐसी होती है कि वे भ्रूण के तरल को बाईं ओर भेजते हैं, दाईं ओर नहीं। तरल के असमान प्रवाह की वजह से अंग सही जगहों पर बनते हैं। तरल का यह असमान प्रवाह बाईं ओर की कोशिकाओं में कुछ जीन्स को सक्रिय कर देता है। आगे चलकर पता चला कि मछलियों और मेंढकों में भी ऐसा ही होता है।
लेकिन अचरज की बात यह रही कि कोशिकाओं का ऐसा समूह मुर्गियों और सुअरों के विकसित होते भ्रूण में नहीं पाया जाता जबकि इनके दिल भी एक बाजू ही बनते हैं। कुछ शोधकर्ताओं का मत है कि घुमावदार गति वाले रोम जंतु विकास में काफी प्राचीन काल में प्रकट हुए थे लेकिन फिर किसी कारण से कुछ जंतुओं में ये लुप्त हो गए – जैसे सुअरों, स्तनधारियों में और पक्षियों में। लेकिन मनुष्यों में ये बरकरार रहे।
तो सिंगापुर के जीनोम इंस्टीट्यूट के ब्रुनो रेवरसेड और पेरिस के इमेजिन इंस्टीट्यूट के क्रिस्टोफर गॉर्डन देखना चाहते थे इस बेडौल विकास के लिए क्या कोई नया जीन ज़िम्मेदार है। इन शोधकर्ताओं के दल ने यह देखना शुरू किया कि वे कौन-से जीन हैं जो चूहों, मछलियों और मेंढकों के विकासमान भ्रूणों में तो सक्रिय होते हैं लेकिन सुअरों के विकास की उस अवस्था में अक्रिय होते हैं जब तरल का प्रवाह नहीं हो रहा होता।
शोधकर्ताओं ने नेचर जेनेटिक्स जर्नल में बताया है कि उन्हें पांच ऐसे जीन मिले। वे जानते थे कि वे सही दिशा में आगे बढ़ रहे हैं क्योंकि इन पांच में से तीन जीन्स के बारे में पहले से ही पता था कि वे प्रवाह-प्रेरित सममिति भ्रंश के लिए ज़िम्मेदार हैं। शेष रहे दो जीन्स। इनमें से एक का नामकरण सिरॉप (CIROP) किया गया है।
शोधकर्ताओं ने इस जीन में एक ऐसा परिवर्तन कर दिया कि जब यह सक्रिय हो तो एक चमक पैदा करे। इसकी मदद से शोधकर्ताओं को यह पता चला कि सिरॉप जीन ज़ेब्रा मछली, चूहों और मेंढकों के भ्रूण में मात्र कुछ घंटों के लिए सक्रिय रहता है जब दायां-बायां व्यवस्थापक बनता है। जब इस जीन को निष्क्रिय कर दिया गया तो पता चला कि इसकी ज़रूरत भ्रूण के सिर्फ बाएं हिस्से में होती है ताकि दिल, आंतें व पित्ताशय सही जगह पर बन जाएं। यानी सिरॉप इन अंगों की स्थिति निर्धारण में निर्णायक भूमिका निभाता है।
मनुष्यों की बात करें तो हर 10 हज़ार में से एक व्यक्ति गलत जगह स्थित अंगों के साथ पैदा होता है। इसे हेटेरोटैक्सी कहते हैं। रेवरसेड की टीम ने हेटेरोटैक्सी से ग्रस्त 183 लोगों के सिरॉप जीन का अनुक्रमण किया और उन्हें 12 परिवारों के 21 व्यक्तियों में सिरॉप में उत्परिवर्तन देखने को मिले। वैसे सिरॉप की खोज से इस समस्या का इलाज करने में कोई मदद शायद न मिले लेकिन यह महत्वपूर्ण तो है ही। शोधकर्ताओं को कुछ अंदाज़ तो है कि यह जीन सममिति को कैसे तोड़ता है लेकिन वे और अध्ययन करना चाहते हैं।(स्रोत फीचर्स)
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यह बात महामारी वैज्ञानिकों के बीच चर्चा का विषय रही है कि भारत में कोविड-19 की वजह से होने वाली मौतें वैश्विक आंकड़ों को देखते हुए काफी कम रही हैं। कुछ लोगों का मत था कि यही वास्तविक स्थिति है जबकि कुछ अन्य लोगों का मानना था कि यह अल्प-रिपोर्टिंग का परिणाम है। अब एक प्रमुख महामारी वैज्ञानिक टोरोंटो विश्वविद्यालय के प्रभात झा ने ताज़ा विश्लेषण के आधार पर बताया है कि संभवत: भारत में कोविड-19 मृत्यु दर शेष दुनिया के समान ही थी और इसकी वजह से भारत में लगभग 30 लाख मौंतें हुई थीं जो भारत सरकार द्वारा जारी की गई संख्या से छह गुना अधिक है। यदि यह सही है तो अन्य देशों के आंकड़ों की भी जांच की जा सकती है। मृतकों की वैश्विक संख्या डबल्यूएचओ द्वारा अनुमानित मृतकों की संख्या 54.5 लाख से भी अधिक हो सकती है। यह विश्लेषण साइंस पत्रिका में प्रकाशित हुआ है।
