भूकंप निर्मित द्वीप गायब

पाकिस्तान के तट के समीप 6 साल पहले भूकंप के कारण अस्तित्व में आया एक छोटा-सा द्वीप हाल ही में लहरों में समा गया है।

दरअसल साल 2013 में पाकिस्तान में आए तीव्र भूकंप के कारण तट के नज़दीक समुद्र में एक द्वीप बन गया था। रिक्टर पैमाने पर 7.7 की तीव्रता के इस प्रलयंकारी भूकंप में लगभग 320 लोग मारे गए थे और हज़ारों लोग बेघर हो गए थे। अरेबियन टेक्टॉनिक प्लेट के युरेशियन प्लेट पर रगड़ने के कारण नीचे दबी मिट्टी ज्वालामुखी से बाहर निकलने लगी। ऐसे ज्वालामुखी जो आग और लावा की बजाय कीचड़ उगलते हैं, उन्हें मड वॉल्केनो या पंक ज्वालामुखी कहते हैं। यह इतनी तेज़ी से बाहर निकली कि इसके साथ चट्टान और चिकने पत्थर भी ऊपर आ गए और इस द्वीप की सतह पर जमा हो गए। यह द्वीप 20 मीटर ऊंचा, 90 मीटर चौड़ा और 40 मीटर लंबा था। इस पंक ज्वालामुखी विस्फोट से निकले मलबे से बने इस द्वीप को ज़लज़ला कोह नाम दिया गया था।

इस दौरान लिए गए उपग्रह चित्रों से पता चलता है कि समय के साथ यह द्वीप किनारों से धीरे-धीरे खत्म होता गया और 27 अप्रैल के चित्रों में यह पूरी तरह ओझल हो गया। लेकिन ज़लज़ला कोह अभी पूरी तरह गायब नहीं हुआ है। द्वीप के स्थान के आसपास इस द्वीप के पदार्थ मंडरा रहे हैं। नासा के अनुसार इस क्षेत्र में पंक ज्वालामुखी विस्फोटों से द्वीपों के बनने और गायब हो जाने का लंबा इतिहास रहा है। तेज़ी से जमा हुई गाद से बने इस ज़लज़ला कोह द्वीप की लंबे समय तक रहने की संभावना वैसे भी नहीं थी। नासा के अनुसार इन दरारों से भविष्य में और भी द्वीप बनने की संभावना है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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हीरों का निर्माण महासागरों में हुआ था

क्सर कहा जाता है कि हीरे सदा के लिए होते हैं, और हों भी क्यों नहीं। ये अरबों वर्ष पुरानी परिवर्तित चट्टानें हैं जो पृथ्वी के अंदरूनी हिस्से में सदियों तक दबाव और झुलसाने वाले तापमान के संपर्क में रहने के बाद तैयार हुई हैं।

एक चमकदार हीरा बनने में काफी समय लगता है। वैज्ञानिकों के पास आज भी इनके बनने का कोई पक्का जवाब नहीं है। एक प्रचलित सिद्धांत के अनुसार हीरे तब बनते हैं जब समुद्र के पेंदे की प्लेट महाद्वीपीय प्लेटों के नीचे दब जाती हैं। इस प्रक्रिया के दौरान, समुद्री प्लेट और समुद्र के तल के सभी खनिज पृथ्वी के मेंटल में सैकड़ों कि.मी. गहराई में दब जाते हैं। यहां वे धीरे-धीरे उच्च तापमान और दबाव के कारण क्रिस्टलीकृत होते हैं। यह दबाव पृथ्वी की सतह की तुलना में दस हज़ार गुना अधिक होता है। अंतत: ये क्रिस्टल ज्वालामुखीय मैग्मा के साथ मिलकर ग्रह की सतह पर हीरे के रूप में बाहर आते हैं।

समुद्र के खनिजों में पाया जाने वाला नीला रत्न इस सिद्धांत का समर्थन करता है। ये हीरे सबसे दुर्लभ और सबसे महंगे हैं, इसलिए उनका अध्ययन करना मुश्किल हो जाता है। हाल ही में साइंस एडवांसेस जर्नल में प्रकाशित एक शोध में हीरे की समुद्री उत्पत्ति के लिए नए सबूत मिले हैं। अध्ययन के लिए, शोधकर्ताओं ने फाइब्रस हीरे नामक साधारण रत्नों के अंदर नमक के अवशेष का अध्ययन किया।

अधिकांश हीरों के विपरीत फाइब्रस हीरे नमक, पोटेशियम और अन्य पदार्थों के थोड़े से अवशेष के साथ बनते हैं। आभूषणों के हिसाब से तो ये कम मूल्यवान हैं, लेकिन वैज्ञानिक अध्ययन की दृष्टि से काफी कीमती हैं। इस अध्ययन के प्रमुख मैक्वेरी विश्वविद्यालय, ऑस्ट्रेलिया के प्रोफेसर माइकल फॉरस्टर के अनुसार एक सिद्धांत कहता है कि हीरे के अंदर नमक समुद्री पानी के कारण आता है लेकिन अभी तक इस सिद्धांत का परीक्षण नहीं किया जा सका था।  

वास्तविक हीरे की प्राचीन उत्पत्ति का पता लगाने के लिए फॉरस्टर और उनके सहयोगियों ने इसे अपनी प्रयोगशाला में बनाने का प्रयास किया। टीम ने समुद्री तलछट के नमूनों को पेरिडोटाइट नामक एक खनिज के साथ एक पात्र में रखा। पेरिडोटाइट एक आग्नेय चट्टान है जो व्यापक रूप उस गहराई पर मौजूद है जहां हीरे बनने का अनुमान है। इसके बाद उन्होंने मिश्रण को पृथ्वी के मेंटल के अनुमानित तापमान और दबाव पर रखा।

