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कोविड-19 महामारी बनाम डिजिटल महामारी – अनुराग मेहरा

लेख की शुरुआत मैं एक गुज़ारिश के साथ करना चाहता हूं। हम अचानक ही मुश्किल और अनिश्चित दौर से घिर गए हैं। अनजाने भविष्य का डर और आशंका बेचैनी पैदा कर रहे हैं। यह सुनिश्चित करने के लिए कि इस डर को बढ़ाने में हमारा कोई योगदान ना हो, हमें ध्यान देना चाहिए कि हम दूसरों के साथ कैसी जानकारी साझा कर रहे हैं, खासकर सोशल मीडिया और मैसेजिंग ऐप्स के ज़रिए। जब भी आप कुछ देखें या पढ़ें तो अपने आप से ये सवाल ज़रूर करें: क्या मुझे इस जानकारी पर भरोसा है? अगर यह जानकारी किसी खास विषय से सम्बंधित है तो क्या मैं इसे परखने के लिए पर्याप्त जानकार हूं? क्या दी गई जानकारी के पर्याप्त प्रमाण प्रस्तुत हुए हैं? क्या कहीं और भी यह बात कही गई है? विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) या स्वास्थ्य मंत्रालय इस बारे में क्या कहता है? क्या आपने व्हाट्सएप पर प्राप्त सरकारी आदेश का उनकी आधिकारिक वेबसाइट पर जारी आदेश से मिलान किया है? यदि थोड़ी भी शंका हो तो हमें संदेश साझा करने और आगे बढ़ाने से बचना चाहिए। वरना हम लोगों को गलत जानकारी देंगे जो उन्हें जोखिम में डाल सकती है।

कोविड-19 महामारी कई लोगों के लिए एक वरदान के रूप में आई है कि वे अपने अज्ञान को समझ व ज्ञान रूपी हथियार का रूप देकर, प्राय: सांस्कृतिक गर्व का मुलम्मा चढ़ाकर दुनिया के समक्ष पेश कर सकें। डिजिटल टेक्नॉलॉजी ने कई लोगों को विशेषज्ञ, विद्वान, डॉक्टर और सर्वज्ञ बना दिया है। मोबाइल फोन और कुछ अन्य माध्यमों के ज़रिए वे इंटरनेट और सोशल मीडिया का उपयोग बेतुकी और भ्रामक जानकारी फैलाने में कर रहे हैं। इनमें कई बार ऐसी बकवास भी शामिल होती है जो आज़माने वालों के लिए घातक हो सकती है।

कोरोनोवायरस (SARS-CoV-2), कोविड-19 की शारीरिक महामारी के साथ जुड़ी जानकारी की महामारी के बारे में काफी कुछ लिखा गया है। सबसे अधिक बेतुकी बातें संक्रमण के इलाज और इससे बचाव के उपायों के बारे में कही जा रही हैं। जिससे एक सवाल यह उठता है: गड़बड़ क्या है और ऐसा क्यों हो रहा है? सरल स्तर पर देखें तो, सनसनीखेज़ सामग्रियां डर और उम्मीद के चलते फैल रही हैं, और जीवित रहने के लिए हमारे दिमाग की एक प्रवृत्ति खतरों को बड़े रूप में देखने की है। ऐसा अक्सर महामारी, आपदाओं और युद्ध के समय होता है। पर इस समय हालात को अधिक जटिल और खतरनाक बनाने वाले तीन कारक हैं: पहला, इंटरनेट पर मौजूद असत्यापित अथाह ‘ज्ञान’ के भंडार तक आसान पहुंच; दूसरा, डिजिटल मीडिया की बदौलत प्रसार की तीव्र गति और आसान पहुंच; और तीसरा, सामाजिक और राजनैतिक ध्रुवीकरण जो साज़िश की परिकल्पनाओं को तथा भयंकर पक्षपाती अभिमान से भरे छद्म वैज्ञानिक कथनों को जन्म देता है।

इनमें सबसे प्रचलित हैं खांसी और ज़ुकाम या सामान्य प्रतिरक्षा को बढ़ाने के लिए आज़माए जाने वाले घरेलू नुस्खों का विस्तार। इनमें से कुछ उपाय तो गर्म पानी से गरारे करने और गर्मागरम रसम पीने जैसे साधारण सुझाव हैं। इनका एक अन्य स्तर है स्व-परीक्षण; जैसे एक संदेश कहता है कि यदि आप 10 सेकंड के लिए अपनी सांस रोक सकते हैं तो आप संक्रमित नहीं हैं। इंटरनेट गलत सूचनाओं से भरा पड़ा है, जिनसे आप चलते-चलते टकरा जाएंगे। गलत सूचनाओं तक संयोगवश पहुंचना कहीं आसान है बनिस्बत प्रामाणिक जानकारी तक पहुंचने के, जिसे खोजना पड़ता है और प्रामाणिकता को परखने के लिए प्रयास करने पड़ते हैं।

गलत सूचनाएं अक्सर आधिकारिक दिखने वाले दस्तावेज़ों और सील-ठप्पों के साथ पेश की जाती हैं। इनमें से कुछ नामी पेशेवरों के हवाले से आती हैं; जैसे एक प्रसिद्ध कार्डियोलॉजिस्ट को यह कहते सुना गया था कि जिन व्यक्तियों में संक्रमण के लक्षण दिख रहे हैं उन्हें, परीक्षण किट की कमी के चलते, आठ दिनों के बाद ही परीक्षण के लिए जाना चाहिए। इसके अलावा फेसबुक, ट्विटर और सबसे कुख्यात व्हाट्सएप पर कई हास्यास्पद चीज़ें चल रही हैं। जैसे लहसुन कोरोनावायरस को ठीक कर सकता है, या हर 15 मिनट में गर्म पानी पीने से संक्रमण से बचा जा सकता है। सबसे अधिक रोमांचक सलाह शराब और गांजा का सेवन करने की है; दावा है कि दोनों ही वायरस को मार सकते हैं। अमेरिका में काफी प्रचलित सलाह है कि ‘चमत्कारी मिनरल घोल’ यानी ब्लीच वायरस का सफाया कर सकता है। प्रसंगवश बता दें कि यह आपका भी सफाया हमेशा के लिए कर देगा।

मेसेजेस ने इस विचार को भी बढ़ावा दिया है कि मास्क लगाने से वायरस से पूरी तरह सुरक्षित रहा जा सकता है – यह एक खतरनाक विचार है क्योंकि यह विचार एक मिथ्या आत्मविश्वास पैदा करता है और फिर आपसे मूर्खतापूर्ण व्यवहार करवाता है। इसके चलते उन लोगों के लिए मास्क की कमी भी हो गई जिन्हें इनकी वाकई ज़रूरत थी। और अंत में, निश्चित ही यह झूठी घोषणा थी कि सरकार ने पूरे इलाके में छिड़काव करके हवा में ही वायरस के खात्मे का इंतजाम किया है।

यह तब और भी चिंताजनक हो जाता है जब ये मूर्खतापूर्ण बातें आधिकारिक नीति बन जाती हैं: स्वास्थ्य मंत्रालय सलाह देता है कि आयुर्वेदिक, यूनानी और होम्योपैथिक उपचार कोरोनोवायरस के ‘लक्षणों से निपटने’ में मददगार हैं! जबकि इस तरह के दावों का रत्ती भर वैज्ञानिक प्रमाण नहीं है। फिर भी ये सरकार की ओर से ज़ारी किए गए हैं। विशेषज्ञों द्वारा इस पर आपत्ति उठाने पर मंत्रालय ने ‘स्पष्टीकरण’ दिया है कि यह सलाह ‘सामान्य’ वायरस संक्रमण के संदर्भ में जारी की गर्इं है।

यदि कोई इन ‘उपचारों’ को अपना ले तो परिणाम भयावह होंगे। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने कोरोनोवायरस के इलाज के लिए क्लोरोक्वीन और हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन के उपयोग की वकालत की है। जब उनसे इस बारे में सवाल किया गया तो उन्होंने जवाब दिया कि “मैं एक ऐसा आदमी हूं जो बहुत सकारात्मक सोच रखता हूं, विशेष रूप से इन दवाओं के मामले में। यह सिर्फ एक एहसास है, सिर्फ एक एहसास है। मैं एक स्मार्ट आदमी हूं।”

इन दवाओं की प्रभाविता के बारे में केवल कहे-सुने प्रमाण उपलब्ध हैं और इन्हें लेकर परीक्षण चल रहे हैं लेकिन अमेरिकी राष्ट्रपति द्वारा पहले ही इस ‘उपचार’ की पैरवी ने मुश्किल खड़ी कर दी है: इन दवाओं की जमाखोरी से इनकी उपलब्धता उन लोगों के लिए कम हो गई है जिन्हें अन्य बीमारियों के इलाज में इनकी ज़रूरत है। लोग कोरोनोवायरस से अपने को बचाने के लिए अब खुद ही इन अत्यधिक ज़हरीली दवाओं का सेवन रहे हैं, जिसके कारण एरिज़ोना और नाइजीरिया में मौतें भी हो चुकी हैं। इसी तरह के हालात भारत में भी बन सकते हैं।

साज़िश परिकल्पनाओं की भी कोई कमी नहीं है। एक प्रचलित बयान यह है कि कोरोनावायरस 5-जी मोबाइल तकनीक के परिणामस्वरूप उपजा है; यह वायरस के माध्यम से लोगों को बीमार करता है। मलेशियाई सरकार को अपने नागरिकों को आश्वस्त करना पड़ा कि यह वायरस लोगों को रक्त-पिपासु दैत्य में नहीं बदलेगा। संयुक्त राज्य अमेरिका में दक्षिणपंथी लोगों ने सोशल मीडिया पर इस तरह की पोस्ट की बाढ़ लगा दी है कि कोरोनावायरस ट्रम्प विरोधी हिस्टीरिया पैदा करने की और ‘देश को अस्थिर करने’ की साज़िश है। इस डर को हवा दी जा रही है कि डब्लूएचओ ‘राष्ट्रों को नियंत्रित कर रहा है और कई लोगों को मारने के लिए जबरन टीके लगाए जाएंगे।’ इसका एक परिणाम इस रूप में सामने आ रहा है कि दक्षिण-पंथी रुझान वाले नागरिक इस महामारी को गंभीरता से नहीं ले रहे हैं, और लापरवाही भरा व्यवहार कर रहे हैं, जैसे बाहर खाना खाना या हाथ मिलाना (यह साबित करने के लिए कि वे सख्त हैं)।

ज़्यादा गहरे स्तर पर दक्षिणपंथी लोग “वायरस के कारण और उसकी उत्पत्ति के बारे में साज़िश-सिद्धांत पेश कर रहे हैं, और इन मनगढ़ंत कहानियों का उपयोग आप्रवासियों, अल्पसंख्यकों या उदारवादी लोगों को बलि का बकरा बनाने हेतु कर रहे हैं।” चीनी मूल के अमेरिकी नागरिकों के साथ दुव्र्यवहार की खबरें तो सामने आ भी चुकी हैं क्योंकि ट्रम्प ने “चीनी वायरस” शब्द प्रचलित कर दिया है। भारत में भी, पूर्वोत्तर राज्यों के नागरिकों पर इसी तरह के नस्लवादी हमले किए गए हैं। चीन को एक दैत्य साबित करने के लिए कहा जा रहा है कि वह अपने ही नागरिकों के प्रति अमानवीय और क्रूर व्यवहार कर रहा है, और ऐसी (झूठी) रिपोर्टें पेश की जा रही हैं कि चीन संक्रमित लोगों को मार रहा है।

