सबसे छोटे तारे कितने छोटे हो सकते हैं

खगोलशास्त्री लंबे समय से एक सवाल का जवाब खोजने का प्रयास कर रहे हैं: कोई तारा (Star) कितना छोटा हो सकता है? नासा के जेम्स वेब स्पेस टेलीस्कोप (James Webb Space Telescope – JWST) द्वारा एक ब्राउन ड्वार्फ (Brown Dwarf) का हालिया अवलोकन संभवतः इस जवाब के करीब ले जाता है। JWST की पैनी व अवरक्त निगाह ने अब तक देखे गए सबसे छोटे ब्राउन ड्वार्फ में से कुछ की पहचान की है। इनका द्रव्यमान (Mass) बृहस्पति (Jupiter) ग्रह के द्रव्यमान से तीन से आठ गुना के बीच है। 

ब्राउन ड्वार्फ ऐसे खगोलीय पिंड (Astronomical Objects) होते हैं जिनका निर्माण तो तारों की तरह ही होता है, लेकिन इनका द्रव्यमान इतना कम होता है कि इनके केंद्र में नाभिकीय संलयन (Nuclear Fusion) बहुत कम हो पाता है – इतना कम कि वह इन्हें तारों समान चमकीला बनाने के लिए पर्याप्त नहीं होता। इसी कारण से ब्राउन ड्वार्फ को कभी-कभी ‘नाकाम तारे’ (Failed Stars) भी कहा जाता है। गौरतलब है कि संलयन से चमक पैदा करने के लिए सितारों को बृहस्पति ग्रह से लगभग 70 गुना अधिक द्रव्यमान का होना आवश्यक होता है। फिर भी, बृहस्पति के द्रव्यमान से 13 गुना अधिक द्रव्यमान के ब्राउन ड्वार्फ थोड़े समय के लिए ड्यूटेरियम (Deuterium) नामक हाइड्रोजन समस्थानिक परमाणुओं का संलयन करके धीमे-धीमे जल सकते हैं। उससे कम पर वे बिल्कुल भी नहीं जलते हैं। अलबत्ता, सबसे छोटे ब्राउन ड्वार्फ और ग्रहों (Planets) के बीच अंतर करना मुश्किल हो सकता है क्योंकि हो सकता है कि वे एक जैसे दिखाई दें। 

2021 में JWST लॉन्च होने से पहले, खगोलविद बृहस्पति के पांच गुना साइज़ के ब्राउन ड्वार्फ का पता लगा सकते थे। लेकिन अब, JWST के उन्नत अवरक्त सेंसर (Infrared Sensors) के माध्यम से वस्तुओं की अत्यंत मंद रोशनी को देखने की क्षमता ने शोधकर्ताओं को बृहस्पति से तीन गुना द्रव्यमान के हल्के ब्राउन ड्वार्फ को खोजने में सक्षम बनाया है। 

यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी (European Space Agency) के मार्क मैककॉग्रेन और सैमुअल पीयर्सन के दल ने ओरायन नेबुला (Orion Nebula) में चतुर्भुजी झुंड (Quadrupole Cluster) के निरीक्षण के दौरान जोड़ियों में परिक्रमा करते हुए 42 ब्राउन ड्वार्फ की खोज की है। इनमें से कुछ जोड़ियां, जिन्हें जुपिटर-मास बायनरी ऑब्जेक्ट्स (JuMBOs) कहा जाता है, लगभग बृहस्पति जितने छोटे हैं। यह खोज वर्तमान तारा निर्माण मॉडल (Star Formation Model) को चुनौती देती है, जो भविष्यवाणी करते हैं कि द्रव्यमान में कमी के साथ-साथ युग्मित तारे दुर्लभ होते जाने चाहिए। यदि ये JuMBOs वास्तव में उतने ही हल्के हैं जितने वे दिखाई देते हैं, तो वे तारों के निर्माण के बारे में हमारी सोच को बदल सकते हैं।  

हालांकि, हर कोई इस व्याख्या से सहमत नहीं है। कुछ वैज्ञानिकों का मानना है कि ये वस्तुएं ब्राउन ड्वार्फ हो ही नहीं हो सकती हैं। उनके मुताबिक, वे दूर के तारे (Distant Stars) या आकाशगंगाएं (Galaxies) हो सकती हैं जिनका प्रकाश ओरायन नेबुला में धूल (Dust) के कारण धुंधला पड़ जाता है, जिसकी वजह वे अपने वास्तविक आकार से छोटे दिखाई देते हैं। हालांकि, मैककॉग्रीन का कहना है कि सांख्यिकीय रूप से इन वस्तुओं का दूर की पृष्ठभूमि की वस्तुएं होना असंभव है, क्योंकि इतने सारे पिंडों का इस तरह पंक्तिबद्ध दिखाई देना संभव नहीं लगता। इन तारों की इस जमावट को वे ‘जंबो एली’ कहते हैं।

बहरहाल, इस मुद्दे पर बहस जारी है। मैककॉग्रीन और पीयर्सन आगे बढ़ रहे हैं। उन्होंने पहले ही चतुर्भुजी झुंड की अधिक विस्तृत तस्वीरें ले ली हैं और जल्द ही नए निष्कर्ष प्रकाशित करेंगे। ये अवलोकन JuMBO के अस्तित्व की पुष्टि कर सकते हैं और खगोलविदों को अपनी पूर्व मान्यताओं पर पुनर्विचार करने को मजबूर कर सकते हैं। मैककॉग्रीन JWST की सीमाओं को बढ़ाने की योजना बना रहे हैं ताकि उन छोटे ब्राउन ड्वार्फ की खोज की जा सके जो शनि (Saturn) जितने हल्के हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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चांद पर समय का मापन

डॉ. सुशील जोशी

आगामी दशक में चंद्र अभियानों (Lunar Missions) में ज़बर्दस्त उछाल की संभावना जताई जा रही है। एक विचार यह है कि कुछ अभियान चांद पर स्थायी ठिकाना बनाने (Permanent Settlement on Moon) का प्रयास करेंगे। इन प्रयासों के सामने तमाम चुनौतियां हैं। इनमें से एक प्रमुख चुनौती यह है कि चांद पर समय का हिसाब कैसे रखें (Time Measurement on the Moon)। और दुनिया भर के मापन वैज्ञानिक (Measurement Scientists) इससे जूझ रहे हैं। 

फिलहाल चांद का कोई अपना स्वतंत्र समय नहीं है (Independent Time on the Moon)। हर चंद्र अभियान (Lunar Mission) समय का अपना-अपना पैमाना इस्तेमाल करता है और इसे पृथ्वी पर बैठे परिचालक समन्वित सार्वभौमिक समय (coordinated universal time, UTC) से लिंक करके रखते हैं। UTC ही वह पैमाना है जिसके सापेक्ष पृथ्वी की सारी घड़ियों का तालमेल बनाकर रखा जाता है। 

अलबत्ता, यह तरीका थोड़ा कम सटीक है (Less Accurate) और चांद का अन्वेषण करते विभिन्न यान (Lunar Probes) एक-दूसरे के साथ समय को सिंक्रोनाइज़ नहीं करते हैं। दो-चार यान होने तक तो यह तरीका चल जाता है लेकिन दर्जनों यान मिलकर काम करेंगे तो परेशानी शुरू हो जाएगी। इसके अलावा, अंतरिक्ष एजेंसियां (Space Agencies) इन यानों पर अपने उपग्रहों के ज़रिए नज़र रखना चाहेंगी। अब यदि सब अपना-अपना समय रखेंगे तो तालमेल मुश्किल होगा। 

अभी यह स्पष्ट नहीं है कि चांद के लिए UTC का समकक्ष (universal lunar time) क्या हो। और इसका तालमेल पृथ्वी के समय से कैसे बनाया जाए (Synchronization with Earth Time)। चांद और पृथ्वी पर गुरुत्व बल (Gravitational Force) अलग-अलग होता है। इसलिए दोनों की घड़ियां अलग-अलग गति से चलती है। इस प्रभाव के कारण चांद पर रखी घड़ी पृथ्वी की घड़ियों की तुलना में रोज़ाना 58.7 माइक्रोसेकंड आगे हो जाएगी (Microsecond Time Difference)। अब जब सारा कामकाज अधिक सटीकता से होगा तो इतना अंतर भी अहम साबित होगा। 

