पिछले दिनों महाराष्ट्र के बुलढाणा (buldhana) ज़िले के गांवों में लोगों में बालों के झड़ने (hair loss) की एक विचित्र घटना सामने आई। बुलढाणा ज़िले के शेगांव तालुका (shegaon council) में अचानक लोगों के बाल झड़ने लगे। यह महिलाओं और पुरुषों दोनों में देखा गया। गांव के लोग अटकलें लगाने लगे कि यह किसी वायरस (virus infection) की वजह से हो रहा है। तत्काल हुई जांचों में पता चला कि बोंडगांव और खातखेड़ के पानी में नाइट्रेट (nitrate contamination) काफी ज़्यादा मात्रा में है और साथ ही उसमें कुल घुलित लवण यानी TDS (Total dissolved solids) भी अधिक था। यह पता लगा कि पानी पीने के लिए सही नहीं है। यह अनुमान लगाया गया कि शायद यही बाल झड़ने का कारण हो सकता है।
लोगों में बाल झड़ने की घटनाएं बढ़ती जा रही थीं। 3 दिन में लगभग 51 व्यक्ति गंजे (sudden baldness) हो चुके थे। चिकित्सा विभाग ने उस क्षेत्र का एक सर्वे किया। त्वचा रोग विशेषज्ञ (dermatologists) भी गांव पहुंच गए। उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि बाल झड़ना एक कवक (फफूंद) के संक्रमण (fungal infection) के कारण हो रहा है जो संदूषित पानी (contaminated water) से फैल रहा है। प्रभावित लोगों ने बताया कि इसकी शुरुआत बालों की जड़ों में खुजली (itching in scalp) होने से होती है, उसके बाद बाल पतले (thinning hair) होने लगते हैं। फिर 3 दिनों में पूरे बाल झड़ जाते हैं और पूरी तरह गंजापन (complete baldness) आ जाता है। यहां तक कि दाढ़ी के बाल भी गिर जाते हैं।
हालांकि संदूषित पानी को ही कारण माना जा रहा था फिर भी जांच आगे जारी रखी गई। त्वचा और पानी के नमूने जांच के लिए भेजे गए। पानी के अत्यधिक संदूषित (highly contaminated water) होने के कारण उसका उपयोग प्रतिबंधित करके गांव वालों के लिए दूसरे स्रोतों से पानी उपलब्ध करवाया गया। अन्य स्रोत से पानी देने लगे तो लगा कि अब और मामले नहीं बढ़ेंगे लेकिन मामले तो बढ़ते ही जा रहे थे।
पूर्व में भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (ICMR – Indian Council of Medical Research) से आई टीम ने जांच में पाया था कि प्रभावित लोगों में सेलेनियम (selenium poisoning) की मात्रा अधिक है जो शायद बालों के झड़ने का कारण है। सेलेनियम राशन की दुकान से वितरित गेहूं (contaminated wheat) में अधिक पाया गया था। अलबत्ता, टीम ने पक्का निष्कर्ष नहीं दिया था कि यही बाल झड़ने का कारण है। गेहूं के नमूने जांच के लिए वारणी एनालिटिक्स लैब, ठाणे पहुंचाए गए। वहां बिना धुले गेहूं में सेलेनियम 14.52 मि.ग्रा./कि.ग्रा पाया गया और धुले हुए गेहूं में 13.61 मि.ग्रा./कि.ग्रा जबकि गेहूं में सेलेनियम की सामान्य मात्रा 0.1 से 1.9 मि.ग्रा./कि.ग्रा होती है। यानी इस गेहूं में सेलेनियम की मात्रा सामान्य अधिकतम मात्रा से 8 गुना अधिक थी। राशन के गेहूं के पैकेट्स को चेक किया गया तो देखा कि ये पंजाब से आए थे।
इसी तरह, 2000 के दशक के शुरू में पंजाब के दो ज़िलों होशियारपुर और नवांशहर में भी बालों के झड़ने (hair fall epidemic) की घटनाएं हुई थीं। ये दोनों ज़िले शिवालिक पर्वतों की तराई में स्थित हैं। तब यहां सेलेनियम नदियों की बाढ़ से आए पानी के साथ आया था।
एक अन्य रिपोर्ट में प्रभावित लोगों के खून में ज़िंक की कमी (zinc deficiency) भी पाई गई जो बालों की वृद्धि (hair growth) के लिए उत्तरदायी है। सेलेनियम की वृद्धि और ज़िंक की कमी, दोनों कारणों से बाल झड़ने की घटनाएं हुई। 15 गांव के लगभग 300 लोग प्रभावित हुए। अच्छी बात यह है कि कुछ वक्त में लोगों के बाल वापस आ गए क्योंकि बालों की जड़ें सलामत थीं। (स्रोतफीचर्स)
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अक्सर भारत में दवाइयों(medicines) की ऊंची कीमतों(high prices) को लेकर शिकायतें सुनने को मिलती हैं; जिन्हें अधिकांश लोग वहन नहीं कर सकते। देश में अधिकांश दवाइयों की उत्पादन लागत कम होने के बावजूद मरीज़ों को ये दवाइयां महंगे दामों (expensive drugs) पर क्यों मिलती हैं? भारत में दवाइयों की ऊंची कीमतों के कुछ प्रमुख कारण हैं। दो भागों में प्रस्तुत इस लेख के पहले भाग में हम भारत सरकार द्वारा दवा कीमतों के नियमन की लगभग अनुपस्थिति पर बात करेंगे। और दूसरे भाग में भारत सरकार द्वारा ब्रांड नामों (branded medicines), बेतुके नियत खुराक मिश्रणों (fixed-dose combinations (FDCs)), ‘मी टू’ औषधियों (me-too drugs) को दी जाने वाली अनुमति पर बात करेंगे।
भाग 1: देशमेंदवाकीमतोंकानाममात्रकानियमन
आदर्श दृष्टि से तो दवाइयां देखभाल के स्थान पर मुफ्त मिलनी चाहिए। भारत में सरकारी स्वास्थ्य सेवा केंद्रों (public healthcare system) पर यही स्थिति होनी चाहिए। लेकिन मात्र करीब 20 प्रतिशत बाह्य रोगी देखभाल तथा 44 प्रतिशत भर्ती रोगी देखभाल ही सरकारी स्वास्थ्य सेवा द्वारा दी जाती है। दूसरी बात यह है कि पिछले तीन दशकों में सरकार की निजीकरण नीतियों (privatization policies) के चलते सरकारी स्वास्थ्य केंद्रों की अनदेखी हुई है, और उनके पास फंड की कमी है। लिहाज़ा, इन केंद्रों पर दवाइयों की उपलब्धता (drug availability) की कमी है। परिणामस्वरूप, कई मर्तबा रोगियों को इन केंद्रों से स्वास्थ्य सेवा लेते समय भी दवाइयों पर खुद की जेब से खर्च (out-of-pocket expenditure) करना पड़ता है। मात्र तीन राज्य – तमिलनाडु, केरल और राजस्थान – इसके अपवाद हैं, जहां सरकारी केंद्रों के लिए दवा खरीद व आपूर्ति का सराहनीय मॉडल अपनाया गया है।
कुल मिलाकर देखें, तो भर्ती मरीज़ों के मामले में 29.1 प्रतिशत तथा बाह्य रोगियों के मामले में 60.3 प्रतिशत खर्च जेब से (आउट ऑफ पॉकेट) किया जाता है। इसके अलावा दवाइयों पर किया गया खर्च हर साल 3 प्रतिशत भारतीयों को गरीबी में धकेल देता है। इसके विपरीत, विकसित देशों (developed countries) में जेब से खर्च कम है क्योंकि इसका एक बड़ा हिस्सा बीमा (health insurance) समेत सार्वजनिक वित्तपोषण (public funding) द्वारा वहन किया जाता है।
भारत में दवाइयों की ऊंची कीमतों के दो कारण हैं। पहला, भारत सरकार द्वारा दवा कीमतों के नियमन की लगभग अनुपस्थिति। दूसरा, भारत सरकार द्वारा ब्रांड नामों, बेतुके नियत खुराक मिश्रणों, ‘मी टू’ औषधियों को दी जाने वाली अनुमति। इस लेख के पहले हिस्से में पहले कारण – यानी भारत में दवा कीमतों के नियमन की लगभग अनुपस्थिति – की चर्चा की गई है।
नियमनक्योंज़रूरीहै
दवाइयां एक मायने में अनोखी वस्तु हैं। इनके सेवन का निर्देश देने वाला – डॉक्टर (doctor)– उनका भुगतान नहीं करता और इन्हें खरीदने वाला – मरीज़ (patient) – दवाइयों के चयन सम्बंधी निर्णय नहीं करता। मरीज़ लिखी गई हर दवा को किसी भी कीमत पर खरीदता है। इस मामले में देरी करने या बातचीत करने का विकल्प नहीं होता क्योंकि मरीज़ दर्द या तकलीफ में होता है। देरी करना या बातचीत में समय गंवाना जानलेवा भी हो सकता है। दवा खरीदार के रूप में विकल्प चुनने की आज़ादी या तो होती ही नहीं, या बहुत सीमित होती है। इसके अलावा, लिखी गई दवा के बारे में, उसका अन्य विकल्प चुनने के बारे में जानकारी का एक असंतुलन (information asymmetry) होता है, इसके साथ-साथ दवाइयों की तकनीकी पेचीदगियों (technical complexities) को लेकर और दवाइयों के साइड प्रभावों (side effects) या प्रतिकूल प्रभावों (adverse effects) को लेकर डर होता है। नतीजतन, किसी भी अन्य सेक्टर की अपेक्षा स्वास्थ्य सेवा के उपभोक्ता इस डर में रहते हैं कि कोई गड़बड़ न हो जाए। मरीज़ों की यह अनोखी दुर्बलता, और साथ में व्यापक गरीबी मिलकर दवा जैसी अनिवार्य वस्तु की कीमतों पर नियंत्रण की ज़रूरत को उजागर करती हैं।
