पिछले कुछ वर्षों से प्लास्टिक उत्पादन में काफी तेज़ी से वृद्धि हुई है। वर्ष 2050 तक इसका उत्पादन प्रति वर्ष एक अरब टन होने की संभावना है। इसके चलते प्लास्टिक प्रदूषण में वृद्धि निश्चित है। इस समस्या से निपटने के लिए उरुग्वे में 150 से अधिक देशों के बीच एक बैठक का आयोजन किया जा रहा है।
गौरतलब है कि इस वर्ष मार्च में संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण सभा ने निर्णय किया था कि प्लास्टिक कचरे को नियंत्रित करने के लिए एक बाध्यकारी संधि लाई जाए। इस संधि में प्लास्टिक उत्पादन से लेकर उसके निपटारे तक के संपूर्ण जीवनचक्र को शामिल किया जाएगा। इस संधि को 2024 तक अंतिम रूप दिए जाने की उम्मीद है। इस अवधि में राष्ट्रों को मिलकर प्लास्टिक प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिए नियम और रणनीतियां तैयार करने का चुनौतीपूर्ण कार्य करना होगा। नेचर पत्रिका के एक संपादकीय के मुताबिक इस संदर्भ में तीन प्रमुख मुद्दों को संबोधित करना होगा और इनसे निपटने की दृष्टि से कुछ सुझाव भी दिए गए हैं।
प्रदूषण
तमाम समुद्री कचरे में से लगभग 85 प्रतिशत तो प्लास्टिक कचरा है। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) का अनुमान है कि समुद्रों में प्रति वर्ष लगभग 2.3-3.7 करोड़ टन कचरा पहुंचेगा और वर्ष 2040 तक समुद्र में प्लास्टिक कचरे की मात्रा तिगुनी हो जाएगी। दरअसल, अधिकांश प्लास्टिक कचरा उत्पन्न तो भूमि पर होता है लेकिन नदियों से होते हुए अंतत: समुद्रों में पहुंच जाता है।
ऑस्ट्रेलिया स्थित मिंडेरू फाउंडेशन के अनुसार समाज के लिए प्लास्टिक प्रदूषण की लागत प्रति वर्ष 100 अरब डॉलर से अधिक होती है जिसमें पर्यावरण की सफाई और पारिस्थितिक क्षति शामिल हैं। यह लागत प्लास्टिक प्रदूषण को संबोधित न करने की वजह से पैदा होती है।
इस सम्बंध में दक्षिण अफ्रीका स्थित काउंसिल फॉर साइंटिफिक एंड इंडस्ट्रियल रिसर्च की प्रमुख वैज्ञानिक लिंडा गॉडफ्रे के अनुसार संधि वार्ताकारों को प्लास्टिक प्रदूषण समस्या हल करने सम्बंधी विभिन्न प्रतिस्पर्धी विचारों से निपटना होगा। जैसे गैर-सरकारी संगठन और कार्यकर्ता एकल-उपयोग वाले प्लास्टिक पर प्रतिबंध लगाने और सुरक्षित विकल्प खोजने पर ज़ोर देते हैं। दूसरी ओर, प्लास्टिक उद्योग का मत है कि कचरे के बेहतर संग्रहण के माध्यम से प्रदूषण से निपटा जा सकता है। इन दोनों से अलग, अपशिष्ट प्रबंधन और पुनर्चक्रण उद्योग अधिक से अधिक पुनर्चक्रण की वकालत करते हैं।
गॉडफ्रे को उम्मीद है कि संधि में इन सारे उपायों का समावेश होगा। वैसे प्रत्येक उपाय का अनुपात हरेक देश के लिए भिन्न हो सकता है। उनका मत है कि उच्च आय वाले देशों से निम्न आय वाले देशों में प्लास्टिक कचरे के स्थानांतरण पर प्रतिबंध लगाने से भी प्रदूषण काफी कम किया जा सकता है।
गॉडफ्रे यह भी चाहती हैं कि इस संधि के माध्यम से प्लास्टिक निर्माता उनके द्वारा बनाए गए उत्पादों के संग्रहण, छंटाई और पुनर्चक्रण की भी ज़िम्मेदारी व खर्च उठाएं। इससे लैंडफिल में प्लास्टिक प्रदूषण में कमी आएगी और स्थानीय निकायों पर अपशिष्ट प्रबंधन का वित्तीय बोझ भी कम होगा। इसके साथ ही समुद्रों में प्लास्टिक की मात्रा को कम करने के लिए संधि में यह भी शामिल होना चाहिए कि विभिन्न देश अपने द्वारा उपयोग किए जाने वाले प्लास्टिक की मात्रा को कम करने का लक्ष्य एक समय सीमा में निर्धारित करें।
पुनर्चक्रण
वर्तमान में केवल 9 प्रतिशत प्लास्टिक कचरे का पुनर्चक्रण किया जा रहा है क्योंकि इस कचरे का मूल्य बहुत कम है। यदि इसका मूल्य अधिक होता तो अधिक से अधिक प्लास्टिक का पुन:उपयोग किया जाता, पर्यावरण में यह कम मात्रा में पहुंचता और नए प्लास्टिक उत्पादन की ज़रूरत भी कम होती। इसे वर्तुल अर्थव्यवस्था कहा जाता है।
प्लास्टिक क्षेत्र में वर्तुल अर्थव्यवस्था के लिए ऑस्ट्रेलिया के अरबपति व मिंडेरू फाउंडेशन के अध्यक्ष एंड्रयू फॉरेस्ट ने इस संधि के माध्यम से पॉलीमर (प्लास्टिक निर्माण के बुनियादी घटक) के निर्माण पर अधिभार लगाने का प्रस्ताव दिया है। इससे प्राप्त राशि का उपयोग पुनर्चक्रण के लिए किया जा सकता है।
इसके अलावा वे प्लास्टिक उत्पाद बेचने वाले खुदरा विक्रेताओं से प्लास्टिक कचरा वापस खरीदने और इसका पुन: उपयोग करने के तरीके खोजने का भी सुझाव देते हैं। हालांकि खुदरा विक्रेताओं पर पड़ने वाली अतिरिक्त लागत का प्रभाव सीधे तौर पर उपभोक्ताओं पर पड़ेगा लेकिन फॉरेस्ट को उम्मीद है कि उपभोक्ता उन उत्पादों के लिए अधिक भुगतान करने को तैयार होंगे जिससे पर्यावरण में पहुंचने वाले प्लास्टिक की मात्रा कम होती है। इस विचार को अपनाने से ऐसे प्लास्टिक का उत्पादन बंद हो जाएगा जिसका पुन: उपयोग या पुनर्चक्रण नहीं किया जा सकता क्योंकि उन्हें पुन: खरीदने वाला कोई नहीं होगा।
फॉरेस्ट चाहते हैं कि इस संधि के माध्यम से अगले पांच वर्षों में एक ऐसी प्रणाली विकसित हो जिसके तहत प्लास्टिक प्रदूषण करने वाली कंपनियों को दंडित किया जा सके। ऐसा होने पर कंपनियां अपने वर्तमान तौर-तरीकों को बदलेंगी।
हालांकि गॉडफ्रे प्लास्टिक में वर्तुल अर्थव्यवस्था को लेकर शंका में हैं क्योंकि अभी तक पुनर्चक्रित प्लास्टिक से होने वाले स्वास्थ्य जोखिमों के बारे में बहुत कम जानकारी है। कहीं ऐसा न हो कि हम पर्यावरण बचाने के चक्कर में स्वास्थ्य जोखिम बढ़ा दें।
सामाजिक और स्वास्थ्य प्रभाव
पूरे विश्व और विशेष रूप से एशिया में प्लास्टिक कचरे को जला दिया जाता है। इससे काफी कम समय में कचरा कम हो जाता है और यह बैक्टीरिया, वायरस और मच्छरों का प्रजनन स्थल नहीं बन पाता। लेकिन प्लास्टिक के जलने से भारी वायु प्रदूषण होता है। बाहरी वायु प्रदूषण मृत्यु का एक प्रमुख कारण है। कई क्षेत्रों में तो प्लास्टिक भूदृश्य का एक हिस्सा बन चुका है और स्वास्थ्य के लिए एक बड़ा खतरा बना हुआ है। यह मिट्टी में रच-बस गया है और इसे हटाना एक बड़ी चुनौती होगी।
कई अध्ययनों से पता चला है कि माइक्रोप्लास्टिक सांस, भोजन और पानी के माध्यम से शरीर में प्रवेश कर सकता है। नैनोप्लास्टिक से मानव त्वचा और फेफड़े की कोशिकाओं में क्षति और सूजन पैदा करने के भी साक्ष्य मिले हैं। प्लास्टिक में बिसफेनॉल-ए, थेलेट्स और पीसीबी जैसे पदार्थ मिलाए जाते हैं जो अंतःस्रावी गड़बड़ी और प्रजनन सम्बंधी विकारों का कारण बन सकते हैं। इस सम्बंध में कई विशेषज्ञ इस संधि के माध्यम से प्लास्टिक में उपयोग किए जाने वाले रसायनों पर प्रतिबंध लगाने या उसको चरणबद्ध तरीके से खत्म करने का सुझाव देते हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://images.nature.com/original/magazine-assets/d41586-022-03835-w/d41586-022-03835-w_23749666.jpg
जलवायु परिवर्तन के चलते होने वाले नुकसान का अधिकांश आकलन इंसानों, पशु-पक्षियों और पेड़ पौधों पर होने वाले प्रभावों को केंद्र में रखकर होता रहा है। लेकिन जलवायु परिवर्तन और कीट-पतंगों के बीच के सम्बंधों पर बहुत कम ही अध्ययन हुए हैं।
इस विषय पर हुए एक हालिया अध्ययन से पता चला है कि जलवायु परिवर्तन की वजह से अधिकांश कीट पतंगों की आबादियां विलुप्त होने वाली है। इस अध्ययन में यह भी बताया गया है कि जलवायु परिवर्तन की वजह से जानवरों और अन्य जीवों में विलुप्त होने का जोखिम पूर्व अनुमानों की तुलना में ज़्यादा हो गया है। दरअसल, अमरीकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा ने अपने अध्ययन में पाया है कि मौसमी बदलावों की वजह से धरती के 65 फीसदी कीट अगली सदी तक विलुप्त हो जाएंगे। तापमान में हो रहा बदलाव कीटों की आबादी को अस्थिर करते हुए विलुप्ति के जोखिम को बढ़ाएगा। शोधकर्ताओं ने पाया कि अध्ययन में शामिल 38 कीट प्रजातियों में से 25 को विलुप्ति का सामना करना पड़ेगा। मौसमी बदलावों की स्थिति में कीटों का अस्तित्व सबसे ज़्यादा खतरे में है, क्योंकि ये अपने शरीर के तापमान को नियंत्रित करने में समर्थ नहीं होते।
कीटों की विलुप्ति पारिस्थितिक तंत्र को प्रभावित करेगी, क्योंकि ये परागण के माध्यम से फलों, सब्ज़ियों और फूलों के उत्पादन में सहायता करते हैं। यानी कीटों पर विलुप्ति का संकट किसी बड़ी चुनौती से कम आंकना खतरनाक साबित हो सकता है। लिहाज़ा, समय रहते जलवायु परिवर्तन के कारणों पर अंकुश लगाने की आवश्यकता है।
