यह बात तो सभी कहते हैं कि जैसा आपका खानपान होगा, वैसा आपका स्वास्थ्य होगा। लेकिन हाल ही में नेचर पत्रिका में प्रकाशित अध्ययन बताता है कि पुत्र-जन्म से पूर्व पिता का खानपान पुत्रों की चयापचय क्षमता को प्रभावित कर सकता है।
अध्ययनों से यह तो पता था कि माताएं अपनी संतानों में चयापचय सम्बंधी लक्षण हस्तांतरित कर सकती हैं। फिर, 2016 में युनिवर्सिटी ऑफ ऊटा स्कूल ऑफ मेडिसिन में प्रजनन-जीवविज्ञानी क्याई चेन और उनकी टीम ने उच्च वसायुक्त आहार करने वाले नर चूहों की संतानों में चयापचय विकार की समस्या देखी थी। साथ ही पाया था कि माता-पिता के आहार का प्रभाव संतान के जीनोम में नहीं बल्कि उनके ‘एपिजीनोम’ में परिवर्तन के कारण होता है। एपिजीनोम जीन अभिव्यक्ति, विकास, ऊतक विभेदन को विनियमित करने में और जम्पिंग जीन को शांत करने में भूमिका निभाते हैं। जीनोम के विपरीत एपिजीनोम में पर्यावरणीय परिस्थितियों के चलते परिवर्तन हो सकते हैं।
हालिया अध्ययन में हेल्महोल्ट्ज़ सेंटर, म्यूनिख के शोधकर्ता राफेल टेपरिनो ने नर चूहों को दो हफ्ते तक उच्च वसा वाला आहार खिलाया। पाया गया कि इस आहार के कारण शुक्राणु के माइटोकॉन्ड्रिया में ट्रांसफर आरएनए (tRNA) में परिवर्तन हुए थे। माइटोकॉण्ड्रिय़ा कोशिका को ऊर्जा देते हैं। आहार परिवर्तन का असर माइटोकॉन्ड्रिया के tRNA पर देखा गया जो डीएनए से प्रोटीन में बनने की प्रक्रिया के दौरान बनते हैं।
खासकर, उच्च वसायुक्त भोजन करने वाले चूहों के शुक्राणुओं में tRNA के अंश सामान्य चूहों की अपेक्षा छोटे थे। ऐसे RNA कुछ माइटोकॉन्ड्रियल जीन की गतिविधि को बढ़ा या घटा सकते हैं।
ये परिणाम ठीक ही लगते हैं क्योंकि ऐसा देखा गया है कि उच्च वसा वाला आहार माइटोकॉन्ड्रिया में तनाव पैदा करता है, नतीजतन माइटोकॉन्ड्रिया अधिक ऊर्जा उत्पन्न करने के लिए अधिक RNA बनाते हैं। माइटोकॉन्ड्रिया की यह प्रतिक्रिया एक सौदे की तरह होती है। माइटोकॉन्ड्रियल गतिविधि में वृद्धि शुक्राणु को अंडाणु तक पहुंचने के लिए पर्याप्त ऊर्जा देती है, लेकिन साथ में अतिरिक्त माइटोकॉन्ड्रियल RNA भी शुक्राणु से भ्रूण में चले जाते हैं, जिससे भ्रूण को मिलने वाली जानकारी बदल जाती है और उसके स्वास्थ्य पर असर पड़ता है।
अगले चरण में शोधकर्ताओं ने उन चूहों के स्वास्थ्य को देखा जिनके पिता अधिक वसायुक्त भोजन खाते थे। पाया गया कि चूहा संतानों में से लगभग 30 प्रतिशत में चयापचय विकार थे। 3431 मानव संतानों के आंकड़ों के विश्लेषण में पता चला कि उन मानव संतानों में चयापचयी विकार अधिक थे जिनके पिता का वज़न अधिक था।
प्रयोगों से यह भी पता चला कि उच्च वसायुक्त आहार करने वाले चूहों की संतानों में अपने पिता से बहुत अधिक माइटोकॉन्ड्रियल tRNA आ गए थे।
हालांकि इस अध्ययन की एक तकनीकी सीमा है: अनुक्रमण विधि केवल सम्पूर्ण RNA का पता लगा पाती है। इस वजह से, अध्ययन में यह पता नहीं चल सका कि RNA के अंश पिता से भ्रूण में स्थानांतरित हुए थे या नहीं। शोधकर्ता यह मानकर चल रहे हैं कि RNA के अंश भी स्थानांतरित हुए होंगे।
मज़ेदार बात यह है कि चयापचय सम्बंधी समस्याएं पिता से केवल पुत्रों को मिली हैं, पुत्रियों को नहीं। इससे लगता है कि X और Y शुक्राणु में अलग-अलग जानकारी होती है। बहरहाल, X और Y शुक्राणु में ऐसी भिन्नता क्यों होती है, आगे के अध्ययनों के लिए यह एक अच्छा प्रश्न है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://media.nature.com/lw767/magazine-assets/d41586-024-01623-2/d41586-024-01623-2_27168558.jpg
पूर्वी रेलपथ पूर्वोत्तर भारत, पश्चिम बंगाल और उड़ीसा को दक्षिणी राज्यों से जोड़ने वाली जीवन रेखा है। इस रेलमार्ग पर सफर करते हुए कई सुंदर नज़ारे दिखाई देते हैं; ट्रेन 900 वर्ग कि.मी. में फैली चिलिका झील के किनारे से होकर भी गुज़रती है।
इस रेलमार्ग से दक्षिण भारत की ओर यात्रा करते समय आप एक और दिलचस्प बात गौर करेंगे – कई यात्री दक्षिण भारतीय शहरों में स्थित नेत्र अस्पतालों में जा रहे होते हैं। दुनिया के कुल नेत्रहीन लोगों में से लगभग एक-चौथाई भारत में रहते हैं। इस रूट की ट्रेनों में गंभीर समस्याओं वाले मरीज़ और उनके साथ चिंतित रिश्तेदार दिखना एक आम दृश्य हैं; ये चेन्नई और हैदराबाद जैसे शहरों के प्रतिष्ठित और कम-खर्चीले या मुफ्त इलाज वाले नेत्र अस्पतालों की तलाश में जा रहे होते हैं।
पर्यावरणीयलागत
लेकिन ग्रामीण क्षेत्र से इन नेत्र विशेषज्ञों के पास आने-जाने का खर्चा और असुविधा इसमें एक बड़ी बाधा हो सकती है। एल. वी. प्रसाद आई इंस्टीट्यूट की बीएमसीऑप्थेल्मोलॉजी पत्रिका में प्रकाशित एक हालिया अध्ययन बताता है कि किसी ग्रामीण व्यक्ति को प्राथमिक उपचार पाने के लिए (कम से कम) 80 कि.मी. की यात्रा करनी पड़ती है। उन्नत चिकित्सा उपकरण और विशेषज्ञता वाले तृतीयक देखभाल केंद्र तक आने के लिए तो यह यात्रा और भी लंबी हो सकती है। एल. वी. प्रसाद आई इंस्टीट्यूट में आने वाले लगभग आधे मरीज़ ट्रेन से औसतन 1666 कि.मी. की यात्रा करके पहुंचते हैं। यही स्थिति चेन्नई के शंकर नेत्रालय और मदुरै के अरविंद आई हॉस्पिटल की भी है।
इसमें शामिल खर्चे के इतर यह पूरी यात्रा कार्बन पदचिन्ह छोड़ने में भी योगदान देती है। भारत के कुल कार्बन पदचिन्ह में लगभग 5 प्रतिशत योगदान स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र का है, यानी यह हिस्सा इस क्षेत्र द्वारा प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उत्सर्जित ग्रीनहाउस गैसों की मात्रा है। जैसे-जैसे हमारा अधिकाधिक ज़ोर हरित (ऊर्जा अपनाने) होने और ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने पर जा रहा है, सुदूर चिकित्सा अपनी जगह बनाती जा रही है। सुदूर चिकित्सा में चिकित्सक दूर बैठे-बैठे रोगियों का निदान, उपचार और निगरानी करते हैं।
सुदूरनेत्रचिकित्सा
सुदूर नेत्र चिकित्सा के उपयोग के चलते नेत्र चिकित्सा एक बड़ी आबादी तक और कम सेवा-सुविधा वाले क्षेत्रों तक पहुंचने लगी है। सुदूर नेत्र चिकित्सा का एक गुप्त लाभ यह है कि नेत्र रोगों का शीघ्र पता लगाने, निदान करने और इन बीमारियों की प्रगति पर नज़र रखने में इमेजिंग प्रणालियां अहम हैं। इनमें से अधिकांश प्रणालियों में विशेष उपकरणों द्वारा आंख की आंतरिक सतह की तस्वीरें ली जाती हैं। फिर दूर बैठे नेत्र विशेषज्ञ छवियों का सावधानीपूर्वक अध्ययन करके निदान करते हैं।
मसलन, आंख के पीछे स्थित रेटिना की तस्वीरें फंडस फोटोग्राफी की मदद से ली जाती है, जो ग्लूकोमा और डायबिटिक रेटिनोपैथी जैसी स्थितियों का पता लगाने में सहायता करती है। इसी तरह, ऑप्टिकल कोहरेंस टोमोग्राफी से प्राप्त तस्वीरें रेटिना की परतों का ब्यौरा देती हैं और रेटिना डिटेचमेंट जैसी स्थितियों की निगरानी में खास उपयोगी होती हैं।
अधुनातन विकास की मदद से इस तरह के उपकरणों के आकार छोटे हो रहे हैं। कुछ मामलों में, ये उपकरण मोबाइल फोन के कैमरों से जुड़ जाते हैं। इससे इन उपकरणों का ग्रामीण लोगों के नज़दीकी प्राथमिक केंद्रों में उपयोग करना आसान हो जाएगा। अन्य तकनीकों (जैसे 5G सेवाओं) में प्रगति और उनकी उपलब्धता मरीज़ों और उनके दूरस्थ विशेषज्ञों के बीच संचार-संवाद को बेहतर कर सकती हैं।
सुदूर चिकित्सा ने चिकित्सा देखभाल के कई अन्य क्षेत्रों में भी प्रभाव छोड़ा है। पहनने योग्य उपकरण, जिनमें सबसे अधिक स्मार्टवॉच पहने हुए लोग दिखते हैं, के डैटा को निरंतर देखभालकर्ताओं/चिकित्सकों को भेजने के लिए सेट किया जा सकता है। जैसे स्मार्टवॉच से प्राप्त हृदय गति और रक्तचाप सम्बंधी डैटा को उन हृदय चिकित्सकों को भेजने के लिए सेट किया जा सकता है, जो इन गड़बड़ियों की निगरानी करते हैं।
तो, अगली बार आपको संदेह हो कि परिवार के किसी सदस्य को कंजक्टीवाइटिस है तो आप सुदूर परामर्श लेकर इसकी पुष्टि कर सकते हैं या अपनी शंका दूर कर सकते हैं! (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://th-i.thgim.com/public/news/national/aomlzv/article68263548.ece/alternates/LANDSCAPE_1200/iStock-1070605444.jpg
हाल ही में साइंस एडवांसेज में प्रकाशित एक अध्ययन ने तेज़ी से वज़न घटाने और चयापचय लाभों के लिए जाने-माने कीटोजेनिक आहार के छिपे हुए जोखिम को उजागर किया है। शोधकर्ताओं ने उच्च वसा और अत्यधिक कम कार्बोहाइड्रेट पर आधारित इस आहार से चूहों के अंगों में सेनेसेंट (वृद्ध) कोशिकाओं का संचय होते देखा है। सेनेसेंट कोशिकाएं वे कोशिकाएं होती हैं जो विभाजन करना बंद कर देती हैं लेकिन मरती भी नहीं। आम तौर पर हमारा प्रतिरक्षा तंत्र इन्हें साफ कर देता है लेकिन उम्र बढ़ने के साथ प्रतिरक्षा तंत्र अपना काम भलीभांति नहीं कर पाता और जमा होने वाली सेनेसेंट कोशिकाएं ऊतक के कार्य को बाधित कर सकती हैं और विभिन्न स्वास्थ्य समस्याओं को भी जन्म दे सकती हैं।
