दृष्टिबाधितों के लिए नोट पहचानने की समस्याएं – सुबोध जोशी

ज हम वस्तुएं और सेवाएं पाने के लिए मुद्रा यानी करेंसी का इस्तेमाल करते हैं। मुद्रा का आविष्कार लगभग 5000 साल पहले हुआ था। इससे पहले वस्तु-विनिमय प्रणाली प्रचलित थी।

मुद्रा नोटों और सिक्कों के रूप में होती है जिन्हें पहचान कर इस्तेमाल करना किसी भी व्यक्ति के लिए बहुत ही आसान होता है। उन पर अंकों और अक्षरों में मूल्य विभिन्न भारतीय भाषाओं में लिखा रहता है। सिक्कों के इस्तेमाल से जुड़ी दिक्कतों की वजह से नोटों का इस्तेमाल ज़्यादा पसंद किया जाता है।

यह इतना आसान इसलिए है क्योंकि हम अपनी आंखों से देख सकते हैं। लेकिन दृष्टिहीनता, अल्पदृष्टि या वर्णान्धता (किसी एक या एक से अधिक रंगों का बोध नहीं हो पाना) से ग्रस्त व्यक्ति मुद्रा कैसे पहचानते हैं? क्या यह उनके लिए भी इतना ही आसान है?

दृष्टिबाधितों को भी मुद्रा के इस्तेमाल की ज़रूरत अन्य व्यक्तियों के समान ही होती है लेकिन मुद्रा को पहचानना उनके लिए आसान नहीं होता है। उनकी सुविधा के लिए सबसे आसान तरीका तो यह है कि कोई अन्य व्यक्ति उनकी मदद कर दे। लेकिन इसमें आत्मनिर्भरता और विश्वसनीयता के सवाल पैदा होते हैं। इसलिए दुनिया भर के देश उनकी सुविधा के लिए कई तरीके अपनाते हैं ताकि लेन-देन में वे मुद्रा की पहचान शीघ्रता और सुरक्षित ढंग से कर सकें। इन तरीकों में सुधार लाने और नए तरीके खोजने की कोशिशें भी जारी हैं।

एक तरीका यह है कि अलग-अलग मूल्य के नोट अलग-अलग आकार में जारी किए जाएं। भारत सहित कुछ देशों में मूल्य के अनुसार नोटों की लंबाई-चौड़ाई अलग-अलग है। इसके साथ ही, नेत्रहीन व्यक्ति नोटों को शीघ्र मापकर उनमें अंतर कर सके इसके लिए पहचान करने वाला एक छोटा कार्ड इस्तेमाल किया जा सकता है। इस कार्ड पर नोटों की लंबाई के अनुसार उनके मूल्य उभरे हुए अंकों में अंकित रहते हैं। कार्ड पर नोट रखकर उसका मूल्य स्पर्श द्वारा पहचाना जा सकता है। विभिन्न रिपोर्टों के अनुसार, अमेरिका की मुद्रा के इस्तेमाल में दृष्टिबाधितों को सबसे ज़्यादा मुश्किल का सामना करना पड़ता है क्योंकि वहां विभिन्न मूल्यों के नोटों के आकार और रंग एक समान होते हैं।

दूसरा तरीका है नोटों पर कोने में या निश्चित स्थान पर ब्रेल डॉट्स के माध्यम से मूल्य अंकित करना जिन्हें नेत्रहीन व्यक्ति स्पर्श द्वारा पढ़ सकें। इसके लिए ब्रेल लिपि का ज्ञान होना आवश्यक है। कनाडा में यह तरीका इस्तेमाल किया जा रहा है।

तीसरा तरीका है ब्रेल डॉट्स की बजाय नोटों पर स्पर्श द्वारा पहचाने जाने योग्य चिन्ह अंकित करना। सबसे पहले नेदरलैंड द्वारा आज़माया गया यह तरीका ब्राज़ील और बहरीन ने भी अपनाया है। भारत में नए जारी किए गए 2000 के नोट पर एक आयत और सात उभरी हुई लकीरें, 500 के नोट पर एक गोला और पांच उभरी हुई लकीरें और 100 के नोट पर एक त्रिकोण और चार उभरी हुई लकीरें बनी हुई हैं। नए जारी किए गए 50 और 200 रुपए के नोटों पर नेत्रहीन व्यक्तियों की सुविधा के लिए ऐसी कोई लकीरें या चिन्ह नहीं हैं, जबकि पुरानी सीरीज़ के 50 के नोट में बाईं तरफ प्रतीक चिन्ह के ऊपर एक चौकोर चिन्ह बना हुआ था।

चौथा तरीका यह है कि नेत्रहीन व्यक्ति अपने किसी भरोसेमंद व्यक्ति की सहायता से मूल्य के अनुसार नोटों को अलग-अलग ढंग से मोड़कर अपने पास रखें। उदाहरण के लिए, 5 का नोट बिना मोड़े, 10 का नोट चौड़ाई में और 20 का नोट लंबाई में मोड़कर रखा जा सकता है। बड़े मूल्य के नोट लंबाई और चौड़ाई मिलाकर और अन्य अलग-अलग ढंग से मोड़े जा सकते हैं। अधिक प्रकार के मूल्य के नोट होने पर मोड़ने के तरीके जटिल हो सकते हैं या मोड़ने के तरीके कम भी पड़ सकते हैं।

पांचवे तरीके के रूप में कुछ खंडों वाले बटुए का उपयोग किया जा सकता है; प्रत्येक मूल्य के नोट एक अलग खंड में रखना नेत्रहीन व्यक्तियों की मदद कर सकता है। यह तरीका ज़्यादातर कारगर रहता है। लेकिन अधिक प्रकार के मूल्य के नोट होने पर नोट मोड़कर रखने वाले तरीके की तरह इस तरीके की भी जटिलताएं या सीमाएं प्रकट हो सकती हैं।

ऐसे कई ऐप विकसित किए गए हैं जिनकी मदद से नेत्रहीन व्यक्ति अपने मोबाइल फोन पर मुद्रा पहचान सकते हैं। यह ऐप कैमरे की मदद से मुद्रा की पहचान कर नोट का मूल्य बोलकर बताते हैं। कोई ऐप कितना कारगर होगा यह उसकी गुणवत्ता पर निर्भर करता है।

मुद्रा पहचानने वाले उपकरण भी विकसित किए जा रहे हैं। इनमें एक खास तरह से नोट रखने पर यह उसके बारे में या तो बोलकर या बीप और कंपन के मिश्रण से जानकारी प्रदान कर सकते हैं। लेकिन इसके माध्यम से खराब गुणवत्ता वाले नोटों की पहचान करना मुश्किल होता है। ऐसे उपकरण का एक उदाहरण आईबिल बैंकनोट आइडेंटिफायर है। भारतीय रिज़र्व बैंक ने भी मोबाइल ऐडेड नोट आइडेंटिफायर (MANI) आरंभ किया है जो बिना इंटरनेट काम करता है। नोट के बारे में यह बोलकर जानकारी देता है और जो देख और सुन नहीं सकते उन्हें गैर-ध्वनिक तरीके (जैसे कंपन) से भी जानकारी देता है।

सबसे अच्छा यह होगा कि नोट को छूते ही उसे पहचाना जा सके। इससे मुद्रा पहचानने का काम बहुत तेज़ी से और अधिक सुरक्षित ढंग से करना संभव हो सकेगा। यह भी उल्लेखनीय है कि हाल के वर्षों में इलेक्ट्रॉनिक लेन-देन को बढ़ावा मिलने से नकद रूप में मुद्रा का इस्तेमाल घट रहा है। इलेक्ट्रॉनिक लेन-देन का तरीका दृष्टिबाधितों के लिए बहुत मददगार साबित हो सकता है बशर्ते उसमें उनकी विशेष आवश्यकताओं का ध्यान रखा जाए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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अंतर्राष्ट्रीय मूलभूत विज्ञान वर्ष – चक्रेश जैन

कोरोना वायरस की सूक्ष्म, गहन और संपूर्ण संरचना को समझने और उससे फैली महामारी का सामना करने के लिए टीका बनाने में मूलभूत यानी बेसिक विज्ञान की अहम भूमिका रही है। महत्वाकांक्षी मानव जीनोम परियोजना को पूरा करने में बुनियादी विज्ञानों का बहुत बड़ा हाथ है। आज हम इंटरनेट पर जिस ‘वर्ल्ड वाइड वेब’ (WWW) का उपयोग कर रहे हैं, वह मूलभूत विज्ञान की ही देन है। दरअसल युरोपीय प्रयोगशाला ‘सर्न’ में बुनियादी भौतिकी प्रयोगों में वैश्विक सहयोग के दौरान इसका आविष्कार हुआ था। अंतरिक्ष जगत में मिली तमाम छोटी-बड़ी सफलताओं का आधार मूलभूत विज्ञानों में दीर्घकालीन अनुसंधान है।

साल 2022 को निर्वहनीय विकास के लिए मूलभूत विज्ञान अंतर्राष्ट्रीय वर्ष (IYBSSD-2022) के रूप में मनाया जा रहा है। इसके लिए चुनी गई थीम में जिन मुद्दों को सम्मिलित किया गया है, उनमें अंतर्राष्ट्रीय संवाद और शांति के लिए मूलभूत विज्ञानों की भूमिका, विज्ञान के क्षेत्र में महिलाओं की उपस्थिति बढ़ाना, नवाचार और आर्थिक विकास, वैश्विक चुनौतियों का समाधान और शिक्षा तथा मानव विकास प्रमुख हैं।

वर्ष 2022 इंटरनेशनल युनियन ऑफ प्योर एंड एप्लाइड फिज़िक्स (आईयूपीएपी) और इंटरनेशनल मैथेमेटिकल युनियन (आएमयू) का शताब्दी वर्ष भी है। अतः IYBSSD के माध्यम से विज्ञान जगत में अंतर्राष्ट्रीय सहयोग के विस्तार में एक और नया अध्याय जोड़ने में मदद मिलेगी। संस्था की वेबसाइट में बताया गया है कि कोई भी वैज्ञानिक संस्थान और विश्वविद्यालय IYBSSD-2022 के लिए गतिविधियां भेज सकता है।

2017 में माइकल स्पाइरो ने युनेस्को द्वारा आयोजित वैज्ञानिक बोर्ड की बैठक में 2022 को अंतर्राष्ट्रीय मूलभूत विज्ञान वर्ष के रूप में मनाने का विचार रखा था। उन्होंने बैठक में 2005-2015 के दौरान अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मनाए गए विज्ञान वर्षों का ज़िक्र करते हुए इस मुद्दे पर विचार मंथन और समीक्षा का विचार भी रखा था। हम लोग वर्ष 2005 में भौतिकी, 2008 में पृथ्वी ग्रह, 2009 में खगोल विज्ञान, 2011 में रसायन विज्ञान, 2014 में क्रिस्टलोग्रॉफी और वर्ष 2015 में प्रकाश एवं प्रकाश आधारित प्रौद्योगिकी थीम पर अंतर्राष्ट्रीय वर्ष मना चुके हैं। स्पाइरो ने बैठक में एक अहम विचार यह रखा था कि मूलभूत विज्ञानों के सभी विषयों के वैज्ञानिकों को एक साथ लाने की आवश्यकता है, ताकि वैज्ञानिकों के अनुसंधानों का उपयोग टिकाऊ विकास के 17 लक्ष्यों को पूरा करने में किया जा सकेगा। स्पाइरो फ्रांस के विख्यात भौतिकीविद हैं और पार्टिकल फिज़िक्स की सर्न प्रयोगशाला से जुड़े हुए हैं।

संयुक्त राष्ट्रसंघ की आम सभा के 76 वें सत्र (2 दिसंबर 2021) में साल 2022 को IYBSSD-2022 के रूप में मनाने की घोषणा की गई थी। घोषणा में कहा गया है कि मूलभूत विज्ञान की चिकित्सा, उद्योग, कृषि, जल संसाधन, ऊर्जा नियोजन, पर्यावरण, संचार और संस्कृति के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका है।

गणित, भौतिकी, रसायन शास्त्र और जीव विज्ञान, ये चारों विषय मूलभूत विज्ञान के दायरे में आते हैं, जो प्राकृतिक और ब्रह्मांडीय घटनाओं की व्याख्या और गहन समझ बढ़ाने में अहम भूमिका निभाते हैं। इतना ही नहीं, इन्हीं विषयों की बदौलत प्राकृतिक संसाधनों के रूपांतरण में भी मदद मिली है। विज्ञान को मोटे तौर पर मूलभूत और प्रयुक्त विज्ञानों में बांटा गया है।

मूलभूत विज्ञान की कोख से ही प्रयुक्त विज्ञान का उद्गम होता है। प्रयुक्त विज्ञान में अनुसंधान से प्रौद्योगिकी और नवाचारों का विस्तार हुआ है। समाज में प्रौद्योगिकी की चकाचौंध, वर्चस्व और विस्तार से मूलभूत विज्ञान की उपेक्षा हुई है। बीते दशकों में विश्वविद्यालयों में मूलभूत विज्ञान में विद्यार्थियों की दिलचस्पी घटी है। विज्ञान संस्थानों में समाज और बाज़ार की ज़रूरतों पर आधारित अनुसंधान पर ज़ोर है।

विश्व के अधिकांश देशों में सरकारों ने मूलभूत विज्ञानों में शोध-बजट में बढ़ोतरी को आवश्यक नहीं समझा है। इसके कारण हैं। पहला, मूलभूत विज्ञानों का समाज से सीधा सरोकार नहीं है। दूसरा, तत्काल लाभ नहीं मिलता। एक और कारण है कि इसकी बाज़ार को प्रतिस्पर्धी बनाने में भूमिका दिखाई नहीं देती।

IYBSSD-2022 एक महत्वपूर्ण अवसर है, जब आर्थिक और राजनैतिक नेतृत्व और सभी देशों के नागरिकों को इस बात के लिए राजी करने का प्रयास किया जा रहा है कि पृथ्वी ग्रह का संतुलित, टिकाऊ और समावेशी विकास मूलभूत विज्ञानों में अनुसंधानों पर निर्भर है।

संयुक्त राष्ट्र महासभा ने टिकाऊ विकास के 17 लक्ष्य निर्धारित किए थे। विशेषज्ञों का मानना है कि मूलभूत विज्ञानों के इनपुट के बिना इन लक्ष्यों को पाना संभव नहीं है। खाद्य, ऊर्जा, स्वास्थ्य और संचार जैसी बड़ी चुनौतियों का समाधान मूलभूत विज्ञानों में अनुसंधानों की बदौलत ही प्राप्त हो सकेगा। यही नहीं मूलभूत विज्ञानों से पृथ्वी पर निवास कर रही लगभग आठ अरब जनसंख्या के विभिन्न अच्छे-बुरे प्रभावों को समझने और किसी-न-किसी तरीके से समाधान खोजने में सहायता मिलेगी।

टिकाऊ विकास के निर्धारित 17 लक्ष्य इस प्रकार हैं – गरीबी उन्मूलन, शून्य भुखमरी, अच्छा स्वास्थ्य एवं खुशहाली, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा, लैंगिक समानता, स्वच्छ जल और स्वच्छता, किफायती और स्वच्छ ऊर्जा, समुचित कार्य और आर्थिक वृद्धि, उद्योग, नवाचार तथा आधारभूत सुविधाएं, असमानताओं में कमी, निर्वहनीय शहर एवं समुदाय, निर्वहनीय उपभोग और उत्पादन, जलवायु कार्य योजना, जलीय जीवन, थलीय जीवन, शांति, न्याय एवं सशक्त संस्था और लक्ष्यों हेतु सहभागिता।

मूलभूत विज्ञानों में अनुसंधान से ओज़ोन परत के क्षरण, जलवायु परिवर्तन, प्राकृतिक संसाधनों में कमी को रोकने और विलुप्ति की कगार तक पहुंच चुकी वनस्पति और जन्तु प्रजातियों को बचाने में मदद मिलेगी।

IYBSSD-2022 को मनाने के सिलसिले में 8 जुलाई को युनेस्को के मुख्यालय पेरिस में शुभारंभ और विज्ञान सम्मेलन का आयोजन किया गया है, जिसमें दुनिया भर के वैज्ञानिक मूलभूत विज्ञानों से जुड़े विभिन्न मुद्दों पर विचार मंथन करेंगे। इसी शृंखला में 13-15 सितंबर को वियतनाम में ‘टिकाऊ विकास के लिए विज्ञान और नैतिकता’ पर सेमीनार होगा। 20-22 सितंबर के दौरान बेलग्राड में ‘मूलभूत विज्ञान और टिकाऊ विकास’ विषय पर विश्व सम्मेलन होगा। इन आयोजनों में विज्ञान के क्षेत्र में समावेशी प्रतिभागिता का विस्तार, शिक्षा और वैज्ञानिक प्रशिक्षण का सशक्तिकरण, मूलभूत विज्ञानों का वित्तीय पोषण और विज्ञान का सरलीकरण जैसे विषयों पर चर्चा होगी।

इसी वर्ष भारत सरकार के विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग के स्टेट साइंस एंड टेक्नॉलॉजी प्रोग्राम डिवीज़न ने आज़ादी की 75वीं सालगिरह के मौके पर जून में ‘मूलभूत विज्ञान और आत्मनिर्भरता’ थीम पर ऑनलाइन विचार मंथन आयोजित किया था, जिसमें 20 राज्यों की विज्ञान परिषदों ने भाग लिया। इस विचार मंथन में शामिल वैज्ञानिकों का विचार है कि मूलभूत विज्ञानों के विषयों में प्रोत्साहन और शोध कार्यों के लिए धनराशि बढ़ा कर आत्मनिर्भरता के लक्ष्य को हासिल किया जा सकता है।

IYBSSD-2022 को पूरे साल मनाने के लिए क्षेत्रीय, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विभिन्न गतिविधियां और कार्यक्रमों का आयोजन किया जा सकता है। विश्वविद्यालयों के विद्यार्थियों को मूलभूत विज्ञानों में उच्च अध्ययन और रिसर्च के लिए प्रोत्साहित किया जा सकता है। स्कूली बच्चों को मूलभूत विज्ञानों में योगदान करने वाले वैज्ञानिकों की जीवनी और अनुसंधान कार्यों से परिचित कराया जा सकता है। वैज्ञानिक संस्थानों और विश्वविद्यालयों में सेमीनार और संगोष्ठियों का आयोजन भी किया जा सकता है।

राज्यों की विज्ञान परिषदें मूलभूत विज्ञानों को प्रोत्साहित करने के लिए बजट प्रावधानों में बढ़ोतरी कर सकती हैं। महिला वैज्ञानिकों को मूलभूत विज्ञानों में रिसर्च के लिए छात्रवृत्तियां उपलब्ध कराई जा सकती हैं। आम लोगों को मूलभूत विज्ञानों के महत्व से परिचित कराने के लिए व्याख्यान और प्रदर्शनियां आयोजित की जा सकती हैं।

कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि अंतर्राष्ट्रीय सहयोग व समावेश के विस्तार और वैश्विक चुनौतियों के समाधान में मूलभूत विज्ञान वर्ष के कार्यक्रम अहम भूमिका निभा सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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महिला वैज्ञानिकों को उचित श्रेय नहीं मिलता

वैज्ञानिक शोध कार्य टीम द्वारा मिलकर किए जाते हैं। लेकिन हमेशा टीम के सभी लोगों को काम का बराबरी से या यथोचित श्रेय नहीं मिलता। हाल ही में नेचर पत्रिका में प्रकाशित एक अध्ययन में पाया गया है कि करियर के समकक्ष पायदान पर खड़े वैज्ञानिकों में से महिलाओं को उनके समूह के शोधकार्य के लेखक होने का श्रेय मिलने की संभावना पुरुषों की तुलना में कम होती है। अध्ययन का निष्कर्ष है कि महिलाओं के प्रति इस तरह की असमानताओं का असर वरिष्ठ महिला वैज्ञानिकों को करियर में बनाए रखने और युवा महिला वैज्ञानिकों को आकर्षित करने की दृष्टि से सकारात्मक नहीं होगा।

पूर्व अध्ययनों में पाया गया है कि विज्ञान, प्रौद्योगिकी, इंजीनियरिंग और गणित के कई क्षेत्रों में महिलाएं अपनी मौजूदगी की अपेक्षा कम शोध पत्र लिखती हैं। लेकिन ऐसा क्यों है, अब तक यह पता लगाना चुनौतीपूर्ण रहा है – क्योंकि यह ठीक-ठीक पता लगाना मुश्किल था कि लेखकों की सूची में शामिल करने योग्य किन व्यक्तियों को छोड़ दिया जाता है। नए अध्ययन ने यूएस-स्थित लगभग 10,000 वैज्ञानिक अनुसंधान टीमों के विशिष्ट विस्तृत डैटा तैयार कर इस चुनौती को दूर कर दिया है। अध्ययन में वर्ष 2013 से 2016 तक इन 10,000 टीमों में शामिल रहे 1,28,859 शोधकर्ताओं और उनके द्वारा विभिन्न पत्रिकाओं में लिखे गए 39,426 शोध पत्रों से सम्बंधित डैटा इकट्ठा किया गया। इन आंकड़ों से शोधकर्ता यह पता करने में सक्षम रहे कि किन व्यक्तियों ने साथ काम किया और अंततः श्रेय किन्हें मिला। (अध्ययन में नामों के आधार पर लिंग का अनुमान लगाया गया है, इससे अध्ययन में आंकड़े थोड़ा ऊपर-नीचे होने की संभावना हो सकती है और इस तरीके से गैर-बाइनरी शोधकर्ताओं की पहचान करना मुश्किल है।)

अध्ययन की लेखक पेनसिल्वेनिया विश्वविद्यालय में सहायक प्रोफेसर ब्रिटा ग्लेनॉन बताती हैं कि अक्सर लेखकों की सूची में महिलाओं का नाम छोड़े जाने के किस्से सुनने को मिलते थे। “मैं कई महिला वैज्ञानिकों को जानती हूं जिन्होंने यह अनुभव किया है लेकिन मुझे इसका वास्तविक पैमाना नहीं पता था। वैसे हर कोई इसके बारे में जानता था लेकिन वे मानते थे कि ऐसा करने वाले वे नहीं, कोई और होंगे।”

ग्लेनॉन स्वीकार करती हैं कि यह अध्ययन हर उस कारक को नियंत्रित नहीं कर सका है जो यह निर्धारित करता है कि कौन लेखक का श्रेय पाने के योग्य है। उदाहरण के लिए, हो सकता है कि शोध टीमों में काम करने वाले कुछ पुरुषों ने आधिकारिक तौर पर संस्था में रिपोर्ट किए गए कामों के घंटों की तुलना में अधिक घंटे काम किया हो या समूह के काम में उनका बौद्धिक योगदान अधिक रहा हो।

हालांकि, वे यह भी ध्यान दिलाती हैं कि महिलाएं बताती हैं कि उन्हें जितना श्रेय मिलना चाहिए उससे कम मिलता है। नए अध्ययन के हिस्से के रूप में 2446 वैज्ञानिकों के साथ किए गए एक सर्वेक्षण में देखा गया कि पुरुषों की तुलना में अधिक महिलाओं ने कहा कि उन्हें लेखक होने के श्रेय से बाहर रखा गया और उनके साथियों ने शोध में उनके योगदान को कम आंका था। और पिछले साल प्रकाशित 5575 शोधकर्ताओं पर हुए एक अध्ययन में बताया गया था कि पुरुषों की तुलना में ज़्यादा महिलाओं ने लेखक होने का श्रेय देने के फैसले को अनुचित माना।

ग्लेनॉन कहती हैं हर प्रयोगशाला में प्रमुख अन्वेषक स्वयं अपने नियम गढ़ता है और वही तय करता है कि लेखक का श्रेय किन्हें मिलेगा। इसलिए विभिन्न क्षेत्रों और प्रयोगशालाओं में एकरूपता नहीं दिखती। यह पूर्वाग्रहों को मज़बूत कर सकता है। जैसे, किसी ऐसे व्यक्ति को श्रेय मिल सकता है जो प्रयोगशाला में अधिक दिखाई देते हों। अत: फंडिंग एजेंसियों या संस्थानों को लेखक-सूची में शामिल करने के लिए स्पष्ट नियम निर्धारित करने चाहिए। लेखक का फैसला सिर्फ मुखिया पर नहीं छोड़ा जा सकता। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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विकलांग अधिकार आंदोलन: समान अवसर, पूर्ण भागीदारी – सुबोध जोशी

विकलांगता की बात आते ही दो तस्वीरें सामने आती हैं। पहली है यूएसए, अन्य विकसित पश्चिमी देशों और जापान जैसे गैर-पश्चिमी विकसित देशों की तस्वीर, जहां विकलांगजन को अवसर, सुविधाएं और सामाजिक सुरक्षा प्राप्त है, जिनका उपयोग करते हुए वे गुणवत्तापूर्ण जीवन जीने में समर्थ हैं। दूसरी तस्वीर है भारत सहित विकासशील और पिछड़े देशों की, जहां संयुक्त राष्ट्र संघ की विभिन्न पहलों के बावजूद विकलांगजन घोर दुर्दशापूर्ण जीवन जीने को अभिशप्त हैं।

विकलांगजन के हितों को ध्यान में रखते हुए संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा 1981 को विश्व विकलांगजन वर्ष घोषित किया गया था और 1983 से 1992 के दशक को संयुक्त राष्ट्र विकलांगजन दशक। संयुक्त राष्ट्र की ही पहल पर 1992 से 3 दिसंबर प्रति वर्ष विश्व विकलांगजन दिवस के रूप में मनाया जा रहा है। उसकी इन पहलों से पहले भी दुनिया के विकसित देशों में, विशेष रूप से यूएसए में, विकलांगजन के लिए उल्लेखनीय कार्य किया जा रहा था क्योंकि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद वहां डिसेबिलिटी राइट्स मूवमेंट काफी ज़ोर पकड़ चुका था। डिसेबिलिटी राइट्स मूवमेंट का खासा असर रहा और इससे इतना दबाव बना कि संयुक्त राष्ट्र संघ और दुनिया भर के देशों की सरकारों को सबसे उपेक्षित वर्ग यानी विकलांग वर्ग के लिए पहल करने पर मजबूर होना पड़ा।

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद डिसेबिलिटी राइट्स मूवमेंट इसलिए अधिक प्रभावशाली हुआ क्योंकि इसमें बड़ी संख्या में वे सैनिक शामिल थे जो विश्व युद्ध में विकलांग हो गए थे। चूंकि वे युद्ध के नायक थे और जनता उनके साथ थी इसलिए उनकी बातों या मांगों को नज़रअंदाज़ करना सरकार और संयुक्त राष्ट्र संघ के लिए आसान नहीं था। इसके बावजूद परिणाम सामने आने में दो-तीन दशकों का वक्त लगा और ‘समान अवसर एवं पूर्ण भागीदारी’ पर आधारित कानून और नीतियां सामने आने लगी। ‘समान अवसर एवं पूर्ण भागीदारी’ विकलांगजन का ऐसा अधिकार है जो पूरी तरह इस बात पर निर्भर है कि किसी देश का संपूर्ण तंत्र, सरकार, संस्थाएं और गैर-विकलांग समुदाय विकलांगजन के प्रति अपना दायित्व किस प्रकार निभाते हैं।

भारत की ही मिसाल ले लीजिए जहां संविधान के निर्माताओं को यह एहसास तक नहीं हुआ कि उनसे विकलांग वर्ग की पूर्ण उपेक्षा हो रही है। भारत में विकलांगजन के लिए कानून बनाने का अधिकार केंद्रीय सूची या समवर्ती सूची में न रखते हुए उन्होंने यह काम पूरी तरह राज्यों पर छोड़ दिया। संवेदनशीलता की कमी का नतीजा यह हुआ कि राज्यों द्वारा आधी सदी बीत जाने तक कोई प्रभावी कानून बनाए जाने की जानकारी नहीं है। विकलांगता सम्बंधी अंतर्राष्ट्रीय संधियों या घोषणा पत्रों पर हस्ताक्षर करने के बाद ही संविधान के विशेष प्रावधान का उपयोग करते हुए विकलांगजन के लिए 1995 और 2016 के केंद्रीय कानून लाए गए। लेकिन फिर भी विकलांगजन के लिए कानून बनाने का मुद्दा केंद्रीय या समवर्ती सूची में नहीं जोड़ा गया।

डिसेबिलिटी राइट्स मूवमेंट एक अत्यंत महत्वपूर्ण आंदोलन रहा है और इस पर निगाह डालना उचित होगा। यूएसए और अन्य विकसित देशों में यह विशेष रूप से प्रभावी रहा है और इसी का नतीजा है कि भारत सहित विकासशील और पिछड़े देशों में भी विकलांगजन के अधिकारों और कल्याण की बात हो रही है। डिसेबिलिटी राइट्स मूवमेंट एक विश्वव्यापी सामाजिक आंदोलन है लेकिन मुख्य रूप से यह यूएसए में जन्मा और पनपा और फिर दुनिया भर में फैल गया। इसका मुख्य लक्ष्य विकलांगजन को जबरन दरकिनार करने के विरुद्ध लड़ाई लड़ना है।

विकलांगजन के अधिकारों के लिए लड़ाई यूएसए में 19वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में शुरू हो चुकी थी और इसने धीरे-धीरे आकार लिया। लुई ब्रेल और उनके बाद हेलेन केलर ने इस दिशा में व्यक्तिगत तौर पर उल्लेखनीय कार्य किया। धीरे-धीरे स्थानीय और राज्य स्तरीय संगठन अस्तित्व में आए और पहला राष्ट्रीय संगठन – दी नेशनल एसोसिएशन ऑफ दी डेफ (बधिरों के राष्ट्रीय संगठन) – 1880 में स्थापित किया गया। 1930 के दशक में दी सोशल सिक्योरिटी एक्ट (सामाजिक सुरक्षा कानून) में दृष्टिबाधितों और विकलांग बच्चों की सहायता के लिए राज्यों को धनराशि उपलब्ध कराई गई। 1940 के दशक में नेशनल मेंटल हेल्थ एक्ट (राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य कानून) के तहत नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ स्थापित करने की बात कही गई थी और विकलांगजन के अधिकारों के लिए दी अमेरिकन फेडरेशन ऑफ दी फिज़िकली हैंडीकैप्ड (शारीरिक रूप से विकलांगजन संगठन) प्रथम बहु-विकलांगता संगठन के रूप में उभरा।

1950 के दशक में ब्राउन बनाम बोर्ड ऑफ एजुकेशन के मुकदमे में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के फलस्वरूप डिसेबिलिटी राइट्स मूवमेंट ने गति पकड़ी और 1964 के दी सिविल राइट्स एक्ट (नागरिक अधिकार कानून) से इस आंदोलन को नई दिशा मिली। 1970 के दशक में यह मांग भी उठी कि 1972 के रिहैबिलिटेशन एक्ट (पुनर्वास कानून) में विकलांगजन के नागरिक अधिकार शामिल किए जाएं। 1973 में पारित रिहैबिलिटेशन एक्ट में यह मांग पूरी की गई। इस तरह इतिहास में पहली बार विकलांगजन के नागरिक अधिकार कानूनन संरक्षित किए गए। तत्पश्चात सभी विकलांग बच्चों के लिए शिक्षा तक पहुंच समान रूप से सुनिश्चित करने के लिए 1975 में दी एजुकेशन फॉर ऑल चिल्ड्रन एक्ट पारित हुआ  (बाद में इसे इंडिविजुअल्स विथ डिसेबिलिटिज़ एजुकेशन एक्ट कहा गया)। एक कदम और आगे बढ़ते हुए 1980 के दशक में यह मांग रखी गई कि अलग-अलग कानूनों/हिस्सों में बंटे हुए प्रावधानों को एकल कानून का रूप दिया जाए। 1990 में अमेरिकंस विद डिसेबिलिटिज़ एक्ट पारित किया गया जिसका उद्देश्य विकलांगता के आधार पर भेदभाव को रोकना है।

भारत के संदर्भ में देखें तो विकलांगजन के अधिकारों को लेकर आंदोलन इतना मज़बूत नहीं रहा है और उनके लिए कानून भी आंदोलन के परिणामस्वरूप और कानून-निर्माताओं की स्वयं की सोच और संवेदनशीलता के कारण नहीं बने। दुर्भाग्यवश बहुत से अन्य देशों की तरह भारत में भी विकलांगजन को अनुपयोगी, अनुत्पादक और बोझ समझा जाता है। भारत में विकलांगजन के अधिकारों के लिए पहला कानून एशिया-प्रशांत क्षेत्र में विकलांगजनों की समानता और पूर्ण भागीदारी की घोषणा के आधार पर बना – नि:शक्त व्यक्ति (समान अवसर, अधिकारों का संरक्षण एवं पूर्ण भागीदारी) अधिनियम 1995। इसका स्थान लेने वाला अगला कानून विकलांगजन के अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र की संधि (सं.रा. विकलांगजन अधिकार संधि – UNCRPD) के आधार पर दिव्यांगजन अधिकार अधिनियम 2016 के रूप में सामने आया। ये दोनों कानून अंतर्राष्ट्रीय संधि या घोषणा पत्र के पालन के लिए संविधान के अनुच्छेद 253 का उपयोग करते हुए बनाए गए थे। इन दोनों के बीच ऑटिज़्म, सेरेब्रल पाल्सी, मेंटल रिटार्डेशन और मल्टीपल डिसेबिलिटी से प्रभावित व्यक्तियों के कल्याण के लिए राष्ट्रीय न्यास अधिनियम 1999 पारित किया गया।

भारत में डिसेबिलिटी राइट्स मूवमेंट की शुरुआत 1970 के दशक से मानी जा सकती है लेकिन आवाज़ उठाने वाले व्यक्ति और संगठन बिखरे हुए थे। उनकी आवाज़ मज़बूत नहीं थी और कमोबेश यही स्थिति आज भी कायम है। 1986 में रिहैबिलिटेशन काउंसिल ऑफ इंडिया की स्थापना एक रजिस्टर्ड सोसाइटी के रूप में की गई और एक कानून के ज़रिए 1993 में इसे वैधानिक निकाय का दर्जा दिया गया। लेकिन विकलांगजन के कल्याण और पुनर्वास के लिए तब तक भी कानून का अभाव था। इस बीच मेंटल हेल्थ एक्ट 1987 पारित किया गया, जिसका स्थान मेंटल हेल्थ एक्ट 2017 ने लिया। विकलांगजन के प्रति संवेदनशीलता की कमी इस सच्चाई से भी समझी जा सकती है कि स्वतंत्र भारत में उन्हें शुरू से एक श्रेणी के रूप में राष्ट्रीय जनगणना से बाहर रखा गया। अत्यधिक दबाव पड़ने पर 2001 की जनगणना में उन्हें अलग स्थान दिया गया। तब तक सैंपल सर्वे के माध्यम से उनकी संख्या का अनुमान लगाया जाता रहा।

भारत में 2006 में विकलांगता सम्बंधी राष्ट्रीय नीति लागू की गई। अगली कड़ी के रूप में 2011 में तैयार किए गए विकलांगजन अधिकार विधेयक का उद्देश्य राष्ट्र संघ संधि के तहत भारत के दायित्वों को कानून का रूप देना था। इसे अमली जामा पहनाते हुए दिव्यांगजन अधिकार अधिनियम 2016 पारित किया गया। इसमें पूर्ववर्ती कानून में शामिल 7 विकलांगताओं के स्थान पर 21 विकलांगताएं शामिल की गईं।

एक मत यह भी है कि भारत में डिसेबिलिटी राइट्स मूवमेंट जैसी कोई चीज़ है ही नहीं। कुछ व्यक्तियों और संगठनों द्वारा विकलांगजन के लिए अच्छे प्रयास ज़रूर किए जा रहे हैं, लेकिन वे विकलांगजन की वास्तविक आबादी के मान से बहुत ही कम हैं। ग्रामीण इलाके और छोटे कस्बे सेवाओं से पूरी तरह वंचित हैं।

पुनः अमेरिका की बात करें तो पुराने समय में लुई ब्रेल और हेलेन केलर ने जिस जुझारूपन का परिचय दिया, उसी राह पर वहां के आधुनिक समय के कुछ विकलांग भी चल रहे हैं। वे न सिर्फ डिसेबिलिटी राइट्स मूवमेंट को नए संदर्भों में आगे बढ़ा रहे हैं बल्कि विकलांगजन का जीवन आसान और बेहतर बनाने के उल्लेखनीय प्रयास भी कर रहे हैं। इनमें एसिड हमले में अपनी दृष्टि गंवा चुके युनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया, बर्कले के छात्र रह चुके जोशुआ मिली हैं जो मैकआर्थर ‘जीनियस ग्रांट’ विजेता हैं और अमेज़न जैसी कंपनी में एडाप्टिव टेक्नॉलॉजी विकसित करते हैं ताकि दृष्टिबाधिता और अन्य विकलांगताओं से प्रभावित व्यक्तियों के लिए उपभोक्ता उपकरण उपयोग में लाना सुगम हो जाए। इसका नतीजा यह हुआ कि विकलांग-अनुकूल उत्पाद उपलब्ध कराने की उम्मीद अब व्यापक स्तर पर सभी उद्योगों से की जाने लगी है। यहीं के एक और छात्र मार्क सटन की कहानी भी इसी तरह प्रेरणादायक है। अपनी दृष्टिबाधिता के कारण उन्हें कंप्यूटर साइंस और वनस्पति विज्ञान की पढ़ाई में घोर उपेक्षा का सामना करना पड़ा, लेकिन वे आज एप्पल कंपनी में कार्य करते हुए सॉफ्टवेयर में ऐसे बदलाव लाने और ऐसे समाधान खोजने की जिम्मेदारी निभा रहे हैं जिनसे दृष्टिबाधितों के लिए कंप्यूटर और मोबाइल फोन जैसे उपकरण वापरना सुगम हो जाए। इन प्रेरक प्रसंगों का परिणाम यह हुआ कि युनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया, बर्कले के छात्रों का एक नेटवर्क बन गया। इस नेटवर्क के सदस्य अपने-अपने क्षेत्र में अग्रणि रहे हैं और डिसेबिलिटी राइट्स मूवमेंट को आगे बढ़ा रहे हैं।

