अफ्रीका में पोलियो के नए मामले टीके से पैदा हुए हैं

हाल ही में ग्लोबल पोलियो इरेडिकेशन इनिशिएटिव (GPEI) ने अफ्रीका से ऐसे सात बच्चों की रिपोर्ट दी है जो हाल ही में पोलियो की वजह से अपंग हो गए हैं। रिपोर्ट के मुताबिक ये टीके से पैदा हुए पोलियोवायरस स्ट्रेन की वजह से बीमार हुए हैं। पिछले वर्ष अफ्रीका, यमन और अन्य स्थानों से 786 बच्चों के पोलियोग्रस्त होने की खबर थी। लेकिन हाल के 7 मामले थोड़े अलग हैं। GPEI के मुताबिक ये मामले उस टीके से सम्बंधित हैं, जिसे ऐसी ही दिक्कतों से बचने के लिए विकसित किया गया था।

इस टीके को नॉवेल ओरल पोलियो वैक्सीन टाइप 2 (nOPV2) कहते हैं और पिछले दो वर्षों से विशेषज्ञ इस बात की निगरानी कर रहे हैं कि क्या यह यदा-कदा रोग-प्रकोप पैदा कर सकता है।

वैसे नॉवेल वैक्सीन कोई जादू की छड़ी नहीं है लेकिन अब तक प्राप्त जानकारी के आधार पर कहा जा सकता है कि यह पूर्व में इस्तेमाल किए गए टीके (मोनोवेलेंट ओपीवी) से कहीं बेहतर है। और मुंह से दिया जाने वाला पोलियो का टीका (ओपीवी) गरीब देशों के लिए सबसे बेहतर माना गया है। इसमें वायरस को दुर्बल करके शरीर में डाला जाता है और प्रतिरक्षा तंत्र उसे पहचानकर वास्तविक वायरस से लड़ने के तैयार हो जाता है।  एक फायदा यह है कि टीकाकृत बच्चे मल के साथ दुर्बलीकृत वायरस त्यागते रहते हैं जो प्रदूषित पानी के साथ अन्य बच्चों के शरीर में पहुंचकर उन्हें भी सुरक्षा प्रदान कर देते हैं।

लेकिन इसका मतलब यह भी है कि ये दुर्बलीकृत वायरस अप्रतिरक्षित लोगों में प्रवाहित होते रहते हैं और उत्परिवर्तन हासिल करते जाते हैं। इसलिए यह संभावना बनी रहती है कि एक समय के बाद इतने उत्परिवर्तन इकट्ठे हो जाएंगे कि वायरस फिर से लकवा पैदा करने की स्थिति में पहुंच जाएगा। पोलियोवायरस के तीन स्ट्रेन हैं (1, 2 और 3) तथा उपरोक्त स्थिति टाइप 2 में ज़्यादा देखी गई है।

इस समस्या से निपटने के लिए टीके के वायरस के साथ फेरबदल की गई ताकि यह पलटकर अपंगताजनक स्थिति में न पहुंच सके। इस लिहाज़ से nOPV2 जेनेटिक दृष्टि से कहीं अधिक टिकाऊ है और इसमें उत्परिवर्तन की दर बहुत कम है। परीक्षण के दौरान 28 देशों में 60 करोड़ खुराकें दी गई हैं और अब तक कोई समस्या नहीं देखी गई थी। अब अफ्रीका में इन सात मामलों का सामने आना एक नई बात है जिसकी जांच-पड़ताल की जा रही है। एक मत यह है कि यदि कई देशों में टीकाकरण की दर कम रहती है तो ज़्यादा संभावना रहेगी कि वायरस पलटकर अपंगताजनक बन जाए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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मानव मस्तिष्क ऑर्गेनॉइड का चूहों में प्रत्यारोपण

जकल ऑर्गेनॉइड्स (अंगाभ) अनुसंधान की एक प्रमुख धारा है। ऑर्गेनॉइड का मतलब होता है ऊतकों का कृत्रिम रूप से तैयार किया गया एक ऐसा पिंड जो किसी अंग की तरह काम करे। विभिन्न प्रयोगशालाओं में विभिन्न अंगों के अंगाभ बनाने के प्रयास चल रहे हैं। इन्हीं में से एक है मस्तिष्क अंगाभ।

सेल स्टेम सेल नामक शोध पत्रिका में प्रकाशित एक शोध पत्र में बताया गया है कि पेनसिल्वेनिया विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने मानव मस्तिष्क अंगाभ को चूहे के क्षतिग्रस्त मस्तिष्क में सफलतापूर्वक प्रत्यारोपित कर दिया है। और तो और, अंगाभ ने शेष मस्तिष्क के साथ कड़ियां भी जोड़ लीं और प्रकाश उद्दीपन पर प्रतिक्रिया भी दी।

शोध समुदाय में इसे एक महत्वपूर्ण अपलब्धि माना जा रहा है क्योंकि अन्य अंगों की तुलना में मस्तिष्क कहीं अधिक जटिल अंग है जिसमें तमाम कड़ियां जुड़ी होती हैं। इससे पहले मस्तिष्क अंगाभ को शिशु चूहों में ही प्रत्यारोपित किया गया था; मनुष्यों की बात तो दूर, वयस्क चूहों पर भी प्रयोग नहीं हुए थे। 

वर्तमान प्रयोग में पेनसिल्वेनिया की टीम ने कुछ वयस्क चूहों के मस्तिष्क के विज़ुअल कॉर्टेक्स नामक हिस्से का एक छोटा सा भाग निकाल दिया। फिर इस खाली जगह में मानव मस्तिष्क कोशिकाओं से बना अंगाभ डाल दिया। यह अंगाभ रेत के एक दाने के आकार का था। अगले तीन महीनों तक इन चूहों के मस्तिष्क की जांच की गई।

जैसी कि उम्मीद थी प्रत्यारोपित अंगाभों में 82 प्रतिशत पूरे प्रयोग की अवधि में जीवित रहे। पहले महीने में ही स्पष्ट हो गया था कि चूहों के मस्तिष्कों में इन अंगाभों को रक्त संचार में जोड़ लिया गया था और जीवित अंगाभ चूहों के दृष्टि तंत्र में एकाकार हो गए थे। यह भी देखा गया कि अंगाभों की तंत्रिका कोशिकाओं और चूहों की आंखों के बीच कनेक्शन भी बन गए थे। यानी कम से कम संरचना के लिहाज़ से तो अंगाभ काम करने लगे थे। इससे भी आगे बढ़कर, जब शोधकर्ताओं ने इन चूहों की आंखों पर रोशनी चमकाई तो अंगाभ की तंत्रिकाओं में सक्रियता देखी गई। अर्थात अंगाभ कार्य की दृष्टि से भी सफल रहा था। लेकिन फिलहाल पूरा मामला मनुष्यों में परीक्षण से बहुत दूर है हालांकि यह सफलता आगे के लिए आशा जगाती है। (स्रोत फीचर्स)

