पश्चिमी प्रशांत महासागर और जापान के पूर्वी क्षेत्र में
मिनामि-तोरी-शिमा नाम का एक छोटा-सा टापू है। यह तिकोना टापू केवल सवा तीन वर्ग
कि.मी. में फैला है और आसपास एक अजीब दीवार के कारण इसका अधिकांश भाग समुद्र तल से
भी नीचे है। और तो और, यह निकटतम भूमि से भी हज़ार किलोमीटर दूर है। लेकिन यह
महत्वपूर्ण हो चला है क्योंकि यहां दुर्लभ मृदा तत्वों यानी रेयर अर्थ एलीमेंट्स
का भंडार है।
यह भी उतना ही मज़ेदार है कि उक्त भंडार
कहां स्थित है। दुर्लभ मृदा तत्व न तो इस टापू पर हैं और न ही टापू के अंदर दफन
हैं। दरअसल यह टापू एक जलमग्न पर्वत पर स्थित है और यह भंडार उस पर्वत के दक्षिण
में मछलियों के दांतों, शल्कों और हड्डियों के टुकड़ों पर जमा है। वास्तव में
मछलियों के जीवाश्म दुर्लभ मृदा तत्वों को फांसने वाले ‘जाल’ हैं। जापानी
वैज्ञानिकों के अनुसार ये ‘जाल’ इतने सक्षम हैं कि इस टापू के दक्षिण में 2500
वर्ग किलोमीटर क्षेत्र की मिट्टी दुर्लभ मृदा तत्वों का इतना बड़ा भंडार है कि उससे
सैकड़ों वर्षों तक दुनिया की ज़रूरतों की आपूर्ति हो सकती है।
तो यह जानना भी महत्वपूर्ण है कि ये कौन से
दुर्लभ मृदा तत्व हैं और इनकी हमें क्यों आवश्यकता है?
आज के प्रौद्योगिकी युग में ये दुर्लभ मृदा
तत्व कई मशीनों के लिए काफी महत्वपूर्ण हैं। इन तत्वों का नवीकरणीय ऊर्जा के
उत्पादन, टीवी, स्मार्टफोन,
एलईडी, आधुनिक
दौर के विद्युत-र्इंधन संकर वाहनों, चिकित्सकीय और सैन्य तकनीकों में व्यापक
उपयोग किया जा रहा है। ऐसे में इनकी खपत काफी बढ़ गई है। संयोग से इन तत्वों की
अधिकांश खदानें चीन में हैं। देखा जाए, तो ये तत्व मात्रा के लिहाज़ से दुर्लभ नहीं
हैं लेकिन इन तत्वों के खनन योग्य भंडार काफी दुर्लभ हैं।
साइंटिफिक रिपोर्ट्स में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार जापानी
वैज्ञानिक फिलहाल मिनामि-तोरी-शिमा और दक्षिण प्रशांत में इसी तरह के एक स्थल
मनिहिकी पठार के दक्षिण पूर्व में मत्स्य जीवाश्मों का अध्ययन कर रहे थे ताकि यह
पता किया जा सके कि ये कितने पुराने हैं। साथ ही ऐसे जीवाश्मों के अन्य स्थलों की
भी तलाश कर रहे थे। पता चला कि ये जीवाश्म लगभग 3.4 करोड़ वर्ष पुराने हैं और
मिनामि-तोरी-शिमा पर इनकी उपस्थिति हिमयुग के दौरान निर्मित अंटार्कटिक बर्फीली
चादर का परिणाम है।
अंटार्कटिक के नीचे वाला पानी ठंडा रहा और इसी
वजह से अधिक सघन रहा। यह गर्म तथा कम सघन वाले पानी के नीचे-नीचे उत्तर की ओर बहने
लगा। यह निचला पानी अपेक्षाकृत सुस्त दक्षिणी समुद्र में हज़ारों वर्षों तक पोषक
तत्वों को संग्रहित करता रहा था और काफी लंबे समय के बाद उभरकर ऊपर आया। ऊपर से
धूप मिली तो जीवन फलने-फूलने लगा। यह प्रक्रिया लगभग एक लाख वर्ष तक चलती रही जब
तक कि अंटार्कटिका के आसपास संग्रहित पोषक तत्व खत्म नहीं हो गए। अंतत: जो बचा वे
थे दांत, हड्डियों के टुकड़े और शल्क जो पेंदे में जमा हो गए।
हड्डियां कैल्शियम और फॉस्फेट से बनी होती
हैं, और लगता है जीवाश्मित फॉस्फेट दुर्लभ मृदा तत्वों को काफी
अच्छे से बांध पाता है। इस अध्ययन के सह-लेखक जुनिचिरो ओह्टा के अनुसार पिछले 3.4
करोड़ वर्षों में जीवाश्म ने धीरे-धीरे मिट्टी में फंसे तरल पदार्थ से यिट्रियम, युरोपियम, टर्बीयम
और डिस्प्रोसियम को अच्छे से जमा किया है। हड्डियों के टुकड़े हो जाने की वजह से
सतह के बढ़े हुए क्षेत्रफल ने इस क्षमता को और बढ़ाया है। इसके परिणामस्वरूप यहां की
मिट्टी में 20,000 पीपीएम तक दुर्लभ मृद्दा तत्व उपस्थित हैं। यही कारण है कि मिनामि-तोरी-शिमा इतना खास है।
जापानी वैज्ञानिकों की टीम के अनुसार
मिनामि-तोरी-शिमा के दक्षिण में 1.6 करोड़ टन के दुर्लभ मृदा ऑक्साइड्स मौजूद हैं
जो वर्तमान उपभोग की दर के हिसाब से 420 से 780 वर्षों तक की आपूर्ति के लिए
पर्याप्त हैं। और सिर्फ मिनामि-तोरी-शिमा और मानिहिकी पठार ही नहीं बल्कि प्रशांत
महासागर में ऐसे सैकड़ों टापू हैं जहां दुर्लभ मृदा तत्वों के मिलने की संभावना
है।
ऐसा अनुमान है कि विभिन्न दुर्लभ मृदा
तत्वों की आपूर्ति में वृद्धि होने से ऐसे उपकरणों का निर्माण किया जा सकेगा जो
जीवाश्म र्इंधन से छुटकारा दिला सकते हैं। इन्हें आसानी से प्राप्त भी किया जा
सकता है। कीचड़ में पाए जाने के कारण इनमें युरेनियम और थोरियम जैसे रेडियोधर्मी
तत्वों का स्तर भी कम होगा। लेकिन एक समस्या भी है – जीवाश्म तीन मील से अधिक
गहराई पर मौजूद हैं, जहां अब तक का कोई भी व्यावसायिक खनन कार्य लाभदायक नहीं हो
पाया है। महासागरों में गहराई पर खनन से पर्यावरण को काफी क्षति की भी आशंका
है।
ट्रेंड्स इन इकोलॉजी एंड इवॉल्यूशन में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार पर्यावरणीय असंतुलन को कम आंका जा रहा है। इसके जवाब में कहा जा रहा है कि यह क्षेत्र बहुत छोटा है, और खनन से मिलने वाले फायदे पर्यावरणीय लागत से कहीं अधिक हैं। कुल मिलाकर, चाहे धरती पर हो या समुद्रों में, खनन को लेकर विवेकपूर्ण निर्णयों की ज़रूरत है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://static.scientificamerican.com/sciam/cache/file/94856ADF-9FD3-498A-8381B0EDE8E58A99.jpg
इन दिनों युरोपीय संघ पृथ्वी का ‘डिजिटल जुड़वां’ तैयार करने
