जीवों में अंगों का फिर से निर्माण – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

छिपकली को जब भी किसी खतरे का अंदेशा होता है तो वह अपने बचाव में अपने शरीर से पूंछ अलग कर गिरा देती है और वहां से भाग जाती है। अगले 60 दिनों के भीतर छिपकली के शरीर पर नई पूंछ आ जाती है। लेकिन नई पूंछ कैसे और क्यों आती है? एरिज़ोना स्टेट युनिवर्सिटी के डॉ. केनरो कुसुमी और उनके साथियों ने अपने शोध में इसी सवाल का जवाब खोजने की कोशिश की। उन्होंने पाया कि दोबारा पूंछ विकसित करने के लिए छिपकली अपने शरीर के किसी खास हिस्से के जीनोम में लगभग 326 जीन्स को सक्रिय कर देती है। इसके अलावा वे ‘सैटेलाइट कोशिकाओं’ को भी सक्रिय कर देती हैं, जो विकसित होकर कंकाल की पेशियों और अन्य ऊतकों में तबदील हो सकती हैं। शोधकर्ताओं का कहना है कि चूंकि मनुष्यों में भी सैटेलाइट कोशिकाएं होती हैं इसलिए संभावना है कि इन्हें सक्रिय करके मनुष्यों में भी पेशियों और उपास्थियों को पुन: विकसित किया जा सके।

छिपकली जैव विकास के क्रम में काफी देर से अस्तित्व में आई थीं। छिपकली लगभग 31-32 करोड़ साल पहले अस्तित्व में आई जबकि उनसे पहले केंचुए लगभग 51 करोड़ वर्ष पूर्व और चपटे कृमि लगभग 84 करोड़ वर्ष पूर्व अस्तिस्व में आ चुके थे। अरस्तू ने इन्हें ‘पृथ्वी की आंत’ और डार्विन ने ‘प्रारंभिक जुताई करने वाले’ की उपमा दी थी। प्रोसिडिंग्स ऑफ रॉयल सोसायटी में प्रकाशित एक अध्ययन में शोधकर्ताओं ने यह पता किया है कि कृमियों की 35 विभिन्न प्रजातियां शरीर का कोई हिस्सा कटकर अलग हो जाने पर उसे पुन: विकसित (या अंग पुनर्जनन) कैसे करती हैं। जैसे कम-से-कम चार तरह के कृमि अपने सिर को दोबारा विकसित कर लेते हैं। तो छिपकली की तरह इन जीवों की जीव वैज्ञानिक कार्यप्रणाली का अध्ययन अंग पुनर्जनन की बेहतर समझ बनाने में मददगार होगा।

सवाल यह है कि ऐसा क्यों है कि विकास क्रम में पहले अस्तित्व में आए कृमि, अपना सिर तक पुन: विकसित कर पाते हैं जबकि उनके बाद अस्तित्व में आर्इं छिपकलियां सिर्फ पूंछ दोबारा बना पाती हैं। और उनके भी बाद आए ‘ऊंचे दर्जे के जानवर’ तो कोई भी अंग फिर से नहीं बना पाते। इस मामले में दो तरह के तर्क दिए जाते हैं। युनिवर्सिटी ऑफ मेरीलैंड की प्रोफेसर एलेक्सेन्ड्रा बेली ने अपनी समीक्षा इवॉल्यूशनरी लॉस ऑफ एनिमल रीजनरेशन: पैटर्न एंड प्रोसेस (विकास के दौरान जीवों में अंग-पुनर्जनन क्षमता की हानि: पैटर्न और प्रकिया) में बताया है कि पुनर्जनन में नई कोशिकाएं, ऊतक और आंतरिक अंग तो बन सकते हैं लेकिन भुजाओं जैसी रचनाओं के पुनर्जनन पर उम्र, लिंग, पोषण और अन्य कारकों का नियंत्रण होता है। या क्या यह भी हो सकता है कि पुनर्जनन इसलिए समाप्त हो गया क्योंकि जीवों ने मरम्मत में ऊर्जा खर्च करने की बजाय उसे वृद्धि में लगाया। अंग-पुनर्जनन में लगने वाली ऊर्जा और उससे मिलने वाले लाभ के आधार पर इस प्रक्रिया को फिर से समझने की ज़रूरत है।

युनिवर्सिटी ऑफ बाथ के डॉ. जोनाथन स्लैक द्वारा इएमबीओ रिपोर्ट में एक अध्ययन एनिमल रीजनरेशन: एंसेस्ट्रल केरेक्टर ऑर इवॉल्यूशनरी नॉवेल्टी? (जंतु पुनर्जनन: पूर्वजों की विरासत या वैकासिक नवीनता?) प्रकाशित किया गया था। इस अध्ययन में उन्होंने जेनेटिक विश्लेषण के आधार पर बताया था कि सभी जीवों (छिपकली से लेकर मानवों तक) में आनुवंशिक गुण दो मुख्य जीन, Wnt और BMP, के व्यवहार के कारण दिखते हैं। Wnt जीन कोशिकाओं की तेज़ी से वृद्धि और स्व-नवीनीकरण संकेत देने में मददगार होता है। BMP जीन सभी जीवों में शरीर और अंगों के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। ये जीन सभी जीवों की सभी कोशिकाओं में मौजूद होते हैं, इसलिए सैद्धांतिक रूप से ऐसा लगता है कि अंग-पुनर्जनन सभी जीवों में संभव है।

इसके बावजूद, कुत्ते या बिल्ली की पूंछ कटने के बाद दोबारा नहीं आती। वे अपनी कटी पूंछ के साथ ही रहना सीख जाते हैं। डॉ. बेली के अनुसार इन जीवों में, पूंछ को दोबारा विकसित में लगने वाली ऊर्जा के बदले पूंछ के बिना जीना ज़्यादा फायदेमंद या सार्थक लगता है। (जबकि छिपकली के मामले में उसकी पूंछ जीवित बचने और विकास में अहम अंग है।)

छिपकली पर लौटते हैं। छिपकली में दोबारा जो पूंछ विकसित होती है वह दरअसल मूल पूंछ जैसी नहीं होती बल्कि उसकी अधूरी नकल होती है। इस नकली पूंछ में कोई हड्डी नहीं होती बल्कि इसमें उपास्थि होती है और यह मूल पूंछ की तुलना में अधिक नरम और लचीली होती है। कलकत्ता के डॉ. शुक्ल घोष के शब्दों में यह वास्तविक अंग-पुनर्जनन नहीं बल्कि क्षतिपूर्ति वृद्धि है।

