क्षुद्रग्रह पर पहली बार चलता-फिरता रोवर

जापान के क्षुद्रग्रह मिशन हयाबुसा-2 ने एक क्षुद्रग्रह पर दो रोवर उतारने में सफलता प्राप्त की है। 22 सितंबर के दिन जापान एयरोस्पेस एक्प्लोरेशन एजेंसी ने घोषणा की कि मिशन के दो रोवर मिनर्वा-II IA और IB रयूगु नामक क्षुद्रग्रह पर उतार दिए गए और दोनों ही उसकी सतह पर घूम-फिर रहे हैं। उन्होंने क्षुद्रग्रह की तस्वीरें भी भेजी हैं।

यह क्षुद्रग्रह बहुत छोटा है – चौड़ाई मात्र 1 कि.मी.। हयाबुसा पहले तो इन दो रोवर्स को लेकर क्षुद्रग्रह से मात्र 55 मीटर की ऊंचाई पर पहुंचा। इतने करीब पहुंचकर उसने दोनों रोवर्स को सतह पर तैनात किया और वापिस अपनी कक्षा में लौट गया। शुरुआत में जब ये रोवर्स क्षुद्रग्रह की सतह पर उतरे तो इनका पृथ्वी पर स्थित स्टेशन से संपर्क टूट गया। ऐसा शायद इसलिए हुआ था क्योंकि तब ये दोनों रोवर्स क्षुद्रग्रह के उस साइड पर थे जो हमसे ओझल थी। मगर जल्दी ही इन्होंने संकेत भेजना शुरू कर दिया।

इससे पहले भी क्षुद्रग्रहों पर यान उतारे जा चुके हैं मगर यह पहली बार है कि ये यान वहां की सतह पर चल-फिर रहे हैं। इनमें मोटर लगी हैं जिनकी मदद से ये फुदकते हैं। क्षुद्रग्रह के कम गुरुत्वाकर्षण बल के चलते रोवर्स की प्रत्येक उछाल काफी लंबी होती है।

ऐसा माना जाता है कि यह क्षुद्रग्रह शुरुआती सौर मंडल के पदार्थ से निर्मित हुआ है। इसका अध्ययन सौर मंडल की प्रारंभिक स्थितियों को समझने तथा पृथ्वी व अन्य ग्रहों की उत्पत्ति को समझने के उद्देश्य से किया जा रहा है। हयाबुसा-2 कुछ समय बाद एक बार फिर क्षुद्रग्रह की सतह के नज़दीक जाएगा तथा दो और रोवर्स को वहां उतारेगा। इसके अलावा स्वयं हयाबुसा-2 भी सतह पर उतरेगा ताकि वहां की मिट्टी के नमूने पृथ्वी पर ला सके। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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जल्दी ही भारत अंतरिक्ष में मानव भेजेगा

15 अगस्त को प्रधानमंत्री द्वारा 2022 तक मानव को अंतरिक्ष में भेजने के लिए एक महत्वाकांक्षी लक्ष्य निर्धारित किया गया है। इस घोषणा ने देश की अंतरिक्ष एजेंसी के प्रमुख समेत कई लोगों को आश्चर्यचकित किया।

इंडियन स्पेस रिसर्च ऑर्गनाइजेशन (इसरो) के अध्यक्ष डॉ. के. सिवान के अनुसार भारतीय अंतरिक्षउत्साही एक दशक से अधिक समय से मनुष्य को अंतरिक्ष में भेजने पर चर्चा कर रहे हैं लेकिन इस विचार को अब तक राजनीतिक समर्थन नहीं मिला था।

डॉ. सिवान का मानना है कि इसरो अन्य देशों की मदद से मिशन को अंजाम दे सकता है। आने वाले समय में वह तीन अंतरिक्ष यात्रियों को अंतरिक्ष में पांच से सात दिनों के लिए भेजने की योजना पर काम कर रहे हैं। इस मिशन के साथ वे दो अन्य मानव रहित मिशन की भी तैयारी करेंगे जिसे पृथ्वी की निचली कक्षा (300-400 किलोमीटर) में पहुंचाने का प्रयास किया जाएगा। अनुमान है कि इस कार्यक्रम पर लगभग 100 अरब रुपए खर्च होंगे। यदि यह सफल रहा तो संयुक्त राज्य अमेरिका, रूस और चीन के बाद भारत अपने स्वयं के मानवसहित अंतरिक्ष यान को प्रक्षेपित करने वाला चौथा देश बन जाएगा।