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नई मच्छरदानी दोहरी सुरक्षा देगी

हाल ही में विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने नए कीटनाशक मिश्रण से उपचारित मच्छरदानी के उपयोग का अनुमोदन किया है। इस नई मच्छरदानी में ऐसे दो रसायनों का उपयोग किया गया है जो मलेरिया फैलाने वाले मच्छरों को अधिक प्रभावी ढंग से खत्म करने में सक्षम हैं। जल्दी ही यह उपचारित मच्छरदानी उप-सहारा अफ्रीका में व्यापक रूप से उपलब्ध हो जाएगी जहां पिछले वर्ष मलेरिया से 6 लाख से अधिक लोगों की जान जा चुकी है।

कीटनाशक उपचारित मच्छरदानी का डबल फायदा है। इसके अंदर सोता व्यक्ति तो सुरक्षित रहता ही है, इस पर बैठने वाले मच्छरों का भी खात्मा हो जाता है। 2000 से 2015 के बीच मलेरिया के प्रकोप में 40 प्रतिशत गिरावट का श्रेय उपचारित मच्छरदानियों को जाता है।

लेकिन मच्छर इनमें प्रयुक्त पाएरेथ्रॉइड नामक कीटनाशक के प्रतिरोधी हो चले थे। नई अनुमोदित मच्छरदानी में पाएरेथ्रॉइड के साथ क्लोरफेनापिर का उपयोग किया गया है। क्लोरफेनापिर मच्छरों के माइटोकॉन्ड्रिया को निशाना बनाता है जिसके चलते मांसपेशियों में मरोड़ पैदा होती है और मच्छर हिलडुल या उड़ नहीं पाते हैं।

वैसे पिछले वर्ष भी WHO ने एक नए प्रकार की मच्छरदानी को सीमित स्वीकृति प्रदान की थी। इस मच्छरदानी में पाएरेथ्रॉइड के साथ पीबीओ का उपयोग किया गया था जो मच्छरों की पाइरेथ्रॉइड का विघटन करने की क्षमता को खत्म करता है। ये केवल-पाइरेथ्रॉइड मच्छरदानी की तुलना में काफी महंगी थीं और विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कहा था कि इनके उपयोग से मलेरिया के प्रकोप में कमी से जितना फायदा होता है वह इनकी लागत के हिसाब से कम है।

क्लोरफेनापिर ने इस समस्या को दूर कर दिया है। तंज़ानिया और बेनिन में किए गए अध्ययनों से पता चला है कि नई मच्छरदानियों के उपयोग से बच्चों में मलेरिया का प्रकोप लगभग आधा रह गया। अर्थात इन मच्छरदानी के उपयोग में होना वाला खर्च मलेरिया उपचार की लागत से काफी कम साबित हुआ जो WHO द्वारा अनुमोदन के लिए पर्याप्त कारण था।                  

गौरतलब है कि क्लोरफेनापिर का उपयोग सबसे पहले अमेरिका में वर्ष 2001 में गैर-खाद्य फसलों के लिए ग्रीनहाउसों में किया गया था। पक्षियों और जलीय जीवों में विषाक्तता के कारण खेतों पर इसके छिड़काव पर प्रतिबंध है। चूंकि इस मच्छरदानी का उपयोग घर के अंदर किया जा रहा है और व्यापक पर्यावरण से इसका सीमित संपर्क है इसलिए पर्यावरण की दृष्टि से इसे सुरक्षित माना जा रहा है।

विशेषज्ञों की चेतावनी है कि देर सबेर मच्छरों में क्लोरफेनापिर के खिलाफ भी प्रतिरोध उभरना तय है। इसलिए प्रतिरोध पैदा होने की रफ्तार को धीमा करने की तकनीकें विकसित करना महत्वपूर्ण होगा। इसके लिए नई मच्छरदानियों के साथ-साथ घरों में अंदर कीटनाशक छिड़काव या कुछ वर्षों के लिए पाइरेथ्रॉइड-पीबीओ मच्छरदानियों का उपयोग भी करते रहना ठीक होगा। (स्रोत फीचर्स)

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रोगाणुओं के अध्ययन की उच्च-सुरक्षा प्रयोगशालाओं में वृद्धि

पिछले कुछ वर्षों में घातक रोगाणुओं का अध्ययन करने वाली प्रयोगशालाओं की संख्या में तेज़ी से वृद्धि हुई है। ऐसे में इबोला और निपाह जैसे जानलेवा रोगाणुओं के लैब से लीक होने या दुरूपयोग का जोखिम बढ़ गया है। ग्लोबल बायोलैब्स प्रोजेक्ट की संस्थापक किंग्स कॉलेज लंदन की जैव सुरक्षा विशेषज्ञ फिलिपा लेंटज़ोस ने बढ़ते जोखिम पर चिंता व्यक्त की है। सबसे अधिक जैव-सुरक्षा प्रयोगशालाएं अकेले युरोप में हैं जिनमें से तीन-चैथाई तो शहरी क्षेत्रों में हैं।

ग्लोबल बायोलैब्स रिपोर्ट 2023 के अनुसार विश्व स्तर पर 27 देशों में 51 बीएसएल-4 प्रयोगशालाएं हैं। इन सभी प्रयोगशालाओं में उच्च स्तरीय सुरक्षा मानकों का पालन किया जाता है। एक दशक पूर्व इन प्रयोगशालाओं की संख्या लगभग आधी थी। बीएसएल-4 प्रयोगशालाएं 2001 में एंथ्रेक्स और 2003 में सार्स के प्रकोप के बाद स्थापित की गई थीं। तीन-चौथाई बीएसएल-4 प्रयोगशालाओं का शहरी क्षेत्रों में होने का मतलब है कि ये एक बड़ी आबादी के लिए जोखिम पैदा कर सकती हैं। निकट भविष्य में 18 नई बीएसएल-4 प्रयोगशालाएं शुरू होने की संभावना है जो अधिकांशत: भारत, फिलीपींस वगैरह अधिकांश एशियाई देशों में होंगी। इस रिपोर्ट में 57 बीएसएल-3 प्लस अन्य प्रयोगशालाओं का भी ज़िक्र है जिनमें बीएसएल-3 से अधिक सुरक्षा उपायों का पालन किया जाता है। इनमें से अधिकांश युरोप में हैं जहां एच5एन1 इन्फ्लुएंज़ा जैसे रोगाणुओं का अध्ययन किया जा रहा है। एशिया में भी कई ऐसी प्रयोगशालाएं हैं जहां खतरनाक रोगाणुओं का अध्ययन किया जा रहा है। हालिया सार्स-कोव-2 के बाद से तो बीएसएल-4 प्रयोगशालाओं में काफी तेज़ी से वृद्धि हुई है और ऐसी संभावना है कि जल्द ही यह संख्या दुगनी हो जाएगी। ऐसे में वायरस के प्रयोगशाला से लीक होने की आशंका बनी रहती है।