वास्तव में, कीटोजेनिक आहार शरीर को कार्बोहाइड्रेट की बजाय वसा का उपयोग करने के लिए मजबूर करता है, जिससे कीटोन नामक अणु उत्पन्न होते हैं। आम तौर पर कीटो आहार लेने वाले लोग अपनी कैलोरी का 70 से 80 प्रतिशत वसा से और केवल 5 से 10 प्रतिशत कार्बोहाइड्रेट से प्राप्त करते हैं। इसके विपरीत, एक औसत अमेरिकी के आहार में लगभग 36 प्रतिशत वसा और 46 प्रतिशत कार्बोहाइड्रेट होता है।
वैसे तो यह आहार मूल रूप से 1920 के दशक में बच्चों में मिर्गी के इलाज के लिए विकसित किया गया था लेकिन यह वज़न तथा रक्त शर्करा के स्तर को कम करने और एथलेटिक प्रदर्शन को बढ़ाने की चाह रखने वालों के बीच काफी लोकप्रिय हुआ है।
दरअसल, सैन एंटोनियो स्थित टेक्सास हेल्थ साइंस सेंटर के विकिरण कैंसर विशेषज्ञ डेविड गियस के नेतृत्व में शोधकर्ता यह जांच कर रहे थे कि कीटो आहार के कारण p53 प्रोटीन पर किस तरह के असर होते हैं। p53 प्रोटीन कैंसर से लड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। साथ ही यह कोशिकीय सेनेसेंस का नियमन भी करता है।
प्रयोगों के दौरान उन्होंने देखा कि उच्च वसा (जो कुल में से लगभग 90 प्रतिशत कैलोरी देता है) वाले कीटोजेनिक आहार से चूहों के दिल, गुर्दे, यकृत और मस्तिष्क में p53 और सेनेसेंट कोशिकाओं के अन्य संकेतकों का स्तर बढ़ा था। इसके विपरीत, आहार में वसा से केवल 17 प्रतिशत कैलोरी प्राप्त करने वाले चूहों के नियंत्रण समूह में ऐसी कोई वृद्धि नहीं देखी गई।
यह काफी दिलचस्प बात है कि जब चूहों को फिर से सामान्य आहार दिया गया तो सेनेसेंट कोशिकाएं लगभग गायब हो गई थीं। उच्च वसा वाला भोजन और नियमित भोजन निश्चित अंतराल पर बारी-बारी करने से भी ऐसी कोशिकाओं का निर्माण रुक गया। इससे स्पष्ट होता है कि कीटोजेनिक आहार से नियमित अंतराल पर ब्रेक लेने से इसके संभावित नकारात्मक प्रभावों को कम किया जा सकता है।
बहरहाल, अन्य विशेषज्ञ इस बात से सहमत नहीं हैं कि कीटोजेनिक आहार मनुष्यों के लिए भी हानिकारक है। उनका कहना है कि इन निष्कर्षों को पूरी तरह से समझने के लिए और अधिक शोध की आवश्यकता है। सेनेसेंट कोशिकाओं के सकारात्मक और नकारात्मक दोनों प्रभाव हो सकते हैं – वे घाव भरने में मदद करती हैं लेकिन अगर वे लंबे समय तक बनी रहती हैं तो सूजन पैदा कर सकती हैं और ऊतकों को क्षति भी पहुंचा सकती हैं। लिहाज़ा, आहार की सुरक्षा सम्बंधी निष्कर्ष निकालने से पहले मनुष्यों में इन कोशिकाओं के हानिकारक प्रभाव को प्रदर्शित करना ज़रूरी है।
वैसे, अध्ययन यह भी कहता है कि सभी कीटोजेनिक आहार एक जैसे नहीं होते। वसा और प्रोटीन स्रोतों में भिन्नता से इनके परिणाम अलग-अलग भी हो सकते हैं। ऐसे में यह कहना उचित नहीं है कि चूहों में देखे गए प्रभाव सभी कीटोजेनिक आहारों पर एक समान रूप से लागू होंगे।
बहरहाल, कीटोजेनिक आहार विभिन्न स्वास्थ्य लाभ तो प्रदान करता है लेकिन इस अध्ययन की मानें तो संतुलन और समय-समय पर इस आहार से ब्रेक लेकर सामान्य भोजन अपनाना समझदारी होगी। फिर भी इस संदर्भ में अधिक शोध आवश्यक है ताकि सुरक्षित और प्रभावी कीटोजेनिक आहार के लिए दिशानिर्देश तैयार किए जा सकें। तब तक, कीटोजेनिक आहार लेने वाले लोग प्रतिकूल प्रभावों को कम करने के लिए नियमित ब्रेक लेने पर विचार कर सकते हैं।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://static.wixstatic.com/media/1c4fd3_2eb9454c2fff4da8b65dbfa488395405~mv2.jpg/v1/fill/w_640,h_336,al_c,q_80,usm_0.66_1.00_0.01,enc_auto/1c4fd3_2eb9454c2fff4da8b65dbfa488395405~mv2.jpg
पानी की गुणवत्ता का हमारे स्वास्थ्य पर काफी प्रभाव पड़ता है। यदि पेय जल प्रदूषित हो तो यह ज़हर के समान हो जाता है। वर्तमान में पर्यावरण प्रदूषण इस हद तक बढ़ गया है कि ज़्यादातर जल स्रोत प्रदूषित हो गए हैं। समूचा विश्व जल संकट का सामना कर रहा है। ऐसे में सभी लोगों को शुद्ध व स्वच्छ पेयजल मिल पाना अपने आप में एक चुनौती हो गई है। कुछ सालों पहले से बोतलबंद पानी दुनिया भर के बाज़ारों में बिकना शुरू हुआ। जिसे कंपनियों ने यह कहकर बेचना शुरू किया था कि यह स्वच्छ, शुद्ध और खनिज युक्त है। जिसे वास्तविकता मान कर लोग इसे धड़ल्ले से खरीदने लगे हैं। पर क्या वास्तव में बोतलबंद पानी खनिज युक्त होता है? और क्या यह हमारे स्वास्थ्य के लिए लाभकारी है? पहले तो यह स्पष्ट करते चलें कि बाज़ार में बिकने वाला हर बोतलबंद पानी मिनरल वॉटर नहीं होता है। मिनरल वॉटर वह पानी होता है जो ऐसे प्राकृतिक स्रोतों से भरा जाता है जहां के पानी में कई लाभदायक खनिज तत्व पाए जातेे हैं। यह स्वास्थ्यवर्धक लवणों, खनिजों से भरपूर और ऑक्सीजन युक्त होता है। जो स्वाद में अच्छा और स्वास्थ्य के लिए फायदेमंद होता है। बाज़ार में उपलब्ध अधिकतर बोतलबंद पानी पैकेज्ड ड्रिंकिंग वॉटर होता है। पैकेज्ड ड्रिंकिंग वॉटर नल से आने वाला सामान्य पानी होता है जिसे फिल्टर से छान कर, रिवर्स ऑस्मोसिस, ओज़ोन ट्रीटमेंट आदि से साफ करके पैक कर दिया जाता है। इसी प्रकार, लोगों में आरओ सिस्टम को लेकर भ्रांति है कि इससे नितांत शुद्ध व स्वच्छ जल मिलता है। किंतु वास्तव में आरओ सिस्टम से गुज़रा हुआ पानी भी सेहत को नुकसान पहुंचा सकता है। कारण, क्योंकि आरओ सिस्टम में लगे फिल्टर कुछ दिनों बाद ही पानी को साधारण तरीके से फिल्टर करने लगते है। बोतलबंद पानी को लेकर अमेरिका में हुई रिसर्च से पता चला है कि बोतलबंद पानी में प्लास्टिक के खतरनाक कण मिल रहे हैं। अमेरिकी संस्था नेचुरल रिसोर्सेज़ डिफेंस काउंसिल के अनुसार बोतल बनाने में एन्टिमनी का उपयोग किया जाता है। इस वजह से बोतलबंद पानी को अधिक समय तक रखने पर उसमें एन्टिमनी की मात्रा घुलती जाती है। इस रसायन युक्त पानी को पीने से कई तरह की बीमारियां होने लगती हैं। स्टेट युनिवर्सिटी ऑफ न्यूयॉर्क के वैज्ञानिकों ने दुनिया भर में बोतलबंद पानी पर शोध कर बताया है कि भारत सहित दुनिया भर में मिलने वाले बोतलबंद पानी में 93 फीसदी तक प्लास्टिक के महीन कण देखे गए हैं। इसके अतिरिक्त जिन प्लास्टिक की बोतलों में मिनरल या फिल्टर वॉटर बिकता है वे पॉलीएथिलीन टेरीथेलेट (PET) की बनी होती हैं। जब तापमान अधिक होता है या गर्म पानी बोतल में भरा जाता है तो बोतल में डायऑक्सिन का रिसाव होता है, और यह पानी में घुलकर हमारे शरीर में पहुंच जाता है। इसके कारण महिलाओं में स्तन कैंसर का खतरा बढ़ जाता है। बोतलबंद पानी पर्यावरण को भी नुकसान पहुंचा रहा है। पैसिफिक इंस्टीटयूट के अनुसार अमेरिकी लोग जितना मिनरल वॉटर पीते हैं, उसे बनाने में 2 करोड़ बैरल पेट्रो उत्पाद खर्च किए जाते हैं। एक टन बोतलों के निर्माण में तीन टन कार्बन डाईआक्साइड का उत्सर्जन होता है। मिनरल वॉटर को बनाने के लिए दुगना पानी खर्च करना पड़ता है। अर्थात एक लीटर मिनरल वॉटर बनाने पर दो लीटर साफ पानी खर्च करना पड़ता है। इसके अलावा बोतल का पानी तो हम पी जाते हैं, लेकिन बोतल कहीं भी फेंक देते हैं जो पर्यावरण को क्षति पहुंचाती है। इसके अतिरिक्त दुनिया भर में जहां भी इन कंपनियों ने अपने बॉटलिंग प्लांट लगाए हैं, वहां भूजल स्तर बहुत तेज़ी से नीचे चला गया और इसका खामियाजा उस इलाके में रहने वाले लोगों को उठाना पड़ता है। स्पष्ट है कि शुद्ध और स्वच्छ जल के नाम पर बिकने वाला बोतलबंद पानी लोगों और पर्यावरण दोनों को नुकसान पहुंचा रहा है। साथ ही प्लास्टिक की बोतल के निर्माण के दौरान होने वाली अतिरिक्त जल की बर्बादी से भूजल स्तर में कमी हो रही हैै। पेयजल का कोई सुरक्षित विकल्प खोजना हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://akm-img-a-in.tosshub.com/indiatoday/images/story/202401/bottled-water-contains-lakhs-of-nanoplastics-illustration-by-vani-guptaindia-today-152538252-3×4.jpg?VersionId=myJ2OraZjK4uSu8g3WY2.bdGwocyOuz7
कुष्ठ रोग लंबे समय से मानवता के लिए एक अभिशाप रहा है। यह रोग तंत्रिका को नुकसान पहुंचाता है, शरीर में घाव पैदा करता है तथा गंध व दृष्टि संवेदना को प्रभावित करता है। हाल ही में शोधकर्ताओं ने कुष्ठ रोग के फैलने में मनुष्यों और गिलहरियों के बीच एक आश्चर्यजनक सम्बंध का पता लगाया है, और बताया है कि मध्य युग में गिलहरियां भी इस बीमारी की चपेट में थी।
गौरतलब है कि माइकोबैक्टीरियमलेप्रे और माइकोबैक्टीरियमलेप्रोमैटोसिस नामक बैक्टीरिया से होने वाला कुष्ठ रोग आज भी सालाना 2 लाख से अधिक लोगों को प्रभावित करता है। इसके अधिकांश मामले एशिया, अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका में पाए जाते हैं। अब तक इस बीमारी को केवल मनुष्यों से जुड़ा माना जाता था लेकिन मध्ययुगीन गिलहरियों के अस्थि अवशेषों में कुष्ठ रोग के बैक्टीरिया (माइकोबैक्टीरियम लेप्री) की खोज इसके व्यापक पारिस्थितिक प्रभाव को रेखांकित करती है। आजकल आर्मेडिलो में यह बैक्टीरिया पाया जाता है और कभी-कभार आर्मेडिलो इस बैक्टीरिया को मनुष्यों व प्राइमेट्स में पहुंचाता है।