इसरो के पास मानवसहित यान के लिए पहले से ही कई प्रमुख हिस्से मौजूद हैं। इनमें अंतरिक्ष यात्री को ले जाने और उनके बचाव के लिए एक मॉड्यूल मौजूद है। इसरो ने बारबार उपयोग में आने वाली एक अंतरिक्ष शटल का सफलतापूर्वक परीक्षण किया है। जीएसएलवी मार्क III रॉकेट का इस्तेमाल यान को लॉन्च करने के लिए किया जाएगा। एजेंसी को अपनी कुछ तकनीकों को अपग्रेड करके मानवसहित मिशन के लिए परीक्षण करना होगा। जैसे जीएसएलवी मार्क III रॉकेट को मानवसहित उपग्रह भेजने के लिए तैयार करना होगा जो वज़नी होते हैं। एजेंसी के पास अंतरिक्ष में यात्रियों को स्वस्थ रखने और उन्हें सुरक्षित वापस लाने का कोई अनुभव नहीं है।

इस कार्य को पूरा करने के लिए इसरो को एयरोस्पेस मेडिसिन संस्थान तथा कई विदेशी विशेषज्ञों की मदद की ज़रूरत पड़ेगी। हो सकता है अंतरिक्ष यात्रियों को प्रशिक्षित करने संयुक्त राज्य अमेरिका, रूस या युरोप में सुविधाओं का उपयोग करना पड़े। एक विकल्प तकनीक को खरीदने का भी हो सकता है लेकिन यह काफी महंगा होगा।   

सवाल यह भी है कि क्या इसरो द्वारा देश कि जनता की भलाई को देखते हुए संचार और मौसम पूर्वानुमान के लिए उपग्रहों को लॉन्च करना ज़्यादा महत्वपूर्ण है या फ़िर लोगों को अंतरिक्ष में भेजना जिसमें कार्यक्रम के दुर्लभ संसाधन खर्च हो जाएंगे।

कई पर्यवेक्षकों का मानना है कि भारत को कम समय सीमा में लक्ष्य को पूरा करने के लिए काफी संघर्ष करना है, जबकि अन्य विशेषज्ञों ने इसरो से परामर्श किए बिना अंतरिक्ष कार्यक्रम की घोषणा के लिए सरकार की आलोचना की है। सी.एस.आई.आर, दिल्ली के पूर्व सेवानिवृत्त शोधकर्ता गौहर रज़ा के अनुसार इसे भारत के अंतरिक्ष कार्यक्रम की नई योजना की बजाय 2019 के चुनावी भाषण के रूप में देखा जाना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)

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आओ तुम्हें सूरज पर ले जाएं!

चांद की लोरियां गातेगाते मनुष्य आखिर चांद पर पहुंच ही गया। और अब इच्छा और तैयारी सूरज पर जाने की है। यह तैयारी सिर्फ अवधारणा के स्तर पर नहीं बल्कि सूरज पर जाने को तैयार अंतरिक्ष यान के रूप में है।

जल्दी ही नासा का पारकर सोलर प्रोब फ्लोरिडा स्थित केनेडी स्पेस सेंटर से छोड़ा जाएगा और शुक्र ग्रह पर पहुंचेगा। शुक्र का गुरुत्वाकर्षण इसे सूरज की ओर धकेल देगा। इसके 6 सप्ताह बाद पारकर प्रोब सूरज के प्रभामंडल से टकराएगा और उसे पार कर जाएगा। प्रभामंडल दरअसल अत्यंत गर्म, आवेशित कणों का एक वायुमंडल है। अब से लेकर 2024 तक पारकर प्रोब सूरज के करीब 24 बार पहुंचेगा।

इस प्रोब का नाम सौर भौतिकविद यूजीन पारकर के नाम पर रखा गया है। पारकर ने 1958 में सौर आंधियों की बात की थी जो प्लाज़्मा कणों की एक धारा होती है और जब सूर्य सक्रिय होता है तो यह धारा सौर मंडल में दूरदूर तक पहुंचती है और हमारे कृत्रिम उपग्रहों, संचार प्रणालियों को तहसनहस करने की क्षमता रखती है। पारकर प्रोब का एक प्रमुख मकसद सौर आंधियों का अध्ययन करना है।