की योजना पर काम कर रहा है। पृथ्वी के इस डिजिटल मॉडल की मदद से वायुमंडल, महासागर, बर्फ
और धरती की सटीक अनुकृति बनाकर बाढ़, सूखा या जंगलों की आग जैसी आपदाओं का समय
रहते पता लगाया जा सकेगा। डेस्टिनेशन अर्थ नामक इस प्रयास में मानव व्यवहार का भी
विश्लेषण किया जाएगा ताकि जलवायु सम्बंधी नीतियों के समाज पर असर का आकलन किया जा
सके। इस परियोजना के बारे में जल्दी विस्तृत विवरण प्रस्तुत किया जाएगा और अगले
साल तीन सुपरकंप्यूटर की मदद से फिनलैंड, इटली और स्पेन में शुरू किया जाएगा।
डेस्टिनेशन अर्थ वास्तव में युरोपियन सेंटर
फॉर मीडियम रेंज वेदर फोरकास्ट (ECMWF) के एक अनुसंधान कार्यक्रम ‘एक्स्ट्रीम अर्थ’ के रद्द होने
के बाद शुरू हुआ था। गौरतलब है कि युरोपीय संघ ने इस प्रमुख कार्यक्रम को रद्द तो
किया लेकिन इस विचार में रुचि बनाए रखी। इस बीच युरोप ने हाई-परफॉरमेंस कंप्यूटिंग
में 8 अरब युरो का निवेश किया और ऐसी मशीनों का निर्माण किया जो प्रति सेकंड एक
अरब-अरब गणनाएं करने में सक्षम हैं।
वर्तमान में उपयोग किए जाने वाले सबसे
सक्षम जलवायु मॉडल 9 किलोमीटर के विभेदन पर काम करते हैं। नया मॉडल केवल 1
किलोमीटर विभेदन पर काम कर सकता है। इसलिए इस मॉडल में एक स्थान के आंकड़ों के आधार
पर बड़े क्षेत्र के लिए एल्गोरिदम की मदद से अनुमान पर निर्भर नहीं रहना होगा। इसकी
बजाय यह ऊष्मा के वास्तविक संवहन के आंकड़ों पर काम करेगा जो बादलों और तूफानों के
निर्माण में महत्वपूर्ण होते हैं। इसके अलवा यह मॉडल बहुत बारीकी से महासागरों में
बनने वाले भंवरों का विश्लेषण कर सकता है जो गर्मी और कार्बन का परिवहन करते हैं।
जापान में 1 किलोमीटर के जलवायु मॉडल से तूफानों और भंवरों को सिमुलेट करके
अल्पकालिक बारिश का पता लगाया जाता है, जो वर्तमान मॉडलों से संभव नहीं था।
डेस्टिनेशन अर्थ में विस्तृत डैटा के आधार
पर पूर्वानुमान लगाए जा सकते हैं। इसके साथ ही मौसम और जलवायु से जुड़ी अन्य घटनाओं, जैसे
वातावरण में प्रदूषण, फसलों की वृद्धि, जंगलों की आग आदि का पता लगाया जा सकता है।
इन सभी जानकारियों से नीति निर्माताओं को यह अंदाज़ लग सकता है कि भविष्य में
जलवायु परिवर्तन किस तरह से मानव समाज को प्रभावित करेगा।
फिर भी सटीक अनुमान लगाना इतना आसान नहीं
होगा। इस मॉडल के सुपरकंप्यूटर पारंपरिक कंप्यूटर चिप्स के साथ-साथ ग्राफिकल
प्रोसेसिंग युनिट्स (जीपीयू) का उपयोग करते हैं जो जटिल गणना करने में सक्षम हैं।
जीपीयू मॉडल के घटकों को चलाने के साथ-साथ कृत्रिम बुद्धि के एल्गोरिदम भी विकसित
करते जाते हैं। ऐसे में पुराने जलवायु मॉडलों के साथ इसका तालमेल बैठा पाना थोड़ा
मुश्किल होगा। इसके साथ ही इस मॉडल से प्राप्त होने वाला डैटा भी एक बड़ी समस्या
होगी। जापानी टीम ने प्रयोग के लिए 1 किलोमीटर मॉडल को चलाया था तब उनको डैटा से
लाभदायक जानकारी हासिल करने में लगभग छ: माह का समय लग गया था।
इस मॉडल को और अधिक विकसित करने की आवश्यकता है। उम्मीद है कि इस मॉडल की मदद से भविष्य में लंबे समय के पूर्वानुमान न सही, कुछ हफ्तों और महीनों के पूर्वानुमान लगा पाना संभव होगा।(स्रोत फीचर्स)
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पृथ्वी पर जा-ब-जा मौजूद पानी जीवन के लिए अनिवार्य भी है और
वैज्ञानिकों की चिंता का मसला भी कि पृथ्वी पर इतना पानी आया कहां से। क्या पानी
पृथ्वी के बनने के समय से मौजूद है, या पृथ्वी सूखी बनी थी और पानी से समृद्ध
किसी बाहरी पिंड/पिंडों के टकराने के बाद पृथ्वी पर पानी आया? और
अब साइंस पत्रिका में प्रकाशित एक नया अध्ययन यह संभावना जताता है कि
पृथ्वी पर पानी यहीं उपस्थित मूल निर्माणकारी पदार्थों से आया है।
कई वैज्ञानिक मानते आए हैं कि पृथ्वी पर पानी
बर्फीली उल्काओं या धूमकेतुओं जैसे बाहरी पिंडों के पृथ्वी से टकराने के साथ आया
होगा। लेकिन कुछ ग्रह विज्ञानी ऐसा नहीं मानते।
इसलिए फ्रांस के शैल व भू-रसायन विज्ञान
केंद्र की लॉरेट पियानी और उनके साथियों ने 13 दुर्लभ उल्काओं का बारीकी से अध्ययन
किया और उनमें पानी की मौजूदगी के संकेत तलाशे। अध्ययन के लिए शोधर्ताओं ने ऐसी
उल्काओं को चुना जिनमें पृथ्वी पर गिरने के बाद परिवर्तन नहीं हुए थे। चूंकि
हाइड्रोजन-ऑक्सीजन की अभिक्रिया से पानी बनता है इसलिए शोधकर्ताओं ने इन उल्काओं
में हाइड्रोजन की मात्रा पता की। जितनी अधिक हाइड्रोजन इन पदार्थों में होगी, उतना
अधिक योगदान ये पृथ्वी के पानी में दे सकते हैं।
अध्ययन में शोधकर्ताओं को सामान्य उल्काओं
की तुलना में इन उल्काओं में बहुत कम हाइड्रोजन मिली।
इसलिए इसके बाद शोधकर्ताओं ने उल्कापिंडों
में ड्यूटेरियम-हाइड्रोजन का अनुपात पता किया। गौरतलब है कि ड्यूटेरियम हाइड्रोजन
का ही एक भारी समस्थानिक है। उन्होंने पाया कि यह अनुपात पृथ्वी के आंतरिक भाग के ड्यूटेरियम-हाइड्रोजन
अनुपात के समान है, जिसमें बहुत अधिक पानी मौजूद है। इस अतिरिक्त प्रमाण से
शोधकर्ताओं को लगता है कि पृथ्वी पर मौजूद पानी और पृथ्वी के निर्माणकारी पदार्थों
के बीच कुछ सम्बंध है।
इस अध्ययन पर नासा के जॉनसन स्पेस सेंटर की
ग्रह विज्ञानी एनी पेसलीयर खुशी जताती हैं और कहती हैं कि यह मॉडल समझना आसान लगता
है कि पृथ्वी पर पानी शुरुआत से ही है बजाय किसी बाहरी पिंड की मेहरबानी से। यदि