अलबत्ता, भारत में असरहीन नियमन के चलते, भारतीय दवा उद्योग बेरोकटोक मुनाफाखोरी में लिप्त है। दवा कंपनियां या तो मोनोपॉली या ओलिगोपॉली (पूर्ण एकाधिकार या कुछ कंपनियों का मिलकर एकाधिकार) के रूप में बनी हैं। इसके चलते उन्हें मूल्य-निर्धारण पर अधिकार मिल जाता है। यानी मरीज़ की कमज़ोर स्थिति के अलावा उन्हें बाज़ार में कमज़ोर प्रतिस्पर्धा होने का भी फायदा मिलता है। कई मामलों में तो सर्वोच्च 3-4 ब्रांड मिलकर बाज़ार के बड़े हिस्से पर काबिज़ होते हैं। फिर, बड़ी दवा कंपनियों द्वारा डॉक्टरों को ऊंचे दाम वाले ब्रांड्स लिखने को राज़ी कर लिया जाता है। इन सबका परिणाम भारत में दवाइयों के अनावश्यक रूप से ऊंचे दामों के रूप में सामने आता है। आइए, देखते हैं कि कैसे।
कीमतोंकानाममात्रकानियमन
जो लागत-प्लस (cost-plus formula) सूत्र ज़रूरी सेवाओं (टेलीफोन/सेलफोन की कॉल दरें, बिजली, टैक्सी) की दरें तय करने में काम आता है उसी का इस्तेमाल दवाइयों की कीमतें तय करने में भी होना चाहिए। दरअसल, 1979 से यही तरीका था जब दवाइयों की बड़ी संख्या के मूल्यों का नियमन करने के लिए लागत-प्लस विधि का उपयोग किया गया था। निर्माता की उत्पादन-लागत के आधार पर एक उच्चतम कीमत निर्धारित कर दी जाती थी, और उसके ऊपर 100 प्रतिशत का मार्जिन रखा जाता था। अलबत्ता, दवा कंपनियों ने सरकार पर दबाव बनाया जिसके चलते मूल्य-नियंत्रण (cost-control) के अधीन आने वाली दवाइयों की संख्या 1995 में मात्र 74 रह गई जबकि 1979 में इनकी संख्या 347 थी। एक जनहित याचिका के संदर्भ में सर्वोच्च अदालत की वजह से सरकार को समस्त अनिवार्य दवाइयों को मूल्य नियंत्रण के अधीन लाने पर विवश होना पड़ा था (विश्व स्वास्थ्य संगठन(WHO) के मुताबिक ‘अनिवार्य दवाइयां वे हैं जो किसी आबादी की प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल की पूर्ति करती हैं।’) 2013 में, राष्ट्रीय अनिवार्य दवा सूची-2011 की सारी 348 दवाइयों को ‘औषधि मूल्य नियंत्रण आदेश 2013’ के ज़रिए मूल्य नियंत्रण के अधीन लाया गया था। इस आदेश की वजह से औषधि मूल्य नियंत्रण के अधीन आने वाली दवाइयों की संख्या 1995 की तुलना में कहीं ज़्यादा हो गई। लेकिन ‘औषधि मूल्य नियंत्रण आदेश (डीपीसीओ) 2013’ के मुताबिक राष्ट्रीय अनिवार्य दवा सूची-2011 में शामिल समस्त दवाइयों की कीमत किसी दवा के उन समस्त ब्रांड की कीमतों का औसत होगी जिनका बाज़ार में हिस्सा 1 प्रतिशत से अधिक है। बाज़ार में हिस्से की गणना उनकी वार्षिक बिक्री के आधार पर की जाएगी।
बाज़ार-आधारित मूल्य (MBP) निर्धारण ने प्रभावी तौर पर अनिवार्य दवाइयों की उस समय प्रचलित निहायत ऊंची कीमतों को वैधता दे दी। औषधि मूल्य नियंत्रण आदेश 1995 की लागत-आधारित दवा कीमतों को इन अनिवार्य दवाइयों के लिए जारी रखा जाता तो दवाइयों के मूल्य ठीक-ठाक स्तर पर बने रहते। लेकिन जब से नई बाज़ार-आधारित मूल्य-निर्धारण पद्धति को अपनाया गया, तब से मूल्य-नियंत्रण के अधीन आने वाली इन दवाइयों की कीमतें ऊंची बनी हुई हैं। उदाहरण के लिए, डिक्लोफेनेक 50 मि.ग्रा. (diclofenac 50mg) की गोली, जिसका उपयोग शोथ व दर्द कम करने के लिए किया जाता है, की कीमत (यदि लागत-आधारित मूल्य निर्धारण लागू किया जाता) डीपीसीओ के तहत 2.81 रुपए प्रति 10 गोली होती (देखें तालिका 1)। लेकिन मूल्य नियंत्रण आदेश-2013 के तहत 10 गोलियों की फुटकर कीमत (retail price) 19.51 रुपए निकली क्योंकि यह इस गोली के 1 प्रतिशत से ज़्यादा बाज़ार-हिस्से वाले ब्रांड्स की औसत कीमत और उसमें फुटकर विक्रेता का 16 प्रतिशत मार्जिन जोड़कर निकाली गई है। दरअसल, डीपीसीओ-2013 में बाज़ार-आधारित पद्धति से निकाली गई कीमत उस दवा के उत्पादन की वास्तविक लागत की बजाय ब्रांड मूल्य को प्रतिबंबित करती है। मतलब यह हुआ कि आम तौर पर इस्तेमाल की जानी दवाइयों के मामले में उपभोक्ता पर 290 से लेकर 1729 प्रतिशत का अनावश्यक बोझ पड़ा।
डीपीसीओ-2013 इस तरह से बना था कि यह उच्चतम कीमतों को तो कम करता था लेकिन इसने उन अधिकांश ब्रांड्स की कीमतों को कदापि प्रभावित नहीं किया जो पहले से ही उच्चतम मूल्य से कम पर बिकते थे। आम लोगों के लिहाज़ से तो मूल्य नियंत्रण सिर्फ अधिकतम कीमत पर लागू नहीं होना चाहिए बल्कि सारी अनावश्यक रूप से महंगी दवाइयों पर लागू होना चाहिए। उपलब्ध आंकड़ों से पता चला है कि डीपीसीओ-2013 (DPCO-2013) में सम्मिलित 370 दवाइयों की बिक्री 11,233 करोड़ रुपए थी। डीपीसीओ-2013 के लागू होने से इन दवाइयों की बिक्री से आमदनी 1280 करोड़ रुपए (लगभग 11 प्रतिशत) कम हो गई। यह कमी इन दवाइयों की कीमत में नाममात्र की कमी ही थी। इतनी कमी की भरपाई तो साल-दर-साल बिक्री में होने वाली वृद्धि से हो जाएगी।
डीपीसीओ-2013 दवा कंपनियों को भारी-भरकम मुनाफे की गुंजाइश देता है, यह इस बात से भी ज़ाहिर होता है कि डीपीसीओ-2013 द्वारा निर्धारित कीमतें जन-औषधि स्टोर्स पर उन्हीं दवाइयों की कीमतों से कहीं ज़्यादा है। जन-औषधि योजना मनमोहन सिंह सरकार द्वारा 2008 में शुरू की गई थी। इसके अंतर्गत सरकार फुटकर औषधि विक्रेताओं को फर्नीचर व अन्य प्रारंभिक स्थापना के लिए 2 लाख रुपए की प्रोत्साहन राशि देती है। इसके अलावा, जन-औषधि केंद्र चलाने के लिए मासिक बिक्री पर 15 प्रतिशत (अधिकतम 15,000 रुपए) का प्रोत्साहन है, बशर्ते कि वे दवाइयां सिर्फ जेनेरिक नामों से सरकार द्वारा निर्धारित कीमतों पर बेचें। गुणवत्ता के आश्वासन के साथ जेनेरिक नामों वाली दवाइयां इन जन-औषधि केंद्रों को सरकार द्वारा नियंत्रित व अत्यंत कम दामों पर उपलब्ध कराई जाती हैं, और विक्रेता को 20 प्रतिशत का मार्जिन मिलता है। (भारत में आम तौर पर दवा कंपनियां फुटकर विक्रेताओं के लिए 16 प्रतिशत तक का मार्जिन छोड़ती हैं।) हालांकि इस योजना के लिए बजट अत्यंत सीमित था और यह एक सांकेतिक योजना ही बनी रही, लेकिन यह दर्शाती है कि फुटकर दुकानों पर दवाइयां आजकल के मुकाबले कहीं कम दामों पर बेची जा सकती हैं। यह तालिका 2 में देखा जा सकता है।
निष्कर्ष के तौर पर, कहा जा सकता है कि दवाइयों की उत्पादन लागत की तुलना में उनकी कीमतें बहुत अधिक (overpriced medicines) हैं क्योंकि डीपीसीओ-2013 ने मूल्य-नियंत्रण को नाममात्र का बना दिया है, और दवा कंपनियों को भारी मुनाफाखोरी की छूट दे दी है। तब क्या आश्चर्य कि भारत में उत्पादन लागत के मुकाबले दवाइयों की कीमत बहुत ज़्यादा हैं। (स्रोतफीचर्स)
तालिका 1 व तालिका 2 अगले पृष्ठों पर देखें।
तालिका -1: दवाइयों की कीमतें (2013) डीपीसीओ-2013 की बाज़ार-आधारित पद्धति और यदि डीपीसीओ-1995 जारी रहता तो उत्पादन लागत पद्धति की तुलना (10 गोली की एक पट्टी की कीमत रुपए में)
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अक्सर भारत में दवाइयों (medicine prices in India) की ऊंची कीमतों को लेकर शिकायतें सुनने को मिलती हैं। लेकिन देश में अधिकांश दवाइयों की उत्पादन लागत कम है, इसके बावजूद मरीज़ों को दवाइयां महंगे दामों पर क्यों मिलती हैं?