स्टेम सेल तकनीक

हालांकि एरिज़ोना के कुसुमी और उनके साथियों को छिपकली की पुन: विकसित पूंछ के ऊतकों में कोई प्रोजीनेटर कोशिका या स्टेम कोशिका नहीं मिली, लेकिन उभरती हुई स्टेम कोशिका तकनीक से इस क्षेत्र में काफी उत्साह बढ़ा है। इस तकनीक में स्टेम कोशिका की मदद से किसी अन्य अंग की कोशिका या ऊतक प्रयोगशाला में विकसित किए जा सकते हैं। इस तकनीक की मदद से मूत्राशय विकसित किया गया है और एक युवा को लगाया गया, जिसका मूत्राशय क्षतिग्रस्त हो गया था। वर्तमान में किसी भी कोशिका को, चार चुने हुए जीन की मदद से, स्टेम कोशिका बनने के लिए प्रेरित किया जा सकता है। इस तरह प्रेरित बहुसक्षम स्टेम कोशिकाएं, प्रयोगशाला में मनचाहे ऊतक और ऑर्गेनाइड (मूल अंग की तुलना में छोटे अंग) बनाने के लिए उपयोग किए जा रही हैं। हालांकि अभी यह इस तकनीक का आगाज़ है लेकिन भविष्य में इसकी मदद से अंग बनाए जा सकेंगे और इनका उपयोग अंग-पुनर्जनन के लिए किया जा सकेगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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दृष्टिबाधितों की सेवा में विज्ञान – नवनीत कुमार गुप्ता

दृष्टिबाधितों को जीवन में कई समस्याओं का सामना करना पड़ता है। दुनिया के लगभग चार करोड़ नेत्रहीनों में से डेढ़ करोड़ भारत में रहते हैं। दृष्टिहीन होने का तात्पर्य सामान्यतया देख सकने में पूरी तरह असमर्थता है। हालांकि दृष्टिहीनता में देख सकने की क्षमता के विभिन्न स्तर और कभी-कभी भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में शामिल होते हैं।

विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में ऐसे कार्य हो रहे हैं जो दृष्टिबाधितों के जीवन के लिए सहायक साबित हो रहे हैं। यहां दो ऐसी ही प्रौद्योगिकियों की चर्चा की जा रही है।

डॉटबुक

आधुनिक समय में दृष्टिबाधितों के समक्ष एक बड़ी चुनौती कंप्यूटर या लैपटॉप तथा उनके ज़रिए इंटरनेट जैसी सुविधाओं का इस्तेमाल करना है। दृष्टिबाधितों को ये सुविधाएं उपलब्ध कराने के लिए आई.आई.टी., दिल्ली ने कुछ अन्य संस्थाओं की मदद से भारत का पहला ब्रोल लैपटॉप (डॉटबुक) आरम्भ किया है। इस उपकरण में उभरे हुए डॉट के रूप में ब्रोल लिपि है।

दृष्टिबाधितों के सशक्तिकरण के लिए उनमें स्वयं सीखने की क्षमता विकसित करना आवश्यक है, जिसमें ब्रोल लिपि काफी मददगार है। डॉटबुक पढ़ने, लिखने, सुनने, ब्रााउज़ करने तथा विभिन्न स्रोतों से प्राप्त आंकड़ों का संपादन करने में सक्षम है। इसे लैपटॉप, कंप्यूटर, वेब, मोबाइल के तार, वाईफाई तथा ब्लूटूथ के साथ भी जोड़ा जा सकता है। डॉटबुक स्कूलों, कॉलेजों तथा विश्वविद्यालयों में लोगों को आवश्यक सामग्रियां उपलब्ध कराएगा। डॉटबुक  के द्वारा स्कूली छात्रों को डिजिटल रूप में नोट्स उपलब्ध होंगे। ब्रोल लिपि के ऑनलाइन रुाोेतों के द्वारा पुस्तकें भी डाउनलोड की जा सकती हैं।

टीम ने देश भर के 10 से अधिक स्थलों पर विभिन्न संगठनों के 200 उपयोगकर्ताओं के साथ इसका अध्ययन किया है। इसने ऐसे लोगों के लिए दुनिया के साथ आसान संचार का रास्ता खोल दिया है, जो ब्रोल लिपि में लिख-पढ़ सकते हैं।

दिव्य नयन

चंडीगढ़ स्थित सीएसआईआर के केंद्रीय वैज्ञानिक उपकरण संगठन द्वारा दिव्य नयन नामक एक उपकरण विकसित किया गया है जिसकी मदद से दृष्टिहीन व्यक्ति भी पढ़ सकेंगे। दिव्य नयन यानी हैंड-हेल्ड स्टेप स्कैनिंग डिवाइस (एचएचएसएस)। यह ‘बोलने वाली आंखों’ की तरह काम करता है।

एचएचएसएस एक हस्तधारित उपकरण है जिसमें कोई भी गतिशील पुर्जा नहीं है, जिससे यह काफी हल्का होता है और उपयोग के लिए आसान हो जाता है। यह किसी पुस्तक के आकार का एक फील्ड व्यू प्रदान करता है।

यह उपकरण स्टैंड अलोन, पोर्टेबल और पूरी तरह से तार रहित है और आईओटी सक्षम है। वर्तमान में यह हिंदी और अंग्रेज़ी में उपलब्ध है, लेकिन अन्य भारतीय और विदेशी भाषाओं के लिए भी अनुकूल है। इस उपकरण में 32 जीबी का इंटरनल स्टोरेज है, यह वायरलेस कम्युनिकेशन फीचर से सुसज्जित है। विभिन्न संस्थानों और गैर सरकारी संगठनों में दिव्य नयन का सफल परीक्षण आयोजित किया गया है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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खेती के बाद शामिल हुए नए अक्षर

बातचीत में हम ‘फ’ और ‘व’ अक्षरों का आसानी से उच्चारण कर लेते हैं। लेकिन एक समय था जब इन अक्षरों का उच्चारण करना इतना आसान न था, बल्कि ये अक्षर तो भाषा में शामिल भी नहीं थे। हाल ही में नेचर इंडिया में प्रकाशित एक अध्ययन कहता है कि मानवों में ‘फ’ और ‘व’ बोलने की क्षमता, खेती के फैलने और मानवों द्वारा पका हुआ भोजन खाने की संस्कृति की बदौलत विकसित हुई है।

1985 में अमेरिकी भाषा विज्ञानी चार्ल्स हॉकेट ने इस ओर ध्यान दिलाया था कि हज़ारों वर्ष पहले शिकारियों की भाषा में दंतोष्ठ्य ध्वनियां शामिल नहीं थीं। उनका अनुमान था कि इन अक्षरों की कमी के लिए आंशिक रूप से उनका आहार ज़िम्मेदार था। उनके अनुसार खुरदरा और रेशेदार भोजन चबाने से जबड़ों पर ज़ोर पड़ता है जिसके कारण दाढ़ें घिस जाती हैं। इसके फलस्वरूप निचला जबड़ा बड़ा हो जाता है। इस तरह धीरे-धीरे ऊपरी और निचला जबड़ा और दांत एक सीध में आ जाते हैं। दांतों की इस तरह की जमावट के कारण ऊपरी जबड़ा नीचे वाले होंठ को छू नहीं पाता। दंतोष्ठ्य ध्वनियों के उच्चारण के लिए ऐसा होना ज़रूरी है।