लेकिन यह पुराना सवाल बरकरार है: लोग इन बकवास बातों में क्यों आ जाते हैं? एक अन्य लेख में इस बात की चर्चा की गई है कि कैसे क्राउडसोर्सिंग द्वारा बकवास भी ‘ज्ञान’ बन जाता है। मोटे तौर पर कहा जाए तो विभिन्न कारणों से आबादी के एक बड़े हिस्से के लोगों में समीक्षात्मक कौशल की कमी के चलते कितनी भी हास्यास्पद या बकवास बात ‘विश्वसनीय’ बन जाती है। सही शिक्षा तक लोगों की पहुंच के अभाव और आधारभूत वैज्ञानिक सिद्धांतों की जानकारी की कमी के कारण उनके पास लगातार मिल रही इन सूचनाओं की वैधता जांचने का कोई तरीका नहीं होता। इसके अलावा सवाल करने की मानसिकता की अनुपस्थिति, जो वैज्ञानिक स्वभाव का अंतर्निहित हिस्सा है, के कारण वे जो भी देखते, पढ़ते और सुनते हैं उसकी गहन पड़ताल नहीं कर पाते।

यहां स्पष्ट रूप से दो तरह के परिदृश्य हैं

पहली श्रेणी उन लोगों की है जो तार्किकता से शुरुआत तो करते हैं लेकिन एक समय बाद प्रामाणिक से दिखने वाले नकली दस्तावेज़ों या वैज्ञानिक लगने वाले तर्कों में फंस जाते हैं। इसका एक अच्छा उदाहरण यह बयान है कि होम्योपैथी कोरोनोवायरस से लड़ने के लिए सभी अद्भुत दवाएं उपलब्ध करा रही है। इस तरह के दावे वैसी ही भाषा शैली का उपयोग करते हैं जैसी कि आधुनिक चिकित्सा में उपयोग की जाती है, जिससे होम्योपैथी चिकित्सा बिल्कुल इसके समान और इसका विकल्प लगने लगती है। यह उस छद्म विज्ञान को ढंक देती है जिस पर होम्योपैथी आधारित है। कोरोनोवायरस महामारी के इलाज और उसके टीके सम्बंधी ये दावे इस संक्रमण के खिलाफ अजेयता का भ्रम पैदा कर सकते हैं।

‘जनता कर्फ्यू’ के मामले में सोशल मीडिया पर एक छद्म वैज्ञानिक व्याख्या काफी प्रचलित है: किसी एक स्थान पर कोरोनोवायरस 12 घंटे जीवित रहता है और जनता कर्फ्यू 14 घंटे का है। इसलिए सार्वजनिक स्थलों या बिंदुओं को, जहां कोरोनावायरस पड़ा रह गया होगा, यदि 14 घंटे तक छुआ नहीं जाएगा तो इससे कोरोनावायरस की शृंखला टूट जाएगी। यह ना केवल अजीबो-गरीब तर्क है बल्कि यह वायरस के जीवन काल के तथ्य के आधार पर भी गलत है। इस प्रकार के कर्फ्यू वायरस के संपर्क में आने में कमी ला सकते हैं, और आपातकालीन उपायों के हिसाब से यह एक अच्छा कदम हो सकता है, लेकिन यह नहीं होगा कि ‘कोरोनावायरस की शृंखला टूट जाएगी’।

व्हाट्सएप पर एक और बेतुका तर्क दिया जा रहा है कि भारत के 130 करोड़ लोग यदि एक समय, एक साथ ताली और शंख बजाएंगे तो इतना कंपन पैदा होगा कि वायरस अपनी सारी शक्ति खो देगा। यदि कुछ ट्वीट्स की मानें तो ऐसा करके हमें पहले ही बड़ी सफलता मिल चुकी है क्योंकि “नासा SD13 तरंग डिटेक्टर ने ब्राहृाण्ड स्तरीय ध्वनि तरंग डिटेक्ट की हैं और हाल ही में बनाए गए बायो-सैटेलाइट ने दिखाया है कि कोविड-19 स्ट्रेन घट रहा है और कमज़ोर हो रहा है” और वह भी सामूहिक शंखनाद के कुछ मिनटों बाद।

इससे ज़्यादा ऊटपटांग बात कोई हो नहीं सकती। दूसरी ओर, सामाजिक दूरी का विचार, जिसे सरकारें जी-जान से बढ़ावा देने में जुटी हैं, तब हवा में उड़ गया जब कई लोग राजनेताओं के आव्हान से उत्साहित होकर संक्रमण से लड़ने वाले कार्यकर्ताओं के सम्मान में लोग ताली-थाली बजाने के लिए अपने-अपने घरों से बाहर निकल कर एक साथ जमा हो गए। लेकिन ज़मीनी हकीकत बिल्कुल अलग है, हम वास्तव में अपने आसपास इन कार्यकर्ताओं को नहीं चाहते क्योंकि इनके संक्रमित होने की संभावना है। मकान मालिकों ने एयरलाइन कर्मचारियों और यहां तक कि चिकित्सा पेशेवरों को घर खाली करने को कहा है – यह काफी निराशाजनक स्थिति दिखती है कि हम दूसरों की ज़िंदगी को महत्व नहीं देते हैं, उनकी भी जो संकट के समय हमारी सेवा करते हैं। जिन लोगों को क्वारेंटाइन किया गया है उनके प्रति सहानुभूति में कमी और उनकी निजता पर आक्रमण और भी शर्मनाक है।

हम वास्तव में सबसे भौंडा इतिहास बनते देख रहे हैं

दूसरा, हमारे यहां कई ऐसे लोग हैं जो निहित रूप से अंधविश्वासों और अतार्किक विश्वासों के प्रति संवेदी हैं। इसके लिए विचित्र धार्मिकता से लेकर इन विश्वासों को मानने वाली संस्कृति में परवरिश जैसे कई कारण ज़िम्मेदार हैं। इन मामलों में ज्ञान और जानकारी बुज़ुर्गों, समुदाय प्रमुखों और धार्मिक गुरुओं से आंख मूंदकर प्राप्त की जाती है, उस पर सवाल नहीं उठाए जाते; दिमागों को सवाल उठाने या प्रमाण खोजने के लिए तैयार नहीं किया जाता। इसलिए इन लोगों को जो कुछ भी सूचनाएं मिलती हैं, उसे मान लेते हैं, और इससे भी अधिक तत्परता से उन सूचनाओं को मान लेते हैं जो किसी भी किस्म के अधिकारियों – राजनीतिक नेताओं, धार्मिक हस्तियों – से प्राप्त हुई हैं। ‘गो कोरोना गो’ का एक वीडियो बीमारी से लड़ने में एक आशावादी मनोस्थिति बनाने का अच्छा साधन हो सकता है लेकिन यह वीडियो एक मुगालता भी पैदा करता है कि कोरोनोवायरस को जाप से, खासकर सामूहिक जाप से भगाया जा सकता है।

कोरोनावायरस सम्बंधी इस तरह की बेतुकी बयानबाज़ी करने वाले अधिकतर वे लोग हैं जो धार्मिक और राष्ट्रवादी गौरव से भरे होते हैं। यह वक्त, जो महान राजनीतिक ध्रुवीकरण और तीव्र सामाजिक आक्रोश का गवाह है, ने सांस्कृतिक श्रेष्ठता के आख्यानों से पूर्ण दंभ के उग्रवादी रूप को जन्म दिया है।

इसी के चलते, गोमूत्र का उपयोग कीटाणुनाशक के रूप में किया जा रहा है और बिना सोचे-समझे लोगों पर इसका छिड़काव किया जा रहा है। दक्षिणपंथी राजनेताओं का दावा है कि गोमूत्र और गोबर कोरोनोवायरस का इलाज कर सकते हैं, और हवन वायरस को मार सकता है। इनमें से कुछ ने विशेष सभाओं का आयोजन किया जहां आमंत्रित लोगों को गोमूत्र पीने के लिए दिया गया। कई ज्योतिष हमें बताते हैं कि हम अस्तित्व के संकट का सामना क्यों कर रहे हैं, और यह कब दूर होगा। एक अन्य दावा कहता है कि प्राचीन भारतीय योग के श्वसन का तरीका कोरोनावायरस के संक्रमण से बचा सकता है, और यह भी कि आयुर्वेदिक चिकित्सा में प्रयुक्त अश्वगंधा ‘मानव प्रोटीन से कोरोना प्रोटीन को जुड़ने नहीं देगी।’ इंडोनेशिया में मीडिया पोस्ट्स में दावा किया गया है कि वजू करना वायरस को मार सकता है।

जो लोग इनमें से किसी भी कथन को गंभीरता से लेते हैं और मानते हैं कि उनके पास कोरोनोवायरस से लड़ने के लिए उपाय है तो हो सकता है कि वे खुद को और दूसरों को गंभीर खतरे में डाल रहे हैं।

हमें घेरती जा रही इस अज्ञानता के और भी अधिक भयावह और दीर्घकालिक प्रभाव हैं। आक्रामक शाकाहार-श्रेष्ठता के उन्माद में स्वनामधन्य ज्ञान उड़ेला जा रहा है: कोरोनावायरस की उत्पत्ति चीन के ‘मांस बाज़ार’ से हुई, जहां मारे गए जंगली जानवरों की विभिन्न प्रजातियां एक साथ होती हैं, जिससे वायरस एक प्रजाति से होते हुए दूसरी प्रजाति और अंतत: मनुष्य में आ गया। यह बात मांसाहार की कटु आलोचना के रूप में इस्तेमाल की जा रही है। मांस खाने वालों को दोष देते हुए कतिपय सभ्यता की श्रेष्ठता के दावे किए जा रहे हैं और सभ्यता के घोर अनुयायी मांग कर रहे हैं कि चीनी राष्ट्रपति कोरोनावायरस की प्रतिमा से क्षमा याचना करें कि उन्होंने मांस खाया। संक्रमित मटन बाज़ार दिखाने वाले वीडियो भावनाओं को और भड़का रहे हैं। इस प्रकार कोरोनावायरस मांस खाने वालों के खिलाफ प्रकृति का प्रतिशोध बन गया है। इससे भारत में मुर्गियों की कीमत बहुत कम हो गई है, और यह उद्योग आर्थिक संकट झेल रहा है।

सिर्फ अनुशंसित वेबसाइटों (जैसे डब्ल्यूएचओ) से जानकारी प्राप्त करने की सलाह और गुज़ारिश किसी भी तरह से लोगों को गलत सूचना मानने और आगे बढ़ाने से रोक नहीं रही है। हमें यह याद रखना चाहिए कि बहुत सी गलत सूचनाएं जानबूझकर बरगलाने के लिए प्रचारित की जाती हैं, अक्सर दक्षिणपंथी सांस्कृतिक लोगों द्वारा। जब तक हम इस सूचना की महामारी के “प्रसार की शृंखला” को नहीं तोड़ेंगे तब तक यह जारी रहेगी।

