उत्तराखंड आपदा पर वाटर कॉनफ्लिक्ट फोरम का वक्तव्य

वॉटर कॉनफ्लिकट फोरम देश में पानी के मुद्दों से सरोकार रखने वाली संस्थाओं और व्यक्तियों के लिए संवाद मंच है। पिछले लगभग 20 वर्षों से यह विभिन्न मुद्दों पर काम करता रहा है। उत्तराखंड की हाल की घटनाओं पर फोरम ने एक वक्तव्य जारी किया है और कई लोगों ने इस पर हस्ताक्षर करके अनुमोदन किया है ।

विगत 7 फरवरी 2021 को उत्तराखंड के ऋषि गंगा और धौली गंगा की घटनाओं ने एक बार फिर इस बात की ओर ध्यान आकर्षित किया है कि हिमालय का पारिस्थितिकी तंत्र बहुत दबाव में है और रोज़-ब-रोज़ दुर्बल होता जा रहा है। जलवायु परिवर्तन और उसके असर अब बहस का विषय नहीं हैं। वर्तमान में इन परिवर्तनों ने हिमालय जैसी नवोदित और बेचैन पर्वत शृंखला को और भी कमज़ोर बना दिया है। हिमालय के अंतर्गत भी हिमनद, हिमनद झीलों, खड़ी घाटियों और विरल वनस्पतियों जैसे स्थान अन्य क्षेत्रों की तुलना में अधिक संवेदनशील हैं। ये इलाके मामूली से मानव हस्तक्षेप से बड़ी आपदा का रूप ले सकते हैं।

निर्मित, निर्माणाधीन या नियोजित बांधों और जलविद्युत परियोजनाओं, बराजों, सुरंगों, चौड़ी सड़कों और यहां तक कि रेल मार्ग जैसे मानव हस्तक्षेप पूरे हिमालय क्षेत्र में फैले हुए हैं। अब तक वर्ष 2012, 2013, 2016 और 2021 की हालियां घटनाएं हमें निरंतर चेतावनी दे रही हैं। इस परिस्थिति में हिमालय क्षेत्र में पहले से हो चुके नुकसान की भरपाई करने के लिए अविलंब निवारक व निर्णायक कदम उठाने होंगे।

7 फरवरी की घटनाओं की सार्वजनिक स्तर पर उपलब्ध जानकारी संकेत देती है कि नदी के मार्ग में निर्मित पनबिजली परियोजनाओं जैसे अवरोधों के चलते ऋषि गंगा घाटी में एक हानिरहित प्राकृतिक घटना ने विनाशकारी रूप ले लिया जिसके चलते जान-माल का काफी नुकसान हुआ। इस दौरान बाढ़ चेतावनी प्रणाली भी विफल रही।

इस घटना के मद्देनज़र, वॉटर कॉनफ्लिक्ट फोरम देश के राजनीतिक और कार्यकारी प्रतिष्ठान से निम्नलिखित मांगें करता है:

1. जान-माल के नुकसान के लिए ज़िम्मेदारों की विभिन्न स्तरों पर स्वतंत्र और निष्पक्ष जांच की जाए; दोषियों के विरुद्ध कार्रवाई की जाए और ऐसे प्रोटोकॉल व प्रक्रियाएं स्थापित की जाएं ताकि भविष्य में ऐसी प्राकृतिक घटनाएं आपदा में न बदलें।

2. दो क्षतिग्रस्त जलविद्युत परियोजनाओं, ऋषि गंगा और तपोवन, को तत्काल रद्द किया जाए और नदी के रास्ते से मलबे को साफ किया जाए।

3. 2014 की उत्तराखंड आपदा के कारणों का विश्लेषण कर चुकी रवि चोपड़ा समिति की सिफारिशों को जल्द से जल्द कार्यान्वित किया जाए और प्राथमिकता के आधार पर उत्तराखंड राज्य में निर्माणाधीन जलविद्युत परियोजनाओं को रद्द किया जाए। यह ध्यान देने वाली बात है कि इस विषय में उच्च स्तरीय न्यायिक और प्रशासनिक संस्थाओं यानी सर्वोच्च न्यायलय और पीएमओ ने इस दिशा में कदम उठाए थे लेकिन अभी तक इन्हें लागू नहीं किया गया है।

4. भविष्य में इस तरह की घटनाओं को रोकने के लिए न सिर्फ उत्तराखंड, बल्कि हिमालय क्षेत्र के सभी राज्यों में मौजूदा बांधों की आपदा संभावना की स्वतंत्र विशेषज्ञ समीक्षा की जाए।

5. हिमालय एक नवीन पर्वत शृंखला है और यदि इसकी भूगर्भीय दुर्बलता और भूकंपीय संवेदनशीलता को अनदेखा किया जाता है तो जलवायु परिवर्तन की घटनाएं इसे नए परिवर्तनों के प्रति और अधिक संवेदनशील बना देंगी। इसलिए पश्चिमी घाट इकोलॉजी एक्सपर्ट पैनल की तर्ज़ पर हिमालय क्षेत्र में वर्तमान विकास कार्यक्रमों और परियोजनाओं की व्यापक समीक्षा के लिए एक स्वतंत्र बहु-विषयी विशेषज्ञ समूह का गठन किया जाना चाहिए जो समयबद्ध तरीके से काम करे। यह समीक्षा परियोजना-आधारित समीक्षा न होकर एक व्यापक, संचयी, क्षेत्रीय समीक्षा होनी चाहिए जो सभी परियोजनाओं (जिसमें सड़क, रेलवे, बांध, सुरंग, पर्यटन केंद्र, कॉलोनी, टाउनशिप और तथाकथित वनरोपण शामिल हों) के संयुक्त प्रभावों के साथ जलवायु परिवर्तन और भूकंपीयता के मौजूदा खतरों को भी ध्यान में रखे।

6. एक सहभागी प्रक्रिया की शुरुआत करते हुए हिमालयी नदियों और स्थानीय लोगों के पारिस्थितिकी तंत्र एवं आजीविका की सुरक्षा के लिए एक वैकल्पिक विकास नीति/रणनीति विकसित की जानी चाहिए। हिमालय क्षेत्र में बेलगाम विकास पर रोक लगानी चाहिए; इसकी बजाय हिमालय क्षेत्र में न्यूनतम मानव हस्तक्षेप के साथ उसे एक प्राकृतिक विरासत के रूप में संरक्षित किया जाना चाहिए। साथ ही जैविक और जैव-विविधता आधारित कृषि, टिकाऊ पशुपालन, विकेंद्रीकृत जल प्रणाली, स्थानीय वन और जैव-र्इंधन आधारित विनिर्माण, शिल्प और समुदाय द्वारा संचालित पारिस्थितिकी पर्यटन को बढ़ावा देना चाहिए। इसमें पारिस्थितिक रूप से हानिकारक कृषि, जन पर्यटन आदि जैसे कार्यों को हतोत्साहित करना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र में फेरबदल प्राचीन वृक्ष में कैद