जब यह सूरज के इतना नज़दीक पहुंचेगा तो ज़ाहिर है इसे अत्यंत उच्च तापमान का सामना करना होगा। तापमान इतना अधिक होगा कि धातु पिघल जाए, वाष्पित हो जाए। तो इस प्रोब को सूर्य के उच्च तापमान से सुरक्षित रखने के लिए कार्बनफोम का रक्षा कवच प्रदान किया गया है। यदि सब कुछ आशा के अनुरूप चला तो पारकर प्रोब प्रभामंडल के प्लाज़्मा और वहां उपस्थित चुंबकीय क्षेत्र का रिकॉर्ड पृथ्वी पर भेजेगा।

सूरज की सैर पर निकलने वाला पारकर अकेला यान नहीं है। दो अन्य यानों को भेजने की भी तैयारियां हो चुकी हैं। हवाई द्वीप पर डीकेआईएसटी दूरबीन को अंतिम रूप दिया जा रहा है। जून 2020 में यह दूरबीन सूरज की सतह के नज़दीकी चित्र खींच पाएगी।

इसी के साथ युरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी भी एक सोलर ऑर्बाइटर की योजना पर काम कर रही है। यह सूरज के उतना करीब तो नहीं जाएगा जितना पारकर प्रोब पहुंचेगा किंतु काफी करीब पहुंचेगा और वहां से निकलने वाले अतिऊर्जावान विकिरण का अध्ययन करेगा।(स्रोत फीचर्स)

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आइंस्टाइन एक बार सही साबित हुए

क तारा आकाशगंगा के मध्य में स्थित एक ब्लैक होल के नज़दीक से गुज़रते हुए आइंस्टाइन के सामान्य सापेक्षता सिद्धांत को और पुष्ट कर गया। s2 नामक इस तारे के अवलोकन की रिपोर्ट जर्मनी के मैक्स प्लैंक इंस्टीट्यूट फॉर एक्स्ट्रा-टेरेस्ट्रियल फिज़िक्स के राइनहार्ड गेंज़ेल और उनकी अंतर्राष्ट्रीय टीम ने एस्ट्रॉनॉमी एंड एस्ट्रोफिज़िक्स नामक जर्नल में प्रकाशित की है। इस टीम में जर्मनी, नेदरलैंड, फ्रांस, पुर्तगाल, स्विटज़रलैंड और संयुक्त राज्य अमेरिका के वैज्ञानिक शामिल थे।

ऐसे ही अवलोकन एक और टीम ने भी किए हैं। एंड्रिया गेज़ के नेतृत्व में कार्य रही इस दूसरी टीम ने कहा है कि वे अपने आंकड़े व निष्कर्ष कुछ समय बाद प्रकाशित करेंगे क्योंकि उन्हें कुछ और अवलोकनों का इंतज़ार है।

गेंज़ेल की टीम के सारे अवलोकन चिली स्थित युरोपियन दक्षिणी वेधशाला में स्थापित एक विशाल दूरबीन से किए गए। दरअसल तारा s2 आकाशगंगा के मध्य में स्थित एक ब्लैक होल की परिक्रमा करता है। इसे यह परिक्रमा करने में पूरे 16 साल लगते हैं। गेंज़ेल की टीम इस तारे को 1990 के दशक से देखती आ रही है। जब यह तारा ब्लैक होल के नज़दीक आया तो इसका वेग 7600 किलोमीटर प्रति सेकंड हो गया, जो प्रकाश के वेग का लगभग 3 प्रतिशत है।

गौरतलब है कि उक्त ब्लैक होल आकाशगंगा का सबसे भारी-भरकम पिंड है। यह हमसे 26,000 प्रकाश वर्ष की दूरी पर धनु तारामंडल में स्थित है और इसका द्रव्यमान हमारे सूर्य से 40 लाख गुना ज़्यादा है। यह ब्लैक होल आकाशगंगा में सबसे सशक्त गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र उत्पन्न करता है।