हम मानते हैं कि पृथ्वी पर पानी किसी बाहरी पिंड से आया है तो इतने अधिक पानी के
लिए किसी असामान्य घटना की ज़रूरत होगी। वे यह भी कहती हैं कि हो सकता है कि बहुत
सारा पानी शुरुआत से मौजूद हो और कुछ पानी बाद में आया हो।
बहरहाल पानी से जुड़े कई रहस्य अनसुलझे हैं। जैसे अब भी यह पता लगाया जा रहा है कि पृथ्वी के अंदर कितना पानी मौजूद है। (स्रोत फीचर्स)
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काफी समय से इकॉलॉजीविदों को आशंका रही है कि मनुष्यों द्वारा
जंगल काटे जाने और सड़कों आदि के निर्माण से जैव विविधता में आई कमी के चलते
कोविड-19 जैसी महामारियों का जोखिम बढ़ जाता है। हाल के एक अध्ययन से पता चला है कि
जैसे-जैसे कुछ प्रजातियां विलुप्त हो रही हैं,
जीवित रहने वाली
प्रजातियों, जैसे चमगादड़ और चूहे,
में ऐसे घातक
रोगजनकों की मेज़बानी करने की संभावना बढ़ रही है जो मनुष्यों में छलांग लगा सकते
हैं। गौरतलब है कि 6 महाद्वीपों पर लगभग 6800 पारिस्थितिक समुदायों पर किए गए
विश्लेषण से सबूत मिले हैं कि जैव विविधता में ह्रास और बीमारियों के प्रकोप में
सम्बंध है लेकिन आने वाली महामारियों के बारे में कुछ नहीं कहा गया है।
युनिवर्सिटी कॉलेज लंदन के इकोलॉजिकल मॉडलर
केट जोन्स और उनके सहयोगी काफी समय से जैव विविधता,
भूमि उपयोग और उभरते
हुए संक्रामक रोगों के बीच सम्बंधों पर काम कर रहे हैं और ऐसे खतरों की चेतावनी भी
दे रहे हैं लेकिन हालिया कोविड-19 प्रकोप के बाद से उनके अध्ययन को महत्व मिल पाया
है। अब इसकी मदद से विश्व भर के समुदायों में महामारी के जोखिम और ऐसे क्षेत्रों
का पता लगाया जा रहा है जहां भविष्य में महामारी उभरने की संभावना हो सकती है।
इंटरगवर्मेंटल साइंस-पॉलिसी प्लेटफॉर्म ऑन
बायोडायवर्सिटी एंड इकोसिस्टम सर्विसेज़ (आईपीबीईएस) ने इस विषय पर एक ऑनलाइन
कार्यशाला आयोजित की है ताकि निष्कर्ष सितंबर में होने वाले संयुक्त राष्ट्र शिखर
सम्मलेन में प्रस्तुत किए जा सकें। कुछ वैज्ञानिकों,
अर्थशास्त्रियों, वायरस
विज्ञानियों और पारिस्थितिक विज्ञानियों के समूह भी सरकारों से वनों की कटाई तथा
वन्य जीवों के व्यापार पर नियंत्रण की मांग कर रहे हैं ताकि महामारियों के जोखिम
को कम किया जा सके। उनका कहना है कि मात्र इस व्यापार पर प्रतिबंध लगाने से काम
नहीं बनेगा बल्कि उन परिस्थितियों को भी बदलना होगा जो लोगों को जंगल काटने व वन्य
जीवों का शिकार करने पर मजबूर करती हैं।
जोन्स और अन्य लोगों द्वारा किए गए अध्ययन
कई मामलों में इस बात की पुष्टि करते हैं कि जैव विविधता में कमी के परिणामस्वरूप
कुछ प्रजातियों ने बड़े पैमाने पर अन्य प्रजातियों का स्थान ले लिया है। ये वे
प्रजातियां हैं जो ऐसे रोगजनकों की मेज़बानी करती हैं जो मनुष्यों में फैल सकते
हैं। नवीनतम विश्लेषण में जंगलों से लेकर शहरों तक फैले 32 लाख से अधिक
पारिस्थितिक अध्ययनों के विश्लेषण से उन्होंने पाया कि वन क्षेत्र के शहरी क्षेत्र
में परिवर्तित होने तथा जैव विविधता में कमी होने से मनुष्यों में रोग प्रसारित
करने वाले 143 स्तनधारी जीवों की तादाद बढ़ी है।
इसके साथ ही जोन्स की टीम मानव आबादी में रोग संचरण की संभावना पर भी काम कर रही है। उन्होंने पहले भी अफ्रीका में एबोला वायरस के प्रकोप के लिए इस प्रकार का मूल्यांकन किया है। इसके लिए विकास के रुझानों, संभावित रोग फैलाने वाली प्रजातियों की उपस्थिति और सामाजिक-आर्थिक कारकों के आधार पर कुछ रिस्क मैप तैयार किए हैं जो किसी क्षेत्र में वायरस के फैलने की गति को निर्धारित करते हैं। पिछले कुछ वर्षों में टीम ने कांगो के विभिन्न क्षेत्रों में होने वाले प्रकोपों का सटीक अनुमान लगाया था। इससे यह स्पष्ट होता है कि भूमि उपयोग, पारिस्थितिकी, जलवायु, और जैव विविधता जैसे कारकों के बीच सम्बंध स्थापित कर भविष्य के खतरों का पता लगाया जा सकता है।(स्रोत फीचर्स)
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कोरोना
वायरस महामारी से पूरा विश्व प्रभावित हो चुका है। इस अभूतपूर्व आपदा से निपटने के
लिए प्रत्येक व्यक्ति अपना योगदान दे रहा है। स्वास्थ्यकर्मियों,
प्रशासनिक अधिकारियों व कर्मचारियों से लेकर घर में बंद
सामान्य व्यक्ति तक। गैर-सरकारी
संस्थाएं और समाजसेवी भी अपने स्तर पर नागरिकों की सेवा कर रहे हैं। दूसरी ओर
वैज्ञानिक और प्रौद्योगिकी संस्थाएं इस महामारी को समझने की कोशिश कर रही हैं। वे
परीक्षण करने की मानक विधि को लगातार विकसित कर रही हैं और मरीज़ों के उपचार के लिए
दवा-टीके
की खोज भी कर रही हैं।
अभी
एक महत्त्वपूर्ण काम महामारी से प्रभावित होने वाले भविष्य का विश्लेषण करना है।
और यह संभव हो पाता है गणित की मदद से। इतिहास गवाह है कि आपदाओं से निपटने में
गणित ने एक साधन की भूमिका निभाई है। गणितीय सिद्धान्तों को कंप्यूटर मॉडल में
उपयोग किया जाता है। फिर कंप्यूटर मॉडल इन सिद्धान्तों की सहायता से डैटा पर कार्य
करता है और परिणाम देता है। इन मॉडल्स को गणितीय मॉडल्स भी कहा जाता है।
वैज्ञानिक
अलग-अलग
समस्याओं के लिए अलग-अलग
गणितीय मॉडल्स का उपयोग करते हैं। इन गणितीय मॉडल्स का उपयोग महामारी से सम्बंधित
जानकारी पता करने के लिए होता है। जैसे – किसी देश, क्षेत्र
या शहर में महामारी से संक्रमित होने वाले मरीज़ों की संख्या कितनी हो सकती है?