देखा गया कि जब मिश्रण को 4-6 गिगापास्कल (समुद्र सतह के वायुमंडलीय दबाव की तुलना में  40,000 से 60,000 गुना अधिक) दबाव और 800 से 1,100 डिग्री सेल्सियस के तापमान पर रखा गया, तब जो हीरे बने उनमें नमक के लगभग वैसे ही क्रिस्टल मिले जैसे कुदरती फायब्रास हीरों में होते हैं।

वैज्ञानिक यह तो जानते थे कि हीरे बनने के लिए थोड़ा नमकीन तरल पदार्थ आसपास होना चाहिए, और अब इस परीक्षण से इस बात की पुष्टि भी हो गई है। फॉरस्टर और टीम द्वारा इस परीक्षण में उन खनिजों का भी निर्माण हुआ जो किम्बरलाइट का निर्माण करते हैं। यह वही किम्बरलाइट है जिसके साथ हीरे ज्वालामुखी मैग्मा के साथ बाहर आते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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पृथ्वी धुरी पर क्यों घूमती है?

पृथ्वी के अस्तित्व में आने से लेकर अभी तक वह लगातार अपनी धुरी पर घूम रही है। इसके घूमने से ही हम रोज़ सूर्योदय और सूर्यास्त देखते हैं। और जब तक सूरज एक लाल दैत्य में परिवर्तित होकर पृथ्वी को निगल नहीं जाता तब तक ऐसे ही घूमती रहेगी।  लेकिन सवाल यह है कि पृथ्वी घूमती क्यों है?

पृथ्वी का निर्माण सूर्य के चारों ओर घूमने वाली गैस और धूल की एक डिस्क से हुआ। इस डिस्क में धूल और चट्टान के टुकड़े आपस में चिपक गए और पृथ्वी का निर्माण हुआ। जैसे-जैसे इसका आकार बढ़ता गया, अंतरिक्ष की चट्टानें इस नए-नवेले ग्रह से टकराती रहीं और इन टक्करों की शक्ति से पृथ्वी घूमने लगी। चूंकि प्रारंभिक सौर मंडल में सारा मलबा सूर्य के चारों ओर एक ही दिशा में घूम रहा था, टकराव ने पृथ्वी और सौर मंडल की सभी चीज़ों को उसी दिशा में घुमाना शुरू कर दिया।

लेकिन सवाल यह उठता है सौर मंडल क्यों घूम रहा था? धूल और गैस के बादल का अपने ही वज़न से सिकुड़ने के कारण सूर्य और सौर मंडल का निर्माण हुआ था। अधिकांश गैस संघनित होकर सूर्य में परिवर्तित हो गई, जबकि शेष पदार्थ ग्रह बनाने वाली तश्तरी के रूप में बना रहा। इसके संकुचन से पहले, गैस के अणु और धूल के कण हर दिशा में गति कर रहे थे किंतु किसी समय पर कुछ कण एक विशेष दिशा में गति करने लगे। जिससे इनका घूर्णन शुरू हो गया। जब गैस बादल पिचक गया तब बादल का घूमना और तेज़ हो गया। जैसे जब कोई स्केटर अपने हाथों को समेट लेता है तो उसकी घूमने की गति बढ़ जाती है। अब अंतरिक्ष में चीज़ों को धीमा करने के लिए तो कुछ है नहीं, इसलिए, एक बार जब कोई चीज़ घूमने लगती है, तो घूमती रहती है। ऐसा लगता है कि शैशवावस्था में सौर मंडल के सारे पिंड एक ही दिशा में घूर्णन कर रहे थे।

अलबत्ता, बाद में कुछ ग्रहों ने अपने स्वयं का घूर्णन को निर्धारित किया है। शुक्र पृथ्वी के विपरीत दिशा में घूमता है, और यूरेनस की घूर्णन धुरी 90 डिग्री झुकी हुई है। वैज्ञानिकों के पास इसका कोई ठोस उत्तर तो नहीं है किंतु कुछ अनुमान ज़रूर हैं। जैसे, हो सकता है कि किसी पिंड से टक्कर के कारण शुक्र उल्टी दिशा में घूमने लगा हो। या यह भी हो सकता है कि शुक्र के घने बादलों पर सूर्य के गुरुत्वाकर्षण प्रभाव और शुक्र के अपने कोर व मेंटल के बीच घर्षण की वजह से ऐसा हुआ हो। यूरेनस के मामले में वैज्ञानिकों ने सुझाया है कि या तो एक पिंड से ज़ोरदार टक्कर या दो पिंडों से टक्कर ने उसे पटखनी दी है।

ऐसा नहीं है कि सिर्फ ग्रह ही अपनी धुरी पर घूमते हैं। सौर मंडल में मौजूद सभी चीज़ें (क्षुद्रग्रह, तारे, और यहां तक कि आकाश गंगा भी) घूमती हैं।

चंद्रमा के गुरुत्वाकर्षण से पृथ्वी की गति में भी कमी आती है। 2016 में प्रोसिडिंग्स ऑफ दी रॉयल सोसाइटी के अनुसार एक सदी में पृथ्वी का एक चक्कर 1.78 मिलीसेकंड धीमा हो गया है। (स्रोत फीचर्स)

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चौपाया व्हेल करती थी महाद्वीपों का सफर