लिहाज़ा, डिजिटल मीडिया कई मायनों में उन मासूम लोगों के लिए एक उपहार है जो उनको बताई गई किसी भी बकवास पर, और उसे रचने वालों पर यकीन कर लेते हैं। फेसबुक से लेकर यूट्यूब तक के तमाम प्लोटफार्म, जिन पर कोई भी कुछ भी कह या लिख सकता है, वास्तव में इन्हें उपयोग करने वाले सर्वज्ञाताओें (चाहें नादान हों या किसी मत के) के लिए मुफ्त में उपलब्ध हथियार की तरह है जिसे किसी पर भी चलाया जा सकता है। ऐसा नहीं है कि पहले के ज़माने में दुनिया में किसी तरह की मूर्खता नहीं थी लेकिन मूर्खता को सर्वव्यापी बनाने के साधन अनुपस्थित थे, जिससे किसी बेतुकेपन के निर्माण और प्रसार की गति सीमित थी।

बड़ी टेक कंपनियां गलत सूचना के प्रसार को रोकने की कोशिश कर रही हैं लेकिन इस बात की संभावना बहुत कम है कि वे खुद के बनाए गए विशालकाय जाल को नियंत्रित कर पाएंगी। आधुनिक तकनीक और दुनिया के असमीक्षात्मक, रूढ़िवादी सोच की जुगलबंदी हमें यह याद दिलाती है कि जो समाज अंधविश्वास को बढ़ावा देता है वह छद्म विज्ञान में लौट जाता है और तार्किकता को कम करता है। इस परिस्थिति का उपयोग सांस्कृतिक और राजनीतिक लड़ाई में हथियार के रूप में किया जाता है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://specials-images.forbesimg.com/imageserve/5ea89d09b67f3800075cd1ab/960×0.jpg?fit=scale

सबसे बड़े भाषा डैटाबेस तक पहुंच हुई महंगी

थनोलॉग पूरे विश्व की भाषाओं के बारे में जानकारी उपलब्ध कराने वाला एक विशाल ऑनलाइन डैटाबेस है। इसमें ऐसी तमाम जानकारी उपलब्ध है जैसे विश्व में कितनी भाषाएं हैं, किसी भाषा (हिब्रू से लेकर हौसा और हाक्का तक) को दुनिया में कितने लोग बोलते हैं या किसी भाषा के विलुप्त होने की संभावना कितनी है (1 से 10 के पैमाने पर)। यह भाषाविदों के लिए एक महत्वपूर्ण संसाधन रहा है। लेकिन कुछ समय पहले इस संसाधन तक शोधकर्ताओं की पहुंच महंगी कर दी गई है। 

दरअसल एथनोलॉग को लंबे समय तक समर इंस्टीट्यूट ऑफ लिंग्विस्टिक्स (SIL) ने संचालित किया। लेकिन 2015 में जब SIL की फंडिंग खत्म होने लगी तब एथनोलॉग के संचालक गैरी साइमन्स को इसके संचालन के ढंग को बदलने की ज़रूरत महसूस हुई। एथनोलॉग को चलाने में सालाना लगभग दस लाख डॉलर का खर्च आता है। इसलिए 2015 के अंत में पहली बार एथनोलॉग के उपयोगकर्ताओं से सदस्यता शुल्क लेना शुरू किया गया। यह शुल्क अब बढ़कर 480 डॉलर से शुरू होता है।

इस पर मैक्स प्लैंक इंस्टिट्यूट फॉर दी साइंस ऑफ ह्युमन हिस्ट्री के भाषाविद साइमन ग्रीनहिल कहना है कि पिछले कुछ सालों में एथनोलॉग तेज़ी से महंगा हुआ है और इस पर पहुंच भी बाधित हुई है, जो बहुत दुखद है। उनका कहना है कि शोधकर्ता अब अन्य सस्ते या मुफ्त विकल्प खोज रहे हैं। उन्होंने खुद अपने अध्ययन, भूगोल भाषा की विविधता को कैसे प्रभावित करता है, के लिए एथनोलॉग के पुराने डैटा का उपयोग किया जिसके लिए वे पहले भुगतान कर चुके थे, क्योंकि ताज़ा डैटा हासिल करने में कई हज़ार डॉलर का शुल्क आता।

साइमन्स समझते हैं कि भाषाविद क्यों परेशान हैं। लेकिन उनका कहना है कि आर्थिक हालात बदलने तक वे शुल्क में राहत नहीं दे सकते। 2013 के बाद से साइमन्स और SIL के मुख्य नवाचार विकास अधिकारी स्टीफन मोइतोजो एथनोलॉग को विकसित करने और इसे आत्मनिर्भर बनाने की कोशिश कर रहे हैं।

मोइतोजो का कहना है कि उन्हें लगता था कि एथनोलॉग का उपयोग करने वाले अधिकतर लोग अकादमिक शोधकर्ता हैं लेकिन वेबलॉग ट्रैफिक के अनुसार एथनोलॉग का उपयोग करने वालों में सिर्फ 26 प्रतिशत ही अकादमिक शोधकर्ता हैं। अन्य उपयोगकर्ताओं में हाई स्कूल छात्रों और सलाहकारों के अलावा, अदालतों, अस्पतालों और आप्रवास कार्यालयों के लिए दुभाषिया तलाशने वाले हैं। बहुत सारे संगठन अपने दैनिक कार्य के लिए एथनोलॉग पर निर्भर हैं।

साइमन्स स्वतंत्र शोधकर्ताओं और जिन छात्रों के संस्थानों के पास एथनोलॉग की सदस्यता नहीं है, उनके लिए बेहतर विकल्प लाने की उम्मीद रखते हैं। वे सोचते हैं कि अगर हम इसे इस तरह बना पाए कि जिन लोगों का काम वास्तव में एथनोलॉग पर निर्भर है वे इसकी वाजिब सदस्यता लें, तब उन लोगों के बारे में सोच सकते हैं जो यह शुल्क वहन नहीं कर सकते। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.ethnologue.com/sites/default/files/inline-images/how-many-languages-map-hires-title.png

वैज्ञानिक सामाजिक दायित्व की ओर बढ़ता देश – अभय एस.डी. राजपूत

भारत सरकार, कॉर्पोरेट सामाजिक दायित्व (CSR) की तर्ज़ पर, विज्ञान के क्षेत्र में वैज्ञानिक सामाजिक दायित्व (Scientific Social Responsibility) के लिए एक नई नीति लागू करने जा रही है। इस नई नीति का प्रारूप तैयार कर लिया गया है जिसे विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग की वेबसाइट (www.dst.gov.in) पर टिप्पणियों के लिए उपलब्ध कराया गया है।

अगर यह नीति लागू हो जाती है तो विज्ञान के क्षेत्र में सामाजिक दायित्व के लिए ऐसी नीति बनाने वाला भारत दुनिया का संभवत: पहला देश होगा।

यह नीति भारत में विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में कार्यरत संस्थानों और वैज्ञानिकों को विज्ञान संचार और प्रसार के कार्यों में बढ़-चढ़ कर भागीदारी के लिए प्रोत्साहित करेगी। ऐसा होने से वैज्ञानिकों और समाज के बीच संवाद बढ़ेगा जिससे दोनों के बीच ज्ञान आधारित खाई को भरा जा सकेगा। इस नीति का मुख्य उद्देश्य भारतीय वैज्ञानिक समुदाय में सुप्त पड़ी क्षमता का भरपूर उपयोग कर विज्ञान और समाज के बीच सम्बंधों को मज़बूत करना और देश में विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में ऐसी परिस्थितियों का निर्माण करना है जिससे इस क्षेत्र को नई ऊर्जा मिल सके।

यह नीति वैज्ञानिक ज्ञान और संसाधनों तक जनमानस की पहुंच को सुनिश्चित करने और आसान बनाने के लिए एक तंत्र विकसित करने, वर्तमान और भावी सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु विज्ञान के लाभों का उपयोग करने, तथा विचारों और संसाधनों को साझा करने के लिए एक सक्षम वातावरण बनाने, और सामाजिक समस्याओं को पहचानने एवं इनके हल खोजने के लिए सहयोग को बढ़ावा देने की दिशा में भी मार्गदर्शन करेगी। इस ड्राफ्ट नीति के अनुसार देश में विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी  से सम्बंधित सभी संस्थानों और व्यक्तिगत रूप से सभी वैज्ञानिकों को उनके वैज्ञानिक सामाजिक दायित्व के बारे में जागरूक और प्रेरित करना होगा।

भारत सरकार ने पहले भी विज्ञान से सम्बंधित कुछ नीतियां बनाई हैं। वैज्ञानिक नीति संकल्प 1958, प्रौद्योगिकी नीति वक्तव्य 1983, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी नीति 2003 और विज्ञान, प्रौद्योगिकी एवं नवाचार नीति 2013 इनमें प्रमुख हैं। वर्तमान वैज्ञानिक सामाजिक दायित्व नीति का प्रारूप भी इन नीतियों को आगे बढ़ाता है। हालांकि इस नई नीति में कुछ व्यावहारिक और प्रासंगिक प्रावधान हैं जिससे विज्ञान व प्रौद्योगिक संस्थानों और वैज्ञानिकों (यानी ज्ञानकर्मियों) को समाज के प्रति अधिक उत्तरदायी और ज़िम्मेदार बनाया जा सकता है।

ड्राफ्ट नीति के अनुसार प्रत्येक वैज्ञानिक को व्यक्तिगत रूप से अपने वैज्ञानिक सामाजिक दायित्व को पूरा करने के लिए कम से कम 10 दिन प्रति वर्ष अवश्य देने होंगे। इसके अंतर्गत विज्ञान और समाज के बीच वैज्ञानिक ज्ञान के आदान-प्रदान में योगदान देना होगा। इस दिशा में संस्थागत स्तर पर और व्यक्तिगत स्तर पर सही प्रयास हो सकें और ऐसे प्रयासों को बढ़ावा देने के लिए पर्याप्त प्रोत्साहनों के साथ-साथ आवश्यक आर्थिक सहायता प्रदान करने का भी प्रावधान होगा। वैज्ञानिक सामाजिक दायित्व के क्षेत्र में जो वैज्ञानिक व्यक्तिगत प्रयास करेंगे उन्हें उनके वार्षिक प्रदर्शन मूल्यांकन में उचित श्रेय देने का भी प्रस्ताव किया गया है।

इस नीति का एक महत्वपूर्ण पहलू यह भी है कि किसी भी संस्थान को अपने वैज्ञानिक सामाजिक दायित्व से सम्बंधित गतिविधियों और परियोजनाओं को आउटसोर्स या किसी अन्य को अनुबंधित करने की अनुमति नहीं होगी। अर्थात सभी संस्थानों को अपनी SSR गतिविधियों और परियोजनाओं को लागू करने के लिए अंदरूनी क्षमताएं विकसित करना होगा।

जब भारत में लगभग सभी विज्ञान व प्रौद्योगिक शोध करदाताओं के पैसे से चल रहा है, तो ऐसे में वैज्ञानिक संस्थानों का यह एक नैतिक दायित्व है कि वे समाज और अन्य हितधारकों को कुछ वापस भी दें। यहां पर हमें यह समझना होगा कि SSR न केवल समाज पर वैज्ञानिक प्रभाव के बारे में है, बल्कि यह विज्ञान पर सामाजिक प्रभाव के बारे में भी है। इसलिए SSR विज्ञान के क्षेत्र में ज्ञान पारिस्थितिकी तंत्र को मजबूत करेगा और समाज के लाभ के लिए विज्ञान का उपयोग करने में दक्षता लाएगा।

