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खरपतवारनाशी – सुरक्षित या हानिकारक

ग्लायफोसेट, दुनिया में सबसे अधिक इस्तेमाल किया जाने वाला खरपतवारनाशी यानी हर्बीसाइड है। ऐसा बताया गया था कि यह जंतुओं के लिए हानिकारक नहीं है। लेकिन शायद यह मधुमक्खियों के लिए घातक साबित हो रहा है। यह रसायन मधुमक्खियों के पाचन तंत्र में सूक्ष्मजीव संसार को तहस-नहस करता है, जिसके चलते वे संक्रमण के प्रति अधिक संवेदनशील हो जाती हैं। इस खोज के बाद दुनिया में मधुमक्खियों की संख्या में गिरावट की आशंका और भी प्रबल हो गई है।

ग्लायफोसेट कई महत्वपूर्ण एमिनो अम्लों को बनाने वाले एंज़ाइम की क्रिया को रोककर पौधों को मारता है। जंतु तो इस एंज़ाइम का उत्पादन नहीं करते हैं, लेकिन कुछ बैक्टीरिया द्वारा अवश्य किया जाता है।

टेक्सास विश्वविद्यालय की एक जीव विज्ञानी नैंसी मोरन ने अपने सहकर्मियों के साथ एक छत्ते से लगभग 2000 मधुमक्खियां लीं। कुछ को चीनी का शरबत दिया और अन्य को चीनी के शरबत में मिलाकर ग्लायफोसेट की खुराक दी गई। ग्लायफोसेट की मात्रा उतनी ही थी जितनी उन्हें पर्यावरण से मिल रही होगी। तीन दिन बाद देखा गया कि ग्लायफोसेट का सेवन करने वाली मधुमक्खियों की आंत में स्नोडग्रेसेला एल्वी नामक बैक्टीरिया की संख्या कम थी। लेकिन कुछ परिणाम भ्रामक थे। ग्लायफोसेट का कम सेवन करने वाली मक्खियों की तुलना में जिन मधुमक्खियों ने अधिक का सेवन किया था उनमें 3 दिन के बाद अधिक सामान्य दिखने वाले सूक्ष्मजीव संसार पाए गए। शोधकर्ताओं को लगता है कि शायद बहुत उच्च खुराक वाली अधिकांश मधुमक्खियों की मृत्यु हो गई होगी और केवल वही बची रहीं जिनके पास इस समस्या से निपटने के तरीके मौजूद थे।

मधुमक्खी में सूक्ष्मजीव संसार में परिवर्तन घातक संक्रमण से बचाव की उनकी प्रक्रिया को कमजोर बनाते हैं। परीक्षणों में ग्लायफोसेट का सेवन करने वाली केवल 12 प्रतिशत मधुमक्खियां ही सेराटिया मार्सेसेंस के संक्रमण से बच सकीं। सेराटिया मार्सेसेंस मधुमक्खियों के छत्तों में पाए जाने वाले आम जीवाणु हैं। दूसरी ओर, ग्यालफोसेट से मुक्त 47 प्रतिशत मधुमक्खियां ऐसे संक्रमण से सुरक्षित रहीं।

प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ जर्नल में प्रकाशित इस शोध ने मधुमक्खियों की तादाद में कमी के लिए एक संभावित कारण और जोड़ दिया है।

यह खोज मानव तथा जंतुओं पर ग्लायफोसेट के प्रभाव पर भी सवाल उठाती है। क्योंकि मानव आंत और मधुमक्खी की आंत में सूक्ष्म जीवाणुओं की भूमिका में कई समानताएं हैं। इस खोज ने विवादास्पद खरपतवारनाशी को दोबारा से शोध का विषय बना दिया है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit :  https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/inline__450w__no_aspect/public/bees_16x9_1.jpg?itok=utmJr-HM

 

 

आनुवंशिक इंजिनियरिंग द्वारा खरपतवार का इलाज – डॉ. अरविंद गुप्ते

हमारी अधिकांश खाद्यान्न फसलें घास कुल की सदस्य होती हैं। ज्वार, चावल, गेहूं आदि फसलों में अनचाहे पौधे (खरपतवार) निकल आते हैं तथा वे फसलों से पोषण के लिए प्रतिस्पर्धा करके उनके पोषण में कमी लाकर फसल को कमज़ोर कर देते हैं। इस समस्या का हल इस प्रकार खोजा गया कि फसल के पौधों में खरपतवारनाशक के लिए प्रतिरोध पैदा करने वाला जीन प्रविष्ट करा दिया जाता है। इस जीन के कारण खरपतवारनाशक का छिड़काव करने पर खरपतवार नष्ट हो जाते हैं और फसल के पौधों पर असर नहीं होता।

