वृद्धावस्था थामने की कोशिश

र किसी की तमन्ना होती है कि लंबा जीए लेकिन शरीर जवां और तंदुरुस्त बना रहे। अब यह तमन्ना सेनोलिटिक्स औषधियों से पूरी होने का दावा किया जा रहा है।

जीर्णता (या सेनेसेंस) उम्र बढ़ने की प्रक्रिया है। जीर्ण पड़ चुकी कोशिकाएं हमारे शरीर में घूमती रहती हैं और ऐसे पदार्थ स्रावित करती हैं जो स्वस्थ कोशिकाओं को भी जीर्ण कर सकते हैं; कुछ उसी तरह जैसे एक सड़ा हुआ फल बाकी फलों को भी सड़ाना शुरू कर देता है। इस प्रक्रिया में अवरोध पैदा करने वाले पदार्थों को कहते हैं सेनोलिटिक्स – वृद्धावस्था-रोधी।

सेनोलिटिक्स में (कृत्रिम या प्राकृतिक) सेनोलिटिक एंजेट की मदद से जीर्ण कोशिकाओं को हटाया जा सकता है, और इस तरह स्वस्थ कोशिकाओं पर जीर्ण कोशिकाओं के प्रभावों को रोककर वृद्धावस्था को टाला जा सकता है।

वर्तमान में शोधकर्ताओं ने सेनोलिटिक्स की मदद से वृद्ध हो रहे अलग-अलग अंगों की बहाली या तंदुरुस्ती लौटाने में सफलता पा ली है। जैसे मेयो क्लिनिक में एक ही परिस्थिति में एक ही उम्र के दो कृन्तकों पर अध्ययन किया गया था। देखा गया कि जो कृन्तक स्वाभाविक रूप से वृद्ध हो रहा था वह दुबला और बूढ़ा दिख रहा था, जबकि सेनोलिटिक उपचार वाला दूसरा कृन्तक स्फूर्तिभरा था।

अन्य शोधों में पाया गया है कि सेनोलिटिक्स के साथ उपचार से रक्त में इतना बदलाव हो जाता है कि ऐसे चूहों का रक्त प्राप्त करने वाले करीब दो साल के चूहे आठ महीने के चूहे लगने लगते हैं। इसके अलावा, दृष्टि बहाल करने से लेकर मेरुदंड में डिस्क ठीक से बिठाने तक के प्रयास सेनोलिटिक्स की मदद से किए जा रहे हैं।

यहां तक कि हृदय के मामले में सेनोलिटिक्स कारगर लगते हैं। पूरे शरीर में कुशलतापूर्वक रक्त पहुंचाने के लिए हृदय की रक्त पम्प करने वाले ऊतकों को सटीक लयबद्धता से काम करना पड़ता है। जैसे-जैसे उम्र बढ़ती है और इनकी कोशिकाएं बूढ़ी होती जाती हैं, यह लय गड़बड़ा सकती है। नतीजतन शरीर बीमारियों का घर बन सकता है। एक अध्ययन में देखा गया है कि अन्य उपयोगों के लिए स्वीकृत दो औषधियां हृदय को फिर तंदुरुस्त बना देती हैं। दोनों औषधियों का मिश्रण पुरानी पड़ चुकी कोशिकाओं को हटा देता है, जिससे उनकी पड़ोसी कोशिकाएं सामान्य तरह से कार्य करने लगती हैं।

लेकिन समग्र बुढ़ापे को पलटना यानी उम्र बढ़ाने का मामला थोड़ा पेचीदा है। बुढ़ापे का अंतिम पड़ाव है मृत्यु। किसी भी उपचार का अध्ययन करने के लिए शोधकर्ताओं को ऐसे पड़ाव या बिंदु की ज़रूरत होती है जिन पर वे उपचार की सफलता या विफलता तय कर सकें। लेकिन शोधकर्ता किसी व्यक्ति की मृत्यु का समय नहीं माप सकते, क्योंकि यह जानने का कोई तरीका नहीं है कि उपचार से कोई कितना जीया और बिना उपचार के कितना जीता। बड़ी आबादी पर अध्ययन करके ही जाना जा सकेगा कि क्या अपनाए गए उपचार ने वास्तव में मृत्यु को टाला। कुछ संभव सेनोलिटिक उपचारों को 2026 के आसपास एफडीए से मंज़ूरी मिलने की संभावना है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://i.natgeofe.com/n/bd82db51-e0e7-49b8-96a7-8cb95bd2d76a/GettyImages-672837789.jpg?w=636&h=795

शरीर की सारी वसा एक-सी नहीं होती

मारे शरीर में वसा महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। ये ऊर्जा प्रदान करने के साथ-साथ शरीर के विकास के लिए भी आवश्यक हैं। लेकिन शरीर में वसा की अतिरिक्त मात्रा से स्वास्थ्य पर हानिकारक प्रभाव पड़ता है और उच्च रक्तचाप, मधुमेह, हृदय रोग जैसी बीमारियों की संभावना बढ़ जाती है। भारत में औसतन 40 प्रतिशत लोग मोटापे की समस्या से परेशान हैं। इससे निपटने के लिए सबसे अच्छा सुझाव तो नियमित रूप से व्यायाम और शारीरिक परिश्रम करना है लेकिन ऐसा करना सबके लिए संभव नहीं हो पाता। इस विषय में कई तरह के शोध किए गए हैं लेकिन अभी तक कोई ऐसा नुस्खा नहीं मिला जिससे आसानी से शरीर की वसा को नियंत्रित किया जा सके।

हाल के वर्षों में एक अंतर्राष्ट्रीय शोध दल ने शरीर में उपस्थित अत्यधिक वसा से निपटने का तरीका खोज निकाला है। गौरतलब है कि हमारे शरीर में मुख्य रूप से दो प्रकार की वसा होती है: ब्राउन फैट और व्हाइट फैट। ब्राउन फैट चयापचय, मोटापे और मधुमेह को नियंत्रित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है और दीर्घायु को संभव बनाती है। दूसरी ओर, व्हाइट फैट चयापचय की दृष्टि से अकार्यशील होता है। इसकी ऊर्जा का अधिक उपयोग नहीं किया जाता है, और यह शरीर में जमा होता रहता है और कई स्वास्थ्य समस्याओं का कारण बनता है।

तो यह एक महत्वपूर्ण सवाल रहा है कि शरीर में ब्राउन फैट को कैसे बढ़ाया व सक्रिय किया जाए। साथ ही यह भी एक मुद्दा रहा है कि क्या व्हाइट फैट को ब्राउन में तबदील करना संभव है।

क्यूबैक स्थित शेरब्रुक युनिवर्सिटी हॉस्पिटल और युनिवर्सिटी ऑफ कोपेनहेगन के शोधकर्ताओं द्वारा किए गए एक अध्ययन में शरीर में उपस्थित ब्राउन फैट को सक्रिय करने का प्रयास किया गया है। वास्तव में ब्राउन फैट ठंड या कुछ रासायनिक संकेतों के प्रत्युत्तर में सक्रिय होकर शरीर में गर्मी उत्पन्न करता है।

मनुष्यों के शरीर में ब्राउन फैट की मात्रा काफी कम होती है। वैज्ञानिकों का प्रयास रहा है कि किसी अन्य तरीके से ब्राउन फैट को सक्रिय किया जा सके या व्हाइट फैट को ब्राउन फैट में परिवर्तित किया जा सके ताकि चयापचय में सुधार हो।

ब्राउन फैट नवजात शिशुओं की गर्दन और कंधों में पाया जाता है। यह काफी मात्रा में कैलोरी जलाता है और शरीर को गर्म रखने का काम करता है। लेकिन उम्र बढ़ने के साथ-साथ यह कम होने लगता है और 6 वर्ष की आयु तक यह कुल फैट के 5 प्रतिशत से भी कम हो जाता है। इसके बाद हमारे शरीर में केवल निष्क्रिय व्हाइट फैट बनता है।

इस व्हाइट फैट को ब्राउन फैट में बदलने और स्वास्थ्य पर इसके प्रभाव को समझने के लिए वैज्ञानिकों ने एक प्रयोग किया। उन्होंने व्हाइट फैट की कोशिकाओं को लेकर उन्हें बहुसक्षम (प्लूरिपोटेंट) स्थिति में परिवर्तित किया और फिर कुछ एपीजेनेटिक स्विच के साथ छेड़छाड़ की तो वे ब्राउन फैट कोशिकाओं में परिवर्तित हो गई।