डैमियल ब्लैसी और स्टीवन मोरान और उनके साथियों ने अपने अध्ययन में चार्ल्स हॉकेट के इस विचार को जांचा। अध्ययन के अनुसार मानव द्वारा मुलायम (पका हुआ) भोजन खाने से जबड़ों पर कम दबाव पड़ा। कम दबाव पड़ने के कारण उनका ऊपरी जबड़ा निचले जबड़े की सीध में न होकर निचले जबड़े को थोड़ा ढंकने लगा। जिसके कारण इन ध्वनियों को बोलने में आसानी होने लगी और भाषा में नए शब्द जुड़े।

अध्ययनकर्ताओं ने हॉकेट के विचार को जांचने के लिए कंप्यूटर मॉडलिंग की मदद ली। इसकी मदद से उन्होंने यह दिखाया कि ऊपरी और निचले दांतों के ठीक एक के ऊपर एक होने की तुलना में जब ऊपरी और निचले दांत ओवरलैप (ऊपरी जबड़ा निचले जबड़े को ढंक लेता है) होते हैं तो दंतोष्ठ्य (फ और व) ध्वनि के उच्चारण में 29 प्रतिशत कम ज़ोर लगता है। इसके बाद उन्होंने दुनिया की कई भाषाओं की जांच की। उन्होंने पाया कि कृषि आधारित सभ्यताओं की भाषा की तुलना में शिकारियों के भाषा कोश में सिर्फ एक चौथाई दंतोष्ठ्य अक्षर थे। इसके बाद उन्होंने भाषाओं के बीच के सम्बंध को देखा और पाया कि दंतोष्ठ्य ध्वनियां तेज़ी से फैलती हैं। इसी कारण ये अक्षर अधिकांश भाषाओं में मिल जाते हैं।

इस अध्ययन के नतीजे इस बात की ओर भी इशारा करते हैं कि जीवन शैली में बदलाव हमें कई तरह से प्रभावित कर सकते हैं, ये हमारी भाषा को भी प्रभावित कर सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)

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बैक्टीरिया, जेनेटिक्स और मूल विज्ञान की समझ – अश्विन साई नारायण शेषशायी

दार्शनिक बातों से हटकर जीवन के दो सत्य हैं। सबसे पहला तो यह कि हम सूक्ष्मजीवों की दुनिया में रहते हैं। सूक्ष्मजीवों से हमारा मतलब उन जीवों से है जो आम तौर पर आंखों से दिखाई नहीं देते हैं। इनमें एक-कोशिकीय बैक्टीरिया आते हैं, जो खमीर जैसे अन्य एक कोशिकीय जीवों से भिन्न हैं और उन कोशिकाओं से भी भिन्न हैं जो खरबों की संख्या में मिलकर मनुष्य व अन्य जीवों का निर्माण करती हैं। सरल माने जाने वाले बैक्टीरिया, अब तक इस ग्रह पर ज्ञात मुक्त जीवन के सबसे प्रमुख रूप हैं। एक अनुमान के अनुसार पृथ्वी पर इनकी संख्या एक के बाद तीस शून्य लगाने पर मिलेगी; मुझे तो यह भी नहीं मालूम कि इतनी बड़ी संख्या को क्या कहा जाना चाहिए।

मानव कल्पना में, कई बैक्टीरिया शरारती होते हैं और सबसे बदतरीन मामलों में इनसे बचकर रहना चाहिए। बैक्टीरिया कई संक्रामक रोग उत्पन्न करते हैं जो काफी लोगों को बीमार करते हैं और मृत्यु का भी कारण बनते हैं। दूसरी ओर, यह भी सच है कि इन जीवाणुओं के बिना हमारा अस्तित्व वैसा नहीं होता जैसा आज है। यह तो अब एक जानी-मानी बात है कि मानव शरीर में अपनी कोशिकाओं की तुलना में बैक्टीरिया की संख्या दस-गुना अधिक हैं, और जिन प्रायोगिक जीवों में ये बैक्टीरिया नहीं होते उन्हें सामान्य जीवन जीने में गंभीर परेशानियों का सामना करना पड़ता है।

उदाहरण के लिए, कोई एंटीबायोटिक्स लेने के बाद हम जिस अतिसार (दस्त) का शिकार हो जाते हैं वह आंत में बसने वाले इन उपयोगी बैक्टीरिया के खत्म हो जाने की वजह से होता है। इसीलिए एंटीबायोटिक की खुराक के साथ इन दोस्ताना बैक्टीरिया को बहाल करने के लिए प्रोबायोटिक औषधि दी जाती है जिसमें अनुकूल बैक्टीरिया होते हैं।

यह सच है कि अगर मैं बेतरतीब ढंग से 10 बैक्टीरिया ले लूं, तो संभवत: इनमें से कोई भी बैक्टीरिया, स्वस्थ मानव को बीमार करने का कारक नहीं होगा। जीवन के संकीर्ण मानव-केंद्रित दृष्टिकोण से हटकर देखें, तो बैक्टीरिया इस ग्रह पर कई जैव-रासायनिक अभिक्रियाओं को भी उत्प्रेरित करते हैं जिनकी विश्व निर्माण में प्रमुख भूमिका है। यहां हम जीवाणुओं के जीवन के तरीकों पर चर्चा करेंगे और देखेंगे कि वे हमारे परितंत्र की आधारशिला हैं, और उनके साथ अपने शत्रुवत व्यवहार के परिणामस्वरूप हमें कई संकटों का सामना भी करना पड़ता है।