अमेरिका के मैरीलैंड विश्वविद्यालय की एक रिपोर्ट में भी कहा गया था कि जलवायु परिवर्तन से कुछ कीट जीवित रहने के लिए ठंडे वातावरण की ओर पलायन को मजबूर होंगे, जबकि अन्य की प्रजनन क्षमता, जीवन चक्र और अन्य प्रजातियों के साथ समन्वय प्रभावित होगा। जलवायु परिवर्तन के अलावा कीटनाशक, प्रकाश प्रदूषण, आक्रामक प्रजातियां और कृषि व भूमि उपयोग में बदलाव भी इनके लिए बड़े खतरे हैं। बता दें कि दुनिया भर के सभी ज्ञात जीवों में से 75 प्रतिशत कीट हैं। वर्ष 2019 में हुए एक शोध में भी वैज्ञानिकों ने चेताया था कि एक दशक बाद 25 फीसदी, 50 साल में आधे और 100 साल में सभी कीट धरती से पूरी तरह से गायब हो जाएंगे। हालांकि तब इनकी विलुप्ति का बड़ा कारण कीटनाशकों को माना गया था। नए अध्ययन में पाया गया है कि 20वीं सदी की शुरुआत से ही कीटों की तादाद घटने लगी थी। इसके लिए कीटनाशकों को ज़िम्मेदार ठहराया गया है। लेकिन सबसे चिंताजनक बात यह है कि बीते दशकों में दुनिया भर में कीटों की कई प्रजातियां 70 फीसदी तक कम हुई हैं। वैश्विक स्तर पर इनकी तादाद 2.5 फीसदी प्रति वर्ष की दर से कम हो रही है। अध्ययन में चेताया गया है कि इन्हें जानवरों, सरीसृपों और पक्षियों की तुलना में विलुप्ति का खतरा 8 गुना ज़्यादा है। यह बेहद चिंताजनक स्थिति को दर्शाता है।
कीटों के बिना प्रकृति का संतुलन बिगड़ना तय है। आम आदमी के मस्तिष्क में इस सवाल का कौंधना स्वाभाविक है कि आखिर ये कीट हमारे पारिस्थितिकी संतुलन बनाए रखने में कैसे मददगार हैं? कीट पोषक पदार्थों के चक्रण, पौधों के परागण और बीजों के प्रसार में सहायक होते हैं। इसके अतिरिक्त, ये मृदा संरचना को बनाए रखने, उर्वरता में सुधार करने तथा अन्य जीवों की जनसंख्या को नियंत्रित करने के साथ-साथ खाद्य शृंखला में एक प्रमुख खाद्य स्रोत के रूप में भी कार्य करते हैं। पृथ्वी पर लगभग 80 फीसदी पादपों का परागण कीटों द्वारा किया जाता है। इसके अतिरिक्त, लेडीबर्ड बीटल्स, लेसविंग, परजीवी ततैया जैसे कीट अन्य हानिकारक कीटों, आर्थ्रोपोड्स और कशेरुकियों को नियंत्रित करते हैं। गुबरैला एक रात में अपने वज़न के लगभग 250 गुना गोबर को निस्तारित कर सकता है। ये गोबर को खोदकर और उपभोग करके मृदा पोषक-चक्र व उसकी संरचना में सुधार करते हैं। गुबरैले की अनुपस्थिति गोबर पर मक्खियों को एक प्रकार से निवास प्रदान कर सकती है। पर्यावरण की सफाई में भी इनकी महती भूमिका है। ये मृत और जैविक अपशिष्टों के विघटन में सहायक होते हैं। विघटन की प्रक्रिया के बिना बीमारियों का प्रसार तेज़ होने के साथ-साथ कई जैविक-चक्र भी प्रभावित होंगे। कीट पारिस्थितिकी तंत्र के स्वास्थ्य संकेतक के रूप में कार्य करते हैं। साथ ही, वैज्ञानिक अनुसंधान में मॉडल के रूप में इन कीटों का उपयोग होता आया है।
कई प्रयासों के बावजूद हम जलवायु परिवर्तन को रोकने में नाकामयाब रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम की एक रिपोर्ट की मानें तो विश्व में प्रतिदिन औसतन 50 प्रकार के जीवों का विनाश हो रहा है जो वास्तव में आनुवंशिक विनाश है। ऑस्ट्रेलिया के पूर्वी तट पर प्रवाल जीवों के असामयिक विनाश का मुख्य कारण भी ओज़ोन परत में ह्रास को माना जा रहा है जिसके लिए ग्रीन हाउस गैसें ज़िम्मेदार है। ग्रीन हाउस गैसों में तीव्र वृद्धि के परिणामस्वरूप भूमंडलीय ताप में वृद्धि हुई है। एक अनुमान के मुताबिक, वायुमंडल में कार्बन डाईऑक्साइड की मात्रा में लगातार इजाफा होता रहा तो 1900 की तुलना में 2030 में वैश्विक तापमान में 3 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हो सकती है।
इसलिए हमें जलवायु परिवर्तन को रोकने के भरसक प्रयास करने होंगे। अगर समय रहते जलवायु परिवर्तन को नहीं रोका गया तो संभव है कि निकट भविष्य में खाद्य असुरक्षा, संक्रामक बीमारियों के प्रसार जैसे गंभीर हालातों से गुज़रना पड़े। कहना न होगा कि पर्यावरण संरक्षण की दिशा में सतत प्रयासों की सख्त दरकार है। (स्रोत फीचर्स)
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संयुक्त राष्ट्र ने 2021-2030 के दशक को पारिस्थितिकी तंत्र की बहाली का दशक घोषित किया है। और कई देशों ने वित्तदाताओं की मदद से उजाड़ जंगलों को बहाल करने के महत्वाकांक्षी कार्यक्रम भी शुरू कर दिए हैं। पिछले हफ्ते कॉप-27 में, युरोपीय संघ और 26 देशों ने जलवायु परिवर्तन को धीमा करने के लिए वनों को बढ़ावा देने के लिए 16 अरब डॉलर खर्चने का वादा किया है चूंकि पेड़ कार्बन सोखकर जलवायु परिवर्तन को थाम सकते हैं। इसका एक बड़ा हिस्सा पुनर्वनीकरण पर खर्च किया जाएगा। लेकिन इस बारे में मालूमात बहुत कम है कि इसे कैसे किया जाए।
विश्व संसाधन संस्थान के अनुसार वर्ष 2000 से 2020 के बीच वन क्षेत्र में कुल 13 लाख वर्ग किलोमीटर की वृद्धि हुई है, जिसमें चीन और भारत अग्रणि रहे हैं। लेकिन इन नए वनों में से लगभग 45 प्रतिशत प्लांटेशन हैं, यानी इन वनों में एक ही प्रजाति के वृक्षों का वर्चस्व है। प्राकृतिक वनों की तुलना में ये जैव विविधता और दीर्घकालिक कार्बन भंडारण के लिहाज़ा कम लाभप्रद हैं।
कई पुनर्वनीकरण परियोजनाएं इस बात पर ज़्यादा ध्यान देती हैं कि कितने पेड़ लगाए गए और इन बातों पर कम ध्यान देती हैं कि कितने जीवित बचे, कितने स्वस्थ हैं, उन वनों में कितनी विविधता है, या वे कितना कार्बन सोखते हैं। दरअसल, हम इस बारे में बहुत कम जानते हैं कि किस तरह का वनीकरण कारगर है, कहां कारगर है, और क्यों।
पिछले हफ्ते प्रकाशित फिलॉसॉफिकल ट्रांज़ेक्शन ऑफ रॉयल सोसाइटी का एक विशेषांक इस बारे में मार्गदर्शक है। इनमें से एक अध्ययन दक्षिण और दक्षिण-पूर्व एशिया की वनीकरण परियोजनाओं पर गहराई से नज़र डालता है जो इसकी चुनौतियां उजागर करती हैं। यूके सेंटर फॉर इकॉलॉजी एंड हाइड्रोलॉजी की वन पारिस्थितिकीविद लिंडसे बैनिन और उनके साथियों ने इस बाबत डैटा का अध्ययन किया कि 176 पुनर्विकसित स्थलों की अलग-अलग मिट्टी और जलवायु में अलग-अलग तरह के पेड़-पौधे कितनी अच्छी तरह से पनपे। पाया गया कि कुछ स्थानों पर, पांच में से मात्र एक पौधा जीवित रहा, जबकि औसतन मात्र 44 प्रतिशत पौधे ही 5 वर्ष से अधिक जीवित रह पाए।
अलबत्ता, इस अध्ययन ने एक उत्साहजनक बात दर्शाई है: परिपक्व पेड़ों के पास रोपे गए पौधों में से औसतन 64 प्रतिशत पौधे जीवित रहे, शायद इसलिए क्योंकि ये जगहें उतनी बर्बाद नहीं हुई थीं। अन्य अध्ययन बताते हैं कि बागड़ लगाकर मवेशियों को बाहर रखने और मिट्टी की हालत में सुधार करने जैसे उपायों से भी पौधों के जीवित रहने की संभावना बढ़ सकती है, लेकिन ये उपाय महंगे हो सकते हैं।
एकाध ऐसी प्रजातियों के पौधे लगाने से भी मदद मिल सकती है जो अपने आप आसानी से फल-फूल-फैल जाती हैं। ये प्रजातियां अन्य प्रजातियों के पनपने का मार्ग प्रशस्त करती हैं। चियांग माई विश्वविद्यालय के पादप पारिस्थितिकीविद स्टीफन इलियट और पिमोनरेट तियानसावत के अध्ययन का निष्कर्ष है कि प्रारंभिक प्रजातियां ऐसी होनी चाहिए जो उस क्षेत्र की स्थानीय हों, जो खुले क्षेत्रों में पनपती हों, तेज़ी से बढ़ती हों, खरपतवार को पनपने से रोकती हों और बीज फैलाने वाले पशु-पक्षियों को आकर्षित करती हों। ऑस्ट्रेलिया में एक झाड़ी, (ब्लीडिंग हार्ट – होमलैंथस नोवोगुइनेंसिस) का उपयोग प्रभावी स्टार्टर के तौर पर किया जाता है। इसकी जड़ें मिट्टी को पोला करती हैं और इसकी पत्तियां मिट्टी में पोषक तत्व जोड़ती हैं, जो अन्य प्रजातियों को वहां पनपने में मदद करता है। और इसके गूदेदार हरे फल बीज फैलाने वाले जानवरों को आकर्षित करते हैं।
पौधारोपण के लिए सही जगह का चुनाव भी महत्वपूर्ण है। वेगनिंगेन युनिवर्सिटी एंड रिसर्च के पारिस्थितिकीविद लुइस कोनिग और कैटरीना जेकोवैक ने 25 वर्षों तक ब्राज़ील की बंद हो चुकी टिन खदानों के कारण बंजर हो चुकी भूमि में पुर्नवनीकरण के प्रयासों का अध्ययन किया। वे बताते हैं कि डंपिंग एरिया, जहां की मिट्टी अनुपजाऊ और ज़हरीली हो गई हो वहां पेड़ों को वृद्धि करने में कठिनाई होती है। खनन गड्ढों और बचे-खुचे जंगलों के पास पौधारोपण के परिणाम बेहतर रहे।