बदतर स्थिति में कितने आईसीयू बिस्तर और वेंटिलेटर की ज़रूरत
पड़ सकती है? और कब हमारा
स्वास्थ्य-तंत्र
नाकाम होने लगेगा?
कोरोना
वायरस महामारी से संक्रमित मरीज़ों की संख्या बहुत ही तेज़ी से बढ़ रही है। सभी देश
संक्रमण की वृद्धि दर को कम करने की कोशिश कर रहे हैं। इस महामारी से लड़ने के लिए
सभी देश अलग-अलग
गणितीय मॉडल्स की सहायता ले रहे हैं। एक ही महामारी से लड़ने के लिए इतने सारे
मॉडल्स होने के कई कारण हैं। मॉडल डैटा के आधार पर काम करता है। जनसंख्या,
संक्रमित मरीज़ों की संख्या, ठीक
हो चुके मरीज़ों की संख्या, संक्रमण दर आदि सभी
कारक हर देश के लिए समान नहीं हो सकते हैं। अत: हर देश का अपना डैटा व मॉडल होता है।
इन
सारे मॉडल्स का आधार एसआईआर (SIR) मॉडल है। इस मॉडल को करमैक और मैक्केन्ड्रिक ने स्थापित
किया था। 1920 के
दशक में, दोनों ने देखा कि
किसी संक्रमण के संपर्क में जो आबादी है, उसे
तीन समूहों में विभाजित किया जा सकता है – संवेदनशील, संक्रमित,
और संक्रमण-मुक्त। संवेदनशील लोग वे हैं जिन्हें अभी तक बीमारी नहीं
हुई है। संक्रमित लोग वे हैं जो वर्तमान में संक्रमित हैं। संक्रमण-मुक्त लोग वे हैं जो
पहले बीमार थे और अब स्वस्थ हो गए हैं।
करमैक
और मैक्केन्ड्रिक ने इनमें से प्रत्येक समूह में गणितीय रूप से संख्याओं को
प्रदर्शित करने का एक तरीका खोजा। उन्होंने अपने इस विचार को अवकल समीकरणों के रूप
में लिखा। इससे यह पता लगाया जा सकता था कि जनसंख्या का कौन-सा अंश, भविष्य
में किसी एक समूह से दूसरे समूह में प्रवेश करेगा।
निश्चित
रूप से एसआईआर मॉडल महामारी के फैलने की जानकारी देता है। मॉडल को पहले से ही कुछ
मान्यताएं बता दी जाती हैं। फिर उसके अनुसार वह डैटा को समूहों में विभाजित करके
भविष्य में होने वाले संक्रमण के अनुमान को चित्रों और आंकड़ों में दर्शाता है। एक
बुनियादी मान्यता यह भी होती है कि संक्रमित समूह वाला व्यक्ति संवेदनशील समूह
वाले व्यक्ति के साथ बातचीत करके, उसे संक्रमित करके
संक्रमित समूह में भी परिवर्तित कर सकता है। जब संक्रमित समूह बढ़ता है तब
संवेदनशील समूह घटता है। संक्रमित व्यक्ति ठीक भी हो सकता है। इस स्थिति में मॉडल
संक्रमित व्यक्ति के डैटा को संक्रमित समूह से हटाकर संक्रमण-मुक्त समूह में डाल देता है।
संक्रमण
का संवेदनशील समूह से संक्रमित समूह की ओर जाने के कई कारण हो सकते हैं। संक्रमण
का फैलाव संक्रमित व्यक्ति के सीधे संपर्क में आने से हो सकता है। संक्रमण पानी,
हवा या किसी वस्तु की सतह के माध्यम से भी हो सकता है। इसके
अलावा, रोग की गतिशीलता का
अध्ययन विभिन्न पैमानों पर किया जा सकता है: एकल व्यक्ति, लोगों
के छोटे समूह और संपूर्ण आबादी के रूप में। उपलब्ध आंकड़ों की जटिलता के आधार पर
विभिन्न मॉडल्स को चुना जाता है।
कभी-कभी बुनियादी मॉडल
के लिए अतिरिक्त समूह भी बनाए जाते हैं। उदाहरण के लिए,
कोई संक्रमित व्यक्ति जो कोई लक्षण प्रदर्शित नहीं कर रहा
है वह एक नया समूह बन सकता है। कभी-कभी उम्र जैसे अतिरिक्त कारकों को भी ध्यान में रखने की
आवश्यकता होती है।
रोग
से सम्बंधित जानकारी और इसके फैलाव की विधि के आधार पर बने डैटा पर एसआईआर मॉडल को
निर्भर रहना पड़ता है। लेकिन जब कोई बीमारी नई होती है – मौजूदा महामारी के मामले में ‘नए कोरोनावायरस’ के ‘नया’ होने के कारण विश्वसनीय
डैटा मिलना मुश्किल हो जाता है। और यह पारंपरिक एसआईआर मॉडल सामाजिक दूरी और घर
में बंद रहने के आदेशों जैसे व्यवहार और नीतिगत बदलावों को ध्यान में नहीं रखता
है।
इसलिए मौजूदा स्थितियों का आकलन करते हुए गणितज्ञ और वैज्ञानिक मिलकर नए गणितीय मॉडल्स का उपयोग कर रहे हैं और सुविधानुसार मॉडल्स विकसित भी कर रहे हैं। इन मॉडल्स की सहायता से सरकार को नीतियां बनाने में मदद मिल रही है। गणित और कंप्यूटर की यह शक्तिशाली जोड़ी हमारे स्वास्थ्य तंत्र को इस अभूतपूर्व महामारी से लड़ने में बहुत मदद कर रही है। और सरकारों को संकेत भी कर रही है कि कोरी राजनीति करने की बजाय शिक्षा और स्वास्थ्य के विकास पर ज़ोर देना आवश्यक है। आज की तारीख में कई देशों में स्थिति नियंत्रण में आ गई है। उम्मीद है कि जल्द ही पूरे विश्व के गलियारों और बगीचों में, स्कूलों और मैदानों में, सड़कों और सांस्कृतिक स्थलों पर फिर से चहल-पहल शुरू हो जाएगी।(स्रोत फीचर्स)
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लगभग 100 वर्ष पहले डूबे एक जहाज़ के मलबे ने बरमुडा त्रिकोण
के मिथक को एक बार फिर धराशायी कर दिया है। यह कहा गया था कि 1925 में एसएस
कोटोपैक्सी नामक जो मालवाहक जहाज़ डूबा था उसमें बरमुडा त्रिकोण की भूमिका थी। यह
मालवाहक अपनी मंज़िल तक नहीं पहुंच सका था।
बरमुडा त्रिकोण उत्तरी अटलांटिक सागर में एक अपरिभाषित-से क्षेत्र को कहते
हैं। इसे शैतान का तिकोन भी कहा जाता है। यह बरमुडा से फ्लोरिडा और प्यूएर्टो रिको
के बीच स्थित है। इसके बारे में कहा जाता रहा है कि यहां कई जहाज़, हवाई जहाज़ वगैरह डूबे हैं और इसका कारण पारलौकिक शक्तियों या अन्य ग्रहों के
निवासियों को बताया जाता है। तथ्य यह है कि यहां कई जहाज़ नियमित रूप से पार होते
हैं और कई हवाई जहाज़ इस क्षेत्र के ऊपर से होकर उड़ते हैं।
हाल ही में एक समुद्री जीव वैज्ञानिक और गोताखोर माइकेल बार्नेट ने उस जहाज़
