बढ़ रहा है मायोपिया

पिछले कुछ सालों में मायोपिया या निकट-दृष्टिता के मामले काफी बढ़ गए हैं। इस स्थिति में व्यक्ति को दूर का देखने में कठिनाई होती है। ऐसा अनुमान है कि 2050 तक दुनिया की आधी आबादी मायोपिया का शिकार होगी। मायोपिया से न सिर्फ दृष्टि धुंधली पड़ती है, वरन आगे चलकर यह अन्य गंभीर समस्याओं का कारण भी बनता है। इन जटिलताओं से बचने के लिए वैज्ञानिक इसके मामले बढ़ने के कारणों का पता लगाने और इसे थामने के लिए प्रयासरत हैं। मुख्य कारण है कमरे के अंदर सीमित होती दिनचर्या, हालांकि जेनेटिक कारण भी मायोपिया की स्थिति पैदा करते हैं।

मायोपिया मतलब क्या? अक्सर मायोपिया बचपन में शुरू होता है। मायोपिया की स्थिति तब बनती है जब नेत्रगोलक अपेक्षा से अधिक बड़ा हो जाता है। इसकी वजह से लेंस प्रकाश को रेटिना पर नहीं बल्कि रेटिना के आगे ही फोकस कर देता है, जिससे दूर की वस्तुएं धुंधली दिखाई देती हैं।

एक तथ्य यह भी है कि जितनी कम उम्र में, जितना गंभीर मायोपिया होगा बड़ी उम्र में रेटिना डिटेचमेंट, ग्लूकोमा, मैक्यूलर डीजनरेशन और मोतियाबिंद जैसी स्थितियां होने की संभावना उतनी ही अधिक होगी। कारण यह है कि अधिकांश बच्चों की दृष्टि किशोरावस्था के अंत तक स्थायित्व प्राप्त करती है, जबकि कुछ बच्चों में 20 वर्ष की आयु के मध्य तक। मायोपिया जितनी जल्दी होगा नेत्रगोलक को वृद्धि करने के लिए उतना लंबा समय मिलेगा। नेत्रगोलक जितना अधिक बड़ा होगा उतना अधिक यह रेटिना की नाज़ुक तंत्रिकाओं और रक्त वाहिकाओं पर दबाव डालेगा। नतीजतन ग्लूकोमा, रेटिनल डिटेचमेंट जैसी समस्याएं हो सकती हैं।

वैसे तो मायोपिया की स्थिति कई कारणों से पैदा हो सकती है लेकिन कई अध्ययनों का कहना है कि बाहर खुले में बिताया गया समय लगातार कम होते जाना मायोपिया के प्रमुख कारणों में से एक है। दरअसल सूर्य का प्रकाश (धूप) डोपामाइन के स्राव को बढ़ाता है, और डोपामाइन नेत्रगोलक के विकास को धीमा रखता है।

स्क्रीन टाइम बढ़ना और पास से देखने वाले काम करना जैसे पढ़ना, कढ़ाई करना वगैरह भी मायोपिया की बढ़ती संख्या के कारण बताए जा रहे हैं, लेकिन इसके कोई पुख्ता प्रमाण नहीं मिले हैं क्योंकि मायोपिया के मामलों में वृद्धि पहला आईफोन आने के पहले ही शुरू हो गई थी।

बहरहाल कारण जो भी हो मायोपिया के मामले बढ़ रहे हैं। और जब तक कारण पूर्णत: स्पष्ट नहीं हो जाते तब तक इसे टालने और इसकी गंभीरता कम करने के प्रयास ही किए जा सकते हैं।

बायफोकल लेंसेस इन नियरसाइटेड किड्स (ब्लिंक – BLINK) अध्ययन का यही उद्देश्य है – क्या किसी बाहरी हस्तक्षेप से नेत्रगोलक की वृद्धि या चश्मे का पॉवर बढ़ने को धीमा किया जा सकता है। इसकी पड़ताल के लिए शोधकर्ताओं ने 7 से 11 साल के 294 बच्चों को कॉन्टैक्ट लेंस दिए: कुछ कॉन्टैक्ट लेंस नियमित, एकल फोकस वाले थे जबकि कुछ बाइफोकल थे। आम तौर पर ये विशेष बाइफोकल कॉन्टैक्ट लेंस वृद्धजनों को दिए जाते हैं जिन्हें बाइफोकल चश्मे की आवश्यकता पड़ती है। ये लेंस अधिकांश प्रकाश को तो रेटिना पर डालते हैं जिससे स्पष्ट केंद्रीय दृष्टि मिलती है, लेकिन साथ ही थोड़े प्रकाश को फैला देते हैं। जिससे परिधीय दृष्टि हल्की सी धुंधली हो जाती है। परिधीय दृष्टि का यह धुंधलापन संभवत: आंख के विकास को धीमा करता है। एक प्रतिभागी का अनुभव है कि इन विशिष्ट कॉन्टैक्ट लेंस को पहनने से नज़र बहुत ज़्यादा प्रभावित नहीं हुई। हालांकि आगे चलकर नज़र थोड़ी कमज़ोर ज़रूर हो गई थी लेकिन अंतत: वह स्थिर हो गई।

अन्य प्रयासों में, रोज़ाना एट्रोपिन नामक एक विशेष आई ड्रॉप आंखों में डाला गया, जो प्रभावी नज़र आया है। एक अध्ययन में पाया गया है कि सोने से ठीक पहले एट्रोपिन की बूंदें डालने पर नेत्रगोलक का विकास धीमा हो जाता है। अलबत्ता, यह सवाल बना हुआ है कि कितनी मात्रा सबसे अधिक प्रभावी है, और क्या अलग-अलग बच्चों के लिए अलग-अलग है।

ऐसे ही एक प्रयास में जिन बच्चों को मायोपिया होने की संभावना है उन्हें एट्रोपिन आई ड्रॉप्स दी जाएंगी ताकि मायोपिया की शुरुआत को थामा या टाला जा सके।

बहरहाल इन शोध के जारी रहते मायोपिया थामने के अन्य उपाय भी आज़माने की ज़रूरत है। जैसे बाहर बिताया समय बढ़ाना। क्योंकि मुख्य कारण के रूप में तो यही उभरा है और बाहर बिताया समय बढ़ाने से आंखों पर कोई अन्य दुष्प्रभाव होने की संभावना भी नहीं होगी, जबकि एट्रोपिन ड्रॉप्स रोज़ाना लेने के दुष्प्रभाव अभी स्पष्ट नहीं हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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डेंगू संक्रमण रोकने की नई दवा

FILE PHOTO: An assistant holds a test tube with an Aedes aegypti mosquito at the CNEA (National Atomic Energy Commission), in Ezeiza, in the outskirts of Buenos Aires, Argentina April 12, 2023. REUTERS/Agustin Marcarian/File Photo