जीवन का दूसरा सच जिसमें हमें काफी दिलचस्पी है उसका सम्बंध आनुवंशिकी से है। जैव विकास के सिद्धांत के अनुसार जीवन का सार फिटनेस है। फिटनेस एक तकनीकी शब्द है। इस फिटनेस को जिम में बिताए गए समय से नहीं बल्कि एक व्यक्ति की जीवनक्षम संतान पैदा करने की क्षमता से निर्धारित किया जाता है। समस्त जीव यह करते हैं लेकिन संतान पैदा करने की यह दर अलग-अलग प्रजातियों में अलग-अलग होती है। उदाहरण के लिए, ई. कोली नामक बैक्टीरिया की 100 कोशिकाएं सिर्फ 20 मिनट के समय में दुगनी हो सकती हैं। इस समय को एक पीढ़ी की अवधि कहा जा सकता है। वहीं दूसरी ओर, मनुष्य का एक जोड़ा अपने पूरे जीवन काल, जो एक सदी के बड़े भाग के बराबर है, में एक या दो संतान पैदा कर सकता है। इतनी भिन्नता के बाद भी हम सभी एक साथ रहते हैं। इस तरह के विविध प्रकार के जीवों के सह अस्तित्व को समझना अपने आप में शोध का एक रोमांचक और चुनौतीपूर्ण क्षेत्र है (लेकिन यहां इसे हम विस्तार में नहीं देखेंगे)। यह बात ध्यान देने वाली है कि एक-कोशिकीय जीवाणु और एक मनुष्य के बीच प्रजनन दर की यह तुलना पूरी तरह से उचित नहीं है, लेकिन ऐसा क्यों नहीं है इसकी बात किसी और दिन करेंगे। अभी के लिए यह कहना पर्याप्त है कि प्रजनन जीवन की निरंतरता के लिए महत्वपूर्ण है, अब चाहे वो प्रजाति हर 20 मिनट में द्विगुणित हो या फिर 20 साल में।

यह तो हम सभी जानते हैं कि हमारी आनुवंशिक सामग्री यानी हमारा जीनोम, हमारे अस्तित्व को निर्धारित करने का महत्वपूर्ण कारक है। न केवल यह हमारी कई विशेषताओं को निर्धारित करता है, बल्कि यह भी सुनिश्चित करता है कि इसकी प्रतिलिपि पूरी ईमानदारी से बने और एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक प्रेषित हो। हालांकि जीवन की निरंतरता सुनिश्चित करने के लिए यह आवश्यक है किंतु आनुवंशिक सामग्री की सही प्रतिलिपि बनाने में निष्ठा बहुत ज़्यादा भी नहीं होनी चाहिए। यदि ऐसा होता तो हम सब, बैक्टीरिया से लेकर मनुष्य तक, एक समान होते। यह तो हम जानते हैं कि एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक उत्परिवर्तन का एक निश्चित स्तर जीवन के लिए आवश्यक है। और अगर हमको विकसित होना है – और हम विकसित हो ही रहे हैं – तो कुछ उत्परिवर्तनों को स्वीकार करना ही होगा। बैक्टीरिया इस कला में माहिर हैं। वे सटीकता और लचीलेपन बीच संतुलन बनाकर रखते हैं जिससे वह विविधता बनी रहती है जिसने उन्हें लंबे समय तक धरती पर जीवित रखा है। पर्याप्त विविधता उत्पन्न करके वे धरती के हर कोने में जीवित रहने से लेकर एंटीबायोटिक्स को पराजित करने का रास्ता भी खोज पाए हैं।

जीवाणुओं के अध्ययन ने जीवन की निरंतरता को समझने के तरीके समझने में मदद की है; बैक्टीरिया की आनुवंशिकी को समझना चिकित्सा की दृष्टि से महत्वपूर्ण है: कैसे थोड़े-से बैक्टीरिया बीमारी के कारक बन जाते हैं और किस तरह वे हमारे द्वारा बनाए गए बचाव के तरीकों (एंटीबायोटिक समेत) से बच निकलते हैं।

जीवाणु जीव विज्ञान के बारे में हमारी वर्तमान समझ का अधिकांश विकास तत्काल उपयोगी अनुसंधान के कारण नहीं, बल्कि दशकों से चली आ रही मूल सवालों के जवाब खोजने की कोशिशों  से संभव हुआ है। इन सवालों के जवाब ढूंढने के लिए दुनिया भर के कई शोधकर्ताओं ने प्रयास किए हैं, इन प्रयासों के आधार पर एक के बाद एक शोध पत्र या थीसिस ने हमारे ज्ञान को बढ़ाया है। ‘नवाचार’ जैसा प्रचलित शब्द अचानक से प्रकट नहीं होता है, यह काफी हद तक मूलभूत विज्ञान द्वारा निर्धारित मजबूत नींव पर आधारित होता है। ऐसे भी उदाहरण हैं जहां समाज के लिए प्रासंगिक अध्ययनों ने ऐसे अमूर्त प्रश्नों को प्रभावित किया है जो जिज्ञासा से प्रेरित थे, जिज्ञासा जो एक अनिवार्य मानवीय गुण है। जहां लक्ष्य आधारित प्रायोगिक अनुसंधान का महत्व है, वहीं विज्ञान के मूलभूत पहलुओं की समझ के बिना इनका कोई अस्तित्व नहीं।

ये ऐसे मुद्दे नहीं हैं जिनसे रोज़मर्रा के जीवन में हमारा सामना होता है। लेकिन मूलभूत विज्ञान के लिए धन उपलब्ध कराने को लेकर सार्वजनिक और राजनीतिक अविश्वास के सामने, समाज में मूल विज्ञान की भूमिका के बारे में सोचने के लिए यह सबसे उचित समय है। (स्रोत फीचर्स)

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भारत में नियंत्रित मानव संक्रमण मॉडल की आवश्यकता – मनीष मनीष और स्मृति मिश्रा

ज विज्ञान इस स्तर तक पहुंच चुका है कि मलेरिया और टाइफाइड जैसी संक्रामक बीमारियों का इलाज मानक दवाइयों के नियमानुसार सेवन से किया जा सकता है। हालांकि भारत में अतिसंवेदनशील आबादी तक अच्छी स्वास्थ्य सेवाओं के अभाव में अभी भी मलेरिया के कारण मौतें हो रही हैं। एक अप्रभावी उपचार क्रम एंटीबायोटिक-रोधी किस्मों को जन्म दे सकता है। यह आगे चलकर देश की जटिल स्वास्थ्य सम्बंधी चुनौतियों को और बढ़ा देगा।

भारत में रोग निरीक्षण सहित वर्तमान स्वास्थ्य सेवा प्रणाली अभी भी मध्य युग में हैं। भारत ने आर्थिक रूप से और अंतरिक्ष अन्वेषण जैसे कुछ अनुसंधान क्षेत्रों में बेहद उन्नत की है। किंतु विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की मलेरिया रिपोर्ट 2017 के अनुसार, भारतीय मलेरिया रोग निरीक्षण प्रणाली केवल 8 प्रतिशत मामलों का पता लगा पाती है, जबकि नाइजीरिया की प्रणाली 16 प्रतिशत मामलों का पता लगा लेती है। इसलिए भारत सरकार बीमारी के वास्तविक बोझ का अनुमान लगाने और उसके आधार पर संसाधन आवंटन करने में असमर्थ है। जबकि किसी भी अन्य राष्ट्र की तरह, भारत को भी सतत विकास के लिए एक स्वस्थ आबादी की आवश्यकता है।

