हाल ही में एक स्वतंत्र आयोग ने डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ कांगो
में एबोला प्रकोप के दौरान विश्व स्वास्थ्य संगठन के कर्मचारियों पर यौन उत्पीड़न और
शोषण सम्बंधी मामलों पर अपनी अंतिम रिपोर्ट जारी की है। इनमें मुख्य रूप से नौकरियों
और अन्य संसाधनों के बदले सेक्स की मांग और नौ बलात्कार के मामलों का उल्लेख है।
इन मामलों में संगठन द्वारा नियुक्त अल्पकालिक ठेकेदारों से लेकर उच्च प्रशिक्षित
अंतर्राष्ट्रीय स्तर के 21 पुरुष कर्मचारियों
पर आरोप लगाए गए हैं। ये आरोप डबल्यूएचओ की इमानदारी, विश्वास और प्रबंधन पर गंभीर सवाल खड़े करते हैं।
इस तरह की घटनाओं से पता चलता है कि कम आय वाले देशों में आपातकाल के दौरान भी
सत्ता और संसाधनों से लैस पुरुषों ने कमज़ोर वर्ग की महिलाओं और लड़कियों का जमकर शोषण
किया है। संगठन जिन लोगों की हिफाज़त करना चाहता है उनके साथ ऐसा सलूक लचर प्रशासन
का परिणाम है।
इस रिपोर्ट में संगठन की संरचनात्मक विफलताओं का भी वर्णन किया गया है। गौरतलब
है कि डबल्यूएचओ में नियम है कि किसी भी शिकायत को लिखित में दर्ज करना अनिवार्य है।
यह कम पढ़े-लिखे लोगों के साथ स्पष्ट रूप से भेदभावपूर्ण
है। इसके अतिरिक्त, कई मामलों में जांच को इसलिए
आगे नहीं बढ़ाया गया क्योंकि आरोप लगाने वाले व्यक्ति और डबल्यूएचओ कर्मचारी के बीच “सुलह” हो गई थी।
अत्यधिक दबाव के बावजूद जो महिलाएं और लड़कियां आगे आती हैं उनकी शिकायतों पर विश्वास
करके पूरी पारदर्शिता के साथ उचित प्रक्रिया लागू करने की आवश्यकता है। ऐसे मामलों
को उठाने वालों को भी संगठन द्वारा पर्याप्त सुरक्षा प्रदान की जाना चाहिए।
देखा जाए तो मानवीय कार्यों के दौरान इस तरह के मामले अन्यत्र भी हुए हैं लेकिन
इसका मतलब यह नहीं कि इन्हें स्वाभाविक मान लिया जाए। हैटी में ऑक्सफेम और मध्य अफ्रीकी
गणराज्य में संयुक्त राज्य के मानवीय मिशन में ऐसी समस्याएं देखी गई हैं। दरअसल, इन संगठनों को अपने कार्यस्थलों में विषैले और महिला-द्वैषी पहलुओं का सामना करने और संरचनात्मक स्तर पर बदलाव करने
की आवश्यकता है।
डीआरसी में दसवीं एबोला महामारी से एक महत्वपूर्ण सबक यह मिला है कि चाहे कितने
भी तकनीकी संसाधन उपलब्ध क्यों न हों, समुदाय
के विश्वास के बिना कोई भी परियोजना सफल नहीं हो सकती। इस घटना के बाद से लोगों ने
टीकाकरण से इन्कार कर दिया, और उपचार
केंद्रों पर हमला भी हुए। स्वास्थ्य कर्मियों के खिलाफ हिंसा या धमकियों के 450 मामले सामने आए। इसके अलावा 25 स्वास्थ्य कर्मियों की हत्या और 27 अन्य का अपहरण कर लिया गया। रिपोर्ट में दर्ज की गई शोषण की घटनाएं समुदाय के विश्वास
को नष्ट कर देती हैं। ऐसे देशों में सदियों के औपनिवेशक शोषण के बाद पहले से ही अविश्वास
व्याप्त है, और इन घटनाओं से डबल्यूएचओ अपने कर्मचारियों
को और अपने मिशन को खतरे में डाल रहा है।
इन आरोपों पर डबल्यूएचओ की प्रतिक्रिया काफी देर से आई। वीमन इन ग्लोबल हेल्थ की कार्यकारी निर्देशक डॉ. रूपा धत्त बताती हैं कि डबल्यूएचओ के एबोला कार्यक्रम के 2800 कर्मचारियों में से 73 प्रतिशत पुरुष थे और उनमें से 77 प्रतिशत पुरुष प्रमुख पदों पर थे। यदि पुरुषों की तुलना में महिला कर्मचारियों की संख्या अधिक होती और वे प्रमुख पदों पर होतीं परिणाम अलग हो सकते थे। इसके लिए डबल्यूएचओ के सभी कार्यक्रमों में जेंडर-संतुलन बहुत आवश्यक है। शक्तिशाली पुरुषों के रहमोकरम पर कमज़ोर महिलाओं और लड़कियों का शोषण मानवीय मिशन को क्षति पहुंचा सकता है। हालांकि, इस घटना के बाद से डबल्यूएचओ के नेतृत्व ने यौन शोषण और दुर्व्यवहार को बरदाश्त न करने और दोषियों के विरुद्ध कार्रवाई करने पर ज़ोर दिया है ताकि भविष्य में ऐसी घटनाओं को रोका जा सके। लेकिन इसका सही आकलन तो तभी हो पाएगा जब इसके सकारात्मक परिणाम देखने को मिलेंगे। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.un.org/sites/un2.un.org/files/field/image/1582050629.984.jpg
हाल ही में हुए एक अध्ययन में पाया गया है कि महिला
शोधकर्ताओं द्वारा शीर्ष चिकित्सा जर्नल्स में प्रकाशित किए गए काम को पुरुष
शोधकर्ता द्वारा प्रकाशित किए गए उसी गुणवत्ता के काम की तुलना में काफी कम उल्लेख
मिलते हैं।
JAMA नेटवर्क ओपन में प्रकाशित इस अध्ययन के नतीजे शीर्ष चिकित्सा पत्रिकाओं में वर्ष 2015 और
2018 के बीच प्रकाशित 5,500 से अधिक शोधपत्रों के उल्लेख डैटा के विश्लेषण के आधार
पर निकाले गए हैं। ‘उल्लेख’ से आशय है कि किसी शोध पत्र का उल्लेख कितने अन्य
शोधपत्रों में किया गया।
पूर्व अध्ययनों में देखा गया था कि अन्य विषयों में पुरुष लेखकों के आलेखों को
महिला लेखकों के आलेखों की तुलना में अधिक उल्लेख मिलते हैं। कुछ लोगों का तर्क
रहा है कि इसका कारण है कि पुरुष शोधकर्ताओं का काम अधिक गुणवत्तापूर्ण और अधिक
प्रभावी होता है। पेनसिलवेनिया विश्वविद्यालय की पाउला चटर्जी इसे परखना चाहती
थीं। उन्होंने देखा था कि प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में प्रकाशित होने के बावजूद भी
महिलाओं के काम को पुरुषों के समतुल्य काम की तुलना में कम उल्लेख मिले थे। इसलिए
चटर्जी और उनके साथियों ने 6 जर्नल्स में प्रकाशित 5554 लेखों का विश्लेषण किया – एनल्स
ऑफ इंटरनल मेडिसिन, ब्रिटिश मेडिकल जर्नल, जर्नल ऑफ अमेरिकन मेडिकल एसोसिएशन, जर्नल
ऑफ अमेरिकन मेडिकल एसोसिएशन-इंटर्नल मेडिसिन और दी
न्यू इंग्लैंड जर्नल ऑफ मेडिसिन। उन्होंने एक ऑनलाइन डैटाबेस की मदद से
प्रत्येक शोधपत्र के प्रथम और वरिष्ठ लेखकों के लिंग की पहचान की। उन्होंने पाया
कि इन शोधपत्रों में सिर्फ 36 प्रतिशत प्रथम लेखक महिला और 26 प्रतिशत वरिष्ठ लेखक
महिला थीं।
इसके बाद शोधकर्ताओं ने प्रत्येक शोधपत्र को मिले उल्लेखों की संख्या का
विश्लेषण किया। उन्होंने पाया कि जिन शोधपत्रों की प्रथम लेखक महिला थी उन
शोधपत्रों को पुरुष प्रथम लेखक वाले शोधपत्रों की तुलना में एक तिहाई कम उल्लेख
मिले थे;
जिन शोधपत्रों की वरिष्ठ लेखक महिला थी उन शोधपत्रों को
पुरुष वरिष्ठ लेखक वाले शोधपत्रों की तुलना में एक-चौथाई कम उल्लेख मिले थे। और तो
और,
जिन शोधपत्रों में प्राथमिक और वरिष्ठ दोनों लेखक महिलाए
थीं,
उन्हें दोनों लेखक पुरुष वाले शोधपत्रों की तुलना में आधे
ही उल्लेख मिले थे।
ये निष्कर्ष महिला शोधकर्ताओं की करियर प्रगति पर महत्वपूर्ण प्रभाव डालते
हैं। माना जाता है कि किसी शोधपत्र को जितने अधिक उल्लेख मिलते हैं वह उतना ही
महत्वपूर्ण है। विश्वविद्यालय और वित्तदाता अक्सर शोध के लिए वित्त या अनुदान देते
समय,
या नियुक्ति और प्रमोशन के समय भी उल्लेखों को महत्व देते
हैं।
चटर्जी को लगता है कि ये पूर्वाग्रह इरादतन हैं। और इस असमानता का सबसे
संभावित कारण है कि चिकित्सा क्षेत्र में पुरुष और महिलाएं असमान रूप से नज़र आते
हैं। जैसे,
वैज्ञानिक और चिकित्सा सम्मेलनों में वक्ता के तौर पर पुरुष
शोधकर्ताओं को समकक्ष महिला शोधकर्ताओं की तुलना में अधिक आमंत्रित जाता है। सोशल
मीडिया पर पुरुष शोधकर्ता समकक्ष महिला शोधकर्ता की तुलना में खुद के काम को अधिक
बढ़ावा देते हैं। इसके अलावा, महिला शोधकर्ताओं का पुरुषों
की तुलना में पेशेवर सामाजिक नेटवर्क छोटा होता है। नतीजतन, जब उल्लेख की बारी आती है तो पुरुष लेखकों काम याद रहने या सामने आने की
संभावना बढ़ जाती है।
अन्य शोधकर्ताओं का कहना है कि इसमें और भी कई कारक भूमिका निभाते हैं। जैसे, महिलाओं की तुलना में पुरुष शोधकर्ता स्वयं के शोधपत्रों का हवाला अधिक देते
हैं। 2019 में हुए एक अध्ययन में पाया गया था कि पुरुष लेखक अपने काम के लिए
‘नवीन’ और ‘आशाजनक’ जैसे विशेषणों का उपयोग ज़्यादा करते हैं, जिससे अन्य शोधकर्ताओं द्वारा उल्लेख संभावना बढ़ जाती है।
इसके अलावा,
अदृश्य पूर्वाग्रह की भी भूमिका है। जैसे, लोग महिला वक्ता को सुनने के लिए कम जाते हैं, या
उनके काम को कमतर महत्व देते हैं। जिसका मतलब है कि वे अपना शोधपत्र तैयार करते
समय महिलाओं के काम को याद नहीं करते। इसके अलावा, पत्रिकाएं
और संस्थान भी महिला लेखकों के काम को बढ़ावा देने के लिए उतने संसाधन नहीं लगाते।
एक शोध में पाया गया था कि चिकित्सा संगठनों के न्यूज़लेटर्स में महिला वैज्ञानिकों
के काम का उल्लेख कम किया जाता है या उन्हें कम मान्यता दी जाती है। इसी कारण
महिलाएं इन क्षेत्रों में कम दिखती हैं।
अगर महिलाओं के उच्च गुणवत्ता वाले काम का ज़िक्र कम किया जाता है, तो यह लैंगिक असमानता को आगे बढ़ाता है। जिनके काम को बढ़ावा मिलेगा, वे अपने क्षेत्र के अग्रणी बनेंगे यानी उनके काम को अन्य की तुलना में अधिक
उद्धृत किया जाएगा और यह दुष्चक्र ऐसे ही चलता रहेगा।
इस स्थिति से उबरने के लिए चिकित्सा संगठनों द्वारा सम्मेलनों में महिला
वक्ताओं को आमंत्रित किया जा सकता है। इसके अलावा फंडिंग एजेंसियां यह सुनिश्चित
कर सकती हैं कि स्त्री रोग जैसे जिन क्षेत्रों में उल्लेखनीय रूप से महिला
शोधकर्ता अधिक हैं उनमें उतना ही वित्त मिले जितना पुरुषों की अधिकता वाले
क्षेत्रों में मिलता है।
खुशी की बात है कि चिकित्सा प्रकाशन में लैंगिक अंतर कम हो रहा है। 1994-2014 के दरम्यान चिकित्सा पत्रिकाओं में महिला प्रमुख शोध पत्रों का प्रतिशत 27 से बढ़कर 37 हो गया। सम्मेलनों में भी महिला वक्ता अधिक दिखने लगी हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://swaddle-wkwcb6s.stackpathdns.com/wp-content/uploads/2020/01/women-scientists-min.jpg
वर्ष 1951 की जनगणना में भारत की जनसंख्या 36.1 करोड़ थी।
वर्ष 2011 में हम 1.21 अरब लोगों की शक्ति बन गए। भारत की जनसंख्या में तथाकथित
‘जनसंख्या विस्फोट’ से कई समस्याएं बढ़ीं – जैसे बेरोज़गारी जो कई पंचवर्षीय योजनाओं
के बाद भी हमारे साथ है, गरीबी, संसाधनों
की कमी और स्वास्थ्य सुविधाओं व उनकी उपलब्धता में कमी।
हालांकि,
कुछ राहत देने वाली खबर भी है। हाल ही में संयुक्त राष्ट्र
जनसंख्या कोश द्वारा जारी एक रिपोर्ट बताती है कि 2010-2019 के दौरान भारत की
जनसंख्या वृद्धि दर काफी धीमी पड़ी है। रिपोर्ट के अनुसार, 2001-2011
के दशक की तुलना में 2010-2019 के दशक में भारत की जनसंख्या वृद्धि 0.4 अंक कम
होने की संभावना है। 2011 की जनगणना के अनुसार 2001-2011 के बीच औसत वार्षिक
वृद्धि दर 1.64 प्रतिशत थी।
रिपोर्ट आगे बताती है कि अब अधिक भारतीय महिलाएं जन्म नियंत्रण के लिए गर्भ
निरोधक उपयोग कर रही हैं और परिवार नियोजन के आधुनिक तरीके अपना रही हैं, जो इस बात का संकेत भी देता है कि पिछले दशक में महिलाओं की अपने शरीर पर
स्वायत्तता बढ़ी है और महिलाओं द्वारा अपने प्रजनन अधिकार हासिल करने में वृद्धि
हुई है। हालांकि,
बाल विवाह की समस्या अब भी बनी हुई है और ऐसे विवाहों की
संख्या बढ़ी है।
2011 की जनगणना के अनुसार भारत की जनसंख्या 1.21 अरब थी और 2036 तक इसमें 31.1
करोड़ का इजाफा हो जाएगा। अर्थात 2031 में चीन को पीछे छोड़ते हुए भारत दुनिया का
सबसे अधिक आबादी वाला देश हो जाएगा। यह पड़ाव संयुक्त राष्ट्र के पूर्व अनुमान
(वर्ष 2022) की तुलना में लगभग एक दशक देर से आएगा।
तेज़ गिरावट
संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट कहती है कि कई प्रांतों की जनसंख्या वृद्धि दर
प्रतिस्थापन-स्तर तक पहुंच गई है, हालांकि कुछ उत्तरी प्रांत
अपवाद हैं। प्रतिस्थापन-स्तर से तात्पर्य है कि जन्म दर इतनी हो कि वह मृतकों की
क्षतिपूर्ति कर दे।
जनसंख्या वृद्धि दर में गिरावट पहले लगाए गए अनुमानों की तुलना में अधिक तेज़ी
से हो रही है। जनांकिकीविदों और अर्थशास्त्रियों का कहना है कि जनसंख्या वृद्धि अब
योजनाकारों के लिए कोई गंभीर समस्या नहीं रह गई है। हालांकि, भारत के संदर्भ में बात इतनी सीधी नहीं है। उत्तर और दक्षिण में जनसंख्या
वृद्धि दर में असमान कमी आई है। यदि यही रुझान जारी रहा तो कुछ जगहों पर श्रमिकों
की कमी हो सकती है और इस कमी की भरपाई के लिए अन्य जगहों से प्रवासन हो सकता है।
विषमता
उत्तर प्रदेश, बिहार और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों के
सरकारी आंकड़ों को देखें तो इन राज्यों की औसत प्रजनन दर 3 से अधिक है, जो दर्शाती है कि सरकार के सामने यह अब भी एक चुनौती है। पूरे देश की तुलना
में इन राज्यों में स्थिति काफी चिंताजनक है – देश की औसत प्रजनन दर लगभग 2.3 है जो
आदर्श प्रतिस्थापन दर (2.1) के लगभग बराबर है।
संयुक्त राष्ट्र की पिछली रिपोर्ट में महाराष्ट्र, पश्चिम
बंगाल,
केरल, तमिलनाडु, तेलंगाना,
कर्नाटक और आंध्र प्रदेश वे राज्य हैं जिनकी प्रजनन दर
आदर्श प्रतिस्थापन प्रजनन दर से बहुत कम हो चुकी है।
विकास अर्थशास्त्री ए. के. शिव कुमार बताते हैं कि विषम आंकड़ों वाले राज्यों
में भी प्रजनन दर में कमी आ रही है, हालांकि इसके कम होने की
रफ्तार उतनी अधिक नहीं है। इसका कारण है कि इन राज्यों में महिलाओं को पर्याप्त
प्रजनन अधिकार और अपने शरीर पर स्वायत्तता हासिल नहीं हुई है। महिलाओं पर संभवत:
समाज,
माता-पिता, ससुराल और जीवन साथी की ओर से
बच्चे पैदा करने का दबाव भी पड़ता है।
रिपोर्ट यह भी बताती है कि भारत की दो-तिहाई से अधिक आबादी कामकाजी आयु वर्ग
(15-64 वर्ष) की है। एक चौथाई से अधिक आबादी 0-14 आयु वर्ग की है और लगभग 6
प्रतिशत आबादी 65 से अधिक उम्र के लोगों की है। अर्थशास्त्रियों का मत है कि यदि
भारत इस जनांकिक वितरण का लाभ उठाना चाहता है तो उसे अभी से ही शिक्षा और
स्वास्थ्य सेवा के क्षेत्र में बहुत कुछ करना होगा।
जनसंख्या अनुमान रिपोर्ट
राष्ट्रीय जनसंख्या आयोग द्वारा प्रकाशित जनसंख्या अनुमान रिपोर्ट बताती है कि
वर्ष 2011-2036 के दौरान भारत की जनसंख्या 2011 की जनसंख्या
से 25 प्रतिशत बढ़ने की उम्मीद है, यानी 36.1 करोड़ की वृद्धि के
साथ यह लगभग 1.6 अरब होने की संभावना है
भारत की जनसंख्या वृद्धि दर 2011-2021 के दशक में सबसे कम
(12.5 प्रतिशत प्रति दशक) रहने की उम्मीद है। रिपोर्ट के अनुसार 2021-2031 के दशक
में भी यह गिरावट जारी रहेगी और जनसंख्या वृद्धि दर 8.4 प्रतिशत प्रति दशक रह
जाएगी।
इन अनुमानों के हिसाब से भारत दुनिया के सबसे अधिक आबादी
वाले देश चीन से आगे निकल जाएगा। यदि इन अनुमानों की मानें तो यह स्थिति संयुक्त
राष्ट्र के अनुमानित वर्ष 2022 के लगभग एक दशक बाद बनेगी।
शहरी आबादी में वृद्धि
जनसंख्या अनुमान रिपोर्ट में भारत की शहरी आबादी में वृद्धि का दावा भी किया गया
है। जबकि वास्तविकता कुछ और ही है, और यह इससे स्पष्ट होती है कि
हम शहरी आबादी किसे कहते हैं। जिस तरह दुनिया भर की सरकारें गरीबी में कमी दिखाने
के लिए गरीबी कम करने के उपाय अपनाने की बजाय परिभाषाओं में हेरफेर का सहारा लेती
रही हैं,
यहां भी ऐसा ही कुछ मामला लगता है।
रिपोर्ट का अनुमान है कि लगभग 70 प्रतिशत जनसंख्या वृद्धि ग्रामीण क्षेत्रों
में होगी। 2036 में भारत की शहरी आबादी 37.7 करोड़ से बढ़कर 59.4 करोड़ हो जाएगी।
यानी 2011 में जो शहरी आबादी 31 प्रतिशत थी, 2036
में वह बढ़कर 39 प्रतिशत हो जाएगी। ग्रामीण से शहरी आबादी में बदलाव सबसे नाटकीय
ढंग से केरल में दिखेगा। वर्ष 2036 तक यहां 92 प्रतिशत आबादी शहरों में रह रही
होगी। जबकि 2011-2015 में यह सिर्फ 52 प्रतिशत थी।
तकनीकी समूह के सदस्य और वर्तमान में नई दिल्ली में विकासशील देशों के लिए
अनुसंधान और सूचना प्रणाली से जुड़े अमिताभ कुंडु के अनुसार केरल में यह बदलाव
वास्तव में अनुमान लगाने के लिए उपयोग किए गए तरीकों के कारण दिखेगा।
2001 से 2011 के बीच केरल में हुए ग्रामीण क्षेत्रों के शहरी क्षेत्र में
पुन:वर्गीकरण के चलते केरल में कस्बों की संख्या 159 से बढ़कर 520 हो गई। इस तरह
वर्ष 2001 में केरल का 26 प्रतिशत शहरी क्षेत्र, 2011
में बढ़कर 48 प्रतिशत हो गया। यानी केरल में 2001-2011 के बीच शहरी आबादी में
वृद्धि दर में बदलाव नए तरह से वर्गीकरण के कारण दिखा, ना कि
ज़बरदस्त विकास के कारण। इन्हीं नई परिभाषाओं का उपयोग वर्ष 2036 के लिए जनसंख्या
वृद्धि का अनुमान लगाने में किया गया है, जो इस रिपोर्ट के
निष्कर्षों पर सवाल उठाता है। रिपोर्ट मानकर चलती है कि भारत के सभी राज्य
जनसंख्या गणना के लिए वर्तमान परिभाषा और वर्गीकरण का उपयोग करेंगे। लेकिन ऐसा
करेंगे या नहीं यह कहना मुश्किल है क्योंकि यह पक्के तौर पर नहीं बताया जा सकता कि
भविष्य में पुन:वर्गीकरण या पुन:परिभाषित किया जाएगा या नहीं। यदि पुन:वर्गीकरण या
पुन:परिभाषित किया गया तो जनसंख्या के आंकड़े और इसे मापने के हमारे तरीके बदल
जाएंगे।
प्रवासन की भूमिका
भारत के जनसांख्यिकीय परिवर्तन में प्रवासन की भी भूमिका है। अनुमान लगाने में
उपयोग किए गए कोहोर्ट कंपोनेंट मॉडल में प्रजनन दर, मृत्यु
दर और प्रवासन दर को शामिल किया गया है। जबकि ‘अंतर्राष्ट्रीय प्रवासन’ को नगण्य
मानते हुए शामिल नहीं किया गया है। अनुमान के लिए 2001-2011 के दशक का
अंतर्राज्यीय प्रवासन डैटा लिया गया है और माना गया है कि अनुमानित वर्ष के लिए
राज्यों के बीच प्रवासन दर अपरिवर्तित रहेगी।
इस अवधि में,
उत्तर प्रदेश और बिहार से लोगों का प्रवासन सर्वाधिक हुआ, जबकि महाराष्ट्र, गुजरात, हरियाणा
और दिल्ली में प्रवास करके लोग आए।
जनसंख्या वृद्धि में अंतर
यदि उत्तर प्रदेश एक स्वतंत्र देश होता तो यह विश्व का आठवां सबसे अधिक आबादी
वाला देश होता। 2011 में उत्तर प्रदेश की जनसंख्या 19.9 करोड़ थी जो वर्ष 2036 में
बढ़कर 25.8 करोड़ से भी अधिक हो जाएगी – यानी आबादी में लगभग 30 प्रतिशत की वृद्धि
होगी।
बिहार की जनसंख्या को भी नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। बिहार जनसंख्या वृद्धि
दर के मामले में उत्तर प्रदेश को भी पछाड़ सकता है। 2011 में बिहार की जनसंख्या
10.4 करोड़ थी,
और अनुमान है कि लगभग 42 प्रतिशत की बढ़ोतरी के बाद वर्ष
2036 में यह 14.8 करोड़ हो जाएगी। इससे भी अधिक चिंताजनक बात यह है कि 2011-2036 के
बीच भारत की जनसंख्या वृद्धि में 54 प्रतिशत योगदान पांच राज्यों – उत्तर प्रदेश, बिहार,
महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल और मध्य प्रदेश
का होगा। वहीं दूसरी ओर, पांच दक्षिणी राज्य – केरल, कर्नाटक,
आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और तमिलनाडु का
कुल जनसंख्या वृद्धि में योगदान केवल नौ प्रतिशत होगा। उपरोक्त सभी दक्षिणी
राज्यों की कुल जनसंख्या वृद्धि 2.9 करोड़ होगी जो सिर्फ उत्तर प्रदेश की जनसंख्या
वृद्धि की आधी है।
घटती प्रजनन दर
उत्तर प्रदेश और बिहार सर्वाधिक कुल प्रजनन दर वाले राज्य हैं। कुल प्रजनन दर
यानी प्रत्येक महिला से पैदा हुए बच्चों की औसत संख्या। 2011 में उत्तर प्रदेश और
बिहार की कुल प्रजनन दर क्रमश: 3.5 और 3.7 थी। ये भारत की कुल प्रजनन दर 2.5 से
काफी अधिक थीं। जबकि कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, पंजाब,
हिमाचल प्रदेश जैसे राज्यों की कुल प्रजनन दर 2 से कम थी।
यदि वर्तमान रफ्तार से कुल प्रजनन दर कम होती रही तो अनुमान है कि 2011-2036 के
दशक में भारत की कुल प्रजनन दर 1.73 हो जाएगी। और, 2035
तक बिहार ऐसा एकमात्र राज्य होगा जिसकी कुल प्रजनन दर 2 से अधिक (2.38) होगी।
वर्ष 2011 में मध्यमान आयु 24.9 वर्ष थी। प्रजनन दर में गिरावट के कारण वर्ष
2036 तक यह बढ़कर 35.5 वर्ष हो जाएगी। भारत में, जन्म
के समय जीवन प्रत्याशा लड़कों के लिए 66 और लड़कियों के लिए 69 वर्ष थी, जो बढ़कर क्रमश: 71 और 74 वर्ष होने की उम्मीद है। इस मामले में भी केरल के शीर्ष
पर होने की उम्मीद है। यह जन्म के समय लड़कियों की 80 से अधिक और लड़कों की 74 वर्ष
से अधिक जीवन प्रत्याशा वाला एकमात्र भारतीय राज्य होगा। 2011 की तुलना में 2036
में स्त्री-पुरुष अनुपात में भी सुधार होने की संभावना है। 2036 तक यह वर्तमान
प्रति 1000 पुरुष पर 943 महिलाओं से बढ़कर 952 हो जाएगा। 2036 तक कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु में महिलाओं की संख्या पुरुषों की तुलना में अधिक
होने की संभावना है।
श्रम शक्ति पर प्रभाव
दोनों रिपोर्ट देखकर यह स्पष्ट होता है कि जैसे-जैसे देश की औसत आयु बढ़ेगी, वैसे-वैसे देश चलाने वाले लोगों की ज़रूरतें भी बढ़ेंगी। चूंकि अधिकांश श्रमिक
आबादी 30-40 वर्ष की आयु वर्ग की होगी इसलिए संघर्षण दर (एट्रीशन रेट) में गिरावट
देखी जा सकती है;
यह उम्र आम तौर पर ऐसी उम्र होती है जब लोगों पर पारिवारिक
दायित्व होते हैं और इसलिए वे जिस नौकरी में हैं उसी में बने रहना चाहते हैं और
जीवन में स्थिरता चाहते हैं। उनकी स्वास्थ्य सम्बंधी ज़रूरतों में भी देश में बदलाव
दिखने की संभावना है।
जनसंख्या में असमान वृद्धि के कारण श्रमिकों की अधिकता वाले राज्यों से
श्रमिकों का प्रवासन श्रमिकों की कमी वाले राज्यों की ओर होने की संभावना है। यदि
राज्य अभी से स्वास्थ्य देखभाल और शिक्षा पर अपना खर्च बढ़ा दें तो राज्यों के पास
नवजात बच्चों के लिए एक सुदृढ़ सरकारी बुनियादी ढांचा होगा, जो
भविष्य में इन्हें कुशल कामगार बना सकता है और राज्य अपने मानव संसाधन का अधिक से
अधिक लाभ उठा सकते हैं। अकुशल श्रमिक की तुलना में एक कुशल श्रमिक का अर्थव्यवस्था
में बहुत अधिक योगदान होता है।
स्वास्थ्य सुविधाओं पर प्रभाव
अगर अनुमानों की मानें तो देश में वरिष्ठ नागरिकों की संख्या में वृद्धि भी
देश की स्वास्थ्य सम्बंधी प्राथमिकताओं को प्रभावित कर सकती है और उसे बदल भी सकती
है। जब किसी देश में प्रजनन दर में कमी के साथ-साथ जीवन प्रत्याशा बढ़ती है, तो जनसांख्यिकीय औसत आयु बढ़ती है। यानी देश की स्वास्थ्य सम्बंधी प्राथमिकताएं
तेज़ी से बदलेंगी। वरिष्ठ नागरिकों की संख्या बढ़ने के चलते बुज़ुर्गों के लिए
सार्वजनिक व्यय बढ़ाने की ज़रूरत पड़ भी सकती है और नहीं भी। यह इस बात पर निर्भर
होगा कि देश की सार्वजनिक पूंजी और सामाजिक कल्याण, और
समाज के लिए इनकी उपलब्धता और पहुंच की स्थिति क्या है।
आज़ादी के समय से ही भारत में असमान आय, स्वास्थ्य
देखभाल की उपलब्धता और पहुंच की कमी जैसी समस्याएं बनी हुई हैं, भविष्य में भी ये चुनौतियां बढ़ेंगी। इन चुनौतियों का सामना करने के लिए सरकार
यदि अभी से ही स्वास्थ्य देखभाल पर व्यय और निवेश में वृद्धि नहीं करती तो आने
वाले दशकों में स्वास्थ्य सेवा पर सार्वजनिक खर्च सरकार के लिए बोझ बन सकता है। और
भविष्य में हमें अधिक प्रवासन झेलना पड़ेगा, सेवानिवृत्ति
की आयु में बहुत अधिक वृद्धि होगी और बुज़ुर्गों की देखभाल में लगने वाले सार्वजनिक
खर्च जुटाने के उपाय खोजने पड़ेंगे।
जनसंख्या नियंत्रण नीतियां
पिछले कुछ समय में जनसंख्या नियंत्रण जैसी बातें भी सामने आई हैं। इसमें असम
और उत्तर प्रदेश सबसे आगे हैं। उत्तर प्रदेश राज्य विधि आयोग ने दो बच्चों की नीति
को बढ़ावा देने वाले प्रस्तावित जनसंख्या नियंत्रण विधेयक का एक मसौदा जारी किया
है। इसका उल्लंघन करने का मतलब होगा कि उल्लंघनकर्ता स्थानीय चुनाव लड़ने, सरकारी नौकरियों में आवेदन करने या किसी भी तरह की सरकारी सब्सिडी प्राप्त
करने से वंचित कर दिया जाएगा। असम में यह कानून पहले से ही लागू है और उत्तर
प्रदेश यह कानून लागू करने वाला दूसरा राज्य होगा।
ये प्रावधान ‘उत्तर प्रदेश जनसंख्या (नियंत्रण, स्थिरीकरण
और कल्याण) विधेयक, 2021’ नामक मसौदे का हिस्सा हैं। विधेयक का
उद्देश्य न केवल लोगों को दो से अधिक बच्चे पैदा करने के लिए दंडित करना है, बल्कि निरोध (कंडोम) और गर्भ निरोधकों के मुफ्त वितरण के माध्यम से परिवार
नियोजन के बारे में जागरूकता बढ़ाना और गैर-सरकारी संगठनों की मदद से छोटे परिवार
के महत्व और लाभ समझाना भी है।
सरकार सभी माध्यमिक विद्यालयों में जनसंख्या नियंत्रण सम्बंधी विषय अनिवार्य
रूप से शामिल करना चाहती है। दो बच्चों का नियम लागू कर सरकार जनसंख्या नियंत्रण
के प्रयासों को फिर गति देना चाहती है और इसे नियंत्रित और स्थिर करना चाहती है।
दो बच्चों के नियम को मानने वाले वाले लोक सेवकों को प्रोत्साहित भी किया
जाएगा। मसौदा विधेयक के अनुसार दो बच्चे के मानदंड को मानने वाले लोक सेवकों को
पूरी सेवा में दो अतिरिक्त वेतन वृद्धि मिलेगी, पूर्ण
वेतन और भत्तों के साथ 12 महीनों का मातृत्व या पितृत्व अवकाश दिया जाएगा, और राष्ट्रीय पेंशन योजना के तहत नियोक्ता अंशदान निधि में तीन प्रतिशत की
वृद्धि की जाएगी।
कागज़ों में तो यह अधिनियम ठीक ही नज़र आता है, लेकिन
वास्तव में इसमें कई समस्याएं हैं। विशेषज्ञों का दावा है कि ये जबरन की नीतियां
लाने से जन्म दर कम करने पर वांछित प्रभाव नहीं पड़ेगा।
चीन ने हाल ही में अपनी दो बच्चों की नीति में संशोधन किया है। और पॉपुलेशन
फाउंडेशन ऑफ इंडिया ने एक बयान जारी कर कहा है कि भारत को चीन की इस जबरन की नीति
की विफलता से सबक लेना चाहिए। धर्म प्रजनन स्तर में बहुत कम बदलाव लाएगा। वास्तविक
बदलाव तो ‘शिक्षा, रोज़गार के अवसर और गर्भ निरोधकों की
उपलब्धता और उन तक पहुंच’ से निर्धारित होगा।
जनसंख्या नियंत्रण नीति की कुछ अंतर्निहित समस्याएं भी हैं। यह तो सब जानते
हैं कि भारत में लड़का पैदा करने पर ज़ोर रहता है। लड़के की उम्मीद में कभी-कभी कई
लड़कियां होती जाती हैं। लोग इस तथ्य को पूरी तरह नज़अंदाज़ कर देते हैं कि प्रत्येक
अतिरिक्त बच्चा घर का खर्चा बढ़ाता है। दो बच्चों की नीति से लिंग चयन और अवैध
गर्भपात में वृद्धि हो सकती है, जिससे महिला-पुरुष अनुपात और
कम हो सकता है।
विधेयक में बलात्कार या अनाचार से, या शादी के बिना, या किशोरावस्था में हुए गर्भधारण से पैदा हुए बच्चों के लिए कोई जगह नहीं है।
कई बार या तो बलात्कार के कारण, या किसी एक या दोनों पक्षों की
लापरवाही के कारण, या नादानी में गर्भ ठहर जाता है। इस नियम
के अनुसार दो से अधिक बच्चों वाली महिला सरकारी नौकरी से या स्थानीय चुनाव लड़ने के
अवसर से वंचित कर दी जाएगी, जो कि अनुचित है क्योंकि काफी
संभावना है कि उसके साथ बलात्कार हुआ हो और इस कारण तीसरा बच्चा हुआ हो।
इस तरह के विधेयक के साथ एक वैचारिक समस्या भी है। क्या सरकार उसे सत्ता में
लाने वाली अपनी जनता पर यह नियंत्रण रखना चाहती है कि वे कितने बच्चे पैदा कर सकते
हैं?