एक किफायती तरीका हो सकता है कि किसी संपूर्ण क्षेत्र को पौधों से पूरा पाटने की बजाय छोटे-छोटे भूखंडों में पौधारोपण करें जो जंगल को पनपाने का काम करेंगे और उनके चारो ओर जंगल अपने-आप फैलेगा। कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय की एंडी कुलिकोव्स्की और कैरेन होल द्वारा कोस्टा रिका के 13 प्रायोगिक स्थलों के अध्ययन में पाया गया कि किसी जगह पर एक या चंद प्रजाति के पौधों लगाने की तुलना में यह तरीका विविधतापूर्ण जंगल के पुन: उगने में बेहतर हो सकता है। इसे एप्लाइड न्यूक्लिएशन कहा गया है। इस तरीके से पेड़ों को अधिक जगह के साथ-साथ अधिक प्रकाश मिलता है।
वैसे जंगल अपने दम पर भी काफी कुछ बहाल कर सकते हैं। वन पारिस्थितिकीविद रॉबिन शेडॉन 1997 से उत्तरी कोस्टा रिका के पूर्व में चारागाह रहे एक उजाड़ भू-क्षेत्र की निगरानी कर रहे थे, जहां एक भी पेड़ नहीं लगाया गया था। अब, वहां एक स्वस्थ प्राकृतिक जंगल है।
योजना बनाने में एक महत्वपूर्ण कारक यह भी है कि पुनर्वनीकरण स्थानीय लोगों को कैसे प्रभावित करता है और स्थानीय लोग पुनर्वनीकण को कैसे प्रभावित करते हैं। पुनर्वनीकरण खेती के लिए उपलब्ध भूमि में कमी ला सकता है, लेकिन स्थानीय समुदाय को इसका मुआवज़ा दिया जा सकता है – और नया जंगल उन्हें इमारती लकड़ी, शिकार के अवसर और आय के अन्य स्रोत दे सकता है। यह सुनिश्चित करना चाहिए कि पुनर्वनीकरण स्थानीय लोगों के लिए फायदेमंद हो।
यॉर्क विश्वविद्यालय के संरक्षण विज्ञानी रॉबिन लोवरिज और एंड्रयू मार्शल ने पूर्वी तंज़ानिया में पुनर्वनीकरण परियोजनाओं के अध्ययन में पाया कि वह जंगल बेहतर हाल में था और लोग अधिक खुश थे जहां प्रबंधन समुदाय के लोग कर रहे थे।
विषय विशेषांक के सह-संपादक मार्शल का कहना है कि कई अन्य मुद्दों पर भी ध्यान देने की ज़रूरत है। जैसे बेलें और काष्ठ-लताएं – जो वनों को तूफानों से बचा भी सकती हैं और प्रकाश को रोककर पुनर्वनीकरण को थाम भी सकती हैं। इसी प्रकार से परियोजनाओं की सफलता का पैमाना और प्रबंधन के तौर-तरीके के मुद्दे भी शामिल हैं। इनके जवाब स्थानीय परिस्थितियों पर निर्भर करेंगे।
युनिवर्सिटी कॉलेज लंदन के वन पारिस्थितिकीविद सिमोन लुईस पुनर्वनीकरण की गति को लेकर उत्साहित हैं लेकिन नवीन जंगल की गुणवत्ता को लेकर चिंतित हैं। चिंता का एक विषय यह है कि जहां देश वनों की क्षति को कम करने के कठिन लक्ष्यों को हासिल करने की जीतोड़ कोशिश कर रहे हैं, वहीं पुराने जंगलों को अब भी काटा जा रहा है, और उनकी जगह नए जंगल अन्यत्र लगाए जा रहे हैं। इसका मतलब है कि कुल मिलाकर वनों में तो कोई कमी नहीं आ रही है लेकिन अधिक जैव विविधिता और अधिक कार्बन सोखने की क्षमता वाले वनों की जगह कम जैव विविधता और कम कार्बन सोखने की क्षमता वाले वन लेते जा रहे हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://media.istockphoto.com/id/951136424/photo/beautiful-path-in-forest-with-lush-green-trees.jpg?s=170667a&w=0&k=20&c=L6l0XENgkVaiPd5QL3uG3bjUphEnDEmwJ6A9qOuFHxI=
हाल ही में मिस्र में आयोजित 27वें जलवायु सम्मेलन (कॉप-27) का समापन हुआ। इस सम्मेलन में जीवाश्म ईंधन के उपयोग को चरणबद्ध तरीके से खत्म करने के प्रयासों की धीमी गति को लेकर शोधकर्ताओं में काफी निराशा देखने को मिली। हालांकि, जलवायु परिवर्तन के प्रभावों की भरपाई के लिए ‘हानि व क्षतिपूर्ति’ (लॉस एंड डैमेजेस) फंड के निर्माण ने निम्न और मध्यम आय देशों में एक नई उम्मीद भी जगाई। यह फंड इन देशों को जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से निपटने में मदद करेगा।
सम्मेलन के अंतिम दिन जारी किए गए 10 पन्नों के दस्तावेज़ में कहा गया है कि वैश्विक तापमान वृद्धि को उद्योग-पूर्व स्तर से 1.5 डिग्री सेल्सियस अधिक तक सीमित रखने के लिए ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को तेज़ी से कम करना होगा। लेकिन जीवाश्म ईंधन को चरणबद्ध तरीके से खत्म करने के आह्वान का तेल उत्पादक देशों ने जमकर विरोध किया; कुछ प्रतिनिधियों ने तो कार्बन-मुक्ति की धीमी रफ्तार को भी संतोषप्रद ठहराने की कोशिश की। कई ने जीवाश्म ईंधन के मामले में प्रगति की कमी के लिए रूस-यूक्रेन युद्ध को ज़िम्मेदार ठहराया। कई विशेषज्ञों का मत था कि तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री तक सीमित रखने का समय बीतता जा रहा है और यह तभी हासिल हो सकता है जब कार्बन डाईऑक्साइड को वातावरण से हटाने के ज़ोरदार प्रयास किए जाएं।
इस बार सम्मेलन में पूरे 45,000 लोगों ने पंजीकरण किया जिसके चलते कई लोगों ने सवाल उठाया कि क्या आपात स्थिति को संभालने की दृष्टि से सम्मेलन का यह प्रारूप सही है। नई दिल्ली स्थित सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट की महानिदेशक सुनीता नारायण सम्मेलन के दौरान हुई बातचीत को वास्तविकता से काफी दूर मानती हैं। नारायण के अनुसार सम्मेलन का यह प्रारूप लोगों को साथ लाने और विचार साझा करने का मौका तो प्रदान करता है लेकिन मुख्य उद्देश्य – विश्व नेताओं पर ठोस कार्यवाही के लिए दबाव बनाना और उन्हें जवाबदेह ठहराना – से भटकाता है। यह सम्मेलन एक तरह के भव्य जलसे में बदलता नज़र आ रहा है। सम्मेलन में पहली बार आए शोधकर्ता और कार्यकर्ता सरकारी वार्ताकारों द्वारा दस्तावेज़ के एक-एक शब्द पर अंतहीन बहस को लेकर चिंतित दिखे।
वित्तीय सहायता के लिए संघर्ष
निम्न-मध्य आय देशों और चीन के प्रतिनिधि ‘हानि व क्षतिपूर्ति’ कोश के निर्माण को लेकर काफी आश्वस्त थे क्योंकि इस मुद्दे को सम्मेलन के आरंभ में एजेंडा में शामिल किया गया था। इस कोश का उपयोग जलवायु परिवर्तन से प्रभावित देशों के लिए किया जाएगा। जैसे, सोमालिया जहां 70 लाख लोग भुखमरी का सामना कर रहे हैं या पाकिस्तान जहां इस वर्ष बाढ़ से लगभग 30 अरब डॉलर का नुकसान हुआ है।
वैसे तो, अमेरिकी जलवायु दूत जॉन केरी ऐसे किसी कोश का विरोध करते हुए सम्मेलन में पहुंचे थे। उनका कहना था कि मौजूदा फंड से ही जलवायु सम्बंधी नुकसान की भरपाई की जा सकती है। इसके अलावा अमेरिकी वार्ताकारों ने उच्च ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जकों को अपने अतीत के उत्सर्जन का दायित्व स्वीकार करने के विचार का भी विरोध किया। उनको डर है कि इस विचार को स्वीकार करने का मतलब खरबों डॉलर का भुगतान करना होगा।
शुरुआत में युरोपीय संघ ने भी इस विचार को लेकर आशंका ज़ाहिर की लेकिन अंतत: अपना विचार बदल दिया जिसके चलते अमेरिका को दबाव का सामना करना पड़ा। कोश में कुल कितनी राशि जमा की जाएगी और विभिन्न देश कितना योगदान देंगे यह आने वाले सम्मेलन पर छोड़ दिया गया है।
यह पहला जलवायु सम्मेलन था जिसके अंतिम दस्तावेज़ में अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोश (आईएमएफ) और विश्व बैंक जैसी बड़ी वित्तीय संस्थाओं की नीतियों में सुधार की भी बात कही गई है। ये संस्थाएं वैश्विक अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। फिलहाल, वित्तीय संकट में फंसे देशों को कर्ज़ देने के लिए आईएमएफ एक खरब डॉलर की राशि देता है लेकिन इसका मामूली हिस्सा ही जलवायु परिवर्तन सम्बंधी होता है।
उर्जा संकट का प्रभाव
सम्मेलन में रूस-यूक्रेन युद्ध से उत्पन्न उर्जा संकट चर्चा में रहा। प्राकृतिक गैस की ऊंची कीमतों ने वैश्विक उर्जा बाज़ार को प्रभावित किया है और कुछ युरोपीय देशों को प्राकृतिक गैस के नए स्रोत खोजने तथा अस्थायी रूप से कोयले का उपयोग जारी रखने को बाध्य किया है। वैसे इंडोनेशिया में आयोजित जी-20 शिखर सम्मेलन में घोषित समझौते से कॉप-27 की बात आगे बढ़ी जहां धनी देशों ने इंडोनेशिया को कोयला उपयोग से दूर करने के लिए 20 अरब डॉलर देने पर सहमति जताई है। इसके अलावा जर्मनी ने हरित हाइड्रोजन और तरलीकृत प्राकृतिक गैस के निर्यात को आगे बढ़ाने के लिए मिस्र के साथ एक समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं। इसी तरह कुछ अन्य सरकारें और कंपनियां भी सेनेगल, तंज़ानिया और अल्जीरिया जैसे देशों में इस तरह की परियोजनाएं शुरू कर रही हैं।
गौरतलब है कि युरोपीय नेता इन उपायों को अल्पकालिक तिकड़में मानते हैं जिनका प्रभाव उनकी दीर्घकालिक प्रतिबद्धताओं पर नहीं पड़ेगा। लेकिन नारायण के अनुसार नज़ारा अच्छा नहीं है; इस संकट से पूर्व समृद्ध देश कह रहे थे कि कम आय वाले देशों में जीवाश्म-ईंधन परियोजनाओं को वे पैसा नहीं देंगे लेकिन अब वे इन देशों से आपूर्ति बढ़ाने के लिए कह रहे हैं। इन तनावों का कॉप-27 सम्मेलन पर काफी प्रभाव पड़ा और जीवाश्म ईंधन को चरणबद्ध तरीके से खत्म करने की बात को अंतिम दस्तावेज़ से हटा दिया गया और कम-उत्सर्जन प्रणालियों की बात रखी गई। संभवत: भविष्य में इसका उपयोग प्राकृतिक-गैस के विकास को सही ठहराने के लिए किया जाएगा। इसके चलते आने वाले दिनों में जीवाश्म ईंधन पर लगाम लगाने सम्बंधी बातचीत धरी की धरी रह जाएगी।