दरअसल मध्यकालीन इंगलैंड में गिलहरियां पालतू जीव की तरह और फर के लिए पाली जाती थीं। इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने विंचेस्टर शहर की मध्ययुगीन गिलहरियों के अवशेषों की जांच करके कुष्ठ रोग के संचरण को बेहतर ढंग से समझने का प्रयास किया है। विंचेस्टर खास तौर से गिलहरियां पालने और उनके फर का उपयोग करने के कारोबार के लिए मशहूर था। यहां एक कुष्ठ रोग अस्पताल भी था।
गिलहरी की हड्डियों पर काम करते हुए एक अनुसंधान टीम ने प्राचीन कुष्ठ रोग बैक्टीरिया के जीनोम का पुनर्निर्माण किया तो देखा कि यह मध्ययुगीन मनुष्यों में पाए जाने वाले संस्करण से काफी मिलता-जुलता है। यह प्रजातियों के बीच बीमारी के आदान-प्रदान का संकेत देता है।
हालांकि, आजकल कुष्ठ रोग के प्रसार में गिलहरियों की कोई भूमिका नहीं हैं, लेकिन भावी जोखिमों को समझने के लिए अतीत की घटनाओं को समझना ज़रूरी है। पशु रोगविज्ञानी एलिजाबेथ उहल रोग के एक प्रजाति से दूसरी में पहुंचने को समझने के लिए बहुविषयी दृष्टिकोण पर ज़ोर देती हैं। उनका मत है कि गैर-मानव रोगवाहकों की भूमिका की उपेक्षा करने से बीमारी का प्रकोप जारी रह सकता है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://ichef.bbci.co.uk/ace/ws/640/cpsprodpb/552f/live/9c369a00-095c-11ef-b48b-e1bccd3a85f3.jpg
भारत में कोविड-19 टीके का इस्तेमाल एक अंतर्विरोध का शिकार रहा। एक ओर था कोविड-19 टीका शीघ्र उपलब्ध कराने वाले अद्भुत तकनीकी-वैज्ञानिक विकास तथा दूसरी ओर था सरकार का संकीर्ण, लोकलुभावन राजनीतिक हित जिसके चलते लोगों के बीच अपनी छवि को मसीहा के रूप में पेश करना था लेकिन साथ ही टीका निर्माताओं के हितों को भी साधना था।
गैर–मुनाफापहलोंकास्वागत
आम तौर पर कोई भी नया टीका विकसित करने में 5 से 15 साल तक का समय लग जाता है, क्योंकि यह वैज्ञानिकों और प्रौद्योगिकीविदों के लिए बहुत ही चुनौतीपूर्ण काम है। लेकिन, SARS-Cov-2 वायरस, दरअसल SARS-CoV-1 वायरस और MERS वायरस के जैसा था जिन पर पहले ही काफी काम किया जा चुका था।
इसके अलावा, WHO तथा कुछ अन्य अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियों की पहल के चलते वैज्ञानिकों के बीच आम सहमति बन पाई कि सामान्य क्रमिक परीक्षण की प्रक्रिया की बजाय चरण-1 व चरण-2 की प्रक्रिया को तेज़ी से सम्पन्न करने के लिए उन्हें साथ-साथ चलाया जाए और आंकड़ों की समीक्षा की जाए।
सरकारों द्वारा भारी निवेश और नवाचारी वित्तीय मॉडल्स ने दवा कंपनियों को मदद की कि वे पूरा का पूरा वित्तीय जोखिम झेले बिना टीका विकसित करने का काम कर सकें। ऐसी गैर-मुनाफा पहलों (निवेश) से टीका विकास में जुटी कंपनियां काफी लाभान्वित भी हुईं। उदाहरण के लिए, ऑक्सफोर्ड युनिवर्सिटी ने कोविशील्ड टीका बनाने वाली ब्रिटिश फार्मा कंपनी एस्ट्राज़ेनेका से कोई पेटेंट शुल्क नहीं लिया। अपने तईं एस्ट्राज़ेनेका ने भी सहमति जताई कि वह महामारी खत्म होने तक इस टीके पर कोई मुनाफा नहीं कमाएगी। लिहाज़ा, उसने सीरम इंस्टीट्यूट से इस टीके का उत्पादन करने के एवज में अत्यधिक शुल्क नहीं लिया।
अलबत्ता, दवा कंपनियों के मुनाफा हितों और विभिन्न दक्षिणपंथी सरकारों के राष्ट्रवादी दिखावे (अंधराष्ट्रवाद की हद तक) ने इस अभूतपूर्व स्वास्थ्य संकट में वैश्विक मानवतावादी प्रतिक्रिया को बहुत नुकसान पहुंचाया। यहां मैं सिर्फ भारत का उदाहरण लेकर यह दर्शाने की कोशिश करूंगा कि लोकलुभावन, राष्ट्रवादी दिखावे और मुनाफा-केंद्रित दवा कंपनियों की भूमिका कैसी रही।
टीकेकीभूमिकाऔरराजनीति
वायरस संक्रमण वाली कोई भी महामारी असुरक्षित या कमज़ोर आबादी (अधिकांश मामलों में बच्चों) को अपना शिकार बनाती है और फिर ‘सामूहिक प्रतिरक्षा’ (हर्ड इम्युनिटी) विकसित होने के बाद खत्म हो जाती है।
टीके विकसित होने के पहले तक खसरा, गलसुआ जैसी महामारियां फैलती रहती थीं और लोगों के स्वास्थ्य को क्षीण कर देने के बाद बिना किसी टीकाकरण के ही खत्म भी हो जाती थीं। स्वाइन फ्लू महामारी भी बिना किसी टीके के खत्म हो गई थी। 1918 की कुख्यात फ्लू महामारी को छोड़ दें तो अन्य किसी भी वायरल महामारी की तुलना में कोविड-19 महामारी कहीं अधिक क्षतिकारक थी, और अन्य वायरल महामारियों की तुलना में सिर्फ एक वर्ष में कोविड-19 से कहीं अधिक लोगों की मौतें हुई।
अलबत्ता, शुक्र है चमत्कारी वैज्ञानिक-तकनीकी विकास का, जिसने मानव इतिहास में पहली बार हमें एक ऐसा टीका दिया जो किसी नई बीमारी की पहली महामारी में ही लोगों को उसके प्रकोप से बचा सके। अन्य सभी टीकों ने केवल महामारी की रोकथाम की है और कुछ ने असुरक्षित या कमज़ोर लोगों को संक्रमित होने से बचाया है। कोविड-19 टीका दुनिया का पहला ऐसा टीका था जिसने महामारी के दौरान ही लोगों के स्वास्थ्य को कुछ हद तक सुरक्षित रखने में मदद की।
हालांकि इस पर शंका है कि क्या कोविड-19 के टीके ने प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से वायरस के प्रसार को कम करके महामारी को फैलने से रोका है। लेकिन कोविड-19 का टीका असुरक्षित या कमज़ोर लोगों, जैसे वृद्धजनों और मधुमेह, उच्च रक्तचाप, मोटापा एवं फेफड़ों के जीर्ण रोग वगैरह से पीड़ित लोगों, में बीमारी के बिगड़ने और इसके चलते उनकी मृत्यु की संभावना को कम करता है। (कोविड-19 का टीका बच्चों के लिए उपयोगी नहीं है क्योंकि सामान्यत: छोटे बच्चों में कोविड-19 विकसित नहीं होता है और वे कोविड-19 से नहीं मरते हैं। दूसरी ओर, अति बुज़ुर्ग लोगों में कोविड-19 की मृत्यु दर बहुत अधिक है)।
देखा जाए तो, भारत के संदर्भ में कोविड-19 टीके को रक्षक कहने की बात बकवास है। इस महामारी पर काबू पाने में इस टीके की भूमिका के बारे में भारत सरकार और उसके समर्थकों के दावे वास्तविक कम और प्रपोगंडा अधिक थे। सरकार ने तरह-तरह से यह दावा किया है कि भारत में कोविड-19 टीकाकरण से महामारी पर अंकुश लगाने में काफी मदद मिली और लोगों को कोविड-19 के कारण होने वाली स्वास्थ्य-क्षति से काफी हद तक बचाया जा सका।
वैज्ञानिक साहित्य पहले दावे की पुष्टि नहीं करते हैं कि टीके ने SARS-Cov-2 के प्रसार को कम किया है, लेकिन इस बात के प्रमाण हैं कि समय पर टीकाकरण ने असुरक्षित आबादी में गंभीर संक्रमण पनपने को रोका है और मृत्यु दर को कम किया है। बहरहाल, जैसा कि हम आगे देखेंगे, भारत में कोविड-19 के नैसर्गिक तरह से फैलने की रफ्तार टीकाकरण की रफ्तार से कहीं अधिक थी क्योंकि टीकाकरण कार्यक्रम बहुत धीमी गति से चला था। इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि भारत में इस टीकाकरण ने कोविड-19 की गंभीरता और मृत्यु दर को कम करने में कोई खास भूमिका निभाई हो।
विपणनअनुमतिपरसवाल
किसी भी नई औषधि या टीके के विपणन या प्रचार-प्रसार की अनुमति प्राप्त होने के लिए उसे पहले जंतु मॉडल परीक्षण से गुज़रना होता है, फिर मानव प्रतिभागियों पर तीन चरणों (चरण-I, II, III) के क्लीनिकल परीक्षणों से गुज़रना होता है। चरण-I व चरण-II के अध्ययन मुख्य रूप से औषधि या टीके की सुरक्षितता और प्रतिरक्षा उत्पन्न करने की क्षमता का आकलन करते हैं, और चरण-III में बड़े पैमाने पर क्लीनिकल परीक्षण किए जाते हैं जिसमें मुख्यत: प्लेसिबो से तुलना करते हुए टीके की प्रभाविता परखी जाती है।
भारत में सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया ने एस्ट्राज़ेनेका के साथ विनिर्माण समझौते की मदद से ‘कोविशील्ड’ टीके का उत्पादन किया। इस टीके के विकास में ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय ने प्रमुख भूमिका निभाई थी। ऑक्सफोर्ड-एस्ट्राज़ेनेका के टीके को इंग्लैंड और ब्राज़ील में तीसरे चरण के परीक्षण को पूरा करने के बाद यूके के नियामक प्राधिकरण से विपणन (या इस्तेमाल) की अनुमति मिल गई। भारत में यहां के ‘न्यू ड्रग्स एंड क्लीनिकल ट्रायल रूल्स, 2019′ के तहत, किसी अन्य देश में अनुमति प्राप्त किसी भी औषधि या टीके को भारत में उपयोग से पहले एक सेतु परीक्षण (ब्रिज ट्रायल) से गुज़रना पड़ता है ताकि यह जाना जा सके कि क्या वह औषधि या टीका भारतीय आबादी पर प्रभावी है या नहीं। लेकिन, तीसरे चरण के परीक्षण का भारतीय डैटा न होने के बावजूद भी सीरम इंस्टीट्यूट ने कोविशील्ड की विपणन अनुमति के लिए भारत के औषधि नियंत्रक को आवेदन दे दिया था। ऐसा करने के लिए कोई भी विस्तृत एवं विश्वसनीय वैज्ञानिक तर्क नहीं दिया गया था। लेकिन 2 जनवरी 2021 को अनुमति मिल गई; वैज्ञानिक रूप से और ‘न्यू ड्रग्स एंड क्लीनिकल ट्रायल रूल्स, 2019′ के मद्देनज़र इसे उचित ठहराना मुश्किल है।
विषय विशेषज्ञ समिति, भारत के औषधि नियामक को भारत में किसी नए टीके या दवा अपनाने के बारे में सलाह देती है। 30 दिसंबर, 2020 को इस समिति ने मीटिंग के दौरान, सीरम इंस्टीट्यूट को ‘पर्याप्त डैटा’ प्रस्तुत करने को कहा था। 1 जनवरी, 2021 को सीरम इंस्टीट्यूट ने ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय द्वारा इंग्लैंड और ब्राज़ील में किए गए परीक्षण के आंकड़े पेश किए थे, जिसके अनुसार कोविड-19 की गंभीर स्थिति न बनने देने और मृत्यु न होने देने में टीके की प्रभाविता औसतन 70 प्रतिशत है। इसे भारत के संदर्भ में चरण-I और चरण-II के परीक्षण का डैटा माना गया था। इसके आधार पर, 2 जनवरी 2021 को इस समिति ने चरण-III के भारतीय डैटा के बिना ही कोविशील्ड के उपयोग को हरी झंडी दिखा दी और चरण-III का डैटा न होने के पीछे कोई वैज्ञानिक स्पष्टीकरण भी नहीं दिया गया।
