अंतर्राष्ट्रीय भूगर्भ विज्ञान संघ ने पृथ्वी पर एक नए युग का
अनुमोदन किया है। दक्षिणी जापान के चिबा प्रांत में पाई गई तलछट की एक परत के आधार
पर इस नए युग की घोषणा की गई है। यह युग लगभग 7 लाख 70 हज़ार वर्ष पूर्व से लेकर 1
लाख 26 हज़ार वर्ष के बीच रहा था।
इस अवधि की विशेष बात यह है कि इस दौरान पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र ने पलटी
मारी थी। पृथ्वी के इतिहास में कई बार ऐसा हुआ है कि उत्तरी व दक्षिणी चुंबकीय
ध्रुवों की अदला-बदली हुई है। जब ऐसा होता है तो इसके निशान पृथ्वी की उन चट्टानों
पर रह जाते हैं जो उस दौरान ठोस बन रही थीं। ऐसा माना जा रहा है कि इस स्थल पर पाई
गई तलछट चुंबकीय उथल-पुथल का बहुत अच्छा रिकॉर्ड उपलब्ध कराएगी।
चुंबकीय ध्रुवीय पलट को ब्रुनहेस-मातुयामा पलटी कहते हैं और यह आज भी विवाद का
विषय है। 2014 में जियोफिज़िकल जर्नल इंटरनेशनल में प्रकाशित एक शोध पत्र
में इटली में पाई गई तलछट की एक परत से प्राप्त जानकारी के आधार पर कहा गया था कि
चुंबकीय पलटी में मात्र कुछ दशकों का समय लगता है। दूसरी ओर, 2019 में हवाई में प्राचीन लावा के प्रवाह से प्राप्त आंकड़ों के आधार पर कहा
गया था कि इसमें लगभग 22,000 साल लग जाते हैं। इस पलटी के बढ़िया रिकॉर्ड के साथ
चिबा की तलछट शायद बहस को विराम देने का काम करेगी।
ध्रुवों के पलटने के अध्ययन से हम यह समझ पाएंगे कि इस वक्त क्या हो रहा है। हाल के वर्षों में पृथ्वी के चुंबकीय ध्रुवों में थोड़ा स्थान परिवर्तन हो रहा है। वैज्ञानिक यह नहीं समझ पाए हैं कि ध्रुव क्यों भटक रहे हैं। शायद चिबा की चट्टानें कुछ मदद करें। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.nippon.com/en/ncommon/contents/news/179319/179319.jpg
डेढ़ सौ साल पुराने प्लैंकटन (सूक्ष्म जलीय वनस्पति) के अध्ययन
के आधार पर किंग्सटन युनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने जलवायु परिवर्तन के बारे में
काफी महत्वपूर्ण निष्कर्ष निकाले हैं।
सन 1872-76 तक चले एचएमएस चैलेंजर अभियान के दौरान एकत्रित किए गए
एक-कोशिकीय,
कवच बनाने वाले जीव फोरामिनीफेरा लंदन स्थित म्यूज़ियम ऑफ
नेचुरल हिस्ट्री में रखे हुए थे। सूक्ष्मजीवाश्म विज्ञानी लिंडसे फॉक्स ने इन
फोरामिनीफेरा नमूनों का अध्ययन किया और पाया कि वर्तमान फोरामिनीफेरा की तुलना में
प्राचीन फोरामिनीफेरा के कवच कहीं अधिक मोटे थे। उनका निष्कर्ष है कि कवच की मोटाई
में यह परिवर्तन समुद्री पानी के तेज़ी से अम्लीय होने की वजह से हुआ है।
वैसे तो वैज्ञानिक इस बात को पहले से जानते थे कि वातावरण में मौजूद अतिरिक्त
कार्बन डाईआऑक्साइड के समुद्र में घुलने के परिणामस्वरूप महासागर अम्लीय होते जा
रहे हैं जिसके कारण समुद्री जीवन बुरी तरह प्रभावित हो रहा है। अम्लीय पानी
कैल्शियम कार्बोनेट और जीवों के बाह्र कंकाल को झीना कर देता है और उनके लिए इस
तरह की संरचना बना पाना ही मुश्किल हो जाता है। लेकिन अधिकांश नतीजे प्रयोगशाला
में किए गए प्रयोगों से मिले थे जो बहुत लंबी अवधि के नहीं होते। वैज्ञानिक खुले
समुद्र में अम्लीय होते महासागरों के दीर्घकालिक प्रभाव जांचने में सक्षम नहीं थे।
तुलना के लिए शोधकर्ताओं ने दो प्रजातियों Neogloboquadrina
dutertrei और Globigerinoidesruber को चुना। एचएमएस चैलेंजर द्वारा एकत्रित नमूनों के सटीक स्थान और समय
के बारे में जानकारी प्राप्त की और इनकी तुलना उन्होंने साल 2011 में प्रशांत
महासागर में चले तारा अभियान से प्राप्त उन्हीं प्रजातियों के नमूनों से की।
उन्होंने सी.टी. स्कैन की मदद से इनके कवच का 3-डी मॉडल बनाया। उन्होंने पाया
कि प्राचीन नमूनों की तुलना में औसतन सभी आधुनिक कवच झीने थे। N.
dutertreiका आवरण तो 76 प्रतिशत झीना था। साइंटिफिक रिपोर्ट्स में प्रकाशित शोध
पत्र में बताया गया है कि कुछ वर्तमान कवच तो इतने पतले थे कि उनका 3-डी मॉडल तक
बनाना मुश्किल था।
शोधकर्ताओं का कहना है कि ऐसी संभावना है कि कवच समुद्रों की बढ़ती अम्लीयता के
कारण झीने हुए हों। हालांकि वे यह भी कहते हैं कि इसमें महासागरों के बढ़ते तापमान
और ऑक्सीजन की कमी की भी भूमिका हो सकती है।
फॉक्स ऐसी ही तुलना संग्रहालयों में रखे हज़ारों प्लैंकटन जीवाश्मों के साथ करना चाहती हैं। वे उम्मीद करती हैं कि यह अध्ययन अन्य वैज्ञानिकों को भी संग्रहालयों की पड़ताल करने को प्रेरित करेगा। (स्रोत फीचर्स)
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वर्ष 2019 विज्ञान जगत के इतिहास में एक ऐसे वर्ष के रूप में
याद किया जाएगा,
जब वैज्ञानिकों ने पहली बार ब्लैक होल की तस्वीर जारी की।
यह वही वर्ष था,
जब वैज्ञानिकों ने प्रयोगशाला में कार्बन के एक और नए रूप
का निर्माण कर लिया। विदा हुए साल में गूगल ने क्वांटम प्रोसेसर में श्रेष्ठता
हासिल की। अनुसंधानकर्ताओं ने प्रयोगशाला में आठ रासायनिक अक्षरों वाले डीएनए अणु
बनाने की घोषणा की।
इस वर्ष 10 अप्रैल को खगोल वैज्ञानिकों ने ब्लैक होल की पहली तस्वीर जारी की।
यह तस्वीर विज्ञान की परिभाषाओं में की गई कल्पना से पूरी तरह मेल खाती है।
भौतिकीविद अल्बर्ट आइंस्टीन ने पहली बार 1916 में सापेक्षता के सिद्धांत के साथ
ब्लैक होल की भविष्यवाणी की थी। ब्लैक होल शब्द 1967 में अमेरिकी खगोलविद जॉन
व्हीलर ने गढ़ा था। 1971 में पहली बार एक ब्लैक होल खोजा गया था।
इस घटना को विज्ञान जगत की बहुत बड़ी उपलब्धि कहा जा सकता है। ब्लैक होल का
चित्र इवेंट होराइज़न दूरबीन से लिया गया, जो हवाई, एरिज़ोना,
स्पेन, मेक्सिको, चिली और दक्षिण ध्रुव में लगी है। वस्तुत: इवेंट होराइज़न दूरबीन एक संघ है। इस
परियोजना के साथ दो दशकों से लगभग 200 वैज्ञानिक जुड़े हुए हैं। इसी टीम की सदस्य
मैसाचूसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी की 29 वर्षीय कैरी बोमेन ने एक कम्प्यूटर
एल्गोरिदम से ब्लैक होल की पहली तस्वीर बनाने में सहायता की। विज्ञान जगत की
अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका साइंस ने वर्ष 2019 की दस प्रमुख खोजों में ब्लैक
होल सम्बंधी अनुसंधान को प्रथम स्थान पर रखा है।
उक्त ब्लैक होल हमसे पांच करोड़ वर्ष दूर एम-87 नामक निहारिका में स्थित है।
ब्लैक होल हमेशा ही भौतिक वैज्ञानिकों के लिए उत्सुकता के विषय रहे हैं। ब्लैक होल
का गुरूत्वाकर्षण अत्यधिक शक्तिशाली होता है जिसके खिंचाव से कुछ भी नहीं बच सकता; प्रकाश भी यहां प्रवेश करने के बाद बाहर नहीं निकल पाता है। ब्लैक होल में
वस्तुएं गिर सकती हैं, लेकिन वापस नहीं लौट सकतीं।
इसी वर्ष 21 फरवरी को अनुसंधानकर्ताओं ने प्रयोगशाला में बनाए गए नए डीएनए अणु
की घोषणा की। डीएनए का पूरा नाम डीऑक्सीराइबो न्यूक्लिक एसिड है। नए संश्लेषित
डीएनए में आठ अक्षर हैं, जबकि प्रकृति में विद्यमान
डीएनए अणु में चार अक्षर ही होते हैं। यहां अक्षर से तात्पर्य क्षारों से है।
संश्लेषित डीएनए को ‘हैचीमोजी’ नाम दिया गया है। ‘हैचीमोजी’ जापानी भाषा का शब्द