जॉन्स हॉपकिन्स युनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने अपने हालिया प्रयास में एक एंटीवायरल दवा का परीक्षण किया है जिससे डेंगू वायरस को बेहतर तरीके से नियंत्रित किया जा सकता है। वर्तमान टीकों की सीमाओं के मद्देनज़र यह प्रयास काफी महत्वपूर्ण माना जा रहा है। यह एक विशेष किस्म का परीक्षण था जिसे मानव चुनौती परीक्षण कहते हैं। इसमें चंद स्वस्थ व्यक्तियों को पहले जानबूझकर वायरस से संक्रमित किया जाता है और फिर इलाज किया जाता है।

जेएनजे-1802 नामक इस दवा ने शुरुआती परीक्षणों में डेंगू संक्रमण को रोकने में काफी अच्छे परिणाम दिए हैं। 31 प्रतिभागियों पर इस दवा की उच्च खुराक वायरस के खिलाफ एक मज़बूत ढाल साबित हुई। इसमें से कुछ प्रतिभागी तो संक्रमण से पूरी तरह सुरक्षित रहे जबकि अन्य में वायरस की प्रतिलिपियां बनाने की दर काफी कम देखी गई। यह परिणाम अमेरिकन सोसायटी ऑफ ट्रॉपिकल मेडिसिन एंड हाइजीन की वार्षिक बैठक में प्रस्तुत किए गए हैं।

गौरतलब है कि जेएनजे-1802 वायरस के दो प्रोटीनों के बीच एक ज़रूरी अंतर्क्रिया को रोकने का काम करती है। डेंगू वायरस की प्रतिलिपियां बनने के लिए यह अंतर्क्रिया अनिवार्य होती है। वर्तमान डेंगू टीकों की तुलना में यह नया तरीका काफी प्रभावी है।

पुराने टीकों के साथ समस्या थी कि महीनों तक इनकी कई खुराक लेना पड़ता था। और तो और, मनुष्यों को संक्रमित करने वाले चार अलग-अलग डेंगू सीरोटाइप के खिलाफ ये टीके समान रूप से प्रभावी भी नहीं थे। लेकिन जेएनजे-1802 प्रकोप के दौरान जल्द से जल्द सुरक्षा प्रदान करने में सक्षम है। वैज्ञानिकों के अनुसार भविष्य में यह डेंगू नियंत्रण का एक अमूल्य साधन बन सकता है।

फिलहाल इसका दूसरा चरण एक प्लेसिबो-तुलना चरण है जिसमें लैटिन अमेरिका और एशिया के लगभग 2000 वालंटियर्स शामिल हो रहे हैं। उम्मीद है कि इसके परिणाम 2025 तक मिल जाएंगेे।

इस अध्ययन में उपयोग किए गए डेंगू वायरस संस्करण का चयन भी काफी दिलचस्प है। यह वही स्ट्रेन है जिसने 1970 के दशक में इंडोनेशिया में हल्के शारीरिक लक्षण उत्पन्न किए थे। 2000 के दशक की शुरुआत में, नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ ने इस संस्करण को कमज़ोर करके और इसमें विशिष्ट संशोधन करके इसे उम्मीदवार टीके के रूप में उपयोग किया था। लेकिन जब इसे गैर-मानव प्रायमेट्स को दिया गया, तो वायरस कमज़ोर साबित नहीं हुआ। इस कारणवश इस संस्करण को टीके के विकास में नहीं लिया गया। फिर भी, जॉन्स हॉपकिन्स युनिवर्सिटी की वैज्ञानिक एना डर्बिन और उनकी टीम ने इस संस्करण को एक चुनौती के रूप में देखा। इस संस्करण से पीड़ित लोगों में उन्होंने लगातार वायरस प्रतिलिपिकरण पाया जो प्राकृतिक वायरस के जितनी प्रतिलिपियां बनाता था। इसके संपर्क में आने वाले 90 से 100 प्रतिशत व्यक्तियों में एक विशिष्ट प्रकार की फुंसियां बनती हैं। इससे श्वेत रक्त कोशिका और प्लेटलेट की संख्या कम तो होती है लेकिन खतरनाक स्तर तक नहीं।

यहां एक आश्चर्य की बात यह है कि शोधकर्ताओं ने संक्रमित मच्छरों का उपयोग करने की बजाय वायरस को सीधे इंजेक्शन से देने का विकल्प क्यों चुना। इस मामले में डर्बिन ने स्पष्ट किया कि चयनित संस्करण मच्छरों के शरीर में कुशलतापूर्व प्रतिलिपियां नहीं बनाता था। यह बाह्य रोगियों पर अध्ययनों के लिए एक आदर्श था। इसके चलते मच्छरों द्वारा वायरस फैलाए जाने की चिंता नहीं रही। दूसरी बात यह है मच्छर द्वारा प्रसारित हो तो वायरस की सटीक मात्रा निर्धारित करना मुश्किल है। इंजेक्शन ने यह सुनिश्चित किया कि सभी प्रतिभागी संक्रमित हो गए हैं।

आने वाले समय में जेएनजे-1802 के विविध उपयोगों को समझने का प्रयास किया जा रहा है। यह यात्रियों, सैन्य कर्मियों, गर्भवती महिलाओं और कमज़ोर प्रतिरक्षा वाले व्यक्तियों के लिए रोकथाम के एक उपाय के रूप में काम कर सकता है। इसके अलावा, शोधकर्ता सक्रिय डेंगू संक्रमण के इलाज के लिए इस दवा की चिकित्सकीय क्षमता की खोज कर रहे हैं।

हालांकि अभी भी इस विषय में काफी काम बाकी है फिर भी इस अध्ययन के नतीजे एक ऐसे भविष्य की आशा प्रदान करते हैं जहां डेंगू का अधिक प्रभावी ढंग से प्रबंधन किया जा सकेगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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विटामिन सी को अतिशय महत्व दिया रहा है

विटामिन सी को प्रतिरक्षा प्रणाली को मज़बूत करने वाला माना जाता रहा है। लेकिन क्या इसकी महत्ता उचित है या इसको ज़रूरत से अधिक महत्व दिया जाता है।

दरअसल, 1970 के दशक में विटामिन सी को लायनस पौलिंग के दम पर प्रतिष्ठा हासिल हुई थी। उनका दावा था कि विटामिन सी काफी मात्रा में लिया जाए तो सामान्य ज़ुकाम के अलावा हृदय रोग तथा कैंसर से भी लड़ने में मदद मिलती है। अलबत्ता, नेशनल इंस्टिट्यूट्स ऑफ हेल्थ (एनआईएच) सहित कई शोधकर्ताओं के अनुसार इसके कोई वैज्ञानिक प्रमाण नहीं हैं।

अध्ययन बताते हैं कि यह सर्दी-ज़ुकाम के खिलाफ आवश्यक सुरक्षा प्रदान नहीं करता। दैनिक अनुशंसित मात्रा से अधिक लेने से बेहतर स्वास्थ्य की कोई संभावना नहीं होती है। दरअसल, 1000 मिलीग्राम से अधिक विटामिन सी लें, तो अतिरिक्त मात्रा मूत्र के साथ बाहर निकल जाती है।

विटामिन सी की कमी या शारीरिक तनाव के मामलों को छोड़ दिया जाए तो विटामिन सी की उच्च खुराक न तो सामान्य सर्दी-ज़ुकाम के लक्षणों को रोकती है, न ही उनको कम करती है।