बर्कले ही वह स्थान है जहां डिसेबिलिटी राइट्स मूवमेंट की शुरुआत हुई थी। नेशनल फेडरेशन ऑफ दी ब्लाइंड का जन्म भी बर्कले में ही हुआ और नागरिक अधिकार कानून तथा ब्राउन बनाम बोर्ड ऑफ एजुकेशन के मुकदमे के लिए आधार भी बर्कले में कानून के एक प्रोफेसर के विश्लेषण से प्राप्त हुआ। संभव है संयुक्त राष्ट्र संघ की पहलों और संयुक्त राष्ट्र संधि के लिए आधार भी अमेरिका और उसके जैसे संवेदनशील और अग्रणि देशों द्वारा विकलांगजन के लिए किए गए कार्यों से मिला हो।

इससे यह बात समझ आती है कि भारत में विकलांगजन को अपने अधिकार तब ही मिलेंगे जब वे और उनके परिजन एकजुट होकर अपनी आवाज़ उठाकर दबाव बनाने में कामयाब होंगे। गौरतलब है कि भारतीय संविधान में संशोधन की भी ज़रूरत है ताकि अंतर्राष्ट्रीय संधियों/घोषणा पत्रों के बगैर भी केंद्रीय स्तर पर विकलांगजन के लिए स्वप्रेरित राष्ट्रीय कानून बनाने का मार्ग खुल जाए। संपूर्ण तंत्र, सरकार, संस्थाओं और गैर-विकलांग समुदाय को विकलांगजन की विशेष आवश्यकताओं के प्रति जागरूक और संवेदनशील बनाना होगा। ऐसी कल्याणकारी योजनाएं बनानी होंगी जो विकलांगजन के लिए वास्तव में लाभकारी हों और उनका पैमाना बढ़ती लागत के साथ बढ़ना चाहिए। राष्ट्र संघ संधि और कानून में काफी कुछ लिखा है, लेकिन संवेदनशीलता और ईमानदारी से क्रियान्वयन होने पर ही उसका लाभ मिलना संभव है। अशिक्षा और गरीबी का उन्मूलन होना चाहिए क्योंकि दोनों एक-दूसरे के कारण और परिणाम हैं। शिक्षित विकलांगजन अधिक जागरूक होकर अधिक प्रभावी ढंग से अपनी आवाज़ उठाने में सक्षम होंगे और शिक्षित समाज विकलांगजन के प्रति अपना दायित्व बेहतर ढंग से समझकर संवेदनशीलता के साथ निभा सकेगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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ज्ञान क्रांति की दहलीज पर टूटते पूर्वाग्रह – माधव गाडगिल

मेरा जन्म सलीम अली की शानदार सचित्र पुस्तक बुक ऑफ इंडियन बर्ड्स के प्रकाशित होने के एक साल बाद 1942 में हुआ था। मेरे पिता, डी. आर. गाडगिल, सलीम अली के मित्र और उत्साही पक्षी-निरीक्षक थे। अपनी पढ़ाई पूरी करने से पहले ही मैंने सलीम अली की किताब के चित्रों से अपने चारों ओर के पक्षियों की समृद्ध विविधता को पहचानना सीख लिया था। 14 साल की उम्र में मैं सलीम अली से मिला और उनके ज्ञान, विनोदबुद्धि और व्यक्तित्व से मोहित होकर उन्हें अपने गुरु के रूप में अपनाया और एक फील्ड इकॉलॉजिस्ट बन गया। वे मुझसे 46 साल बड़े थे, और हम अगले 30 वर्षों तक लगातार संपर्क में रहे। मैंने उनके कई अध्ययनों, अनुसंधानों में भाग लिया और मुझे उनके साथ पक्षियों के रैनबसेरों पर संयुक्त रूप से एक शोध निबंध लिखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। कई बार वनकर्मी मुझ पर गुस्सा हो जाते थे क्योंकि वे नहीं चाहते थे कि मैं उनके वनों के कुप्रबंधन और स्थानीय लोगों के उत्पीड़न को देखूं। ऐसे मौकों पर सलीम अली जी ने ही मेरी मदद की।

लेकिन किसी वजह से वे भारत के आम लोगों से पूरी तरह से कट गए थे और यह मानने लगे थे कि प्रकृति के सभी तरह के विनाश के लिए यही अज्ञानी, अविवेकी जनता ज़िम्मेदार है। उन्होंने कभी नहीं सोचा था कि ये लोग कभी सुशिक्षित बनेंगे और अपने आसपास के प्राकृतिक संसाधनों को नियंत्रित करने आगे आएंगे ताकि इसके अच्छे प्रबंधन में उनकी हिस्सेदारी हो। मैं हमेशा इस बात से परेशान रहता था कि मेरे गुरु ने इस तरह के पूर्वाग्रहों को पनाह दी।

पिताजी का जीवन भर का जुनून सहकारिता आंदोलन था और उन्होंने सहकारी बैंकिंग और सहकारी चीनी कारखानों को बढ़ावा देने का प्रयास किया। इसलिए मैं लोगों को सशक्त बनाने के लिए प्रतिबद्ध हो गया और भारत के जैव विविधता अधिनियम, 2002 के एक प्रमुख प्रावधान के रूप में जैव विविधता प्रबंधन समितियों की स्थापना के प्रस्ताव का बीड़ा उठाया और वन अधिकार अधिनियम (एफआरए), 2006 को पारित करने के अभियान में भाग लिया। एफआरए के महत्वपूर्ण सामुदायिक वन अधिकार (सीएफआर) प्रावधान के तहत ग्राम सभाओं को गैर-काष्ठ वन संसाधनों के स्वामित्व और प्रबंधन अधिकार सौंपे गए हैं। और 2009 में महाराष्ट्र के गढ़चिरोली जिले की मेंढा (लेखा) और मारडा सीएफआर सौंपे जाने वाली देश की पहली ग्राम सभाएं बन गईं।

प्रबंधन अधिकारों के तहत एक प्रबंधन योजना तैयार करना महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारी होती है जिसे मात्रात्मक बनाने की आवश्यकता होती है। हमारी शिक्षा प्रणाली की शर्मनाक स्थिति से बाधित स्थानीय लोग अपने दम पर यह काम संभाल नहीं सकते हैं। इसलिए, मेरे कंप्यूटर वैज्ञानिक मित्र विजय एदलाबदकर और मैंने स्वेच्छा से मेंढा में स्थानीय बेयरफुट पारिस्थितिकीविदों के एक कैडर के साथ एक प्रबंधन योजना तैयार करने में मदद की।

ज़मीनी स्तर पर ऐसी क्षमता का निर्माण करने के लिए महाराष्ट्र सरकार ने गांधी जयंती (2018) से सामुदायिक वन अधिकार-धारक ग्राम सभाओं के नामांकित व्यक्तियों के लिए 5 महीने के प्रशिक्षण कार्यक्रम का आयोजन शुरू किया। विजय और मैं मेंढा के क्षेत्र में आयोजित इस कार्यक्रम से जुड़े थे। इसमें प्रशिक्षु प्रकृति के अपने अनुभव के खजाने के साथ उपस्थित थे और उन्होंने उत्साहपूर्वक मैदानी कार्य किया। वे स्मार्टफोन को संभालने और जीपीएस सुविधा का उपयोग करके गांव की सीमा जैसी भौगोलिक जानकारी अभिलिखित करने में माहिर हो गए। हमने उनकी ग्राम सभाओं के लिए सीएफआर योजनाओं और जैव विविधता रजिस्टरों को अंतिम रूप देने के लिए उनके साथ काम करना जारी रखा है।

उन सभी प्रशिक्षित युवाओं के पास स्मार्टफोन थे और उन्होंने एक व्हाट्सएप ग्रुप बनाया था। लघु वनोपज देने वाली प्रजातियों के वैज्ञानिक नाम सीएफआर योजनाओं के लिए एक महत्वपूर्ण ज़रूरत है| प्रशिक्षण के दौरान वे व्यापक संचार के लिए वैज्ञानिक नामों के महत्व को लेकर जागरूक हो गए थे। वे गूगल सर्च के आदी हो गए थे, बाज़ारों की जानकारी के लिए इंटरनेट की खोज करने लगे थे, और विकिपीडिया लेखों का अध्ययन कर रहे थे।

वे लगातार व्हाट्सएप ग्रुप पर स्थानीय पौधों और जानवरों की तस्वीरें डाल रहे थे। हालांकि अधिकांश से परिचित हूं, लेकिन मैं टैक्सॉनॉमी का विशेषज्ञ तो हूं नहीं और जब विशेषज्ञों ने मदद करने से इन्कार कर दिया तो चौंकने की बारी मेरी थी।

फिर एक दिन समूह के एक सदस्य सदुरम मडावी ने कई तस्वीरों के वैज्ञानिक नाम पोस्ट करना शुरू कर दिया। जांच करने पर मैंने पाया कि वह हमेशा सही नाम बता रहा था। उसने हमें बताया कि उसने दो बहुत ही महत्वपूर्ण ऐप्स खोजे हैं: गूगल इमेज और गूगल लेंस। ऐप्स का उपयोग करने पर ये अपलोड की गई तस्वीरों को गूगल के जीवित वास्तविक प्राणियों की एक अरब से अधिक छवियों के विशाल डैटाबेस से जांचते हैं, और तुरंत एक या अधिक संभावित अंग्रेज़ी और वैज्ञानिक नाम बताते हैं। इस तरह, आदिवासी युवा अनायास विशेष ज्ञान पर एकाधिकार प्राप्त विशेषज्ञों के चंगुल से मुक्त हो जाते हैं और सक्षम रूप से अपनी सीएफआर प्रबंधन योजना और जैव विविधता रजिस्टर तैयार कर सकते हैं।

सदुराम बहुत बुद्धिमान है लेकिन खराब शालेय शिक्षा के कारण 10वीं कक्षा की परीक्षा में अनुत्तीर्ण हो गया है। आधुनिक ज्ञान के युग में ये बाधाएं तेज़ी से लुप्त होती जा रही हैं। उन्होंने अपने गांव में एक दुर्लभ ऑर्किड की खोज की, जो उसकी ज्ञात सीमा से काफी बाहर है। उन्होंने इसे जिओडोरम लैक्सीफ्लोरम के रूप में पहचाना और गढ़चिरोली में कुछ वनस्पति शास्त्रियों के साथ मिलकर वैज्ञानिक पत्रिका जर्नल ऑफ थ्रेटन्ड टैक्सा में एक शोध निबंध प्रकाशित किया। इससे सदुराम एक वैज्ञानिक समुदाय का सदस्य बन गया। मेरे गुरु सलीम अली एक अमीर, प्रतिष्ठित परिवार से थे लेकिन गणित से चिढ़ के कारण उपाधि प्राप्त करने में असफल रहे थे। फिर भी उन्हें भारत के अग्रणी पक्षी विज्ञानी के रूप में पहचाना जाता है। अत्यधिक वंचित पृष्ठभूमि से आने वाला सदुराम भी प्रथम श्रेणी के वनस्पति शास्त्री के रूप में विकसित होने का माद्दा रखता है। तो, मेरे शिष्य मेरे गुरु के पूर्वाग्रहों का मुकाबला कर रहे हैं! इस बात की पूरी उम्मीद है कि उभरते हुए ज्ञान युग में हम एक ऐसे समतामूलक समाज की ओर तेज़ी से आगे बढ़ेंगे, जिसमें सभी लोगों की पहुंच भाषा की बाधाओं से मुक्त होकर समस्त मानवीय ज्ञान तक होगी। (स्रोत फीचर्स)

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प्राचीन यूनानी अक्षम बच्चों को नहीं मारते थे

गभग 100 ईस्वीं में यूनानी दार्शनिक प्लूटार्क ने अपनी जीवनी लाइफ ऑफ लायकर्गस में ज़िक्र किया था कि प्राचीन स्पार्टन लोग अपने नवजात शिशुओं को निरीक्षण के लिए समाज के बड़े-बुज़ुर्गों की एक परिषद को सौंप दिया करते थे। इस निरीक्षण के पश्चात चुस्त और तंदुरुस्त बच्चों को जीवित रखा जाता था जबकि कमज़ोर और विकलांग शिशुओं को मरने के लिए छोड़ दिया जाता था। प्लूटार्क के अनुसार यूनानवासी अस्वस्थ व्यक्ति को न तो खुद उसके लिए और न ही समाज के लिए उचित मानते थे।

यूनानी समाज के बारे में प्लूटार्क की इस कहानी को लगभग 2000 वर्षों तक सही माना गया। यहां तक कि आधुनिक युग के विद्वान भी वर्तमान और प्राचीन समाज के बीच अंतर स्पष्ट करने के लिए पीढ़ियों तक छात्रों को यही पढ़ाते रहे। युनिवर्सिटी ऑफ सिडनी की पुरातत्वविद लेस्ली बोमॉन्ट के अनुसार विद्वानों ने इस बात को जस का तस स्वीकार कर लिया। और तो और, इस धारणा का उपयोग आधुनिक अत्याचारों को उचित ठहराने के लिए भी किया जाता रहा है। नाज़ी ‘उत्कृष्ट प्रजननविदों’ ने यूनान का उदाहरण लेते हुए विकलांग लोगों की हत्या को उचित ठहराया।

लेकिन पुरातात्विक साक्ष्य और साहित्यिक स्रोतों पर नज़र डालें तो प्लूटार्क की बात खालिस मिथक प्रतीत होती है। हो सकता है कि विकलांग शिशुओं को मरने के लिए छोड़ देने की घटनाएं कभी-कभार हुई होंगी लेकिन यह प्राचीन यूनानी संस्कृति का अंग नहीं था। इस विषय में कैलिफोर्निया स्टेट युनिवर्सिटी में यूनानी सभ्यता का अध्ययन कर रही डेबी स्नीड ने हेस्पेरिया पत्रिका में अपना अध्ययन प्रकाशित किया है।

स्नीड के अनुसार आधुनिक समाज सहित कई समाजों में शिशु-हत्या होती है लेकिन अधिकांश समाज इसे निंदनीय मानते हैं। यूनानी समाज इस मामले में भिन्न नहीं था। स्नीड ध्यान दिलाती हैं कि प्लूटार्क अपनी जीवनी में उन घटनाओं के बारे में बता रहे हैं जो उनके जन्म से 700 वर्ष पहले हुई थीं। दूसरी ओर, उन्हीं की रचना में एक ऐसे स्पार्टन राजा का उल्लेख है जो नाटा था और पैरों से विकलांग था। उसकी पहचान एक अच्छे नेता के रूप में थी। 400 ईसा पूर्व के एक अज्ञात यूनानी डॉक्टर ने समकालीन चिकित्सकों को जन्मजात विकलांग वयस्कों की मदद करने के तरीके भी सुझाए थे। इनसे संकेत मिलता है कि यूनान में विकलांग या शारीरिक रूप से कमज़ोर बच्चे भी समाज के उत्पादक सदस्यों के रूप में वयस्कता तक जीवित रहते थे।       

इसके अलावा, कुछ पुरातात्विक साक्ष्य बताते हैं कि जन्म के समय गंभीर स्वास्थ्य समस्याओं से ग्रसित शिशुओं की जन्म के पहले हफ्ते अत्यधिक देखभाल की जाती थी। कुछ विशेषज्ञों को 1931 में एथेंस के एक कुएं से 400 शिशुओं के अवशेष मिले जिनका वर्ष 2018 में विश्लेषण करने पर पता चला कि अधिकांश अवशेष बहुत छोटे बच्चों के थे जो प्राचीन युग में उच्च शिशु मृत्यु दर का संकेत देते हैं न कि चुन-चुनकर शिशु हत्या का। इनमें से एक कंकाल गंभीर जानलेवा रोग हाइड्रोसेफली से पीड़ित 6 से 8 महीने के शिशु का था। यूनानी समाज ने ऐसे बच्चे की देखभाल की थी।

इसी दौरान, उत्खननकर्ताओं को यूनान की कब्रों से टोंटीदार सिरेमिक की बोतलें भी मिली हैं जिनकी टोंटियों पर बच्चों के दांत के निशान मिले हैं। स्नीड का दावा है कि इन बोतलों का उपयोग कटे हुए तालू या अन्य अक्षमता वाले शिशुओं को खिलाने के लिए किया जाता था। अर्थात विषम अंगों या अक्षमताओं के साथ पैदा हुए बच्चों का भी नियमित रूप से पालन पोषण किया जाता था और वे अक्सर वयस्कता तक जीवित भी रहते थे।

अलबत्ता, अन्य विद्वान इस दावे से असंतुष्ट हैं। जैसे, युनिवर्सिटी ऑफ मेनचेस्टर के क्लासिसिस्ट क्रिश्चियन लाएस के अनुसार शिशु-हत्या यूनान की आम प्रथा तो नहीं हो सकती लेकिन कई परिवार ऐसे बच्चों का पालन पोषण करने में सक्षम न होने के कारण उन्हें मरने के लिए छोड़ दिया करते होंगे। इसके साथ ही यह भी संभव है कि सामाजिक असहजता और शर्म के कारण इस सामान्य प्रथा का उल्लेख न किया गया हो।

बोमोन्ट के अनुसार शिशु-हत्या के कोई साक्ष्य तो नहीं हैं लेकिन संभावना है कि ऐसे बच्चों को सार्वजनिक स्थान पर इस उम्मीद में छोड़ दिया जाता होगा कि कोई अन्य उनकी परवरिश करेगा।

स्नीड का मानना है कि विकलांगों के बारे में आधुनिक धारणाओं के आधार पर प्राचीन समाज के बारे में निष्कर्ष निकालना उचित नहीं कहा जा सकता। आज के दौर में विकलांगता का अवमूल्यन किया जाता है। लेकिन कई प्रमाण मिलते हैं कि प्राचीन समय में लोगों ने विकलांग शिशुओं की देखभाल में समय और संसाधन दोनों लगाए हैं। (स्रोत फीचर्स)