पहले भाग में, हमने इसके एक प्रमुख कारण – भारत सरकार द्वारा दवा कीमतों के नियमन (drug price regulation in India) की लगभग अनुपस्थिति – पर बात की थी। इस भाग में, हम भारत सरकार द्वारा ब्रांड नामों, बेतुके नियत खुराक मिश्रणों (एफडीसी) (Fixed-Dose Combinations – FDC), ‘मी टू’ औषधियों (Me-Too Drugs) को दी जाने वाली अनुमति पर बात करेंगे।
भाग 2: ब्रांडेडदवाइयां, बेतुकेनियतखुराकमिश्रण, ‘मी–टूदवाइयां’, औरपेटेंटकासदाबहारीकरण
दोषपूर्ण औषधि मूल्य नियंत्रण आदेश-2023 (Drug Price Control Order – DPCO 2023) से इतर भी कई कारण हैं कि क्यों भारत में दवाइयों की कीमतें अनावश्यक रूप से ऊंची हैं। आगे इन्हीं कारणों की चर्चा है।
ब्रांड, ब्रांडेडजेनेरिकऔरउनकीगुणवत्ता
जब किसी नई औषधि का आविष्कार होता है तो विश्व स्वास्थ्य संगठन (World Health Organization – WHO) से सम्बद्ध एक अंतर्राष्ट्रीय समिति उसे एक ‘जेनेरिक नाम’ (Generic Name) देती है (जेनेरिक नाम मतलब इंटरनेशनल नॉन-प्रोपायटरी नाम आईएनएन या अंतर्राष्ट्रीय गैर-मालिकाना नाम)। जेनेरिक नाम (Generic Drug Name) का उपयोग सारे वैज्ञानिक जर्नल्स, किताबों और अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में किया जाता है। अलबत्ता, जो कंपनी उस औषधि का आविष्कार करती है उसे अधिकार होता है कि वह उसे एक मालिकाना नाम दे दे। आम तौर पर यह विपणन के मकसद से होता है। इस मालिकाना ब्रांड नाम को प्रासंगिक राष्ट्रीय व वैश्विक कानूनों के तहत पंजीकृत किया जाता है, हालांकि पंजीकरण ऐच्छिक है। कंपनी को उस ब्रांड नाम पर 20 सालों तक एकधिकार प्राप्त होता है, जो आविष्कारक को मिले पेटेंट की वैधता की अवधि है।
उदाहरण के लिए, बुखार, सिरदर्द और बदन दर्द (fever, headache, body pain) से तात्कालिक अस्थायी राहत के लिए एक औषधि है एन-एसिटाइल-पैरा-अमीनोफिनॉल (एपीएपी) (N-Acetyl-Para-Aminophenol), जिसे जेनेरिक नाम (आईएनएन-INN) पैरासिटामॉल दिया गया है। यूएस की दवा कंपनी मैकनाइल ने इसे 1955 में टायलेनॉल (Tylenol) के ब्रांड नाम से पेटेंट किया था। अमेरिकी कानून के अनुसार, इस पेटेंट अवधि में कोई अन्य कंपनी पैरासिटामॉल का उत्पादन मूल निर्माता की अनुमति और रॉयल्टी भुगतान के बगैर नहीं कर सकती। 20 साल की अवधि के बाद कोई भी निर्माता अपने देश के सम्बंधित अधिकारी से उत्पादन का लायसेंस प्राप्त करके उस दवा को जेनेरिक नाम पैरासिटामॉल या अपनी पसंद के किसी ब्रांड नाम से बेच सकता है।
जिस औषधि की पेटेंट अवधि (Patent Expiry) पूरी हो चुकी है और उसे ‘जेनेरिक’ (Generic Drug) के रूप में वर्गीकृत कर दिया गया है, उसे बदकिस्मती से, जेनेरिक नाम से नहीं बल्कि अलग-अलग कंपनियों द्वारा अलग-अलग ब्रांड नामों से बेचा जाता है। इसका परिणाम विभिन्न ‘ब्रांडेड जेनेरिक्स’ के रूप में सामने आता है। उदाहरण के लिए, भारत में पैरासिटामॉल, जो कई वर्षों से पेटेंट-मुक्त (Off-Patent Drugs) है, को क्रोसिन (Crocin), कैल्पॉल (Calpol), मेटासिन (Metacin), डोलो (Dolo) तथा कई अन्य ‘ब्रांडेड जेनेरिक’ (Branded Generic Drugs) नामों से बेचा जाता है। इस तरह के ब्रांडिंग से जेनेरिक नाम पीछे रह जाता है और सामने आते हैं एक ही जेनेरिक औषधि के दर्जनों ब्रांड्स। इन ब्रांड्स की कीमत जेनेरिक औषधि से काफी अधिक रखी जाती है क्योंकि उपभोक्ता औषधि के मूल, जेनेरिक नाम से अनभिज्ञ रहते हैं क्योंकि ब्रांडेड पैकेज पर जेनेरिक नाम छोटे अक्षरों में छापा जाता है। उपभोक्ता तो अति-विज्ञापित ब्रांडेड उत्पाद के लिए अतिरिक्त कीमत चुकाते रहते हैं। इस तरह की ब्रांडिंग डॉक्टरों के लिए भी बोझ बन जाती है क्योंकि उन्हें विभिन्न जेनेरिक औषधियों के ब्रांड नाम याद रखने होते हैं जबकि उनका पूरा प्रशिक्षण जेनेरिक नामों के आधार पर होता है और चिकित्सा साहित्य में जेनेरिक नामों का ही इस्तेमाल होता है।
भारत में दवा कंपनियां 60 जेनेरिक औषधि वर्गों के 60,000 से ज़्यादा (ब्रांडेड) जेनेरिक्स (Branded Generics in India) का विपणन करती हैं। हालांकि कुछ जेनेरिक निर्माता अपनी दवाइयों का थोक बाज़ार में विपणन जेनेरिक नामों से करते हैं और इन्हें कुछ अस्पतालों तथा सरकारी संस्थाओं को बेचते हैं, लेकिन ‘जेनेरिक्स व्यापार’(generic trade) में लगी अधिकांश कंपनियां जेनेरिक्स के लिए अपने-अपने ब्रांड नामों का उपयोग करती है। ये विविध ब्रांड नाम व्यापारिक प्रतिस्पर्धा (market competetion) के चलते उभरते हैं; हर कंपनी डॉक्टरों को पटाना चाहती है – गलत-सही तरीकों से – कि वे उसका ब्रांड लिखें। इस तरह के क्रियाकलाप पर काफी खर्च होता है और बड़ी कंपनियां अधिक संसाधनों के दम पर अधिक खर्च कर सकती है। परिणास्वरूप, चंद बड़ी-बड़ी कंपनियां, विज्ञापनों के ज़रिए बाज़ार पर हावी रहती हैं और अंतत: इसकी कीमत उपभोक्ता चुकाते हैं। एक बारगी डॉक्टर को किसी ब्रांडेड जेनेरिक की बेहतर गुणवत्ता की घुटी पिला दी गई तो दवा कंपनी उसकी कीमत बढ़ा देती है। कई डॉक्टर प्राय: इस मूल्य वृद्धि से अनभिज्ञ रहते हैं या उसकी अनदेखी कर देते हैं। नतीजतन, ऐसे किसी ब्रांड की कीमत उत्पादन-लागत से 10-20 गुना अधिक हो जाती है।
इस समस्या का आसान समाधान यह है कि सरकार उन सभी औषधियों के ब्रांड नामों की निंदाई कर दे जिनकी पेटेंट अवधि समाप्त हो चुकी है। यह सुझाव 1975 में ही औषधि एवं दवा उद्योग समिति (हाथी समिति रिपोर्ट-hathi committee report) मे दे दिया गया था। रिपोर्ट में “चरणबद्ध तरीके से ब्रांड नाम समाप्त करने” का सुझाव दिया गया था, सिवाय उनके जो फिलहाल पेटेंट एकाधिकार (patent monopoly) के तहत हैं। हालांकि तत्कालीन सरकार शुरू-शुरू में इसके प्रति सकारात्मक थी लेकिन थोड़े-बहुत क्रियान्वयन के बाद ही दवा कंपनियों द्वारा कानूनी कार्रवाई ने इसे रोक दिया।
ब्रांड नामों के उन्मूलन का बड़ी दवा कंपनियां और उनके समर्थक विरोध करते हैं। वे तर्क देते हैं कि उनके ब्रांड की गुणवत्ता सुनिश्चित है और उनकी कीमतें अधिक इसलिए हैं क्योंकि उच्च मानकों को बनाए रखने की लागत अधिक होती है। वे यह भी दावा करती हैं कि ‘जेनेरिक्स’ या छोटी कंपनियों के ब्रांडेड जेनेरिक्स अमानक होते हैं। अधिकांश डॉक्टर्स बड़ी-बड़ी दवा कंपनियों के इस प्रपोगैंडा की चपेट में आ जाते हैं। लेकिन, जैसा कि पहले ज़िक्र किया गया था, भारत के बाज़ार में 90 प्रतिशत दवाइयां जेनेरिक हैं यानी पेटेंट से बाहर हैं।
ऐसा कोई अध्ययन नहीं हुआ है जिसने यह बताया हो कि नवाचारी के ब्रांड या अन्य अग्रणी बड़ी कंपनियों के ब्रांड की गुणवत्ता ठीक है जबकि ब्रांडेड जेनेरिक्स की गुणवत्ता कम है। लिहाज़ा, अग्रणी ब्रांड्स की ऊंची कीमतों को यह कहकर सही नहीं ठहराया जा सकता कि उनकी गुणवत्ता ऊंचे दर्जे की है और उच्च गुणवत्ता बनाए रखने की लागत अधिक होती है।
लोकॉस्ट स्टैण्डर्ड थेराप्यूटिक्स (लोकॉस्ट-LOCOST) नामक एक चैरिटेबल ट्रस्ट 30 से अधिक वर्षों से प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा (primary healthcare) के लिए अच्छी गुणवता की ज़रूरी दवाइयों का उत्पादन करता आया है और उन्हें जेनेरिक नामों से गैर-मुनाफा गैर सरकारी चेरिटेबल स्वास्थ्य संस्थाओं को काफी कम कीमत पर बेचता आया है। लोकॉस्ट अपने लिए बहुत कम मार्जिन (less margin) रखता है, सिर्फ अपने उत्पादन संयंत्र के संचालन व उन्नयन के लिए पर्याप्त। यानी सिर्फ हाथी समिति द्वारा 1975 में सारे ब्रांड नाम समाप्त करने के सुझाव पर अमल करके दवाइयों की कीमतें एक-तिहाई से लेकर 10 गुना तक कम की जा सकती हैं। इसलिए दवाइयां सिर्फ जेनेरिक नामों से बेची जानी चाहिए। जब उपभोक्ता को पता होगा कि एक ही दवा विभिन्न कंपनियों द्वारा बेची जा रही है, तो वे सस्ती दवा को चुनेंगे, तो कीमतें कम हो जाएगी।
ब्रांड नाम अनावश्यक भ्रम भी पैदा करते हैं क्योंकि फैंसी ब्रांड नाम और उसके अंदर मौजूद औषधि के बीच कोई सम्बंध नहीं होता। ब्रांड नाम के साथ एक और दिक्कत यह है कि यह आशंका हमेशा बनी रहती है कि मरीज़ को गलत दवा मिल जाएगी क्योंकि कई ब्रांड नाम एक जैसे दिखते हैं लेकिन उनमें औषधि अलग-अलग होती है। जैसे ‘A to Z’, ‘AZ-A’, और ‘AZ’ क्रमश: एक विटामिन, एक एंटीबायोटिक और एक कृमिनाशी दवा के ब्रांड नाम हैं। और यह तथ्य भी ध्यान में रखना होगा कि डॉक्टरों द्वारा हाथ से लिखी गई पर्चियों की अपठनीयता मशहूर है। ऐसे में मेडिकल स्टोर वाले इन्हें गलत पढ़ सकते हैं और यह मरीज़ के लिए घातक हो सकता है।