शोधकर्ताओं ने कुछ समय पहले ही पेरू के समुद्र तट पर चार पैरों वाली प्राचीन व्हेल की हड्डियां खोज निकाली हैं। करंट बायोलॉजी में प्रकाशित पेपर के अनुसार यह जीव राइनो और समुद्री ऊदबिलाव के मिश्रित रूप जैसा दिखता होगा। इसका सिर छोटा, लंबी मज़बूत पूंछ और चार छोटे मगर मोटे खुरदार पैर एवं झिल्लीदार पंजे रहे होंगे। एक नए अध्ययन का अनुमान है कि ये जीव आज के युग की व्हेल के पूर्वज रहे होंगे जो लगभग 4 करोड़ वर्ष पहले पाए जाते थे। 

रॉयल बेल्जियन इंस्टिट्यूट ऑफ नेचुरल साइंस, ब्रसेल्स के जंतु विज्ञानी और इस अध्ययन के प्रमुख ओलिवियर लैम्बर्ट के अनुसार यह प्रशांत महासागर में मिलने वाली चार पैरों वाली व्हेल का सबसे पहला प्रमाण है। 

जीवाश्म विज्ञानी पिछले एक दशक से भी अधिक समय से प्राचीन समुद्री स्तनधारियों के जीवाश्म की खोज करने के लिए पेरू के बंजर तटीय क्षेत्रों के आसपास खुदाई कर रहे थे। लैम्बर्ट और उनकी टीम को अधिक सफलता मिलने की उम्मीद नहीं थी लेकिन एक बड़े दांतों वाला जबड़ा मिलने के बाद उन्होंने खुदाई को आगे भी जारी रखा।

ये हड्डियां कई लाख वर्ष पुरानी थीं और कई टुकड़ों में टूटी हुई थीं, लेकिन काफी अच्छे से संरक्षित थीं और आस-पास की तलछट में इन्हें ढूंढना भी काफी आसान था। जब पूरा कंकाल इकट्ठा कर लिया गया तो कमर और भुजा वाले भाग को देखकर यह ज़मीन पर चलने वाले जीव सरीखा मालूम हुआ लेकिन इसके लंबे उपांग और पूंछ की बड़ी-बड़ी हड्डियों से इसके कुशल तैराक होने का अनुमान लगाया गया। लैम्बर्ट का ऐसा मानना है कि उस समय ये जीव ज़मीन पर चलने में भी सक्षम थे और साथ ही तैरने के लिए अपनी पूंछ का भी उपयोग करते होंगे।     

टीम ने इन तैरने और चलने वाली व्हेल प्रजाति को पेरेफोसिटस पैसिफिकस नाम दिया है जिसका अर्थ प्रशांत तक पहुंचने वाली यात्री व्हेल है।  

अब तक, वैज्ञानिकों का ऐसा मानना था कि प्राचीन व्हेल अफ्रीका से निकलकर पहले उत्तरी अमेरिका की ओर गर्इं और उसके बाद दक्षिणी अमेरिका और दुनिया के अन्य हिस्सों में फैली। लेकिन जीवाश्म की उम्र और स्थान को देखते हुए लैम्बर्ट और उनके साथियों का अनुमान है कि यह उभयचर व्हेल दक्षिण अटलांटिक महासागर को पार करते हुए पहले दक्षिण अमेरिका पहुंचीं और फिर उत्तरी अमेरिका और अन्य स्थानों पर।

अलबत्ता, शोधकर्ताओं के मुताबिक महत्वपूर्ण यह नहीं है कि वे किस दिशा में गर्इं, बल्कि यह काफी दिलचस्प है कि ये प्राचीन चार पैर वाले जीव अपनी शारीरिक रचना से इतना सक्षम थे कि दुनिया भर में फैल गए। आगे चलकर इस जीवाश्म से और अधिक जानकारियां प्राप्त की जा सकती हैं। (स्रोत फीचर्स)

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जल संकट से समूचा विश्व जूझ रहा है – डॉ. आर.बी. चौधरी

भारत के जल संसाधनों के संकट की शुरुआत आंकड़ों से होती है। भारत में जल विज्ञान सम्बंधी आंकड़े संग्रह करने का काम मुख्यत: केंद्रीय जल आयोग (सीडब्ल्यूसी) करता है। सीडब्लूसी का नाम लिए बगैर नीति आयोग की रिपोर्ट भारत में जल आंकड़ा प्रणाली को कठघरे में खड़ी करती है। नीति आयोग की रिपोर्ट में बातें तो खरी हैं: “यह गहरी चिंता की बात है कि भारत में 60 करोड़ से अधिक लोग ज़्यादा से लेकर चरम स्तर तक का जल दबाव झेल रहे हैं। भारत में तकरीबन 70 फीसदी जल प्रदूषित है, जिसकी वजह से पानी की गुणवत्ता के सूचकांक में भारत 122 देशों में 120वें स्थान पर है।”

हमारे यहां पानी के इस्तेमाल और संरक्षण से जुड़ी कई समस्याएं हैं। पानी के प्रति हमारा रवैया ही ठीक नहीं है। हम इस भ्रम में रहते हैं कि चाहे जितने भी पानी का उपयोग/दुरुपयोग कर लें, बारिश से हमारी नदियों और जलाशयों में फिर से नया पानी आ ही जाएगा। यह रवैया सरकारी एजेंसियों का भी है और आम लोगों का भी। अगर किसी साल बारिश नहीं होती तो इसके लिए हम जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग को ज़िम्मेदार ठहराने लगते हैं।