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भारत ने ‘जनसंख्या बम’ को निष्क्रिय किया

1960 के दशक में भारत ने जनसंख्या में विस्फोटक वृद्धि का सामना किया था। उस समय प्रजनन दर लगभग छह बच्चे प्रति महिला थी। इसके बाद प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने परिवार नियोजन कार्यक्रम को विस्तार दिया जिसमें पुरुषों और महिलाओं दोनों को नसबंदी के लिए नकद प्रोत्साहन की पेशकश की गई।

अगले 60 वर्षों तक भारत ने नसबंदी के साथ-साथ गर्भ-निरोधकों और बालिका-शिक्षा पर ध्यान केंद्रित किया। अब स्वास्थ्य अधिकारियों का दावा है कि भारत ने अंतत: जनसंख्या विस्फोट पर नियंत्रण हासिल कर लिया है। हाल ही में राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस) द्वारा किए गए एक सर्वेक्षण में पाया गया है कि देश की प्रजनन दर पहली बार 2.1 संतान प्रति महिला के ‘प्रतिस्थापन स्तर’ से नीचे आ गई है। पापुलेशन फाउंडेशन ऑफ इंडिया की निदेशक पूनम मुतरेजा के अनुसार भारत की महिलाएं अब कम बच्चे पैदा करने को उचित मान रही हैं।

हालांकि, जनसंख्या फिलहाल बढ़ती रहेगी क्योंकि पूर्व की उच्च प्रजनन दर के कारण भारत की दो-तिहाई आबादी 35 वर्ष से कम उम्र की है और एक बड़ा समूह बच्चे पैदा करने की उम्र में पहुंच रहा है। लिहाज़ा, प्रतिस्थापन-दर पर भी जनसंख्या में वृद्धि जारी रहेगी और शायद अगले साल ही भारत चीन को पीछे छोड़ते हुए सबसे अधिक आबादी वाला देश बन जाएगा।

फिर भी भारत की जनसंख्या लगभग 3 दशकों में घटने की संभावना है जिससे भारत बांग्लादेश और इंडोनेशिया जैसे कई अन्य विकासशील देशों के रास्ते पर चल पड़ेगा। लेकिन प्रजनन दर में गिरावट के मामले में भारत चीन (1.7 बच्चे प्रति महिला) से काफी पीछे है।

विशेषज्ञों का मत है कि जन्म दर में गिरावट के संदर्भ में सरकारी परिवार नियोजन कार्यक्रम प्रमुख कारक रहा है। एनएफएचएस सर्वेक्षण के अनुसार 55 प्रतिशत दंपति आधुनिक गर्भ-निरोधकों का उपयोग करते हैं। इनमें से बीस प्रतिशत कंडोम और दस प्रतिशत गोलियों का उपयोग करते हैं। अलबत्ता, सभी गर्भनिरोधकों में से कम से कम दो-तिहाई तो महिला नसबंदी है।

भारत में नसबंदी कार्यक्रम का इतिहास काफी उबड़-खाबड़ रहा है। 1970 के दशक के मध्य में राज्यों को अनिवार्य नसबंदी शिविर संचालित करने के आदेश दिए गए थे। इस दौरान लगभग 1.9 करोड़ लोगों की नसबंदी की गई जिनमें से दो-तिहाई पुरुष थे। वर्तमान में सरकारी नसबंदी क्लीनिकों का ध्यान मुख्य रूप से महिला नसबंदी पर केंद्रित है। कुल गर्भ निरोधकों में से मात्र 0.5 प्रतिशत हिस्सा पुरुष नसबंदी का होता है। आम तौर पर महिलाओं की नसबंदी औसतन 25 की उम्र के आसपास की जाती है जिनके पहले से बच्चे हैं। नसबंदी के लिए नकद प्रोत्साहन के अलावा जबरन नसबंदी की शिकायतें भी मिलती रहती हैं।                        

वैसे तो भारत में शहरी महिलाओं की तुलना में ग्रामीण महिलाएं अधिक बच्चे पैदा करती हैं लेकिन दोनों ही समूहों की प्रजनन दर में लगातार कमी आई है। इसके साथ ही 5 वर्ष से कम आयु के बच्चों की मृत्यु दर घटकर 34 (प्रति 1000 जीवित जन्म) रह गई है जो 1960 में 241 थी। बच्चों के लंबी उम्र तक जीवित रह पाने के आश्वासन के चलते महिलाएं परिवार नियोजन को ज़्यादा स्वीकार करने लगी हैं।

छोटा परिवार रखने के लिए प्रोत्साहित करने में शिक्षा की भी बड़ी भूमिका रही है। 1960 के दशक में महिलाओं में निरक्षरता दर लगभग 90 प्रतिशत थी जो 2011 में घटकर 35 प्रतिशत रह गई। इंटरनेशनल इंस्टिट्यूट फॉर पापुलेशन साइंस की शोधकर्ता मिलन दास के विश्लेषण के अनुसार 2005 के बाद के दशक में बेहतर शिक्षा के कारण प्रजनन दर में 47 प्रतिशत की कमी आई है। मुतरेजा के अनुसार भारत की महिलाओं की आकांक्षाओं में भी बदलाव आया है। वे अब शादी और बच्चे पैदा करने की बजाय बेहतर नौकरी के अवसरों की तलाश कर रही हैं।     

भारत के विभिन्न क्षेत्रों में अलग-अलग प्रजनन दर भी शिक्षा की भूमिका को दर्शाती है। केरल की साक्षरता दर सबसे अधिक है। केरल ने 1988 में ही प्रतिस्थापन प्रजनन दर हासिल कर ली थी। दूसरी ओर, राष्ट्रीय जनसंख्या आयोग के अनुसार बिहार जैसे सबसे कम साक्षर राज्य में 2039 तक प्रतिस्थापन प्रजनन दर प्राप्त करना मुश्किल होगा।

कुछ भारतीय राजनेता अभी भी जनसंख्या विस्फोट पर चर्चा कर रहे हैं और उत्तर प्रदेश में तो दो से अधिक बच्चे वाले परिवारों को सरकारी नौकरी या राज्य की कल्याण योजनाओं से वंचित रखने का प्रस्ताव है। आलोचकों के अनुसार इस तरह के बयान अक्सर देश के मुस्लिम अल्पसंख्यकों को निशाना बनाते हुए दिए जाते हैं। लेकिन 2015-16 के एनएफएचएस सर्वेक्षण के अनुसार हिंदू महिलाओं की तुलना में मुस्लिम महिलाओं के औसतन 0.5 प्रतिशत अधिक बच्चे हैं। स्पष्ट है कि प्रजनन सम्बंधी फैसलों में धर्म एक छोटा कारक है।

लेकिन भारत की प्रजनन दर कितनी कम हो सकती है? विशेषज्ञों के अनुसार कम प्रजनन दर वाले राज्यों की दर 1.6 से 1.9 बच्चे प्रति महिला पर स्थिर है। यदि देश में महिला सशक्तिकरण की नीतियों को जारी रखा जाए तो यह दर 1.4 या उससे नीचे जा सकती है। संयुक्त राष्ट्र के 2019 के जनसंख्या अनुमान के अनुसार भारत की जनसंख्या 2050 तक 1.64 अरब तक पहुंच कर इस सदी के अंत तक 1.45 अरब रह जाएगी। एक चिंता यह भी व्यक्त की गई है कि यदि प्रजनन दर में तेज़ी से गिरावट आती है तो अर्थव्यवस्था को नुकसान भी हो सकता है। (स्रोत फीचर्स)

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क्रिप्टोकरेंसी और भारत की अर्थ व्यवस्था – 2 – सोमेश केलकर

यह लेख “क्या है बिटकॉइन जैसी क्रिप्टोकरेंसी-1” (https://bit.ly/3EQACFn) का दूसरा भाग है। यदि आपने लेख का पहला भाग नहीं पढ़ा है और/या क्रिप्टोकरेंसी के काम करने की प्रणाली को नहीं समझते हैं तो आप पहला भाग ज़रूर पढ़ें।

हाल ही में, चीन सरकार ने क्रिप्टोकरेंसी को अवैध घोषित करते हुए इसके क्रय-विक्रय, माइनिंग (खनन), मिंटिंग और व्यापार पर प्रतिबंध लगा दिया। अमेरिका के कुछ नीति निर्माताओं ने भी क्रिप्टोकरेंसी की वैधता और खरेपन पर सवाल उठाया है। कई सीनेटरों ने तो इसे “असली पैसे का घटिया विकल्प” कहा है।

ऐसा प्रतीत होता है कि रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया (आरबीआई) और भारत सरकार ने भी क्रिप्टोकरेंसी के खिलाफ सख्त रवैया अपनाने की ठान ली है। ऐसी अफवाह है कि निजी क्रिप्टोकरेंसी के विरुद्ध एक विधेयक पर काम किया जा रहा है और इस वर्ष के अंत तक इसे संसद में प्रस्तुत किया जाएगा। सवाल यह उठता है कि सरकारों और नीति निर्माताओं को क्रिप्टोकरेंसी इतनी नापसंद क्यों है? आइए इसके कारणों पर एक नज़र डालते हैं।

1. नियंत्रण खो देने का डर

सरकारों द्वारा क्रिप्टोकरेंसियों को नापसंद करने का कारण क्रिप्टोकरेंसियों का दोहरा उद्देश्य है। क्रिप्टोकरेंसी का उपयोग निवेश के साधन के साथ-साथ खरीद के साधन के रूप में भी किया जा सकता है। चूंकि इसे क्रय-विक्रय के साधन के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है, सरकार के स्वामित्व वाले केंद्रीय बैंकों द्वारा जारी की गई अधिकारिक मुद्रा के साथ प्रतिस्पर्धा का खतरा है।

वास्तव में सरकारें नियंत्रण चाहती हैं और क्रिप्टोकरेंसियां इस नियंत्रण को चुनौती देती हैं। हमारी पारंपरिक मुद्रा प्रणाली में लेन-देन की वैधता प्रमाणित करने और सत्यापन पर बैंकों का एकाधिकार होता है जिससे सरकारों को यह पता करना आसान हो जाता है कि किसके पास कितनी धनराशि है जो कर-निर्धारण के लिए ज़रूरी है।

विकेंद्रीकरण से भी नियंत्रण में कमी आती है, अधिदिश्ट (यानी सरकारी आदेश से प्रचलित) मुद्रा से सरकारें आसानी से चीज़ों को नियंत्रण में रख सकती हैं। उदाहरण के लिए, सरकारें प्रचलित मुद्रा को नोटबंदी के माध्यम से समाप्त कर सकती हैं और नई मुद्रा छाप सकती हैं। अर्थव्यवस्था को नियंत्रित करने के लिए सरकारें मौद्रिक नीति में बदलाव भी कर सकती हैं। दूसरी ओर, क्रिप्टोकरेंसियां केंद्रीय प्राधिकरण को नियंत्रण की कोई गुंजाइश नहीं देतीं और इसलिए क्रिप्टोकरेंसियों को कानूनी वैधता मिलने से सरकारों के लिए मौद्रिक नीतियों का नियमन कर पाना संभव नहीं होगा।       

2. क्रिप्टो-अपराध की संभावना

क्रिप्टोकरेंसी का विकेंद्रीकृत स्वरूप इसका सबसे बड़ा गुण होने के साथ-साथ सबसे बड़ी कमज़ोरी भी है। एक ओर, जहां निजता एक मौलिक अधिकार है, वहीं दूसरी ओर, क्रिप्टोकरेंसियों से हासिल गुमनामी से लोगों को जासूसी, हत्या, ड्रग व्यापार, आतंकी फंडिंग, साइबर-अपराध जैसी गतिविधियों में लिप्त होने का मौका भी मिलता है। क्रिप्टोकरेंसियों की गुमनाम प्रकृति के चलते कानून का उल्लंघन करने वालों पर नकेल कसना काफी कठिन हो जाता है।

क्रिप्टोकरेंसियां कितनी भी सुरक्षित क्यों न हों, धोखाधड़ी और अनाधिकृत लेनदेन की घटनाएं सुर्खियों में रही हैं। ऐसे में प्रभावित लोगों को न्याय दिलाना सरकार की ज़िम्मेदारी बन जाती है जबकि उसका इन मुद्राओं पर कोई नियंत्रण नहीं होता।            

3. केंद्रीय बैंकों पर खतरा

एक ऐसे परिदृश्य की कल्पना कीजिए जिसमें क्रिप्टोकरेंसी किसी देश की एकमात्र वैध मुद्रा बन जाती है। इस स्थिति में, मुद्रा की विकेंद्रीकृत प्रकृति के कारण, केंद्रीय बैंक की कोई आवश्यकता नहीं रह जाएगी क्योंकि तब किसी भी लेन-देन को मान्य या सत्यापित करने की आवश्यकता ही नहीं रहेगी।

सरकारें केंद्रीय बैंकों और अन्य वित्तीय संस्थानों की मदद से देश के वित्त और अर्थव्यवस्था का प्रबंधन करती हैं। बिटकॉइन और अन्य विकेंद्रीकृत क्रिप्टोकरेंसियों की बढ़ती लोकप्रियता से विश्व भर के कई केंद्रीय बैंकों ने अपना व्यवसाय खो दिया है और सम्बंधित सरकारों को भी नुकसान हुआ है।  

4. अस्थिरता

एक और परिदृश्य की कल्पना कीजिए जब आप एक रबड़ खरीदने के लिए एक रुपया खर्च करते हैं और अगले ही दिन आपको पता चलता है कि यदि एक दिन इंतज़ार करते तो इसी एक रुपए से 10 ग्राम सोना खरीद सकते थे। अच्छी बात है कि रुपए की क्रय शक्ति में प्रतिदिन इतना उतार-चढ़ाव नहीं होता है।  

क्रिप्टोकरेंसी के अत्यधिक अस्थिर मूल्य की समस्या का यह एक उदाहरण है। इसी समस्या का दूसरा पहलू शायद नीति निर्माताओं के लिए और भी गंभीर है। क्रय शक्ति के आधार पर यह पता लगाना कठिन हो जाता है कि कोई व्यक्ति कितना अमीर या गरीब है। एक दिन आपके पास इतनी संपत्ति होगी जिससे आप अपना शेष जीवन आराम से व्यतीत कर सकते हैं और अगले ही दिन आपकी सारी संपत्ति एक माचिस की डिबिया के मूल्य के बराबर होगी। इस स्थिति में नीति निर्माताओं को मौद्रिक और कराधान नीतियों को लागू करना अत्यंत कठिन हो जाएगा।    

यदि रुपया क्रय शक्ति के मामले में इतना अस्थिर रहता है तो हमें एक ऐसी लचीली कराधान दर की आवश्यकता होगी जो हर घंटे परिवर्तित होती रहे।

क्रिप्टोकरेंसी बाज़ार अपनी अस्थिर प्रकृति, उच्च जोखिम और उच्च लाभ के लिए जाना जाता है। इसी कारण क्रिप्टोकरेंसी को खरीद के साधन या मुद्रा के रूप में उपयोग करना कठिन हो जाता है। यह पारंपरिक कागज़ी मुद्रा की तुलना में काफी नई है तथा इसे उपयोग में लाए काफी समय भी नहीं हुआ है। ऐसे में मुद्रा के रूप में इसकी उपयोगिता भी कमज़ोर दिख रही है।        

5. मुद्रा आपूर्ति में धन का अभाव

क्रिप्टोकरेंसियां विकेंद्रीकृत होती हैं और इसलिए यह कोई भी नहीं जानता कि अधिदिश्ट मुद्रा के बदले क्रिप्टोकरेंसी खरीदने पर निवेशक के बैंक से पैसा जाता कहां है। क्रिप्टोकरेंसी को खरीदने वाला व्यक्ति दुनिया में कहीं का भी हो सकता है और बेचने वाला व्यक्ति भी दुनिया के किसी भी कोने का हो सकता है। इससे नीति निर्माताओं को काफी समस्या होती है।            

यदि आरबीआई अर्थव्यवस्था में प्रचलन के लिए 100 रुपए जारी करे और कोई निवेशक इनमें से 10 रुपए क्रिप्टोकरेंसी में निवेश कर दे तो अर्थ व्यवस्था में केवल 90 रुपए ही बचेंगे। क्रिप्टोकरेंसियां अर्थव्यवस्था में उपलब्ध धन राशि को कम कर सकती हैं और एक बार इन वित्तीय साधनों में निवेश होने पर कोई भी नीति निर्माता इस पैसे को ट्रैक नहीं कर सकता है। यह एक और समस्या है जिसके कारण नीति निर्माता क्रिप्टोकरेंसियों को नापसंद करते हैं।        

अर्थव्यवस्था पर प्रभाव

अनुमान है कि 2021 तक, भारत में लगभग 1 करोड़ खुदरा क्रिप्टोकरेंसी निवेशक थे। और क्रिप्टोकरेंसी बाज़ार में लगातार वृद्धि हो रही है।

भले ही भारतीय निवेशकों में क्रिप्टोकरेंसियों के प्रति उत्साह दिख रहा हो, लेकिन अवैध गतिविधियों के लिए उपयोग होने की आशंका के कारण लाखों निवेशक क्रिप्टोकरेंसी को अपनाने से कतरा भी रहे हैं। अनियंत्रित प्रकृति के चलते क्रिप्टोकरेंसियों को गैर-कानूनी मुद्रा मान लिया जाता है।

आने वाले बजट सत्र में क्रिप्टोकरेंसी और डिजिटल मुद्रा विधेयक 2021 को प्रस्तुत करने की घोषणा ने निवेशकों के विश्वास को डगमगा दिया है। अनुमान है कि विधेयक क्रिप्टोकरेंसी के प्रतिकूल होगा।    

यदि भारत क्रिप्टोकरेंसी और ब्लॉकचेन तकनीक का ठीक से नियमन करना सीख जाए और क्रिप्टोकरेंसी से उत्पन्न आय पर कर लगाने की प्रणाली विकसित कर ले तो भारतीय अर्थव्यवस्था को काफी फायदा हो सकता है। ब्लॉकचेन तकनीक को पारंपरिक बैंकिंग प्रणाली में भी अपनाया जा सकता है।

वित्त मंत्री के अनुसार सरकार की योजना क्रिप्टोकरेंसी के लिए नपा-तुला दृष्टिकोण अपनाने की है। हालांकि, सरकार द्वारा ‘नपे-तुले’ दृष्टिकोण में अस्पष्टता से भारतीय क्रिप्टोकरेंसी निवेशकों और प्लेटफॉर्म्स के बीच पूर्ण प्रतिबंध का डर बना हुआ है।