वैसे विटामिन सी शरीर में कुछ अहम भूमिकाएं निभाता है। यह इंटरफेरॉन जैसे प्रोटीन निर्माण को बढ़ावा देता है और प्रतिरक्षा प्रणाली को मज़बूत करता है। इससे कोशिकाओं को वायरल हमलों से सुरक्षा मिलती है और संक्रमण से लड़ने वाली श्वेत रक्त कोशिकाओं में भी वृद्धि होती है। विटामिन सी कोलाजन निर्माण में भी सहायक है जो हड्डियों, मांसपेशियों, रक्त वाहिकाओं और त्वचा के निर्माण के लिए महत्वपूर्ण है। स्किन-केयर उत्पादों में इसका उपयोग चमड़ी के लटकने, झुर्रियों, काले धब्बों और मुहांसों से बचने के लिए किया जाता है। इसके अलावा सनस्क्रीन में यह सूर्य की हानिकारक किरणों से कुछ हद तक सुरक्षा प्रदान करता है।

विटामिन सी ऑक्सीकरण-रोधी के रूप में भी काम करता है।  इसके अतिरिक्त, यह मस्तिष्क और तंत्रिका तंत्र में महत्वपूर्ण रासायनिक संकेतकों और हार्मोन के उत्पादन में भी योगदान देता है, जिससे तनाव और बेचैनी कम हो जाती है।

तथ्य यह है कि हमारा शरीर विटामिन सी का उत्पादन या भंडारण नहीं करता है। इसलिए इसे आहार के माध्यम से प्राप्त करना अनिवार्य है। अच्छी बात है कि अधिकांश लोगों को खट्टे फलों (जैसे संतरा, अंगूर, नींबू), टमाटर और ब्रोकोली, गोभी, फूलगोभी जैसी सब्ज़ियों से पर्याप्त विटामिन सी मिल जाता है। धूम्रपान से विटामिन सी को अवशोषित करने की क्षमता कम हो जाती है इसलिए ऐसे लोगों को अतिरिक्त विटामिन सी का सेवन करना चाहिए।

आखिर में यह जानना भी आवश्यक है कि क्या पर्याप्त मात्रा से अधिक विटामिन सी का सेवन किया जा सकता है। अधिकांश लोगों को विटामिन सी की उच्च खुराक से कोई दिक्कत नहीं होती लेकिन गुर्दे की समस्या वाले लोगों को सावधान रहना चाहिए। अत्यधिक विटामिन सी के सेवन से पेट की समस्याएं हो सकती हैं जबकि कुछ मामलों में, स्टैटिन जैसी दवाइयों की प्रभावशीलता भी कम हो सकती है। चबाने योग्य विटामिन सी की गोलियां मुंह की स्वच्छता के लिए फायदेमंद तो हैं लेकिन बहुत देर तक मुंह में रखी जाएं तो दांतों के क्षरण का कारण भी बन सकती हैं।

यानी विटामिन सी स्वास्थ्य के लिए महत्वपूर्ण तो है, लेकिन जब तक आपके शरीर में इसकी कमी न हो तब तक इसके अतिरिक्त व अत्यधिक सेवन की कोई तुक नहीं है। यह सिर्फ पैसों की बर्बादी है और शायद हानिकारक भी हो सकता है। (स्रोत फीचर्स)

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बॉडी मॉस इंडेक्स (बीएमआई) पर पुनर्विचार ज़रूरी

बॉडी मास इंडेक्स (बीएमआई) का उपयोग यह पता करने के लिए किया जाता है कि किसी व्यक्ति का वज़न स्वस्थ सीमा के भीतर है या नहीं। बीएमआई की गणना वज़न (कि.ग्रा.) को ऊंचाई (मीटर) के वर्ग से विभाजित करके की जाती है। लेकिन इस सरलता के साथ कई खामियां भी हैं।

पिछले कुछ वर्षों में मोटापे को लेकर चल रही चर्चा से पता चलता है कि यह माप किसी व्यक्ति के स्वास्थ्य के सम्बंध में अक्सर पूरी तस्वीर प्रदान नहीं करता है। विशेषज्ञ इस संदर्भ में अधिक व्यापक दृष्टिकोण खोजने का प्रयास कर रहे हैं।

कई दशकों से बीएमआई स्वास्थ्य के आकलन के एक वैश्विक मानक के रूप में उपयोग किया जाता रहा है। यह शरीर में वसा के द्योतक के रूप में कार्य करता है; वसा की उच्च मात्रा से चयापचय सम्बंधी रोगों में वृद्धि होती है और यहां तक कि मृत्यु का खतरा भी बढ़ जाता है।

स्वास्थ्य सूचकांक के रूप में बीएमआई का उपयोग करते हुए उम्र, लिंग और नस्ल जैसे कारकों को ध्यान में नहीं रखा जाता है जबकि ये वज़न के साथ-साथ किसी व्यक्ति के स्वास्थ्य के आकलन के लिए काफी महत्वपूर्ण हैं। बीएमआई सदैव अस्वस्थता का सूचक नहीं होता। देखा गया है कि बराबर बीएमआई वाले लोगों की स्वास्थ्य सम्बंधी स्थिति काफी अलग-अलग हो सकती है।

इन कमियों को ध्यान में रखते हुए विशेषज्ञों द्वारा मोटापे के आकलन हेतु अधिक सूक्ष्म दृष्टिकोण अपनाने पर ज़ोर दिया जा रहा है। अमेरिकन मेडिकल एसोसिएशन (एएमए) ने बीएमआई की खामियों को स्वीकार करते हुए पूरक के तौर पर वजन-सम्बंधी अन्य मापों का सुझाव दिया है।

बीएमआई की धारणा लगभग दो शताब्दी पूर्व एडोल्फ क्वेटलेट द्वारा ‘औसत आदमी’ को परिभाषित करने के प्रयासों से उभरी थी। प्रारंभ में, इसका स्वास्थ्य से बहुत कम और मानक तय करने से अधिक लेना-देना रहा था। एन्सेल कीज़ ने बाद में इसे बॉडी-मास इंडेक्स के रूप में पुनर्निर्मित किया। कीज़ के अनुसार यह उस समय की ऊंचाई-वज़न तालिकाओं की तुलना में स्वस्थ शरीर के आकार का एक बेहतर संकेतक था।

बीएमआई जनसंख्या-स्तर पर मृत्यु के जोखिम से सम्बंधित है – बहुत कम बीएमआई भी मृत्यु का जोखिम बढ़ाता है और बहुत अधिक बीएमआई भी। लेकिन जब इसका उपयोग व्यक्तिगत स्वास्थ्य जोखिमों का आकलन करने के लिए किया जाता है तो यह असफल रहता है।

एक अध्ययन से पता चला है कि अधिक वजन वाले व्यक्तियों में मृत्यु का जोखिम ‘स्वस्थ’ वज़न वाले लोगों के समान होता है। इसके अतिरिक्त, बीएमआई के पैमाने पर मोटापे से ग्रस्त कुछ व्यक्तियों का हृदय-सम्बंधी स्वास्थ्य सामान्य लोगों के समान ही होता है, जो बीएमआई की धारणा को चुनौती देता है।