पानी के इस्तेमाल के मामले में घरेलू उपयोग की बड़ी भूमिका नहीं है लेकिन कृषि की है। 1960 के दशक में हरित क्रांति की शुरुआत के बाद से कृषि में पानी की मांग बढ़ी है। इससे भूजल का दोहन हुआ है, जल स्तर नीचे गया है। इस समस्या के समाधान के लिए पर्याप्त उपाय नहीं किए जा रहे हैं। जब भी बारिश नहीं होती तब संकट पैदा होता है। नदियों के पानी का मार्ग बदलने से भी समाधान नहीं हो रहा है। स्थिति काफी खराब है। इस वर्ष अच्छी वर्षा होने का अनुमान है तो जल संचय के लिए अभी से ही कदम उठाने होंगे। लोगों को चाहिए कि पानी की बूंद-बूंद को बचाएं।

गर्मियां आते ही जल संकट पर बातें शुरू हो जाती हैं लेकिन एक पूर्व चेतावनी उपग्रह प्रणाली के अध्ययन पर आधारित रिपोर्ट काफी डराने वाली है क्योंकि यह रिपोर्ट भारत में एक बड़े जल संकट की ओर इशारा कर रही है। भारत, मोरक्को, इराक और स्पेन में सिकुड़ते जलाशयों की वजह से इन चार देशों में नलों से पानी गायब हो सकता है। दुनिया के 5 लाख बांधों के लिए पूर्व चेतावनी उपग्रह प्रणाली बनाने वाले डेवलपर्स के अनुसार भारत, मोरक्को, इराक और स्पेन में जल संकट ‘डे ज़ीरो’ तक पहुंच जाएगा। यानी नलों से पानी एकदम गायब हो सकता है। अध्ययन में कहा गया है कि भारत में नर्मदा नदी से जुड़े दो जलाशयों में जल आवंटन को लेकर प्रत्यक्ष तौर पर तनाव है।

पिछले साल कम बारिश होने की वजह से मध्य प्रदेश के इंदिरा सागर बांध में पानी सबसे निचले स्तर पर पहुंच गया। जब इस कमी को पूरा करने के लिए निचले क्षेत्र में स्थित सरदार सरोवर जलाशय को कम पानी दिया गया तो काफी होहल्ला मच गया था क्योंकि सरदार सरोवर जलाशय में 3 करोड़ लोगों के लिए पेयजल है। पिछले महीने गुजरात सरकार ने सिंचाई रोकते हुए किसानों से फसल नहीं लगाने की अपील की थी।

नीति आयोग की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में विश्व की 17 प्रतिशत जनसंख्या रहती है, जबकि इसके पास विश्व के शुद्ध जल संसाधन का मात्र 4 प्रतिशत ही है। किसी भी देश में अगर प्रति व्यक्ति जल उपलब्धता 1700 घन मीटर से नीचे जाने लगे तो उसे जल संकट की चेतावनी और अगर 1000 घन मीटर से नीचे चला जाए, तो उसे जल संकटग्रस्त माना जाता है। भारत में यह फिलहाल 1544 घन मीटर प्रति व्यक्ति हो गया है, जिसे जल की कमी की चेतावनी के रूप में देखा जा रहा है। नीति आयोग ने यह भी बताया है कि उपलब्ध जल का 84 प्रतिशत खेती में, 12 प्रतिशत उद्योगों में और 4 प्रतिशत घरेलू कामों में उपयोग होता है।

हम चीन और अमेरिका की तुलना में एक इकाई फसल पर दो से चार गुना अधिक जल उपयोग करते हैं। देश की लगभग 55 प्रतिशत कृषि भूमि पर सिंचाई के साधन नहीं हैं। ग्याहरवीं योजना के अंत तक भी लगभग 13 करोड़ हैक्टर भूमि को सिंचाई के अंतर्गत लाने का प्रवधान था। इसे बढ़ाकर अधिक-से-अधिक 1.4 करोड़ हैक्टर तक किया जा सकता है। इसके अलावा भी काफी भूमि ऐसी बचेगी, जहां सिंचाई असंभव होगी और वह केवल मानसून पर निर्भर रहेगी। भूजल का लगभग 60 प्रतिशत सिंचाई के लिए उपयोग में लाया जाता है। 80 प्रतिशत घरेलू जल आपूर्ति भूजल से ही होती है। इससे भूजल का स्तर लगातार घटता जा रहा है।

लगातार दो वर्षों से मानसून की खराब स्थिति ने देश के जल संकट को गहरा दिया है। आबादी लगातार बढ़ रही है, जबकि जल संसाधन सीमित हैं। अगर अभी भी हमने जल संरक्षण और उसके समान वितरण के लिए उपाय नहीं किए तो देश के तमाम सूखा प्रभावित राज्यों की हालत और गंभीर हो जाएगी। नीति आयोग द्वारा समय-समय पर जल समस्या पर अध्ययन किए जाते हैं किंतु आंकड़े जिस सच्चाई का चित्रण करते हैं उस पर ध्यान देने की तत्काल आवश्यकता है।

जल संरक्षण एवं प्रबंधन के समय-समय पर कई सुझाव दिए जाते हैं किंतु विशेषज्ञों की राय में निम्नलिखित बातों का स्मरण रखा जाना अति आवश्यक है। जैसे, लोगों में जल के महत्व के प्रति जागरूकता पैदा करना, पानी की कम खपत वाली फसलें उगाना, जल संसाधनों का बेहतर नियंत्रण एवं प्रबंधन एवं जल सम्बंधी राष्ट्रीय कानून बनाया जाना इत्यादि। हांलाकि, संवैधानिक तौर पर जल का मामला राज्यों से संबंधित है लेकिन अभी तक किसी राज्य ने अलग-अलग क्षेत्रों को जल आपूर्ति सम्बंधी कोई निश्चित कानून नहीं बनाए हैं।