गौरतलब है कि कई देशों में बीएसएल-4 प्रयोगशालाओं की निगरानी के लिए पर्याप्त नीतियों और तरीकों का हमेशा से अभाव रहा है। केवल कनाडा ही एक ऐसा देश है जहां रोगाणुओं पर होने वाले गैर-सरकारी अनुसंधान की निगरानी के लिए भी कानून बनाए गए हैं। इनमें विशेष रूप से उन प्रयोगों को शामिल किया गया है जिनके दोहरे उपयोग की संभावना हो सकती है। उक्त रिपोर्ट में आग्रह किया गया है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा सशक्त मार्गदर्शन और बाहरी विशेषज्ञों द्वारा ऑडिट के लिए सभी देशों की सहमति बनवाने की ज़रूरत है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि प्रयोगशालाएं अंतर्राष्ट्रीय मानकों को पूरा करती हैं। (स्रोत फीचर्स)

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सामान्य स्वीटनर प्रतिरक्षा प्रणाली में टांग अड़ाता है

म तौर पर मधुमेह के रोगियों को चीनी की बजाय सुक्रेलोज़ जैसे कृत्रिम स्वीटनर का उपयोग करते देखा जाता है। इनके बारे में आम मान्यता है कि ये केवल जीभ को मिठास का एहसास कराते हैं, परन्तु शरीर पर इनका कोई अन्य प्रभाव नहीं पड़ता। लेकिन एक हालिया अध्ययन ने दर्शाया है कि स्वीटनर का स्वाद से परे जैविक प्रभाव होता है।

नेचर पत्रिका में प्रकाशित एक अध्ययन में सुक्रेलोज़ की उच्च खुराक से चूहों की प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया पर गंभीर प्रभाव देखे गए हैं। सुक्रेलोज़ सामान्य शकर (सुक्रोज़) से 600 गुना अधिक मीठा होता है। वैसे शोधकर्ताओं ने मनुष्यों पर इसके प्रभावों का अध्ययन नहीं किया है लेकिन लगता है कि सुक्रेलोज़ की सामान्य खपत शरीर के लिए हानिकारक नहीं होगी।

गौरतलब है कि शकर के विकल्पों (शुगर सब्स्टिट्यूट) को आंत के सूक्ष्मजीवों में परिवर्तन जैसे जैविक प्रभाव दिखने के बाद इन पर विशेष अध्ययन किए जा रहे हैं। प्रतिरक्षा प्रणाली पर सुक्रेलोज़ के प्रभाव को समझने के लिए लंदन स्थित फ्रांसिस क्रिक इंस्टीट्यूट के आणविक जीवविज्ञानी फैबियो ज़ानी और साथियों ने मनुष्यों और चूहों से प्राप्त टी-कोशिकाओं (एक प्रकार की प्रतिरक्षा कोशिका) का संपर्क कृत्रिम स्वीटनर से करवाकर जांच की। उन्होंने पाया कि सुक्रेलोज़ ने टी-कोशिकाओं की प्रतिलिपि बनाने और विशिष्टिकरण की क्षमता को कम कर दिया था।

इसके बाद चूहों को सुक्रेलोज़ की निर्धारित अधिकतम सुरक्षित मात्रा दी गई। इन सभी चूहों में पहले से ही कोई संक्रमण या ट्यूमर था जिससे प्रतिरक्षा प्रणाली की सक्रियता को आंका जा सकता था। पाया गया कि कंट्रोल समूह के चूहों की तुलना में सुक्रेलोज़ का सेवन करने वाले चूहों में टी-कोशिका प्रतिक्रिया कमज़ोर रही। सुक्रेलोज़ देना बंद करने पर उनकी टी-कोशिका प्रतिक्रियाएं बहाल होने लगीं।    

हालांकि सुक्रेलोज़ की कम खुराक का परीक्षण नहीं किया लेकिन लगता है कि खुराक कम करने पर प्रभाव जाता रहेगा। इस अध्ययन में यह भी पाया गया कि स्वीटनर अन्य प्रतिरक्षा कोशिकाओं को प्रभावित नहीं करता। एक पिछले अध्ययन में यह भी बताया गया था कि सुक्रेलोज़ कोशिका झिल्ली की तरलता को प्रभावित करता है जिससे टी-कोशिकाओं की परस्पर संवाद क्षमता प्रभावित हो सकती है।

कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि सुक्रेलोज़ का प्रभाव पूरी तरह नकारात्मक नहीं है। उनका मत है कि निकट भविष्य में सुक्रेलोज़ का उपयोग ऑटो-इम्यून समस्याओं के इलाज के लिए किया जा सकता है। शोधकर्ताओं ने टाइप-1 मधुमेह से ग्रसित चूहों पर परीक्षण किया। यह एक ऑटो-इम्यून समस्या है जिसमें टी-कोशिकाएं इंसुलिन निर्माता पैंक्रियास कोशिकाओं पर हमला करती हैं। लगभग 30 सप्ताह बाद स्वीटनर दिए गए मात्र एक-तिहाई चूहों में मधुमेह विकसित हुआ जबकि सामान्य पानी पीने वाले सारे चूहों में मधुमेह विकसित हो गया। मनुष्यों में यदि ऐसा ही प्रभाव देखा जाता है तो इसका उपयोग अन्य प्रतिरक्षा दमन करने वाली औषधियों के साथ करके उनकी खुराक कम की जा सकेगी। (स्रोत फीचर्स)

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भारत की सूखती नदियां – प्रमोद भार्गव

मेरिका के न्यूयॉर्क में पांच दशकों के बाद शुद्ध और मीठे (ताज़े) पानी के लिए जल सम्मेलन संपन्न हुआ है। इस सम्मेलन में हिमालय से निकलने वाली गंगा समेत दस प्रमुख नदियों के भविष्य में सूख जाने की गंभीर चिंता जताई गई है। सम्मेलन में संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंतोनियो गुतारेस ने आगाह किया कि ‘आने वाले दशकों में जलवायु संकट के कारण हिमनदों (ग्लेशियर) का आकार घटने से भारत की सिंधु, गंगा और ब्रह्मपुत्र जैसी नदियां जल-प्रवाह घट जाने से सूख सकती हैं।