2021 के अंत तक भारत ने सार्स-कोव-2 संक्रमण से लगभग 4,80,000 मौतों की सूचना दी है। यानी 340 मौतें प्रति दस लाख आबादी। यह अमेरिका में प्रति व्यक्ति कोविड-19 मृत्यु दर का लगभग सातवां भाग है। झा और उनकी टीम ने शुरुआती अध्ययन में माना था कि भारत में कोविड-19 से मरने वालों की संख्या असामान्य रूप से कम है लेकिन अधिक गहराई से जांच करने पर हैरतअंगेज़ परिणाम प्राप्त हुए।
टीम ने एक स्वतंत्र पोलिंग एजेंसी से डैटा प्राप्त किया जिसने देश भर में 1,40,000 लोगों का टेलीफोन सर्वेक्षण कर उनके परिवार में कोविड से मरने वाले लोगों की संख्या का पता लगाया था। उन्होंने सरकारी रिपोर्टों का भी विश्लेषण किया और अधिकारिक तौर पर पंजीकृत मौतों का पता लगाया। नतीजे में टीम ने पाया कि सितंबर 2021 तक भारत में प्रति दस लाख आबादी में 2300 से 2500 मौतें हुई थीं।
झा के अनुसार उनके शुरुआती निष्कर्ष संक्रमण की पहली लहर पर आधारित थे जो डेल्टा संस्करण की तुलना में कम घातक थी। 2021 की वसंत ऋतु में डेल्टा संस्करण के मामलों में सबसे अधिक उछाल आया। टीम ने उस समय शहरी क्षेत्रों की ओर अधिक ध्यान केंद्रित किया था जहां मृत्यु दर ग्रामीण क्षेत्रों की तुलना में कम हो सकती है। वैसे भी देश में मृत्यु पंजीकरण का मामला महामारी से पहले भी काफी उबड़-खाबड़ रहा है। झा का मानना है कि कोविड-19 से मृत्यु के कम आंकड़ों के पीछे ये कारण हो सकते हैं लेकिन अभी काफी कुछ समझना बाकी है।
राजनीति भी एक कारण हो सकता है। झा का मानना है कि प्रशासन ने महामारी की वास्तविक तस्वीर को ओझल रखा है और कोविड से मृत्यु की परिभाषा के ज़रिए भी संख्या को दबाने का प्रयास किया गया है। एक मुद्दा यह भी है कि नमूना पंजीकरण प्रणाली (एसआरएस) के माध्यम से डैटा जारी नहीं किया गया जो नियमित रूप से जन्म और मृत्यु को ट्रैक करने के लिए भारत की आबादी के एक प्रतिशत का सर्वेक्षण करता है।
वैसे, प्रिंसटन युनिवर्सिटी के महामारी विज्ञानी और अर्थशास्त्री रमनन लक्ष्मीनारायण गणना में इस चूक को पूरी तरह से इरादतन नहीं मानते हैं। जैसे, एसआरएस डैटा तो 2018 से ही जारी नहीं किया गया है। वे यह भी मानते हैं कि लगभग हर देश कोविड-19 मृत्यु दर को कम दर्शाना चाहता है ताकि वैश्विक स्तर पर खुद को शर्मिंदगी से बचा सके। लिहाज़ा, लक्ष्मीनारायण भारत को अन्य देशों की तुलना में अलग नहीं देखते हैं। अलबत्ता, लक्ष्मीनारायण चैन्नै के एक अध्ययन के आधार पर लैंसेट में बता चुके हैं कि मौतें कम करके बताई गई हैं।
अशोका युनिवर्सिटी के वायरस वैज्ञानिक शहीद जमील के अनुसार झा की टीम का देशव्यापी अनुमान दो अन्य स्वतंत्र अध्ययनों से मेल खाता है। उनका कहना है कि आंकड़ों में इस चूक का खामियाजा अगली लहर की तैयारी में कमी के रूप में भुगतना पड़ा है।
डैटा और विश्लेषण पर काम करने वाली डबल्यूएचओ की सहायक महानिदेशक समीरा अस्मा के अनुसार यह अध्ययन काफी सुदृढ है और देश-विशिष्ट अनुमान तैयार करने के लिए इस दृष्टिकोण को अपनाने का सुझाव देती हैं। इसके मद्देनज़र डबल्यूएचओ भी अपने अनुमानों को अपडेट कर रहा है और जल्द ही उन्हें जारी करने की योजना बना रहा है।