है,
जिसका अर्थ है आठ अक्षर। एक-कोशिकीय अमीबा से लेकर
बहुकोशिकीय मनुष्य तक में डीएनए होता है। डीएनए की दोहरी कुंडलीनुमा संरचना का
खुलासा 1953 में जेम्स वाट्सन और फ्रांसिक क्रिक ने किया था। यह वही डीएनए अणु है, जिसने जीवन के रहस्यों को सुलझाने और आनुवंशिक बीमारियों पर विजय पाने में अहम
योगदान दिया है। मातृत्व-पितृत्व का विवाद हो या अपराधों की जांच, डीएनए की अहम भूमिका रही है।
सुपरकम्प्यूटिंग के क्षेत्र में वर्ष 2019 यादगार रहेगा। इसी वर्ष गूगल ने 54
क्यूबिट साइकैमोर प्रोसेसर की घोषणा की जो एक क्वांटम प्रोसेसर है। गूगल ने दावा
किया है कि साइकैमोर वह कार्य 200 सेकंड में कर देता है, जिसे
पूरा करने में सुपर कम्प्यूटर दस हज़ार वर्ष लेगा। इस उपलब्धि के आधार पर कहा जा
सकता है कि भविष्य क्वांटम कम्यूटरों का होगा।
वर्ष 2019 में रासायनिक तत्वों की प्रथम आवर्त सारणी के प्रकाशन की 150वीं
वर्षगांठ मनाई गई। युनेस्को ने 2019 को अंतर्राष्ट्रीय आवर्त सारणी वर्ष मनाने की
घोषणा की थी,
जिसका उद्देश्य आवर्त सारणी के बारे में जागरूकता का
विस्तार करना था। विख्यात रूसी रसायनविद दिमित्री मेंडेलीव ने सन 1869 में प्रथम
आवर्त सारणी प्रकाशित की थी। आवर्त सारणी की रचना में विशेष योगदान के लिए
मेंडेलीव को अनेक सम्मान मिले थे। सारणी के 101वें तत्व का नाम मेंडेलेवियम रखा
गया। इस तत्व की खोज 1955 में हुई थी। इसी वर्ष जुलाई में इंटरनेशनल यूनियन ऑफ प्योर
एंड एप्लाइड केमिस्ट्री (IUPAC) का
शताब्दी वर्ष मनाया गया। इस संस्था की स्थापना 28 जुलाई 1919 में उद्योग जगत के
प्रतिनिधियों और रसायन विज्ञानियों ने मिलकर की थी। तत्वों के नामकरण में युनियन
का अहम योगदान रहा है।
विज्ञान की अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका नेचर के अनुसार गुज़िश्ता साल रसायन
वैज्ञानिकों ने कार्बन के एक और नए रूप सी-18 सायक्लोकार्बन का सृजन किया। इसके
साथ ही कार्बन कुनबे में एक और नया सदस्य शामिल हो गया। इस अणु में 18 कार्बन
परमाणु हैं,
जो आपस में जुड़कर अंगूठी जैसी आकृति बनाते हैं। शोधकर्ताओं
के अनुसार इसकी संरचना से संकेत मिलता है कि यह एक अर्धचालक की तरह व्यवहार करेगा।
लिहाज़ा,
कहा जा सकता है कि आगे चलकर इलेक्ट्रॉनिकी में इसके उपयोग
की संभावनाएं हैं।
गुज़रे साल भी ब्रह्मांड के नए-नए रहस्यों के उद्घाटन का सिलसिला जारी रहा। इस
वर्ष शनि बृहस्पति को पीछे छोड़कर सबसे अधिक चंद्रमा वाला ग्रह बन गया। 20 नए
चंद्रमाओं की खोज के बाद शनि के चंद्रमाओं की संख्या 82 हो गई। जबकि बृहस्पति के
79 चंद्रमा हैं।
गत वर्ष बृहस्पति के चंद्रमा यूरोपा पर जल वाष्प होने के प्रमाण मिले। विज्ञान
पत्रिका नेचर में प्रकाशित रिपोर्ट में बताया गया है कि यूरोपा की मोटी
बर्फ की चादर के नीचे तरल पानी का सागर लहरा रहा है। अनुसंधानकर्ताओं के अनुसार
इससे यह संकेत मिलता है कि यहां पर जीवन के सभी आवश्यक तत्व विद्यमान हैं।
कनाडा स्थित मांट्रियल विश्वविद्यालय के प्रोफेसर बियर्न बेनेक के नेतृत्व में
वैज्ञानिकों ने हबल दूरबीन से हमारे सौर मंडल के बाहर एक ऐसे ग्रह (के-टू-18 बी)
का पता लगाया है,
जहां पर जीवन की प्रबल संभावनाएं हैं। यह पृथ्वी से दो गुना
बड़ा है। यहां न केवल पानी है, बल्कि
तापमान भी अनुकूल है।
साल की शुरुआत में चीन ने रोबोट अंतरिक्ष यान चांग-4 को चंद्रमा के अनदेखे
हिस्से पर सफलतापूर्वक उतारा और ऐसा करने वाला दुनिया का पहला देश बन गया। चांग-4
जीवन सम्बंधी महत्वपूर्ण प्रयोगों के लिए अपने साथ रेशम के कीड़े और कपास के बीज भी
ले गया था।
अप्रैल में पहली बार नेपाल का अपना उपग्रह नेपालीसैट-1 सफलतापूर्वक लांच किया
गया। दो करोड़ रुपए की लागत से बने उपग्रह का वज़न 1.3 किलोग्राम है। इस उपग्रह की
मदद से नेपाल की भौगोलिक तस्वीरें जुटाई जा रही हैं। दिसंबर के उत्तरार्ध में युरोपीय
अंतरिक्ष एजेंसी ने बाह्य ग्रह खोजी उपग्रह केऑप्स सफलतापूर्वक भेजा। इसी साल
अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा द्वारा भेजा गया अपार्च्युनिटी रोवर पूरी तरह
निष्क्रिय हो गया। अपाच्र्युनिटी ने 14 वर्षों के दौरान लाखों चित्र भेजे। इन
चित्रों ने मंगल ग्रह के बारे में हमारी सीमित जानकारी का विस्तार किया।
बीते वर्ष में जीन सम्पादन तकनीक का विस्तार हुआ। आलोचना और विवादों के बावजूद
अनुसंधानकर्ता नए-नए प्रयोगों की ओर अग्रसर होते रहे। वैज्ञानिकों ने जीन सम्पादन
तकनीक क्रिसपर कॉस-9 तकनीक की मदद से डिज़ाइनर बच्चे पैदा करने के प्रयास जारी रखे।
जीन सम्पादन तकनीक से बेहतर चिकित्सा और नई औषधियां बनाने का मार्ग पहले ही
प्रशस्त हो चुका है। चीन ने जीन एडिटिंग तकनीक से चूहों और बंदरों के निर्माण का
दावा किया है। साल के उत्तरार्ध में ड्यूक विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने शरीर की
नरम हड्डी अर्थात उपास्थि की मरम्मत के लिए एक तकनीक खोजी, जिससे
जोड़ों को पुनर्जीवित किया जा सकता है।
बीते साल भी जलवायु परिवर्तन को लेकर चिंता की लकीर लंबी होती गई। बायोसाइंस
जर्नल में प्रकाशित शोध पत्र के अनुसार पहली बार विश्व के 153 देशों के 11,258
वैज्ञानिकों ने जलवायु परिवर्तन पर एक स्वर में चिंता जताई। वैज्ञानिकों ने
‘क्लाइमेट इमरजेंसी’ की चेतावनी देते हुए जलवायु परिवर्तन का सबसे प्रमुख कारण
कार्बन उत्सर्जन को बताया। दिसंबर में स्पेन की राजधानी मैड्रिड में संयुक्त
राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन हुआ। सम्मेलन में विचार मंथन का मुख्य मुद्दा पृथ्वी
का तापमान दो डिग्री सेल्सियस से ज़्यादा बढ़ने से रोकना था।
इसी साल हीलियम की खोज के 150 वर्ष पूरे हुए। इस तत्व की खोज 1869 में हुई थी।
हीलियम का उपयोग गुब्बारों, मौसम विज्ञान सम्बंधी उपकरणों
में हो रहा है। इसी वर्ष विज्ञान की अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका नेचर के
प्रकाशन के 150 वर्ष पूरे हुए। नेचर को विज्ञान की अति प्रतिष्ठित और
प्रामाणिक पत्रिकाओं में गिना जाता है। इस वर्ष भौतिकीविद रिचर्ड फाइनमैन द्वारा
पदार्थ में शोध के पूर्व अनुमानों को लेकर दिसंबर 1959 में दिए गए ऐतिहासिक
व्याख्यान की हीरक जयंती मनाई गई।
विदा हो चुके वर्ष में अंतर्राष्ट्रीय खगोल संघ (IAU) की स्थापना का शताब्दी वर्ष मनाया गया। इसकी स्थापना 28 जुलाई 1919 को ब्रुसेल्स
में की गई थी। वर्तमान में अंतर्राष्ट्रीय खगोल संघ के 13,701 सदस्य हैं। इसी साल
मानव के चंद्रमा पर पहुंचने की 50वीं वर्षगांठ मनाई गई। 21 जुलाई 1969 को अमेरिकी
अंतरिक्ष यात्री नील आर्मस्ट्रांग ने चांद की सतह पर कदम रखा था।
इसी वर्ष विश्व मापन दिवस 20 मई के दिन 101 देशों ने किलोग्राम की नई परिभाषा
को अपना लिया। हालांकि रोज़मर्रा के जीवन में इससे कोई अंतर नहीं आएगा, लेकिन अब पाठ्य पुस्तकों में किलोग्राम की परिभाषा बदल जाएगी। किलोग्राम की नई
परिभाषा प्लैंक स्थिरांक की मूलभूत इकाई पर आधारित है।