पहला सवाल तो यह आएगा कि क्या अधिकारिक चंद्र-समय (Official Lunar Time) ऐसी घड़ियों पर आधारित हो जिन्हें UTC के साथ लयबद्ध कर दिया गया हो या वहां के लिए स्वतंत्र समय का निर्धारण किया जाए। और खगोलविदों (Astronomers) का मानना है कि निर्णय जल्दी करना होगा क्योंकि ऐसा न हुआ तो विभिन्न अंतरिक्ष एजेंसियां और निजी कंपनियां अपना-अपना समाधान लागू करने लगेंगी। 

धरती के चक्कर काट रहे उपग्रहों के लिए एक ग्लोबल पोज़ीशनिंग सिस्टम (GPS) स्थापित की गई है। यह सिस्टम उपग्रहों (Satellites) की मदद से पृथ्वी पर किसी बिंदु की स्थिति का सटीक निर्धारण करने में मददगार होती है। इसी प्रकार का एक सिस्टम – ग्लोबल सेटेलाइट नेविगेशन सिस्टम (Global Satellite Navigation System) – ज़रूरी होगा जो चांद व अन्यत्र भी स्थितियों के निर्धारण में कारगर हो क्योंकि समय के साथ बात सिर्फ चंद्रमा तक सीमित नहीं रहेगी बल्कि मंगल वगैरह भी शामिल हो जाएंगे (Mars and Other Planets)। अंतरिक्ष एजेंसियां चाहती हैं कि ऐसी कोई व्यवस्था 2030 तक स्थापित हो जाए (Space Agencies Aim for 2030)। 

अब तक चंद्र अभियान (Lunar Missions) अपनी स्थिति को पक्का करने के लिए पृथ्वी से निर्धारित समयों पर भेजे गए रेडियो संकेतों (Radio Signals) के भरोसे रहते हैं। लेकिन दर्जनों अभियान होंगे तो ऐसे संकेत भेजने के लिए संसाधनों की कमी पड़ जाएगी। 

इस वर्ष युरोपियन स्पेस एजेंसी (European Space Agency) और नासा (NASA) चंद्रमा पर स्थिति के निर्धारण के लिए पृथ्वी-स्थित दूरबीनों से उपग्रह के क्षीण संकेत भेजने का परीक्षण करेंगे। इसके बाद योजना है कि कुछ ऐसे उपग्रह (Satellites) चंद्रमा के आसपास स्थापित किए जाएंगे जो इसी काम के लिए समर्पित होंगे। इनमें से हरेक पर अपनी-अपनी परमाणु घड़ियां (Atomic Clocks) लगी होंगी। तब चंद्रमा पर रखा कोई रिसीवर इन सबसे प्राप्त संकेतों की मदद से (त्रिकोणमिति की मदद से) अपनी स्थिति पता कर लेगा (Triangulation for Positioning)। इसके लिए इस बात का फायदा उठाया जाएगा कि अलग-अलग उपग्रह से रिसीवर तक संकेत पहुंचने में कितना समय लगता है। युरोपियन स्पेस एजेंसी शुरू में चार अंतरिक्ष यान (Spacecraft) स्थापित करने की योजना बना रही है जो चांद के दक्षिण ध्रुव (South Pole of the Moon) के आसपास स्थिति निर्धारण में मदद करेंगे। दक्षिण ध्रुव को इसलिए चुना गया है क्योंकि वहीं सबसे ज़्यादा पानी है (Water on Moon’s South Pole) और इस वजह से सबसे ज़्यादा अभियान वहीं होने की उम्मीद है। 

युरोपियन स्पेस एजेंसी के यॉर्ग हान का कहना है कि विभिन्न अभियानों के परस्पर संवाद और सहयोग (Communication and Collaboration) करने के लिए एक अधिकारिक चंद्र समय (Official Lunar Time) की ज़रूरत होगी। इसके साथ ही दूसरा सवाल यह है कि क्या अंतरिक्ष यात्री (Astronauts) पूरे चंद्रमा पर युनिवर्सल ल्यूनर टाइम (ULT) का उपयोग करेंगे। हो सकता है कि ULT ही अधिकारिक टाइम रहे लेकिन उसका उपयोग करने वाले चाहें कि वे अलग-अलग टाइम ज़ोन (Time Zones) निर्धारित कर पाएं, जैसा पृथ्वी पर किया गया है। इसका फायदा यह होगा कि वे आकाश में सूरज की स्थिति से जुड़े रह पाएंगे (Sun’s Position). 

कुल मिलाकर चंद्र समय (Lunar Time) को परिभाषित करना आसान नहीं होगा। मसलन, एक सेकंड की परिभाषा तो सब जगह एक ही है लेकिन सापेक्षता का सिद्धांत (Theory of Relativity) बताता है कि ज़्यादा शक्तिशाली गुरुत्वाकर्षण में घड़ियां धीमी चलती हैं। चंद्रमा का गुरुत्वाकर्षण पृथ्वी की अपेक्षा कमज़ोर है (Weaker Gravitational Force on the Moon)। इसका मतलब होगा कि पृथ्वी के किसी प्रेक्षक को चंद्र-घड़ी तेज़ चलती नज़र आएगी (Faster Lunar Clocks for Earth Observer)। और तो और, चंद्रमा की सतह पर अलग-अलग जगहों के लिए यह अंतर भी अलग-अलग होगा (Varied Time Differences on the Moon’s Surface)। ऐसा लगता है कि एक चंद्र-मानक (Lunar Standard Time) परिभाषित करने के लिए कम से कम तीन मास्टर घड़ियां स्थापित करनी होंगी जो चांद की स्वाभाविक रफ्तार से चलेंगी। फिर इनके समयों पर कोई एल्गोरिद्म लागू करके एक वर्चुअल घड़ी बनेगी और वही मानक होगी। 

वैसे, एक मानक चंद्र समय (Standard Lunar Time) परिभाषित करने की दिशा में काम शुरू भी हो चुका है। अगस्त में अंतर्राष्ट्रीय खगोल संघ (International Astronomical Union) ने सभी अंतरिक्ष एजेंसियों से औपचारिक रूप से आव्हान किया है कि वे चंद्रमा के लिए एक समय मापन मानक (Time Measurement Standard) स्थापित करें। नासा को कहा गया है कि वह 2026 तक चंद्र समय के मानकीकरण (Lunar Time Standardization) के लिए कोई रणनीति विकसित कर ले। इस नए मानक के लिए चार शर्तें रखी गई हैं: इसका तालमेल यूटीसी से हो सके (Synchronization with UTC), अंतरिक्ष में यातायात की दृष्टि से पर्याप्त सटीकता हो, पृथ्वी से संपर्क टूट जाने की स्थिति में भी यह काम कर सके (Works in Communication Blackouts) और यह मात्र पृथ्वी-चंद्रमा से आगे भी लागू किया जा सके (Applies Beyond Earth-Moon). (स्रोत फीचर्स)  

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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चीन ने बनाया विश्व का सबसे शक्तिशाली चुंबक

चीन ने दुनिया का सबसे शक्तिशाली विद्युत चुंबक (Electromagnet) बनाकर वैज्ञानिक नवाचार में एक महत्वपूर्ण छलांग लगाई है। यह पृथ्वी की तुलना में 8 लाख गुना अधिक शक्तिशाली चुंबकीय क्षेत्र (Magnetic Field) उत्पन्न करने में सक्षम है। 22 सितंबर, 2024 को हेफेई में स्थिर उच्च चुंबकीय क्षेत्र केंद्र (SHMFF) में, चुंबक ने 42.02 टेस्ला का स्थिर क्षेत्र उत्पन्न किया। यह 2017 में यूएसए (USA) द्वारा स्थापित 41.4 टेस्ला के रिकॉर्ड से अधिक है।

गौरतलब है कि विद्युत चुंबक तारों की कुंडलियों में विद्युत प्रवाहित करके बनाए जाते हैं। चीन द्वारा विकसित यह शक्तिशाली चुंबक सुपरकंडक्टर (Superconductor) जैसी सामग्रियों के अध्ययन का महत्वपूर्ण उपकरण है।

शक्तिशाली चुंबकीय क्षेत्र (Powerful Magnetic Field) वाले चुंबक वैज्ञानिकों को पदार्थों के अनजाने गुणों का पता लगाने में मदद करते हैं, जैसे सुपरकंडक्टर में ऊर्जा प्रवाह (Energy Flow in Superconductors)। शक्तिशाली चुंबकीय क्षेत्र में उनका अध्ययन करने से सफलता मिल सकती है। इसके अतिरिक्त, ये चुंबक ऐसे प्रयोगों की क्षमता बढ़ा सकते हैं जिनमें संवेदनशील मापों पर निर्भरता होती है। इससे वैज्ञानिकों को सूक्ष्म भौतिक परिवर्तनों का पता लगाने में मदद मिलती है।