न्यूज़ीलैंड में 42,000 साल पुराने एक कौरी वृक्ष के तने ने पृथ्वी के चुंबकीय इतिहास की चुगली कर दी है। दरअसल, कुछ साल पहले बिजली संयंत्र के लिए खुदाई के दौरान प्राचीन समय के कौरी पेड़ का 60 टन वज़नी तना मिला था। यह न्यूज़ीलैंड में पाई जाने वाली पेड़ों की सबसे बड़ी प्रजाति का था। 42,000 साल पहले उगा यह पेड़ दलदल में परिरक्षित हो गया था। हालिया अध्ययन में इसकी वार्षिक वलयों ने 1700 साल का इतिहास बताया है – उस समय पृथ्वी के चुंबकीय ध्रुव पलट गए थे।

साइंस पत्रिका में प्रकाशित शोध पत्र के अनुसार कौरी पेड़ के तने और अन्य लकड़ियों में रेडियोकार्बन का स्तर बताता है कि उन वर्षों में पृथ्वी का सुरक्षात्मक चुंबकीय क्षेत्र कमज़ोर होने और चुंबकीय ध्रुवों की स्थिति पलटने के कारण अंतरिक्ष से पृथ्वी पर पहुंचने वाले विकिरण में अचानक बढ़ोतरी हुई थी। वायुमंडल पर इस विकिरण के प्रभाव की मॉडलिंग करने पर शोधकर्ताओं ने पाया कि इस प्रभाव के चलते पृथ्वी को जलवायु परिवर्तन का सामना करना पड़ा था, जो संभवत: ऑस्ट्रेलिया के बड़े स्तनधारी जीवों और युरोप के निएंडरथल मनुष्यों के विलुप्त होने का कारण बना।

पृथ्वी का चुंबकीय क्षेत्र पृथ्वी के बाहरी कोर में पिघले हुए लोहे के प्रवाह से बनता है। इस प्रवाह में बेतरतीब बदलाव पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र को कमज़ोर कर सकता है और उसके ध्रुवों की स्थिति को बदल सकता है; कभी-कभी तो स्थिति पूरी तरह पलट भी सकती है।

चट्टानों में उपस्थित खनिज में ध्रुवों में लंबे समय के लिए हुई उथल-पुथल तो दर्ज हो जाती है लेकिन वे कम अवधि के लिए हुए परिवर्तनों को बारीकी से दर्ज नहीं कर पाते। जैसे कि इस अध्ययन में 42,000 साल पुराने कौरी वृक्ष के तने में देखे गए हैं।

रेडियोधर्मी कार्बन-14 की मदद से इन सूक्ष्म परिवर्तनों को पहचाना जा सकता है। जब ब्रह्मण्डीय किरणें ग्रह के चुंबकीय क्षेत्र को भेदती हुई उसके वायुमंडल में प्रवेश करती हैं तो कार्बन के इस समस्थानिक का निर्माण होता है। इसे सजीव ग्रहण कर लेते हैं। इस समस्थानिक की अर्ध-आयु निश्चित है। यानी यह तय है कि कितने समय में कुल कार्बन-14 का आधा हिस्सा अन्य परमाणुओं में बदल जाएगा। अत: कार्बन-14 के मापन से किसी वस्तु की उम्र निर्धारित की जा सकती है। शोधकर्ताओं ने रेडियोकार्बन डेटिंग की मदद से कौरी तने का काल निर्धारण किया, और इसकी तुलना उन्होंने चीन की गुफा से प्राप्त सटीक रेडियोकार्बन जानकारी के साथ की। तने की अलग-अलग वलयों में कार्बन-14 के अंतर के आधार पर उन्होंने गणना की कि कैसे 40-40 वर्ष की अवधि में चुंबकीय क्षेत्र की तीव्रता कम-ज़्यादा होती रही।

रेडियोकार्बन की मात्रा में वृद्धियां दर्शाती हैं कि वर्तमान की तुलना में 41,500 साल पहले चुंबकीय क्षेत्र की शक्ति में छह प्रतिशत की कमी आई थी। फिर पृथ्वी के चुंबकीय ध्रुव पलट गए थे और चुंबकीय क्षेत्र की तीव्रता कुछ हद तक बहाल हो गई थी। 500 साल बाद ध्रुव एक बार फिर पलटे थे।

शोधकर्ता बताते हैं कि न सिर्फ पृथ्वी का चुंबकीय रक्षा कवच कमज़ोर पड़ा था बल्कि सूर्य में भी परिवर्तन हुए थे। हिम खण्ड से प्राप्त साक्ष्य बताते हैं कि इसी समय के आसपास, सूर्य की चुंबकीय गतिविधियों में कमी आई थी। परिणामस्वरूप आने वाली ब्रह्मण्डीय किरणों ने पृथ्वी के वातावरण को इतना आयनित कर दिया होगा कि वह आजकल की बिजली लाइनों को ध्वस्त कर देता।

इस संभावना की जांच के लिए शोधकर्ताओं ने एक जलवायु मॉडल बनाया, जिसने यह संभावना जताई कि ब्रह्मण्डीय किरणों की बौछार ने ओज़ोन परत को क्षति पहुंचाई होगी, जिससे पराबैंगनी किरणों की ऊष्मा अवशोषित करने की क्षमता कम हो गई होगी। परिणामस्वरूप ऊंचे स्थान ठंडे होने लगे होंगे, और हवाओं के बहने की दिशा बदल गई होगी। इस कारण पृथ्वी की जलवायु में कई बड़े परिवर्तन हुए होंगे; इनमें से एक परिवर्तन था कि उत्तरी अमेरिका अपेक्षाकृत ठंडा हुआ और युरोप गर्म।

इन व्यापक निष्कर्षों पर अन्य वैज्ञानिक संदेह जताते हैं। ग्रीनलैंड और अंटार्कटिका के पिछले 1,00,000 वर्ष पुराने हिम खण्डों से प्राप्त जानकारी बताती है कि प्रत्येक कुछ हज़ार वर्षों के अंतराल पर तापमान में बदलाव होता था। लेकिन इनमें 42,000 साल पूर्व कोई बदलाव पता नहीं चला है।

अध्ययन के शोधकर्ताओं का कहना कि उनके अध्ययन से लगता है कि 42,000 साल पहले जलवायु परिवर्तन से सम्बंधित कई घटनाएं हुई होंगी। जैसे उस समय ऑस्ट्रेलिया से बड़े स्तनधारी जीव विलुप्त हो गए, निएंडरथल युरोप से गायब हो गए, और युरोप और एशिया में बड़े स्तर पर गुफा चित्र दिखाई देने लगे। बहरहाल अन्य शोधकर्ता मानते हैं कि उपरोक्त अध्ययन के आंकड़ों को बहुत खींचा जा रहा है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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पृथ्वी के नए भूगोल के अनुमान