गत वर्ष अक्टूबर में साहित्य, शांति, अर्थशास्त्र
और विज्ञान के नोबेल पुरस्कारों की घोषणा की गई। विज्ञान के नोबेल पुरस्कार
विजेताओं में अमेरिका का वर्चस्व दिखाई दिया। रसायन शास्त्र में लीथियम आयन बैटरी
के विकास के लिए तीन वैज्ञानिकों को पुरस्कृत किया गया – जॉन गुडइनफ, एम. विटिंगहैम और अकीरा योशिनो। लीथियम बैटरी का उपयोग मोबाइल फोन, इलेक्ट्रिक कार, लैपटॉप आदि में होता है। 97 वर्षीय गुडइनफ
नोबेल सम्मान प्राप्त करने वाले सबसे उम्रदराज व्यक्ति हो गए हैं। चिकित्सा
विज्ञान का नोबेल पुरस्कार संयुक्त रूप से तीन वैज्ञानिकों को प्रदान किया गया –
विलियम केलिन जूनियर, ग्रेग एल. सेमेंज़ा और पीटर रैटक्लिफ।
इन्होंने कोशिका द्वारा ऑक्सीजन के उपयोग पर शोध करके कैंसर और एनीमिया जैसे रोगों
की चिकित्सा के लिए नई राह दिखाई है। इस वर्ष का भौतिकी का नोबेल पुरस्कार जेम्स
पीबल्स,
मिशेल मेयर और डिडिएर क्वेलोज़ को दिया गया। तीनों
अनुसंधानकर्ताओं ने बाह्य ग्रहों खोज की और ब्रह्मांड के रहस्यों से पर्दा हटाया।
ऑस्ट्रेलिया के कार्ल क्रूसलेंकी को वर्ष 2019 का विज्ञान संचार का
अंतर्राष्ट्रीय कलिंग पुरस्कार प्रदान किया गया। यह प्रतिष्ठित सम्मान पाने वाले
वे पहले ऑस्ट्रेलियाई हैं।
वर्ष 2019 का गणित का प्रतिष्ठित एबेल पुरस्कार अमेरिका की प्रोफेसर केरन
उहलेनबेक को दिया गया है। इसे गणित का नोबेल पुरस्कार कहा जाता है। इसकी स्थापना
2002 में की गई थी। पुरस्कार की स्थापना के बाद यह सम्मान ग्रहण करने वाली केरन
उहलेनबेक पहली महिला हैं।
अंतर्राष्ट्रीय विज्ञान पत्रिका नेचर ने वर्ष 2019 के दस प्रमुख
वैज्ञानिकों की सूची में स्वीडिश पर्यावरण कार्यकर्ता ग्रेटा थनबर्ग को शामिल किया
है। टाइम पत्रिका ने भी ग्रेटा थनबर्ग को वर्ष 2019 का ‘टाइम पर्सन ऑफ दी
ईयर’ चुना है। उन्होंने विद्यार्थी जीवन से ही पर्यावरण कार्यकर्ता के रूप में
पहचान बनाई और जलवायु परिवर्तन रोकने के प्रयासों का ज़ोरदार अभियान चलाया।
5 अप्रैल को नोबेल सम्मानित सिडनी ब्रेनर का 92 वर्ष की आयु में निधन हो गया। उन्हें 2002 में मेडिसिन का नोबेल सम्मान दिया गया था। उन्होंने सिनोरेब्डाइटिस एलेगेंस नामक एक कृमि को रिसर्च का प्रमुख मॉडल बनाया था। 11 अक्टूबर को सोवियत अंतरिक्ष यात्री अलेक्सी लीनोव का 85 वर्ष की आयु में देहांत हो गया। लीनोव पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने अंतरिक्ष में चहलकदमी करके इतिहास रचा था। (स्रोत फीचर्स)
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मानव बसाहट से दूर होने के बावजूद अंटार्कटिका की
पारिस्थितिकी और जीवन मानव गतिविधियों से प्रभावित रहा है। जैसे व्हेल और सील के
अंधाधुंध शिकार के चलते वे लगभग विलुप्त हो गर्इं थीं। व्हेल और सील की संख्या में
कमी आने की वजह से क्रिल नामक एक क्रस्टेशियन जंतु की संख्या काफी बढ़ गई थी, जो उनका भोजन है। और अब, मानव गतिविधियों चलते तेज़ी से
हो रहा जलवायु परिवर्तन सीधे-सीधे अंटार्कटिका के जीवन को प्रभावित कर रहा है। इस
संदर्भ में प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेस में प्रकाशित
अध्ययन कहता है कि जलवायु परिवर्तन से पेंगुइन की दो प्रजातियां विपरीत तरह से
प्रभावित हुई हैं: पेंगुइन की एक प्रजाति की संख्या में काफी वृद्धि हुई है, वहीं दूसरी प्रजाति विलुप्ति की कगार पर पहुंच चुकी है।
दरअसल,
लुइसिआना स्टेट युनिवर्सिटी के माइकल पोलिटो और उनके साथी
अपने अध्ययन में यह देखना चाहते थे कि पिछली एक सदी में अंटार्कटिका की
पारिस्थितिकी में हुए मानव हस्तक्षेप के कारण पेंगुइन के मुख्य भोजन, अंटार्कटिका क्रिल, की संख्या किस तरह प्रभावित हुई है। चूंकि
मानवों ने कभी पेंगुइन का व्यावसायिक स्तर पर आखेट नहीं किया और क्रिल पेंगुइन का
मुख्य भोजन हैं इसलिए उन्होंने पेंगुइन के आहार में बदलाव से क्रिल की आबादी का
हिसाब लगाने का सोचा। और, चूंकि अंटार्कटिका में पिछले
50 सालों में गेन्टू पेंगुइन (पाएगोसेलिस पेपुआ) की आबादी में लगभग 6 गुना
वृद्धि दिखी है और चिनस्ट्रेप पेंगुइन (पाएगोसेलिस अंटार्कटिका) की आबादी
में काफी कमी दिखी है इसलिए अध्ययन के लिए शोधकर्ताओं ने इन दोनों प्रजातियों को
चुना। पिछली एक सदी के दौरान इन पेंगुइन का आहार कैसा था यह जानने के लिए
अध्ययनकर्ताओं ने म्यूज़ियम में रखे पेंगुइन के पंखों में अमीनो अम्लों में
नाइट्रोजन के स्थिर समस्थानिकों की मात्रा पता लगाई।
उन्होंने पाया कि शुरुआत में, 1900 के दशक में, जब क्रिल प्रचुर मात्रा में उपलब्ध थे तो दोनों ही प्रजाति का मुख्य आहार क्रिल थे। लेकिन लगभग पिछले 50 सालों में, तेज़ी से बदलती जलवायु के चलते समुद्र जल के बढ़ते तापमान और बर्फ-आच्छादन में कमी से क्रिल की संख्या में काफी कमी हुई। तब गेन्टू पेंगुइन ने अपना आहार सिर्फ क्रिल तक सीमित ना रखकर मछली और श्रिम्प को भी आहार में शामिल कर लिया। लिहाज़ा वे फलती-फूलती रहीं। दूसरी ओर, चिनस्ट्रेप पेंगुइन ने अपने आहार में कोई परिवर्तन नहीं किया और विलुप्ति की कगार पर पहुंच गर्इं। शोधकर्ताओं का कहना है कि पेंगुइन का यह व्यवहार दर्शाता है कि विशिष्ट आहार पर निर्भर प्रजातियां जैसे चिनस्ट्रेप पेंगुइन पर्यावरणीय बदलाव के प्रभाव की चपेट में अधिक हैं और अतीत में हुए आखेट और हालिया जलवायु परिवर्तन ने अंटार्कटिक समुद्री खाद्य शृंखला को प्रभावित किया है। पिछले कुछ सालों में व्हेल और सील की आबादी में सुधार देखा गया है और यह देखना रोचक होगा कि इसका पेंगुइन की उक्त दो प्रजातियों पर कैसा असर होता है। (स्रोत फीचर्स) नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://encrypted-tbn0.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcRRwSJ0lSkYHgiyvM8u2JT-MbqHdfaPCZMQcGQvONirdocD_Dd9
हाल ही में मिस्र के शहर शर्म अल शेख में आयोजित विश्व रेडियो
संचार सम्मेलन में 5जी सेवाओं से उत्सर्जित इलेक्ट्रॉनिक शोर के लिए मानक
निर्धारित कर दिए गए हैं। लेकिन मौसम विज्ञानियों का कहना है कि निर्धारित मानक के
बावजूद यह शोर मौसम सम्बंधी अवलोकनों को प्रभावित करेगा।
दरअसल मार्च 2019 में अमरीका के फेडरल कम्युनिकेशन कमीशन (FCC) ने 5जी सेवाओं के लिए स्पेक्ट्रम आवंटन किया था, जिसके
अनुसार वायरलेस कंपनियां 24 गीगा हर्टज़ पर अपनी सेवाएं देना शुरू कर सकती थीं।
लेकिन इस पर मौसम विज्ञानियों की चिंता थी कि 5जी सेवाओं के लिए इस स्पेक्ट्रम पर
होने वाले प्रसारण मौसम पूर्वानुमान के काम को प्रभावित करेंगे क्योंकि आवंटित
स्पेक्ट्रम मौसम सम्बंधी अवलोकन करने वाले सेंसर्स के स्पेक्ट्रम (23.6 गीगा हर्टज़)
के करीब ही है और प्रसारण से होने वाला शोर सेंसर्स को प्रभावित करेगा।
उपरोक्त राष्ट्र संघ विश्व रेडियो-संचार सम्मेलन में 5जी सेवाओं के लिए
प्रस्तावित 24 गीगाहर्टज़ पर होने वाले प्रसारण से उत्पन्न शोर को -33 डेसिबल वॉट