भारत टीकों का सबसे बड़ा निर्माता है। भारत सरकार का राष्ट्रीय टीकाकरण कार्यक्रम, हाल ही में शुरू किए गए इंद्रधनुष कार्यक्रम सहित, एक मज़बूत प्रणाली है जिसने स्वच्छता एवं स्वास्थ्य सेवा के कमतर स्तर, उच्च तापमान, बड़ी विविधतापूर्ण आबादी और भौगोलिक परिस्थितियों के बावजूद सफलतापूर्वक पोलियो उन्मूलन का लक्ष्य हासिल किया है। इसके अलावा, भारत सरकार द्वारा टीकाकरण क्षेत्र को मज़बूत करने के लिए विभिन्न शोध कार्यक्रम शुरू किए जा रहे हैं, जैसे इम्यूनाइज़ेशन डैटा: इनोवेटिंग फॉर एक्शन (आईडीआईए)।

भारत में मूलभूत अनुसंधान उस स्थिति में पहुंच चुका है, जहां वह विकास की चुनौती के बावजूद सामाजिक आवश्यकताओं के अनुसार समाधान विकसित कर सकता है। अकादमिक शोध में कम से कम तीन संभावित मलेरिया वैक्सीन तैयार हुए हैं, जबकि एक भारतीय कंपनी (भारत बायोटेक) द्वारा हाल ही में डब्ल्यूएचओ प्रीक्वालिफाइड टाइफाइड वैक्सीन विकसित किया गया है। अलबत्ता, आश्चर्य की बात तो यह है कि इस डब्ल्यूएचओ प्रीक्वालिफाइड टाइफाइड वैक्सीन की रोकथाम-क्षमता का डैटा ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में नियंत्रित मानव संक्रमण मॉडल (CHIM) का उपयोग करके हासिल किया गया है। इसका कारण यह हो सकता है कि भारत में नैदानिक परीक्षण व्यवस्था कमज़ोर और जटिल है।

भारत की पारंपरिक नैदानिक परीक्षण व्यवस्था बहुत जटिल है। 2005 के बाद से चिकित्सा शोध पत्रिका संपादकों की अंतर्राष्ट्रीय समिति मांग करती है कि किसी भी क्लीनिकल परीक्षण का पूर्व-पंजीकरण (यानी प्रथम व्यक्ति को परीक्षण में शामिल करने से पहले पंजीकरण) किया जाए ताकि प्रकाशन में पक्षपात को रोका जा सके। हालांकि भारत की क्लीनिकल परीक्षण रजिस्ट्री अभी भी परीक्षण के बाद किए गए पंजीकरण को स्वीकार करती है। ह्रूमन पैपिलोमा वायरस (एचपीवी) वैक्सीन के क्लीनिकल परीक्षण पर काफी हल्ला-गुल्ला हुआ था जिसके चलते संसदीय स्थायी समिति और एक विशेषज्ञ समिति द्वारा जांच हुई, मीडिया में काफी चर्चा हुई और सबसे महत्वपूर्ण बात यह हुई कि सार्वजनिक विश्वास में गिरावट आई। भारत में एचपीवी परीक्षणों की जांच करने वाली विशेषज्ञ समिति ने पाया कि गंभीर घटनाओं का पता लगाने में हमारी क्लीनिकल अनुसंधान प्रणाली विफल है।

टीकों के उपयोग से रोग का प्रकोप कम हो जाता है जिसके चलते दवा का उपयोग कम करना पड़ता है। इस प्रकार टीकाकरण एंटीबायोटिक प्रतिरोध की समस्या को भी कम कर सकता है। भारत में बेहतर टीकाकरण कार्यक्रम, वैक्सीन उत्पादन सुविधाओं और बुनियादी वैक्सीन अनुसंधान को देखते हुए, सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए भारत में वैक्सीन विकास को किस तरह तेज़ किया जा सकता है? जब हमारे पास टीके की रोकथाम-क्षमता पर पर्याप्त डैटा न हो तो क्या हम एक बड़ी आबादी को एक संभावित टीका देने का खतरा मोल ले सकते हैं? या क्या यह बेहतर होगा कि पहले अत्यधिक नियंत्रित परिस्थिति में टीके की रोकथाम-क्षमता का मूल्यांकन किया जाए और फिर बड़ी जनसंख्या पर परीक्षण शुरू किए जाएं?

सीएचआईएम (मलेरिया के लिए, नियंत्रित मानव मलेरिया संक्रमण, सीएचएमआई) एक संभावित वैक्सीन की रोकथाम-क्षमता का ठीक-ठाक मूल्यांकन करने के लिए एक मंच प्रदान करता है, जिसमें बड़े परीक्षण की ज़रूरत नहीं है। सीएचएमआई में ‘नियंत्रित’ शब्द अत्यधिक नियंत्रित परिस्थिति का द्योतक है। जैसे भलीभांति परिभाषित परजीवी स्ट्रेन, संक्रमण उन्मूलन के लिए प्रभावी दवा और कड़ी निगरानी के लिए अत्यधिक कुशल निदान प्रणाली। ‘संक्रमण’ शब्द से आशय है कि परीक्षण के दौरान संक्रमण शुरू किया जाएगा, बीमारी नहीं। शब्द ‘मानव’ का मतलब है कि प्रयोग इंसानों पर होंगे जैसा कि किसी भी क्लीनिकल टीका अनुसंधान में रोकथाम-क्षमता के आकलन में किया जाता है।

अमेरिका, ब्रिाटेन, जर्मनी, तंजानिया और केन्या जैसे कई देशों में सीएचआईएम अध्ययन करने की क्षमता विकसित की गई है। संयुक्त राज्य अमेरिका में पिछले 25 वर्षों से सीएचएमआई परीक्षण में 1000 से अधिक वालंटियर्स ने भाग लिया है और कोई प्रतिकूल घटना सामने नहीं आई है। पहले संक्रामक बीमारी के लिए हम ज़्यादातर दवाइयां/टीके बाहर से मंगाते थे, लेकिन स्थिति तेज़ी से बदल रही है। उदाहरण के लिए भारत में रोटावायरस टीके का विकास हुआ है। 

यह सही है कि स्वदेशी समाधान विकसित करने की बजाय आयात करना हमेशा आसान होता है लेकिन यदि पोलियो टीका भारत में विकसित किया गया होता, तो हम एक पीढ़ी पहले पोलियो से मुक्त हो सकते थे। भारत में सीएचआईएम अध्ययन विकसित करने के लिए कड़ी मेहनत की आवश्यकता होगी। वर्तमान स्थिति में, यह मलेरिया और टाइफाइड जैसी बीमारियों के लिए किया जा सकता है लेकिन शायद ज़ीका, डेंगू और टीबी के लिए नहीं। अलबत्ता, यदि उच्चतम मानकों को पालन नहीं किया जा सकता है तो बेहतर होगा कि सीएचआईएम अध्ययन न किए जाएं।

