प्रकृति में सोने के डले कैसे बनते हैं – माधव केलकर

सोना एक बहुमूल्य धातु है। दुनिया के सभी देश अपनी मुद्राओं की विश्वसनीयता बनाए रखने के लिए निश्चित स्वर्ण भंडार बनाए रखते हैं। लेकिन धरती पर सोने की मौजूदगी बेहद कम है। दुनिया में सोने की खदानों पर एक नज़र डालेंगे तो चीन, ऑस्ट्रेलिया, दक्षिण अफ्रीका, अमरीका, कनाडा, रूस जैसे देश सोने के प्रमुख उत्पादक देश हैं। भारत में सोने का उत्पादन कर्नाटक व आंध्रप्रदेश में मौजूद खदानों से होता है। कुछ प्रमुख तांबा खदानों में भी सोना मिलता है। वहीं झारखंड की स्वर्णरेखा नदी में बेहद कम मात्रा में रेत के साथ सोने के कण मिलते हैं इन्हें स्थानीय लोग रेत को धोकर-छानकर प्राप्त करते हैं। 

सोना उन धातुओं में शुमार है जो प्रकृति में मुक्त रूप में मिलता है। आम तौर पर तत्वों के अयस्क ऑक्साइड, कार्बोनेट, सल्फेट, क्लोराइड के रूप में मिलते हैं। जैसे हीमेटाइट, मैग्नेटाइट, सिडेराइट, पायराइट, चाल्कोपायराइट आदि। लेकिन सोना, चांदी शुद्ध (Pure Metal) रूप में भी मिलते हैं। साथ ही, अन्य अयस्कों के साथ भी मिल सकते हैं। जैसे सोना तांबे के अयस्क चाल्कोपायराइट के साथ भी मिलता है हालांकि चाल्कोपायराइट में सोने की मात्रा बेहद कम होती है। सोना जिस खनिज के साथ सबसे ज़्यादा मिलता है वह है क्वार्ट्ज़ (Quartz) यानी सिलिका का ऑक्साइड। क्वार्ट्ज़ धरती की सतह से कुछ किलोमीटर नीचे तक चट्टानों के रूप में पाया जाता है। क्वार्ट्ज़ की दरारों में सोने के कण एकत्रित होते जाते हैं। इन दरारों तक कई खनिजों के तरल गरम मिश्रण, जिन्हें हाइड्रोथर्मल तरल (Hydrothermal Fluids) कहा जाता है, के साथ सोना इन क्वार्ट्ज़ दरारों तक आता है और इन दरारों में इकट्ठा होने लगता है। यह प्रक्रिया निरंतर चलती रहती है और सोने के बड़े-बड़े डिगले या डले बनते जाते हैं। 

क्वार्ट्ज़ की दरारों में सोने के इस जमाव को लेकर काफी शोध एवं नए विचार सामने आए हैं। हाल में ही नेचर जियोसाइंस (Nature Geoscience) में प्रकाशित एक अध्ययन से पता चलता है कि धरती पर आने वाले भूकंप क्वार्ट्ज़ में आवेशों को उत्तेजित कर सकते हैं जिससे हाइड्रोथर्मल तरल में तैर रहे मुक्त सोने के कण क्वार्ट्ज़ पर एकत्रित होते जाते हैं। अभी तक इस परिकल्पना की जांच प्रयोगशाला स्तर पर करके देखी गई है। धरती के भूगर्भीय हालात में इसका अध्ययन किया जाना बाकी है। 

सामान्य तौर पर सोने के बड़े डिगले या डले क्वार्ट्ज़ शिराओं या दरारों में पाए जाते हैं। भूवैज्ञानिक काफी पहले से यह जानते थे कि सोने से भरपूर हाइड्रोथर्मल तरल इन दरारों में जमा होते हैं। दरारों के बनने का सिलसिला धरती के भीतर उठने वाले भूकंप (Earthquakes) या विविध बलों की वजह से होता है। सोने के कण इस गरम तरल पदार्थ में घुले हुए नहीं होते बल्कि इसमें तैर रहे होते हैं। ऐसा भी नहीं है कि इस गरम तरल में सोने की सांद्रता बहुत ज़्यादा होती हो। एक अनुमान है कि पांच स्वीमिंग पूल में मौजूद पानी के बराबर गरम तरल में एक किलो सोने की डली बनने लायक सोने के कण हो सकते हैं। 

सवाल यह है कि जब गरम तरल में सोने के कण इतने बिखरे-बिखरे हुए होते हैं तो ये चिपककर इतनी बड़ी डली कैसे बना लेते हैं। मोनाश विश्वविद्यालय (Monash University) के भूविज्ञानी क्रिस्टोफर वोइसी और उनके सहकर्मियों को लगा कि इसका जवाब दाब-विद्युत यानी पीज़ोइलेक्ट्रिक (Piezoelectric Effect) प्रभाव में छुपा हो सकता है। 

क्वार्ट्ज़ एक पीज़ोइलेक्ट्रिक पदार्थ (Piezoelectric Material) है, यानी जब इस पर यांत्रिक तनाव (Mechanical Stress) आरोपित किया जाता है तो इसमें विद्युत आवेश पैदा होता है। यह विद्युत तरल पदार्थ में मौजूद सोने के आयनों को ठोस सोना (Solid Gold) बनाने का कारण बन सकती है। ठोस सोना क्वार्ट्ज़ के विद्युत क्षेत्र में एक कंडक्टर के रूप में कार्य कर सकता है, जिससे घोल में मौजूद अधिक सोने के आयन एक ही स्थान पर आकर्षित होते हैं और अंततः एक साथ चिपक जाते हैं। लेकिन क्या भूकंप क्वार्ट्ज़ में पर्याप्त पीज़ोइलेक्ट्रिक वोल्टेज स्थापित कर सकता है जिससे ऐसा सब घटित हो?  इसका परीक्षण करने के लिए, टीम ने क्वार्ट्ज़ क्रिस्टल को छोटे, स्वतंत्र रूप से तैरते सोने के कणों वाले घोल में डुबोया और भूकंपीय तरंगों की आवृत्ति जितनी सूक्ष्म तरंगों से क्वार्ट्ज़ क्रिस्टल पर तनाव बनाया और हटाया। वोइसी और उनकी टीम ने पाया कि क्वार्ट्ज़ पर मामूली तनाव से भी क्रिस्टल की सतहों पर सोने के कण जमा हो जाते हैं। इस प्रयोग को कई बार दोहराने पर सोने के कणों का ढेर बड़ा होता जाता है। 

वोइसी कहते हैं कि यह भी संभव है कि पीज़ोइलेक्ट्रिक प्रभाव इन सोने की डलियों के बनने का केवल एक कारण हो, अन्य कारण खोजे जाने बाकी हैं। जब तक मनुष्य सोने को महत्व देते रहेंगे, तब तक सोने की डली बनने की खोज जारी रहेगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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धरती की जीवनदायिनी क्षमता की रक्षा प्राथमिकता बने

भारत डोगरा

यह स्पष्ट होता जा रहा है कि अब तो धरती की जीवनदायिनी क्षमता ही खतरे में है। लाखों वर्षों तक धरती पर बहुत विविधतापूर्ण जीवन पनपने का आधार ही गंभीर संकट में है। धरती की जीवनदायिनी क्षमता के संकटग्रस्त होने के अनेक कारण हैं – जलवायु बदलाव (climate change) व अनेक अन्य गंभीर पर्यावरणीय समस्याएं (environmental issues), परमाणु हथियार (nuclear weapons) व अन्य महाविनाशक हथियार आदि। 