इसके बाद उन्होंने ब्राउन फैट कोशिकाओं को कल्चर किया और एक अन्य जीन को सक्रिय करके कोशिका की सतह पर ऐसे प्रोटीन की संरचना को परिवर्तित कर दिया जो प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया पैदा करते हैं। ऐसा करने से ब्राउन फैट को भेड़ों में इंजेक्ट करने पर उनके शरीर ने इसे अस्वीकार नहीं किया।

इस ब्राउन फैट को एक मोटी भेड़ में डाला गया। जैसी कि उम्मीद थी अधिक मात्रा में ब्राउन फैट वाली भेड़ दुबली हो गई और उसमें चयापचय सिंड्रोम तथा मधुमेह भी खत्म हो गया।

इस संदर्भ में, डॉ. शिन्या यामानाका द्वारा वयस्क कोशिकाओं को उनकी मूल भ्रूण अवस्था में लाने का काम महत्वपूर्ण साबित हुआ। इसके लिए उन्होंने चार प्रकार के जीन को सक्रिय किया था जिन्हें यामानाका कारक कहा जाता है। ये कारक एक तरह से स्विच का काम करते हैं। भ्रूणीय अवस्था में आने के बाद ये कोशिकाएं ब्राउन फैट, व्हाइट फैट, हृदय. लीवर या गुर्दे वगैरह की कोशिकाएं बनाने में सक्षम हो जाती हैं।

ब्राउन फैट को उपयोग करने में एक बड़ी समस्या रही है कि ब्राउन फैट द्वारा किए जाने वाले कार्यों को व्हाइट फैट में प्रोग्राम किया जाए। यह अब संभव हो गया है। डेलावेयर स्थित एक समूह ने एक मान्य उपचार के माध्यम से कुछ महिलाओं में निष्क्रिय ब्राउन फैट को सक्रिय किया तथा व्हाइट फैट को ब्राउन में भी परिवर्तित किया। इसकी मदद से व्हाइट फैट को ब्राउन फैट में परिवर्तित करने की तकनीकें विकसित की जा सकेंगी। यह ब्राउन फैट आपके वज़न को कम करने के साथ मधुमेह, हृदय रोग, कैंसर, अस्थि रोग और डिमेंशिया के जोखिम को भी कम करेगा।

यह तकनीक जन स्वास्थ्य के क्षेत्र में काफी महत्वपूर्ण साबित हो सकती है। गौरतलब है कि 1974 से मधुमेह, अस्थिरोग और कैंसर जैसे बीमारियों के लिए व्हाइट फैट का बढ़ता स्तर सबसे बड़ा कारण है। इसके अलावा थकान और ताकत की कमी जैसे बुढ़ापे के लक्षणों के पीछे का कारण भी शरीर की अतिरिक्त वसा है। वसा के बढ़ने से जीवन प्रत्याशा में भी कमी आई है। यदि वैज्ञानिक मनुष्यों में व्हाइट फैट को ब्राउन फैट में परिवर्तित करने का रास्ता खोज निकालते हैं तो इससे कई बीमारियों के जोखिम में कमी आ सकती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://media.springernature.com/lw685/springer-static/image/chp%3A10.1007%2F164_2018_118/MediaObjects/441472_1_En_118_Fig3_HTML.png

स्वास्थ्य के पुराने दस्तावेज़ों से बीमारियों के सुराग

लेक्ट्रॉनिक स्वास्थ्य रिकॉर्ड का अपना महत्व है, बशर्ते कि हम उनका सही तरह से विश्लेषण करें। हाल ही में किए गए ऐसे विश्लेषण से संकेत मिला है कि फ्लू व अन्य आम वायरसों के संक्रमण और अल्ज़ाइमर या पार्किंसन जैसे तंत्रिका-क्षय रोगों के बीच कुछ सम्बंध है।

वैसे तो हर्पीज़ वायरस के संक्रमण का सम्बंध अल्ज़ाइमर रोग से देखा गया है और एप्स्टाइन-बार वायरस संक्रमण और मल्टीपल स्क्लेरोसिस के बीच सम्बंध के भी सशक्त प्रमाण मिले हैं। लेकिन ताज़ा अध्ययन में सेंटर फॉर अल्ज़ाइमर रिलेटेड डिमेंशिया के क्रिस्टीन लेविन और उनके साथियों ने यह देखने की कोशिश की है कि क्या आम तौर पर वायरस संक्रमण और तंत्रिका-क्षय रोगों के बीच कोई सम्बंध है।

लगभग साढ़े चार लाख इलेक्ट्रॉनिक स्वास्थ्य रिकॉर्डों की जांच के न्यूरॉन में प्रकाशित परिणामों से पता चला है कि वायरस संक्रमण और तंत्रिका-क्षय रोगों के बीच कम से कम 22 कड़ियां हैं और कई मामलों में तंत्रिका क्षय रोग का जोखिम संक्रमण के 15 वर्षों बाद भी देखा गया। वैसे फिलहाल इस सह-सम्बंध की कार्यप्रणाली की समझ नहीं बनी है।

टीम ने सबसे पहले तो 35,000 ऐसे लोगों के रिकॉर्ड देखे जिन्हें मस्तिष्क सम्बंधी कोई रोग था। तुलना के लिए उन्होंने 3,10,000 ऐसे लोगों के रिकॉर्ड की भी जांच की जिन्हें ऐसा कोई रोग नहीं था। ये सारे रिकॉर्ड उन्हें फिनजेन नामक डैटाबेस से प्राप्त हुए थे। इस जांच में टीम को संक्रमण और मस्तिष्क रोगों के बीच 45 उल्लेखनीय कड़ियां देखने को मिलीं। इसी बात को उन्होंने एक अन्य डैटाबेस – यूके बायोबैंक – से तुलना करके भी देखा। अंतत: उनके पास 22 कड़ियां शेष रहीं।

सबसे सशक्त कड़ी वायरस-जन्य मस्तिष्क ज्वर और अल्ज़ाइमर के बीच सामने आई। मस्तिष्क ज्वर से पीड़ित व्यक्तियों को आगे चलकर अल्ज़ाइमर होने की संभावना 31 गुना ज़्यादा देखी गई। अन्य मामलों में सह-सम्बंध इतने सशक्त नहीं दिखे, हालांकि कुछ हद तक देखे गए।

इस अध्ययन की कुछ ज़ाहिर-सी सीमाएं भी हैं। पहली तो यह है कि सारे आंकड़े युरोपीय मूल के लोगों के हैं। इसके अलावा, दुनिया के अन्य इलाकों में ज़्यादा संक्रमित करने वाले वायरसों को भी इसमें शामिल नहीं किया जा सका है। बहरहाल, इस अध्ययन से कुछ संकेतक तो मिले हैं जिन पर आगे काम किया जा सकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://media.nature.com/lw1024/magazine-assets/d41586-023-00181-3/d41586-023-00181-3_23939536.jpg

अवसादरोधी दवाइयां और एंटीबायोटिक प्रतिरोध

एंटीबायोटिक प्रतिरोध दुनिया भर में सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए एक खतरा है। ऐसा अनुमान है कि वर्ष 2019 में इसके कारण 12 लाख लोगों की मृत्यु हुई। अक्सर ऐसा माना जाता है कि एंटीबायोटिक दवाइयों के अत्यधिक उपयोग के चलते बैक्टीरिया एंटीबायोटिक दवाओं के प्रतिरोधी होते जा रहे हैं। लेकिन हाल ही में शोधकर्ताओं ने प्रतिरोध का एक और संभावित कारण पाया है: अवसादरोधी औषधियों का सेवन।

प्रयोगशाला अध्ययन में देखा गया है कि किस तरह अवसादरोधी दवाइयां बैक्टीरिया में प्रतिरोध को शुरू कर सकती हैं। इन दवाइयों के संपर्क से बैक्टीरिया में एक नहीं बल्कि कई एंटीबायोटिक्स के खिलाफ प्रतिरोध देखा गया।

मामले की शुरुआत ऐसे हुई कि ऑस्ट्रेलियन सेंटर फॉर वॉटर एंड एनवायरमेंटल बायोटेक्नॉलॉजी के जियानहुआ गुओ ने साल 2014 में देखा था कि अस्पतालों के अपशिष्ट जल नमूनों की तुलना में घरेलू अपशिष्ट जल नमूनों में अधिक एंटीबायोटिक-रोधी जीन्स हैं, जबकि अस्पतालों में एंटीबायोटिक दवाइयों का उपयोग अधिक होता है।