वैज्ञानिकों के अनुसार, प्रत्येक अतिरिक्त टेस्ला (Tesla Unit) अनुसंधान को अधिक सटीक बनाता है। इस लिहाज़ से यह 42-टेस्ला चुंबक महत्वपूर्ण है।

विद्युत चुंबक अत्यधिक विश्वसनीय और लंबे समय तक शक्तिशाली क्षेत्र बनाए रख सकते हैं, लेकिन ये उच्च ऊर्जा खपत (High Energy Consumption) भी करते हैं। SHMFF के चुंबक को अपने रिकॉर्ड-तोड़ प्रदर्शन के लिए 32.3 मेगावॉट बिजली लगती है। अत: ऐसे शक्तिशाली चुंबकों को चलाना काफी महंगा है, और इतनी ऊर्जा खपत को उचित ठहराने के लिए ठोस वैज्ञानिक तर्क की आवश्यकता होगी।

हालांकि बिजली की खपत को कम करने के लिए शोधकर्ता अपना ध्यान हाइब्रिड (Hybrid Magnets) और पूरी तरह से सुपरकंडक्टिंग चुंबकों (Superconducting Magnets) पर केंद्रित कर रहे हैं। ये नए डिज़ाइन विद्युत चुंबकों को सुपरकंडक्टिंग चुंबक के साथ जोड़ते हैं, जिन्हें शक्तिशाली चुंबकीय क्षेत्र उत्पन्न करने के लिए कम बिजली लगती है। 2022 में, SHMFF के हाइब्रिड चुंबक ने 45.22 टेस्ला का क्षेत्र प्राप्त किया था।

हाइब्रिड और सुपरकंडक्टिंग चुंबक की संभावनाएं तो बहुत हैं, लेकिन कई चुनौतियां भी हैं। इन्हें बनाना काफी महंगा है और काम करने के लिए जटिल कूलिंग सिस्टम (Cooling Systems) की ज़रूरत होती है। बहरहाल, अधिक मज़बूत और कुशल चुंबक बनाने की होड़ जारी है। (स्रोत फीचर्स)

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मशीन लर्निंग एवं कृत्रिम बुद्धि को नोबेल सम्मान

चक्रेश जैन

साल 2024 का भौतिकी का नोबेल पुरस्कार दो वैज्ञानिकों जॉन एच. हॉपफील्ड और जेफ्री ई. हिंटन को संयुक्त रूप से मिला है। यह पुरस्कार आर्टिफिशियल न्यूरल नेटवर्क (Artificial Neural Network – ANN) के माध्यम से मशीन लर्निंग (Machine Learning) को सक्षम बनाने वाले बुनियादी सिद्धांत की नींव रखने के लिए दिया गया है। उन्होंने भौतिकी (Physics) के औज़ारों का उपयोग करके ऐसे तरीके विकसित किये हैं, जो मशीन लर्निंग की नींव साबित हुए हैं। आर्टिफिशियल न्यूरल नेटवर्क पर आधारित मशीन लर्निंग ने वर्तमान दौर में विज्ञान (Science), इंजीनियरिंग (Engineering) और रोज़मर्रा के जीवन में क्रांतिकारी बदलाव किया है। नोबेल सम्मान यह भी रेखांकित करता है कि हम विचारों के ऐसे दौर में प्रवेश कर चुके हैं, जहां आर्टिफिशियल न्यूरल नेटवर्क और मशीन लर्निंग समाज के लगभग हर क्षेत्र में हावी हो जाएंगे।

दोनों अध्ययनकर्ताओं ने मस्तिष्क की संरचना बनाने वाले प्राकृतिक न्यूरल नेटवर्क अर्थात तंत्रिका कोशिकाओं को अत्यधिक गहराई और बारीकी से समझ कर कृत्रिम न्यूरल नेटवर्क का सृजन किया है, जो स्मृतियों का संग्रह कर सकता है और वापिस पेश कर सकता है।

प्रोफेसर जॉन हॉपफील्ड ने एक ऐसी संरचना का सृजन किया है, जो जानकारियों का संग्रह और पुनर्प्राप्ति कर सकती है, जबकि जेफ्री हिंटन ने एक ऐसी विधि का आविष्कार किया है, जो स्वतंत्र रूप से डैटा में पैटर्न (Data Patterns) का पता लगा सकती है। यह अब लार्ज न्यूरल नेटवर्क के लिए महत्वपूर्ण साबित हो रहा है।

अधिकांश लोग जानते हैं कि कम्प्यूटर भाषाओं का अनुवाद, चित्रों की व्याख्या और तर्कपूर्ण संवाद कर सकता है। लेकिन कुछ ही लोगों को इस तरह की प्रौद्योगिकी के बारे में जानकारी है, जो लंबे समय से अनुसंधान कार्य के लिए अहम रही है।

विगत 15-20 वर्षों में मशीन लर्निंग का व्यापक पैमाने पर विकास हुआ है। इसमें आर्टिफिशियल न्यूरल नेटवर्क संरचना का उपयोग किया गया है। वर्तमान में जब हम आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस (Artificial Intelligence – AI) यानी कृत्रिम बुद्धि की बात करते हैं, तो इसका अभिप्राय इसी प्रौद्योगिकी से है। हालांकि कंप्यूटर सोचने में सक्षम नहीं रहे हैं, लेकिन ये आधुनिक मशीनें अब स्मृति संजोने और सीखने जैसे कार्यों की नकल कर सकती हैं।

यहां एक बात पर गौर करने की ज़रूरत है। मशीन लर्निंग, पारम्परिक सॉफ्टवेयर से भिन्न है। 

आर्टिफिशियल न्यूरल नेटवर्क सम्पूर्ण नेटवर्क संरचना का उपयोग कर सूचनाएं प्रोसेस करता है। एक कृत्रिम न्यूरल नेटवर्क में न्यूरॉन्स को अलग-अलग मान वाले बिंदुओं अथवा नोड्स के रूप में दिखाया जाता है। ये बिंदु कनेक्शन के ज़रिए एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं। 

सन 1980 में हॉपफील्ड ने कृत्रिम न्यूरल नेटवर्क विकसित किया और इसे ‘हॉपफील्ड नेटवर्क’ (Hopfield Network) नाम दिया गया। उन्हें इसकी प्रेरणा भौतिकी के एटामिक स्पिन (Atomic Spin) से मिली थी। यह तरीका मनुष्य के मस्तिष्क के पेटर्न की विशिष्टताओं जैसे सूचना संग्रह और पुनर्प्राप्ति की नकल करने में पूरी तरह सक्षम था। 

बाद में प्रोफेसर हिंटन ने प्रोफेसर हॉपफील्ड के अनुसंधान को आगे बढ़ाते हुए परिष्कृत कृत्रिम न्यूरल नेटवर्क बनाया, जिसे बोल्ट्जमैन मशीन (Boltzmann Machine) कहा जाता है। इसमें कंप्यूटेशनल त्रुटियों को पकड़ने और उन्हें ठीक करने के लिए ‘हिडन लेयर्स’ (Hidden Layers) का उपयोग किया जाता है।

पुरस्कार की सूचना मिलने पर जेफ्री हिंटन ने आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहा कि एआई प्रौद्योगिकी (AI Technology) के वर्चस्व और विस्तार से मनुष्य के अस्तित्व पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं। इसकी तुलना औद्योगिक क्रांति (Industrial Revolution) से की जा सकती है। इससे रोज़गार (Jobs) के अवसरों पर विपरीत असर पड़ेगा। कुछ चीज़ें मनुष्य के नियंत्रण से बाहर हो जायेंगी। उन्होंने कृत्रिम बुद्धि (एआई) के दुष्परिणामों पर चिंता जताते हुए बताया कि अंततः एआई मनुष्य को पीछे छोड़कर अपना साम्राज्य स्थापित कर लेगी।

हिंटन ने एआई के कुछ अच्छे पहलुओं का ज़िक्र करते हुए बताया कि कई मायनों में यह प्रौद्योगिकी अद्भुत है। इससे हेल्थकेयर (Healthcare) के क्षेत्र में उल्लेखनीय बदलाव आयेगा। बेहतर डिजिटल सहायकों (Digital Assistants) का सृजन किया जा सकेगा। उत्पादकता (Productivity) के क्षेत्र में अत्यधिक सुधार होगा। हिंटन ने यह भी कहा है कि उन्होंने गूगल की नौकरी से इस्तीफा इसीलिए दिया, ताकि वे एआई से जुड़े विवादित मुद्दों पर लोगों के साथ खुलकर चर्चा कर सकें। 