खाद्य सुरक्षा पर ध्यान
कॉप-27 सम्मेलन के समझौते में कहा गया है कि ‘खाद्य सुरक्षा और भुखमरी को खत्म करना’ एक प्राथमिकता है। यदि जल तंत्रों की रक्षा और संरक्षण किया जाए तो समुदाय जलवायु परिवर्तन का सामना करने में ज़्यादा सक्षम होंगे। ग्लासगो जलवायु समझौते में कृषि, भोजन या पानी का कोई ज़िक्र नहीं किया गया था। कई विशेषज्ञों ने कहा है कि कम से कम शब्दों के स्तर पर तो प्रगति हुई है लेकिन वास्तविक कार्रवाइयों की कमी खलती है।
कॉप-26 में सरकारों ने खाद्य प्रणालियों के लिए बहुत कम निधि रखी थी। जबकि इसके विपरीत बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन ने छोटे किसानों को जलवायु परिवर्तन के तत्काल और दीर्घकालिक प्रभावों से बचाने के लिए चार वर्षों में 1.4 अरब डॉलर खर्च करने का संकल्प लिया था। कॉप-27 के दस्तावेज़ में जलवायु सम्बंधी अंतर्सरकारी पैनल के इस निष्कर्ष का भी कोई ज़िक्र नहीं है कि वैश्विक उत्सर्जन में 21-37 प्रतिशत योगदान खाद्य प्रणाली का है। इस निष्कर्ष के मद्देनज़र जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करने के लिए ‘जैविक खेती’ और भूमि उपयोग परिवर्तन पर विचार करना भी ज़रूरी है जिसे इस सम्मेलन में पूरी तरह अनदेखा कर दिया गया है। (स्रोत फीचर्स)
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नए घर की तलाश करते समय जिस एक चीज़ पर ध्यान देना हम कभी नहीं भूलते, वह है “उस जगह भूजल स्तर कितनी गहराई पर है।” भूजल स्तर बताता है कि कितनी गहराई पर चट्टानों की दरारें और छिद्र पानी से भरे हैं। भूमि के अंदर संचित इस पानी को भूजल और जिन चट्टानों में यह पानी भरा होता है उन्हें एक्वीफर्स कहते हैं।
दुनिया की एक चौथाई आबादी के लिए पानी का प्रमुख स्रोत भूजल ही है। भारत दुनिया का सबसे बड़ा भूजल उपयोगकर्ता है; वर्ष 2017 में लगभग 250 घन किलोमीटर पानी का ज़मीन से दोहन किया गया था। इसमें से लगभग 90 प्रतिशत पानी सिंचाई के लिए और शेष पानी शहरों और गांवों में इस्तेमाल किया गया था।
सिंधु-गंगा के मैदानी क्षेत्रों (उत्तरी मैदानी क्षेत्रों) की कृषि अर्थव्यवस्था भूजल पर टिकी है। लेकिन ऐसी आशंका है कि जल्द ही सिंधु-गंगा मैदानी क्षेत्र के एक्वीफर्स इतने व्यापक पैमाने पर सिंचाई के लिए पानी देने में सक्षम नहीं रहेंगे। जर्नल ऑफ हायड्रोलॉजी में पिछले वर्ष आईआईटी कानपुर के एस. के. जोशी व साथियों द्वारा प्रकाशित एक शोध पत्र के अनुसार यह स्थिति पंजाब, हरियाणा और राजस्थान में तो दिखने भी लगी है। हरित क्रांति नलकूपों पर टिकी रही है। गिरता भूजल स्तर किसानों को उच्च शक्ति वाले सबमर्सिबल पंप उपयोग करने को मजबूर कर रहा है, जिससे स्थिति और बिगड़ गई है।
उपग्रह गुरुत्व मापन ने खतरनाक दर से गिरते भूजल स्तर के ठोस प्रमाण दिए हैं। इस डैटा को स्थानीय स्तर पर कुओं में भूजल स्तर के मापन से पुष्ट किया जाता है। इस शताब्दी में, भारत के उपरोक्त क्षेत्र में भूजल स्तर में गिरावट की औसत दर 1.4 से.मी. प्रति वर्ष रही है। अलबत्ता, उन क्षेत्रों में भूजल स्तर में कमी इतनी तेज़ी से नहीं हो रही है जहां भूजल खारा है।
भूजल स्तर में वृद्धि के उपाय
वर्षा और नदियों के पानी से एक्वीफर्स रिचार्ज हो जाते हैं। स्वतंत्रता के बाद से भारत ने पानी के वितरण के लिए नहरों के निर्माण में वृद्धि की है। इन नहरों से रिसता पानी भी भूजल स्तर को बढ़ाता है।
हमारे देश के कुछ क्षेत्रों के कुछ स्वस्थ एक्वीफर्स के पीछे एक महत्वपूर्ण कारक है भूजल रिचार्ज के लिए समुदाय आधारित अभियान। इसका सबसे अच्छा उदाहरण सौराष्ट्र के अर्ध-शुष्क क्षेत्रों में देखा जा सकता है। यहां मौसमी नदियों और नालों पर हज़ारों छोटे-बड़े चेक डैम बनाए गए हैं। ये पानी के प्रवाह को धीमा करते हैं और भूजल रिचार्ज में योगदान देते हैं और साथ ही मिट्टी के कटाव को रोकते हैं। गांवों में, बोरियों में रेत भरकर बारिश के बहते पानी के रास्ते में बोरी-बंधान बनाए जाते हैं।
क्या इन छोटे पैमानों पर किए गए जल संचयन के उपायों से कोई फर्क पड़ा है? सौराष्ट्र के भूजल स्तर और इसी तरह की जलवायु वाले मराठवाड़ा और विदर्भ क्षेत्रों के तुलनात्मक अध्ययनों में इन उपायों के सकारात्मक प्रभाव दिखे हैं। सुखद बात है कि पिछले एक दशक में महाराष्ट्र के इन क्षेत्रों ने भी भूजल रिचार्ज करने के अपने प्रबंधित कार्यक्रम शुरू किए हैं, जैसे जलयुक्त शिवार।
देश में तमिलनाडु-कर्नाटक के सीमांत क्षेत्र भी भूजल स्तर में उल्लेखनीय गिरावट का सामना कर रहे हैं। यहां भूजल क्रिस्टलीय चट्टानों में पाया जाता है। ये चट्टाने छिद्रयुक्त नहीं होतीं, इसलिए इनमें पानी केवल बीच की दरारों और टूटन में पाया जाता है। इन परिस्थितियों में, पोखर और तालाब भूजल रिचार्ज में ज़्यादा मददगार नहीं होते।
यहां ज़्यादातर रिचार्ज वर्षा और सिंचाई के पानी के पुनर्चक्रण से होता है। विडंबना देखिए कि बेंगलुरु जैसे शहरी क्षेत्र में भूजल रिचार्ज का प्रमुख स्रोत जल आपूर्ति के पाइपों से होने वाला रिसाव है। (स्रोत फीचर्स)
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हाल ही में यूएन जलवायु परिवर्तन द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार मिस्र और संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) उन 26 देशों में से हैं जिन्होंने पिछले वर्ष ग्लासगो में आयोजित कॉप-26 सम्मेलन में लिए गए संकल्पों के अनुरूप अपने जलवायु लक्ष्यों को अपडेट किया है। मिस्र ने बिजली उत्पादन, परिवहन और तेल एवं गैस से होने वाले ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में और अधिक कटौती करने का वादा किया है। अलबत्ता, इस पर अमल अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय सहायता पर निर्भर है। इसी तरह यूएई ने भी 2030 तक ग्रीनहाउस उत्सर्जन में 31 प्रतिशतत तक की कमी करने का संकल्प लिया है जो पूर्व में किए गए 23.5 प्रतिशत के वादे से काफी अधिक है। गौरतलब है कि इस वर्ष कॉप-27 तथा अगले वर्ष कॉप-28 इन्हीं दो देशों में आयोजित किए जाएंगे।
पिछले एक वर्ष में विभिन्न देशों के संकल्पों पर ध्यान दिया जाए तो वर्ष 2030 तक उत्सर्जन का स्तर वर्ष 2010 की तुलना में 10.6 प्रतिशत बढ़ने का अनुमान है। पिछले वर्ष की रिपोर्ट में यह अनुमान 13.7 प्रतिशत वृद्धि का था। लेकिन इतनी कमी भी सदी के अंत तक वैश्विक तापमान में वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने की दृष्टि से पर्याप्त नहीं हैं।
गौरतलब है कि पूर्व में सऊदी अरब ने जलवायु परिवर्तन को रोकने के प्रयासों का निरंतर विरोध किया है जबकि संयुक्त राज्य अमेरिका सहित अन्य तेल-समृद्ध देश भी इन प्रयासों को टालते रहे हैं। 1995 में सऊदी अरब के प्रतिनिधियों ने उस रिपोर्ट पर भी शंका ज़ाहिर की थी जिसमें ग्लोबल वार्मिंग के लिए इंसानी गतिविधियों को ज़िम्मेदार ठहराया गया था।
लेकिन पिछले एक दशक में मध्य-पूर्व के देशों ने अक्षय प्रौद्योगिकियों को अपनाते हुए पर्यावरण पर ध्यान केंद्रित किया है। सऊदी अरब और अन्य प्रमुख तेल उत्पादक देश जलवायु परिवर्तन की वस्तविकता को स्वीकार कर चुके हैं। विशेषज्ञों के अनुसार तेल से होने वाली आमदनी पर निर्भर राष्ट्रों का यह कदम दर्शाता है कि भविष्य में जीवाश्म ईंधन की मांग में अनुमानित कमी के मद्देनज़र वे अपनी अर्थव्यवस्था में विविधता लाने तथा घरेलू ज़रूरतों के लिए नवीकरणीय ऊर्जा का उपयोग करके जीवाश्म ईंधन को निर्यात हेतु बचाने की ओर बढ़ रहे हैं। मसलन, यूएई ने 2050 तक नेट-ज़ीरो कार्बन उत्सर्जन करने का संकल्प लिया है।
खाड़ी के अन्य देशों में भी प्रयास चल रहे हैं। सऊदी अरब और उसके पड़ोसी बहरीन ने 2060 के लिए नेट-ज़ीरो लक्ष्य निर्धारित किए हैं। इसी तरह गैस-समृद्ध कतर ने भी 2030 तक अपने उत्सर्जन में 25 प्रतिशत की कटौती करने का संकल्प लिया है। इस्राइल और तुर्की ने भी 2050 के दशक के मध्य तक नेट-ज़ीरो हासिल करने की घोषणा की है। पिछले साल सऊदी अरब के नेतृत्व में मिडिल ईस्ट ग्रीन इनिशिएटिव ने मध्य पूर्वी क्षेत्र में तेल और गैस उद्योग से कार्बन उत्सर्जन को 60 प्रतिशत तक कम करने का लक्ष्य घोषित किया है। यह उद्योग दुनिया में मीथेन के सबसे बड़े स्रोतों में से एक है।