बेतुकेनियतखुराकऔषधिमिश्रण (FDC)
चिकित्सा पाठ्य पुस्तकें व अन्य विद्वान कुछ दवाइयों को मिलाकर इकलौती गोली या तरल के रूप में देने की सलाह देते हैं, तब जब ऐसा करना उन्हीं दवाइयों को अलग-अलग देने से अधिक लाभदायक हो। इन्हें नियत खुराक मिश्रण या एफडीसी (Fixed-Dose Combination – FDC) कहते हैं। उदाहरण के लिए, पाठ्य पुस्तकें सिफारिश करती हैं कि लौह (iron) की कमी से होने वाले एनीमिया का उपचार लौह व फॉलिक एसिड (folic acid) दोनों के मिश्रण से किया जाना चाहिए क्योंकि अमूमन लौह की कमी के साथ फॉलिक एसिड की कमी भी देखी जाती है। इसी प्रकार से, कैल्शियम (calcium) की गोली में विटामिन डी (vitamin D) मिलाना ज़्यादा कारगर होता है क्योंकि विटामिन डी आंतों में कैल्शियम के अवशोषण में मदद करता है। एफडीसी इकलौते घटक वाली दवा से महंगे हो सकते हैं लेकिन यह अतिरिक्त कीमत इनकी अधिक उत्पादन लागत और अधिक असर के आधार पर उचित ठहराई जा सकती है।
जब दो या अधिक औषधियों को मिलाने का कोई वैज्ञानिक तर्क न हो तो ऐसे मिश्रणों को बेतुके एफडीसी (irrational FCD) कहा जाता है। ऐसे बेतुके एफडीसी ज़्यादा महंगे इसलिए होते हैं कि इनमें अनावश्यक अतिरिक्त घटक मिलाए जाते हैं जबकि इससे कोई अतिरिक्त फायदा नहीं मिलता। दूसरी बात, दवा कंपनियां इनकी अतिरिक्त प्रभाविता के भ्रामक दावे बढ़ा-चढ़ाकर करती हैं (जबकि वाकई ऐसी कोई अतिरिक्त प्रभाविता होती नहीं है)। और यह कहकर उनकी कीमतें बढ़ा देती हैं कि कंपनी यह अधिक असरदार नुस्खा बेच रही है। इन बेतुके एफडीसी के साइड प्रभाव (side-effects of irrational FCDs) भी इकलौते घटक वाली दवा से ज़्यादा होते हैं। एक से अधिक अवयव के चलते इनकी गुणवत्ता की जांच भी ज़्यादा मुश्किल होती है। राष्ट्रीय ज़रूरी दवा सूची-2011 में शामिल 348 दवाइयों में से मात्र 16 (5 प्रतिशत) ही एफडीसी थीं क्योंकि सिर्फ यही वैज्ञानिक रूप से उचित हैं। अलबत्ता, भारत के दवा बाज़ार में 40 प्रतिशत दवा-नुस्खे एफडीसी हैं। महंगे होने के अलावा अनावश्यक अवयवों के चलते इनके साइड प्रभाव भी अधिक हैं। ऐसे बेतुके एफडीसी भारत में दवाइयों के अनावश्यक रूप से महंगी होने का एक प्रमुख कारण है। अत: सिर्फ उन्हीं एफडीसी को अनुमति दी जानी चाहिए जिनकी सिफारिश प्रामाणिक चिकित्सा पाठ्य पुस्तकों या अन्य चिकित्सा विद्वानों द्वारा की गई है। बाज़ार में आज बिक रहे सैकड़ों अन्य एफडीसी पर प्रतिबंध लगाना चाहिए। इससे दवाइयों पर होने वाला अनावश्यक खर्च बचेगा और इनमें मिलाए गए अनुपयुक्त अवयवों से होने वाले साइड प्रभावों से भी सुरक्षा मिलेगी।
‘मी–टूदवाइयां‘ (Me-too Drugs)
दवा कंपनियों के लिए यह आसान और ज़्यादा मुनाफादायक होता है कि वे किसी ‘नई दवा’ का विकास किसी पहले से चली आ रही दवा (Existing Drug Molecule) में थोड़े बहुत परिवर्तन के ज़रिए करें। मौजूदा दवाइयों के ये रासायनिक सहोदर मूल दवा की तुलना में कोई खास चिकित्सकीय लाभ (therapeutic benefits) नहीं देते। ऐसी ‘नई दवाइयों’ को ‘मी-टू दवाइयां’ कहा जाता है। दवा कंपनियां किसी भिन्न रासायनिक वर्ग की दवाइयां विकसित करने की बजाय ऐसी ‘मी-टू दवाइयों’ (Me-Too Drugs in India) पर खूब ध्यान देती हैं जबकि नए रासायनिक वर्ग की दवाइयां मौजूदा दवा की अपेक्षा कई लाभ प्रदान करती हैं।
‘मी-टू दवाइयां’ अमूमन तब बाज़ार में उतारी जाती हैं जब मूल अणु की पेटेंट अवधि समाप्ति के करीब होती है। ये तथाकथित नई दवाइयां (Newly Launched Me-Too Drugs) कहीं अधिक बढ़े हुए दाम पर बेची जाती हैं, और दावा किया जाता है कि ये बेहतर विकल्प हैं। कभी-कभी ये दावे कुछ हद तक सही होते हैं लेकिन अक्सर ऐसा होता है कि चतुर, आक्रामक विपणन रणनीतियों के दम पर ये ‘नई’ दवाइयां डॉक्टरों के बीच लोकप्रिय हो जाती हैं, चाहे उनमें कोई खास बात न हो। अधिकांश मामलों में कीमतें इतनी ज़्यादा होती हैं कि उन्हें अतिरिक्त लाभ (यदि कोई हो) के आधार पर उचित नहीं ठहराया जा सकता। कारण यह है कि इन दवाइयों को नई दवा कहा जाता है जिस पर पेटेंट एकाधिकार होता है।
मसलन, एंजियोटेन्सिव रिसेप्टर ब्लॉकर (ARBs) दवाइयों का एक समूह है जिनका उपयोग उच्च रक्तचाप के उपचार हेतु किया जाता है। अलबत्ता, दवा कंपनियों द्वारा इसी समूह की पांच अन्य औषधियों का विकास कर लिया गया है। इसी तरह, भारत के दवा बाज़ार में सात किस्म के स्टेटिन्स, आठ किस्म के एसीई अवरोधक और नौ किस्म के क्विनोलोन्स हैं। क्या इतनी सारी महंगी ‘मी-टू’ दवाइयां सचमुच आवश्यक हैं? और उपभोक्ता क्यों थोड़े से या शून्य अतिरिक्त लाभ के लिए ज़्यादा भुगतान करें?
‘मी-टू दवाइयों’ पर प्रतिबंध तो नहीं लगाया जा सकता क्योंकि वे मूल दवाइयों के समान सुरक्षित व प्रभावी दर्शाई गई हैं। लेकिन बेहतर प्रभाविता और सुरक्षा के उनके दावों की गहन जांच स्वतंत्र विशेषज्ञों द्वारा की जानी चाहिए। और दवा कंपनियों द्वारा ‘मी-टू दवाइयों’ की प्रचार-प्रसार सामग्री की भी जांच होनी चाहिए।
दवाइयोंपरउत्पादपेटेंट
भारतीय पेटेंट कानून, 1970 ने ब्रिटिश राज के उत्पाद-पेंटेट कानून की जगह प्रक्रिया पेटेंट व्यवस्था लागू की थी। इसके कारण भारत में जेनेरिक दवाइयों के उत्पादन में उछाल आया था और दवाइयों की कीमतों में भी काफी कमी आई थी क्योंकि विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों का एकाधिकार टूटा था और उत्पादन लागत भी कम हुई थी। क्वालिटी जेनेरिक्स का निर्यात विकसित देशों तक को किया गया था, और आज भारत में निर्मित लगभग आधी दवाइयां विकसित देशों को निर्यात की जाती हैं। लिहाज़ा भारत ‘विकासशील देशों की औषधि शाला’ के रूप में उभरा।
अलबत्ता, जब भारत विश्व व्यापार संगठन (WTO) का सदस्य बना, तब से बातें बदलने लगीं। बौद्धिक संपदा अधिकारों के व्यापार सम्बंधी पहलुओं पर समझौता यानी एग्रीमेंट ऑन ट्रेड रिलेटेड आस्पेक्ट्स ऑफ इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी राइट्स (TRIPS) के अंतर्गत कई मामले आते हैं। इनमें उत्पाद पेटेंट भी शामिल है। ट्रिप्स समझौते की शर्त है कि सारे सदस्य देश उत्पादों और प्रक्रियाओं, जो कतिपय मापदंडों को पूरा करते हों, के लिए पेटेंट सुरक्षा प्रदान करेंगे। इसमें कुछ अपवादों की गुंजाइश रखी गई है। कम विकसित होने के आधार पर भारत उत्पाद पेटेंट सुरक्षा को लागू करने में विलंब कर सकता था। लेकिन अंतत: दवा कंपनियों के दबाव में भारत सरकार ने 2005 में दवाइयों के मामले में उत्पाद पेटेंट को पुन: लागू कर दिया। इसका मतलब हुआ कि 1970 के पहले के दिनों की तरह, भारत में नई पेटेंटशुदा दवाइयों का उत्पादन आविष्कार के 20 साल बाद ही किया जा सकता है। हां, नवाचारकर्ता अनुमति दे दे तो बात अलग है। यानी इन नई दवाइयों, जो आधुनिक विज्ञान व टेक्नॉलॉजी के फल हैं, पर उत्पाद पेटेंट व्यवस्था के तहत नवाचारी कंपनी का एकाधिकार हो जाता है और उन्हें निहायत ऊंचे दामों पर बेचा जाता है। इनकी कीमतें मध्यमवर्गीय परिवारों की पहुंच से भी बाहर होती हैं।
फिलहाल ये नई दवाइयां कुल बाज़ार का बहुत छोटा हिस्सा हैं। लेकिन ये बहु-औषधि-प्रतिरोधी टीबी, कतिपय अल्सर, और हिपेटाइटिस-सी के मरीज़ों के लिए जीवन-मृत्यु का मामला होती हैं क्योंकि इनकी कीमतें अत्यंत अधिक होती हैं। आने वाले दो-तीन दशकों में मौजूदा तथा नई स्वास्थ्य समस्याओं के लिए कहीं अधिक असरदार तथा सुरक्षित दवाइयां खोजी जाने की संभावना है। ये समस्याएं आबादी के एक बड़े हिस्से को प्रभावित करती हैं। इसलिए, यह मौका है कि उत्पाद पेटेंट व्यवस्था के खिलाफ अंतर्राष्ट्रीय राजनैतिक दबाव बनाने में भारत सरकार अन्य सहमना शक्तियों के साथ मिलकर सक्रिय भूमिका निभाए। लक्ष्य यह होना चाहिए कि अंतर्राष्ट्रीय कानूनों में बदलाव हों, तथा प्रक्रिया पेटेंट व्यवस्था पर लौटा जाए।