दरअसल, बीएमआई का मुख्य आकर्षण इसकी आसानी में निहित है, जो इसे एक सुविधाजनक स्क्रीनिंग टूल बनाता है। विशेषज्ञों का तर्क है कि यह स्वास्थ्य का सटीक आकलन करने में नाकाम है। इसकी मुख्य समस्या है कि यह शरीर में वसा या मांसपेशियों के द्रव्यमान और वितरण जैसे कई महत्वपूर्ण कारकों को ध्यान में नहीं रखता है, जो लोगों के बीच काफी भिन्न हो सकते हैं।

इससे भी बड़ी समस्या यह है कि बीएमआई को श्वेत आबादी के डेटा का उपयोग करके विकसित किया गया है जिसका सीधा मतलब है कि इसका निर्धारण नस्लीय और जातीय समूहों के बीच शरीर की संरचना और वसा वितरण को ध्यान में रखते हुए नहीं किया गया है। उदाहरण के लिए, शरीर में वसा की मात्रा और वितरण में भिन्नता के कारण कम बीएमआई के बावजूद एशियाई आबादी में हृदय रोग का खतरा अधिक हो सकता है। यह बात बीएमआई के अत्यधिक उपयोग के विरुद्ध एक चेतावनी है।

बीएमआई के नैदानिक उपयोग को कम करने के लिए एएमए की हालिया नीति को एक महत्वपूर्ण कदम माना जा रहा है। इसके तहत केवल बीएमआई के आधार पर निदान करने की बजाय, चिकित्सकों को सलाह दी जा रही है कि वे इसका उपयोग मात्र एक स्क्रीनिंग टूल के रूप में करें, ताकि उन लोगों को पहचाना जा सके जिनका आगे आकलन करने की ज़रूरत है। इस बात पर ज़ोर दिया गया है कि चिकित्सक कोलेस्ट्रॉल, रक्त शर्करा, पारिवारिक इतिहास और आनुवंशिकी जैसे अतिरिक्त कारकों पर भी ध्यान दें जो मोटापे और इससे सम्बंधित स्थितियों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

इस बदलाव में एक बड़ी चुनौती यह है कि प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं में चिकित्सकों  को कम समय में रोगी के स्वास्थ्य के कई पहलुओं पर ध्यान देना होता है। मात्र बीएमआई के आधार पर मोटापा-रोधी दवाइयां लिखना चिंता का विषय है।

बहरहाल, बीएमआई से परे मोटापे को फिर से परिभाषित करने के प्रयास चल रहे हैं। एक अंतरराष्ट्रीय आयोग विभिन्न अंग तंत्रों पर वज़न के प्रभाव को ध्यान में रखते हुए नए नैदानिक मानदंडों पर काम कर रहा है। इसके अतिरिक्त, शारीरिक, मानसिक और कामकाजी स्वास्थ्य का आकलन करने के लिए बीएमआई के साथ-साथ एडमोंटन ओबेसिटी स्टेजिंग सिस्टम (ईओएसएस) विकसित की गई है, जो मोटापा नियंत्रण के लिए अधिक समग्र दृष्टिकोण प्रदान करती है।

बहरहाल, मुद्दा यह है कि इन परिवर्तनों को अमली जामा पहनाना एक बड़ी चुनौती है। फिर भी, यह स्पष्ट है कि स्वास्थ्य की जटिलताओं और मोटापे की विविध प्रकृति को ध्यान में रखते हुए बीएमआई से आगे बढ़ने का समय आ गया है। (स्रोत फीचर्स)

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आरएनए टीके के लिए चिकित्सा नोबेल पुरस्कार

स वर्ष का कार्यिकी अथवा चिकित्सा विज्ञान का नोबेल पुरस्कार एक निहायत उपयोगी शोध कार्य के लिए दिया गया है। यह पुरस्कार जैव रसायन शास्त्री केटेलिन केरिको और प्रतिरक्षा विज्ञानी ड्रयू वाइसमैन को उन खोजों के लिए दिया जा रहा है जिनके दम पर कोविड-19 के खिलाफ आरएनए टीके का विकास संभव हुआ।

नोबेल समिति ने बताया है कि यह टीका कम से कम 13 अरब मर्तबा दिया गया और अनुमान है कि इसने लाखों लोगों की जान बचाने के अलावा कोविड-19 के करोड़ों गंभीर मामलों की रोकथाम में भूमिका निभाई थी।

केरिको ने पेनसिल्वेनिया विश्वविद्यालय में काम करते हुए मेसेंजर आरएनए नामक जेनेटिक सामग्री (एम-आरएनए) को कोशिकाओं में पहुंचाने का तरीका खोजा था जिसकी मदद से एम-आरएनए को कोशिकाओं में पहुंचाते हुए अनावश्यक प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया उत्पन्न नहीं होती।

गौरतलब है कि केरिको चिकित्सा के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित 13वीं महिला वैज्ञानिक हैं। उनका जन्म हंगरी में हुआ था लेकिन बाद में यूएस आ गई थीं।

यह तो सर्वविदित है कि मॉडर्ना और फाइज़र-बायोएनटेक द्वारा संयुक्त रूप से विकसित कोविड-19 टीका उस एम-आरएनए को कोशिकाओं में पहुंचा देता है जो कोशिका में एक प्रोटीन का निर्माण करवाता है। यह प्रोटीन वही होता है जो सार्स-कोव-2 वायरस की सतह पर पाया जाता है, जिसे स्पाइक प्रोटीन कहते हैं। इस प्रोटीन की उपस्थिति की वजह से शरीर इसके खिलाफ एंटीबॉडी बनाने लगता है और इस तरह से प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया शुरू हो जाती है।

कई दशकों से एम-आरएनए आधारित टीकों के बारे में माना जाता था कि ये व्यावहारिक नहीं होंगे क्योंकि जैसे ही एम-आरएनए का इंजेक्शन दिया जाएगा, वह शरीर में प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया शुरू कर देगा जो स्वयं उस एम-आरएनए को ही नष्ट कर देगी। 2000 के दशक के मध्य में केरिको और वाइसमैन ने दर्शाया था कि एक किस्म के एम-आरएनए अणु (युरिडीन) के स्थान पर उसी तरह के एक अन्य अणु (स्यूडोयुरिडीन) का उपयोग किया जाए तो प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया से बचा जा सकता है। अर्थात टीके में एक किस्म के अणु की जगह दूसरे किस्म के अणु का इस्तेमाल करके कोशिका की प्रतिक्रिया को बदला जा सकता है। इसकी बदौलत एम-आरएनए द्वारा बनाए जाने वाले प्रोटीन की मात्रा को बढ़ाया जा सकता है। यानी टीके की प्रभाविता को बढ़ाया जा सकता है।

नोबेल समिति ने कहा है कि इस खोज ने चिकित्सा के क्षेत्र में एक नए अध्याय की शुरुआत कर दी है। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि आम धारणा के विपरीत सिर्फ उपयोगी विज्ञान ही नहीं, बुनियादी विज्ञान में निवेश भी महत्वपूर्ण है। कोविड-19 टीके की सफलता के बाद फ्लू, एचआईवी, मलेरिया और ज़िका जैसी कई बीमारियों के लिए टीके विकास के चरण में हैं। (स्रोत फीचर्स)

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क्या आपको पर्याप्त विटामिन डी मिल रहा है?

