हाल ही में शनि के बर्फीले उपग्रह एन्सेलेडस के बारे में वैज्ञानिकों ने जीवन की उपस्थिति के संकेत दिए हैं। नेचर एस्ट्रोनॉमी में प्रकाशित एक अभूतपूर्व अध्ययन में एन्सेलेडस पर उपस्थित ऐसे रसायनों की उपस्थित का खुलासा किया गया है जो जीवन के लिए आवश्यक हैं।
गौरतलब है कि बर्फीली परत से घिरे इस उपग्रह की सतह पर उपस्थित दरारों से पानी के फव्वारे छूटते रहते हैं। इसलिए लंबे समय से यह वैज्ञानिक आकर्षण का केंद्र रहा है। उपग्रह का अध्ययन करने के लिए भेजे गए अंतरिक्ष यान कैसिनी ने 2000 के दशक के मध्य में इन फव्वारों के पानी में कार्बन डाईऑक्साइड तथा अमोनिया जैसे अणुओं की पहचान की जो पृथ्वी पर जीवन की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं।
इस दिशा में बढ़ते हुए हारवर्ड विश्वविद्यालय और नासा की जेट प्रपल्शन प्रयोगशाला के जोनाह पीटर के नेतृत्व में एक टीम ने कैसिनी के डैटा का गहन विश्लेषण शुरू किया। जटिल सांख्यिकीय तरीकों की मदद से उन्होंने एन्सेलेडस से निकलने वाले फव्वारों के भीतर कार्बन डाईऑक्साइड, मीथेन, अमोनिया और आणविक हाइड्रोजन के अलावा हाइड्रोजन सायनाइड, ईथेन तथा मिथेनॉल जैसे आंशिक रूप से ऑक्सीकृत पदार्थ पाए। और इन सबकी खोज सांख्यिकीय विधियों से हो पाई है। कैसिनी मिशन में शामिल ग्रह वैज्ञानिक मिशेल ब्लैंक ने इस खोज को अभूतपूर्व बताया है और शनि के छोटे उपग्रहों की रासायनिक गतिविधियों का अधिक अध्ययन करने का सुझाव दिया है।
गौरतलब है कि नए खोजे गए यौगिक सूक्ष्मजीवी जीवन के बिल्डिंग ब्लॉक्स और संभावित जीवन की दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण हैं। विशेष रूप से हाइड्रोजन सायनाइड है, जो नाभिकीय क्षारों और अमीनो एसिड का एक महत्वपूर्ण घटक है। शोधकर्ताओं की विशेष रुचि जीवन-क्षम अणुओं के निर्माण की दृष्टि से एन्सेलेडस के पर्यावरण को समझने की है। सिमुलेशन से पता चला है कि जीवन की उत्पत्ति के लिए महत्वपूर्ण कई अणु एन्सेलेडस पर बन सकते थे और आज भी बन रहे होंगे।
इसके अलावा, एन्सेलेडस से निकलते फव्वारों का विविध रासायनिक संघटन ऑक्सीकरण-अवकरण अभिक्रिया की संभावना दर्शाता है जो जीवन के बुनियादी घटकों के संश्लेषण की एक निर्णायक प्रक्रिया है। यह पृथ्वी पर ऑक्सी-श्वसन और प्रकाश संश्लेषण जैसी प्रक्रियाओं को बनाए रखने का काम करती है।
अभी यह स्पष्ट नहीं है कि क्या वास्तव में ऐसा होता होगा, लेकिन इसके निहितार्थ काफी महत्वपूर्ण हैं। बहरहाल यह खोज न केवल एन्सेलेडस के बारे में जिज्ञासा उत्पन्न करती है, बल्कि बृहस्पति ग्रह के चंद्रमा युरोपा जैसे समान समुद्री दुनिया की छानबीन के लिए भी प्रेरित करती है। आगामी युरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी का जूपिटर आइसी मून्स एक्सप्लोरर (जूस) मिशन यही करने जा रहा है।
बड़े अणुओं का अध्ययन करने में सक्षम उपकरणों से लैस वैज्ञानिक एन्सेलेडस की रासायनिक विविधता को उजागर करके देख पाएंगे कि वहां जीवन के योग्य परिस्थितियां हैं या नहीं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://static.scientificamerican.com/sciam/cache/file/FA2383AD-D4A2-4880-BAE62547C460679F_source.png?w=1200
नासा ने हाल में साइकी नामक एक रहस्यमय धातुई क्षुद्रग्रह की जांच के लिए ‘साइकी’ मिशन शुरू किया है। 220 किलोमीटर चौड़े खगोलीय पिंड साइकी के आकार और संरचना काफी समय से वैज्ञानिकों को आकर्षित करती रहे हैं।
चट्टानी क्षुद्रग्रहों के विपरीत, साइकी ‘एम-टाइप’ क्षुद्रग्रह है जिसका घनत्व और परावर्तकता असाधारण हैं। लंबे समय से शोधकर्ताओं का अनुमान रहा है कि साइकी एक बहुत बड़े प्रोटोग्रह की धात्विक कोर है। इस संकल्पना के अनुसार, अरबों साल पहले एक विशाल निर्माणाधीन ग्रह के भीतर गुरुत्वाकर्षण बल और रेडियोधर्मी तत्वों के कारण चट्टानें आंशिक रूप से पिघलकर अलग-अलग परतों में जम गई होंगी। ज़ाहिर है, सबसे भारी धातुएं (लौह-निकल) केंद्र में पहुंची होंगी। आगे चलकर किसी अन्य खगोलीय पिंड के साथ भयंकर टक्कर से बाहरी परतें अलग होकर बिखर गई होंगी और लौह-निकल से समृद्ध कोर उजागर हो गया होगा।
साइकी मिशन का उद्देश्य इस धातुई कोर की बारीकी से जांच करना है, ताकि ग्रहों के कोर की संरचना और इतिहास की जानकारी मिल सके। इस मिशन की सदस्य बिल बोटके के अनुसार पृथ्वी या शुक्र के कोर का अध्ययन करना काफी मुश्किल है, ऐसे में साइकी का अध्ययन एक सुनहरा अवसर है।
उम्मीद है कि 2029 तक अंतरिक्ष यान ‘साइकी’ इस क्षुदग्रह की कक्षा में होगा और वहां दो साल से अधिक समय बिताएगा। इस दौरान वैज्ञानिक पृथ्वी से प्रेषित रेडियो तरंगों में सूक्ष्म बदलाव करते हुए क्षुद्रग्रह के गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र का मानचित्रण करेंगे। इस मानचित्र से यह जानने में मदद मिलेगी कि साइकी एक समान रूप से सघन धातु से बना है या फिर मलबे का ढेर है। यान में उपस्थित मैग्नेटोमीटर प्राचीन तरल धातु के अवशेषों की खोज करेगा, जबकि गामा किरणें और न्यूट्रॉन धातु कोर में निकल की उपस्थिति का पता लगाएंगे। उच्च-विभेदन इमेजिंग बास्केटबॉल कोर्ट जितने छोटे-छोटे इलाकों की छवियां कैप्चर करेंगे।
वैसे पृथ्वी से जुटाई गई दूरबीनी सूचनाओं ने धात्विक-कोर परिकल्पना पर कुछ संदेह पैदा किया है। ताज़ा अनुमान के अनुसार साइकी का घनत्व पूर्वानुमान की तुलना में कम है। इसके अतिरिक्त, इससे टकराकर आने वाला प्रकाश कार्बन-आधारित सामग्री और चट्टानी सिलिकेट खनिजों की उपस्थिति के संकेत देता है, जो खालिस धातुई क्षुद्रग्रह की धारणा को चुनौती देता है। इस डैटा के आधार पर शोधकर्ताओं का अनुमान है कि क्षुद्रग्रह का 30 से 60 प्रतिशत हिस्सा धातु से बना है जो संभवतः एक निर्माणाधीन ग्रह के कोर और मेंटल का मिश्रण है। इसका आकार अरबों वर्षों के दौरान अनेकों टकराव और कार्बनयुक्त धूल से ढंकने के कारण बदल गया है।
इस क्षुद्रग्रह के सम्बंध में एक अनुमान यह भी है कि इसमें एक पतले चट्टानी आवरण के नीचे धात्विक कोर है। चमकदार सतह के धब्बे प्राचीन ‘लौह-ज्वालामुखीय गतिविधियों’ का परिणाम हो सकते हैं, जिसमें सतह पर आयरन सल्फाइड द्रव रिसा होगा। या फिर साइकी प्रारंभिक सौर मंडल के धातु-समृद्ध क्षेत्र में गठित एक परत रहित पिंड भी हो सकता है।