अंतर्राष्ट्रीय जल दिवस की घोषणा ब्राज़ील के रियो दे जनेरो में 1992 में हुए पर्यावरण और विकास पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन (यूएनसीईडी) में हुई थी। इसके बाद संयुक्त राष्ट्र आम सभा ने 22 मार्च को अंतर्राष्ट्रीय जल दिवस के रूप में घोषित किया। 2005-2016 के दशक को संयुक्त राष्ट्र ने अंतर्राष्ट्रीय जल अभियान का दशक घोषित किया था। इसी दशक के तहत पिछले दिनों दक्षिण अफ्रीकी शहर केप टाउन में पानी सूख जाने की खबर अंतर्राष्ट्रीय सुर्खियों में रही।

पृथ्वी पर उपलब्ध कुल पानी का 2.6 फीसदी ही साफ पानी है। और इसका एक फीसदी पानी ही मनुष्य इस्तेमाल कर पाते हैं। वैश्विक पैमाने पर इसी पानी का 70 फीसदी कृषि में, 25 फीसदी उद्योगों में और पांच फीसदी घरेलू इस्तेमाल में निकल जाता है। भारत में साढ़े सात करोड़ से ज़्यादा लोग पीने के साफ पानी के लिए तरस रहे हैं। नदियां प्रदूषित हैं और जल संग्रहण का ढांचा चरमराया हुआ है। ग्रामीण इलाकों मे इस्तेमाल योग्य पानी का संकट हो चुका है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन ने जल उपयोग का प्रति व्यक्ति आदर्श मानक 100-200 लीटर निर्धारित किया है। विभिन्न देशों में ये मानक बदलते रहते हैं। लेकिन भारत की बात करें तो स्थिति बदहाल ही कही जाएगी, जहां औसतन प्रति व्यक्ति जल उपयोग करीब 90 लीटर प्रतिदिन है। अगर जल उपलब्धता की बात करें, तो सरकारी अनुमान कहता है कि 2025 तक प्रति व्यक्ति 1341 घन मीटर उपलब्ध होगा। 2050 में यह और कम होकर 1140 रह जाएगा। (स्रोत फीचर्स)

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प्रकाश प्रदूषण का हाल एक क्लिक से

दि आपको आकाश-दर्शन का शौक है और आप निराश हैं कि आपके इलाके में उजाले की वजह से तारे बहुत कम नज़र आते हैं तो आप एक वेबसाइट की मदद से पता कर सकते हैं कि आप जहां खड़े हैं वहां रात में कितना उजाला है। आप यह भी पता कर सकते हैं कि आकाश का अच्छा नज़ारा देखने के लिए कहां जाना उपयुक्त होगा।

पॉट्सडैम स्थित जर्मन रिसर्च सेंटर फॉर जियोसाइन्स के भौतिक शास्त्री क्रिस्टोफर कायबा ने एक ऐसा सॉफ्टवेयर तैयार किया है जो पूरी धरती पर कहीं भी रात के समय उजाले की स्थिति बता सकता है। आपको बस इतना करना है कि Radiance Light Trends पर जाएं और अपने इलाके का नाम टाइप करें। तत्काल आपको उस जगह में रात के प्रकाश का अनुमान मिल जाएगा।

इस सॉफ्टवेयर को विकसित करने के लिए कायबा ने उपग्रहों से प्राप्त आंकड़ों का विश्लेषण किया है। ये उपग्रह पृथ्वी पर लगातार नज़र रखते हैं। इनसे प्राप्त सूचनाओं से पता चलता है कि किसी स्थान पर स्ट्रीट लाइट्स, नियॉन साइन्स या अन्य किसी स्रोत से रात के समय कितना प्रकाश पैदा होता है। मगर इन आंकड़ों को हासिल करना और इनका विश्लेषण करके रात्रि-प्रकाश का अंदाज़ लगाना खासा मुश्किल काम है। कायबा ने इस काम को आसान बना दिया है।

कायबा ने इसके लिए पिछले पच्चीस वर्षों के उपग्रह आंकड़ों को शामिल किया है। यह सॉफ्टवेयर किसी भी स्थान के लिए पिछले पच्चीस वर्षों के रात्रि-प्रकाश का ग्राफ प्रस्तुत कर देता है। वैसे आप चाहें तो पर्यावरण के अन्य कारकों के आंकड़े भी यहां से प्राप्त कर सकते हैं और उनका विश्लेषण कर सकते हैं। यह सॉफ्टवेयर युरोपीय संघ की मदद से जियोएसेंशियल प्रोजेक्ट के तहत विकसित किया गया है।

यह सॉफ्टवेयर कई तरह से उपयोगी साबित होगा। जैसे एक अध्ययन से पता चला है कि प्रकाश-प्रदूषण लगभग 80 प्रतिशत धरती को प्रभावित करता है। इसका असर जलीय पारिस्थितिक तंत्रों पर पड़ता है। कुछ अध्ययनों से यह भी संकेत मिला है कि प्रकाश प्रदूषण मानव स्वास्थ्य को प्रभावित करता है और यह संक्रामक रोगों के फैलने में भी भूमिका निभाता है। यह सॉफ्टवेयर इन सब मामलों में मददगार होगा। और शौकिया खगोल शास्त्री इसकी मदद से यह तय कर सकते हैं कि उनके आसपास आकाश को निहारने का सबसे अच्छा स्थान कौन-सा होगा। (स्रोत फीचर्स)

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पृथ्वी पर वायुमंडल क्यों है?