विटामिन डी स्वास्थ्य के लिए एक महत्वपूर्ण और आवश्यक पोषक तत्व है। यह हड्डियों को मज़बूत बनाए रखता है, मांसपेशियों के काम में मदद करता है और प्रतिरक्षा प्रणाली को भी मज़बूत करता है। विटामिन डी के निर्माण के लिए शरीर को मात्र सूरज की रोशनी चाहिए होती है। लेकिन भारत जैसे पर्याप्त धूप वाले देशों में भी लोगों में विटामिन डी की कमी है।

लेकिन जहां एक ओर धूप को इसका सबसे अच्छा स्रोत कहा जाता है, वहीं त्वचा के कैंसर से बचने के लिए धूप से बचने की सलाह भी दी जाती है। तो विटामिन डी से भरपूर चीज़ें खाने की सलाह दी जाती है, लेकिन सच तो यह है कि अधिकांश खाद्य पदार्थों में इसकी पर्याप्त मात्रा नहीं होती है। लिहाज़ा इसकी कमी को प्रभावित करने वाले कारकों को समझने के साथ यह भी सुनिश्चित करना आवश्यक है कि हमारे शरीर को पर्याप्त मात्रा में विटामिन डी कैसे मिल सकता है।

विटामिन डी का प्रमुख कार्य भोजन से कैल्शियम को अवशोषित करने में मदद करना है। यह अवशोषण प्रक्रिया हमारी हड्डियों को मज़बूत रखने में महत्वपूर्ण है। इसके अलावा यह मांसपेशियों के कार्य, तंत्रिका संचार और हानिकारक बैक्टीरिया तथा वायरस के खिलाफ हमारी प्रतिरक्षा प्रणाली को मज़बूत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

विटामिन डी की कमी का जोखिम कई कारकों पर निर्भर करता है। बढ़ती उम्र के साथ त्वचा विटामिन डी का उत्पादन करने में कम कुशल हो जाती है और जीवन के हर दशक में लगभग 13 प्रतिशत की गिरावट होती है। इसके अलावा गहरे रंग की त्वचा हल्के रंग की त्वचा की तुलना में विटामिन डी बनाने में लगभग 90 प्रतिशत कम कुशल होती है।

इसी तरह मोटापे से ग्रस्त लोगों को दो से तीन गुना अधिक विटामिन डी की आवश्यकता होती है। विटामिन डी शरीर की वसा कोशिकाओं में जमा होता है और मोटे लोगों में ज़्यादा वसा कोशिकाएं होती हैं। इसलिए रक्त संचार में विटामिन-डी कम मात्रा में रहता है।

गर्भवती महिलाओं, स्तनपान करने वाले शिशुओं, सीमित धूप वाले क्षेत्रों में रहने वाले लोगों और एड्स जैसी स्थितियों को सम्भालने के लिए विशिष्ट दवाएं लेने वाले व्यक्तियों में विटामिन डी की कमी का जोखिम होता हैं। लीवर या किडनी रोग भी विटामिन डी को उसके सक्रिय रूप में बदलने में बाधा डाल सकते हैं।

विटामिन डी की कमी के कोई विशिष्ट लक्षण नहीं है इसलिए इसका पता रक्त परीक्षण से लगता है। वैसे थकान, हड्डियों में दर्द और मांसपेशियों में कमज़ोरी कुछ लक्षण बताए जाते हैं।

सूर्य का प्रकाश विटामिन डी का मुख्य स्रोत है। आम तौर पर हल्की रंग की त्वचा वाले लोगों के लिए, सप्ताह में तीन बार कम से कम 10 से 20 मिनट की धूप विटामिन डी के आवश्यक स्तर को बनाए रखने के लिए पर्याप्त मानी जाती है। इसके विपरीत, गहरे रंग की त्वचा वाले लोगों को उतना ही विटामिन डी बनाने के लिए तीन से पांच गुना अधिक समय तक धूप में रहने की आवश्यकता होती है। वैसे सबसे प्रभावी समय वह होता है, जब सूर्य ठीक सिर पर होता है। दरअसल सूर्य की यू.वी.बी किरणें विटामिन डी के उत्पादन में मदद करती हैं। सुबह और देर दोपहर और सर्दियों में (जब सूर्य की किरणें तिरछी पड़ती हैं) और अधिक समय वातावरण में बिताती हैं तो वहीं (वातावरण में) अवशोषित हो जाती हैं। कुछ अन्य कारक भी विटामिन डी के उत्पादन को प्रभावित करते हैं। एक समय में सनस्क्रीन को विटामिन डी उत्पादन में बाधा माना जाता था लेकिन हाल के अध्ययनों ने इस धारणा को खारिज कर दिया है।

लेकिन विटामिन डी के लिए मात्र सूरज की रोशनी के भरोसे नहीं रहा जा सकता क्योंकि धूप से अधिक संपर्क के साथ त्वचा कैंसर का खतरा जुड़ा है और बदलती जीवन शैली के चलते लोग अधिक समय घरों के अंदर बिताने लगे हैं।

अमेरिकन एकेडमी ऑफ डर्मेटोलॉजी ने वयस्कों को सूर्य के संपर्क या इनडोर टैनिंग के माध्यम से विटामिन डी प्राप्त करने के बजाय आहार स्रोतों का सुझाव दिया है। दुर्भाग्य से, विटामिन डी के प्राकृतिक खाद्य स्रोत दुर्लभ हैं। ट्राउट, ट्यूना, सैल्मन और मैकेरल जैसी वसायुक्त मछलियां, मछली के जिगर के तेल और यूवी-एक्सपोज़्ड मशरूम विटामिन-डी के सबसे अच्छे स्रोत हैं। इसकी कुछ मात्रा अंडे की ज़र्दी, पनीर और बीफ लीवर में पाई जाती है। यूएस, यूके और फिनलैंड सहित विभिन्न देश इस कमी को दूर करने के लिए दूध, अनाज, संतरे का रस और दही जैसे उत्पादों को विटामिन डी से समृद्ध करते हैं। लेकिन इसमें दिक्कतें हैं। जैसे, एक कप विटामिन डी युक्त दूध में आम तौर पर लगभग 3 माइक्रोग्राम विटामिन डी होता है, जबकि 70 से कम उम्र वालों के लिए 15 माइक्रोग्राम और इससे अधिक उम्र के वयस्कों के लिए 20 माइक्रोग्राम ज़रूरी है। 

