अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन (आईएसएस) की स्थापना आज से दो दशक पूर्व की गई थी। एक एस्ट्रोनॉट और दो कॉस्मोनॉट के साथ यह मनुष्यों के लंबे समय तक अंतरिक्ष में रहने और पृथ्वी की परिक्रमा करते हुए वैज्ञानिक प्रयोग करने की शुरुआत थी।
हालांकि शुरुआत में इस परियोजना को व्यर्थ
समझा गया था लेकिन आईएसएस में किए गए अध्ययनों से मनुष्य सहित विभिन्न जीवों पर
अंतरिक्ष उड़ान के प्रभावों तथा अंतरिक्ष में विभिन्न पदार्थों के व्यवहार के बारे
में काफी जानकारी प्राप्त हुई है। इन दो दशकों में अंतरिक्ष यात्रियों ने यहां
लगभग 3000 प्रयोगों को अंजाम दिया है। ये प्रयोग मुख्य रूप से मूलभूत भौतिकी, पृथ्वी
पर्यवेक्षण और बायोमेडिकल क्षेत्रों से जुड़े रहे हैं।
आईएसएस में शून्य गुरुत्व के माहौल में
तैरते हुए नासा की जीव विज्ञानी अंतरिक्ष यात्री केट रुबिंस ने संवाददाताओं को
बताया कि वर्तमान में आईएसएस अधुनातन अनुसंधान उपकरणों से लैस है। कॉन्फोकल
माइक्रोस्कोप से लैस यह स्टेशन किसी विश्वस्तरीय विश्वविद्यालय से कम नहीं है। हाल
ही में रुबिंस ने स्टेशन पर पौधा विकास चैम्बर पर काम किया है। इसके अलावा
माइक्रोग्रैविटी में तरल बूंदों के सतह के साथ संपर्क की प्रक्रिया पर भी अध्ययन
किए हैं।
गौरतलब है कि स्टेशन पर किए जाने वाले
अधिकांश प्रयोगों का उद्देश्य यह जानना रहा है कि विभिन्न क्रियाएं (जैसे
ज्वाला-दहन और कोशिकाओं के विकास की प्रक्रिया) माइक्रोग्रैविटी में कैसे काम करती
हैं। इसके बाद यह प्रयास किया जाता है कि इन प्रयोगों से प्राप्त परिणामों को
पृथ्वी पर नई तकनीकों या दवाइयों के विकास पर लागू किया जाए।
नासा की पूर्व मुख्य वैज्ञानिक एलेन
स्टोफान के अनुसार लोगों को अंदाज़ नहीं है कि आईएसएस में मानव स्वास्थ्य पर भी
काफी प्रयोग किए गए हैं। जैसे, वैज्ञानिकों ने एस्ट्रोनॉट्स के स्वास्थ्य
(मांसपेशियों की क्षति और विकिरण के प्रभाव)। आगे चलकर ये अध्ययन कई अन्य विषयों
में भी फैलते गए। एक प्रयोग में प्रतिरक्षा तंत्र की टी-कोशिकाओं पर गुरुत्वाकर्षण
के प्रभाव पर अध्ययन किया गया। कक्षा में चक्कर काट रहे एस्ट्रोनॉट्स के कमज़ोर
प्रतिरक्षा तंत्र के कारण के बारे में पता कर वैज्ञानिकों को पृथ्वी पर बेहतर
दवाइयां विकसित करने में मदद मिल सकी।
आईएसएस यूएस, रूस, कनाडा, जापान और 11 युरोपीय देशों की भागीदारी से चलाया जा रहा है। पहले इस स्टेशन को वर्ष 2024 तक जारी रखने की योजना थी लेकिन अब 2028 तक जारी रखने के प्रयास किए जा रहे हैं।(स्रोत फीचर्स) नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://upload.wikimedia.org/wikipedia/commons/0/04/International_Space_Station_after_undocking_of_STS-132.jpg
इन दिनों खगोलविद दूरस्थ सौर मंडल की खोजबीन के लिए ‘शिफ्टिंग और स्टैकिंग’ तकनीक का पुनरीक्षण कर रहे
हैं। शोधकर्ताओं का मानना है कि इसकी मदद से प्लूटो की कक्षा से परे के सौर मंडल
को भी देखा जा सकता है।
इस तकनीक में अंतरिक्ष दूरबीन को संभावित
कक्षा के मार्गों पर धीरे-धीरे सरकाया (शिफ्ट किया) जाता है और इस तरह प्राप्त
तस्वीरों की एक के ऊपर थप्पी (स्टैक) जमाई जाती है ताकि उनकी रोशनी को एक छवि में
संकलित किया जा सके। इस तकनीक का उपयोग पहले भी हमारे सौर मंडल के ग्रहों के
चंद्रमाओं की खोज करने के लिए किया जा चुका है। शोधकर्ताओं को उम्मीद है कि इस
तकनीक की मदद से प्लैनेट-9 यानी नौंवे ग्रह और अन्य दूरस्थ वस्तुओं को देखा जा
सकेगा।
येल युनिवर्सिटी में खगोल शास्त्र की
पीएचडी छात्र और इस अध्ययन की प्रमुख मैलेना राइस इस तकनीक को काफी महत्वपूर्ण
मानती हैं। राइस और उनके सहयोगी ग्रेग लाफलिन ने नासा के ट्रांज़िटिंग एक्सोप्लेनेट
सर्वे सैटेलाइट (टीईएसएस) द्वारा ली गई छवियों को स्टैक किया है। गौरतलब है कि
