पश्चिमी घाट का पालक्कड़ (पालघाट) दर्रा – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन, सुशील चंदानी

श्चिमी घाट का एक अहम विभाजक कहा जाने वाला पालक्कड़ दर्रा लगभग 40 किलोमीटर चौड़ा है। इसके दोनों ओर समुद्र तल से 2000 मीटर तक ऊंचे, एकदम खड़ी ढलान वाले नीलगिरी और अन्नामलाई पर्वत हैं।

ऐतिहासिक रूप से पालक्कड़ दर्रा केरल राज्य में प्रवेश के लिए महत्वपूर्ण रहा है। यहां से कोयम्बटूर को पालक्कड़ से जोड़ने वाले सड़क और रेल मार्ग गुज़रते हैं। इसके बीच से भरतप्पुझा नदी बहती है। पश्चिमी घाट के ऊष्णकटिबंधीय वर्षावनों के विपरीत, पालक्कड़ दर्रे की वनस्पति शुष्क सदाबहार वन की श्रेणी में आती है। यह दर्रा पश्चिमी घाट में पाई जाने वाली वनस्पतियों और जंतुओं का विभाजक भी है। उदाहरण के लिए, मेंढकों की कई प्रजातियां दर्रे के केवल एक तरफ पाई जाती हैं।

भूवैज्ञानिक उथल-पुथल

यह दर्रा एक भूवैज्ञानिक अपरूपण क्षेत्र है जो पूर्व-पश्चिम की ओर खुलता है। अपरूपण क्षेत्र पृथ्वी की भूपर्पटी के कमज़ोर क्षेत्र होते हैं – यही कारण है कि कोयम्बटूर क्षेत्र में कभी-कभी भूकंप के झटके महसूस किए जाते हैं।

माना जाता है कि पालक्कड़ दर्रे का निर्माण ऑस्ट्रेलिया और अफ्रीका के गोंडवाना भूभाग से टूटकर अलग होने के बाद महाद्वीपीय जलमग्न तटों के बहाव की वजह से हुआ है।

भारत और मेडागास्कर तब तक एक ही भूभाग का हिस्सा थे जब तक कि बड़े पैमाने पर हुई ज्वालामुखीय गतिविधि ने दोनों को विभाजित नहीं कर दिया था; यह विभाजन वहां हुआ था जहां पालक्कड़ दर्रा है – यह दर्रा बिलकुल मेडागास्कर के पूर्वी ओर स्थित रेनोत्सरा दर्रे का दर्पण प्रतिबंब है। दर्रा कितना पहले बना था? मेडागास्कर लगभग 10 करोड़ साल पहले अलग हो गया था, और दर्रा इससे पहले बन गया था; लेकिन कितने पहले बना था इस पर अभी सोच-विचार जारी है।

यह अनुमान है कि दर्रे के उत्तरी और दक्षिणी क्षेत्र में पाई जाने वाली प्रजातियों में अंतर का एक कारण प्राचीन नदी या सुदूर अतीत में समुद्र की घुसपैठ हो सकता है।

नीलगिरी पर्वत पर पाए जाने वाले हाथियों के माइटोकॉन्ड्रियल डीएनए अन्नामलाई पर्वत और पेरियार अभयारण्यों में पाए जाने वाले हाथियों से भिन्न होते हैं।

आईआईएससी बैंगलोर द्वारा किए गए एक अध्ययन में पेट पर सफेद धारी वाले शॉर्टविंग पक्षी के डीएनए अनुक्रम के विस्तृत डैटा का विश्लेषण किया गया है। शॉर्टविंग एक स्थानिक और संकटग्रस्त पक्षी है। ऊटी और बाबा बुदान के आसपास पाए जाने वाले पक्षियों को नीलगिरी ब्लू रॉबिन कहा जाता है; अन्नामलाई पर पाए जाने वाले पक्षी दिखने में थोड़े अलग होते हैं, और इन्हें व्हाइट-बेलीड ब्लू रॉबिन कहा जाता है।