हिमनद पृथ्वी पर जीवन के लिए आवश्यक हैं। दुनिया के 10 प्रतिशत हिस्से में हिमनद हैं, जो दुनिया के लिए शुद्ध जल का बड़ा स्रोत हैं। यह चिंता इसलिए है, क्योंकि मानवीय गतिविधियां पृथ्वी के तापमान को खतरनाक स्तर तक ले जा रही हैं, जो हिमनदों के निरंतर पिघलने का कारण बन रहा है। गुतारेस ने यह वक्तव्य इंटरनेशनल ईयर ऑफ ग्लेशियर प्रिज़र्वेशन विषय पर आयोजित कार्यक्रम में दिया। इस आयोजन में जारी रिपोर्ट के अनुसार 2050 तक आने वाले जल संकट से प्रभावित होने वाले देशों में भारत प्रमुख होगा।   

गंगा, ब्रह्मपुत्र समेत एशिया की दस नदियों का उद्गम हिमालय से ही होता है। अन्य नदियां झेलम, चिनाब, व्यास, रावी, सरस्वती और यमुना हैं। ये नदियां सामूहिक रूप से 1.3 अरब लोगों को ताज़ा (मीठा) पानी उपलब्ध कराती हैं।

पानी की समस्या से प्रभावित लोगों में से अस्सी प्रतिशत एशिया में हैं। यह समस्या भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश और चीन में सबसे ज़्यादा है। सीएसई की पर्यावरण स्थिति रिपोर्ट 2023 के अनुसार देश में 2031 में पानी की प्रति व्यक्ति वार्षिक औसत उपलब्धता 1367 घन मीटर रह जाएगी जो 1950 में 3000-4000 घन मीटर थी। विडंबना है कि जहां पानी की उपलब्धता घट रही है, वहीं पानी की खपत बढ़ रही है। रिपोर्ट के अनुसार 2017 में पानी की ज़रूरत जहां 1100 अरब घन मीटर थी, वह बढ़कर 2050 में 1447 घन मीटर हो जाएगी। खेती के लिए 200 घन मीटर अतिरिक्त पानी की ज़रूरत होगी। सीएसई रिपोर्ट के मुताबिक गंगा-ब्रह्मपुत्र-मेघना नदी प्रणाली का जलग्रहण क्षेत्र कुल नदी जलग्रहण क्षेत्र का 43 प्रतिशत है। इनमें पानी का कम होना देश में बड़ा जल संकट पैदा कर सकता है। भारत में दुनिया की 17.74 प्रतिशत आबादी है, जबकि उसके पास मीठे पानी के स्रोत केवल 4.5 प्रतिशत ही हैं। तो, नदियां सूखने के संकेत चिंताजनक हैं। 

हिमालयी नदियों के सूखने की चेतावनी इसलिए सच लगती है, क्योंकि कनाडा की स्लिम्स नदी के सूखने का घटनाक्रम एवं नाटकीय बदलाव एक ठोस सच्चाई के रूप में छह साल पहले सामने आ चुका है। इस घटना को भू-विज्ञानियों ने ‘नदी के चोरी हो जाने’ की उपमा दी थी। ऐसा इसलिए कहा गया, क्योंकि नदियों के सूखने अथवा मार्ग बदलने में हज़ारों साल लगते हैं, जबकि यह नदी चार दिन के भीतर ही सूख गई थी। नदी के विलुप्त हो जाने का कारण जलवायु परिवर्तन माना गया था। तापमान बढ़ा और कास्कावुल्श नामक हिमनद जो इस नदी का उद्गम स्रोत है, वह तेज़ी से पिघलने लगा। नतीजतन सदियों पुरानी स्लिम्स नदी 26 से 29 मई 2016 के बीच सूख गई। जबकि इस नदी का जलभराव क्षेत्र 150 मीटर चौड़ा था।

आधुनिक इतिहास में इस तरह से नदी का सूखना विश्व में पहला मामला था। प्राकृतिक संपदा के दोहन के बूते औद्योगिक विकास में लगे मनुष्य को यह चेतावनी भी है कि यदि विकास का स्वरूप नहीं बदला गया तो मनुष्य समेत संपूर्ण जीव जगत का संकट में आना तय है।

वाशिंगटन विश्वविद्यालय के भू-गर्भशास्त्री डेनियल शुगर के नेतृत्व में शोधकर्ताओं का एक दल स्लिम्स नदी की पड़ताल करने मौके पर पहुंचा था। लेकिन उन्हें यह देखकर आश्चर्य हुआ कि अब वहां कोई नदी रह ही नहीं गई थी। न केवल नदी का पानी गायब हुआ था, बल्कि भौगोलिक परिस्थिति भी पूरी तरह बदल गई थी। इन विशेषज्ञों ने नदी के विलुप्त होने की यह रिपोर्ट ‘रिवर पायरेसी’ शीर्षक से नेचर में प्रकाशित की है। रिपोर्ट के मुताबिक ज़्यादा गर्मी की वजह से कास्कावुल्श हिमनद की बर्फ तेज़ी से पिघलने लगी और इस कारण पानी का बहाव काफी तेज़ हो गया। जल के इस तेज़ प्रवाह ने हज़ारों साल से बह रही स्लिम्स नदी के पारंपरिक रास्तों से दूर अपना अलग रास्ता बना लिया। अब नई स्लिम्स नदी विपरीत दिशा में अलास्का की खाड़ी की ओर बह रही है जबकि पहले यह नदी प्रशांत महासागर में जाकर गिरती थी।

जिस तरह से स्लिम्स नदी सूखी है, उसी तरह से हमारे यहां सरस्वती नदी के विलुप्त होने की कहानी संस्कृत के प्राचीन ग्रंथों में दर्ज है। गंगोत्री राष्ट्रीय उद्यान के द्वार खुलने के बाद जो ताज़ा रिपोर्ट सामने आई है, उससे पता चला है कि गंगोत्री का जिस हिमखंड से उद्गम स्रोत है, उसका आगे का 50 मीटर व्यास का हिस्सा भागीरथी के मुहाने पर गिरा हुआ है। हालांकि गोमुख पर तापमान कम होने के कारण यह हिमखंड अभी पिघलना शुरू नहीं हुआ है। यही वह गंगोत्री का गोमुख है, जहां से गंगा निकलती है। 2526 कि.मी. लंबी गंगा नदी देश की सबसे प्रमुख नदियों में से एक है। अनेक राज्यों के करीब 40 करोड़ लोग इस पर निर्भर हैं। इसे गंगोत्री हिमनद से पानी मिलता है। परंतु 87 साल से 30 कि.मी. लंबे हिमखंड से पौने दो कि.मी. हिस्सा पिघल चुका है।