जब तारा च्2 ब्लैक होल के सबसे नज़दीक था उस समय किए गए अवलोकनों से पता चला कि इस तारे से उत्सर्जित प्रकाश की आवृत्ति में कमी आई। दूसरे शब्दों में इसके प्रकाश में लाल-विचलन या रेडशिफ्ट देखा गया। आइंस्टाइन के सापेक्षता सिद्धांत का यही निष्कर्ष था कि जब कोई प्रकाश उत्सर्जित करता पिंड सशक्त गुरुत्वाकर्षण से प्रभावित होगा तो उसके प्रकाश में लाल-विचलन होना चाहिए। पिछले दो दशकों के अवलोकन आइंस्टाइन की इस भविष्यवाणी को सही साबित कर रहे हैं।(स्रोत फीचर्स)

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मंगल ग्रह के गड्ढों से उसके झुकाव की जानकारी

ह तो हम सभी जानते हैं कि पृथ्वी का अक्ष या धुरी 23.5 डिग्री झुकी हुई है। इस कारण से इसके उत्तरी ध्रुव का झुकाव कभी सूरज की ओर हो जाता है तो कभी दूर हो जाता है। इस झुकाव के चलते हमें विभिन्न मौसम मिलते हैं। मंगल सहित अन्य ग्रहों की धुरियां भी झुकी हुई हैं हालांकि प्रत्येक के झुकाव का कोण अलग-अलग है। हाल ही में शोधकर्ताओं ने पिछले 3.5 अरब वर्षों में मंगल के झुकाव में आए बदलाव का खुलासा किया है। इस अध्ययन के परिणामों से पता चल सकता है कि लाल ग्रह पर बर्फ कितनी बार पिघलकर पानी बना होगा।

अध्ययन के लिए वैज्ञानिकों ने मंगल के विभिन्न कंप्यूटर मॉडल तैयार किए। प्रत्येक मॉडल में ग्रह अलग-अलग कोण पर झुका हुआ था। अब उन्होंने ग्रह के प्रत्येक मॉडल पर क्षुद्रग्रहों की बौछार की। देखा गया कि अधिक झुकाव वाले मॉडलों पर क्षुद्रग्रहों की बौछार से निर्मित अंडाकार क्रेटर बड़ी तादाद में मॉडल पर समान रूप से वितरित हुए थे। दूसरी ओर, झुकाव रहित मॉडल्स में क्षुद्रग्रहों की टक्कर के बाद अंडाकार क्रेटर भूमध्य (मंगलमध्य) रेखा के इर्द-गिर्द पाए गए। ऐसे अंडाकार क्रेटर तब बनते हैं जब कोई उल्का ग्रह की सतह से न्यून कोण पर (क्षितिज के लगभग समांतर) टकराए। यदि उल्का लंबवत गिरे या लगभग लंबवत गिरे तो क्रेटर वृत्ताकार बनता है।

अब शोधकर्ताओं ने मंगल की वास्तविक सतह पर उपस्थित 1500 से अधिक अंडाकार क्रेटर्स को देखा और उनके वितरण की तुलना मॉडलों से की। इस तुलना के आधार पर उनका निष्कर्ष है कि अतीत में मंगल 10 डिग्री से लेकर 30 डिग्री के बीच झुका हुआ था। वर्तमान में यह 25 डिग्री झुका है। शोधकर्ताओं ने अर्थ एंड प्लेनेटरी साइंस लेटर्स में बताया है कि अन्य ग्रहों के गुरुत्वाकर्षण प्रभाव के चलते समय के साथ मंगल के झुकाव में परिवर्तन आया है। लेकिन उनका यह भी विचार है कि पिछले कुछ अरब वर्षों में अधिक से अधिक 20 प्रतिशत समय मंगल का झुकाव 40 डिग्री से अधिक रहा होगा।

टीम के अनुसार इतने लंबे समय तक मंगल ग्रह के कम झुकाव के चलते काफी भूमिगत स्रोत सूख गए होंगे। किंतु सारे स्रोत नहीं सूखे होंगे क्योंकि मंगल पर पानी का एक भूमिगत स्रोत हाल ही में खोजा गया है।(स्रोत फीचर्स)

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थोड़ा ही सही, सूरज भी सिकुड़ता है

क नए अध्ययन से पता चला है कि सूरज की त्रिज्या एक अवधि में चुटकी भर छोटी होती है। यह वह समय होता है जब सूरज सबसे अधिक सक्रिय होता है। सूरज के सक्रियता का चक्र लगभग 11 साल का होता है। इसे सौर चक्र भी कहते हैं। इन 11 सालों में उच्च और निम्न चुंबकीय गतिविधि देखने को मिलती है।