इसके अलावा, गुओ और अन्य समूहों ने यह भी देखा था कि अवसादरोधी दवाइयां कुछ बैक्टीरिया को मार देती हैं या उनकी वृद्धि रोक देती हैं। ये दवाइयां कोशिका के प्रतिरक्षा तंत्र को उकसाती हैं, जो बैक्टीरिया को बाद में एंटीबायोटिक उपचार से बचने में सक्षम बनाता है।

गुओ और उनकी टीम देखना चाहती थी कि गैर-एंटीबायोटिक दवाओं का एंटीबायोटिक प्रतिरोध विकसित करने में क्या योगदान है। 2018 के एक अध्ययन में उन्होंने देखा था कि फ्लोक्सेटीन (ब्रांड नाम प्रोज़ेक) के संपर्क में आने के बाद ई. कोली बैक्टीरिया में कई एंटीबायोटिक दवाओं के खिलाफ प्रतिरोध विकसित हो गया था। हालिया अध्ययन में उन्होंने 5 अन्य अवसाद-रोधी दवाइयों और 13 एंटीबायोटिक दवाइयों पर अध्ययन किया और देखा कि ई. कोली में प्रतिरोध कैसे विकसित हुआ।

भरपूर ऑक्सीजन युक्त प्रयोगशाला परिस्थितियों में रखे गए बैक्टीरिया में उन्होंने देखा कि अवसादरोधी दवाइयों के कारण कोशिकाओं में सक्रिय ऑक्सीजन मूलक बने। ये विषैले अणु होते हैं जो बैक्टीरिया के प्रतिरक्षा तंत्र को सक्रिय करते हैं। इसने बैक्टीरिया की उस प्रणाली को सक्रिय कर दिया था जिसका उपयोग कई बैक्टीरिया एंटीबायोटिक दवाओं सहित विभिन्न अणुओं को बाहर निकालने के लिए करते हैं। इससे शायद इस बात की व्याख्या हो जाती है कि प्रतिरोधी जीन की अनुपस्थिति में भी कैसे ये बैक्टीरिया एंटीबायोटिक दवाइयों का सामना कर सकते हैं। ध्यान देने की बात यह है कि आंतों में, जहां ये बैक्टीरिया पाए जाते हैं, परिस्थिति ऑक्सीजन-रहित होती है। तो देखना होगा कि वहां क्या होता होगा। वैसे प्रयोग के दौरान अनॉक्सी परिस्थितियों में एंटीबायोटिक प्रतिरोध बहुत धीरे-धीरे विकसित हुआ था।

लेकिन अवसादरोधी दवाइयों के संपर्क में आने से ई. कोली बैक्टीरिया की उत्परिवर्तन दर में भी वृद्धि हुई, और उनमें से प्रतिरोधी जीन्स का चयन हुआ।

गौरतलब बात यह रही कि कम से कम एक अवसाद-रोधी दवा, सेरट्रेलाइन, ने बैक्टीरिया कोशिकाओं के बीच जीन्स के हस्तांतरण को बढ़ावा दिया। ऐसा हस्तांतरण विभिन्न बैक्टीरिया के बीच भी संभव है। इससे बैक्टीरिया की विभिन्न प्रजातियों के बीच भी प्रतिरोध फैल सकता है। अभी यह समझना बाकी है कि अवसादरोधी बैक्टीरिया में किन अणुओं को लक्षित करते हैं और विभिन्न बैक्टीरिया प्रजातियों पर इनके प्रभाव को देखने की भी ज़रूरत है।

2018 में, बैक्टीरिया को सीधे तौर पर प्रभावित न करने वाली 835 दवाइयों के सर्वेक्षण में देखा गया था कि इनमें से 24 प्रतिशत दवाइयों ने मानव आंत के कम से कम एक बैक्टीरिया किस्म की वृद्धि को रोक दिया था।

शोधकर्ता चूहों के सूक्ष्मजीव संसार पर अवसादरोधी दवाइयों के प्रभाव का अध्ययन कर रहे हैं। शुरुआती आंकड़े बताते हैं कि ये दवाइयां चूहों की आंत के सूक्ष्मजीव संसार को बदल सकती हैं और जीन हस्तांतरण को बढ़ावा दे सकती हैं।

बहरहाल शोधकर्ताओं ने आगाह किया है कि इस शोध के आधार पर अवसादरोधी का सेवन बंद न करें। क्योंकि अवसाद का इलाज करना सबसे ज़रूरी है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://media.nature.com/lw1024/magazine-assets/d41586-023-00186-y/d41586-023-00186-y_23945570.jpg

स्वस्थ भविष्य के लिए मोटा अनाज-डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

साइंस न्यूज़ में एक प्रशिक्षु एना गिब्स ने 9 मई 2022 के अंक में लिखा था, “आप जलवायु परिवर्तन को मानें या न मानें, लेकिन यह भविष्य में हमारे खान-पान को बदल देगा।” मनुष्य जितनी कैलोरी का उपभोग करते हैं, उसमें से आधा हिस्सा मक्का, चावल और गेहूं से आता है। हम अपनी 80 फीसदी पोषण सम्बंधी ज़रूरतों के लिए 13 फसलों पर निर्भर हैं। जलवायु परिवर्तन के कारण होने वाली अनियमित वर्षा और चरम मौसम की वजह से इनका उत्पादन घटेगा। हमारी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए सख्तजान प्रजातियों को विकसित करने की ज़रूरत है, और यही वजह है कि मोटे अनाज (मिलेट्स) महत्व प्राप्त कर रहे हैं।

मोटे अनाज गर्म क्षेत्रों में अनुपजाऊ मिट्टी में उगाए जाते हैं और छोटे दानों वाली भरपूर उपज देते हैं, जिनका उपयोग आटा बनाने में किया जाता है। मोटे अनाज के कुछ उदाहरण हैं बाजरा, ज्वार, रागी। कम उगाए जाने वाले कुछ मोटे अनाज हैं तिनई (कंगनी), समा या समई और सांवा, जिनका उपयोग ब्रेड, रस्क (टोस्ट) और बिस्किट बनाने में किया जाता है।

अग्रणी उत्पादक

मोटे अनाज 10,000 से अधिक वर्षों से एशिया और अफ्रीका के लोगों के मुख्य आहार रहे हैं। ये जलवायु को लेकर लचीले हैं; बहुत कम पानी और गर्म, शुष्क परिस्थिति में अच्छी तरह से पनपते हैं। कृषि और किसान कल्याण मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार भारत सालाना लगभग 1.2 करोड़ मीट्रिक टन मोटे अनाजों का उत्पादन करता है। HelgiLibrary  के अनुसार, इनके उत्पादन में भारत दुनिया में पहले स्थान पर है, इसके बाद चीन और नाइजर का स्थान है।

खाद्य और कृषि संगठन ने वर्ष 2023 को मोटे अनाज का अंतर्राष्ट्रीय वर्ष घोषित किया है। इसे ध्यान में रखते हुए, भारत के कृषि मंत्रालय ने मोटे अनाज के उपयोग पर केंद्रित योजनाओं और गतिविधियों की एक शृंखला तैयार की है, विशेषकर आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश और बिहार में। मंत्रालय पंजाब, केरल और तमिलनाडु में ‘सही खाओ मेलों’ के आयोजन की भी योजना बना रहा है। चेन्नई स्थित एम.एस. स्वामिनाथन रिसर्च फाउंडेशन मोटे अनाज के उत्पादन और खपत को बढ़ावा देने के लिए बहुत सक्रिय रहा है।

यह सही है कि हममें से अधिकांश लोग गेहूं और चावल को मुख्य भोजन के रूप में खाते हैं, लेकिन ये मोटे अनाज के बराबर पौष्टिक नहीं होते हैं। इसलिए उन्हें ‘पोषक-अनाज’ नहीं कहा जाता है। मोटे अनाज में उल्लेखनीय मात्रा में प्रोटीन, फाइबर, विटामिन बी, और कई धात्विक आयन होते हैं जो चावल जैसे प्रमुख खाद्य पदार्थों में नहीं होते हैं। इसलिए यह ज़रूरी है कि इन लाभों को प्राप्त करने के लिए मोटे अनाज हमारे दैनिक भोजन में शामिल किए जाएं।