समस्या तब आ जाती है जब फसल के और खरपतवार के पौधे एक ही कुल के हों और वे आपस में प्रजनन कर लें। इस प्रकार बनने वाले संकर पौधों में फसल के पौधों से वह जीन आ सकता है जो नाशक रसायन के लिए प्रतिरोध पैदा करता है। ऐसे संकर खरपतवारों पर नाशक का असर नहीं होता।

चीन के फुदान विश्वविद्यालय के लु बरॉन्ग ने इस समस्या का हल खोजने का दावा किया है। ट्रांसजेनिक रिसर्च नामक पत्रिका में प्रकाशित शोध पत्र में उन्होंने इसका विवरण दिया है। जंगली घास के पौधों में च्ण्4 नामक एक जीन होता है जिसके कारण इन पौधों के बीज परिपक्व होने पर अपने आप बिखर जाते हैं। फसलों की किस्मों का चयन करके मनुष्य ने ऐसे पौधे बना लिए हैं जिनमें यह जीन कमज़ोर हो जाता है या बिल्कुल काम नहीं करता क्योंकि किसान चाहता है कि उसकी फसल के दाने अपने आप न बिखर जाएं ताकि वह उनके परिपक्व होने पर उन्हें सहेज ले। डॉ. लु के अनुसार फसल के पौधों में Sh4 को निष्क्रिय करने वाला जीन भी जोड़ दिया जाए तो इस बात का खतरा पूरी तरह समाप्त हो जाता है कि पकने पर भी फसल के दाने बिखर जाएं। इसका परिणाम और भी बेहतर होता है और ऐसी रूपांतरित फसल का उत्पादन मूल फसल से किसी भी प्रकार उन्नीस नहीं होता। यदि कोई खरपतवार ऐसे फसली पौधे के साथ प्रजनन कर ले (जिसमें यह Sh4 को निष्क्रिय करने वाला जीन जोड़ दिया गया है) तो यह जीन संकरों में प्रवेश कर जाएगा और फिर संकरों के बीज पकने पर बिखर नहीं सकेंगे। इन संकरों को फसल के साथ काट लिया जाएगा और उन्हें निकालकर फेंक देना आसान हो जाएगा। इस प्रकार खरपतवार कालांतर में समाप्त हो जाएंगे।

अपनी परिकल्पना का परीक्षण करने के लिए डॉ. लु और उनके दल ने चावल की एक खरपतवार का प्रजनन चावल की फसल के पौधों के साथ करवाया। फिर उन्होंने इस प्रकार बने संकर खरपतवारों का आपस में प्रजनन करवाया। यह देखा गया कि इन संकरित खरपतवारों में Sh4 बहुत कमज़ोर हो गया था।

एक बहुत लंबी अवधि के बाद जब सब खरपतवार इस प्रकार नष्ट हो जाएंगे तब खरपतवारनाशक रसायनों की आवश्यकता नहीं रहेगी। किंतु डॉ. लु ने फौरी उपाय की एक योजना भी बनाई है। उनका विचार है कि यदि खरपतवारनाशक से सुरक्षा करने वाले जीन और Sh4 को निष्क्रिय करने वाले जीन दोनों को एक ही गुणसूत्र पर पासपास रख दिया जाए तो कोई खरपतवार फसली पौधे से खरपतवारनाशक को निष्प्रभावी करने वाला जीन ले भी ले तो उसे इसके साथ Sh4 को निष्क्रिय करने वाला जीन अपने आप मिल जाएगा और उसके बीज अपने आप बिखर नहीं सकेंगे। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit :  https://upload.wikimedia.org/wikipedia/commons/thumb/e/ee/Unkraut_Feld.JPG/1024px-Unkraut_Feld.JPG

औद्योगिक कृषि से वन विनाश

विश्व स्तर पर जंगली क्षेत्र में हो रही लगातार कमी का मुख्य कारण औद्योगिक कृषि को बताया जा रहा है। प्रति वर्ष 50 लाख हैक्टर क्षेत्र औद्योगिक कृषि के लिए परिवर्तित हो रहा है। बड़ीबड़ी कंपनियों द्वारा वनों की कटाई ना करने की प्रतिज्ञा के बावजूद, ताड़ एवं अन्य फसलें उगाई जा रही हैं जिसके चलते पिछले 15 वर्षों में जंगली क्षेत्र का सफाया होने में किसी भी प्रकार की कमी नहीं आई है।