कोटोपैक्सी का मलबा ढूंढ निकाला है। बार्नेट पिछले कई वर्षों से डूबे हुए जहाज़ों
के मलबे खोजने का काम करते रहे हैं। इसी दौरान उन्हें पता चला कि उत्तरी फ्लोरिडा
के सेन्ट ऑगस्टीन के तट से करीब 65 कि.मी. की दूरी पर एक बड़ा जहाज़ डूबा था जिसे
स्थानीय लोग बेयर रेक के नाम से जानते हैं। यह वास्तव में बहुत बड़ा था।
तो बार्नेट ने गोताखोरी करके उस जहाज़ के मलबे का नाप जोख किया, अखबारों में उस समय छपे लेखों का जायज़ा लिया और साथ ही बीमा के रिकॉर्ड भी
देखे और जहाज़ के मलबे से मिली वस्तुओं का मुआयना किया। उनकी तहकीकात से लगता था कि
वह जहाज़ शायद कोटोपैक्सी ही था। तो उन्होंने खबर फैलाई कि एसएस कोटोपैक्सी शायद
अटलांटिक महासागर के पेंदे में पड़ा है।
कोटोपैक्सी दक्षिण कैरोलिना के चार्ल्सटन बंदरगाह से कोयला भरकर हवाना के लिए
रवाना हुआ था। रास्ते में एक तूफान ने इसे डुबो दिया और इस पर सवार 32 कर्मचारियों
का कोई अता-पता नहीं मिला था। बाद में पता चला कि कोटोपैक्सी में कई खामियां थीं
और इसकी मरम्मत का काम होने वाला था। जांच-पड़ताल में यह भी सामने आया कि
कोटोपैक्सी ने डूबने से पहले एसओएस संदेश भी प्रसारित किए थे और फ्लोरिडा स्थित
जैकसनविले स्टेशन ने ये संदेश पकड़े भी थे।
मज़ेदार बात है कि जहाज़ का मलबा सेन्ट ऑगस्टीन के तट से कुछ दूरी पर मिला है जो बरमुडा त्रिकोण के आसपास भी नहीं है। (स्रोत फीचर्स)
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अंतर्राष्ट्रीय भूगर्भ विज्ञान संघ ने पृथ्वी पर एक नए युग का
अनुमोदन किया है। दक्षिणी जापान के चिबा प्रांत में पाई गई तलछट की एक परत के आधार
पर इस नए युग की घोषणा की गई है। यह युग लगभग 7 लाख 70 हज़ार वर्ष पूर्व से लेकर 1
लाख 26 हज़ार वर्ष के बीच रहा था।
इस अवधि की विशेष बात यह है कि इस दौरान पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र ने पलटी
मारी थी। पृथ्वी के इतिहास में कई बार ऐसा हुआ है कि उत्तरी व दक्षिणी चुंबकीय
ध्रुवों की अदला-बदली हुई है। जब ऐसा होता है तो इसके निशान पृथ्वी की उन चट्टानों
पर रह जाते हैं जो उस दौरान ठोस बन रही थीं। ऐसा माना जा रहा है कि इस स्थल पर पाई
गई तलछट चुंबकीय उथल-पुथल का बहुत अच्छा रिकॉर्ड उपलब्ध कराएगी।
चुंबकीय ध्रुवीय पलट को ब्रुनहेस-मातुयामा पलटी कहते हैं और यह आज भी विवाद का
विषय है। 2014 में जियोफिज़िकल जर्नल इंटरनेशनल में प्रकाशित एक शोध पत्र
में इटली में पाई गई तलछट की एक परत से प्राप्त जानकारी के आधार पर कहा गया था कि
चुंबकीय पलटी में मात्र कुछ दशकों का समय लगता है। दूसरी ओर, 2019 में हवाई में प्राचीन लावा के प्रवाह से प्राप्त आंकड़ों के आधार पर कहा
गया था कि इसमें लगभग 22,000 साल लग जाते हैं। इस पलटी के बढ़िया रिकॉर्ड के साथ
चिबा की तलछट शायद बहस को विराम देने का काम करेगी।
ध्रुवों के पलटने के अध्ययन से हम यह समझ पाएंगे कि इस वक्त क्या हो रहा है। हाल के वर्षों में पृथ्वी के चुंबकीय ध्रुवों में थोड़ा स्थान परिवर्तन हो रहा है। वैज्ञानिक यह नहीं समझ पाए हैं कि ध्रुव क्यों भटक रहे हैं। शायद चिबा की चट्टानें कुछ मदद करें। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.nippon.com/en/ncommon/contents/news/179319/179319.jpg
डेढ़ सौ साल पुराने प्लैंकटन (सूक्ष्म जलीय वनस्पति) के अध्ययन
के आधार पर किंग्सटन युनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने जलवायु परिवर्तन के बारे में
काफी महत्वपूर्ण निष्कर्ष निकाले हैं।
सन 1872-76 तक चले एचएमएस चैलेंजर अभियान के दौरान एकत्रित किए गए
एक-कोशिकीय,
कवच बनाने वाले जीव फोरामिनीफेरा लंदन स्थित म्यूज़ियम ऑफ
नेचुरल हिस्ट्री में रखे हुए थे। सूक्ष्मजीवाश्म विज्ञानी लिंडसे फॉक्स ने इन
फोरामिनीफेरा नमूनों का अध्ययन किया और पाया कि वर्तमान फोरामिनीफेरा की तुलना में
प्राचीन फोरामिनीफेरा के कवच कहीं अधिक मोटे थे। उनका निष्कर्ष है कि कवच की मोटाई
में यह परिवर्तन समुद्री पानी के तेज़ी से अम्लीय होने की वजह से हुआ है।
वैसे तो वैज्ञानिक इस बात को पहले से जानते थे कि वातावरण में मौजूद अतिरिक्त
कार्बन डाईआऑक्साइड के समुद्र में घुलने के परिणामस्वरूप महासागर अम्लीय होते जा
रहे हैं जिसके कारण समुद्री जीवन बुरी तरह प्रभावित हो रहा है। अम्लीय पानी
कैल्शियम कार्बोनेट और जीवों के बाह्र कंकाल को झीना कर देता है और उनके लिए इस
तरह की संरचना बना पाना ही मुश्किल हो जाता है। लेकिन अधिकांश नतीजे प्रयोगशाला
में किए गए प्रयोगों से मिले थे जो बहुत लंबी अवधि के नहीं होते। वैज्ञानिक खुले
समुद्र में अम्लीय होते महासागरों के दीर्घकालिक प्रभाव जांचने में सक्षम नहीं थे।
तुलना के लिए शोधकर्ताओं ने दो प्रजातियों Neogloboquadrina
dutertrei और Globigerinoidesruber को चुना। एचएमएस चैलेंजर द्वारा एकत्रित नमूनों के सटीक स्थान और समय
के बारे में जानकारी प्राप्त की और इनकी तुलना उन्होंने साल 2011 में प्रशांत
महासागर में चले तारा अभियान से प्राप्त उन्हीं प्रजातियों के नमूनों से की।
उन्होंने सी.टी. स्कैन की मदद से इनके कवच का 3-डी मॉडल बनाया। उन्होंने पाया
कि प्राचीन नमूनों की तुलना में औसतन सभी आधुनिक कवच झीने थे। N.