हालांकि साइकी की धातु सामग्री उन दुर्लभ उल्कापिंडों से मिलती-जुलती है, जिन्हें एनस्टैटाइट कॉन्ड्राइट्स कहा जाता है। लेकिन साइकी की परिक्रमा कक्षा से लगता है कि इसकी उत्पत्ति बृहस्पति की कक्षा से बाहर हुई होगी। इस स्थिति में इसके गठन और क्षुद्रग्रह पट्टी तक पहुंचने के बारे में कई सवाल उठते हैं। बहरहाल, नासा साइकी के रहस्यों को उजागर करने के लिए प्रतिबद्ध है। नासा की इस परियोजना से क्षुद्रग्रहों और धूमकेतुओं के बारे में हमारे ज्ञान में काफी वृद्धि होने की संभावना है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.adl3403/files/_20231013_nid_pysche_asteroid.jpg
30 अप्रैल 2020 के दिन नासा ने तीन निजी कंपनियों को 2024 का चंद्र अभियान पूरा करने के लिए 96.7 करोड़ डॉलर का एक संयुक्त ठेका दिया था। नासा के प्रशासक जिम ब्राइंडस्टोन ने दावा किया था कि यह वह अंतिम मोहरा है जिसकी ज़रूरत अमेरिका को चंद्रमा तक पहुंचने के लिए थी। इस बात को मीडिया में तो खूब प्रसारित किया गया था लेकिन इस बात पर बहुत कम चर्चा हुई थी कि अंतरिक्ष अभियानों को लेकर जो मौजूदा कानून/संधियां हैं वे निजी कंपनियों के उपक्रमों पर किस हद तक लागू होते हैं। दरअसल, कॉर्पोरेट जगत द्वारा धरती से बाहर कदम जमाने के चलते आशाओं और चिंताओं दोनों को हवा मिली है। चिंताएं और आशाएं अंतरिक्ष में बढ़ते पूंजीगत निवेश के संभावित लाभों को लेकर हैं।
1967 में राष्ट्र संघ बाह्य अंतरिक्ष संधि (OST) मंज़ूर की गई थी। यह यूएस के तथाकथित ‘नव-अंतरिक्ष’ किरदारों के उदय के संदर्भ में विश्लेषण का एक ढांचा माना गया था। इस लेख का तर्क है कि बाह्य अंतरिक्ष में निजी कंपनियों की मौजूदगी को लेकर कई महत्वपूर्ण कानूनी अस्पष्टताएं हैं। इन खामियों की वजह से ही यूएस सरकार को यह गुंजाइश मिली है कि वह OST के अंतर्गत अपने दायित्वों को दरकिनार कर सके और साथ ही संरचना को परिवर्तित करके अंतरिक्ष की ‘वैश्विक साझा संसाधन’ की धारणा को ठेस पहुंचा सके। OST के अंदर अंतरिक्ष के संसाधनों को लेकर निजी संपदा अधिकारों को लेकर विशिष्ट प्रावधान न होने के कारण यह जोखिम पैदा हो रहा है कि धरती के संसाधनों में जो गैर-बराबरी है वह, और अंतरिक्ष में यूएस का दबदबा दोनों अंतरिक्ष के संसाधनों पर भी लागू हो जाएंगे। इस तरह से, अंतरिक्ष के लाभ एक व्यापक विश्व समुदाय की बजाय मुट्ठी भर धनवान अमेरिकी निवेशकों के हाथों में सिमट जाएंगे।
इसके अलावा, OST में अंतरिक्ष निरीक्षण के नियमन को लेकर जो कमज़ोर प्रावधान हैं, उनके चलते यूएस उपग्रहों के नेटवर्क (global panopticon) को बढ़ावा मिलेगा। दोहरे उपयोग वाली टेक्नॉलॉजी के उभार की वजह से सैन्य और नागरिक अवलोकनों के बीच का अंतर धुंधला पड़ रहा है। इसके चलते यूएस द्वारा अंतरिक्ष-आधारित डैटा संग्रह की प्रकृति को लेकर गंभीर नैतिक चिंताएं पैदा हुई हैं।
और, अंतिम बात कि निजी उपग्रहों की बढ़ती संख्या इस बात की संभावना बढ़ा रही है कि अंतरिक्ष में फैले मलबे के बीच भयानक टक्करें होंगी और भू-राजनैतिक तनाव बढ़ेंगे। इस तरह के विकास की वजह से अंतरिक्ष में ऐसे अपमिश्रण की आशंका भी कई गुना बढ़ गई है, जिसकी कल्पना OST में नहीं की गई थी।
राष्ट्रसंघबाह्यअंतरिक्षसंधिऔरनव–अंतरिक्षकिरदार
हालांकि OST 1967 में अस्तित्व में आई थी, लेकिन संभवत: आज भी यही एक प्रासंगिक उपकरण है जिसके तहत बाह्य अंतरिक्ष में राज्य तथा गैर-राज्य गतिविधियों का विश्लेषण किया जा सके। शीत युद्ध के चरमोत्कर्ष पर अंतरिक्ष के सैन्यकरण तथा राष्ट्रों द्वारा आकाशीय पिंडों पर कब्ज़े, दोनों की रोकथाम के संदर्भ में OST का प्रमुख स्थान है। 100 से ज़्यादा राष्ट्रों ने इसका अनुमोदन किया है – जिनमें यूएस, रूस व चीन जैसे प्रमुख अंतरिक्ष यात्री राष्ट्र शामिल हैं – और इस प्रकार से यह संधि एक अधिकारिक दस्तावेज़ के तौर पर व्यापक रूप से मान्य है और यही बाद में बनने वाली अन्य अंतरिक्ष संधियों का आधार रही है। यह संधि बाद के दस्तावेज़ों से इस मायने में भिन्न है कि कई देश इन पर हस्ताक्षर करने से कतराते रहे हैं। उदाहरण के तौर पर 1972 की चंद्रमा संधि जिसका उद्देश्य चंद्र अभियानों और विकास में सहयोग को बढ़ावा देना है।
बाह्य अंतरिक्ष के क्षेत्र में शामिल हो रहे अमेरिकी किरदारों में बहुत विविधता आई है। हालांकि ये 1950 के दशक से ही नासा के साथ काम करते रहे हैं, लेकिन तब व्यावसायिक उद्यम मूलत: रॉकेटों तथा अंतरिक्ष गतिविधियों से सम्बंधित अन्य पुर्ज़ों का उत्पादन किया करते थे। लेकिन, अपोलो 11 के चांद पर उतरने के बाद से नासा के बजट में कुल मिलाकर तेज़ गिरावट देखी गई और इसके साथ ही सरकारी कार्यों के निजीकरण की प्रवृत्ति भी बढ़ी। इसकी वजह से निजी अंतरिक्ष कंपनियों की क्षमताएं और नज़रिया दोनों बदले हैं।
एक ओर अंतरिक्ष अर्थव्यवस्था में विश्व स्तर पर विस्तार हो रहा है, वहीं 2012 से 2013 के दरम्यान सरकारों का खर्च 1.3 प्रतिशत कम हुआ है और व्यावसायिक क्षेत्र में लगभग 7 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। निजी अंतरिक्ष क्षेत्र में विस्तार का प्रमुख ज़ोर तथाकथित ‘नव-अंतरिक्ष’ किरदारों से आया है। ये मूलत: यूएस स्थित उद्यमी हैं जो 30 से अधिक वर्षों से अंतरिक्ष को व्यावसायिक क्षेत्र बनाने का प्रयास करते आए हैं। अर्थव्यवस्था के उदारवादी नज़रिए से चालित और अंतरिक्ष खोजबीन में नासा की ऐतिहासिक पकड़ के आलोचक ये किरदार स्वयं को ‘अंतिम मोर्चे’ के अग्रणि किरदार कहते आए हैं जो निजी वित्तपोषित अंतरिक्ष अभियानों के ज़रिए मानवता को विलुप्ति से बचाएंगे।
अपोलो अभियानों की मदद से प्राप्त चंद्रमा की चट्टानों के नमूनों में हीलियम-3 जैसे दुर्लभ तत्व हैं जो पृथ्वी पर पारंपरिक नाभिकीय परमाणु बिजली घरों की अपेक्षा ज़्यादा बिजली पैदा कर सकते हैं और इनमें कचरा भी कम पैदा होगा। ऐसे ही संसाधनों ने धरती से परे संसाधनों के खनन के लिए प्रलोभन-प्रोत्साहन प्रदान किया है। इस विचार को और बल मिला जब यह पता चला कि पृथ्वी के नज़दीकी पिंडों (जैसे तथाकथित एंटेरॉस क्षुद्र ग्रह) में शायद पांच खरब डॉलर मूल्य का मैग्नीशियम सिलिकेट और एल्युमिनियम मौजूद है।