तीत में कोलंबिया, रोडिनिया, पैंजिया जैसे सुपर-महाद्वीप पृथ्वी पर बने और बिखर गए। हाल ही में हुआ एक अध्ययन बताता है कि सुपर-महाद्वीप बनने का एक नियमित चक्र चलता रहता है, जो 60 करोड़ वर्ष में पूरा होता है। पृथ्वी के मेंटल में गर्म पिघली चट्टानों के प्रवाह के आधार पर यह अनुमान भी लगाया गया है कि पृथ्वी पर अगला सुपर-महाद्वीप कब और कहां बनेगा।

हमारे महाद्वीप टेक्टॉनिक प्लेटों पर स्थित हैं, और ये टेक्टॉनिक प्लेटें पृथ्वी के मेंटल पर तैरती रहती हैं। मेंटल पानी उबालने वाले बर्तन की तरह कार्य करता है: पृथ्वी का गर्म पिघला कोर मेंटल के निचले हिस्से में मौजूद चट्टानों को गर्म करता है, जिससे वे धीरे-धीरे ऊपर उठने लगती हैं। इसी दौरान, धंसान क्षेत्र में पृथ्वी की भूपर्पटी के निचले हिस्से में मौजूद ठंडी चट्टानें मेंटल के निचले हिस्से की ओर जाने लगती हैं। चट्टानों के इस चक्रीय प्रवाह को मेंटल संवहन कहते हैं।

मेंटल संवहन महाद्वीपीय प्लेटों के प्रवाह को गति और दिशा देता है, जिससे लाखों-करोड़ों वर्षों में उनका स्थान बदलता रहता है। इस दौरान कभी-कभी ये महाद्वीप आपस में जुड़कर सुपर-महाद्वीप बनाते हैं।

सुपर-महाद्वीप चक्र के बारे में अधिक जानने के लिए चाइनीज़ एकेडमी ऑफ साइंसेज़ के भूवैज्ञानिक रॉस मिशेल और उनके साथियों ने ‘मेगा-महाद्वीपों’ पर ध्यान केंद्रित किया। मेगा-महाद्वीप सुपर-महाद्वीप से छोटे होते हैं और कभी उनका हिस्सा रहे होते हैं। जैसे गोंडवाना मेगा-महाद्वीप जो लगभग 52 करोड़ साल पहले बना था, और इसके 20 करोड़ वर्ष बाद इसी से पैंजिया सुपर-महाद्वीप बनने की शुरुआत हुई थी।

गोंडवाना से पैंजिया कैसे बना, यह जानने के लिए शोधकर्ताओं ने जीवाश्मों और विभिन्न काल के उपलब्ध अन्य प्रमाणों के आधार पर विभिन्न काल में महाद्वीपीय प्लेटों की स्थिति को चित्रित किया, और पता लगाया कि महाद्वीपों की स्थितियां मेंटल प्रवाह के विभिन्न मॉडल्स से किस तरह मेल खाती हैं।

पाया गया कि महाद्वीप का प्रवाह धंसान क्षेत्र की ओर बहाव की दिशा में था – इस क्षेत्र में मेंटल के ऊपरी हिस्से में मौजूद चट्टानें ठंडी होकर नीचे की ओर खिसकती हैं। लेकिन यहां मिशेल इस क्षेत्र को ‘धंसान घेरा’ कहते हैं क्योंकि महाद्वीपीय प्लेटें बहुत मोटी होती हैं जो नीचे नहीं जा पातीं और इसलिए इस क्षेत्र में जाकर ‘अटक’ जाती है। वे केवल इस घेरे की परिधि से लगकर घूम सकती हैं और इस प्रक्रिया में अन्य महाद्वीपों से जुड़ सकती हैं। इस तरह गोंडवाना से पैंजिया बना।

शोधकर्ता यह भी बताते हैं कि अब आगे क्या होगा। जियोलॉजी पत्रिका में प्रकाशित उनके निष्कर्षों के अनुसार जब पैंजिया लगभग 17.5 करोड़ साल पहले टूटा तो प्रशांत महासागर के तटीय इलाकों के पास इसने रिंग ऑफ फायर नामक धंसान क्षेत्र का निर्माण किया, जहां ज्वालामुखी विस्फोट और भूकंप जैसी घटनाएं होती रहती हैं। वर्तमान मेगा-महाद्वीप – युरेशिया – को बनाने वाले कई महाद्वीप पहले ही जुड़ चुके हैं। और युरेशिया रिंग ऑफ फायर के विपरीत दिशा में जा रहा है। इस तरह बहते-बहते 5-20 करोड़ वर्ष बाद युरेशिया अमेरिका से टकराएगा, जो एक नए सुपर-महाद्वीप को जन्म देगा। भूवैज्ञानिकों ने इस अगले सुपर-महाद्वीप को ‘अमेशिया’ नाम दिया है। इस बात पर बहस जारी है कि अमेशिया कहां जाकर रुकेगा, लेकिन मिशेल के मॉडल के अनुसार संभवत: यह वर्तमान के आर्कटिक महासागर के केंद्र में होगा। (स्रोत फीचर्स)

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मैडागास्कर के विशालकाय जीव कैसे खत्म हो गए

क समय मैडागास्कर में एलीफैंट बर्ड, विशाल कछुए और यहां तक कि विशालकाय लीमर रहा करते थे। लेकिन आज इस क्षेत्र में सिर्फ छोटे जीव ही पाए जाते हैं। शोधकर्ताओं के बीच इस बात को लेकर काफी बहस होती रही है कि दोष मनुष्यों का है या जलवायु परिवर्तन का। लेकिन हाल ही में हिंद महासागर के एक द्वीप की गुफाओं से प्राप्त तलछट से इसके जवाब के संकेत मिले हैं: सूखे की परिस्थितियों ने विशालकाय जीवों के लिए जीवन काफी कठिन ज़रूर बना दिया था लेकिन एलीफैंट बर्ड के ताबूत में आखरी कील तो मनुष्यों ने ही ठोंकी है।    

अफ्रीका के दक्षिण-पूर्वी तट से 425 किलोमीटर दूर मैडागास्कर मनुष्यों द्वारा बसाया गया सबसे आखिरी स्थान माना जाता था। लेकिन दो वर्ष पहले शोधकर्ताओं को 10,500 वर्ष पुरानी हाथियों की हड्डियां मिलीं हैं जिनकी हत्या की गई थी। यह इस बात का संकेत है कि मनुष्य और विशालकाय जीव हज़ारों वर्षों साथ-साथ रहे थे लेकिन ये विशाल जीव लगभग 1500 वर्ष पहले विलुप्त हो गए।