इस नीति दस्तावेज़ में समझाया गया है कि विज्ञान और प्रौद्योगिकी के सभी क्षेत्रों में कार्यरत सभी ज्ञानकर्मियों का समाज में सभी हितधारकों के साथ ज्ञान और संसाधनों को स्वेच्छा से और सेवा भाव एवं जागरूक पारस्परिकता की भावना से साझा करने के प्रति नैतिक दायित्व ही वैज्ञानिक सामाजिक दायित्व (SSR) है। यहां, ज्ञानकर्मियों से अभिप्राय हर उस व्यक्ति से है जो ज्ञान अर्थव्यवस्था में मानव, सामाजिक, प्राकृतिक, भौतिक, जैविक, चिकित्सा, गणितीय और कंप्यूटर/डैटा विज्ञान और इनसे सम्बंधित प्रौद्योगिकी के क्षेत्रों में भाग लेता है।

ड्राफ्ट नीति के अनुसार देश में SSR गतिविधियों की निगरानी और कार्यान्वयन के लिए DST में एक केंद्रीय और नोडल एजेंसी की स्थापना की जाएगी। इस नीति के एक बार औपचारिक हो जाने के बाद, केंद्र सरकार के सभी मंत्रालयों, राज्य सरकारों और S&T संस्थानों को अपने कार्यक्षेत्र के अनुसार SSR को लागू करने के लिए अपनी योजना बनाने की आवश्यकता होगी। विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी से सम्बंधित सभी संस्थानों को अपने ज्ञानकर्मियों को समाज के प्रति उनकी नैतिक सामाजिक जिम्मेदारी के बारे में संवेदनशील बनाने, SSR से सम्बंधित संस्थागत परियोजनाओं और व्यक्तिगत गतिविधियों का आकलन करने के लिए एक SSR निगरानी प्रणाली बनानी होगी और SSR गतिविधियों  पर आधारित एक वार्षिक रिपोर्ट भी प्रकाशित करनी होगी। संस्थागत और व्यक्तिगत दोनों स्तरों पर SSR गतिविधियों की निगरानी एवं मूल्यांकन के लिए उपयुक्त संकेतक विकसित किए जाएंगे जो इन गतिविधियों के प्रभाव को लघु-अवधि, मध्यम-अवधि और दीर्घ-अवधि के स्तर पर मापेंगे।

नीति को प्रभावी ढंग से लागू करने के लिए, एक राष्ट्रीय डिजिटल पोर्टल की स्थापना की जाएगी जिस पर ऐसी सामाजिक समस्याओं का विवरण होगा जिन्हें वैज्ञानिक हस्तक्षेप की आवश्यकता है। यह पोर्टल कार्यान्वयनकर्ताओं के लिए और SSR गतिविधियों की रिपोर्टिंग के लिए एक मंच के रूप में भी काम करेगा।

नई नीति के अनुसार सभी फंडिंग एजेंसियों को SSR का समर्थन करने के लिए:

क) व्यक्तिगत SSR परियोजनाओं को वित्तीय सहायता प्रदान करनी होगी,

ख) हर प्रोजेक्ट में SSR के लिए वित्तीय सहायता के लिए एक निश्चित प्रतिशत तय करना होगा,

ग) वित्तीय समर्थन के लिए प्रस्तुत किसी भी परियोजना के लिए उपयुक्त SSR की आवश्यकता की सिफारिश करनी होगी।

यदि इसे ठीक से और कुशलतापूर्वक लागू किया जाता है, तो यह नीति विज्ञान संचार के मौजूदा प्रयासों को मज़बूत करते हुए, सामाजिक समस्याओं के लिए वैज्ञानिक और अभिनव समाधान लाने में एक परिवर्तनकारी भूमिका निभाएगी। इस के साथ-साथ, क्षमता निर्माण, कौशल विकास के माध्यम से सभी के जीवन स्तर को ऊपर उठाने, ग्रामीण नवाचारों को प्रोत्साहित करने, महिलाओं और कमज़ोर वर्गों को सशक्त बनाने, उद्योगों और स्टार्ट-अप की मदद करने आदि में यह नीति योगदान दे सकती है। सतत विकास लक्ष्यों, पर्यावरण लक्ष्यों और प्रौद्योगिकी विज़न 2035 की प्राप्ति में भी यह नीति योगदान दे सकती है।  (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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भारत में आधुनिक विज्ञान की शुरुआत – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

पिछले कुछ हफ्तों में इस बात पर महत्वपूर्ण चर्चा और बहस चली थी कि भारत में प्राचीन समय से अब तक विज्ञान और तकनीक का कारोबार किस तरह चला है। अफसोस की बात है कि कुछ लोग पौराणिक घटनाओं को आधुनिक खोज और आविष्कार बता रहे थे और दावा कर रहे थे कि यह सब भारत में सदियों पहले मौजूद था। इस संदर्भ में, इतिहासकार ए. रामनाथ (दी हिंदू, 15 जनवरी 2019) ने एकदम ठीक लिखा है कि भारत में विज्ञान के इतिहास को एक गंभीर विषय के रूप में देखा जाना चाहिए, न कि अटकलबाज़ी की तरह। लेख में रामनाथ ने इतिहासकार डेविड अरनॉल्ड के कथन को दोहराया है। अरनॉल्ड ने चेताया था कि भले ही प्राचीन काल के ज्ञानी-संतों के पास परमाणु सिद्धांत जैसे विचार रहे होंगे मगर उनका यह अंतर्बोध विश्वसनीय उपकरणों पर आधारित आधुनिक विज्ञान पद्धति से अलग है।

ऐसा लगता है कि अंतर्बोध की यह परंपरा प्राचीन समय में न सिर्फ भारत में बल्कि अन्य जगहों पर भी प्रचलित थी। किंतु आज आधुनिक विज्ञान या बेकनवादी विधि (फ्रांसिस बेकन द्वारा दी गई विधि) पर आधारित विज्ञान किया जाता है। आधुनिक विज्ञान करना यानी सवाल करें या कोई परिकल्पना बनाएं, सावधानी पूर्वक प्रयोग या अवलोकन करें, प्रयोग या अवलोकन के आधार पर परिणाम का विश्लेषण करें, तर्कपूर्ण निष्कर्ष पर पहुंचें, अन्य लोगों द्वारा प्रयोग दोहरा कर देखे जाएं और निष्कर्ष की जांच की जाए, और यदि अन्य लोग सिद्धांत की पुष्टि करते हैं तो सिद्धांत या परिकल्पना सही मानी जाए। ध्यान दें कि नई खोज, नए सिद्धांत आने पर पुराने सिद्धांत में बदलाव किए जा सकते हैं, उन्हें खारिज किया जा सकता है।

1490 के दशक में, वास्को डी गामा, जॉन कैबोट, फर्डिनेंड मैजीलेन और अन्य युरोपीय खोजकर्ताओं के ईस्ट इंडीज (यानी भारत) आने के साथ भारत में आधुनिक वैज्ञानिक पद्धति उभरना शुरु हुई। इनके पीछे-पीछे इंग्लैंड, फ्रांस और युरोप के कुछ अन्य हिस्सों के व्यापारी और खोजी आए। इनमें से कई व्यापारियों और पूंजीपतियों ने भारत और भारत के पर्यावरण, धन और स्वास्थ्य, धातुओं और खनिजों को खोजा और अपने औपनिवेशिक लाभ के लिए लूटना शुरू कर दिया। ऐसा करने के लिए उन्होंने वैज्ञानिक तरीकों को अपनाया। इसके अलावा, उनमें से कई जो समकालीन विज्ञान, प्रौद्योगिकी, कृषि और चिकित्सा विज्ञान का कामकाज करते थे, उन्होंने इस ज्ञान को यहां के मूल निवासियों में भी फैलाया।

यह औपनिवेशिक भारत में आधुनिक विज्ञान की शुरुआत थी। इस विषय पर एक लेख इंडियन जर्नल ऑफ हिस्ट्री ऑफ साइंस के दिसंबर 2018 अंक में प्रकाशित हुआ था (https://insa.nic.in)। इस अंक के संपादन में आई.आई.एस.सी. बैंगलुरु के भौतिक विज्ञानी प्रो. अर्नब रायचौधरी और जेएनयू के प्रो.दीपक कुमार अतिथि संपादक रहे। प्रो. रायचौधरी विज्ञान इतिहासकार भी हैं और पश्चिम देशों के बाहर पश्चिमी विज्ञान: भारतीय परिदृश्य में निजी विचार पर उनका पैना विश्लेषण आज और भी ज़्यादा प्रासंगिक है। उनका यह विश्लेषण जर्नल ऑफ सोशल स्टडीज़ ऑफ साइंस के अगस्त 1985 के अंक में प्रकाशित हुआ था। प्रो. दीपक कुमार जे.एन.यू. के जाने-माने इतिहासकार हैं। उन्होंने भारत में विज्ञान के इतिहास पर दो किताबें साइंस एंड दी राज (2006) और टेक्नॉलॉजी एंड दी राज (1995) लिखी हैं।

जर्नल के इस अंक का संपादकीय लेख डॉ. ए. के. बाग ने लिखा था। यह लेख विद्वतापूर्ण, अपने में संपूर्ण और शिक्षाप्रद है। डॉ. बाग भारत में प्राचीन और आधुनिक विज्ञान के इतिहासकार हैं। उन्होंने भारत-युरोप संपर्क और उपनिवेश-पूर्व और औपनिवेशिक भारत में आधुनिक विज्ञान की विशेषताओं का पता लगाया था। जर्नल के इस अंक में 30 अन्य लेख भी हैं जो इस बारे में बात करते हैं कि कैसे बंगाल पुनर्जागरण हुआ और ब्रिटिश भारत की पूर्व राजधानी कलकत्ता ने बंगाल (कलकत्ता/ढाका) को भारत में आधुनिक विज्ञान की प्रारंभिक राजधानी बनने में मदद की। वैसे तो विज्ञान से जुड़े अधिकतर लेख जे.सी. बोस, सी.वी. रमन, एस.एन. बोस, पी.सी. रे और मेघनाद साहा पर केंद्रित होते हैं। किंतु डॉ. राजिंदर सिंह ने इन तीन विभूतियों (सी.वी. रमन, एस.एन. बोस और एम.एन. साहा) के इतर प्रो. बी. बी. रे, डी. एम. बोस और एस .सी. मित्रा पर लेख लिखा है। डॉ. जॉन मैथ्यू द्वारा लिखित लेख: रोनाल्ड रॉस टू यू. एन. ब्राहृचारी: मेडिकल रिसर्च इन कोलोनियल इंडिया बताता है कि कैसे प्रो. ब्रहृचारी की दवा यूरिया स्टिबामाइन ने कालाज़ार नामक रोग से हज़ारों लोगों की जान बचाई थी। संयोग से, ब्रहृचारी ने भी 1936 में इंदौर में आयोजित 23वीं भारतीय विज्ञान कांग्रेस में अपने अध्यक्षीय भाषण में इस बारे में बात की थी। ऑर्गेनिक केमिस्ट्स ऑफ प्री-इंडिपेंडेंस इंडिया नामक लेख में प्रो. सलीमुज़्ज़मान सिद्दीकी का विशेष उल्लेख है। प्रो. सलीमुज़्ज़मान सिद्दीकी ने नीम के पेड़ से एज़ेडिरैक्टिन और सर्पगंधा से रेसरपाइन जैसी महत्वपूर्ण औषधियां पृथक की थीं। विभाजन के समय उन्हें पाकिस्तान आने का न्यौता मिला था। पहले उन्होंने पाकिस्तान आने से मना कर दिया था, लेकिन वर्ष 1951 में वे पाकिस्तान चले गए। वहां उन्होंने पाकिस्तान के सीएसआईआर और परमाणु ऊर्जा प्रयोगशालाएं शुरू करने में मदद की। साथ ही उन्होंने उत्कृष्ट कार्बनिक रसायन विज्ञान की शुरुआत भी की जो आज भी बढ़िया चल रहा है। इस तरह उन्हें एक नवोदित देश (पाकिस्तान) में विज्ञान की नींव रखने वाले की तरह याद जा सकता है।