स्वतंत्रता के बाद से भारत में, एक
परिवार में बच्चों की औसत संख्या में लगातार कमी आई है। इसमें कमी लाने के लिए
हमें किसी जनसंख्या नियंत्रण कानून की आवश्यकता नहीं है। विकास, परिवार नियोजन की जागरूकता और एक प्रेरक जनसंख्या नियंत्रण नीति ने अब तक काम
किया है,
न कि तानाशाही नीति ने। रिपोर्ट दर्शाती है कि भारत में
2011 से 2021 के दौरान प्रजनन दर में कमी आई है, और यह
कमी तब आई है जब हमारे पास सिर्फ प्रेरक जनसंख्या नियंत्रण नीतियां थीं। हमें अपने
आप से यह सवाल करने की ज़रूरत है कि उत्तर प्रदेश राज्य विधि आयोग द्वारा
प्रस्तावित सख्त सत्तावादी नीति की क्या वास्तव में हमें आवश्यकता है? भले ही हमें गुमराह करने का प्रयास हमारी धार्मिक पहचान के आधार पर किया गया
हो – जैसे ‘बिल का उद्देश्य विभिन्न समुदायों की आबादी के बीच संतुलन स्थापित करना
है’ – हमें इस तरह के कानून की उपयोगिता पर ध्यान देना चाहिए और देखना चाहिए कि
क्या वास्तव में यह जनसंख्या को नियंत्रित करने में मदद करेगा, न कि हमारी धार्मिक पहचान को हमारे तर्कसंगत निर्णय पर हावी होने देना चाहिए।
निष्कर्ष
विभिन्न जनसंख्या रिपोर्ट से यह स्पष्ट है कि हमारी जनसंख्या वृद्धि दर में काफी कमी आई है, जीवन प्रत्याशा बढ़ रही है, आबादी में बुज़ुर्गों की संख्या बढ़ने वाली है और राज्य स्तर पर श्रमिकों का प्रवासन हो सकता है। एक राष्ट्र के रूप में हमें भविष्य के लिए एक सुदृढ़ स्वास्थ्य ढांचे के साथ तैयार रहना चाहिए। बेहतर शिक्षा उपलब्ध करवाकर नवजात शिशु को भविष्य के कुशल मानव संसाधन बनाने के लिए तैयार रहना चाहिए। हमें अगले दशक के लिए यह सुनिश्चित करने वाली एक व्यापक और विस्तृत योजना बनानी चाहिए कि प्रजनन दर प्रतिस्थापन दर तक पहुंच जाए और उसी स्तर पर बनी रहे। विकास, परिवार नियोजन पर जागरूकता बढ़ाने, राष्ट्र की औसत साक्षरता दर बढ़ाने, स्वास्थ्य सेवा को वहनीय, सुलभ बनाने व उपलब्ध कराने, और बेरोज़गारी कम करने के लिए भी निवेश योजना की आवश्यकता है। ये सभी कारक जनसंख्या नियंत्रण में सीधे-सीधे योगदान देते हैं। लेकिन, जिस तरह की स्थितियां बनी हुई हैं उससे इस कानून के लागू होने की संभावना लगती है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.researchgate.net/profile/K-James/publication/51530364/figure/fig1/AS:601631074832400@1520451434538/Population-size-and-its-annual-growth-rate-in-India-for-1951-2100-The-19512011-data-are.png
आप जब कुछ खरीदते हैं तो क्या वास्तव में आप उसके मालिक होते
हैं?
क्या कोई और यह तय कर सकता है या करना चाहिए कि आपके अपने
पैसों से खरीदी चीज़ के साथ आप क्या करें और क्या नहीं?
खुदा-ना-ख्वास्ता आपके मोबाइल फोन की स्क्रीन टूट जाती है, तो क्या यह चुनाव आपका नहीं होना चाहिए कि इसकी नई स्क्रीन आप कहां से
खरीदेंगे/लगवाएंगे या आप खुद ही इसकी मरम्मत करना चाहेंगे? आजकल
निर्माता ऐसे प्रयास कर रहे हैं कि उपयोगकर्ता के लिए खुद किसी वस्तु को सुधारना
मुश्किल हो। यदि आप अपने ही मोबाइल फोन्स पर गौर करें तो पाएंगे कि कुछ समय पहले
तक आपके पास ऐसा मोबाइल फोन हुआ करता था जिसकी बैटरी आप खुद बदल सकते थे, लेकिन स्मार्टफोन की बैटरी एक औसत उपयोगकर्ता की पहुंच में नहीं होती। इसी
बिंदु पर मरम्मत का अधिकार (राइट टू रिपेयर) की भूमिका शुरू होती है।
मरम्मत का अधिकार
अमरीका में प्रस्तावित कानून उपभोक्ताओं को अपनी वस्तुओं में बदलाव करने और
मरम्मत करने की अनुमति देगा, जबकि उपकरण निर्माता चाहते हैं
कि उपभोक्ता सिर्फ उनके द्वारा पेश की गई सेवाओं का उपयोग करें। उपभोक्ताओं के इसी
अधिकार को मरम्मत का अधिकार कहा जा रहा है। हालांकि मरम्मत का अधिकार एक वैश्विक
चिंता का विषय है, लेकिन फिलहाल यह मुद्दा यूएसए और युरोपीय
संघ में केंद्रित है।
सांसद जोसेफ मोरेल ने जून में संसद के समक्ष मरम्मत के अधिकार का राष्ट्रीय
विधेयक पेश किया। इसे फेयर रिपेयर एक्ट (उचित मरम्मत कानून) कहा जा रहा है। इसके
तहत निर्माताओं को उपकरण मालिकों और स्वतंत्र रूप से मरम्मत करने वालों के लिए
मरम्मत के औज़ार या साधन, पुर्ज़े और सुधारने के तरीकों
की जानकारी उपलब्ध करानी होगी। विधेयक पारित हो गया तो कोई भी व्यक्ति अपने उपकरण
की स्वयं मरम्मत कर/करवा सकेगा। किसान अपने ट्रैक्टर की स्वयं मरम्मत कर सकेंगे, और न्यूयॉर्क निवासी अपने इलेक्ट्रॉनिक्स उपकरण आसानी से सुधार सकेंगे।
मरम्मत के अधिकार के कई उद्देश्यों में से एक है कि निर्माताओं द्वारा
योजनाबद्ध तरीके से उत्पाद या उपकरणों को चलन से बाहर करने की रणनीति के विरुद्ध
लड़ना। यह रणनीति 1954 में अमेरिकी औद्योगिक डिज़ाइनर ब्रूक्स स्टीवंस ने बिक्री
बढ़ाने के लिए सुझाई थी। इसमें कहा गया था कि उत्पाद के पूर्णत: कंडम हो जाने (या
अपने उपयोगी जीवनकाल) के पहले ही उसे योजनाबद्ध तरीके से चलन से बाहर कर दिया जाए
ताकि उपभोक्ताओं को बार-बार उत्पाद खरीदने के लिए मजबूर करके आर्थिक विकास दर को
बढ़ाया जा सके।
अतीत में भी निम्न गुणवत्ता वाले टंगस्टन बल्ब बनाकर उपभक्ताओं को बारंबार
खरीद के लिए मजबूर किया जा चुका है, जबकि निर्माताओं के पास ऐसे बल्ब
बनाने की तकनीक थी जिससे बल्ब बरसों चलता। और तो और, इस
रणनीति के समर्थकों और निर्माताओं ने टिकाऊ बल्ब बनाने वाले निर्माताओं को दंडित
तक किया।
वैसे मरम्मत का अधिकार शब्द थोड़ा भ्रामक है। वर्तमान में ऐसा कोई कानून नहीं
है जो उपभोक्ता को अपनी चीज़ को खुद सुधारने का अधिकार देता हो या इस अधिकार से
वंचित करता हो। मरम्मत का अधिकार उपभोक्ताओं द्वारा निर्माताओं के उन तौर-तरीकों
खिलाफ छेड़ा गया एक आंदोलन है जो किसी वस्तु के सुधार कार्य को अनावश्यक ही मुश्किल
बनाते हैं – चाहे उन सॉफ्टवेयर के माध्यम से जो किसी अन्य को मरम्मत करने की इज़ाजत
नहीं देते या उपकरणों के पुर्ज़े बनाने वालों के साथ विशेष खरीद-अधिकार अनुबंध करके
जो खुले बाज़ार में पुर्ज़ों की उपलब्धता रोक देते हैं या नियंत्रित करते हैं।
इसे मरम्मत का अधिकार कहने से कुछ गलतफहमियां भी पैदा हुई हैं। कुछ लोगों को
लगता है कि मरम्मत के अधिकार का उद्देश्य किसी वस्तु की वारंटी की अवधि के बाद भी
निर्माताओं को उस वस्तु की मरम्मत करने के लिए बाध्य करना है। ऐसा नहीं है। सरल
शब्दों में,
मरम्मत के अधिकार का उद्देश्य उपभोक्ता को अपने मुताबिक
वस्तु को सुधारने/सुधरवाने का अधिकार देना है। उद्देश्य निर्माताओं के उन गलत
तरीकों को रोकना है जिनसे निर्माता या तो विशेष मरम्मत की पेशकश कर, मरम्मत का अधिक शुल्क वसूल कर, उत्पाद को चलन से बाहर करने की
योजना बनाकर,
पुर्ज़ों के विशेष आपूर्ति अनुबंध करके या अन्य किसी माध्यम
से उत्पादों की मरम्मत को मुश्किल बनाते हैं।
उल्लंघन के उदाहरण
हाल ही में नेब्रास्का के एक किसान ने जॉन डीरे के खिलाफ मुकदमा दायर किया।
मुद्दा उसे उसके 8 लाख डॉलर के अत्याधुनिक ट्रैक्टर को सुधारने की इजाज़त न होने का
था। फसल का मौसम था और ट्रैक्टर को मरम्मत के लिए कंपनी भेजकर वह कई हफ्ते इंतज़ार
नहीं करना चाहता था। इसलिए उसने ट्रैक्टर को स्वयं सुधारने की कोशिश की थी। कंपनी
ने अपने बचाव में कहा कि जो सॉफ्टवेयर ट्रैक्टर को चलाता है उसमें सुरक्षा लॉक लगा
है,
और यह सुरक्षा की दृष्टि से किसी अन्य को मरम्मत नहीं करने
देता। वैसे भी,
ट्रैक्टर के सॉफ्टवेयर पर किसान का स्वामित्व नहीं है, उसे सिर्फ इसका उपयोग करने का लाइसेंस दिया गया है।
एक अन्य उदाहरण सॉफ्टवेयर संचालित इलेक्ट्रिक कारों के निर्माता टेस्ला का है।
पूरे यूएसए में टेस्ला के अपने सुपरचार्ज स्टेशन हैं। ये सुपरचार्ज स्टेशन साधारण
चार्जिंग की तुलना में कार को काफी जल्दी चार्ज करते हैं। लेकिन टेस्ला के इन
सुपरचार्ज स्टेशन पर कोई अपनी कार तभी चार्ज कर सकता है जब उसकी कार टेस्ला के
सुपरचार्जर नेटवर्क पर पंजीकृत हो, पंजीकरण के बिना टेस्ला के
चार्जिंग स्टेशन से कार चार्ज करना संभव नहीं है। अब यदि कार मालिक टेस्ला कार में
कुछ बदलाव कर ले या उसमें ऐसे पुर्ज़े लगवा ले जो टेस्ला के नहीं हैं तो सॉफ्टवेयर
इसे भांप लेता है और सुपरचार्जर नेटवर्क द्वारा वह कार प्रतिबंधित कर दी जाती है।
उपभोक्ता के स्वामित्व वाली वस्तु में अपनी इच्छानुसार तब्दीलियां या मरम्मत
करने पर निर्माता उन्हें इसी तरह से दंडित करते हैं, और
मरम्मत के अधिकार की लड़ाई इसी के खिलाफ है।
ऐप्पल भी ऐसे कामों के लिए कुख्यात है; वह
अपने बनाए उत्पादों पर अपना नियंत्रण रखना चाहती है। पहले ऐप्पल अपने खास स्क्रू, चार्जिंग पोर्ट और अन्य तकनीकों के मालिकाना मानकों का उपयोग करती थी जो या तो
उन्हें सहायक उपकरणों के माध्यम से या मरम्मत के माध्यम से कमाई करने में मदद करते
थे,
क्योंकि कई सुधारकों के पास ऐप्पल उपकरण को सुरक्षित रूप से
खोलने के औज़ार नहीं थे।
आईफोन-12 लाने के बाद ऐप्पल इसके भी एक कदम आगे गई। उसने अपने फोन के सभी
पुर्ज़ों को ऐप्पल से पंजीकृत एक-एक संख्या दे दी, जिसके
चलते स्क्रीन बदलवाने जैसे सरल से काम के बाद भी लोगों को सॉफ्टवेयर सम्बंधी
समस्याओं का सामना करना पड़ा। एक यू-ट्यूबर ने हाल ही में दो आईफोन-12S खरीदे थे और उसने दोनों के पुर्ज़े आपस में
बदल दिए। ऐसा करने के बाद उसके फोन दिक्कत देने लगे। तब पता चला कि प्रत्येक
पुर्ज़ा केवल एक ही मदरबोर्ड के साथ काम करने के लिए बना है, और इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि यदि आप खुद उसी कंपनी के दूसरे पुर्ज़े लगा
देंगे तो फोन में कोई दिक्कत नहीं आएगी। फोन कोई दिक्कत न करे यह सुनिश्चित करने
का एकमात्र तरीका है कि मरम्मत सिर्फ ऐप्पल स्टोर पर कराई जाए।
जल्दी ही चायनीज़ मरम्मत दुकानों ने ऐप्पल द्वारा खड़ी की गई इस चुनौती का तोड़
ढूंढ लिया। उन्होंने कुछ ही समय में एक ऐसा उपकरण बना लिया है जो ऐप्पल फोन के
टूटे पुर्ज़े से उसका सीरियल नंबर पता कर लेता है और उसे वहां से कॉपी कर नए पुर्ज़े
पर चस्पा कर देता है। इससे ऐप्पल का सॉफ्टवेयर इस झांसे में रहता है कि फोन उसी
स्क्रीन (या पुर्ज़े) का उपयोग कर रहा है जो फोन के साथ आई थी।
मरम्मत के अधिकार का उल्लंघन करना केवल मोबाइल फोन और ऑटोमोबाइल के क्षेत्र तक
सीमित नहीं रहा। इस्तरी, सायकल, म्यूज़िक
प्लेयर,
पानी के फिल्टर वगैरह को कुछ साल पहले तक सुधारा जा सकता था, लेकिन आज निर्माता किसी न किसी तरह से इन सभी की मरम्मत या पुर्ज़ों की
अदला-बदली पर नियंत्रण रखे हुए हैं।
कुछ टूट जाए तो?