शुक्र है कि ‘दोहा घोषणा पत्र’ की बदौलत, भारत अपने संशोधित भारतीय पेटेंट कानून 2005 में ‘अनिवार्य लायसेंस’ के प्रावधान को बरकरार रख पाया – यह एक ऐसा प्रावधान है जिसके ज़रिए जनहित में ज़रूरी होने पर वह किसी नवाचारी कंपनी को आदेश दे सकता है कि वह किसी दवा, जिसके लिए उसके पास उत्पाद पेटेंट है, के उत्पादन की अनुमति अन्य कंपनियों को दे। बदकिस्मती से, बहुराष्ट्रीय कंपनियों और पश्चिमी सरकारों के दबाव के चलते, भारत सरकार ‘अनिवार्य लायसेंस’ प्रावधान का इस्तेमाल करने को लेकर अनिच्छुक रही है। भारत सरकार को ‘अनिवार्य लायसेंस’ तथा अन्य गुंजाइशों का इस्तेमाल करना चाहिए। (स्रोतफीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://img.etimg.com/thumb/width-420,height-315,imgsize-131232,resizemode-75,msid-93934416/industry/healthcare/biotech/pharmaceuticals/life-saviors-force-feed-pills-bitter-on-pocket-in-exchange-for-exotic-vacations-chic-cars/costly-medicines-istock-806901640.jpg
कल्पना कीजिए कि़ सिर्फ एक रक्त परीक्षण (blood test) से कोविड-19(covid-19), एचआईवी(HIV), मधुमेह(Diabetes) और आत्म-प्रतिरक्षा (autoimmune diseases) सम्बंधी बीमारियों की जांच हो जाती है। वैज्ञानिकों ने एक ऐसा आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) टूल विकसित किया है, जो प्रतिरक्षा प्रणाली की प्रतिक्रिया का विश्लेषण कर एक साथ कई बीमारियों का पता लगा सकता है।
साइंस पत्रिका (Science Journal) में प्रकाशित अध्ययन में लगभग 600 लोगों पर इस एआई टूल का परीक्षण किया गया। पता चला कि यह टूल सटीक रूप से पहचान सकता है कि व्यक्ति स्वस्थ है, वायरल संक्रमण (viral infection) से जूझ रहा है या आत्म-प्रतिरक्षा रोग से ग्रसित है। इतना ही नहीं, इससे यह भी पता चल सकता है कि व्यक्ति ने हाल ही में फ्लू का टीका (flu vaccine) लिया है या नहीं, जो इसकी अतीत और वर्तमान प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया को समझने की क्षमता को दर्शाता है।
वास्तव में हमारी प्रतिरक्षा प्रणाली (immune system memory) एक मेमोरी बैंक (memory bank) की तरह काम करती है जो हर संक्रमण, टीकाकरण और बीमारी का रिकॉर्ड रखती है। इसमें दो मुख्य घटक होते हैं: ‘बी’ कोशिकाएं (B-cells) जो हानिकारक वायरस से लड़ने के लिए एंटीबॉडी बनाती हैं और ‘टी’ कोशिकाएं (T-cells) जो संक्रमित कोशिकाओं को नष्ट करती हैं या अन्य प्रतिरक्षा प्रतिक्रियाओं को सक्रिय करती हैं।
जब किसी व्यक्ति को कोई संक्रमण या आत्म-प्रतिरक्षा रोग (autoimmune disorder) होता है तो ‘बी’ और ‘टी’ कोशिकाओं की संख्या बढ़ जाती है और वे अपनी सतह पर विशेष ग्राही (receptors) बनाती हैं, जो संक्रमण की पहचान और प्रतिक्रिया में मदद करते हैं।
वैज्ञानिकों ने इन ग्राहियों को बनाने वाले जीन्स का अनुक्रमण (gene sequencing) किया ताकि बीमारियों का एक विस्तृत रिकॉर्ड (disease database) तैयार किया जा सके। इसके बाद, एआई टूल (AI algorithm for disease detection) ने इन जीन अनुक्रमों का विश्लेषण करने के लिए छह मशीन-लर्निंग मॉडल (machine learning models) का उपयोग किया और अलग-अलग बीमारियों से जुड़े पैटर्न की पहचान की।
वर्तमान में, आत्म-प्रतिरक्षा बीमारियों या वायरस संक्रमण का पता लगाने के लिए कई परीक्षण और विशेषज्ञ परामर्श की ज़रूरत होती है, जिससे निदान में देरी (delayed diagnosis) हो सकती है। लेकिन यह एआई टूल केवल एक रक्त परीक्षण (AI-driven blood test) से सटीक परिणाम दे सकता है। इसके अलावा कुछ बीमारियों के लिए कोई पक्के नैदानिक परीक्षण नहीं होते, जिससे उन्हें शुरुआती चरण में पहचानना कठिन होता है। यह एआई टूल प्रतिरक्षा प्रणाली की गतिविधियों को पढ़कर उन छिपी हुई बीमारियों को भी पकड़ सकता है, जिन्हें पारंपरिक जांचें नहीं ढूंढ पातीं। इसके साथ ही, यदि डॉक्टर किसी व्यक्ति के प्रतिरक्षा इतिहास (immune history) को समझ पाएं, तो वे व्यक्तिगत उपचार (personalized treatment plans) योजनाएं बना सकते हैं और गंभीर लक्षण प्रकट होने से पहले ही बीमारी पकड़ सकते हैं।
यह टूल (AI healthcare tool) बहुत सशक्त है क्योंकि प्रतिरक्षा प्रणाली अपने आप में एक नैसर्गिक निदान (natural diagnostic system) है — यदि हम इसे पूरी तरह समझ लें तो यह बहुत मददगार होगी। लेकिन अभी इस टूल को विविध और बड़े पैमाने पर परखने की ज़रूरत है ताकि यह सटीक और बेहतर हो सके। (स्रोतफीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://images.nature.com/lw1200/magazine-assets/d41586-025-00528-y/d41586-025-00528-y_50663154.jpg
सत्ता संभालने के मात्र आठ घंटे के अंदर डोनाल्ड ट्रंप (Donald Trump) ने घोषणा कर दी कि संयुक्त राज्य अमेरिका (यूएस) विश्व स्वास्थ्य संगठन (World Health Organization – WHO) से नाता तोड़ लेगा। उनका यह कदम तथाकथित ‘देशभक्तिपूर्ण’ (Patriotic), ‘अमेरिका फर्स्ट’ (America First), ‘मेक अमेरिका ग्रेट अगेन’ जैसे अतिवादी, बड़बोले और गैर-ज़िम्मेदाराना राजनैतिक अजेंडा (Political Agenda) का हिस्सा था। ट्रंप ने इस फैसले के तीन कारण बताए:
“कोविड-19 (COVID-19) महामारीकेदौरानडब्ल्यूएचओकाप्रदर्शनघटियाथा।” हो सकता है कि महामारी के दौरान डब्ल्यूएचओ ने ज़रूरी अर्जेंसी के साथ काम न किया हो लेकिन संगठन से बाहर निकल जाना कोई उपयुक्त प्रतिक्रिया नहीं है। स्वयं ट्रंप प्रशासन द्वारा जिस ढंग से महामारी का प्रबंधन (Crisis Management) किया गया, वह भी साफ तौर पर अनर्थकारी था – वे बचाव के बुनियादी उपाय (जैसे मास्क पहनना और सोशल डिस्टेंसिंग) भी लागू करने में असफल रहे थे। ट्रंप के दफ्तर छोड़ने तक चार लाख अमरीकी कोविड-19 के कारण जान गंवा चुके थे। लैंसेट (Lancet Report) के मुताबिक, इनमें से 40 प्रतिशत मौतों को रोका जा सकता था। सत्ता संभालने के बाद जो बाइडेन ने इस विनाशकारी नीति को बदला, लेकिन जो नुकसान होना था वह तो हो चुका था। यूएस की जनसंख्या दुनिया की जनसंख्या का मात्र 4 प्रतिशत है, लेकिन वहां कोविड-19 से दुनिया में सबसे अधिक मौतें हुईं – पूरी 12 लाख!
“चीन(China)कीआबादीकहींअधिकहैऔरवहएकतेज़ीसेबढ़तीअर्थव्यवस्था(Growing Economy) है, लेकिनवहडब्ल्यूएचओमेंबहुतकमयोगदानदेताहै।” हालांकि यह सही है, लेकिन इसका समाधान संगठन को छोड़ने में नहीं है बल्कि चीन पर योगदान बढ़ाने के लिए अंतर्राष्ट्रीय दबाव बढ़ाने में है।
“डब्ल्यूएचओनेमहामारीकेसंदर्भमेंचीनकेखिलाफपर्याप्तकार्रवाईनहींकी।” यह दावा बेबुनियाद है। हमेशा की तरह चीन सरकार (Chinese Government) अपने कामकाज में अपारदर्शी (Opaque Governance) है। लेकिन चीन के खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई (Sanctions) का कोई निश्चयात्मक कारण नहीं था। इसके अलावा, तथ्य यह है कि डब्ल्यूएचओ के पास सिर्फ परामर्श के अधिकार हैं – वह सदस्य देशों पर कोई निर्णय थोप नहीं सकता और न ही कोई कार्रवाई करने को बाध्य कर सकता है।
परस्परनिर्भरवैश्विकस्वास्थ्य (Global Health Interdependence)
कोविड-19 (Coronavirus Pandemic) ने, पहले से कहीं अधिक स्पष्टता से दिखा दिया है कि बात स्वास्थ्य की हो तो राष्ट्र एक-दूसरे पर बुरी तरह से निर्भर हैं। अतीत की महामारियों – इबोला (Ebola), स्वाइन फ्लू (Swine Flu), सार्स (SARS), ज़ीका (Zika Virus), बर्ड फ्लू (Bird Flu) – ने भी इस बात को रेखांकित किया है। ऐसे खतरों की निगरानी, रोकथाम व प्रबंधन के लिए एक समन्वित और कार्यकुशल वैश्विक स्वास्थ्य तंत्र अनिवार्य है। ट्रंप का फैसला तो खुद अमरीकी लोगों के भी सर्वोत्तम हित में नहीं है।
डब्ल्यूएचओ स्वास्थ्य सम्बंधी महत्वपूर्ण अनुसंधान का संकलन और प्रसारण करता है, जिसमें नए रोगजनकों, बीमारियों के उभार, तथा वैक्सीन के विकास सम्बंधी जानकारी होती है। डब्ल्यूएचओ से निकल जाने के बाद यूएस के लिए एक बड़ी समस्या यह होगी कि उसे इस महत्वपूर्ण जानकारी तक पहुंच स्वत: हासिल नहीं होगी। इसके अलावा, कई अमेरिकी स्वास्थ्य संस्थाएं डब्ल्यूएचओ के साथ निकटता से जुड़ी हैं और ट्रंप का फैसला कई व्यावहारिक अड़चनें उत्पन्न करेगा। लेकिन यह सब दबंग ट्रंप महाशय को कौन समझाए?