गुज़रे साल 2023 में आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस आधारित लार्ज लैंग्वेज मॉडल (Artificial Intelligence based Large Language Model – LLM) चैटजीपीटी (ChatGPT) दुनिया भर में चर्चा के केन्द्र में रहा है। दरअसल, चैटजीपीटी मॉडल कृत्रिम बुद्धि (जनरेटिव एआई – Generative AI) की देन है। चैटजीपीटी के विकास में हिंटन की अहम भूमिका रही है। चैटजीपीटी का उपयोग शोध पत्र लेखन (Research Paper Writing) से लेकर मौसम की भविष्यवाणी (Weather Prediction) तक में हो रहा है। सच तो यह है कि इसके उपयोगों की सूची लगातार लंबी होती जा रही है।

युनिवर्सिटी ऑफ ऑक्सफोर्ड के कंप्यूटर वैज्ञानिक प्रोफेसर मिशेल वुडरिज (Professor Michael Wooldridge) ने पुरस्कार को लेकर अपनी प्रतिक्रिया में कहा कि एआई से विज्ञान का रूपांतरण हो रहा है। न्यूरल नेटवर्क पर शोध में मिली सफलताओं ने सूचनाओं के विश्लेषण को बेहद आसान बना दिया है। विज्ञान जगत का कोई ऐसा कोना अथवा विषय नहीं रहा है, जो आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस से अछूता बचा हो।

भौतिकी नोबेल समिति (Physics Nobel Committee) के चेयरमैन एलन मूंस (Alan Moons) का कहना है कि कृत्रिम न्यूरल नेटवर्क ‘एएनएन’ का उपयोग पार्टिकल फिज़िक्स (Particle Physics), माद्द विज्ञान (Material Science) और खगोल भौतिकी (Astrophysics) में अनुसंधान को आगे बढ़ाने के लिए किया गया है। यह हमारे रोज़मर्रा के जीवन का हिस्सा बन चुका है, जिसके उदाहरण अनुवाद कार्य (Translation Work) और चेहरे की पहचान (Face Recognition) के रूप में हैं। (स्रोत फीचर्स)

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डायनासौर का सफाया करने वाला पिंड कहां से आया?

ज़ुबैर सिद्दिकी

शोधकर्ता यह पता लगाने में सफल रहे हैं कि पृथ्वी से टकराकर उथल-पुथल मचाने वाली चट्टान कहां से आई थी और किस प्रकार की थी। यह तो आम जानकारी का विषय है कि लगभग साढ़े 6 करोड़ वर्ष पूर्व एक उल्का (meteor impact) पृथ्वी से टकराई थी जिसने डायनासौर (dinosaur extinction) समेत उस समय उपस्थित 75 प्रतिशत प्रजातियों का सफाया कर दिया था। 

दरअसल, वर्ष 2016 में उल्कापिंड की टक्कर से बने गड्ढे, जो मेक्सिको के चिक्सुलब (Chicxulub crater) गांव के निकट समुद्र के पेंदे में दफन है, की ड्रिलिंग के दौरान शोधकर्ताओं को चट्टान का एक टुकड़ा मिला था। वह टुकड़ा कार्बनयुक्त कॉन्ड्राइट (carbonaceous chondrite) था। कार्बनयुक्त कॉन्ड्राइट एक किस्म की उल्काएं होती हैं जिनमें काफी मात्रा में कार्बन पाया जाता है। उस समय लुईस व वाल्टर अल्वारेज़ ने यह विचार प्रस्तुत किया था कि करोड़ों वर्ष पूर्व कोई विशाल उल्का पृथ्वी से टकराई थी जिसके चलते यहां कयामत आ गई थी। 

1980 के बाद अल्वारेज़ द्वय ने यह दर्शाया था कि दुनिया भर में क्रेटेशियस और पेलिओजीन युगों (Cretaceous-Paleogene boundary) के संगम स्थल की परतों में इरिडियम (iridium element) की मात्रा पृथ्वी पर निर्मित चट्टानों से ज़्यादा होती है। यह इस बात का प्रमाण था कि इन परतों के बनने में पृथ्वी से बाहर के पदार्थ का योगदान था। आगे चलकर यह भी पता चला था कि क्रेटेशियस-पेलियोजीन संगम परतों में क्रोमियम (chromium concentration) की मात्रा भी ज़्यादा है लेकिन कहा गया था कि क्रोमियम तो आसपास से घुलकर भी पहुंच सकता है।

अब साइन्स (Science journal) पत्रिका में प्रकाशित एक शोध पत्र में बताया गया है कि दुनिया भर में उस टक्कर से उत्पन्न मलबे (meteor debris) का विश्लेषण करने पर स्पष्ट हुआ है कि साढ़े 6 करोड़ वर्ष पूर्व टकराई उल्का कार्बनयुक्त कॉन्ड्राइट ही थी। कोलोन विश्वविद्यालय के मारियो फिशर-गोडे और उनके साथियों ने दुनिया भर में ऐसे मलबे में रुथेनियम (ruthenium isotope) नामक दुर्लभ धातु के विश्लेषण में पाया है कि उनमें समस्थानिकों का अनुपात वही है जो कार्बनयुक्त कॉन्ड्राइट्स में पाया जाता है। पृथ्वी से बाहर की चट्टानों में रुथेनियम की मात्रा स्थानीय चट्टानों से 100 गुना ज़्यादा होती है। लिहाज़ा यह पहचान का बेहतर साधन है।

जब फिशर-गोडे की टीम ने क्रेटेशियस-पेलियोजीन संगम परतों के पांच नमूनों में रुथेनियम के सात टिकाऊ समस्थानिकों (stable isotopes) की जांच की तो पता चला कि उनका अनुपात सर्वत्र एक ही है। इसका मतलब हुआ कि ये सारे नमूने एक ही पिंड के अंश हैं। इसके अलावा जाने-माने कार्बनयुक्त कॉन्ड्राइट्स में देखे गए रुथेनियम समस्थानिक अनुपात भी लगभग इनके बराबर ही पाए गए। उन्होंने 3.6 करोड़ और 4.7 करोड़ वर्ष पूर्व की टक्कर से बने गड्ढों (impact craters) के नमूनों में भी जांच की। यहां पता चला कि उनमें रुथेनियम की मात्रा सिलिकायुक्त उल्काओं (silicate meteorites) के समान हैं। ये उल्काएं सूर्य के अपेक्षाकृत नज़दीक बनती हैं।

तो इतना तो स्पष्ट हो गया कि साढ़े 6 करोड़ वर्ष पूर्व पृथ्वी का नसीब बदल देने वाली उल्का कार्बनयुक्त कॉन्ड्राइट (carbonaceous impactor) थी। इनमें भरपूर मात्रा में पानी, कार्बन तथा अन्य वाष्पशील अणु होते हैं। यानी इनका उद्गम सूर्य से बहुत दूर हुआ होगा क्योंकि पास हुआ होता तो ये पदार्थ भाप बनकर उड़ चुके होते।

ये सौर मंडल के शुरुआती दौर में (solar system formation) बनी थीं। माना जाता है कि इनके साथ पृथ्वी पर पानी (water origin) और कार्बनिक अणु आए थे जिन्होंने जीवन के पनपने में मदद की थी। लेकिन ऐसे कार्बनयुक्त कॉन्ड्राइट तो पृथ्वी से शुरुआती एकाध अरब वर्षों में टकराया करते थे। आजकल टकराने वाली उल्काओं में महज़ 5 प्रतिशत ही कार्बनयुक्त कॉन्ड्राइट होते हैं।

लेकिन चिक्सुलब इम्पैक्टर तो अभी हाल के इतिहास में टकराया था। तो यह कहां से टपक पड़ा? ऐसा माना जाता है कि ये किसी वजह से मंगल और बृहस्पति के बीच स्थिति क्षुद्र ग्रह पट्टी (asteroid belt) में खिंच गए थे। कभी-कभार ये वहां से मुक्त होकर अंदरुनी सौर मंडल (inner solar system) में प्रवेश कर जाते हैं। संभवत: 10 किलोमीटर व्यास का चिक्सुलब इम्पैक्टर भी वहां से निकल धरती से टकरा गया था। यह इतना विनाशकारी इसीलिए साबित हुआ था क्योंकि यह कार्बनयुक्त था। इस वजह से जब यह जला होगा तो इसने गहरा धुआं (dark cloud formation) पैदा किया होगा जिसने सूरज की रोशनी को पृथ्वी पर पहुंचने से रोक दिया होगा जिसके चलते टक्कर के प्रत्यक्ष प्रभावों के अलावा भी असर हुए होंगे।(स्रोत फीचर्स)