वर्ष 1992 में विश्व के 1575 वैज्ञानिकों ने (जिनमें उस समय जीवित नोबल पुरस्कार (Nobel Prize) सम्मानित वैज्ञानिकों में से लगभग आधे शामिल थे) एक बयान जारी किया था। इसमें उन्होंने कहा था, “हम मानवता को इस बारे में चेतावनी देना चाहते हैं कि भविष्य में क्या हो सकता है? पृथ्वी और उसके जीवन की व्यवस्था जिस तरह हो रही है उसमें एक व्यापक बदलाव की ज़रूरत है अन्यथा दुख-दर्द बहुत बढ़ेंगे और हम सबका घर यह पृथ्वी इस कदर तहस-नहस हो जाएगी कि फिर उसे बचाया नहीं जा सकेगा।” 

आगे इन वैज्ञानिकों ने कहा था कि वायुमंडल (atmosphere), समुद्र, मिट्टी, वन और जीवन के विभिन्न रूपों पर तबाह हो रहे पर्यावरण का बहुत दबाव पड़ रहा है और वर्ष 2100 तक पृथ्वी के विभिन्न जीवन रूपों (life forms) में से एक तिहाई लुप्त हो सकते हैं। मनुष्य की वर्तमान जीवन-पद्धति के कई तौर-तरीके भविष्य में सुरक्षित जीवन की संभावनाओं को नष्ट कर रहे हैं और इस जीती-जागती दुनिया को इतना बदल सकते हैं कि जिस रूप में जीवन को हमने जाना है, उसका अस्तित्व ही दूभर हो जाए। प्रतिष्ठित वैज्ञानिकों ने ज़ोर देकर कहा था कि प्रकृति की इस तबाही को रोकने के लिए बुनियादी बदलाव ज़रूरी है। 

वर्ष 1992 की चेतावनी के 25 वर्ष पूरा होने पर एक बार फिर विश्व के कई जाने-माने वैज्ञानिकों ने 2017 में एक नई अपील जारी की थी। इस पर 180 देशों के 13,524 वैज्ञानिकों व अन्य प्रतिष्ठित व्यक्तियों ने हस्ताक्षर किए थे। इस अपील में कहा गया था कि जिन गंभीर समस्याओं की ओर वर्ष 1992 में ध्यान दिलाया गया था उनमें से अधिकांश समस्याएं पहले से अधिक विकट हुई हैं या उनको सुलझाने के प्रयास में कोई उल्लेखनीय प्रगति नहीं है। केवल ओज़ोन परत (ozone layer) सम्बंधी समस्या में कुछ उल्लेखनीय सफलता मिली है। अस्तित्व को संकट में डालने वाली अन्य समस्याएं पहले की तरह गंभीर स्थिति में मौजूद हैं या फिर उनकी स्थिति और विकट हुई है। 

स्टॉकहोम रेसिलिएंस सेंटर (Stockholm Resilience Center) के वैज्ञानिकों के अनुसंधान ने हाल के समय में धरती के सबसे बड़े संकटों की ओर ध्यान केंद्रित करने का प्रयास किया है। इस बहुचर्चित अनुसंधान में धरती पर जीवन की सुरक्षा के लिए नौ विशिष्ट सीमा-रेखाओं की पहचान की गई है जिनका उल्लंघन मनुष्य की क्रियाओं को नहीं करना चाहिए। गहरी चिंता की बात है कि इन नौ में से तीन सीमाओं का उल्लंघन आरंभ हो चुका है। ये तीन सीमाएं हैं – जलवायु बदलाव (climate change), जैव-विविधता का ह्रास व भूमंडलीय नाइट्रोजन चक्र में बदलाव। 

इसके अतिरिक्त चार अन्य सीमाओं के उल्लंघन की संभावना निकट भविष्य में है। ये चार क्षेत्र हैं – भूमंडलीय फॉस्फोरस चक्र (phosphorus cycle), भूमंडलीय जल उपयोग, समुद्रों का अम्लीकरण व वैश्विक स्तर पर भूमि उपयोग में बदलाव। 

ये विभिन्न संकट परस्पर सम्बंधित हैं व एक सीमा पार करने (जिसे टिपिंग पॉइंट (tipping point) कहा जाता है) पर धरती की जीवनदायिनी क्षमता की इतनी क्षति हो सकती है कि बहाली कठिन होगी। 

इक्कीसवीं शताब्दी में पहले से कहीं गंभीर चुनौतियां मानवता के सामने हैं। एक वाक्य में कहें, तो यह धरती पर जीवन के अस्तित्व (existence of life) मात्र के लिए संकट उत्पन्न होने की शताब्दी है। धरती पर कई छोटे-मोटे बदलाव तो होते ही रहे हैं, पर धरती पर मानव के पदार्पण के बाद ऐसे हालात पहली बार इक्कीसवीं शताब्दी में ही निर्मित हुए हैं; मानव निर्मित कारणों से हर तरह के जीवन को संकट में डालने वाली स्थिति उत्पन्न हुई है। 

इस संकट के तीन पक्ष हैं। पहला है पर्यावरणीय संकट। पर्यावरणीय संकट के भी अनेक पहलू हैं जैसे, जलवायु परिवर्तन (climate change), जल संकट, वायु प्रदूषण, समुद्र प्रदूषण, जैव विविधता का तेज़ ह्रास, फॉस्फोरस व नाइट्रोजन चक्र (phosphorus and nitrogen cycle) में बदलाव, अनेक खतरनाक नए रसायनों व उत्पादों का बिना पर्याप्त जानकारी के प्रसार, ओज़ोन परत में बदलाव (ozone depletion) आदि। 

दूसरा पक्ष है, महाविनाशक हथियार (weapons of mass destruction), विशेषकर परमाणु, रासायनिक व जैविक तथा रोबोट हथियार। इनमें रासायनिक व जैविक हथियार प्रतिबंधित हैं तथा रोबोट हथियार अभी विकास की आरंभिक स्थिति में है। इसके बावजूद परमाणु हथियारों के साथ ये अन्य हथियार भी जीवन को संकट में डाल सकते हैं। 

तीसरा पक्ष है, कुछ तकनीकों का एक सीमा से आगे विकास। जैसे जेनेटिक इंजीनियरिंग (genetic engineering) व रोबोटिक्स। अस्तित्व का संकट उत्पन्न करने वाले खतरों को तीन या अधिक श्रेणियों में विभाजित करने से उनकी समझ बेहतर बन सकती है पर इसका अर्थ यह नहीं है कि ये संकट हमें अलग-अलग प्रभावित करेंगे। इनमें से कई संकट साथ-साथ बढ़ रहे हैं व हमें इनके मिले-जुले असर को ही सहना होगा। जलवायु बदलाव का असर जल-संकट, समुद्रों में आ रहे बदलावों, जैव विविधता के ह्रास आदि से नज़दीकी तौर पर जुड़ा हुआ है। दूसरी ओर, यदि परमाणु हथियारों का उपयोग वास्तव में होता है तो उसके बाद एक बड़े क्षेत्र में जो बदलाव आएंगे वे विभिन्न अन्य पर्यावरणीय संकटों के साथ मिलकर धरती की जीवनदायिनी क्षमता को प्रभावित करेंगे। 

इसी तरह रोबोट तकनीक के नागरिक उपयोग से उसके सैन्य उपयोग की संभावनाएं बढ़ेंगी। कृषि व स्वास्थ्य में जेनेटिक इंजीनियरिंग के उपयोग से नए जैविक हथियारों की संभावनाएं खुलने लगती हैं। अर्थात ये विभिन्न खतरे एक-दूसरे से विभिन्न स्तरों पर जुड़े हुए हैं। 