अंतरिक्ष-यात्री राष्ट्रों द्वारा अंतरिक्ष के संसाधनों पर कब्ज़ा करने के ऐसे संभावित प्रयासों के मद्देनज़र राष्ट्र संघ OST के अनुच्छेद II में घोषित किया गया था कि: “बाह्य अंतरिक्ष पर राष्ट्रीय संप्रभुता के आधार पर, कब्ज़ा करके, उसका उपयोग करके या अन्य किसी तरीके से, अधिग्रहित करने की अनुमति नहीं है।” राष्ट्रीय संप्रभुता के दावों पर ज़ोर देने का मुख्य सरोकार उस समय जारी शीत युद्ध के माहौल से था, जब अंतरिक्ष गतिविधियां पूरी तरह सरकारी संस्थाओं का एकाधिकार थीं और इन्हें सैन्य वर्चस्व या राष्ट्रीय प्रतिष्ठा के उद्देश्य से शुरू किया जाता था।
अलबत्ता, 1980 के दशक से अंतरिक्ष उद्योग के निजीकरण का अर्थ हुआ है कि उक्त कानून में अंतरिक्ष में संसाधनों के निजी दोहन के नियमन को लेकर कई कानूनी अस्पष्टताएं हैं और व्याख्या की गुंजाइश है। जैसा कि एम. शेयर ने दर्शाया है, अनुच्छेद II इस समस्या को संबोधित करने में असफल रहता है कि अंतरिक्ष का दोहन वित्तीय लाभ के लिए करने पर या निजी उद्योग द्वारा उस पर अपना अधिकार जताने पर क्या किया जाएगा।
बहरहाल, राष्ट्र संघ संधि का अनुच्छेद VI कहता है: “राष्ट्रीय अंतरिक्ष गतिविधियों के लिए राज्य ज़िम्मेदार होगा, चाहे वे गतिविधियां सरकारी एजेंसी द्वारा की जाएं या गैर-सरकारी एजंसियों द्वारा।” कई विशेषज्ञों का मानना है कि यह अनुच्छेद निजी अंतरिक्ष कॉर्पोरेशन्स की गतिविधियों पर काफी अंकुश लगा सकता है, क्योंकि इसके अंतर्गत निजी एजेंसियों की गतिविधियों का दायित्व भी राज्य पर होगा। अलबत्ता, यूएस सरकार ने हाल ही में एक कानून लागू किया है जिसमें इस अनुच्छेद का फायदा उठाया गया है ताकि अपने प्रतिबंधों को बायपास कर सके और अंतरिक्ष में यूएस के आर्थिक दबदबे को मज़बूत कर सके। 2015 के यूएस अंतरिक्ष कानून के पारित होने से “यूएस के नागरिकों को अंतरिक्ष से प्राप्त हुए संसाधनों को अपने पास रखने, उनके स्वामित्व, परिवहन और बिक्री” का अधिकार मिल गया है। अर्थात इसमें सावधानीपूर्वक राष्ट्रीय संप्रभुता के दावे को छोड़ दिया गया है।
तो, चाहे वह कोई अमेरिकी निजी कंपनी हो या सार्वजनिक उद्यम हो, यूएस अपने भू-राजनैतिक हितों की पूर्ति कर रहा है जिसके लिए वह अमेरिकी लाभ के लिए अंतरिक्ष के संसाधनों को समेट रहा है। इस तरह से राष्ट्र की सॉफ्ट शक्ति में चीन जैसे अंतरिक्ष-यात्री देशों की कीमत पर इजाफा हो रहा है।
दरअसल, नव-अंतरिक्ष किरदारों ने विधेयक के पारित होने से पहले इन सामरिक सरोकारों को चतुराई से उछाला था। जैसे अरबपति अंतरिक्ष उद्यमी रॉबर्ट बिजलो ने दावा किया था कि सबसे बड़ा खतरा चांद पर निजी उद्यमियों से नहीं है बल्कि इस बात से है कि “अमेरिका सोता रहे, कुछ न करे जबकि चीन आगे आए…सर्वेक्षण करे और [चांद पर] दावा ठोंक दे।”
यूएस सरकार द्वारा निजी कंपनियों को समर्थन से संभावना है कि संपदा में पृथ्वी-आधारित गैर-बराबरी को अंतरिक्ष में मज़बूत किया जाएगा। कई नव-अंतरिक्ष किरदार अंतरिक्ष में अपनी दीर्घावधि महत्वाकांक्षाओं को मानवीय सुर में ढालते हैं। जैसे, वे यह वादा करेंगे कि वे मानव जाति को आसन्न विलुप्ति के खतरे से बचाने के लिए अंतरिक्ष में बस्तियां बनाएंगे। अलबत्ता, इस तरह का विमर्श शायद ही उनकी खालिस निजी प्रकृति को छुपा सके। वे यह कहते नज़र आते हैं कि पूरे मामले में आम नागरिकों का हित जुड़ा है लेकिन हकीकत यह है कि ये अंतरिक्ष अग्रदूत वास्तव में एक छोटे से ब्रह्मांडीय आभिजात्य समूह के सदस्य हैं – Amazon.com, Microsoft, Pay Pal के संस्थापक और तरह-तरह के गेम डिज़ाइनर तथा होटल व्यवसायी।
वास्तव में, निजी अंतरिक्ष उद्यमियों ने स्वयं सुझाव दिया है कि उन पर कोई दायित्व नहीं होना चाहिए कि वे अंतरिक्ष से प्राप्त खनिज संसाधनों को विश्व समुदाय के साथ साझा करें। यह बात नाथन इंग्राहम (टेकसाइट EngadAsteroid mining के वरिष्ठ संपादक) के भाषण में साफ प्रतिबिंबित हुई थी। उन्होंने कहा था कि क्षुद्रग्रह खनन कैसा होगा यह इस बात पर निर्भर है कि “अमेरिका अंतरिक्ष में कैसे आगे बढ़ता है और अगली वेगास स्ट्रिप कैसे विकसित करता है।” ऐसी टिप्पणियां उस चीज़ को रेखांकित करती हैं जिसे बीयरी ‘स्केलर पोलिटिक्स’ कहते हैं। जिस तरह से गैर-बराबर अंतर्राष्ट्रीय सम्बंधों ने बाह्य अंतरिक्ष के साथ हमारे सम्बंधों को ‘वैश्विक साझा संपदा’ की आड़ में छिपाया है, उसी तरह निजी कंपनियां, अपनी मानवीय लफ्फाज़ी के ज़रिए, अंतरिक्ष से संसाधनों का दोहन करके पार्थिव गैर-बराबरियों और सामाजिक सम्बंधों को अंतरिक्ष में पहुंचा रही हैं। नव-अंतरिक्ष किरदार अपने उद्यमों की रचना इस तरह से करते हैं कि वे आम हित लुभाएं, और इसके पर्दे में यह बात छिपा लें कि वास्तव में व्यावसायिक संसाधन दोहन मात्र उनके निजी हितधारकों (शेयरहोल्डर्स) के हितों को पूरा करता है। और यह काम दुनिया के बहुसंख्य लोगों की कीमत पर किया जाता है।
2013 से शुरू होकर, यूएस नेशनल सिक्योरिटी एजेंसी के कर्मचारी एडवर्ड स्नोडेन के द्वारा लीक की गई गोपनीय सूचनाओं से पता चला था कि किस हद तक अमेरिकी गुप्तचर एजेंसियां निगरानी के व्यापक कार्यक्रमों में निजी एजेंसियों के साथ मिलकर काम कर रही हैं। इसे समाज के ‘सुरक्षाकरण’ (securitisation) का नाम दिया गया है और इसके तहत वर्तमान राज्य ‘राजनीति से निगरानी की ओर तथा शासन से (प्रजा के) प्रबंधन की ओर’ बढ़े हैं। और यह परिवर्तन नागरिकों की सहमति के बगैर किया गया है। हालांकि पारंपरिक रूप से ये क्रियाकलाप पृथ्वी-आधारित रहे हैं, लेकिन अंतरिक्ष ने उपग्रहों के ज़रिए निगरानी के रणनीतिक रूप से लाभदायक तरीके उपलब्ध करा दिए हैं।
यह सही है कि कई सारे व्यावसायिक उपग्रह पृथ्वी के पर्यावरण और इंटरनेट के लिहाज़ से महत्वपूर्ण क्षमताएं प्रदान करते हैं, लेकिन साथ ही ये राष्ट्रीय सुरक्षा की दृष्टि से यूएस के दबदबे के लिए अत्यंत ज़रूरी हैं। इसीलिए उपग्रहों की प्रकृति को दोहरे उपयोग की प्रकृति कहा जाता है। इसमें नागरिक उपयोग और सैन्य उद्देश्य एक ही अवलोकन उपकरण में घुल-मिल जाते हैं और इन्हें ज़रूरत के अनुसार अलग-अलग कार्यों में तैनात किया जा सकता है। दोहरे उपयोग उपग्रह टेक्नॉलॉजी यूएस सेना के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण रही है और इसने जंग के मैदानों में विशेष लाभ दिया है। और इसमें से उपग्रह संचार की 80 प्रतिशत ज़रूरतों की पूर्ति व्यावसायिक उपग्रहों द्वारा की जाती है। इन नेटवर्क्स पर निर्भरता यूएस सैन्य दबदबे का एक प्रमुख घटक है जिसे ‘अंतरिक्ष नियंत्रण’ कहा जाता है। इसका एक लक्ष्य यह है कि व्यावसायिक उपग्रह डैटा के संचार को सुरक्षित रखा जाए जिसकी मदद से संवेदनशील सैन्य सूचनाएं उजागर न हों।