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भस्म हो रहे उपग्रह प्रदूषण पैदा कर रहे हैं

हाल ही में स्पेसएक्स कंपनी (SpaceX Company) का फाल्कन रॉकेट (Falcon Rocket) अंतरिक्ष में पर्याप्त ऊंचाई तक नहीं पहुंच सका था। तब 11 जुलाई के दिन इसके द्वारा छोड़े गए 20 स्टारलिंक उपग्रह (Starlink Satellites) यहां-वहां बिखर गए और दो दिन बाद ही वे पृथ्वी के वायुमंडल (Earth’s Atmosphere) में गिरकर भस्म हो गए।

यह तो चलो, दुर्घटना का मामला हो गया लेकिन इस तरह से उपग्रहों को उनकी कक्षा से बाहर करना उनसे निजात पाने का एक नियमित तरीका है ताकि वे अंतरिक्ष में भटकते हुए वहां मलबे (Space Debris) में इज़ाफा न करें। अब आज की स्थिति पर नज़र डालते हैं – कई अंतरिक्ष कंपनियां (Space Companies) हज़ारों उपग्रह कक्षा में स्थापित करने की योजना बना रही हैं। चिंता का विषय यह है कि जब ये उपग्रह बड़ी संख्या में अपना कार्यकाल पूरा कर लेंगे तो क्या होगा।

हाल के अनुसंधान से पता चला है कि ऐसे उपग्रहों से निकले धात्विक कण और गैसें हमारे वायुमंडल के समताप मंडल (Stratosphere) में वर्षों तक बने रह सकते हैं और शायद ओज़ोन (Ozone) के क्षय का कारण बन सकते हैं।

अभी तक उपग्रहों को ठिकाने लगाना कोई चिंता की बात नहीं थी क्योंकि ऐसे उपग्रहों की तादाद बहुत कम थी। प्रति वर्ष करीबन सौ उपग्रहों को उनकी कक्षा से बेदखल किया जाता था। समतापमंडल (Stratosphere) काफी विशाल है – यह धरती से 10 किलोमीटर से लेकर 50 किलोमीटर की ऊंचाई तक फैला है। लेकिन जब स्पेसएक्स कंपनी ने स्टारलिंक उपग्रहों का बड़े पैमाने पर उत्पादन करके उन्हें अंतरिक्ष में भेजना शुरू किया, तो चिंता की स्थिति बनी। आज 6 हज़ार से भी ज़्यादा स्टारलिंक उपग्रह कक्षाओं में चक्कर लगा रहे हैं। कुल कामकाजी उपग्रहों (Operational Satellites) की संख्या तो लगभग 10,000 है। और तो और, स्पेसएक्स ने 30,000 और उपग्रह प्रक्षेपण (Satellite Launch) की अनुमति मांगी है। अन्य भी कहां पीछे रहने वाले हैं। अमेज़ॉन (Amazon) 3200 उपग्रहों के पुंज पर काम कर रहा है जबकि चीन इस अगस्त में 12,000 उपग्रह प्रक्षेपित करेगा। एक अनुमान के मुताबिक जल्दी ही उपग्रह-संचालकों (Satellite Operators) को प्रति वर्ष 10,000 उपग्रहों को ठिकाने लगाना होगा।

एक तुलनात्मक अध्ययन में लिओनार्ड शूल्ज़ और उनके साथियों ने बताया है कि फिलहाल ऐसे उपग्रहों को नष्ट करने पर जो पदार्थ पैदा होता है वह पृथ्वी पर होने वाली कुदरती उल्कापात (Meteor Showers) का मात्र 3 प्रतिशत होता है। लेकिन भविष्य में जब 75,000 उपग्रह कक्षाओं में होंगे तो यह पदार्थ उल्कापात की तुलना में 40 प्रतिशत तक हो जाएगा। एक तथ्य यह भी है कि उल्काओं की अपेक्षा उपग्रह बड़े होते हैं और धीमी गति से जलते हैं। तो उनके द्वारा जनित कणीय पदार्थ कहीं ज़्यादा होगा।

उपग्रह जब वायुमंडल में वापसी करते हैं, तो जो असर समताप मंडल पर होता है, उसकी एक झलक यूएस के नेशनल ओशिएनिक एंड एटमॉस्फेरिक एडमिनिस्ट्रेशन (NOAA) की रसायन प्रयोगशाला के डैनियल मर्फी तथा उनके साथियों ने पेश की है। नासा (NASA) के आंकड़ों के आधार पर उन्होंने बताया है कि समताप मंडल में गंधकाअम्ल (Sulfuric Acid) की महीन बूंदें तैर रही हैं जिनमें 20 अलग-अलग तत्व मौजूद हैं जो शायद उपग्रहों और रॉकेटों से आए हैं।

चिंता का मसला एल्यूमिनियम (Aluminum) है जो उपग्रहों में प्रयुक्त सबसे आम धातु होती है। यदि यह एल्यूमिनियम ऑक्साइड (Aluminum Oxide) या हायड्रॉक्साइड के रूप में तबदील हो जाए, तो यह हाइड्रोजन क्लोराइड (Hydrogen Chloride) से क्रिया करके एल्यूमिनियम क्लोराइड (Aluminum Chloride) बनाएगा। सूर्य के प्रकाश (Sunlight) के कारण एल्यूमिनियम क्लोराइड आसानी से टूटकर क्लोरीन (Chlorine) उत्पन्न कर सकता है जो ओज़ोन के लिए घातक होगी। इसके अलावा, धात्विक एयरोसॉल (Metallic Aerosols) समतापमंडल के बादलों पर आवेश पैदा कर सकते हैं जो क्लोरीन को मुक्त करके ओज़ोन को नुकसान पहुंचा सकते हैं।

फिलहाल कई अन्य अनजाने असर भी सामने आ रहे हैं। जैसे उपग्रह के पुन:प्रवेश (Re-entry) पर एल्यूमिनियम के जलने की अनुकृति प्रयोगों का निष्कर्ष है कि 250 ग्राम के किसी उपग्रह के चलने पर 30 किलोग्राम एल्यूमिनियम ऑक्साइड नैनो कण (Nano Particles) पैदा होंगे। वर्ष 2022 में 2000 उपग्रहों को कक्षा से अलग किया गया था जिनमें एल्यूमिनियम ऑक्साइड का वज़न 17 टन था। इसी आधार पर देखें तो जब अंतरिक्ष में उपग्रहों के महा-नक्षत्र होंगे तो इसकी मात्रा प्रति वर्ष 360 टन आंकी जा सकती है।

उपग्रहों की बढ़ती संख्या की वजह से कई पर्यावरणीय असर (Environmental Impact) हो सकते हैं। इसके मद्देनज़र विचार करने की ज़रूरत है। जैसे इस बात पर विचार हो सकता है कि उपग्रह किन पदार्थों से बनाए जाएं या यह भी सोचा जा सकता है कि क्या कक्षा में सर्विसिंग (Satellite Servicing) या मरम्मत करके या ईंधन की व्यवस्था करके उपग्रहों का जीवनकाल बढ़ाया जा सकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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मंगल ग्रह का ‘पृथ्वीकरण’

ज़ुबैर सिद्दिकी

मंगल ग्रह को पृथ्वीनुमा बनाने का विचार टेराफॉर्मिंग (Terraforming) यानी सर्द, बंजर ग्रह को मनुष्यों के रहने योग्य (habitable) बनाना लंबे समय से विज्ञान कथाओं का प्रिय विषय रहा है। और नए अध्ययन का निष्कर्ष है कि यह महत्वाकांक्षी लक्ष्य पहले की तुलना में अधिक सुलभता से प्राप्त किया जा सकता है। साइन्स एडवांसेस (Science Advances) में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार, मंगल के वायुमंडल (Mars atmosphere) में छोटे कण इंजेक्ट करने से ग्रह काफी गर्म हो सकता है, जिससे यह मानव निवास के लिए उपयुक्त हो जाएगा।