अक्षय ऊर्जा का उदय
वर्तमान में इस मामले में जानकारी काफी कम है कि ये देश जलवायु सम्बंधी लक्ष्यों को कैसे हासिल करेंगे। एक तथ्य यह है कि यूएई और सऊदी अरब दोनों ने कार्बन-न्यूट्रल शहरों के निर्माण या उनके विस्तार में भारी निवेश किया है।
न्यूयॉर्क स्थित ऊर्जा परामर्श कंपनी ब्लूमबर्ग के अनुसार, पिछले एक दशक में मध्य पूर्व में नवीकरणीय ऊर्जा में सात गुना की वृद्धि हुई है। जो एक बड़ा परिवर्तन है। एक रिपोर्ट के अनुसार दुनिया भर में बिजली उत्पादन में अक्षय उर्जा का हिस्सा 28 प्रतिशत है जबकि इस क्षेत्र में मात्र 4 प्रतिशत है।
विशेषज्ञों के अनुसार निकट भविष्य में इस क्षेत्र के राष्ट्र जलवायु लक्ष्यों को पूरा करने के लिए मुख्य रूप से सौर, पवन और पनबिजली में निवेश करेंगे। आबू धाबी ऊर्जा विभाग के अनुसार वर्ष 2021 में कुल ऊर्जा में अक्षय और परमाणु ऊर्जा का हिस्सा 13 प्रतिशत था जो 2025 में 54 प्रतिशत से अधिक तक पहुंचने की संभावना है। दुनिया के सबसे बड़े सौर संयंत्रों में से एक (1650 मेगावॉट) मिस्र में है, वहीं इस वर्ष के अंत तक कतर 800-मेगावॉट सौर साइट खोलने की योजना बना रहा है। खाड़ी देशों में सौर विकिरण की भरपूर उपलब्धता के चलते यहां नवीकरणीय स्रोतों से बिजली उत्पादन की लागत काफी कम है।
इसके साथ ही सऊदी अरब और यूएई हरित हाइड्रोजन उद्योग में निवेश करने की भी योजना बना रहे हैं।
भविष्य में मध्य पूर्व के राष्ट्रों की नज़र कार्बन-कैप्चर पर भी है। इसके अलावा, मिडिल ईस्ट ग्रीन इनिशिएटिव में 50 अरब पेड़ लगाने का लक्ष्य शामिल है। इस परियोजना से 20 करोड़ हैक्टर क्षेत्र को बहाल किया जाएगा। विशेषज्ञों के अनुसार 38 प्रतिशत तक वैश्विक कार्बन उत्सर्जन प्राकृतवासों की क्षति के कारण हुआ है।
जीवाश्म ईंधन में निवेश जारी
ये सारे प्रयास एक तरफ, लेकिन मध्य पूर्व के देश तेल और गैस की खोज में निवेश जारी रखे हुए हैं। गौरतलब है कि निर्यात किए गए उत्सर्जन को किसी देश के नेट-ज़ीरो लक्ष्य के हिस्से के रूप में नहीं गिना जाता है। वैसे खाड़ी देशों की अर्थव्यवस्थाएं आज तेल पर कम निर्भर हैं। विश्व बैंक के अनुसार, 2010 में मध्य पूर्व और उत्तरी अफ्रीका में जीडीपी का 22.1 प्रतिशत हिस्सा तेल से आता था जो 2020 तक 11.7 प्रतिशत रह गया। फिर भी यह आंकड़ा वैश्विक औसत (1 प्रतिशत) से काफी अधिक है।
गौरतलब है कि ग्लासगो में आयोजित कॉप-26 के दौरान सऊदी अरब उन देशों में से था, जिन्होंने जीवाश्म-ईंधन सब्सिडी को चरणबद्ध रूप से समाप्त करने के सुझाव को कमज़ोर करने का प्रयास किया था। विशेषज्ञों की मानें तो भविष्य में जीवाश्म-ईंधन की खोज को रोकना एक महत्वपूर्ण प्रयास हो सकता है लेकिन अभी तक ऐसा कुछ देखने को नहीं मिला है। इंटरनेशनल एनर्जी एजेंसी के अनुसार 2050 तक नेट-ज़ीरो उत्सर्जन के रास्ते पर बढ़ते हुए यदि ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करना है तो तेल और गैस उत्पादन में कोई नया निवेश नहीं होना चाहिए।
कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि अभी जीवाश्म ईंधन उन देशों के लिए आवश्यक है जिनके पास ऊर्जा के नवीकरणीय ऊर्जा उत्पादन के लिए पर्याप्त बुनियादी ढांचे की कमी है और इसके लिए तेल-निर्यातक राष्ट्रों को दंडित करना उचित नहीं है। फिर भी सऊदी अरब और अन्य मध्य पूर्वी राष्ट्रों की पर्यावरण रणनीति में सकारात्मक परिवर्तन देखने को मिल रहा है। (स्रोत फीचर्स)
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वर्तमान में प्लास्टिक प्रदूषण एक मुश्किल पर्यावरणीय मुद्दा है। डिस्पोज़ेबल और एक बार उपयोग किए जाने वाले प्लास्टिक उत्पादों के तेज़ी से बढ़ते उत्पादन ने समस्या को और बढ़ाया है। इसके अलावा मिश्रित प्लास्टिक ने पुनर्चक्रण को और मुश्किल बना दिया है। हालांकि, प्लास्टिक की लंबी बहुलक शृंखलाओं को तोड़ने की कई रासायनिक विधियां मौजूद हैं लेकिन इन मिश्रित प्लास्टिक में तकनीकों को बड़े पैमाने पर लागू करना काफी मुश्किल है।
इस संदर्भ में कोलोरैडो स्थित यू.एस. नेशनल रिन्यूएबल एनर्जी लेबोरेटरी के रसायन इंजीनियर ग्रेग बेकहम के नेतृत्व में एक टीम ने मिश्रित प्लास्टिक को तोड़ने के लिए रसायन और जीव विज्ञान पर आधारित प्रक्रिया विकसित की है। इस तकनीक की मदद से उच्च-घनत्व पॉलीथीन (एचडीपीई), स्टायरोफोम, पॉलीस्टायरीन और बोतलों के पीईटी की बहुलक शृंखला को तोड़ा जा सकता है।
इस तकनीक में सबसे पहले कोबाल्ट या मैंगनीज़ उत्प्रेरक के उपयोग से कठोर बहुलक शृंखलाओं को ऑक्सीजन युक्त कार्बनिक अम्लों में तोड़ा गया।
बेकहम इन कार्बनिक अम्लों को किसी ऐसी चीज़ में परिवर्तित करना चाहते थे जिसका आसानी से व्यावसायिक उपयोग किया जा सके। इसके लिए उन्होंने जेनेटिक रूप से परिवर्तित स्यूडोमोनास पुटिडा नामक सूक्ष्मजीव का उपयोग किया जो कार्बन स्रोत के रूप में कार्बनिक अम्लों का उपयोग करता है। इस सूक्ष्मजीव ने ऑक्सीजन युक्त कार्बनिक अणुओं का उपभोग किया जो अलग-अलग प्रकार के प्लास्टिक से प्राप्त हुए थे।
इस बैक्टीरिया ने दो रासायनिक अवयवों का उत्पादन किया जिनका उपयोग बायोपॉलीमर बनाने के लिए किया जाता है। गौरतलब है कि सजीवों की मदद से भिन्न कार्बन स्रोतों से एक उत्पाद का निर्माण किया जा सकता है – इस मामले में एक ऐसा अणु जिसका उपयोग जैव-विघटनशील बहुलक बनाने के लिए किया जा सकता है। शोधकर्ताओं ने इस प्रक्रिया का परीक्षण शुद्ध बहुलकों से बने मिश्रणों के अलावा रोज़मर्रा में काम आने वाले मिश्रित प्लास्टिक पर भी किया है।
फिलहाल इस तकनीक का बड़े पैमाने पर उपयोग एक चुनौती है। एक मुद्दा तो ऑक्सीकरण के लिए आवश्यक तापमान का है क्योंकि प्रत्येक प्लास्टिक अच्छी तरह से अभिक्रिया अलग-अलग तापमान पर करते हैं। इसके अलावा, अधिकतम उत्पादन की स्थिति परखने के लिए रासायनिक कलाकारी की ज़रूरत होगी।
वर्तमान में कई कंपनियां ऑक्सीकरण प्रक्रियाओं का इस्तेमाल कर ज़ायलीन को पीईटी के अणु टेरीथैलिक अम्ल में परिवर्तित कर रही हैं। तकनीकें काफी महंगी हैं लेकिन कोशिश की जाए तो यकीनन कोई सस्ता विकल्प मिल सकता है। इसमें एक और समस्या बैक्टीरिया द्वारा पैदा किए गए छोटे अणुओं को बेचने की होगी क्योंकि इन उत्पादों की मांग काफी कम है। (स्रोत फीचर्स) नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://media.nature.com/lw767/magazine-assets/d41586-022-03271-w/d41586-022-03271-w_23599298.jpg?as=webp
कुछ सालों पहले तक युरोप के सबसे बड़े लैगून मार मेनोर का पानी साफ हुआ करता था जिसमें सीपियां (फैन मसल्स) अच्छी तरह पनपते थे। लैगून समुद्र से सटी खारे पानी की झील होती है। लेकिन 2016 में, खेतों से बहकर आए उर्वरकों के चलते लैगून को शैवाल ने ढंक लिया। नतीजतन, लैगून की ऑक्सीजन कम हो गई और समुद्री घोड़ों, केकड़ों और अन्य समुद्री जीवों के साथ-साथ 98 प्रतिशत फैन मसल नामक सीपियां खत्म हो गए।
पिछले साल लैगून की दयनीय स्थिति से परेशान होकर स्थानीय निवासियों और कार्यकर्ताओं ने मिलकर एक याचिका दायर की: 135 वर्ग किलोमीटर के लैगून को एक व्यक्ति के अधिकार मिलें। अंतत: स्पेन की संसद ने मार मेनोर लैगून को एक व्यक्ति के अधिकार दे दिए।
यह कानून लैगून और उसके जलग्रहण क्षेत्र को पूरी तरह से मानव का दर्जा तो नहीं देता है लेकिन इसके पारिस्थितिकी तंत्र को अस्तित्व में बने रहने, नैसर्गिक रूप से विकसित होने और अपने रख-रखाव के कानूनी अधिकार देता है। एक व्यक्ति की तरह इसकी देख-रेख के लिए भी इसके कानूनी अभिभावक होंगे।
वैसे, यह लैगून व्यक्ति के अधिकार पाने वाला युरोप का पहला पारिस्थितिकी तंत्र है लेकिन संरक्षण देने का यह तरीका पिछले एक दशक में काफी लोकप्रिय हुआ है। जैसे, भारत में गंगा और बांग्लादेश की हर नदी को एक व्यक्ति का दर्जा मिला हुआ है।
इस तरह के संरक्षण की सबसे सफल मिसाल न्यूज़ीलैंड की वांगानुई नदी है, जिसे 2017 में कानूनी अधिकार दिए गए थे। एक व्यक्ति की तरह नदी और उसका जलग्रहण क्षेत्र मुकदमा दायर कर सकता है या उस पर मुकदमा किया जा सकता है, उसके साथ कोई अनुबंध किया जा सकता है, और वह संपत्ति का मालिक हो सकता है। हालांकि इस नदी को व्यक्ति का दर्जा देने के पीछे उद्देश्य प्रदूषण रोकना नहीं था बल्कि लोगों को माओरी संस्कृति से जोड़ना और पश्चिमी कानून में प्रकृति को शामिल करना था, लेकिन इस कदम से पर्यावरण को फायदा हुआ: जल प्रबंधन के तरीके मनुष्यों की ज़रूरत की बजाय नदियों की सेहत पर केंद्रित होने लगे।