किसी वस्तु के टूटने पर उपभोक्ता और निर्माता दोनों के अलग-अलग उद्देश्य होते
हैं। उपभोक्ता उसकी मरम्मत पर कम से कम खर्च करना चाहता है जबकि निर्माता मरम्मत
के लिए अधिक से अधिक रकम वसूल करना चाहता है।
उपभोक्ता का दृष्टिकोण
उपभोक्ता निम्नलिखित कारणों से नई वस्तु खरीदने की बजाय अपनी टूटी हुई वस्तु
का पुर्ज़ा बदलवाना चाहता है:
इससे
पैसों की बचत होती है, क्योंकि आम तौर नए उत्पाद की तुलना में
पुर्ज़ा बदलवाना कम खर्चीला होता है।
यह
पर्यावरण के लिए अच्छा है क्योंकि मरम्मत करवाने में कम कचरा निकलता है, बजाय पूरी वस्तु फेंकने के।
हर
किसी को कंपनी द्वारा बाज़ार में उतारे गए नवीनतम उपकरणों/वस्तुओं की ज़रूरत नहीं
होती। मरम्मत करने से वस्तु या उपकरण लंबे समय तक उपभोक्ता द्वारा उपयोग किए जा
सकते हैं या किसी और को दिए जा सकते हैं।
कभी-कभी
उपयोगकर्ताओं को किसी वस्तु से भावनात्मक लगाव होता है और वे उसे लंबे समय तक अपने
पास रखना चाहते हैं, मरम्मत करना उस वस्तु का भावनात्मक मूल्य
बनाए रखता है।
मरम्मत
करना उपभोक्तावाद की समकालीन संस्कृति, जो ग्राहक और पर्यावरण
दोनों के लिए हानिकारक है, को हतोत्साहित करता है।
उपयोगकर्ता
द्वारा खुद मरम्मत करने के विकल्प को सशक्त बनाता है।
निर्माता का दृष्टिकोण
निर्माता निम्नलिखित कारणों से नियंत्रित करना चाहता है कि क्या बदला जा सकता
है और क्या नहीं,
और किसे उनके द्वारा उत्पादित वस्तु की मरम्मत करने की
अनुमति है;
इससे
वे उपयोगकर्ता के अनुभव को नियंत्रित कर सकते हैं और उन्हें एकरूप अनुभव प्रदान कर
सकते हैं।
यदि वे
पुर्ज़ों और सहायक उपकरणों के मालिकाना मानकों का उपयोग करते हैं तो वे मरम्मत
बाज़ार को नियंत्रित कर सकेंगे।
वे
उपकरण को बेचने के बाद भी उस पर सेवा शुल्क लेकर उससे पैसा कमाना जारी रख सकते
हैं।
निर्माता विरोध क्यों कर रहे
2014 में repair.org के पहले बिल के बाद से, यूएसए के 32 राज्यों ने repair.org द्वारा प्रदान किए गए मरम्मत के अधिकार के विधेयक के प्रारूप का उपयोग कर
कानून पर काम करना शुरू कर दिया है। इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि
निर्माताओं ने इस आंदोलन और कानून का विरोध करने का फैसला किया है। निर्माताओं के
तर्क इस प्रकार हैं;
1. यह नवाचार को रोकता है
निर्माताओं का तर्क है कि यह कानून नवाचार को हतोत्साहित करता है क्योंकि वे
अधिक शक्तिशाली मशीन बनाने के प्रयास के साथ उन्हें कॉम्पैक्ट बनाने की भी कोशिश
कर रहे हैं। इस प्रयास में वे पुर्ज़ों को एक-दूसरे में एकीकृत करते हैं, और यह मरम्मत को मुश्किल बनाता है। उदाहरण के लिए, लैपटॉप
सुधारना डेस्कटॉप सुधारने की तुलना में कठिन है, क्योंकि
लैपटॉप एक कॉम्पैक्ट मशीन है। निर्माताओं का दावा है कि मरम्मत योग्य बनाने को ध्यान
में रखकर कोई नवाचार करना मुश्किल होगा।
2. उत्पादन-लागत को बढ़ाता है
कुछ निर्माता जैसे कॉरसैर अपनी मर्ज़ी से अपने ऑडियो उत्पादों की मरम्मत करते
हैं,
वह भी बिना किसी शुल्क के (चाहे पहले भी उनको बदला या
सुधारा जा चुका हो)। इसके साथ ही यदि उत्पाद वारंटी की अवधि में हो तो वे शिपिंग
शुल्क का भुगतान भी करते हैं। यह उपभोक्ताओं के लिए बहुत अच्छा है, लेकिन निर्माताओं के हिसाब से इससे लागत बढ़ सकती है, जिसकी
मार अधिक कीमत के रूप में उपभोक्ताओं पर ही पड़ेगी। परिणामस्वरूप उत्पाद की मांग
प्रभावित हो सकती है।
3. अनुसंधान व विकास को रोकता है
निर्माताओं ने न्यूयॉर्क में इस बिल के विरोध में कहा है कि यह बिल अनुसंधान
और विकास को हतोत्साहित करता है, क्योंकि नई तकनीक बनाने में
निर्माताओं के लाखों डॉलर खर्च होते हैं। दूसरी ओर, अन्य
पार्टी द्वारा पुर्ज़ों की नकल बनाने में इसका अंशमात्र ही खर्च होता है।
हकीकत में उनका यह दावा सच्चाई से कोसों दूर है क्योंकि अधिकांश मरम्मत करने
वाले लोग छोटी दुकानों के मालिक होते हैं, जिनके
पास अरबों डॉलर के उद्यमियों द्वारा बनाए गए पुर्ज़ों की नकल बनाने का कोई साधन
नहीं होता। और इन छोटे पुर्ज़ों को बनाने वाले अधिकांश उद्योग मूल उपकरण निर्माताओं
के साथ प्रतिस्पर्धा करने में असमर्थ होते हैं।
4. हमेशा एक-सा अनुभव नहीं दे सकते
कोई कार जो कंपनी द्वारा उपयुक्त बैटरी का उपयोग नहीं करती, वह उसी तरह का प्रदर्शन नहीं कर सकती है जैसा वह एकदम नई होने पर करती थी।
अन्य निर्माता द्वारा बनाए गए पुर्ज़ों का परीक्षण मूल निर्माता द्वारा नहीं किया
जाता इसलिए वे हमेशा एक-समान अनुभव की गारंटी नहीं दे सकते, जो कि वे देना चाहते हैं।
5. उपभोक्ता की सुरक्षा चिंता
जब कभी फोन की बैटरी फट जाती है और इससे किसी को शारीरिक नुकसान पहुंचता है, तो यह खबर तुरंत सुर्खियों में आ जाती है जिसमें उस फोन निर्माता का भी उल्लेख
किया जाता है। चीन के स्वेटशॉप में बनी नकली या वैकल्पिक बैटरी में वे सुरक्षा
मानक नहीं रखे जाते जो मूल निमाताओं द्वारा रखे जाते हैं। इस तरह की खबरों से
अक्सर निर्माता की प्रतिष्ठा को बहुत नुकसान पहुंचता है और बिक्री पर प्रतिकूल
प्रभाव पड़ता है क्योंकि उपभोक्ता उनके उत्पादों को सुरक्षित महसूस नहीं करते हैं।
निर्माताओं और गुटों के इस बिल का विरोध करने के कई कारण हो सकते हैं लेकिन इस
विरोध का मूल कारण बिल्कुल स्पष्ट है। वे मरम्मत शृंखला पर नियंत्रण और एकाधिकार
स्थापित करना चाहते हैं, जो उन्हें मरम्मत के लिए भारी
कीमत वसूलने दे। वे बेची जा चुकी चीज़ से अधिकाधिक कमाई करते रहना चाहते हैं।
भारत में भी यह कानून हो
दुनिया की सबसे सस्ती इंटरनेट योजनाएं भारत की हैं, और इसी
के कारण यहां पिछले पांच वर्षों में स्मार्टफोन तक पहुंच लगभग दुगनी हो गई है।
अपनी आबादी के चलते हम दुनिया के अन्य घरेलू इलेक्ट्रॉनिक्स उपकरणों के एक बड़े
हिस्से के उपभोक्ता भी हैं।
हम कृषि से लेकर, उद्योग और सेवा क्षेत्रों तक प्रौद्योगिकी
का उपयोग कर रहे हैं, हालांकि यह भी सच है कि हमारे कृषि क्षेत्र
तक वे तकनीकें अब तक नहीं पहुंची हैं जो विश्व के आला देशों के पास हैं। इस विधेयक
को अभी इसलिए भी पारित करना चाहिए क्योंकि अभी इसका विरोध कम होगा और इसका विरोध
करने वाले भी कम होंगे।
आज अधिकांश भारतीय किसान या तो कृषि के पारंपरिक तरीकों का उपयोग कर रहे हैं
या बुनियादी ट्रैक्टर और हार्वेस्टर व अन्य मशीनरी का उपयोग कर रहे हैं जो
सॉफ्टवेयर नियंत्रित नहीं होते। इसलिए अभी उपरोक्त अधिनियम को पारित करना और भी
आसान होगा। उद्योगों द्वारा इस बिल का विरोध करने की संभावना भी कम होगी क्योंकि
वे अभी तक बड़े पैमाने पर परिष्कृत कृषि मशीनरी भारत में नहीं लाए हैं।
वैसे भारत में यह स्थिति काफी पहले से ही दिखाई देने लगी है, बस हम अपनी आंखें मूंदे हुए हैं। आजकल फोन की बैटरी बदलवाने के लिए फोन को
दुकान पर ले जाना पड़ता है, जबकि कुछ साल पहले तक पीछे का
कवर हटाकर हम खुद बैटरी बदल सकते थे।
कुछ साल पहले तक घर में काम आने वाली इस्तरियों में भी बदले जा सकने वाले
प्रतिरोधक होते थे; आधुनिक इस्तरियों में ये प्लास्टिक के आवरण
से ढंके होते हैं, जो मरम्मत करने से रोकते हैं क्योंकि
प्लास्टिक के टूटने का खतरा अधिक होता है।
पुरानी शैली के कैंडल वाले पानी के फिल्टर की जगह अब प्यूरीफायर ने ले ली है, जिनका फिल्टर बदलने के लिए तकनीशियनों की ज़रूरत पड़ती है। पुराने फिल्टर में एक
सामान्य सी कैंडल लगती थी, जिसे कोई भी बदल सकता था और
किसी भी ब्रांड की कैंडल काम करती थी।
पुराने टेलीविज़न की पिक्चर ट्यूब को भी आसानी से बदला जा सकता था। लेकिन
आधुनिक OLED डिस्प्ले वाले टीवी में रंगों
के प्रदर्शन के लिए एक छोटी चिप होती है। यह चिप 28 सोल्डरिंग की मदद से सर्किट
में लगाई जाती है और इस पूरे ताम-झाम को जमाने के लिए विशेष उपकरणों और
सूक्ष्मदर्शी की आवश्यकता होती है।
कहने का मतलब यह नहीं है कि प्रौद्योगिकी परिष्कृत नहीं होनी चाहिए, या हम सभी को पुराने ज़माने की पुरानी तकनीकों पर लौट जाना चाहिए ताकि मरम्मत
आसान हो। लेकिन समस्या तब शुरू होती है जब निर्माता मरम्मत बाज़ार पर अनुचित
नियंत्रण हासिल करने या उपभोक्ता को मरम्मत करने से रोकने के हथकंडे अपनाते हैं।
उपरोक्त सभी उदाहरणों ने भारतीयों को भी प्रभावित किया है, फिर भी भारत में किसी को भी मरम्मत के अधिकार का कानून लाने की ज़रूरत नहीं लगती। लोगों को ज़रूरत न लगने और लोगों में जागरूकता की कमी के कारण ही हमारी दिनचर्या में इस्तेमाल होने वाले घरेलू उपकरणों को योजनाबद्ध तरीके से एक निश्चित समय के बाद बेकार किया जा रहा है और जानबूझकर उन्हें इस तरह बनाया जा रहा है कि उनकी मरम्मत करना मुश्किल हो जाता है, और इसलिए भारत को अपने मरम्मत के अधिकार अधिनियम की आवश्यकता है। हम जितनी जल्दी इस वास्तविकता के प्रति जागरूक होंगे और कदम उठाएंगे, लोगों के लिए उतना ही अच्छा होगा। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.therecycler.com/wp-content/uploads/2021/06/Fair-Repair-USA.png
आम तौर पर कीमत को हम मुद्रा से जोड़कर देखते हैं। लेकिन यहां
हम सामाजिक कीमत की बात करेंगे। सामाजिक कीमत वह है जिसे किसी उद्देश्य पूर्ति के
लिए समाज सामूहिक रूप से वहन करता है। भारत के संदर्भ में यह पिछले साल मार्च और
फिर इस साल अप्रैल-मई में की गई तालाबंदी के कारण समाज द्वारा झेली गई पीड़ा और
क्षति है। इस लेख में हम देखेंगे कि कैसे आनन-फानन तालाबंदी ने लोगों का जीवन
प्रभावित किया और किस तरह तालाबंदी की सामाजिक कीमत कम की जा सकती थी।
तालाबंदी के कारण मौतें
भारत में मई 2021 तक मरने वालों की अधिकारिक संख्या 2,95,525 थी जिसका कारण
सिर्फ महामारी नहीं थी। समाचार वेबसाइट theprint.in के अनुसार सिर्फ केरल में
अप्रैल 2020 तक तालाबंदी के दौरान भूख, पुलिस की बर्बरता, चिकित्सा सहायता में देरी, आय के स्रोत चले जाने, भोजन व आश्रय न मिलने, सड़क दुर्घटनाओं, शराब की तलब,
अकेलेपन या बाहर निकलने पर पाबंदी और तालाबंदी से जुड़े
अपराध (गैर-सांप्रदायिक) के कारण 186 लोगों की जान चली गई थी।
अनौपचारिक क्षेत्र
देशव्यापी तालाबंदी के दौरान भारत के अधिकांश हिस्सों में कोविड-19 से लड़ने के
लिए आवश्यक वस्तुओं की निर्बाध आपूर्ति की कोशिश हो रही थी। लेकिन मुख्य सवाल यह
है कि इतने बड़े पैमाने पर उत्पादन और कम लागत पर वितरण की मांग को पूरा करने के
लिए श्रमिकों को क्या कीमत चुकानी पड़ी? ये ऐसे सवाल हैं जिनमें
संक्रमण काल से परे दीर्घकालिक मानवीय चिंता झलकती है।
असंगठित और प्रवासी श्रमिकों का एक बड़ा वर्ग (39 करोड़) है, जो सबसे कमज़ोर है और सामाजिक-आर्थिक सुरक्षा के दायरे से या तो बाहर है या
उसकी परिधि पर है। तालाबंदी की सामाजिक कीमत सबसे अधिक इसी मज़दूर वर्ग ने चुकाई
है। और इसी वजह से यह तबका शोषण और मानव तस्करी जैसे संगठित अपराधों का आसानी से
शिकार बन जाता है।
प्रवासी मज़दूरों के लिए अपने गांव वापस जाना भी आसान नहीं था। कई राज्यों में
श्रमिकों को अपने गांव पहुंचने से पहले और बाद में अभाव और भूख का सामना करना पड़ा।
उन्हें अपने दैनिक निर्वाह के लिए महंगा कर्ज़ लेने को मजबूर होना पड़ा। इसने बच्चों
को अपने माता-पिता द्वारा लिया कर्ज चुकाने के लिए बंधुआ मज़दूरी और भुगतान-रहित
मज़दूरी करने की ओर धकेल दिया।
2020 के उत्तरार्ध में तालाबंदी के बाद जब चीज़ें सामान्य होने लगीं और कारखाने
पूरी क्षमता के साथ शुरू हो गए तो कारखाना मालिकों ने अपने नुकसान की भरपाई के लिए
श्रमिकों को कम पैसों पर रखना शुरू किया। ज़रूरतमंद, कमज़ोर
और असंगठित श्रमिक पर्याप्त मज़दूरी या अपने अधिकारों के लिए आवाज़ उठाने की स्थिति
में न होने के कारण कम मज़दूरी पर काम करने लगे। कई राज्य सरकारों ने अर्थ व्यवस्था
दुरुस्त करने की आड़ में श्रमिक कानूनों में ढील देकर श्रमिकों की मुसीबत और बढ़ा
दी।
काम पर रखे गए नए मज़दूरों में बड़ी संख्या में बच्चे थे, परिवार की मदद करने के कारण उनका स्कूल छूट गया। कारखानों में मज़दूरी के लिए हज़ारों
बच्चों की तस्करी भी हुई, जहां उन्हें अत्यंत कम मज़दूरी
पर काम करना पड़ा और संभवत: शारीरिक, मानसिक और यौन उत्पीड़न भी
झेलना पड़ा।
केंद्र और राज्य सरकारों को इन चुनौतियों से निपटने के लिए वृहद योजना बनाने
की ज़रूरत है। खासकर असुरक्षित/हाशिएकृत बच्चों की सुरक्षा के लिए। यहां कुछ ऐसे
तरीकों का उल्लेख किया जा रहा है जिन्हें अपनाकर दोनों तालाबंदी का बेहतर प्रबंधन
किया जा सकता था –
1. कानूनी ढांचे का आकलन और समीक्षा: केंद्र सरकार को मानव तस्करी के
मौजूदा आपराधिक कानून, इसकी अपराध रोकने की क्षमता और पीड़ितों की
ज़रूरतों को पूरा करने की क्षमता का आकलन करके लंबित मानव तस्करी विरोधी विधेयक को
संशोधित करके संसद में पारित करवाना चाहिए।
2. कारखानों और विनिर्माण इकाइयों का निरीक्षण: छोटे और मध्यम व्यवसायी
कारखानों को गैर-कानूनी ढंग से न चला पाएं, इसके
लिए उनका निरीक्षण करना और उन्हें जवाबदेह बनाना चाहिए। बाल श्रम कानूनों के
अनुपालन पर अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है। साथ ही बाल श्रम रोकने के लिए कम से
कम अगले दो वर्षों तक पंजीकृत कारखानों और अन्य निर्माण इकाइयों का गहन निरीक्षण
किया जाना चाहिए।
3. कानून के अमल और पीड़ितों के पुनर्वास हेतु बजट आवंटन में वृद्धि:
विमुक्त बंधुआ मज़दूरों के पुनर्वास के लिए 2016 में केंद्र सरकार ने अपनी योजना के
तहत पीड़ितों को तीन लाख रुपए तक के मुआवज़े का प्रावधान रखा था। लेकिन बजट में
योजना के लिए कुल आवंटन महज़ 100 करोड़ रुपए है जबकि योजना को बनाए रखने का न्यूनतम
खर्च ही 100.2 करोड़ रुपए है। इसमें तत्काल वृद्धि आवश्यक है।
4. ऋण प्रणाली का विनियमन: ग्रामीण भारत में स्थानीय साहूकारों द्वारा
तालाबंदी से प्रभावित लोगों का शोषण रोकने के लिए विनियमन की आवश्यकता है। इसमें
उधार देने के लिए लायसेंस और ब्याज दर की उच्चतम सीमा निर्धारित करने के अलावा, सरकारी बैंकों द्वारा उचित शर्तों पर दीर्घावधि कर्ज़ देना व उदार वसूली
प्रक्रियाएं शामिल हों। बंधुआ मज़दूरी को समाप्त करने में राज्य सरकारों की सक्रिय
भूमिका हो।
महिलाएं
तालाबंदी की सामाजिक कीमत महिलाओं और बच्चों को भी चुकानी पड़ी है। आर्थिक के
अलावा मनोवैज्ञानिक असर भी देखे जा रहे हैं। लोग पहले ही गंदगी और बदतर स्थितियों
में रहने को मजबूर थे और अनियोजित तालाबंदी के कारण लिंग-आधारित हिंसा, बाल-दुर्व्यवहार, सुरक्षा में कमी, धन और
स्वास्थ्य जैसी सामाजिक असमानताएं बढ़ी हैं। महिलाएं वैसे ही अपने स्वास्थ्य की
उपेक्षा करती हैं। ऊपर से लॉकडाउन के दौरान महिलाओं के स्वास्थ्य – मासिक स्राव
सम्बंधी स्वास्थ्य, मानसिक स्वास्थ्य और पोषण – की और उपेक्षा
हुई है और सीमित हुए संसाधनों ने स्थिति को और भी बदतर बनाया है।
तालाबंदी के दौरान बाल विवाह की संख्या में भी वृद्धि देखी गई है। केंद्रीय
महिला एवं बाल विकास मंत्रालय के अनुसार वर्ष 2020 की तालाबंदी के दौरान, बाल विवाह से सम्बंधित लगभग 5584 फोन आए थे।
स्कूल बंद होने के कारण परिवारों और युवा लड़कियों तक पहुंच पाना और बाल-विवाह
के मुद्दे पर बात करना मुश्किल हो गया है। बाल अधिकार कार्यकर्ताओं के अनुसार बाल
विवाह के चलते लड़कियों का स्कूल छूट जाता है। और यदि हालात बिगड़ते हैं तो उन्हें
गुलामी और घरेलू हिंसा भी झेलनी पड़ती है।
तालाबंदी में नौकरी गंवाने और आय न होने के चलते प्रवासी कामगार और मज़दूर
भुखमरी और कर्ज़ की ओर धकेले गए। इस स्थिति में उन्हें बेटियों का शीघ्र विवाह करना
ही उनकी सुरक्षा और जीवन के लिए उचित लगा।
शिक्षा
शिक्षा पर तालाबंदी का प्रभाव विनाशकारी रहा। मार्च 2020 में सख्त तालाबंदी
लगते ही स्कूल भी बंद कर दिए गए। और बंद पड़े स्कूल अब तक सबसे उपेक्षित मुद्दा रहा
है। विश्व बैंक ने अपनी 2020 की रिपोर्ट बीटन ऑर ब्रोकन: इनफॉर्मेलिटी एंड
कोविड-19 इन साउथ एशिया में पर्याप्त डैटा के साथ इस पर एक व्यापक विश्लेषण
प्रकाशित किया है कि कैसे महामारी ने दक्षिण एशियाई क्षेत्र को प्रभावित किया।
इस रिपोर्ट का एक दिलचस्प बिंदु है अर्थव्यवस्था पर स्कूल बंदी का प्रभाव।
तालाबंदी की घोषणा के बाद से ही दक्षिण एशिया में स्कूल बंद हैं। भारत में भी
मार्च 2020 से स्कूल बंद कर दिए गए थे। अधिकतर शहरी निजी स्कूलों ने ऑनलाइन शैली
में कक्षाएं शुरू कर दी थीं। लेकिन सरकारी स्कूल अब भी कक्षाएं संचालित करने के
लिए संघर्ष कर रहे हैं क्योंकि सुदूर और ग्रामीण इलाकों में रहने वाले बच्चों की
इंटरनेट तक पहुंच नहीं है या उसका खर्च वहन करने की सामथ्र्य नहीं है। यह एक गंभीर
मुद्दा है।
विश्व बैंक ने शायद पहली बार अपनी रिपोर्ट में स्कूल बंदी के प्रभावों के
मौद्रिक आकलन की कोशिश की है। रिपोर्ट के नतीजे चौंकाने वाले हैं। रिपोर्ट के
अनुसार दक्षिण एशियाई क्षेत्र में 39.1 करोड़ बच्चे स्कूलों से वंचित हुए जिसके
कारण सीखने का गंभीर संकट पैदा हो गया है। महामारी के कारण 55 लाख बच्चे पढ़ाई छोड़
भी सकते हैं। इसके अलावा, स्कूल बंदी से स्कूली शिक्षा
के 6 महीनों के समय का नुकसान हुआ है।
रिपोर्ट कहती है कि स्कूल बंद होने से न केवल सीखने पर अस्थायी रोक लगती है, बल्कि छात्रों द्वारा पूर्व में सीखी गई चीज़ों को भूलने का भी खतरा होता है।
इसका आर्थिक असर भी चौंकाने वाला है। स्कूल बंदी के परिणामस्वरूप दक्षिण एशियाई
क्षेत्र को 622 अरब डॉलर से 880 अरब डॉलर तक का नुकसान होने का अंदेशा है।
रिपोर्ट के अनुसार दक्षिण एशिया में एक औसत बच्चे के वयस्क होने के बाद उसकी
जीवन भर की कमाई में कुल 4400 डॉलर की कमी आएगी जो उसकी संभावित आमदनी का 5
प्रतिशत है। रिपोर्ट यह भी बताती है कि वर्तमान तालाबंदी से होने वाला कुल आर्थिक
नुकसान,
वर्तमान में शिक्षा पर किए जाने वाले खर्च से काफी अधिक है।
सामाजिक पतन
भारत और अन्य देशों में कई तरह के नस्लवाद ने लोगों को बांट दिया है।
धर्म-आधारित घृणा, जाति आधारित भेदभाव और उत्तर-पूर्वी लोगों
को कलंकित करना किसी भी अन्य भेदभाव के समान ही घातक है। अनभिज्ञ और पक्षपाती
मीडिया और लोगों ने देश के सामाजिक ताने-बाने को नुकसान पहुंचाया है और कोविड-19
के खिलाफ लड़ाई को सामाजिक रूप से बहुत प्रभावित किया है। सार्स-कोव-2 वायरस को
उसकी उत्पत्ति के चलते चीनी वायरस कहकर चीन के लोगों के साथ भेदभाव का माहौल बना।
यह संवेदनशीलता के गिरते स्तर का द्योतक है। समाज ने तालाबंदी की यह एक और कीमत
चुकाई है।
यदि उचित उपाय नहीं किए गए तो जातिवाद के विचार स्वाभाविक रूप से लोगों की
मानसिकता में बने रहेंगे जो समाज की शांति और स्थिरता के लिए खतरा होगा। नस्लवाद
के इस अदृश्य घातक वायरस से लड़ने के लिए व्यक्तिगत, सामुदायिक
और सरकारी स्तर पर, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय संगठनों के
स्तर पर दीर्घकालिक नियोजन और सामूहिक प्रयास किए जाने चाहिए। भारत में नेताओं को
भाषा और मुद्दों के प्रति अधिक संवेदनशील होने की आवश्यकता है। उन्हें समस्या के
समाधान निकालने के प्रयास करने चाहिए न कि समाधान में अड़ंगा लगाना चाहिए।
निष्कर्ष
यहां हमने तालाबंदी की समाज द्वारा चुकाई गई कुछ कीमतों पर ध्यान दिया। लेकिन
हमारे आसपास कई और भी मुद्दे हैं जो दिखते तो हैं लेकिन उपेक्षित रह जाते हैं।
जैसे किराए की दुकान में अपना व्यवसाय करने वाले छोटे व्यवसाय, तालाबंदी में दुकान बंद रखने के कारण उनकी आय तो रुक गई लेकिन दुकान का किराया
तो देना ही पड़ा होगा।
भले ही आकलन करना कठिन हो, लेकिन स्पष्ट है कि 2020 और
2021 दोनों में भारत के लॉकडाउन की सामाजिक कीमत काफी अधिक रही है। तालाबंदी जैसे
कठोर उपायों को लागू करने से पहले व्यवस्थित योजना तालाबंदी की सामाजिक कीमत कम
करने और लोगों का नुकसान कम करने व कम से कम असुविधा सुनिश्चित कर सकती है। यह सभी
के लिए हितकर होगा कि हम अपनी गलतियों से सीखें, स्वास्थ्य
व स्वास्थ्य के बुनियादी ढांचे को दुरुस्त करने पर अधिक ध्यान दें, चिकित्सा अध्ययन को प्रोत्साहित करने के तरीके खोजें, और यह
सुनिश्चित करें कि हमारे डॉक्टर देश छोड़कर न जाएं।
तालाबंदी अपर्याप्त स्वास्थ्य सेवा की भरपाई का अंतिम उपाय है, महामारी का समाधान नहीं। ज़रूरत है कि समाज के कमज़ोर वर्गों को होने वाले नुकसान को कम से कम करने के लिए उचित योजना बनाई जाए, और स्वास्थ्य सेवा में भारी निवेश किया जाए ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि भविष्य में ऐसी स्थिति फिर से उत्पन्न होने पर हमें स्वास्थ्य के कमज़ोर ढांचे की वजह से तालाबंदी न करनी पड़े। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://img.etimg.com/thumb/msid-75092299,width-640,height-480,imgsize-519996,resizemode-4/mid-way-option.jpg
हाल ही में ट्विटर ने अपने सोशल मीडिया प्लेटफार्म से ऐसे
अकाउंट्स को निलंबित या बंद कर दिया है जो नियमित रूप से कोविड-19 टीकों से जुड़ी
भ्रामक जानकारी फैला रहे थे। इसी तरह की एक पहल के तहत अमेरिकी वैज्ञानिकों ने
कोविड-19 टीके के बारे में भ्रामक जानकारियों के विरुद्ध मोर्चा खोल दिया है।
कुछ सर्वेक्षणों से पता चला है भ्रामक खबरों के परिणामस्वरूप अमेरिका की 20