(dBW) तक सीमित रखना तय किया गया है। और यह मानते हुए कि 8 साल बाद 5जी सेवाएं
इतने व्यापक स्तर पर नहीं रहेगीं, 8 साल बाद प्रसारण से उत्पन्न
ध्वनि को -39 dBW तक सीमित कर दिया जाएगा।
वैसे विश्व मौसम संगठन की मांग प्रसारण से उत्पन्न शोर को -55 dBW पर सीमित रखने की थी ताकि वातावरण में उपस्थित जलवाष्प स्तर सम्बंधी अवलोकन प्रभावित ना हो। लेकिन तय मानक इससे कम हैं, हालांकि ये युरोपीय सिफारिशों के अनुरूप हैं और पूर्व में FCC द्वारा तय मानक (-20 dBW) से अधिक सख्त हैं। विश्व मौसम संगठन के अध्यक्ष एरिक एलेक्स का कहना है कि जब 5जी सेवाएं पूरी तरह शुरू हो जाएंगी तो जलवाष्प संकेतों को थोड़ा कमज़ोर तो करेंगी ही (स्रोत फीचर्स) नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://encrypted-tbn0.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcQNAxMLneX0xpIJqkPQkT5j_ZSfnZirRkFVbPPeEKOr-nPBkU7R
अतीत में हुर्इं जलवायु परिवर्तन से जुड़ी आपदाओं ने बड़ी
संख्या में प्रजातियों को खत्म कर दिया था,
लेकिन उस वक्त कई
प्रजातियों को इतना वक्त मिला था कि वे इस परिवर्तन के साथ तालमेल बना सकीं और
बेहतर समय आने तक अपने वंश को जीवित रख सकीं। लेकिन ग्लोबल वार्मिंग की हालिया
रफ्तार को देखते हुए एक सवाल यह उठता है कि क्या वर्तमान जलवायु परिवर्तन प्रकृति
को इतनी गुंजाइश देगा।
इस संदर्भ में विक्टोरिया रैडचक और जर्मनी, आयरलैंड, फ्रांस, नेदरलैंड, यू.के., चेक
गणतंत्र, बेल्जियम, स्वीडन,
कनाडा, स्पेन, यू.एस., जापान, फिनलैंड, नॉर्वे, स्विटज़रलैंड
और पोलैंड के 60 अन्य वैज्ञानिकों ने नेचर कम्युनिकेशंस जर्नल में प्रकाशित पेपर
में इस सवाल का जवाब देने का प्रयास किया है। यह पेपर 58 पत्रिकाओं में प्रकाशित
10,090 अध्ययनों के सार और 71 अध्ययनों के डैटा पर आधारित है। इसमें उन्होंने इस
बात का आकलन किया है कि जीवों में हो रहे शारीरिक बदलाव क्या जलवायु परिवर्तन के
साथ अनुकूलन बनाने की दृष्टि से हो रहे हैं। अध्ययन के अनुसार कई प्रजातियों में
तो अनुकूलन हो रहा है लेकिन अधिकांश प्रजातियां इस दौड़ में हारती नज़र आ रही हैं।
अध्ययन के अनुसार,
जलवायु परिवर्तन
प्रजातियों के जीवित रहने की क्षमता को प्रभावित कर सकता है और प्रजातियों की
विलुप्ति के चलते पारिस्थितिक तंत्र में प्रजातियों के परस्पर समर्थक संतुलन में
कमी आती है। जीव अपनी आबादी को तब ही बनाए रख सकते हैं जब उनमें जलवायु परिवर्तन
की प्रतिक्रिया स्वरूप इस तरह के शारीरिक या व्यावहारिक बदलाव हों,
जो जलवायु परिवर्तन
के प्रभाव को कम करते हों या उसके अनुकूल हों। ऐसा या तो शारीरिक अनुकूलन के
द्वारा हो सकता है (जैसे आहार में परिवर्तन के साथ-साथ पाचक रसों में परिवर्तन) या
विकास के छोटे-छोटे कदमों से हो सकता है, या फिर किसी अन्य क्षेत्र में प्रवास करने
से संभव हो सकता है। लेकिन शारीरिक अनुकूलन में भी वक्त लगता है। जैसे पर्वतारोही
अधिक ऊंचाइयों पर चढ़ने के पहले बीच में रुककर खुद को पर्यावरण के अनुरूप ढालते हैं, तब
आगे चढ़ाई करते हैं। किसी प्रजाति में वैकासिक परिवर्तन पर्यावरण के प्रति ज़्यादा
अनुकूलित किस्मों के चयन द्वारा होता है, और ऐसा होने में तो कई पीढ़ियां लग जाती
हैं। पेपर के अनुसार, प्रजातियों की संख्या का पूर्वानुमान लगाने और योजनाबद्ध
तरीके से हस्तक्षेप करने के लिए यह पता करना महत्वपूर्ण है कि पिछले कुछ दशकों में
प्रजातियों में आए बदलावों में से कितने ऐसे हैं जो जलवायु परिवर्तन के जवाब में
हुए हैं।
अनुकूलन का एक उदहारण है – प्रजनन करने या अंडे देने का समय इस तरह
बदलना कि उस समय संतान को खिलाने के लिए भोजन के स्रोत प्रचुर मात्रा में उपलब्ध
हों। लेखकों ने एक अध्ययन का हवाला देते हुए बताया है कि यूके में पिछले 47 वर्षों
में पक्षियों की एक प्रजाति के अंडे देने का समय औसतन 14 दिन पहले खिसक गया है।
अध्ययन के अनुसार यह एक ऐसा मामला है जहां “पर्यावरण के हिसाब से एक-एक जीव के
व्यवहार में बदलाव ने पूरी प्रजाति को तेज़ी से बदलते परिवेश के साथ बारीकी से
समायोजन करने में सक्षम बनाया है।”
एक अन्य अध्ययन में, प्रतिकूल-अनुकूलन
का एक मामला सामने आया है। एक पक्षी प्रजाति है जो आर्कटिक ग्रीष्मकाल के दौरान
प्रजनन करती है। जब ये पक्षी जाड़ों में उष्णकटिबंधीय इलाके की ओर पलायन करते हैं
तब वे काफी अनफिट साबित होते हैं। गर्मियों में जन्मे चूज़ों में अनुकूलन यह होता
है कि वे छोटे आकार के होते हैं ताकि शरीर से अधिक ऊष्मा बिखेरकर गर्मियों का
सामना अधिक कुशलता से कर सकें। लेकिन छोटे पक्षियों की चोंच भी छोटी होती है जिससे
उनको सर्दियों में प्रवास के दौरान काफी नुकसान होता है क्योंकि इन इलाकों में
भोजन थोड़ा गहराई में दबा होता है और छोटी चोंच के कारण वे पर्याप्त भोजन नहीं जुटा
पाते।
रेनडियर जैसे शाकाहारी ऐसे मौसम में संतान
पैदा करने के लिए विकसित हुए थे जब पौधे उगने का सबसे अच्छा मौसम होता है। प्रजनन
काल तो दिन की लंबाई से जुड़ा होने के कारण यथावत रहा जबकि पौधों की वृद्धि का मौसम
स्थानीय तापमान से जुड़ा था। जलवायु परिवर्तन के साथ यह समय बदल गया (जबकि दिन-रात
की अवधि नहीं बदली)। एक अध्ययन के अनुसार इन प्राणियों में मृत्यु दर तो बढ़ी ही है, साथ-साथ
जन्म दर में चार गुना कमी आई है।
वैसे तो समय के साथ सभी प्रजातियों के रूप
और व्यवहार में परिवर्तन होते हैं, लेकिन इस अध्ययन का उद्देश्य उन परिवर्तनों
की पहचान करना था जो जलवायु परिवर्तन के प्रति अनुकूलन के उदाहरण हों। इस पेपर के
अनुसार ऐसा तभी माना जा सकता है जब तीन चीज़ें हुई हों। पहली यह कि जलवायु परिवर्तन
हुआ हो। दूसरी यह कि जीवों की शारीरिक विशेषताओं में बदलाव सिर्फ जलवायु परिवर्तन
के कारण हुआ हो, किसी अन्य कारण से नहीं। और तीसरी यह कि परिवर्तन उन
लक्षणों के चयन के कारण हुआ हो जो जीवों को जलवायु परिवर्तन से निपटने में मदद
करते हैं।
लेखकों के अनुसार तीसरी स्थिति के परीक्षण
के लिए ऐसे डैटा की आवश्यकता होगी जो किसी एक प्रजाति की निश्चित आबादी की कई
पीढ़ियों के लिए एकत्रित किए गए हों। शोधकर्ताओं की इस विशाल टीम ने उन अध्ययनों को
खोजा है जो इस बात की पड़ताल करते हैं कि तापमान और वर्षा या दोनों विभिन्न जीवों
की शारीरिक बनावट या जीवन की घटनाओं को किस तरह प्रभावित करते हैं। विशाल उपलब्ध
डैटा में से उन्हें पक्षियों के सम्बंध में उपयोगी जानकारी मिली। और यह इसलिए संभव
हुआ क्योंकि पक्षियों के बारे में लंबी अवधियों की जानकारी प्राप्त करना
अपेक्षाकृत आसान है – घोंसला बनाने का समय,
अंडे देने और उनके
फूटने का समय, और गतिशीलता।
पेपर के अनुसार,
जलवायु परिवर्तन पर
जीवों की प्रतिक्रिया सम्बंधी कई पूर्व में किए गए अध्ययन प्रजातियों के फैलाव और
उनकी संख्या में आए बदलाव पर केंद्रित थे। जलवायु परिवर्तन के चलते जीवों के
व्यवहार, आकार या शरीर विज्ञान में हो रहे परिवर्तनों का अध्ययन बहुत
कम किया गया है। और प्रजातियों के फैलाव तथा आबादी की गणना करने वाले मॉडल्स में