शरीर को पर्याप्त विटामिन डी प्रदान करने के लिए धूप, विटामिन डी से भरपूर आहार और ज़रूरत पड़ने पर पूरक आहार के बीच संतुलन बनाना होता है। जहां तक विटामिन पूरकों की बात है, इनके अधिक सेवन से बचना चाहिए। अत्यधिक विटामिन डी के सेवन से मितली, मांसपेशियों में कमज़ोरी, भ्रम, उल्टी और निर्जलीकरण जैसे लक्षण हो सकते हैं। गुर्दे की पथरी, गुर्दे का खराब होना, अनियमित धड़कन और यहां तक कि मृत्यु भी संभव है। पूरकों के विपरीत, सूर्य का संपर्क स्वाभाविक रूप से विटामिन डी उत्पादन को नियंत्रित करता है, जिससे विटामिन डी की अधिकता का खतरा नहीं रहता।

वैसे यदि आपमें विटामिन डी की कमी नहीं है, तो अधिक विटामिन डी लेने से कोई अतिरिक्त लाभ नहीं मिलेगा।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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स्तनपान की पौष्टिकता – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन, सुशील चंदानी

र्ष 2016 के दी लैसेंट की स्तनपान शृंखला में सीज़र विक्टोरा और उनके साथियों ने लिखा था: “नवजात शिशुओं के लिए स्तनपान न सिर्फ बखूबी संतुलित पोषण आपूर्ति है, बल्कि संभवत: यह उसे मिलने वाली सबसे विशिष्ट वैयक्तिकृत औषधि है, जो ऐसे समय उसे मिलती है जब जीवन के लिए उसकी जीन अभिव्यक्ति बेहतर तालमेल बैठा रही होती है।”

अब मानव दूध की इस ध्यानपूर्वक संरचित समृद्धि के बारे में आई नई खोज ने मायो-इनोसिटॉल के महत्व पर प्रकाश डाला है। मायो-इनोसिटॉल एक चक्रीय शर्करा अल्कोहल है। स्तनपान के पहले दो हफ्तों में मायो-इनोसिटॉल का स्तर उच्च होता है फिर कुछ महीनों की अवधि में धीरे-धीरे इसका स्तर कम होता जाता है। शुरुआती चरणों में, नवजात शिशु के मस्तिष्क में तेज़ी से नए-नए सायनेप्स (तंत्रिकाओं के संगम बिंदु) बनकर ‘तार’ जुड़ रहे होते हैं (या ‘वायरिंग’ हो रही होती है)। प्रारंभिक विकास के दौरान उचित सायनेप्स बनना संज्ञानात्मक विकास की नींव रखते हैं; अपर्याप्त सायनेप्स निर्माण से मस्तिष्क के विकास में कठिनाई आती है।

येल विश्वविद्यालय के थॉमस बाइडरर के शोध दल द्वारा PNAS में प्रकाशित निष्कर्ष भी उपरोक्त निष्कर्ष से मेल खाते हैं – परखनली में संवर्धित चूहे की तंत्रिकाओं में मायो-इनोसिटॉल देने पर उनकी तंत्रिकाओं के बीच प्रचुर मात्रा में सायनेप्स बने थे।

मायो-इनोसिटॉल एक चक्रीय शर्करा-अल्कोहल है, जो चीनी से लगभग आधा मीठा होता है। यह मस्तिष्क में प्रचुर मात्रा में मौजूद होता है, जहां यह कई हार्मोनों की क्रियाओं में मध्यस्थता करता है। हमारे शरीर को कोशिका झिल्ली बनाने के लिए इनोसिटॉल की आवश्यकता होती है। हमारा शरीर ग्लूकोज़ से मायो-इनोसिटॉल बनाता है और यह प्रक्रिया अधिकांशत: किडनी में होती है। कॉफी और चीनी के सेवन से, और मधुमेह जैसी स्थितियों में हमारे शरीर की इनोसिटॉल ज़रूरत बढ़ जाती है। अनाज और बीजों के चोकर (ऊपरी छिलके) में इनोसिटॉल के निर्माण में शामिल घटक, फायटिक एसिड, होता है। बादाम, मटर और खरबूजे भी इसके समृद्ध स्रोत हैं।

मधुमेह से ग्रसित जंतु मॉडल में, इनोसिटॉल से वंचित चूहों के आहार में मायो-इनोसिटॉल पुन: शामिल करने से उनमें मोतियाबिंद और मधुमेह से जुड़ी अन्य समस्याओं को रोकने में मदद मिली।

मानव दूध के अन्य घटक भी विशिष्ट पोषकों से परिपूर्ण होते हैं। मेक्सिको स्थित मीड जॉनसन पीडियाट्रिक न्यूट्रिशन इंस्टीट्यूट के डॉ. शे फिलिप्स और उनके साथियों ने मानव दूध के संघटन को प्रभावित करने वाले कई कारकों का विश्लेषण किया है। वे बताते हैं कि एक आवश्यक पोषक तत्व, ओमेगा-3 वसा अम्ल (डाइकोसा-हेक्सेनोइक एसिड या डीएचए) की मात्रा गर्भवती स्त्री द्वारा लिए गए भोजन के आधार पर बदलती है। स्तनपान कराने वाली मां के दूध में डीएचए का स्तर विभिन्न देशों में अलग-अलग होता है – चीन की महिलाओं के दूध में 2.8 प्रतिशत, जापान की महिलाओं में 1 प्रतिशत, युरोप और अमेरिका की महिलाओं में लगभग 0.4-0.2 प्रतिशत और कई विकासशील देशों की महिलाओं के दूध में महज़ 0.1 प्रतिशत। डीएचए विकासशील मस्तिष्क और रेटिना के लिए महत्वपूर्ण होता है।

नेक्रोटाइज़िंग एंटरोकोलाइटिस (एनईसी) पाचन तंत्र की एक गंभीर तकलीफ है जो समय-पूर्व जन्मे या बेहद कम वज़न वाले शिशुओं को प्रभावित करती है। लक्षण हैं: पर्याप्त दूध न पीना, पेट में सूजन, अंगों की गड़बड़। यह जानलेवा हो सकती है। बोतल से दूध पिलाना, समय-पूर्व जन्म और जन्म के समय कम वज़न (<1.5 किलोग्राम) इसके होने का जोखिम बढ़ाते हैं। यह स्थिति खराब रक्त संचार और आंतों के संक्रमण के मिले-जुले असर से उत्पन्न होती है। स्तनपान और प्रोबायोटिक्स के उपयोग से एनईसी को होने से रोका जा सकता है। समय-पूर्व जन्मे लगभग 10 प्रतिशत शिशु एनईसी से ग्रसित हो जाते हैं, और प्रभावित शिशुओं में से एक चौथाई इस बीमारी के कारण दम तोड़ देते हैं। समय-पूर्व जन्मे बच्चों की आंतें पर्याप्त मात्रा में इंटरल्यूकिन-22 नामक पदार्थ नहीं बना पातीं जो हमें संक्रमण से बचाने में सहायक होता है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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भारत में ‘अनाथ रोगों’ के बहुत कम मामले दर्ज होते हैं – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन, सुशील चंदानी