तीन और लोगों के योगदान उल्लेखनीय हैं। उनमें से पहले हैं दो भारतीय पुलिस अधिकारी। सोढ़ी और कौर ने अपने लेख दी फॉरगॉटन पायोनियर्स ऑफ फिंगरप्रिंट साइंस: फालऑउट ऑफ कोलोनिएनिज़्म में दो भारतीय पुलिस अधिकारियों, अज़ीज़ुल हक और हेमचंद्र बोस के बारे में लिखा है। इन दोनों अधीनस्थ पुलिस कर्मियों ने कड़ी मेहनत और विश्लेषणात्मक पैटर्न विधि की मदद से फिंगरप्रिंटिंग को मानकीकृत किया था, लेकिन उनके काम का सारा श्रेय उनके बॉस पुलिस महानिरीक्षक एडवर्ड हेनरी ने ले लिया! अज़ीज़ुल हक ने 5 साल बाद अपने काम को राज्यपाल को फिर से प्रस्तुत किया। उन्हें 5,000 और बोस को 10,000 रुपए का मानदेय दिया गया।

दूसरा नाम है नैन सिंह रावत का। उन्होंने ताजिकिस्तान सीमा से लगे हिमालय से नीचे तक फैले पूरे हिमालयी पथ का सफर किया। इस सफर के दौरान उन्होंने सावधानीपूर्वक नोट्स लिए और उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में ऊपरी रास्ते का नक्शा तैयार करने में मदद की। बाद में इससे सर्वे ऑफ इंडिया को काफी मदद मिली।

और तीसरा नाम है कलकत्ता के राधानाथ शिकधर का है। उन्होंने गणना करके पता लगाया था कि चोटी XV 29,029 फीट ऊंची है। यह हिमालय पर्वतमाला की सबसे ऊंची चोटी है, और विश्व की भी। हालांकि भारतीय स्थलाकृतिक सर्वेक्षण के प्रधान अधिकारी के नाम पर बाद में इस चोटी का नाम माउंट एवरेस्ट रख दिया गया। डॉ. बाग ने अपने संपादकीय लेख में इन दो खोजों का उल्लेख किया है और बताया है कि कैसे भारत सरकार ने नैन सिंह रावत और राधानाथ शिकधर के सम्मान में 2004 में डाक टिकट जारी किया।

यहां हमने जर्नल के कुछ ही लेखों पर प्रकाश डाला है। जर्नल का पूरा अंक भारत में आधुनिक विज्ञान के जन्म और विकास पर केंद्रित लेखों का संग्रह है। सारे लेख सावधानी पूर्वक किए गए शोध पर आधारित छोटे-छोटे और आसानी से पढ़ने-समझने योग्य हैं। और ये लेख विज्ञान की आदर्श शिक्षण और शोध सामग्री बन सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)

 नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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विज्ञान का मिथकीकरण – प्रदीप

हाल ही में 106वीं भारतीय विज्ञान कांग्रेस का सालाना अधिवेशन जालंधर की लवली प्रोफेशनल युनिवर्सिटी में सम्पन्न हुआ। वैसे तो मुख्यधारा का मीडिया हमेशा से ही इसके कवरेज से बचता आया है, मगर विगत कुछ वर्षों से वेदोंपुराणों के प्रमाणहीन दावों को विज्ञान बताने से जुड़े विवादों के चलते यह सुर्खियों में रहा है। इस अधिवेशन में भी प्राचीन भारत के विज्ञान और टेक्नॉलॉजी की उपलब्धियों का इस तरह बखान किया गया कि वैज्ञानिक माहौल को बढ़ावा देने वाला यह विशाल आयोजन किसी धार्मिक जलसे जैसा ही रहा! विज्ञान कांग्रेस की हर साल एक थीम होती है। इस वर्ष के सम्मेलन की थीम थी फ्यूचर इंडिया: साइंस एंड टेक्नॉलॉजी। भविष्य में भारत के विकास का मार्ग विज्ञान और प्रौद्योगिकी किस प्रकार प्रशस्त करेंगे, इसकी चर्चा की बजाय प्राचीन भारत से जुड़े निरर्थक, प्रमाणहीन और हास्यास्पद छद्मवैज्ञानिक दावों ने ज़्यादा सुर्खियां बटोरी।

आंध्र विश्वविद्यालय के कुलपति और अकार्बनिक रसायन विज्ञान के प्रोफेसर जी. नागेश्वर राव ने कौरवों की पैदाइश को टेस्ट ट्यूब बेबी और स्टेम सेल रिसर्च टेक्नॉलॉजी से जोड़ा तथा श्रीराम के लक्ष्य भेदन के बाद तुरीण में वापस लौटने वाले बाणों और रावण के 24 प्रकार के विमानों की बात कहकर सभी को चौंका दिया। तमिलनाडु के वर्ल्ड कम्यूनिटी सेंटर से जुड़े शोधकर्ता कन्नन जोगथला कृष्णन ने तो न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण सिद्धान्त और आइंस्टाइन के सापेक्षता सिद्धान्त को ही खारिज करते हुए कहा कि उनके शोध में भौतिक विज्ञान के सभी सवालों के जवाब हैं।  वे यहीं पर नहीं रुके। आगे उन्होंने कहा कि भविष्य में जब वे गुरुत्वाकर्षण के बारे में लोगों के विचार बदल देंगे, तब गुरुत्वीय तरंगों को नरेंद्र मोदी तरंगके नाम से तथा गुरुत्वाकर्षण प्रभाव को हर्षवर्धन प्रभावके नाम से जाना जाएगा।

भूगर्भ विज्ञान की प्रोफेसर आशु खोसला के द्वारा इसी भारतीय विज्ञान कांग्रेस में प्रस्तुत पर्चे में कहा गया है कि भगवान ब्राहृा इस ब्राहृांड के सबसे महान वैज्ञानिक थे। वे डायनासौर के बारे में जानते थे और वेदों में इसका उल्लेख भी किया है।

इतने प्रतिष्ठित आयोजन में अवैज्ञानिक और अतार्किक दावों का ये चलन 2015 से पहले शायद ही देखा गया हो।

हालांकि प्राचीन भारतीय विज्ञान की बखिया उधेड़ने का यह सिलसिला कोई नया नहीं है। इससे पहले आम नेतामंत्री से लेकर मुख्यमंत्री, और प्रधानमंत्री तक भी मिथक, अंधविश्वास और विज्ञान का घालमेल कर चुके हैं। उनके दावों के मुताबिक यदि प्राचीन भारतीय ग्रंथों की भलीभांति व्याख्या की जाए, तो आधुनिक विज्ञान के सभी आविष्कार उसमें पाए जा सकते हैं। जैसे राडार प्रणाली, मिसाइल तकनीक, ब्लैक होल, सापेक्षता सिद्धांत एवं क्वांटम सिद्धांत, टेस्ट ट्यूब बेबी, अंग प्रत्यारोपण, विमानों की भरमार, संजय द्वारा दूरस्थ स्थान पर घटित घटनाओं को देखने की तकनीक, समय विस्तारण सिद्धांत, अनिश्चितता का सिद्धांत, संजीवनी औषधि, कई सिर वाले लोग, क्लोनिंग, इंटरनेट, भांतिभांति के यंत्रोंपकरण वगैरह। वेदों, पुराणों में विज्ञान के जिस अक्षय भंडार को स्वयं आदि शंकराचार्य, यास्क से सायण तक के वेदज्ञ, आर्यभट, वराह मिहिर, ब्राहृगुप्त और भास्कराचार्य जैसे गणितज्ञज्योतिषी नहीं खोज पाए, उसको हमारे वैज्ञानिकों और नेताओं ने ढूंढ निकाला!

भारत विश्व का एकमात्र ऐसा देश है, जिसके संविधान द्वारा वैज्ञानिक दृष्टिकोण के लिए प्रतिबद्धता को प्रत्येक नागरिक का मौलिक कर्तव्य बताया गया है। अत: यह हमारा दायित्व है कि हम अपने समाज में वैज्ञानिक दृष्टिकोण को बढ़ावा दें। वैज्ञानिक दृष्टिकोण के महत्व को जवाहरलाल नेहरु ने 1946 में अपनी पुस्तक डिस्कवरी ऑफ इंडिया में विचारार्थ प्रस्तुत किया था। उन्होंने इसे लोकहितकारी और सत्य को खोजने का मार्ग बताया था।

पिछले सत्तर वर्षों में हमारे देश में दर्जनों उच्च कोटि के वैज्ञानिक संस्थान अस्तित्व में आए हैं और उन्होंने हमारे देश के समग्र विकास में अभूतपूर्व योगदान दिया है। हमारे मन में अत्याधुनिक तकनीकी ज्ञान तो रचबस गया है, मगर हमने वैज्ञानिक दृष्टिकोण को खिड़की से बाहर फेंक दिया है। वैश्वीकरण के प्रबल समर्थक और उससे सर्वाधिक लाभ अर्जित करने वाले लोग ही भारतीय संस्कृति की रक्षा के नाम पर आज आक्रामक तरीके से यह विचार सामने लाने की खूब कोशिश कर रहे हैं कि प्राचीन भारत आधुनिक काल से अधिक वैज्ञानिक और प्रौद्योगिकी सम्पन्न था। पौराणिक कथाओं को विज्ञान बताया जा रहा है।

आज यह दावा किया जाता है कि हमारे वेदोंपुराणों में परमाणु बम बनाने की विधि दी हुई है। विज्ञान समानुपाती एवं समतुल्य होता है। अगर हम यह मान भी लें कि वैदिक काल में परमाणु बम बनाने का सिद्धांत एवं अन्य उच्च प्रौद्योगिकियां उपलब्ध थीं, तो तत्कालीन वैदिक सभ्यता अन्य सामान्य वैज्ञानिक सिद्धांतों एवं आविष्कारों को खोजने में कैसे पीछे रह गई? नाभिकीय सिद्धांत को खोजने की तुलना में विद्युत या चुंबकीय शक्तियों को पहचानना और उन्हें दैनिक प्रयोग में लाना अधिक सरल है। मगर वेदों में इस ज्ञान को प्रयोग करने का कोई विवरण उपलब्ध नहीं होता है। यहां तक कि इंद्र के स्वर्ग में भी बिजली नहीं थी, जबकि आज गांवगांव में बिजली उपलब्ध है। तकनीक की ऐसी रिक्तियां विरोधाभास उत्पन्न करती हैं। निश्चित रूप से इससे यह तर्क मजबूत होता है कि वैदिक सभ्यता को नाभिकीय बम बनाने का सिद्धांत ज्ञात नहीं था। मगर इससे हमें वैदिक ग्रंथों के रचनाकारों की अद्भुत कल्पनाशक्ति के बारे में पता चलता है। निसंदेह कल्पना एक बेहद शक्तिशाली एवं रचनात्मक शक्ति है।