इस संभावना को ध्यान में नहीं रखा गया था कि प्रजाति में अनुकूलन भी हो सकता है।
लिहाज़ा, लेखकों के अनुसार उनके वर्तमान “अध्ययन ने बदलते पर्यावरण
में प्रजातियों की प्रतिक्रियाओं के समयगत पहलू पर ध्यान केंद्रित करके महत्वपूर्ण
योगदान दिया है।” उनके अनुसार “हमने दर्शाया है कि कुछ पक्षियों ने गर्म जलवायु के
मुताबिक अपने जीवनचक्र की घटनाओं के समय को बदल लिया है। अध्ययन इस बात को
रेखांकित करता है कि प्रजातियां अपनी ऊष्मा सम्बंधी ज़रूरतों का समाधान उसी स्थान
पर खोज सकती हैं और इसके लिए भौगोलिक सीमाओं में बदलाव ज़रूरी नहीं है। अलबत्ता, हमें
सभी प्रजातियों में जलवायु परिवर्तन के प्रति अनुकूलन के प्रमाण नहीं मिले हैं, और
इस बात की भी कोई गारंटी नहीं है कि अनुकूल परिवर्तन करने वाले जीव भविष्य में बने
ही रहेंगे।”
लेखक आगे बताते हैं कि जिन प्रजातियों का
अध्ययन किया गया है वे सुलभ और काफी संख्या में उपलब्ध हैं और इनके बारे में डैटा
आसानी से एकत्रित किया जा सकता है। शोधकर्ताओं का कहना है कि “हमें डर है कि
दुर्लभ और लुप्तप्राय प्रजातियों की आबादियों की निरंतरता का पूर्वानुमान अधिक
निराशाजनक होगा।”
निष्कर्ष के रूप में हम यह कह सकते हैं कि
इस सदी के अंत तक बहुत-सी प्रजातियों के विलुप्त होने की संभावना है जो काफी
चिंताजनक है। ऐसे कई लोग हैं जो यह मानते हैं कि जैव तकनीक ही वह नैया है जो हमें
21 सदी पार करा देगी।
सच है, उपरोक्त अध्ययन वनस्पति प्रजातियों पर नहीं हुए हैं। जलवायु परिवर्तन से पेड़-पौधे भी प्रभावित होते हैं। और जंतु वनस्पतियों पर निर्भर होते हैं। इस अध्ययन के परिणाम शायद बैक्टीरिया और सूक्ष्मजीवों के मामले में भी सच्चाई से बहुत दूर न हों। इसलिए जैव विविधता में भारी गिरावट वनस्पति जगत में भी दिखाई देगी और आने वाले दशकों में यह पौधों की भूमिका के लिए ठीक नहीं होगा जिसको लेकर हम इतने आश्वस्त हैं। (स्रोत फीचर्स) नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://cosmos-magazine.imgix.net/file/spina/photo/19794/190723-parus_full.jpg?fit=clip&w=835
हाल ही में वैज्ञानिकों ने दक्षिण युरोप के नीचे एक डूबा हुआ
महाद्वीप खोजा है। ग्रेटर एड्रिया नामक यह महाद्वीप 14 करोड़ वर्ष पहले मौजूद था।
शोधकर्ताओं ने इसका विस्तृत मानचित्र बनाया है।
साइंस में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार,
ग्रेटर एड्रिया 24
करोड़ वर्ष पहले गोंडवाना से टूटने के बाद उभरा था। गौरतलब है कि गोंडवाना वास्तव
में अफ्रीका, अंटार्कटिका, दक्षिण अमेरिका,
ऑस्ट्रेलिया और अन्य
प्रमुख भूखंडों से बना एक विशाल महाद्वीप था।
ग्रेटर एड्रिया काफी बड़ा था जो मौजूदा
आल्प्स से लेकर ईरान तक फैला हुआ था। लेकिन यह पूरा पानी के ऊपर नहीं था। उट्रेक्ट
विश्वविद्यालय में डिपार्टमेंट ऑफ अर्थ साइंसेज़ के प्रमुख वैन हिंसबरगेन और उनकी
टीम ने बताया है कि यह छोटे-छोटे द्वीपों के रूप में नज़र आता होगा। उन्होंने लगभग
30 देशों में फैली ग्रेटर एड्रिया की चट्टानों को इकट्ठा कर इस महाद्वीप के
रहस्यों को समझने की कोशिश की।
गौरतलब है कि पृथ्वी कई बड़ी प्लेटों से
ढंकी हुई है जो एक दूसरे के सापेक्ष खिसकती रहती हैं। हिंसबरगेन बताते हैं कि
ग्रेटर एड्रिया का सम्बंध अफ्रीकी प्लेट से था,
लेकिन यह अफ्रीका
महाद्वीप का हिस्सा नहीं थी। यह प्लेट धीरे-धीरे युरेशियन प्लेट के नीचे खिसकते
हुए दक्षिणी युरोप तक आ पहुंची थी।
लगभग 10 से 12 करोड़ वर्ष पहले ग्रेटर
एड्रिया युरोप से टकराया और इसके नीचे धंसने लगा। अलबत्ता कुछ चट्टानें काफी हल्की
थीं और वे पृथ्वी के मेंटल में डूबने की बजाय एक ओर इकठ्ठी होती गर्इं। इसके
फलस्वरूप आल्प्स पर्वत का निर्माण हुआ।
हिंसबरगेन और उनकी टीम ने इन चट्टानों में
आदिम बैक्टीरिया द्वारा निर्मित छोटे चुंबकीय कणों के उन्मुखीकरण को भी देखा।
बैक्टीरिया इन चुंबकीय कणों की मदद से खुद को पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र की सीध
में लाते हैं। बैक्टीरिया तो मर जाते हैं,
लेकिन ये कण तलछट में
बचे रह जाते हैं। समय के साथ यह तलछट चट्टान में परिवर्तित हो जाती और चुंबकीय कण
उसी दिशा में फिक्स हो जाते हैं। टीम ने इस अध्ययन से बताया कि यहां की चट्टानें
काफी घुमाव से गुजरी थीं।
इसके बाद के अध्ययन में टीम ने कई बड़ी-बड़ी
चट्टानों को जोड़कर एक समग्र तस्वीर बनाने के लिए कंप्यूटर की मदद ली ताकि इस
महाद्वीप का विस्तृत नक्शा तैयार किया जा सके और यह पुष्टि की जा सके कि यूरोप से
टकराने से पहले यह थोड़ा मुड़ते हुए उत्तर की ओर बढ़ गया था।
इस खोज के बाद, हिंसबरगेन अब प्रशांत महासागर में लुप्त हुई अन्य प्लेट्स की तलाश कर रहे हैं। अध्ययन की जटिलता को देखते हुए, किसी निष्कर्ष के लिए 5-10 साल की प्रतीक्षा करनी होगी। (स्रोत फीचर्स) नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://pbs.twimg.com/media/EDdi98LWsAMIxf-?format=jpg&name=900×900 https://akm-img-a-in.tosshub.com/indiatoday/images/story/201909/1568381818099-screen-shot-2019-770×433.jpeg?iWcNOBzs_fwcJtkFaRc5HxYU2M9zmsE2
रांगा एक बहुत ही उपयोगी धातु है जिसे संस्कृत में वंग या त्रपुस तथा अंग्रेज़ी में टिन कहा जाता है। लैटिन भाषा में इसे स्टैनम कहा जाता है जिसका अर्थ है सख्त। इसका रासायनिक संकेत Sn, परमाणु संख्या 50 है और परमाणु भार 118.7 है। इसका घनत्व 7.31 ग्राम प्रति घन सेंटीमीटर, द्रवणांक 231.9 डिग्री सेल्सियस, तथा क्वथनांक 2602 डिग्री सेल्सियस है।
यह बताना कठिन है कि मानव ने रांगे का
उपयोग सर्वप्रथम कब तथा कहां प्रारंभ किया। शुरू-शुरू में रांगे का उपयोग सिर्फ
तांबे के साथ मिलाकर एक मिश्र धातु (एलॉय) बनाने के लिए किया जाता था। इस मिश्र
धातु का नाम था कांसा (बेल मेटल)। कांसे के बर्तन तथा औज़ार शुद्ध तांबे से बने
बर्तनों तथा औज़ारों की तुलना में अधिक मज़बूत होते थे। परंतु आज यह किसी को मालूम
नहीं कि उस काल में कांसे के निर्माण हेतु जो टिन उपयोग में लाया जाता था वह
धात्विक अवस्था में होता था अथवा टिनयुक्त अयस्क को ही अवकारक परिस्थितियों में
मिश्रित कर कांसे का निर्माण किया जाता था।
ऐतिहासिक साक्ष्यों से पता चलता है कि
रांगे का उपयोग सर्वप्रथम पूर्वी देशों (जैसे भारत,
चीन वगैरह) में शुरू
हुआ। भारत में लगभग साढ़े तीन हज़ार वर्ष ईसा पूर्व रांगे को उपयोग में लाए जाने के
प्रमाण मिलते हैं। गुजरात में लोथल नामक स्थान पर कुछ हड़प्पा कालीन पुरातात्विक
अवशेष मिले हैं जिनसे पता चलता है कि वहां मालाओं में उपयोग हेतु धातु के मनके
बनाए जाते थे। इन धातुओं में रांगा भी शामिल था। ये अवशेष लगभग पांच हज़ार वर्ष
पुराने बताए जाते हैं। महाभारत काल में भी अन्य धातुओं के साथ कांसे का उपयोग किया
जाता था।
मौर्य तथा गुप्त काल में भी अन्य धातुओं के
साथ कांसे का काफी अधिक उपयोग किया जाता था। गुप्त काल में कांसे से बर्तन तथा