निजीस्वार्थोंकाबढ़ताप्रभाव(Rise of Private Interests)
2024 में यूएस सरकार ने डब्ल्यूएचओ के बजट (WHO Budget) में सबसे अधिक योगदान (14.5 प्रतिशत) दिया था। ट्रंप का फैसला अगले साल से डब्ल्यूएचओ के लिए वित्तीय संकट खड़ा कर देगा। संगठन को लागत कटौती (Cost Cutting) के कई उपाय लागू करने होंगे, लेकिन सिर्फ इतने से काम नहीं चलेगा। भारत जैसे विकासशील देश ज़्यादा प्रभावित होंगे, जबकि अल्पविकसित अफ्रीकी देशों को तो गंभीर चुनौतियों का सामना करना होगा।
इसके साथ ही, डब्ल्यूएचओ की निजी संस्थाओं (Private Institutions) पर निर्भरता बढ़ेगी। पिछले 40 वर्षों में डब्ल्यूएचओ के वित्तीय स्रोतों (Funding Sources) में उल्लेखनीय बदलाव आया है। शुरुआत में, डब्ल्यूएचओ की अधिकांश फंडिंग मूलत: सदस्य देशों से मिलने वाले निश्चित वार्षिक योगदान से आती थी। इस योगदान की मात्रा सम्बंधित देश की जनसंख्या और अर्थव्यवस्था के पैमाने के आधार पर निर्धारित होती थी। अलबत्ता, आगे चलकर फोर्ड फाउंडेशन (Ford Foundation), बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन (Bill & Melinda Gates Foundation – BMGF) और दवा कंपनियों (Pharmaceutical Companies) से जुड़े प्रतिष्ठान प्रमुख दानदाता हो गए।
1970 के दशक में निजी योगदान डब्ल्यूएचओ के बजट का मात्र 25 प्रतिशत थे। 1990 के दशक तक यह आंकड़ा बढ़कर 50 प्रतिशत हो चुका था। आज निजी दान डब्ल्यूएचओ के बजट का 75 प्रतिशत हैं।
2024 में अकेले बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन ने डब्ल्यूएचओ के बजट में 13.7 प्रतिशत योगदान दिया था – यह कई देशों के योगदान से अधिक था! इसी प्रकार से, गावी अलाएंस (जो टीकाकरण पर केंद्रित है) का योगदान 10.5 प्रतिशत था और विश्व बैंक ने 4 प्रतिशत का योगदान दिया था। निजी फंडिंग पर यह अतिशय निर्भरता समस्यामूलक है, क्योंकि इनमें से कई अनुदानों के साथ शर्तें जुड़ी होती हैं – ये अक्सर किसी विशेष प्रोजेक्ट के लिए होते हैं, स्वास्थ्य सेवा में सामान्य सुधार के लिए नहीं होते।
हालांकि ये निजी प्रतिष्ठान तकनीकी रूप से ‘गैर-मुनाफा’ हैं लेकिन ये वैश्विक स्वास्थ्य नीतियों पर काफी असर डालते हैं और प्राय: जन स्वास्थ्य उपायों की बजाय बाज़ार-चालित समाधानों की हिमायत करते हैं। उदाहरण के लिए, विकसित देशों में ऐतिहासिक रूप से पोलियो जैसी बीमारियों के उन्मूलन में स्वच्छता और साफ पेयजल की व्यापक उपलब्धता ने अहम भूमिका निभाई है। लेकिन ऐसे दीर्घावधि अधोसंरचना सुधार में निवेश करने की बजाय, निजी दानदाताओं के दबाव में डब्ल्यूएचओ ने टीकाकरण कार्यक्रमों को इन बीमारियों के लिए प्राथमिक समाधान के रूप में बढ़ावा दिया है जो टीका उत्पादकों को लाभ पहुंचाते हैं।
एक गौरतलब उदाहरण: 2011 के स्वाइन फ्लू प्रकोप के दौरान, अनुसंधान ने दर्शाया था कि अकेला टीकाकरण महामारी को कारगर ढंग से थाम नहीं पाएगा। इसके बावजूद, युरोपीय सरकारों ने वैक्सीन की लाखों खुराकों का भंडारण कर लिया, जिन्हें बाद में फेंकना पड़ा था क्योंकि इस बात के काफी प्रमाण इकट्ठे हो गए कि टीकाकरण स्वाइन फ्लू महामारी से लड़ाई में कारगर नहीं है। टीकाकरण का यह निर्णय निजी दवा कंपनियों और निहित स्वार्थों वाले प्रतिष्ठानों के प्रभाव में लिया गया था।
व्यापकतस्वीर(Bigger Picture)
चीन की बढ़ती आर्थिक शक्ति (Economic Power) के मद्देनज़र, वहां की सरकार को डब्ल्यूएचओ में ज़्यादा योगदान देने पर विचार करना चाहिए। लेकिन इसमें एक बड़ी अड़चन 1980 में यूएस के दबाव में लिया गया एक निर्णय (1980 US Policy Influence) है – एक संधि जिसने डब्ल्यूएचओ में सरकारों के योगदान को फ्रीज़ (Funding Freeze) कर दिया था, यहां तक कि महंगाई के हिसाब से कमी-बेशी भी असंभव बना दी! परिणाम यह है कि चीन के योगदान में कोई भी वृद्धि सीधे सरकारी योगदान से नहीं बल्कि निजी चीनी प्रतिष्ठानों (जैसे जैक मा प्रतिष्ठान) से होगी।
द्वितीय विश्व युद्ध तक अंतर्राष्ट्रीय स्वास्थ्य संगठनों पर ब्रिटेन का वर्चस्व था। अलबत्ता, 1948 में डब्ल्यूएचओ की स्थापना के बाद, निर्णय प्रक्रिया ज़्यादा प्रजातांत्रिक हो गई और इसमें यूएस, युरोप, रूस, चीन तथा कुछ नव-स्वतंत्र देशों को आवाज़ मिली। हालांकि यूएस का काफी प्रभाव रहा लेकिन युद्धोपरांत कीन्स प्रभावित (कीनेशियन) युग में कल्याण-उन्मुखी नीतियों पर ज़ोर दिया गया, और यह स्वीकार किया गया कि निजी सेक्टर की समृद्धि सामान्य आर्थिक विकास और लोगों की खुशहाली से बंधी है। इसके परिणामस्वरूप सरकार-चालित स्वास्थ्य पहलों की शुरुआत हुई।
अलबत्ता, विश्व भर में इस राज्य पूंजीवाद के मार्फत कॉर्पोरेट ताकत बढ़ने के साथ, अंतर्राष्ट्रीय स्वास्थ्य संगठनों में उनका प्रभाव भी बढ़ा। 1980 के दशक से, बाज़ार-चालित, कॉर्पोरेट-स्नेही नीतियों ने वैश्विक स्वास्थ्य रणनीतियों को आकार दिया है। डब्ल्यूएचओ से निकलने का ट्रंप का दुस्साहसिक फैसला (Trump’s WHO Exit) इस व्यापक रुझान का सीधा परिणाम है।
निरंकुश बेपरवाही (Authoritarian Carelessness) प्राय: गुप्त निहित स्वार्थों (Hidden Interests) की चाकरी करती है। युरोप में स्वाइन फ्लू टीके (Swine Flu Vaccine) की नाकामी दर्शाती है कि कैसे निजी कॉर्पोरेशन (Private Corporations) जन स्वास्थ्य सम्बंधी निर्णयों को प्रभावित कर सकते हैं। ट्रंप के फैसले के चलते, डब्ल्यूएचओ अब कॉर्पोरेट प्रभावों के प्रति और भी दुर्बल हो गया है, जो निजी मुनाफे के रूबरू जन स्वास्थ्य को बढ़ावा देने की उसकी सामर्थ्य को और कमज़ोर करेगा। (स्रोतफीचर्स)
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विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) इस समय एक महत्वपूर्ण मोड़ पर खड़ा है। अमेरिका (USA) के अलग होने के हालिया फैसले ने संगठन (global health organization) के भविष्य को लेकर चिंता बढ़ा दी है। अमेरिका केवल एक संस्थापक सदस्य (founding member) ही नहीं था, बल्कि उसने 2022-23 में WHO की कुल आय का लगभग छठा हिस्सा भी प्रदान किया था। अलबत्ता, WHO अधिकारियों का मानना है कि यदि अन्य देश अपनी ज़िम्मेदारी उठाएं और निभाएं, तो संगठन आगे भी सुचारु ढंग से चलता रह सकता है।
WHO जन स्वास्थ्य (public health) से जुड़े प्रयासों का समन्वय करने वाला एकमात्र अंतर्राष्ट्रीय संगठन है। यह बीमारियों के प्रसार को रोकने (disease control), सस्ती दवाएं (affordable medicines) और टीके (vaccines) उपलब्ध कराने और विशेष रूप से गरीब देशों (low-income countries) में स्वास्थ्य प्रणालियों को मज़बूत करने में अहम भूमिका निभाता है। 1980 के दशक में चेचक उन्मूलन (smallpox eradication) से लेकर इबोला (Ebola outbreak) जैसी महामारियों से लड़ने और नए संक्रामक रोगों (infectious diseases) के लिए टीकों की उपलब्धता सुनिश्चित करने तक WHO की महत्वपूर्ण भूमिका रही है।
WHO का एक मुख्य कार्य चिकित्सा मानक (medical standards) तय करना और वैज्ञानिक मार्गदर्शन (scientific guidance) प्रदान करना है। इसके वैज्ञानिक दल ने साक्ष्य-आधारित निर्णय लेने (evidence-based decision making) की क्षमता को मज़बूत किया है। लेकिन, आम लोगों के बीच इसकी जटिल भूमिका की पर्याप्त समझ नहीं है।
अमेरिका ने 2022-23 में WHO को लगभग 1.3 अरब डॉलर का वित्तीय सहयोग (financial support) दिया था, जिससे अफ्रीका (Africa) में संक्रामक रोगों की रोकथाम (epidemic prevention) और प्रभावित क्षेत्रों में आपातकालीन चिकित्सा सहायता (emergency medical aid) जैसे महत्वपूर्ण प्रयास हो पाए थे। अमेरिका की फंडिंग बंद होने (funding cut) से WHO को वित्तीय संकट (financial crisis) का सामना करना पड़ रहा है।
बहरहाल, यह संकट WHO को पूरी तरह से कमज़ोर नहीं कर सकता। अन्य समृद्ध (high-income nations) और मध्यम-आय वाले देश (middle-income countries), तथा परोपकारी संस्थाएं (philanthropic organizations), इस कमी को पूरा करने में मदद कर सकते हैं। WHO ने अब तक दाताओं (donors) से काफी अतिरिक्त वित्तीय प्रतिबद्धता हासिल कर ली है, लेकिन सभी खर्चों को पूरा करने के लिए इसे अभी भी और वित्त की ज़रूरत (fundraising challenge) है जिसे हासिल करना एक बड़ी चुनौती है।
कुछ लोगों का मानना है कि WHO को इस संकट को सुधार (reform opportunity) के अवसर के रूप में इस्तेमाल करना चाहिए। इसके लिए विशेष रूप से संगठन के प्रशासनिक ढांचे (administrative structure) में बदलाव की ज़रूरत है।
1948 में WHO की स्थापना के बाद से दुनिया काफी बदल चुकी है। अब अफ्रीका सेंटर फॉर डिसीज़ कंट्रोल (Africa CDC) जैसी क्षेत्रीय संस्थाएं (regional health organizations) नीतियां बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं। साथ ही, कई परोपकारी संगठन (philanthropic foundations) भी फंडिंग में सहयोग कर रहे हैं। यह बढ़ता हुआ वैश्विक सहयोग (global cooperation) मददगार होगा।