प्रतिशत से अधिक जनसंख्या टीकाकरण के विरोध में है। शोधकर्ता सोशल मीडिया पर टीके
से सम्बंधित गलत सूचनाओं को ट्रैक करने और भ्रामक सूचनाओं, राजनैतिक
बयानबाज़ी और जन नीतियों से टीकाकरण पर पड़ने वाले प्रभावों का डैटा एकत्र कर रहे
हैं। इन भ्रामक सूचनाओं में षड्यंत्र सिद्धांत काफी प्रचलित है जिसके अनुसार
महामारी को समाज पर नियंत्रण या अस्पतालों का मुनाफा बढ़ाने के लिए बनाया-फैलाया गया
है। यहां तक कहा जा रहा है कि टीका लगवाना जोखिम से भरा और अनावश्यक है।
इस संदर्भ में वायरेलिटी प्रोजेक्ट नामक समूह ट्विटर और फेसबुक जैसे
प्लेटफार्म द्वारा टीकों से जुड़ी गलत जानकारियों से निपटने के प्रयासों में तथा जन
स्वास्थ्य एजेंसियों और सोशल-मीडिया कंपनियों के साथ मिलकर नियमों का उल्लंघन करने
वालों की पहचान करने में मदद कर रहा है।
स्टैनफोर्ड इंटरनेट ऑब्ज़र्वेटरी की अनुसंधान प्रबंधक रिनी डीरेस्टा के अनुसार
शोधकर्ताओं ने टीकाकरण के संदर्भ में भ्रामक प्रचार के चलते सार्वजनिक नुकसान की
आशंका के कारण इस पर ध्यान केंद्रित किया गया है। हालांकि, सोशल
मीडिया कंपनियां सभी मामलों में तो सच-झूठ की पहरेदार नहीं बन सकती लेकिन नुकसान
की संभावना को देखते हुए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के साथ संतुलन अनिवार्य है।
फरवरी में ट्विटर, फेसबुक (इंस्टाग्राम समेत) ने झूठे दावों को
हटाने के प्रयासों को विस्तार दिया है। दोनों ही कंपनियों ने घोषणा की है कि झूठी
खबरें फैलाने वाली पोस्ट और ट्वीट को हटाया जाएगा और बार-बार नीतियों का उल्लंघन
करने वालों के अकाउंट्स बंद भी कर दिए जाएंगे।
यह देखा गया है कि वेब पर गलत जानकारी अपेक्षाकृत थोड़े-से लोगों
(सुपरस्प्रेडर्स) द्वारा फैलाई जाती है। इनमें अक्सर पक्षपाती मीडिया, सोशल मीडिया इंफ्लुएंसर और राजनीतिक हस्तियां शामिल होती हैं।
गौरतलब है कि कोविड-19 के बारे में लोगों की सोच का अनुमान लगाने के लिए
बोस्टन स्थित नार्थवेस्टर्न युनिवर्सिटी, मेसाचुसेट्स के राजनीति
वैज्ञानिक डेविड लेज़र के नेतृत्व में अमेरिका के सभी 50 राज्यों में प्रति माह
25,000 से अधिक लोगों का सर्वेक्षण किया जा रहा है और साथ ही ट्विटर का उपयोग करने
वाले 16 लाख लोगों की जानकारी भी एकत्रित की जा रही है।
फरवरी में लगभग 21 प्रतिशत लोगों ने टीकाकरण करवाने से इनकार किया। स्वास्थ्य कर्मियों में यह आंकड़ा लगभग 24 प्रतिशत था। देखा गया कि इस फैसले के पीछे शिक्षा का स्तर एक मुख्य कारक रहा। टीम यह समझने का प्रयास कर रही है कि स्वास्थ्य सम्बंधी गलत जानकारी का सामना करने में कौन-सी चीज़ें प्रभावी हो सकती हैं। लगता है कि डॉक्टर और वैज्ञानिकों को सबसे भरोसेमंद माना जाता है जबकि पक्षपातपूर्ण राजनीतिक नेताओं के संदेशों पर विश्वास की संभावना कम होती है। ऐसे में डॉक्टर की सकारात्मक सलाह लोगों की पसंद को प्रभावित कर सकती है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://ichef.bbci.co.uk/news/640/cpsprodpb/4132/production/_114909661_vaccine.png
लगभग एक वर्ष पूर्व भारत में लॉकडाउन को अपनाया गया था। उसके
बाद से अर्थव्यवस्था को लगातार ऑक्सीजन की ज़रूरत पड़ रही है। इस लॉकडाउन के सामाजिक
व आर्थिक असर आज भी दिख रहे हैं।
इस लॉकडाउन ने भारत के सभी वर्गों को किसी न किसी स्तर पर प्रभावित किया है।
कुछ लोगों के लिए लॉकडाउन एक सुनहरा मौका रहा जहां वे अपने परिवार के साथ एक लंबी
छुट्टी का आनंद ले सके, वहीं अन्य लोगों के लिए यह बेरोज़गारी, भुखमरी,
पलायन और कुछ के लिए जान के जोखिम से भरा दौर रहा। आइए हम
उन नुकसानों का पता लगाने का प्रयास करते हैं जो सख्त लॉकडाउन के कारण देश को
झेलने पड़े। हम यह भी समझने का प्रयास करेंगे कि लॉकडाउन से किस हद तक वायरस
संक्रमण रोका जा सका।
व्यापक अर्थ व्यवस्था
कोरोनावायरस जीवन और आजीविका के नुकसान के केंद्र में रहा। लॉकडाउन के एक वर्ष
बाद भी भारत में जन स्वास्थ्य और अर्थव्यवस्था दोनों को ही पटरी पर लाने के प्रयास
किए जा रहे हैं। विभिन्न रिपोर्टों के अनुसार भारत में लॉकडाउन से अनुमानित 26-33
अरब डॉलर का नुकसान हुआ। गौरतलब है कि अधिकांश अनुमान पिछले वर्ष प्रकाशित
रिपोर्टों के आधार पर लगाए गए हैं जब लॉकडाउन से होने वाले नुकसान ठीक तरह से
स्पष्ट नहीं थे। देखा जाए तो इन गणनाओं में उन कारकों को ध्यान में नहीं लिया गया
जिन्हें धन के रूप में बता पाना मुश्किल या असंभव था लेकिन नुकसान में इनका हिस्सा
काफी था।
लॉकडाउन के कारण अर्थव्यवस्था को कई प्रकार की रुकावटों का सामना करना पड़ा।
इसे ऐसे समय में अपनाया गया जब अर्थव्यवस्था पहले से ही संघर्ष के दौर से गुज़र रही
थी। विभिन्न क्षेत्रों का व्यापार पहले से ही प्रभावित हो रहा था और लॉकडाउन के कारण
जांच उपकरणों सहित आवश्यक वस्तुओं की खरीद पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ा।
विदेश यात्रा और परिवहन पर प्रतिबंध ने परोक्ष रूप से आयात-निर्यात के व्यवसाय
को प्रभावित किया। यह आय का एक प्रमुख स्रोत है। इसके अलावा, हवाई और रेल यात्रा पर प्रतिबंध के कारण पर्यटन उद्योग को झटका लगा जो आमदनी
का एक बड़ा स्रोत है।
भारतीय अर्थव्यवस्था की एक विशेषता बड़ी संख्या में असंगठित खुदरा बाज़ार हैं।
लॉकडाउन ने इन्हें भी झकझोर दिया। इसके चलते ऑनलाइन खुदरा बाज़ार पर दबाव बढ़ा जिसे
कंपनियों ने चुनौती के रूप में स्वीकार किया और परिणामस्वरूप डिजिटल भुगतान की सुविधा
प्रदान करने वाली कंपनियों ने अपेक्षाकृत अच्छा प्रदर्शन किया।
अधिकारिक स्रोतों से उपलब्ध आंकड़ों के आधार पर इस वर्ष पर नज़र डालें, तो हालात गंभीर दिखाई देते हैं। यह डैटा अगस्त के अंत में जारी किया गया था।
सांख्यिकी और कार्यक्रम क्रियांवयन मंत्रालय की रिपोर्ट ने अप्रैल से जून तिमाही
में जीडीपी में 23.9 प्रतिशत की गिरावट के संकेत दिए हैं। लेकिन यह समस्या कम करके
आंकती है क्योंकि इसमें अनौपचारिक क्षेत्र को ध्यान में नहीं रखा गया है जिसे
लॉकडाउन का सबसे अधिक खामियाजा उठाना पड़ा था। यह इतिहास में दर्ज अत्यंत खराब
गिरावटों में से है और पिछले चार-पांच दशकों में ऐसा पहली बार हुआ है।
भारत के प्रमुख सांख्यिकीविद जाने-माने अर्थशास्त्री प्रणब सेन का मानना है कि
यदि हम सांख्यिकी और कार्यक्रम क्रियांवयन मंत्रालय द्वारा जारी किए गए आकड़ों में
अनौपचारिक क्षेत्र को भी शामिल करते हैं तो जीडीपी में गिरावट बढ़कर 33 प्रतिशत तक
हो जाएगी। सेन के अनुसार लॉकडाउन के बाद भारत की आर्थिक स्थिति गंभीर है और भविष्य
में और बदतर होने की संभावना है। उनका अनुमान है कि मार्च 2021 के अंत तक भारत की
जीडीपी में 10 प्रतिशत की और कमी हो सकती है।
जन स्वास्थ्य
अर्थव्यवस्था का गंभीर रूप से प्रभावित होना तो एक समस्या रही ही, लोगों की जान के जोखिम को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता है जिसके चलते जन
स्वास्थ्य सेवा इस अभूतपूर्व स्थिति में सबसे आगे आई। महामारी से पहले भी जन स्वास्थ्य
सेवा तक पहुंच एक प्रमुख चिंता रही है। गौरतलब है कि प्रत्येक देश में एक
स्वास्थ्य सेवा क्षमता होती है जिससे यह पता चलता है किसी देश में एक समय पर कितने
रोगियों को संभाला जा सकता है। 1947 के बाद से भारत की स्वास्थ्य सेवा क्षमता कभी
भी उल्लेखनीय नहीं रही है।
वर्ष 2018 से उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार, भारत
का अनुमानित सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यय लगभग 1.6 लाख करोड़ रुपए है। अधिकांश लोगों
के लिए सरकारी स्वास्थ्य सुविधाएं सबसे सस्ता विकल्प हैं। देखा जाए तो ग्रामीण
क्षेत्रों की तुलना में शहरी क्षेत्रों के सरकारी अस्पतालों में बिस्तरों की
उपलब्धता अनुपातिक रूप से अधिक है। महामारी के दौरान सरकार ने वायरस की पहचान और
उससे निपटने में मदद के लिए कई सरकारी और निजी जांच प्रयोगशालाओं को आवंटन किया
था।
विश्व भर के मंत्रालय रोकथाम के उपायों के माध्यम से ‘संक्रमण ग्राफ को समतल’
करने की बात कर रहे हैं लेकिन यह दशकों से स्वास्थ्य सेवा में अपर्याप्त निवेश की
ज़िम्मेदारी से बचने का तरीका भर है। यह सच है कि महामारी के कारण विश्व के विकसित
देश भी काफी उलझे रहे हैं लेकिन यह भी सच है कि उनमें से किसी भी देश को अपनी
स्वास्थ्य सेवाओं पर अत्यधिक बोझ के डर से भारत की तरह सख्त लॉकडाउन को अपनाना
नहीं पड़ा। वैसे भी, महामारी से निपटने में विकसित देशों की
स्वास्थ्य सेवाओं की नाकामी न तो हमारी तैयारी में कमी और न ही हमारे खराब
प्रदर्शन का बहाना होना चाहिए। आदर्श रूप से तो किसी भी देश की स्वास्थ्य सेवा
क्षमता इतनी होनी चाहिए कि वह अपनी आधी आबादी को संभाल पाए।
वर्ष 2021 में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमन ने 2021-22 के केंद्रीय बजट में
स्वास्थ्य और कल्याण के लिए 2.23 लाख करोड़ रुपए व्यय करने का प्रस्ताव रखा था जो
पिछले वर्ष में स्वास्थ्य सेवा पर खर्च किए गए 94,452 करोड़ रुपए के बजट से 137
प्रतिशत अधिक है।
वित्त मंत्री ने अगले वित्त वर्ष में कोविड-19 टीकों के लिए 35,000 करोड़ रुपए
खर्च करने का भी प्रस्ताव रखा है। इसके साथ ही न्यूमोकोकल टीकों को जारी करने की
भी घोषणा की गई है। उनका दावा है कि इन टीकों की मदद से प्रति वर्ष 50,000 से अधिक
बच्चों को मौत से बचाया जा सकता है।
स्वास्थ्य सेवा के आवंटन में वृद्धि के शोरगुल के बीच इस तथ्य को अनदेखा नहीं
किया जा सकता कि इनमें से कुछ खर्च एकबारगी किए जाने वाले खर्च हैं – जैसे 13,000
करोड़ का वित्त आयोग अनुदान और कोविड-19 टीकाकरण के लिए 35,000 करोड़ रुपए। गौरतलब
है कि पानी एवं स्वच्छता के लिए आवंटित 21,158 करोड़ का बजट भी स्वास्थ्य सेवा खर्च
में शामिल किया गया है जिसके परिणामस्वरूप कुल 137 प्रतिशत की वृद्धि नज़र आ रही
है।
सच तो यह है कि बजट में इस तरह के कुछ आवंटन केवल वर्तमान महामारी से निपटने
के लिए हैं जिनसे स्वास्थ्य सेवा में समग्र सुधार में कोई मदद नहीं मिलेगी। इसलिए
स्वास्थ्य सेवा आवंटन में तीन गुना वृद्धि वास्तविक नहीं है। अगले कुछ वर्षों में
स्वास्थ्य सेवा में सुधार के लिए निरंतर प्रयास करना आवश्यक है। इसके लिए अनुसंधान
और विकास पर निवेश बढ़ाना होगा। स्वास्थ्य सेवा के संदर्भ में देखा जाए तो हमारी
स्वास्थ्य सेवा प्रणाली वैश्विक महामारी से निपटने के लिए न तो तैयार थी और न ही
ठीक तरह से सुसज्जित। ऐसी स्थित में लॉकडाउन एक फौरी उपाय ही था।
आम आदमी
जून में प्रकाशित ग्लोबल अलायंस फॉर मास एंटरप्रेन्योरशिप की एक रिपोर्ट के अनुसार
महामारी के पूर्व कई सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम
‘अनौपचारिकता और कम उत्पादकता के दुष्चक्र में स्थायी रूप से फंसे हुए थे’ और
‘विकसित नहीं हो रहे थे’। लॉकडाउन के बाद सरकार का मुख्य उद्देश्य सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यमों को व्यवसाय के लिए एक विशेष ऋण शृंखला तैयार करना रहा।
ऐसे समय में जब नौकरी की कोई गारंटी नहीं है, लोग
खर्च करने के अनिच्छुक हैं और मांग में कमी है, तब कई
सूक्ष्म,
लघु और मध्यम उद्यमों के सुचारु रूप से काम करने की संभावना
सवालों के घेरे में हैं। ऐसे में विशेष ऋण लेने की क्षमता प्रदान करना अधिक सहायक
नहीं लगता है। अर्थव्यवस्था में मांग और आपूर्ति दोनों की गंभीर कमी के चलते
सूक्ष्म,
लघु और मध्यम उद्यमों के लिए अधिक ऋण निरर्थक ही हैं।
ग्लोबल अलायंस फॉर मास एंटरप्रेन्योरशिप की रिपोर्ट का अनुमान है कि कोविड-19
छोटे अनौपचारिक व्यवसायों के लिए सामूहिक-विलुप्ति की घटना बन सकता है और लगभग
30-40 प्रतिशत सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यमों के अंत की संभावना
है। इन संख्याओं का मतलब है कि भारत में बहुत कम समय में उद्योग और खुदरा व्यापारी
अपने व्यवसाय खो चुके होंगे। ये छोटी स्व-रोज़गार इकाइयां भारतीय अर्थव्यवस्था की
एक विशेषता है। इनमें से कई इकाइयां किराए पर दुकान लेती हैं, नगर पालिकाओं को भुगतान करती हैं और इन पर अन्य कई वित्तीय दायित्व होते हैं।
वैसे भी अपने छोटे स्तर के व्यवसाय के कारण उनकी आय अधिक नहीं होती है और लॉकडाउन
के कारण उन्हें अपने व्यवसाय को कई महीनों तक पूरी तरह बंद रखना पड़ा जबकि उनके
वित्तीय दायित्व तो निरंतर जारी रहे। चूंकि इन्हें मोटे तौर पर अनौपचारिक आर्थिक
गतिविधियों में वर्गीकृत किया जाता है, व्यापक अर्थ व्यवस्था के
नुकसान के हिसाब-किताब में इन्हें हुए नुकसान को इन्हें शामिल नहीं किया गया। यह
लॉकडाउन के दौरान होने वाले नुकसान का अदृश्य रूप है।
आजीविका ब्यूरो के अनुसार प्रवासी महिलाओं पर होने वाला प्रभाव अधिक अदृश्य और
हानिकारक रहा है। यह एक ऐसी श्रेणी है जिसे लॉकडाउन में भारी नुकसान चुकाना पड़ा है
लेकिन इस नुकसान को वित्तीय शब्दों में व्यक्त करना मुश्किल है क्योंकि महिलाएं
देखभाल के अवैतनिक कार्य का सबसे बड़ा स्रोत हैं।
आजीविका ब्यूरो ने यह भी पाया कि भारत के कपड़ा केंद्र अहमदाबाद में घरेलू और
वैश्विक व्यवसाय द्वारा महिलाओं को घर-आधारित श्रमिकों के रूप में रखा जाता है।
महामारी से पहले भी वहां की महिलाएं औसतन 40 से 50 रुपए प्रतिदिन कमा रही थीं
(किसी प्रकार के श्रम अधिकार, आश्रय या रोज़गार एवं स्वास्थ्य
सुरक्षा के बगैर)। लॉकडाउन के बाद वे केवल 10 से 15 रुपए प्रतिदिन कमा रही थीं। कई
महिलाएं इसलिए भी काम जारी रखना चाहती हैं ताकि वे अपने पति की हिंसा से बच सकें।
घर में किसी भी तरह से आय लाने में असमर्थ होने पर उन्हें हिंसा का सामना करना
पड़ता है। इसके अलावा, काम छोड़ देने का मतलब अपने ठेकेदार से
सम्बंध खो देना जिसे वे किसी भी हाल में खोना नहीं चाहती हैं।
नारीवादी अर्थशास्त्री अश्विनी देशपांडे ने लॉकडाउन के कारण नौकरी जाने के
मामले में महिलाओं की स्थिति अपेक्षाकृत बदतर पाई है। भारतीय अर्थव्यवस्था में कई
वर्षों से रोज़गार में महिला भागीदारी दर में गिरावट देखी जा रही है। अश्विनी
देशपांडे का अनुमान है कि लॉकडाउन के दौरान दस में से चार महिलाओं ने अपनी नौकरी
खो दी है।
सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनॉमी ने बेरोज़गारी से जुड़े कुछ और चौंकाने वाले
आंकड़े प्रकाशित किए हैं। लॉकडाउन के महीनों में नौकरी गंवाने के आंकड़ों को देखिए:
अप्रैल
2020 में 177 लाख वेतनभोगी लोगों ने रोज़गार खो दिया।
मई
2020 में 10 लाख वेतनभोगी लोगों ने रोज़गार गंवाया।
जून
2020 में 39 लाख वेतनभोगी लोगों ने रोज़गार गंवाया।
जुलाई
2020 में 50 लाख वेतनभोगी लोगों ने रोज़गार गंवाया।
कुल मिलाकर भारत में केवल चार महीनों में 1.9 करोड़ लोग नौकरियों से हाथ धो
बैठे। गौरतलब है कि ये आंकड़े औपचारिक क्षेत्र में काम कर रहे लोगों के हैं, अनौपचारिक क्षेत्र के श्रमिकों को तो उनके नियोक्ता की इच्छा पर नौकरी पर रखा
और निकाला जाता है।
लॉकडाउन के कारण भोजन खरीदने के लिए आय की कमी और खाद्य पदार्थों के वितरण में
अक्षमताओं के कारण कई क्षेत्रों में भुखमरी और अकाल जैसे हालात उत्पन्न हुए। गांव
कनेक्शन द्वारा लॉकडाउन के दौरान ग्रामीण संकट पर एक रिपोर्ट में काफी निराशाजनक
आंकड़े प्रस्तुत किए गए हैं। तालाबंदी के दौरान:
35
प्रतिशत परिवारों को कई बार या फिर कभी-कभी पूरे दिन के लिए भोजन प्राप्त नहीं हो
सका।
38
प्रतिशत परिवारों को कई बार या फिर कभी-कभी दिन में एक समय का भोजन प्राप्त नहीं
हो सका।
46
प्रतिशत परिवारों ने अक्सर या कभी-कभी अपने भोजन में से कुछ चीज़ें कम कर दीं।
68
प्रतिशत ग्रामीण भारतीयों को मौद्रिक संकट से गुज़रना पड़ा।
78 प्रतिशत
लोग ऐसे थे जिनके आमदनी प्राप्त करने वाले काम पूरी तरह रुक गए।
23
प्रतिशत लोगों को अपने घर के खर्चे चलाने के लिए उधार लेना पड़ा।
8
प्रतिशत लोगों को अपनी आवश्यक ज़रूरतों को पूरा करने के लिए अपनी बहुमूल्य संपत्ति
जैसे मोबाइल फोन या घड़ी बेचना पड़ी।
एक और बात जिसे बहुत लोग अनदेखा कर देते हैं, यह है
कि लॉकडाउन के कारण नुकसान सिर्फ गरीबी रेखा के नीचे के लोगों का नहीं हुआ है। उन
लोगों ने भी नुकसान उठाया है जो गरीबी रेखा के ठीक ऊपर हैं और सरकारी कल्याणकारी
योजनाओं के दायरे से बाहर हैं। वैश्विक महामारी जैसी कठिन परिस्थितियों में इस
वर्ग को अत्यंत विकट समस्याओं का सामना करना पड़ता है। और तो और, सरकारी योजनाओं में पात्रता की कमी हालात और बिगाड़ देती है। एक मायने में ये
परिवार सरकार द्वारा अधिकारिक रूप से पहचाने गए असुरक्षित परिवारों की तुलना में
कहीं अधिक असुरक्षित हैं।
विकल्प
अब तक यह तो स्पष्ट है कि भारत ने लॉकडाउन को अपनाकर एक भारी कीमत चुकाई है।
ऐसे में एक स्वाभाविक सवाल यह है कि क्या लॉकडाउन के दौरान होने वाले आर्थिक
नुकसान को उचित ठहराया जा सकता है? दावा किया गया था कि वायरस को
फैलने से रोकने के लिए लॉकडाउन आवश्यक है। लेकिन वायरस अभी भी काफी तेज़ी से फैल
रहा है और रोज़ नए मामले सामने आ रहे हैं। इसलिए लॉकडाउन और इसके कारण होने वाले
नुकसान को उचित नहीं ठहराया जा सकता। हमें लॉकडाउन को अपनाने के लिए कम से कम एक
महीने और इंतज़ार करना चाहिए था। यदि लॉकडाउन से वास्तव में संक्रमण की दर में कमी
आई थी तो सख्त लॉकडाउन को अपनाने का पक्ष सही ठहराया जा सकता है। हम लॉकडाउन में
थोड़ा विलंब करके अर्थव्यवस्था को बेहतर तरीके से संगठित कर सकते थे। लोगों को अपने
घर जाने,
आवश्यक वस्तुओं को स्टॉक करने और यदि राशन कार्ड नहीं है तो
बनवाने के लिए कहा जा सकता था। इस तरह से मध्य-लॉकडाउन प्रवास के कारण बड़ी संख्या
में लोगों की जान बचाई जा सकती थी। यदि पुनरावलोकन किया जाए तो एक महीने इंतज़ार
करने पर कुछ भयावह नहीं हुआ होता।
एक और तरीका जो ऋण आधारित प्रोत्साहन के स्थान पर अपनाया जा सकता था। यह
पोर्टेबल राशन कार्ड के माध्यम से किया जा सकता था। हम राशन कार्ड का डिजिटलीकरण
कर सकते थे ताकि कोई व्यक्ति राशन कार्ड की हार्ड कॉपी के बिना भी उसका लाभ उठा
सके।
हम आधार कार्ड को एकीकृत करके आधार आधारित बैंक-लिंक्ड मनी ट्रांसफर सिस्टम
तैयार कर सकते थे जिसे विभिन्न उपकरणों द्वारा एक्सेस किया जा सके। इस तरीके से
सभी सुरक्षा नियमों का पालन करते हुए तेज़ी और सुरक्षित रूप से धन का स्थानांतरण
किया जा सकता है। लॉकडाउन के दौरान ऐसे कई लोग थे जिनके पास किसी प्रकार की आय का
सहारा नहीं था। इस प्रणाली से उपयोगकर्ता से उपयोगकर्ता और सरकार से उपयोगकर्ता को
सीधे तौर पर पैसा भेजने की सुविधा मिल पाती। यह उन लोगों को काफी फायदा पहुंचा
सकता था जो लॉकडाउन के दौरान जीवित रहने के लिए संघर्ष कर रहे थे।
हम और अधिक पैसा छाप सकते थे। भारत की आर्थिक स्थिति के बावजूद हम इसे वहन कर
सकते थे। अमेरिका ने ज़रूरतमंद लोगों तक धन पहुंचाने के लिए तीन ट्रिलियन डॉलर की
अतिरिक्त मुद्रा छापने का काम किया। जर्मन सेंट्रल बैंक ने यूरोप के लोगों को सीधे
धन पहुंचाने के लिए लगभग एक बिलियन डॉलर छापने की अनुमति दी। यदि भारत ने अपने
जीडीपी की 3 प्रतिशत रकम भी छापी होती तो आज अर्थव्यवस्था बेहतर स्थिति में होती।
यह लॉकडाउन के दौरान एक बड़ा अंतर पैदा कर सकता था जिसका अब कोई फायदा नहीं है।
क्योंकि अब तो अर्थव्यवस्था वापस पूर्ण रोज़गार की ओर बढ़ रही है इसलिए अधिक पैसा
छापने से मुद्रास्फीति में वृद्धि होगी।
निष्कर्ष
लॉकडाउन से हमें क्या नुकसान हुआ है? इस सवाल का जवाब देने के
लिए सवाल करना चाहिए कि हम नुकसान को कैसे परिभाषित करते हैं। यदि हम इसे केवल
मौद्रिक नुकसान के रूप में परिभाषित करते हैं तो लॉकडाउन के कारण हमें लगभग 26-33
अरब डॉलर का नुकसान हुआ है। लेकिन यहां अर्थशास्त्र के साथ एक समस्या है – इसने
लोगों के जीवन,
उनकी मृत्यु और उनकी पीड़ा को संख्याओं के रूप में देखा है।
इसके बावजूद बहुत सी चीज़ों को ध्यान में नहीं रखा है जिन्हें मौद्रिक रूप से
व्यक्त किया जा सकता है।
और इसलिए नुकसान की हमारी परिभाषा और व्यापक होनी चाहिए है। क्योंकि लॉकडाउन के दौरान महिलाओं के साथ होने वाली घरेलू हिंसा, उन परिवारों की पीड़ा जिन्हें खाली पेट सोना पड़ा, उन प्रवासी मज़दूरों की पीड़ा जिन्हें शहर की सीमाओं पर पुलिस की बदसलूकी झेलते हुए सैकड़ों किलोमीटर पैदल या साइकलों पर अपने घरों के लिए निकलना पड़ा। वास्तव में ये नुकसान के कुछ ऐसे उदाहरण हैं जिन्हें व्यक्त कर पाना अर्थशास्त्र की क्षमताओं से परे है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://static.toiimg.com/imagenext/toiblogs/photo/blogs/wp-content/uploads/2020/04/TheGreatEconomicChallenge.jpg
पिछले कई दशकों में हमने विकास के लिए जो कदम उठाए हैं, उसने हमें पर्यावरण संकट के दौर में लाकर खड़ा कर दिया है। पर्यावरण संकट के इस दौर में देश के पर्यावरण विनियमन में पिछले कुछ सालों में कई बड़े बदलाव किए गए हैं और पर्यावरण प्रभाव आकलन (EIA) के नियमों में भी बदलाव की कोशिश जारी है। इन बदलावों से भारत की जैव-विविधता पर क्या असर होगा। इस तरह के मसलों पर रोशनी डालता प्रो. माधव गाडगिल का यह व्याख्यान।
पर्यावरणीय मसलों पर बहस तो कई सालों से छिड़ी हुई है लेकिन
पिछले एक साल से पर्यावरण के संदर्भ में तीन विषयों पर काफी गंभीर बहस चल रही है।