अध्ययन से पता चलता है कि हर साल मंगल के वायुमंडल में विशेष रूप से तैयार किए गए लगभग 20 लाख टन कणों को प्रविष्ट कराकर ग्रह का तापमान कुछ ही महीनों में 10 डिग्री सेल्सियस से अधिक बढ़ाया जा सकता है। यह तापमान वृद्धि मंगल पर तरल पानी (liquid water on Mars) की उपस्थिति के लिए पर्याप्त है, जो ग्रह को रहने योग्य बनाने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है।

मंगल वर्तमान में एक ठंडा और दुर्गम स्थान है, जिसका औसत तापमान ऋण 62 डिग्री सेल्सियस के आसपास है। इसका पतला वायुमंडल और सूरज की कमज़ोर रोशनी के कारण पानी का तरल रूप में रहना असंभव है, जबकि यह जीवन (life on Mars) के लिए अनिवार्य है। वैसे, मंगल पर अरबों वर्ष पहले बहता हुआ पानी था, लेकिन आज जो कुछ बचा है वह ज़्यादातर ध्रुवीय बर्फ के रूप में है या सतह के नीचे जम गया है।

मंगल ग्रह को गर्म करने का विचार पृथ्वी पर ग्लोबल वार्मिंग (global warming) को बढ़ावा देने वाली प्रक्रिया के समान है – वहां एक कृत्रिम ग्रीनहाउस प्रभाव (greenhouse effect) उत्पन्न किया जा सकता है। वैज्ञानिक ऐसे पदार्थों की खोज कर रहे हैं जिन्हें मंगल के वायुमंडल में छोड़कर गर्मी को ठीक वैसे ही कैद किया जा सके जैसे पृथ्वी पर कार्बन डाईऑक्साइड और जल वाष्प करते हैं।

पिछले सुझावों में इस प्रभाव को उत्पन्न करने के लिए क्लोरोफ्लोरोकार्बन (CFC) या सिलिका एरोजेल का उपयोग करने का विचार शामिल था। हालांकि, इसके लिए पृथ्वी से बड़ी मात्रा में सामग्री ले जाने की आवश्यकता होगी, जो वर्तमान तकनीक के साथ व्यावहारिक नहीं है।

नए अध्ययन में मंगल ग्रह पर पहले से ही प्रचुर मात्रा में मौजूद पदार्थों से बने कणों का उपयोग करने का प्रस्ताव है। इसमें विशेष रूप से मंगल ग्रह की धूल में पाए जाने वाले लोहे और एल्यूमीनियम के यौगिक हैं। नॉर्थवेस्टर्न यूनिवर्सिटी के पीएच.डी. छात्र समानेह अंसारी के नेतृत्व में शोधकर्ताओं ने छोटी छड़ों के आकार के कण तैयार किए हैं जो मंगल ग्रह की धूल के कणों से लगभग दुगनी साइज़ के हैं। इन कणों को मंगल ग्रह पर ही बनाकर वायुमंडल में छोड़ा जा सकता है जहां ये ग्रह की सतह की गर्मी को सोखने और उसे वापस मंगल की सतह पर पहुंचाने में मददगार हो सकते हैं। गौरतलब है कि सारे विचारों को कंप्यूटर अनुकृतियों (computer simulations) के आधार पर जांचा गया है।

कंप्यूटर सिमुलेशन से पता चलता है कि यह विधि मंगल को लगभग 10 डिग्री सेल्सियस तक गर्म कर सकती है, जबकि इसके लिए अन्य प्रस्तावित विधियों की तुलना में बहुत कम सामग्री की आवश्यकता होगी। 20 लाख टन कणों की तुलना में इस तरीके में कहीं कम सामग्री लगेगी और सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि यह सामग्री मंगल पर ही विद्यमान है।

हालांकि, मंगल का तापमान बढ़ाना इसे रहने योग्य बनाने की दिशा में मात्र एक कदम है। जहां पृथ्वी के वायुमंडल में 21 प्रतिशत ऑक्सीजन है वहीं लाल ग्रह के वायुमंडल में मात्र 0.1 प्रतिशत है। और तो और, मंगल पर वायुमंडलीय दबाव इतना कम है कि मानव रक्त उबलने लगे। इसके अतिरिक्त, मंगल पर हानिकारक पराबैंगनी विकिरण (ultraviolet radiation) से बचाने के लिए ओज़ोन परत का अभाव है, और इसकी मिट्टी फसल उगाने के लिए बहुत अधिक नमकीन या ज़हरीली भी है।

इन चुनौतियों के बावजूद, शोध दल प्रयोगशाला में अपने प्रस्तावित कणों का परीक्षण जारी रखने और ग्रीनहाउस प्रभाव को बढ़ाने के लिए अन्य संभावित सामग्रियों और आकृतियों का पता लगाने की योजना बना रहे हैं।

मंगल पर बड़े पैमाने पर इंजीनियरिंग करना फिलहाल दूर की कौड़ी है, लेकिन यह शोध हमें यह समझने के करीब लाता है कि मंगल को मानवता के लिए एक संभावित नया घर (new home for humanity) बनाने के लिए क्या करना पड़ सकता है। अध्ययन के सह लेखक युनिवर्सिटी ऑफ शिकागो के प्रोफेसर एडविन काइट कहते हैं कि यह कार्य न केवल मंगल ग्रह के बारे में हमारे ज्ञान को बढ़ाता है, बल्कि पृथ्वी के जलवायु और पारिस्थितिकी तंत्र का अध्ययन करने के महत्व को भी रेखांकित करता है ताकि अन्यत्र इन्हें बनाने की कल्पना की जा सके। और शायद ऐसे अध्ययन हमें पृथ्वी को जीवन के विभिन्न रूपों के लिए ज़्यादा अनुकूल बनाने में भी मददगार साबित हों। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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चंद्रमा पर डूम्सडे वॉल्ट का विचार

ज़ुबैर सिद्दिकी

वैश्विक आपदाओं से सुरक्षा के लिए लाखों किस्म के बीजों को नॉर्वे स्थित स्वालबर्ड ग्लोबल सीड वॉल्ट (Svalbard Global Seed Vault) में रखा गया है। इसे डूम्सडे वॉल्ट (Doomsday Vault) (कयामत की तिज़ोरी) कहा जाता है। इस तिज़ोरी को 100 देशों ने मिलकर स्वालबर्ड में इसलिए स्थापित किया था ताकि इसमें रखे गए बीज व अन्य जैविक सामग्री जलवायु परिवर्तन (climate change) से सुरक्षित रहे और भविष्य में ज़रूरत पड़ने पर काम आ सके। फिलहाल यहां 8 लाख 60 हज़ार बीज व अन्य सामग्री रखी गई है। 

लेकिन 2017 में आर्कटिक ग्रीष्म लहर के कारण पर्माफ्रॉस्ट (permafrost) (बर्फ का स्थायी आवरण) पिघलने से वॉल्ट में पानी भर गया। इस घटना से संरक्षित बीजों को तो कोई हानि नहीं हुई लेकिन इसने स्मिथसोनियन नेशनल ज़ू एंड कंज़र्वेशन बायोलॉजी इंस्टीट्यूट (Smithsonian National Zoo and Conservation Biology Institute) की जीवविज्ञानी मैरी हेगडॉर्न को चिंता में डाल दिया। वे न सिर्फ बीज बल्कि जंतु कोशिकाओं  को सहेजने के लिए एक अधिक सुरक्षित स्थान पर विचार करने लगीं – एक ऐसा स्थान जो जलवायु परिवर्तन और अन्य वैश्विक संघर्षों (global conflicts) से मुक्त हो। और उन्हें लगा कि चंद्रमा (moon) से बेहतर कोई स्थान नहीं है। 

बायोसाइंस (Bioscience) में हाल ही में प्रकाशित एक लेख में, हेगडॉर्न और दस अन्य विशेषज्ञों ने चंद्रमा पर डूम्सडे वॉल्ट (Doomsday Vault) के लिए एक योजना का प्रस्ताव दिया है। इस योजना में चंद्रमा के ऐसे स्थान पर जैविक सामग्री (biological material) सहेजने की कल्पना है जहां हमेशा छाया बनी रहती हो, जहां का तापमान तरल नाइट्रोजन (liquid nitrogen) जितना ठंडा हो तथा परिरक्षण के लिए एक निष्क्रिय व स्थिर वातावरण मौजूद हो। 