कोवैक्सीन के मामले में तो चरण-III डैटा के सर्वथा अभाव में अनुमति दी गई थी!! हालांकि, अनुमति में कहा गया था कि इंग्लैंड में उभरे नए उत्परिवर्ती संस्करण के मद्देनजर कोवैक्सीन का उपयोग ‘अत्यधिक ऐहतियात’ के साथ और ‘क्लीनिकल परीक्षण शैली’ के तहत किया जाएगा। तकनीकी विवरण में गए बिना, यह कहा जाना चाहिए कि कोवैक्सीन की यह सशर्त अनुमति भी वैज्ञानिक मानदंडों और ड्रग्स एंड कॉस्मेटिक अधिनियम के प्रासंगिक नियमों के मद्देनज़र सवालों के घेरे में है। इसके अलावा ‘क्लीनिकल परीक्षण शैली’ का पालन बमुश्किल ही किया गया और आगे चलकर तो इसे भुला ही दिया गया।
यह तो सही है कि टीकाकरण महामारी काफी फैल जाने से पहले करना ज़रूरी होता है; लेकिन तीसरे चरण के भारतीय परीक्षणों के डैटा के अभाव में अनुमति देने की जल्दबाज़ी के पीछे इस ज़रूरत के अलावा दो अन्य बातें भी थीं।
सीरम इंस्टीट्यूट और भारत बायोटेक ने अनुमति का आवेदन करने से पहले ही क्रमश: 5 करोड़ और 1 करोड़ टीके बना लिए थे। सीरम इंस्टीट्यूट को इस स्टॉक को प्राथमिकता के आधार पर भारत सरकार को 200 रुपए प्रति खुराक की विशेष रियायती दर पर बेचना था, जबकि सीरम इंस्टीट्यूट के मालिक अदार पूनावाला ने कहा था कि वे कोविशील्ड की प्रति खुराक खुले बाज़ार में 1000 रुपए में बेचेंगे। यदि हम टीके की कीमत 200 रुपये प्रति खुराक भी मानें, तो यदि कोविशील्ड को अनुमति नहीं मिलती तो सीरम इंस्टीट्यूट 1000 करोड़ रुपए गंवाता और कोविशील्ड की 5 करोड़ खुराक बर्बाद हो जाती। लिहाज़ा, व्यवसाय के नज़रिए से सीरम इंस्टीट्यूट के लिए ज़रूरी था कि टीके को जल्द से जल्द अनुमति मिले। यही हाल भारत बायोटेक का भी था।
नियामक निर्णय-प्रक्रिया को व्यावसायिक मसलों से पूरी तरह अलग रखा जाना चाहिए। इसे सुनिश्चित करने में पारदर्शिता सबसे महत्वपूर्ण है। लेकिन सार्वजनिक तौर पर यह जानकारी उपलब्ध नहीं है कि इस विषय विशेषज्ञ समिति के सदस्य कौन थे, क्या इन सदस्यों का सम्बंधित दवा कंपनियों के साथ कोई सम्बंध था, समिति द्वारा अनुमति देने के पक्ष में दिए गए विस्तृत वैज्ञानिक तर्क क्या थे? अमेरिका में इस तरह की विशेषज्ञ सलाहकार समिति की मीटिंग बाहरी लोगों के लिए ऑनलाइन उपलब्ध होती हैं। भारत में नए टीकों के बारे में सरकार को सलाह देने के लिए नेशनल टेक्निकल एडवायज़री ग्रुप ऑन इम्युनाइज़ेशन (NTAGI) है। अलबत्ता, इसकी वेबसाइट पर कोविड-19 के इन दो टीकों की अनुमति के बारे में कोई जानकारी नहीं है!
कुछ लोगों ने राष्ट्रवादी भावनाएं भड़काकर कोवैक्सीन की अनुमति को इस आधार पर उचित ठहराने की कोशिश की कि कोवैक्सीन को नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ वायरोलॉजी ने विकसित किया है। यकीनन यह बहुत ही संतोष और गर्व की बात है कि भारतीय वैज्ञानिकों ने एक वर्ष के भीतर कोविड-19 के लिए एक नया टीका विकसित कर लिया। लेकिन यह कतई स्वीकार्य नहीं है कि भारतीय लोगों में किसी टीके की प्रभाविता और सुरक्षितता के पर्याप्त सबूत के बिना ही उसके उपयोग की अनुमति दे दी जाए।
ऑक्सफोर्ड युनिवर्सिटी ने कोई पेटेंट शुल्क नहीं लिया था, और न ही एस्ट्राज़ेनेका ने सीरम इंस्टीट्यूट से कोई पेटेंट शुल्क लिया। चूंकि सीरम इंस्टीट्यूट एक भारतीय कंपनी है इसलिए इसे कोविशील्ड के विपणन की अनुमति आत्म-निर्भर भारत की नीति के पूरी तरह अनुकूल थी, और इसीलिए कोविशील्ड को ‘विदेशी’ टीका कहने और कोवैक्सीन को भारतीय स्वदेशी टीके की तरह पेश करने का कोई तुक नहीं था।
टीकोंकीधीमीखरीद
सरकार ने 12 जनवरी 2021 को सीरम इंस्टीट्यूट को केवल 2.1 करोड़ खुराक और अप्रैल के अंत तक 13.1 करोड़ खुराक का ऑर्डर दिया था। यह तब था जब सीरम इंस्टीट्यूट ने पहले ही, दिसंबर 2020 तक, टीके की 5 करोड़ खुराकें बना ली थीं और उसके पास प्रति माह 5 करोड़ खुराक बनाने की क्षमता थी। एक बार जब कोविशील्ड को भारत में विपणन की अनुमति दे दी गई, तो सार्वजनिक क्षेत्र के टीका निर्माताओं को शामिल करने के अलावा भारत सरकार को कोविड-19 टीकों के लिए अग्रिम ऑर्डर देना चाहिए था और इसके लिए अग्रिम भुगतान करना चाहिए था, जैसा कि कई विकसित देशों ने किया था। ऐसा करने पर टीका उत्पादन क्षमता बहुत तेज़ी से बढ़ती। लेकिन ऐसा नहीं किया गया। 13.1 करोड़ खुराक के ऑर्डर पर करीब 200 करोड़ रुपए दिए गए थे जबकि वित्तमंत्री ने घोषणा की थी कि केंद्रीय बजट में कोविड-19 टीकाकरण के लिए 35,000 करोड़ रुपए रखे गए हैं! भारत बायोटेक की प्रति माह लगभग 2 से 3 करोड़ खुराक उत्पादन करने क्षमता थी। और यदि अग्रिम ऑर्डर मिल जाते, तो सीरम इंस्टीट्यूट और भारत बायोटेक मिलकर लक्ष्य (31 दिसंबर 2021 तक 200 करोड़ खुराक) को हासिल करने के लिए आवश्यक खुराकों की आपूर्ति कर सकते थे। लेकिन ऐसी योजना के अभाव में अप्रैल 2021 के बाद टीकों की कमी पड़ गई।
दूसरी बात। 45 वर्ष से अधिक उम्र के (सभी) लोगों को टीका लगाने का अपना लक्ष्य पूरा करने के पहले ही सरकार ने 18 अप्रैल को घोषणा कर दी कि अब 18 वर्ष से अधिक उम्र के सभी वयस्कों को टीका लगाया जाएगा! टीकाकरण केंद्रों पर बहुत अधिक तादाद में वयस्क टीका लगवाने पहुंचने लगे, जिसके परिणामस्वरूप केंद्रों पर टीकों की भारी कमी पड़ गई।
उससे भी बदतर तो केंद्र सरकार की यह घोषणा थी कि वह केवल 50 प्रतिशत टीकों की आपूर्ति करेगी; 25 प्रतिशत टीके निजी क्षेत्रों द्वारा खरीदे जाएंगे और 25 प्रतिशत टीके राज्य सरकारें खरीदेंगी। हालांकि कुल टीकाकरण केंद्रों में से केवल 3 प्रतिशत ही निजी टीकाकरण केंद्र थे, लेकिन निजी क्षेत्र को 25 प्रतिशत टीके आवंटित किए गए थे! जाहिर तौर पर यह फैसला इन दोनों कंपनियों को फायदा पहुंचाने के लिए था (जिसकी कीमत आम लोगों से वसूली जाती) क्योंकि खुले बाज़ार में इन दोनों टीकों की कीमत काफी अधिक तय की गई थी।
इसके चलते बड़ा विवाद और अराजकता पैदा हो गई क्योंकि विभिन्न राज्य सरकारों ने टीके खरीदने के लिए पर्याप्त निवेश करने में असमर्थता जताई। सबके लिए मुफ्त कोविड-19 टीकाकरण की नीति को लागू करने की बजाय निजी क्षेत्र को इसमें शामिल करने के लिए कई विशेषज्ञों और जनप्रतिनिधियों ने सरकार की कड़ी आलोचना की। जबकि अन्य सभी देशों सरकारों द्वारा मुफ्त टीकाकरण किया जा रहा था। सौभाग्य से सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में दखल दिया और केंद्र सरकार को यह याद दिलाया कि सबका निशुल्क टीकाकरण करना केंद्र सरकार की सामान्य ज़िम्मेदारी है और इसके लिए केंद्रीय बजट में आवंटित 35,000 करोड़ के फंड का उपयोग किया जाना चाहिए।
टीकाकरणकीधीमीगति
महामारी विज्ञानियों का कहना था कि कोविड-19 बीमारी के खिलाफ सामूहिक प्रतिरक्षा (हर्ड इम्युनिटी) हासिल करने के लिए लगभग 70 प्रतिशत भारतीय (95 करोड़ लोग) टीकाकृत हो जाने चाहिए। इसका मतलब था कि 31 दिसंबर 2021 तक (यानी 351 दिनों में) करीब 180 करोड़ खुराकें दी जानी थीं, यानी औसतन प्रति दिन लगभग 51 लाख खुराकें। भारत सरकार द्वारा 16 जनवरी 2021 से शुरू किए गए टीकाकरण कार्यक्रम में सबसे पहले सभी स्वास्थ्य कर्मियों और फ्रंटलाइन कार्यकर्ताओं को टीकाकृत करना था, जिनकी कुल संख्या लगभग 3 करोड़ थी। इसके बाद अप्रैल के अंत से चरणबद्ध तरीके से 50 वर्ष से अधिक उम्र के सभी लोगों (कुल संख्या 27 करोड़) को टीका लगाया जाना था। फिर 50 वर्ष से कम आयु के उन सभी लोगों को भी टीका लगाने की आवश्यकता थी जिन्हें मधुमेह, उच्च रक्तचाप, मोटापा, जीर्ण फेफड़ों सम्बंधी बीमारी, एचआईवी संक्रमण आदि जैसी बीमारियां थी। इस तरह कुल मिलाकर करीबन 40-50 करोड़ लोग ऐसे थे जिन्हें जल्द और पहले टीकाकृत किया जाना चाहिए था ताकि वायरस इन लोगों तक पहुंचने के पहले ये टीकाकृत हो चुके हों।
गौरतलब है कि भारत में सरकारी स्वास्थ्य कार्यकर्ता हर साल पांच साल से छोटे बच्चों और गर्भवती महिलाओं को लगभग 15 करोड़ विभिन्न टीके लगाते हैं। अब उसी तंत्र से यह उम्मीद करना कि वह आने वाले तीन महीनों में अतिरिक्त 3 करोड़ कोविड-19 टीके लगाएगा, का मतलब था कि वे लगभग दुगनी गति से काम करें। कर्मचारियों की कमी और (1980 के दशक की निजीकरण की नीति की बदौलत) वित्त के अभाव से जूझती सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली पहले से ही थकी हुई थी क्योंकि उसे महामारी में जबरदस्त अतिरिक्त काम करना पड़ा था। सरकार द्वारा टीकाकरण की गति बढ़ाने के लिए अतिरिक्त कर्मचारियों की भर्ती भी नहीं की गई थी। सरकार ने शुरुआत में केवल 3000 टीकाकरण केंद्र स्थापित किए थे जिनमें प्रति दिन 100-100 टीके लगाए गए, यानी प्रति दिन ज़रूरी 51 लाख की बजाय मात्र 3 लाख टीके लगाए गए। इस दर से तो 3 करोड़ लोगों को टीकाकृत करने में 100 दिन लगते, और प्राथमिकता वाले 30 करोड़ लोगों को कवर करने में 1000 दिन!