पहला विषय है पर्यावरण प्रभाव आकलन अधिसूचना यानी पर्यावरण पर होने वाले असर का
मूल्यांकन करने वाले मौजूदा नियमों में बदलाव करने के लिए जारी की गई अधिसूचना।
दूसरा,
राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण (NGT) में जैव-विविधता कानून के
संदर्भ में दायर की गई याचिका। जैव विविधता कानून 2004 में लागू हुआ था। इस कानून
के मुताबिक हर स्थानीय निकाय (पंचायत, नगर पालिका, नगर निगम) में एक जैव-विविधता प्रबंधन समिति स्थापित की जानी चाहिए। समिति के
सदस्य वहां के स्थानीय लोग होंगे जो अपने क्षेत्र की पर्यावरण सम्बंधी समस्याओं और
पर्यावरणीय स्थिति का अध्ययन करके एक दस्तावेज़ तैयार करेंगे। इसे पीपुल्स
बायोडायवर्सिटी रजिस्टर (लोक जैव विविधता पंजी) कहा गया। लेकिन वर्ष 2004 से 2020
तक,
यानी 16 सालों की अवधि में इस पर कोई कार्रवाई नहीं की गई।
इस कार्य को संपन्न कराने के अधिकार वन विभाग को दे दिए गए।
यह हमारा दुर्भाग्य ही है कि वन विभाग स्थानीय लोगों के खिलाफ है।
दस्तावेज़ीकरण जैसे कामों में स्थानीय लोगों को शामिल करने का मतलब है कि लोगों को
इससे कुछ अधिकार प्राप्त हो जाएंगे, और विभाग यही तो नहीं चाहता।
इसलिए 16 वर्षों तक इस पर कोई कार्रवाई नहीं हुई।
इस सम्बंध में एक याचिका दायर की गई, लेकिन जब यह याचिका
दायर हुई तो एक अजीब ही स्थिति बन गई। वन विभाग द्वारा पीपुल्स बायोडायवर्सिटी
रजिस्टर तैयार करने के लिए बाहर की कई एजेंसियों को ठेका दे दिया गया। ठेका
एजेंसियों ने गांव वालों की जानकारी के बिना खुद ही ये दस्तावेज़ तैयार कर दिए और
वन विभाग को सौंप दिए। वन विभाग ने इसे NGT को सौंप दिया और कहा कि हमने काम पूरा
कर दिया। यह बिलकुल भी ठीक नहीं हुआ और इसी पर बहस चल रही है। यह भी जैव-विविधता
से ही जुड़ा हुआ विषय है।
और बहस का तीसरा मुद्दा है कि कुछ दिनों पहले पता चला कि पूरे देश के कृषि
महाविद्यालयों को कहा गया था कि वे इस बात का अध्ययन करके बताएं कि उनके अपने
क्षेत्र के खाद्य पदार्थों, पेय पदार्थों या अन्य चीज़ों
में कीटनाशक कितनी मात्रा में उपस्थित हैं। जब महाविद्यालय यह काम कर रहे थे तो
उनको आदेश दिया गया कि इस जांच के जो भी निष्कर्ष मिलें उन्हें लोगों के सामने
बिलकुल भी ज़ाहिर न होने दें, इन्हें गोपनीय रखा जाए। यानी
लोगों को यह पता नहीं चलना चाहिए कि हमारे खाद्य और पेय पदार्थों में बड़े पैमाने
पर कीटनाशक पहुंच गए हैं।
इस देश को विषयुक्त बनाया जा रहा है और क्यों बनाया जा रहा है। विषयुक्त देश
बनाए रखे जाने का भी इस अधिसूचना में समर्थन किया गया; इसके
समर्थन में कहा गया कि यह सब भारत के संरक्षण के लिए बहुत ज़रूरी है। लेकिन पूरा
देश विषाक्त करके भारत का संरक्षण किस तरह होगा, यह
समझना बहुत मुश्किल है। इससे तो ऐसा ही लगता है कि जो भी प्रदूषण फैलाने वाले
उद्यम हैं उनको बेधड़क प्रदूषण फैलाने की छूट देकर देश को खत्म करने की अनुमति दे
दी गई है। एक तो पहले से ही देश का पर्यावरण संरक्षण पर नियंत्रण बहुत ही कमज़ोर था, अब तो इसे पूरी तरह से ध्वस्त करने की दिशा में कदम उठाए जा रहे हैं।
इस तरह की शासन प्रणाली को हमें चुनौती ज़रूर देना चाहिए। हमें यह समझ लेना
चाहिए कि चुनौती देने के लिए हमारे हाथ में अब कई बहुत शक्तिशाली साधन आ गए हैं।
ये शक्तिशाली साधन हैं पूरे विश्व में तेज़ी से बदलती ज्ञान प्रणाली।
पहले बहुत थोड़े लोगों के हाथों में ज्ञान का एकाधिकार था। लेकिन अब यह
एकाधिकार खत्म हो रहा है और आम व्यक्ति तक ज्ञान पहुंच रहा है। यह एक बहुत ही
क्रांतिकारी और आशाजनक बदलाव है। एकलव्य द्वारा प्रकाशित मेरी किताब जीवन की बहार
में अंत में एक विवेचना इसी विषय पर की गई है कि पृथ्वी पर जीवन की इस चार अरब साल
की अवधि में जो प्रगति हुई है और हो रही है, वह है
कि ज्ञान को अपनाने या हासिल करने के लिए जीवधारी अधिक से अधिक समर्थ बनते गए हैं।
इस अवधि में हुए जो मुख्य बड़े परिवर्तन बताए गए हैं, उसमें
सबसे आखिरी नौवां चरण है मनुष्य की सांकेतिक भाषा का निर्माण। इस सांकेतिक भाषा के
आधार पर हम एक समझ और ज्ञान प्राप्त करने लगे। ज्ञान ऐसी अजब चीज़ है कि जो बांटने
से कम नहीं होती,
बल्कि बढ़ती है।
लेकिन ज्ञान अर्जन की जो भी प्रवृत्तियां थीं, इन
प्रवृत्तियों का अंतिम स्वरूप क्या होगा? इस विषय में मैनार्ड
स्मिथ ने बहुत ही अच्छी विवेचना करते हुए बताया है कि दसवां परिवर्तन होगा कि विश्व
में सभी लोगों के हाथ में सारा ज्ञान आ जाएगा। कोई भी किसी तरह के ज्ञान से वंचित
नहीं होगा और ज्ञान पर किसी का एकाधिकार नहीं रहेगा। लेकिन अफसोस कि हमारी शासन
प्रणाली ज्ञान पर केवल चंद लोगों को एकाधिकार देकर बाकी लोगों को ज्ञान से वंचित
करने का प्रयत्न कर रही है।
लेकिन अब हम शासन के इस प्रयत्न को बहुत ही अच्छे-से चुनौती दे सकते हैं। जिस
तरह आम व्यक्ति के हाथ तक ज्ञान पहुंच रहा है उसकी मदद लेकर। इसका एक बहुत ही
अच्छा उदाहरण देखने में आया था। स्थानीय लोगों को शामिल करके पीपुल्स
बायोडायवर्सिटी रजिस्टर बनाने का जो काम किया जाना था, उस पर
शासन (वन विभाग) का कहना है कि स्थानीय लोग ये दस्तावेज़ बनाने में सक्षम में नहीं
हैं,
उनको अपने आसपास मिलने वाली वनस्पतियों, पेड़-पौधों,
पशु-पक्षियों, कीटों वगैरह के नाम तक
पता नहीं होते। इनके बारे में जानकारी का आधार इनके वैज्ञानिक नाम ही हैं। जब वे
ये नहीं जानते,
तो दस्तावेज़ कैसे बना पाएंगे। इसीलिए, उनका तर्क था कि हमने बाहर के विशेषज्ञों को इन्हें तैयार करने का ठेका दे
दिया।
मगर इस तर्क के विपरीत एक बहुत ही उत्साहवर्धक उदाहरण मेरे देखने में आया।
महाराष्ट्र के गढ़चिरौली ज़िले में कई गांवों को सामूहिक वनाधिकार प्राप्त हुए।
सामूहिक वनाधिकार प्राप्त होने के बाद वहां रहने वाले आदिवासी (अधिकतर गौंड) लोगों
के लिए पहली बार ऐसा हुआ कि उनका घर के बाहर कदम रखना अपराध नहीं कहलाया। इसके
पहले तक उनका घर से बाहर कदम रखना भी अपराध होता था क्योंकि जहां वे रहते हैं वह
रिज़र्व फॉरेस्ट है, और रिज़र्व फॉरेस्ट में किसी का भी प्रवेश
अपराध है। इसके पीछे वन विभाग की लोगों से रिश्वत लेने की मंशा थी। जीवनयापन के
लिए उन लोगों को बाहर निकलने के बदले वन विभाग को विश्वत देनी पड़ती थी। आज भी यह
स्थिति कई जगह बनी हुई है। लेकिन सौभाग्य से गढ़चिरौली में अच्छा नेतृत्व मिला और
वहां के डिप्टी कलेक्टर द्वारा वनाधिकार कानून ठीक से लागू किया गया; इससे ग्यारह सौ गांवों को वन संसाधन और वन क्षेत्र पर अधिकार मिल गए। इस
अधिकार के आधार पर वे वहां की गैर-काष्ठ वनोपज जैसे बांस, तेंदूपत्ता, औषधियों,
वनस्पतियों वगैरह का दोहन कर सकते हैं और उनको बेच सकते
हैं। इस तरह वे लोग सक्षम बन रहे हैं।
इन गांवों के युवक-युवतियों को सामूहिक वन संसाधन का ठीक से प्रबंधन करने में
समर्थ बनाने के लिए उनको प्रशिक्षण भी दिया गया। इसमें हमने उनके गांव में ही उन्हें
पांच महीनों का विस्तृत प्रशिक्षण दिया। कई युवक-युवतियों ने प्रशिक्षण लिया। हमने
पाया कि इन युवक-युवतियों को उनके आसपास के पर्यावरण के बारे में बहुत ही गहरा
ज्ञान था क्योंकि वे बचपन से ही वे वहां रह रहे थे और ठेकेदार के लिए तेंदूपत्ता, बांस आदि वनोपज एकत्र करके देते थे। इस प्रशिक्षण के बाद उनमें और भी जानने का
कौतूहल जागा।
प्रशिक्षण में हमने युवक-युवतियों को स्मार्ट फोन के उपयोग के बारे में भी
सिखाया था। कम से कम महाराष्ट्र के सारे गांवों में परिवार में एक स्मार्टफोन तो
पहुंच गया है;
इंटरनेट यदि गांव में ना उपलब्ध हो तो भी नज़दीकी बाज़ार वाले
नगर में होता है। गांव वाले अक्सर बाज़ार के लिए जाते हैं तो वहां इंटरनेट उपयोग कर
पाते हैं। काफी समय तक स्मार्टफोन को भारतीय भाषाओं में उपयोग करने में मुश्किल
होती थी। हमारे यहां की कंपनियां और शासन की संस्थाओं (जैसे सी-डैक) को भारतीय
भाषाओं में इसका उपयोग करने की प्रणाली बनाने का काम दिया गया था जो उन्होंने अब
तक ठीक से नहीं किया है। दक्षिण कोरिया की कंपनी सैमसंग चाहती थी कि अधिक से अधिक
लोग स्मार्टफोन का उपयोग करें ताकि मांग बढ़े। इसलिए सैमसंग कंपनी ने भारतीय भाषाओं
में उपयोग की सुविधा उपलब्ध कराई, जो भारत इतने सालों में नहीं
कर सका था। और अब गूगल में भी सारी भाषाओं में उपयोग सुविधा उपलब्ध है। गूगल कंपनी
ने दो साल पहले एक सर्वे किया था जिसमें उन्होंने पाया था कि भारत की अस्सी
प्रतिशत आबादी अपनी भाषा में स्मार्टफोन का उपयोग कर रही है, केवल 20 प्रतिशत लोग अंग्रेज़ी का इस्तेमाल कर रहे हैं। लेकिन भारत में ऐसी
अजीब स्थिति बन गई है कि जब यहां के सुशिक्षित लोगों को यह बात बताई जाती है तो वे
कहते हैं कि ऐसा कैसे हो सकता है।
प्रशिक्षण में हमने यह भी सिखाया था कि गूगल के एक एप का उपयोग करके वे लोग
अपने सामूहिक वनाधिकार की सीमा कैसे पता कर सकते हैं। स्थानीय लोगों द्वारा वन
विभाग से काफी समय से सामूहिक सीमा का नक्शा मांगने के बावजूद विभाग नक्शा नहीं दे
रहा था क्योंकि इससे लोग अपने सामूहिक वन क्षेत्र की सीमा निश्चित करके उसका ठीक
से लाभ उठा सकते हैं। अब ये लोग गूगल एप की मदद से खुद ही नक्शा बना सकते हैं।
गूगल एप से सीमांकन बहुत ही सटीक हो जाता है, सैकड़ों
मीटर में 2-3 मीटर ही ऊपर-नीचे होता है।
हमने प्रशिक्षण समूह का एक व्हाट्सएप ग्रुप भी बनाया था जिसमें वे जानकारियों
के लिए आपस में बात करते थे, एक-दूसरे से जानकारी साझा
करते,
सवाल करते थे। जब किसी भी फल, वनस्पति
या जीव के बारे में उन्हें जानना होता वे उसकी फोटो ग्रुप में भेज देते थे। इस
ग्रुप में 22-23 साल का एक बहुत ही होशियार लड़का था लेकिन अंग्रेज़ी ना आने के कारण
वह दसवीं में फेल हो गया था। ग्रुप में जब भी कोई इस तरह की फोटो भेजता तो वह
तुरंत ही उसका ठीक-ठीक वैज्ञानिक नाम बता देता। यदि किसी भी वनोपज का वैज्ञानिक
नाम मालूम हो तो इससे उसके बारे में बहुत कुछ पता किया जा सकता है। जैसे उसके
क्या-क्या उपयोग हैं, उसका व्यापार कहां है, उसका बाज़ार कहां अधिक है, किस प्रक्रिया से उस वनोपज का
मूल्यवर्धन किया जा सकता है। इस युवक के तुरंत नाम बताने पर मुझे आश्चर्य हुआ तो
मैंने उससे पूछा कि तुम यह कैसे पता कर रहे हो। तो उसने बताया कि प्रशिक्षण में जब
स्मार्टफोन का उपयोग करना सिखाया गया तो हमने यह भी समझना शुरू किया कि अन्य गूगल
एप्स क्या हैं। गूगल फोटो और गूगल लेंस एप के बारे में पता चला। इसमें किसी भी
प्राणी या वनस्पति का फोटो डालो तो तुरंत ही उसका वैज्ञानिक नाम मिलने की संभावना
होती है। आज से दस साल पहले तक गूगल के पास लगभग दस अरब फोटो संग्रहित थे, जो अब शायद कई अरब होंगे। इस संग्रह में हरेक किस्म की तस्वीरें हैं, जिनमें से शायद पांच से दस अरब चित्र पशु-पक्षियों, कीटों, वनस्पतियों वगैरह के होंगे।
एक नई ज्ञान प्रणाली का बड़े पैमाने पर विकास विकास हुआ है, जिसे कृत्रिम बुद्धि कहते हैं। तस्वीर डालने पर गूगल का शक्तिशाली सर्च इंजन
अपने भंडार से सबसे नज़दीकी चित्र ढूंढकर उस तस्वीर सम्बंधी जानकारी, वैज्ञानिक नाम वगैरह बता देता है। इसके बारे में उस युवक ने खुद से सीख लिया
था और जानकारियां व्हाट्सएप ग्रुप और अपने अन्य साथियों को दे रहा था। अब गढ़चिरौली
के वनस्पति शास्त्र के प्राध्यापक भी उस युवक को किसी पौधे का नाम ढूंढकर बताने को
कहते हैं। जैसा कि मैनार्ड स्मिथ कहते हैं, ऐसी
नई ज्ञान प्रणाली लोगों के हाथों में आने से सारे लोगों के पास वि·ा का समस्त ज्ञान पहुंचने की ओर कदम बढ़ रहे हैं।
किसी खाद्य पदार्थ में या हमारे आसपास कीटनाशकों की कितनी मात्रा मौजूद है यह
जानकारी भी शासन द्वारा लोगों को नहीं दी जा रही है। अब तक, किसी भी चीज़ में कीटनाशक की मात्रा पता लगाने के लिए स्पेक्ट्रोफोटोमीटर चाहिए
होता था। स्पेक्ट्रोफोटोमीटर तो कुछ ही आधुनिक प्रयोगशालाओं में उपलब्ध था, जैसे किसी कृषि महाविद्यालय या इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस में। लेकिन यह आम
लोगों की पहुंच में नहीं था। इसलिए पर्यावरण में मौजूद कीटनाशक की मात्रा पता करना
आम लोगों के लिए मुश्किल था। कीटनाशकों से काफी बड़े स्तर पर जैव-विविधता की हानि
हुई है। इस सम्बंध में मेरा अपना एक अनुभव है। मुझे और मेरे पिताजी को पक्षी
निरीक्षण का शौक था। तो मैंने बचपन (लगभग 1947) में ही पक्षियों की पहचान करना सीख
लिया था। तब हमारे यहां कीटनाशक बिलकुल नहीं थे और उस वक्त (1947-1960) हमारे घर
के बगीचे और पास की छोटी-छोटी पहाड़ियों पर प्रचुर जैव-विविधता थी और काफी संख्या
में पक्षी थे। जैसे-जैसे कीटनाशक भारत में फैले, पक्षी
बुरी तरह तबाह हुए। उस समय की अपेक्षा अब उस पहाड़ी पर पांच-दस प्रतिशत ही
प्रजातियां दिखाई पड़ती हैं, बाकी सारी समाप्त हो गई हैं
या उनकी संख्या बहुत कम हो गई है।
सवाल है कि कीटनाशक कितनी मात्रा में है यह कैसे जानें? शासन तो लोगों को इसकी जानकारी ना मिले इसके लिए कार्यरत है। 1975-76 में
मैसूर के सेंट्रल फूड टेक्नॉलॉजी रिसर्च इंस्टीट्यूट में जीवन के उद्विकास
व्याख्यान के लिए मेरा जाना हुआ। उनका कीटनाशक सम्बंधी एक विभाग था। वहां के प्रमुख
ने बताया कि मैसूर के बाज़ार में जो खाद्य पदार्थ मिलते हैं उनमें कितनी मात्रा में
कीटनाशक हैं हम इसका तो पता करते हैं, लेकिन हमें कहा गया है
कि इन नतीजों को लोगों को बिलकुल नहीं बताना है। आज तक शासन लोगों से इस जानकारी
को छुपाना चाहता है।
लेकिन अब,
कीटनाशक की मात्रा पता लगाने वाले स्पेक्ट्रोफोटोमीटर जैसा
एक यंत्र बाज़ार में उपलब्ध है जिसे खरीदा जा सकता है। हालांकि इसकी कीमत (20-25
हज़ार रुपए) के चलते आम लोग अब भी इसे नहीं खरीद सकते लेकिन एक समूह मिलकर या कोई
संस्था इसे खरीद सकती है और कई लोग मिलकर उपयोग कर सकते हैं। बैंगलुरु के तुमकुर
ज़िले में शाला शिक्षकों का एक संगठन है तुमकुर साइंस फोरम। इस फोरम के एक
प्रोजेक्ट के तहत वे इस यंत्र की मदद से कई स्थानों, खाद्य
व पेय पदार्थों में कीटनाशकों का पता लगा रहे हैं। यह जानकारी वे लोगों के लिए
उपलब्ध करा देंगे। आजकल इंटरनेट आर्काइव्स नामक एक वेबसाइट पर तमाम तरह की
जानकारियां अपलोड की जा सकती हैं, जिसे कोई भी देख-पढ़ सकता है।
इस तरह इस नई ज्ञान प्रणाली से कुछ लोगों का ही ज्ञान पर एकाधिकार खत्म हो रहा है।
लोग इस तरह की पड़ताल खुद कर सकते हैं।
अब तक यह स्पष्ट हो गया है कि जो कुछ
शासन की मंशा है वह पर्यावरण संरक्षण पूरा नष्ट करेगी। इसका असर जैव-विविधता पर भी
होगा। लेकिन जैसा कि अब तक की बातों में झलकता है, हमारे
पास भारत की जैव-विविधता सम्बंधी डैटा बहुत सीमित है। इसका एक बेहतर डैटाबेस बन
सकता था यदि पीपुल्स बायोडायवर्सिटी रजिस्टर बनाने का काम ठीक से किया जाता, लेकिन अफसोस,
यह ठीक से नहीं किया गया। इसलिए हमारे पास बहुत ही सीमित
जानकारी है,
जो चुनिंदा अच्छे शोध संस्थाओं ने अपने खुद के अध्ययन करके
शोध पत्रों के माध्यम से लोगों को उपलब्ध कराई है। इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ साइंस के
अध्ययनों में सामने आया है कि जैव-विविधता कम हो रही है। इस संदर्भ में यह
अधिसूचना और भी खतरनाक है, लेकिन यह भी सीमित रूप से ही
कहा जा सकता है क्योंकि हमारी जैव-विविधता के बारे में जानकारी ही अधूरी है।
अच्छी विज्ञान शिक्षा के प्रयास में हम सारे लोग काफी कुछ कर सकते हैं। इस
दिशा में शिक्षा के क्षेत्र में काम कर रहे लोग अपने-अपने स्थानों की पंचायत, नगर पालिका या नगर निगम में प्रयत्न करके उपरोक्त जैव-विविधता प्रबंधन समिति
का प्रस्ताव रख सकते हैं और जैव-विविधता रजिस्टर बना सकते हैं। इससे जैव-विविधता
के बारे में बहुत ही समृद्ध जानकारी उपलब्ध होगी। और यह बनाना आसान है। गूगल फोटो
या गूगल लेंस की मदद से किसी भी जगह की वनस्पति या जीव के नाम और जानकारी पता चल
सकती है। इस तरह अब तक अर्जित ज्ञान को फैलाने के साथ-साथ बच्चे-युवा खुद अपने
ज्ञान का निर्माण कर सकते हैं। स्कूल के स्तर पर भी शालाएं पीपुल्स बायोडायवर्सिटी
रजिस्टर बनाने में सहयोग कर सकती हैं और बना सकती हैं। गढ़चिरौली ज़िले और कई अन्य
जगहों पर कई स्कूलों में इस तरह का काम किया जा रहा है, कई
स्कूलों ने बहुत अच्छे से रजिस्टर बनाए हैं। इससे बच्चे दस्तावेज़ीकरण की प्रक्रिया
भी सीख सकते हैं। और इन दस्तावेज़ों के आधार पर जैव-विविधता का संरक्षण कैसे किया
जाए इसके बारे में पता कर सकते हैं।
अफसोस की बात है कि भारत को छोड़कर
बाकि सभी देश ग्लोबल वार्मिंग की समस्या से निपटने के लिए कुछ ना कुछ कर रहे हैं।
अधिक मात्रा में कोयले जैसे र्इंधनों का उपयोग करने वाले देश चीन ने भी अब साल
2050 तक कोयला जलाना बंद करना तय किया है। अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रम्प के जाने
और बाइडेन के आने से अमरीका में कोयला और पेट्रोलियम जैसे र्इंधन का इस्तेमाल कम
होने की आशा है। केवल भारत ही कोयले-पेट्रोलियम का उपयोग बढ़ाता जा रहा है। माना कि
हमें भी विकास और बदलाव की ओर जाना है, लेकिन किस कीमत पर। इस
बारे में हमें स्वयं ही ज्ञान संपन्न होकर कदम उठाने होंगे।
लोगों में एक बड़ी गलतफहमी व्याप्त है कि विकास (या उत्पादन) और पर्यावरण इन दो
के बीच प्रतिकूल (या विरोधाभासी) सम्बंध है। एक को बढ़ाने से दूसरा प्रभावित होगा।
हमारे सामने कई ऐसे राष्ट्रों के उदाहरण हैं जो बहुत उच्छा उत्पादन कर रहे हैं और
उतनी ही अच्छी तरह से पर्यावरण की देखभाल भी कर रहे हैं। जैसे जर्मनी, स्विटज़रलैंड,
डैनमार्क, स्वीडन। ये राष्ट्र उद्योगों
के मामले में विश्व में अग्रणी हैं। आज भारत यह बातें करता है कि हमने उत्पादन
बढ़ाया है लेकिन जिन देशों को हम पिछड़ा मानते थे (जैसे बांग्लादेश) उनका उत्पादन
भारत से ज़्यादा है। भारत में जो हो रहा है, वह
केवल पर्यावरण नष्ट करने वाले कई बहुत ही चुनिंदा लोगों के हित में हो रहा
है। वियतनाम, जिसका
आबादी घनत्व भारत से ज़्यादा है, जो कई युद्धों के कारण बर्बाद
हुआ,
जहां अमरीका और फ्रांस ने मिलकर 1955-75 के दौरान विनाश
किया,
आज वह उद्योग में भारत से थोड़ा आगे ही है और पर्यावरण
सम्बंधी सूचकांक में भी हमसे आगे है।
इन नई ज्ञान प्रणाली का उपयोग कर लोग सक्षम हो सकते हैं और शासन को चुनौती देने के लिए तैयार हो सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://static.toiimg.com/thumb/msid-77882423,width-1200,height-900,resizemode-4/.jpg
बिजली चालित वाहन यानी ऐसे दो या अधिक पहियों वाले वाहन जो
उनमें लगी बैटरी में संग्रहित विद्युत की शक्ति से चलते हैं। इन वाहनों को चलाने
के लिए पेट्रोल या डीज़ल की ज़रूरत नहीं होती। इस मायने में पर्यावरण पर इनका प्रभाव
और इनके पर्यावरणीय पदचिंह न्यूनतम होते हैं।
आज तक बैटरी ऐसे वाहनों में अंतर्निहित
होती थी और इनकी उम्र पूरी हो जाने (यानी जब इनमें पर्याप्त मात्रा में विद्युत
संग्रहित नहीं रह पाती) पर इनकी जगह उसी किस्म की बैटरी की व्यवस्था करनी होती थी।
इसका मतलब था कि वाहन निर्माता (मूल उपकरण निर्माता) को बैटरी बदलने में भी कमाई
की उम्मीद रहती थी। चूंकि बैटरी उसी निर्माता से खरीदनी होती थी, इसलिए
कीमतों को लेकर प्रतिस्पर्धा ज़्यादा नहीं होती थी। उपभोक्ता की दृष्टि से यह बहुत
लोकप्रिय नहीं था।
भारत में विद्युत वाहनों के लोकप्रिय न
होने का एक कारण यह भी रहा है कि इनके भरोसे लंबी दूरी की यात्रा मुश्किल है।
पेट्रोल/डीज़ल वाहन में तो फिर से र्इंधन भरवाना आसान होता है क्योंकि देश भर में
पेट्रोल पंपों का जाल बिछा हुआ है और कदम-कदम पर पेट्रोल पंप मिल जाते हैं। बिजली
वाहनों के साथ यह संभव हो सकता था बशर्ते कि रिचार्ज-योग्य बैटरी को उपभोक्ता
स्वयं बदल सकते। ऐसा होता तो व्यक्ति अपने साथ एक से अधिक बैटरियां लेकर चलता और
ज़रूरत पड़ने पर बदल लेता। फिर मंज़िल तक पहुंचने के बाद उन सबको एक साथ चार्ज कर
लेता। लेकिन फिलहाल स्थिति यह है कि बैटरी बदली नहीं जा सकती, रीचार्ज
ही करना होता है।
इस आलेख में हम इस बात पर चर्चा करेंगे कि
सड़क परिवहन व राजमार्ग मंत्रालय ने हाल ही में एक अधिसूचना जारी की है जो उपरोक्त
मसले को संबोधित करती है। हालांकि इस अधिसूचना से कुछ कंपनियां खुश हैं लेकिन अन्य
बहुत गदगद नहीं हैं।
अधिसूचना
13 अगस्त के दिन सड़क परिवहन व राजमार्ग
मंत्रालय ने एक अधिसूचना जारी करके बगैर बैटरी विद्युत वाहनों की बिक्री व पंजीयन
की अनुमति दे दी है। अधिसूचना के मुताबिक,
बैटरियां अब स्वतंत्र
रूप से बेची व पंजीकृत की जा सकेंगी। दिलचस्प बात इस अधिसूचना का वक्त है क्योंकि
कोविड-19 की वजह से ऑटो विक्रेताओं की उम्मीदों पर पानी फिर गया था और यह अधिसूचना
विद्युत वाहनों तथा यातायात के निजी उपायों में नई रुचि पैदा करेगी।
सवाल यह है कि विद्युत वाहनों के संदर्भ
में बैटरी कितनी महत्वपूर्ण है। कहा जा सकता है कि बैटरी के बिना कोई विद्युत वाहन
पहियों पर खड़ा एक ढांचा मात्र है। एक अच्छी बैटरी आपको अपने गंतव्य तक पहुंचाने के
अलावा लगातार कुशलतापूर्वक वाहन को शक्ति देती है और फीडबैक भी उपलब्ध कराती है।
उपभोक्ता की दृष्टि से देखें तो बगैर बैटरी के विद्युत वाहन खरीदना बेवकूफी होगी।
तो फिर सरकार ने ऐसी अधिसूचना क्यों जारी की?