यह जानकारी कई दशकों से उपलब्ध है कि धरती पर ऐसे मानव-निर्मित खतरे उत्पन्न हो चुके हैं जो जीवन के अस्तित्व मात्र के लिए संकट उत्पन्न कर सकते हैं। पर अफसोस कि ऐसे संकटों की गंभीर व प्रमाणिक चेतावनियां मिलने के बावजूद, विश्व नेतृत्व की इन खतरों को कम करने की कोई असरदार व टिकाऊ सफलता सामने नहीं आई है। ओज़ोन परत पर मॉन्ट्रियल समझौता (Montreal Protocol) को इस दिशा में सबसे उल्लेखनीय सफलता बताया जाता है, पर ऐसे कुछ छिट-पुट प्रयासों से समग्र स्थिति नहीं बदलने वाली है। ज़ाहिर है, विफलताओं की फेहरिस्त बहुत लंबी है, और सफलताओं की सूची बहुत छोटी है। 

अतः स्पष्ट है कि धरती की जीवनदायिनी क्षमता को खतरे में डालने वाली समस्याएं एक ऐसे अति संवेदनशील दौर में पहुंच रही हैं कि आगामी दशक बहुत निर्णायक सिद्ध होगा, संभवतः मानव इतिहास का सबसे निर्णायक दशक। अतः 2025-2035 के दशक को विश्व स्तर पर धरती की रक्षा के दशक के रूप में घोषित करना चाहिए। इस दशक में एक अभियान की ज़रूरत है ताकि धरती पर जीवन की रक्षा के प्रयासों को बल मिले। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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डायनासौर का सफाया करने वाला पिंड कहां से आया?

ज़ुबैर सिद्दिकी

शोधकर्ता यह पता लगाने में सफल रहे हैं कि पृथ्वी से टकराकर उथल-पुथल मचाने वाली चट्टान कहां से आई थी और किस प्रकार की थी। यह तो आम जानकारी का विषय है कि लगभग साढ़े 6 करोड़ वर्ष पूर्व एक उल्का (meteor impact) पृथ्वी से टकराई थी जिसने डायनासौर (dinosaur extinction) समेत उस समय उपस्थित 75 प्रतिशत प्रजातियों का सफाया कर दिया था। 

दरअसल, वर्ष 2016 में उल्कापिंड की टक्कर से बने गड्ढे, जो मेक्सिको के चिक्सुलब (Chicxulub crater) गांव के निकट समुद्र के पेंदे में दफन है, की ड्रिलिंग के दौरान शोधकर्ताओं को चट्टान का एक टुकड़ा मिला था। वह टुकड़ा कार्बनयुक्त कॉन्ड्राइट (carbonaceous chondrite) था। कार्बनयुक्त कॉन्ड्राइट एक किस्म की उल्काएं होती हैं जिनमें काफी मात्रा में कार्बन पाया जाता है। उस समय लुईस व वाल्टर अल्वारेज़ ने यह विचार प्रस्तुत किया था कि करोड़ों वर्ष पूर्व कोई विशाल उल्का पृथ्वी से टकराई थी जिसके चलते यहां कयामत आ गई थी। 

1980 के बाद अल्वारेज़ द्वय ने यह दर्शाया था कि दुनिया भर में क्रेटेशियस और पेलिओजीन युगों (Cretaceous-Paleogene boundary) के संगम स्थल की परतों में इरिडियम (iridium element) की मात्रा पृथ्वी पर निर्मित चट्टानों से ज़्यादा होती है। यह इस बात का प्रमाण था कि इन परतों के बनने में पृथ्वी से बाहर के पदार्थ का योगदान था। आगे चलकर यह भी पता चला था कि क्रेटेशियस-पेलियोजीन संगम परतों में क्रोमियम (chromium concentration) की मात्रा भी ज़्यादा है लेकिन कहा गया था कि क्रोमियम तो आसपास से घुलकर भी पहुंच सकता है।

अब साइन्स (Science journal) पत्रिका में प्रकाशित एक शोध पत्र में बताया गया है कि दुनिया भर में उस टक्कर से उत्पन्न मलबे (meteor debris) का विश्लेषण करने पर स्पष्ट हुआ है कि साढ़े 6 करोड़ वर्ष पूर्व टकराई उल्का कार्बनयुक्त कॉन्ड्राइट ही थी। कोलोन विश्वविद्यालय के मारियो फिशर-गोडे और उनके साथियों ने दुनिया भर में ऐसे मलबे में रुथेनियम (ruthenium isotope) नामक दुर्लभ धातु के विश्लेषण में पाया है कि उनमें समस्थानिकों का अनुपात वही है जो कार्बनयुक्त कॉन्ड्राइट्स में पाया जाता है। पृथ्वी से बाहर की चट्टानों में रुथेनियम की मात्रा स्थानीय चट्टानों से 100 गुना ज़्यादा होती है। लिहाज़ा यह पहचान का बेहतर साधन है।

जब फिशर-गोडे की टीम ने क्रेटेशियस-पेलियोजीन संगम परतों के पांच नमूनों में रुथेनियम के सात टिकाऊ समस्थानिकों (stable isotopes) की जांच की तो पता चला कि उनका अनुपात सर्वत्र एक ही है। इसका मतलब हुआ कि ये सारे नमूने एक ही पिंड के अंश हैं। इसके अलावा जाने-माने कार्बनयुक्त कॉन्ड्राइट्स में देखे गए रुथेनियम समस्थानिक अनुपात भी लगभग इनके बराबर ही पाए गए। उन्होंने 3.6 करोड़ और 4.7 करोड़ वर्ष पूर्व की टक्कर से बने गड्ढों (impact craters) के नमूनों में भी जांच की। यहां पता चला कि उनमें रुथेनियम की मात्रा सिलिकायुक्त उल्काओं (silicate meteorites) के समान हैं। ये उल्काएं सूर्य के अपेक्षाकृत नज़दीक बनती हैं।

तो इतना तो स्पष्ट हो गया कि साढ़े 6 करोड़ वर्ष पूर्व पृथ्वी का नसीब बदल देने वाली उल्का कार्बनयुक्त कॉन्ड्राइट (carbonaceous impactor) थी। इनमें भरपूर मात्रा में पानी, कार्बन तथा अन्य वाष्पशील अणु होते हैं। यानी इनका उद्गम सूर्य से बहुत दूर हुआ होगा क्योंकि पास हुआ होता तो ये पदार्थ भाप बनकर उड़ चुके होते।

ये सौर मंडल के शुरुआती दौर में (solar system formation) बनी थीं। माना जाता है कि इनके साथ पृथ्वी पर पानी (water origin) और कार्बनिक अणु आए थे जिन्होंने जीवन के पनपने में मदद की थी। लेकिन ऐसे कार्बनयुक्त कॉन्ड्राइट तो पृथ्वी से शुरुआती एकाध अरब वर्षों में टकराया करते थे। आजकल टकराने वाली उल्काओं में महज़ 5 प्रतिशत ही कार्बनयुक्त कॉन्ड्राइट होते हैं।

लेकिन चिक्सुलब इम्पैक्टर तो अभी हाल के इतिहास में टकराया था। तो यह कहां से टपक पड़ा? ऐसा माना जाता है कि ये किसी वजह से मंगल और बृहस्पति के बीच स्थिति क्षुद्र ग्रह पट्टी (asteroid belt) में खिंच गए थे। कभी-कभार ये वहां से मुक्त होकर अंदरुनी सौर मंडल (inner solar system) में प्रवेश कर जाते हैं। संभवत: 10 किलोमीटर व्यास का चिक्सुलब इम्पैक्टर भी वहां से निकल धरती से टकरा गया था। यह इतना विनाशकारी इसीलिए साबित हुआ था क्योंकि यह कार्बनयुक्त था। इस वजह से जब यह जला होगा तो इसने गहरा धुआं (dark cloud formation) पैदा किया होगा जिसने सूरज की रोशनी को पृथ्वी पर पहुंचने से रोक दिया होगा जिसके चलते टक्कर के प्रत्यक्ष प्रभावों के अलावा भी असर हुए होंगे।(स्रोत फीचर्स)

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नासा उवाच – मंगल पर जीवन के चिंह मिले हैं