टीईएसएस का उपयोग पृथ्वी की कक्षा से बाह्र दुनिया का पता लगाने के लिए किया जाता
है।
एक परीक्षण में शोधकर्ताओं ने तीन अज्ञात
नेप्च्यून-पार पिंडों के कमज़ोर संकेत शिफ्टेड और स्टैक्ड छवियों में देखे। ये पिंड
नेपच्यून की कक्षा से परे सूर्य का चक्कर लगा रहे थे। इसके बाद वैज्ञानिकों ने
आकाश की दो दूरस्थ पट्टियों की बेतरतीब खोज की। इस दौरान उन्होंने 17 नए
नेप्च्यून-पार उम्मीदवार खोज निकाले।
राइस के अनुसार इन 17 में से एक पिंड भी
वास्तविक हुआ तो हमें बाह्य सौर मंडल की गतिशीलता और नौंवे ग्रह के संभावित गुणों
को समझने में मदद मिल सकती है। वर्तमान में शोधकर्ता धरती स्थित दूरबीन से प्राप्त
छवियों का उपयोग करके इन 17 पिंडों की पुष्टि करने का प्रयत्न कर रहे हैं।
शोधकर्ताओं ने नेप्च्यून-पार पिंडों की विचित्र कक्षाओं से बाहरी सौर मंडल का
अनुमान लगाया है। उनका निष्कर्ष है कि उस स्थान पर ढेर सारे छोटे-छोटे पिंड हैं और
ये इस तरह झुंडों में व्यवस्थित है कि लगता है कि वहां कोई बड़ा पिंड स्थित है
जिसकी वजह से यह स्थिति बनी है। यह पिंड पृथ्वी से 5-10 गुना बड़ा है और पृथ्वी की
तुलना में सूर्य से सैकड़ों गुना दूर है। वैसे अन्य खगोल शास्त्रियों को लगता है कि
यही प्रभाव छोटे-छोटे पिंडों के मिले-जुले असर से भी हो सकता है।
इस अध्ययन को दी प्लैनेटरी साइंस जर्नल ने स्वीकार कर लिया है। राइस ने अपने निष्कर्ष अमेरिकन एस्ट्रोनॉमिकल सोसाइटी डिवीज़न फॉर प्लैनेटरी साइंसेज़ की ऑनलाइन आयोजित वार्षिक बैठक में प्रस्तुत किया है।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://img.particlenews.com/img/id/0v5u7i_0XSXrB7j00?type=webp_1024x576
वर्ष
2020 में
विज्ञान की तीनों विधाओं – चिकित्सा
विज्ञान, भौतिकी और रसायन
शास्त्र – में
युगांतरकारी अनुसंधानों के लिए आठ वैज्ञानिकों को सम्मानित किया गया है। उल्लेखनीय
बात यह है कि रसायन विज्ञान के दीर्घ इतिहास में पहली बार यह सम्मान पूरी तरह महिलाओं
की झोली में गया है और भौतिकी में भी एक महिला सम्मानित की गई है।
चिकित्सा
विज्ञान
चिकित्सा
विज्ञान का नोबेल पुरस्कार हेपेटाइटिस सी वायरस की खोज के लिए अमेरिकी वैज्ञानिकों
हार्वे जे. आल्टर, चार्ल्स एम. राइस तथा ब्रिटिश वैज्ञानिक माइकल हाटन को
संयुक्त रूप से दिया गया है। इनके अनुसंधान की बदौलत इस रोग की चिकित्सा संभव हुई
है। इन शोधार्थियों को इस महत्वपूर्ण योगदान के लिए यह सम्मान करीब चार दशक बाद
मिला है; इस शोधकार्य से
भविष्य में लाखों लोगों को नया जीवन मिलेगा।
हेपेटाइटिस
ए और हेपेटाइटिस बी वायरसों का पता 1960 के मध्य दशक में लग चुका था। हेपेटाइटिस बी वायरस की खोज के
लिए 1976 में
ब्रॉश ब्लमबर्ग को नोबेल पुरस्कार मिला था। हार्वे ने 1972 में रक्ताधान प्राप्त मरीजों पर शोध के
दौरान एक और अनजाने संक्रामक वायरस का पता लगाया। उन्होंने अध्ययन के दौरान पाया
कि मरीज़ रक्ताधान के दौरान बीमार हो जाते थे। उन्होंने आगे चलकर बताया कि संक्रमित
मरीज़ों का ब्लड चिम्पैंज़ी को देने के बाद चिम्पैंजी बीमार हो गए। चार्ल्स राइस ने
शुरुआत में अज्ञात वायरस को ‘गैर-ए, गैर-बी’ नाम दिया।
माइकल
हाटन ने 1989 में
इस वायरस के जेनेटिक अनुक्रम के आधार पर बताया कि यह फ्लेवीवायरस का ही एक प्रकार
है। आगे चलकर इसे हेपेटाइटिस सी वायरस नाम दिया गया। चार्ल्स राइस ने 1997 में चिम्पैंज़ी के
लीवर में जेनेटिक इंजीनिरिंग से तैयार वायरस प्रविष्ट कराया और बताया कि इससे
चिम्पैंज़ी संक्रमित हुआ। इन तीनों वैज्ञानिकों के स्वतंत्र योगदान को एक साथ रखकर
हेपेटाइटिस सी रोग पर विजय मिली है।
विश्व
स्वास्थ्य संगठन के अनुसार विश्व भर में सात करोड़ लोग हेपेटाइटिस सी वायरस से
पीड़ित हैं। लगभग चार लाख लोग हर साल मौत के मुंह में चले जाते हैं। मनुष्य में
लीवर कैंसर का मुख्य कारण हेपेटाइटिस सी वायरस है,