भारत सरकार को उम्मीद है कि इस अधिसूचना से
बैटरियों की अदला-बदली को लेकर हिचक कम होगी। लेकिन इसने बैटरी के मानकों और
सुरक्षा को लेकर व्यापक बहस को जन्म दिया है। अधिसूचना के पीछे मुख्य रूप से दो
बातें हैं:
1. आशा है कि इससे बैटरियों की अदला-बदली
को प्रोत्साहन मिलेगा और इसके चलते चार्जिंग का टाइम घंटों से घटकर मिनटों में रह
जाएगा।
2. उम्मीद है कि इससे विद्युत वाहनों की
शुरुआती कीमतों में कमी आएगी और इनकी मांग बढ़ेगी। ज़ाहिर है ऐसे वाहनों का उपयोग
बढ़ने से प्रदूषण की समस्या से निपटने में मदद मिलेगी।
विद्युत वाहन व सम्बंधित क्षेत्रों के कुछ
लोगों ने अधिसूचना का स्वागत किया है। उनका कहना है कि विद्युत वाहनों में से
बैटरी को हटा देने से ऐसे वाहनों की शुरुआती कीमतों में जो कमी आएगी उससे व्यापार
के नए मॉडल्स के लिए रास्ते खुलेंगे। उद्योग के विशेषज्ञों का मत है कि रीचार्ज
करने की बजाय बैटरी की अदला-बदली से चार्जिंग का समय बहुत कम हो जाएगा और यह एक
बड़ा लाभ होगा।
विरोध
देखा जाए,
तो यह समझना मुश्किल
है कि क्यों विद्युत वाहन निर्माता इस विचार से खुश नहीं हैं क्योंकि बैटरी को अलग
करके वाहनों की कीमत में कमी से मांग में जो वृद्धि पैदा होगी, वह
उद्योग के लिए लाभदायक ही होगा। लेकिन लगता है कि मामला इतना सीधा-सादा भी नहीं
है। कम कीमत के साथ सुरक्षा और गारंटी के मुद्दे जुड़े हैं। विद्युत वाहनों से जुड़ी
बैटरियों पर 2-5 साल की गारंटी होती है। मूल उपकरण निर्माताओं का कहना है कि
अदला-बदली योग्य बैटरियां होंगी तो वे बैटरी के कामकाज और सुरक्षा के अलावा स्वयं
वाहन के लिए भी ऐसी गारंटी नहीं दे पाएंगे।
निर्माता अपने वाहन की सुरक्षा की जांच
अपनी पसंद की बैटरी के साथ करते हैं। इससे उन्हें बैटरी के पॉवर और एक बार चार्ज
करने पर तय किए गए फासले को लेकर वायदे करने में मदद मिलती है। लेकिन जब उपभोक्ता
को वाहन के लिए कोई भी बैटरी चुनने की छूट मिल जाएगी तो निर्माता वाहन के प्रदर्शन
को लेकर कोई वादा नहीं कर पाएंगे। स्वयं वाहन भी ठीक तरह से काम नहीं कर पाएगा
क्योंकि हो सकता है कुछ बैटरियां रीचार्जिंग किए बगैर वाहन को ज़्यादा दूरी तक ले
जाएं। कई बार ऐसा भी होता है कि निर्माता पूरे वाहन को किसी बैटरी-विशेष के हिसाब
से डिज़ाइन करते हैं ताकि वह उस बैटरी से अधिकतम शक्ति का दोहन कर सके। जब बैटरी को
वाहन से स्वतंत्र कर दिया जाएगा, तो किसी भी वाहन को इस तरह बनाना होगा कि
वह नाना प्रकार की बैटरियों पर चल सके। इसका मतलब होगा कि शायद वाहन बैटरी से
यथेष्ट शक्ति का दोहन न कर सके।
वर्तमान में,
बैटरी-संलग्न वाहनों
में निर्माता वाहन के साथ-साथ बैटरी की भी गारंटी देते हैं। यह उपभोक्ता के लिए एक
आश्वासन होता है कि जब पहली बैटरी अपना जीवन काल पूरा कर लेगी तो नई बैटरी लगाने
पर वाहन नए जैसा प्रदर्शन देगा। यह कारोबारी के लिए भी एक किस्म का आश्वासन होता
है कि बैटरी बदलने में भी उनकी कमाई होगी। यदि बैटरी वाहन में एकीकृत न हुई तो
वाहन निर्माता उसके लिए गारंटी नहीं दे सकेगा। और उपभोक्ता को किसी खामी के लिए
वाहन निर्माता तथा बैटरी निर्माता को अलग-अलग जवाबदेह ठहराना होगा। बैटरी और वाहन
के इस पृथक्करण के बाद शायद वाहन निर्माता वाहन के लिए भी पहले जैसी गारंटी न दे
पाएं।
वाहन निर्माताओं को बैटरी के व्यापार चक्र
से बाहर किया जाना भी रास नहीं आएगा क्योंकि ऐसा होने पर बैटरी बदलने में उनकी कोई
भूमिका नहीं रहेगी जबकि बैटरी ही सबसे महत्वपूर्ण और सबसे ज़्यादा बदला जाने वाले
घटक होगा।
कुछ लोग इस अधिसूचना का विरोध टैक्स नीति
के नज़रिए से भी कर रहे हैं। जहां विद्युत वाहनों पर जीएसटी 5 प्रतिशत है, वहीं
बैटरी पर 18 प्रतिशत जीएसटी आरोपित किया जाता है। इस तरह से उपभोक्ताओं और
काफिला-मालिकों के लिए बगैर बैटरी का वाहन खरीदने को लेकर कोई स्पष्ट प्रलोभन नहीं
है। यदि भारत सरकार चाहती है कि एक सेवा के रूप में बैटरी के कारोबार को बढ़ावा
मिले तो टैक्स पर फिर से विचार करना होगा। लेकिन इस अधिसूचना के बाद विद्युत
वाहनों और बैटरियों पर टैक्स के लिहाज़ से कोई संशोधन नहीं किया गया है। यानी नई
नीति में निजी उपभोक्ताओं और काफिला-मालिकों के लिए प्रोत्साहन का अभाव बना हुआ
है।
इसी सिलसिले में विद्युत वाहनों पर सबसिडी
का सवाल भी है। भारत सरकार विद्युत वाहनों की कीमतें कम रखने के लिए सबसिडी देती
है ताकि पर्यावरण-स्नेही यातायात को बढ़ावा मिले। लेकिन इस अधिसूचना ने वाहन और
बैटरी के बीच दरार उत्पन्न कर दी है। फिलहाल स्थिति यह है कि सबसिडी अंतिम उत्पाद
पर दी जाती है, उसके पुर्ज़ों पर नहीं। इसका मतलब यह हुआ कि मात्र वाहन पर
सबसिडी दी जाएगी, लेकिन बैटरी पर नहीं क्योंकि वह एक घटक है। इस संदर्भ में
सबसिडी के ढांचे पर भी पुनर्विचार की ज़रूरत होगी।
उपभोक्ता
हालांकि इन कारोबार के इन दो मॉडल्स पर
तनातनी चल रही है लेकिन अंतिम उपभोक्ता के लिहाज़ से कई फायदे नज़र आते हैं:
1. किसी परिवार के लिए विद्युत वाहन की
शुरुआती कीमत में उल्लेखनीय कमी आएगी।
2. उपभोक्ता अब एकाधिक विद्युत वाहन खरीद
सकेंगे और उन्हें उतनी ही संख्या में अलग-अलग बैटरियां नहीं खरीदनी होंगी।
3. बैटरी चार्ज करने की बजाय बैटरी बदलना
अधिक सुविधाजनक होगा। यात्रा पर निकलते समय आपको सिर्फ एक स्पेयर बैटरी रखना होगी।
4. उपभोक्ताओं को अब विभिन्न निर्माताओं
द्वारा बनाई गई बैटरियों में से चुनने की छूट होगी। वे अपनी ज़रूरत और क्रय क्षमता
के हिसाब से बैटरी चुन सकेंगे।
व्यापारिक दृष्टि से भी कई संभावित फायदे
हैं। काफिला-मालिक अब बैटरी निर्माताओं के साथ गठबंधन कर सकते हैं ताकि वे उन्हें
वाहन निर्माताओं की अपेक्षा बेहतर बैटरियां मुहैया करवाएं। इससे व्यापारिक वाहन
मालिक जहां बैटरी निर्माताओं को व्यापार के अवसर उपलब्ध कराएंगे, वहीं
उन्हें बैटरी की गुणवत्ता के लिए जवाबदेह भी बनाएंगे।
यहां एक सवाल यह भी उठता है कि बैटरी-मुक्त
होने से वाहन की शुरुआती कीमत में कमी कैसे आएगी। कहा जा रहा है कि उपभोक्ता अब
बाज़ार से अपनी ज़रूरत और क्रय क्षमता के हिसाब से कोई भी बैटरी खरीद सकेगा। इसका
मतलब है कि वह वाहन और बैटरी का ऐसा संयोजन चुन सकेगा जो उससे सस्ता होगा जब वाहन
निर्माता ही बैटरी चुनते थे। यह भी सही है कि बैटरी-रहित वाहन उस वाहन से तो सस्ता
ही होगा जो बैटरी के साथ आता है। इस स्थिति में यदि किसी परिवार के पास पहले से ही
कई सारे विद्युत वाहन हैं तो उसे एक नई बैटरी में निवेश करने की ज़रूरत नहीं होगी
क्योंकि वह पुराने वाहनों की बैटरी का उपयोग कर सकेगा। इस तरह से वाहन की कीमत और
भी कम हो जाएगी।
बैटरी बतौर सेवा
यह सही है कि यह अधिसूचना बैटरी को एक सेवा
के बाज़ार के रूप में उछाल दे सकती है लेकिन उद्योग के विशेषज्ञ कई खामियों और इसके
दुरुपयोग की संभावनाओं की ओर इशारा कर रहे हैं। जैसे,
हो सकता है कि कुछ
लोग ई-रिक्शा या ई-स्कूटर को सस्ता बनाने की जुगाड़ में सस्ती किंतु अस्थिर लेड-एसिड
बैटरी लगा दें। यह भी संभव है कि कंपनी या व्यक्ति को बैटरी की अदला-बदली के दौरान
घटिया बैटरी दे दी जाए। कुल मिलाकर चिंता मानकीकरण को लेकर है।
बहरहाल,
बैटरी-बतौर-सेवा के
मॉडल के लिए दो ही विकल्प हैं। या तो शहरों और कस्बों में बड़ी संख्या में
बैटरी-बदल स्टेशन हों या हर स्तर पर ज़बर्दस्त एकीकरण हो। इन दोनों ही विकल्पों के
लिए भारी मात्रा में पूंजीगत निवेश की ज़रूरत होगी।
इस संदर्भ में यह बताया जा सकता है कि चीन
में कई प्रांतीय सरकारें एनआईओ जैसे विशाल विद्युत वाहन निर्माताओं के साथ गठजोड़
कर रही हैं ताकि वे अधिक से अधिक स्टेशन स्थापित करें। एनआईओ ने एक योजना शुरू की
है कि कार खरीदते समय उपभोक्ता एक स्वतंत्र बैटरी-योजना के ग्राहक बन जाएं। भारतीय
विद्युत वाहन बाज़ार के लिए एक समाधान यह हो सकता है कि वाहन निर्माताओं, बैटरी-सेवा
प्रदाताओं, काफिला-मालिकों और बैटरी निर्माताओं का एक सहयोगी संघ बने।
लेकिन ऐसा कोई संघ निकट भविष्य में तो बनता नहीं दिखता क्योंकि वाहन निर्माता
बैटरी की अदला-बदली के स्थान पर त्वरित चार्जिंग टेक्नॉलॉजी पर काफी निवेश कर रहे
हैं।
भारत का विद्युत वाहन बाज़ार नाज़ुक स्थिति में है, जहां न तो वाहन निर्माताओं ने मुख्य भूमिका अपनाई है और न ही सरकार की कार्रवाई बात को आगे ले जा पा रही है। देश की विद्युत वाहन नीति अधकचरे उपायों और कदम पीछे खींचने के सिलसिले में अटक गई है।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://cdni.autocarindia.com/Utils/ImageResizer.ashx?n=https%3A%2F%2Fcdni.autocarindia.com%2FExtraImages%2F20191007120422_Plug-n-Go-EV-charge-1.jpg&h=795&w=1200&c=0
भारत में विज्ञान के क्षेत्र में महिलाएं विषय पर अधिकांश साहित्य, विज्ञान में महिलाओं की ‘अनुपस्थिति’ ही दर्शाता है जबकि अब हालात ऐसे नहीं हैं। उपलब्ध प्रमाणों के व्यापक विश्लेषण के आधार पर यह आलेख बताता है कि विज्ञान के क्षेत्र में महिलाओं की संख्या में लगातार वृद्धि हो रही है, हालांकि अलग-अलग विषयों में स्थिति काफी अलग-अलग है। अलबत्ता, विज्ञान के क्षेत्र में भले ही महिलाओं की संख्या बढ़ी है, लेकिन अब भी उन्हें रुकावटों का सामना करना पड़ता है। इस प्रकार से लिंग-आधारित ढांचा बरकरार है और वैज्ञानिक संस्थानों को आकार देता है। आलेख का तर्क है कि संस्थानों-संगठनों के मौजूदा मानदंडों और मानसिकता में बदलाव लाए बिना महिला-समर्थक नीतियां शुरू करना प्रतिकूल प्रभाव डाल सकता है।
साल 2017 की विश्व आर्थिक मंच की रिपोर्ट बताती है कि 144
सर्वेक्षित देशों में से भारत, लैंगिक-असमानता के मामले में 87वें पायदान
से गिरकर 108वें पायदान पर आ गया था। स्वास्थ्य और औसत आयु के मामले में भारत
141वें पायदान पर और आर्थिक अवसरों के मामले में 139वें पायदान पर था। यहां तक कि
शिक्षा के मामले में भारत का स्थान 112वां था। कोई ताज्जुब नहीं कि भारत में
वैज्ञानिक अनुसंधान के क्षेत्र में भी लैंगिक-अंतर काफी अधिक है। युनेस्को
सांख्यिकी संस्थान (2017) के अनुसार वैज्ञानिक अनुसंधान के क्षेत्र में भले ही
लोगों की संख्या में 37.8 प्रतिशत की वृद्धि हुई है लेकिन महिला शोधकर्ताओं की
संख्या में मामूली कमी आई है, 2010 में महिला शोधकर्ताओं का प्रतिशत 14.3
था जो 2015 में गिरकर 13.9 प्रतिशत हो गया।
हो सकता है कि भारतीय मध्यम वर्ग इन आंकड़ों
को ‘अन्य’ भारत से जोड़कर देखे, जैसे कि ये ग्रामीण इलाकों और शहरी
झुग्गियों में रहने वाले हाशियाकृत और गरीब लोगों के हों। लेकिन भारतीय विज्ञान
समुदाय, या सामाजिक-आर्थिक मध्यम वर्ग और शिक्षित वर्गों के लिए इन
आंकड़ों के क्या मायने हैं? क्या भारतीय वैज्ञानिक अनुसंधान और शिक्षा
में महिलाओं की स्थिति वाकई चिंतनीय है? यदि है,
तो क्या इन आंकड़ों का
महिलाओं की उच्च शिक्षा या विज्ञान अनुसंधान प्रशिक्षण तक पहुंच में कमी से है, या
ये दर्शाते हैं कि कितनी महिलाएं इन क्षेत्रों को छोड़ देती हैं? क्या
कोई ऐसे खास विषय या खास क्षेत्र हैं जिनमें महिलाओं की उपस्थिति बेहतर है और इसके
क्या कारण हैं? क्या ढांचागत कारण विज्ञान के क्षेत्र में महिलाओं को बराबर
भागीदारी से रोकते हैं? क्या विज्ञान अनुसंधान समुदाय में महिलाओं को मिलने वाली
मान्यता, इन क्षेत्रों में उनकी उपस्थिति से मेल खाती है? इस
सम्बंध में उपलब्ध प्राथमिक और द्वितीयक जानकारी के आधार पर यहां ऐसे कुछ सवालों
को जांचने का प्रयास है।
संक्षिप्त इतिहास और वर्तमान संदर्भ
स्वतंत्रता के तुरंत बाद भारत सरकार ने
1948 में विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग की स्थापना की थी। अन्य उद्देश्यों के अलावा
एक उद्देश्य यह था कि भारत में विश्वविद्यालयीन शिक्षा और शोध के उद्देश्यों व
लक्ष्यों की छानबीन की जाए। स्पष्ट रूप से,
नवनिर्मित राष्ट्र
में ज़ोर सामाजिक परिवर्तन के लिए शिक्षा पर था। 1950 में आयोग द्वारा प्रस्तुत
रिपोर्ट का एक पूरा हिस्सा महिला शिक्षा पर केंद्रित था। इसमें अनुशंसाओं के खंड
में बताया गया था कि “कुछ क्षेत्र महिलाओं के लिए बहुत ही उपयुक्त हैं… जिनमें
महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में महिलाओं को शिक्षा दी जा सकती है।” समिति
द्वारा सुझाए गए विषय थे गृह अर्थशास्त्र,
नर्सिंग, अध्यापन
और ललित कलाएं। रिपोर्ट के इस हिस्से की प्रस्तावना में कई उत्कृष्ट नैतिक आदर्शों
का प्रतिपादन किया गया था, जैसे:
हमें कई सुझाव मिले हैं जो कहते हैं कि
महिलाओं की शिक्षा ड्राइंग, पेंटिंग या इसी तरह की अन्य सुंदर
‘उपलब्धियां’ हासिल करने के लिए होनी चाहिए ताकि जब उनके पति महत्वपूर्ण काम कर
रहे हों तब सम्पन्न महिलाएं अपना वक्त बिना किसी नुकसान के काट सकें। यह सोच अब
नहीं रहना चाहिए। महिलाएं पुरुषों के साथ जीवन और आज के ज़माने के विचार और रुचियों
में बराबर की हिस्सेदार होनी चाहिए। वे पुरुषों के समान शैक्षणिक कार्य करने के
योग्य हैं, उनमें विचारों और गुणवत्ता की कमी नहीं है।
महिलाओं की क्षमताएं पुरुषों के समान हैं। (1950 में जारी विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग की रिपोर्ट, अध्याय
12, पृ. 343-344)
हालांकि,
इस दौर में कुशल
महिला वैज्ञानिक बनाने पर ज़ोर नहीं था। यह बात शुरुआती वर्षों में विभिन्न कोर्स
में हुए दाखिलों में भी झलकती है। वर्ष 1961-62 में ‘लड़कों और लड़कियों के
पाठ्यक्रम में भेद’ पर राष्ट्रीय महिला शिक्षा परिषद द्वारा गठित हंसा मेहता समिति
की सिफारिश के साथ दोनों के लिए ‘समान पाठ्यक्रम’ के मुद्दे पर गंभीरता से चर्चा
शुरू हुई। 1964-66 में कोठारी आयोग ने इससे एक कदम आगे बढ़कर आग्रह किया कि महिलाओं
को भी विज्ञान पढ़ने के लिए सक्रिय रूप से प्रोत्साहित करना चाहिए।
कहने का मतलब यह नहीं है कि इस समय तक भारत
में उच्च शिक्षा या विज्ञान शिक्षा से महिलाएं नदारद थीं। कई अध्ययनों ने भारत में
औपनिवेशिक काल से आधुनिक वैज्ञानिक अनुसंधान में महिलाओं की स्थिति की छानबीन की
है। कई अध्ययन, ना केवल महिला वैज्ञानिकों के व्यक्तिगत संघर्ष बयां करती
जीवनियां बताते हैं बल्कि उस समय के सामाजिक-राजनैतिक हालात के बारे में भी बताते
हैं। कमला सोहोनी, आसीमा चटर्जी या जानकी अम्मल जैसी कई महिला वैज्ञानिकों ने
नई ज़मीन तोड़ी थी और जाति और लिंग की दोहरी बाधाओं को पार करके प्रयोगशाला तक का
रास्ता तय किया और तमाम पाबंदियों की कठोर परिस्थितियों में भी काम करती रहीं।
लेकिन चूंकि इस समय तक इन क्षेत्रों में महिलाओं को शामिल करना राजकीय नीति का
हिस्सा नहीं था इसलिए उस समय जिन महिलाओं ने मुकाम हासिल किया वे दरअसल एक ज़्यादा
बड़ी लड़ाई लड़ रही थीं। जैसे कमला सोहोनी विज्ञान (जैव-रसायन शास्त्र) में पीएचडी की
डिग्री हासिल करने वाली पहली महिला बनीं। ग्रेजुएशन में अव्वल आने के बावजूद
उन्हें भारतीय विज्ञान संस्थान, बैंगलौर में प्रवेश देने से इन्कार कर दिया
गया था। और इन्कार करने वाले कोई और नहीं,
नोबेल पुरस्कार
विजेता सी. वी. रमन थे। अंतत: जब रमन ने प्रवेश दिया तो उन्होंने प्रवेश के साथ
सख्त और अपमानजनक शर्तें रखीं – जैसे, पहले एक वर्ष में उन्हें नियमित छात्र नहीं
माना जाएगा; उनके मार्गदर्शक दिन में जिस समय कहेंगे, उन्हें
काम करना होगा, और उन्हें यह सुनिश्चित करना होगा कि उनकी उपस्थिति अन्य
छात्रों को विचलित ना करे। जिन महिलाओं ने इन क्षेत्रों में काम करना संभव बनाया, उन्होंने
बहुत ही विषम परिस्थितियों में कार्य किया। लेकिन, इनमें
से कई महिलाओं ने तो यह माना ही नहीं कि उन्हें हाशिए पर धकेला गया था और इसे
लिंग-भेद की तरह देखने से इन्कार किया।
औपनिवेशिक शासन से स्वतंत्रता और नए
संविधान (जो सभी नागरिकों को समानता का अधिकार देता है) को अपनाने के बाद खेल के
नियमों में बुनियादी परिवर्तन हुए। लड़के और लड़कियों के लिए समान पाठ्यक्रम और
आधुनिक गणित और विज्ञान का अध्ययन करने के लिए महिलाओं को सक्रिय रूप से
प्रोत्साहन की सिफारिश करके हंसा मेहता समिति और कोठारी आयोग की रिपोर्टों ने इन
परिवर्तनों की नींव रखी थी। लेकिन हम इस दिशा में कितना आगे बढ़ पाए हैं, और
अभी मंज़िल और कितनी दूर है?