चंद्रमा पर तिज़ोरी बनाने का विचार हवाई स्थित कोरल रीफ (coral reef) के शीत संरक्षण (cryo-preservation) के दौरान आया जब तरल नाइट्रोजन की आपूर्ति में रुकावट के कारण बायोरिपॉज़िटरी (biorepository) नष्ट हो गई। इसके अलावा तूफान कैटरीना जैसी प्राकृतिक आपदाओं ने एक विश्वसनीय बैकअप स्टोरेज (backup storage) की आवश्यकता दर्शाई। अत्यधिक ठंडा और पर्यावरणीय खतरे कम होने के कारण चंद्रमा एक आदर्श स्थान प्रतीत होता है। 

हालांकि यह अवधारणा दूर की कौड़ी लग सकती है, लेकिन ऐसे नमूनों को सहेजने के तरीके पहले से उपलब्ध हैं। इसकी मुख्य चुनौती यह सुनिश्चित करना है कि रोबोट (robots) या अंतरिक्ष यात्री (astronauts) चंद्रमा के कठिन वातावरण में काम कर पाएं। 

चंद्रमा पर तिज़ोरी कई उद्देश्यों की पूर्ति कर सकती है। अंतरिक्ष मिशनों (space missions) के लिए, यह पौधे उगाने के एक संसाधन के रूप में कार्य कर सकती है, जो मंगल ग्रह (Mars) पर टेराफॉर्मिंग (terraforming) जैसे भविष्य के अंतरिक्ष प्रयासों के लिए आवश्यक है। यह क्षेत्रीय आपदाओं (regional disasters) से सुरक्षित रखते हुए पृथ्वी की जैव विविधता के एक आनुवंशिक संग्रह के रूप में भी कार्य कर सकती है। 

लेकिन यह स्पष्ट रहे कि वैश्विक सर्वनाश (global apocalypse) की स्थिति में यह भंडार उपयोगी संसाधन साबित नहीं होगा। यह तो भीषण तूफान या खाद्य शृंखला  के महत्वपूर्ण घटकों को खतरे में डालने वाली बीमारियों जैसी स्थानीय आपदाओं से बचाव के लिए है। 

हेगडॉर्न ने यह भी स्पष्ट किया है कि चंद्रमा पर जैव विविधता परिरक्षण (biodiversity preservation) को पृथ्वी के पारिस्थितिकी तंत्र (ecosystem) की रक्षा/बहाली के विकल्प के तौर पर नहीं देखना चाहिए बल्कि इन प्रयासों के पूरक के तौर पर देखना चाहिए। 

इसमें सबसे महत्वपूर्ण चुनौती प्रबंधन की होगी। पहले से ही चंद्रमा के संसाधनों के लिए होड़ कर रहे देशों के साथ, तिज़ोरी के प्रबंधन पर अंतर्राष्ट्रीय समझौता (international agreement) जटिलताओं से भरा होगा। 

वर्तमान में टीम का प्रयास अंतरिक्ष यात्रा के दौरान कोशिकाओं को विकिरण (radiation) से बचाने पर केंद्रित है। वे नई हल्की सामग्रियों का परीक्षण करने और इन चुनौतियों से निपटने के लिए आवश्यक तकनीकी विशेषज्ञता जुटाने की योजना बना रहे हैं। 

बहरहाल, चंद्रमा पर कयामत की तिज़ोरी (Doomsday Vault) का निर्माण एक महत्वाकांक्षी परियोजना है जो अत्याधुनिक विज्ञान (cutting-edge science) को दूरदर्शी सोच के साथ जोड़ती है। आज कदम उठाकर, हेगडॉर्न और उनकी टीम पृथ्वी की जैव विविधता (biodiversity) के लिए एक स्थायी सुरक्षा व्यवस्था बनाने की उम्मीद करती है, यह सुनिश्चित करते हुए कि भविष्य की पीढ़ियां अधिक लचीलेपन और उम्मीद के साथ चुनौतियों का सामना कर सकें।(स्रोत फीचर्स)

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मंगल पर ग्रह प्रवेश की तैयारी

डॉ. पीयूष गोयल

मंगल ग्रह पर मानव को बसाने की तैयारी में नासा के वैज्ञानिकों ने 25 जून, 2023 को अपने पहले ‘क्रू हेल्थ परफॉरमेंस एक्स्प्लोरेशन एनालॉग’ (CHPEA) मिशन की शुरुआत की थी। ह्यूस्टन स्थित जॉनसन स्पेस केंद्र पर लगभग एक वर्ष (378 दिनों) तक मंगल ग्रह जैसे वातावरण वाले घर (मार्स ड्यून अल्फा) में मंगल पर निवास की संभावनाओं की तलाश के इस एनालॉग मिशन का पहला चरण 6 जुलाई, 2024 को पूरा हुआ है। इस मिशन की शृंखला में अगले दो मिशन 2025 और 2026 में निर्धारित हैं।

कृत्रिम परिस्थितियों में जीवन

CHPEA मिशन के पहले चरण में चार लोगों के एक दल ने 378 दिनों के लिए इस आवास में अलग-थलग रहकर अंतरिक्ष यात्रियों की तरह समय बिताया। 1700 वर्ग फीट की सीमित जगह में 3-डी मुद्रित (प्रिंटेड) मार्स ड्यून अल्फा में निजी कमरे, रसोई, चिकित्सा कक्ष, व्यायाम और कार्य करने का स्थान तथा लाल मिट्टी में खेती क्षेत्र, बाथरूम आदि उपलब्ध हैं।

यथासंभव मंगल जैसी परिस्थिति में दल के सदस्यों ने शारीरिक और मानसिक चुनौतियों से जूझना, संसाधन की सीमाएं, तनहाई, विलंबित संचार, उपकरणों की विफलता, सिम्युलेटेड स्पेसवॉक, रोबोट संचालन, आवास के रखरखाव, व्यक्तिगत स्वच्छता, व्यायाम और खेती से सम्बंधित कार्य किए। इनके लिए तैयारशुदा भोजन ठीक वैसा ही था, जैसा कि अंतरिक्ष यात्री अपने अंतरिक्ष प्रवास के दौरान खाते हैं। चार सदस्यों के दल में मिशन का नेतृत्व करने वाली कनाडाई जीव वैज्ञानिक केली हेस्टन, संरचनात्मक इंजीनियर और मिशन के फ्लाइट इंजीनियर रॉस ब्रॉकवेल, आपातकालीन स्वास्थ्य चिकित्सक नाथन जोंस और मिशन की विज्ञान अधिकारी एंका सेलारियू शामिल थीं। एकत्र किए गए डैटा से भविष्य के मिशन की योजना के लिए जानकारी मिलेगी, जिसमें वाहन डिज़ाइन, संसाधन आवंटन और लंबी अवधि की अंतरिक्ष यात्रा के जोखिम का मूल्यांकन इत्यादि शामिल है।

मंगल पर जीवन

मंगल पर जीवन के साक्ष्य की वैज्ञानिक खोज 1894 में मंगल ग्रह के वायुमंडल के स्पेक्ट्रोस्कोपिक विश्लेषण के साथ शुरू हुई थी। यह खोज आज भी दूरबीनों और वहां तैनात जांच उपकरणों के माध्यम से जारी है। अमेरिकी खगोलशास्त्री विलियम वालेस कैंपबेल ने बताया था कि मंगल के वायुमंडल में पानी और ऑक्सीजन नहीं हैं। ब्रिटिश प्रकृतिवादी अल्फ्रेड रसेल वालेस ने भी 1907 में अपनी पुस्तक इज़ मार्स हैबिटेबल? में मंगल को पूरी तरह से निर्जन बताया था। अलबत्ता पर्सिवल लोवेल ने मार्स एंड इट्स कैनाल्स में कहा था कि मंगल पर नज़र आने वाली धारियां नहरें हैं और इन्हें वहां एक बुद्धिमान सभ्यता ने खेती के प्रयोजन से निर्मित किया था। फिलहाल मंगल की सतह पर मिट्टी और चट्टानों में पानी, रसायनिक जैव चिंहों और वायुमंडल में बायोमार्कर गैसों पर अध्ययन जारी है। मंगल ग्रह पृथ्वी से निकटता और समानता रखता है, परंतु वहां जीवन के संकेत नहीं हैं।

मंगल पर पानी

प्रारंभिक अध्ययनों में शोधकर्ताओं ने 1950 के दशक में मंगल पर विभिन्न प्रकार के जीवन रूपों की व्यवहार्यता, पर्यावरणीय स्थितियों को निर्धारित करने और उनकी अनुकृति बनाने के लिए पात्रों (‘मार्स जार’ या ‘मार्स सिमुलेशन चैम्बर’) का उपयोग किया था। इसका विवरण ह्यूबर्टस स्ट्रगहोल्ड ने प्रस्तुत किया है। जोशुआ लेडरबर्ग और कार्ल सैगन ने इसे लोकप्रिय किया।