एस्ट्रोफिज़िकल जर्नल में दो शोधकर्ताओं ने यह दावा किया है कि सूरज की इस सक्रिय अवस्था में उसकी त्रिज्या में 1 से 2 किलोमीटर की कमी होती है। देखा जाए तो यह 1-2 किलोमीटर की कमी सूरज की 7 लाख किलोमीटर त्रिज्या के सामने कुछ भी नहीं है।

सूरज कि सतह ठोस नहीं है इसलिए इसके आकार को परिभाषित करना आसान नहीं है। वर्ष 2010 में हवाई विश्वविद्यालय के खगोलज्ञ जेफ कुन ने इसकी जांच करने की कोशिश की थी। सूर्य के केंद्र से बाहर की उसकी चमक कम होने के आधार पर उसकी चौड़ाई पता की जा सकती है। कुन और सहयोगियों ने जब इस आधार को सामने रखकर अध्ययन किया तब उनको कोई ऐसा संकेत नहीं मिला जिससे यह कहा जा सके कि सौर चक्र के दौरान सूरज की त्रिज्या में किसी प्रकार का परिवर्तन होता है।

लेकिन हाल ही में एक नए अध्ययन से मालूम चला है सूरज की त्रिज्या नापने का एक और तरीका है जिसे कंपन त्रिज्या कहा जाता है। इसे सूरज के भीतर चलने वाले कंपनों की मदद से मापा जाता है। सूरज के सिकुड़ने या फैलने पर इन कंपनों की आवृत्ति में बदलाव होता है।

न्यू जर्सी इंस्टिट्यूट ऑफ़ टेक्नॉलॉजी, न्यूयॉर्क के एलेक्ज़ेंडर कोसोविचेव और कोट डीअज़ूर युनिवर्सिटी, फ्रांस के ज़्यांपियरे रोज़ेलॉट अपने पेपर में कहते हैं कि कंपन तरंगों के उपयोग से अधिक सटीकता से त्रिज्या का पता लगाया जा सकता है। कंपन त्रिज्या का पता लगाने के लिए ताराभौतिकविदों ने दो अंतरिक्ष यानों से 21 साल में जमा किए गए कीमती डैटा का उपयोग किया। सूरज की अलगअलग परतों में विस्तार या संकुचन की मात्रा अलग होती है। लेकिन सूर्य की सक्रिय अवस्था में कंपन त्रिज्या में कुल मिलाकर कमी आती है।

हालांकि यह नया मापने का तरीका सूर्य की चमक आधारित त्रिज्या को मापने का विकल्प नहीं है। ये दोनों तरीके अलगअलग तकनीकों पर आधारित हैं, जो सूर्य के व्यवहार के अलगअसग पहलुओं का पता करते हैं।

येल विश्वविद्यालय से सेवानिवृत्त खगोलशास्त्री सबातिनो सोफिया के अनुसार सूरज की कंपन त्रिज्या सूरज के भीतर विभिन्न गहराई पर चुंबकीय तीव्रता में उतारचढ़ाव को समझने में मदद कर सकती है। पहले मात्र अनुमान थे लेकिन अब इस बात की पुष्टि हुई है कि सौर चक्र के दौरान सूर्य की कंपन त्रिज्या बदलती है।(स्रोत फीचर्स)

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यान के उतरने पर चांद को कितना नुकसान

हमदाबाद स्थित राष्ट्रीय भौतिक प्रयोगशाला के वैज्ञानिकों ने गणना की है कि जब कोई यान चांद पर उतरता है तो चांद की सतह पर कितने गहरे गड्ढे बनते हैं और कितनी धूल उड़ती है। इस गणना का मकसद चांद को कवियों और शायरों के लिए सुरक्षित रखना नहीं बल्कि अवतरण को ज़्यादा सुरक्षित बनाना है।