नासा (NASA) ने घोषणा की है कि उसके परसेवरेंस रोवर (Perseverance Rover) द्वारा मंगल ग्रह (Mars) पर खोजी गई एक चट्टान पर ऐसे चिंह मिले हैं जो इस बात के प्रमाण हो सकते हैं कि मंगल पर अतीत में कभी सूक्ष्मजीवी जीवन (Microbial Life) रहा होगा। नासा के मुताबिक यह चट्टान इस बात का स्पष्ट प्रमाण देती है कि कभी यहां पानी (Water), कार्बनिक पदार्थ (Organic Matter) थे और ऐसी अभिक्रियाएं हुई थीं जो ऊर्जा का स्रोत हो सकती हैं।

लेकिन…जी हां लेकिन। इस निष्कर्ष को लेकर कई अगर-मगर हैं और सभी वैज्ञानिक इससे सहमत नहीं हैं। कइयों का तो कहना है कि मंगल की खोजबीन (Mars Exploration) के इतिहास में ऐसे कई ‘रोमांचक’ क्षण आए और गए हैं। ऐसी सबसे मशहूर चट्टान एलन हिल्स 84001 (Allan Hills 84001) रही है। यह दरअसल अंटार्कटिका में खोजी गई एक उल्का (Meteorite) थी। 1996 में साइंस पत्रिका में शोधकर्ताओं ने दावा किया था कि इसमें बैक्टीरिया के नैनो-जीवाश्म (Nano-Fossils) मौजूद थे। अलबत्ता, आज अधिकांश शोधकर्ता मानते हैं कि इस पर मिली ‘जीवाश्मनुमा’ रचनाएं जीवन के बगैर भी बन सकती हैं। इसी प्रकार का शोरगुल तब भी मचा था जब मार्स रोवर (Mars Rover) ने गेल क्रेटर (Gale Crater) में तमाम किस्म के कार्बनिक अणु (Organic Molecules) खोज निकाले थे। मार्स रोवर पर एक रासायनिक प्रयोगशाला भी थी।

लेकिन परसेवरेंस पर ऐसी कोई प्रयोगशाला नहीं है। वह जो भी चट्टानी नमूने (Rock Samples) खोदता है उन्हें एक कैप्सूल में भरकर जमा करता रहता है, जिन्हें बाद में मार्स सैम्पल रिटर्न मिशन (Mars Sample Return Mission) द्वारा पृथ्वी पर भेजा जाएगा। फिलहाल वह मिशन टल गया है। तो बगैर प्रयोगशाला के, महज़ चेयावा फॉल्स (Jezero Crater) से खोदी गई चट्टान के अवलोकनों के आधार पर सारा हो-हल्ला है। माना जा रहा है कि इस स्थान पर कभी कोई नदी (River) बहती थी। उसके साथ आई गाद ही अश्मीभूत हो गई है। इस चट्टान में कैल्शियम सल्फेट (Calcium Sulfate) से बनी शिराओं के बीच-बीच में चकत्ते हैं जैसे तेंदुओं की खाल पर होते हैं। नासा से जुड़े वैज्ञानिकों का मत है कि ये चकत्ते ऐसी रासायानिक अभिक्रियाओं के संकेत हैं जो धरती पर सूक्ष्मजीवों को ऊर्जा मुहैया कराती हैं।

रोवर पर लगे स्कैनर से चट्टान में कार्बनिक यौगिकों (Organic Compounds) की उपस्थिति का भी पता चला है। यह तो सही है कि ऐसे कार्बन यौगिक (Carbon Compounds) जीवन की अनिवार्य निर्माण इकाइयां होते हैं लेकिन ये गैर-जैविक प्रक्रियाओं से भी बन सकते हैं। सबसे रहस्यमयी तो तेंदुआ चकत्ते हैं – इन मिलीमीटर साइज़ के चकत्तों में फॉस्फोरस (Phosphorus) व लौह (Iron) पाए गए हैं। पृथ्वी पर ऐसे चकत्ते तब बनते हैं जब कार्बनिक पदार्थ जंग लगे लोहे से क्रिया करते हैं। यह क्रिया सूक्ष्मजीवों को ऊर्जा प्रदान कर सकती है। लेकिन इस तथ्य की अन्य व्याख्याएं भी हैं। जैसे चट्टान में पाए गए खनिज यह भी दर्शाते हैं कि यह ज्वालामुखी के लावा (Volcanic Lava) से बनी हैं और लावा का उच्च तापमान किसी जीवन को पनपने नहीं देगा।

बहरहाल, परसेवरेंस अब तक 22 चट्टानें इकट्ठी कर चुका है। इनमें से कई में ऐसे पदार्थ मिले हैं जो पृथ्वी पर सूक्ष्मजीवों को सहारा दे सकते हैं। लेकिन अभी यह स्पष्ट नहीं है कि क्या ये नमूने पृथ्वी पर पहुंच पाएंगे क्योंकि यह काम बहुत महंगा (Expensive) है। कुछ लोगों का तो कहना है कि यह सारा हो-हल्ला फंडिंग (Funding) जारी रखने के लिए है। (स्रोत फीचर्स)

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धंसती भूमि: कारण और परिणाम (1) – हिमांशु ठक्कर

व्यापकता

पिछले महीने जब यह खबर आई कि तटीय और भीतरी शहरों सहित चीन के आधे से अधिक प्रमुख शहर ज़मीन में धंसते चले जा रहे हैं, तो कई लोगों को यह दुनिया के किसी सुदूर कोने में होने वाली कोई मामूली-सी घटना लगी। लेकिन यह घटना न केवल व्यापक और चिंताजनक है, बल्कि भारत समेत दुनिया के कई हिस्सों के लिए प्रासंगिक भी है। यहां तक कि हमारे यहां कुछ जगहों पर स्थिति बदतर भी हो सकती है। लेकिन पहले यह समझ लेते हैं कि यह खबर किस बारे में थी।

नेचर एंड साइंस में प्रकाशित रिपोर्ट बताती है कि चीन के तटीय और भीतरी शहरों समेत लगभग आधे प्रमुख शहर भूमि धंसाव का सामना कर रहे हैं। यह आकलन चीन के 20 लाख से अधिक आबादी वाले 82 शहरों के अध्ययन पर आधारित है। ऐसा अनुमान है कि वर्ष 2120 तक चीन के तटीय शहरों के 10 प्रतिशत निवासी, यानी इन शहरों के 5.5 से 12.8 करोड़ लोग समुद्र तल से नीचे रह रहे होंगे, और बाढ़ों तथा अन्य अपूरणीय क्षति का सामना कर रहे होंगे। चीन के प्रमुख शहरों का 16 प्रतिशत क्षेत्र प्रति वर्ष 10 मि.मी. की तीव्र दर से धंसता जा रहा है। वहीं, लगभग 45 प्रतिशत क्षेत्र प्रति वर्ष 3 मि.मी. से अधिक की मध्यम दर से धंस रहा है। प्रभावित शहरों में राजधानी बीजिंग भी शामिल है।

शोधकर्ताओं ने उपग्रहों के रडार पल्स का उपयोग उपग्रह और ज़मीन के बीच की दूरी में परिवर्तन को मापने के लिए किया ताकि यह पता किया जा सके कि 2015 से 2022 के बीच इनके बीच की दूरी कैसे बदली। इस सूची में अधिकतर गैर-तटीय शहर शामिल हैं, जैसे कुनमिंग, नैन्निंग और गुइयांग। ये शहर अत्यधिक घनी आबादी वाले या औद्योगिक शहर नहीं हैं, फिर भी ये उल्लेखनीय धंसाव का सामना कर रहे हैं।