भारतीय हिमालय क्षेत्र में 9575 हिमनद हैं। इनमें से 968 हिमनद सिर्फ उत्तराखंड में हैं। यदि ये हिमनद तेज़ी से पिघलते हैं तो भारत, पाकिस्तान और चीन में भयावह बाढ़ की स्थिति पैदा हो सकती है।

इसी तरह अंटार्कटिका में हर साल औसतन 150 अरब टन बर्फ पिघल रही है, जबकि ग्रीनलैंड की बर्फ और भी तेज़ी से पिघल रही है। वहां हर साल 270 अरब टन बर्फ पिघलने के आंकड़े दर्ज किए गए हैं। यदि यही हालात बने रहे तो समुद्र में बढ़ता जलस्तर और खारे पानी का नदियों के जलभराव क्षेत्र में प्रवेश इन विशाल डेल्टाओं के बड़े हिस्से को नष्ट कर देगा।                                         

अल्मोड़ा स्थित पंडित गोविंद वल्लभ पंत हिमालय पर्यावरण एवं विकास संस्थान के वैज्ञानिकों का मानना है कि हिमखंड का जो अगला हिस्सा टूटकर गिरा है, उसमें 2014 से बदलाव नज़र आ रहे थे। वैज्ञानिक इसका मुख्य कारण चतुरंगी और रक्तवर्ण हिमखंड का गोमुख हिमखंड पर बढ़ता दबाव मान रहे हैं। यह संस्था वर्ष 2000 से गोमुख हिमखंड का अध्ययन कर रही है। वैज्ञानिकों के अनुसार 28 कि.मी. लंबा और 2 से 4 कि.मी. चौड़ा गोमुख हिमखंड 3 अन्य हिमखंडों से घिरा है। इसके दाईं ओर कीर्ति तथा बाईं ओर चतुरंगी व रक्तवर्णी हिमखंड हैं। इस संस्थान के वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. कीर्ति कुमार ने बताया है कि हिमखंड की जो ताज़ा तस्वीरें और वीडियो देखने में आए हैं, उनसे पता चलता है कि गोमुख हिमखंड के दाईं ओर का हिस्सा आगे से टूटकर गिर पड़ा है। इसके कारण गोमुख की आकृति वाला हिस्सा दब गया है। यह बदलाव जलवायु परिवर्तन के कारण भी हो सकता है, लेकिन सामान्य तौर से भी हिमखंड टूटकर गिरते रहते हैं।

साफ है, इस तरह से यदि गंगा के उद्गम स्रोतों के हिमखंडों के टूटने का सिलसिला बना रहता है तो कालांतर में गंगा की अविरलता तो प्रभावित होगी ही, गंगा की विलुप्ति का खतरा भी बढ़ता चला जाएगा।

गंगा का संकट टूटते हिमखंड का ही नहीं हैं, बल्कि औद्योगिक विकास का भी है। कुछ समय पूर्व अखिल भारतीय किसान मज़दूर संगठन की तरफ से बुलाई गई जल संसद में बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के ज़रिए जलस्रोतों के दुरूपयोग और इसकी छूट दिए जाने का भी विरोध किया था। कानपुर में गंगा के लिए चमड़ा, जूट और निजी बॉटलिंग प्लांट संकट बने हुए हैं। टिहरी बांध बना तो सिंचाई के लिए था, लेकिन इसका पानी दिल्ली जैसे महानगरों में पेयजल आपूर्ति के लिए कंपनियों को दिया जा रहा है। गंगा के जलभराव क्षेत्र में खेतों के बीचों-बीच पेप्सी व कोक जैसी निजी कंपनियां बोतलबंद पानी के लिए बड़े-बड़े नलकूपों से पानी खींचकर एक ओर तो मोटा मुनाफा कमा रही हैं, वहीं खेतों में खड़ी फसल सुखाने का काम कर रही हैं। यमुना नदी से जेपी समूह के दो ताप बिजली घर प्रति घंटा 97 लाख लीटर पानी खींच रहे है। इससे जहां दिल्ली में जमुना पार इलाके के 10 लाख लोगों का जीवन प्रभावित होने का अंदेशा है, वहीं यमुना का जलभराव क्षेत्र तेज़ी से छीज रहा है।

ब्रिटिश अर्थशास्त्री ई.एफ. शुमाकर की किताब स्मॉल इज़ ब्यूटीफुल 1973 में प्रकाशित हुई थी। इसमें उन्होंने बड़े उद्योगों की बजाय छोटे उद्योग लगाने की तरफ दुनिया का ध्यान खींचा था। उनका सुझाव था कि प्राकृतिक संसाधनों का कम से कम उपयोग और ज़्यादा से ज़्यादा उत्पादन होना चाहिए। शुमाकर का मानना था कि प्रदूषण को झेलने की प्रकृति की भी एक सीमा होती है। सत्तर के दशक में उनकी इस चेतावनी का मज़ाक उड़ाया गया था। लेकिन अब जलवायु परिवर्तन पर काम करने वाले सरकारी और गैर-सरकारी संगठन शुमाकर की चेतावनी को स्वीकार रहे हैं। वैश्विक मौसम जिस तरह से करवट ले रहा है, उसका असर अब पूरी दुनिया पर दिखाई देने लगा है। भविष्य में इसका सबसे ज़्यादा खतरा एशियाई देशों पर पड़ेगा। एशिया में गरम दिन बढ़ सकते हैं या फिर सर्दी के दिनों की संख्या बढ़ सकती है। एकाएक भारी बारिश की घटनाएं हो सकती हैं या फिर अचानक बादल फटने की घटनाएं घट सकती हैं। न्यूनतम और अधिकतम दोनों तरह के तापमानों में खासा परिवर्तन देखने में आ सकता है। इसका असर परिस्थितिक तंत्र पर तो पड़ेगा ही, मानव समेत तमाम जंतुओं और पेड़-पौधों की ज़िंदगी पर भी पड़ेगा। लिहाज़ा, समय रहते चेतने की ज़रूरत है। स्लिम्स नदी का लुप्त होना और 10 हिमालयी नदियों के सूखने की चेतावनी को गंभीरता से लेने की ज़रूरत है। (स्रोत फीचर्स)

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रसोई गैस का विकल्प तलाशने की आवश्यकता – अली खान