dutertreiका आवरण तो 76 प्रतिशत झीना था। साइंटिफिक रिपोर्ट्स में प्रकाशित शोध
पत्र में बताया गया है कि कुछ वर्तमान कवच तो इतने पतले थे कि उनका 3-डी मॉडल तक
बनाना मुश्किल था।
शोधकर्ताओं का कहना है कि ऐसी संभावना है कि कवच समुद्रों की बढ़ती अम्लीयता के
कारण झीने हुए हों। हालांकि वे यह भी कहते हैं कि इसमें महासागरों के बढ़ते तापमान
और ऑक्सीजन की कमी की भी भूमिका हो सकती है।
फॉक्स ऐसी ही तुलना संग्रहालयों में रखे हज़ारों प्लैंकटन जीवाश्मों के साथ करना चाहती हैं। वे उम्मीद करती हैं कि यह अध्ययन अन्य वैज्ञानिकों को भी संग्रहालयों की पड़ताल करने को प्रेरित करेगा। (स्रोत फीचर्स)
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वर्ष 2019 विज्ञान जगत के इतिहास में एक ऐसे वर्ष के रूप में
याद किया जाएगा,
जब वैज्ञानिकों ने पहली बार ब्लैक होल की तस्वीर जारी की।
यह वही वर्ष था,
जब वैज्ञानिकों ने प्रयोगशाला में कार्बन के एक और नए रूप
का निर्माण कर लिया। विदा हुए साल में गूगल ने क्वांटम प्रोसेसर में श्रेष्ठता
हासिल की। अनुसंधानकर्ताओं ने प्रयोगशाला में आठ रासायनिक अक्षरों वाले डीएनए अणु
बनाने की घोषणा की।
इस वर्ष 10 अप्रैल को खगोल वैज्ञानिकों ने ब्लैक होल की पहली तस्वीर जारी की।
यह तस्वीर विज्ञान की परिभाषाओं में की गई कल्पना से पूरी तरह मेल खाती है।
भौतिकीविद अल्बर्ट आइंस्टीन ने पहली बार 1916 में सापेक्षता के सिद्धांत के साथ
ब्लैक होल की भविष्यवाणी की थी। ब्लैक होल शब्द 1967 में अमेरिकी खगोलविद जॉन
व्हीलर ने गढ़ा था। 1971 में पहली बार एक ब्लैक होल खोजा गया था।
इस घटना को विज्ञान जगत की बहुत बड़ी उपलब्धि कहा जा सकता है। ब्लैक होल का
चित्र इवेंट होराइज़न दूरबीन से लिया गया, जो हवाई, एरिज़ोना,
स्पेन, मेक्सिको, चिली और दक्षिण ध्रुव में लगी है। वस्तुत: इवेंट होराइज़न दूरबीन एक संघ है। इस
परियोजना के साथ दो दशकों से लगभग 200 वैज्ञानिक जुड़े हुए हैं। इसी टीम की सदस्य
मैसाचूसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी की 29 वर्षीय कैरी बोमेन ने एक कम्प्यूटर
एल्गोरिदम से ब्लैक होल की पहली तस्वीर बनाने में सहायता की। विज्ञान जगत की
अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका साइंस ने वर्ष 2019 की दस प्रमुख खोजों में ब्लैक
होल सम्बंधी अनुसंधान को प्रथम स्थान पर रखा है।
उक्त ब्लैक होल हमसे पांच करोड़ वर्ष दूर एम-87 नामक निहारिका में स्थित है।
ब्लैक होल हमेशा ही भौतिक वैज्ञानिकों के लिए उत्सुकता के विषय रहे हैं। ब्लैक होल
का गुरूत्वाकर्षण अत्यधिक शक्तिशाली होता है जिसके खिंचाव से कुछ भी नहीं बच सकता; प्रकाश भी यहां प्रवेश करने के बाद बाहर नहीं निकल पाता है। ब्लैक होल में
वस्तुएं गिर सकती हैं, लेकिन वापस नहीं लौट सकतीं।
इसी वर्ष 21 फरवरी को अनुसंधानकर्ताओं ने प्रयोगशाला में बनाए गए नए डीएनए अणु
की घोषणा की। डीएनए का पूरा नाम डीऑक्सीराइबो न्यूक्लिक एसिड है। नए संश्लेषित
डीएनए में आठ अक्षर हैं, जबकि प्रकृति में विद्यमान
डीएनए अणु में चार अक्षर ही होते हैं। यहां अक्षर से तात्पर्य क्षारों से है।
संश्लेषित डीएनए को ‘हैचीमोजी’ नाम दिया गया है। ‘हैचीमोजी’ जापानी भाषा का शब्द
है,
जिसका अर्थ है आठ अक्षर। एक-कोशिकीय अमीबा से लेकर
बहुकोशिकीय मनुष्य तक में डीएनए होता है। डीएनए की दोहरी कुंडलीनुमा संरचना का
खुलासा 1953 में जेम्स वाट्सन और फ्रांसिक क्रिक ने किया था। यह वही डीएनए अणु है, जिसने जीवन के रहस्यों को सुलझाने और आनुवंशिक बीमारियों पर विजय पाने में अहम
योगदान दिया है। मातृत्व-पितृत्व का विवाद हो या अपराधों की जांच, डीएनए की अहम भूमिका रही है।
सुपरकम्प्यूटिंग के क्षेत्र में वर्ष 2019 यादगार रहेगा। इसी वर्ष गूगल ने 54
क्यूबिट साइकैमोर प्रोसेसर की घोषणा की जो एक क्वांटम प्रोसेसर है। गूगल ने दावा
किया है कि साइकैमोर वह कार्य 200 सेकंड में कर देता है, जिसे
पूरा करने में सुपर कम्प्यूटर दस हज़ार वर्ष लेगा। इस उपलब्धि के आधार पर कहा जा
सकता है कि भविष्य क्वांटम कम्यूटरों का होगा।
वर्ष 2019 में रासायनिक तत्वों की प्रथम आवर्त सारणी के प्रकाशन की 150वीं
वर्षगांठ मनाई गई। युनेस्को ने 2019 को अंतर्राष्ट्रीय आवर्त सारणी वर्ष मनाने की
घोषणा की थी,
जिसका उद्देश्य आवर्त सारणी के बारे में जागरूकता का
विस्तार करना था। विख्यात रूसी रसायनविद दिमित्री मेंडेलीव ने सन 1869 में प्रथम
आवर्त सारणी प्रकाशित की थी। आवर्त सारणी की रचना में विशेष योगदान के लिए
मेंडेलीव को अनेक सम्मान मिले थे। सारणी के 101वें तत्व का नाम मेंडेलेवियम रखा
गया। इस तत्व की खोज 1955 में हुई थी। इसी वर्ष जुलाई में इंटरनेशनल यूनियन ऑफ प्योर
एंड एप्लाइड केमिस्ट्री (IUPAC) का
शताब्दी वर्ष मनाया गया। इस संस्था की स्थापना 28 जुलाई 1919 में उद्योग जगत के
प्रतिनिधियों और रसायन विज्ञानियों ने मिलकर की थी। तत्वों के नामकरण में युनियन
का अहम योगदान रहा है।
विज्ञान की अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका नेचर के अनुसार गुज़िश्ता साल रसायन
वैज्ञानिकों ने कार्बन के एक और नए रूप सी-18 सायक्लोकार्बन का सृजन किया। इसके
साथ ही कार्बन कुनबे में एक और नया सदस्य शामिल हो गया। इस अणु में 18 कार्बन
परमाणु हैं,