मूर्तियों के अलावा सिक्कों का भी निर्माण किया जाता था। गुप्त काल में निर्मित
कांसे की मूर्तियां भारत में कई स्थानों पर पुरातात्विक खुदाई के दौरान पाई गई
हैं। बिहार में भागलपुर ज़िले के बटेश्वर नामक पहाड़ी स्थल पर प्राचीन काल के कुछ
पुरातात्विक अवशेष मिले हैं जिनमें कांस्य मूर्तियां भी शामिल हैं। ये मूर्तियां
पाल एवं गुप्त काल की बताई जाती हैं। इन मूर्तियों में शामिल हैं ध्यान तथा भूमि
स्पर्श मुद्रा में गौतम बुद्ध की कांस्य प्रतिमा। इसी काल की कुछ कांस्य प्रतिमाएं
भागलपुर ज़िले में ही एक अन्य स्थान सुल्तानगंज में भी मिली हैं। दूसरी इस्वीं
शताब्दी में भारत के महान आयुर्वेदाचार्य चरक ने वंग भस्म (टिन ऑक्साइड) को औषधि
निर्माण हेतु उपयोगी पाया था। कहा जाता है कि चीन में भी लगभग 1800 ईसा पूर्व
कांस्य उद्योग काफी पनप चुका था।
मिरुा में एक स्थान पर पुरातात्विक खुदाई
से 3700 ईसा पूर्व में निर्मित कांसे की एक छड़ पाई गई है। इसके रासायनिक विश्लेषण
से पता चला है कि इसमें 9.1 प्रतिशत रांगा उपस्थित है। मिरुा में ही 600 ईसा पूर्व
रांगे की चादर का उपयोग किसी व्यक्ति के मृत शरीर को लपेटकर कब्र में दफनाने के
लिए किया गया था।
शुद्ध रांगे से निर्मित जो सबसे पुरानी
वस्तुएं मिली हैं उनमें शामिल हैं अंगूठी तथा तीर्थ यात्रियों द्वारा उपयोग में
लाई जाने वाली बोतलें। ये वस्तुएं मिरुा में अनेक स्थानों पर की गई खुदाई से मिली
हैं। ये चीजें लगभग 1500 वर्ष ईसा पूर्व निर्मित बताई जाती हैं। रांगा मिरुा में
कहीं नहीं पाया जाता। अत: यह निष्कर्ष निकाला गया है कि यहां रांगे का आयात अन्य
देशों से किया जाता था। ऐसा माना जाता है कि भूमध्य सागरीय क्षेत्र के देशों में
रांगा या रांगे से बनी वस्तुएं एशियाई देशों से मंगाई जाती थीं।
प्रारंभिक हिब्रू,
ग्रीक तथा लैटिन
साहित्य में जो ‘टिन’ शब्द व्यवहार में लाया जाता था उसका अर्थ आज से भिन्न था। बाइबल
में वर्णित ‘टिन’ शब्द हिब्रू शब्द ‘बेडिल’ के अर्थ में आया है। बेडिल शब्द का
उपयोग तांबे तथा टिन की मिश्र धातु के लिए किया जाता था। यूनान के महान कवि होमर
ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक इलियाड में कांसे तथा टिन को अलग-अलग धातुओं के रूप में
माना है।
युरोप में कई देशों में रांगे का खनन एवं
व्यापार कई सदियों से चलता रहा है। लगभग 15वीं शताब्दी ईसा पूर्व में टिन के खनन
प्रारंभ किए जाने के संकेत मिले हैं। ऐसा अनुमान लगाया जाता है कि इंग्लैंड में
कॉर्नवाल की खानों से टिन का काफी अधिक खनन किया जाता था। फिर उस टिन को पूर्वी
भूमध्य सागरीय क्षेत्र के देशों में स्थित धातुकर्म केन्द्रों पर पहुंचाया जाता
था। कुछ उपलब्ध साक्ष्यों से पता चलता है कि लगभग 500 ईसा पूर्व तक कॉर्नवाल की
खानों से लगभग 30 लाख टन रांगे का खनन किया गया। उस काल में ब्रिाटेन से प्रति
वर्ष लगभग एक हज़ार टन टिन का निर्यात अन्य देशों को किया जाता था। 1925 इस्वीं में
इंग्लैंड के पुरात्ववेत्ताओं को ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी में निर्मित एक दुर्ग की
खुदाई करते समय प्रगलन भट्टियां मिलीं जिनके अंदर टिन-युक्त धातु-मल पड़ा हुआ था।
इससे यह निष्कर्ष निकाला गया कि आज से लगभग दो हज़ार वर्ष पूर्व इंग्लैंड में टिन
का उपयोग काफी विकसित अवस्था में था। जूलियस सीज़र ने अपनी पुस्तक डी बैलो गैलिको
में भी इस बात की चर्चा की है कि इंग्लैंड के कुछ क्षेत्रों में टिन का उत्पादन
किया जाता था।
पेरू के रेड इंडियन (जिन्हें इन्का कहा
जाता है) लोगों द्वारा निर्मित एक पुराने किले में वैज्ञानिकों को शुद्ध टिन मिला
है। उन लोगों ने यह टिन शायद कांसे के निर्माण के लिए रखा होगा। यहां की वस्तुएं
काफी उच्च कोटि की मानी जाती थीं। 16वीं शताब्दी में जब स्पैनिश विजेता कार्टेस
मेक्सिको पहुंचा तो स्थानीय लोगों द्वारा टिन से बने सिक्कों का उपयोग होते देखा।
प्राचीन काल में टिन का उपयोग प्राय: कांसे
के निर्माण के लिए किया जाता था। फिर कांसे से दैनिक उपयोग के सामान (जैसे चाकू, हथियार, बर्तन
तथा आभूषण) बनाए जाते थे। मध्यकाल में कांसे का उपयोग घंटियों के निर्माण के लिए
व्यापक स्तर पर किया जाने लगा। टिन में कुछ विशेष गुण होते हैं। जैसे इसमें जंग
नहीं लगता। यह आघातवर्धनीय है (यानी इसकी चादरें बनाई जा सकती हैं) तथा इसका
द्रवणांक भी कम है। ये सभी गुण मिल कर रांगे को काफी उपयोगी बना देते हैं। सन् 79
में प्लीनी ने बताया था कि टिन तथा लेड की मिश्र धातु को आसानी से पिघलने वाले
सोल्डर के रूप में उपयोग में लाया जा सकता है। रोमवासी अपने तांबे के बर्तनों पर
टिन की कलई किया करते थे। इंग्लैंड में 17वीं सदी के मध्य के दौरान रांगे की कलई
युक्त इस्पात का निर्माण किया जाने लगा। रांगे में यह विशेषता है कि यह हवा में
रहने पर ऑक्सीजन के संयोग से अपने चारों ओर टिन ऑक्साइड की एक सूक्ष्म परत का
निर्माण कर लेता है। यह परत स्थाई होती है जो पानी,
नाइट्रोजन, हाइड्रोजन, कार्बन
डाईऑक्साइड तथा अमोनिया आदि से प्रतिक्रिया नहीं करती।
अभी संसार में उत्पादित कुल रांगे का लगभग
आधा भाग टिन प्लेट के निर्माण में खर्च हो जाता है जिसे मुख्यत: डिब्बों के
निर्माण के लिए उपयोग किया जाता है। यही कारण है कि टिन को डिब्बों की धातु कहा
जाता है।
विभिन्न उपयोगों में टिन के रासायनिक
यौगिकों का उपयोग व्यापक स्तर पर किया जाता है। स्टैनस तथा स्टैनिक क्लोराइड रूई
तथा रेशम को रंगने में रंग को पक्का बनाने का काम करते हैं। चीनी मिट्टी के
बर्तनों तथा कांच में लाली लाने के लिए ‘कारियस पर्पल’ नामक पदार्थ को उपयोग में
लाया जाता है। यह स्टैनस क्लोराइड तथा स्वर्ण क्लोराइड के विलयन से बनाया जाता है।
सुनहरे रंग में किसी वस्तु को रंगने के लिए स्टैनस डाईसल्फाइड का उपयोग किया जाता
है। इसे ‘मोज़ैक स्वर्ण’ भी कहा जाता है।
भूपटल में रांगा सिर्फ 0.004 प्रतिशत
उपस्थित है। यह प्राय: ग्रैनाइट के साथ पाया जाता है। ग्रैनाइट की एक पट्टी दक्षिण
पूर्व एशिया, चीन, मलाया,
इंडोनेशिया तथा
पूर्वी ऑस्ट्रेलिया से होकर गुज़रती है जिसमें रांगे के अयस्क पाए जाते हैं। युरोप
में रांगायुक्त ग्रैनाइट सैक्सोनी, चेकोस्लोवाकिया,
इंग्लैंड, फ्रांस
तथा स्पेन में पाया जाता है। दक्षिणी अमेरिका में रांगायुक्त ग्रैनाइट बोसीनिया
में मिलता है। अफ्रीका में नाइजीरिया तथा कांगो में रांगायुक्त ग्रैनाइट पाया जाता
है। प्राचीन काल से ही टिन का प्रमुख अयस्क कैसीटेराइट रहा है। टिन के उत्पादन में
मलेशिया का योगदान सबसे अधिक है। टिन का उत्पादन करने वाले अन्य प्रमुख देश हैं
रूस, चीन, इंडोनेशिया,
थाइलैंड तथा
ऑस्ट्रेलिया। नीदरलैंड में भी काफी टिन मिलता है।
भारत में टिन खनिजों के उत्खनन के प्रयास
प्रागैतिहासिक काल से ही चलते रहे हैं। भारत में रांगे का प्रमुख उपयोग था कांसे
का निर्माण। उस काल में हमारे देश में रांगे का खनन छिटपुट ढंग से तथा गृह उद्योग