मोटे अनाज का अर्थशास्त्र

बैंगलुरु स्थित भारतीय सांख्यिकी संस्थान की प्रोफेसर और एम.एस. स्वामिनाथन रिसर्च फाउंडेशन की प्रमुख मधुरा स्वामिनाथन ने 31 जनवरी, 2023 को दी हिंदू में प्रकाशित अपने लेख में इस विषय के अर्थशास्त्र की संक्षिप्त रूपरेखा प्रस्तुत की है। वे बताती हैं कि अगर सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) में वितरित किए जाने वाले चावल और गेहूं के लगभग 20 प्रतिशत हिस्से की जगह मोटा अनाज दिया जाए, तो इससे मध्याह्न भोजन से स्कूली बच्चों के स्वास्थ्य को बहुत लाभ होगा। मोटे अनाज के उत्पादन को बढ़ाना और कृषि भूमि में गिरावट को पलटना संभव तो है लेकिन आसान नहीं होगा और इसके लिए बहुस्तरीय हस्तक्षेप की आवश्यकता होगी। भारत सरकार, और कर्नाटक और ओडिशा राज्यों ने मोटा अनाज मिशन शुरू किया है, जो स्वागत योग्य कदम है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://pristineorganics.com/wp-content/uploads/2019/06/03-1-1-1.jpg

मनुष्यों का बड़ा दिमाग फालतू डीएनए का नतीजा है

ह तो बरसों से पता रहा है कि प्रोटीन बनाने वाले नए-नए जीन्स मौजूदा जीन्स में दोहराव या परिवर्तन की वजह से बन सकते हैं। लेकिन कुछ प्रोटीन-निर्माता जीन्स डीएनए के ऐसे खंडों से भी बन सकते हैं जो पहले लक्ष्यहीन आरएनए बनाया करते थे। गौरतलब है कि जब डीएनए के किसी हिस्से से सम्बंधित प्रोटीन बनवाना होता है तो उसकी एक प्रतिलिपि आरएनए के रूप में बनती है जो केंद्रक से बाहर जाकर प्रोटीन निर्माण करवाती है।

जब कोई डीएनए ऐसा आरएनए बनाए जिसका उपयोग प्रोटीन निर्माण में न हो सके तो वह फालतू ही हुआ ना? लेकिन इस तरीके से नए जीन्स बन जाएं, यह समझ से परे था।

अब एक नए अध्ययन से पता चला है कि यह करिश्मा कैसे होता है कि डीएनए की फालतू शृंखला से बनने वाले आरएनए में ऐसी निपुणता पैदा हो जाती है कि वह केंद्रक से बाहर निकल जाता है। आरएनए का केंद्रक से बाहर निकलना उसके द्वारा प्रोटीन संश्लेषण की दिशा में पहला कदम होता है। इस अध्ययन के शोधकर्ताओं ने ऐसे 74 मानव प्रोटीन-निर्माता जीन्स उजागर किए हैं जो मनुष्य के चिम्पैंज़ी से अलग होने के बाद अस्तित्व में आए हैं। इनमें से कुछ जीन्स ने हमें ज़्यादा बड़े और जटिल मस्तिष्क प्रदान किए हैं। नेचर इकॉलॉजी एंड इवोल्यूशन पत्रिका में शोधकर्ताओं ने बताया है कि जब ये जीन्स चूहों वगैरह जैसे कृन्तक जीवों में जोड़े गए तो उनके मस्तिष्क अपेक्षाकृत बड़े और मानव-सदृश हो गए।

देखा जाए तो जीन्स द्वारा बनाए गए आरएनए में से कुछ तो स्वयं कुछ नियामक भूमिका निभाते हैं। ये केंद्रक से बाहर नहीं जाते। दूसरी और प्रोटीन का संश्लेषण करवाने वाले आरएनए (संदेशवाहक आरएनए) केंद्रक से निकलकर कोशिका द्रव्य में पहुंचते हैं और राइबोसोम की मदद से प्रोटीन का निर्माण करवाते हैं।

मामले की शुरुआत पेकिंग विश्वविद्यालय के जीव वैज्ञानिक चुआन-युन ली की इस खोज के साथ हुई थी कि मनुष्यों में कुछ प्रोटीन-निर्माता जीन्स रीसस बंदरों में पाए जाने वाले गैर-प्रोटीन निर्माता डीएनए खंडों से बहुत मिलते-जुलते होते हैं। तो सवाल उठा कि रीसस बंदरों के ये लगभग लक्ष्यविहीन डीएनए खंड मनुष्यों में प्रोटीन-निर्माता जीन्स कैसे बन गए?

फिर उन्हीं के छात्र ने ऐसे कुछ गैर-प्रोटीन निर्माता आरएनए को केंद्रक से बाहर निकलते देखा। इस खोज के बाद इन शोधकर्ताओं ने कंप्यूटर की मदद से यह पता लगाया कि ऐसे गैर-प्रोटीन निर्माता आरएनए जो केंद्रक से बाहर नहीं निकलते और जो केंद्रक से बाहर निकल पाते हैं, उनके बीच क्या अंतर हैं।

पूरी कवायद से पता चला कि अंतर डीएनए के उन खंडों में हैं जिन्हें U1 तत्व कहते हैं। जब ये U1 तत्व आरएनए में जुड़ जाते हैं तो वह आरएनए केंद्रक से बाहर निकलने सक्षम नहीं रह जाता। दूसरी ओर, प्रोटीन-निर्माता जीन्स के U1 तत्वों में ऐसे उत्परिवर्तन पाए जाते हैं कि वे आरएनए की केंद्रक से बाहर निकलने की क्षमता को प्रभावित नहीं करते। ये आरएनए बाहर कोशिका द्रव्य में पहुंचकर राइबोसोम की मदद से प्रोटीन बना देते हैं।

आगे खोजबीन के लिए ली के दल ने मनुष्य व चिम्पैंज़ी के ऐसे नवीन प्रोटीन-निर्माता जीन्स की तलाश की जो रीसस बंदरों में गैर-प्रोटीन निर्माता आरएनए के रूप में मौजूद थे। इसके अलावा उन्होंने U1 तत्व में वह उत्परिवर्तन भी खोज निकाला जो केंद्रक से बाहर निकलने के लिए ज़रूरी है। अंतत: उन्हें 45 मानव जीन्स और 29 मानव तथा चिम्पैंज़ी के साझा जीन्स मिले जो इस शर्त को पूरा करते हैं।

इतना होने के बाद उन्होंने इनमें से उन नौ जीन्स पर ध्यान केंद्रित किया जो मानव मस्तिष्क में सक्रिय होते हैं। वे देखना चाहते थे कि ये जीन्स क्या भूमिका निभाते हैं। उन्होंने इन जीन्स सहित और इनसे रहित कृत्रिम मस्तिष्क ऊतक (ऑर्गेनॉइड) विकसित किए। इसके आधार पर उन्होंने दो जीन्स पहचाने हैं जो मस्तिष्क को सामान्य से थोड़ा बड़ा बनाने में मदद करते हैं।

उन्होंने इनमें से एक जीन को चूहों में भी डालकर देखा और पाया कि उन चूहों का दिमाग सामान्य चूहों की अपेक्षा बड़ा हो गया। और तो और, उनमें कॉर्टेक्स भी बड़ा बना जो तर्क व भाषा के लिए ज़िम्मेदार होता है। एक अन्य जीन का भी ऐसा ही असर रहा और इस जीन से लैस चूहों का याददाश्त के परीक्षण में प्रदर्शन बेहतर रहा।

शोधकर्ताओं का कहना है कि मानव मस्तिष्क के विकास में कुछ सर्वथा नए जीन्स की भूमिका रही है जो प्रोटीन-निर्माता जीन्स में उत्परिवर्तनों से नहीं बल्कि गैर-प्रोटीन जीन्स के कारण बने हैं। इस ताज़ा खोज से नए जीन्स बनने की क्रियाविधि समझने में मदद मिलेगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://cdn.mos.cms.futurecdn.net/fqr4f7ibhZtVfMK9SQkpyh-1200-80.jp

आपका सूक्ष्मजीव संसार और आसपास के लोग

क ही घर में रहने वाले लोग सिर्फ एक छत साझा नहीं करते। हाल के एक अध्ययन से पता चला है कि आप अपने परिवार या साथ रहने वालों के साथ सूक्ष्मजीव भी साझा करते हैं। जितना लंबा समय आप उनके साथ रहते हैं सूक्ष्मजीव उतने ही अधिक समान होते जाते हैं।