इतिहास पर नज़र डालें तो इस प्रकार के प्रतिबंध अक्सर अप्रभावी रहे हैं। प्रतिबंध भविष्य में होने वाले नवाचारों को खत्म कर देगा। हालांकि, इसका मतलब यह नहीं है कि निवेशकों के हितों की रक्षा के लिए नियामक ढांचा आवश्यक नहीं है। यहां कुछ महत्वपूर्ण कानूनी और नियामक जोखिमों पर चर्चा की गई है जो भारतीय अर्थव्यवस्था को प्रभावित कर सकते हैं।     

1. सुपरिभाषित कानूनों का अभाव

किसी भी तकनीक को बड़े पैमाने पर अपनाने के लिए अनिवार्य है कि मानकों का निर्धारण कर लिया जाए। क्योंकि डिस्ट्रिब्यूटेड लेजर तकनीक (जिसे ब्लॉकचेन कहा जाता है) अभी भी विकसित हो रही है, दुनिया भर के नियामक और नीति निर्माता इस तरह की तकनीक के निहितार्थ का अध्ययन कर रहे हैं। हालांकि अमेरिका और जापान जैसे देश नियामक ढांचा विकसित करने का प्रयास कर रहे हैं, लेकिन अभी तक ऐसा कोई ढांचा सामने नहीं आया है।   

2. स्वामित्व और न्याय-क्षेत्र में अस्पष्टता

एक डिस्ट्रीब्यूटेड लेजर तकनीक का मूल सिद्धांत यह है कि इसके नेटवर्क से जुड़े सभी लोगों के पास लेजर की एक प्रति होती है जिसके चलते लेजर का वास्तविक स्थान जानने का कोई तरीका नहीं है। इसलिए, ब्लॉकचेन पर किए गए लेनदेन पारंपरिक बैंकिंग की तुलना में उच्चतर गोपनीयता प्रदान करते हैं। हालांकि, यह एक अच्छी खबर नहीं है क्योंकि इससे न्यायिक क्षेत्राधिकार का मुद्दा भी उठता है – यदि कोई इस विशेषता का लाभ उठाना चाहे तो निपटना मुश्किल होगा।

हो सकता है कि क्रिप्टोकरेंसियों का उपयोग करके किए गए विभिन्न लेनदेन ऐसे अलग-अलग कानूनी ढांचों के अंतर्गत आते हों जो एक दूसरे के विपरीत हों। जैसे मैं जापान में किसी के साथ लेनदेन करता हूं और वहां की सरकार और मेरी सरकार की नीतियां परस्पर विरोधी हों। इसी क्रम में एक और मुद्दा बहीखाते का कोई भौतिक स्थान न होना है जिसके कारण क्रिप्टोकरेंसियों का ‘मूल देश’ निर्धारित नहीं किया जा सकता। इसके अतिरिक्त, चूंकि ब्लॉकचेंस राष्ट्र-पारी हो सकते हैं, इसलिए अंतर्राष्ट्रीय विवादों की स्थिति में सम्बंधित देशों के नीति निर्माताओं के लिए प्रासंगिक कानून और न्याय-क्षेत्र का निर्धारण करना एक बड़ा सिरदर्द हो सकता है। नीति-निर्माताओं के लिए एक कठिन काम होगा कि वे विभिन्न उपयोगकर्ताओं, विनिमयों और परियोजनाओं के बीच कानून को कैसे लागू करेंगे।    

3. अनिश्चित वर्गीकरण

जहां तक कराधान का सवाल है, विभिन्न देशों के बीच क्रिप्टोकरेंसी के बारे में कोई स्पष्ट सहमति नहीं है कि यह है क्या। क्रिप्टोकरेंसी को परिसंपत्ति, मुद्रा, कमोडिटी जैसी विभिन्न श्रेणियों में रखने पर विचार चल ही रहा है। 

अपुष्ट रिपोर्टों के अनुसार ऐसी संभावना है कि भारत सरकार क्रिप्टोकरेंसी को परिसंपत्ति श्रेणी में रख सकती है। भारत सरकार की ओर से अभी तक कोई स्पष्ट संकेत नहीं मिले हैं। यह केवल क्रिप्टोकरेंसी के कराधान के मुद्दे को और उलझाएगा।  

4. हवाला के मुद्दे

क्रिप्टोकरेंसी के विरोध का प्रमुख कारण यह रहा है कि इनका उपयोग धोखाधड़ी, मनी लॉन्ड्रिंग  और अन्य अपराधों के लिए किया जा सकता है। क्रिप्टोकरेंसियों का गुमनाम स्वरूप इनके दुरुपयोग की संभावना का प्रमुख कारण माना जाता है। क्रिप्टोकरेंसियों का उपयोग डीप-वेब की अवैध वेबसाइटों पर किया जाता है जहां अपराधी अवैध सामग्री (जैसे बंदूक, गोला-बारूद, विस्फोटक, ड्रग्स, रेडियोधर्मी पदार्थ) का लेनदेन कर सकते हैं या अवैध निगरानी, जासूसी और हत्या जैसी ‘सेवाएं’ खरीद सकते हैं।   

5. डैटा चोरी की संभावना

क्रिप्टोकरेंसियां कितनी भी सुरक्षित क्यों न हों, किसी भी अन्य वित्तीय साधन के समान इसमें भी डैटा चोरी और वित्तीय धोखाधड़ी के जोखिम तो हैं ही। इनकी ब्लॉकचेन के कोड में खामियां रह जाएं तो अपराधी इसका फायदा उठा सकते हैं और गुमनामी के गुण के चलते ऐसे अपराधियों को ट्रैक करना काफी कठिन होगा।

कॉर्नेल युनिवर्सिटी के एक शोध में पिछले वर्ष एथेरियम (एक क्रिप्टोकरेंसी) के ब्लॉकचेन में एक गंभीर सुरक्षा खामी का पता चला था। इस शोध रिपोर्ट में बताया गया था कि यदि इस खामी का फायदा उठा लिया जाता तो एथेरियम उपयोगकर्ताओं और निवेशकों को 25 करोड़ डॉलर की चपत लग सकती थी। इसी तरह, क्रिप्टोकरेंसी वॉलेट निर्माता ‘लेजर’ के डैटा में सेंध के कारण 10 लाख ग्राहकों के नाम, पते और फोन नंबर सहित ईमेल भी उजागर हो गए थे। अभी यह देखना बाकी है कि मौजूदा डैटा प्रोटोकॉल की मदद से क्रिप्टोकरेंसी से जुड़े डैटा चोरी और वित्तीय धोखाधड़ी के मुद्दे को संबोधित किया जा सकता है या नहीं।      

6. निवेशकों की चिंताएं

युनाइटेड किंगडम, जापान, कनाडा और संयुक्त राज्य अमेरिका सहित कई देशों द्वारा बिटकॉइन जैसी क्रिप्टोकरेंसियों को वैध घोषित करने के बावजूद विभिन्न देशों के बीच लेनदेन की कानूनी वैधता का सवाल अभी भी बना हुआ है।

सोने और चांदी के मूल्यों के विपरीत, क्रिप्टोकरेंसी विशुद्ध रूप से एक काल्पनिक धन है जो बिना किसी केंद्रीकृत प्राधिकरण की आवश्यकता के गणित और अर्थशास्त्र पर काम करता है और किसी भी भौतिक संपत्ति द्वारा समर्थित नहीं है। केंद्रीकृत नियमों के अभाव में, निवेशकों के क्रिप्टोकरेंसी सम्बंधित विवादों को सुलझाने के तरीके का सवाल अभी भी अनुत्तरित है।    

भारत का रुख

लगभग 5 वर्षों से, भारत में क्रिप्टोकरेंसियों के विषय पर उहापोह जारी है। जब पता चला कि देश में क्रिप्टोकरेंसियों के माध्यम से धोखाधड़ी की जा रही हैं, तो अप्रैल 2018 में, आरबीआई ने बैंकों और अन्य वित्तीय संस्थानों को क्रिप्टोकरेंसी में लेनदेन करने से प्रतिबंधित कर दिया। इसके निम्नलिखित कारण बताए गए:  

1. क्रिप्टोकरेंसी की प्रकृति अत्यधिक अटकल-आधारित है जो उन्हें एक अत्यंत अस्थिर निवेश बनती है।

2. क्रिप्टोकरेंसी की गुमनाम प्रकृति इसे अवैध गतिविधियों, हवाला और कर चोरी के माध्यम के रूप में उपयोग करने के लिए उपयुक्त बनाती है।

3. क्रिप्टोकरेंसी माइनिंग बहुत अधिक ऊर्जा खाता है जो देश की ऊर्जा सुरक्षा पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकता है।

4. आरबीआई अर्थव्यवस्था में क्रिप्टोकरेंसियों की आपूर्ति को नियंत्रित नहीं कर सकता है।  

आरबीआई द्वारा उठाए गए ये बिंदु वास्तव में उचित और सशक्त हैं। सरकार ने क्रिप्टकरेंसी पर प्रतिबंध लगाने का प्रयास तो किया लेकिन फरवरी 2019 में सर्वोच्च न्यायालय ने इसको प्रतिबंधित करने के बजाय विनियमित करने का सुझाव दिया। सुझाव में कहा गया कि क्रिप्टोकरेंसियों को माल और सेवाओं की खरीद के लिए भुगतान के वैध तरीके के रूप में स्वीकार किया जा सकता है, ज़रूरत सिर्फ इतनी है कि आरबीआई इसका नियमन करे।

प्रतिबंध लगाने का शायद कोई फायदा न हो क्योंकि लोग इससे निपटने के तरीके खोज सकते हैं। लोग भारत के बाहर स्थित एक्सचेंजों के ज़रिए व्यापार कर सकते हैं जो आरबीआई को इस समीकरण से पूरी तरह बाहर कर देगा। भारत के कई स्टार्ट-अप्स ने ठीक वैसा ही किया है।

प्रतिबंध अंतर्राष्ट्रीय निवेशकों को नकारात्मक संदेश भेजेगा और निवेश के एक आकर्षक गंतव्य के रूप में भारत की प्रतिष्ठा को धूमिल करेगा।

आखिरकार, मार्च 2020 में सर्वोच्च न्यायालय ने प्रतिबंध को असंवैधानिक करार दिया। अपने फैसले में न्यायालय ने एक कारण यह भी बताया कि भले ही भारत में क्रिप्टोकरेंसी का नियमन नहीं किया जा रहा है लेकिन वे निहित रूप से अवैध नहीं है।

विभिन्न मीडिया रिपोर्टों के अनुसार, भारत में क्रिप्टोकरेंसी में अनुमानित 10,000 करोड़ रुपए का निवेश किया गया है। क्रिप्टोकरेंसी के माध्यम से होने वाली आय का उचित कराधान सुनिश्चित करने के लिए सरकारी विनियमन पर काम किया जा रहा है। आरबीआई द्वारा खुद की क्रिप्टोकरेंसी शुरू करने की भी योजना है। आरबीआई के गवर्नर शक्तिकांत दास ने एक बयान में कहा कि ‘सेंट्रल बैंक की डिजिटल करेंसी पर काम जारी है। आरबीआई की टीम इसके तकनीकी और प्रक्रियात्मक पक्षों पर काम कर रही है ताकि जनता के बीच इसकी शुरुआत हो सके।’   

कुछ ही दिनों पहले, नाइजीरिया के राष्ट्रपति मुहम्मद बुहारी ने गर्व के साथ यह घोषणा की कि ‘नाइजीरिया अफ्रीका का ऐसा पहला और विश्व के पहले देशों में से है जिसने अपने नागरिकों के लिए डिजिटल मुद्रा की शुरुआत की है।’ सेंट्रल बैंक की डिजिटल मुद्रा ई-नाइरा को शुरू करने का उद्देश्य कागज़ी नाइरा को पूरी तरह से बदलने की बजाय उसे पूरक के तौर पर उपयोग करना है। इस तरह नाइजीरिया उन 7 देशों में शामिल हो गया है जिन्होंने आधिकारिक तौर पर अपने केंद्रीय बैंक की डिजिटल मुद्रा की शुरुआत की है। एटलांटिक काउंसिल की सेंट्रल बैंक डिजिटल करेंसी ट्रैकिंग वेबसाइट के अनुसार चीन जैसे 16 अन्य देश अभी भी इसके प्रायोगिक चरण में हैं।  

अन्य प्रमुख चिंताएं

नेशनल ब्यूरो ऑफ इकॉनॉमिक रिसर्च द्वारा किए गए एक अध्ययन में पाया गया कि बिटकॉइन और अन्य लोकप्रिय मुद्राएं पहले से कहीं आसानी से उपलब्ध हैं लेकिन अभी भी मुट्ठीभर लोग ही अधिकांश क्रिप्टोकरेंसी बाज़ार को नियंत्रित कर रहे हैं। इस अध्ययन में पता चला है कि फिलहाल शीर्ष 10,000 बिटकॉइन निवेशक सभी क्रिप्टोकरेंसियों के लगभग 33% बाज़ार को नियंत्रित करते हैं।  

यह भी पता चल पाया कि 2020 में शीर्ष 10,000 बिटकॉइन मालिकों के पास लगभग 85 लाख बिटकॉइन थे जबकि शीर्ष समूहों के पास इसी अवधि में लगभग 50 लाख बिटकॉइन थे। यह भी स्पष्ट हुआ कि इन शीर्ष 10,000 निवेशकों में से शीर्ष 1000 निवेशक लगभग 30 लाख बिटकॉइन के मालिक हैं।     

माइनिंग (यदि आप माइनिंग के बारे में नहीं जानते हैं या आपको 51% अटैक के बारे में कोई जानकारी नहीं है तो इस लेख का पहला भाग देखें) की ओर ध्यान दिया जाए तो चीज़ें और अधिक स्पष्ट हो जाती हैं। ब्यूरो ने पाया कि शीर्ष 10% माइनर्स लगभग 90% माइनिंग कार्यों को नियंत्रित करते हैं और इससे भी अधिक आश्चर्यजनक बात तो यह है कि लगभग आधे माइनिंग आउटपुट शीर्ष 0.1% माइनर्स के नियंत्रण में हैं। इस परिस्थिित से एक भयावह विचार सामने आता है: यदि किसी समूह के पास क्रिप्टोकरेंसी नेटवर्क की कम्प्यूटेशनल शक्ति के 51% से अधिक का स्वामित्व हो तो वे अधिकांश नेटवर्क को अपने नियंत्रण में ले सकते हैं।      

डिजिटल मुद्रा विधेयक 2021

अनुमान है कि ‘आधिकारिक डिजिटल मुद्रा विधेयक 2021’ में सभी निजी क्रिप्टोकरेंसियों को प्रतिबंधित किया जाएगा और आरबीआई द्वारा संचालित‘आधिकारिक डिजिटल मुद्रा’ के लिए एक नियामक ढांचा तैयार किया जाएगा जो वर्तमान बैंकिंग प्रणाली के साथ काम करेगा। अभी के लिए हम सिर्फ इतना जानते हैं कि विधेयक को इस वर्ष के केंद्रीय बजट सत्र 2021-22 पेश किया गया था और फिर चर्चा और योजना पर काम किया जा रहा है।

ऐसी भी संभावना है कि सरकार द्वारा निवेशकों को ट्रेडिंग, माइनिंग और क्रिप्टोकरेंसी जारी करने के लिए 3 से 6 महीने लंबी निकासी अवधि प्रदान की जाएगी। एक उच्च-स्तरीय अंतर-मंत्रालयी समिति ने अपनी सिफारिशों में कहा है कि सरकार को सभी निजी क्रिप्टोकरेंसियों पर प्रतिबंध लगाना चाहिए।

आरबीआई का विचार 

आरबीआई ने कहा है कि उसकी टीम बाज़ार संरचना में सुधार के लिए डिस्ट्रिब्यूटेड लेजर टेक्नॉलॉजी के संभावित अनुप्रयोगों की खोज कर रही है। केंद्रीय बैंक की वैध डिजिटल मुद्रा की शुरुआत पर भी विचार चल रहा है। लगता है कि सरकार भी आरबीआई की डिजिटल मुद्रा के पक्ष में है जो निजी क्रिप्टोकरेंसी से प्रतिस्पर्धा कर सके।

बैंक ऑफ इंटरनेशनल सेटलमेंट्स द्वारा किए गए सर्वेक्षण के अनुसार लगभग 80% केंद्रीय बैंकों ने यह दावा किया है कि उन्होंने पहले से ही सेंट्रल बैंक की डिजिटल मुद्राओं के संभावित लाभों को समाविष्ट करना या डिजिटल मुद्राओं के उपयोग की खोज शुरू कर दी है।

क्रिप्टोकरेंसी स्टार्ट-अप्स

वर्तमान में भारत में 200 से अधिक ब्लॉकचेन स्टार्ट-अप काम कर रहे हैं जिनमें से अधिकांश क्रिप्टोकरेंसी स्पेस के डीलर हैं।

अप्रैल 2018 में आरबीआई ने सभी बैंकों को अधिसूचित किया कि वे भारत में क्रिप्टोकरेंसी से सम्बंधित सभी सौदों को प्रतिबंधित और रिपोर्ट करें। इन स्टार्ट-अप्स को अप्रैल 2019 में राहत मिली जब भारत के सर्वोच्च न्यायलय ने आरबीआई और सरकार के द्वारा लिए गए निर्णय को असंवैधानिक बताते हुए क्रिप्टोकरेंसियों पर लगा प्रतिबंध हटा दिया।  लेकिन अनुमानित ‘आधिकारिक डिजिटल मुद्रा विधेयक 2021’ के ज़रिए यदि निजी क्रिप्टोकरेंसियों पर पूर्ण प्रतिबंध लगाया जाता है तो हालात बदल सकते हैं।  

निष्कर्ष

क्रिप्टोकरेंसियों के मामले में प्रतिबंध केवल सरकार, केंद्रीय बैंकों और कर एजेंसियों को उन लाभों को प्राप्त करने से वंचित कर देगा जो क्रिप्टोकरेंसी प्रणाली की कमियों के बाद भी उन्हें प्राप्त हो सकते हैं। अर्थात प्रतिबंध लगाना तो खुद के पैरों पर कुल्हाड़ी मारने जैसा होगा

इन मुद्राओं के नियमन की आवश्यकता है ताकि निवेशकों पर उचित रूप से कर लगाया जा सके और अन्य देशों के साथ चर्चा करके वैधता सम्बंधी मुद्दों को भी संबोधित किया जा सके। हम उन देशों की अर्थव्यवस्था का भी अध्ययन कर सकते हैं जिन्होंने अपनी अर्थव्यवस्था में क्रिप्टोकरेंसी को एकीकृत किया है। प्रतिबंध तो आलस का द्योतक है। यह लगभग वैसा ही है जैसे हम मुद्रा पर इसलिए प्रतिबंध लगाना चाहते हैं क्योंकि इस प्रणाली को स्वीकार करने के लिए बहुत परिश्रम की आवश्यकता है ताकि क्रिप्टोकरेंसी टेक्नॉलॉजी अर्थ व्यवस्था की पूरक बन जाए।

क्रिप्टोकरेंसी के पीछे की तकनीक नई है और भारतीय अर्थव्यवस्था को इससे फायदा भी हो सकता है। विशेष रूप से ब्लॉकचेन तकनीक को पारंपरिक बैंकिंग प्रणाली में शामिल करके काफी फायदा मिल सकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://kryptomoney.com/wp-content/uploads/2018/06/KryptoMoney.com-Indian-Cryptocurrency-Exchanges-Crypto-to-Crypto-Trading-RBI-Crypto-Ban.jpeg

नोबेल पुरस्कारों में पुरुषों का बोलबाला क्यों?