जिसकी वजह से लीवर प्रत्यारोपण की ज़रूरत पड़ती है। एक बात और, हेपेटाइटिस सी से संक्रमित व्यक्ति में
लक्षण देर से प्रकट होते हैं और तब तक मरीज़ लीवर कैंसर की चपेट में आ चुका होता
है। हेपेटाइटिस सी वायरस का टीका अभी तक नहीं बन पाया है क्योंकि यह वायरस बहुत
जल्दी-जल्दी
परिवर्तित हो जाता है।
भौतिक
शास्त्र
इस
साल का भौतिकी का नोबेल पुरस्कार तीन वैज्ञानिकों को संयुक्त रूप से मिला है। ये
हैं – रोजर
पेनरोज़, रिनहर्ड गेनज़ेल और
एंड्रिया गेज। इन्होंने ब्लैक होल के रहस्यों की शानदार व्याख्या की और हमारी समझ
के विस्तार में असाधारण योगदान दिया है।
पिछले
वर्ष 10 अप्रैल
को खगोल शास्त्रियों ने ब्लैक होल की एक तस्वीर जारी की थी। यह तस्वीर पूर्व की
वैज्ञानिक धारणाओं से पूरी तरह मेल खाती है। आइंस्टाइन ने पहली बार 1916 में सापेक्षता
सिद्धांत के साथ ब्लैक होल की भविष्यवाणी की थी।
ब्लैक
होल हमेशा ही खगोल शास्त्रियों के लिए कौतूहल का विषय रहा है। पहला ब्लैक होल 1971 में खोजा गया था। 2019 में इवेंट होराइज़न
टेलीस्कोप से ब्लैक होल का चित्र लिया गया था। यह हमसे पांच करोड़ वर्ष दूर एम-87 नामक निहारिका में
स्थित है। ब्लैक होल का गुरूत्वाकर्षण बहुत अधिक होता है,
जिसके खिंचाव से कुछ भी नहीं बच सकता, प्रकाश भी नहीं।
नोबेल
पुरस्कार की घोषणा में बताया गया है कि रोजर पेनरोज़ को ब्लैक होल निर्माण की मौलिक
व्याख्या और नई रोशनी डालने के लिए पुरस्कार की आधी धनराशि दी जाएगी।
वैज्ञानिक
रिनहर्ड गेनज़ेल और एंड्रिया गेज ने 1990 के दशक के आरंभ में आकाशगंगा (मिल्कीवे) के सैजिटेरिस-ए क्षेत्र पर शोधकार्य किया है। उन्होंने
विश्व की सबसे बड़ी दूरबीन का उपयोग कर अध्ययन की नई विधियां विकसित कीं। दोनों
अध्येताओं को आकाशगंगा के केंद्र में ‘अति-भारी सघन पिंड’ की खोज के लिए पुरस्कार दिया जाएगा।
एंड्रिया
गेज आज तक भौतिकी में पुरस्कृत चौथी महिला वैज्ञानिक हैं।
रसायन
विज्ञान
रसायन
विज्ञान का नोबेल पुरस्कार फ्रांस की इमैनुएल शारपेंटिए और अमेरिका की जेनिफर ए. डाउडना को संयुक्त
रूप से दिया जाएगा। इन्होंने जीन संपादन की क्रिस्पर कॉस-9 तकनीक की खोज में अहम योगदान दिया है। यह
सम्मान खोज के लगभग आठ वर्षों बाद मिला है।
इमैनुएल
शारपेंटिए और जेनिफर डाउडना ने क्रिस्पर कॉस-9 जेनेटिक कैंची का विकास किया है। इसे जीन
संपादन का महत्वपूर्ण औज़ार कहा जा सकता है। इसकी सहायता से जीव-जंतुओं, वनस्पतियों और सूक्ष्मजीवों के जीनोम में
बारीकी से बदलाव किया जा सकता है, सर्वथा
नए जीन्स से लैस जीव विकसित किए जा सकते हैं।
जीनोम संपादन सर्वथा नया और रोमांचक विषय है। पिछले साल नवंबर में हांगकांग में आयोजित मानव जीनोम संपादन शिखर सम्मेलन में चीनी वैज्ञानिक ही जियानकुई ने जीन संपादन तकनीक से संपादित मानव भ्रूणों से पैदा हुए दो मादा शिशुओं का दावा कर सभी को अचंभित कर दिया था। जीनोम संपादन ने जीव विज्ञान में नई संभावनाओं का मार्ग प्रशस्त किया है। रोगाणु मुक्त और अधिक पैदावार देने वाली फसलों के बीज तैयार किए जा सकेंगे, आनुवंशिक रोगों की चिकित्सा हो सकेगी, कोविड-19 वायरस का कारगर टीका बनाने में मदद मिलेगी। जीनोम संपादन के ज़रिए ‘स्वस्थ और प्रतिभाशाली’ शिशु पैदा किए जा सकते हैं। और यह विवाद का विषय बन गया है जिसने कई नैतिक सवालों को जन्म दिया है।(स्रोत फीचर्स)
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एक कंपनी – न्यूस्केल – यूएस न्यूक्लियर रेग्यूलेटरी कमीशन (NRC) से परमाणु बिजली घर (रिएक्टर) की एक नई
डिज़ाइन के लिए स्वीकृति प्राप्त करने का प्रयास कर रही है। कंपनी के अनुसार यह
रिएक्टर पारंपरिक विशालकाय रिएक्टर से छोटा,
सुरक्षित और सस्ता
है। लेकिन समीक्षा प्रक्रिया के 4 साल पूरे होने पर इस डिज़ाइन में कई सुरक्षा
सम्बंधी समस्याएं पता चली हैं। डिज़ाइन के बारे में दावा किया गया है कि आपात