इस विश्लेषण से यह तो साफ है कि केवल कॉर्पोरेट वचन से जंगलों को नहीं बचाया जा सकता है। 2013 में, मैरीलैंड विश्वविद्यालय, कॉलेज पार्क में रिमोट सेंसिंग विशेषज्ञ मैथ्यू हैन्सन और उनके समूह ने उपग्रह तस्वीरों से 2000 और 2012 के बीच वन परिवर्तन के मानचित्र प्रकाशित किए थे। लेकिन इन नक्शों से वनों की कटाई और स्थायी हानि की कोई पुख्ता जानकारी नहीं मिल पाई थी।

एक नए प्रकार के विश्लेषण के लिए सस्टेनेबिलिटी कंसॉर्शियम के साथ काम कर रहे भूस्थानिक विश्लेषक फिलिप कर्टिस ने उपग्रह तस्वीरों की मदद से जंगलों को नुकसान पहुंचाने वाले पांच कारणों को पहचानने के लिए एक कंप्यूटर प्रोग्राम तैयार किया है। ये कारण हैं जंगलों की आग (दावानल), प्लांटेशन की कटाई, बड़े पैमाने पर खेती, छोटे पैमाने पर खेती और शहरीकरण। सॉफ्टवेयर को इनके बीच भेद करना सिखाने के लिए कर्टिस ने ज्ञात कारणों से जंगलों की कटाई वाली हज़ारों तस्वीरों का अध्ययन किया।

यह प्रोग्राम तस्वीर के गणितीय गुणों के आधार पर छोटेछोटे क्षेत्रों में अनियमित खेती और विशाल औद्योगिक कृषि के बीच भेद करता है। साइंस में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार 2001 से लेकर 2015 के बीच कुल क्षति का लगभग 27 प्रतिशत बड़े पैमाने पर खेती और पशुपालन के कारण था। इस तरह की खेती में ताड़ की खेती शामिल है जिसका तेल अधिकतर जैव र्इंधन एवं भोजन, सौंदर्य प्रसाधन, और अन्य उत्पादों में एक प्रमुख घटक के तौर पर उपयोग किया जाता है। इन प्लांटेशन्स के लिए जंगली क्षेत्र हमेशा के लिए साफ हो गए जबकि छोटे पैमाने पर खेती के लिए साफ किए गए क्षेत्रों में जंगल वापस बहाल हो गए।

कमोडिटी संचालित खेती से वनों की कटाई 2001 से 2015 के बीच स्थिर रही। लेकिन हर क्षेत्र में भिन्न रुझान देखने को मिले। ब्राज़ील में 2004 से 2009 के बीच वनों की कटाई की दर आधी हो गई। मुख्य रूप से इसके कारण पर्यावरण कानूनों को लागू किया जाना और सोयाबीन के खरीदारों का दबाव रहे। लेकिन मलेशिया और दक्षिण पूर्व एशिया में, वनों की कटाई के खिलाफ कानूनों की कमी या लागू करने में कोताही के कारण ताड़ बागानों के लिए अधिक से अधिक जंगल काटा जाता रहा। इसी कारण निर्वनीकरण ब्राज़ील में तो कम हुआ लेकिन दक्षिण पूर्व एशिया में काफी बढ़ोतरी देखी गई।

कई कंपनियों ने हाल ही में वचन दिया है कि वे निर्वनीकरण के ज़रिए पैदा किया गया ताड़ का तेल व अन्य वस्तुएं नहीं खरीदेंगे। लेकिन अब तक ली गई 473 प्रतिज्ञाओं में से केवल 155 ने वास्तव में 2020 तक अपनी आपूर्ति के लिए वनों की शून्य कटाई के लक्ष्य निर्धारित किए हैं। इसमें भी केवल 49 कंपनियों ने अच्छी प्रगति की सूचना दी है।

विस्कॉन्सिन विश्वविद्यालय, मैडिसन की भूगोलविद लिसा रॉश के अनुसार कंपनियों के लिए शून्यकटाई वाले सप्लायर्स को ढूंढना भी एक चुनौती हो सकती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit :  https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/inline__450w__no_aspect/public/forest_16x9.jpg?itok=JTFzruKt