सीएचआईएम में सबसे बड़ी बाधा लोगों की धारणा की है। इस धारणा को केवल तभी संबोधित किया जा सकता है जब हम सीएचआईएम अध्ययन के लिए वैज्ञानिक, नैतिक और नियामक ढांचा विकसित कर सकें जिसमें बुनियादी अनुसंधान, क्लीनिकल अनुसंधान, नैतिकता, विनियमन, कानून और सामाजिक विज्ञान में सर्वश्रेष्ठ विशेषज्ञता का समावेश हो। यह भी सुनिश्चित करना होगा कि यह ढांचा सीएचआईएम के लिए उच्चतम मानकों को परिभाषित करे। मीडिया को उनकी मूल्यवान आलोचना और कार्यवाही के व्यापक पारदर्शी प्रसार की अनुमति दी जानी चाहिए।

इसकी शुरुआत किसी सरकारी संगठन द्वारा की जानी चाहिए ताकि जनता में यह संदेह पनपने से रोका जा सके कि यह दवा कंपनियों द्वारा वाणिज्यिक लाभ के लिए किया जा रहा है। एक या दो उत्कृष्ट अकादमिक संस्थानों को चुना जाना चाहिए और सीएचआईएम अध्ययन करने की क्षमता विकसित की जानी चाहिए। चूंकि संक्रामक बीमारियां निरंतर परिवर्तनशील हैं, भारत में सीएचआईएम अध्ययन पर चर्चा के लिए गहन प्रयासों की तत्काल आवश्यकता है। (स्रोत फीचर्स)

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एक लाख वर्षों से बर्फ के नीचे छिपे महासागर की खोज

जुलाई 2017 में, अंटार्कटिक प्रायद्वीप के पूर्वी भाग में लार्सन सी आइस शेल्फ से एक विशाल हिमखंड टूट गया था। इसके टूटने के साथ ही वर्षों से बर्फ के नीचे ओझल समुद्र की एक बड़ी पट्टी सामने आ गई। इस समुद्र में जैव विकास और समुद्री जीवों की गतिशीलता तथा जलवायु परिवर्तन के प्रति उनकी प्रतिक्रिया के सुराग मिल सकते हैं।

जर्मनी के अल्फ्रेड वेगेनर इंस्टीट्यूट फॉर पोलर एंड मरीन रिसर्च के वैज्ञानिक बोरिस डोर्सेल के नेतृत्व में 45 वैज्ञानिकों की एक अंतर्राष्ट्रीय टीम इस समुद्र की खोजबीन के लिए रवाना होने की योजना बना रही है। किंतु इस दूरस्थ क्षेत्र तक पहुंचना और इतने कठिन मौसम में शोध करना चुनौतीपूर्ण हो सकता है, अलबत्ता यह काफी रोमांचकारी भी होगा।

लार्सन सी से अलग हुआ बर्फ का यह टुकड़ा 5,800 वर्ग किलोमीटर का है और 200 किलोमीटर उत्तर की ओर बह चुका है। वैज्ञानिक यह जानने को उत्सुक हैं कि कौन-सी प्रजातियां बर्फ के नीचे पनप सकती हैं, और उन्होंने अचानक आए इस बदलाव का सामना कैसे किया होगा। छानबीन के लिए पिछले वर्ष कैंब्रिज विश्वविद्यालय की जीव विज्ञानी कैटरीन लिनसे की टीम का वहां पहुंचने का प्रयास समुद्र में जमी बर्फ के कारण सफल नहीं हो पाया था। परिस्थिति अनुकूल होने पर नई टीम वहां समुद्र और समुद्र तल के नमूने तो ले पाई, लेकिन ज़्यादा आगे नहीं जा पाई।

अल्फ्रेड वेगेनर इंस्टीट्यूट द्वारा संचालित पोलरस्टर्न जर्मनी का प्रमुख ध्रुवीय खोजी पोत है और दुनिया में सबसे अच्छा सुसज्जित अनुसंधान आइसब्रोकर है। इसमें मौजूद दो हेलीकॉप्टर सैटेलाइट इमेजरी और उड़ानों का उपयोग करके बर्फ की चादर में जहाज़ का मार्गदर्शन करेंगे।

यदि बर्फ और मौसम की स्थिति सही रहती है तो टीम कुछ ही दिनों में वहां पहुंच सकती है। वहां दक्षिणी गर्मियों और विभिन्न आधुनिक उपकरणों की मदद से वैज्ञानिकों को काफी समय मिल जाएगा जिससे वे समुद्र के जीवों और रसायन के नमूने प्राप्त कर सकेंगे। टीम का अनुमान है कि वेडेल सागर जैसे गहरे समुद्र का पारिस्थितिकी तंत्र बर्फ के नीचे अंधेरे में विकसित हुआ है।

यदि नई प्रजातियां इस क्षेत्र में बसना शुरू करती हैं, तो कुछ वर्षों के भीतर पारिस्थितिकी तंत्र में काफी बदलाव आ सकता है। गैस्ट्रोपोड्स और बाईवाल्व्स जैसे जीवों के ऊतक के समस्थानिक विश्लेषण से आइसबर्ग के टूटने के बाद से खाद्य  शृंखला में बदलाव का पता लगाया जा सकता है, क्योंकि जानवरों के ऊतकों में रसायनों की जांच से उनके आहार के सुराग मिल जाते हैं।

मानवीय गतिविधियों से अप्रभावित इस क्षेत्र से लिए जाने वाले नमूने शोधकर्ताओं के लिए एक अमूल्य संसाधन साबित होंगे। इस डैटा से वैज्ञानिकों को समुद्री समुदायों के विकास से जुड़े प्रश्नों को सुलझाने में तो मदद मिलेगी ही, यह भी अनुमान लगाया जा सकता है कि इस समुद्र के नीचे पाई जाने वाली ये प्रजातियां कितनी जल्दी बर्फीले क्षेत्र में रहने के सक्षम हो जाएंगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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बीमारियों को सूंघने के लिए इलेक्ट्रॉनिक नाक

ह तो जानी-मानी बात है कि कुत्तों की सूंघने की क्षमता ज़बरदस्त होती है। मगर जिस इलेक्ट्रॉनिक नाक की बात हो रही है वह कुत्तों को सूंघने का काम करती है। यह इलेक्ट्रॉनिक नाक खास तौर से लेश्मानिएसिस नामक रोग से ग्रस्त कुत्तों को पहचानने के लिए विकसित की गई है। इस रोग को भारत में कालाज़ार या दमदम बुखार के नाम से भी जाना जाता है।