स्थिति में यह रिएक्टर, संचालक के हस्तक्षेप के बिना,
अपने आप बंद हो
जाएगा। आलोचकों को इस दावे में खामियां नज़र आई हैं।
युनिवर्सिटी ऑफ विस्कॉन्सिन के न्यूक्लियर
इंजीनियर माइकल कोरेडिनी का कहना है कि ये समस्याएं किसी भी रिएक्टर के बारे में
उठने वाली सामान्य समस्याएं हैं। वहीं युनिवर्सिटी ऑफ ब्रिटिश कोलंबिया के भौतिक
विज्ञानी एम. वी. रामन कहते हैं कि ये समस्याएं दर्शाती हैं कि कंपनी ने अपने
आधुनिक रिएक्टर के सुरक्षित होने का दावा बढ़ा-चढ़ा कर किया था।
न्यूस्केल द्वारा तैयार इस डिज़ाइन में
प्रत्येक रिएक्टर एक स्टील कंटेनमेंट पात्र के अंदर पानी से भरे एक पूल में
स्थापित होता है। पात्र और रिएक्टर के बीच खाली जगह रहती है। जब रिएक्टर का कोर
अत्यधिक गर्म हो जाता है या रिएक्टर में रिसाव होने लगता है तो सुरक्षा वाल्व इस
खाली स्थान में भाप छोड़ने लगता है। भाप की ऊष्मा पूल में भरे पानी को गर्म करती है
और स्वयं ठंडी होकर होकर पानी बन जाती है। एकत्रित पानी वापस कोर में बहने लगता है
जो कोर को सुरक्षित रूप से जलमग्न रखता है। न्यूस्केल को अपने इस डिज़ाइन पर इतना
विश्वास था कि उसने संयंत्र के आसपास 32 किलोमीटर के दायरे को आपातकाल प्रबंधन
क्षेत्र रखे बिना इसे लगाने की अनुमति मांगी थी।
लेकिन NRC की रिएक्टर सुरक्षा सलाहकार समिति (ACRS) ने इस डिज़ाइन में खामी पाई है। दरअसल रिएक्टर को ठंडा रखने के लिए बोरान
युक्त पानी उपयोग किया जाता है जो न्यूट्रॉन को सोख लेता है। लेकिन आपात स्थिति
में केंद्र की ओर जाने वाला संघनित पानी, आसवन क्रिया के कारण, बोरान-विहीन
हो जाता है। बोरान की कमी से रिएक्टर में नाभिकीय अभिक्रिया दोबारा शुरू हो सकती
है जो कोर को पिघला सकती है। न्यूस्केल ने इस खामी के पाए जाने के बाद रिएक्टर के
डिज़ाइन में बदलाव कर कोर की ओर जाने वाले पानी में बोरान की उपस्थिति सुनिश्चित की
है।
ACRS को अन्य खामियां भी दिखी हैं। जैसे, नया स्टीम जनरेटर, जो रिएक्टर पात्र के अंदर स्थित है जिससे विनाशकारी कंपन पैदा होने की आंशका है। इन समस्याओं के बावजूद ACRS नेNRC सुरक्षा मूल्यांकन रिपोर्ट जारी करने और न्यूस्केल डिज़ाइन को प्रमाणित करने की सिफारिश की है। अगले महीने NRC की इस डिजाइन को मंज़ूरी देती हुई सुरक्षा मूल्यांकन रिपोर्ट प्रकाशित करने की योजना है, और साल के अंत तक इसके ‘नियमों’ का मसौदा जारी होने की उम्मीद है।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_large/public/NID_NuScaleNuclear_online.jpg?itok=ftKqJLyE
23 अप्रैल 2019 की रात करीब नौ बजे कोस्टा रिका के आसमान में
नारंगी-हरी रोशनी फूटी। कैंपोस मुनोज़ ने देखा कि उनके घर की छत की नालीदार जस्ते
की चादर में अंगूर के बराबर छेद हो गया था, एक
प्लास्टिक मेज़ टूट-फूट गई थी और फर्श पर कोयले जैसे काले रंग के कुछ टुकड़े बिखरे
पड़े थे। वास्तव में उस रात वॉशिंग मशीन के बराबर का एक उल्का पिंड कोस्टा रिका के
ऊपर टूटकर बिखरा था।
वैसे तो हर साल पृथ्वी पर हज़ारों उल्का
पिंड टूटकर बिखरते हैं। लेकिन ऐसे उल्का पिंड बहुत थोड़े से हैं, जिन्हें गिरते हुए देखा गया और जिनका नाम उनके गिरने की जगह
पर रखा गया हो। इस तरह के सिर्फ 1196 उल्का पिंड दर्ज हुए हैं। लेकिन यह उल्का
पिंड, जिसके टुकड़ों को एगुआस ज़र्कास नाम दिया गया
है, कुछ अलग ही था। चट्टानों के मान से तो वह
लगभग जीवित कहा जाएगा।
एगुआस ज़र्कास एक कार्बोनेशियस कॉन्ड्राइट
है जो प्रारंभिक सौर मंडल का अवशेष है। अपने नाम के मुताबिक यह उल्का कार्बन में
समृद्ध है। ना सिर्फ अजैविक कार्बन बल्कि अमीनो एसिड जैसे जटिल जैविक अणु भी इसमें
मौजूद है जो प्रोटीन निर्माण की इकाइयां होते हैं। इनसे पता लगाने में मदद मिलती
है कि अंतरिक्ष में रासायनिक अभिक्रियाओं ने कैसे जीवन के शुरुआती रूप को जन्म