नेचर पत्रिका में प्रकाशित विश्व भर के हज़ारों लोगों के आंत और मुंह में उपस्थित सूक्ष्मजीव संसार को लेकर इस अध्ययन से इस संभावना का संकेत मिलता है कि सूक्ष्मजीव संसार की गड़बड़ियों से सम्बंधित बीमारियां (जैसे कैंसर, मधुमेह और मोटापा) कुछ हद तक संक्रामक हो सकती हैं। व्यक्ति को उसका सूक्ष्मजीव संसार कैसे प्राप्त होता है, इसे लेकर अधिकांश अध्ययनों में व्यक्ति के सूक्ष्मजीवों से प्रथम संपर्क (जो मां के ज़रिए होता है) पर ध्यान केंद्रित किया जाता है। लेकिन इस सूक्ष्मजीव संसार का संघटन आजीवन बदलता रहता है। इस परिवर्तन को समझने के लिए मौजूदा अध्ययन में इटली के ट्रेंटो विश्वविद्यालय के शोधकर्ता मिरिया वैलेस कोलोमर और निकोला सेगाटा ने यह जानने का प्रयास किया कि एक व्यक्ति के जीवन में इस सूक्ष्मजीव संसार में कब और कैसे परिवर्तन आता है। उन्होंने दुनिया के विभिन्न क्षेत्रों से एकत्रित विष्ठा और लार के लगभग 10,000 नमूनों से प्राप्त डीएनए का विश्लेषण किया। इसके बाद शोधकर्ताओं ने परिवार के सदस्यों, जीवनसाथियों, साथ रहने वालों और अन्य सामाजिक संपर्क में आए लोगों की आंत और मुंह के नमूनों मे सूक्ष्मजीव संघटन का मिलान करके देखा।

अध्ययन में मां और बच्चों के सूक्ष्मजीव संसार में एक मज़बूत सम्बंध दिखा जो बच्चे के शुरुआती जीवन में सबसे अधिक था। शिशु के जीवन के पहले वर्ष के दौरान उसकी आंतों के आधे सूक्ष्मजीव मां के समान थे। उम्र बढ़ने के साथ सूक्ष्मजीवों में समानता कम होती गई लेकिन कभी पूरी तरह खत्म नहीं हुई। 50-85 वर्ष आयु तक भी व्यक्ति और मां की आंतों में समान सूक्ष्मजीव पाए गए।   

इसके अलावा परिवार के अन्य सदस्यों की आंत के सूक्ष्मजीव भी एक महत्वपूर्ण स्रोत थे। 4 वर्ष की आयु से बड़े बच्चों के सूक्ष्मजीव अपने पिता के साथ उतने ही समान थे जितने मां के साथ। दूर-दूर रहने वाले जुड़वां जितना समय दूर रहे उतने ही कम सूक्ष्मजीव साझा किए। ग्रामीण क्षेत्रों में अलग-अलग परिवारों के बीच भी सूक्ष्मजीवों की साझेदारी देखी गई।

यह भी देखा गया कि मां से प्राप्त सूक्ष्मजीव संसार का प्रभाव आंत के सूक्ष्मजीवों की अपेक्षा मुंह के सूक्ष्मजीवों में कम था। एक साथ रहने वाले गैर-रिश्तेदारों के मुंह में भी एक ही प्रकार के सूक्ष्मजीव पाए गए और जितने लंबे समय तक वे साथ रहे उतनी ही अधिक समानता देखी गई। पति-पत्नी अपने बच्चों और माता-पिता की तुलना में अधिक सूक्ष्मजीव साझा करते हैं।

विशेषज्ञ इस अध्ययन को काफी महत्वपूर्ण मानते हैं जिसकी मदद से यह देखा जा सकेगा कि गैर-रोगजनक माने जाने वाले सूक्ष्मजीव कैसे फैलते हैं और रोग उत्पन्न करने में क्या भूमिका निभाते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://experiencelife.lifetime.life/wp-content/uploads/2021/02/Building-Your-Microbiome.jpg

चाइनीज़ मांझा

न दिनों आसमान में परिंदों के अलावा पंतगें भी उड़ती नज़र आती हैं। कुछ जगहों पर तो मकर संक्रांति पर खास पतंगबाज़ी होती है। लेकिन पंतगबाज़ी के इस मौसम के साथ नायलोन मांझे से होने वाली दुर्घटनाओं की खबरें भी आ रही हैं। इसे बोलचाल में चायना मांझा भी कहते हैं, हालांकि इसका चीन से कोई सम्बंध नहीं है। इससे होने वाली दुर्घटनाओं के मद्देनज़र वर्ष 2017 में राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण (एनजीटी) ने इस पर प्रतिबंध लगा दिया था।

इसके नियमानुसार “नायलोन, प्लास्टिक या किसी भी अन्य सिंथेटिक सामग्री से बने पतंग के मांझे, जिसमें चाइनीज़ या चीनी मांझा के नाम से मिलने वाला मांझा भी शामिल है, तथा कांच, धातु या किसी अन्य धारदार सामग्री का लेप करके तेज़ किए गए पतंग उड़ाने की डोर की बिक्री, उत्पादन, भंडारण, आपूर्ति, आयात और उपयोग पर पूर्ण प्रतिबंध होगा।” पतंगबाज़ी की अनुमति केवल सूती धागे से होगी, जो धागे को तेज़ करने वाली किसी भी धारदार, धातु की या कांच की सामग्री या चिपकने वाली सामाग्री से मुक्त हो।

लेकिन फिर भी लोगों के बीच चाइनीज़ मांझा लोकप्रिय है। इसकी लोकप्रियता का मुख्य कारण इसकी कम कीमत है। यह कपास के मांझे से एक तिहाई सस्ता और कई गुना अधिक मज़बूत होता है (जो पंतग कटने से बचा देता है)।

चाइनीज़ मांझा पॉलीमर को पिघलाकर एकल-तंतु तार के रूप में बनाया जाता है। एकल-तंतु तार घातक होते हैं और इन्हें तोड़ना काफी मुश्किल होता है। धागे में पैनापन लाने के लिए इस पर कांच का लेप चढ़ाया जाता है। यदि तनी हुई स्थिति में हो तो इस तरह तैयार धारदार मांझा मनुष्यों और जानवरों को घायल कर सकता है और किया भी है।

वैसे, चाइनीज़ मांझा नाम सुनकर लगता है कि यह चीन से मंगाया जाता होगा। लेकिन वास्तव में चाइनीज़ मांझा स्वदेशी उत्पाद है। चाइनीज़ मांझा उत्तरप्रदेश के बरेली और उसके आसपास के गांवों और मध्य प्रदेश के कुछ क्षेत्रों में बनाया जाता है, जहां से इसे अधिकतर ऑनलाइन बेचा जाता है।

लेकिन इसके उपयोग से कई हादसों की खबरें आई हैं। इसलिए, कानून हो या न हो, सुरक्षित सूती मांझे का उपयोग करें, खुद सुरक्षित रहें, दूसरों को सुरक्षित रखें। इस मामले में कानून से ज़्यादा जागरूकता ज़रूरी है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://static.tnn.in/photo/msid-93342526/93342526.jpg

जीएम फसल व खाद्य हानिकारक क्यों हैं? – भारत डोगरा

न दिनों सरसों की जीएम फसल पर निर्णय को लेकर राष्ट्रीय स्तर पर बड़ा विवाद छिड़ा हुआ है। इससे पहले भी कभी बैंगन, कभी सरसों तो कभी कपास की जीएम फसलों पर तीखे विवाद होते रहे हैं। विशेषकर जीएम खाद्य फसलों का विरोध विश्व में बड़े स्तर पर हुआ है। विश्व स्तर पर देखें तो जीएम फसल व खाद्य काफी विवादों में घिरे रहे हैं और बहुत से देशों ने इन्हें प्रतिबंधित भी किया हुआ है।

जेनेटिक इंजीनियरिंग से प्राप्त फसलों को संक्षेप में जीएम (जेनेटिकली मॉडीफाइड) फसल कहते हैं। सामान्यत: एक ही प्रजाति की विभिन्न किस्मों से नई किस्में तैयार की जाती रही हैं। जैसे गेंहू की दो किस्मों से एक नई किस्म तैयार कर ली जाए। इन्हें संकर किस्में कहते हैं।