लेश्नानिएसिस एक रोग है जो कुत्तों और इंसानों में एक परजीवी लेश्मानिया की वजह से फैलता है और इस परजीवी की वाहक एक मक्खी (सैंड फ्लाई) है। मनुष्यों में इस रोग के लक्षणों में वज़न घटना, अंगों की सूजन, बुखार वगैरह होते हैं। कुत्तों में दस्त, वज़न घटना तथा त्वचा की तकलीफें दिखाई देती हैं। सैंड फ्लाई इस रोग के परजीवियों को कुत्तों से इंसानों में फैलाने का काम करती है। यह रोग ब्राज़ील में ज़्यादा पाया जाता है और इसका प्रकोप लगातार बढ़ रहा है।

इलेक्ट्रॉनिक नाक दरअसल वाष्पशील रसायनों का विश्लेषण करने का उपकरण है। इसमें नमूने के वाष्पशील रसायनों के द्वारा उत्पन्न वर्णक्रम के आधार पर उनकी पहचान की जाती है। फिलहाल स्वास्थ्य विभाग के पास लेश्मानिएसिस की जांच के लिए जो तरीका है उसमें काफी समय लगता है। इलेक्ट्रॉनिक नाक इसमें मददगार हो सकती है।

पिछले दिनों शोधकर्ताओं ने 16 लेश्मानिया पीड़ित कुत्तों और 185 अन्य कुत्तों के बालों के नमूनों पर प्रयोग किया। इन बालों को एक पानी भरी थैली में रखकर गर्म किया गया ताकि इनमें उपस्थित वाष्पशील रसायन वाष्प बन जाएं। इसके बाद प्रत्येक नमूने का विश्लेषण इलेक्ट्रॉनिक नाक द्वारा किया गया। ई-नाक ने लेश्मानिएसिस पीड़ित कुत्तों की पहचान 95 प्रतिशत सही की। अब इसे और सटीक बनाने के प्रयास चल रहे हैं।

वैज्ञानिकों का मानना है कि जल्दी ही इलेक्ट्रॉनिक नाक रोग निदान का एक उम्दा उपकरण साबित होगा। उम्मीद तो यह है कि इसका उपयोग मलेरिया, मधुमेह जैसे अन्य रोगों की पहचान में भी किया जा सकेगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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नैनोपार्टिकल से चूहे रात में देखने लगे

वैज्ञानिकों ने माउस (एक किस्म का चूहा) की आंखों में कुछ परिवर्तन करके उन्हें रात में देखने की क्षमता प्रदान करने में सफलता प्राप्त की है। किया यह गया है कि इन चूहों की आंख में कुछ अतिसूक्ष्म कण (नैनोकण) जोड़े गए हैं जो अवरक्त प्रकाश को दृश्य प्रकाश में बदल देते हैं।

आंखों में प्रकाश को ग्रहण करके उसे विद्युतीय संकेतों में बदलने का काम रेटिना में उपस्थित प्रकाश ग्राही कोशिकाओं द्वारा किया जाता है। जब ये संकेत मस्तिष्क में पहुंचते हैं तो वहां इन्हें दृश्य के रूप में परिवर्तित कर दिया जाता है। रेटिना पर विभिन्न किस्म के प्रकाश ग्राही होते हैं जो अलग-अलग रंग के प्रकाश के प्रति संवेदनशील होते हैं। मनुष्यों में तीन प्रकार के प्रकाश संवेदी रंजक पाए जाते हैं जो हमें रंगीन दृष्टि प्रदान करते हैं और एक रंजक होता है जो काले और सफेद के बीच भेद करने में मदद करता है। यह वाला रंजक खास तौर से कम प्रकाश में सक्रिय होता है। इसके विपरीत चूहों में तथा कुछ वानरों में मात्र दो रंगीन रंजक होते हैं और एक रंजक मद्धिम प्रकाश के लिए होता है।

पहले वैज्ञानिकों ने चूहों में तीसरे रंजक का जीन जोड़कर उन्हें मनुष्यों के समान दृष्टि प्रदान की थी। मगर यह पहली बार है कि किसी जंतु को अवरक्त यानी इंफ्रारेड प्रकाश को देखने में सक्षम बनाया गया है। आम तौर पर प्रकाश का अवरक्त हिस्सा गर्मी पैदा करने के लिए ज़िम्मेदार होता है।

हेफाई स्थित चीनी विज्ञान व टेक्नॉलॉजी विश्वविद्यालय के ज़्यू तिएन ने मैसाचुसेट्स मेडिकल स्कूल के गांग हान के साथ मिलकर उपरोक्त अनुसंधान किया है। हान ने कुछ समय पहले ऐसे नैनोकण विकसित किए थे जो अवरक्त प्रकाश को नीले प्रकाश में तबदील कर सकते हैं। इस सफलता से प्रेरित होकर हान और ज़्यू ने सोचा कि यदि ऐसे नैनोकण चूहों के प्रकाश ग्राहियों में जोड़ दिए जाएं तो वे रात में भी देख सकेंगे।

अगला कदम यह था कि नैनोकणों में इस तरह के परिवर्तन किए गए कि वे अवरक्त प्रकाश को नीले की बजाय हरे प्रकाश में तबदील करें। ऐसा इसलिए किया गया क्योंकि जंतुओं के हरे प्रकाश ग्राही नीले की अपेक्षा ज़्यादा संवेदनशील होते हैं। इसके बाद इन नैनोकणों पर एक ऐसे प्रोटीन का आवरण चढ़ाया गया जो प्रकाश ग्राही कोशिकाओं की सतह पर उपस्थित एक शर्करा अणु से जुड़ जाता है। जब ये नैनोकण चूहों के रेटिना के पिछले भाग में इंजेक्ट किए गए तो ये प्रकाश ग्राही कोशिकाओं से जुड़ गए और 10 हफ्तों तक जुड़े रहे। और परिणाम आशा के अनुरूप रहे। चूहों की आंखें अवरक्त प्रकाश के प्रति वैसी ही प्रतिक्रिया देने लगी जैसी वह दृश्य प्रकाश के प्रति देती है। इसके अलावा रेटिना और मस्तिष्क के दृष्टि सम्बंधी हिस्से में विद्युतीय सक्रियता देखी गई। इसके बाद इन चूहों को सामान्य दृष्टि सम्बंधी परीक्षणों से गुज़ारा गया और यह स्पष्ट हो गया कि वे अंधेरे में देख पा रहे थे।

सेल में प्रकाशित इस पर्चे के निष्कर्षों की चर्चा करते हुए ज़्यू ने कहा है कि उन्हें यकीन है कि यह मनुष्यों में कारगर होगा और यदि होता है तो सैनिकों को रात में बेहतर देखने की क्षमता प्रदान की जा सकेगी। इसके अलावा यह आंखों की कुछ खास दिक्कतों के संदर्भ में उपयोगी साबित होगा। (स्रोत फीचर्स)