WHO की भूमिका महत्वपूर्ण (key role) है क्योंकि बीमारियां (diseases) राष्ट्रीय सीमाओं का पालन नहीं करतीं। WHO साझा ज़िम्मेदारी (shared responsibility) के सिद्धांत पर स्थापित किया गया था, और अब भविष्य इस बात पर निर्भर है कि अन्य देश वैश्विक स्वास्थ्य (global health investment) में निवेश करने को कितना तैयार हैं। शायद अमेरिका लौटे (US rejoin WHO), लेकिन तब तक बाकी देशों को इसके मिशन (“Health for All”) – सबके लिए स्वास्थ्य – को जारी रखने के लिए ठोस कदम उठाने होंगे। (स्रोतफीचर्स)
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चिकित्सा (medical science) में एंटीबायोटिक (antibiotic) दवाइयों के व्यापक एवं अत्यधिक उपयोग के परिणामस्वरूप ऐसे रोगजनक बैक्टीरिया (bacteria) और अन्य सूक्ष्मजीवों में वृद्धि हुई है जो एंटीबायोटिक दवाइयों के खिलाफ प्रतिरोधी (antibiotic resistance) हैं। 2021 में, विश्व में तकरीबन 12 लाख मौतें रोगाणुओं (pathogens) में एंटीबायोटिक दवाओं के प्रति प्रतिरोध (drug resistance) विकसित होने के कारण हुई थीं। भारतीय अस्पतालों (Indian hospitals) में हुए सर्वेक्षण बताते हैं कि एंटीबायोटिक प्रतिरोधी बैक्टीरिया (antibiotic-resistant bacteria) से हुए संक्रमण (infection) के कारण होने वाली मृत्यु दर 13 प्रतिशत है। इसके चलते, चिकित्सा अनुसंधान (medical research) की एक बड़ी प्राथमिकता सतत नए एंटीबायोटिक्स (new antibiotics) की तलाश है।
एंटीबायोटिक (antibiotic) का शाब्दिक अर्थ है जीवन के खिलाफ। किंतु एंटीबायोटिक का उपयोग मानव कोशिकाओं (human cells) को हानि पहुंचाए बिना बैक्टीरिया व अन्य सूक्ष्मजीवों का खात्मा करने या उनकी वृद्धि रोकने के लिए किया जाता है।
कोशिका भित्ति (Cell Wall)
बैक्टीरिया कोशिकाओं (bacterial cells) की एक खासियत है कोशिका भित्ति (cell wall) की उपस्थिति। कोशिका भित्ति कोशिका झिल्ली (cell membrane) के ऊपर एक आवरण बनाती है। हमारी कोशिकाओं में कोशिका भित्ति नहीं होती है। बैक्टीरिया की कोशिका भित्ति मुख्य रूप से पेप्टिडोग्लाइकेन (peptidoglycan) नामक एक अनोखे पदार्थ से बनी होती है। पेप्टिडोग्लाइकेन जाली जैसी संरचना होती है जो अमूमन दो घटकों से बनी होती है।
ग्लाइकेन्स (glycans) दो शर्करा अणुओं, NAG (N-acetylglucosamine) और NAM (N-acetylmuramic acid), से बनी लंबी शृंखलाएं होती हैं। लंबी शृंखलाओं में गुंथी NAM-NAG इकाई बैक्टीरिया के लिए अनोखी होती है। NAM-NAG इकाई का यह अनोखापन ही इसे एंटीबायोटिक विकास (antibiotic development) का एक महत्वपूर्ण लक्ष्य बनाता है। हमारे शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली (immune system) भी हमलावर बैक्टीरिया (pathogenic bacteria) का खात्मा करने के लिए इसी खास पहचान की तलाश करती है।
पेप्टिडोग्लाइकेन्स का दूसरा हिस्सा – ‘पेप्टिडो’ (peptido) – पेप्टाइड्स (peptides) से बना होता है। ये पास-पास की ग्लाइकेन शृंखलाओं की NAM शर्कराओं को आपस में जोड़ते हैं। इस तरह, क्रॉस लिंक्स (cross-links) बनती हैं और परस्पर गुंथी एक मजबूत जाली बन जाती है।
पहला खोजा गया एंटीबायोटिक, पेनिसिलिन (penicillin), इसी क्रॉस लिंकिंग चरण में बाधा पहुंचा कर अपने काम को अंजाम देता है। नतीजतन, बैक्टीरिया की कोशिका भित्ति कमज़ोर पड़ जाती है जो कोशिका द्रव्य (cytoplasm) को सुरक्षित रूप से थाम नहीं पाती। अंतत: बैक्टीरिया कोशिका फट जाती है और मर जाती है।
प्रतिरोध का विकास (Development of Resistance)
बैक्टीरिया में पेनिसिलिन (penicillin) के प्रति प्रतिरोध (resistance) कैसे विकसित हुआ? बैक्टीरिया में ऐसे नए एंज़ाइम (enzymes) विकसित हुए जो पेनिसिलिनेज़ (penicillinase) नामक प्रोटीन का उत्पादन करते हैं, जिससे पेनिसिलिन अणु निष्क्रिय हो जाते हैं। या, बैक्टीरिया उन लक्ष्यों (targets) में बदलाव कर देते हैं जिन पर पेनिसिलीन असर करता है।
संक्रमण (infection) के दौरान बैक्टीरिया कोशिकाओं को तेज़ी से विभाजन (cell division) करके संख्या वृद्धि करना होता है, जिसके लिए कोशिका भित्ति का संश्लेषण (cell wall synthesis) ज़रूरी होता है। बैक्टीरिया कोशिका को वृद्धि और विभाजन करने के लिए मौजूदा भित्ति में कुछ चुनिंदा बंधन तोड़ने और बनाने पड़ते हैं।
नई कोशिका भित्ति जोड़ने से पहले, आणविक कैंचियां चलाई जाती हैं:
एंडोपेप्टिडेस (endopeptidases) नामक एंज़ाइम पेप्टाइड क्रॉसलिंक्स को तोड़ते हैं।
लायटिक ट्रांसग्लाइकोसिलेस (LTs – Lytic transglycosylases) नामक एंज़ाइम्स शर्करा शृंखला को काटते हैं।
इन दोनों कैंचियों को तालमेल बिठाकर काम करना होता है। इस प्रक्रिया को नियंत्रित करने वाली बैक्टीरिया की मशीनरी (bacterial machinery) बहुत जटिल होती है – जिसके नए घटकों की खोज (scientific research) जारी है।
हैदराबाद स्थित सेंटर फॉर सेल्युलर एंड मॉलीक्यूलर बायोलॉजी (CCMB – Centre for Cellular and Molecular Biology) की डॉ. मंजुला रेड्डी (Dr. Manjula Reddy) का दल उन तंत्रों को समझने पर काम कर रहा है जो बैक्टीरिया के कोशिका विभाजन (bacterial cell division) को नियंत्रित करने में भूमिका निभाते हैं।
पिछले सालPLOS Genetics में प्रकाशित एक अध्ययन में उनके दल ने बताया था कि बैक्टीरिया बहुत चतुर होते हैं और शर्करा शृंखला को काटने वाली LT कैंची को अधिकता में बनाकर क्रॉसलिंक्स तोड़ने वाली कैंची के अभाव की भरपाई कर सकते हैं।
ये नवीन नतीजे इस बात को बेहतर ढंग से समझने में मदद करते हैं कि बैक्टीरिया सभी बाधाओं के बावजूद कैसे जीवित रहते हैं। इस बारे में समझ बैक्टीरिया संक्रमण (bacterial infection) से लड़ने के नए मार्ग (new treatment strategies) प्रशस्त कर सकती है।(स्रोतफीचर्स)
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मच्छर के काटने (mosquito bite) या एलर्जी (allergy) से हुई खुजली (itching) को खुजलाने की इच्छा हम सभी को होती है, और यह बेहद संतोषजनक भी लगती है। लेकिन खुजली करने से इतनी राहत क्यों मिलती है? साइंस पत्रिका (science journal) में प्रकाशित चूहों पर हुए एक अध्ययन के अनुसार, खुजली से सिर्फ आराम ही नहीं मिलता बल्कि यह शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली (immune system) को भी सक्रिय करती है, जो त्वचा को संक्रमण से बचाने में मदद करती है।
अब तक माना जाता था कि खुजली करने से त्वचा से कीटाणु(germs) या एलर्जीजनक(allergens) जैसे बाहरी तत्व हट जाते हैं। लेकिन वैज्ञानिकों को संदेह था कि इसके पीछे कोई और कारण भी हो सकता है, क्योंकि कई बार खुजली तब भी बनी रहती है जब असली कारण दूर हो चुका होता है।
इसे परखने के लिए शोधकर्ता चूहों को एक सिंथेटिक एलर्जीकारक (synthetic allergens) के संपर्क में लाए, जिससे उनकी त्वचा पर एलर्जी प्रतिक्रिया (allergic reaction) हुई। जब चूहों ने खुजलाया, तो उनकी त्वचा में सूजन (inflammation) आ गई और वहां बड़ी संख्या में न्युट्रोफिल्स (एक प्रकार की प्रतिरक्षा कोशिकाएं) जमा हो गईं। दिलचस्प बात यह थी कि जिन चूहों को खुजली (scratching) करने से रोका गया, उनमें सूजन और प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया काफी कम रही। यानी खुजलाना सिर्फ जलन मिटाने का तरीका नहीं है, बल्कि शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली का एक हिस्सा भी हो सकता है।
अध्ययन के दौरान जब चूहों ने खुजलाया, तो उनकी तंत्रिका कोशिकाओं (nerve cells) ने ‘पदार्थ पी’(Substance P) नामक रासायनिक संदेशवाहक जारी किया जो मास्ट कोशिकाओं (सफेद रक्त कोशिकाओं का एक प्रकार) को सक्रिय करता है। ये मास्ट कोशिकाओं फिर न्युट्रोफिल्स को सक्रिय करती हैं, जिससे सूजन बढ़ जाती है और प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया (immune response) बढ़ जाती है।
हालांकि, अत्यधिक खुजलाने से सूजन और बढ़ सकती है, और यही कारण है कि एक्ज़िमा (Eczema) जैसी त्वचा की समस्याएं बार-बार खुजली करने से गंभीर होती जाती हैं। हालांकि, अध्ययन चूहों पर किया गया था, लेकिन इससे मनुष्यों के स्वास्थ्य (Human health) के बारे में नई जानकारी मिलती है। यदि हम समझें कि खुजली और प्रतिरक्षा तंत्र (immune mechanism) कैसे काम करते हैं, तो यह हमें लम्बे समय से चल रही खुजली (chronic itching) और त्वचा की समस्याओं (skin disorders) के बेहतर इलाज में मदद कर सकता है। (स्रोत फीचर्स)