वैसे मार मेनोर की स्वच्छता के लिए पहले से कानून मौजूद हैं जो इसके पानी की गुणवत्ता, इसमें पल रहे जीवन और प्राकृतवासों को संरक्षण देते हैं। इसके तहत, संस्थान या मनुष्य फैन मसल्स को नुकसान नहीं पहुंचा सकते, या लैगून में मिलने वाली नदियों और झीलों को प्रदूषित नहीं कर सकते हैं।
इसके अलावा, स्पेन के पर्यावरण मंत्रालय ने अगले 5 वर्षों में इसे प्रदूषण मुक्त करने के लिए 50 करोड़ युरो आवंटित किए हैं। और, इस गर्मी में लैगून से बड़ी मात्रा में शैवाल हटाए गए हैं। कुछ हद तक उर्वरक लैगून तक पहुंचने से रोकने के लिए सरकारी एजेंसियां गैरकानूनी सिंचाई नहरें नष्ट कर रही हैं। लेकिन फिर भी लैगून की स्थिति में पर्याप्त सुधार नहीं दिखा है। संरक्षण कार्यकर्ताओं को लगता है कि नए कानूनी ढांचे से इन प्रयासों को गति मिलेगी।
इस कानून के तहत कोई भी नागरिक मार मेनोर की रक्षा के लिए मुकदमा कर सकता है। कानूनी अभिभावक, जिसमें सरकार के प्रतिनिधि और नागरिक शामिल हैं, लैगून की ओर से कानूनी और अन्य कार्रवाइयां कर सकते हैं। वैज्ञानिक समिति इसके पारिस्थितिक स्वास्थ्य का आकलन करेगी – जैसे इसकी लवणीयता, ऑक्सीजन वगैरह के स्तर पर निगरानी रखेगी। इसके अलावा उसका काम मार मेनोर के लिए पैदा हो रहे नए जोखिमों की पहचान करना व इसकी बहाली के उपाय सुझाना भी होगा। इसके निगरानी आयोग में पर्यावरण संगठन, मछली पालन और कृषि उद्योग व अन्य हितधारकों के प्रतिनिधि शामिल होंगे।
लेकिन मार मेनोर की सुरक्षा के लिए लाया गया यह कानून विरोध का सबब भी बन सकता है। जैसे हो सकता है किसान उर्वरकों के उपयोग में कटौती करने को राज़ी न हों। दक्षिणपंथी फोक्स पार्टी तो इस पहल को कानूनी बकवास मानती है।
इसके अलावा, नए अधिकारों का तालमेल मौजूदा कानूनी ढांचे से बनाना भी ज़रूरी होगा, जो किसानों के संपत्ति अधिकारों को पहचाने। क्योंकि अगर इसमें अस्पष्टता होगी तो अंतहीन मुकदमेबाज़ी चलती रहेगी। बहरहाल यदि ये प्रयास सफल होते हैं तो बाकी देश इनसे सीख सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)
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पृथ्वी के ऊपरी वायुमंडल में मौजूद ओज़ोन गैस सूर्य की हानिकारक पराबैंगनी किरणों से हमारी रक्षा करती है। ओज़ोन की इस परत के संरक्षण हेतु सशक्त कदम उठाए जा रहे हैं, लेकिन पृथ्वी की सतह पर विषैली ओज़ोन के बढ़ते स्तर को रोकने को लेकर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया जा रहा है। गौरतलब है कि जहां ऊपरी वायुमंडल में ओज़ोन पराबैंगनी किरणों से पृथ्वी की रक्षा करती है, वहीं धरती की सतह पर मौजूद ओज़ोन इंसान और पर्यावरण की सेहत को गंभीर नुकसान पहुंचाती है।
औद्योगिक गतिविधियों की वजह से वायुमंडल की निचली सतह पर ओज़ोन के बढ़ते स्तर के चलते मनुष्य, जीव-जंतु और पेड़-पौधे बुरी तरह प्रभावित हो रहे हैं। एक हालिया अध्ययन में चीन और स्पेन के शोधकर्ताओं ने कहा है कि पिछले 20-22 वर्षों से ओज़ोन के संपर्क में आने से पेड़-पौधों में परागण क्रिया बाधित हो रही है। ट्रेंड्स इन इकॉलॉजी एंड इवॉल्यूशन जर्नल में प्रकाशित शोधपत्र में उन्होंने बताया है कि कैसे पृथ्वी की सतह पर ओज़ोन का बढ़ता स्तर पत्तियों को नुकसान पहुंचा सकता है, पुष्पन पैटर्न को बदल सकता है और परागणकर्ताओं के लिए फूल खोजने में बाधा बन सकता है।
वायुमंडल की निचली सतह पर मौजूद ओज़ोन इंसानी गतिविधियों (उद्योगों, विद्युत और रासायनिक संयंत्रों, रिफाइनरियों, वाहनों वगैरह) से उत्पन्न प्रदूषकों पर सूर्य के प्रकाश के असर से निर्मित होती है। जब किसी पौधे की पत्तियों में ओज़ोन प्रवेश करती है, तो वह प्रकाश संश्लेषण को कम करके पौधे के विकास को धीमा कर देती है।
उपरोक्त शोधपत्र के प्रधान लेखक एवगेनियोस अगाथोक्लियस के मुताबिक, ‘परागणकर्ताओं पर कृषि रसायनों के प्रत्यक्ष प्रभावों के बारे में बहुत चर्चा होती है, लेकिन अब यह सामने आया है कि ओज़ोन परागण और परागणकर्ताओं के लिए एक मूक खतरा है।’
निचले वायुमंडल में ओज़ोन का स्तर दिन-ब-दिन बढ़ता जा रहा है। इसकी वजह से पुष्पन का पैटर्न और समय बदल रहा है, जिससे पौधों और परागणकर्ताओं की गतिविधियों के बीच सामंजस्य नहीं बन पा रहा है।
ओज़ोन प्रदूषण की वजह से पौधों की पत्तियां रोगग्रस्त हो जाती हैं, कीटों से होने वाला नुकसान बढ़ जाता है और खराब मौसम से निपटने की उनकी क्षमता घट जाती है। और तो और, ओज़ोन प्रकाश संश्लेषण की प्रक्रिया को प्रभावित करके पौधे के विकास को धीमा कर देती है। पौधे वाष्पशील कार्बनिक यौगिकों का उत्सर्जन करते हैं जो परागणकर्ताओं को आकर्षित करते हैं, लेकिन ओज़ोन इन कार्बनिक यौगिकों से क्रिया करने लगती है। जहां इंसानी गतिविधियों की वजह से धरती की सतह पर ओज़ोन का स्तर दिन-ब-दिन बढ़ रहा है, वहीं ऊपरी वायुमंडल में इसकी मात्रा घटती जा रही है जहां इसकी वास्तव में ज़रूरत है। धरती के नज़दीक बढ़ती ओज़ोन समस्या से निपटने के लिए आज सशक्त और प्रभावी कदम उठाए जाने की तत्काल ज़रूरत है। (स्रोत फीचर्स)
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कोविड-19 महामारी के कारण भारत और विश्व भर की अर्थव्यवस्थाओं को काफी मुश्किल परिस्थितियों का सामना करना पड़ा है। अब दो वर्ष बीत जाने के बाद परिस्थितियों में काफी सुधार आ चुका है। अर्थव्यवस्थाएं एक बार फिर सामान्य होती नज़र रही हैं।
अर्थव्यवस्था के पुनर्निर्माण हेतु एक ऐसी दुनिया के निर्माण के संकल्प लिए गए जो कार्बन-उत्सर्जन को लेकर जागरूक होगी। कई देशों ने जलवायु परिवर्तन से निपटने और हरित ऊर्जा का उपयोग करने के भी संकल्प लिए। ऐसे में यह देखना लाज़मी है कि इस आर्थिक मंदी के बाद जलवायु परिवर्तन के सम्बंध में किए गए वादों को पूरा करने में सरकारों का प्रदर्शन कैसा रहा है।
आर्थिक प्रोत्साहन का विश्लेषण
आर्थिक प्रोत्साहन का एक सरल उदाहरण बैंकों के संदर्भ में लिया जा सकता है जिसमें बैंकों की चल निधि को बहाल करने के लिए सरकार बेलआउट पैकेज की घोषणा करती है ताकि उन्हें वापस सामान्य स्थिति में लाया जा सके। इस योजना के तहत अर्थव्यवस्था में सकारात्मक बदलाव लाने के लिए सरकार द्वारा विभिन्न नीतियों के माध्यम से धन का आवंटन किया जाता है। कोविड-19 महामारी के बाद विश्व भर की सरकारों ने आर्थिक प्रोत्साहन के माध्यम से अपनी कमज़ोर अर्थव्यवस्थाओं को पुनर्जीवित करने के प्रयास किए। इन प्रयासों को समझने के लिए एक लेख काफी महत्वपूर्ण है – ‘जी-20 देशों द्वारा 14 खरब डॉलर का प्रोत्साहन उत्सर्जन सम्बंधी वायदों के खिलाफ है’ (‘G-20’s US $14 trillion economic stimulus – reneges on emissions pledges’)। विश्व की 20 सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं (जी-20) ने आर्थिक प्रोत्साहन के लिए 14 खरब डॉलर का आवंटन किया। यह काफी दिलचस्प है कि इस राशि का केवल 6% (लगभग 860 अरब अमेरिकी डॉलर) ऐसे क्षेत्रों के लिए है जो उत्सर्जन में कटौती करने में मददगार हो सकते हैं। जैसे इलेक्ट्रिक वाहनों की बिक्री को प्रोत्साहन, ऊर्जा कुशल इमारतों का निर्माण और नवीकरणीय ऊर्जा की स्थापना।
इसके विपरीत, आर्थिक प्रोत्साहन का 3 प्रतिशत कोयला जैसे उद्योगों को सब्सिडी देने के लिए आवंटित किया गया है जो उत्सर्जन में वृद्धि करते हैं। वैसे, ऐसा करना नीति निर्माताओं के दृष्टिकोण से उचित हो सकता है क्योंकि आर्थिक मंदी के बावजूद ऊर्जा की मांग को पूरा करना ज़रूरी है जिसे कोयला और अन्य जीवाश्म ईंधन जैसे स्थापित ऊर्जा उद्योगों से ही पूरा किया जा सकता है। यह कदम पर्यावरण की दृष्टि से विवादास्पद दिखेगा लेकिन नीति निर्माता के दृष्टिकोण से नवीकरणीय उद्योग जैसे नए क्षेत्रों में निवेश करने की बजाय जांचे-परखे उद्योगों में निवेश करना बेहतर है।
देखा जाए तो वर्तमान महामारी के दौरान जो निवेश हरित ऊर्जा के क्षेत्र में हुआ है वह पिछली महामारी की तुलना में आनुपातिक रूप से काफी कम है। उदाहरण के लिए वर्ष 2008 के वैश्विक वित्तीय संकट के दौरान वैश्विक आर्थिक प्रोत्साहन का 16% उत्सर्जन में कटौती के लिए आवंटित किया गया था। यदि कोविड-19 आर्थिक मंदी के मद्देनज़र उत्सर्जन के लिए कटौती हेतु उसी अनुपात में धन आवंटित किया जाता तो यह आंकड़ा 2.2 खरब डॉलर होता। यह वर्तमान में उत्सर्जन को कम करने के लिए आवंटित राशि से दुगनी से भी अधिक है। यह स्थिति तब है जब हालिया ग्लासगो जलवायु सम्मलेन में विश्व भर के नेताओं ने जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए बड़े-बड़े वादे किए थे।