टीकाकरण को रफ्तार देने के लिए, अस्थायी रूप से ही सही, प्रशिक्षित लोगों को त्वरित और बड़े पैमाने पर भर्ती करने की ज़रूरत थी, और आवश्यकतानुसार निजी क्षेत्र के डॉक्टरों को भी शामिल करना लाज़मी था। ऐसे डॉक्टरों की संख्या दस लाख से अधिक है। लेकिन इन दोनों उपायों पर कोई बात तक नहीं हुई। बस, टीकाकरण अभियान के बारे में प्रचार-प्रसार खूब हुआ! ‘कोविड-19 के खिलाफ दुनिया का सबसे बड़ा टीकाकरण अभियान’ के बारे में झूठे, दम्भी दावे किए गए!
शुरुआती महीनों में टीकाकरण की इस बहुत धीमी गति के चलते 21 जुलाई 2021 तक केवल 23 प्रतिशत भारतीयों को टीके की एक खुराक मिली थी और केवल 6.2 प्रतिशत को दो खुराक मिली थी। अलबत्ता, ICMR द्वारा किए गए अखिल भारतीय ‘सीरो-प्रिवेलेंस सर्वेक्षण’ के चौथे दौर के सर्वेक्षण से पता चला था कि जुलाई 2021 के अंत तक 67 प्रतिशत वयस्कों में कोविड-19 के खिलाफ एंटीबॉडी विकसित हो गई थी। (बच्चों को टीका नहीं लगाया गया था, लेकिन लगभग इसी अनुपात में बच्चों में भी कोविड-19 के खिलाफ एंटीबॉडीज़ मिलीं!) इससे यह स्पष्ट है कि जितनी तेज़ी से कोविड-19 फैला उसकी तुलना में टीकाकरण बहुत धीमा था। इसलिए भारत में जिन लोगों ने कोविड-19 संक्रमण के खिलाफ प्रतिरक्षा विकसित कर ली थी, उनमें से अधिकांश में यह नैसर्गिक संक्रमण के ज़रिए विकसित हुई थी। भारतीयों का केवल एक छोटा-सा हिस्सा ही टीकाकरण के कारण गंभीर कोविड-19 बीमारी और मृत्यु से सुरक्षित हो पाया था।
बहरहाल, उपरोक्त ‘नैसर्गिक टीकाकरण’ ने बहुत तेज़ी से अपना काम करके लोगों के स्वास्थ्य को बहुत अधिक प्रभावित किया, क्योंकि SARS-Cov-2 वायरस से संक्रमित हुए अधिकांश लोगों को कोविड-19 रुग्णता हुई; इनमें से काफी लोग मध्यम से लेकर गंभीर स्थिति तक पहुंच गए और लगभग 0.1 प्रतिशत संक्रमित लोगों की मृत्यु हुई।
अर्थात कोविड-19 के खिलाफ यह ‘नैसर्गिक टीकाकरण’ लोगों को बहुत महंगा पड़ा। इसलिए, कोविड-19 टीकों के बेतुके विरोध पर आधारित राजनीति से भी दूरी बनाने की आवश्यकता है। भारत में शुरुआती महीनों में बहुत धीमी खरीद और टीकाकरण प्रक्रिया के कारण गैर-टीकाकृत लाखों लोग कोविड-19 के संक्रमण की चपेट में आए, और सरकारी टीकाकरण कार्यक्रम उन तक पहुंचने के पहले लाखों लोग मारे गए।
हैरतअंगेज़ बात है कि ICMR ने जुलाई 2021 के बाद राष्ट्रीय ‘सीरो-प्रिवेलेंस सर्वेक्षण’ करना बंद कर दिया था, और इस तथ्य के बारे में बहुत कम चर्चा हुई कि अधिकांश भारतीयों में टीकाकरण के पहले SARS-Cov-2 के खिलाफ एंटीबॉडी विकसित हो चुकी थी! बाद का टीकाकरण ‘घोड़े के भाग जाने के बाद अस्तबल का दरवाज़ा बंद करने’ जैसा था!
कोविशील्डकेकुप्रभाव
यह पहली बार व्यापक रूप से यूके और कुछ अन्य युरोपीय देशों में बताया गया था कि एस्ट्राज़ेनेका टीके की पहली खुराक देने के बाद पहले चार हफ्तों के भीतर टीके के कारण कुछ मुख्य शिराओं में रक्त का थक्का जमने (वैक्सीन इनड्यूस्ड थ्रम्बोसाइटोपेनिया और थ्रम्बोसिस, VITT) की स्थिति बन सकती है। इसलिए कुछ युरोपीय देशों ने इसके उपयोग को अस्थायी तौर पर बंद भी कर दिया था। बाद में यह सामने आया कि यह स्थिति करीब 10 लाख लोगों में से महज 5 मामलों में उभरने संभावना है और इनमें मृत्यु की संभावना 25 प्रतिशत है। दूसरी ओर, स्वयं कोविड-19 के कारण इस तरह के रक्त के थक्के जमने की संभावना 8-10 गुना अधिक थी। इसलिए युरोपीय मेडिसिन एजेंसी ने यह सिफारिश की थी कि एस्ट्राज़ेनेका का टीका कोविड-19 के कारण अधिक गंभीर जोखिम से बचाव के लिए देना जारी रखा जाए। भारत में, कोविशील्ड पर सीरम इंस्टीट्यूट ने अपनी फैक्ट शीट में लिखा है कि लगभग एक लाख में से एक व्यक्ति में टीकाकरण की पहली खुराक के बाद रक्त का थक्का बनने की समस्या हो सकती है।
टीकाकरण उपरांत प्रतिकूल प्रभाव (AEFI) देखने के लिए भारत सरकार के निगरानी तंत्र द्वारा पहले 75 करोड़ टीकाकरणों में AEFI के केवल 27 मामले दर्ज हुए, यानी प्रति 15 लाख में 1 मामला! ऐसा इसलिए है कि 1988 में स्थापित इस तंत्र का काम संतोषप्रद नहीं रहा है। इसकी कार्यप्रणाली भी विवादास्पद है। चूंकि यह प्रणाली पारदर्शी नहीं है, इसलिए हो सकता है कि टीके से सम्बंधित किसी घटना या दुष्परिणाम को ‘टीके से सम्बंधित नहीं’ की श्रेणी में डाल दिया गया हो और इसलिए मुआवजे से कोई अनुचित इनकार नहीं किया गया है। इसके अलावा, भारत में टीके से पहुंची क्षति के लिए पीड़ितों को ‘नो-फॉल्ट मुआवज़ा’ (no fault compensation)देने की कोई व्यवस्था नहीं है, और इन 27 मामलों में से किसी को भी मुआवजा नहीं दिया गया। भारत में ‘नो-फॉल्ट मुआवज़ा’ व्यवस्था शुरू करने की सख्त ज़रूरत है। इससे सरकार पर राष्ट्रीय टीकाकरण कार्यक्रम के तहत पर्याप्त जांच-परीक्षण और औचित्य के बिना नए टीके लाने पर भी लगाम लगेगी।
निजीनिर्माताओंकीमुनाफाखोरी
आपूर्ति की बाधा को दूर करने के लिए सरकार को सार्वजनिक क्षेत्र की टीका निर्माण इकाइयों में इन टीकों के उत्पादन की अनुमति देने के लिए अनिवार्य लाइसेंसिंग का प्रावधान लागू करना चाहिए था। ये इकाइयां आज़ादी के 40 वर्षों बाद तक राष्ट्रीय टीकाकरण कार्यक्रम के लिए बहुत कम कीमत पर उच्च गुणवत्ता वाले टीकों का मुख्य स्रोत रही हैं। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के विपरीत जाकर सरकार द्वारा सार्वजनिक क्षेत्र की टीका निर्माण इकाइयों को व्यवस्थित रूप से कमज़ोर कर देने के बाद स्थिति काफी बदल गई है। ICMR के वैज्ञानिक एक साल के भीतर कोविड-19 का एक अच्छा टीका विकसित करने में सक्षम हुए हैं, यह बड़े गर्व की बात है। सरकार के लिए यह काफी तर्कपूर्ण होता कि वह सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों को इस टीके का उत्पादन करने देती। लेकिन इस आपात स्थिति में भी, निजीकरण की नीति जारी रही और कोविड-19 टीके का निर्माण पूरी तरह से निजी कंपनियों के हाथों में ही रहा।
सरकार ने सम्बंधित निजी कंपनियों को कोविड-19 टीके पर अत्यधिक मुनाफा कमाने की अनुमति भी दी। उदाहरण के लिए, सीरम इंस्टीट्यूट के अदार पूनावाला ने एनडीटीवी को बताया कि जब वे केंद्र सरकार को 150 रुपए प्रति खुराक की दर पर टीका बेच रहे थे तो उन्हें घाटा तो नहीं हुआ, लेकिन यह कीमत इतना लाभ कमाने के लिए पर्याप्त नहीं है जिससे उत्पादन क्षमता बढ़ाने हेतु निवेश किया जा सके। मान लेते हैं कि कोविशील्ड की प्रति खुराक उत्पादन लागत लगभग 125 रुपए थी और इसलिए सरकार को इस टीके की (अधिकतम) कीमत 250 रुपए प्रति खुराक रखनी चाहिए थी। यह 1995-2013 तक सरकारी नीति के अनुसार होती, जिसमें कहा गया है कि मूल्य नियंत्रण के तहत आने वाली सभी ज़रूरी दवाइयों का अधिकतम खुदरा मूल्य (MRP) उत्पादन लागत से दुगना तक हो सकता है (उससे अधिक नहीं)। इस तथ्य को देखते हुए कि कोविशील्ड न केवल एक आवश्यक टीका था बल्कि जीवनरक्षक भी था, अत: इसकी MRP 250 रुपए से अधिक नहीं होनी चाहिए थी। लेकिन सरकार ने घोषणा की कि 7 जून 2021 से लोगों को कोविशील्ड 780 रुपए में उपलब्ध होगा (अस्पतालों के 150 रुपए सेवा शुल्क सहित)। इसका मतलब यह हुआ कि सीरम इंस्टीट्यूट को प्रति खुराक करीब 500 रुपए का मुनाफा होता। निजी अस्पतालों में कोवैक्सीन की कीमत 1410 रुपए प्रति खुराक घोषित की गई थी!!