स्तर पर किया जाता था। प्राचीन काल के दौरान भारत के किसी भाग में व्यापक स्तर पर
रांगे के खनन के संकेत नहीं मिलते। मैक्सीलैंड नामक एक भूविज्ञानवेत्ता ने सन्
1849 में पारसनाथ (झारखंड) के निकट पुरगो नामक स्थान पर कैसीटेराइट खनिज का लौह
भट्टी में प्रगलन कुटीर उद्योग स्तर पर होते देखा था। लुइस फर्मोर नामक भूविज्ञानवेत्ता
ने सन् 1906 में बताया कि पुरगो क्षेत्र में कैसीटेराइट ग्रेनुलाइट नामक शैल की एक
पतली परत लगभग 15 सेंटीमीटर मोटी है जिसमें कैसीटेराइट 30 से 50 प्रतिशत तक उपलब्ध
है।
बिहार के गया जिले में धनरास तथा ढकनहवा पहाड़ियों में कैसीटेराइट की प्राप्ति के समाचार कुछ समय पूर्व मिले थे। यहां पर टिन अयस्कयुक्त शैल की परत लगभग चार किलोमीटर लम्बी तथा 0.36 किलोमीटर चौड़ी है। झारखंड के हज़ारीबाग जिले में अनेक स्थानों पर कैसीटेराइट पाया जाता है। राजस्थान के भीलवाड़ा जिले में सोनियाना नामक स्थान पर कैसीटेराइट पाया जाता है। भीलवाड़ा जिले में परोली नामक स्थान पर पेगमेटाइट नामक शैल में कैसीटेराइट पाया जाता है। कर्नाटक में धारवाड़ जिले के डम्बल नामक स्थान पर भी कैसीटेराइट पाया जाता है। मध्य प्रदेश के बस्तर जिले में गोविन्दपाल, चीतलनार, मुंडवाल तथा जोगपाल नामक स्थानों पर उच्च दर्जे का कैसीटेराइट पाया जाता है जिसमें टिन की मात्रा 55 से 67 प्रतिशत तक है। फिलहाल भारत में टिन का खनन कहीं भी नहीं हो रहा है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : http://scienceviews.com/geology/images/SIA1546.jpg
इटली के आल्प्स पर्वतीय क्षेत्र में चार इंजनों वाला एक
टर्बाइन चालित विमान उड़ान भर रहा था। विमान ने 1524 मीटर की ऊंचाई से गोता लगाया। इससे पहले
कि वह फिर से अपनी सही अवस्था में आए, विमान सिर्फ 90 सेकंड में 213 मीटर की ऊंचाई तक आ चुका था। कुछ ही
मिनटों में वह स्विट्ज़रलैंड के सेंट गाटहार्ड दर्रे में ऊपर-नीचे होता हुआ अपने
पूर्व निश्चित लक्ष्य की ओर उड़ान भर रहा था। वह चारों ओर से बहुत ही खराब मौसम से
घिर चुका था। 7 घंटे से भी अधिक समय तक यह विमान हिचकोले भरता हुआ आल्प्स
के इर्द-गिर्द उड़ता रहा और अंत में भूमध्य सागर तथा 4 देशों की सीमाएं पार कर जेनेवा के
कोयनट्रिन हवाई अड्डे पर उतरा।
विमान में सवार युरोप और अमरीका के 12
वायुमंडलीय वैज्ञानिकों में से किसी के भी चेहरे पर परेशानी का भाव नहीं था। उनके
लिए यह कष्टकारी उड़ान उनके मिशन का एक हिस्सा थी। एल्पाइन एक्सपेरिमेंट (एलपेक्स)
के अंतर्गत उड़ान भर रहे इस विमान का उद्देश्य यह अध्ययन करना था कि पर्वतमालाएं एक
बड़े क्षेत्र के मौसम को किस तरह प्रभावित करती हैं। इस कार्य के लिए विमान में
पूरी प्रयोगशाला थी जिसमें वायु गति मापने से ले कर बादलों में पानी की मात्रा आदि
सभी चीज़ें दर्ज करने के लिए कंप्यूटर व अनेक सूक्ष्म यंत्र लगे हुए थे जो उन
कारणों का पता लगा रहे थे जिनसे आल्प्स के मौसम से तेज़ हवाएं पैदा होती हैं और
दक्षिण फ्रांस से होती हुई इटली के एड्रियाटिक सागर तट पर पहुंच कर तबाही मचाती
हैं।
किसी भी वैज्ञानिक चुनौती की अपेक्षा मौसम
की भविष्यवाणी करना अधिक रहस्यमय है। खेती-बाड़ी,
परिवहन, जहाज़रानी, उड्डयन
और यहां तक कि सैर-सपाटे के लिए भी मौसम की पूर्व जानकारी होना महत्वपूर्ण है।
अनुमान है कि अकेले पश्चिमी युरोप के लिए ही मौसम की 7 दिन की पूर्ण विश्वसनीय भविष्यवाणी करने
से हर साल करोड़ों डॉलर का फर्क पड़ जाता है।
मनुष्य सदियों से मौसम की भविष्यवाणी करने
का प्रयास कर रहा है। युरोप के कुछ देशों में तो वर्षा और तापमान के 300
वर्ष पुराने रिकार्ड मिले हैं। परंतु पुराने समय के मौसम वैज्ञानिक बड़े-बड़े
यंत्रों और गणना करने की उच्च क्षमता के बिना अपने अनुभवों के आधार पर ही
भविष्यवाणियां किया करते थे।
लगभग 60 वर्ष पहले ब्रिटिश वैज्ञानिक एल. एफ.
रिचर्डसन ने यह प्रमाणित किया कि भौतिकी के नियमों पर आधारित गणित के समीकरणों की
सहायता से मौसम की भविष्यवाणी की जा सकती है। परंतु रिचर्डसन ने एक छोटे से इलाके
के मौसम की 6 घंटे पहले भविष्यवाणी करने का जो प्रयास किया, उसकी
गणना करने में उन्हें कई सप्ताह तक कड़ी मेहनत करनी पड़ी। अपने इस प्रयास के उपरांत
वह इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि पूरे विश्व के मौसम की निरंतर भविष्यवाणी करने के लिए
64,000 व्यक्तियों को गणना करने वाली साधारण मशीनों पर लगातार काम
करते रहना होगा।
1950 में
गणितज्ञ जान फॉन नॉइमान और उनके सहयोगियों ने इस समस्या को कंप्यूटर की मदद से हल
किया। आज के सशक्त और तेज़ कंप्यूटर तो इस विधि के मुख्य आधार हैं। लेकिन उन्नत
तकनीकों ने मौसम के पूर्वानुमान को अत्यधिक खर्चीला बना दिया है। दुनिया की समस्त
मौसम विज्ञान सेवाओं को चलाने की सालाना लागत दो अरब डॉलर से अधिक है।
आफनबाक (पश्चिमी जर्मनी) स्थित
प्रेक्षणशाला में पूरी कमान कंप्यूटरों के हाथ में है। यहां विश्व के 9000 से
अधिक केंद्रों से वायु की दिशा, आद्रता और वायु दाब के बारे में सूचनाएं
एकत्र कर कंप्यूटर में डाली जाती हैं। कभी-कभी तो हज़ारों किलोमीटर दूर दर्ज किए गए
आंकड़े भी घंटे भर के अंदर कंप्यूटर में भर दिए जाते हैं। जेनेवा स्थित विश्व मौसम
विज्ञान संगठन विभिन्न देशों से तथा विमान चालकों,
व्यापारिक जहाज़ों और
मौसम उपग्रहों से प्राप्त मौसम के सैकड़ों नक्शे जारी करता है। युरोप का मौसम
उपग्रह मेटियोसैट-2 भूमध्य रेखा के ऊपर 36,000 कि.मी. की ऊंचाई से हर आधे घंटे बाद
वायुमंडल के चित्र भेजता है।
उपग्रहों द्वारा मौसम के बारे में एकत्रित
की गई जानकारी हमें अंकों के रूप में प्राप्त होती है। इन अंकों में वायुमंडल की
निश्चित समय की परिस्थितियों का पूर्ण विवरण होता है। इस विवरण से कंप्यूटर पूरे
वायुमंडल का एक काल्पनिक चित्र तैयार करता है। इस चित्र में विभिन्न स्थान बिंदुओं
की सहायता से दर्शाए जाते हैं। इस मानचित्र को गणित समीकरणों की बहुत ही जटिल
प्रणाली में फिट किया जाता है। इसी से यह पता चलता है कि प्रत्येक बिंदु पर मौसम
में कैसा-कैसा परिवर्तन होगा।
ऐसा माना जाता है कि इंग्लैंड के रीडिंग
शहर में स्थित युरोपियन सेंटर फॉर मीडियम रेंज वेदर फोरकास्ट (ईसीएमडब्लूएफ) मौसम
की भविष्यवाणी करने वाला सर्वश्रेष्ठ केंद्र है। इस केंद्र में लगा शक्तिशाली कंप्यूटर
प्रति दिन लगभग 8 करोड़ सूचनाएं प्राप्त करता है तथा प्रति सेकंड एक साथ 5 करोड़ क्रियाएं कर
सकता है।
मध्यम दूरी के मौसम की भविष्यवाणी करना
किसी भी अकेले देश के तकनीकी और वित्तीय साधनों के बस के बाहर है, अत:
यह केंद्र स्थापित किया गया। केंद्र के निदेशक के अनुसार,
बादलों के लिए
राष्ट्रों की सीमाओं का कोई महत्व नहीं है। अब 5-6 दिन तक के मौसम की सही भविष्यवाणी की जा
सकती है। पहले केवल 2-3 दिन की भविष्यवाणी सही होती थी।
मौसम के बारे में दो-तीन दिन पहले की सूचना
भी बहुत महत्वपूर्ण हो सकती है। नवंबर में जब इटली के दक्षिणी भाग में भूकंप आया