बाह्य अंतरिक्ष संधि में ऐसा कोई अनुच्छेद नहीं है जिसमें अंतरिक्ष में डैटा निगरानी के लिए नियम-कानून निर्धारित किए गए हों। फिर भी यह माना जा सकता है कि किसी भी रूप में बदनीयती या गैर-कानूनी ढंग से की गई निगरानी अनुच्छेद XI का उल्लंघन है। अनुच्छेद XI में राज्यों से अपेक्षित है कि वे “अपनी अंतरिक्ष गतिविधियों की प्रकृति, संचालन, भौगोलिक स्थिति और परिणामों के बारे में राष्ट्र संघ के महासचिव के अलावा आम लोगों तथा अंतर्राष्ट्रीय वैज्ञानिक समुदाय को यथासंभव अधिक से अधिक तथा व्यावहारिक रूप से संभव सूचना प्रदान करेंगे।” कानूनी विशेषज्ञों ने मत व्यक्त किया है कि यह अनुच्छेद काफी कमज़ोर है क्योंकि राज्य अपनी अंतरिक्ष गतिविधियों की सूचना यह कहकर रोक सकते हैं कि उसे प्रसारित करना संभव या व्यावहारिक नहीं है। राष्ट्र संघ के किसी स्पष्ट दिशानिर्देश की अनुपस्थिति का मतलब यह भी रहा है कि अमेरिकी उपग्रह कंपनियां बढ़ते क्रम में अपनी मंशाएं उजागर करने से इन्कार कर पा रही हैं। वे यह भी बताने से इन्कार कर पा रही हैं कि उनके ग्राहक कौन हैं। यूएस सरकार ऐसे ही गुप्त ग्राहकों में है।
1994 में यूएस राष्ट्रपति के निर्णय क्रमांक 23 ने यूएस सरकार को यह अधिकार प्रदान किया था कि वह कंपनियों द्वारा कतिपय उपग्रह चित्र बेचने पर प्रतिबंध लगा सके या ऐसी बिक्री को सीमित कर सके। इस प्रक्रिया को ‘शटर कंट्रोल’ कहा जाता है। यह इस मायने में विवादास्पद है कि यह यूएस कार्यपालिका को यह अधिकार देती है कि वह कतिपय परिस्थितियों में सार्वजनिक रूप से उपलब्ध जानकारी को सीमित कर सके, जो संभवत: प्रथम संशोधन में प्रदत्त अधिकारों का उल्लंघन है। 2001 के अफगानिस्तान युद्ध के दौरान यूएस सरकार ने जियोआई उपग्रह से प्राप्त उन समस्त तस्वीरों के अधिकार खरीद लिए थे जो युद्धस्थल के ऊपर से ली गई थीं। इसका कारण राष्ट्रीय सुरक्षा बताया गया था। अलबत्ता, मीडिया समूहों ने सरकार के इस सौदे पर आरोप लगाया था कि इसके ज़रिए उन्हें आम लोगों को महत्वपूर्ण मामलों के बारे में सूचना देने से रोका जा रहा है, जिनमें राष्ट्रीय सुरक्षा का कोई मसला है भी नहीं। उदाहरण के लिए इसमें ऐसी सूचनाएं शामिल थीं कि सिविल इमारतों को कितना नुकसान पहुंचा है या कितने नागरिक मारे गए हैं। लिहाज़ा, इन कदमों ने OST के अनुच्छेद XI का उल्लंघन किया था क्योंकि इनके ज़रिए महत्वपूर्ण सूचनाएं जनता से छिपाई गई थीं जबकि यह व्यावहारिक रूप से संभव था और बहाना राष्ट्रीय सुरक्षा का बनाया गया था। इसके अलावा, इन कदमों से यूएस सरकार उन इलाकों के कवरेज के साथ भी छेड़छाड़ कर सकी जो उसे अफगानिस्तान युद्ध में जनता के समर्थन की दृष्टि से महत्वपूर्ण लगे, और साथ ही अंतरिक्ष में अपना दबदबा भी बढ़ाया। कई मायनों में इसे ‘वैश्विक पैनॉप्टिकल’ खुफिया नेटवर्क को सुगम बनाने की एक रणनीति भी माना जा सकता है।
बाह्य अंतरिक्ष में सार्वजनिक-निजी संकर ढांचे को बढ़ावा देकर कंपनियों और सरकारों को यह अवसर मिल जाता है कि वे किसी भी स्थान पर विश्व भर के करोड़ों नागरिकों की निगरानी, उनके जाने बगैर, कर सकें और इसके ज़रिए विशाल मात्रा में आंकड़े जुटा सकें। यह जानी-मानी बात है कि जियोआई को उसके आईकोनोस चित्रों के लिए यूएस सरकार से लगभग 20 लाख डॉलर मिले थे। इससे व्यावासायिक उपग्रह उद्योग को प्रलोभन मिलेगा कि वह ऐसी जानकारियों को छिपाकर रखे जो दुनिया भर में नागरिकों के हित में काम आ सकती है। इस मायने में, उपग्रह तस्वीरें एक किस्म के कक्षीय डैटा अधिग्रहण का रूप ले सकती हैं जहां कंपनियां अतंरिक्ष में निगरानी करेंगी और अपनी सूचनाएं सबसे ऊंची बोली लगाने वाले को बेच देंगी। और इस प्रक्रिया में निजता वगैरह की कोई परवाह नहीं की जाएगी। कैम्ब्रिज एनालिटिका और फेसबुक से जुड़े मामलों में यह स्पष्ट रूप से सामने आ चुका है कि कंपनियां किस हद तक अपने उपभोक्ताओं की सूचनाओं का मौद्रिकरण कर रही हैं।
अंतरिक्ष में विचरती मानव-निर्मित निरुद्देश्य वस्तुओं को अंतरिक्ष मलबा कहा जा सकता है। ये वस्तुएं पहले किए गए अंतरिक्ष अभियानों के निष्क्रिय टुकड़े हो सकते हैं, उपग्रहों के टुकड़े हो सकते हैं। पृथ्वी की कक्षा में लगभग 30,000 मलबा टुकड़े हैं। यह सही है कि अधिकांश मलबे का आकार सेंटीमीटर या मिलीमीटर में ही है लेकिन ये टुकड़े अक्सर बंदूक की गोली की रफ्तार से चलते हैं। अर्थात ऐसे दो टुकड़ों के बीच टक्कर काफी घातक हो सकती है – पर्यावरण, यांत्रिकी और वित्तीय दृष्टि से।
1978 में केसलर सिंड्रोम सिद्धांत का विकास हुआ था – यह सिद्धांत भविष्यवाणी करता है कि अंतरिक्ष मलबा इतना घना हो जाएगा कि एक टक्कर टक्करों के एक सिलसिले को जन्म दे देगी। ऐसा माना जाता है कि अंतरिक्ष मलबा तात्कालिक रूप से सैन्य-अंतरिक्ष गतिविधियों की अपेक्षा ज़्यादा बड़ा खतरा होगा। यह पता करना भी मुश्किल होगा कि कोई टक्कर मात्र एक हादसा थी या जानबूझकर करवाई गई थी। इस अनिश्चितता के चलते समस्या और विकराल हो जाती है क्योंकि कहते हैं कि ‘अंतरिक्ष की हर वस्तु शेष समस्त वस्तुओं के लिए खतरा है।’ इन्हीं बातों के चलते यूएस प्रशासन कक्षीय मलबे के संदर्भ में अधिक से अधिक सुरक्षाकरण का विमर्श अपनाने लगा है। इसका परिणाम यह हो सकता है कि भविष्य में अमेरिकी उपग्रहों की टक्कर के प्रति यूएस की प्रतिक्रिया सैन्य दृष्टिकोण से दी जाएगी।
कई सारे नव-अंतरिक्ष किरदार, हालिया उपग्रह प्रस्तावों के ज़रिए, शायद इस चिंता को और पेचीदा बनाएंगे। एक ओर तो बोइंग लगभग 3000 उपग्रहों का नक्षत्र प्रस्तावित कर रही है वहीं स्पेसएक्स की योजना तो और भी महत्वाकांक्षी है – वह तो 4425 उपग्रह प्रक्षेपित करने की योजना बना रही है और निकट भविष्य में इनकी संख्या 12,000 कर देगी। तुलना के लिए देखें कि फिलहाल पृथ्वी की कक्षा में मात्र करीब 1400 सक्रिय उपग्रह हैं। बताने की ज़रूरत नहीं है कि ये किस तरह के सुरक्षा सम्बंधी खतरों को जन्म दे सकते हैं।