पको यह जानकर हैरानी होगी कि रसोई गैस हमारी सेहत के लिए बेहद जोखिमभरी है। यह बात ऑस्ट्रेलिया की न्यू साउथ वेल्स युनिवर्सिटी में हुए एक अध्ययन में सामने आई है। आज अधिकतर घरों में लोग खाना पकाने के लिए एलपीजी यानी लिक्विफाइड पेट्रोलियम गैस का इस्तेमाल करते हैं। लेकिन शोधकर्ताओं का कहना है कि अब एलपीजी गैस का विकल्प तलाशने का समय आ गया है।

अब तक यही कहा जाता था कि कोयला और लकड़ी को ईंधन के रूप में इस्तेमाल करने पर इनसे निकलने वाला धुआं सांस सम्बंधी बीमारियों को न्यौता है। इसके बनिस्बत एलपीजी धुआं नहीं छोड़ती और हवा को प्रदूषित नहीं करती है। लेकिन अध्ययन के अनुसार एलपीजी गैस पर भी खाना बनाना न सिर्फ हमारी सेहत के लिए बल्कि पर्यावरण के लिए भी हानिकारक है।

जब हम गैस जलाते हैं तो ज़हरीले यौगिक बनते हैं तथा नाइट्रोजन और ऑक्सीजन मिलकर ज़हरीले नाइट्रोजन ऑक्साइड बनते हैं। इससे दमा व अन्य स्वास्थ्य समस्याएं हो सकती हैं। इसके अलावा ये रक्तप्रवाह में भी मिल सकते हैं। जो हृदय रोग, कैंसर और अल्ज़ाइमर वगैरह का खतरा पैदा कर सकते हैं।

जब हम गैस चूल्हा जलाते हैं तो असल में हम जीवाश्म ईंधन ही जला रहे होते हैं जिससे कार्बन मोनोऑक्साइड और फारमेल्डीहाइड भी बन सकते हैं। कार्बन मोनोऑक्साइड के उत्सर्जन से हवा में ऑक्सीजन कम होती है और खून में भी ऑक्सीजन नष्ट होती है। इससे हमें सिरदर्द और चक्कर आने जैसी समस्याएं हो सकती हैं।

रसोई गैस हमारी सेहत के लिए कितनी नुकसानदेह है। इसका अंदाज़ा इससे बखूबी लगाया जा सकता है कि एंवायरमेंट साइंस एंड टेक्नॉलॉजी जर्नल में छपे अध्ययन में पाया गया है कि अमेरिका में बच्चों में दमा के 12.7 फीसदी मामले, यानी हर आठ में से एक मामले में वजह रसोई गैस से हुआ उत्सर्जन है। वहीं, 2022 में हुए एक अध्ययन में कहा गया था कि अमेरिका में रसोई गैस से कुल जितना कार्बन उत्सर्जन होता है वह पांच लाख कारों से होने वाले उत्सर्जन के बराबर है।

भारत, दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा एलपीजी उपभोक्ता देश है। यहां 2021 तक करीब 28 करोड़ एलपीजी कनेक्शन थे। इनमें हर साल 15 फीसदी की बढ़ोतरी हो रही है। पेट्रोलियम मंत्रालय के अनुमान के मुताबिक, 2040 तक एलपीजी उपभोग बढ़कर 4.06 करोड़ टन हो जाएगा। बता दें कि भारत में एलपीजी में प्रोपेन गैस का प्रयोग होता है। इसके जलने से खतरनाक बेंज़ीन गैस निकलती है। लिहाज़ा, हमें ऐसे विकल्प तलाशने की ज़रूरत है जो अधिक सुरक्षित और पर्यावरण के अनुकूल हों। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कैंसर की कीमत

क हालिया अध्ययन के अनुसार वर्ष 2020 से 2050 के बीच कैंसर पर 25 ट्रिलियन डॉलर खर्च होने की संभावना है। यह राशि वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद पर 0.55 प्रतिशत के वार्षिक कर के बराबर है। इस विश्लेषण में 29 प्रकार के कैंसर से बीमार होने या मरने वाले लोगों द्वारा उपचार की लागत और आर्थिक उत्पादकता की हानि का अनुमान लगाया गया है। सबसे महंगे कैंसर में फेफड़े, आंत, स्तन और लीवर शामिल हैं जिनका वैश्विक स्तर पर सबसे अधिक प्रकोप होता है। जामा ऑन्कोलॉजी नामक जर्नल में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार कैंसर की जांच, निदान और उपचार पर खर्च में वृद्धि से निम्न और मध्यम आय वाले देशों में पर्याप्त स्वास्थ्य और आर्थिक लाभ मिलता है। 75 प्रतिशत कैंसर के मामले इन देशों में रिकॉर्ड किए गए हैं। (स्रोत फीचर्स)

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उपकरण की मदद से बोलने का रिकॉर्ड

एलएस नामक रोग की वजह से एक महिला की बोलने की क्षमता पूरी तरह जा चुकी थी। एएलएस या लाऊ गेरिग रोग व्यक्ति को क्रमश: लकवा ग्रस्त करता जाता है। वह महिला आवाज़ तो पैदा कर सकती थी लेकिन शब्द समझने योग्य नहीं होते थे। अब उसी महिला ने एक मस्तिष्क इम्प्लांट की मदद से बोलने का रिकॉर्ड स्थापित कर दिया है।

यह दावा स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय के एक दल ने बायोआर्काइव्स नामक वेबसाइट पर प्रकाशित शोध पत्र में किया है। महिला की पहचान गोपनीय रखने के लिए उसे छद्मनाम T12 से संबोधित किया गया है। रिकॉर्ड यह है कि T12 लगभग 62 शब्द प्रति मिनट की रफ्तार से बोल पा रही है। हम आम तौर पर करीब डेढ़ सौ शब्द प्रति मिनट की गति से बोलते हैं और बोलना संप्रेषण का सचमुच सबसे तेज़ तरीका है।

तो सवाल है कि यह करिश्मा हुआ कैसे और आगे की दिशा क्या होगी।

दरअसल, इससे जुड़े शोधकर्ता कृष्णा शिनॉय पिछले कई वर्षों से मस्तिष्क-कंप्यूटर के संपर्क बिंदु की गति को बढ़ाने के लिए प्रयासरत रहे हैं। इसके लिए वे एक छोटी सी पट्टी पर कई इलेक्ट्रोड लगाकर उसे व्यक्ति के मस्तिष्क के मोटर कॉर्टेक्स में स्थापित कर देते हैं। यह मस्तिष्क का वह हिस्सा है जो गतियों को नियंत्रित करने में भूमिका निभाता है। इस उपकरण की मदद से शोधकर्ता यह रिकॉर्ड कर पाते हैं व्यक्ति की कौन-सी तंत्रिकाएं एक साथ सक्रिय हो रही हैं। इस पैटर्न से यह पता चल जाता है कि वह व्यक्ति क्या क्रिया करने के बारे में सोच रहा है, भले वह व्यक्ति लकवाग्रस्त हो।