दिया।
एगुआस ज़र्कास एक प्रसिद्ध कार्बोनेशियस
कॉन्ड्राइट मर्चिसन की तरह दिखता है जो 1969 में ऑस्ट्रेलिया के मर्चिसन में गिरा
था। मर्चिसन में वैज्ञानिक अब तक लगभग 100 अलग-अलग अमीनो एसिड की पहचान कर चुके
हैं जिनमें से कई पृथ्वी के जीवों के अमीनो एसिड से मेल खाते हैं लेकिन कई अमीनो
एसिड ज्ञात जीवन के अमीनो एसिड से भिन्न हैं। और तो और, मर्चिसन
में न्यूक्लियो-क्षार भी मिले थे जो डीएनए जैसे जेनेटिक अणुओं की इकाइयां हैं।
एगुआस ज़र्कास के टुकड़े मर्चिसन से 50 साल
बाद के हैं, जिससे वैज्ञानिकों को इसे संरक्षित करने और
पड़ताल करने के लिए आधुनिक तकनीकें इस्तेमाल करने में आसानी होगी। इस उल्का से उन
कार्बनिक यौगिकों की भी पड़ताल की जा सकती है जो मर्चिसन उल्का से वाष्पित हो चुके
हैं। इसके अलावा इनमें ना केवल अमीनो एसिड और शर्करा बल्कि प्रोटीन की भी पड़ताल की
जा सकती है, जिनकी अब तक किसी भी उल्का पिंड में पुष्टि
नहीं हुई है।
यह उल्का जानकारियां हासिल करने की दृष्टि से जितनी महत्वपूर्ण है, इसे पाने के लिए इसके सौदागरों में उतनी ही अधिक होड़ थी। दरअसल अलग-अलग देशों में उल्का के लिए अलग-अलग कानून हैं। जैसे डेनमार्क में इन्हें जीवाश्म की तरह माना जाता है जिस पर सरकार का अधिकार होता है। ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, चिली, फ्रांस, न्यूज़ीलैंड और मेक्सिको में इन्हें सांस्कृतिक खजाने के रूप में देखा जाता है जिसे बिना इजाज़त बाहर नहीं ले जाया जा सकता। लेकिन कोस्टा रिका, यूएस सहित कई जगहों पर उल्का आसानी से खरीदे-बेचे जा सकते हैं और अन्य जगहों पर भेजे जा सकते हैं। इसलिए जिन लोगों के घर पर ये गिरे या जिन्होंने इन्हें इकट्ठा किया उन्होंने इसके टुकड़े 50-100 डॉलर प्रति ग्राम (सोने की कीमत से भी अधिक) पर बेचे। इस तरह के रवैये पर डायरेक्टरेट ऑफ जियोलॉजी एंड माइन्स की इलियाना बॉशिनी लोपेज़ को लगता है कि कोस्टा रिका को जल्द ही इस तरह के व्यापार पर रोक लगानी चाहिए और अंतरिक्ष से गिरने वाले चीज़ों के सम्बंध में कानून बनाना चाहिए।(स्रोत फीचर्स)
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चुभने वाली चीज़ें प्रकृति में कई भूमिकाएं अदा करती हैं।
कैक्टस व अन्य पौधों के कांटे उन्हें सुरक्षा प्रदान करते हैं, मच्छर
की सूंड उसे खून पीने में मदद करती है, साही का कंटीला आवरण उसे बचाता है। ये सभी
सीधी रचनाएं हैं जो एक सिरे पर नुकीली होती हैं। भौतिकविदों के लिए इनकी रचना में
समानताएं कौतूहल का विषय रही हैं।
वैज्ञानिकों ने पहली समानता तो यह देखी कि
चाहे वह नैनोमीटर की साइज़ के बैक्टीरियाभक्षी वायरस के तंतु हों या आर्कटिक सागर
में पाई जाने वाली नारव्हेल की 2-3 मीटर लंबी सूंड हो,
सभी लंबूतरे, पतले
शंकु होते हैं जिनके आधार का व्यास उनकी कुल लंबाई की तुलना में बहुत कम होता है।
किसी भी चुभने वाली चीज़ का आकार दो परस्पर
विरोधी बाधाओं से निर्धारित होता है। पहली,
लक्ष्य को बेधने के
लिए उसे इतना बल लगाना पड़ेगा जो लक्ष्य द्वारा उत्पन्न घर्षण के दबाव को पार कर
सके। और दूसरी, यह बल इतना भी नहीं हो सकता कि बेधक रचना टूट जाए या मुड़
जाए।
वैसे तो इन दो सीमाओं को साधने के लिए कई
आकृतियां – पतली और लंबी से लेकर चौड़ी और छोटी – उपयोगी हो सकती हैं लेकिन प्रकृति
ने जिस आकृति को सामान्य रूप से अपनाया है उसमें आधार के व्यास और लंबाई का अनुपात
लगभग 0.06 होता है। यानी यदि चुभने वाली रचना की लंबाई 5 से.मी. है तो उसके आधार
का व्यास लगभग 0.3 से.मी. होगा।
डेनमार्क के तकनीकी विश्वविद्यालय के भौतिक
शास्त्री कारे जेंसन का कहना है कि प्रकृति में आम तौर पर इस आकृति का चयन होने का
कारण है कि प्रकृति ‘किफायत’ से काम करती है। यह सही है कि मोटे बेधक ज़्यादा टिकाऊ
होंगे लेकिन उनमें कुल पदार्थ भी तो ज़्यादा लगेगा,