इसके अलावा, व्यावसायिक उपग्रहों की यह बाढ़ महत्वपूर्ण पर्यावरणीय मुद्दे भी उठाती है। OST का अनुच्छेद IX कहता है: ‘राज्य अंतरिक्ष गतिविधियों को इस तरह करेंगे कि उनसे कोई हानिकारक संदूषण अथवा पृथ्वी पर कोई प्रतिकूल पर्यावरणीय परिवर्तन न हो।’ अलबत्ता, ‘हानिकारक’ या ‘प्रतिकूल परिवर्तन’ जैसे शब्दों के इस्तेमाल से इस मामले में अस्पष्टता झलकती है कि पर्यावरणीय परिवर्तन का ठीक-ठीक मतलब क्या है या किसे हानि से बचाया जाना चाहिए। इसमें अंतरिक्ष मलबे की समस्या को संबोधित करने में नाकामी दिखती है क्योंकि पूरा विमर्श रासायनिक प्रदूषण पर केंद्रित है और इसमें अंतरिक्ष में तैरते मलबे को हटाने का कोई ज़िक्र नहीं है।
अंतरिक्ष में पर्यावरणीय सरोकारों को उपयुक्त ढंग से संबोधित करने में OST की नाकामी को नव-अंतरिक्ष समुदाय ने आगे बढ़ाया है जहां पारिस्थितिक मसलों को नकारा गया है: “बाह्य अंतरिक्ष संसाधन विकास सम्बंधी सैकड़ों आलेख और पुस्तकें कभी-कभार ही यह ज़िक्र करती हैं कि ऐसी गतिविधियां पर्यावरण को इस तरह प्रतिकूल प्रभावित कर सकती हैं जो उनके अपने उद्यमों और उन्हें क्रियान्वित करने वाले मनुष्यों को नुकसान पहुंचा सकती हैं।” ऐसे वर्णन उन दिक्कतों को उजागर करते हैं जिनका सामना निजी कंपनियां पृथ्वी पर कर चुकी हैं – पूंजी और पर्यावरण का ऐसा तालमेल बनाना जो उनके मुनाफे को कम न करे। फिर भी ऐसा करते हुए अंतरिक्ष में मलबे का फैलाव अवश्यंभावी है जिसे संबोधित करने में ओएसटी नाकाम रही है। वैसे तो बाह्य अंतरिक्ष बहुत विशाल है लेकिन मानवीय उपयोग अथवा लाभ की दृष्टि से उसका बहुत छोटा हिस्सा ही काम आ सकता है। इसका मतलब होगा कि बढ़ते अंतरिक्ष मलबे के साये में विकासशील देशों के लिए अंतरिक्ष का उपयोग संभव नहीं रह जाएगा।
एलन मस्क की स्पेसएक्स कंपनी ने पृथ्वी पर बैठे खगोलशास्त्रियों की मुश्किलें बढ़ा भी दी हैं। अन्य उपग्रहों के मुकाबले उनके स्टारलिंक उपग्रहों की चमक इतनी है कि वह दूरबीन से ली जाने वाली तस्वीरों को धुंधला कर रही है। उससे भी ज़्यादा चिंता की बात यह है कि स्टारलिंक उपग्रह संभवत: उषाकाल में ज़्यादा नज़र आएंगे और इसका असर खतरनाक धूमकेतुओं के समय रहते अवलोकन करने पर पड़ेगा। इस मायने में, हालांकि निजी अंतरिक्ष उद्यम बड़े-बड़े उपग्रह समूह स्थापित करके अपना मुनाफा तो बढ़ा लेंगे लेकिन ये पृथ्वी पर शोधकर्ताओं के वैज्ञानिक काम को बरबाद कर देंगे।
निष्कर्ष : अंतरिक्षबतौरएकवैश्विकमाल
अंतत: यह लेख उजागर करता है कि कैसे OST निजी अंतरिक्ष उद्यमों का उपयुक्त ढंग से नियमन करने में असफल रही है। मूलत: यह संधि राज्य-केंद्रित नज़रिए से विकसित की गई थी, लेकिन राज्य और निजी क्षेत्र के बढ़ते मेलजोल का परिणाम है कि दोनों ही अपने अंतरिक्ष हितों को साधने में संधि की अस्पष्टताओं का फायदा उठा रहे हैं।
इन प्रक्रियाओं से एक बात और स्पष्ट होती है – कि बाह्य अंतरिक्ष संधि के निर्माताओं की संकल्पना और नव-अंतरिक्ष किरदारों की संकल्पना, दोनों ही पृथ्वी-आधारित सामाजिक सम्बंधों और शक्ति के ढांचों से जुड़ी हैं। चाहे संसाधनों को लेकर दावे-प्रतिदावे हों या पर्यावरण के मुद्दे हों, जो सरोकार पेश हुए हैं वे पृथ्वी पर चल रहे घटनाक्रम को प्रतिबिंबित करते हैं। जिस समय OST विकसित की गई थी, उस समय के अनुरूप यह राज्यों को एक-दूसरे द्वारा किए जा सकने वाले नुकसान से बचाने के लिए बनी थी। उस समय माहौल तीखे अंतर्राष्ट्रीय टकरावों का था और परमाणु युद्ध का खतरा मुंह बाए खड़ा था। तो उस समय अंतरिक्ष के पर्यावरण की रक्षा कोई सरोकार नहीं था। स्वयं को मानवता के रक्षक बताने वाले नव-अंतरिक्ष उद्यमियों का अंतरिक्ष में मुनाफा अधिकतम करने पर ज़ोर है और इसलिए आलोचना वही है जो पृथ्वी के संदर्भ में थी। नासा द्वारा 2020 में स्थापित नज़ीर का मतलब यह होगा कि भविष्य में निजी कंपनियां अंतरिक्ष ‘में सार्वजनिक पहुंच को और कम करेंगी। वास्तव में बाह्य अंतरिक्ष की धारणा ‘वैश्विक साझा संपदा’ से बदलकर ‘वैश्विक माल’ में तबदील होती जा रही है। (स्रोत फीचर्स)
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वर्ष 2023 का भौतिकी नोबेल पुरस्कार उन प्रायोगिक विधियों के लिए दिया गया है जिनकी मदद से प्रकाश की अत्यंत अल्प अवधि (एटोसेकंड) चमक पैदा करके पदार्थ में इलेक्ट्रॉन की गतियों का अध्ययन किया जा सकता है। पुरस्कार ओहायो विश्वविद्यालय के पियरे एगोस्टिनी, मैक्स प्लैंक इंस्टीट्यूट ऑफ क्वांटम ऑप्टिक्स के फेरेंक क्राउज़, तथा लुंड विश्वविद्यालय के एन एलहुइलियर को संयुक्त रूप से दिया गया है।
इन तीन भौतिक शास्त्रियों ने वैज्ञानिकों को ऐसे औज़ार उपलब्ध कराए हैं जिनकी मदद से परमाणुओं और अणुओं के अंदर इलेक्ट्रॉन्स का बेहतर अध्ययन संभव हो जाएगा। दरअसल, अणु-परमाणु में इलेक्ट्रॉन्स की गतियां बहुत तेज़ रफ्तार से होती हैं और उनकी गति या ऊर्जा में परिवर्तन का अध्ययन करने के लिए वैसे ही त्वरित अवलोकन साधन की ज़रूरत होती है। आम तौर पर इतनी तेज़ रफ्तार घटनाएं एक-दूसरे पर इस कदर व्याप्त हो जाती हैं कि उन्हें अलग-अलग देखना मुश्किल होता है। उदाहरण के लिए, जब हम कोई फिल्म देखते हैं तो उनकी अलग-अलग तस्वीरें ऐसे घुल-मिल जाती हैं कि हमें एक निरंतर चलती तस्वीर का आभास होता है। इलेक्ट्रॉन के स्तर पर तो सब कुछ इतनी तेज़ी से होता है कि प्रत्येक परिघटना 1 एटोसेकंड के दसवें भाग में सम्पन्न हो जाती है। कहते हैं कि एक एटोसेकंड इतना छोटा होता है कि एक सेकंड में उतने ही एटोसेकंड होते हैं जितने सेकंड ब्रह्मांड की उत्पत्ति से लेकर अब तक बीते हैं।
इस वर्ष के नोबेल विजेता प्रकाश का ऐसा पल्स पैदा करने में सफल रहे हैं जो एक एटोसेकंड को नाप सकता है। इसकी मदद से हम अणु-परमाणु के अंदर चल रही प्रक्रियाओं की तस्वीरें प्राप्त कर सकते हैं।
बहरहाल उनके इस काम को वैज्ञानिक स्तर पर समझना काफी मुश्किल होगा और हमें इन्तज़ार करना होगा कि कोई भौतिक शास्त्री उसे हमारे स्तर पर समझाए। (स्रोत फीचर्स)