इस क्षेत्र की जलवायु का इतिहास समझने के लिए शियान जियाटोंग युनिवर्सिटी के भू-वैज्ञानिक हई चेंग और उनके स्नातक छात्र हांग्लिंग ली ने मैडागास्कर से 1600 किलोमीटर दूर स्थित एक छोटे टापू रॉड्रिग्स पर गुफाओं का रुख किया। यह टापू काफी दूर और अलग-थलग स्थित है, जिसकी वजह से यह प्राचीन जलवायु की जानकारी एकत्रित करने के लिए बढ़िया स्थान था। मानव गतिविधियां न होने से अभी भी यहां स्टैलैक्टाइट तथा स्टैलैग्माइट सलामत थे।

सबसे पहले शोधकर्ताओं ने तलछट के खंडों का काल निर्धारण किया। कई जगहों पर तो वे पिछले 8000 वर्षों के लिए दशक-दशक तक की परिशुद्धता से काल निर्धारण कर पाए। इसके बाद उन्होंने परत-दर-परत ऑक्सीजन और कार्बन के भारी समस्थानिकों तथा सूक्ष्म मात्रा में पाए गए तत्वों का विश्लेषण किया जिससे अतीत में जलवायु में नमी के स्तर का पता लगाया जा सके। साइंस एडवांसेस में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार दक्षिण-पश्चिमी हिंद महासागर ने इस दौरान चार बड़े सूखों का सामना किया था। इनमें से सूखे की एक घटना 1500 वर्ष पूर्व बड़े स्तर पर विलुप्तिकरण की घटना के साथ भी मेल खाती है। चेंग का मानना है कि इसके पूर्व में होने वाली सूखे की घटनाओं से भी ये जीव बच निकले थे। इससे ऐसा लगता है कि मनुष्यों द्वारा अत्यधिक शिकार और आवास स्थल नष्ट करना निर्णायक रहा।

इस अध्ययन से अन्य शोधकर्ताओं को मैडागास्कर और आसपास के क्षेत्र में हो रहे परिवर्तनों के बारे में स्पष्ट जानकारी प्राप्त हुई है। लेकिन अध्ययन मात्र एक छोटे टापू पर किया गया है जबकि यह क्षेत्र काफी विशाल है और यहां अलग-अलग भौगोलिक स्थितियों के अलावा अलग-अलग मानव सभ्यताएं भी मौजूद रही होंगी। ऐसे में विभिन्न स्थानों में विलुप्त होने की परिस्थितियां भी काफी अलग-अलग हो सकती हैं।(स्रोत फीचर्स)

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मछली के जीवाश्म से दुर्लभ मृदा तत्वों का खनन

श्चिमी प्रशांत महासागर और जापान के पूर्वी क्षेत्र में मिनामि-तोरी-शिमा नाम का एक छोटा-सा टापू है। यह तिकोना टापू केवल सवा तीन वर्ग कि.मी. में फैला है और आसपास एक अजीब दीवार के कारण इसका अधिकांश भाग समुद्र तल से भी नीचे है। और तो और, यह निकटतम भूमि से भी हज़ार किलोमीटर दूर है। लेकिन यह महत्वपूर्ण हो चला है क्योंकि यहां दुर्लभ मृदा तत्वों यानी रेयर अर्थ एलीमेंट्स का भंडार है।

यह भी उतना ही मज़ेदार है कि उक्त भंडार कहां स्थित है। दुर्लभ मृदा तत्व न तो इस टापू पर हैं और न ही टापू के अंदर दफन हैं। दरअसल यह टापू एक जलमग्न पर्वत पर स्थित है और यह भंडार उस पर्वत के दक्षिण में मछलियों के दांतों, शल्कों और हड्डियों के टुकड़ों पर जमा है। वास्तव में मछलियों के जीवाश्म दुर्लभ मृदा तत्वों को फांसने वाले ‘जाल’ हैं। जापानी वैज्ञानिकों के अनुसार ये ‘जाल’ इतने सक्षम हैं कि इस टापू के दक्षिण में 2500 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र की मिट्टी दुर्लभ मृदा तत्वों का इतना बड़ा भंडार है कि उससे सैकड़ों वर्षों तक दुनिया की ज़रूरतों की आपूर्ति हो सकती है।

तो यह जानना भी महत्वपूर्ण है कि ये कौन से दुर्लभ मृदा तत्व हैं और इनकी हमें क्यों आवश्यकता है?             

आज के प्रौद्योगिकी युग में ये दुर्लभ मृदा तत्व कई मशीनों के लिए काफी महत्वपूर्ण हैं। इन तत्वों का नवीकरणीय ऊर्जा के उत्पादन, टीवी, स्मार्टफोन, एलईडी, आधुनिक दौर के विद्युत-र्इंधन संकर वाहनों, चिकित्सकीय और सैन्य तकनीकों में व्यापक उपयोग किया जा रहा है। ऐसे में इनकी खपत काफी बढ़ गई है। संयोग से इन तत्वों की अधिकांश खदानें चीन में हैं। देखा जाए, तो ये तत्व मात्रा के लिहाज़ से दुर्लभ नहीं हैं लेकिन इन तत्वों के खनन योग्य भंडार काफी दुर्लभ हैं।

साइंटिफिक रिपोर्ट्स में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार जापानी वैज्ञानिक फिलहाल मिनामि-तोरी-शिमा और दक्षिण प्रशांत में इसी तरह के एक स्थल मनिहिकी पठार के दक्षिण पूर्व में मत्स्य जीवाश्मों का अध्ययन कर रहे थे ताकि यह पता किया जा सके कि ये कितने पुराने हैं। साथ ही ऐसे जीवाश्मों के अन्य स्थलों की भी तलाश कर रहे थे। पता चला कि ये जीवाश्म लगभग 3.4 करोड़ वर्ष पुराने हैं और मिनामि-तोरी-शिमा पर इनकी उपस्थिति हिमयुग के दौरान निर्मित अंटार्कटिक बर्फीली चादर का परिणाम है।

अंटार्कटिक के नीचे वाला पानी ठंडा रहा और इसी वजह से अधिक सघन रहा। यह गर्म तथा कम सघन वाले पानी के नीचे-नीचे उत्तर की ओर बहने लगा। यह निचला पानी अपेक्षाकृत सुस्त दक्षिणी समुद्र में हज़ारों वर्षों तक पोषक तत्वों को संग्रहित करता रहा था और काफी लंबे समय के बाद उभरकर ऊपर आया। ऊपर से धूप मिली तो जीवन फलने-फूलने लगा। यह प्रक्रिया लगभग एक लाख वर्ष तक चलती रही जब तक कि अंटार्कटिका के आसपास संग्रहित पोषक तत्व खत्म नहीं हो गए। अंतत: जो बचा वे थे दांत, हड्डियों के टुकड़े और शल्क जो पेंदे में जमा हो गए।