परंतु जेनेटिक इंजीनियरिंग में किसी भी पौधे या जंतु के जीन या आनुवंशिक गुण का प्रवेश किसी असम्बंधित पौधे या जीव में करवाया जाता है। जैसे आलू के जीन का प्रवेश टमाटर में करवाना या सूअर के जीन का प्रवेश टमाटर में करवाना या मछली के जीन का प्रवेश सोयाबीन में करवाना या मनुष्य के जीन का प्रवेश सूअर में करवाना आदि।

जीएम फसलों के विरोध का एक मुख्य आधार यह रहा है कि ये फसलें स्वास्थ्य व पर्यावरण की दृष्टि से सुरक्षित नहीं हैं। इसके अलावा, यह असर जेनेटिक प्रदूषण के माध्यम से अन्य सामान्य फसलों व पौधों में फैल सकता है। इस विचार को इंडिपेंडेंट साइन्स पैनल (स्वतंत्र विज्ञान मंच) ने बहुत सारगर्भित ढंग से व्यक्त किया है।

इस पैनल में शामिल विश्व के कई देशों के प्रतिष्ठित वैज्ञानिकों व विशेषज्ञों ने जीएम फसलों पर एक महत्वपूर्ण दस्तावेज़ तैयार किया है जिसके निष्कर्ष में उन्होंने कहा है, “जीएम फसलों के बारे में जिन लाभों का वायदा किया गया था वे प्राप्त नहीं हुए हैं तथा ये फसलें खेतों में बढ़ती समस्याएं उपस्थित कर रही हैं। अब इस बारे में व्यापक सहमति है कि इन फसलों का प्रसार होने पर ट्रान्सजेनिक प्रदूषण से बचा नहीं जा सकता है। अत: जीएम फसलों व गैर जीएम फसलों का सह अस्तित्व नहीं हो सकता है। सबसे महत्त्वपूर्ण यह है कि जीएम फसलों की सुरक्षा या सेफ्टी प्रमाणित नहीं हो सकी है। इसके विपरीत, ऐसे पर्याप्त प्रमाण प्राप्त हो चुके हैं जिनसे इन फसलों की सेफ्टी या सुरक्षा सम्बंधी गंभीर चिंताएं उत्पन्न होती हैं। यदि इनकी (खतरों की) उपेक्षा की गई तो स्वास्थ्य व पर्यावरण की अपूरणीय क्षति होगी, जिसे ठीक नहीं किया जा सकता है। जीएम फसलों को अब दृढ़तापूर्वक अस्वीकार कर देना चाहिए।”

इन फसलों से जुड़े खतरे का सबसे महत्त्वपूर्ण पक्ष कई वैज्ञानिकों ने यह बताया है कि जो खतरे पर्यावरण में फैलेंगे उन पर हमारा नियंत्रण नहीं रह जाएगा और घातक दुष्परिणाम सामने आने पर भी हम इनकी मरम्मत नहीं कर पाएंगे। जेनेटिक प्रदूषण का मूल चरित्र ही ऐसा है। वायु प्रदूषण व जल प्रदूषण की गंभीरता पता चलने पर उनके कारणों का पता लगाकर उन्हें नियंत्रित कर सकते हैं, पर जेनेटिक प्रदूषण जो पर्यावरण में चला गया वह हमारे नियंत्रण से बाहर हो जाता है।

विवाद का एक महत्वपूर्ण मुद्दा यह बन रहा है कि वैज्ञानिकों के जो विचार सही बहस के लिए सामने आने चाहिए थे उन्हें दबाया गया है। प्राय: जीएम फसलों के समर्थकों द्वारा यह कहा गया है कि संयुक्त राज्य अमेरिका में जो अनेक जीएम फसलों को स्वीकृति मिली, वह काफी सोच-समझकर ही दी गई होगी। लेकिन हाल में ऐसे प्रमाण सामने आए हैं कि यह स्वीकृति बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के दबाव में दी गई थी तथा इनके लिए सरकारी तंत्र द्वारा अपने वैज्ञानिकों की जीएम फसलों सम्बंधी चेतावनियों को दबाया गया था।

इस विषय पर एक बहुत चर्चित पुस्तक है जैफ्री एम. स्मिथ की जेनेटिक रुले। कई प्रतिष्ठित अंतर्राष्ट्रीय विशेषज्ञों ने इस पुस्तक को अति मूल्यवान बताया है। इस पुस्तक में स्मिथ ने बताया है कि संयुक्त राज्य अमेरिका की सरकार के खाद्य व औषधि प्रशासन के लिए जो तकनीकी विशेषज्ञ व वैज्ञानिक कार्य करते रहे हैं, वे वर्षों से जीएम उत्पादों से सम्बंधित विभिन्न गंभीर संभावित खतरों के बारे में चेतावनी देते रहे थे और इसके लिए ज़रूरी अनुसंधान करवाने की ज़रूरत बताते रहे थे। यह काफी देर बाद पता चला कि जीएम उत्पादों पर इस तरह की जो प्रतिकूल राय होती थी, उसे यह सरकारी एजेंसी प्राय: दबा देती थी।

जब वर्ष 1992 में खाद्य व औषधि प्रशासन ने जीएम उत्पादों के पक्ष में नीति बनाई तो इस प्रतिकूल वैज्ञानिक राय को गोपनीय रखा गया। पर सात वर्ष बाद जब इस सरकारी एजेंसी के गोपनीय रिकार्ड को एक अदालती मुकदमे के कारण खुला करना पड़ा व 44,000 पृष्ठों में फैली नई जानकारी सामने आई तो पता चला कि वैज्ञानिकों की जो राय जीएम फसलों व उत्पादों के विरुद्ध होती थी, उसे वैज्ञानिकों के विरोध के बावजूद नीतिगत दस्तावेज़ों से हटा दिया जाता था। इन दस्तावेज़ों से यह भी पता चला कि खाद्य व औषधि प्रशासन को राष्ट्रपति के कार्यालय से आदेश थे कि जीएम फसलों को आगे बढ़ाया जाए।

इसी पुस्तक में जैफ्री स्मिथ ने ब्रिटेन का भी एक उदाहरण दिया है जहां वैज्ञानिकों के अनुसंधान से पता चला था कि विकसित किए जा रहे एक जीएम आलू की किस्म के प्रयोगों के दौरान चूहों के स्वास्थ्य को व्यापक क्षति देखी गई थी। जब यह परिणाम बताया जाने लगा तो सरकार ने यह प्रोजेक्ट ही बंद कर दिया, उसके प्रमुख वैज्ञानिक की छुट्टी कर दी व उसकी अनुसंधान टीम छिन्न-भिन्न कर दी गई।

ऐसे अनेक उदाहरण उपलब्ध हैं जहां प्रतिष्ठित वैज्ञानिकों को केवल इस कारण परेशान किया गया या उनका अनुसंधान बाधित किया गया क्योंकि उनके अनुसंधान से जीएम फसलों के खतरे पता चलने लगे थे। इन कुप्रयासों के बावजूद निष्ठावान वैज्ञानिकों के अथक प्रयासों से जीएम फसलों के गंभीर खतरों को बताने वाले दर्जनों अध्ययन उपलब्ध हैं। जैफरी एम. स्मिथ की पुस्तक के 300 से अधिक पृष्ठों में ऐसे दर्जनों अध्ययनों का सार-संक्षेप या परिचय उपलब्ध है। इनमें चूहों पर हुए अनुसंधानों में पेट, लिवर, आंतों जैसे विभिन्न अंगों के बुरी तरह क्षतिग्रस्त होने की चर्चा है। जीएम फसल या उत्पाद खाने वाले पशु-पक्षियों के मरने या बीमार होने का उल्लेख है तथा जेनेटिक उत्पादों से मनुष्यों में भी गंभीर स्वास्थ्य समस्याओं का वर्णन है।

जीएम फसलों के अनेक खतरों के बढ़ते उदाहरणों को देखते हुए इन फसलों के समर्थक बस एक बात पर अड़ जाते हैं कि इनसे उत्पादकता बढ़ेगी। जीएम फसलों का सबसे अधिक प्रसार संयुक्त राज्य अमेरिका में हुआ है और यहां फ्रेंड्स ऑफ अर्थ के एक विस्तृत अध्ययन ने बता दिया है कि जीएम फसलों को उत्पादकता बढ़ाने में कोई सफलता नहीं मिली है। इसी तरह भारत में बीटी कॉटन फसलों के कुछ अध्ययनों से भी यही बात सामने आई है। बीटी कॉटन का कीटनाशक उपयोग कम करने का दावा ज़मीनी अनुभव से मेल नहीं खाता है।