इससे पहले जो प्रयोग हुए थे उनमें लकवाग्रस्त व्यक्ति से हाथों की हरकत करने के बारे में सोचने को कहा गया था। ऐसे सोचते वक्त उसकी तंत्रिका गतिविधि को भांपकर वह इम्प्लांट कंप्यूटर के पर्दे पर कर्सर को चलाता था या वे सिर्फ सोचकर वीडियो गेम्स खेल सकते थे या रोबोटिक भुजा पर नियंत्रण कर सकते थे।

इन सफलताओं के बाद स्टैनफोर्ड की टीम यह समझने में लगी थी कि क्या बोलने से जुड़ी क्रियाओं के संदर्भ में मोटर कॉर्टेक्स की तंत्रिकाओं में कुछ उपयोगी जानकारी होती है।

जैसे, यदि T12 बोलने की कोशिश में अपने मुंह, जीभ, स्वर यंत्र को एक खास तरह से चलाने का प्रयास कर रही है तो क्या इस बात को तंत्रिका गतिविधियों में भांपा जा सकता है? ज़ाहिर है बोलते समय मांसपेशियों की बहुत छोटी-छोटी, बारीक हरकतें होती है। लेकिन बड़ी खोज यह हुई कि इन छोटी-छोटी हरकतों के बारे में भी चंद तंत्रिकाओं में ऐसी सूचनाएं होती है जिनकी मदद से कोई कंप्यूटर प्रोग्राम यह अनुमान लगा सकता है कि व्यक्ति क्या शब्द बोलने का प्रयास कर रहा है। और जब यह सूचना कंप्यूटर को दी गई तो उसके पर्दे पर वे शब्द प्रकट हो गए जो T12 बोलना चाहती थी।

देखा जाए, तो बोलते समय हम मांसपेशियों की निहायत पेचीदा हरकतें करते हैं – हम हवा को बाहर धकेलते हैं, उसमें कंपन पैदा करते हैं ताकि वह ध्वनि के रूप में निकले, फिर मुंह, होठों, जीभ की हरकतों से उस ध्वनि को शब्दों का रूप देते हैं।

पहले भी इन हरकतों को शब्दों में ढालने की ऐसी कोशिशें की जाती रही हैं लेकिन स्टैनफोर्ड की टीम ने अधिक सटीकता और गति हासिल कर ली है। इसमें कृत्रिम बुद्धि की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही और आगे यह भूमिका बढ़ने के साथ सटीकता और गति बढ़ने की उम्मीद है। इसमें भाषा के मॉडल्स का उपयोग यह पूर्वानुमान करने में किया जाएगा कि एक शब्द बोलने के बाद क्या अपेक्षा की जाए कि वह व्यक्ति अगला शब्द क्या बोलेगा। (स्रोत फीचर्स)

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सपनों में हरकतें मस्तिष्क रोगों की अग्रदूत हो सकती हैं

ई लोग सपने में देखे गए दृश्यों को वास्तव में अंजाम देते हैं। यह एक समस्या है जो अक्सर नींद के रैपिड आई मूवमेंट (आरईएम) चरण में होती है। इसे आरईएम निद्रा व्यवहार विकार (आरबीडी) कहते हैं और यह लगभग 0.5 से लेकर 1.25 प्रतिशत लोगों, खासकर वयस्क पुरुषों, को प्रभावित करता है। विश्लेषण से पता चला है कि आरबीडी तंत्रिका-क्षति रोगों का पूर्वाभास हो सकता है। खास तौर से सिन्यूक्लीनोपैथी का अंदेशा होता है जिसमें मस्तिष्क में अल्फा-सिन्यूक्लीन नामक प्रोटीन के लोंदे जमा हो जाते हैं।

वैसे सोते हुए किए जाने वाले सारे व्यवहार आरबीडी नहीं होते। जैसे नींद में चलना या बड़बड़ाना गैर-आरईएम निद्रा के दौरान होते हैं और इन्हें आरबीडी की क्षेणी में नहीं रखा जा सकता। इसके अलावा एक तथ्य यह भी है कि सारे आरबीडी का सम्बंध सिन्यूक्लीनोपैथी से नहीं होता। और तो और, यह स्थिति अन्य कारणों से भी बन सकती है।

अलबत्ता, जब आरबीडी के साथ ऐसी कोई अन्य स्थिति न हो तो भविष्य में बीमारी अंदेशा होता है। कुछ अध्ययनों का निष्कर्ष है कि सपनों में हरकतें भविष्य में तंत्रिका-क्षति रोग पैदा होने की 80 प्रतिशत तक भविष्यवाणी कर सकती हैं। हो सकता है कि यह ऐसी बीमारी का प्रथम लक्षण हो।

आरबीडी से जुड़ा सबसे प्रमुख रोग पार्किंसन रोग है। इसमें व्यक्ति क्रमश: अपने मांसपेशीय क्रियाकलापों पर नियंत्रण गंवाता जाता है। एक अन्य रोग है लेवी बॉडी स्मृतिभ्रंश। इसमें मस्तिष्क में लेवी बॉडीज़ जमा होने लगती हैं और व्यक्ति का अपनी हरकतों और संज्ञान पर नियंत्रण नहीं रहता। एक तीसरे प्रकार की सिन्यूक्लीनोपैथी व्यक्ति की ऐच्छिक हरकतों के अलावा अनैच्छिक क्रियाओं (जैसे पाचन) में भी व्यवधान पहुंचाती है। शोधकर्ताओं का मत है कि जीर्ण कब्ज़ और गंध की संवेदना के ह्रास की अपेक्षा आरबीडी सिन्यूक्लीनोपैथी का बेहतर पूर्वानुमान देता है।

वैसे तो सपनों को चेष्टाओं में बदलना और पार्किंसन के आपसी सम्बंध के बारे में काफी समय से लिखा जाता रहा है। स्वयं जेम्स पार्किंसन ने 1817 में इसके बारे में लिखा था। सपनों और पार्किंसन रोग के बारे में कई रिपोर्ट्स के बावजूद इनकी कड़ियों को जोड़ा नहीं जा सका था। लेकिन हाल ही में खुद एक मरीज़, जिसे आरबीडी की शिकायत थी, ने अपने डॉक्टर से आग्रह किया कि उसका ब्रेन स्कैन करके पार्किंसन के बारे में शंका की जांच करें। उस मरीज़ की आशंका सही निकली – उसे पार्किंसन रोग था।