जो आपस में जुड़कर अंगूठी जैसी आकृति बनाते हैं। शोधकर्ताओं
के अनुसार इसकी संरचना से संकेत मिलता है कि यह एक अर्धचालक की तरह व्यवहार करेगा।
लिहाज़ा,
कहा जा सकता है कि आगे चलकर इलेक्ट्रॉनिकी में इसके उपयोग
की संभावनाएं हैं।
गुज़रे साल भी ब्रह्मांड के नए-नए रहस्यों के उद्घाटन का सिलसिला जारी रहा। इस
वर्ष शनि बृहस्पति को पीछे छोड़कर सबसे अधिक चंद्रमा वाला ग्रह बन गया। 20 नए
चंद्रमाओं की खोज के बाद शनि के चंद्रमाओं की संख्या 82 हो गई। जबकि बृहस्पति के
79 चंद्रमा हैं।
गत वर्ष बृहस्पति के चंद्रमा यूरोपा पर जल वाष्प होने के प्रमाण मिले। विज्ञान
पत्रिका नेचर में प्रकाशित रिपोर्ट में बताया गया है कि यूरोपा की मोटी
बर्फ की चादर के नीचे तरल पानी का सागर लहरा रहा है। अनुसंधानकर्ताओं के अनुसार
इससे यह संकेत मिलता है कि यहां पर जीवन के सभी आवश्यक तत्व विद्यमान हैं।
कनाडा स्थित मांट्रियल विश्वविद्यालय के प्रोफेसर बियर्न बेनेक के नेतृत्व में
वैज्ञानिकों ने हबल दूरबीन से हमारे सौर मंडल के बाहर एक ऐसे ग्रह (के-टू-18 बी)
का पता लगाया है,
जहां पर जीवन की प्रबल संभावनाएं हैं। यह पृथ्वी से दो गुना
बड़ा है। यहां न केवल पानी है, बल्कि
तापमान भी अनुकूल है।
साल की शुरुआत में चीन ने रोबोट अंतरिक्ष यान चांग-4 को चंद्रमा के अनदेखे
हिस्से पर सफलतापूर्वक उतारा और ऐसा करने वाला दुनिया का पहला देश बन गया। चांग-4
जीवन सम्बंधी महत्वपूर्ण प्रयोगों के लिए अपने साथ रेशम के कीड़े और कपास के बीज भी
ले गया था।
अप्रैल में पहली बार नेपाल का अपना उपग्रह नेपालीसैट-1 सफलतापूर्वक लांच किया
गया। दो करोड़ रुपए की लागत से बने उपग्रह का वज़न 1.3 किलोग्राम है। इस उपग्रह की
मदद से नेपाल की भौगोलिक तस्वीरें जुटाई जा रही हैं। दिसंबर के उत्तरार्ध में युरोपीय
अंतरिक्ष एजेंसी ने बाह्य ग्रह खोजी उपग्रह केऑप्स सफलतापूर्वक भेजा। इसी साल
अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा द्वारा भेजा गया अपार्च्युनिटी रोवर पूरी तरह
निष्क्रिय हो गया। अपाच्र्युनिटी ने 14 वर्षों के दौरान लाखों चित्र भेजे। इन
चित्रों ने मंगल ग्रह के बारे में हमारी सीमित जानकारी का विस्तार किया।
बीते वर्ष में जीन सम्पादन तकनीक का विस्तार हुआ। आलोचना और विवादों के बावजूद
अनुसंधानकर्ता नए-नए प्रयोगों की ओर अग्रसर होते रहे। वैज्ञानिकों ने जीन सम्पादन
तकनीक क्रिसपर कॉस-9 तकनीक की मदद से डिज़ाइनर बच्चे पैदा करने के प्रयास जारी रखे।
जीन सम्पादन तकनीक से बेहतर चिकित्सा और नई औषधियां बनाने का मार्ग पहले ही
प्रशस्त हो चुका है। चीन ने जीन एडिटिंग तकनीक से चूहों और बंदरों के निर्माण का
दावा किया है। साल के उत्तरार्ध में ड्यूक विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने शरीर की
नरम हड्डी अर्थात उपास्थि की मरम्मत के लिए एक तकनीक खोजी, जिससे
जोड़ों को पुनर्जीवित किया जा सकता है।
बीते साल भी जलवायु परिवर्तन को लेकर चिंता की लकीर लंबी होती गई। बायोसाइंस
जर्नल में प्रकाशित शोध पत्र के अनुसार पहली बार विश्व के 153 देशों के 11,258
वैज्ञानिकों ने जलवायु परिवर्तन पर एक स्वर में चिंता जताई। वैज्ञानिकों ने
‘क्लाइमेट इमरजेंसी’ की चेतावनी देते हुए जलवायु परिवर्तन का सबसे प्रमुख कारण
कार्बन उत्सर्जन को बताया। दिसंबर में स्पेन की राजधानी मैड्रिड में संयुक्त
राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन हुआ। सम्मेलन में विचार मंथन का मुख्य मुद्दा पृथ्वी
का तापमान दो डिग्री सेल्सियस से ज़्यादा बढ़ने से रोकना था।
इसी साल हीलियम की खोज के 150 वर्ष पूरे हुए। इस तत्व की खोज 1869 में हुई थी।
हीलियम का उपयोग गुब्बारों, मौसम विज्ञान सम्बंधी उपकरणों
में हो रहा है। इसी वर्ष विज्ञान की अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका नेचर के
प्रकाशन के 150 वर्ष पूरे हुए। नेचर को विज्ञान की अति प्रतिष्ठित और
प्रामाणिक पत्रिकाओं में गिना जाता है। इस वर्ष भौतिकीविद रिचर्ड फाइनमैन द्वारा
पदार्थ में शोध के पूर्व अनुमानों को लेकर दिसंबर 1959 में दिए गए ऐतिहासिक
व्याख्यान की हीरक जयंती मनाई गई।
विदा हो चुके वर्ष में अंतर्राष्ट्रीय खगोल संघ (IAU) की स्थापना का शताब्दी वर्ष मनाया गया। इसकी स्थापना 28 जुलाई 1919 को ब्रुसेल्स
में की गई थी। वर्तमान में अंतर्राष्ट्रीय खगोल संघ के 13,701 सदस्य हैं। इसी साल
मानव के चंद्रमा पर पहुंचने की 50वीं वर्षगांठ मनाई गई। 21 जुलाई 1969 को अमेरिकी
अंतरिक्ष यात्री नील आर्मस्ट्रांग ने चांद की सतह पर कदम रखा था।
इसी वर्ष विश्व मापन दिवस 20 मई के दिन 101 देशों ने किलोग्राम की नई परिभाषा
को अपना लिया। हालांकि रोज़मर्रा के जीवन में इससे कोई अंतर नहीं आएगा, लेकिन अब पाठ्य पुस्तकों में किलोग्राम की परिभाषा बदल जाएगी। किलोग्राम की नई
परिभाषा प्लैंक स्थिरांक की मूलभूत इकाई पर आधारित है।
गत वर्ष अक्टूबर में साहित्य, शांति, अर्थशास्त्र
और विज्ञान के नोबेल पुरस्कारों की घोषणा की गई। विज्ञान के नोबेल पुरस्कार
विजेताओं में अमेरिका का वर्चस्व दिखाई दिया। रसायन शास्त्र में लीथियम आयन बैटरी
के विकास के लिए तीन वैज्ञानिकों को पुरस्कृत किया गया – जॉन गुडइनफ, एम. विटिंगहैम और अकीरा योशिनो। लीथियम बैटरी का उपयोग मोबाइल फोन, इलेक्ट्रिक कार, लैपटॉप आदि में होता है। 97 वर्षीय गुडइनफ