जो सम्बंधित जीव को
ही भरना पड़ेगा। इसलिए जैव विकास ऐसी रचना को वरीयता देगा जो लक्ष्य को बेधने के
लिए बस पर्याप्त मज़बूत हो। नेचर फिज़िक्स में प्रकाशित शोध पत्र में जेंसन
की टीम ने डिज़ाइन के इस सिद्धांत की मदद से बेधने वाली चीज़ों की आकृतियों का सटीक
पूर्वानुमान प्रस्तुत किया है।
जेंसन की टीम ने ठोस शंक्वाकार बेधक चीज़ों
के लिए एक सैद्धांतिक मॉडल विकसित किया। उनकी गणनाओं से पता चला कि आधार का यथेष्ट
व्यास मात्र तीन बातों पर निर्भर करता है – बेधक की लंबाई,
उसके पदार्थ की
कठोरता और लक्षित ऊतक द्वारा उत्पन्न घर्षण का दबाव। उन्होंने यह भी पाया कि
पदार्थ की कठोरता और घर्षण का दबाव ज़्यादा असर नहीं डालता। उनके अनुसार मुख्य बात
आधार के व्यास और लंबाई के अनुपात की है।
पहले प्रकाशित एक मॉडल में कहा गया था कि
आधार का व्यास लंबाई की तुलना में 2/3 के अनुपात में बदलता है। यानी यदि लंबाई
दुगनी हो तो व्यास में 59 प्रतिशत की वृद्धि होगी। जेंसन की समीकरण दर्शाती है कि
इन दो के बीच सम्बंध समानुपात का है – लंबाई दुगनी होगी तो व्यास भी दुगना हो
जाएगा।
अपनी समीकरण को परखने के लिए जेंसन और उनके साथियों ने सजीवों में उपस्थित 140 बेधक अंगों, कांटों वगैरह का अध्ययन किया। इनमें कशेरुकी-अकशेरुकी, जलचर-थलचर, पौधे, शैवाल और वायरस शामिल थे। इन सभी में बेधक समीकरण से मेल खाते पाए गए। इनके अलावा मानव निर्मित सुइयां, कीलें, तीर वगैरह भी इस समीकरण पर खरे उतरे। तो लगता है समीकरण सही है। वैसे अभी इसमें कई अन्य बातों को जोड़ना शेष है – जैसे कई ऐसी रचनाएं खोखली होती हैं, कई इस तरह बनी होती हैं कि बेधते समय वे मुड़ें, या घुमावदार होती हैं वगैरह। इस प्रकार के विश्लेषण के कई वास्तविक अनुप्रयोग हो सकते हैं।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://static.scientificamerican.com/sciam/cache/file/DFD9D551-6694-4889-A6F04A2FB4D7F376_source.jpg?w=590&h=800&68625947-A1CC-40CD-964556A3FD8E4B79
हाल
ही में युरोपियन सदर्न ऑब्ज़र्वेटरी की विशालकाय दूरबीन की सहायता से सूर्य के समान
एक दूरस्थ तारे की परिक्रमा करते 2 ग्रहों को देखा गया।
पृथ्वी
से लगभग 300 प्रकाश वर्ष दूर यह तारा, TYC 8998-760-1,
दिखने में तो हमारे सूर्य के समान है लेकिन यह सूर्य से
लगभग साढ़े चार अरब वर्ष बाद पैदा हुआ था। मई में अध्ययन के दौरान खगोलविदों की टीम
ने पाया कि गैस का बना एक विशाल ग्रह इस तारे की परिक्रमा कर रहा है। उसूलन इसे TYC 8998-760-1बी नाम दिया गया। इसके सिर्फ 2 महीने बाद इसी टीम ने उसी तारे की परिक्रमा करते हुए एक और
ग्रह का पता लगाया जिसे TYC8998-760-1सी का नाम दिया गया।
यह ग्रह TYC8998-760-1 से और भी अधिक दूर
पाया गया।
इस खोज को एस्ट्रोफिज़िकल जर्नल लेटर्स में प्रकाशित किया गया है। क्योंकि पहली बार हमारे सूर्य के समान एक बहुग्रही सिस्टम को प्रत्यक्ष रूप से देखा गया है, इस खोज को ग्रह अध्ययन के लिए काफी महत्वपूर्ण माना जा रहा है। केयू लेवेन, बेल्जियम की खगोलविद और इस अध्ययन की सह-लेखक मैडलिना रेजियानी और उनकी टीम गैस के बने इन दो विशाल ग्रहों की तस्वीर लेने में कामयाब रही है।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://i.ytimg.com/vi/Na4fVpZt5Jo/sddefault.jpg#404_is_fine
जब 2014 में संयुक्त अरब
अमीरात ने यह घोषणा की थी कि वह दिसंबर 2021 में देश के 50वें स्थापना दिवस के मौके पर मंगल ग्रह पर
अपना मिशन भेजेगा, तो खगोलीय बाधाओं को
देखते हुए यह एक मुश्किल बात लग रही थी। उस समय, अमीरात
के पास कोई अंतरिक्ष एजेंसी नहीं थी और ना ही खगोल वैज्ञानिक थे। उसने तब अपना
सिर्फ एक उपग्रह प्रक्षेपित किया था। युवा इंजीनियरों की तेज़ी से बनती टीम को
अक्सर एक ही बात सुनने को मिलती थी कि यह तो चिल्लर पार्टी है,
मंगल तक कैसे पहुंचेगी?