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चंद्रयान के सकुशल अवतरण के बाद इसरो की तैयारी सूरज को पढ़ने की है। इसरो का आदित्य-L1 मिशन 2 सितंबर को प्रक्षेपित होने जा रहा है। इसे सतीश धवन अंतरिक्ष केंद्र, श्री हरिकोटा से PSLV-XL रॉकेट द्वारा प्रक्षेपित किया जाएगा। यह अंतरिक्ष यान पृथ्वी से करीब 15 लाख किलोमीटर दूर सूर्य-पृथ्वी के बीच लैग्रांजे बिंदु-1 (L-1) की कक्षा में स्थापित किया जाएगा, जहां से यह सौर गतिविधियों की निगरानी करेगा। यह सूर्य का अध्ययन करने वाला पहला भारतीय अंतरिक्ष अभियान होगा। गौरतलब है कि फिलहाल विभिन्न देशों के 20 से ज़्यादा सौर अध्ययन अंतरिक्ष मिशन अंतरिक्ष में मौजूद हैं।
बताते चलें कि लैग्रांजे बिंदु अंतरिक्ष में दो पिंडों के बीच वे स्थान होते हैं जहां यदि कोई छोटा पिंड या उपग्रह रख दिया जाए तो वह वहां टिका रहता है। पृथ्वी-सूर्य प्रणाली के बीच ऐसे पांच बिंदु हैं। L1 बिंदु की कक्षा में स्थापित करने का फायदा यह है कि आदित्य-L1 बिना किसी अड़चन, ग्रहण वगैरह के सूर्य की लगातार निगरानी कर सकता है।
पृथ्वी से सूर्य की निगरानी और अवलोकन तो हम करते रहे हैं। लेकिन अंतरिक्ष से सूर्य के अवलोकन का कारण है कि पृथ्वी का वायुमंडल कई तंरगदैर्घ्यों और कणों को प्रवेश नहीं करने देता। इसलिए ऐसे विकिरण की मदद से होने वाले अवलोकन पृथ्वी से कर पाना संभव नहीं है। चूंकि अंतरिक्ष में ऐसी कोई बाधा नहीं है इसलिए अंतरिक्ष से इनका अवलोकन संभव है।
आदित्य-L1 में सूर्य की गतिविधियां, सौर वायुमंडल (मुख्यत: क्रोमोस्फीयर और कोरोना) और अंतरिक्ष के मौसम का निरीक्षण करने के लिए सात यंत्र लगे हैं। इनमें से चार यंत्र बिंदु L1 पर बिना किसी बाधा के सीधे सूर्य का अवलोकन करेंगे, और शेष तीन यंत्र लैग्रांजे बिंदु L1 की स्थिति और कणों का जायज़ा लेंगे। आदित्य-L1 पर लगे विज़िबल एमिशन लाइन कोरोनाग्राफ (VELC) का काम होगा सूर्य के कोरोना और कोरोना से निकलने वाले पदार्थों का अध्ययन करना। कोरोना सूर्य की सबसे बाहरी सतह है जो सूर्य के तेज़ प्रकाश में ओझल रहती है। इसे विशेष उपकरणों से ही देखा जा सकता है। वैसे कोरोना को पूर्ण सूर्यग्रहण के दौरान देखा जा सकता है। सोलर अल्ट्रावॉयलेट इमेजिंग टेलीस्कोप (SUIT) पराबैंगनी प्रकाश में सूर्य के फोटोस्फीयर और क्रोमोस्फीयर की तस्वीरें लेगा और अल्ट्रावॉयलेट प्रकाश के नज़दीक सौर विकिरण विचलन मापेगा। फोटोस्फीयर या प्रकाशमंडल वह सतह है जहां से प्रकाश फैलता है। सोलर लो एनर्जी एक्स-रे स्पेक्ट्रोमीटर (SoLEXS) और हाई एनर्जी L1 ऑर्बाइटिंग एक्स-रे स्पेक्ट्रोमीटर (HEL1OS) सूर्य की एक्स-रे प्रदीप्ति का अध्ययन करेगा। आदित्य सोलर विंड पार्टीकल एक्सपेरिमेंट (ASPEX) और प्लाज़्मा एनालाइज़र पैकेज फॉर आदित्य (PAPA) सौर पवन, उसके आयन और ऊर्जा वितरण का अध्ययन करेगा। इसका एडवांस्ड ट्राय-एक्सिस हाई रिज़ॉल्यूशन डिजिटल मैग्नेटोमीटर L1 बिंदु पर मौजूद चुम्बकीय क्षेत्र का मापन करेगा।
प्रक्षेपण के करीब 100 दिन बाद आदित्य अपनी मंज़िल (L1) पर पहुंचेगा। (स्रोत फीचर्स)
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पृथ्वी के अलावा अन्य ग्रहों पर जीवन की संभावना का विचार हमेशा से सभी को आकर्षित करता रहा है। जीवन की संभावना वाले ग्रहों की सूची में मंगल के अलावा शुक्र भी शामिल हो चुका है। इसका कारण पिछले डेढ़-दो दशक में शुक्र के वातावरण में घटित हो रही रासायनिक प्रक्रियाओं को लेकर हमारी समझ में हुई वृद्धि है। हाल ही में कार्डिफ युनिवर्सिटी के जेन ग्रीव्स की टीम ने खगोल विज्ञान की एक राष्ट्रीय गोष्ठी में शुक्र पर जीवन योग्य परिस्थितियों की मौजूदगी को लेकर एक शोध पत्र प्रस्तुत किया है। इस शोध पत्र का निष्कर्ष है कि शुक्र के तपते और विषैले वायुमंडल में फॉस्फीन नामक एक गैस है जो वहां जीवन की उपस्थिति का संकेत हो सकती है।
पूर्व में कार्डिफ युनिवर्सिटी के ही शोधकर्ताओं ने शुक्र के वातावरण में फॉस्फीन के स्रोतों का पता लगाकर हलचल मचा दी थी। हालांकि तब कई प्रतिष्ठित विशेषज्ञों ने शुक्र के घने कार्बन डाईऑक्साइड युक्त वातावरण, सतह के अत्यधिक तापमान व दाब और सल्फ्यूरिक अम्ल के बादलों जैसी बिलकुल प्रतिकूल परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए इस शोध को खारिज कर दिया था। लेकिन अब हवाई स्थित जेम्स क्लार्क मैक्सवेल टेलीस्कोप (जेसीएमटी) और चिली स्थित एटाकामा लार्ज मिलीमीटर ऐरे रेडियो टेलीस्कोप की सहायता से ग्रीव्स को शुक्र के वायुमंडल के निचले क्षेत्र में फॉस्फीन की मौजूदगी के सशक्त प्रमाण मिले हैं। इससे शुक्र के अम्लीय बादलों में सूक्ष्म जीवों की मौजूदगी की उम्मीदें पुनर्जीवित हो गई हैं।
वैज्ञानिकों के मुताबिक शुक्र के वातावरण में 96 प्रतिशत कार्बन डाईऑक्साइड है, लेकिन फॉस्फीन का मिलना अपने आप में बेहद असाधारण बात है क्योंकि यह एक सशक्त बायो सिग्नेचर (जैव-चिन्ह) है। फॉस्फीन को एक बायो सिग्नेचर मानने का एक बड़ा कारण है पृथ्वी पर फॉस्फीन का सम्बंध जीवन से है। फॉस्फीन गैस के एक अणु में तीन हाइड्रोजन परमाणुओं से घिरे फॉस्फोरस परमाणु होते हैं, जैसे अमोनिया में तीन हाइड्रोजन परमाणुओं से घिरे नाइट्रोजन परमाणु होते हैं। पृथ्वी पर यह गैस औद्योगिक प्रक्रियाओं से बनती है। यह कुछ अनॉक्सी जीवाणुओं द्वारा भी निर्मित होती है जो ऑक्सीजन-विरल वातावरण में रहते हैं, जैसे सीवर, भराव क्षेत्र या दलदल में। सूक्ष्मजीव यह गैस ऑक्सीजन की अनुपस्थिति में उत्सर्जित करते हैं।
शुक्र पर फॉस्फीन की खोज के दो मायने हैं। एक, शुक्र पर जीवित सूक्ष्मजीव हो सकते हैं – शुक्र की सतह पर नहीं बल्कि उसके बादलों में, क्योंकि शुक्र की सतह किसी भी प्रकार के जीवन के अनुकूल नहीं है। उल्लेखनीय है कि फॉस्फीन या उसके स्रोत जिन बादलों में मिले हैं वहां तापमान 30 डिग्री सेल्सियस था। दूसरा, यह उन भूगर्भीय या रासायनिक प्रक्रियाओं से निर्मित हो सकती है, जो हमें पृथ्वी पर नहीं दिखती। ऐसे में इस खोज से यह दावा नहीं किया जा सकता कि हमने वहां जीवन खोज लिया है। लेकिन यह भी नहीं कह सकते कि वहां जीवन नहीं है। यह खोज अंतरिक्ष-अन्वेषण के लिए नए द्वार खोलती है।(स्रोत फीचर्स)