एस. के. मिश्रा व उनके साथियों ने अपने शोध के परिणाम प्लेनेट स्पेस साइन्स नामक शोध पत्रिका में प्रकाशित किए हैं। जब कोई यान चंद्रमा पर (या किसी भी ग्रह पर) उतरता है तो वह खूब धूल उड़ाता है। इसके चलते गड्ढे वगैरह तो बनते ही हैं, सारी धूल जाकर यान के सौर पैनल पर जमा हो जाती है। यान के लिए ऊर्जा का प्रमुख स्रोत यही सौर पैनल होते हैं जिनकी मदद से सौर ऊर्जा का दोहन होता है। जब इन पर धूल जमा हो जाती है तो ये पैनल ठीक से काम नहीं कर पाते।

मिश्रा व उनके साथियों ने इस क्षति की गणना करने के लिए यह देखा कि उतरने से पूर्व यान कितनी देर तक सतह के ऊपर मंडराता है और कितनी ऊंचाई पर मंडराता है। इन दोनों बातों का असर यान के द्वारा उड़ाई गई धूल की मात्रा पर और धूल के कणों की साइज़ पर पड़ता है।

शोधकर्ताओं ने पाया कि मूलत: यान के सतह से ऊपर मंडराने के समय का असर धूल की मात्रा पर पड़ता है। उनकी गणना बताती है कि यदि मंडराने की अवधि को 25 सेकंड से बढ़ाकर 45 सेकंड कर दिया जाए तो धूल की मात्रा तीन गुनी हो जाती है।

इन परिणामों के मद्देनज़र शोधकर्ताओं का सुझाव है कि चांद की सतह पर क्षति को न्यूनतम रखने के लिए बेहतर होगा कि यान के मंडराने का समय कम से कम रखा जाए। इसके अलावा, उनका यह भी मत है कि अवतरण के समय यान पर ब्रेक लगाने का काम काफी ऊंचाई से ही शुरू कर देना चाहिए और जब यान सतह से 10 मीटर की ऊंचाई पर हो तो ब्रेक लगाना बंद कर देना चाहिए या कम से कम ब्रेक लगाने चाहिए। शोधकर्ताओं के मुताबिक उनके निष्कर्ष चांद पर अवतरण को ज़्यादा सुरक्षित बनाएंगे।(स्रोत फीचर्स)

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पृथ्वी के भूगर्भीय इतिहास में नया युग

अंतर्राष्ट्रीय भूगर्भ विज्ञान संघ ने हाल ही में घोषणा की है कि पृथ्वी के वर्तमान दौर को एक विशिष्ट काल के रूप में जाना जाएगा। यह होलोसीन युग का एक हिस्सा है जिसे नाम दिया गया है मेघालयन। भूगर्भ संघ के मुताबिक हम पिछले 4200 वर्षों से जिस काल में जी रहे हैं वही मेघायलन है।

भूगर्भ वैज्ञानिकों ने पृथ्वी के लगभग 4.6 अरब वर्ष के अस्तित्व को कई कल्पों, युगों, कालों, अवधियों वगैरह में बांटा है। इनमें होलोसीन एक युग है जो लगभग 11,700 वर्ष पहले शुरू हुआ था। अब भूगर्भ वैज्ञानिक मान रहे हैं कि पिछले 4,200 वर्षों को एक विशिष्ट नाम से पुकारा जाना चाहिए भारत के मेघालय प्रांत से बना नाम मेघालयन।

दरअसल, भूगर्भीय समय विभाजन भूगर्भ में तलछटों की परतों, तलछट के प्रकार, उनमें पाए गए जीवाश्म तथा तत्वों के समस्थानिकों की उपस्थिति के आधार पर किया जाता है। समस्थानिकों की विशेषता है कि वे समय का अच्छा रिकॉर्ड प्रस्तुत करते हैं। इनके अलावा उस अवधि में घटित भौतिक व रासायनिक घटनाओं को भी ध्यान में रखा जाता है।

अंतर्राष्ट्रीय भूगर्भ विज्ञान संघ ने बताया है कि दुनिया के कई क्षेत्रों में आखरी हिम युग के बाद कृषि आधारित समाजों का विकास हुआ था। इसके बाद लगभग 200 वर्षों की एक जलवायुसम्बंधी घटना ने इन खेतिहर समाजों को तहसनहस कर दिया था। इन 200 वर्षों के दौरान मिस्र, यूनान, सीरिया, फिलीस्तीन, मेसोपोटेमिया, सिंधु घाटी और यांगत्से नदी घाटी में लोगों का आव्रजन हुआ और फिर से सभ्यताएं विकसित हुर्इं। यह घटना एक विनाशकारी सूखा था और संभवत: समुद्रों तथा वायुमंडलीय धाराओं में बदलाव की वजह से हुई थी।