अन्य देश भी

ज़मीन के धंसाव की समस्या सिर्फ चीन तक सीमित नहीं है। जकार्ता इतनी तेज़ी से धंस रहा है कि इंडोनेशिया एक नए शहर को राजधानी बनाने पर विचार कर रहा है। जकार्ता के कुछ हिस्से एक दशक में एक मीटर से अधिक धंस गए हैं। फरवरी 2024 में प्रकाशित एक अन्य अध्ययन में पाया गया था कि दुनिया भर की लगभग 63 लाख वर्ग किलोमीटर भूमि पर निरंतर धंसाव का खतरा है। इंडोनेशिया सबसे अधिक प्रभावित देशों में से एक है। वर्तमान में दुनिया के 44 मुख्य तटीय शहर इस समस्या से जूझ रहे हैं, और इनमें से 30 शहर एशिया में स्थित हैं।

मनीला, हो-ची-मिन्ह सिटी, न्यू ऑरलियन्स और बैंकॉक भी यही जोखिम झेल रहे हैं। ईरान की राजधानी तेहरान के कुछ हिस्से हर साल 25 सें.मी. तक धंस रहे हैं, जहां करीब 1.3 करोड़ लोग रहते हैं। नेदरलैंड इस तथ्य के लिए प्रसिद्ध है कि यहां की लगभग 25 प्रतिशत भूमि समुद्र सतह से नीचे चली गई है। अनुमान है कि वर्ष 2040 तक दुनिया की लगभग 20 प्रतिशत आबादी धंसावग्रस्त भूमि पर रह रही होगी।

ढाका एक ऐसे शहर का उदाहरण है जिसने बाढ़ आने की आवृत्ति बढ़ने के बाद यह पता लगाना शुरू किया कि यह शहर धंस रहा है। वर्तमान में, तेज़ी से फैल रहे इस शहर में भूमि धंसाव और इसके प्रभावों पर आंकड़े नदारद हैं। बड़े पैमाने पर भूजल दोहन के कारण भूजल स्तर हर वर्ष 2-3 मीटर तक गिर रहा है। वर्तमान में 87 प्रतिशत पानी की आपूर्ति भूजल से होती है, और यह कहा जा रहा है कि भूजल की बजाय सतही जल से आपूर्ति लेना आवश्यक हो गया है। लेकिन ऐसा करना मुश्किल है क्योंकि सतह पर मौजूद अधिकतर पानी प्रदूषित है।

उपग्रह डैटा के विश्लेषण से पता चला है कि 2010 के बाद से मेक्सिको की खाड़ी में समुद्र जल स्तर में वृद्धि वैश्विक औसत दर से दुगनी हुई है। पृथ्वी पर कुछ अन्य स्थानों पर भी ऐसी ही वृद्धि दर देखी गई है, जैसे कि युनाइटेड किंगडम के नज़दीकी नॉर्थ सी में।

पिछली एक सदी का ज्वार उठने का डैटा और हाल ही का ऊंचाई मापने का (अल्टीमेट्री) डैटा, दोनों इस बात का खुलासा करते हैं कि 2010-22 के दौरान यू.एस. पूर्वी तट और मेक्सिको की खाड़ी के तट पर समुद्र स्तर में तेज़ी से वृद्धि हुई है। इस प्रकार, 2010 के बाद से, समुद्र के स्तर में वृद्धि या सापेक्ष भूमि धंसाव बहुत ही असामान्य और अभूतपूर्व है। समुद्र सतह में हो रही तेज़ी से वृद्धि दर तो समय के साथ कम हो जाएगी, किंतु हाल के वर्षों में जल स्तर में जो वृद्धि हो चुकी है वह तो बनी रहेगी।

टेक्सास के गैल्वेस्टन में समुद्र का जलस्तर असाधारण दर से बढ़ा है — 14 वर्षों में 8 इंच। विशेषज्ञों का कहना है कि यह तेज़ी से धंसती ज़मीन के कारण और बढ़ गया है। यहां 2015 के बाद से कम से कम 141 बार उच्च ज्वार के कारण बाढ़ आई है, और वैज्ञानिकों का अनुमान है कि इनकी आवृत्ति और बढ़ेगी।

संयुक्त राज्य अमेरिका में, 45 राज्यों में 44,000 वर्ग कि.मी. से अधिक भूमि सीधे तौर पर धंसाव से प्रभावित हुई है; इसमें से 80 प्रतिशत से अधिक मामले तो भूजल दोहन से जुड़े हैं। शोध से पता चला है कि धंसती ज़मीन और समुद्र के बढ़ते स्तर के कारण न्यूयॉर्क, बोस्टन, सैन फ्रांसिस्को और मायामी सहित 32 अमेरिकी तटीय शहरों के पांच लाख से अधिक लोग बाढ़ों का सामना करेंगे।

भारत में भूमि धंसाव

भारत में, भूमि धंसाव की व्यापक तस्वीर पेश करने और धंसाव के कारणों को बताने के लिए हमारे पास व्यवस्थित निगरानी या जानकारी की कमी है। हालांकि, यह देखते हुए कि भारत दुनिया में भूजल का सबसे बड़ा उपयोगकर्ता है और यहां भूजल उपयोग लगातार बढ़ता जा रहा है, और यह देखते हुए कि पिछले 4 दशकों से भूजल अब तक भारत की जीवन रेखा रहा है, भारत में धंसाव के संभावित आयाम चिंताजनक हैं। भारत दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा बांध निर्माता भी रहा है और संभवत: वर्तमान का सबसे बड़ा बांध निर्माता है। देश भर में धंसाव की निगरानी और मापन तुरंत शुरू करना ज़रूरी है। हमें डेल्टा क्षेत्रों में धंसाव पर बांधों के प्रभाव का भी आकलन करना चाहिए।

जैसा कि ऊपर बताया गया है नदियों के ऊपर बने बांधों में फंसी गाद की मात्रा और इस कारण डेल्टा क्षेत्रों तक नहीं पहुंच रही गाद को देखते हुए डेल्टा क्षेत्रों की स्थिति हमारे लिए चिंता का विषय होनी चाहिए।

भारत में हाल के दिनों में धंसाव की सबसे प्रसिद्ध घटना उत्तराखंड के चमोली जिले के जोशीमठ में हुई थी। यहां धंसाव में अन्य कारकों के अलावा निर्माणाधीन पनबिजली परियोजना की भूमिका होने का संदेह है, लेकिन यह मुद्दा अनसुलझा है।

भूमि धंसाव की कई घटनाएं हुई हैं। सबसे हालिया घटनाएं मई 2024 में रामबन और डोडा ज़िलों में और अब संवेदनशील हिमालयी क्षेत्र के जम्मू और कश्मीर के उधमपुर में हुई हैं। इन घटनाओं के लिए सड़कों और रेलवे सुरंगों के लिए पहाड़ियों को काटने और विस्फोट करने, पनबिजली परियोजनाओं के प्रसार सहित कई कारकों को ज़िम्मेदार ठहराया जा रहा है।

अप्रैल 2024 में राजस्थान में भूमि धंसने की दो बड़ी घटनाएं हुई थीं, जिन्होंने भूगर्भशास्त्रियों और आम लोगों दोनों को चिंता में डाल दिया। दोनों ही घटनाएं रेगिस्तानी ज़िलों में हुईं, जिससे इन दोनों घटनाओं के बीच सम्बंध होने की आशंका बढ़ गई। 16 अप्रैल, 2024 को बीकानेर ज़िले की लूणकरणसर तहसील के सहजरासर गांव में डेढ़ बीघा जमीन धंस गई। उस समय यात्रियों से भरी एक ट्रेन वहां से गुज़र रही थी, लेकिन धंसती ज़मीन की चपेट में आने से बाल-बाल बच गई। धंसाव से करीब 70 फीट गहरा गड्ढा बन गया था। ग्रामीणों के अनुसार अब यह गड्ढा करीब 80-90 फीट गहरा हो गया है।