हाल ही में आयोजित ग्लासगो जलवायु सम्मलेन में वर्ष 2050 तक नेट-ज़ीरो उत्सर्जन के लक्ष्य को हासिल करने और ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने का संकल्प लिया गया था। इसके लिए 2020-24 के बीच 7 खरब अमेरिकी डॉलर के निवेश की आवश्यकता होगी। लेकिन इस वर्ष की शुरुआत तक विश्व की सभी सरकारों द्वारा इस राशि का केवल नौवां भाग ही खर्च किया गया है।
जिस तरह से वर्तमान आर्थिक प्रोत्साहन पैकेजों का निर्धारण किया गया है उससे सरकारें अर्थव्यवस्था को कुशलतापूर्वक पुनर्जीवित करने में तो विफल रही ही हैं, साथ ही वे अर्थव्यवस्थाओं को कम-कार्बन उत्सर्जन की ओर ले जाने में भी असफल रही हैं। पुनर्निर्माण की प्रक्रिया में बुनियादी ढांचे, परिवहन और कुशल एवं स्वच्छ ऊर्जा प्रौद्योगिकियों के क्षेत्र में दीर्घकालिक निवेश ज़रूरी है। लेकिन इन क्षेत्रों में निवेश करना शायद नीति निर्माताओं की प्राथमिकता में नहीं है।
पिछले कुछ समय में अक्षय ऊर्जा उद्योग काफी आकर्षक बना है, ऐसे में आर्थिक प्रोत्साहन का उद्देश्य इस क्षेत्र को सब्सिडी और अन्य प्रकार के प्रोत्साहन के माध्यम से आगे बढ़ाने का होना चाहिए। यह रोज़गार के लिहाज़ से भी काफी अच्छा विचार है। लेकिन इसके बावजूद अक्षय ऊर्जा उद्योगों को बहुत कम प्रोत्साहन दिया जा रहा है।
प्रोत्साहन योजनाओं का अध्ययन
उपरोक्त अध्ययन में मुख्य रूप से जी-20 देशों को शामिल किया गया है। गौरतलब है कि ये अर्थव्यवस्थाएं 80 प्रतिशत वैश्विक उत्सर्जन और लगभग 85 प्रतिशत वैश्विक आर्थिक गतिविधियों के लिए ज़िम्मेदार हैं। इस अध्ययन में विशेष रूप से यह देखने का प्रयास किया गया है कि सरकारों द्वारा निर्धारित की गई नीतियों से उत्सर्जन में वृद्धि हुई है या कमी हुई है या फिर कोई प्रभाव नहीं पड़ा है। इसके अलावा नीतियों को अल्पकालिक या दीर्घकालिक आधार पर भी परखा गया है।
पवन चक्कियों के निर्माण और इलेक्ट्रिक वाहन उद्योग को उत्सर्जन कम करने वाली नीतियों के रूप में देखा जा सकता है। दूसरी ओर, पेट्रोल पर टैक्स कम करने जैसी नीतियों को उत्सर्जन में वृद्धि के उदाहरण के रूप में देखा जा सकता है। फ्रंटलाइन श्रमिकों के वेतन में वृद्धि, जानवरों के लिए मुफ्त चिकित्सा सुविधा और सेवानिवृत्त सैनिकों को मुफ्त मानसिक स्वास्थ्य सेवा प्रदान करने जैसी नीतियां उत्सर्जन पर कोई प्रभाव नहीं डालेंगी।
अध्ययन के मुख्य निष्कर्ष
आर्थिक प्रोत्साहन के लिए निर्धारित 14 खरब डॉलर में से 1 खरब डॉलर से भी कम राशि रिकवरी कार्यक्रमों के लिए आवंटित की गई है। इसमें से भी केवल 27 प्रतिशत राशि का आवंटन ऐसे क्षेत्रों के लिए किया गया है जो प्रत्यक्ष रूप से उत्सर्जन में कमी ला सकते हैं।
आवंटित राशि का 72 प्रतिशत हिस्सा उत्सर्जन पर अप्रत्यक्ष प्रभाव डालता है क्योंकि उत्सर्जन को कम करने में उनकी प्रभाविता काफी हद तक उपभोक्ता की मांग और उनके व्यवहार जैसे अस्थिर और परिवर्तनशील कारकों पर निर्भर करती है।
एक प्रतिशत से थोड़ी अधिक राशि (10.6 अरब डॉलर) अनुसंधान एवं विकास लिए आवंटित की गई है जिससे उत्सर्जन पर सकारात्मक या नकारात्मक प्रभाव पड़ सकते हैं।
रिकवरी फंडिंग का एक बड़ा हिस्सा (91% तक) ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने के लिए उपयोग नहीं किया जा रहा है। जैसा कि महामारी के दौरान अपेक्षित था, रिकवरी फंडिंग का अधिकांश हिस्सा कमज़ोर स्वास्थ्य प्रणाली को वित्तपोषित करने और अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए आवंटित किया गया है।
कुल मिलाकर महामारी के बाद जिस तरह से विकास और पुनर्निर्माण कार्य हुआ है उसमें शायद ही कोई बदलाव आया है। यह तो स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है महामारी के बाद सिर्फ पुनर्निर्माण और रिकवरी कार्य को प्राथमिकता दी गई है जबकि यह देखा जाना चाहिए था कि ये कार्य पर्यावरण के लिए हानिकारक न हों और लंबे समय तक टिकाऊ रहें।
टिकाऊ पुनर्निर्माण प्रयासों में कुछ देशों ने अन्य की तुलना में काफी बेहतर प्रयास किए हैं। उदाहरण के तौर पर उत्सर्जन नियंत्रण के मामले में युरोपीय संघ और दक्षिण कोरिया ने अन्य देशों की तुलना में काफी बेहतर प्रदर्शन किया है। जहां सभी जी-20 देशों द्वारा उत्सर्जन कम करने पर आवंटित राशि केवल 6 प्रतिशत है वहीं इन देशों ने अपने कोविड-19 वित्तीय प्रोत्साहन की 30 प्रतिशत से अधिक राशि उत्सर्जन को कम करने के उपायों के लिए आवंटित की है। इसी तरह ब्राज़ील, जर्मनी और इटली ने आर्थिक प्रोत्साहन की 20-20 प्रतिशत तथा मेक्सिको और फ्रांस ने 10-10 प्रतिशत राशि का आवंटन उत्सर्जन को कम करने के लिए किया है। फ्रांस ने साइकिल पार्किंग और मरम्मत पर सब्सिडी के तौर पर 6.6 करोड़ डॉलर का खर्च किया है। इसी तरह जर्मनी ने पवन और सौर-ऊर्जा परियोजनाओं, ऊर्जा-कुशल भवनों, बिजली एवं हाइड्रोजन चालित वाहनों और अधिक कुशल बसों एवं हवाई जहाज़ों के निर्माण को बढ़ावा दिया है।
कई देश काफी पिछड़े हुए भी हैं। दूर जाने की ज़रूरत नहीं, अपने आसपास के देशों को देख सकते हैं। भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका द्वारा किए गए नीतिगत परिवर्तनों से उत्सर्जन में वृद्धि होने की संभावना है। उदाहरण के लिए, इन देशों ने जनता पर आर्थिक बोझ कम करने के लिए बिजली की कीमतों में 5 प्रतिशत तक की कटौती की है। चीन ने कीमतों को स्थिर रखने के लिए कोयला खनिकों से उत्पादन में वृद्धि करने की मांग की है। भारत ने कोयला आधारित ऊर्जा संयंत्रों में वायु प्रदूषण उपायों को लागू करने की निर्धारित समय सीमा को और आगे बढ़ा दिया है। दक्षिण अफ्रीका ने बिजली संयंत्रों से 11.4 अरब डॉलर की बिजली खरीद की है जिसके उत्पादन के लिए कोयले का उपयोग किया गया है जबकि पवन ऊर्जा से उत्पादित बिजली खरीद को कम किया है। भारत ने तो निजी निवेश को आकर्षित करने और कोयले की कीमतों को कम करने के लिए कोयला खनन के बुनियादी ढांचे का आधुनिकीकरण करने का निर्णय लिया है। इसके लिए कोयला उद्योग को बढ़ावा देने के लिए 14 अरब डॉलर खर्च किए गए हैं।
सबसे आश्चर्य की बात तो यह है कि यू.एस., जापान, कनाडा और यूके ने उत्सर्जन को कम करने के लिए रिकवरी फंड का 10% से भी कम इस्तेमाल करने की प्रतिबद्धता जताई है। यह कंजूसी ग्लासगो जलवायु सम्मलेन में इन देशों द्वारा किए गए वादों के सर्वथा विपरीत है।
वैसे, इस बीच कुछ अच्छे निर्णय भी लिए गए हैं। चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने चीन के पहले नेट-ज़ीरो लक्ष्य की घोषणा की है और 2016 के बाद से पूरे विश्व के बाकी हिस्सों की तुलना में अधिक समुद्री पवन ऊर्जा संयंत्र स्थापित किए हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका ने अपने हालिया इन्फ्रास्ट्रक्चर बिल में 2021 के पेरिस समझौते का अनुपालन करते हुए सार्वजनिक परिवहन, वाहनों के विद्युतीकरण और ग्रिड के आधुनिकीकरण में निवेश को शामिल किया है। अलबत्ता, इन घोषणाओं से इस बात को अनदेखा नहीं किया जा सकता कि अमेरिका और चीन ने अपने रिकवरी पैकेजों में जीवाश्म-ईंधन आधारित उद्योगों में एक बड़ी रकम निवेश करने की प्रतिबद्धता जताई है।
अध्ययन की सीमाएं
इस अध्ययन में नीति निर्माताओं द्वारा लिए गए उन निर्णयों पर प्रकाश डाला गया जो उत्सर्जन को कम करने के लिए उपयोगी या हानिकारक हैं। अलबत्ता, हर विश्लेषणात्मक रिपोर्ट की तरह इस रिपोर्ट की भी कुछ सीमाएं हैं:
इस अध्ययन में केवल कोविड-19 महामारी के संदर्भ में लिए गए निर्णयों को शामिल किया गया है। अर्थात कोविड-19 राहत प्रोत्साहन के दायरे के बाहर की नीतियों को इस अध्ययन में शामिल नहीं किया गया है। ऐसे में दोषपूर्ण निष्कर्ष प्राप्त होने की पूरी संभावना है।
इस रिपोर्ट में महामारी के दौरान जलवायु सम्बंधी सभी खर्चों को शामिल नहीं किया गया है और केवल राजकोशीय खर्च पर ध्यान दिया गया है।