तो ईसीएमडब्लूएफ ने आने वाले सप्ताह के दौरान ठंडे मौसम और तेज़ तूफान आने की
बिलकुल सही भविष्यवाणी की थी। स्थानीय अधिकारी सचेत हो गए कि ढाई लाख बेघर भूकंप
पीड़ितों के लिए गरम कपड़ों और शरण स्थलों की आवश्यकता होगी।
ईसीएमडब्लूएफ तथा अन्य सभी राष्ट्रीय
केंद्रों द्वारा इस्तेमाल में लाए जाने वाले कंप्यूटर मॉडलों की बराबर सूक्ष्म
ट्यूनिंग की जाती है ताकि वे सटीक काम करें। कई मौसम कार्यालयों में और भी सूक्ष्म
ग्रिड लगाए गए हैं ताकि छोटे-छोटे क्षेत्रों के बारे में भविष्यवाणी की जा सके। कहते
हैं कि 1982 में मध्य फ्रांस में तबाही मचाने वाले बर्फीले तूफान के
बारे में पहले से भविष्यवाणी नहीं की जा सकी थी क्योंकि वह इलाका ग्रिड के हिसाब
से बहुत ही छोटा था।
इसके बाद फ्रांस में सूक्ष्म ग्रिड
इस्तेमाल किया जाने लगा जो बहुत कम दूरी पर स्थित बिंदुओं को भी अलग-अलग दर्शा
सकता है। मौसम वैज्ञानिकों का लक्ष्य इन मॉडलों को और अधिक सटीक बनाना तथा
पूर्वानुमान लगाने की सीमा को 10 दिन तक बढ़ाना है।
वैज्ञानिक मौसम की भविष्यवाणी के दूसरे
पहलुओं पर भी काम करने लगे हैं। जैसे बहुत ही कम अवधि यानी कुछ ही घंटों के मौसम
की जानकारी देना। इसे ‘नाऊकास्टिंग’ यानी तत्काल पूर्वानुमान कहते हैं। अलबत्ता, अल्प
अवधि की ये भविष्यवाणियां पूरी तरह पक्की नहीं होतीं। जैसे ब्रिाटेन का मौसम
कार्यालय आसमान साफ रहने या कहीं-कहीं वर्षा होने की भविष्यवाणी तो कर सकता है
परंतु ठीक-ठीक नहीं बता सकता कि छिटपुट वर्षा कहां होगी तथा कहां ज़्यादा होगी।
इन प्रश्नों के उत्तर नाऊकाÏस्टग द्वारा दिए जा
सकते हैं। राडार और उपग्रहों से प्राप्त संकेतों के ज़रिए स्थानीय मौसम के बारे में
6 घंटे पहले भविष्यवाणी की जा सकती है। आंकिक मॉडल से मौसम
सम्बंधी जानकारी जहां हमें केवल वायुमंडल के तापमान,
नमी और हवा की दिशा
के रूप में मिलती है, वहां राडार की आंखें वर्षा को भी देख सकती हैं तथा कुछ
किलोमीटर तक उसकी स्थिति दर्शा सकती है। उपग्रहों से प्राप्त इंफ्रारेड चित्रों और
राडार की मदद से मौसम वैज्ञानिक बिजली गिरने अथवा जल प्लावन जैसी छोटी-मोटी घटनाओं
के बारे में भविष्यवाणी कर सकते हैं। इसके अलावा कंप्यूटरों द्वारा यह भी मालूम कर
सकते हैं कि वर्षा तूफान का रुख किधर होगा तथा उसकी तीव्रता में क्या-क्या
परिवर्तन आ सकते हैं।
बहुत ही छोटे क्षेत्रों के मौसम का अध्ययन
दक्षिण फ्रांस के तूलूज स्थित न्यू मेटियोरलॉजिकल नेशनल सेंटर में भी किया जाता
है। इस केंद्र में अनुसंधानकर्ता जिस स्केल मॉडल की सहायता से परीक्षण करते हैं, वह
स्थानीय क्षेत्रों की रूपरेखा का आंकिक मॉडल न हो कर भौतिक मॉडल है। 10
मीटर लंबे और 3 मीटर चौड़े इन मॉडलों को पानी के एक बड़े टैंक में रखा जाता
है। इसके बाद पानी में हलचल पैदा की जाती है ताकि मॉडल के ऊपर और आसपास से पानी
ठीक उसी तरह गुज़रे जिस तरह वास्तविक पर्वतों और घाटियों में से हवा गुज़रती है।
अनुसंधानकर्ता लेसर किरणों की सहायता से पानी के वेग और हलचल को माप कर उसके आधार
पर स्थानीय मौसम का एक विस्तृत मानचित्र तैयार कर लेते हैं।
मौसम की भविष्यवाणी के क्षेत्र में प्रगति धीमी अवश्य है, लेकिन नाऊकॉस्टिंग से लेकर मध्यम दूरी की भविष्यवाणी तक का दृष्टिकोण मौसम विज्ञान की प्रगति के लिए अति महत्वपूर्ण है। एलपेक्स के वैज्ञानिक डॉ. योआकिम क्यूटनर का कहना है, ‘जब तक आप यह नहीं समझेंगे कि मौसम की रचना कैसे होती है, तब तक आप उसकी सही-सही भविष्यवाणी नहीं कर सकते।’ (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit :https://www.weathertoski.co.uk/s/cc_images/cache_2475560870.jpg?t=1519640271
पृथ्वी की संरचना विभिन्न
परतों से बनी है। सतह से चलें तो एक के बाद एक कई परत पार करने के बाद धरती के
केंद्र में अत्यधिक गर्म क्षेत्र है जिसे कोर कहा जाता है। कई दशकों से
वैज्ञानिकों में इस सवाल पर मतभेद रहा है कि क्या कोर और पृथ्वी की अन्य परतों
(खासकर मैंटल) के बीच पदार्थ का आदान-प्रदान होता है या नहीं। हालिया अध्ययन से
मालूम चला है कि कोर से कुछ रिसाव मैंटल में हो रहा है। इसका कुछ हिस्सा पृथ्वी की
सतह पर भी पहुंच रहा है।
दी कंवर्सेशन में प्रकाशित
अध्ययन के अनुसार यह रिसाव लगभग 2.5 अरब वर्षों से हो रहा है। इस निष्कर्ष तक
पहुंचने में मुख्य भूमिका टंगस्टन (W) नामक तत्व की रही। खास तौर पर टंगस्टन के दो समस्थानिक मददगार रहे – W-182 और W-184। गौरतलब है कि
किसी भी तत्व के समस्थानिक उन्हें कहते हैं जिनकी परमाणु संख्या तो एक ही होती है
किंतु परमाणु भार अलग-अलग होते हैं।
टंगस्टन धातु सिडरोफाइल है
यानी यह लौहे से आकर्षित होती है। पृथ्वी का कोर मुख्य रूप से लोहे और निकल से बना
है, इसलिए इसमें कोई अचरज की बात नहीं है कि उसमें काफी मात्रा
में टंगस्टन पाया जाता है।
एक अन्य तत्व, हाफनियम (Hf), जो लिथोफाइल है यानी चट्टानों से आकर्षित होता है, पृथ्वी के सिलिकेट-समृद्ध मैंटल में ज़्यादा मात्रा में पाया जाता है।
हाफनियम का एक समस्थानिक Hf-182 है। यह रेडियोसक्रिय होता है और टूटकर W-182 में बदलता रहता है। इसके हिसाब से वैज्ञानिकों ने
अनुमान लगाया कि कोर की तुलना में मैंटल में W-182:W-184 अनुपात अधिक
होना चाहिए क्योंकि मैंटल में Hf-182 टूट-टूटकर W-182 में बदलता रहा होगा।
पृथ्वी की उम्र के साथ
समुद्री द्वीपों के बैसाल्ट (एक प्रकार की आग्नेय चट्टान) में 182W/184W के अनुपात में अंतर
से कोर और मैंटल के बीच रासायनिक आदान-प्रदान का पता लगाया जा सकता है। लेकिन यह
अंतर बहुत कम होने की संभावना था।
एक मुश्किल और थी। कोर लगभग
2900 किलोमीटर की गहराई पर शुरू होता है, जबकि हम अभी तक 12.3 कि.मी.
गहराई तक ही खोद पाए हैं।
इसलिए शोधकर्ताओं ने उन
चट्टानों का अध्ययन किया जो पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया के पिलबारा क्रेटन, हिंद महासागर स्थित रियूनियन द्वीप और केग्र्यूलन द्वीपसमूह में गहरे मैंटल से
पृथ्वी की सतह तक पहुंची थीं।
पृथ्वी के जीवनकाल की
अलग-अलग अवधियों में, मैंटल में टंगस्टन के समस्थानिकों का अनुपात
बदलता रहा है। लेकिन आश्चर्यजनक रूप से मालूम चला कि आधुनिक चट्टानों की तुलना में
पृथ्वी की सबसे पुरानी चट्टानों में W-182 का अनुपात अधिक है। इसका मतलब यही हो सकता है कि कोर में से टंगस्टन
निकलकर मैंटल में पहुंचा है। चूंकि कोर में W-182 कम और W-184 अधिक होता है
इसलिए यदि वहां से टंगस्टन रिसकर मैंटल में पहुंचेगा तो मैंटल में भी W-182 का अनुपात कम होता जाएगा।
उपरोक्त अध्ययन में टंगस्टन के समस्थानिकों के अनुपात में अंतर करीब 2.5 अरब वर्ष पूर्व की चट्टानों में दिखे हैं, उससे पहले की चट्टानों में नहीं। यानी माना जा सकता है कि कोर से मैंटल में रिसाव 2.5 अरब वर्ष पूर्व ही शुरू हुआ है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : http://hotworldreport.com/wp-content/uploads/2019/07/ccelebritiesfoto1689262-820×410.jpg