दूसरी घटना 6 मई 2024 को बाड़मेर ज़िले के नागाणा गांव में हुई। यहां ज़मीन में करीब डेढ़ किलोमीटर लंबी दो दरारें पड़ गई थीं। थार रेगिस्तान में हुई इन दो घटनाओं पर भूगर्भीय टीम ने अन्य कारणों के साथ भूजल दोहन को ज़िम्मेदार ठहराते हुए अपनी प्रारंभिक रिपोर्ट प्रशासन को सौंप दी है। उपग्रह तस्वीरों, जल दोहन के आंकड़ों और अन्य तकनीकी सूचनाओं के आधार पर एक विस्तृत रिपोर्ट आने वाली है।

इससे स्पष्ट है कि हमें काफी अध्ययन करने की ज़रूरत है। (स्रोत फीचर्स)

लेख के दूसरे अंक में इस परिघटना के कारणों व समाधान की चर्चा करेंगे।

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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नील नदी कभी पिरामिडों के पास से गुज़रती थी

मिस्र के पिरामिड प्राचीन दुनिया के सात अजूबों में शुमार हैं, और पुरातत्वविदों के लिए पड़ताल का विषय रहे हैं। गौरतलब है कि ये पिरामिड गीज़ा से लेकर लिश्त तक के रेगिस्तानी इलाके में फैले हुए हैं। यहां से नील नदी कई किलोमीटर दूर बहती है। पुरातत्वविदों को इस सवाल ने हमेशा से परेशान किया है कि यदि प्राचीन समय में भी नील नदी इतनी दूर बह रही थी तो पिरामिडों को बनाने के लिए इतने भारी-भरकम पत्थरों को ढोना कितना मुश्किल रहा होगा। कैसे ढोया गया होगा इस सामग्री को? जबकि कुछ दस्तावेज़ कहते हैं कि पिरामिड को बनाने के लिए सामग्री नावों से लाई जाती थी, लेकिन यदि नदी इतनी दूर है तो ढुलाई कैसे होती होगी?
अलबत्ता, वैज्ञानिकों को काफी समय से यह भी संदेह था कि हो न हो, उस समय नील नदी इन स्थानों के नज़दीक से गुज़रती होगी, जिसने पत्थरों की ढुलाई में मदद की होगी। उनके इस संदेह का आधार था नील नदी के रास्ता बदलने की प्रवृत्ति; देखा गया है कि टेक्टोनिक प्लेटों में हुई बड़ी हलचल के कारण पिछली कुछ सदियों में नील नदी पूर्व की ओर कई किलोमीटर खिसक गई है। साथ ही, अध्ययनों में गीज़ा और लिश्त के बीच के स्थलों पर अतीत में कभी यहां बंदरगाह की उपस्थिति और ऐसे अन्य सुराग मिले थे जो कभी यहां नदी होने के संकेत देते थे। लेकिन इन अध्ययनों में नदी के सटीक मार्ग पता नहीं लगाया जा सका था।
ताज़ा अध्ययन में नॉर्थ कैरोलिना युनिवर्सिटी के भू-आकृति विज्ञानी एमान गोनीम की टीम को इन स्थलों पर एक सूखे हुए नदी मार्ग सरीखी रचना दिखी, जो लगभग 60 किलोमीटर लंबी थी, खेतों के बीच से गुज़र रही थी और करीब उतनी ही गहरी और चौड़ी थी जितनी आधुनिक नील नदी है।
अब बारी थी यह जांचने की कि क्या यह मार्ग किसी प्राचीन नदी का हिस्सा था? मार्ग से लिए गए तलछट के नमूनों की जांच में उन्हें अमूमन नदी के पेंदे में मिलने वाली बजरी और रेत की एक तह मिली। इस जानकारी को शोधकर्ताओं ने उपग्रह से ली गई तस्वीरों के साथ मिलाया और उनका विश्लेषण किया, जिससे वे नदी के बहने का रास्ता चित्रित कर पाए। पता लगा कि नील नदी की यह शाखा लगभग 2686 ईसा पूर्व से लेकर 1649 ईसा पूर्व के बीच बने 30 से अधिक पिरामिडों के पास से होकर बहती थी। शोधकर्ताओं ने इस नदी को अरबी नाम ‘अहरामत‘ दिया है, जिसका अर्थ है पिरामिड।
ऐसा लगता है कि सहारा रेगिस्तान से उड़कर आने वाली रेत और नील नदी के रास्ता बदलने के कारण अहरामत शाखा सूख गई और नौका परिवहन के लायक नहीं रह गई। फिलहाल कुछ जगहों पर कुछ झीलें और नाले ही बचे हैं।
कम्युनिकेशंस अर्थ एंड एनवायरनमेंट में प्रकाशित ये नतीजे उन दस्तावेज़ों के कथन से मेल खाते हैं जो बताते हैं कि पिरामिड निर्माण के लिए सामग्री नाव से लाई जाती थी। अर्थात मिस्रवासी हमारी सोच से कहीं अधिक व्यावहारिक थे। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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जलमग्न पर्वत शृंखला पर मिली व्यापक जैव विविधता

हरे समुद्र में स्थित चट्टानों पर आकर्षक बैंगनी, हरे और नारंगी रंग के स्पॉन्ज हैं। मैरून कांटों वाले समुद्री अर्चिन झुंड में है और खसखसी रंग के क्रस्टेशियंस उनके बीच विचर रहे हैं। पारदर्शी, भूतिया से दिखने वाले जीव अंधेरे में इधर-उधर फिर रहे हैं। ये नज़ारे हैं चिली तट से कुछ दूरी पर स्थित जलमग्न पहाड़ों के आसपास के, जिन्हें श्मिट ओशियन इंस्टीट्यूट के शोधकर्ताओं ने रोबोट पर कैमरा लगाकर कैद किया है।

वास्तव में उन्होंने समुद्र के भीतर फैली नाज़्का और सालास वाई गोमेज़ पर्वतमाला के पास 4500 मीटर की गहराई तक रिकॉर्डिंग की है। ये दो पर्वतमालाएं मिलकर लगभग 3000 किलोमीटर में फैली हैं। यहां उन्हें स्पॉन्ज, एम्फिपोड, समुद्री अर्चिन, क्रस्टेशियंस और मूंगा सहित कई जीवों की करीब 100 से अधिक नई प्रजातियां मिली हैं। उन्होंने चिली के नज़दीक समुद्र के नीचे चार समुद्री पर्वतों का मानचित्रण किया जिनके बारे में पहले पता नहीं था। इनमें से सबसे ऊंचा पर्वत समुद्र तल से 3530 मीटर ऊंचा है, जिसे शोधकर्ताओं ने सोलिटो नाम दिया है।

तस्वीरों के अलावा, रोबोट यहां से कुछ जीवों को लेकर भी आया है। इनकी मदद से उनकी प्रजातियों को पहचानने या उन्हें नई प्रजातियों में वर्गीकृत करने में मदद मिलेगी। इन नई प्रजातियों से वैज्ञानिकों को इस विशाल क्षेत्र की जटिल वंशावली बनाने और इन जीवों को अस्तित्व में लाने वाले वैकासिक पड़ावों के बारे में जानने में मदद मिल सकती है। शोधकर्ताओं का कहना है कि इन समुद्री पर्वतों पर इतनी अधिक जैव विविधता पाए जाने और बचे रहने का श्रेय काफी हद तक इन जगहों के समुद्री पार्क के रूप में संरक्षण को जाता है। इस क्षेत्र का काफी बड़ा हिस्सा चिली द्वारा प्रशासित जुआन फर्नांडीज़ और नाज़्का-डेसवेंचुरडास समुद्री पार्कों के अंतर्गत संरक्षित है। (स्रोत फीचर्स)

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गुमशुदा जलमग्न महाद्वीप का मानचित्र