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हाल ही में चीन का एक अंतरिक्ष यान पृथ्वी की कक्षा में नौ महीने बिताने के बाद धरती पर लौट आया है। इसके साथ ही चीन उन चुनिंदा राष्ट्रों की श्रेणी में भी शामिल हो गया है जिसने अंतरिक्ष यान का पुन: उपयोग करने में सफलता हासिल की है। हालांकि चीन ने अंतरिक्ष यान के डिज़ाइन और संचालन के बारे में ज़्यादा जानकारी तो नहीं दी है लेकिन उपलब्ध जानकारी के आधार पर अनुमान है कि इसका उपयोग अनुसंधान और सैन्य कार्यों के लिए किया जा रहा था।
इस मिशन से यह स्पष्ट है कि चीन ने अंतरिक्ष यान को पुन: उपयोग करने के लिए हीट शील्ड और लैंडिंग उपकरण जैसी तकनीकें विकसित कर ली हैं। इससे पहले अमेरिकी कंपनी बोइंग, स्पेसएक्स और नासा ने अंतरिक्ष यानों को धरती पर उतार लिया था। गौरतलब है कि अंतरिक्ष यान का एक बार उपयोग करने की अपेक्षा बार-बार उपयोग करने से पूंजीगत लागत काफी कम हो जाती है। इससे पहले, सितंबर 2020 में चीन का इसी तरह का एक प्रायोगिक अंतरिक्ष यान कक्षा में दो दिन बिताने के बाद पृथ्वी पर लौट आया था।
कई वैज्ञानिकों का विचार है कि चीनी यान संभवत: अमेरिकी अंतरिक्ष यान बोइंग एक्स-37बी के समान है। वैसे एक्स-37बी को बनाने का उद्देश्य तो अज्ञात है लेकिन 2010 में इसका खुलासा होने के बाद से ही चीनी सरकार इस यान की सैन्य क्षमताओं को लेकर चिंतित थी। ऐसी संभावना है कि इस यान को एक्स-37बी के जवाब में तैयार किया गया है।
इस यान की उड़ान और लॉप नूर सैन्य अड्डे पर उतरने के पैटर्न को देखते हुए यह स्पष्ट हो जाता है कि यह एक विमान है। जबकि स्पेसएक्स ड्रैगन कैप्सूल जैसे अन्य पुन: उपयोग किए जाने वाले अंतरिक्ष यान लॉन्च रॉकेट से जुड़े मॉड्यूल हैं जो ज़मीन पर उतरने के लिए पैराशूट का उपयोग करते हैं।
एक्स-37बी की तरह चीनी यान भी आकार में काफी छोटा है। लॉन्च वाहन की 8.4 टन की पेलोड क्षमता से स्पष्ट है कि इसका वज़न 5 से 8 टन के बीच रहा होगा। यह नासा के सेवानिवृत्त अंतरिक्ष शटल कोलंबिया और चैलेंजर से बहुत छोटा है जिनको चालक दल सहित कई मिशनों के लिए उपयोग किया गया था। वर्तमान चीनी यान चालक दल को ले जाने के लिए बहुत छोटा है लेकिन अमेरिकी वैज्ञानिकों के अनुसार भविष्य में इसे चालक दल ले जाने वाला बड़ा अंतरिक्ष यान भी बनाया जा सकता है।
निकट भविष्य में चीन अन्य तकनीकों का परीक्षण कर सकता है। कक्षीय पथ में परिवर्तन या सौर पैनल का खुलना ऐसी दो तकनीकें हैं जो भविष्य में काफी उपयोगी होंगी। इसके अलावा कक्षा में रहते हुए उपग्रहों को छोड़ने और उठाने का भी परीक्षण किया गया होगा। एक रिपोर्ट के अनुसार पिछले वर्ष अक्टूबर में अंतरिक्ष यान द्वारा एक वस्तु को कक्षा में छोड़ने का पता चला था। यह वस्तु जनवरी में कक्षा से गायब हो गई थी और मार्च में फिर से प्रकट हुई थी। संभवत: अंतरिक्ष यान ने वस्तु को पकड़ा और दोबारा कक्षा में छोड़ दिया। यानी अंतरिक्ष यान का उपयोग उपकरणों और उपग्रहों को ले जाने के लिए भी किया गया होगा। (स्रोत फीचर्स)
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टोक्यो की एक निजी कंपनी आईस्पेस द्वारा हुकाटो-आर मिशन (एम-1) नामक पहला व्यावसायिक ल्यूनर मिशन 11 दिसंबर 2022 को फ्लोरिडा के केप कैनावेरल से स्पेसएक्स फाल्कन 9 रॉकेट द्वारा लॉन्च किया गया था। 21 मार्च को इसने चंद्रमा की कक्षा में प्रवेश किया। 25 अप्रैल को इसके लैंडर को चंद्रमा की सतह पर उतरना था, लेकिन कुछ तकनीकी समस्या के कारण यह मिशन विफल हो गया। चंद्रमा की सतह से लगभग 90 मीटर ऊपर लैंडर से पृथ्वी का संपर्क टूट गया और नियोजित लैंडिंग के बाद दोबारा संचार स्थापित नहीं हो पाया। संभावना है कि एम-1 लैंडर उतरते वक्त क्रैश हो गया। फिलहाल पूरे घटनाक्रम की जांच जारी है।
गौरतलब है कि 2.3 मीटर लंबा लैंडर सतह पर उतरने के अंतिम चरण में खड़ी स्थिति में था लेकिन इसमें ईंधन काफी कम बचा था। लैंडर से प्राप्त आखरी सूचना से पता चलता है कि चंद्रमा की सतह की ओर बढ़ते हुए यान की रफ्तार बढ़ गई थी। किसी भी लैंडर के लिए यह एक सामान्य प्रक्रिया है जिसमें लंबवत रूप से उतरते समय इंजन चालू रखे जाते हैं ताकि वह गुरुत्वाकर्षण के कारण सतह से तेज़ रफ्तार से न टकराए।
आईस्पेस टीम के प्रमुख टेक्नॉलॉजी अधिकारी रयो उजी बताते हैं कि सतह पर उतरने के अंतिम चरण में ऊंचाईमापी उपकरण ने शून्य ऊंचाई का संकेत दिया था यानी उसके हिसाब से लैंडर चांद की धरती पर पहुंच चुका था। जबकि यान सतह से काफी ऊपर था। ऐसी भी संभावना है कि लैंडर के नीचे उतरते हुए यान का ईंधन खत्म हो गया और गति में वृद्धि होती गई। टीम अभी भी यह जानने का प्रयास कर रही है कि अनुमानित और वास्तविक ऊंचाई के बीच अंतर के क्या कारण हो सकते हैं। इस तरह के यानों में विशेष सेंसर लगाए जाते हैं जो लैंडर और सतह के बीच की दूरी को मापते हैं और उसी हिसाब से लैंडर नीचे उतरता है। अभी तक यह स्पष्ट नहीं है कि इन सेंसरों में कोई गड़बड़ी हुई या सॉफ्टवेयर में कोई समस्या थी।
लैंडर के क्रैश होने के कारण उस पर भेजे गए कई उपकरण भी नष्ट हो गए हैं। जैसे संयुक्त अरब अमीरात का 50 सेंटीमीटर लंबा राशिद रोवर जिसका उद्देश्य चंद्रमा की मिट्टी के कणों का अध्ययन और सतह के भूगर्भीय गुणों की जांच करना था; जापानी अंतरिक्ष एजेंसी द्वारा विकसित एक दो-पहिया रोबोट; और कनाडा की कनाडेन्सिस एयरोस्पेस द्वारा निर्मित एक मल्टी-कैमरा सिस्टम।
मिशन की विफलता के जो भी कारण रहे हों लेकिन यह साफ है कि चंद्रमा पर सफलतापूर्वक लैंडिंग काफी चुनौतीपूर्ण है। फिर भी इस लैंडिंग प्रक्रिया के दौरान प्राप्त डैटा से उम्मीद है कि आईस्पेस के भावी चंद्रमा मिशन के लिए टीम को बेहतर तैयारी का मौका मिलेगा। (स्रोत फीचर्स)
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गत 14 अप्रैल को युरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी (ईएसए) द्वारा बृहस्पति के विशाल चंद्रमा का अध्ययन करने के लिए जुपिटर आइसी मून एक्स्प्लोरर (जूस) प्रक्षेपित किया गया। उम्मीद की जा रही है कि यह अंतरिक्ष यान गैलीलियो द्वारा 1610 में खोजे गए बृहस्पति के चार में से तीन बड़े चंद्रमाओं के नज़दीक से गुज़रते हुए अंत में ग्रह के सबसे विशाल चंद्रमा गैनीमेड की परिक्रमा करेगा। इस मिशन का उद्देश्य गैनीमेड की बर्फीली सतह के नीचे छिपे महासागर में जीवन के साक्ष्यों की खोज करना है। ऐसा पहली बार होगा जब कोई अंतरिक्ष यान हमारे अपने चंद्रमा के अलावा किसी अन्य प्राकृतिक उपग्रह की परिक्रमा करेगा।