स्वास्थ्य के बारे में हमारी अधिकांश चर्चा उन चंद आम बीमारियों तक सिमटी होती है जिनसे हमारे परिचित पीड़ित होते हैं – डायबिटीज़ संभवत: इन बीमारियों की सूची में सबसे ऊपर है। यद्यपि, कई बीमारियां ऐसी हैं जो बिरले (किसी-किसी को) ही होती हैं, लेकिन इनका प्रभाव/परिणाम पीड़ितों और उनके परिवारों के लिए भयावह हो सकता है।

दुर्लभ बीमारी की सबसे सामान्य परिभाषा है कि प्रति 10,000 लोगों में जिसका एक मामला मिले। इनके लिए ‘अनाथ रोग’ शब्द कई कारणों से उपयुक्त है। दुर्लभ होने के कारण इनका निदान/पहचान करना कठिन होता था, क्योंकि कई युवा चिकित्सकों ने संभवत: इनका एक भी मामला नहीं देखा होता था। इसी कारण से इन पर अधिक शोध नहीं हुए थे, जिसके कारण अक्सर इनके उपचार भी उपलब्ध नहीं होते थे।

यह स्थिति अब बदल रही है क्योंकि बीमारियों के बारे में जागरूकता और उनके निदान के लिए जीनोमिक तकनीकें बढ़ गई है। कई देशों में नियामक संस्थाएं उपेक्षित बीमारियों की औषधि के विकास हेतु निवेश को बढ़ावा देने के लिए प्रोत्साहन भी देती हैं। उम्मीद के मुताबिक, इस तरह के कदमों से ‘अनाथ रोगों’ की औषधियों’ में रुचि बढ़ गई है। वर्ष 2009 से 2014 के बीच, यूएस के खाद्य व औषधि प्रशासन (एफडीए) द्वारा औषधियों/उपचारों को दी गई सभी मंज़ूरियों में से आधी दुर्लभ बीमारियों और कैंसर के लिए थीं। अलबत्ता, इन उपचारों की कीमतें, खासकर भारत के दृष्टिकोण से, पहुंच से परे हैं। अनुमान है कि इनका खर्च प्रति वर्ष 10 लाख रुपए से 2 करोड़ रुपये के बीच है।

रोगी समूहों द्वारा पहल

वैश्विक आंकड़े बताते हैं कि ऐसी लगभग 7000 दुर्लभ बीमारियां हैं जो 30 करोड़ लोगों को प्रभावित करती हैं। उपलब्ध आंकड़ों के आधार पर गणना से पता चलता है कि भारत में ऐसे 7 करोड़ मामले होने चाहिए। लेकिन भारत के अस्पतालों ने अब तक इनमें से 500 से भी कम बीमारियों की सूचना दी है। जिन समुदायों में ये दुर्लभ बीमारियां होती हैं, उनके बारे में रोगप्रसार विज्ञान सम्बंधी पर्याप्त डैटा उपलब्ध नहीं है। इन विकारों की पुष्टि करने के लिए अक्सर परिष्कृत नैदानिक जीनोमिक्स उपकरणों की आवश्यकता होती है। दुर्लभ बीमारियों के इलाज के लिए सरकार की राष्ट्रीय नीति (NPRD) ने हाल ही में अपना असर दिखाना शुरू किया है। हमारे देशों में प्रचलित बीमारियों में सिस्टिक फाइब्रोसिस, हीमोफीलिया, लाइसोसोमल स्टोरेज विकार, सिकल सेल एनीमिया आदि शामिल हैं।

‘अनाथ रोगों’ के सम्बंध में नागरिकों की पहल भारत की प्रगति की एक और उल्लेखनीय बात है। इसका एक अच्छा उदाहरण है DART, डिस्ट्रॉफी एनाइलेशन रिसर्च ट्रस्ट, जो डुख्ने पेशीय अपविकास से पीड़ित रोगियों के माता-पिता द्वारा बनाया गया है। इस बीमारी में, तीन साल की उम्र से कूल्हे की मांसपेशियां कमज़ोर होने लगती हैं। इस ट्रस्ट ने जोधपुर स्थित आईआईटी और एम्स के साथ मिलकर इस अपविकास के लिए एक कुशल और व्यक्तिपरक एंटीसेंस ऑलिगोन्यूक्लियोटाइड (ASO) आधारित उपचारात्मक आहार का क्लीनिकल परीक्षण शुरू किया है।

कुष्ठ मुक्त भारत

प्रति 10,000 लोगों में 0.45 मामले मिलने की दर के साथ भारत में कुष्ठ रोग अब एक दुर्लभ बीमारी मानी जाती है। लेकिन इस बीमारी के प्रसार को थामने के लिए अभी भी बहुत कुछ किया जाना बाकी है। कुष्ठ रोग इस बात का एक अच्छा उदाहरण है कि किस तरह ‘अनाथ रोगों’ पर शोध के सामाजिक लाभ हो सकते हैं। सिंथेटिक एंटीबायोटिक रिफापेंटाइन, जिसका व्यापक रूप से उपयोग तपेदिक (टीबी) के खिलाफ किया जाता है, पर हालिया शोध से पता चला है कि इस दवा की एक खुराक जब कुष्ठ रोगियों के घरवालों को दी गई तो इसने चार साल की अध्ययन अवधि में उन लोगो में कुष्ठ रोग के प्रसार को काफी कम कर दिया था। यह अध्ययन न्यू इंग्लैण्ड जर्नल ऑफ मेडिसिन में प्रकाशित हुआ है। इस तरह के निष्कर्ष हमारी सरकार के 2027 तक कुष्ठ रोग मुक्त भारत के लक्ष्य को हासिल करने में मदद कर सकते हैं।(स्रोत फीचर्स)

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पारंपरिक चिकित्सा पर प्रथम वैश्विक सम्मेलन

विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा पहली बार पारंपरिक चिकित्सा का वैश्विक सम्मेलन 17-18 अगस्त को गांधीनगर में आयोजित किया गया था। सम्मेलन में जी-20 व अन्य देशों के स्वास्थ्य मंत्रियों के अलावा 88 देशों के वैज्ञानिक, पारंपरिक चिकित्सक, स्वास्थ्यकर्मी तथा सिविल सोसायटी प्रतिनिधि शामिल हुए।

सम्मेलन विभिन्न सम्बद्ध लोगों के लिए अपने अनुभव, सर्वोत्तम कार्य प्रणालियों तथा आपसी सहयोग के लिए विचारों के आदान-प्रदान का मंच बना। सम्मेलन में दुनिया के विभिन्न क्षेत्रों (ऑस्ट्रेलिया, बोलीविया, ब्राज़ील, कनाडा, ग्वाटेमाला, न्यूज़ीलैंड वगैरह) से आदिवासी लोगों ने भी शिरकत की। ये वे लोग हैं जिनके लिए पारंपरिक चिकित्सा स्वास्थ्य में ही नहीं बल्कि संस्कृति व आजीविका में भी महत्वपूर्ण स्थान रखती है।