आज के इस आधुनिक युग में जिस प्रकार से कोई खुद को अंधविश्वासी, नस्लवादी या स्त्री शिक्षा विरोधी कहलाना पसंद नहीं करता, उसी प्रकार से खुद को अवैज्ञानिक कहलाना भी पसंद नहीं करता है। वह अपनी अतार्किक बात को वैज्ञानिक सिद्ध करने के लिए मूलभूत सच्चाई की नकल उतारने वाले छलकपट युक्त छद्म विज्ञान का सहारा लेता है। आज प्राचीन भारत की वैज्ञानिक उपलब्धियों से जुड़े जो मनगढ़ंत और हवाई दावे किए जा रहे हैं वे छद्मविज्ञान के ही उदाहरण हैं।

इसमें कोई संदेह नहीं है कि प्राचीन भारत ने आर्यभट, भास्कराचार्य, ब्राहृगुप्त, सुश्रुत और चरक जैसे उत्कृष्ट वैज्ञानिक दुनिया को दिए। परंतु यह मानना कि हज़ारों साल पहले भी भारत को विज्ञान एवं तकनीकी के क्षेत्र में महारथ हासिल थी, स्वयं को महिमामंडित करने का हास्यास्पद प्रयास है। दरअसल ऐसे पोगापंथियों के चलते हमारे प्राचीन भारत के वास्तविक योगदान भी ओझल हो रहे हैं क्योंकि आधुनिकता में प्राचीन भारतीय विज्ञान का विरोध तो होता ही नहीं है, विरोध तो रूढ़ियों का होता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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एक टिकाऊ भविष्य के लिए आहार में परिवर्तन – डॉ. डी. बालसुब्रामण्यन

भारतीय लोग रोज़ाना लगभग 52-55 ग्राम प्रोटीन खाते हैं। यह उन्हें अधिकांशत: फलियों, मछली और पोल्ट्री से मिलता है। कुछ लोग, खास तौर से विकसित देशों में, ज़रूरत से कहीं ज़्यादा प्रोटीन का सेवन करते हैं। वॉशिंगटन स्थित संस्था वर्ल्ड रिसोर्स इंस्टीट्यूट ने हाल ही में सुझाया है कि लोगों को बीफ (गौमांस) खाना बंद नहीं तो कम अवश्य कर देना चाहिए। यह सुझाव हमारे देश के कई शाकाहारियों का दिल खुश कर देगा और गौरक्षकों की बांछें खिल जाएंगी। किंतु वर्ल्ड रिसोर्स इंस्टीट्यूट के इस सुझाव के पीछे कारण आस्थाआधारित न होकर कहीं अधिक गहरे हैं। आने वाले वर्षों में बढ़ती आबादी का पेट भरने के लिए एक टिकाऊ भविष्य सुनिश्चित करने के लिए अपनाए जाने वाले तौरतरीकों की चिंता इसके मूल में है। वर्ल्ड रिसोर्स इंस्टीट्यू ने इस सम्बंध एक निहायत पठनीय व शोधपरक पुस्तक प्रकाशित की है: शिÏफ्टग डाएट्स फॉर ए सस्टेनेबल फ्यूचर (एक टिकाऊ भविष्य के लिए आहार में परिवर्तन, इसे नेट से मुफ्त में डाउनलोड किया जा सकता है)।

संस्था ने इसमें तीन परस्पर सम्बंधित तर्क प्रस्तुत किए हैं। पहला तर्क है कि कुछ लोग अपनी दैनिक ज़रूरत से कहीं अधिक प्रोटीन का सेवन करते हैं। यह बात दुनिया के सारे इलाकों के लिए सही है, और विकसित देशों पर सबसे ज़्यादा लागू होती है। एक औसत अमरीकी, कनाडियन, युरोपियन या रूसी व्यक्ति रोज़ाना 75-90 ग्राम प्रोटीन खा जाता है इसमें से 30 ग्राम वनस्पतियों से और 50 ग्राम जंतुओं से प्राप्त होता है। 62 कि.ग्रा. वज़न वाले एक औसत वयस्क को 50 ग्राम प्रतिदिन से अधिक की ज़रूरत नहीं होती।

तुलना के लिए देखें, तो भारतीय व अन्य दक्षिण एशियाई लोग लगभग 52-55 ग्राम प्रोटीन का भक्षण करते हैं (जो अधिकांशत: फलियों, मछलियों और पोल्ट्री से प्राप्त होता है)। यही हाल उपसहारा अफ्रीका के निवासियों का है (हालांकि वे हमसे थोड़ा ज़्यादा मांस खाते हैं)। मगर समस्या यह है कि आजकल ब्राज़ील और चीन जैसी उभरती अर्थ व्यवस्थाओं के ज़्यादा लोग पश्चिम की नकल कर रहे हैं और अपने भोजन में ज़्यादा गौमांस को शामिल करने लगे हैं। वर्ल्ड रिसोर्स इंस्टीट्यूट का अनुमान है कि वर्ष 2050 तक दुनिया में गौमांस की मांग 95 प्रतिशत तक बढ़ जाएगी। दूसरे शब्दों में यह मांग लगभग दुगनी हो जाएगी। यह इसके बावजूद है कि यूएस में लाल मांसखाने को लेकर स्वास्थ्य सम्बंधी चिंताओं के चलते गौमांस भक्षण में गिरावट आई है।

चलतेचलते यह स्पष्ट करना ज़रूरी है कि जब बीफ की बात होती है तो उसमें गाय के अलावा सांड, भैंस, घोड़े, भेड़ें और बकरियां शामिल मानी जाती हैं। फिलहाल विश्व में 1.3 अरब कैटल हैं (इनमें से 30 करोड़ भारत में पाले जाते हैं)। उपरोक्त अनुमान का मतलब यह है कि आज से 30 साल बाद हमें 2.6 अरब कैटल की ज़रूरत होगी।

वर्ल्ड रिसोर्स इंस्टीट्यूट का दूसरा तर्क है कि कैटल पृथ्वी की जलवायु को प्रभावित करते हैं। ये ग्लोबल वार्मिंग यानी धरती के औसत तापमान में वृद्धि में योगदान देते हैं। इसके अलावा, कैटल के लिए काफी सारे चारागाहों की ज़रूरत होती है (एक अनुमान के मुताबिक अंटार्कटिक को छोड़कर पृथ्वी के कुल भूभाग का 25 प्रतिशत चारागाह के लिए लगेगा)। यह भी अनुमान लगाया गया है कि वि·ा के पानी में से एकतिहाई पानी तो पालतू पशु उत्पादन में खर्च होता है। इस सबके अलावा, चिंता का एक मुद्दा यह भी है कि गाएं, भैंसें, भेड़बकरी व अन्य खुरवाले जानवर खूब डकारें लेते हैं। मात्र उनकी डकार के साथ जो ग्रीनहाउस गैसें निकलती है, वे ग्लोबल वार्मिंग में 60 प्रतिशत का योगदान देती हैं।

इसके विपरीत गेहूं, धान, मक्का, दालें, कंदमूल जैसी फसलों के लिए चारागाह की कोई ज़रूरत नहीं होती और इनकी पानी की मांग भी काफी कम होती है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि इनसे ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन नहीं होता या बहुत कम होता है। हमने वचन दिया है कि अगले बीस वर्षों में धरती के तापमान में 1.5 डिग्री सेल्सियस से अधिक वृद्धि नहीं होने देंगे। किंतु कैटल की संख्या में उपरोक्त अनुमानित वृद्धि के चलते स्थिति और विकट हो जाएगी।

अतिभक्षण से बचें

इस नज़ारे के मद्देनज़र, वर्ल्ड रिसोर्स इंस्टीट्यूट का सुझाव है कि हम, यानी विकसित व तेज़ी से उभरती अर्थ व्यवस्थाओं के सम्पन्न लोग, आने वाले वर्षों में अपने भोजन में कई तरह से परिवर्तन लाएं। पहला परिवर्तन होगा अतिभक्षण से बचें। दूसरे शब्दों में ज़रूरत से ज़्यादा कैलोरी का उपभोग न करें। हमें रोज़ाना 2500 कैलोरी की ज़रूरत नहीं है, 2000 पर्याप्त है। आज लगभग 20 प्रतिशत दुनिया ज़रूरत से ज़्यादा खाती है, जिसकी वजह से मोटापा बढ़ रहा है। इसके स्वास्थ्य सम्बंधी परिणामों से सब वाकिफ हैं। कैलोरी खपत को यथेष्ट स्तर तक कम करने से स्वास्थ्य सम्बंधी लाभ तो मिलेंगे ही, इससे ज़मीन व पानी की बचत भी होगी।

भोजन में दूसरा परिवर्तन यह सुझाया गया है कि प्रोटीन के उपभोग को न्यूनतम अनुशंसित स्तर पर लाया जाए। इसके लिए खास तौर से जंतुआधारित भोजन में कटौती करना होगा। जब प्रतिदिन 55 ग्राम से अधिक प्रोटीन की ज़रूरत नहीं है, तो 75-90 ग्राम क्यों खाएं? और इसकी पूर्ति भी जंतुआधारित प्रोटीन की जगह वनस्पति प्रोटीन से की जा सकती है। सुझाव है कि पारम्परिक भूमध्यसागरीय भोजन (कम मात्रा में मछली और पोल्ट्री मांस) तथा शाकाहारी भोजन (दालफली आधारित प्रोटीन) को तरजीह दी जाए।

और भोजन में तीसरा परिवर्तन ज़्यादा विशिष्ट है: खास तौर से बीफ का उपभोग कम करें।बीफ (सामान्य रूप से कैटल) में कटौती करने से भोजन सम्बंधी और पर्यावरणसम्बंधी, दोनों तरह के लाभ मिलेंगे। पर्यावरणीय लाभ तो स्पष्ट हैं: इससे कृषि के लिए भूमि मिलेगी और ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन कम होगा। बीफ की बजाय हम पोर्क (सूअर का मांस), पोल्ट्री, मछली और दालों का उपभोग बढ़ा सकते हैं।

शाकाहारी बनें या वेगन?