जैसा कि यह आलेख दिखाने की कोशिश करता है, पहले
की तुलना में आज स्थिति काफी बदल गई है। लेकिन आज भी,
मंशाओं और कार्रवाई
के बीच काफी अंतर हैं। उदाहरण के लिए प्रमुख विश्वविद्यालयों/कॉलेजों के स्नातक
कार्यक्रमों में विज्ञान की अपेक्षा कला और मानविकी जैसे विषयों तक महिलाओं की
पहुंच अधिक ‘आसान’ बनाई गई है। दिल्ली विश्वविद्यालय को ही देखें तो पता चलता है
कि स्नातक स्तर पर समाजशास्त्र और मनोविज्ञान विषय मात्र ‘महिला’ कॉलेजों में चलाए
जाते हैं, जबकि 22 महिला कॉलेजों में से सिर्फ 5 में स्नातक स्तर पर
भौतिकी विषय उपलब्ध है। मुंबई के भी कई महिला कॉलेजों में से कुछ ही बुनियादी
विज्ञान में स्नातक कोर्स चलाते हैं जबकि कई कॉलेजों में मनोविज्ञान और समाज
शास्त्र विषय हैं। चेन्नई के कई महिला कॉलेजों में विज्ञान के कई विषय समूह के रूप
में उपलब्ध हैं। जैसे, कुछ कॉलेजों में विज्ञान संकाय के नाम पर सिर्फ गणित के साथ
नागरिक शास्त्र और मनोविज्ञान विषय पढ़ाए जाते हैं (हालांकि, गणित
की प्रकृति दोहरी है – इसमें बीए और बीएससी दोनों कर सकते हैं)। दिल्ली, मुंबई
और चेन्नई में गृह विज्ञान के कोर्स अधिकांशत: महिला कॉलेजों में पढ़ाए जाते हैं।
यहां तक कि होम साइंस पढ़ाने के लिए खास महिला कॉलेज भी
हैं। यही स्थिति नर्सिंग और शिक्षा में भी
है, जिन्हें पारंपरिक रूप से महिलाओं के लिए उपयुक्त माना गया
है।
तालिका – 1:वर्ष 2015-16 में विभिन्न विषयों में दाखिले
भौतिक विज्ञान
पुरुष
स्त्री
कुल
%पुरुष
%स्त्री
गणित
50081
79523
129604
38.64
61.36
भौतिकी
25540
35349
60889
41.95
58.05
रसायन
44651
55237
99888
44.70
55.30
सांख्यिकी
3691
4618
8309
44.42
55.58
भू-भौतिकी
633
359
992
63.81
36.19
इलेक्ट्रॉनिक्स
2640
2055
4695
56.23
43.77
भूगर्भ शास्त्र
3518
2079
5597
62.86
37.14
जीव विज्ञान
प्राणि विज्ञान
13811
27214
41025
33.66
66.34
वनस्पति विज्ञान
12021
24715
36736
32.72
67.28
जैव-रसायन
2137
4447
6584
32.46
67.54
बायोटेक्नॉलॉजी
4579
9955
14534
31.51
68.49
सूक्ष्मजीव विज्ञान
3457
8607
12064
28.66
71.34
लाइफ साइंस
2460
4633
7093
34.68
65.32
आनुवंशिकी
351
487
838
41.89
58.11
जैव-विज्ञान
1650
2950
4600
35.87
64.13
कॉलेज/होस्टल के भेदभाव पूर्ण नियमों और
समय की पाबंदी को देखें, जिनका देश की अमूमन हर महिला छात्रा को
कॉलेज और विश्वविद्यालय में पालन करना होता है। महिला सुरक्षा के नाम पर बने ये
नियम-निर्देश पुस्तकालयों, प्रयोगशालाओं,
व्याख्यानों, सार्वजनिक
स्थानों और परिवहन तक महिलाओं की बराबर पहुंच के अधिकार को कुचल देते हैं।
राजस्थान सरकार द्वारा 2008 में स्थापित ज्योति विद्यापीठ महिला विश्वविद्यालय ने
होस्टल में रहने वाली छात्राओं के लिए अपनी वेबसाइट के ‘हॉस्टल लाइफ’ पेज पर कई
सख्त पाबंदियां लिखी हैं। जैसे होस्टल कैम्पस के अंदर और बाहर उनकी गतिविधियों पर
लगातार कड़ी नज़र रखी जाएगी जिसका ब्यौरा उनके अभिभावकों को दिया जाएगा, और
मोबाइल फोन या अन्य ऐसे उपकरण, जिनमें सिम कार्ड हो या उससे इंटरनेट चलाया
जा सकता हो, का उपयोग करते पाए जाने पर दंडात्मक कार्रवाई की जाएगी।
वनस्थली विद्यापीठ के नियम के मुताबिक विवाहित महिलाएं किसी भी कोर्स में प्रवेश
का आवेदन नहीं कर सकतीं, सिवाय कुछ ‘विशेष परिस्थितियों’ में
स्नातकोत्तर कार्यक्रमों में इसकी छूट है। 1983 में आंध्र प्रदेश सरकार द्वारा
तिरुपति में स्थापित श्री पद्मावती महिला विश्वविद्यालय में छात्राओं को ‘डीन द्वारा
स्वीकृत साफ और सभ्य पोशाक’ पहनने की ही अनुमति है। इसके अलावा उन्हें कॉलेज या
कॉलेज अधिकारियों की नीतियों और कार्यों की आलोचना सम्बंधी बैठक करने की अनुमति भी
नहीं है। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से सम्बद्ध एक महिला कॉलेज का ऐसा ही एक मामला
सर्वोच्च नयायलय तक पहुंचा था। दायर की गई याचिका के अनुसार, छात्रावास
नियम वहां रहने वाली महिलाओं/रहवासियों को रात 8 बजे के बाद बाहर जाने, यहां
तक कि किसी कार्यक्रम में शामिल होने या विश्वविद्यालय परिसर की लायब्रेरी तक जाने
की अनुमति नहीं देते। छात्रावास के नियम लड़कियों को रात 10 बजे के बाद
टेलीफोन/मोबाइल फोन कॉल करने या सुनने की भी अनुमति नहीं देते हैं; उनके
होस्टल के कमरों में मुफ्त वाई-फाई और इंटरनेट भी उपलब्ध नहीं कराया जाता है। जबकि
पुरुष छात्रों पर इनमें से एक भी नियम लागू नहीं होता।
इन परिस्थितियों में जब हमें अखबारों में
इस तरह खबरें पढ़ने को मिलती हैं कि पीजी, एमफिल छात्रों में महिलाओं की संख्या
पुरुषों से अधिक हैं, तो थोड़ा ठहर कर इस पर ध्यान देने की ज़रूरत है। यह स्थिति
सिर्फ सामाजिक विज्ञान और मानविकी विषयों में ही नहीं बल्कि बुनियादी विज्ञान
विषयों में भी है, जो कि सराहनीय है। मेनपॉवर प्रोफाइल ईयर बुक के साल 2000-01
के आंकड़े बताते हैं कि 2000-01 में विज्ञान में स्नातकोत्तर स्तर पर प्रति 100
पुरुषों पर महिलाओं की संख्या 80.1 थी जो अखिल भारतीय उच्च शिक्षा सर्वेक्षण (AISHE) के ऑनलाइन सर्वे के अनुसार साल 2011-12 में बढ़कर 113 हो गई थी, और
साल 2015-16 में 157 तक पहुंच गई थी। यही नहीं,
हर विषय में हमें इसी
तरह के आंकड़े मिलते हैं। तालिका 1 में साल 2015-16 में भौतिक विज्ञानों और जीव
विज्ञानों में पोस्ट ग्रेजुएशन में दाखिला लेने वालों की संख्या दर्शाई गई है। इसे
देखें तो पता चलता है कि कई विषयों में महिलाएं पुरुषों की तुलना में काफी अधिक
हैं। यह स्थिति ना सिर्फ जीव विज्ञान से जुड़े विषयों में है, बल्कि
भौतिक विज्ञान के विषयों में भी है। ज़ाहिर है कि तमाम बाधाओं के बावजूद, भौतिक
विज्ञान की उच्च शिक्षा को अब महिलाएं अपनी पहुंच से बाहर नहीं मानतीं। लेकिन
आंकड़ों पर गौर करें तो पता चलता है कि भौतिक विज्ञानों की तुलना में जीव विज्ञानों
में दाखिला लेने वाली महिलाओं की संख्या काफी अधिक है,
जो इस आम धारणा को
मज़बूत करती है कि महिलाएं गणित आधारित विषयों की तुलना में जीव विज्ञान से
सम्बंधित विषय लेना ज़्यादा पसंद करती हैं।
चलिए, इस मुद्दे को अच्छे से समझने के लिए और आंकड़े देखते हैं। तालिका 2 में साल 2015-16 के भौतिक विज्ञान के विषयों और जीव विज्ञान के विषयों में स्नातकोत्तर और उच्चतर शिक्षा में दाखिला लेने वाले और उत्तीर्ण करने वाले लोगों की संख्या एक साथ रखी गई है। तुलना करें तो पता चलता है कि स्नातकोत्तर में महिलाएं पुरुषों की तुलना में काफी अधिक हैं, लेकिन जब शोध संस्थानों या शोध कार्यों में दाखिले की बात आती है तो भौतिक विज्ञान में लिंग-भेद बरकरार है। ध्यान दें कि शोध कार्यक्रमों में दाखिला लेने वालों की संख्या, स्नातकोत्तर उत्तीर्ण करने वालों की संख्या से बहुत कम (बीसवें हिस्से से दसवें हिस्से के बराबर) है। अर्थात, पात्र उम्मीदवारों की संख्या उपलब्ध सीटों की संख्या से 10-20 गुना है। लेकिन 2015-16 के AISHE आंकड़ों के अनुसार भौतिक विज्ञान विषयों के एमफिल और पीएचडी कार्यक्रम में 63 प्रतिशत पुरुष और सिर्फ 37 प्रतिशत महिला छात्र थे।
वर्ष 2011-12 में,
हालांकि कुछ खास
विषयों में लैंगिक-असमानता अधिक देखी गई थी,
लेकिन भौतिक विज्ञान
के विषयों में एमफिल में प्रवेश लेने वाले कुल छात्रों में से सिर्फ 41 प्रतिशत और
पीएचडी में दाखिला लेने वाले कुल छात्रों में सिर्फ 33 प्रतिशत ही महिलाएं थीं।
तुलना के लिए देखें कि साल 2015-16 में, जीव विज्ञान के विषयों में स्थिति इसके
विपरीत थी: जीव विज्ञान में एमफिल में प्रवेश लेने वाले कुल छात्रों में सिर्फ 47
प्रतिशत पुरुष थे जबकि 53 प्रतिशत महिलाएं थीं और पीएचडी में प्रवेश लेने वालों
में 54 प्रतिशत महिला और 43 प्रतिशत पुरुष छात्र थे। यही स्थिति 2011-12 में भी थी, जीव
विज्ञान में एमफिल या पीएचडी में दाखिला लेने वाले छात्रों में से महिलाएं लगभग 60
प्रतिशत थीं।
पहले की तुलना में अब पीएचडी में अधिक
महिलाओं के प्रवेश लेने से पीएचडी पूरी करने की वाली महिलाओं की संख्या बढ़ना
चाहिए। AISHE वेबसाइट पर कुछ विशेष सालों के छात्रों का डैटा उपलब्ध नहीं है, साइट
पर 2011 के बाद के विभिन्न वर्षों का उत्तीर्ण करने सम्बंधित डैटा उपलब्ध है।
लेकिन इन आंकड़ों के अनुसार साल 2011-12 जीव विज्ञान में डॉक्टरेट हासिल करने वालों
में से सिर्फ 41 प्रतिशत ही महिलाएं थीं और साल 2015-16 में लगभग 46 प्रतिशत
महिलाएं थीं। कोई अचरज नहीं कि भौतिक विज्ञान में यह लैंगिक-अंतर और भी अधिक था।
2011-12 में, भौतिक विज्ञान में पीएचडी करने वालों में पुरुष 67 प्रतिशत
और महिलाएं केवल 33 प्रतिशत थीं। और 2015-16 में,
भौतिक विज्ञान में
पीएचडी करने वालों में पुरुष 70 प्रतिशत और महिलाएं 30 प्रतिशत थीं।
शोध और शिक्षण में कार्यरत महिलाएं
आंकड़ों को देखें तो जीव विज्ञान की उच्च
शिक्षा में लैंगिक-अंतर कम नज़र आता है लेकिन यह देखना उपयोगी होगा कि इन क्षेत्रों
के रोज़गार में महिलाओं की स्थिति क्या है। इसके लिए हमने देश के सभी केंद्रीय विश्वविद्यालयों
और अनुसंधान/शोध संस्थानों के जीव विज्ञान विभागों में नियुक्ति के आंकड़े देखे।
तीन केंद्रीय विश्वविद्यालयों को जानबूझकर शामिल किया गया था, क्योंकि
ये ‘शोध विश्वविद्यालय’ हैं जहां फैकल्टी के सदस्य बड़ी तादाद में सक्रिय अनुसंधान
कार्य में संलग्न रहते हैं। इन विश्वविद्यालयों में बाहर से वित्त पोषित शोध
प्रोजेक्ट्स भी चलते हैं। यहां के वैज्ञानिक कमोबेश मात्र स्नातकोत्तर या
एमफिल/पीएचडी स्तर के शिक्षण कार्य में लगे होते हैं। दरअसल, पीएचडी
कार्यक्रम इन विश्वविद्यालयों का मुख्य फोकस है। कुछ शोध संस्थान या तो एकीकृत
स्नातकोत्तर-पीएचडी प्रोग्राम या सिर्फ पीएचडी प्रोग्राम संचालित करते हैं, लेकिन
उनमें भी इन कार्यक्रमों के तहत कक्षा-अध्यापन अनिवार्य है। अलबत्ता, जो
लोग भारत के वैज्ञानिक अनुसंधान वित्तपोषण के परिदृश्य से परिचित हैं वे जानते हैं
कि इन संस्थानों के बीच भी स्पष्ट ऊंच-नीच मौजूद है – अनुसंधान संस्थानों को बेहतर
वित्तपोषण मिलता है और उनका बुनियादी ढांचा बेहतर है। इस तरह हमारे पास तुलना के
लिए दो भिन्न व्यवस्थाओं के आंकड़े उपलब्ध थे। अध्ययन में शामिल संस्थानों में जीव
विज्ञान विभागों में साल 2018 के पूर्व तक रहे लिंगानुपात का पता लगाने के लिए इन
संस्थानों की वेबसाइट पर उपलब्ध डैटा का उपयोग किया। अध्ययन में शामिल शोध
संस्थान/विश्वविद्यालय हैं :
जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय से सम्बद्ध स्कूल ऑफ लाइफ
साइंसेज़ (SLS), स्कूल ऑफ बायोटेक्नॉलॉजी (SBT), स्पेशल
सेंटर ऑफ मॉलीक्यूलर मेडिसिन (SCMM);
हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय
से सम्बद्ध, स्कूल ऑफ लाइफ साइंसेज़ का जैव-रसायन विभाग, पादप
विज्ञान विभाग, प्राणि जीव विज्ञान,
जैव प्रौद्योगिकी और
जैव सूचना विज्ञान (बायोटेक) विभाग। दिल्ली विश्वविद्यालय का जैव-रसायन विभाग, जैव-भौतिकी
विभाग, सूक्ष्मजीव विज्ञान विभाग,
आनुवंशिकी विभाग और
पादप आणविक जीव विज्ञान विभाग।
पुणे, कोलकाता,
त्रिवेंद्रम और
मोहाली स्थित भारतीय विज्ञान शिक्षा और अनुसंधान संस्थान (IISER) के जीव विज्ञान विभाग। प्रत्येक IISER एक स्वायत्त संस्थान है और भारतीय संसद
द्वारा 2010 में पारित एनआईटी अधिनियम के अनुसार डिग्री प्रदान कर सकता है।
भारतीय विज्ञान संस्थान (IISc) का जैव रसायन विभाग, आणविक
जैव-भौतिकी इकाई, आणविक प्रजनन, परिवर्धन एवं आनुवंशिकी विभाग, सूक्ष्मजीव
विज्ञान और कोशिका जीव विज्ञान विभाग। IISc यूजीसी अधिनियम के अनुसार एक डीम्ड
युनिवर्सिटी है।
वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद (CSIR) देश के अनुसंधान और विकास कार्यों में तेज़ी लाने के उद्देश्य से गठित किया
गया था। एक समय में CSIR के संस्थान विश्वविद्यालयों से सम्बद्ध होकर छात्रों को
पीएचडी की उपाधि देते थे। 2010 के बाद से ये संस्थान एकेडमी फॉर साइंटिफिक एंड
इनोवेटिव रिसर्च (AcSIR) से सम्बद्ध हैं। इस अध्ययन में CSIR द्वारा वित्त पोषित
अनुसंधान संस्थानों में से कोलकाता स्थित इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ केमिकल बायोलॉजी (IICB), चंडीगढ़ स्थित इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ माइक्रोबियल टेक्नोलॉजी
(IMTech), हैदराबाद स्थित सेंटर फॉर सेल्यूलर एंड मॉलीक्यूलर बायोलॉजी
(CCMB), लखनऊ स्थित राष्ट्रीय वनस्पति अनुसंधान संस्थान (NBRI), और दिल्ली स्थित इंस्टीट्यूट ऑफ जीनोमिक्स एंड इंटीग्रेटिव
बायोलॉजी (IGIB) शामिल हैं।
DBT द्वारा वित्त पोषित
अनुसंधान संस्थान भी इस अध्ययन में शामिल किए गए हैं: दिल्ली स्थित नेशनल
इंस्टीट्यूट ऑफ इम्यूनोलॉजी (NII),
मानेसर स्थित नेशनल
ब्रेन रिसर्च इंस्टीट्यूट (NBRC)।
मुंबई स्थित टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च (TIFR) का जीव विज्ञान विभाग और बैंगलुरु स्थित नेशनल सेंटर फॉर बायोलॉजिकल साइंसेज़
(NCBS)। इस अध्ययन में inSTtem और CCAMP संकाय के शिक्षकों को शामिल नहीं किया गया
है।
इन संस्थानों से प्राप्त आंकड़ों को देखें
तो पता चलता है कि TIFR और NCBS को छोड़कर बाकी अन्य संस्थानों में महिलाएं
30 प्रतिशत से अधिक नहीं हैं। इन संस्थानों में बतौर वैज्ञानिक/शिक्षक लगभग 27
प्रतिशत महिलाएं और 73 प्रतिशत पुरुष हैं।
यह समझना महत्वपूर्ण था कि क्या इन
संस्थानों किन्हीं खास पदों पर भिन्न स्थिति दिखती है। इसके लिए एक विश्लेषण हरेक
संस्थान/विभाग के अलग-अलग स्तर के पदों का किया गया। यह देखते हुए कि पिछले कुछ
वर्षों में महिलाओं के प्रवेश लेने और उत्तीर्ण करने की संख्या में सुधार हुआ है, यह
उम्मीद थी कि भले ही वरिष्ठ पदों पर लिंग-भेद काफी अधिक दिखे लेकिन प्रवेश स्तर की
नौकरियों पर तो कम से कम लिंगानुपात की यह खाई कम हुई होगी। यानी CSIR संस्थानों में हमें सीनियर प्रिंसिपल साइंटिस्ट या चीफ साइंटिस्ट के पद की
तुलना में सीनियर साइंटिस्ट और साइंटिस्ट के पदों पर लिंगानुपात में अंतर कम दिखना
चाहिए। नियमित पदों के अलावा अध्ययन में शामिल,
जे. सी. बोस फेलोशिप
पाने वाले आम तौर पर सीनियर साइंटिस्ट होते हैं और ये सेवानिवृत्त वैज्ञानिक भी हो
सकते हैं। चूंकि यह एक फेलोशिप है, इसलिए यह सभी संस्थानों में नहीं होती।
एमेरिटस प्रोफेसर, सेवानिवृत्त वरिष्ठ शिक्षक होते हैं और वे भी हर संस्थान
में नहीं होते। डीबीटी-वेलकम अर्ली कैरियर फैलोशिप (ECF), डीएसटी-इंस्पायर
आदि एक निश्चित अवधि की फेलोशिप हैं, जो नियमित पद नहीं दर्शाते। हम इन फेलोशिप
पर बाद में लौटेंगे।
प्राप्त आंकड़ों से पता चलता है कि CSIR संस्थानों में सभी पदों पर महिलाओं की उपस्थिति समान रूप से कम है। यहां तक
कि साइंटिस्ट या सीनियर साइंटिस्ट जैसे प्रवेश स्तर के पदों पर भी महिलाओं की
उपस्थिति 30 प्रतिशत से कम है।
क्या DST/DBT से वित्त पोषित संस्थानों में स्थिति अलग
है? इसे जांचने के लिए हमने DST/DBT से वित्त पोषित दो संस्थानों, NII और NBRC, से
प्राप्त आंकड़ों का विश्लेषण किया। हमने पाया कि यहां भी वरिष्ठ पदों (VI-VII ग्रेड के वैज्ञानिक)
पर महिला वैज्ञानिकों की तुलना में पुरुष वैज्ञानिक अधिक थे। और तो और, साइंटिस्ट
पदों (IV-V
ग्रेड के वैज्ञानिक) पर भी पुरुषों का पलड़ा भारी था।
जैसा कि पहले भी बताया गया है, DAE द्वारा संचालित TIFR और NCBS में स्थिति अलग है।
यहां प्रवेश स्तर और मध्य स्तर के पदों पर महिलाओं की संख्या अधिक दिखती है।
क्या वे संस्थान जो मास्टर और पीएचडी
कार्यक्रम भी चलाते हैं (और इस वजह से उनमें शिक्षण/अनुसंधान विभाग हैं) उनमें
महिलाओं की स्थिति अलग है? यह देखना इसलिए भी दिलचस्प होगा क्योंकि
शुरुआत में महिलाओं के लिए पहचाने गए ‘उपयुक्त’ कार्यों में से एक शिक्षण था। इस
विश्लेषण में ना सिर्फ IISc और DU, JNU और HCU जैसे पुराने विश्वविद्यालय या संस्थान शामिल हैं बल्कि IISER जैसे नए संस्थान भी शामिल हैं। इन नए संस्थानों में भर्तियां भले ही वरिष्ठ
पदों के लिए की गर्इं हों, लेकिन इन भर्तियों से हमें मौजूदा रुझानों
का अंदाज़ा मिलेगा। गौरतलब है कि IISc और IISERs
स्वयं को अनुसंधान संस्थान मानते हैं, ना कि विश्वविद्यालय। उनकी वेतन संरचना, शिक्षकों
की स्वायत्तता और कार्य परिवेश केंद्रीय विश्वविद्यालयों से बहुत अलग है।
IISc में, जीव विज्ञान से सम्बंधित विभागों में महिलाओं की संख्या 20
प्रतिशत से कम है। जैसी कि उम्मीद थी प्रोफेसर और एसोसिएट प्रोफेसर के पदों पर लिंग-अंतर
अधिक था। लेकिन प्रवेश-स्तर के पद, असिस्टेंट प्रोफेसर, पर
तो यह अंतर और भी अधिक था।
सबसे हाल में स्थापित हुए संस्थान IISER में प्रोफेसरों की संख्या कम है। IISER कोलकाता में सिर्फ एक महिला प्रोफेसर थी
और इस पद पर पुरुष नियुक्तियां नहीं थी। अन्य तीन IISER संस्थानों में
प्रोफेसर के पद पर सिर्फ पुरुष कार्यरत थे और एक भी महिला इस पद पर नहीं थी। सभी IISER संस्थानों में एसोसिएट प्रोफेसर के पद पर पुरुषों का ही वर्चस्व था। कोलकाता IISER को छोड़कर बाकी तीनों में असिस्टेंट प्रोफेसर के पद पर भी महिलाओं की संख्या
बहुत कम थीं। कोलकाता IISER में प्रवेश स्तर के पद (असिस्टेंट प्रोफेसर) के पद पर
लिंगानुपात ठीक था।
JNU में प्रोफेसर के पद पर पुरुषों की ही भरमार थी और असिस्टेंट प्रोफेसर के पदों
पर भी झुकाव थोड़ा पुरुषों के प्रति था, हालांकि यह उतना अधिक नहीं था।
दिल्ली युनिवर्सिटी के लाइफ साइंस संकाय
में प्रोफेसर व एसोसिएट प्रोफेसर पदों पर पुरुषों की अधिक संख्या दर्शाती है कि
वहां भी यही स्थिति है। हालांकि असिस्टेंट प्रोफेसर के पद पर महिलाओं की स्थिति
बेहतर दिखती है। यहां का डिपार्टमेंट ऑफ जेनेटिक्स एक अपवाद की तरह दिखता है जहां
महिलाओं की संख्या पुरुषों से अधिक हैं।
HCU में भी प्रोफेसर और एसोसिएट प्रोफेसर के पद पर पुरुषों का ही दबदबा दिखता है।
बायोटेक्नॉलॉजी और बायोइंफॉरमेटिक्स विभाग को छोड़कर बाकी अन्य विभागों में अपवाद
स्वरूप असिस्टेंट प्रोफेसर के पद पर लैंगिक-संतुलन बेहतर दिखता है। इनमें भौतिक
विज्ञान विभाग के आंकड़ों को शामिल कर लिया जाए तो यह लैंगिक खाई और भी चौड़ी हो
जाती है।
आंकड़े बताते हैं कि विज्ञान अध्ययन शालाओं
में भौतिक विज्ञानों में महिलाओं की तुलना में पुरुष काफी अधिक हैं।
विभिन्न संस्थानों के जीव विज्ञान संकाय के
शिक्षक सम्बंधी डैटा देखें पता चलता है कि –
TIFR और NCBS को छोड़कर शेष सभी शोध संस्थानों के वरिष्ठ पदों पर लिंग-भेद झलकता है।
इन शोध संस्थानों के प्रवेश स्तर और मध्य स्तर के पदों पर
भी लिंग-भेद झलकता है, यहां भी TIFR और NCBS अपवाद हैं।
IISc और IISER दोनों संस्थानों के वरिष्ठ और प्रवेश स्तर,
दोनों पदों पर लैंगिक
अंतर काफी अधिक है। यह IISc जैसे पुराने संस्थान के जीव विज्ञान
विभागों में भी झलकता है, और IISER जैसे नए संस्थानों
में भी है। जैसा कि पहले उल्लेख किया गया था,
इन संस्थानों की
पहचान शिक्षण संस्थान के रूप में होने के बावजूद इन संस्थानों की आत्म-छवि, वित्त
व्यवस्था और शिक्षकों की स्वायत्तता शोध संस्थानों जैसी है, इसलिए
हो सकता है कि इन संस्थानों में नियुक्तियों का पैटर्न भी शोध संस्थानों जैसा हो।
केंद्रीय विश्वविद्यालयों में प्रवेश-स्तर के पदों पर तो
महिला-पुरुष की संख्या में बहुत कम अंतर दिखता है लेकिन वरिष्ठ पदों पर, उम्मीद
के मुताबिक, पुरुष ही अधिक दिखते हैं। जबकि ये संस्थान ऐसे संस्थान हैं
जहां स्पष्ट रूप से शोध या अनुसंधान कार्यों के साथ शिक्षण कार्य भी ज़रूरी है। इन
संस्थानों में मुख्य ज़ोर शिक्षण कार्य पर
होता है।
नियुक्तियों में झलकने वाला यह लिंग-भेद
क्या दर्शाता है? क्या यह वास्तव में समाज में व्याप्त लिंग पूर्वाग्रहों का
परिणाम है, खासकर भारतीय परिवारों में,
जहां माता-पिता अपनी
बेटियों को कैरियर-उन्मुख विज्ञान कार्यक्रमों में दाखिला लेने की अनुमति नहीं
देते या प्रोत्साहित नहीं करते? या,
क्या यह इसलिए है
क्योंकि महिलाएं पर्याप्त प्रतिभा नहीं रखतीं या कम महत्वाकांक्षी हैं? या, क्या
महिलाएं ऐसे पदों को चुनती हैं जहां शोध कार्य की बजाय शिक्षण पर अधिक ज़ोर होता है? या, क्या
उन्हें उन दरबानों और चयन प्रक्रियाओं का सामना करना पड़ता है जो पूर्वाग्रहों के
चलते शोध या अनुसंधान पदों पर तो पुरुषों का चुनाव करते हैं लेकिन शिक्षण पदों पर
महिलाओं के साथ कम भेदभाव करते हैं? या क्या यह इन सभी का मिला-जुला परिणाम है?
इस संदर्भ में उपलब्ध डैटा जटिल लग सकता है
लेकिन इसे समझना मुश्किल नहीं है। इसे समझने के लिए हमने पिछले सात सालों में दो
सबसे अधिक प्रतिस्पर्धी प्रारंभिक कैरियर रिसर्च फैलोशिप,
DST-INSPIRE फैकल्टी स्कीम और भारत एलायंस डीबीटी-वेलकम अर्ली कैरियर फैलोशिप, पाने
वालों के लैंगिक डैटा को खंगाला। ये फैलोशिप (पोस्ट-डॉक्टरल रिसर्च अवार्ड्स) 5
साल की निश्चित अवधि के लिए दी जाती हैं। आंकड़ों से पता चलता है कि 2013 के बाद से
इन्हें पाने वालों में महिलाओं की संख्या बढ़ी है और किन्हीं-किन्हीं सालों में तो
यह पुरुषों से अधिक भी है। इसका एक संभावित कारण यह हो सकता है कि ये फैलोशिप एक
नियमित पद प्रदान नहीं करतीं इसलिए ये पुरुषों को इतना आकर्षित नहीं करतीं।
हालांकि, यह कारण असंभव सा जान पड़ता है क्योंकि इन फैलोशिप को पाना, कैरियर
में उन्नति करने में मदद करता है और नियमित पदों पर दावेदारी की संभावना बढ़ाता है।
इसकी ज़्यादा संभावित व्याख्या यह हो सकती है कि वर्तमान पीढ़ी में जीव विज्ञान में
प्रवेश करने वाली महिलाएं शीर्ष पर पहुंचने के लिहाज़ से वाकई पर्याप्त सक्षम और
महत्वाकांक्षी हैं।
सहकर्मी मान्यता और पुरस्कार
अब सवाल यह उठता है कि मान्यता और
पुरस्कारों के मामले में महिलाएं कितना आगे बढ़ पाई हैं?