स वर्ष भी विज्ञान के सभी क्षेत्रों यानी भौतिकी, रसायन विज्ञान, और कार्यिकी/चिकित्सा में नोबेल पुरस्कार विजेता पुरुष ही रहे। नोबेल पुरस्कार के 121 वर्ष के इतिहास में सिर्फ 18 वर्षों में ही ऐसा हुआ है जब किसी महिला को विज्ञान में नोबेल पुरस्कार मिला हो। हाल ही में नोबेल पुरस्कार देने वाली दो समितियों ने साइंस पत्रिका के साथ आंतरिक संख्याओं को साझा किया है जो इस तरह की असमानता के पीछे के कारण उजागर करती है: नोबेल पुरस्कार के लिए महिलाओं का कम नामांकन। हालांकि महिलाओं के नामांकन पिछले कुछ वर्षों में दुगने हुए हैं लेकिन इनका प्रतिशत अभी भी काफी कम है।

कार्यिकी/चिकित्सा विज्ञान पुरस्कार के लिए नामांकित वैज्ञानिकों में महिलाएं 13 प्रतिशत और रसायन विज्ञान में मात्र 7-8 प्रतिशत थीं। इस मुद्दे पर युनिवर्सिटी ऑफ विस्कॉन्सिन की आणविक जीवविज्ञानी और वैज्ञानिक समुदाय में जेंडर असमानता की अध्येता जो हैण्डल्समैन इसे प्रतिष्ठित पुरस्कारों की सामान्य समस्या के रूप में देखती हैं। यदि कोई नामांकित ही नहीं है, तो उसका चयन कैसे करें। गौरतलब है कि पिछले वर्ष 2020 में विज्ञान के 8 नोबेल विजेताओं में से 3 महिलाएं थीं। और तो और, रसायन विज्ञान का नोबेल पुरस्कार सिर्फ दो महिलाओं को दिया गया था। इसे देखते हुए सकारात्मक बदलाव की उम्मीद थी लेकिन इस बार के निर्णयों से हालात पहले जैसे ही नज़र आ रहे हैं।

हाल के वर्षों में नोबेल विजेताओं के बीच जेंडर असमानता को दूर करने तथा यूएस और युरोप के बाहर के लोगों और अश्वेत वैज्ञानिकों की कमी के मुद्दे पर काफी ज़ोर दिया गया है। 2018 में, भौतिकी और रसायन विज्ञान के नोबेल पुरस्कार देने वाली रॉयल स्वीडिश एकेडमी ऑफ साइंसेज़ ने अधिक विविधता को प्रोत्साहित करने के लिए नामांकन प्रक्रिया में बदलाव की घोषणा की थी। समितियों ने विश्व भर के अधिक से अधिक महिलाओं और वैज्ञानिकों को नामांकित करने के लिए आमंत्रित किया। उन्होंने अपने निमंत्रण में कम प्रतिनिधित्व वाले लोगों को शामिल करने के लिए परिवर्तन किए और वैज्ञानिकों को केवल एक नहीं बल्कि 3 खोजों को नामांकित करने की अनुमति दी गई। कुछ इसी तरह के परिवर्तन चिकित्सा में नोबेल पुरस्कार देने वाली संस्था कैरोलिंस्का इंस्टीट्यूट ने भी किए। 

गौरतलब है कि नोबेल फाउंडेशन नियम के चलते समितियां नामांकन सम्बंधी सूचनाओं को 50 वर्ष तक गुप्त रखती हैं। लेकिन समिति के सदस्यों ने इस बार साइंस पत्रिका के साथ इस डैटा का सार साझा किया है। कार्यिकी/चिकित्सा के लिए कुल नामांकन वर्ष 2015 में 350 थे और इस वर्ष बढ़कर 874 हो गए। इसी दौरान महिलाओं के नामांकन भी 5 प्रतिशत से बढ़कर 13 प्रतिशत हो गए। रसायन विज्ञान में भी महिला नामांकन 2018 की तुलना में दुगना हो गए हैं। हालांकि, भौतिकी समिति ने डैटा साझा करने से मना कर दिया लेकिन यह बताया कि पिछले कुछ वर्षों में महिलाओं के प्रतिशत में काफी तेज़ी से वृद्धि हुई है।          

अलबत्ता, कई वैज्ञानिक इस वृद्धि से संतुष्ट नहीं है जब तक कि पुरस्कृत महिलाओं की संख्या में भी वृद्धि नहीं होती। नामांकनों की छंटाई करने वाली समितियों के सदस्य भी इस वृद्धि से संतुष्ट नहीं है। चाल्मर्स युनिवर्सिटी ऑफ टेक्नॉलॉजी की जैव-भौतिक रसायनज्ञ और रसायन विज्ञान समिति की सदस्य पेरनीला विटुंग स्टैफशी के अनुसार नामांकित लोगों में से महिलाओं का प्रतिशत काफी कम है और इसमें वृद्धि की आवश्यकता है।

विटुंग स्टैफशी का मानना यह भी है कि महिलाओं का प्रतिशत बढ़ाने के लिए समितियों को नोबेल-योग्य खोज की समझ को विस्तार देने की आवश्यकता है। हो सकता है कि हम कुछ विषयों और उम्मीदवारों को देख न पाते हों क्योंकि हम इस बात को लेकर संकीर्ण नज़रिया रखते हैं कि रसायन विज्ञान की महत्वपूर्ण खोज क्या है।       

नोबेल पुरस्कार में महिलाओं के कम नामांकन के अलावा एक और समस्या है। पिछले 4 वर्षों में विज्ञान के नोबेल पुरस्कार चयन समितियों में अपेक्षाकृत कम महिलाएं रही हैं। यह भी सत्य है कि अपने पूरे करियर में प्रतिकूल परिस्थितियों के कारण पुरस्कार जीतने वाली महिलाओं की संख्या कम होती है। लेकिन यह पूरी तस्वीर नहीं है। यह तो समस्या को देखने का एक निष्क्रिय ढंग है जबकि नोबेल समितियों को आगे आकर कुछ करना चाहिए।

चयन समितियों के स्वरूप में परिवर्तन की आवश्यकता है। समितियों के सदस्य रॉयल स्वीडिश एकेडमी ऑफ साइंसेज़ के सदस्यों और कैरोलिंस्का इंस्टीट्यूट के प्रोफेसरों में से चुने जाते हैं। इस वर्ष भौतिकी समिति में 7 पुरुष और 1 महिला, रसायन समिति में 6 पुरुष और 2 महिला और कार्यिकी/चिकित्सा समिति में सबसे अधिक 13 पुरुष और 5 महिलाएं थीं।

विटुंग स्टैफशी बताती हैं कि समिति में उनकी उपस्थिति से जेंडर सम्बंधी मुद्दों पर चर्चा संभव हुई है। समिति की एक महिला सदस्य बताती हैं कि हालांकि नोबेल पुरस्कार देते समय जेंडर पर नहीं बल्कि पूरा ध्यान सिर्फ विज्ञान पर होता है। फिर भी महिलाओं के लिए चयन प्रक्रिया और समारोहों में भाग लेना काफी महत्वपूर्ण होगा ताकि वे अन्य महिलाओं के लिए अनुकरणीय उदाहरण के रूप में नज़र आएं। अलबत्ता, सिर्फ नज़र आना पर्याप्त नहीं होगा। अधिक पारदर्शी नामांकन प्रक्रिया से प्रस्तावक अधिक महिलाओं को नामांकित कर सकेंगे। फिलहाल कोई नहीं जानता कि किसी का नामांकन कैसे किया जाता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.acx9351/abs/_20211012_on_noblgender.jpg

क्या हैं बिटकॉइन जैसी क्रिप्टोकरंसी – 1 – सोमेश केलकर

हालिया दिनों में, क्रिप्टोकरंसी के आगमन ने डिजिटल मुद्राओं को हमारे जीवन में काफी प्रासंगिक बना दिया है। नियमन के अभाव और इसकी अनाम प्रकृति के कारण कई सरकारों ने तो इस पर प्रतिबंध लगा दिया है जबकि अल-साल्वाडोर जैसे कुछ देशों ने तो इसे वैध मुद्रा का दर्जा दे दिया है।

दिलचस्प बात तो यह है कि अधिकांश लोगों को यह नहीं मालूम है कि क्रिप्टोकरंसी काम कैसे करती है। इस दो भाग के लेख में हम पहले क्रिप्टोकरंसियों के काम करने की प्रणाली को समझने का प्रयास करेंगे। इसको सरल तरीके से समझने के लिए हम कुछ दोस्तों का उदाहरण लेते हुए स्वयं के क्रिप्टोकरंसी मॉडल का निर्माण करेंगे और इस आधार पर क्रिप्टोकरंसी मॉडल की पूरी कार्यप्रणाली को समझेंगे। दूसरे भाग में हम राष्ट्रीय अर्थव्यवस्थाओं, विशेष रूप से भारत, पर क्रिप्टोकरंसी के प्रभाव पर ध्यान केंद्रित करेंगे और मामले का गहराई से विश्लेषण करके इसके विभिन्न पहलुओं को समझने की कोशिश करेंगे।

क्रिप्टोकरंसी क्या है?

क्रिप्टोकरंसी पूरी तरह से एक डिजिटल मुद्रा है जो निवेश के साथ-साथ खरीदारी का भी एक साधन है। चूंकि इसका कोई भौतिक वजूद नहीं है इसलिए इसे डिजिटल मुद्रा कहा जाता है। यह सरकार द्वारा विनियमित नहीं है और एक ऐसी प्रणाली के तहत काम करती है जिसके कामकाज के लिए किसी भी उपयोगकर्ता से सम्बंधित मुद्रा में किसी प्रकार के भरोसे की अपेक्षा नहीं होती।

पारंपरिक मुद्राओं के संदर्भ में सरकार इस बात की गारंटी देती है कि 10 रुपए का नोट आपको देशभर में कहीं भी 10 रूपए की क्रय शक्ति देता है जबकि क्रिप्टोकरंसी के साथ ऐसा कोई वचन नहीं जुड़ा है। प्रणाली की गैर-भरोसा आधारित प्रकृति के चलते, क्रिप्टोकरंसी लेनदेन को सत्यापित करने के लिए बैंकों की आवश्यकता नहीं होती है और यह पूरी तरह से विकेंद्रीकृत होती है (हालांकि, केंद्रीकृत क्रिप्टोकरेंसी के कई उदाहरण मौजूद हैं)। कोई नहीं जानता कि क्रिप्टोकरेंसी प्रणाली का आविष्कार किसने किया लेकिन दुनिया भर के उपयोगकर्ता इसमें निवेश करते हैं और लेनदेन के लिए भी इसका उपयोग करते हैं।

क्रिप्टोकरंसी प्रणाली कैसे काम करती है?

क्रिप्टोकरंसी के काम करने की प्रणाली और बिटकॉइन जैसी क्रिप्टोकरंसी का मालिक होने के मतलब को हम एक उदाहरण से समझने की कोशिश करते हैं। हो सकता है इसको समझने की प्रक्रिया में हम अनजाने में बिटकॉइन के समान अपनी खुद की एक क्रिप्टोकरेंसी विकसित कर लें।

1. लेजर (बहीखाता)

मान लीजिए कि चार दोस्त सुशील, सोमेश, प्रतिका और ज़ुबैर हर सप्ताह के अंत में एक साथ डिनर के लिए पास के एक रेस्तरां में जाते हैं। प्रत्येक व्यक्ति बिल को बराबर विभाजित करने पर सहमत हैं लेकिन हर सप्ताह कोई एक व्यक्ति पूरे बिल का भुगतान करता है। महीने के अंत में खर्चों का मिलान किया जाता है और यह गणना की जाती है कि कौन देनदार है और कौन लेनदार। इसके बाद चारों दोस्त आपस में लेनदेन कर हिसाब का निपटारा करते हैं।

यह सुनिश्चित करने के लिए कि कौन, किसका, कितने पैसे का देनदार है, पूरे महीने के दौरान किए गए भुगतानों को रिकॉर्ड किया जाता है। चार दोस्तों द्वारा तैयार किया गया यह छोटा सा रिकॉर्ड बहीखाते का एक उदाहरण है।

2. गैर-भरोसा आधारित प्रणाली

आइए, अब इस उदाहरण में एक दिलचस्प शर्त जोड़ते हैं। जैसा कि हमने पहले बताया था कि क्रिप्टोकरंसी एक गैर-भरोसा आधारित प्रणाली है। तो क्या होगा यदि ये चार दोस्त एक-दूसरे पर भरोसा न करते हों? यानी यदि चारों को एक दूसरे पर संदेह हो कि प्रत्येक मौका मिलने पर अपने व्यक्तिगत लाभ के लिए खाते में हेरफेर कर सकता है? इस मामले में, सभी दोस्तों को कुछ ऐसे परिवर्तन करने होंगे ताकि यह प्रणाली निजी विश्वास के बगैर भी काम कर सके और वे बेफिक्री से अपने डिनर का आनंद ले सकें। इसके लिए क्रिप्टोग्राफी क्षेत्र के कुछ विचारों को उधार लिया गया है। संक्षेप में,

बहीखाता – भरोसा + क्रिप्टोग्राफी  =  क्रिप्टोकरंसी

यह क्रिप्टोकरंसी का सटीक विवरण तो नहीं है लेकिन हम अपने उदाहरण को आगे थोड़ा और जटिल बनाएंगे ताकि हम एक ऐसा मॉडल विकसित कर लें जो बिटकॉइन के समान हो।

बिटकॉइन क्रिप्टोकरंसी का मात्र पहला उदाहरण है। इसकी शुरुआत तो 2009 में हुई थी लेकिन इसकी जड़ें 1983 में डेविड चौम की क्रिप्टोग्राफिक इलेक्ट्रॉनिक मनी से जुड़ी हैं जिसे ई-कैश भी कहा जाता है। यह क्रिप्टोग्राफिक इलेक्ट्रॉनिक भुगतान का एक प्रारंभिक रूप था। इसमें किसी बैंक से धन निकालने के लिए एक सॉफ्टवेयर की आवश्यकता होती थी और किसी विशेष व्यक्ति को भेजे जाने से पहले विशिष्ट एन्क्रिप्टेड कुंजियां निर्धारित की जाती थीं। धन स्थानांतरण करने की इस पद्धति ने जारीकर्ता बैंक, सरकार या किसी अन्य तीसरी पार्टी के लिए डिजिटल मुद्रा का अता-पता लगाना असंभव कर दिया।

डेविड चौम के प्रारंभिक विचार ने एक दशक से भी अधिक समय बाद अधिक औपचारिक क्रिप्टोकरंसी को जन्म दिया। आज बाज़ार में हज़ारों क्रिप्टोकरंसी मौजूद हैं। इसकी बुनियादी प्रणाली को समझकर इस प्रक्रिया के प्रमुख अदाकारों को पहचानने और डिज़ाइन के विभिन्न विकल्पों को समझने में मदद मिल सकती है।

3. डिजिटल हस्ताक्षर

क्रिप्टोकरंसी और पेपर मनी के बीच का अंतर यह है कि क्रिप्टोकरंसी में लेनदेन की पुष्टि करने वाला कोई बैंक नहीं होता है, बल्कि यह प्रणाली एक विकेंद्रीकृत लेनदेन के आधार पर काम करती है जहां डिजिटल हस्ताक्षर और क्रिप्टोग्राफिक हैश फंक्शन्स की कूट-प्रकृति के कारण परस्पर भरोसे की आवश्यकता नहीं होती। यहां दो बहुत ही जटिल शब्दों का उपयोग किया गया है जिन्हें समझना ज़रूरी है।

आइए एक बार फिर अपने चार दोस्त सुशील, सोमेश, प्रतिका और ज़ुबैर से मिलते हैं। सुशील, सोमेश, प्रतिका और ज़ुबैर अक्सर डिनर के लिए बाहर जा रहे हैं इसलिए उन्हें नकदी लेनदेन में काफी असुविधा हो रही है। इसके लिए वे पहले से ही एक सामूहिक बहीखाते का उपयोग कर रहे हैं ताकि महीने के अंत में लेनदेन को निपटा सकें।

यह बहीखाता तालिका 1 जैसा दिखेगा।

तालिका 1

दिनांक                       लेनदेन                                                       राशि (रुपए)

xyz                          सुशील ने सोमेश को भुगतान किया                180

abc                          सोमेश ने प्रतिका को भुगतान किया                290

def                           प्रतिका ने ज़ुबैर को भुगतान किया  210

ghi                          ज़ुबैर ने सुशील को भुगतान किया  300

ऐसे बहीखाते का सार्वजनिक होना आवश्यक है ताकि चारों दोस्त जब चाहें इसे देख सकें। यह एक वेबसाइट की तरह भी हो सकता है जहां चारों दोस्त जाकर नई लेनदेन पंक्ति जोड़ सकते हैं। हर महीने के अंत में, यदि आपने भुगतान से अधिक पैसे प्राप्त किए हैं तो आपको भुगतान करना होगा और यदि आपने प्राप्त करने से अधिक भुगतान किया है तो आपको राशि प्राप्त होगी।

बहीखाते का प्रोटोकॉल तालिका 2 जैसा होगा।

तालिका 2

क्र.            प्रोटोकॉल

1.             चारों में से कोई भी भुगतान सम्बंधी नई पंक्ति जोड़ सकता है

2.             प्रत्येक माह के अंत में, सभी इंदराज़ों का पैसे अदा करके हिसाब साफ कर दिया जाएगा

अब इस तरह के सार्वजनिक बहीखाते से एक समस्या हो सकती है खासकर जब चार दोस्त एक-दूसरे पर भरोसा नहीं करते हैं। जब इनमें कोई भी नई पंक्ति जोड़ सकता है तो फिर सुशील को गुपचुप ऐसी लाइन जोड़ने से कैसे रोका जा सकता है जिसमें लिखा हो:

ज़ुबैर ने सुशील को भुगतान किया 500 रुपए

तो हम कैसे विश्वास कर सकते हैं कि बहीखाते की सभी पंक्तियां वैध हैं? यहीं पर डिजिटल हस्ताक्षर की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है। यहां मुख्य विचार यह है कि जिस तरह हम हस्तलिखित हस्ताक्षर के माध्यम से लेनदेन या किसी अनुबंध को वैधता प्रदान करते हैं उसी तरह ज़ुबैर के लिए यह संभव होना चाहिए कि वह बहीखाते में किसी के द्वारा उससे सम्बंधित जोड़ी गई पंक्ति में ऐसा कुछ जोड़ सके जिससे यह साबित हो कि उसने इस इंदराज़ को देखा है और स्वीकृत किया है। किसी के लिए भी जाली हस्ताक्षर बनाना असंभव होना चाहिए।

पहली नज़र में आपको लगेगा कि डिजिटल हस्ताक्षर के साथ तो यह आसानी से संभव है क्योंकि कॉपी-पेस्ट का निर्देश तो लंबे समय से मौजूद रहा है। तो डिजिटल हस्ताक्षर की जालसाज़ी को कैसे रोका जाए क्योंकि जब हाथ से किए गए हस्ताक्षर की तुलना में डिजिटल हस्ताक्षर को कॉपी करना काफी आसान है?