ई-लाइफ में 6 महीने पहले प्रकाशित शोध पत्र के मुताबिक महामारी के पहले और उसके दौरान सभी कारणों से होने वाली मृत्यु दर को दुनिया भर में कम रिपोर्ट किया गया था। उदाहरण के लिए, रूस में आधिकारिक आंकड़ों से 4.5 गुना अधिक मौतें हुई हैं। (स्रोत फीचर्स)
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पारंपरिक तौर पर खुजली को जिस तरह परिभाषित किया गया है उसके अनुसार खुजली एक असुखद एहसास (संवेदना) है जो खुजलाने की अनुक्रिया या अनैच्छिक प्रतिक्रिया पैदा करती है। खुजाने से उस कीड़े को भगाने में मदद मिलती है जो आपको कष्ट दे रहा था; लेकिन प्रुराइटस (खुजली का चिकित्सकीय नाम) यदि छह सप्ताह से अधिक समय तक बनी रहती है तो यह रोग की द्योतक है जो हर सात में से एक व्यक्ति के शारीरिक और/या मानसिक स्वास्थ्य पर गहरा प्रभाव डालती है। अनुसंधानों ने इस एक ही प्रतीत होती तकलीफ (खुजली) के पीछे के कई क्रियाविधियों का खुलासा किया है।
जीर्ण खुजली (यानी लंबे समय तक चलने वाली खुजली) कई कारणों से हो सकती है। जैसे यह त्वचा-सम्बंधी हो सकती है (अक्सर हिस्टेमीन के स्राव के कारण होती है, जिसका उपचार बेनेड्रिल जैसी एंटीहिस्टेमीन दवाओं से किया जाता है)। यह तंत्रिका विकार सम्बंधी हो सकती है (दाद, तंत्रिका संपीड़न और मस्तिष्क रक्तस्राव जैसी समस्या), या तंत्रगत हो सकती है (कमज़ोर गुर्दे जैसी समस्या) या मनोवैज्ञानिक भी हो सकती है (जैसे जुनूनी-बाध्यकारी गड़बड़ी यानी OCD)।
बुज़ुर्ग विशेष रूप से जीर्ण समस्याओं से ग्रसित होते हैं जो खुजली के रूप में प्रकट होती हैं। वर्ष 2018 में जर्नल ऑफ दी इंडियन एकेडमी ऑफ जेरिएट्रिक्स में मणिक्कम और उनके साथियों द्वारा प्रकाशित दक्षिण भारत के एक अध्ययन में साठ साल से अधिक आयु वर्ग के 29 प्रतिशत लोगो में एक्ज़िमा की समस्या देखी गई थी। दिल्ली कैंट के बेस अस्पताल में इसी उम्र वर्ग पर हुए एक अन्य अध्ययन में 56 प्रतिशत लोगों ने प्रुराइटस की शिकायत बताई थी। यह अध्ययन वर्ष 2019 में इंडियन डर्मेटोलॉजी ऑनलाइन जर्नल में प्रकाशित हुआ था। 2019 में ही इंडियन जर्नल ऑफ क्लीनिकल एंड एक्सपेरिमेंटल डर्मेटोलॉजी में प्रकाशित एक विश्लेषण में जीर्ण खुजली की शिकायत करने वाले 100 रोगियों में से 62 लोगों की समस्या के सम्बंधित कारणों को पहचाना जा सका, और इनमें मधुमेह, हाइपोथायरायडिज़्म, कई तरह के कैंसर और लौह की कमी शामिल थे।
खुजली पैदा करने वाले कारकों को प्रुराइटोजेन्स कहा जाता है। खुजली के प्रति संवेदनशील ऊतकों में त्वचा, श्लेष्मा झिल्लियां और आंख का कॉर्निया शामिल हैं। इन ऊतकों में कुछ तंत्रिका ग्राही (प्रुरिसेप्टर) प्रुराइटोजेन्स द्वारा उत्तेजित होते हैं। इनके द्वारा उत्पन्न संदेश मेरु रज्जू में खुजली के संकेत देने वाली तंत्रिकाओं के ज़रिए मस्तिष्क तक ले जाए जाते हैं। प्रुराइटोजेन्स पर प्रतिक्रिया देने वाले कई अलग-अलग ग्राही और चैनल होते हैं। इनकी संख्या इतनी अघिक होती है कि चाहे जो भी हो, खुजली की अनुभूति आपके मस्तिष्क तक पहुंच ही जाती है।