यहां विशेषकर यह
बताना उचित होगा कि 2000 के बाद से कई भारतीय विज्ञान अकादमियों ने लैंगिक समावेश
के लिए कई अध्ययन, उच्च कोटि की कार्यशालाएं और जागरुकता सत्रों का आयोजन
करवाया है। तो यही देखें कि विज्ञान अकादमियों में महिलाओं के चयन की क्या स्थिति
है? उदाहरण के लिए भारतीय राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी (INSA) में विभिन्न विषयों में चयनित महिला सदस्यों (फेलो) के आंकड़ों को ही लें। हम
पाते हैं कि अधिकांश विषयों में, लैंगिक-समानता ना केवल एक दूर का सपना है
बल्कि सक्रिय दखल दिए बिना इस लैंगिक-खाई को पाटना शायद संभव ना होगा। वैसे, जीव
विज्ञान में महिलाओं की स्थिति, अन्य विषयों से थोड़ी बेहतर दिखती है।
ऐसी ही निराशाजनक स्थिति प्रतिष्ठित
पुरस्कारों में भी दिखती है। जैसे, वर्ष 1958 में शुरु किए गए शांति स्वरूप
भटनागर पुरस्कार (जो विज्ञान के सात विषयों के लिए दिए जाते हैं) और हाल ही में
शुरू किए गए इन्फोसिस पुरस्कार (जो साइंस और इंजीनियरिंग के 4 विषयों में दिए जाते
हैं) की स्थिति पर गौर कीजिए। 2016 तक इन पुरस्कार को पाने वाले कुल 525 लोगों में
सिर्फ 16 महिलाएं (यानी 3.04 प्रतिशत) थीं। 2017 में पुरस्कृत लोगों की कुल संख्या
535 हो चुकी थी लेकिन इनमें महिलाओं की संख्या 16 (यानी 2.99 प्रतिशत) रह गई थी।
साल 2017 तक इंजीनियरिंग और कम्प्यूटर साइंस में इन्फोसिस पुरस्कार प्राप्त करने
वाले आठ लोगों में से केवल एक महिला थी, लाइफ साइंस में पुरस्कृत नौ में 2 महिलाएं
थीं और भौतिक विज्ञान में पुरस्कृत नौ लोगों में सिर्फ एक महिला थी।
पूरे विश्व में समकक्ष लोगों द्वारा
मान्यता के रुझान बताते हैं कि दुर्भाग्यवश,
यह समस्या वैश्विक
है। साल 2017 में नेचर एस्ट्रोनॉमी में प्रकाशित एक शोध पत्र में केपलर और
उनके साथियों ने इस बात का विश्लेषण किया था कि महिलाओं द्वारा लिखित शोध पत्रों
और पुरुषों द्वारा लिखित शोध पत्रों को कितनी बार अन्य शोध पत्रों में उद्धरित
किया जाता है। इसके लिए उन्होंने 1950 से 2015 के बीच 5 मुख्य एस्ट्रोनॉमी जर्नल्स
में प्रकाशित 1,50,000 लेखों का विश्लेषण किया था। उन्होंने पाया कि पुरुषों की
तुलना में महिलाओं द्वारा लिखे गए पर्चों को लगभग 10 प्रतिशत कम उद्धरण प्राप्त
हुए।
साल 2018 में प्लॉस बॉयोलॉजी में
प्रकाशित एक अन्य अध्ययन में हॉलमैन और उनके साथियों ने इस बात की जांच की कि
वैज्ञानिक शोध दलों की अगुवाई करने वालों में कितनी महिलाएं दिखती हैं। इसे जांचने
के लिए उन्होंने वैज्ञानिक शोध पत्रों के मुख्य लेखक या पत्राचार करने वाले लेखक
के जेंडर का विश्लेषण किया। उन्होंने साल 2002 से अब तक पबमेड में प्रकाशित
लगभग 91.5 लाख शोध पत्रों के लगभग 3.5 करोड़ लेखकों और 1991 से अब तक arXiv preprints में प्रकाशित 5 लाख शोध पत्रों का विश्लेषण किया। उनका
निष्कर्ष था कि भौतिकी विषय में लैंगिक समता लाने में अभी 258 साल और लगेंगे, और
जीव विज्ञान में भी 75 साल से भी अधिक वक्त लगेगा। उन्होंने यह भी पाया कि पुरुषों
की तुलना में महिलाओं को शोध पत्र लिखने के लिए कम ‘आमंत्रित’ किया जाता है। जीव
विज्ञान प्रबंधक विशेषज्ञ खोजने वाली एक कंपनी लिफ्टस्ट्रीम ने एक अध्ययन किया था
और बताया था कि बायोटेक प्रबंधन समितियों में महिलाओं को इसलिए कम आंका जाता है
क्योंकि वहां आसीन पुरातन-सोच वाले पुरुष मौजूद हैं जो इन पदों पर महिलाओं को
शामिल नहीं करते, और यदि यहि रफ्तार रही तो साल 2056 तक इन स्थानों पर लैंगिक
समानता नहीं आ सकेगी।
विज्ञान में लैंगिक ढांचा और पूर्वाग्रह
लिंग (जाति भी) सूक्ष्म और व्यापक दोनों
स्तरों पर पारस्परिक सम्बंधों और संस्थागत ढांचों,
दोनों को प्रभावित
करता है। लैंगिक ताना-बाना सांस्कृतिक पूर्वाग्रह भी बनाता है कि किसी स्थिति में
हम कैसी प्रतिक्रिया देंगे, या किसी अन्य व्यक्ति से कैसी प्रतिक्रिया
की उम्मीद रखेंगे। इसके बाद संस्थागत सांस्कृतिक कायदे बनाए जाते हैं ताकि जेंडर
आचार संहिता के उल्लंघन पर दंड दिया जा सके या उस व्यवहार को हतोत्साहित किया जा
सके।
2012 में येल के मॉस-रेकुसिन और उनके
साथियों का एक बहुत ही दिलचस्प डबल-ब्लाइंड अध्ययन प्रोसीडिंग्स ऑफ द नेशनल
एकेडमी ऑफ साइंसेज (पीएनएएस) में प्रकाशित हुआ था। इसमें नियुक्ति के समय
वैज्ञानिकों की लैंगिक पहचान के प्रति ‘निष्पक्षता’ को जांचा गया था। 127 विज्ञान
शिक्षकों (पुरुष और महिला दोनों) को लैब मैनेजर के पद के लिए लिखे गए दो में से एक
आवेदन दिया गया था। दोनों आवेदन एकदम समान थे,
एकमात्र अंतर लिंग
(जॉन बनाम जेनिफर) का था। वैज्ञानिकों को योग्यता,
नियुक्ति की पात्रता, संभावित
वेतन और मार्गदर्शन करने की क्षमता के आधार पर आवेदकों को अंक देने के लिए कहा गया
था। अध्ययन में उन्होंने पाया कि पुरुष आवेदक को ना केवल योग्यता, नियुक्ति
की पात्रता और मार्गदर्शन करने की क्षमता के संदर्भ में उच्च आंका गया बल्कि उसे
महिला आवेदक की तुलना में अधिक वेतन का भी प्रस्ताव दिया गया (30,238.10 डॉलर बनाम
26,507.94 डॉलर)। चयनकर्ता के महिला या पुरुष होने का उनके आकलन पर कोई असर नहीं
दिखा; पुरुष चयनकर्ता की तरह महिला चयनकर्ता ने भी, पुरुष
आवेदक को महिला आवेदक से अधिक आंका।
अब यह बात व्यापक रूप से स्वीकार कर ली गई
है कि विज्ञान के क्षेत्र में विभिन्न लिंगों के छात्रों में रूढ़ छवियां
(स्टीरियोटाइप) और अनजाने में बने लैंगिक पूर्वाग्रह होते हैं। इस बारे में गंभीर
खोजबीन जारी है कि ये काम कैसे करते हैं। साल 2015 में हैंडले द्वारा पीएनएएस में
प्रकाशित एक अध्ययन में यह विचार किया गया था कि विज्ञान में लैंगिक पूर्वाग्रह के
प्रमाणों का मूल्यांकन महिला और पुरुष कैसे अलग-अलग करते हैं। उन्होंने कुल तीन
डबल-ब्लाइंड अध्ययन किए – दो समूह आम लोगों के थे जबकि एक समूह विश्वविद्यालय
फैकल्टी का था जिसमें STEM (साइंस, टेक्नॉलॉजी,
इंजीनियरिंग और
मेथेमेटिक्स) और non-STEM दोनों विषयों के लोग थे। यहां हम सिर्फ यह देखेंगे कि STEM और non-STEM विषय के 205 लोगों को जब मॉस-रेकुसिन के शोध पत्र का सारांश मूल्यांकन के लिए
दिया गया तो उनकी क्या प्रतिक्रिया रही। उन्हें non-STEM विषयों के पुरुष और महिला शिक्षकों की
प्रतिक्रियाओं में कोई खास अंतर नहीं दिखा। दूसरी ओर,
STEM विषय की महिलाओं की तुलना में STEMसंकाय के पुरुषों ने सारांश को कमतर आंका। non-STEM विषय के सारे लोगों द्वारा किए गए मूल्यांकन और STEM विषय की महिलाओं
द्वारा किए गए मूल्याकंन में भी कोई खास अंतर नहीं था। इन नतीजों के आधार पर
शोधकर्ताओं का निष्कर्ष था कि यह इस वजह से नहीं है कि STEM विषय की महिलाओं ने
अतिशयोक्ति पूर्ण आकलन दिया बल्कि इसलिए है कि STEM विषय के पुरुष अपने
कार्यक्षेत्र में लिंग पूर्वाग्रह की संभावना को स्वीकार करने के इच्छुक नहीं होते; यदि
वे इसे स्वीकार करेंगे तो हो सकता है कि उन्हें प्राप्त विशेष दर्जे पर सवाल उठ
जाएं।
2010 में नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ एडवांस
स्टडीज़ के सहयोग से इंडियन एकेडमी ऑफ साइंसेज़ की अनीता कुरुप और उनके साथियों
द्वारा किए गए प्रशिक्षित वैज्ञानिक महिला कर्मियों के सर्वेक्षण में कुछ चौंकाने
वाले निष्कर्ष सामने आए थे। उनके अध्ययन में 794 पीएचडी कर चुके लोग शामिल थे, जिसमें
लगभग 40 प्रतिशत पुरुष थे। शोधकर्ताओं ने इन लोगों को चार श्रेणियों में बांटा था:
अनुसंधान में संलग्न महिलाएं (WIR),
अनुसंधान ना करने
वाली महिलाएं (WNR), काम ना करने वाली महिलाएं (WNW) और अनुसंधान में
संलग्न पुरुष (MIR)। पता चला कि पीएचडी करने वाली 87 प्रतिशत महिलाओं ने विज्ञान में काम करना
जारी रखा, लेकिन इनमें से लगभग 63 प्रतिशत महिलाएं ही शोध कार्य (WIR) कर रहीं थीं। बाकी महिलाओं का शोध कार्य में ना होने का सबसे प्रमुख कारण था
नौकरी ना मिलना। काम ना करने वाली महिलाएं (WNW) नियमित पद ना मिलने
या केवल अस्थायी पद मिलने के कारण विज्ञान के क्षेत्र में कैरियर बनाने से पीछे हट
गई थीं। यह स्थिति विशेष रूप से उन महिलाओं के साथ थी जिनके पति उसी या उसके
प्रतिस्पर्धी वैज्ञानिक क्षेत्रों में पीएचडी थे,
या वैज्ञानिक
अनुसंधान में संलग्न थे। इन महिलाओं को मिलने वाली नौकरी की अस्थायी प्रकृति ने
अक्सर परिवार की ज़रूरतों, जैसे बुज़ुर्र्ग या बच्चों की देखभाल, के
लिए इन्हें ही घर पर रहने को मजबूर किया। दिलचस्प बात यह है कि शोधकार्य करने वाली
महिलाओं में से 14 प्रतिशत महिलाओं ने शादी नहीं की थी जबकि शोधकार्य करने वाले
केवल 2.5 प्रतिशत पुरुषों ने शादी नहीं की थी। यह भी पता चला कि प्रति सप्ताह
प्रयोगशाला में 40-60 घंटे बिताने वालों में पुरुषों की तुलना में महिलाओं (WIR) की संख्या अधिक थी। और कई पुरुषों ने उनके बच्चे बड़े होने पर प्रयोगशाला में
सप्ताह में 40 घंटे से भी कम समय बिताया। फिर भी महिलाओं के प्रति यह रूढ़िवादी सोच
बनी हुई है कि महिलाएं शोध के लिए प्रतिबद्ध नहीं होती या उनमें परिवार और कैरियर
की प्राथमिकता को लेकर द्वंद्व चलता रहता है।
विज्ञान अकादमियों और वित्त पोषण एजेंसियों
की पहल
जैसा कि पहले उल्लेख किया गया था, सदी
की शुरुआत में भारत की कई विज्ञान अकादमियों ने विज्ञान के क्षेत्र में महिलाओं की
अनुपस्थिति, उनको मान्यता में कमी जैसे मुद्दों को पहचाना, और
यथास्थिति को बदलने के लिए आवश्यक कदम उठाने की शुरुआत कर दी थी। लेकिन ये कदम
कितने प्रभावी रहे? 2004 में भारतीय राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी (INSA) की रिपोर्ट के बाद नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ (NAS) और इंडियन एकेडमी
ऑफ साइंसेज़ (IAS) ने कार्यशालाएं आयोजित की और विज्ञान में महिलाओं को शामिल करने के लिए कई
पहल की। साल 2005 में DST ने विज्ञान में महिलाओं के लिए एक राष्ट्रीय टास्क फोर्स
की स्थापना की। ये ठोस कदम विज्ञान में महिला मुद्दों को सामने लाए और इनसे इन
क्षेत्रों में महिलाओं के दाखिले और नियुक्ति के बीच की खाई (यानी तथाकथित रिसाव
की समस्या) को पहचानने में मदद मिली। अकादमियों ने नियुक्ति प्रक्रियाओं की
दिक्कतों, पारंपरिक घरेलू व्यवस्था में महिलाओं के ऊपर पड़ने वाले
दोहरे बोझ और वरिष्ठ पदों या निर्णायक पदों पर महिलाओं की अनुपस्थिति पहचानी।
महिलाएं विज्ञान क्षेत्र को बतौर पेशा चुनें,
इसे प्रोत्साहित करने
के लिए DST ने, इस क्षेत्र में काम करने की परिस्थितियों में सुधार की
सिफारिशें की हैं। जैसे, उनके लिए लचीली समय व्यवस्था, बच्चों
के लिए झूलाघर, सुरक्षित परिवहन, कैंपस आवास,
फेलोशिप, और
जागरूकता कार्यक्रम आदि।
लागू करने के लिए इनमें से सबसे आसान सुझाव
था फेलोशिप योजनाएं, जो किसी भी तरह से यथास्थिति को चुनौती नहीं देतीं। उदाहरण
के लिए DST की महिला वैज्ञानिक योजना को ही लें। यह कार्यक्रम उन पीएचडी धारी महिलाओं को
अनुसंधान कार्यों में वापस जोड़ने के लिए चलाया गया था जिनके कैरियर में किन्हीं
कारणों से अंतराल आ गया था। लेकिन उनके लिए नियमित रोज़गार के अवसर प्रदान करने की
योजना के बिना, ऐसी अधिकांश योजनाएं सिर्फ एक,
अनिश्चित वादे के साथ, पोस्ट-डॉक्टरल
फेलोशिप भर बनकर रह गर्इं। कई साल पहले 1984 में,
UGC ने तकनीकी रूप से प्रशिक्षित लोगों को आकर्षित करने और इस क्षेत्र में बनाए
रखने के लिए रिसर्च साइंटिस्ट स्कीम शुरू की थी। विदेश में अच्छे पदों पर कार्यरत
कई लोग इस स्कीम का लाभ पाने के लिए देश लौट आए थे। 1999 आते-आते UGC इस योजना को जारी रखने का इच्छुक नहीं था,
और इस योजना से
सम्बंधित मेज़बान संस्थान इन शोध वैज्ञानिकों को अपने यहां लेने के लिए तैयार नहीं
थे। कई UGC-शोध वैज्ञानिक कानूनी कार्रवाइयों की मदद से सेवानिवृत्ति तक अपने पद पर बने
रह सके जबकि कई लोगों ने इन संस्थानों में वैमनस्य का सामना किया। यही हश्र 2008
में शुरू हुए DST-INSPIRE फैकल्टी प्रोग्राम या 2013 में शुरू हुए यूजीसी फैकल्टी रिचार्ज प्रोग्राम का
भी होता दिख रहा है, यदि मेज़बान संस्थान इन कार्यक्रमों के तहत नियुक्त किए गए शिक्षकों
को फंडिंग खत्म होने के बाद भी अपने संस्थानों में रखने का कोई तरीका नहीं निकाल
लेते।
दुर्भाग्य से,
अक्सर फंडिंग योजनाओं
की घोषणा शीर्ष स्तर से की जाती है। पुरानी योजनाओं के सटीक आकलन करने वालों और
संस्थानों के बीच इस पर चर्चा की कमी रहती है। यहां,
विभिन्न फंडिंग
एजेंसियों द्वारा शुरु किए गए पीएचडी अनुसंधान योजनाओं के हितधारकों के साथ
बमुश्किल ही कोई उचित चर्चा होती है, और नौकरशाह अक्सर इन कार्यक्रमों को अपने
नियंत्रण में रखते हैं और हितधारकों के हाथ में कुछ नहीं होता।
इससे भी अधिक मुश्किल है ऐसे कार्यक्रमों
या समाधानों को लागू करना जो स्थापित एकछत्र सत्ता को चुनौती देते हैं। इस देश में
कई वर्ष एक छात्र के रूप में और अलग-अलग संस्थानों में एक शिक्षक के रूप में
बिताने के बाद, आज भी मैं ऐसे किसी लैंगिक संवेदीकरण कार्यक्रम के बारे में
नहीं जानती जो विज्ञान-कर्मियों, छात्रों या शिक्षकों के लिए स्वैच्छिक या
अनिवार्य रूप से चलाया जाता हो। मैंने ऐसे कई कार्यक्रमों में भाग लिया है, जिनका
उद्देश्य विज्ञान में कैरियर के लिए अधिक महिलाओं को आकर्षित करना है, लेकिन
इनमें से एक भी कार्यक्रम ऐसा नहीं रहा जो गंभीरता से विज्ञान के विभागों या
संस्थानों को ज़्यादा समावेशी, ज़्यादा विषमांगी बनाने पर मंथन करता है।
मैंने शायद ही कभी किसी संस्थान को इन कार्यशाला की सिफारिशों को अपनाते देखा है, और
आकलन करते देखा है कि ये कदम कितने सफल रहे?
अधिकांश
संस्थानों/विभागों में, यहां तक कि जीव विज्ञान विभाग में (जहां पीएचडी प्रवेश में
लैंगिक-अनुपात अब उलट चुका है) आज भी औसतन केवल 25 प्रतिशत महिला शिक्षक हैं। कुछ
संस्थान महिलाओं को शिक्षकों के तौर पर नियमित करने वाली नीतियों की वकालत करते
हैं, या लचीले समय की सुविधा या आवास सुविधा देने का वायदा करते
हैं। लेकिन इस सबके बावजूद, अनीता कुरुप और उनके साथियों का अध्ययन
बताता है कि ये सब महिलाओं में उनके कैरियर के प्रति प्रतिबद्धता में कमी नहीं
लाती हैं। इनमें से अधिकांश महिलाएं विवाहित थीं और अपने परिवार के साथ रहती थीं
जहां बच्चों या बुज़ुर्गों की देखभाल उनकी ही ज़िम्मेदारी रहती है। इनके लिए कुछेक
संस्थान ही अच्छे झूलाघर या सुरक्षित परिवहन जैसी सहायता मुहैया करा सके। इनमें से
अधिकांश संस्थानों में आज भी यही स्थिति है। लचीले समय की सुविधा देने की बजाय कई
संस्थाओं ने अधिक बाज़ारोन्मुख, और मुनाफा केंद्रित तरीके अपनाएं हैं जिसके
चलते कार्यस्थल पर उपस्थिति के अधिक कठोर नियम बने हैं। जैसे आधार-लिंक्ड
बायोमेट्रिक्स प्रणाली, जिससे महिला वैज्ञानिकों को और भी मुश्किल हालात का सामना
करना पड़ता है।
यह हमारे सामने एक बड़ा सवाल खड़ा करता है कि
क्या इस बात से कोई फर्क पड़ता है कि ये नीतियां कौन बनाता है? क्या
इससे फर्क पड़ता है कि हितधारक कौन है? या क्या ‘स्थान’ (location) पूरी तरह
अप्रासंगिक है? इसे समझने के लिए हम UGC की महिलाओं को
विज्ञान अनुसंधान कार्यों की ओर आकर्षित करने के लिए बनाई हालिया नीति को देखते
हैं। यूजीसी नियमन 2016 के अनुच्छेद 4.4 में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि “महिलाओं
और 40 प्रतिशत से अधिक विकलांगता वाले उम्मीदवारों को एमफिल पूरी करने के लिए
अधिकतम एक साल और पीएचडी पूरी करने के लिए अधिकतम दो साल की अवधि की छूट दी जा
सकती है। इसके अलावा, महिला उम्मीदवारों को एमफिल/पीएचडी के दौरान एक बार 240
दिनों का मातृत्व अवकाश या बाल देखभाल अवकाश दिया जा सकता है।” पहली नज़र में, यह
पहल महिलाओं को उनकी पीएचडी पूरी करने में मदद करने की नज़र से बहुत ही उदार लगती
है, इससे हमारे पास नियुक्त करने के लिए प्रशिक्षित लोगों का एक
बड़ा पूल तैयार होगा। सभी महिलाएं, चाहे वे विवाहित हों या ना हों, अपनी
पीएचडी पूरी करने के लिए दो अतिरिक्त वर्षों की हकदार हैं। यदि महिलाओं को 40
प्रतिशत विकलांग लोगों के समकक्ष देखना अपमानजनक ना भी लगे तो जिन लोगों ने इस नीति को बनाया है उन्होंने इससे एक कदम आगे जाकर
बच्चों की देखभाल का सारा बोझ महिलाओं के कंधों पर डाल दिया है। और तो और, शादी
और उससे जुड़े समझौतों का सारा बोझ भी महिलाओं पर डाल दिया है। यूजीसी रेग्यूलेशन
2016 का अनुच्छेद 6.6 कहता है कि “विवाह या अन्य किसी कारण से यदि महिला को
एमफिल/पीएचडी स्थानांतरण करना पड़े तो, रेग्यूलेशन में उल्लेखित सभी
सुविधाओं/शर्तों के साथ अनुसंधान डैटा उस युनिवर्सिटी को हस्तांतरित करने की
अनुमति होगी जिसमें वे जाने का इरादा रखती हैं,
और यह अनुसंधान मूल
संस्थान या मार्गदर्शक का नहीं कहलाएगा। हालांकि,
पीएचडी करने वाले को
मूल मार्गदर्शक और शोध संस्था को उचित श्रेय देना होगा।” इन नियमों को देखते हुए, क्या
यह अनुमान लगाना मुश्किल है कि विज्ञान में शोध पर्यवेक्षक (चाहे पुरुष हो या
महिला) अपनी प्रयोगशाला में पुरुष की बजाय किसी महिला शोधार्थी को पीएचडी के लिए
वरीयता देंगे?
जैसा कि पहले ही बताया गया था कि विज्ञान
क्षेत्र में महिलाओं की कमी, प्रशिक्षित महिलाओं की कमी के कारण नहीं
है। इस क्षेत्र में बाधाएं अक्सर इसके बाद आती हैं – रोज़गार के अवसरों की कमी, बुनियादी
सुविधाओं की कमी और संस्थानों द्वारा सहयोग में कमी,
ये सब मिलकर महिलाओं
को इस क्षेत्र से बाहर रखते हैं। ऐसी नीतियां जो उन्हीं लोगों को शामिल नहीं करतीं
जिनके लिए वे बनाई जा रही हैं, तो अंतत: अक्सर उन लोगों के जीवन और
अनुभवों में कोई खास परिवर्तन नहीं आता है जिन्हें ध्यान में रखकर वे बनाई गई थीं।
लेकिन बात तो तब बिगड़ जाएगी जब अंत में कोई नीति उनके लिए ही विनाशकारी या
अहितकारी साबित हो जिनके हित में यह बनाई गई है।
इसके अलावा,
इसमें शामिल संस्थाओं
के ढांचे में बदलाव किए बिना इन नीतियों को लागू करना,
विपरीत परिणाम दे
सकता है और परिणामस्वरूप व्याप्त रूढ़ियों और पूर्वाग्रहों को मज़बूत कर सकता है। यह
स्पष्ट है कि क्यों कई महिलाएं लिंग आधारित आरक्षण को लेकर शंका व्यक्त करती हैं, या
कई महिलाएं लचीली समय सुविधा लेने में या प्रतिस्पर्धात्मक माहौल में जहां पुरुषों
की अधिकता है वहां घर से काम करने की सुविधा लेने में हिचकती हैं। अंतर्निहित लैंगिक
सोच संस्था के ढांचे में झलकता है। इस प्रकार,
इन संस्थाओं के ढांचे
में सक्रिय बदलाए किए बिना, हम उन्हीं को दोहराने की संभावना बनाते
हैं। जैसा कि IISERs जैसे संस्थान को देख कर समझ आता है कि क्यों इन नए संस्थानों में भी पुराने
संस्थानों जैसा ही लैंगिक असंतुलन दिखाई देता है।
निष्कर्ष के तौर पर
पिछले सत्तर सालों में भारत के विज्ञान
परिदृश्य में बहुत कुछ बदला है। आज़ादी के बाद,
भारत ने विज्ञान
शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए काफी संसाधन लगाए हैं। साठ के दशक के मध्य से विज्ञान
में लिंग समानता बढ़ाना भी इसके उद्देश्यों में से एक है। वैश्विक और राष्ट्रीय
दोनों स्तरों पर ही विज्ञान के विभिन्न कामों और वैज्ञानिक संस्थानों की आंतरिक
प्रक्रियाओं में भी काफी बदलाव आए हैं। शायद इस संदर्भ में सबसे महत्वपूर्ण
सकारात्मक उपलब्धि है कि विज्ञान में अध्ययन और शोध में प्रवेश लेने वाली महिलाओं
की संख्या में लगातार वृद्धि हो रही है। और यह केवल विज्ञान के कुछ विषयों या देश
के कुछ हिस्सों तक ही सीमित नहीं है। पुरुषों की तुलना मे उच्च शिक्षा के हर
क्षेत्र में लगातार महिलाओं के दाखिला लेने और उत्तीर्ण होने की संख्या बढ़ रही है।
साठ के दशक में विज्ञान के अधिकांश विषयों में महिलाओं की पूर्ण अनुपस्थिति को
देखें तो वर्तमान स्थिति तक आना सराहनीय बात है। जैसा कि कई लोगों ने कहा है, बीसवीं
शताब्दी के सामाजिक सुधार और उपनिवेशवाद-विरोधी संघर्ष,
दोनों ने एक ऐसा
इतिहास रचा जहां महिलाओं की शिक्षा की एक सकारात्मक छवि बनी। हालांकि, उनका
यह कदम लिंग भेद पर टिका था – उद्देश्य महिलाओं को इसलिए शिक्षित करना नहीं था कि
वे एक कुशल पेशेवर की तरह सार्वजनिक जीवन का हिस्सा बनें बल्कि इसलिए था कि वे
भावी पीढ़ी के लिए सक्षम माताएं बन सकें। हालांकि इन प्रयासों ने महिलाओं के लिए उन
आधुनिक औपचारिक शिक्षा स्थानों को खोल दिया जिनके दरवाज़े उनके लिए बंद थे। यह खास
तौर से उन वर्गों के लिए खुले, जो खुद को सक्रिय रूप से नए राष्ट्र
निर्माता के रूप में देख रहे थे, यानी नवोदित मध्यम वर्ग। खुद को नए राष्ट्र
के संरक्षक के रूप में देखते हुए उन्होंने माना कि यह नया राष्ट्र एक गरिमामयी
इतिहास और उत्कृष्ट आध्यात्मिक सभ्यता का वाहक है जिसमें आधुनिकमूल्यों का समावेश
करना है। इनमें से पहली और दूसरी पीढ़ी के कई शिक्षित अभिजात्य वर्ग ने भी शिक्षा
को आध्यात्मिकता और तपस्या के बराबर माना था। इस प्रकार,
भारतीय संस्कृति के
संदर्भ में समय के साथ शिक्षा ने अधिक वैधता हासिल की।
बहरहाल,
वैज्ञानिक
कार्यस्थलों में खासकर वैज्ञानिक संस्थानों और उच्च पदों पर पर्याप्त संख्या में
महिलाओं की मौजूदगी होने में अभी भी काफी लंबा वक्त लगेगा। विज्ञान अकादमियों और
पुरस्कार पाने वालों में भी महिलाएं कम संख्या में है। वर्तमान व्यवस्था जिस तरह
बनी है, यह एक ऐसी बिसात की तरह है जिसे महिलाएं कभी नहीं जीत
सकतीं। कॉर्पोरेट अर्थ व्यवस्था की तरह वैज्ञानिक संस्थानों में भी लैंगिक ढांचे
के तहत ‘जान-पहचान’ के आधार पर काम होता है। यह तो सर्वविदित है कि भारत में ऐसे
नेटवर्क या जान-पहचान द्वारा ही नियुक्तियां,चुनाव,
नामांकन, पुरस्कार
के पात्र चुने जाते हैं, जिन तक महिलाओं की आसान पहुंच नहीं होती
है।
इससे भी महत्वपूर्ण है कि यह सिर्फ
गतिशीलता या काबिल महिला वैज्ञानिकों को मान्यता की बात नहीं है। विज्ञान की
दुनिया में प्रवेश करने वाले युवा शोधकर्ताओं को अनुकरणीय उदाहरणों के रूप में
पर्याप्त महिलाएं नहीं दिखतीं, जो इस रूढ़ि को बल देता है कि वैज्ञानिक तो
पुरुष ही होते हैं और इस तरह एक नकारात्मक छवि का चक्र चलता रहता है और विज्ञान
में महिलाओं के लिए आत्म-पराजय की स्थिति बनाता है। सार्वजनिक दायरे में महिलाओं
की बढ़ती उपस्थिति इन स्थानों को अन्य महिलाओं के लिए अधिक सुलभ और सुरक्षित
बनाएगी। यह वैज्ञानिक प्रतिष्ठान में सभी पदों पर महिलाओं की मौजूदगी को भी बढ़ाएगा, इसके
अलावा उच्च पदों पर महिलाओं की मौजूदगी प्रयोगशाला और कक्षाओं में युवा महिला
शोधार्थी को सहज करेगी, और उनके उत्साह और वैज्ञानिक क्षमता दोनों को बढ़ाएंगी।
हालांकि, सांकेतिकता इसका जवाब नहीं होना चाहिए। सांकेतिक अल्पसंख्यक, चाहे
जाति के मामले में हो या लिंग के, अक्सर बहुसंख्यकों की राय को मज़बूत करता है
और समितियों में इस बात का दिखावा भर करता है कि ये समितियां सामाजिक पूर्वाग्रहों
से मुक्त है। जैसा कि कोठारी समिति का आव्हान था,
लगातार विविधता को
प्रोत्साहित करना मात्र सामाजिक न्याय का तकाज़ा नहीं है,
बल्कि यह विज्ञान के
लिए अनिवार्य है और उसकी प्रगति के अग्रदूत वाली आत्म-छवि का भी सवाल है। जिन
देशों और संस्थानों ने विविधता को सक्रिय रूप से प्रोत्साहित किया है, उन्हें
इसके साथ आने वाले ज्ञान, अनुभवों और विचारों की विविधता का लाभ मिला
है।
वैज्ञानिक संस्थानों के लिए इन सहज तथ्यों को पहचानना इतना कठिन क्यों है? विज्ञान और तार्किकता का मज़बूत रिश्ता होते हुए भी वैज्ञानिक प्रतिष्ठानों को अपने कामकाज के तरीकों या कार्यप्रणाली में ‘लिंग-आधारित समस्याएं’ पहचानने में मुश्किल आती है। तार्किकता के मुद्दे पर वैज्ञानिकों को कैसे चुनौती दी जा सकती है? वैज्ञानिकों को तो तार्किक रूप से सोचने और कार्य करने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है, तो वे इसके विपरीत कैसे हो सकते हैं? चूंकि वे ज़्यादातर जिन विषयों पर शोध करते हैं उन विषयों का सम्बंध जेंडर से कम होता है, उनके पाठ्यक्रम/प्रशिक्षण में एक विषय के रूप में ‘जेंडर’ को शामिल करना अक्सर एक बड़ी चुनौती होती है। थोड़ा उकसाने वाले अंदाज़ में कहें, तो वैज्ञानिकों में लैंगिक-अंधत्व स्वाभाविक रूप से होता है। फिर भी जैसे-जैसे इसके ‘वैज्ञानिक साक्ष्य’ सामने आते जाते हैं तो यह ज़रूरी होता जाता है कि वैज्ञानिक अपने अंदर के घोषित-अघोषित दोनों पूर्वाग्रहों की जांच करें, उन नीतियों पर चर्चा करें जो वास्तव में अधिक महिला समावेशी हैं, वरिष्ठ और निर्णायक पदों के साथ शिक्षकों के तौर पर महिलाओं को शामिल करने के बेहतर और अधिक पारदर्शी तरीके खोजें। महिलाओं की मौजूदगी बढ़ाना, निष्पक्षता बढ़ाने और विज्ञान में उत्पादकता और उत्कृष्टता बढ़ाने जैसा है। यह दोनों हाथों में लड्डू का खेल है!(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://indiabioscience.org/media/articles/IndianWomeninScience.jpg