कैंटरबरी विश्वविद्यालय (न्यूज़ीलैंड) के इस विषय के विशेषज्ञ डॉ. जैक हनीमैन ने लिखा है कि कुछ बड़ी कंपनियों ने ऊंची उत्पादकता वाले बीजों पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया है व इन बीजों को जीएम रूप में ही उपलब्ध करवाती हैं। ऊंची उत्पादकता मिलती है तो यह इन बीजों के अपने गुणों के कारण मिलती है, इन पर हुई जेनेटिक इंजीनियरिंग के कारण नहीं। भारत में जीएम फसलों के विस्तृत अध्ययनों से जुड़े रहे पी. वी. सतीश ने हाल ही में लिखा कि आंध्र प्रदेश में उनके अध्ययनों से बीटी कॉटन की विभिन्न स्तरों पर विफलता की जानकारी मिली। सैकड़ों भेड़ें बीटी कॉटन खेतों में चरने के बाद मर गईं। लेकिन बीज का केंद्रीकरण करके ऐसी स्थिति बना दी गई है जिसमें ऐसा संकरित बीज बाज़ार में मिलना कठिन हो गया है जो जेनेटिक इंजीनियरिंग से न बना हो।

जेनेटिक फसलों के प्रसार से खरपतवार तेज़ी से फैल सकते हैं और सामान्य फसलों में जेनेटिक प्रदूषण का बहुत प्रतिकूल असर हो सकता है। दुनिया के कई देश ऐसे खाद्य चाहते हैं जो जेनेटिक इंजीनियरिंग के असर से मुक्त हों। यदि हमारे यहां जीएम फसलों का प्रसार होगा तो इन देशों के बाज़ार हमसे छिन जाएंगे।

कृषि व खाद्य क्षेत्र में जेनेटिक इंजीनियरिंग की टेक्नॉलॉजी मात्र लगभग छ-सात बहुराष्ट्रीय कंपनियों (व उनकी सहयोगी या उप-कंपनियों) के हाथों में केंद्रित है। इन कंपनियों का मूल आधार पश्चिमी देशों व विशेषकर संयुक्त राज्य अमेरिका में है। इनका उद्देश्य जेनेटिक इंजीनियरिंग के माध्यम से विश्व कृषि व खाद्य व्यवस्था पर ऐसा नियंत्रण स्थापित करना है जैसा विश्व इतिहास में आज तक संभव नहीं हुआ है।

इस षड्यंत्र के विरुद्ध सुप्रीम कोर्ट में भी लंबी लड़ाई लड़ी गई है। सुप्रीम कोर्ट ने जैव प्रौद्योगिकी के ख्याति प्राप्त वैज्ञानिक प्रो. पुष्प भार्गव (अब नहीं रहे) को जेनेटिक इंजीनियरिंग एप्रूवल कमेटी के कार्य पर निगरानी रखने के लिए नियुक्त किया था। पुष्प भार्गव सेन्टर फार सेल्यूलर एंड मालीक्यूलर बॉयोलॉजी, हैदराबाद के पूर्व निदेशक व नेशनल नॉलेज कमीशन के उपाध्यक्ष रहे थे।

ट्रिब्यून में प्रकाशित अपने बयान में विश्व ख्याति प्राप्त इस वैज्ञानिक ने देश को चेतावनी दी थी कि चंद शक्तिशाली व्यक्तियों द्वारा अपने व बहुराष्ट्रीय कंपनियों (विशेषकर अमेरिकी) के हितों को जेनेटिक रूप से परिवर्तित फसलों के माध्यम से आगे बढ़ाने के प्रयासों से सावधान रहें। उन्होंने इस चेतावनी में आगे कहा था कि इस प्रयास का अंतिम लक्ष्य भारतीय कृषि व खाद्य उत्पादन पर नियंत्रण प्राप्त करना है।

हिंदुस्तान टाइम्स के एक लेख में प्रो. भार्गव ने लिखा था कि लगभग 500 शोध पत्रों ने मनुष्यों, अन्य जीव-जंतुओं व पौधों के स्वास्थ्य पर जीएम फसलों के हानिकारक असर को स्थापित किया है और ये सभी शोध पत्र ऐसे वैज्ञानिकों के हैं जिनकी ईमानदारी पर कोई सवाल नहीं उठा है। उन्होंने आगे लिखा था कि दूसरी ओर जीएम फसलों का समर्थन करने वाले लगभग सभी पेपर या प्रकाशन उन वैज्ञानिकों के हैं जिन्होंने हितों का टकराव स्वीकार किया है या जिनकी विश्वसनीयता व ईमानदारी के बारे में सवाल उठ सकते हैं।

प्राय: जीएम फसलों के समर्थक कहते हैं कि वैज्ञानिकों का अधिक समर्थन जीएम फसलों को मिला है पर प्रो. भार्गव ने इस विषय पर समस्त अनुसंधान का आकलन कर यह स्पष्ट बता दिया कि अधिकतम निष्पक्ष वैज्ञानिकों ने जीएम फसलों का विरोध ही किया है। साथ में उन्होंने यह भी बताया कि जिन वैज्ञानिकों ने समर्थन दिया है उनमें से अनेक किसी न किसी स्तर पर जीएम बीज बेचने वाली कंपनियों या इस तरह के निहित स्वार्थों से जुड़े रहे हैं या प्रभावित रहे हैं।

जेनेटिक इंजीनियरिंग का प्रचार कई बार इस तरह किया जाता है कि किसी विशिष्ट गुण वाले जीन का ठीक-ठीक पता लगा लिया गया है व इसे दूसरे जीव में पंहुचा कर उसमें वही गुण लाया जा सकता है। किंतु हकीकत इससे अलग व कहीं अधिक पेचीदा है।

कोई भी जीन केवल अपने स्तर पर या अलग से कार्य नहीं करता है अपितु बहुत से जीनों के एक जटिल समूह के एक हिस्से के रूप में कार्य करता है। इन असंख्य अन्य जीन्स से मिलकर व उनकी परस्पर निर्भरता में ही जीन के कार्य को देखना-समझना चाहिए, अलग-थलग नहीं। एक ही जीन का अलग-अलग जीवों में काफी भिन्न असर होगा, क्योंकि उनमें जो अन्य जीन हैं वे भिन्न हैं। विशेषकर जब एक जीव के जीन को काफी अलग तरह के जीव में पंहुचाया जाएगा, जैसे मनुष्य के जीन को सूअर में, तो इसके काफी नए व अप्रत्याशित परिणाम होने की संभावना है।

इतना ही नहीं, जीन समूह का किसी जीव की अन्य शारीरिक रचना व बाहरी पर्यावरण से भी सम्बंध होता है। जिन जीवों में वैज्ञानिक विशेष जीन पहुंचाना चाह रहे हैं, उनसे अन्य जीवों में भी इन जीन्स के पंहुचने की संभावना रहती है जिसके अनेक अप्रत्याशित परिणाम व खतरे हो सकते हैं। बाहरी पर्यावरण जीन के असर को बदल सकता है व जीन बाहरी पर्यावरण को इस तरह प्रभावित कर सकता है जिसकी संभावना जेनेटिक इंजीनियरिंग का उपयोग करने वालों को नहीं थी। एक जीव के जीन दूसरे जीव में पंहुचाने के लिए वैज्ञानिक जिन तरीकों का उपयोग करते हैं उनसे ऐसे खतरों की आशंका और बढ़ जाती है।

जेनेटिक इंजीनियरिंग के अधिकांश महत्वपूर्ण उत्पादों के पेटेंट बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के पास हैं तथा वे अपने मुनाफे को अधिकतम करने के लिए इस तकनीक का जैसा उपयोग करती हैं, उससे इस तकनीक के खतरे और बढ़ जाते हैं।

अत: जीएम फसलों, विशेषकर खाद्य फसलों व उनसे प्राप्त खाद्यों, का प्रवेश उचित नहीं है; इन पर प्रतिबंध लगना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://thelogicalindian.com/h-upload/2020/01/27/165039-gm-seeds.jpg

क्या आप दीर्घ कोविड से पीड़ित हैं?