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मलेरिया (malaria) एक गंभीर और घातक बीमारी है, जिससे हर साल लाखों लोग प्रभावित होते हैं, विशेषकर उष्णकटिबंधीय (tropical) और उपोष्णकटिबंधीय (subtropical) क्षेत्रों में। यह प्लाज़्मोडियम (plasmodium parasite) नामक परजीवी के कारण होता है, जो संक्रमित मादा एनॉफिलीज़ मच्छर (female anopheles mosquito) के काटने से मानव रक्त में प्रवेश करता है। यह बीमारी गरीब और विकासशील देशों (developing nations) में सबसे अधिक होती है, जहां स्वास्थ्य सुविधाएं सीमित होती हैं। हाल ही में वैज्ञानिकों ने मलेरिया की चुनौती से निपटने के लिए एक नई और क्रांतिकारी विधि विकसित की है। मच्छरों के दंश के माध्यम से मलेरिया का टीका (वैक्सीन) देने की तकनीक न केवल पारंपरिक टीकाकरण की अवधारणा को बदल सकती है, बल्कि मलेरिया उन्मूलन (malaria eradication) के प्रयासों में एक नया अध्याय जोड़ सकती है।
मलेरिया के खिलाफ इस नवाचार का श्रेय नेदरलैंड की रेडबाउट युनिवर्सिटी और लीडन युनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं को जाता है। उन्होंने एक ऐसा टीका विकसित किया है, जिसे मच्छरों के माध्यम (mosquito delivered vaccine) से दिया जा सकता है। यह टीका पारंपरिक टीकाकरण विधियों से बिल्कुल अलग है। इसमें मलेरिया के लिए ज़िम्मेदार परजीवी प्लाज़्मोडियमफाल्सिपैरम (Plasmodium Falciparium) का जीन-संपादित संस्करण (Genetically modified version) शामिल है। यह संशोधित परजीवी मलेरिया का संक्रमण फैलाने में सक्षम नहीं है, लेकिन मानव प्रतिरक्षा प्रणाली को सक्रिय करने में मदद करता है। यह तरीका टीकाकरण की प्रक्रिया को आसान और प्रभावी बना सकता है। इस टीके को ‘जीए2 वर्ज़न पैरासाइट’ (GA2 version parasite) नाम दिया गया है।
इस तकनीक का संचालन जीन-संपादित मच्छरों (genetically engineered mosquitoes) के माध्यम से किया जाता है। वैज्ञानिकों ने इन मच्छरों के अंदर कमजोर प्लाज़्मोडियमपरजीवी (plasmodium parasite) डाला है। जब ये मच्छर किसी व्यक्ति को काटते हैं, तो यह परजीवी मानव शरीर में प्रवेश करता है। एक बार शरीर में पहुंचने के बाद, यह प्रतिरक्षा प्रणाली को सक्रिय करता है। इस विधि को एक नई तरह की ‘वैक्सीन डिलीवरी प्रणाली’ के रूप में देखा जा रहा है, जिसमें मच्छरों को एक ‘जीवित वैक्सीन वाहक’ (live vaccine carrier) के रूप में उपयोग किया जाता है।
हाल ही में इस टीके का परीक्षण 9 लोगों पर किया गया, जिसमें 8 लोग मलेरिया से मुक्त रहे। हालांकि, बड़े पैमाने पर परीक्षण (large scale trials) और अध्ययन अभी बाकी हैं, लेकिन इस शोध ने मलेरिया के खिलाफ लड़ाई में एक नई आशा दी है। शोधकर्ताओं का मानना है कि यह विधि न केवल मलेरिया बल्कि अन्य मच्छर-जनित बीमारियों (जैसे डेंगू और ज़ीका) (mosquito borne diseases) के टीकों के विकास में भी मदद कर सकती है।
मलेरिया के खिलाफ इस तकनीक की संभावनाओं के साथ-साथ इसकी चुनौतियां भी हैं। जीन-संपादित मच्छरों का उपयोग करते समय पर्यावरणीय और पारिस्थितिकीय प्रभावों (ecological impact) का गहन अध्ययन करना आवश्यक है। यह सुनिश्चित करना ज़रूरी है कि जीन-संपादित मच्छर किसी अन्य प्रकार के संक्रमण या पर्यावरणीय समस्या (environmental concerns) का कारण न बनें। ऐसे मच्छरों का बड़े पैमाने पर उत्पादन (mass production) और उनका सही प्रबंधन भी एक बड़ी चुनौती है। इसके अलावा, समाज में इस तकनीक को स्वीकार्य बनाना (public acceptance) और लोगों को इसके बारे में जागरूक करना भी एक महत्वपूर्ण कदम होगा।
मलेरिया उन्मूलन के लिए इस तकनीक का उपयोग व्यापक और वैज्ञानिक अनुसंधान, सरकारी नीतियों और सामुदायिक भागीदारी के समन्वित प्रयासों की मांग करता है। सरकार को मलेरिया उन्मूलन के लिए पर्याप्त धनराशि का आवंटित (funding allocation) करना होगी और तकनीक के विकास को प्रोत्साहित करना होगा।
इसके साथ ही, मच्छरों के प्रजनन स्थलों को नष्ट करना और कीटनाशक युक्त मच्छरदानियों का उपयोग जैसे पारंपरिक उपाय भी मलेरिया नियंत्रण में सहायक हो सकते हैं।
जीन-संपादित मच्छरों का उपयोग करते समय पारिस्थितिकीय प्रभावों को ध्यान में रखना आवश्यक है। मच्छर पारिस्थितिकी तंत्र का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं, और उनकी किसी भी प्रजाति में बदलाव से खाद्य शृंखला (food chain) और पर्यावरणीय संतुलन (environmental balance) पर प्रभाव पड़ सकता है। छोटे पैमाने पर परीक्षण और अंतर्राष्ट्रीय पर्यावरणीय मानकों (International Environmental Standards) का पालन इस दिशा में सहायक हो सकता है।
यदि इन सभी चुनौतियों का सफलतापूर्वक समाधान कर लिया जाए, तो मच्छरों के माध्यम से मलेरिया टीकाकरण (malaria vaccination via mosquitoes) की यह विधि स्वास्थ्य क्षेत्र में एक ऐतिहासिक उपलब्धि साबित हो सकती है। यह तकनीक मलेरिया जैसी गंभीर बीमारी से लड़ने के लिए एक नई राह दिखाती है और भविष्य में अन्य स्वास्थ्य समस्याओं (health issues) के समाधान के लिए भी उपयोगी हो सकती है। (स्रोतफीचर्स)
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एक हालिया अध्ययन में खरपतवारनाशी ग्लायफोसेट (Glyphosate) के बढ़ते उपयोग का सम्बंध नवजात शिशुओं के जन्म के समय कम वज़न और गर्भावस्था के छोटा होने से देखा गया है। इस रसायन का खेती में खूब उपयोग होता है, खासकर अमेरिका में। यह अध्ययन ओरेगन विश्वविद्यालय (Oregon University) के एडवर्ड रुबिन और एमेट रेनियर द्वारा प्रोसीडिंग्सऑफदीनेशनलएकेडमीऑफसाइन्सेज़ (PNAS Journal) में प्रकाशित किया गया है।
शोधकर्ताओं ने 1990 से 2013 के बीच जन्मे एक करोड़ से अधिक नवजात शिशुओं के डैटा (Infant Birth Data) का विश्लेषण किया और अलग-अलग ज़िलों में ग्लायफोसेट के इस्तेमाल की मात्रा का सम्बंध गर्भावस्था अवधि (Gestation Period) और जन्म के समय वज़न से किया। पाया गया कि जिन ज़िलों में सोयाबीन (Soybean), मक्का (Corn) और कपास (Cotton) की जेनेटिकली मॉडिफाइड (GM Crops) फसलें उगाई जाती हैं और भारी मात्रा में ग्लायफोसेट छिड़का जाता है, वहां 2005 तक नवजात शिशुओं का औसत वज़न 30 ग्राम कम और गर्भावस्था की अवधि 1.5 दिन कम हो गई थी।
ये प्रभाव 1996 से पहले नहीं दिखाई दिए थे क्योंकि तब जीएम फसलों (Genetically Modified Crops) का खूब उपयोग शुरू नहीं हुआ था। ग्लायफोसेट-सह फसलें (Glyphosate-Resistant Crops) आने के बाद ग्लायफोसेट का अत्यधिक उपयोग (Excessive Glyphosate Use) शुरू हुआ था। महज अमेरिका में हर साल यह 1,27,000 टन से अधिक छिड़का जाता है। अमेरिकी पर्यावरण सुरक्षा एजेंसी (US Environmental Protection Agency – EPA) के अनुसार ग्लायफोसेट का सावधानियों के साथ उपयोग सुरक्षित है, लेकिन कुछ शोध में इसका सम्बंध प्रजनन हार्मोन असंतुलन (Reproductive Hormone Disruption) और अल्प गर्भावधि (Preterm Birth) से देखा गया है।
शोधकर्ताओं के मुताबिक इसके आर्थिक प्रभाव (Economic Impact) भी गंभीर हैं। जन्म के समय कम वज़न (Low Birth Weight) और छोटी गर्भावधि (Short Pregnancy Duration) का सम्बंध दीर्घकालिक स्वास्थ्य समस्याओं (Long-Term Health Issues) से है, जैसे संज्ञानात्मक विकास में देरी (Cognitive Development Delay), कमज़ोर प्रतिरक्षा प्रणाली (Weakened Immune System), मधुमेह (Diabetes) व हृदय रोग (Heart Disease)। और शोधकर्ताओं का अनुमान है गर्भावधि में मामूली कमी से नवजात की देखभाल (Neonatal Care), विशेष शिक्षा (Special Education), कमज़ोर प्रतिरक्षा प्रणाली के कारण बीमारी पर खर्च, और प्रभावित व्यक्तियों की कमाई में कमी जैसी समस्याओं से हर साल 1.1 अरब डॉलर से अधिक की हानि होती है। इसके अलावा, अश्वेत परिवारों (Black Families) या अविवाहित माता-पिता (Single Parents) के बच्चों पर इसका असर अधिक देखा गया है।
यह अध्ययन कुछ वैश्विक मुद्दे (Global Issues) भी उजागर करता है। ब्राज़ील (Brazil) में, जहां अमेरिका की तुलना में दुगना ग्लायफोसेट उपयोग (Higher Glyphosate Usage) किया जाता है, वहां शिशु मृत्यु दर (Infant Mortality Rate) और बचपन में कैंसर (Childhood Cancer) की दर अधिक पाई गई है।
एक दिक्कत है कि यह अध्ययन ग्लायफोसेट के व्यक्तियों से संपर्क (Direct Human Exposure) की बजाय संपूर्ण ज़िलों के डैटा (Regional Data) पर किया गया है। गर्भावस्था के दौरान माताओं के ग्लायफोसेट से प्रत्यक्ष संपर्क (Direct Exposure to Glyphosate) को मापने जैसे अधिक सटीक अध्ययन (More Accurate Studies) ज़रूरी हैं ताकि इसके प्रभावों को बेहतर तरीके से समझा जा सके। बहरहाल, इसके परिणामों की गंभीरता (Serious Health Risks) को देखते हुए नियामक एजेंसियों (Regulatory Agencies) को इस ओर ध्यान देना चाहिए। (स्रोतफीचर्स)
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