लेकिन क्रिप्टोकरंसी में यह व्यवस्था निम्नानुसार काम करती है – प्रत्येक उपयोगकर्ता एक सार्वजनिक कुंजी/ निजी कुंजी की जोड़ी बनाता है। ये कुंजियां अंकों की एक अर्थहीन शृंखला की तरह दिखती हैं। जैसा कि नाम से साफ है, निजी कुंजी को हर व्यक्ति गोपनीय रखना चाहता है।

बैंक के लेनदेन में, आपके हस्तलिखित हस्ताक्षर किसी दस्तावेज़ या लेनदेन की प्रकृति से स्वतंत्र एक जैसे दिखते हैं। इस मामले में, डिजिटल हस्ताक्षर वास्तव में हस्तलिखित हस्ताक्षर से अधिक सुरक्षित साबित हो सकता है क्योंकि यह प्रत्येक लेनदेन में बदलता रहता है। यह 1 और 0 अंकों की लंबी शृंखला होती है, जिसे संदेश से जोड़ने पर पूरा डिजिटल हस्ताक्षर बनता है। संदेश में थोड़ा सा परिवर्तन करने पर भी डिजिटल हस्ताक्षर में बड़ा परिवर्तन आ जाता है। अर्थात

संदेश + निजी कुंजी = डिजिटल हस्ताक्षर

इस तरह, हस्ताक्षर फंक्शन सत्यापित करता है कि हस्ताक्षर मान्य है। सत्यापन में सार्वजनिक कुंजी की भूमिका सामने आती है।

सत्यापन फंक्शन (संदेश + 256-बिट शृंखला + सार्वजनिक कुंजी) =  सत्य या असत्य

सार्वजनिक कुंजी वास्तव में सत्यापन के काम आती है। इससे यह निर्धारित होता है कि क्या कोई विशेष डिजिटल हस्ताक्षर उपयोगकर्ता की निजी कुंजी से उत्पन्न किया गया है जो सार्वजनिक कुंजी से जुड़ी है।

सरल शब्दों में कहें तो इन दोनों फंक्शन के पीछे का तर्क वास्तव में यह सुनिश्चित करना है कि यदि किसी व्यक्ति के पास निजी कुंजी नहीं है तो उसके लिए वैध हस्ताक्षर उत्पन्न करना भी असंभव है। इस कुंजी का अनुमान लगाने का एकमात्र तरीका यह है कि 0 और 1 के सारे संयोजनों का अनुमान लगाया जाए और तब तक लगाया जाए जब तक कि काम करने वाली सही कुंजी हाथ न लग जाए। इसको ब्रूट फोर्स अटैक या ज़बरदस्ती के रूप में जाना जाता है। 256 बिट की संख्या में 0 और 1 के कुल 2^(256) संभावित संयोजन हो सकते हैं। 2^(256) एक बहुत विशाल संख्या है और इसलिए सभी संभावित संयोजनों को आज़माने के लिए जितना समय और कंप्यूटर शक्ति चाहिए वह जुटा पाना असंभव हो जाता है। फिर भी यदि कोई इस तरीके से कोशिश करता है तो उसे रोका जा सकता है – असफल मिलानों की संख्या को सीमित करके। इस तरह से हस्ताक्षर और सत्यापन की पूरी प्रक्रिया बेहद सुरक्षित बन जाती है।

यहां एक और समस्या का सामना करना पड़ सकता है। आइए हम एक बार फिर अपने चार दोस्तों से मिलते हैं और इस लेनदेन पर एक नज़र डालते हैं (तालिका 3)।

तालिका 3

दिनांक       लेनदेन                                                       राशि (रुपए)                               हस्ताक्षरित

abc          प्रतिका ने ज़ुबैर को भुगतान किया 500                  010001011110101101

यह तो सही है कि ज़ुबैर किसी अन्य लेनदेन में प्रतिका के हस्ताक्षर की नकल नहीं कर सकता लेकिन अभी भी वह एक युक्ति से फायदा उठा सकता है। ज़ुबैर एक ही लेनदेन को एक ही कुंजी के साथ बार-बार कॉपी पेस्ट कर सकता है, और यह काम कर जाएगा क्योंकि संदेश और हस्ताक्षर का संयोजन अपरिवर्तित रहता है (तालिका 4)।

तालिका 4

दिनांक       लेनदेन                                                       राशि (रुपए)               हस्ताक्षरित

abc          प्रतिका ने ज़ुबैर को भुगतान किया  500                          010001011110101101

abc          प्रतिका ने ज़ुबैर को भुगतान किया  500                          010001011110101101

abc          प्रतिका ने ज़ुबैर को भुगतान किया  500                          010001011110101101

abc          प्रतिका ने ज़ुबैर को भुगतान किया  500                          010001011110101101

यानी यह प्रणाली अभी भी त्रुटिपूर्ण है क्योंकि “हस्ताक्षर सत्यापन” फंक्शन हर लेनदेन पर “सत्य” ही दर्शाएगा। तो, कोई तरीका खोजना होगा जिसमें यह सुनिश्चित किया जा सके कि एक ही लेनदेन के ऐसे दो प्रकरण न दर्ज किए जा सकें जिनमें एक ही डिजिटल हस्ताक्षर का उपयोग किया गया हो।

क्रिप्टोकरंसी प्रणाली और पारंपरिक बैंकिंग प्रणाली में प्रत्येक लेनदेन को एक विशिष्ट नंबर दिया जाता है जिसे युनीक आईडी कहा जाता है।  इस तरह यदि लेनदेन को बहीखाते पर दोहराया जाता है तो हर बार एक नई आईडी की आवश्यकता होगी। चूंकि प्रतिका को लेनदेन की आईडी पता होगी जिससे उसने ज़ुबैर को 500 रुपए का भुगतान किया है, ऐसे में ज़ुबैर एक ही लेनदेन को बार-बार कॉपी पेस्ट नहीं कर सकता क्योंकि बहीखाते में जोड़ी गई प्रत्येक नई लाइन के लिए एक सर्वथा नई लेनदेन आईडी होगी।  

इस तरह से चारों दोस्तों के बीच बहीखाते का प्रोटोकॉल अब कुछ इस प्रकार होगा; 

1.             कोई भी नई पंक्ति जोड़ सकता है

2.             प्रत्येक माह के अंत में, सभी टैब्स को पैसे अदा करके साफ कर दिया जाएगा

3.             प्रत्येक लेनदेन की एक युनीक लेनदेन आईडी होगी

4.             केवल हस्ताक्षरित लेनदेन ही मान्य होंगे 

हालांकि, इस प्रणाली में अभी भी समस्याएं हैं। क्योंकि क्रिप्टोकरंसी एक गैर-भरोसा आधारित प्रणाली है और चार दोस्तों की हमारी प्रणाली अभी भी इस भरोसे पर काम करती है कि महीने के अंत में हर कोई भुगतान कर देगा। तो भरोसे का यह तत्व भी क्यों रहे?

क्या होगा यदि किसी महीने के दौरान सोमेश पर हज़ारों रुपए का कर्ज़ हो जाए और वह भुगतान करने या फिर डिनर में आने से ही इन्कार कर दे? अब एक ऐसी प्रणाली बनाने की ज़रुरत है जिसमें चारों दोस्त एक सामूहिक गुल्लक में 500-500 रुपए डाल दें और उनको इससे अधिक खर्च करने अनुमति न मिले। इस मामले में, बहीखाते की पहली कुछ पंक्तियां तालिका 5 में दिखाए अनुसार होंगी।

तालिका 5

लेनदेन       दिनांक       लेनदेन                       राशि         

आईडी                                                       (रुपए)       हस्ताक्षरित

00001      abc          सुशील को मिले           500          0101101111010110

00002      abc          सोमेश को मिले           500          1001011100001010

00003      abc          प्रतिका को मिले          500          1111100101101001

00004      abc          ज़ुबैर को मिले             500          1011001101000111

इसके बाद, “बहीखाते के प्रोटोकॉल” में “प्रत्येक माह के अंत में, सभी टैब्स के पैसे अदा करके हिसाब साफ कर दिया जाएगा” की जगह “तय राशि से अधिक खर्च नहीं करना” हो जाएगा। इस तरह से चार दोस्त उस लेनदेन को स्वीकार नहीं करेंगे जहां कोई व्यक्ति गुल्लक में डाली गई राशि से अधिक खर्च करता है। उदाहरण के लिए तालिका 6 देखें।

तालिका 6

लेनदेन    दिनांक   लेनदेन                                            राशि          

आईडी                                                                        (रुपए)         हस्ताक्षरित

00001     abc        सोमेश ने प्रतीका को दिए                   200           0101101111010110

00002     abc        सोमेश ने ज़ुबैर को दिए                      250           1001011100001010

00003     abc        सोमेश ने सुशील को दिए                   50            1111100101101001

00004   abc     सोमेश ने ज़ुबैर को दिए                      100          अमान्य!

इसमें अंतिम पंक्ति को अमान्य माना जाएगा क्योंकि सोमेश ने सामूहिक गुल्लक में 500 रुपए डाले थे और 600 रुपए खर्च करने की कोशिश की। इसका मतलब यह हुआ कि लेनदेन को सत्यापित करने के लिए हमें सोमेश द्वारा पिछले लेनदेन की जानकारी भी होनी चाहिए। यह लगभग वैसा ही है जैसे सोमेश का उस बहीखाते में स्वयं का बैंक खाता हो। यह बात क्रिप्टोकरंसी और पारंपरिक बैंकिंग प्रणाली में कमोबेश एक समान है। यहां एक दिलचस्प बात यह है कि यह प्रक्रिया सैद्धांतिक रूप से बहीखाता और वास्तविक भौतिक नकद के बीच के सम्बंध को हटा देती है। यदि हर कोई इस बहीखाते का उपयोग करे तो कोई भी अपना पूरा जीवन इस बहीखाते के माध्यम से चला सकता है बहीखाते के अपने धन को नकद में परिवर्तित किए बगैर।    

आइए अब इस उदाहरण में एक जटिलता और जोड़ते हैं और बहीखाते में लिखे गए इस धन को “फ्रेंडकॉइन्स” या संक्षिप्त में “एफसी” का नाम देते हैं। यहां 1 रुपया = 1 एफसी हो सकता है, लेकिन यह आवश्यक नहीं कि हमेशा एक एफसी का मूल्य एक रुपया ही हो। इस स्थिति में सभी को अपनी इच्छा के अनुसार रुपयों के बदले एफसी खरीदने और बहीखाते में दर्ज करने के लिए एफसी के बदले सामूहिक गुल्लक में रुपए डालने की अनुमति होगी। उदाहरण के लिए, सुशील सोमेश को वास्तविक दुनिया में 100 रुपए दे सकता है और उसके बदले सामूहिक बहीखाते में निम्नलिखित लेनदेन को जोड़ने और हस्ताक्षर करने की अनुमति देता है।       

सोमेश ने सुशील को भुगतान किया                100 एफसी  

वैसे हमारे बहीखाते के प्रोटोकॉल में इस तरह के आदान-प्रदान की कोई गारंटी नहीं है। ठीक उसी तरह जैसे विदेशी मुद्रा का विनिमय होता है जिसमें आदान-प्रदान की दरें बाज़ार में मांग और आपूर्ति की स्थिति से प्रभावित होती हैं।

और यही चीज़ बिटकॉइन जैसी क्रिप्टोकरंसी के बारे में पहली और सबसे महत्वपूर्ण बात है: क्रिप्टोकरेंसी मूल रूप से एक बहीखाता और पूर्व में किए गए लेनदेन का ब्यौरा है। और पूर्व के लेनदेन का यही ब्यौरा मुद्रा या करंसी है। यहां बिटकॉइन के मामले में यह ध्यान रखना काफी महत्वपूर्ण है कि लोगों द्वारा नकदी से खरीदारी को बहीखाते में लिखा नहीं जाता है। इस लेख में हम आगे पढ़ेंगे कि नए धन को बहीखाते में कैसे लिखा जाता है।       

इससे पहले कि हम इस बारे में बात करें कि बहीखाते में धन को कैसे लिखा जाता है; हमें पहले एक और समस्या से निपटना होगा जिसका चार दोस्तों को फ्रेंडकॉइन के साथ सामना करना पड़ रहा है जो उनकी मुद्रा को पारंपरिक क्रिप्टोकरंसी से अलग करता है।

जैसा कि आपको याद होगा कि क्रिप्टोकरंसी एक गैर-भरोसा-आधारित प्रणाली है यानी यह एक ऐसी प्रणाली है जहां मुद्रा के मूल्य का निर्धारण करने के लिए मुद्रा में भरोसे की आवश्यकता नहीं होती है। लेकिन हमारे पास अभी भी फ्रेंडकॉइन प्रणाली में एक ऐसा बिंदु है जो भरोसे पर काम करता है: हमारा बहीखाता जिसे चार दोस्तों द्वारा एक वेबसाइट पर साझा किया जाता है। यह वेबसाइट किसी के स्वामित्व में है, जिसका मतलब यह है कि बहीखाता इस भरोसे पर काम करता है कि वेबसाइट का मालिक बहीखाते की जानकारी में हेरफेर नहीं करेगा और चार दोस्तों द्वारा झूठी प्रविष्टियों के लिए उसे रिश्वत नहीं दी जाएगी। 

इससे बचने के लिए और वेबसाइट मालिकों में विश्वास की आवश्यकता को खत्म करने के लिए हम सुशील, सोमेश, प्रतिका और ज़ुबैर, प्रत्येक को बहीखाते की एक-एक प्रति देते हैं। अब तालिका 7 के लेनदेन को प्रतिका ज़ुबैर, सोमेश और सुशील को प्रसारित करेगी जिससे प्रत्येक उस लेनदेन को अपने-अपने बहीखाते में नोट कर लेगा और यदि कोई लेनदेन सभी बहीखातों पर मौजूद नहीं हुआ तो उसे अमान्य माना जाएगा और इससे जाली बहीखाता बनाने की संभावना समाप्त हो जाएगी।

तालिका 7

लेनदेन       दिनांक       लेनदेन                                       राशि          हस्ताक्षरित

आईडी                                                                       (एफसी)   

00036      abc          प्रतिका ने ज़ुबैर को                      100          010010001000010

वास्तविक दुनिया में तो यह प्रणाली अत्यंत अव्यावहारिक और बेतुकी साबित होगी। एक कठिन सवाल यह है कि सभी को इस बात पर सहमत कैसे कराया जाए कि सही बहीखाता क्या है?

जब ज़ुबैर को प्रतिका से 100 एफसी प्राप्त होते हैं, तो यह कैसे सुनिश्चित होगा कि सुशील और सोमेश भी इस लेनदेन पर विश्वास करेंगे और इससे भी महत्वपूर्ण बात यह कि क्या उन्होंने भी इस लेनदेन को अपने बहीखाते में दर्ज कर लिया है ताकि ज़ुबैर सुशील या सोमेश को 100 एफसी का भुगतान कर सके जो उसे पिछली तारीख में प्रतिका से प्राप्त हुए हैं? प्रसारित लेनदेन को निरंतर रिकॉर्ड करना और यह उम्मीद करना कि कोई आपके द्वारा प्रसारित लेनदेन को सही क्रम में दर्ज कर रहा है यह प्रक्रिया उनकी दोस्ती को एक खटाई में डाल सकती है।

स्वयं का क्रिप्टोकरंसी मॉडल डिज़ाइन करके क्रिप्टोकरंसी के वास्तविक कार्य को समझते-समझते हम एक बहुत दिलचस्प मोड़ पर आ गए हैं। क्या हम एक ऐसा बहीखाता प्रोटोकॉल बना सकते हैं जिसके आधार पर लेनदेन को स्वीकार या अस्वीकार किया जाएगा और हम कैसे यह सुनिश्चित करेंगे कि पूरी दुनिया में इसी प्रोटोकॉल का पालन करने वाले लोगों के पास मौजूद बहीखाते हूबहू हमारे जैसे हैं?