हाल के वर्षों में आरबीडी और सिन्यूक्लीनोपैथी के बीच कार्यकारी सम्बंध की समझ बढ़ी है। आम तौर पर आरईएम निद्रा के दौरान कुछ क्रियाविधि होती है जो ऐसी चेष्टाओं पर रोक लगाकर रखती है। लेकिन आरबीडी पीड़ित व्यक्ति में यह क्रियाविधि काम नहीं करती और वे शारीरिक चेष्टाएं करते रहते हैं। 1950 व 1960 के दशक में किए गए प्रयोगों से पता चला था कि आरईएम निद्रा के दौरान ऐसी हरकतें कितनी ऊटपटांग हो सकती हैं। जैसे कुछ बिल्लियों पर प्रयोग के दौरान उनके ब्रेन स्टेम के कुछ हिस्सों को काटकर निकाल दिया गया। ऐसा करने पर आरईएम निद्रा के दौरान मांसपेशियों की हरकतों पर जो रुकावट लगी थी वह समाप्त हो गई और आरईएम निद्रा के दौरान वे बिल्लियां ऐसे हाथ-पैर मारती रहीं जैसे सपने देखकर उसके अनुसार हरकतें कर रही हों।

फिर 1980 के दशक में एक मनोचिकित्सक कार्लोस शेंक और उनके साथियों ने आरबीडी को लेकर पहले केस अध्ययन प्रकाशित किए। ये मरीज़ वैसे तो शांत स्वभाव के थे किंतु उनका कहना था कि वे हिंसक सपने देखते हैं और आक्रामक व्यवहार करने लगते हैं। शेंक की टीम ने 29 आरबीडी मरीज़ों का अध्ययन किया। सभी 50 वर्ष से अधिक उम्र के थे। शेंक की टीम ने रिपोर्ट किया है कि इनमें से 11 में आरबीडी की शुरुआत के औसतन 13 वर्षों बाद तंत्रिका-क्षति रोग उभरे। आगे चलकर, कुल 21 मरीज़ों में ऐसे रोग प्रकट हुए।

इन परिणामों की पुष्टि एक ज़्यादा व्यापक अध्ययन से भी हुई है। दुनिया भर के 21 केंद्रों के 1280 आरबीडी मरीज़ों में से 74 प्रतिशत में 12 वर्षों के अंदर तंत्रिका-क्षति रोग का निदान किया गया। धीरे-धीरे आरबीडी और तंत्रिका-क्षति रोगों के बीच की कड़ियों को स्वीकार कर लिया गया है। लेकिन अभी स्पष्ट नहीं है कि इन कड़ियों का कार्यिकीय आधार क्या है।

कई वैज्ञानिकों का मत है कि आरबीडी इस वजह से होता है क्योंकि सिन्यूक्लीन ब्रेन स्टेम के उस हिस्से में जमा होने लगता है जो हमें आरईएम निद्रा के दौरान निष्क्रिय करके रखता है। अपने सामान्य रूप में यह प्रोटीन तंत्रिकाओं के कामकाज में भूमिका निभाता है। लेकिन जब यह असामान्य ढंग से तह हो जाता है तो यह विषैले लोंदे बना सकता है। ऑटोप्सी परीक्षणों से पता चला है कि आरबीडी से पीड़ित 90 प्रतिशत मरीज़ों की मृत्यु मस्तिष्क में सिन्यूक्लीन जमाव के लक्षणों के साथ होती है। अभी तक ऐसी कोई तकनीक उपलब्ध नहीं है जिससे जीवित व्यक्ति के मस्तिष्क में सिन्यूक्लीन के थक्कों की जांच की जा सके। अलबत्ता, वैज्ञानिक कोशिश कर रहे हैं कि शरीर के अन्य हिस्सों (खासकर सेरेब्रो-स्पायनल द्रव) में गलत तरह से तह हुए सिन्यूक्लीन का पता लगाया जा सके। ऐसे एक अध्ययन में आरबीडी पीड़ित 90 प्रतिशत व्यक्तियों में गलत ढंग से तह हुआ सिन्यूक्लीन मिला है।

इतना तो सभी मान रहे हैं कि आरबीडी पार्किंसन तथा अन्य तंत्रिका-क्षति रोगों का प्रारंभिक लक्षण है। इस समझ के साथ वैज्ञानिक यह पता लगाने की कोशिश कर रहे हैं कि ऐसा हानिकारक सिन्यूक्लीन शरीर में किस तरह फैलता है। इस बात के काफी प्रमाण मिले हैं कि यह विकार आंतों में शुरू होता है और वहां से मस्तिष्क तक पहुंचता है। उदाहरण के लिए चूहों पर किए गए प्रयोगों से पता चला है कि आंतों से मस्तिष्क तक यह वैगस तंत्रिका के ज़रिए पहुंचता है। मनुष्यों में भी देखा गया है कि वैगस तंत्रिका को काट दें (जो जीर्ण आमाशय अल्सर के इलाज के लिए किया जाता है), तो पार्किंसन होने का जोखिम कम हो जाता है।

कुछ शोधकर्ताओं का मत है कि पार्किंसन दो प्रकार का होता है। कुछ में यह आंतों में पहले शुरू होता है और कुछ में पहले मस्तिष्क में। जैसे डेनमार्क के आर्हुस विश्वविद्यालय के पर बोर्गहैमर का कहना है कि आरबीडी मस्तिष्क-प्रथम पार्किंसन का एक शुरुआती लक्षण हो सकता है लेकिन यह ज़रूरी नहीं कि आरबीडी के हर मरीज़ को अंतत: पार्किंसन रोग होगा ही। मात्र एक-तिहाई मरीज़ों में ऐसा होता है।

इस संदर्भ में एक और अवलोकन महत्वपूर्ण है। सॉरबोन विश्वविद्यालय की इसाबेल आर्नल्फ ने पार्किंसन के मरीज़ों के स्वप्न के समय के व्यवहार में कुछ अजीब बात देखी। ये मरीज़ जागृत अवस्था में तो शारीरिक क्रियाओं में दिक्कत महसूस करते थे, लेकिन सोते समय इन्हें हिलने-डुलने में कोई परेशानी नहीं होती थी। इस तरह के व्यवहार के रिकॉर्डिग की मदद से आर्नल्फ की टीम को आरबीडी मरीज़ों के सपनों की कुछ विशेषताएं देखने को मिलीं जिनके आधार पर शायद यह समझने में मदद मिलेगी कि हमें सपने कैसे और क्यों आते हैं। (स्रोत फीचर्स)

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