क हालिया खोज में, शोधकर्ताओं ने दक्षिण प्रशांत महासागर में जलमग्न महाद्वीप ज़ीलैंडिया के रहस्यों का खुलासा किया है। यह खोज पारंपरिक धारणाओं को चुनौती देती है और न्यूज़ीलैंड को देखने के हमारे तरीके को बदलने के साथ पृथ्वी के भूवैज्ञानिक अतीत की नई समझ प्रदान करती है। वैज्ञानिकों ने यह खुलासा चट्टानों के नमूनों, और चुंबकीय मानचित्रण से जुड़ी एक जटिल प्रक्रिया के माध्यम से किया है।

ज़ीलैंडिया या स्थानीय माओरी भाषा में ते रिउ-ए-माउई नामक इस भूखंड को सात वर्ष पूर्व एक भूविज्ञानी निक मॉर्टिमर द्वारा प्रकाश में लाया गया था। हाल ही में टेक्टोनिक्स जर्नल में प्रकाशित एक अध्ययन में, मॉर्टिमर और उनकी टीम ने इस जलमग्न महाद्वीप के करीब 50 लाख वर्ग किलोमीटर का मानचित्रण कर लिया है। वर्तमान में कुछ द्वीपों के समूह के रूप में न्यूज़ीलैंड की आम धारणा के विपरीत, ज़ीलैंडिया एक विशाल महाद्वीप के रूप में उभरता है, जो ऑस्ट्रेलिया के आकार का लगभग आधा है और समुद्र में डूबा हुआ है। इस खोज से भूवैज्ञानिक इतिहास और पृथ्वी के महाद्वीपीय विकास की महत्वपूर्ण जानकारी मिलती है।

इस अध्ययन के लिए 2016 में मॉर्टिमर ने ज़ीलैंडिया के उत्तरी क्षेत्र से ग्रेनाइट चट्टानें और तलछटी नमूने लिए थे। ग्रेनाइट के इन टुकड़ों का विश्लेषण कई चरणों में किया गया: उन्हें कूटकर छाना गया और टुकड़ों को भारी द्रव में डाला गया। कुछ टुकड़े तैरने लगे जबकि अन्य डूब गए। डूबी सामग्री से चुंबकीय खनिजों को अलग करने के लिए चुंबकीय पृथक्करण किया गया। इसके बाद, वैज्ञानिकों ने बची हुई सामग्री का सूक्ष्मदर्शी से सावधानीपूर्वक निरीक्षण किया और ज़रकॉन रवों को अलग किया।

इन एक-तिहाई मिलीमीटर के ज़रकॉन ने ज़ीलैंडिया के भूवैज्ञानिक इतिहास को जानने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। ज्वालामुखी मैग्मा के ठंडा होने के दौरान बने इन क्रिस्टलों में रेडियोधर्मी तत्व युरेनियम होता है जो समय के साथ क्षय होते हुए सीसे में परिवर्तित होता है। वैज्ञानिक उनकी उम्र का पता लगाने के लिए ज़रकॉन में इन तत्वों के अनुपात को मापते हैं। जीलैंडिया के ग्रेनाइट में मैग्मा की डेटिंग से पता चलता है कि यह लगभग 10 करोड़ वर्ष पुराना है जो पूर्ववर्ती सुपरमहाद्वीप के टूटने के समय से मेल खाता है।

ये जानकारियां केवल आंशिक समझ प्रदान कर रही थीं। इसको अधिक गहराई से समझने के लिए टीम ने चुंबकीय क्षेत्र की विसंगतियों का पता लगाने का निर्णय लिया और जहाज़ों, अंतरिक्ष में और ज़मीन पर लगे सेंसरों के माध्यम से चुंबकीय मानचित्रण किया। पता चला कि अधिकतर चट्टानें अतीत की ज्वालामुखी गतिविधि से निर्मित बेसाल्ट के बनी थीं। इस तरह बने चुंबकीय मानचित्रों से ज़ीलैंडिया की संरचना का पता चला।

वैज्ञानिकों ने यह भी पाया कि पूर्व में पाए गए ज्वालामुखीय क्षेत्रों में ये चुंबकीय चट्टानें बेतरतीब बिखरी नहीं थी बल्कि समुद्र में डूबी पर्पटी के दरार क्षेत्र के समांतर या लंबवत थीं जहां से ये महाद्वीप अलग-अलग हुए थे। मॉर्टिमर के अनुसार ऐसा लगता है कि ये क्षेत्र ज़ीलैंडिया और अंटर्कटिका के अलग होने से ठीक पहले सुपरमहाद्वीप गोंडवाना में तनाव से सम्बंधित हैं।

गौरतलब है कि पृथ्वी की महाद्वीपीय परत चक्रीय विकास से गुज़रती है: सबसे पहले एक सुपरमहाद्वीप के रूप में विशाल भूखंड होता है, फिर उसके छोटे-छोटे टुकड़ होते हैं और अंतत: ये फिर से जुड़ जाते हैं। लगभग 30 से 25 करोड़ वर्ष पूर्व सुपरमहाद्वीप पैंजिया के दक्षिण में गोंडवाना और उत्तर में लॉरेशिया शामिल थे, जो अंतत: अलग हो गए थे।

इस अलगाव के दौरान, महाद्वीपीय पर्पटी के खिंचने से नई प्लेट सीमाओं का निर्माण हुआ। लगभग 10 करोड़ वर्ष पूर्व गोंडवाना के भीतर एक दरार ने ज्वालामुखीय गतिविधि को जन्म दिया, जिससे लगभग 6 करोड़ वर्ष पहले तक यह परत पिज़्ज़ा के आटे की तरह खिंचती गई। इसके बाद जैसे-जैसे यह क्षेत्र ठंडा हुआ, ज़ीलैंडिया घना होता गया और लगभग 2.5 करोड़ वर्ष पहले पूरा का पूरा समुद्र में डूब चुका था। आज, ज़ीलैंडिया का केवल पांच प्रतिशत हिस्सा पानी के ऊपर उभरा हुआ है जिसे हम न्यूज़ीलैंड, न्यू कैलेडोनिया और कुछ ऑस्ट्रेलियाई द्वीपों के रूप में देख सकते हैं।

वर्तमान में जलमग्न ज़ीलैंडिया महाद्वीप का उत्तरी भाग तो ऑस्ट्रेलिया से जुड़ा हुआ है, जबकि दक्षिणी भाग अंटार्कटिका से सटा है।

आगे की खोज में 2019 में प्राप्त 50 से अधिक नमूनों को शामिल किया जाएगा जो ज़ीलैंडिया के भूगर्भीय इतिहास को जानने के लिए आवश्यक है। बहरहाल इस खुलासे के बाद भी शोधकर्ता ज़ीलैंडिया की वर्तमान समझ को एक धुंधली तस्वीर के रूप में देखते हैं और अतिरिक्त नमूनों और विश्लेषण की प्रतीक्षा कर रहे हैं। (स्रोत फीचर्स)

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प्राचीन सौर तूफान से तबाही के चिंह

गभग 14,300 साल पहले फ्रांस स्थित चीड़ के जंगल में एक असाधारण घटना घटी थी जिसके निशान हाल ही में उजागर हुए हैं। ‘मियाके इवेंट’ नामक इस घटना में सौर कणों की इतनी शक्तिशाली बमबारी हुई थी कि ऐसी घटना यदि आज हुई होती तो इससे संचार उपग्रह तो नष्ट होते ही, साथ में दुनिया भर की बिजली ग्रिड को भी गंभीर नुकसान हुआ होता। यह दिलचस्प जानकारी पेरिस स्थित कॉलेज डी फ्रांस के जलवायु विज्ञानी एडुआर्ड बार्ड के नेतृत्व में किए गए एक अध्ययन से मिली है। उन्होंने फ्रांस के आल्प्स जंगलों में नदी के किनारे दबे पेड़ों के वलयों की जांच करके यह जानकारी दी है।