हड्डियां कैल्शियम और फॉस्फेट से बनी होती हैं, और लगता है जीवाश्मित फॉस्फेट दुर्लभ मृदा तत्वों को काफी अच्छे से बांध पाता है। इस अध्ययन के सह-लेखक जुनिचिरो ओह्टा के अनुसार पिछले 3.4 करोड़ वर्षों में जीवाश्म ने धीरे-धीरे मिट्टी में फंसे तरल पदार्थ से यिट्रियम, युरोपियम, टर्बीयम और डिस्प्रोसियम को अच्छे से जमा किया है। हड्डियों के टुकड़े हो जाने की वजह से सतह के बढ़े हुए क्षेत्रफल ने इस क्षमता को और बढ़ाया है। इसके परिणामस्वरूप यहां की मिट्टी में 20,000 पीपीएम तक दुर्लभ मृद्दा तत्व उपस्थित हैं। यही कारण है कि मिनामि-तोरी-शिमा इतना खास है।

जापानी वैज्ञानिकों की टीम के अनुसार मिनामि-तोरी-शिमा के दक्षिण में 1.6 करोड़ टन के दुर्लभ मृदा ऑक्साइड्स मौजूद हैं जो वर्तमान उपभोग की दर के हिसाब से 420 से 780 वर्षों तक की आपूर्ति के लिए पर्याप्त हैं। और सिर्फ मिनामि-तोरी-शिमा और मानिहिकी पठार ही नहीं बल्कि प्रशांत महासागर में ऐसे सैकड़ों टापू हैं जहां दुर्लभ मृदा तत्वों के मिलने की संभावना है।                   

ऐसा अनुमान है कि विभिन्न दुर्लभ मृदा तत्वों की आपूर्ति में वृद्धि होने से ऐसे उपकरणों का निर्माण किया जा सकेगा जो जीवाश्म र्इंधन से छुटकारा दिला सकते हैं। इन्हें आसानी से प्राप्त भी किया जा सकता है। कीचड़ में पाए जाने के कारण इनमें युरेनियम और थोरियम जैसे रेडियोधर्मी तत्वों का स्तर भी कम होगा। लेकिन एक समस्या भी है – जीवाश्म तीन मील से अधिक गहराई पर मौजूद हैं, जहां अब तक का कोई भी व्यावसायिक खनन कार्य लाभदायक नहीं हो पाया है। महासागरों में गहराई पर खनन से पर्यावरण को काफी क्षति की भी आशंका है।     

ट्रेंड्स इन इकोलॉजी एंड इवॉल्यूशन में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार पर्यावरणीय असंतुलन को कम आंका जा रहा है। इसके जवाब में कहा जा रहा है कि यह क्षेत्र बहुत छोटा है, और खनन से मिलने वाले फायदे पर्यावरणीय लागत से कहीं अधिक हैं। कुल मिलाकर, चाहे धरती पर हो या समुद्रों में, खनन को लेकर विवेकपूर्ण निर्णयों की ज़रूरत है। (स्रोत फीचर्स)

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पृथ्वी के डिजिटल जुड़वां से मौसम का पूर्वानुमान

न दिनों युरोपीय संघ पृथ्वी का ‘डिजिटल जुड़वां’ तैयार करने की योजना पर काम कर रहा है। पृथ्वी के इस डिजिटल मॉडल की मदद से वायुमंडल, महासागर, बर्फ और धरती की सटीक अनुकृति बनाकर बाढ़, सूखा या जंगलों की आग जैसी आपदाओं का समय रहते पता लगाया जा सकेगा। डेस्टिनेशन अर्थ नामक इस प्रयास में मानव व्यवहार का भी विश्लेषण किया जाएगा ताकि जलवायु सम्बंधी नीतियों के समाज पर असर का आकलन किया जा सके। इस परियोजना के बारे में जल्दी विस्तृत विवरण प्रस्तुत किया जाएगा और अगले साल तीन सुपरकंप्यूटर की मदद से फिनलैंड, इटली और स्पेन में शुरू किया जाएगा। 

डेस्टिनेशन अर्थ वास्तव में युरोपियन सेंटर फॉर मीडियम रेंज वेदर फोरकास्ट (ECMWF) के एक अनुसंधान कार्यक्रम ‘एक्स्ट्रीम अर्थ’ के रद्द होने के बाद शुरू हुआ था। गौरतलब है कि युरोपीय संघ ने इस प्रमुख कार्यक्रम को रद्द तो किया लेकिन इस विचार में रुचि बनाए रखी। इस बीच युरोप ने हाई-परफॉरमेंस कंप्यूटिंग में 8 अरब युरो का निवेश किया और ऐसी मशीनों का निर्माण किया जो प्रति सेकंड एक अरब-अरब गणनाएं करने में सक्षम हैं।

वर्तमान में उपयोग किए जाने वाले सबसे सक्षम जलवायु मॉडल 9 किलोमीटर के विभेदन पर काम करते हैं। नया मॉडल केवल 1 किलोमीटर विभेदन पर काम कर सकता है। इसलिए इस मॉडल में एक स्थान के आंकड़ों के आधार पर बड़े क्षेत्र के लिए एल्गोरिदम की मदद से अनुमान पर निर्भर नहीं रहना होगा। इसकी बजाय यह ऊष्मा के वास्तविक संवहन के आंकड़ों पर काम करेगा जो बादलों और तूफानों के निर्माण में महत्वपूर्ण होते हैं। इसके अलवा यह मॉडल बहुत बारीकी से महासागरों में बनने वाले भंवरों का विश्लेषण कर सकता है जो गर्मी और कार्बन का परिवहन करते हैं। जापान में 1 किलोमीटर के जलवायु मॉडल से तूफानों और भंवरों को सिमुलेट करके अल्पकालिक बारिश का पता लगाया जाता है, जो वर्तमान मॉडलों से संभव नहीं था।

डेस्टिनेशन अर्थ में विस्तृत डैटा के आधार पर पूर्वानुमान लगाए जा सकते हैं। इसके साथ ही मौसम और जलवायु से जुड़ी अन्य घटनाओं, जैसे वातावरण में प्रदूषण, फसलों की वृद्धि, जंगलों की आग आदि का पता लगाया जा सकता है। इन सभी जानकारियों से नीति निर्माताओं को यह अंदाज़ लग सकता है कि भविष्य में जलवायु परिवर्तन किस तरह से मानव समाज को प्रभावित करेगा।         

फिर भी सटीक अनुमान लगाना इतना आसान नहीं होगा। इस मॉडल के सुपरकंप्यूटर पारंपरिक कंप्यूटर चिप्स के साथ-साथ ग्राफिकल प्रोसेसिंग युनिट्स (जीपीयू) का उपयोग करते हैं जो जटिल गणना करने में सक्षम हैं। जीपीयू मॉडल के घटकों को चलाने के साथ-साथ कृत्रिम बुद्धि के एल्गोरिदम भी विकसित करते जाते हैं। ऐसे में पुराने जलवायु मॉडलों के साथ इसका तालमेल बैठा पाना थोड़ा मुश्किल होगा। इसके साथ ही इस मॉडल से प्राप्त होने वाला डैटा भी एक बड़ी समस्या होगी। जापानी टीम ने प्रयोग के लिए 1 किलोमीटर मॉडल को चलाया था तब उनको डैटा से लाभदायक जानकारी हासिल करने में लगभग छ: माह का समय लग गया था।

इस मॉडल को और अधिक विकसित करने की आवश्यकता है। उम्मीद है कि इस मॉडल की मदद से भविष्य में लंबे समय के पूर्वानुमान न सही, कुछ हफ्तों और महीनों के पूर्वानुमान लगा पाना संभव होगा।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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पृथ्वी पर इतना पानी कहां से आया?