यदि सब कुछ योजना अनुसार होता है तो 6 टन वज़नी अंतरिक्ष यान लगभग एक वर्ष के भीतर पृथ्वी और चंद्रमा के करीब से गुज़रेगा जिससे यान को बाहरी सौर मंडल की ओर बढ़ने में मदद मिलेगी। इसके लिए बहुत ही सटीक गुरुत्वाकर्षण-आधारित संचालन की आवश्यकता होगी। बाह्य सौर मंडल के अन्य मिशनों की तरह इस मिशन में भी जूस प्रक्षेपवक्र सीधा तो कदापि नहीं होगा। यह 2025 में वीनस के नज़दीक से गुज़रेगा और 2026 व 2029 में दो बार फिर से पृथ्वी के नज़दीक से गुज़रते हुए 2031 में बृहस्पति के करीब पहुंचेगा।
इस बिंदु पर यान के मुख्य इंजन को धीमा किया जाएगा ताकि वह बृहस्पति की परिक्रमा करने लगे। बृहस्पति की कक्षा में आने के बाद यह ग्रह के दूसरे सबसे बड़े चंद्रमा कैलिस्टो के काफी नज़दीक से 21 बार गुज़रेगा जबकि सबसे छोटे चंद्रमा युरोपा को बस दो बार पार करेगा।
2035 में जूस को गैनीमेड की कक्षा में भेजने के लिए इसके मुख्य इंजन को पुन: चालू किया जाएगा ताकि यह गैनीमीड की कक्षा में प्रवेश कर जाए। यह लगभग 9 महीने के लिए गैनीमेड के चारों ओर 500 किलोमीटर की ऊंचाई पर चक्कर लगाएगा। गैनीमीड की कक्षा में प्रवेश की प्रक्रिया भी काफी नाज़ुक होगी – गैनीमेड के चारों ओर धीमी गति से प्रवेश करना होगा और जूस की रफ्तार को गैनीमीड की कक्षीय गति से मेल खाना होगा। यदि इसमें थोड़ी भी चूक होती है तो बृहस्पति का गुरुत्वाकर्षण इसे गैनीमेड से और दूर ले जाएगा।
वैज्ञानिकों का मानना है कि बृहस्पति के कुछ चंद्रमाओं की बर्फीली सतह के नीचे तरल पानी उपस्थित है जो जीवन के विकास के लिए उचित वातावरण प्रदान कर सकता है। 1990 के दशक के मध्य में नासा के गैलीलियो प्रोब ने गैनीमेड और युरोपा पर महासागरों के साक्ष्य प्रदान किए थे। इसके बाद 2015 में हबल टेलिस्कोप की मदद से गैनीमेड पर ध्रुवीय ज्योति के संकेत भी मिले जो इस बात का प्रमाण है कि यहां चुंबकीय क्षेत्र मौजूद है।
महासागरों की उपस्थिति के अधिक संकेत जूस द्वारा लेज़र-अल्टीमीटर द्वारा तैयार किए गए स्थलाकृति मानचित्रों से प्राप्त होंगे। अपनी साप्ताहिक परिक्रमा के दौरान गैनीमेड कुछ समय ग्रह के नज़दीक और कुछ समय दूर रहता है, इसके साथ ही अन्य चंद्रमाओं के गुरुत्वाकर्षण खिंचाव से उत्पन्न ज्वारीय बलों के कारण यह फैलता और सिकुड़ता है। एक बर्फीली सतह वाली दुनिया के लिए इस प्रकार की विकृतियां सतह को 10 मीटर तक ऊपर या नीचे ला सकती हैं।
अपनी यात्रा के दौरान जूस 85 वर्ग मीटर के सौर पैनल का उपयोग करेगा जो ग्रह के चारों ओर संचालन के लिए आवश्यक है। इसके अलावा यह विभिन्न देशों द्वारा तैयार किए गए ढेर सारे उपकरण और एंटेना भी तैनात करेगा। बर्फीले चंद्रमाओं की सतहों की मैपिंग के साथ-साथ ये उपकरण उपग्रहों के वायुमंडल, बृहस्पति के मज़बूत चुंबकीय क्षेत्र और विकिरण बेल्ट आदि का भी अध्ययन करेंगे। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://upload.wikimedia.org/wikipedia/commons/thumb/2/21/Ganymede_-Perijove_34_Composite.png/1200px-Ganymede-_Perijove_34_Composite.png
पृथ्वी के बाहर जीवन की संभावना पानी की उपस्थिति पर टिकी है। अब चंद्रमा पर पानी का नया स्रोत मिला है: चंद्रमा की सतह पर बिखरे कांच के महीन मोती। अनुमान है कि पूरे चंद्रमा पर इन मोतियों में अरबों टन पानी कैद है। वैज्ञानिकों को आशा है कि आने वाले समय में चंद्रमा पर पहुंचने वाले अंतरिक्ष यात्रियों के लिए इस पानी का उपयोग किया जा सकेगा। चंद्रमा पर पानी मिलना वहां हाइड्रोजन और ऑक्सीजन के भी सुलभ स्रोत होने की संभावना भी खोलता है।
दरअसल दिसंबर 2020 में चीनी यान चांग’ई-5 जब पृथ्वी पर लौटा तो अपने साथ चंद्रमा की मिट्टी के नमूने भी लाया था। इन नमूनों में वैज्ञानिकों को कांच के छोटे-छोटे (एक मिलीमीटर से भी छोटे) मनके मिले थे। ये मनके चंद्रमा से उल्कापिंड की टक्कर के समय बने थे। टक्कर के परिणामस्वरूप पिघली बूंदें चंद्रमा पर से उछलीं और फिर ठंडी होकर मोतियों में बदलकर वहां की धूल के साथ मिल गईं।
ओपेन युनिवर्सिटी (यू.के.) के खगोल विज्ञानी महेश आनंद और चीन के वैज्ञानिकों के दल ने इन्हीं कांच के मोतियों का परीक्षण कर पता लगाया है कि इनमें पानी कैद है। उनके मुताबिक चंद्रमा पर बिखरे सभी मोतियों को मिला लें तो चंद्रमा की सतह पर 30 करोड़ टन से लेकर 270 अरब टन तक पानी हो सकता है।
यानी चंद्रमा की सतह उतनी भी बंजर-सूखी नहीं है जितनी पहले सोची गई थी। वैसे इसके पहले भी चंद्रमा पर पानी मिल चुका है। 1990 के दशक में, नासा के क्लेमेंटाइन ऑर्बाइटर ने चंद्रमा के ध्रुवों के पास एकदम खड़ी खाई में बर्फ के साक्ष्य पाए थे। 2009 में, चंद्रयान-1 ने चंद्रमा की सतह की धूल में पानी की परत जैसा कुछ देखा था।
अब, नेचर जियोसाइंस में प्रकाशित यह शोध संकेत देता है कि चंद्रमा की सतह पर पानी की यह परत कांच के मनकों में है। कहा जा रहा है कि खाई में जमे पानी का दोहन करने से आसान मोतियों से पानी निकालना होगा।
लगभग आधी सदी बाद अंतरिक्ष एजेंसियों ने चांद पर दोबारा कदम रखने का मन बनाया है। नासा अपने आर्टेमिस मिशन के साथ पहली महिला और पहले अश्वेत व्यक्ति को चांद पर पहुंचाने का श्रेय लेना चाहता है। वहीं युरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी वहां गांव बसाना चाहती है। वहां की ज़रूरियात पूरी करने के लिए दोनों ही एंजेसियां चंद्रमा पर मौजूद संसाधनों का उपयोग करना चाहती हैं। इस लिहाज़ से चंद्रमा पर पानी का सुलभ स्रोत मिलना खुशखबरी है।
लेकिन ये इतना भी आसान नहीं है कि मोतियों को कसकर निचोड़ा और उनमें से पानी निकल आया। हालांकि इस बात के सबूत मिले हैं कि इन्हें 100 डिग्री सेल्सियस से अधिक तपाने पर इनसे पानी बाहर आ सकता है। बहरहाल ये मोती चंद्रमा के ध्रुवों से दूर स्थित जगहों पर पानी के सुविधाजनक स्रोत लगते हैं। इनसे प्रति घनमीटर मिट्टी में से 130 मिलीलीटर पानी मिल सकता है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://cdn.mos.cms.futurecdn.net/ZYZMD7a8pS7kY48A8DpFpF-970-80.jpg.webp