ऐसा माना जाता है कि मियाके घटनाएं सूर्य द्वारा उत्सर्जित उच्च-ऊर्जा प्रोटॉन्स के परिणामस्वरूप होती हैं। क्योंकि आधुनिक समय में अभी तक ऐसी कोई भी घटना नहीं देखी गई है इसलिए वैज्ञानिक इस रहस्य को जानने का प्रयास कर रहे हैं। हालांकि सूरज से ऊर्जावान कणों के बौछार की घटनाएं देखी गई हैं लेकिन मियाके घटना अब तक ज्ञात दस सबसे बड़ी घटनाओं में से एक है। इसका ऊर्जा स्तर 1859 की सौर चुंबकीय कैरिंगटन घटना से भी अधिक था।

गौरतलब है कि सूरज से ऊर्जित कणों से सम्बंधित घटनाओं के सबूत पेड़ की वलयों और बर्फ के केंद्रीय भाग में दर्ज हो जाते हैं, जिसमें आवेशित सौर कण वायुमंडल के अणुओं से संपर्क में आने पर कार्बन के रेडियोधर्मी समस्थानिक, कार्बन-14 में वृद्धि करते हैं। कार्बन-14 समय के साथ क्षय होता रहता है और इसके क्षय की स्थिर दर इसे कार्बनिक पदार्थों की डेटिंग के लिए उपयोगी बनाती है। पेड़ की वलयों में कार्बन-14 की बढ़ी हुई मात्रा मियाके घटना की ओर इशारा करती है।

विशेषज्ञों के अनुसार आखिरी ग्लेशियल मैक्सिमम के अंत में बर्फ की चादरों के पिघलने से नदियों का बहाव तेज़ हो गया। बहाव के साथ आने वाली तलछट के नीचे ऑक्सीजन विहीन पर्यावरण में पेड़ों के तने संरक्षित रहे। ये पेड़ आज भी सीधे खड़े हैं। 172 पेड़ों से लिए गए कार्बन-14 नमूनों का अध्ययन करने पर 14,300 साल पहले कार्बन-14 की अतिरिक्त मात्रा का पता चला।

समय की सही गणना के लिए शोधकर्ताओं ने सौर गतिविधि के एक अन्य संकेतक – बर्फीली कोर में बेरीलियम-10 – अध्ययन किया और पाया कि कार्बन-14 और बेरीलियम-10 दोनों में वृद्धि एक ही समय दर्ज हुई हैं, जो अभूतपूर्व सौर गतिविधि का संकेत है।

फिलॉसॉफिकल ट्रांज़ेक्शन्स ऑफ रॉयल सोसायटी-ए में प्रकाशित यह खोज इसलिए दिलचस्प मानी जा रही है कि यह घटना अपेक्षाकृत शांत सौर हलचल के दौरान हुई। अनुमान है कि सूर्य की सतह के नीचे चुंबकीय क्षेत्र बनकर सौर तूफान के रूप में फूट गया होगा।

वैज्ञानिक सौर तूफानों की आवृत्ति और उसके नतीजों को बेहतर समझने का प्रयास कर रहे हैं। आज प्रौद्योगिकी पर हमारी अत्यधिक निर्भरता के कारण इनके परिणाम घातक हो सकते हैं। संचार, पॉवर ग्रिड और जीपीएस पर निर्भर वित्तीय बाज़ार अधिक प्रभावित होंगे। (स्रोत फीचर्स)

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भूमिगत हाइड्रोजन भंडारों की खोज

मेरिका की एडवांस्ड रिसर्च प्रोजेक्ट्स एजेंसी-एनर्जी (एआरपीए-ई) भूमिगत स्वच्छ हाइड्रोजन का पता लगाने के लिए 2 करोड़ डॉलर का निवेश कर रही है। यह निवेश स्वच्छ उर्जा उत्पादन के क्षेत्र में एक क्रांतिकारी परिवर्तन ला सकता है। एआरपीए-ई उन्नत ऊर्जा प्रौद्योगिकियों के अनुसंधान एवं विकास को वित्तीय सहायता प्रदान करने वाला एक सरकारी संस्थान है।

ऐसा माना जा रहा है कि हाइड्रोजन जीवाश्म ईंधन का एक विकल्प हो सकती है। लेकिन कम ऊर्जा घनत्व, उत्पादन के पर्यावरण प्रतिकूल तौर-तरीकों और बड़ी मात्रा में जगह घेरने के कारण हाइड्रोजन के उपयोग की कई चुनौतियां भी हैं। वर्तमान में हाइड्रोजन का उत्पादन औद्योगिक स्तर पर भाप और मीथेन की क्रिया से किया जाता है जिसमें कार्बन डाईऑक्साइड निकलती है जो एक ग्रीनहाउस गैस है। इससे निपटने के लिए दुनिया भर में ब्लू हाइड्रोजन (जिसमें उत्पादन के दौरान उत्पन्न कार्बन डाईऑक्साइड को कैद कर लिया जाता है) और ग्रीन हाइड्रोजन (पानी के विघटन) जैसे तरीकों से स्वच्छ हाइड्रोजन उत्पादन के प्रयास चल रहे हैं।

हाइड्रोजन उत्पादन की इस दौड़ में अब ‘भूमिगत’ या ‘प्राकृतिक’ हाइड्रोजन को खोजने के प्रयास किए जा रहे हैं। यह सस्ता और पर्यावरण के अनुकूल साबित हो सकता है। हाल ही में पश्चिमी अफ्रीका स्थित माली के नीचे विशाल हाइड्रोजन क्षेत्र की खोज और पुराने बोरहोल में शुद्ध हाइड्रोजन की रहस्यमयी उपस्थिति ने इस क्षेत्र में पुन: रुचि उत्पन्न की है। फिलहाल हाइड्रोजन खोजी लोग महाद्वीपों के प्राचीन, क्रिस्टलीय कोर का अध्ययन कर रहे हैं। इन स्थानों पर लौह-समृद्ध चट्टानों में खोज चल रही है जो सर्पेन्टिनाइज़ेशन नामक प्रक्रिया से हाइड्रोजन उत्पादन को बढ़ावा दे सकते हैं।

गौरतलब है कि एआरपीए-ई कार्यक्रम मौजूदा भंडारों का पता लगाने पर नहीं बल्कि कृत्रिम ढंग से सर्पेन्टिनाइज़शन के माध्यम से हाइड्रोजन उत्पादन में तेज़ी लाने के तरीके खोजने पर केंद्रित है।

विशेषज्ञों का अनुमान है कि हाइड्रोजन उत्पादन दक्षता बढ़ाने के उद्देश्य से एआरपीए-ई फंडिंग का अधिकांश हिस्सा मॉडलिंग और प्रयोगशाला-आधारित अनुसंधान के लिए होगा। इसके अतिरिक्त, इन अभिक्रियाओं को समझने तथा भूपर्पटी में पदार्थों को इंजेक्ट करने से जुड़े जोखिमों का आकलन करने के लिए भी फंड निधारित किया गया है।

पिछले कुछ समय से प्राकृतिक हाइड्रोजन की खोज ने कई स्टार्टअप कंपनियों को जन्म दिया है। ये कंपनियां कम ताप और दाब पर हाइड्रोजन उत्पादन के तरीकों की खोज कर रही हैं जिनकी मदद से ओमान जैसे स्थानों में सतह के पास पाए जाने वाले लौह-समृद्ध भंडार से हाइड्रोजन उत्पन्न की जा सकेगी।

इस क्षेत्र में अपार संभावनाओं को देखते हुए कई प्रमुख तेल कंपनियां भी इस क्षेत्र में प्रवेश कर रही हैं। निवेश के उत्साह को देखते हुए पृथ्वी में छिपे हुए हाइड्रोजन भंडार की खोज में तेज़ी आएगी और हम भविष्य में एक स्वच्छ और लंबे समय तक प्राप्य ऊर्जा स्रोत की उम्मीद कर सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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