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पृथ्वी पर जा-ब-जा मौजूद पानी जीवन के लिए अनिवार्य भी है और वैज्ञानिकों की चिंता का मसला भी कि पृथ्वी पर इतना पानी आया कहां से। क्या पानी पृथ्वी के बनने के समय से मौजूद है, या पृथ्वी सूखी बनी थी और पानी से समृद्ध किसी बाहरी पिंड/पिंडों के टकराने के बाद पृथ्वी पर पानी आया? और अब साइंस पत्रिका में प्रकाशित एक नया अध्ययन यह संभावना जताता है कि पृथ्वी पर पानी यहीं उपस्थित मूल निर्माणकारी पदार्थों से आया है।

कई वैज्ञानिक मानते आए हैं कि पृथ्वी पर पानी बर्फीली उल्काओं या धूमकेतुओं जैसे बाहरी पिंडों के पृथ्वी से टकराने के साथ आया होगा। लेकिन कुछ ग्रह विज्ञानी ऐसा नहीं मानते।

इसलिए फ्रांस के शैल व भू-रसायन विज्ञान केंद्र की लॉरेट पियानी और उनके साथियों ने 13 दुर्लभ उल्काओं का बारीकी से अध्ययन किया और उनमें पानी की मौजूदगी के संकेत तलाशे। अध्ययन के लिए शोधर्ताओं ने ऐसी उल्काओं को चुना जिनमें पृथ्वी पर गिरने के बाद परिवर्तन नहीं हुए थे। चूंकि हाइड्रोजन-ऑक्सीजन की अभिक्रिया से पानी बनता है इसलिए शोधकर्ताओं ने इन उल्काओं में हाइड्रोजन की मात्रा पता की। जितनी अधिक हाइड्रोजन इन पदार्थों में होगी, उतना अधिक योगदान ये पृथ्वी के पानी में दे सकते हैं।

अध्ययन में शोधकर्ताओं को सामान्य उल्काओं की तुलना में इन उल्काओं में बहुत कम हाइड्रोजन मिली।

इसलिए इसके बाद शोधकर्ताओं ने उल्कापिंडों में ड्यूटेरियम-हाइड्रोजन का अनुपात पता किया। गौरतलब है कि ड्यूटेरियम हाइड्रोजन का ही एक भारी समस्थानिक है। उन्होंने पाया कि यह अनुपात पृथ्वी के आंतरिक भाग के ड्यूटेरियम-हाइड्रोजन अनुपात के समान है, जिसमें बहुत अधिक पानी मौजूद है। इस अतिरिक्त प्रमाण से शोधकर्ताओं को लगता है कि पृथ्वी पर मौजूद पानी और पृथ्वी के निर्माणकारी पदार्थों के बीच कुछ सम्बंध है।

इस अध्ययन पर नासा के जॉनसन स्पेस सेंटर की ग्रह विज्ञानी एनी पेसलीयर खुशी जताती हैं और कहती हैं कि यह मॉडल समझना आसान लगता है कि पृथ्वी पर पानी शुरुआत से ही है बजाय किसी बाहरी पिंड की मेहरबानी से। यदि हम मानते हैं कि पृथ्वी पर पानी किसी बाहरी पिंड से आया है तो इतने अधिक पानी के लिए किसी असामान्य घटना की ज़रूरत होगी। वे यह भी कहती हैं कि हो सकता है कि बहुत सारा पानी शुरुआत से मौजूद हो और कुछ पानी बाद में आया हो।

बहरहाल पानी से जुड़े कई रहस्य अनसुलझे हैं। जैसे अब भी यह पता लगाया जा रहा है कि पृथ्वी के अंदर कितना पानी मौजूद है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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जंगल कटाई और महामारी की संभावना

काफी समय से इकॉलॉजीविदों को आशंका रही है कि मनुष्यों द्वारा जंगल काटे जाने और सड़कों आदि के निर्माण से जैव विविधता में आई कमी के चलते कोविड-19 जैसी महामारियों का जोखिम बढ़ जाता है। हाल के एक अध्ययन से पता चला है कि जैसे-जैसे कुछ प्रजातियां विलुप्त हो रही हैं, जीवित रहने वाली प्रजातियों, जैसे चमगादड़ और चूहे, में ऐसे घातक रोगजनकों की मेज़बानी करने की संभावना बढ़ रही है जो मनुष्यों में छलांग लगा सकते हैं। गौरतलब है कि 6 महाद्वीपों पर लगभग 6800 पारिस्थितिक समुदायों पर किए गए विश्लेषण से सबूत मिले हैं कि जैव विविधता में ह्रास और बीमारियों के प्रकोप में सम्बंध है लेकिन आने वाली महामारियों के बारे में कुछ नहीं कहा गया है।

युनिवर्सिटी कॉलेज लंदन के इकोलॉजिकल मॉडलर केट जोन्स और उनके सहयोगी काफी समय से जैव विविधता, भूमि उपयोग और उभरते हुए संक्रामक रोगों के बीच सम्बंधों पर काम कर रहे हैं और ऐसे खतरों की चेतावनी भी दे रहे हैं लेकिन हालिया कोविड-19 प्रकोप के बाद से उनके अध्ययन को महत्व मिल पाया है। अब इसकी मदद से विश्व भर के समुदायों में महामारी के जोखिम और ऐसे क्षेत्रों का पता लगाया जा रहा है जहां भविष्य में महामारी उभरने की संभावना हो सकती है।

इंटरगवर्मेंटल साइंस-पॉलिसी प्लेटफॉर्म ऑन बायोडायवर्सिटी एंड इकोसिस्टम सर्विसेज़ (आईपीबीईएस) ने इस विषय पर एक ऑनलाइन कार्यशाला आयोजित की है ताकि निष्कर्ष सितंबर में होने वाले संयुक्त राष्ट्र शिखर सम्मलेन में प्रस्तुत किए जा सकें। कुछ वैज्ञानिकों, अर्थशास्त्रियों, वायरस विज्ञानियों और पारिस्थितिक विज्ञानियों के समूह भी सरकारों से वनों की कटाई तथा वन्य जीवों के व्यापार पर नियंत्रण की मांग कर रहे हैं ताकि महामारियों के जोखिम को कम किया जा सके। उनका कहना है कि मात्र इस व्यापार पर प्रतिबंध लगाने से काम नहीं बनेगा बल्कि उन परिस्थितियों को भी बदलना होगा जो लोगों को जंगल काटने व वन्य जीवों का शिकार करने पर मजबूर करती हैं। 