जून 2000 में मंगल की सतह पर तरल पानी के बहने के सबूत बाढ़ जैसी नालियों के रूप में खोजे गए, जिसे 2006 में मार्स ग्लोबल सर्वेयर द्वारा ली गई तस्वीरों ने पुष्ट किया। इससे निष्कर्ष यह निकला कि मंगल की सतह पर कभी-कभी पानी रहा है।

मार्च 2015 में नासा द्वारा क्यूरियोसिटी रोवर पर लगे उपकरणों की मदद से सतह की तलछट को गर्म करके नाइट्रेट का पता चला। नाइट्रेट में नाइट्रोजन ऑक्सीकृत रूप में है, जिसका जीवों द्वारा उपयोग किया जा सकता है। जीवन के लिए आवश्यक रासायनिक पोषक पदार्थों में से एक फॉस्फेट मंगल ग्रह पर आसानी से उपलब्ध है। नवम्बर 2016 में नासा ने मंगल ग्रह के युटोपिया प्लैनिटिया क्षेत्र में बड़ी मात्रा में भूमिगत बर्फ का पता लगाया था, जिसमें पानी की मात्रा लेक सुपीरियर के बराबर होने का अनुमान है। इसी प्रकार सैंड स्टोन (बालुई पत्थर) की ऑर्बाइटल स्पेक्ट्रोमेट्री से प्राप्त डैटा के विश्लेषण से पता चला है कि अतीत में ग्रह पर मौजूद पानी में पृथ्वी जैसे अधिकांश जीवन को सहारा देने के हिसाब से बहुत अधिक लवणीयता रही होगी। वैज्ञानिकों का मानना है कि ठंडा और जीवनहीन सा दिखने वाला मंगल ग्रह कभी गर्म, जलयुक्त और रहने के लायक रहा होगा। अनुमान है कि जज़ीरो क्रेटर पर कभी पानी हुआ करता था। 

आज सभी अंतरिक्ष एजेंसियों के प्रमुख उद्देश्य हैं: मंगल ग्रह पर जीवन की संभावना की तलाश; मंगल की जलवायु और भूविज्ञान का विश्लेषण, बसने की संभावना, टैफोनोमी (जीवाश्म-निर्माण का अध्ययन) और कार्बनिक यौगिकों के सबूतों की तलाश।

नासा ने मंगल की सतह पर पानी के अस्तित्व की पुष्टि के लिए स्पिरिट और ऑपर्च्युनिटी रोवर्स जून और जुलाई 2003 में प्रक्षेपित किए थे। स्पिरिट अभियान मई 2011 और ऑपर्च्युनिटी फरवरी 2019 तक सक्रिय रहे।

जून 2018 में नासा ने घोषणा की कि क्यूरियोसिटी रोवर ने तीन अरब वर्ष पुरानी तलछटी चट्टानों में कार्बनिक अणुओं की खोज की है। इसी समय मंगल पर मीथेन के स्तर में मौसमी बदलाव का पता लगाया गया। तदुपरांत मंगल पर पानी की पुष्टि, जीवन के संकेत और ग्रह के भूविज्ञान की जांच के लिए परसेवरेंस मार्स रोवर को 10 वर्ष के लिए मंगल पर भेजा गया।

खगोल जीववैज्ञानिक मानते हैं कि जीवनक्षम वातावरण खोजने के लिए मंगल की सतह पर पहुंचना आवश्यक है। लेकिन आज तक किसी ने भी मंगल की सतह पर ताप, दाब, वायुमंडलीय संरचना, विकिर्णन, आर्द्रता, ऑक्सीकरण जैसी स्थितियों पर विचार नहीं किया है। प्रयोगशाला सिमुलेशन दर्शाते हैं कि कई घातक कारक एक साथ मौजूद हों तो जीवित रहने की दर तेज़ी से गिरती है। मंगल ग्रह पर मनुष्य कैसे रह पाएंगे, मार्स ड्यून अल्फा परीक्षण इसी को लेकर किया गया है।

मार्स ड्यून अल्फा में दल के सदस्यों ने मंगल पर जीवन जीने की कई चुनौतियों का सामना किया। साथ ही उन्होंने इसमें नए वर्ष का जश्न और छुट्टियां भी मनाई, उनका मासिक चेकअप भी होता रहा, उन्होंने सब्ज़ियां भी उगाई, मार्सवॉक किया और अत्यधिक तनाव में अपने काम को पूरा किया।

आर्टेमिस कार्यक्रम के तहत नासा मनुष्यों को चंद्रमा पर पुन: भेजने की योजना बना रहा है, ताकि वे वहां लंबे समय तक रहना सीख सकें तथा 2030 के दशक के अंत तक मंगल ग्रह की यात्रा की तैयारी में मदद मिल सके। (स्रोत फीचर्स)

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अंतरिक्ष में खाना पकाया जा सकेगा

दि कभी अंतरिक्ष में जाने का मौका मिले और यदि आप खाने-पीने के शौकीन हैं तो आपको यह सफर अखरेगा। आपको शायद मालूम नहीं होगा कि अंतरिक्ष यात्रियों को कई-कई दिन सूखा (निर्जलित) फ्रोज़न भोजन खाकर गुज़ारना पड़ता है, जो काफी बेस्वाद और नीरस होता है।

दिक्कत यह है कि अंतरिक्ष में खाना पकाना आसान नहीं होता। अंतरिक्ष में न के बराबर गुरुत्वाकर्षण होता है। वहां हमारी तरह खुली कढ़ाई, तवे या पतीली में खाना पकाना संभव नहीं है। और यदि वहां खाना पकाने में तमाम अगर-मगर न होते तो अंतरिक्ष यात्री अवलोकनों और अध्ययन के साथ खाना भी पका रहे होते। दरअसल, अंतरिक्ष यात्रियों की सुरक्षा और मिशन की सफलता सर्वोपरी होती है। लिहाज़ा कुछ शोधकर्ताओं को इसकी परवाह ही नहीं होती कि वहां खाना लज़ीज है या बेस्वाद – बस जीवन के लिए ज़रूरी दाना-पानी नसीब हो जाना चाहिए।

लेकिन फूड साइंटिस्ट लैरिसा ज़ॉउ व कुछ अन्य शोधकर्ता चाहते हैं कि अंतरिक्ष यात्री हमेशा ऐसा बेस्वाद, फ्रोज़न खाना न खाएं। वास्तव में उनकी कोशिश है कि अंतरिक्ष यात्री कुछ ताज़ा पकाकर खा पाएं। तर्क है कि अंतरिक्ष यात्रियों के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य का दुरुस्त रहना ज़रूरी है और उसमें ताज़ा पका हुआ खाना महत्व रखता है।

पहले भी ऐसे प्रयास किए गए हैं। जैसे, 2019 में अंतरिक्ष यात्रियों ने अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन पर एक छोटे ओवन में कुकीज़ बनाई थीं। फिर सूक्ष्म गुरुत्वाकर्षण में सेंकने और तलने के उपकरण भी विकसित किए गए हैं। इस प्रयास में ज़ॉऊ ने नगण्य गुरुत्वाकर्षण में भोजन पकाने/उबालने वाली मशीन, हॉटपॉट (H0TP0T) बनाई है। एल्यूमीनियम और कांच से बना यह पात्र चीनी परंपरा के एक सामुदायिक उबालने वाले बर्तन के समान है।

लेकिन इनका अभी अंतरिक्ष तक पहुंचना और वास्तविक परिस्थितियों में उपयोग परखा जाना बाकी है।

अंतरिक्ष के जीवन को मात्र ज़रूरतों से एक कदम आगे बढ़कर, थोड़ा आरामदायक बनाने के दृष्टिकोण को समझाने के लिए ऑरेलिया इंस्टीट्यूट ने TESSERAE पेवेलियन बनाया है जो इसका नमूना पेश करता है कि अंतरिक्ष स्थितियों में बेहतर रहन-सहन किस तरह का हो सकता है। इस पेवेलियन की रसोई में H0TP0T उल्टा लटका हुआ है, जो दर्शाता है कि इस बर्तन का उपयोग अंतरिक्ष यात्री किसी भी दिशा में कर सकते हैं। इसे अगस्त में प्रदर्शित किया जाएगा। (स्रोत फीचर्स)

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