इस अवधि के भौतिक, भूगर्भीय प्रमाण सातों महाद्वीपों पर पाए गए हैं। इनमें मेघायल में स्थित मॉमलुह गुफा (चेरापूंजी) भी शामिल है। भूगर्भ वैज्ञानिकों ने दुनिया भर के कई स्थानों से तलछट एकत्रित करके विश्लेषण किया। मॉमलुह गुफा 1290 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है और यह भारत की 10 सबसे लंबी व गहरी गुफाओं में से है (गुफा की लंबाई करीब 4500 मीटर है)। इस गुफा से प्राप्त तलछटों में स्टेलेग्माइट चट्टानें मिली हैं। स्टेलेग्माइट किसी गुफा के फर्श पर बनी एक शंक्वाकार चट्टान होती है जो टपकते पानी में उपस्थित कैल्शियम लवणों के अवक्षेपण के कारण बनती है। संघ के वैज्ञानिकों का मत है कि इस गुफा में जो परिस्थितियां हैं, वे दो युगों के बीच संक्रमण के रासायनिक चिंहों को संरक्षित रखने के हिसाब से अनुकूल हैं।

गहन अध्ययन के बाद विशेषज्ञों के एक आयोग ने यह प्रस्ताव दिया कि होलोसीन युग को तीन अवधियों में बांटा जाना चाहिए। पहली, ग्रीलैण्डियन अवधि जो 11,700 वर्ष पहले आरंभ हुई थी। दूसरी, नॉर्थग्रिपियन अवधि जो 8,300 वर्ष पूर्व शुरू हुई थी और अंतिम मेघालयन अवधि जो पिछले 4,200 वर्षों से जारी है। अंतर्राष्ट्रीय भूगर्भ विज्ञान संघ ने इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया है।

मेघालयन अवधि इस मायने में अनोखी है कि यहां भूगर्भीय काल और एक सांस्कृतिक संक्रमण के बीच सीधा सम्बंध नज़र आता है। (स्रोत फीचर्स)

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अब बृहस्पति के पूरे 79 चांद हैं

दि बृहस्पति पर रहते तो कवियों-शायरों को मज़ा आ जाता या उनकी शामत आ जाती। वहां के आकाश में अब कुल 79 चांद हैं। तो चांद की उपमा देते समय स्पष्ट करना होता कि किस नंबर के चांद की बात हो रही है। खैर, वह बहस तो शायर लोग कर लेंगे पर तथ्य है कि हाल ही में खगोलवेत्ताओं ने बृहस्पति के 10 नए उपग्रह खोजे हैं और कुल संख्या 79 हो गई है। और तो और, वैज्ञानिकों का कहना है कि अभी गिनती पूरी नहीं हुई है।

और बृहस्पति के चांदों की फितरत भी सामान्य नहीं है। इनका अध्ययन करके वैज्ञानिक उम्मीद कर रहे हैं कि हमें ग्रहों के बनने की प्रक्रिया को समझने में भी मदद मिल सकती है। जैसे वैज्ञानिकों के मुताबिक इतने सारे छोटे-छोटे चंद्रमाओं की उपस्थिति से लगता है कि जब करीब 4 अरब वर्ष पूर्व बृहस्पति का निर्माण हुआ था, ये उपग्रह साथ-साथ नहीं बने थे। ये बाद में टक्करों के फलस्वरूप बने होंगे।

किसी ग्रह के उपग्रह ग्रह के चक्कर लगाते हैं। आम तौर पर उनकी चक्कर लगाने की दिशा वही होती है जिस दिशा में ग्रह अपनी अक्ष पर घूर्णन कर रहा है। बृहस्पति के कई सारे चंद्रमा तो इस परिपाटी का पालन करते हैं मगर कुछ ऐसे चंद्रमा भी हैं जो उल्टी दिशा में घूम रहे हैं। इससे भी लगता है कि ये गैस के उसी बादल से बृहस्पति के साथ-साथ अस्तित्व में नहीं आए होंगे।