निष्कर्ष में, यह कहा जा सकता है कि भारत में कोविड-19 टीकों के मामले में संकीर्ण कॉर्पोरेट हितों और लोकलुभावने, राष्ट्रवादी राजनीतिक हितों/रुखों ने इस महामारी के प्रति मानवतावादी, विज्ञान-आधारित प्रतिक्रिया को धूमिल कर दिया। सरकार के कोविड-19 टीकाकरण कार्यक्रम का बड़े ज़ोर-शोर से प्रचार-प्रसार का उद्देश्य यह धारणा बनाना था कि इस टीकाकरण ने लोगों को महामारी से बचाया है। लेकिन कटु सत्य यह है कि भारत सरकार की कोविड-19 टीकों की खरीद और उपयोग में ढिलाई के कारण टीकारण कार्यक्रम से इस महामारी से लोगों को गंभीर हालत में पहुंचने और मौत के घाट उतरने से बचाने में बहुत मदद नहीं मिली। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://images.moneycontrol.com/static-mcnews/2021/05/Vaccine-770×433.jpg?impolicy=website&width=770&height=431
मनुष्यों ने चंद्रमा की धरती पर आखिरी बार कदम सन 1972 में, अपोलो मिशन के तहत रखा था। तब से अब तक चंद्रमा पर कोई अंतरिक्ष यात्री नहीं उतरा है, हालांकि अपने विभिन्न अंतरिक्ष यानों और मिशनों के ज़रिए खगोलविद लगातार चंद्रमा की निगरानी करते आए हैं। लेकिन अब वे फिर से चंद्रमा पर उतरने की तैयारी में है; वर्ष 2026 में नासा अपने आर्टेमिस मिशन के तहत चंद्रमा पर अंतरिक्ष यात्रियों को उतारने वाला है।
चंद्रमा तक पहुंचने और उतरने की कई चुनौतियां हैं जिनसे निपटने के प्रयास जारी हैं। इनमें से एक चुनौती है चंद्रमा के कम गुरुत्वाकर्षण में अंतरिक्ष यात्रियों को कमज़ोर और दुर्बल होने से बचाना।
वास्तव में, अंतरिक्ष यात्रियों का चंद्रमा पर रहना उतना आसान और सहज नहीं है, जितना कि पृथ्वी पर। जैसा कि हम जानते हैं चंद्रमा का न तो वातावरण पृथ्वी जैसा है और न ही गुरुत्वाकर्षण – चंद्रमा का गुरुत्वाकर्षण पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण का करीब 1/6 है। मिशन के दौरान यह सुनिश्चित करना होता है कि वहां अंतरिक्ष यात्रियों के लिए पर्याप्त हवा, भोजन और पानी हो, और वे विकिरण से सुरक्षित रहें। साथ ही, उन्हें बदली परिस्थितियों में शारीरिक तकलीफ न हो; सामान्य से कम गुरुत्वाकर्षण पर काम करने से अंतरिक्ष यात्रियों की हड्डियां भुरभुराने लगती हैं, मांसपेशियां शिथिल पड़ जाती हैं, चलने-फिरने या ताल-मेल वाले अन्य किसी काम को करने के लिए ज़रूरी तंत्रिका तंत्र का आवश्यक नियंत्रण नहीं रहता है और ह्रदय और श्वसन तंत्र पर भी प्रभाव पड़ता है।
इससे निपटने के लिए ‘डीकंडीशनिंग’ उपाय यानी कि व्यायाम वगैरह करना पड़ता है ताकि वे स्वस्थ रह सकें। लेकिन मसला यह है कि प्रत्येक संभावित स्वास्थ्य समस्या के लिए अलग-अलग तरह के व्यायाम करने पड़ते हैं। जैसे तेज़ दौड़ना, कूदना, उछलना, जॉगिंग जैसे उपाय दिल और फेफड़ों को तो ठीक-ठाक बनाए रखते हैं लेकिन मांसपेशियों और हड्डियों को उतना दुरूस्त नहीं रख पाते।
रॉयल सोसायटी ओपन साइंस में प्रकाशित हालिया अध्ययन में शोधकर्ताओं ने इसी चुनौती से निपटने का तरीका सुझाया है। उनका सुझाव है कि अंतरिक्ष यात्री चंद्रमा पर यदि सर्कस वाले ‘मौत का कुआं’ में दौड़ लगाएं तो इन सारी समस्याओं से निपटा जा सकता है।
दरअसल, मिलान युनिवर्सिटी के फिज़ियोलॉजिस्ट अल्बर्टो मिनेट्टी और उनके सहयोगियों ने अपनी गणना में पाया था कि भले ही मनुष्य धरती पर ‘मौत के कुएं’ के चारों ओर चल या दौड़ न पाएं लेकिन चंद्रमा के कम गुरुत्वाकर्षण में वे यह करतब बहुत आसानी से कर पाएंगे; उन्हें 12 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से दौड़ना पर्याप्त होगा।
उन्होंने अपने इस विचार को जांचा। इसके लिए उन्होंने अपने दो शोधकर्ताओं को 36 मीटर ऊंची क्रेन और नायलोन की इलास्टिक रस्सी की मदद से मौत के कुएं में लटकाया। इस सेट-अप ने उनके शरीर के वज़न को चंद्रमा के गुरुत्वाकर्षण पर महसूस होने वाले वज़न जितना कर दिया, यानी परिस्थिति चंद्रमा के गुरुत्वाकर्षण जैसी बन गई। इस सेटअप के साथ शोधकर्ताओं को दौड़ाया। उन्होंने पाया कि प्रत्येक दिन की शुरुआत और अंत में कुछ मिनट इस तरह दौड़ने से हड्डियों, मांसपेशियों, हृदय और तंत्रिका तंत्र सम्बंधी समस्याओं से निपटा जा सकता है।
नतीजे तो उनको बढ़िया मिले हैं लेकिन सवाल उठता है कि जहां अंतरिक्ष में थोड़ा भी अतिरिक्त वज़न भेजना बहुत खर्चीला होता है वहां इतना बड़ा ‘मौत का कुआं’ भेजना कितना व्यावहारिक होगा? इस पर शोधकर्ताओं का सुझाव है कि वास्तव में चंद्रमा पर ‘मौत का कुआं’ ले जाने की बजाय अंतरिक्ष यात्रियों के रहने वाले कक्ष ही गोलाकार बनाए जा सकते हैं ताकि वे उसकी दीवार के चारों ओर दौड़ सकें।
सवाल वही आ जाता है कि क्या चंद्रमा पर अंतरिक्ष यात्रियों के रहने लिए बनाए जाने वाले कक्ष ऐसा ट्रैक बनाने के लिए पर्याप्त बड़े होंगे। बहरहाल, अन्य दल भी इस पर काम कर रहे हैं। जैसे, एक दल अंगों को सिकोड़ने और रक्त प्रवाह को नियंत्रित करने के लिए इनफ्लेटैबल कफ पर काम कर रहा है। (स्रोतफीचर्स)
इस प्रयोग को निम्नलिखित साइट्स पर विडियो रूप में देखा जा सकता है
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://images.newscientist.com/wp-content/uploads/2024/04/30140714/SEI_202022472.jpg?width=1200
कोविड-19 महामारी पूरी दुनिया के लिए अप्रत्याशित त्रासदी थी। तालाबंदी के दौरान दुनिया भर के लोगों को पैसे, भोजन, नौकरी, यातायात आदि चुनौतियों का सामना करना पड़ा था। सरकारों को एक अलग किस्म की चुनौती का सामना करना पड़ा था; अपने आलीशान दफ्तरों में बैठकर उन्हें विपक्ष, पत्रकारों और जनता के सवालों का सामना करना पड़ा था। ऐसे सवाल, जिनका उनके पास कोई जवाब नहीं था: वे अपने नागरिकों का इलाज कैसे करेंगे, महामारी के प्रसार पर अंकुश कैसे लगाएंगे, महामारी के दौरान नागरिकों के लिए आवश्यक सेवाओं का इंतज़ाम कैसे करेंगे?
ऐसी स्थिति से निपटने के लिए कोई पूर्व दिशानिर्देश नहीं थे; न तो स्वास्थ्य कर्मियों के लिए और न ही अधिकतर सरकारों के लिए। परिणामस्वरूप, तालाबंदी और अन्य ऐहतियाती उपाय लागू किए गए जो अलग-अलग स्तर पर सफल भी रहे। जल्द ही टीकों पर काम और टीकाकरण कार्यक्रम भी शुरू हो गया। यहीं से बात बिगड़ने लगीं। कुछ देश खुद अपने यहां टीके बनाने में सक्षम थे, कुछ को टीके आयात करना पड़े। टीकों की मांग भारी थी और आपूर्ति कम। राष्ट्रों द्वारा टीके हासिल करने की होड़ ने समस्या को और गहरा दिया था।
कुछ देशों के पास तो इतने टीके थे कि वे अपनी पूरी आबादी का कई बार टीकाकरण कर सकते थे, जबकि कुछ अन्य देशों के पास अपने सभी फ्रंटलाइन कार्यकर्ताओं के टीकाकरण के लिए भी पर्याप्त टीके नहीं थे। दुनिया के राजनीतिक परिदृश्य में, हमें दिखा कि विकसित देश विकासशील देशों को हाशिए पर धकेल रहे हैं। यदि टीके की जगह कोई अन्य वस्तु होती तो कह सकते थे कि पूरा मामला बाज़ार से संचालित हो रहा है, लेकिन टीके तो सीधे तौर पर जीवन बचाते हैं। ऐसे समय में, कुछ देशों द्वारा ज़रूरत से ज़्यादा टीके खरीदना क्या सिर्फ इसलिए जायज़ ठहराया जा सकता था कि उनके पास अधिक क्रय शक्ति थी? विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) की महामारी संधि का उद्देश्य इसी तरह की समस्या से निपटना है। उम्मीद है, भविष्य में यह संधि महामारियों को बेहतर संभालने में मदद करेगी।
महामारी संधि क्या है?