अब
छह साल बाद कंप्यूटर विज्ञानी सारा अल अमीरी के नेतृत्व में अल-अमल (यानी उम्मीद) ऑर्बाइटर जापान के
तानेगाशिमा स्पेस सेंटर से 19 जुलाई को प्रक्षेपित हो गया है। सात महीनों का सफर तय कर
फरवरी 2021 में
यह मंगल ग्रह की कक्षा में प्रवेश करेगा।
सारा
के अनुसार यह सफर आसान नहीं था। अमीरात सिर्फ 14 सालों से अंतरिक्ष कार्यक्रमों पर काम कर
रहा था और उसका काम पृथ्वी के उपग्रह बनाने और प्रक्षेपित करने तक सीमित था। अन्य
ग्रह पर भेजा जाने वाला अंतरिक्ष यान तैयार करना उसके लिए नया था। ‘इसलिए हम एकदम शून्य
से शुरू करने की बजाए दूसरों से सीख कर आगे बढ़े। मिशन को पूरा करने में हमें
युनिवर्सिटी ऑफ कोलोरेडो, एरिज़ोना स्टेट
युनिवर्सिटी और युनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया टीम की मदद मिली। अल-अमल के साथ संपर्क
बनाए रखने में नासा का डीप स्पेस नेटवर्क मदद करेगा।’
अल-अमल ऑर्बाइटर मंगल
ग्रह के मौसम उपग्रह की तरह काम करेगा, जो
मंगल का पहला मौसम उपग्रह होगा। यह मंगल के निचले वायुमंडल के बारे में जानकारी
इकट्ठी करेगा, जिससे यह समझने में
मदद मिलेगी कि पूरे साल के दौरान मंगल पर मौसम कैसे बदलते हैं। इसकी मदद से मंगल
ग्रह पर चलने वाली धूल की आंधियों के बारे में समझने में भी मदद मिलेगी,
जो मंगल ग्रह को पूरी तरह ढंक देती हैं।
मंगल
के वायुमंडल की पड़ताल के लिए अल-अमल ऑर्बाइटर में तीन तरह के उपकरण हैं। दो उपकरण इंफ्रारेड
और अल्ट्रावायलेट प्रकाश में वायुमंडल की पड़ताल करेंगे और एक इमेजर मंगल की रंगीन
तस्वीरें लेगा।
अल-अमल का पथ दीर्घवृत्ताकार होगा। इस पर घूमते हुए वह हर 55 घंटे में सतह के करीब होगा। इससे वह एक ही जगह का अवलोकन विभिन्न समय पर कर सकेगा। बहरहाल अल-अमल के मंगल पर सुरक्षित पहुंचकर डैटा भेजने का इंतज़ार है।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://media.wired.com/photos/5efe13e0f435e6f478b28aa9/125:94/w_2124,h_1597,c_limit/Science_EMM-Hope-tvac-0210.jpg
सौरमंडल में मंगल
ही इकलौता ऐसा ग्रह है जो पृथ्वी से कई समानताएं दर्शाता है। भविष्य में पृथ्वी से
बाहर मानव कॉलोनी बसाने के लिए यही ग्रह सबसे उपयुक्त नज़र आता है। इसके बारे में जानकारी
में वृद्धि के साथ वैज्ञानिकों और आम लोगों में इसके प्रति रुचि बढ़ी है।
लेकिन अभी भी इससे
जुड़े कई अहम सवालों के जवाब मिलने बाकी हैं। जैसे, क्या कभी मंगल पर जीवन था, और अगर था तो किस रूप में था? क्या मंगल पर कभी पृथ्वी की तरह नदियां और सागर हिलोरे लेते
थे? एक लंबे अरसे से इस आखरी सवाल
का वैज्ञानिकों का जवाब ‘हां’
रहा है। और अब नेचर कम्यूनिकेशन में प्रकाशित शोध
पत्र के मुताबिक वैज्ञानिकों की एक अंतर्राष्ट्रीय टीम को मंगल ग्रह पर एक अरब साल
पहले नदियों की मौजूदगी के नए और पुख्ता संकेत मिले हैं।
वैज्ञानिकों ने नासा
की दूरबीन से प्राप्त तस्वीरों का विश्लेषण कर यह निष्कर्ष निकाला है। वैज्ञानिकों
ने तस्वीरों की सहायता से मंगल ग्रह के हेलास बेसिन नामक एक बहुत बड़े गड्ढे का एक 3-डी स्थलाकृति नक्शा बनाया। वैज्ञानिकों को एक पथरीले
पहाड़ की चोटी के पास गहरी तलछट जमा मिली है जो तकरीबन 200 मीटर ऊंची है। यह तलछट तेज़ बहती नदी की वजह से जमा हुई होगी।
इसकी चौड़ाई करीब डेढ़ किलोमीटर है। वैज्ञानिकों का कहना है कि हम फिलहाल वहां जाकर विस्तृत
जानकारी नहीं ले सकते मगर पृथ्वी की तलछटी चट्टानों (सेडीमेंटरी रॉक्स) से समानता के
चलते संदेह की कोई गुंजाइश नहीं है। इतने ऊंचे तलछटी निक्षेप बनने के लिए ज़रूरी है
कि वहां बड़ी मात्रा में तरल पानी बहता रहा हो।
इस शोध पत्र के प्रमुख