कूटनाम के तहत काम करने वाले “सातोशी नकामोतो” नामक एक व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह द्वारा लिखित बिटकॉइन पर मूल पेपर में इसी समस्या का समाधान प्रस्तुत किया गया है।     

सातोशी नाकामोतो ने एक योजना सुझाई जिसे “प्रूफ ऑफ वर्क” (मेहनत का प्रमाण) के रूप में जाना जाता है। सरल शब्दों में, जिस बहीखाते के पीछे सबसे अधिक मात्रा में गणनात्मक कार्य होगा, उसे सबसे विश्वसनीय बहीखाता माना जाएगा। वैसे तो यह एक बहुत ही बेतुका विचार लगता है। लेकिन जैसे-जैसे आप आगे पढ़ते जाएंगे आपको प्रूफ ऑफ वर्क की व्यवस्था स्पष्ट होती जाएगी।

प्रूफ ऑफ वर्क योजना का मुख्य उपकरण क्रिप्टोग्राफिक हैश फंक्शन है। प्रूफ ऑफ वर्क योजना में क्रिप्टोग्राफिक हैश फंक्शन की भूमिका को समझने से पहले इसके पीछे के सामान्य विचार को समझते हैं। सामान्य विचार यह है कि हम भरोसे के एक आधार के रूप में गणना कार्य का उपयोग करते हैं। इसके लिए हम ऐसी व्यवस्था बनाएंगे कि धोखाधड़ी वाले लेनदेन और परस्पर विरोधी बहीखातों के लिए अव्यवहारिक मात्रा में गणना शक्ति की आवश्यकता होगी। एक बार जब हम इसके काम करने के तरीके को पूरी तरह समझ जाते हैं तो हम आज के समय में उपयोग किए जाने वाले क्रिप्टोकरंसी मॉडल को समझ पाएंगे।      

4. क्रिप्टोग्राफिक हैश फंक्शन

अब हम यह समझने का प्रयास करते हैं कि हैश फंक्शन क्या है। आम तौर पर इस्तेमाल किया जाने वाला हैश फंक्शन SHA-256 है।

हैश फंक्शन किसी भी प्रकार के संदेश (‘इनपुट’) या फाइल को लेता है और इसे 0 और 1 की 256 बिट शृंखला (या निश्चित बिट्स की लंबाई की किसी अन्य शृंखला) के अनुक्रम में परिवर्तित करता है। यह कार्य भारी-भरकम कंप्यूटर शक्ति की मदद से किया जाता है। आउटपुट को ‘हैश’ कहा जाता है और यह पूरी तरह से 0 और 1 से बनी बेतरतीब संख्या के रूप में दिखाई देता है। वास्तव में यह संख्या बेतरतीब नहीं होती है क्योंकि एक ही इनपुट हमेशा एक ही आउटपुट देता है लेकिन यदि इस इनपुट में थोड़ा भी बदलाव करते हैं तो हैश का मान बदल जाता है। SHA-256 में, मान में होने वाले परिवर्तन इस तरह से होते हैं कि उनका अनुमान नहीं लगाया जा सकता है और इसीलिए ‘हैश’ से शुरू करके उल्टी गणना करके इनपुट का पता नहीं लगाया जा सकता। SHA-256 को क्रिप्टोग्राफिक हैश फंक्शन कहते हैं और सामान्य हैश फंक्शन के विपरीत इसकी उल्टी गणना नहीं की जा सकती है। सभी क्रिप्टोकरंसियां अलग-अलग क्रिप्टोग्राफिक हैश फंक्शंस का उपयोग करती हैं।

SHA-256 हैश-फंक्शन के कार्य को देखते हुए अब आपको यह विचार आ सकता है कि आउटपुट को रिवर्स-इंजीनियर करके (यानी उल्टी गणना करके), इनपुट पता लगाया जा सकता है। लेकिन अभी तक किसी को ऐसा कोई रास्ता नहीं मिला है और अभी तक के सबसे शक्तिशाली आधुनिक कंप्यूटर का उपयोग करने वाली वर्तमान गणनात्मक शक्तियां भी इतनी सक्षम नहीं हैं कि वे किसी मनुष्य के जीवन काल में इस तरह से इनपुट को उजागर कर सकें।

हैश-फंक्शन और उसके सुरक्षित स्वरूप को समझने के बाद, अब हम इस बात पर ध्यान देते हैं कि कैसे यह फंक्शन यह प्रमाणित कर सकता है कि लेनदेन की कोई सूची उच्च गणनात्मक प्रयासों से जुड़ी है।

मान लीजिए कि आपको तालिका 8 जैसा लेनदेन दिखाया जाता है। और फिर आपको यह बताया जाता है कि किसी ने बहीखाते के अंत में दी गई संख्या को डालने के बाद इसे SHA-256 के माध्यम से चलाया है। इस संख्या की खास बात यह है कि जब आप संख्या को इस विशिष्ट बहीखाते के अंत में डालते हैं तो SHA-256 हैश आउटपुट के पहले 50 अंक शून्य हो जाते हैं। 

तालिका 8

लेनदेन       दिनांक       लेनदेन                                                       राशि          हस्ताक्षरित

आईडी                                                                                       (एफसी)

00001      abc          सोमेश ने प्रतिका को भुगतान किया                2000        0101101111010110

00002      abc          सोमेश ने ज़ुबैर को भुगतान किया 2530        1001011100001010

00003      abc          सोमेश ने सुशील को भुगतान किया                500          1111100101101001

00004      abc          सोमेश ने ज़ुबैर को भुगतान किया 1000        1011011001011011

आपके विचार में किसी के लिए उस संख्या को खोज पाना कितना मुश्किल है? किसी भी बेतरतीब संख्या के लिए, हैश के शुरुआत में 50 लगातार अंक शून्य होने की संभावना 1/{2^(50)} = 1/1,125,899,906,842,624होती है। यह एक अत्यंत बड़ी संख्या है।

इस गुण वाली विशेष संख्या खोजने का एकमात्र तरीका है कि 1,125,899,906,842,624 बार अनुमान लगाया जाए।    

5. प्रूफ ऑफ वर्क

एक बार यह संख्या मिल जाए, तो बगैर किसी मेहनत के यह सत्यापित करना बहुत आसान हो जाता है कि वास्तव में आउटपुट में 50 शून्य हैं या नहीं। दूसरे शब्दों में, यह सत्यापित करना संभव हो जाता है कि इस संख्या को खोजने के लिए भारी मात्रा में गणनात्मक काम किया गया है। इसको प्रूफ ऑफ वर्क कहा जाता है और सबसे बड़ी बात तो यह है कि यह पूरा कार्य लेनदेन की उस सूची विशेष से जुड़ा हुआ है। यदि हम उस लेनदेन में ‘somesh’ को बदलकर ‘5omesh’ कर दें, तो आउटपुट पूरी तरह बदल जाता है। तो अब हमें 50 शून्य वाले आउटपुट को प्राप्त करने के लिए 250 प्रयासों के साथ एक विशेष संख्या की भी आवश्यकता होगी।   

क्योंकि अब हम प्रूफ ऑफ वर्क योजना और इसके काम करने में क्रिप्टोग्राफिक हैश फंक्शन की भूमिका को समझ चुके हैं तो आइए अब हम अपने चार दोस्तों से एक बार फिर मिलते हैं।

अब हमारे चार दोस्त एक भारी-भरकम गणनात्मक प्रयास के आधार पर बहीखाते पर भरोसा करना जान गए हैं। उनमें से प्रत्येक अपने लेनदेन का प्रसारण कर रहा है और अब हम एक ऐसे तरीके पर चारों की सहमति चाहते हैं कि कौन-सा बहीखाता सबसे सही बहीखाता है।  

6. ब्लॉक चेंस

अब हम प्रूफ ऑफ वर्क के विचार का उपयोग करते हुए बहीखाते को पृष्ठों में विभाजित कर सकते हैं। क्रिप्टोकरंसी की दुनिया में, इनमें से प्रत्येक पृष्ठ को ब्लॉक कहा जाता है। प्रत्येक पृष्ठ में प्रूफ ऑफ वर्क होता है और सारे दोस्त इस बात से सहमत होते हैं कि केवल उन्हीं पृष्ठों को मान्य माना जाएगा जिनमें प्रूफ ऑफ वर्क है। बहीखाते का प्रत्येक पृष्ठ एक ऐसी संख्या के साथ समाप्त होगा कि पृष्ठ या ब्लाक पर SHA-256 को लागू करने के बाद हैश आउटपुट शून्य की एक शृंखला से शुरू हो। उदाहरण के लिए हम यह निर्णय ले सकते हैं कि इसकी शुरुआत 60 शून्यों से होनी चाहिए।

बहीखाते की सुरक्षा को और बढ़ाने के लिए बहीखाते के प्रत्येक पृष्ठ को पिछले पृष्ठ के हैश से शुरू करना चाहिए। चार दोस्त यह निर्णय लेते हैं ताकि कोई भी बहीखाते के पृष्ठ में बाद में कोई परिवर्तन या बदलाव न कर सके। किसी पृष्ठ को बदलने से अगले पृष्ठ पर लिखे गए हैश से भिन्न हैश प्राप्त होगा और परिणामस्वरूप बाद के पृष्ठ भी इससे प्रभावित होंगे। यानी एक पृष्ठ को बदलने के लिए सभी पृष्ठों को नए सिरे से ठीक करना होगा जिसके लिए ज़रूरी प्रूफ ऑफ वर्क की मात्रा गणनात्मक लिहाज़ से असंभव हो जाएगी। क्रिप्टोकरंसी की दुनिया में, पृष्ठों (ब्लॉक) की परस्पर जुड़ी शृंखला को ब्लॉक चेन कहते हैं।   

यह कुछ ऐसे काम करता है – सुशील, सोमेश, ज़ुबैर और प्रतिका दुनिया में किसी को भी अपने लेनदेन को रिकॉर्ड करने और ब्लॉक के अंत में जोड़ने के लिए विशेष संख्या खोजने (ताकि हैश 60 शून्य वाला हैश मिले) के लिए प्रूफ ऑफ वर्क की अनुमति देते हैं। यह अज्ञात व्यक्ति इस पूरे काम के बदले चार दोस्तों द्वारा किए गए सभी लेनदेन के ऊपर एक विशेष लेनदेन जोड़ता है (तालिका 9)।

तालिका 9

लेनदेन       दिनांक       लेनदेन                                                                       राशि          हस्ताक्षरित

आईडी                                                                                                       (एफसी)    आवश्यक नहीं

000001    abc          ब्लॉक निर्माता को मिलता है ब्लॉक रिवॉर्ड       100

7. माइनिंग 

यह लेनदेन काफी खास है क्योंकि किसी को भी इसके लिए कोई हस्ताक्षर या भुगतान नहीं करना पड़ता है। ब्लॉक निर्माता को मिले इन फ्रेंडकॉइन्स को ब्लॉक-रिवॉर्ड कहते हैं। ये नए कॉइन्स फ्रेंडकॉइन अर्थव्यवस्था में बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, ये कुल धन की आपूर्ति में वृद्धि करते हैं। जब भी ब्लॉक निर्माता एफसी के बदले वास्तविक धन चाहता है तो वह इसे किसी ऐसे व्यक्ति को बेच सकता है जो एफसी खरीदना चाहता है। ऐसे नए ब्लॉक का निर्माण काफी मेहनत का काम है और इसके ज़रिए अर्थव्यवस्था में नई फ्रेंडकॉइन्स शामिल होती हैं। अत: नए ब्लॉक निर्माण को ‘माइनिंग’ या खनन कहा जाता है।

तो खनिक वास्तव में करते क्या हैं; वे

1. प्रसारित लेनदेन पर नज़र रखते हैं

2. ब्लॉक निर्माण करते हैं

3. प्रूफ ऑफ वर्क जोड़ते हैं

4. नए बनाए गए ब्लॉकों को प्रसारित करते हैं।

यह एक लॉटरी में प्रतिस्पर्धा करने जैसा है जहां कई खनिक किसी विशेष ब्लॉक के प्रूफ ऑफ वर्क को पूरा करने के लिए एक-दूसरे से मुकाबला करते हैं और जो इसमें जो अव्वल आता है उसको पुरस्कृत किया जाता है।  

8. विकेंद्रित सर्वसम्मति

ऐसे में यदि कोई स्वयं के ब्लॉक चेन को अपडेट करते समय ब्लॉक चेन में परस्पर विरोधी लेनदेन देखता है, तो वह लंबे ब्लॉकचेन को चुन सकता है क्योंकि इसको तैयार करने में अधिक काम किया गया है। बराबरी की स्थिति में थोड़ी प्रतीक्षा करनी होती है जब तक कि उनमें से कोई एक ब्लॉकचेन थोड़ी लंबी न हो जाए। ऐसे में भले ही कोई केंद्रीय प्राधिकरण न हो और हर कोई बहीखाते की स्वयं की एक कॉपी रखता हो, सबसे लंबे ब्लॉक चेन पर सबसे अधिक भरोसा करने की बात से सभी को स्वयं के व्यक्तिगत बहीखातों को अपडेट करना आसान हो जाता है। इसे विकेंद्रित सर्वसम्मति कहते हैं।  

यह समझने के लिए कि वह कौन-सी चीज़ है जो विकेंद्रित सर्वसम्मति की प्रणाली को भरोसेमंद बनाती है, हम इन चार दोस्तों को बेवकूफ बनाने की कोशिश करते हैं और यह देखते हैं कि इस तरह की प्रणाली को चकमा देने के लिए क्या करना होगा। मान लीजिए कि ज़ुबैर को मूर्ख बनाने के लिए सुशील यह विश्वास दिलाता है कि ज़ुबैर पर उसके 100 एफसी बकाया हैं। इसके लिए सुशील क्या कर सकता है? वह गुप्त तौर पर एक ब्लॉक (S) को माइन करेगा और उसे सिर्फ ज़ुबैर को प्रसारित करेगा। हालांकि, सोमेश और प्रतिका के बहीखाते में इस तरह का कोई ब्लॉक नहीं है, इसलिए वे अभी भी बाकी दुनिया (ROW) से ब्लॉक स्वीकार कर रहे हैं।

अब ज़ुबैर के पास आने वाले ब्लॉकों के दो परस्पर विरोधी संस्करण हैं, एक तो सुशील का कपटपूर्ण ब्लॉक (S1) और दूसरा बाकी दुनिया से आने वाले (ROW1, ROW2,……)। अब सुशील को अपने कपटपूर्ण 100 एफसी के लेनदेन को जारी रखने के लिए न केवल यहां से प्रत्येक ब्लॉक की माइनिंग को सबसे पहले पूरा करना होगा बल्कि इस प्रक्रिया को जारी रखना होगा ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि विश्वभर के लाखों माइनर्स द्वारा तैयार की गई ब्लॉक चेन की लंबाई उसके द्वारा बनाई गई ब्लॉकचेन से लंबी न हो जाए अन्यथा उसका सारा काम बेकार हो जाएगा। सुशील के लिए ऐसा कर पाना संभव नहीं हो पाएगा क्योंकि दुनियाभर के लाखों माइनर्स के पास इस स्तर की गणनात्मक शक्ति है जिसका मुकाबला सुशील का इकलौता लैपटॉप नहीं कर सकता।       

अंतत:, ज़ुबैर यह देखेगा कि शेष दुनिया की ब्लॉक चेन की लंबाई सुशील द्वारा प्रसारित ब्लॉक चेन से अधिक है या नहीं। इस तरह वह लंबे ब्लॉक चेन के अनुसार अपने बहीखाते को अपडेट करेगा। यह पूरी घटना सुशील के पक्ष में तभी हो सकती है जब उनके पास दुनियाभर की गणनात्मक शक्ति के 51 प्रतिशत या उससे अधिक का स्वामित्व हो और वह इस पूरी क्षमता का उपयोग अपनी बाकी की जिंदगी में 100 एफसी के कपटपूर्ण लेनदेन के कार्य को आगे बढ़ाने के लिए करता रहे। उसके बाद भी, सुशील को अधिक से अधिक प्रोसेसिंग शक्ति खरीदना होगी क्योंकि दुनियाभर के लोग लगातार नए कंप्यूटर खरीद रहे हैं और सुशील को दुनिया की कुल कंप्यूटिंग शक्ति का 51 प्रतिशत या उससे अधिक अपने पास रखना होगा। आप खुद देख सकते हैं कि यह पूरी प्रक्रिया अत्यधिक असंभाव्य है।

इसका मतलब यह हुआ कि हाल ही में जोड़े गए ब्लॉक पर तब तक भरोसा नहीं किया जा सकता जब तक कि इसके ऊपर कम से कम कुछ और ब्लॉक्स नहीं जोड़े जाते। यह सुनिश्चित करता है कि ज़ुबैर जिस ब्लॉक चेन को अपडेट करता है उसी का उपयोग सोमेश, प्रतिका और सुशील भी कर रहे हैं।

अब हमने मोटे तौर पर क्रिप्टोकरंसी के काम करने के मुख्य विचारों को प्रस्तुत कर दिया है। कमोबेश बिटकॉइन और अन्य क्रिप्टोकरंसियां भी कुछ इसी तरह काम करती हैं।

बिटकॉइन में सारा धन अंतत: ब्लॉक रिवार्ड्स से आता है और हर चार वर्ष में ब्लॉक रिवॉर्ड को आधा कर दिया जाता है। शुरुआत में, यानी 2009 से 2012 के बीच यह रिवॉर्ड 50 बीटीसी प्रति ब्लॉक था और आज यह 6.25 बीटीसी प्रति ब्लॉक है। हर चार वर्षों में, लगभग 2,01,000 बिटकॉइन ब्लॉक्स को माइन किया जाता है क्योंकि समय के साथ इनाम तेज़ी से कम हो जाता है जिसके आधार पर यह कहा जा सकता है कि कभी भी बिटकॉइन की संख्या 21 मिलियन (2 करोड़ 10 लाख) से अधिक नहीं होगी।    

हालांकि, इसका मतलब यह नहीं है कि माइनर्स अंतत: पैसा कमाना बंद कर देंगे। जिनके लेनदेन अभी भी ब्लॉक में हैं उनसे माइनर्स अभी भी लेनदेन शुल्क के माध्यम से स्वेच्छा से पैसा कमा सकते हैं। लोगों द्वारा लेनदेन शुल्क का भुगतान भी इसलिए किया जाएगा ताकि माइनर्स उनका लेनदेन एकदम अगले ब्लॉक में शामिल करें।

बिटकॉइन में, प्रत्येक ब्लॉक में केवल 2400 लेनदेन ही हो सकते हैं जो लेनदेन की प्रक्रिया को काफी धीमा कर सकते हैं। तुलना के लिए देखें कि VISA और Rupay प्रति सेकंड 20,000 से अधिक लेनदेन को संभाल सकते हैं। ऐसे में लेनदेन शुल्क माइनर्स को बढ़ावा देता है कि वे आपके लेनदेन को अगले ही ब्लॉक में जोड़ें, बजाय इसके कि उसे 5-6 ब्लॉक के बाद आप खुद निशुल्क जोड़ दें।

निष्कर्ष

हमारे समक्ष क्रिप्टोकरंसी के काम करने की प्रणाली को समझने का एक मोटा-मोटा मॉडल तैयार है। हालांकि, अभी भी कई ऐसे सवाल होंगे जिनका उत्तर नहीं दिया गया है। लोग इन मुद्राओं में निवेश क्यों करते हैं। यह दुनियाभर में भुगतान करने का प्रचलित तरीका क्यों नहीं है? कई सरकारें अपने देश में इन मुद्राओं को वैध मुद्रा बनाने के विचार के खिलाफ क्यों हैं? क्रिप्टोकरंसियों के साथ ऐसी क्या समस्याएं हैं जिनका प्रणाली के पास कोई जवाब नहीं है? इसकी अस्पष्ट प्रकृति के कारण कर चोरी, अवैध खरीद-फरोख्त और आतंकी फंडिंग के प्रयोजनों के लिए क्रिप्टोकरंसी के दुरुपयोग की संभावना से कैसे निपटा जा सकता है? क्या सरकारें क्रिप्टोग्राफी और ब्लॉक चेन तकनीक को लागू करके केंद्रीकृत पारंपरिक बैंकिंग प्रणाली को मज़बूत कर सकती हैं? लेख के अगले भाग में ऐसे ही कुछ मुद्दों पर चर्चा की जाएगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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