हालांकि वर्ल्ड रिसोर्स इंस्टीट्यूट विशिष्ट रूप से इसकी सलाह नहीं देता किंतु ऐसा करने से मदद मिल सकती है। ज़ाहिर है, यह बहुत बड़ी मांग है और इसके लिए सामाजिक व सांस्कृतिक परिवर्तन की दरकार होगी। मनुष्य सहस्त्राब्दियों से मांस खाते आए हैं। लोगों को मांस भक्षण छोड़ने को राज़ी करना बहुत मुश्किल होगा। शायद बीफ को छोड़कर पोर्क, मछली, मुर्गे व अंडे की ओर जाना सांस्कृतिक रूप से ज़्यादा स्वीकार्य शुरुआत होगी। स्वास्थ्य के प्रति जागरूक और जलवायुस्नेही लोग लचीलाहारीहोने की दिशा में आगे बढ़े हैं। लचीलाहारीशब्द एक लेखक ने दी इकॉनॉमिस्ट के एक लेख में उपयोग किया था। हिंदी में इसे मौकाहारीभी कह सकते हैं। दरअसल भारतीय सेना में एक शब्द मौकाटेरियनका इस्तेमाल उन लोगों के लिए किया जाता है जो वैसे तो शाकाहारी होते हैं किंतु मौका मिलने पर मांस पर हाथ साफ कर लेते हैं। इन पंक्तियों का लेखक भी मौकाटेरियन है।

शाकाहार की ओर परिवर्तन भारतीय और यूनानी लोगों ने करीब 1500-500 ईसा पूर्व के बीच शुरू किया था। इसका सम्बंध जीवजंतुओं के प्रति अहिंसा के विचार से था और इसे धर्म और दर्शन द्वारा बढ़ावा दिया गया था। तमिल अध्येताकवि तिरुवल्लुवर, मौर्य सम्राट चंद्रगुप्त व अशोक,और यूनानी संत पायथागोरस शाकाहारी थे

शाकाहार की ओर वर्तमान रुझान एक कदम आगे गया है। इसे वेगन आहार कहते हैं और इसमें दूध, चीज़, दही जैसे डेयरी उत्पादों के अलावा जंतुओं से प्राप्त होने वाले किसी भी पदार्थ की मुमानियत होती है। फिलहाल करीब 30 करोड़ भारतीय शाकाहारी हैं जिनमें से शायद मात्र 20 लाख लोग वेगन होंगे, हालांकि यह आंकड़ा पक्का नहीं है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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निशस्त्रीकरण आंदोलन की बढ़ती ज़रूरत – भारत डोगरा

निशस्त्रीकरण को अमन-शांति के लिए ही नहीं अपितु समग्र रूप से बेहतर विश्व बनाने के लिए भी ज़रूरी समझा गया है। किंतु हथियार निरंतर अधिक विध्वंसक रूप ले रहे हैं। महाविनाशक हथियार इतनी संख्या में मौजूद हैं कि मनुष्यों सहित अधिकांश जीवों का जीवन समाप्त कर सकते हैं।

इन महाविनाशक हथियारों को नियंत्रित करना सबसे बड़ी प्राथमिकता है, पर साथ में यह ध्यान में रखना ज़रूरी है कि अपेक्षाकृत छोटे व हल्के हथियारों से भी कोई कम क्षति नहीं होती। राष्ट्र संघ के पूर्व महानिदेशक कोफी अन्नान ने लिखा है “छोटे हथियारों से होने वाली मौतें बाकी सब तरह के हथियारों से होने वाली मौतों से ज़्यादा हैं। किसी एक वर्ष में इन छोटे हथियारों से मरने वालों की संख्या हिरोशिमा व नागासाकी पर गिराए गए परमाणु बमों से मरने वाले लोगों से भी अधिक है। जीवन-क्षति के आधार पर ये छोटे हथियार ही महाविनाशक हैं।”छोटे हथियारों के व्यापार को नियंत्रित करने के लिए अन्तर्राष्ट्रीय समझौता हो चुका है। बारूदी सुरंगों व क्लस्टर बमों को प्रतिबंधित करने के प्रयास भी आगे बढ़े हैं। किंतु कई देशों के इन समझौतों से बाहर रहने या अन्य कारणों से इन प्रयासों को सीमित सफलता ही मिल सकी है।

दूसरी ओर परमाणु हथियारों को नियंत्रित करने के प्रयास पहले से और पीछे हट रहे हैं। अमेरिका और रूस के बीच पहले से मौजूद महत्वपूर्ण समझौतों का नवीनीकरण नहीं हो रहा है या उनके उल्लंघन की स्थितियां उत्पन्न हो रही हैं। अमेरिका ने एकतरफा निर्णय द्वारा छ: देशों के ईरान से हुए परमाणु हथियारों का प्रसार रोकने के समझौते को रद्द कर दिया है, जबकि इस समझौते के अन्तर्गत संतोषजनक प्रगति हो रही थी।

रोबोट या कृत्रिम बुद्धि आधारित हथियारों को विकसित करने पर रोक लगाने के लिए रोबोट विज्ञान व उद्योग के अनेक विशेषज्ञों ने एक अपील जारी है पर इसका अधिक असर नहीं हुआ है। ऐसे हथियार विकसित करने पर अमेरिका, रूस व चीन जैसी बड़ी ताकतों ने निवेश काफी बढ़ा दिया है।

रासायनिक व जैविक हथियारों पर प्रतिबंध तो बहुत पहले अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर लग चुका है, पर फिर भी चोरी-छिपे ऐसे हथियार तैयार रखने या यहां तक कि उनका वास्तविक उपयोग होने के आरोप समय-समय पर लगते रहे हैं।

अनेक देशों के बीच बढ़ते तनाव, आंतकवाद के प्रसार तथा विभिन्न स्तरों पर हिंसक प्रवृत्तियों के बढ़ने के कारण अधिक विनाशकारी हथियारों की अधिक व्यापक उपलब्धि ने विश्व में बहुत खतरनाक स्थितियां उत्पन्न कर दी हैं।

दूसरी ओर, हथियारों पर अधिक खर्च के कारण लोगों की बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करने के संसाधन घट रहे हैं। उदाहरण के लिए, 1 टैंक की कीमत इतनी होती है कि उससे 40 लाख बच्चों के टीकाकरण का खर्च पूरा किया जा सकता है। मात्र 1 मिराज विमान की कीमत से 30 लाख बच्चों की एक वर्ष की प्राथमिक स्कूली शिक्षा की व्यवस्था की जा सकती है और एक आधुनिक पनडुब्बी व उससे जुड़े उपकरणों की कीमत से 6 करोड़ लोगों को एक वर्ष तक साफ पेयजल उपलब्ध कराया जा सकता है।

निशस्त्रीकरण के प्रयास सदा ही ज़रूरी रहे हैं पर आज इनकी ज़रूरत और भी बढ़ गई है। विभिन्न स्तरों पर निशस्त्रीकरण की मांग को पूरे विश्व में शक्तिशाली व व्यापक जन-अभियान का रूप देना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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माहवारी के समय इतनी पाबंदियां क्यों? – सीमा

हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने सबरीमाला मन्दिर में हर उम्र की महिला के अंदर जाने को हरी झंडी देकर फिर से माहवारी से जुड़ी मान्यताओं पर बहस को गरमा दिया है। अलग-अलग लोगों के तरह-तरह के बयान मीडिया की सुर्खियों में छाए रहे। कुछ लोगों ने महसूस किया कि यह फैसला बहुत पहले ही आ जाना चाहिए था तो कुछ अन्य लोगों का मानना था कि धर्म से जुड़े मुद्दों पर सुप्रीम कोर्ट को दखलंदाज़ी करने का कोई हक नहीं है। खैर, सुप्रीम कोर्ट के अधिकार क्षेत्र पर चर्चा और कभी करेंगे। अभी इस लेख में हम बात करेंगे माहवारी और उससे जुड़ी सामाजिक मान्यताओं पर।

माहवारी महिलाओं के शरीर के अन्दर होने वाली एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। सवाल है कि फिर इसके साथ यह छुआछूत कैसे जुड़ गई? औरतें ज़िंदगी के 35-40 साल इस सोच/कुंठा के साथ गुज़ार देती हैं कि माहवारी का खून गंदा है, दूषित करने वाला है। प्राय: इस पर कोई सवाल भी नहीं उठाया जाता। जबकि हकीकत यह है कि माहवारी का खून न तो गंदा है और न ही दूषित करने वाला। इस सच्चाई का एहसास हम तब ही कर पाएंगे जब हम अपने शरीर को, माहवारी की प्रक्रिया को समझने की कोशिश करेंगे।

माहवारी वह प्रक्रिया है जिसमें महिला का शरीर एक बच्चे के ठहरने की तैयारी करता है। जब लड़की किशोरावस्था में कदम रखती है (आम तौर पर 9 से 14 वर्ष के बीच), तब माहवारी चक्र की शुरुआत होती है। एक बार माहवारी शुरू होने के बाद लगभग 45-50 वर्ष की उम्र तक महिलाओं को हर माह माहवारी आती है, सिर्फ उस समय को छोड़कर जब वे गर्भवती होती हैं।

एक महिला के शरीर में प्रजनन के लिए मुख्य अंग दो अंडाशय होते हैं। अंडाशय पेट के निचले क्षेत्र में यानी कूल्हे वाले हिस्से में दोनों ओर एक-एक होता है। प्रत्येक अंडाशय में लाखों अंड कोशिकाएं होती हैं। इन कोशिकाओं में अंडाणु बनाने की क्षमता होती है। मज़ेदार बात यह है कि ये सारी कोशिकाएं जन्म के समय से ही महिला के शरीर में मौजूद होती हैं। मगर ये अपरिपक्व अवस्था में होती हैं। लगभग 9 से 14 वर्ष की उम्र तक ये अपरिपक्व अवस्था में ही बनी रहती हैं। इनके परिपक्व होने की शुरुआत अलग-अलग महिला में अलग-अलग उम्र में होती है। दोनों अंडाशयों के पास एक-एक नली होती है जिसे अंडवाहिनी कहते हैं। अंडाशय में से हर माह एक अंडाणु निकलता है और इस नली के मुंह में गिर जाता है। इस नली के फैलने-सिकुड़ने से ही अंडाणु आगे गर्भाशय की ओर बढ़ता है। गर्भाशय मुट्ठी के बराबर एक तिकोनी, चपटी थैली होती है।

अंडाशय में परिपक्व होने के साथ ही अंडाणु के आसपास गुब्बारे की तरह की थैली बनने लगती है जिसे पुटिका कहते हैं। उसी समय गर्भाशय की अंदरूनी परत मोटी होने लगती है। इसमें ढेर सारी छोटी-छोटी खून की नलियां बनने लगती हैं ताकि यदि बच्चा ठहरे तो उस तक खून पहुंच सके। अंडाशय में अंडाणु के आसपास बढ़ रही पुटिका इतनी बड़ी हो जाती है कि वह फूट जाती है। अंडाणु अंडाशय से बाहर निकल आता है। अंडाणु किसी एक अंडवाहिनी में प्रवेश करता है और गर्भाशय की तरफ बढ़ता है।

मान लीजिए उस समय महिला और पुरुष के बीच संभोग होता है और पुरुष का वीर्य योनि में जाता है। वीर्य में लाखों की तादाद में शुक्राणु होते हैं। इनमें से कुछ योनि से गर्भाशय और वहां से अंडवाहिनियों में पहुंचते हैं जहां उनकी मुलाकात अंडाणु से हो सकती है। अगर शुक्राणु और अंडाणु में निषेचन हो गया तो निषेचित अंडाणु में कोशिका विभाजन शुरू हो जाता है और वह गर्भाशय की ओर बढ़ता रहता है।