कोविड-19 से उबरने के बाद भी कई लोगों को हफ्तों या महीनों तक थकान और सिरदर्द जैसी शिकायतें हो रही हैं। ऐसी स्थिति में कई लोग असमंजस में हैं कि वे पूरी तरह ठीक हो पाएंगे या नहीं। इस स्थिति को दीर्घ-कोविड का नाम दिया गया है।

एक हालिया अध्ययन में स्कॉटलैंड के शोधकर्ताओं ने 31,000 से अधिक लक्षण-सहित संक्रमित लोगों का सर्वेक्षण किया। 42 प्रतिशत लोग संक्रमण के 6 से 18 महीने के बाद भी पूरी तरह से ठीक नहीं हुए थे। सवाल यह है कि ऐसा कब तक चलेगा या क्या कभी वे ठीक नहीं होंगे।

दरअसल, इसका अभी कोई ठोस उत्तर हमारे पास नहीं है लेकिन यह शोध का एक महत्वपूर्ण विषय है। हारवर्ड मेडिकल स्कूल के न्यूरोसाइंटिस्ट माइकल वैनएल्ज़कर के अनुसार दीर्घ कोविड की पुष्टि करने के लिए अभी तक न तो कोई नैदानिक परीक्षण है और न ही यह पता है कि यह कौन-से लक्षण पैदा करता है।

एक महत्वपूर्ण मुद्दा यह है कि कोविड से कुछ लोग तो पूरी तरह ठीक हो गए हैं जबकि कुछ लोगों में दीर्घ कोविड की समस्या बनी हुई है। 

क्या है दीर्घ कोविड?

वास्तव में अभी तक इसके लक्षण, इसके निदान से पहले बीमार रहने की मियाद और इस समस्या का सामना कर रहे लोगों की संख्या का पता लगाने के लिए कोई चिकित्सीय सहमति नहीं बन पाई है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार कोविड-उपरांत स्थिति तब कही जाएगी जब कोविड संक्रमण के बाद कम-से-कम तीन महीने तक लक्षण बने रहें। दूसरी ओर, यू. एस. सेंटर्स फॉर डिसीज़ कंट्रोल एंड प्रिवेंशन ने इस अवधि को चार सप्ताह रखा है। इसे पोस्ट-एक्यूट सीक्वल ऑफ सार्स-कोव-2 (पीएएससी), स्थायी कोविड, दीर्घकालिक कोविड जैसे कई अन्य नाम भी दिए गए हैं।     

कई बड़े-बड़े अध्ययनों के बाद भी स्पष्ट नहीं है कि कितने लोग दीर्घकालिक लक्षणों से पीड़ित हैं। जर्मनी में किए गए एक अध्ययन में 96 संभावित लक्षणों की पहचान की गई थी और ये लक्षण उन लोगों में पाए गए थे जिनको पूर्व में संक्रमण हुआ है। युवा लोगों में आम तौर पर थकान, खांसी, गले और सीने में दर्द, सिरदर्द, बुखार, पेटदर्द, चिंता और अवसाद जैसे लक्षण देखने को मिले हैं जबकि वयस्कों में गंध और स्वाद में बदलाव, बुखार, सांस लेने में परेशानी, खांसी, गले और सीने में दर्द, बालों का झड़ना, थकान और सिरदर्द जैसे लक्षण मिले हैं।

स्कॉटलैंड में किए गए एक अध्ययन में सिरदर्द, स्वाद और गंध की कमी, थकान, दिल की अनियमित धड़कन, कब्ज, सांस फूलना, जोड़ों में दर्द, चक्कर आना और अवसाद जैसे 26 लक्षणों पर विचार किया गया था। लेकिन पेचीदगी यह रही कि कोविड परीक्षण में पॉज़िटिव न आने वाले लोगों में भी ऐसे कई लक्षण देखे गए।

स्कॉटलैंड अध्ययन में 42 प्रतिशत लोगों में हल्के-फुल्के लक्षण देखने को मिले जबकि 6 प्रतिशत लोगों ने बताया कि वे अभी तक पूरी तरह ठीक नहीं हुए हैं। जर्मन शोधकर्ताओं ने एक अध्ययन में यह दावा किया कि कोविड परीक्षण में पॉज़िटिव न आने वाले लोगों की तुलना में कोविड संक्रमित वयस्कों, बच्चों और किशोरों में 30 प्रतिशत अधिक लोगों में तीन महीनों तक कोविड लक्षण होने की संभावना है। सीडीसी द्वारा किए गए सर्वेक्षण में 41,000 में से 14 प्रतिशत लोगों ने कोविड संक्रमण के तीन महीने बाद भी कोविड के लक्षण होने की बात बताई है। इन सभी अध्ययनों से यह स्पष्ट है कि हर पांच में से एक से लेकर हर 20 में से एक व्यक्ति में दीर्घ कोविड के लक्षण देखने को मिल रहे हैं।  

सुधार की संभावना

अभी तक हमारे पास ऐसा कोई तरीका नहीं है जिससे यह कहा जा सके कि दीर्घ-कोविड कितने दिन चलेगा। माउंट सिनाई सेंटर फॉर पोस्ट-कोविड केयर में आने वाले अधिकांश रोगियों में तो काफी सुधार देखने को मिला लेकिन 10 प्रतिशत लोगों में कोई सुधार नहीं दिखा। 

इनमें से कुछ लोग मायएलजिक एंसेफेलोमाइलाइटिस (एमई/सीएफएस) या स्थायी थकान सिंड्रोम से ग्रसित हो सकते हैं। यह स्थिति विभिन्न वायरल संक्रमणों के बाद उभरती है। वैनएल्ज़कर के अनुसार एपस्टाइन-बार नामक वायरस से ग्रसित 10 प्रतिशत लोग एमई/सीएसएफ से ग्रसित हुए थे। उन्हें कोविड रोगियों में भी इसी तरह की समस्या का संदेह है। अलबत्ता, ऐसे भी लोग हैं जिनकी कोविड सम्बंधी समस्याएं पूरी तरह खत्म हो गई हैं।

कारण

विशेषज्ञों के अनुसार वर्तमान लक्षण वाले लोगों में इसके कई संभावित कारण हो सकते हैं और उपचार करने के लिए कारणों को समझना ज़रूरी है। एक शोध के अनुसार सार्स-कोव-2 वायरस कई लोगों के शरीर में बस जाता है और कोविड से उबरने के बाद भी लंबे समय तक शरीर में उपस्थित रहता है। 2020 और 2021 में कोविड से मृत 44 लोगों पर किए गए अध्ययन में मस्तिष्क, हृदय और आंतों सहित कई अंगों में सात महीनों से अधिक समय तक सार्स-कोव-2 के स्पाइक प्रोटीन के साक्ष्य मिले थे। ये साक्ष्य अलक्षणी लोगों में भी पाए गए। यह भी देखा गया कि कुछ लोगों में वायरस तीन महीनों तक अपनी प्रतिलिपि बनाता रहा।

वायरस की उपस्थिति रक्त परीक्षणों में नहीं मिलती। इसके लिए दीर्घ-कोविड रोगियों की आंतों और फेफड़ों से नमूने एकत्रित कर वायरस के ठिकानों का पता लगाना होगा।          

शरीर में वायरस के ठिकानों और तकलीफों के संभावित कारणों का पता चलने पर उपचार में मदद मिलेगी। उदारहण के लिए, गंभीर निमोनिया जैसे लक्षणों वाले रोगियों को सांस सम्बंधी पुनर्वास से लाभ हो सकता है जबकि इस तरह का उपचार एमई/सीएफएस वाले रोगियों के लिए घातक हो सकता है। लगातार कोविड के लक्षण वाले रोगियों को एंटीवायरल उपचार से काफी मदद मिल सकती है लेकिन दीर्घ कोविड वाले रोगियों को इस तरह का उपचार देना उचित नहीं है।      

क्या करें

विशेषज्ञों की राय है कि यदि लक्षण चार सप्ताह से अधिक समय तक बने रहते हैं तो डॉक्टर से सलाह लेना बेहतर है। शुरुआत में कुछ बुनियादी जांचों के साथ हृदय और फेफड़ों की जांच ज़रूरी है। यदि ये लक्षण 12 हफ्तों से अधिक समय तक बने रहते हैं तब विशेषज्ञ उच्च स्तरीय जांच के साथ अधिक आक्रामक इलाज की सलाह देते हैं। चूंकि इस महामारी के दौरान सभी ने एक मुश्किल दौर झेला है इसलिए मानसिक स्वास्थ्य की जांच कराना भी ज़रूरी है। एमई/सीएफएस की जानकारी सहायक हो सकती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.brainandlife.org/siteassets/current-issue/2022/22-decjan/long-covid-main.jpg