सम्मेलन में विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा पारंपरिक चिकित्सा के वैश्विक सर्वेक्षण की रिपोर्ट प्रस्तुत की गई थी। रिपोर्ट से पता चलता है कि लगभग 100 देशों में पारंपरिक चिकित्सा से सम्बंधित राष्ट्रीय नीतियां और रणनीतियां हैं। कई सारे देशों में पारंपरिक चिकित्सा के उपचार ज़रूरी दवा सूचियों में, और अनिवार्य स्वास्थ्य सेवा में शामिल हैं। रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि कई देशों में ये उपचार राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा में शामिल किए गए हैं। बड़ी संख्या में लोग गैर-संक्रामक रोगों के उपचार, रोकथाम, प्रबंधन व पुनर्वास में पारंपरिक चिकित्सा का उपयोग करते हैं। 

सम्मेलन का सबसे प्रमुख निष्कर्ष था कि पारंपरिक चिकित्सा से संदर्भ में सशक्त प्रमाणों के आधार की ज़रूरत है। सशक्त प्रमाणों की उपस्थिति में ही देश पारंपरिक चिकित्सा को लेकर उपयुक्त नियामक ढांचा बना सकेंगे और नीतियों को आकार दे सकेंगे।

सम्मेलन में एक प्रमुख संकल्प यह व्यक्त हुआ कि सबके लिए स्वास्थ्य का लक्ष्य हासिल करने और 2030 तक स्वास्थ्य सम्बंधी सस्टेनेबल डेवलपमेंट लक्ष्य हासिल करने के लिए ज़रूरी है कि पारंपरिक चिकित्सा की संभावनाओं को साकार किया जाए। (स्रोत फीचर्स)

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हमारे बाल बढ़ते और सफेद क्यों होते हैं? – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

जैसे-जैसे हमारी उम्र बढ़ती है, हमारे बाल सफेद होने लगते हैं जो तो होना ही है। वास्तव में ये हमें विशिष्ट बनाते हैं। और सेवानिवृत्त और अनुभवी बुज़ुर्ग इसे अवसर की तरह देखते हैं और इसका फायदा भी उठाते हैं। लेकिन कई पुरुष, खासकर फिल्म और प्रदर्शन कलाओं से जुड़े पुरुष, बालों की सफेदी को लेकर चिंतित रहते हैं, और युवा और सुंदर दिखने के लिए तरह-तरह के लोशन व रोगन लगाते हैं। महिलाओं के मामले में बात अलग लगती है, उनके बाल उम्र के हिसाब से थोड़ा देर में सफेद होते हैं। ऐसा शायद उनके पारंपरिक और आधुनिक औषधीय तेलों को लगाने और सिर धोने के तरीकों के कारण हो सकता है। पुरुषों की तरह महिलाओं में दाढ़ी-मूंछ भी नहीं होती हैं। तो क्या इस अंतर का कोई लिंग-आधारित कारण है?

नेचर पत्रिका (16 अप्रैल, 2023) में प्रकाशित एक लेख में बताया गया है कि अज्ञात कारणों से मेलेनोसाइट स्टेम कोशिकाएं, जो चूहों और मनुष्यों में त्वचा और बालों को रंग देती हैं, शरीर की अन्य स्टेम कोशिकाओं की तुलना में पहले ठप होने लगती हैं। लेख बताता है कि उम्र बढ़ने के दौरान जब चूहों को रंजक देने वाली कुछ स्टेम कोशिकाएं थम जाती हैं तब चूहों के बाल सफेद होने लगते हैं। पिगमेंट बनाने वाली स्टेम कोशिकाओं का गतिशील रहना आवश्यक है वरना बाल सफेद हो जाएंगे। क्या यही बात मनुष्यों में भी लागू होती है, और क्या इसमें लिंग-आधारित अंतर है? इसका जवाब अभी पता लगना बाकी है।

उपरोक्त शोध के आने के पूर्व 30 मार्च, 2022 को कोलेरेडो स्टेट युनिवर्सिटी के कोलंबाइन हेल्थ सिस्टम्स फॉर हेल्दी एजिंग द्वारा एक लेख ‘दी साइंस ऑफ ग्रे हेयर’ प्रकाशित हुआ था। यह लेख बताता है कि बालों का रंग कहां से और कैसे आता है। हमारे बालों के रोमकूप (फॉलीकल्स) में दो तरह के मेलेनिन अणु मौजूद होते हैं। पहला यूमेलेनिन, यह मेलेनिन जब बालों की कोशिकाओं में पर्याप्त मात्रा में मौजूद होता है तो बाल काले और भूरे रंग के होते हैं, जबकि यह कम मात्रा में हो तो बाल सुनहरे (ब्लॉन्ड) रंग के होते हैं। जिस तरह हमारे उम्रदराज़ फिल्मी हीरो युवा दिखना चाहते हैं, उसी तरह हमारी फिल्मी नायिकाएं जवां सुनहरे (ब्लॉन्ड) बाल चाहती हैं। और इसके लिए तरह-तरह के तेल आज़माती हैं और बालों को ब्लीच करवाती हैं।

तो क्या बालों के सफेद होने में लिंग-आधारित अंतर है, और क्या आप जहां रहते हैं वहां के वातावरण से इस पर कोई फर्क पड़ता है? इन दोनों ही सवालों के जवाब मिलना अभी बाकी है। लेकिन इस बारे में ज़रूर कुछ सलाहें दी गई है कि कैसे बालों के झड़ने (गंजेपन) की समस्या और बाल सफेद होने को कम किया जाए। इनमें से कुछ सुझाव/सलाह हैं: एंटीऑक्सीडेंट सब्जि़यां और फल अधिक खाएं, धूम्रपान से बचें या छोड़ दें और प्राकृतिक उपचार अपनाएं। आयुर्वेदिक च्यवनप्राश ऐसे ही उपचार का दावा करता है; इसमें एंटीऑक्सीडेंट और विटामिन से भरपूर कई प्राकृतिक चीज़ें होती हैं, और यह दावा करता है कि इसके सेवन से बाल बढ़ेंगे और सफेद कम होंगे। यूनानी दवा ज़िंदा तिलिस्मात भी ऐसा ही दावा करती है, इसमें प्रचुर मात्रा में नीलगिरी का तेल, विटामिन और बुढ़ापा रोधी रसायन होते हैं।

फिर भी, बाल बढ़ाने या झड़ना कम करने, और सफेद होना कम कर जवां बने रहने के लिए सबसे अच्छा उपाय है खूब सारी सब्ज़ियां और फल खाएं। जैसे टमाटर, पालक, रैस्पबेरी, ब्रोकोली और डार्क चॉकलेट। साथ ही, भोजन में गेहूं या चावल की बजाय रागी, ज्वार, बाजरा जैसा मोटा अनाज शामिल करें, क्योंकि ये बालों के बढ़ने में मदद करते हैं और मौजूदा बालों को स्वस्थ रखते हैं।

बालों के सफेद होने में मेलेनिन का हाथ है या मेलानोसाइट्स का हाथ है? और क्या महिला-पुरुष में बालों की समस्या का फर्क लिंग-आधारित है? बहरहाल इन सवालों का जवाब मिलने के लिए इंतज़ार करना होगा।(स्रोत फीचर्स)

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