निषेचन नहीं होने पर शरीर में शरीर में कुछ हार्मोन की मात्रा घट जाती है और गर्भाशय सिकुड़ने लगता है। गर्भाशय में बन रहा अंदरूनी मोटा अस्तर झड़ जाता है और अपने आप योनि से बाहर निकल आता है। इसी को माहवारी कहते हैं। पूरा अस्तर एक साथ नहीं निकल आता बल्कि दो से सात दिनों तक धीरे-धीरे बूंद-बूंद टपकता रहता है। माहवारी के स्राव में ज़्यादातर खून, ऊतक के छोटे टुकड़े व रक्त वाहिनियां पाई जाती हैं। यह खून न तो गंदा है, न ही रुका हुआ होता है।

माहवारी का स्राव बंद होने में कुछ दिन लग जाते हैं। उसी दौरान अंडाशय में कुछ और अंडाणु बढ़ने लगते हैं और झड़ती हुई परत के नीचे एक नई परत बनना शुरू हो जाती है। जल्द ही यह नया बढ़ता हुआ अंडाणु भी अंडाशय में से बाहर निकल आएगा। इस तरह यह चक्र दोबारा दोहराया जाएगा।

तो हमने देखा कि माहवारी स्त्री के शरीर में प्रजनन से जुड़ी एक सामान्य क्रिया है। मासिक स्राव के साथ जो खून रिसता है वह उन रक्त नलिकाओं का है जो गर्भ ठहरने पर बच्चे को ऑक्सीजन, पोषण तथा अन्य ज़रूरी तत्व मुहैया करवाने के लिए बनी थीं। एक मायने में यह नए जीवन को सहारा देने और संभव बनाने का साधन है।

अब हम बात करेंगे माहवारी से जुड़ी मान्यताओं पर। हमारे समाज में माहवारी के बारे में तरह-तरह की भ्रान्तियां फैली हुई हैं। मसलन, माहवारी के दौरान

– पेड़-पौधों को नहीं छूना चाहिए

– पूजा या नमाज़ नहीं करनी चाहिए

– देवी-देवताओं को नहीं छूना चाहिए

– धार्मिक स्थल पर नहीं जाना चाहिए

– रसोई में नहीं जाना चाहिए

– खाने की चीज़ें, खास तौर से पापड़-अचार को नहीं छूना चाहिए

– पुरुषों को देखना या छूना नहीं चाहिए

– अलग बिस्तर पर सोना चाहिए वगैरह, वगैरह…

आखिर ऐसा क्या होता होगा कि माहवारी के दौरान महिला कुछ भी करेगी तो गड़बड़ ही होगा?

ये मान्यताएं हम सब के मन में इस तरह से पैठ बनाए हुए हैं कि हम इन पर सवाल करने से भी कतराते हैं और उनका जस का तस पालन करते रहते हैं। कुछ लोग इन मान्यताओं को धर्म और पितृसत्ता से जोड़कर देखते हैं तो कुछ इनका वैज्ञानिक कारण तलाशते हैं, जैसे हार्मोन्स का प्रभाव, शरीर का विकास आदि। इन परस्पर विरोधी विचारधाराओं की जांच-पड़ताल करके देखने की ज़रूरत है।

महिलाओं में माहवारी के आने को संतान पैदा करने की क्षमता से भी जोड़कर देखा जाता है। इसलिए माहवारी का आना सिर्फ एक महिला का निजी मुद्दा न रहकर एक पारिवारिक और सामाजिक मुद्दा भी बन जाता है। अफसोस की बात यह है कि परिवार और समाज की चिंताएं सिर्फ माहवारी से जुड़ी पाबंदियों तक ही सीमित हैं। यह विचार तक नहीं आता कि उस समय एक महिला को जिस तरह के आराम, खानपान और साफ-सफाई की ज़रूरत होती है वह उसे मिल पा रही है या नहीं। ज़रा सोचिए हर माह एक रजस्वला स्त्री के शरीर से लगभग 30-40 मि.ली. खून बह जाता है। इसकी क्षतिपूर्ति के बारे में सोचने की बजाय सिर्फ यह चिंता की जाती है कि वह खून गंदा है और उस स्त्री पर तमाम पाबंदियां लग जाती हैं।

आज भी माहवारी के विषय में खुलकर चर्चा नहीं की जाती है, न तो घर में और न ही स्कूल में। टीवी पर सेनेटरी नैपकिन के विज्ञापनों से लड़कियों को माहवारी के समय इस्तेमाल किए जा सकने वाले तरह-तरह के नैपकिन के बारे में जानकारी ज़रूर मिल जाती है, पर माहवारी क्यों होती है और उससे जुड़े तमाम सवालों के जवाबों को जानने का सुलभ ज़रिया उनके पास नहीं होता।

ज़्यादातर स्कूलों में, खासकर गांवों और कस्बों में, अब भी शौचालयों का अभाव है, और अगर होते भी हैं तो टूटे-फूटे और गंदी हालत में, पानी भी नदारद ही होता है। अगर स्कूल में अचानक से किसी लड़की को माहवारी आ जाए तो उन्हें देने के लिए सेनेटरी नेपकिन भी उपलब्ध नहीं होते हैं। इस वजह से लड़कियों को उन दिनों में स्कूल की छुट्टी करनी पड़ती है। सिर्फ लड़कियों को ही नहीं कामकाजी महिलाओं को भी इन परेशानियों से दो-चार होना पड़ता है।

महिलाएं आज भी बेझिझक होकर किसी दुकान से सेनेटरी नेपकिन नहीं खरीद पातीं। वे या तो दुकान खाली होने का इन्तज़ार करती हैं या फिर दुकान में किसी महिला के होने का। अगर वे दबी ज़ुबान में मांग भी लेती हैं तो नेपकिन को काली पन्नी या अखबार में लपेटकर दिया जाता है जैसे खुल्लम-खुल्ला नैपकिन खरीदना कोई शर्म की बात हो। बहरहाल, सेनेटरी नेपकिन आज भी सब की पहुंच में नहीं हैं और इस कारण से अधिकांश महिलाओं और लड़कियों को कपड़े का ही इस्तेमाल करना होता है। मज़दूरी करने वाली महिलाओं को आसानी से साफ कपड़ा भी मयस्सर नहीं होता। पीने के लिए तो पानी पर्याप्त मिलता नहीं, इन कपड़ों को धोने के लिए कहां से मिल पाएगा? जैसे-तैसे कम पानी में ही धोकर गुज़ारा करना होता है। और फिर औरत माहवारी से है यह सबसे छिपाकर भी रखना होता है इसलिए इन कपड़ों को खुले में न सुखाकर अंधेरी जगह में सुखाना पड़ता है। इस वजह से उन कपड़ों से तरह-तरह के संक्रमण का खतरा लगातार बना रहता है। सामाजिक मर्यादा कायम रखने का दबाव इतना होता है कि यौन संक्रमण के बारे में किसी को बताना या इलाज करवाना भी आसान नहीं होता।

तो क्या इन मान्यताओं को बनाए रखने के लिए –

– किसी महिला के स्वास्थ्य से खिलवाड़ करना सही है?

– उस पर तरह-तरह की पाबंदियां लगाना जायज़ है?

– उसके साथ अछूतों जैसा व्यवहार करना ठीक है?

कदापि नहीं। ऐसे परिवेश में जहां शारीरिक विकास, माहवारी और प्रजनन पर चर्चा करना गंदा समझा जाता है, एक ऐसा माहौल बनाना और भी ज़रूरी हो जाता है जहां इन विषयों पर बातचीत हो सके। हमें इन मान्यताओं को जांचने-परखने और इन पर सवाल उठाने की ज़रूरत है। और यह ज़िम्मेदारी सिर्फ महिलाओं की नहीं बल्कि समाज के हर तबके की है।

2005 में एकलव्य द्वारा आयोजित एक शिक्षक प्रशिक्षण शिविर में माहवारी से जुड़ी मान्यताओं की जांच-पड़ताल की गई थी। उसी के कुछ अनुभव यहां प्रस्तुत हैं। सबसे पहले माहवारी से जुड़ी उन मान्यताओं को पहचाना गया जिनकी जांच-पड़ताल आसानी से हो सकती है। पूजा-अर्चना वगैरह आस्था से जुड़े सवाल हैं, और ये ऐसी परिकल्पनाएं प्रस्तुत नहीं करते कि आप उनकी वैज्ञानिक जांच कर सकें। पर पापड़ व अचार का खराब हो जाना या पेड़-पौधों का सूख जाना जैसी मान्यताओं को तो प्रयोग करके परखा जा सकता है।

तो शिविर में निम्नलिखित मान्यताओं की जांच की गई:

·         क्या माहवारी के दौरान महिलाओं द्वारा सींचे जाने पर पौधे (खासकर तुलसी और गुलाब) सूख जाते हैं?

·         अचार-पापड़ बनाने या रखने के दौरान माहवारी वाली महिला छू ले, तो क्या अचार-पापड़ खराब हो जाते हैंै?

इन मान्यताओं के बारे में लोगों के विचार एकदम अलग-अलग थे। कुछ लोगों का मानना था कि अचार इसलिए भी खराब हो जाते हैं कि गीला चम्मच डाल दिया, ढक्कन ठीक से बंद नहीं किया, या फिर बनाने में ही कुछ गलती हो गई।

खाद्य सामग्री बनाने वाले उद्योगों के बारे में भी चर्चा हुई, जिनमें ज़्यादातर महिलाएं ही काम करती हैं। माहवारी के दौरान छुट्टी तो नहीं मिलती। तो फिर वहां काम कैसे चलता है?

उपरोक्त मान्यताओं की जांच करने के लिए टोलियां बनाकर अलग-अलग प्रयोग किए गए।

तुलसी और गुलाब के एक जैसे दो-दो पौधे चुनकर एक की सिंचाई माहवारी वाली महिला से और दूसरे की सिंचाई ऐसी महिला से करवाई जिसे माहवारी नहीं हो रही है।

इसी प्रकार, अचार-पापड़ वाले प्रयोग में अचार-पापड़ बनाए गए – कुछ को बनाने-संभालने का काम माहवारी वाली महिलाओं द्वारा कराया गया और कुछ को बिना माहवारी की महिलाओं द्वारा।

तीनों प्रयोग करने के बाद अवलोकन किए गए।

पौधे पहले जैसे ही थे। प्रायोगिक पौधे न तो सूखे, न मुरझाए।

पापड़ भूने। सब एक से थे। लाल नहीं हुए। जिनमें ज़्यादा सोड़ा डाला था, वे भी नहीं। अचार के दोनों नमूने दो महीने के अवलोकन के लिए एकलव्य के ऑॅफिस में ही रखे गए थे। दो महीने बाद देखा तो अचार खराब नहीं हुए थे।

प्रयोग में शामिल एक महिला ने कहा कि उसे पाबंदियों पर गुस्सा तो आता था मगर उनको तोड़ने से डर भी लगता था। पर उसे कभी सूझा ही नहीं था कि वह इन पाबंदियों को परखकर देखे।

खोजबीन का अंतिम परिणाम कुछ भी हो मगर एक बात साफ दिखी कि इन मान्यताओं को प्रयोग की जांच-परख की जा सकती है। (स्रोत फीचर्स)

 नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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