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जीवन की बारहखड़ी में चार नए अक्षर

कुछ वर्ष पहले यह खबर आई थी कि वैज्ञानिकों ने आनुवंशिक पदार्थ डीएनए में 2 नए क्षार जोड़ने में सफलता प्राप्त की है। अब फ्लोरिडा स्थित फाउंडेशन फॉर एप्लाइड मॉलीक्यूलर इवॉल्यूशन के स्टीवन बेनर की टीम ने साइन्स में रिपोर्ट किया है कि उन्होंने आनुवंशिक अणु में चार नए क्षार जोड़ने में सफलता प्राप्त की है और यह नया डीएनए अणु कुदरती अणु के समान कई कार्य करने में सक्षम है और काफी स्थिर है।

दरअसल, किसी भी जीव की शारीरिक क्रियाएं प्रोटीन्स के दम पर चलती हैं। इन प्रोटीन्स के निर्माण का सूत्र डीएनए में होता है। डीएनए की रचना मूलत: चार क्षारों एडीनीन, ग्वानीन, सायटोसीन और थायमीन से बनी होती है। इन क्षारों की विशेषता है कि डीएनए में सदा एडीनीन के सामने थायमीन तथा सायटोसीन के सामने ग्वानीन होता है। इस प्रकार से यदि डीएनए की एक शृंखला मौजूद हो तो उसके अनुरूप दूसरी शृंखला बनाई जा सकती है। यही आनुवंशिक गुणों के हस्तांतरण की बुनियाद है। तीन-तीन क्षारों की तिकड़ियां एक-एक अमीनो अम्ल की द्योतक होती है। इस प्रकार से डीएनए अमीनो अम्लों की एक विशिष्ट शृंखला का निर्देश दे सकता है और अमीनो अम्लों के जुड़ने से प्रोटीन बनते हैं। कुदरत का काम चार क्षार-अक्षरों से चल जाता है।

बेनर की टीम ने सामान्य क्षारों की संरचना में फेरबदल करके चार नए क्षार बनाए और इन्हें डीएनए के अणु में जोड़ दिया। इस आठ अक्षर वाले डीएनए को उन्होंने हचिमोजी नाम दिया है – जापानी भाषा में हचि मतलब आठ और मोजी मतलब अक्षर। प्रत्येक कृत्रिम क्षार किसी एक कुदरती क्षार के समान रचना वाला है। सबसे पहले उन्होंने यह दर्शाया कि नए क्षार कुदरती क्षारों के साथ जोड़ियां बना लेते हैं। डीएनए के हज़ारों अणु बनाकर वे यह दर्शा पाए कि प्रत्येक क्षार एक ही जोड़ीदार से जुड़ता है। प्रयोगों के दौरान उन्होंने यह भी देखा कि इस संश्लेषित डीएनए की रचना काफी स्थिर है।

इसके बाद बेनर की टीम ने यह भी करके दिखाया कि उनके संश्लेषित डीएनए से एक अन्य अणु आरएनए भी बनाया जा सकता है। दरअसल, डीएनए में उपस्थित सूचना का उपयोग आरएनए के माध्यम से होता है। यानी उनके संश्लेषित डीएनए में न सिर्फ सूचना (प्रोटीन निर्माण के निर्देश) संग्रहित रहती है बल्कि उसे प्रोटीन के रूप में अनूदित भी किया जा सकता है।

इस शोध के द्वारा बेनर ने एक तो यह दर्शा दिया है कि जीवन का आधार डीएनए अन्य क्षारों से भी काम चला सकता है। इसके अलावा, यह भी दर्शाया जा चुका है ऐसा संश्लेषित डीएनए कैंसर कोशिकाओं से निपटने में भूमिका निभा सकता है। और इस नए डीएनए की मदद से सर्वथा नए प्रोटीन भी बनाए जा सकेंगे। (स्रोत फीचर्स)

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कैंसर के उपचार के दावे पर शंकाएं

स्राइल की एक कंपनी एक्सलरेटेड इवॉल्यूशन बायोटेक्नॉलॉजीस लिमिटेड (एईबीआई) के वैज्ञानिकों ने हाल ही में दावा किया है कि वे एक साल के अंदर हर किस्म के कैंसर का एक इलाज पेश करेंगे। खास बात यह है कि उन्होंने चूहों पर किए गए जिन प्रयोगों के आधार पर यह दावा किया है, उनके परिणाम कहीं प्रकाशित नहीं किए गए हैं। उनका यह दावा अखबार के एक लेख में घोषित किया गया है। वैज्ञानिक समुदाय के बीच इस दावे के लेकर शंका का माहौल बन गया है।

एईबीआई के वैज्ञानिकों ने कहा है कि उन्होंने एक नए तरीके का इस्तेमाल किया है जो रामबाण साबित होगा। इस नए तरीके को बहुलक्षित विष (मल्टी-टारगेटेड टॉक्सिन यानी मूटोटो) नाम दिया गया है। यह एक ऐसा पेप्टाइड अणु है जो कैंसर कोशिका की सतह पर मौजूद कई सारे अणुओं से एक साथ जुड़ जाता है। इस वजह से कैंसर कोशिका में परिवर्तन की कोई गुंजाइश नहीं रह जाती और फिर एक विषैला अणु उस कोशिका को मार डालता है।

शोधकर्ताओं का मत है कि उन्होंने एक इकलौते अध्ययन में चूहों पर इस तरीके को आज़माया जिसमें अप्रत्याशित सफलता मिली है और वे जल्दी ही इसे इंसानों पर भी आज़माने जा रहे हैं।

इस विषय पर काम कर रहे अन्य वैज्ञानिकों को लगता है कि चूंकि उक्त प्रयोग के आंकड़े प्रकाशित नहीं किए गए हैं, इसलिए दावे की जांच करना असंभव है। वैसे भी चूहों पर प्रयोग के आधार पर इंसानों के बारे में दावा करना तर्कसंगत नहीं है क्योंकि अनुभव बताता है कि ज़रूरी नहीं है कि चूहों पर मिले परिणाम इंसानों में मिलें। कुछ वैज्ञानिक तो एईबीआई के दावे को विज्ञान की परंपराओं के विपरीत व गैर-ज़िम्मेदाराना मान रहे हैं। अलबत्ता, इन सारी आशंकाओं के बारे में एईबीआई ने कहा है कि एक साल के अंदर वे पहले इंसान के कैंसर का इलाज करके दिखा देंगे। उनके मुताबिक कैंसर का यह नया उपचार सस्ता होगा और इसके कोई साइड प्रभाव भी नहीं होंगे। (स्रोत फीचर्स)

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