मारी पृथ्वी का वायुमंडल काफी विशाल है। यह इतना बड़ा है कि इसके कारण अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन का मार्ग भी प्रभावित हो जाता है। लेकिन यह विशाल गैसीय आवरण कैसे बना? यानी सवाल यह है कि पृथ्वी पर वायुमंडल क्यों है?

वायुमंडल की उपस्थिति गुरुत्वाकर्षण की वजह से है। आज से लगभग 4.5 अरब वर्ष पहले जब पृथ्वी का निर्माण हुआ तब हमारा ग्रह तरल अवस्था में था और वायुमंडल न के बराबर था। स्मिथसोनियन एन्वायरमेंटल रिसर्च सेंटर के मुताबिक जैसे-जैसे पृथ्वी ठंडी होती गई, ज्वालामुखियों से निकलने वाली गैसों से इसका वायुमंडल बनता गया। यह वायुमंडल आज के वायुमंडल से काफी अलग था। उस समय के वायुमंडल में हाइड्रोजन सल्फाइड, मीथेन और आज की तुलना में 10 से 200 गुना अधिक कार्बन डाईऑक्साइड थी।

युनाइटेड किंगडम के साउथेम्प्टन विश्वविद्यालय के भौतिक रसायन विज्ञानी प्रोफेसर जेरेमी फ्रे के अनुसार पृथ्वी का वायुमंडल पहले कुछ-कुछ शुक्र ग्रह जैसा था जिसमें नाइट्रोजन, कार्बन डाईऑक्साइड और मीथेन मौजूद थी। इसके बाद जीवन अस्तित्व में आया। लगभग यकीन से कहा जा सकता है कि यह किसी समुद्र के पेंदे में हुआ। फिर लगभग 3 अरब वर्षों बाद, प्रकाश संश्लेषण विकसित होने के बाद से एक-कोशिकीय जीवों ने सूर्य की ऊर्जा का उपयोग करके कार्बन डाईऑक्साइड और पानी के अणुओं को शर्करा और ऑक्सीजन गैस में परिवर्तित किया। इसी के साथ ऑक्सीजन का स्तर बढ़ता गया।

पृथ्वी के वायुमंडल में आज लगभग 80 प्रतिशत नाइट्रोजन और 20 प्रतिशत ऑक्सीजन है। इसके साथ ही यहां आर्गन, कार्बन डाईऑक्साइड, जल वाष्प और कई अन्य गैसें भी मौजूद हैं। वायुमंडल में उपस्थित ये गैसें पृथ्वी को सूरज की तीक्ष्ण किरणों से बचाती हैं। प्रमुख ग्रीनहाउस गैसें हैं कार्बन डाईऑक्साइड, जल वाष्प, मीथेन और नाइट्रस ऑक्साइड। इनका होना भी आवश्यक है वरना पृथ्वी का तापमान शून्य से भी नीचे जा सकता है। हालांकि, आज ग्रीनहाउस गैसें नियंत्रण से बाहर हैं। जैसे-जैसे हम अधिक कार्बन डाईऑक्साइड वायुमंडल में छोड़ रहे है, पृथ्वी का ग्रीनहाउस प्रभाव और अधिक मज़बूत हो रहा है और धरती गर्म हो रही है।

देखा जाए तो सौर मंडल के किसी भी अन्य ग्रह पर पृथ्वी जैसा वायुमंडल नहीं है। शुक्र का वायुमंडल सल्फ्यूरिक एसिड और कार्बन डाईऑक्साइड से भरा हुआ है, हवा इतनी गर्म है कि कोई भी इंसान वहां सांस नहीं ले सकता। शुक्र की सतह का तापमान इतना अधिक है कि सीसे जैसी धातु को पिघला दे और वायुमंडलीय दबाव तो पृथ्वी से लगभग 90 गुना अधिक है। 

पृथ्वी का वायुमंडल हमारे लिए जीवन है जिसके बिना हमारा अस्तित्व नहीं है। जेरेमी फ्रे के अनुसार जीवन के पनपने के लिए पृथ्वी पर सही वातावरण होना आवश्यक था। जब यह वातावरण अस्तित्व में आया तब जीवन के लिए परिस्थितियां निर्मित हुर्इं। वायुमंडल जैविक प्रणाली का अभिन्न अंग है। (स्रोत फीचर्स)

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बढ़ता उत्सर्जन पृथ्वी को बहुत गर्म कर देगा

दि हम पेट्रोल/डीज़ल जैसे जीवाश्म र्इंधनों के उपयोग में ऐसी ही लापरवाही बरतते रहे तो शायद उत्सर्जित गैसों की वजह से क्लाउड फीडबैक प्रभाव सक्रिय हो जाएगा। परिणाम यह होगा कि धरती औद्योगिक युग शुरू होने से पहले की तुलना में पूरे 14 डिग्री सेल्सियस गर्म हो जाएगी।

इस प्रभाव के कारण ऊष्णकटिबंध के इलाकों के बड़े हिस्से मनुष्य सहित समस्त स्थिरतापी जीवों के लिए घातक सिद्ध हो सकते हैं। लेकिन एक अच्छी बात यह है कि अगर देश कार्बन उत्सर्जन में कटौती के अपने प्रयासों को बढ़ाते हैं तो इस विषय पर अध्ययन की कोई आवश्यकता ही नहीं होगी।