नोबेल सम्मान प्राप्त करने वाले सबसे उम्रदराज व्यक्ति हो गए हैं। चिकित्सा
विज्ञान का नोबेल पुरस्कार संयुक्त रूप से तीन वैज्ञानिकों को प्रदान किया गया –
विलियम केलिन जूनियर, ग्रेग एल. सेमेंज़ा और पीटर रैटक्लिफ।
इन्होंने कोशिका द्वारा ऑक्सीजन के उपयोग पर शोध करके कैंसर और एनीमिया जैसे रोगों
की चिकित्सा के लिए नई राह दिखाई है। इस वर्ष का भौतिकी का नोबेल पुरस्कार जेम्स
पीबल्स,
मिशेल मेयर और डिडिएर क्वेलोज़ को दिया गया। तीनों
अनुसंधानकर्ताओं ने बाह्य ग्रहों खोज की और ब्रह्मांड के रहस्यों से पर्दा हटाया।
ऑस्ट्रेलिया के कार्ल क्रूसलेंकी को वर्ष 2019 का विज्ञान संचार का
अंतर्राष्ट्रीय कलिंग पुरस्कार प्रदान किया गया। यह प्रतिष्ठित सम्मान पाने वाले
वे पहले ऑस्ट्रेलियाई हैं।
वर्ष 2019 का गणित का प्रतिष्ठित एबेल पुरस्कार अमेरिका की प्रोफेसर केरन
उहलेनबेक को दिया गया है। इसे गणित का नोबेल पुरस्कार कहा जाता है। इसकी स्थापना
2002 में की गई थी। पुरस्कार की स्थापना के बाद यह सम्मान ग्रहण करने वाली केरन
उहलेनबेक पहली महिला हैं।
अंतर्राष्ट्रीय विज्ञान पत्रिका नेचर ने वर्ष 2019 के दस प्रमुख
वैज्ञानिकों की सूची में स्वीडिश पर्यावरण कार्यकर्ता ग्रेटा थनबर्ग को शामिल किया
है। टाइम पत्रिका ने भी ग्रेटा थनबर्ग को वर्ष 2019 का ‘टाइम पर्सन ऑफ दी
ईयर’ चुना है। उन्होंने विद्यार्थी जीवन से ही पर्यावरण कार्यकर्ता के रूप में
पहचान बनाई और जलवायु परिवर्तन रोकने के प्रयासों का ज़ोरदार अभियान चलाया।
5 अप्रैल को नोबेल सम्मानित सिडनी ब्रेनर का 92 वर्ष की आयु में निधन हो गया। उन्हें 2002 में मेडिसिन का नोबेल सम्मान दिया गया था। उन्होंने सिनोरेब्डाइटिस एलेगेंस नामक एक कृमि को रिसर्च का प्रमुख मॉडल बनाया था। 11 अक्टूबर को सोवियत अंतरिक्ष यात्री अलेक्सी लीनोव का 85 वर्ष की आयु में देहांत हो गया। लीनोव पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने अंतरिक्ष में चहलकदमी करके इतिहास रचा था। (स्रोत फीचर्स)
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मानव बसाहट से दूर होने के बावजूद अंटार्कटिका की
पारिस्थितिकी और जीवन मानव गतिविधियों से प्रभावित रहा है। जैसे व्हेल और सील के
अंधाधुंध शिकार के चलते वे लगभग विलुप्त हो गर्इं थीं। व्हेल और सील की संख्या में
कमी आने की वजह से क्रिल नामक एक क्रस्टेशियन जंतु की संख्या काफी बढ़ गई थी, जो उनका भोजन है। और अब, मानव गतिविधियों चलते तेज़ी से
हो रहा जलवायु परिवर्तन सीधे-सीधे अंटार्कटिका के जीवन को प्रभावित कर रहा है। इस
संदर्भ में प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेस में प्रकाशित
अध्ययन कहता है कि जलवायु परिवर्तन से पेंगुइन की दो प्रजातियां विपरीत तरह से
प्रभावित हुई हैं: पेंगुइन की एक प्रजाति की संख्या में काफी वृद्धि हुई है, वहीं दूसरी प्रजाति विलुप्ति की कगार पर पहुंच चुकी है।
दरअसल,
लुइसिआना स्टेट युनिवर्सिटी के माइकल पोलिटो और उनके साथी
अपने अध्ययन में यह देखना चाहते थे कि पिछली एक सदी में अंटार्कटिका की
पारिस्थितिकी में हुए मानव हस्तक्षेप के कारण पेंगुइन के मुख्य भोजन, अंटार्कटिका क्रिल, की संख्या किस तरह प्रभावित हुई है। चूंकि
मानवों ने कभी पेंगुइन का व्यावसायिक स्तर पर आखेट नहीं किया और क्रिल पेंगुइन का
मुख्य भोजन हैं इसलिए उन्होंने पेंगुइन के आहार में बदलाव से क्रिल की आबादी का
हिसाब लगाने का सोचा। और, चूंकि अंटार्कटिका में पिछले
50 सालों में गेन्टू पेंगुइन (पाएगोसेलिस पेपुआ) की आबादी में लगभग 6 गुना
वृद्धि दिखी है और चिनस्ट्रेप पेंगुइन (पाएगोसेलिस अंटार्कटिका) की आबादी
में काफी कमी दिखी है इसलिए अध्ययन के लिए शोधकर्ताओं ने इन दोनों प्रजातियों को
चुना। पिछली एक सदी के दौरान इन पेंगुइन का आहार कैसा था यह जानने के लिए
अध्ययनकर्ताओं ने म्यूज़ियम में रखे पेंगुइन के पंखों में अमीनो अम्लों में
नाइट्रोजन के स्थिर समस्थानिकों की मात्रा पता लगाई।
उन्होंने पाया कि शुरुआत में, 1900 के दशक में, जब क्रिल प्रचुर मात्रा में उपलब्ध थे तो दोनों ही प्रजाति का मुख्य आहार क्रिल थे। लेकिन लगभग पिछले 50 सालों में, तेज़ी से बदलती जलवायु के चलते समुद्र जल के बढ़ते तापमान और बर्फ-आच्छादन में कमी से क्रिल की संख्या में काफी कमी हुई। तब गेन्टू पेंगुइन ने अपना आहार सिर्फ क्रिल तक सीमित ना रखकर मछली और श्रिम्प को भी आहार में शामिल कर लिया। लिहाज़ा वे फलती-फूलती रहीं। दूसरी ओर, चिनस्ट्रेप पेंगुइन ने अपने आहार में कोई परिवर्तन नहीं किया और विलुप्ति की कगार पर पहुंच गर्इं। शोधकर्ताओं का कहना है कि पेंगुइन का यह व्यवहार दर्शाता है कि विशिष्ट आहार पर निर्भर प्रजातियां जैसे चिनस्ट्रेप पेंगुइन पर्यावरणीय बदलाव के प्रभाव की चपेट में अधिक हैं और अतीत में हुए आखेट और हालिया जलवायु परिवर्तन ने अंटार्कटिक समुद्री खाद्य शृंखला को प्रभावित किया है। पिछले कुछ सालों में व्हेल और सील की आबादी में सुधार देखा गया है और यह देखना रोचक होगा कि इसका पेंगुइन की उक्त दो प्रजातियों पर कैसा असर होता है। (स्रोत फीचर्स) नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://encrypted-tbn0.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcRRwSJ0lSkYHgiyvM8u2JT-MbqHdfaPCZMQcGQvONirdocD_Dd9