मौद्रिक नीति में परिवर्तन तथा ऋण के माध्यम से मांग और आपूर्ति को नियंत्रित किया जा सकता है। रिपोर्ट में अध्ययन की अवधि के दौरान इन परिवर्तनों और इसके कारण अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले प्रभावों को ध्यान में नहीं रखा गया है। वस्तुओं और सेवाओं की मांग एवं आपूर्ति का उत्सर्जन पर बड़ा प्रभाव पड़ता है और इस नाते मौद्रिक नीति उत्सर्जन नियंत्रण का काम कर सकती है।
यह अध्ययन मुख्य रूप से घोषणाओं पर केंद्रित है। यह जानी-मानी बात है कि सरकारी घोषणाओं और वास्तविक निवेश में बहुत अंतर होता है।
कम कार्बन ऊर्जा में निवेश
हाल ही में शोध फर्म ‘ब्लूमबर्ग एनईएफ’ द्वारा प्रकाशित एक नई रिपोर्ट, ‘एनर्जी ट्रांज़ीशन इन्वेस्टमेंट ट्रेंड्स 2022’ के अनुसार निम्न कार्बन आधारित ऊर्जा की ओर परिवर्तन में वैश्विक निवेश 755 अरब अमेरिकी डॉलर की नई रिकॉर्ड ऊंचाई पर पहुंच गया है। इस रिपोर्ट में बताया गया है कि कार्बन कैप्चर एंड स्टोरेज (सीसीएस) के क्षेत्र को छोड़कर लगभग सभी क्षेत्रों में निवेश बढ़ा है। रिपोर्ट के अनुसार पवन, सौर तथा अन्य नवीकरणीय ऊर्जा के क्षेत्र में 366 अरब डॉलर का सबसे बड़ा निवेश हुआ है जो पिछले वर्ष की तुलना में पूरा 6 प्रतिशत अधिक है।
273 अरब डॉलर के साथ दूसरे स्थान पर सबसे अधिक निवेश विद्युतीकृत परिवहन क्षेत्र में हुआ है। पिछले कुछ वर्षों में बड़ी संख्या में विद्युत वाहनों की बिक्री हुई है। इस रिपोर्ट में यह ध्यान देने योग्य है कि अक्षय ऊर्जा सबसे बड़ा उद्योग क्षेत्र है लेकिन इलेक्ट्रिक वाहन सबसे तेज़ी से बढ़ने वाला उद्योग है। इतने वाहनों की बिक्री से इलेक्ट्रिक वाहन उद्योग में 77 प्रतिशत की वृद्धि हुई है, जबकि अक्षय ऊर्जा उद्योग में 6 प्रतिशत। यदि वर्तमान रुझान जारी रहता है तो 2022 तक विद्युत वाहन उद्योग अक्षय ऊर्जा उद्योग से भी आगे निकल जाएगा। यह काफी दिलचस्प है कि 755 अरब डॉलर में से 731 अरब डॉलर केवल इन दो क्षेत्रों से आता है जो स्वच्छ ऊर्जा क्षेत्र में असमानता को दर्शाता है।
ब्लूमबर्ग एनईएफ के प्रमुख विश्लेषक अल्बर्ट चेंग का विचार है कि “वस्तुओं की विश्व व्यापी कमी ने स्वच्छ ऊर्जा क्षेत्र के लिए नई चुनौतियों को जन्म दिया है। इसके नतीजे में सौर मॉड्यूल, पवन टर्बाइन और बैटरी पैक जैसी प्रमुख तकनीकों की इनपुट लागत में काफी वृद्धि हुई है। इसके मद्देनज़र, 2021 में ऊर्जा संक्रमण के क्षेत्र में निवेश में 27 प्रतिशत की वृद्धि एक अच्छा संकेत है जो निवेशकों, सरकारों और व्यवसायों की कम-कार्बन उत्सर्जन की ओर प्रतिबद्धता को दर्शाता है।”
एक बार फिर ऊर्जा संक्रमण निवेश में चीन अकेला सबसे बड़ा देश है। इसके लिए चीन ने 2021 में 266 अरब डॉलर की प्रतिबद्धता दिखाई है। चीन से काफी पीछे दूसरे नंबर पर अमेरिका ने 114 अरब डॉलर और युरोपीय संघ ने 154 अरब डॉलर का संकल्प लिया है।
नेट-ज़ीरो उत्सर्जन
ब्लूमबर्ग एनईएफ की 2021 की रिपोर्ट ‘न्यू एनर्जी आउटलुक’ ने 2050 तक वैश्विक नेट-ज़ीरो तक पहुंचने के लिए ‘ग्रीन’, ‘रेड’ और ‘ग्रे’ लेबल के आधार पर तीन वैकल्पिक परिदृश्य सामने रखे हैं। ये तीनों परिदृश्य औसत वैश्विक तापमान में 1.75 डिग्री वृद्धि के हिसाब से हैं। न्यू एनर्जी आउटलुक का उद्देश्य वर्तमान आंकड़ों का अध्ययन करना और 2050 तक नेट-ज़ीरो लक्ष्य को हासिल करने के लिए ज़रूरी धन का अनुमान लगाना है।
ब्लूमबर्ग एनईएफ की रिपोर्ट के अनुसार उपरोक्त तीन स्तरों में से किसी एक के भी करीब पहुंचने के लिए वैश्विक निवेश को तीन गुना करने की आवश्यकता है ताकि 2022 और 2025 के बीच उनका औसत 2.1 खरब डॉलर प्रति वर्ष और फिर 2026 से 2030 के बीच दुगना होकर 4.2 खरब डॉलर प्रति वर्ष हो जाए। वर्तमान विकास दर के लिहाज़ से इलेक्ट्रिक वाहन उद्योग एकमात्र ऐसा उद्योग है जिसके इस स्तर तक पहुंचने की उम्मीद है।
इस मामले में ब्लूमबर्ग एनईएफ में अर्थशास्त्र के प्रमुख मैथियास किमेल कहते हैं: “पेरिस समझौते के लक्ष्यों को पूरा करने के लिए पूरे विश्व का कार्बन बजट तेज़ी से चुक रहा है। ऊर्जा संक्रमण का कार्य काफी अच्छी तरह से चल रहा है और पहले की तुलना में यह काफी तेज़ी से आगे बढ़ रहा है। लेकिन यदि हमें 2050 तक नेट-ज़ीरो का लक्ष्य हासिल करना है तो सरकारों को अगले कुछ वर्षों में अधिक वित्त जुटाने की आवश्यकता होगी।”
ब्लूमबर्ग रिपोर्ट के अनुसार 2021 में कुल कॉर्पोरेट वित्त 165 अरब डॉलर था जिसे ‘एनर्जी ट्रांज़ीशन इन्वेस्टमेंट ट्रेंड्स 2022’ रिपोर्ट में 755 अरब डॉलर के शुरुआती आंकड़े में शामिल नहीं किया गया था। माना जा रहा है कि आने वाले वर्षों में इस पूंजी का उपयोग कंपनी के कामकाज को बढ़ाने और तकनीकों के विकास हेतु किया जाएगा।
गौरतलब है कि आज कंपनियों के पास इतनी पूंजी है जितनी मानव इतिहास में पहली कभी भी नहीं थी। यह सही है कि वे आज समस्याओं के समाधानों में ज़्यादा योगदान नहीं दे रही हैं लेकिन इसमें भी कोई शक नहीं कि वे नवाचारों के विस्तार में निरंतर योगदान दे रही हैं जो भविष्य की समस्याओं से निपटने के लिए अनिवार्य साबित होंगे।
निष्कर्ष
अब तक की चर्चा पढ़ने के बाद हमारे मन में एक स्वाभाविक सवाल उठता है कि जब सरकारों को आर्थिक मंदी के परिणामस्वरूप निर्वहनीय तरीके से पुनर्निर्माण के अवसर मिल रहे हैं तो वे टिकाऊ विकास की ओर क्यों नहीं बढ़ रही हैं।
इसके दो बड़े कारण हो सकते हैं – सरकारें पर्यावरणीय विकास और जलवायु नीति की बजाय आर्थिक विकास को प्राथमिकता दे रही हैं। यह एक आम गलतफहमी है कि आर्थिक विकास और पर्यावरणीय विकास एक दूसरे के विरोधी हैं। जबकि सच तो यह है आर्थिक विकास और उत्सर्जन में कमी एक दूसरे के इतने भी विरोधी नहीं हैं जितना पहली नज़र में प्रतीत होते हैं।
इसका दूसरा कारण सरकारों के कार्यकाल से सम्बंधित है। आम तौर पर सरकारें यह सुनिश्चित करना चाहती हैं कि जो काम वे कर रही हैं उसका परिणाम उनके अपने कार्यकाल के भीतर ही मिल जाए ताकि जनता उन्हें फिर से चुन सके। यह अल्पकालिक सोच पैदा करता है। अब तक खर्च करने के जो भी निर्णय लिए गए हैं वे अल्पकालिक स्वास्थ्य संकट को दूर करने और आर्थिक संकट से बाहर निकलने के लिए हैं। जबकि इस समय यह आवश्यक था कि स्वास्थ्य सेवा में ऐसा निवेश हो जिसके परिणाम आने वाले दशकों में देखने को मिलें। शायद इसी कारण हमने सतत विकास के क्षेत्र में बहुत कम काम किया है क्योंकि टिकाऊपन के आधार पर पुनर्निर्माण के परिणाम पांच वर्षों में तो नहीं मिलेंगे।
तो क्या कुछ नहीं किया जा सकता? देखा जाए तो ऐसे कई उपाय हैं जिनको अपनाकर सरकारें जलवायु को बिना नुकसान पहुंचाए विकास कार्य कर सकती हैं। सरकारें चाहें तो पर्यावरण संरक्षण से सम्बंधित शर्तों के आधार पर प्रोत्साहन कानून बना सकती हैं। फ्रांस इस तरह के सशर्त प्रोत्साहन का एक अच्छा उदाहरण है जिसने अपने विमानन उद्योग को वापस पटरी पर लाने के लिए सशर्त आर्थिक प्रोत्साहन दिया। इस प्रोत्साहन के तहत उड़ानों को उन मार्गों पर सेवाएं न देने की शर्त रखी गई जहां रेल मार्ग से प्रतिस्पर्धा की संभावना है। इसके अलावा सरकारें ऐसे नीतिगत उपायों पर संसाधनों का आवंटन भी कर सकती है जो प्रत्यक्ष रूप से उत्सर्जन को सकारात्मक रूप से प्रभावित करते हैं। इसका एक तरीका अक्षय ऊर्जा पर खर्च करना हो सकता है। सभी सरकारों को अपनी रणनीति इस प्रकार तैयार करनी चाहिए कि कम-कार्बन उत्सर्जन करने वाले निवेश को संभव बनाया जा सके और जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता को कम किया जा सके।
देखा जाए तो यह बात स्पष्ट हो चुकी है कि आर्थिक विकास और टिकाऊ विकास साथ-साथ चल सकते हैं। हालांकि, हम जिन रिपोर्टों का उल्लेख कर रहे हैं वे स्पष्ट रूप से यह बताती हैं कि सरकारें टिकाऊ विकास पर पर्याप्त खर्च नहीं कर रही हैं और कई मामलों में वे इसके विपरीत काम कर रही हैं। कुछ देश अन्य की तुलना में बेहतर प्रदर्शन कर रहे हैं। वास्तव में जलवायु परिवर्तन एक वैश्विक समस्या है जो न केवल उत्सर्जन में वृद्धि करने वाले देशों को प्रभावित करती है बल्कि उन देशों को भी प्रभावित करती है जो उत्सर्जन को कम करने के निरंतर प्रयास कर रहे हैं। पेरिस समझौता और जलवायु परिवर्तन को रोकने के प्रयासों में वित्तपोषण सही दिशा में कदम है, लेकिन यह देखना बाकी है कि 2050 नेट-ज़ीरो का लक्ष्य प्राप्त करने में सरकारें कहीं कंजूसी तो नहीं कर रही हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.piie.com/microsites/rebuilding-global-economy