जीर्ण खुजली का एक सामान्य उदाहरण है एटोपिक डर्मेटाइटिस। यह एक शोथ स्थिति है जो अक्सर एलर्जी के कारण होती है जिसमें त्वचा कटी-फटी दिखती है और खुजली होती है। उदाहरण के लिए, धूल में पाई जाने वाली घुन (हाउस डस्ट माइट) से होने वाली एलर्जी। यह घुन एक मिलीमीटर के एक तिहाई हिस्से के बराबर होती है, इसका भोजन हमारे शरीर से लगातार झड़ने वाली मृत त्वचा की पपड़ियां होती है। इस घुन के मल में एक तरह का प्रोटीन होता है जो एक शक्तिशाली प्रुराइटोजेन है। इस प्रुराइटोजेन के त्वचा के ग्राहियों से जुड़ने पर यह एटोपिक डर्मेटाइटिस या अस्थमा जैसी एलर्जी पैदा करता है। ये ग्राही उपचार के लिए अच्छे लक्ष्य हैं। इन ग्राहियों को लक्षित करके खुजली की संवेदना को मस्तिष्क तक पहुंचने से रोका जा सकता है। लेकिन साथ ही कोशिश करनी होती है कि शरीर की सुरक्षा के लिए ज़रूरी अन्य संवेदनाएं बाधित न हों।
खुजली और दर्द
खुजली और दर्द के बीच एक महत्वपूर्ण अंतर खुजलाने की इच्छा का है। अचानक उठे तेज़ दर्द के कारण आप जल्दी से पीछे हट जाते हैं (या खुद को आगे बढ़ने से रोक लेते हैं) और इस तरह संभावित नुकसान से बच जाते हैं; लेकिन खुजलाना वास्तव में खुजली के कारण की ओर ध्यान दिलाता है। खुजलाना मेरु रज्जू में खुजली के संदेश देने वाली तंत्रिकाओं को अवरुद्ध करता है। इससे मस्तिष्क तक पहुंचने वाली खुजली संवेदना में कमी आती है और राहत मिलती है! लेकिन यह राहत क्षणिक ही होती है। खुजलाकर हम असल में हल्का दर्द पहुंचा रहे होते हैं, और यह दर्द पल भर को हमारे मस्तिष्क में खुजली की अनुभूति को दबा सकता है। खुजलाना मस्तिष्क में पारितोषिक तंत्र की तरह भी काम कर सकता है, और खुजलाना एक सुखद एहसास बन सकता है। लेकिन जीर्ण खुजली वाले रोगियों के लिए खुजलाना एक अभिशाप हो सकता है, इससे त्वचा को नुकसान पहुंच सकता है और खुजली बढ़ सकती है।
आभासी खुजली
जिन लोगों ने (दुर्घटनावश) अपने हाथ या पैर गंवा दिए हैं, उन्हें अक्सर लगता है कि उनके ‘गुमशुदा अंग’ (आभासी अंग) में बहुत खुजली हो रही है। असल में, उनका मस्तिष्क समय के साथ कुछ नए परिपथ बना लेता लेता है और इस कारण शरीर के किसी अन्य हिस्से से मिलने वाले संदेश मस्तिष्क के उस हिस्से को मिलने लगते हैं जो पूर्व में उस अंग से मिला करते थे जो अब नहीं है।
कैलिफोर्निया युनिवर्सिटी के तंत्रिका विज्ञानी वी. एस. रामचंद्रन ने कई ऐसे प्रयोग किए जो लगते तो सरल हैं लेकिन यह सरलता बस कहने को है। इन प्रयोगों की मदद से उन्होंने दर्शाया कि जिन लोगों ने हाल ही में किसी दुर्घटना में अपना कोई अंग को गंवाया है और अक्सर उन्हें अपने उस ‘अनुपस्थित अंग में असहनीय खुजली’ की शिकायत रहती है तो वे अपने चेहरे के विभिन्न हिस्सों को खुजला कर राहत महसूस कर सकते हैं – जैसे ऊपरी होंठ को खुजला कर वे कट चुकी तर्जनी उंगली में राहत महसूस कर सकते हैं।
जीर्ण खुजली से निपटने के लिए नए चिकित्सीय तरीके त्वचा से लेकर केंद्रीय तंत्रिका तंत्र तक कई अलग-अलग बिंदुओं पर आज़माए जा रहे हैं। टाइप बी अल्ट्रा वायलेट प्रकाश त्वचा में प्रतिरक्षा कोशिकाओं से हिस्टेमीन का स्राव कम करने के लिए जाना जाता है, इसलिए फोटोथेरेपी खुजली में उपयोगी साबित हुई है। रोगाणुरोधी यौगिकों से लेपित रेशम के कपड़े भी एक तरीका है। लंबे समय तक बनी रहने वाली खुजली मस्तिष्क में खुजली से जुड़े हिस्सों में कार्यात्मक विसंगतियां पैदा करती है, और इसमें मस्तिष्क के वांछित हिस्से को विद्युत धारा से उत्तेजित करके राहत पहुंचाई जा सकी है। (स्रोत फीचर्स)
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