लेखक फ्रांसेस्को सेलेस का कहना है कि “यह वर्षों से पता है कि मंगल ग्रह पर अरबों वर्ष पहले बहुत-सी झीलें, नदियां और संभवत: महासागर भी रहे होंगे जो जीवन
के शुरुआती स्तर के अनुकूल रहे होंगे। आज मंगल के ध्रुवों पर बर्फ जमा है और उसमें
बहुत ज़्यादा धूल के तूफान आते हैं। लेकिन वहां की सतह पर तरल पानी की मौजूदगी के कोई
संकेत नहीं हैं। मगर 3.7 अरब साल पहले हालात
इतने विषम नहीं थे और हो सकता है कि तब वहां जीवन के अनुकूल परिस्थितियां मौजूद रही
हों। पृथ्वी पर तलछटी चट्टानों के अध्ययन से हम लाखों-अरबों साल पहले की स्थितियों
के बारे में जानने में सफल हुए हैं। अब हम मंगल ग्रह का अध्ययन कर पा रहे हैं जहां
पृथ्वी से भी पहले के समय की तलछटी चट्टानें पाई गई हैं।”
वैज्ञानिकों ने यह
भी पाया है कि इन तेज़ बहती नदियों ने इन चट्टानों को हजारों-लाखों साल पहले बनाया होगा।
इन चट्टानों में सूक्ष्मजीवी जीवन के प्रमाण हो सकते हैं और मंगल ग्रह के इतिहास के
बारे में बहुत-सी जानकारी हासिल हो सकती है।
बहरहाल, मंगल की खोजबीन निरंतर जारी है। नासा का इनसाइट लैंडर मंगल पर सफलतापूर्वक उतर चुका है और मंगल की भूगर्भीय बनावट का अध्ययन कर रहा है। वहीं क्यूरियोसिटी रोवर छह साल से अधिक समय से गेल क्रेटर की खोजबीन कर रहा है। और नासा का भावी मार्स 2020 रोवर और युरोपियन स्पेस एजेंसी का एक्समर्स रोवर, दोनों लॉन्च होने के बाद ऐसे रोवर मिशन बन जाएंगे, जिन्हें मुख्य रूप से लाल ग्रह पर अतीत के सूक्ष्मजीवी जीवन और नदियों, सागरों की मौजूदगी के संकेतों की तलाश के लिए बनाया जाएगा। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://images.newscientist.com/wp-content/uploads/2019/03/27153622/osuga-valles.jpg?width=778
अल्बर्ट
आइंस्टाइन के सामान्य सापेक्षता सिद्धांत ने एक और परीक्षा उत्तीर्ण कर ली है।
शोधकर्ता लगभग 3 दशकों
से आकाशगंगा के बीच स्थित विशालकाय ब्लैक होल (Sagittarius
A*) के
सबसे निकटतम ज्ञात तारे की कक्षा का अध्ययन कर रहे थे। उन्होंने इस तारे की कक्षा
में मामूली से परिवर्तन का पता लगाया है और यह परिवर्तन पूरी तरह आइंस्टाइन के
सिद्धांत से मेल खाता है।
एस2 नाम का यह तारा 16 वर्ष में अपनी
दीर्घवृत्ताकार कक्षा का एक चक्कर पूरा करता है। यह पिछले वर्ष ब्लैक होल के सबसे
नज़दीक, 20 अरब किलोमीटर की दूरी,
से गुज़रा था। यदि ऐसे में न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण सिद्धांत
को माना जाए तो इसे अपनी कक्षा में पहले जैसे कायम रहना था लेकिन ऐसा हुआ नहीं।
बल्कि इसके पथ में मामूली सा परिवर्तन देखने को मिला। टीम ने यह अध्ययन युरोपियन
सदर्न ऑब्ज़र्वेटरी के एक विशाल टेलिस्कोप की मदद से किया है। इसकी रिपोर्ट को एस्ट्रोनॉमी
एंड एस्ट्रोफिज़िक्स में प्रकाशित किया है। इस घटना को श्वार्ज़स्चाइल्ड
पुरस्सरण का नाम दिया है। सामान्य सापेक्षता की भविष्यवाणी के अनुसार आने वाले समय
में यह अंतरिक्ष में स्पाइरोग्राफ नुमा फूल का पैटर्न अपनाएगा।
शोधकर्ताओं का मानना है कि एस2 की विस्तृत ट्रैकिंग की मदद से सापेक्षता के कई अन्य परीक्षण करने में मदद मिलेगी। इसकी सहायता से ब्लैक होल के आसपास उपस्थित डार्क मैटर और छोटे ब्लैक होल सहित अन्य अध्ययन किए जा सकेंगे। इससे यह समझा जा सकेगा कि इस तरह के विशालकाय पिंड कैसे बनते और विकसित होते हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://hips.hearstapps.com/hmg-prod.s3.amazonaws.com/images/041520-ec-einstein-feat-1028×579-1587052498.jpg?crop=0.5632295719844358xw:1xh;center,top&resize=768:*