जोन्स और अन्य लोगों द्वारा किए गए अध्ययन कई मामलों में इस बात की पुष्टि करते हैं कि जैव विविधता में कमी के परिणामस्वरूप कुछ प्रजातियों ने बड़े पैमाने पर अन्य प्रजातियों का स्थान ले लिया है। ये वे प्रजातियां हैं जो ऐसे रोगजनकों की मेज़बानी करती हैं जो मनुष्यों में फैल सकते हैं। नवीनतम विश्लेषण में जंगलों से लेकर शहरों तक फैले 32 लाख से अधिक पारिस्थितिक अध्ययनों के विश्लेषण से उन्होंने पाया कि वन क्षेत्र के शहरी क्षेत्र में परिवर्तित होने तथा जैव विविधता में कमी होने से मनुष्यों में रोग प्रसारित करने वाले 143 स्तनधारी जीवों की तादाद बढ़ी है।     

इसके साथ ही जोन्स की टीम मानव आबादी में रोग संचरण की संभावना पर भी काम कर रही है। उन्होंने पहले भी अफ्रीका में एबोला वायरस के प्रकोप के लिए इस प्रकार का मूल्यांकन किया है। इसके लिए विकास के रुझानों, संभावित रोग फैलाने वाली प्रजातियों की उपस्थिति और सामाजिक-आर्थिक कारकों के आधार पर कुछ रिस्क मैप तैयार किए हैं जो किसी क्षेत्र में वायरस के फैलने की गति को निर्धारित करते हैं। पिछले कुछ वर्षों में टीम ने कांगो के विभिन्न क्षेत्रों में होने वाले प्रकोपों का सटीक अनुमान लगाया था। इससे यह स्पष्ट होता है कि भूमि उपयोग, पारिस्थितिकी, जलवायु, और जैव विविधता जैसे कारकों के बीच सम्बंध स्थापित कर भविष्य के खतरों का पता लगाया जा सकता है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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महामारी और गणित – दीपक थानवी

कोरोना वायरस महामारी से पूरा विश्व प्रभावित हो चुका है। इस अभूतपूर्व आपदा से निपटने के लिए प्रत्येक व्यक्ति अपना योगदान दे रहा है। स्वास्थ्यकर्मियों, प्रशासनिक अधिकारियों व कर्मचारियों से लेकर घर में बंद सामान्य व्यक्ति तक। गैर-सरकारी संस्थाएं और समाजसेवी भी अपने स्तर पर नागरिकों की सेवा कर रहे हैं। दूसरी ओर वैज्ञानिक और प्रौद्योगिकी संस्थाएं इस महामारी को समझने की कोशिश कर रही हैं। वे परीक्षण करने की मानक विधि को लगातार विकसित कर रही हैं और मरीज़ों के उपचार के लिए दवा-टीके की खोज भी कर रही हैं।

अभी एक महत्त्वपूर्ण काम महामारी से प्रभावित होने वाले भविष्य का विश्लेषण करना है। और यह संभव हो पाता है गणित की मदद से। इतिहास गवाह है कि आपदाओं से निपटने में गणित ने एक साधन की भूमिका निभाई है। गणितीय सिद्धान्तों को कंप्यूटर मॉडल में उपयोग किया जाता है। फिर कंप्यूटर मॉडल इन सिद्धान्तों की सहायता से डैटा पर कार्य करता है और परिणाम देता है। इन मॉडल्स को गणितीय मॉडल्स भी कहा जाता है।

वैज्ञानिक अलग-अलग समस्याओं के लिए अलग-अलग गणितीय मॉडल्स का उपयोग करते हैं। इन गणितीय मॉडल्स का उपयोग महामारी से सम्बंधित जानकारी पता करने के लिए होता है। जैसे – किसी देश, क्षेत्र या शहर में महामारी से संक्रमित होने वाले मरीज़ों की संख्या कितनी हो सकती है? बदतर स्थिति में कितने आईसीयू बिस्तर और वेंटिलेटर की ज़रूरत पड़ सकती है? और कब हमारा स्वास्थ्य-तंत्र नाकाम होने लगेगा?

कोरोना वायरस महामारी से संक्रमित मरीज़ों की संख्या बहुत ही तेज़ी से बढ़ रही है। सभी देश संक्रमण की वृद्धि दर को कम करने की कोशिश कर रहे हैं। इस महामारी से लड़ने के लिए सभी देश अलग-अलग गणितीय मॉडल्स की सहायता ले रहे हैं। एक ही महामारी से लड़ने के लिए इतने सारे मॉडल्स होने के कई कारण हैं। मॉडल डैटा के आधार पर काम करता है। जनसंख्या, संक्रमित मरीज़ों की संख्या, ठीक हो चुके मरीज़ों की संख्या, संक्रमण दर आदि सभी कारक हर देश के लिए समान नहीं हो सकते हैं। अत: हर देश का अपना डैटा व मॉडल होता है।

इन सारे मॉडल्स का आधार एसआईआर (SIR) मॉडल है। इस मॉडल को करमैक और मैक्केन्ड्रिक ने स्थापित किया था। 1920 के दशक में, दोनों ने देखा कि किसी संक्रमण के संपर्क में जो आबादी है, उसे तीन समूहों में विभाजित किया जा सकता है – संवेदनशील, संक्रमित, और संक्रमण-मुक्त। संवेदनशील लोग वे हैं जिन्हें अभी तक बीमारी नहीं हुई है। संक्रमित लोग वे हैं जो वर्तमान में संक्रमित हैं। संक्रमण-मुक्त लोग वे हैं जो पहले बीमार थे और अब स्वस्थ हो गए हैं।

करमैक और मैक्केन्ड्रिक ने इनमें से प्रत्येक समूह में गणितीय रूप से संख्याओं को प्रदर्शित करने का एक तरीका खोजा। उन्होंने अपने इस विचार को अवकल समीकरणों के रूप में लिखा। इससे यह पता लगाया जा सकता था कि जनसंख्या का कौन-सा अंश, भविष्य में किसी एक समूह से दूसरे समूह में प्रवेश करेगा।