कैलिफोर्निया इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी, पैसाडेना के टैपिओ श्नाइडर और उनकी टीम ने उपोष्णकटिबंधीय महासागरों पर ऐसे बादलों के मॉडल का निर्माण किया जिन्हें स्ट्रैटोकुमुलस बादल कहते हैं। ये बादल पृथ्वी की सतह के लगभग 7 प्रतिशत भाग को ढांक कर रखते हैं और सूरज की गर्मी को वापिस अंतरिक्ष में परावर्तित करके ग्रह को ठंडा रखते हैं। उन्होंने पाया कि उनके मॉडल में जब कार्बन डाईऑक्साइड का स्तर 1200 पीपीएम पर पहुंचा तो अचानक से स्ट्रैटोकुमुलस बादल बिखर गए और गायब हो गए।

यही कारण है कि यह खोज केवल उपोष्णकटिबंधीय स्ट्रैटोक्यूम्यलस पर लागू होती है, क्योंकि ये बादल असामान्य हैं। ये बादल बने रहते हैं क्योंकि इनकी ऊपरी सतह अवरक्त विकिरण का उत्सर्जन करती है और बादल को ठंडा रखती है। कार्बन डाईऑक्साइड का उच्च स्तर उत्सर्जन की इस प्रक्रिया को रोकता है। इन चमकीले सफेद बादलों के नुकसान से वैश्विक तापमान में 8 डिग्री सेल्सियस का और इज़ाफा होगा। कार्बन डाईऑक्साइड का स्तर 1200 पीपीएम से अधिक होने पर धरती वैसे ही लगभग 6 डिग्री सेल्सियस या उससे अधिक गर्म हो जाएगी। यानी स्ट्रैटोकुमुलस बादलों की क्षति की वजह से औसत वैश्विक तापमान 14 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ सकता है।

कार्बन डाईऑक्साइड का स्तर इस वर्ष 410 पीपीएम पार कर जाएगा जो उद्योग-पूर्व युग में 280 पीपीएम था। यदि सभी उपलब्ध जीवाश्म र्इंधन को जलाया जाए तो कार्बन डाईऑक्साइड का स्तर 4000 पीपीएम से अधिक हो सकता है। जलवायु वैज्ञानिकों की मानें तो सबसे बदतर स्थिति में भी 1200 पीपीएम कार्बन डाइऑक्साइड का स्तर वर्ष 2100 के बाद आएगा।

इस खोज से एक पुराने रहस्य को सुलझाने में मदद मिलेगी कि कैसे लगभग 5 करोड़ साल पहले ग्रह इतना गर्म हो गया था कि मगरमच्छ आर्कटिक में पनप गए थे। यह सही है कि उस समय कार्बन डाईऑक्साइड का स्तर बहुत अधिक था, लेकिन मात्र उसके आधार पर उस अवधि की अत्यधिक गर्मी की व्याख्या नहीं की जा सकती। संभवत: उस समय स्ट्रैटोकुमुलस बादल बिखर गए थे। (स्रोत फीचर्स)

 नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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पृथ्वी का चुंबकीय क्षेत्र गायब भी हुआ था

मारी पृथ्वी के चारों ओर एक चुंबकीय क्षेत्र मौजूद है। इसकी मदद से न केवल हमको दिशाओं का ज्ञान होता है बल्कि यह चुंबकीय क्षेत्र हमारे ग्रह को हानिकारक विकिरण और सौर हवाओं से बचाता भी है। लेकिन आज से 56 करोड़ वर्ष पहले यह चुंबकीय क्षेत्र लगभग गायब हो चुका था। लेकिन एक भूगर्भीय घटना के कारण यह बच गया। वैज्ञानिकों के अनुसार उस समय पृथ्वी का तरल केंद्र (कोर) ठोस होना शुरू हो गया था जिसके कारण चुंबकीय क्षेत्र वापस से मज़बूत हो गया।

वैज्ञानिकों को ग्रह के केंद्र की तत्कालीन संरचना का अंदाज़ रेत के दानों के आकार के क्रिस्टल को देखकर लगा। उन्होंने 56 करोड़ वर्ष पुराने प्लेजिओक्लेज़ और क्लिनोपायरॉक्सीन के नमूने लिए जो उनको पूर्वी क्यूबेक, कनाडा में मिले। इन नमूनों में लगभग 50 से 100 नैनोमीटर तक की चुंबकीय सुइयां मिलीं जो उस समय पिघली हुई चट्टान में चुंबकीय क्षेत्र की दिशा में स्थिर हो गई थीं। चट्टानों के ठंडा होने के बाद ये सुइयां अरबों वर्षों तक सुरक्षित रखी रहीं और पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र का रिकॉर्ड बन गर्इं।

इन छोटे-छोटे क्रिस्टल्स को मैग्नेटोमीटर से जांचने पर कणों का चार्ज बहुत कम पाया गया। वास्तव में, 56 करोड़ साल पहले, पृथ्वी का चुंबकीय क्षेत्र आज की तुलना में 10 गुना अधिक कमजोर रहा था। आगे मापन से पता चला कि उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव के पलटने की आवृत्ति भी बहुत अधिक थी।

रोचेस्टर विश्वविद्यालय के प्रोफेसर जॉन टारडूनो के अनुसार इस अध्ययन से पता चलता है कि उस समय पृथ्वी का चुंबकीय क्षेत्र काफी असामान्य था। एक ऐसा समय भी था जब चुंबकीय क्षेत्र के निर्माण की प्रक्रिया (जियो-डाएनेमो) लगभग धराशायी हो गई थी।