WHO में इस पर वार्ता जारी है कि भविष्य में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर महामारियों से निपटने के तरीके क्या हों। इन्हें मई 2024 तक अंतिम रूप देने का लक्ष्य है। इस नई संधि को संयुक्त राष्ट्र स्वास्थ्य एजेंसी के 194 सदस्य देशों द्वारा अपनाया जाएगा।
वैसे तो इस संदर्भ में WHO के अनिवार्य (या बाध्यकारी) नियम पहले से ही मौजूद हैं जिन्हें अंतर्राष्ट्रीय स्वास्थ्य विनियमन (IHR) कहा जाता है। लेकिन महामारी रोकथाम, तैयारी और प्रतिक्रिया समझौते (Pandemic Prevention, Preparedness and Response, PPR समझौते) का उद्देश्य पहले से मौजूद नियमों में इज़ाफा करना है ताकि भविष्य की महामारियों से बेहतर तरीके से निपटा जा सके।
कोविड महामारी ने स्पष्ट कर दिया है कि हर राष्ट्र के समस्याओं से अकेले निपटने के दिन लद गए हैं। ͏इस संधि में मज़बूत वैश्विक सहयोग स्थापित करने का प्रयास है। संधि जानकारियां साझा करने के महत्व पर ज़ोर देती है। रोगाणु किसी सरहद को नहीं मानते, और यही बात उनके बारे में हमारे ज्ञान पर भी लागू होना चाहिए। यह समझौता सदस्य राष्ट्रों के बीच डैटा और नमूनों के त्वरित और पारदर्शी आदान-प्रदान करने की बात कहता है। किसी भी नवीन वायरस को जल्दी ताड़ना और पहचानना उससे निपटने की दृष्टि से अहम है।
PPR समझौते का एक अन्य महत्वपूर्ण बिंदु है संसाधनों तक समान पहुंच। महामारियों के परिणाम राष्ट्रों की समृद्धि-संपदा में भेदभाव नहीं करते, लेकिन अफसोस कि कोविड-19 के मामले में ऐसा हुआ। समझौते का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि सभी देशों की, उनकी आर्थिक स्थिति की परवाह किए बिना, महामारी से निपटने के लिए आवश्यक साधन/उपकरणों तक पहुंच हो। इसमें टीके, नैदानिक जांच, उपचार और निजी सुरक्षा साधन (पीपीई किट) शामिल हैं। आदर्श रूप से, यह समझौता इन महत्वपूर्ण संसाधनों के वैश्विक भंडार का आधार तैयार करेगा, जिसे संकट के समय तुरंत इस्तेमाल किया जा सकेगा।
इसका एक अन्य प्रमुख हिस्सा है राष्ट्रीय स्वास्थ्य देखभाल प्रणालियों को मज़बूत करना। महामारी ने पूरी दुनिया की स्वास्थ्य सेवा के बुनियादी ढांचे की कमज़ोरियां उजागर कर दी हैं। PPR समझौते का उद्देश्य देशों को सुदृढ़ सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली बनाने के लिए सशक्त करना है जिसमें पर्याप्त स्टाफ, अत्यधिक मरीज़ों को रख पाने क्षमता और रोग निगरानी क्षमताएं हों। इसमें प्रयोगशालाओं के नेटवर्क, महामारी विज्ञान विशेषज्ञता और सामुदायिक स्वास्थ्य आउटरीच कार्यक्रमों में निवेश शामिल है। राष्ट्रीय स्तर पर स्वास्थ्य तंत्र का मज़बूत आधार समन्वित वैश्विक प्रतिक्रिया में निर्णायक होगा।
कहते हैं, इलाज से बेहतर रोकथाम होती है। यह समझौता महामारी सम्बंधी तैयारियों के लिए रणनीतियों की रूपरेखा तैयार करने पर काम कर रहा है। इसके तहत संभावित महामारी के खिलाफ टीकों और उपचार पर अनुसंधान व विकास पर निवेश शामिल है। इसके अतिरिक्त, संधि वैश्विक महामारी प्रतिक्रिया योजना विकसित करने को बढ़ावा देती है जो संचार, समन्वय प्रोटोकॉल और संसाधन आवंटन तंत्र को स्पष्टता से परिभाषित करे। नियमित पूर्वाभ्यास और सिमुलेशन से इन योजनाओं को परखने में मदद मिलेगी और वास्तविक महामारी उभरने पर बेहतर कदम उठाए जा सकेंगे।
संधि की राह में रोड़े
PPR समझौते पर वार्ता जारी है। यदि सब कुछ योजना के अनुसार हुआ तो भविष्य की महामारियों से लड़ने की हमारी राह उतनी कठिन नहीं होगी जितनी अतीत में रही है। चूंकि सभी देश संधि के सभी हिस्सों पर सहमत नहीं हैं; अंतिम और प्रभावी समझौते का मार्ग चुनौतियों से भरा है।
1. संतुलन: संप्रभुता बनाम सहयोग
संधि की सबसे बड़ी बाधाओं में से एक है राष्ट्रीय संप्रभुता और वैश्विक सहयोग के बीच संतुलन बनाना। अपनी स्वास्थ्य देखभाल प्रणालियों और निर्णय-प्रक्रियाओं पर से नियंत्रण छोड़ने में राष्ट्रों की हिचक स्वाभाविक है। उन्हें WHO या सार्वजनिक स्वास्थ्य के संचालक अन्य राष्ट्रपारी निकायों द्वारा सार्वजनिक स्वास्थ्य सम्बंधी उपायों में दखलअंदाज़ी का डर है जो उनकी अर्थव्यवस्था या सामाजिक ताने-बाने को अस्त-व्यस्त कर सकती है।
अलबत्ता, संधि की प्रभाविता के लिए एक स्तर का अंतर्राष्ट्रीय सहयोग ज़रूरी है। जल्दी नियंत्रण के लिए महामारी के बारे में शीघ्रातिशीघ्र और पारदर्शिता से जानकारी साझा करना अहम है। इसके लिए परस्पर विश्वास और वैश्विक स्वास्थ्य सुरक्षा को तात्कालिक राष्ट्रीय हितों के ऊपर रखने की इच्छाशक्ति ज़रूरी है।
संभावित समाधान
R͏ समझौता निर्णय लेने की एक स्तरबद्ध प्रणाली स्थापित कर सकता है, जिसमें समन्वित प्रतिक्रिया की ज़रूरत वाली आपातकालीन स्थितियों के सम्बंध में स्पष्ट दिशानिर्देश हों। वहीं, गैर-आपातकालीन स्थितियों में राष्ट्रीय स्वायत्तता का सम्मान किया जाए।
WHO को सशक्त किया जा सकता है, और साथ ही सदस्य राष्ट्रों का अपनी सार्वजनिक स्वास्थ्य कार्रवाइयों के निर्णय का अंतिम अधिकार होना चाहिए।
2. समता बनाम लाभ: संसाधन द्वंद्व
एक और बड़ी चुनौती है महामारी के दौरान संसाधनों तक समतामूलक पहुंच सुनिश्चित करना। पिछली महामारी में विकसित और विकासशील देशों के बीच संसाधनों तक पहुंच में भारी असमानता देखी गई थी जिसके चलते गरीब देश जूझते रहे। PPR͏ समझौते का लक्ष्य सुरक्षित टीकों, उपचारों और नैदानिक सुविधाओं जैसे ज़रूरी साधनों तक सभी की उचित और किफायती पहुंच सुलभ करने वाला तंत्र स्थापित करना है।
गौरतलब है कि इस लक्ष्य को प्राप्त करने में दवा कंपनियों का मुनाफा कमाने का उद्देश्य आड़े आएगा। ये कंपनियां अनुसंधान और विकास पर भारी धन निवेश करती हैं। ज़ाहिर है वे अपने निवेश पर मुनाफा भी चाहेंगी। इस संदर्भ में बौद्धिक संपदा का अधिकार एक प्रमुख समस्या के रूप में सामने आता है।
संभावित समाधान
समझौता अनिवार्य लाइसेंसिंग जैसे तरीके आज़मा सकता है, जिसके तहत देशों को महामारी के दौरान पेटेंट दवाओं के जेनेरिक संस्करण उत्पादन की अनुमति मिल जाए। नवाचार और बौद्धिक संपदा पर अधिकार सम्बंधी चिंताओं को दूर करने के लिए समझदारी से बातचीत करने की आवश्यकता है।
, निदान और उपचार का एक वैश्विक भंडार बनाया जा सकता है, जो अमीर देशों द्वारा वित्त पोषित हो और महामारी के दौरान सभी देशों के लिए सुलभ हो।
3. लचीलेपन के बिल्डिंग ब्लॉक: स्वास्थ्य तंत्र का सशक्तिकरण
महामारी ने दुनिया भर की स्वास्थ्य प्रणालियों की कमज़ोरियों को उजागर किया है। PPR͏ समझौते का उद्देश्य देशों को सुदृढ़ सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली बनाने के लिए सशक्त करना है जिसमें पर्याप्त स्टाफ, अत्यधिक मरीज़ों को संभालने की क्षमता और रोग निगरानी क्षमताएं हों। इसमें प्रयोगशाला के नेटवर्क, महामारी विज्ञान विशेषज्ञता और सामुदायिक स्वास्थ्य आउटरीच कार्यक्रमों में निवेश शामिल है।
हालांकि यह भी ध्यान रखना ज़रूरी है कि सीमित वित्तीय संसाधनों से जूझ रहे विकासशील देशों के लिए इतना बड़ा निवेश करना मुश्किल हो सकता है। इसके अलावा, राष्ट्रीय स्वास्थ्य प्रणालियों के सुदृढ़ीकरण में समय लगता है, और अक्सर महामारी इसका इंतज़ार नहीं करती।
संभावित समाधान
, विकासशील देशों की स्वास्थ्य प्रणालियों को मज़बूत करने के लिए एक समर्पित वित्तपोषण तंत्र स्थापित किया जा सकता है। जिसमें समृद्ध राष्ट्र तयशुदा मानदंडों के आधार पर योगदान दें।
, प्रयोगशाला नेटवर्क स्थापित करना और रोगों पर नज़र रखने के सर्वोत्तम तरीके साझा करना शामिल हो सकता है।
, जो पहले से ही जारी किए जा सकते हैं ताकि आवश्यक तैयारियों के लिए धन जुटाया जा सके।
4. विज्ञान बनाम राजनीति: साक्ष्य-आधारित निर्णयों की चुनौती
महामारी के प्रति प्रभावी कार्रवाई पुख्ता वैज्ञानिक साक्ष्यों पर निर्भर करती है। लेकिन, राजनीति अक्सर इस पर पानी फेर देती है। डिजिटल युग में अफवाहें और गलत-जानकारियां आसानी और तेज़ी से फैलती हैं, और कभी-कभी राजनीतिक एजेंडे देश के रोग नियंत्रण के तरीकों को प्रभावित कर सकते हैं।
उदाहरण के लिए, राजनेता आर्थिक उथल-पुथल की समस्या से बचने के लिए प्रकोप की गंभीरता को कम बता सकते हैं या वे साक्ष्य-आधारित सार्वजनिक स्वास्थ्य उपायों की बजाय अंतर्राष्ट्रीय यात्राओं पर रोक लगाने को प्राथमिकता दे सकते हैं। PPR͏ समझौते के तहत साक्ष्य-आधारित निर्णय प्रक्रिया के लिए ऐसा स्पष्ट तंत्र बनाने की आवश्यकता है।
संभावित समाधान
͏ समझौते के तहत, प्रकोप के दौरान सदस्य राष्ट्रों को निष्पक्ष मार्गदर्शन देने के लिए एक स्वतंत्र वैज्ञानिक सलाहकार निकाय बनाया जा सकता है।
, और वैज्ञानिक निष्कर्षों को सभी के साथ साझा करना महत्वपूर्ण होगा।
5. अज्ञात की बातचीत: लचीलेपन की चुनौती
महामारियों की प्रकृति है कि वे अक्सर अनुमानों से परे होती हैं। नए वायरस में ऐसी विशेषताएं हो सकती है जो पहले कभी किसी में न रही हों, जिससे विभिन्न नियंत्रण उपायों की प्रभावशीलता बदल सकती है। इसलिए संधि में कुछ हद तक लचीलापन आवश्यक है।
लेकिन जैसा कि हम भली-भांति जानते हैं, जटिल बारीकियों वाले दस्तावेज़ पर चर्चा कर हल निकालना एक धीमी और बोझिल प्रक्रिया हो सकती है। लचीलेपन पर संतुलन बनाना और कार्रवाई के लिए एक स्पष्ट रूपरेखा बनाना महत्वपूर्ण साबित होगा।
संभावित समाधान
͏ समझौता महामारी के दौरान शीघ्र निर्णय लेने के लिए एक रूपरेखा दे सकता है, ताकि प्रत्येक प्रकोप की विशेषताओं के आधार पर अनुकूलन की गुंजाइश रहे। इसके अंतर्गत एक केंद्रीय समन्वय निकाय को अस्थायी सिफारिशें जारी करने के लिए समर्थ बनाना शामिल हो सकता है।
, संभवत: हर पांच साल में, नए वैज्ञानिक ज्ञान और पिछले प्रकोपों से सीखे गए सबक के आधार पर अपडेट करने में मदद करेगी। इससे उभरते खतरों के लिए संधि प्रासंगिक और प्रभावी बनी रहेगी।
, प्रकोप का सिमुलेशन और कार्रवाई योजनाओं का परीक्षण करने के लिए प्रोत्साहित कर सकती है। इन प्रयासों से कमज़ोरियां और सुधार के बिंदु पहचानने में मदद मिलेगी।
निष्कर्ष