वैसे बृहस्पति के तीन चंद्रमा का पता तो गैलीलियो के समय में ही लग चुका था। दूरबीन से देखने पर गैलीलियो ने पाया था कि ये पिंड बृहस्पति का चक्कर काट रहे हैं। इस अवलोकन ने पहली बार इस शंका को जन्म दिया था कि शायद सारे आकाशीय पिंड पृथ्वी की परिक्रमा नहीं करते हैं। सत्रहवीं सदी के उत्तरार्ध में प्रसिद्ध खगोल शास्त्री रोमर ने बृहस्पति के चंद्रमाओं के उसके पीछे छिपने और वापिस प्रकट होने का अध्ययन करके पहली बार प्रकाश की गति का अनुमान लगाया था।

कहने का मतलब है कि बृहस्पति के चंद्रमाओं का खगोल शास्त्र के इतिहास में अहम स्थान रहा है। अब यही चंद्रमा हमें ग्रहों के निर्माण की प्रक्रिया को समझने में भी मदद करेंगे। (स्रोत फीचर्स)

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गुरुत्व तरंग प्रयोग का और विश्लेषण

पिछले साल लिगो (लेज़र इंटरफेरोमीटर गुरुत्वतरंग प्रेक्षक) टीम ने दो न्यूट्रॉन तारों के परस्पर विलय के फलस्वरूप उत्पन्न हुई गुरुत्व तरंगों को पकड़ा था। वैज्ञानिकों का ख्याल है कि उस अवलोकन से जो आंकड़े मिले थे उनके विश्लेषण से नए-नए निष्कर्ष निकालने की अभी और संभावना है। यह काम किया भी जा रहा है।

हाल ही में उन आंकड़ों के नए सिरे से विश्लेषण के आधार पर न्यूट्रॉन तारों की आंतरिक संरचना के बारे में नए सुराग मिले हैं। न्यूट्रॉन तारा तब बनता है जब कोई विशाल तारा फूटता है और उसका अधिकांश पदार्थ अंतरिक्ष में बिखर जाता है किंतु अंदर का पदार्थ अत्यंत घना हो जाता है। इतने घने पदार्थ का गुरुत्वाकर्षण भी बहुत अधिक होता है किंतु ब्लैक होल जितना नहीं होता।

पिछले साल अगस्त में जो गुरुत्व तरंगें देखी गई थीं वे पृथ्वी से 13 करोड़ प्रकाश वर्ष दूर दो न्यूट्रॉन तारों के आपस में विलय की घटना में उत्पन्न हुई थीं। लेकिन तब यह नहीं बताया गया था कि इस विलय के बाद क्या बना – क्या विलय के उपरांत एक और न्यूट्रॉन तारा बना या ब्लैक होल?

अब उस विलय के आंकड़ों का एक बार फिर विश्लेषण किया गया है। विश्लेषण से पता यह चला है कि जब उक्त दो न्यूट्रॉन तारे एक दूसरे का चक्कर काटते हुए संयुक्त विनाश की ओर बढ़ रहे थे, तब उनकी परिक्रमा ऊर्जा अंतरिक्ष में बिखर रही थी। साथ ही अपने-अपने गुरुत्वाकर्षण बल के कारण वे एक-दूसरे की सतह पर ज्वार भी उत्पन्न कर रहे थे। ज्वार-आधारित परस्पर क्रिया की वजह से उनकी परिक्रमा ऊर्जा और तेज़ी से कम हुई और उनकी टक्कर अपेक्षा से जल्दी हुई।

उपरोक्त ज्वारीय अंत र्क्रिया की प्रकृतिव परिमाण उन तारों की आंतरिक संरचना पर निर्भर होगा। वैज्ञानिकों का ख्याल है कि लिगो प्रेक्षण के दौरान जो आंकड़े मिले थे, उनका और अधिक बारीकी से विश्लेषण करके न्यूट्रॉन तारों की आंतरिक रचना के बारे में पता चल सकेगा। एक अनुमान यह भी है कि आंतरिक दबाव के चलते शायद उनमें न्यूट्रॉन और भी मूलभूत कणों (क्वार्क्स) में टूट गए होंगे और शायद हमें इनके बारे में कुछ और पता चले। तो प्रयोग के आंकड़ों की बाल की खाल निकालकर वैज्ञानिक अधिक से अधिक समझ बनाने की जुगाड़ में हैं। (स्रोत फीचर्स)

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फोटो क्रेडिट : NASA