पृथ्वी के शुरुआती दौर में धरती का केंद्र पिघली हुई अवस्था में था। फिर 2.5 अरब से 50 करोड़ साल पहले केंद्र का लोहा ठंडा होकर ठोस अवस्था में परिवर्तित होने लगा। जैसे ही आंतरिक कोर ने जमना शुरू किया सिलिकॉन, मैग्नीशियम और ऑक्सीजन जैसे हल्के तत्व कोर की बाहरी तरल परत में आ गए जिससे तरल पदार्थ और गर्मी का प्रवाह शुरू हुआ जिसे संवहन कहा जाता है। बाहरी कोर में द्रव की गति ने आवेशित कणों को गतिमान रखा, जिससे विद्युत धारा उत्पन्न हुई और विद्युत धारा ने चुंबकीय क्षेत्र को जन्म दिया। यही संवहन आज भी चुंबकीय क्षेत्र के लिए ज़िम्मेदार है। पृथ्वी की आंतरिक कोर का ठोस बनना अभी भी जारी है और आने वाले कई वर्षों तक ऐसा होता रहेगा।

एक संभावना यह व्यक्त की गई है कि कैम्ब्रियन युग में तेज़ जैव विकास का सम्बंध कमजोर चुंबकीय क्षेत्र से हो सकता है क्योंकि चुंबकीय क्षेत्र के कमज़ोर होने के चलते जो अधिक विकिरण धरती पर पहुंचा होगा उससे डीएनए की क्षति और उत्परिवर्तन दर ऊंची रही हो सकती है जिससे अधिक प्रजातियों के विकसित होने की संभावना है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कयामत की घड़ी नज़दीक आई

नवरी 24 के दिन बुलेटिन ऑफ एटॉमिक साइन्टिस्ट्स (बीएएस) ने अपनी कयामत की घड़ी को अपडेट करके बताया है कि मानवता कयामत के और नज़दीक पहुंच गई है। उनकी परिकल्पित कयामत की घड़ी के कांटे मध्य रात्रि से बहुत दूर नहीं हैं। इस घड़ी पर मध्य रात्रि के समय को प्रलय की घड़ी माना गया है।

पिछले वर्ष कयामत की घड़ी के कांटों के अनुसार मध्य रात्रि में 2 मिनट का समय शेष रहा था। वह अब तक का सबसे नज़दीक समय था। 24 जनवरी को बीएएस ने घोषित किया कि कांटे इस वर्ष भी मध्य रात्रि से दो मिनट दूर ही रहेंगे। यह सही है कि घड़ी के कांटे आगे नहीं बढ़े हैं किंतु परमाणु हथियारों के प्रसार और जलवायु परिवर्तन की लगातार अधोगति आज भी चिंता के सबब बने हुए हैं। और गलत सूचनाओं और फेक न्यूज़ का बढ़ता चलन आग में घी का काम कर रहे हैं। बीएएस के प्रतिनिधियों का कहना है कि 2018 के बाद कांटे आगे नहीं बढ़े हैं, तो इसे स्थिरता का संकेत न मानकर दुनिया भर के नागरिकों और नेताओं के लिए चेतावनी का संकेत माना जाना चाहिए।

बीएएस के वैज्ञानिक साल में दो बार विश्व स्तर पर घटनाओं का विश्लेषण करके यह आकलन करने की कोशिश करते हैं कि हम कयामत से कितनी दूर या कितने नज़दीक हैं। 2018 में उन्होंने देखा था कि परमाणु युद्ध का मंडराता खतरा और वैश्विक तापमान में लगातार वृद्धि विश्व को विनाश की ओर धकेल रहे हैं। उनका कहना है कि इन खतरों ने एक खतरनाक और अनिर्वहनीय यथास्थिति का निर्माण कर दिया है। जितने लंबे समय तक हम इस असामान्य यथास्थिति से आंखें मूंदे रहेंगे, उतना ही हम खतरे के निकट पहुंचेंगे।

वैज्ञानिकों का कहना है कि यूएस और उत्तरी कोरिया के बीच परमाणु शब्दबाण तो थमे हैं किंतु दुनिया भर में परमाणु हथियारों पर निर्भरता बढ़ी है। शीत युद्ध की मानसिकता ने परमाणु युद्ध से बचने के कई दशकों के प्रयासों पर पानी फेर दिया है। और तो और, यूएस और रूस के सम्बंध तनावपूर्ण बने हुए हैं। ये दो देश दुनिया के 90 प्रतिशत परमाणु हथियारों के मालिक हैं।

जहां तक जलवायु परिवर्तन का सम्बंध है, तो पिछले कुछ वर्षों का घटनाक्रम चिंताजनक रहा है। खास तौर से यूएस कार्बन उत्सर्जन को थामने में नाकाम रहा है और ऐसे विकास को बढ़ावा दे रहा है जो जीवाश्म र्इंधन पर निर्भर है। जलवायु परिवर्तन का खतरा बढ़ता जा रहा है और 275 अध्ययनों के आधार पर एक रिपोर्ट में वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी थी कि जलवायु का संकट सूखा, बाढ़, प्रदूषण और समुद्र तल में वृद्धि जैसे कारणों से लाखों लोगों का जीवन संकट में डाल देगा। वैज्ञानिकों का कहना है कि जलवायु परिवर्तन प्रति वर्ष ढाई लाख लोगों के लिए जानलेवा साबित होगा और अगले 12 वर्षों में 10 करोड़ लोग अतिशय गरीबी में धकेले जाएंगे।

कयामत की घड़ी की कल्पना 1947 में की गई थी और उस समय यह मुख्य रूप से परमाणु खतरों का आकलन करती थी। वैसे वैज्ञानिकों का विश्वास है कि हम इस घड़ी को पीछे खिसका सकते हैं, बशर्ते कि दुनिया भर में इसके लिए प्रयास किए जाएं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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