कोविड-19 महामारी ने हमारी कमज़ोरियों को उजागर किया, और सरहदों के बंधनों से स्वतंत्र वायरस का विनाशकारी रूप दिखाया है। इसके मद्देनजर, प्रस्तावित PPR͏ समझौता आशा की किरण जगाता है। हालांकि संधि को अंतिम स्वरूप में आने के लिए कई चुनौतियों से निपटना है। उपरोक्त चिंताओं और चुनौतियों को संबोधित करती वार्ता संधि को एक वैश्विक सुरक्षा कवच का रूप दे सकती है, ताकि महामारी आने पर कोई भी देश पीछे न छूटे, वंचित न रहे। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.consilium.europa.eu/media/49751/10-points-infographic-pandemics-treaty-thumbnail-2021.png
वर्ष 2014 में उमा आहूजा और उनके साथियों ने एशियन एग्री-हिस्ट्री पत्रिका में प्रकाशित एक शोधपत्र में बताया था कि नारियल के पेड़ों को मलेशिया (Malesia) जैव-भौगोलिक क्षेत्र मूल का माना जाता है। जैव-भौगोलिक क्षेत्र यानी वह क्षेत्र जिसमें वितरित जंतुओं और पादपों के गुणों में समानता होती है। मलेशिया जैव-भौगोलिक क्षेत्र में दक्षिण पूर्व एशिया (विशेष रूप से भारत), इंडोनेशिया, ऑस्ट्रेलिया, न्यू गिनी और प्रशांत महासागर में स्थित कई द्वीप समूह आते हैं। इस पेपर में पुरातात्विक साक्ष्यों, पुरालेखों एवं ऐतिहासिक अभिलेखों, और इसके उपयोग एवं इससे जुड़ी लोककथाओं के माध्यम से नारियल के इतिहास पर बात की गई है।
पुरातात्विक खुदाई के अलावा भारत में नारियल का उल्लेख शिलालेखों तथा धार्मिक, कृषि और आयुर्वेदिक महत्व के ग्रंथों में मिला है। इसके उपयोगों की बहुलता ने इसे जीवन-वृक्ष, समृद्धि-वृक्ष और कल्पवृक्ष (एक वृक्ष जो जीवन की सभी ज़रूरतें पूरी करता है) जैसे विशेषणों से नवाज़ा है। लेखक बताते हैं कि इसके खाद्य महत्व के अलावा इसके स्वास्थ्य, औषधीय और सौंदर्य लाभ भी हैं।
भारत में, नारियल मुख्य रूप से दक्षिणी राज्यों – केरल, कर्नाटक, तमिलनाडु, तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में उगाया जाता है। 90% से अधिक नारियल का उत्पादन इन्हीं राज्यों में होता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि इन पेड़ों को गर्म और रेतीली मिट्टी की आवश्यकता होती है – ऐसी मिट्टी जिसमें जल निकासी बढ़िया हो और पोषक तत्व भरपूर हों। साथ ही, इन्हें गर्म और आर्द्र जलवायु, और प्रचुर वर्षा की भी ज़रूरत होती है।
उत्तर भारत की जलवायु मुख्यत: समशीतोष्ण है, जिसमें – जाड़े में अच्छी ठंड और गर्मियों में भीषण गर्म पड़ती है। इस क्षेत्र में अलग-अलग मौसम होते हैं और वर्षा भी असमान होती है, जो नारियल के पेड़ों की वृद्धि के लिए अनुकूल नहीं है। हालांकि, पूर्वोत्तर के कुछ राज्य भी उपयुक्त तापमान और वर्षा के चलते नारियल उगाते हैं, लेकिन वहां की मिट्टी चिकनी है जो नारियल के पेड़ों के उगने के लिए आदर्श नहीं है।
नारियल की भूमिका
भगवान को प्रसाद में चढ़ाई जाने वाली कई वस्तुओं में नारियल का एक विशेष और उच्च स्थान है। इसका उपयोग धार्मिक और सामाजिक समारोहों में किया जाता है, वहां भी जहां इसकी खेती नहीं होती। नारियल के पेड़ का रत्ती भर हिस्सा भी बेकार नहीं जाता, सभी हिस्सों को किसी न किसी उपयोग में लिया जाता है। अपनी अनगिनत उपयोगिताओं और खाद्य, चारा एवं पेय के रूप में प्रत्यक्ष उपयोग के ज़रिए नारियल ने विभिन्न समुदायों के लोगों के बीच सांस्कृतिक, सामाजिक, धार्मिक और भाषाई तौर पर जगह बना ली है।
दक्षिण भारत में नारियल दैनिक जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। प्रत्येक मंदिर को नारियल के पेड़ों से सजाया जाता है, इसके (श्री)फल भगवान को चढ़ाए जाते हैं और भक्तों को प्रसाद के रूप में थोड़ा सा खोपरा और नारियल पानी दिया जाता है।
तरावट और स्वास्थ्य के मामले में नारियल पानी का कोई सानी नहीं है; यह तो अमृत ही है! और, मिठाई ‘कोलिक्कतई’ (या ‘मोदक’) का भी कोई सानी नहीं है, जो नारियल की ‘गरी’ से बनाई जाती है! (यह भगवान गणेश की पसंदीदा मिठाई है)। इसके अलावा, तमिलनाडु में पले-बढ़े होने के कारण मुझे (मेरी इच्छा के विपरीत) मेरी दादी हर महीने अरंडी के तेल या नारियल के तेल से स्नान करने के लिए मजबूर किया करती थीं!
स्वास्थ्य लाभ
नारियल के कई फायदे हैं। वेबसाइट Healthline.com इसकी ‘गरी’ में पाए जाने वाले कई पोषक तत्वों को सूचीबद्ध करती है: भरपूर वसा, भरपूर फाइबर, और विटामिन ए, डी, ई और के, जो अधिक खाने को नियंत्रित करते हैं और पेट को स्वस्थ रखने में मदद करते हैं।
इसके तेल की बात करें तो कुछ समूहों का सुझाव है कि नारियल का तेल शरीर की धमनियों और नसों में रक्त प्रवाह को लाभ पहुंचाता है, इस प्रकार यह हमारे हृदय की सेहत के लिए फायदेमंद होता है। कुछ समूह यह भी सुझाव देते हैं कि इससे अल्ज़ाइमर रोग थोड़ा टल सकता है, हालांकि इस सम्बंध में अधिक प्रमाण की आवश्यकता है।
एक वरिष्ठ नागरिक होने के नाते मैं नारियल तेल का उपयोग करता हूं, इस उम्मीद में कि यह मुझे ऐसी स्थितियों से बचाएगा। मैं अक्सर अपने सुबह के नाश्ते में टोस्ट पर मक्खन की जगह नारियल का तेल ही लगाता हूं। मेरी दादी देखतीं, तो प्रसन्न होतीं! (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://th-i.thgim.com/public/news/national/n9g9zw/article68110675.ece/alternates/LANDSCAPE_1200/iStock-1450659776.jpg
इन दिनों वैद्य और सेलिब्रिटीज़ अश्वगंधा का काफी गुणगान कर रहे हैं। यह औषधीय पौधा हज़ारों वर्षों से पारंपरिक भारतीय चिकित्सा पद्धति आयुर्वेद में उपयोग किया जाता रहा है। और कुछ वैज्ञानिक अध्ययनों ने भी दर्शाया है कि तनाव, चिंता, अनिद्रा तथा समग्र स्वास्थ्य प्रबंधन में अश्वगंधा उपयोगी है। इन सबके चलते अश्वगंधा में जिज्ञासा स्वाभाविक है।
कहना न होगा कि अश्वगंधा सभी समस्याओं का कोई रामबाण इलाज नहीं है। इस बारे में न्यूयॉर्क स्थित प्रेस्बिटेरियन हॉस्पिटल की विशेषज्ञ चिति पारिख के अनुसार इसकी प्रभाविता व्यक्ति के लक्षण, शरीर की संरचना और चिकित्सा इतिहास के आधार पर अलग-अलग हो सकती है। इसके अलावा इसके गलत उपयोग से प्रतिकूल प्रभाव भी पड़ सकते हैं।
अश्वगंधा (Withania somnifera) जिसे इंडियन जिनसेंग या इंडियन विंटर चेरी के रूप में भी जाना जाता है, एक सदाबहार झाड़ी है जिसका उपयोग सदियों से विभिन्न स्वास्थ्य सम्बंधी समस्याओं के लिए किया जाता रहा है। पारिख इसे एक संतुलनकारी बताती हैं। संतुलनकारी या एडाप्टोजेन ऐसे पदार्थ होते हैं जो शरीर को तनाव के अनुकूल होने और संतुलन बहाल करने में मदद करते हैं, और साथ ही सूजन (शोथ) को कम करने, ऊर्जा बढ़ाने, चिंता को कम करने और नींद में सुधार करने में उपयोगी होते हैं।
ऐसा माना जाता है कि यह पौधा अपने सक्रिय घटकों (जैसे एल्केलॉइड, लैक्टोन और स्टेरॉइडल यौगिकों) के माध्यम से शरीर में तनाव प्रतिक्रिया को नियमित करने और शोथ को कम करने का काम करता है। नैसर्गिक रूप से पाए जाने वाले स्टेरॉइड यौगिक विदानोलाइड्स को एंटीऑक्सीडेंट और शोथ-रोधी प्रभावों का धनी माना जाता है। कई अध्ययनों से यह साबित हुआ है कि विदानोलाइड्स के सांद्र अर्क सबसे प्रभावी होते हैं।
नॉर्थवेस्टर्न युनिवर्सिटी के ओशर सेंटर फॉर इंटीग्रेटिव हेल्थ की मेलिंडा रिंग के अनुसार ये जैव-सक्रिय घटक कोशिका क्रियाओं को निर्देशित करने वाले संकेतक मार्गों को प्रभावित कर सकते हैं लेकिन इनकी सटीक क्रियाविधि को समझने के लिए अभी भी शोध चल रहे हैं।
कई छोटे पैमाने के शोध अश्वगंधा के लाभों का समर्थन करते हैं। भारत में 2021 के दौरान 491 वयस्कों पर किए गए सात अध्ययनों की समीक्षा में पाया गया कि जिन प्रतिभागियों ने अश्वगंधा का सेवन किया उनमें प्लेसिबो (औषधि जैसे दिखने वाले गैर-औषधि पदार्थ) लेने वालों की तुलना में तनाव और चिंता का स्तर काफी कम रहा। भारत में ही 372 वयस्कों पर किए गए पांच अध्ययनों की समीक्षा में नींद की अवधि और गुणवत्ता में मामूली लेकिन उल्लेखनीय सुधार देखा गया। यह खासकर अनिद्रा से पीड़ित लोगों के लिए काफी उपयोगी सिद्ध हुआ।
इसके अलावा अश्वगंधा की पत्तियों में पाया जाने वाला ट्रायएथिलीन ग्लायकॉल संभावित रूप से GABA रिसेप्टर्स को प्रभावित कर नींद को बढ़ावा देता है, जो तनाव या भय से जुड़ी तंत्रिका कोशिका गतिविधि को अवरुद्ध करके मस्तिष्क में एक शांत प्रभाव पैदा करता है। रिंग यह भी बताती हैं कि अश्वगंधा अर्क नींद से जागने पर बिना किसी गंभीर दुष्प्रभाव के मानसिक सतर्कता में सुधार करता है। कुछ अध्ययन गठिया, यौन स्वास्थ्य, पुरुषों में बांझपन, मधुमेह और एकाग्रता अवधि और स्मृति सुधार में अश्वगंधा को प्रभावी बताते हैं। लेकिन इनमें से अधिकांश मामलों में और अधिक डैटा की आवश्यकता है।
सुरक्षितता के मामले में यू.एस. नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ की विशेषज्ञ बारबरा सी. सॉर्किन का सुझाव है कि अधिकांश लोगों के लिए लगभग तीन महीने तक अश्वगंधा का सेवन सुरक्षित है। लेकिन गर्भवती या स्तनपान कराने वाली महिलाओं, प्रोस्टेट कैंसर पीड़ितों और थायराइड हारमोन की दवाओं का सेवन करने वालों को सावधानी बरतनी चाहिए। अश्वगंधा संभवत: यकृत की समस्याएं पैदा कर सकता है, थायरॉइड ग्रंथि के कार्य को प्रभावित कर सकता है तथा थायरॉइड औषधियों व अन्य दवाओं के साथ अंतर्क्रिया भी कर सकता है। यकृत स्वास्थ्य और हारमोन के स्तर पर इसके प्रभाव को देखते हुए डेनमार्क में तो अश्वगंधा पर प्रतिबंध भी लगा दिया गया है। लेकिन भारत में इसका काफी अधिक उपयोग किया जा रहा है।
चूंकि यू.एस. में अश्वगंधा जैसे आहार अनुपूरक का नियमन दवाओं की तरह नहीं किया जाता है, इसलिए अनुपूरकों के वास्तविक घटक और गुणवत्ता पता करना मुश्किल होता है। लेकिन कंज़्यूमरलैब जैसी स्वतंत्र प्रयोगशाला संस्थाएं उपभोक्ताओं को गुणवत्ता मानकों पर खरा उतरने वाले ब्रांड पहचानने में मदद कर सकती हैं।
बहरहाल, विशेषज्ञ अश्वगंधा के सेवन से पहले डॉक्टर से परामर्श लेने की सलाह देते हैं ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि यह आपकी स्वास्थ्य स्थितियों और दवाओं के साथ उपयुक्त है या नहीं। साथ ही इस बात का ख्याल रखें कि ‘अति सर्वत्र वर्जयेत’। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://en.wikipedia.org/wiki/Withania_somnifera#/media/File:Withania_somnifera00.jpg