निश्चित रूप से एसआईआर मॉडल महामारी के फैलने की जानकारी देता है। मॉडल को पहले से ही कुछ मान्यताएं बता दी जाती हैं। फिर उसके अनुसार वह डैटा को समूहों में विभाजित करके भविष्य में होने वाले संक्रमण के अनुमान को चित्रों और आंकड़ों में दर्शाता है। एक बुनियादी मान्यता यह भी होती है कि संक्रमित समूह वाला व्यक्ति संवेदनशील समूह वाले व्यक्ति के साथ बातचीत करके, उसे संक्रमित करके संक्रमित समूह में भी परिवर्तित कर सकता है। जब संक्रमित समूह बढ़ता है तब संवेदनशील समूह घटता है। संक्रमित व्यक्ति ठीक भी हो सकता है। इस स्थिति में मॉडल संक्रमित व्यक्ति के डैटा को संक्रमित समूह से हटाकर संक्रमण-मुक्त समूह में डाल देता है।

संक्रमण का संवेदनशील समूह से संक्रमित समूह की ओर जाने के कई कारण हो सकते हैं। संक्रमण का फैलाव संक्रमित व्यक्ति के सीधे संपर्क में आने से हो सकता है। संक्रमण पानी, हवा या किसी वस्तु की सतह के माध्यम से भी हो सकता है। इसके अलावा, रोग की गतिशीलता का अध्ययन विभिन्न पैमानों पर किया जा सकता है: एकल व्यक्ति, लोगों के छोटे समूह और संपूर्ण आबादी के रूप में। उपलब्ध आंकड़ों की जटिलता के आधार पर विभिन्न मॉडल्स को चुना जाता है।

कभी-कभी बुनियादी मॉडल के लिए अतिरिक्त समूह भी बनाए जाते हैं। उदाहरण के लिए, कोई संक्रमित व्यक्ति जो कोई लक्षण प्रदर्शित नहीं कर रहा है वह एक नया समूह बन सकता है। कभी-कभी उम्र जैसे अतिरिक्त कारकों को भी ध्यान में रखने की आवश्यकता होती है।

रोग से सम्बंधित जानकारी और इसके फैलाव की विधि के आधार पर बने डैटा पर एसआईआर मॉडल को निर्भर रहना पड़ता है। लेकिन जब कोई बीमारी नई होती है – मौजूदा महामारी के मामले में ‘नए कोरोनावायरस’ के ‘नया’ होने के कारण विश्वसनीय डैटा मिलना मुश्किल हो जाता है। और यह पारंपरिक एसआईआर मॉडल सामाजिक दूरी और घर में बंद रहने के आदेशों जैसे व्यवहार और नीतिगत बदलावों को ध्यान में नहीं रखता है।

इसलिए मौजूदा स्थितियों का आकलन करते हुए गणितज्ञ और वैज्ञानिक मिलकर नए गणितीय मॉडल्स का उपयोग कर रहे हैं और सुविधानुसार मॉडल्स विकसित भी कर रहे हैं। इन मॉडल्स की सहायता से सरकार को नीतियां बनाने में मदद मिल रही है। गणित और कंप्यूटर की यह शक्तिशाली जोड़ी हमारे स्वास्थ्य तंत्र को इस अभूतपूर्व महामारी से लड़ने में बहुत मदद कर रही है। और सरकारों को संकेत भी कर रही है कि कोरी राजनीति करने की बजाय शिक्षा और स्वास्थ्य के विकास पर ज़ोर देना आवश्यक है। आज की तारीख में कई देशों में स्थिति नियंत्रण में आ गई है। उम्मीद है कि जल्द ही पूरे विश्व के गलियारों और बगीचों में, स्कूलों और मैदानों में, सड़कों और सांस्कृतिक स्थलों पर फिर से चहल-पहल शुरू हो जाएगी।(स्रोत फीचर्स)

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बरमुडा त्रिकोण के मिथक का पुन: भंडाफोड़

गभग 100 वर्ष पहले डूबे एक जहाज़ के मलबे ने बरमुडा त्रिकोण के मिथक को एक बार फिर धराशायी कर दिया है। यह कहा गया था कि 1925 में एसएस कोटोपैक्सी नामक जो मालवाहक जहाज़ डूबा था उसमें बरमुडा त्रिकोण की भूमिका थी। यह मालवाहक अपनी मंज़िल तक नहीं पहुंच सका था।

बरमुडा त्रिकोण उत्तरी अटलांटिक सागर में एक अपरिभाषित-से क्षेत्र को कहते हैं। इसे शैतान का तिकोन भी कहा जाता है। यह बरमुडा से फ्लोरिडा और प्यूएर्टो रिको के बीच स्थित है। इसके बारे में कहा जाता रहा है कि यहां कई जहाज़, हवाई जहाज़ वगैरह डूबे हैं और इसका कारण पारलौकिक शक्तियों या अन्य ग्रहों के निवासियों को बताया जाता है। तथ्य यह है कि यहां कई जहाज़ नियमित रूप से पार होते हैं और कई हवाई जहाज़ इस क्षेत्र के ऊपर से होकर उड़ते हैं।

हाल ही में एक समुद्री जीव वैज्ञानिक और गोताखोर माइकेल बार्नेट ने उस जहाज़ कोटोपैक्सी का मलबा ढूंढ निकाला है। बार्नेट पिछले कई वर्षों से डूबे हुए जहाज़ों के मलबे खोजने का काम करते रहे हैं। इसी दौरान उन्हें पता चला कि उत्तरी फ्लोरिडा के सेन्ट ऑगस्टीन के तट से करीब 65 कि.मी. की दूरी पर एक बड़ा जहाज़ डूबा था जिसे स्थानीय लोग बेयर रेक के नाम से जानते हैं। यह वास्तव में बहुत बड़ा था।

तो बार्नेट ने गोताखोरी करके उस जहाज़ के मलबे का नाप जोख किया, अखबारों में उस समय छपे लेखों का जायज़ा लिया और साथ ही बीमा के रिकॉर्ड भी देखे और जहाज़ के मलबे से मिली वस्तुओं का मुआयना किया। उनकी तहकीकात से लगता था कि वह जहाज़ शायद कोटोपैक्सी ही था। तो उन्होंने खबर फैलाई कि एसएस कोटोपैक्सी शायद अटलांटिक महासागर के पेंदे में पड़ा है।

कोटोपैक्सी दक्षिण कैरोलिना के चार्ल्सटन बंदरगाह से कोयला भरकर हवाना के लिए रवाना हुआ था। रास्ते में एक तूफान ने इसे डुबो दिया और इस पर सवार 32 कर्मचारियों का कोई अता-पता नहीं मिला था। बाद में पता चला कि कोटोपैक्सी में कई खामियां थीं और इसकी मरम्मत का काम होने वाला था। जांच-पड़ताल में यह भी सामने आया कि कोटोपैक्सी ने डूबने से पहले एसओएस संदेश भी प्रसारित किए थे और फ्लोरिडा स्थित जैकसनविले स्टेशन ने ये संदेश पकड़े भी थे।

मज़ेदार बात है कि जहाज़ का मलबा सेन्ट ऑगस्टीन के तट से कुछ दूरी पर मिला है जो बरमुडा त्रिकोण के आसपास भी नहीं है। (स्रोत फीचर्स)

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