दर्रे का दक्षिणी भाग

किसी भी क्षेत्र की जैव विविधता दो तरीकों से व्यक्त की जाती है। एक, प्रजातियों की प्रचुरता से। यानी किसी पारिस्थितिकी तंत्र में कितनी प्रजातियां पाई जाती हैं। और दूसरा, फाइलोजेनेटिक विविधता से। फाइलोजेनेटिक विविधता में देखा जाता है कि वहां उपस्थित प्रजातियों के बीच जैव विकास की दृष्टि से कितनी दूरी है।

हैदराबाद स्थित सीसीएमबी और अन्य संस्थानों के शोधदल द्वारा प्रोसीडिंग्स ऑफ दी रॉयल सोसायटी बी में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार पालक्कड़ दर्रे के दक्षिणी पश्चिमी घाट में ये दोनों विविधताएं प्रचुर मात्रा में हैं। मैग्नोलिया चंपका (चंपा) सहित यहां पेड़ों की 450 से अधिक प्रजातियां हैं, जो यहां लगभग 13 करोड़ वर्षों से अधिक समय से हैं।

भूमध्य रेखा से करीब होने के कारण गर्म मौसम और नम हवा के कारण दक्षिणी पश्चिमी घाट में बहुत बारिश होती है। इसलिए यह क्षेत्र जीवन के सभी रूपों के लिए एक आश्रय की तरह रहा है, भले ही बार-बार आते हिमयुगों और सूखे के चक्र ने आसपास के क्षेत्रों में जैव विविधता कम कर दी हो। देखा जाए तो पालक्कड़ दर्रे के उत्तर की ओर सालाना अधिक बारिश होती है, लेकिन दक्षिणी हिस्से में साल भर समान रूप से बारिश होती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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बढ़ता तापमान और बेसबॉल में बढ़ते होम रन

ह तो हम जानते हैं कि बढ़ता वैश्विक तापमान जीवन पर असर डालता है। लेकिन यह बात शायद थोड़ा हैरान कर दे कि यह खेलों को भी प्रभावित करता है। फिलहाल यह बात बेसबॉल के मामले में कही गई है।

दरअसल, हवा जितनी गर्म होगी उसका घनत्व उतना कम होगा। इसलिए वैश्विक तापमान में वृद्धि से, बल्ले द्वारा उछाली गई गेंद को हवा में कम घर्षण मिलेगा और सिद्धांतत: होम रन की संख्या बढ़ेगी। हालिया अध्ययन बताता है कि 2010 के बाद से मेजर लीग बेसबॉल (एमएलबी) में लगभग 0.8 प्रतिशत होम रन वैश्विक तापमान वृद्धि के कारण हुए हैं। हालांकि हाल के दशकों में होम रन की संख्या बढ़ने में अन्य कारकों की भूमिका भी रही है, जैसे खिलाड़ियों के बेहतर प्रयास और गेंद की डिज़ाइन आदि। बेसबॉल के खेल में आम तौर पर होम रन गेंद के मैदान को छुए बगैर सीमापार जाने पर माना जाता है।

वैसे 2012 में एक मैच के दौरान, पूर्व खिलाड़ी और कमेंटेटर टिम मैककार्वर ने संभावना जताई थी कि बढ़ते होम रन का कारण जलवायु परिवर्तन हो सकता है। उस समय तो यह विचार खारिज कर दिया गया था। लेकिन बेसबॉल प्रशंसक और जलवायु वैज्ञानिक क्रिस्टोफर कैलेहन ने इसे परखने का सोचा।

होम रन की बढ़ती संख्या में बढ़ते तापमान और घटते वायु घनत्व की भूमिका देखने के लिए कैलेहन के दल ने एमएलबी द्वारा सहेजे गए अथाह डैटा को देखा। एमएलबी ने दशकों से होम रन के आंकड़े तो सहेज ही रखे थे, साथ ही वर्ष 2015 से स्वचालित कैमरों और कंप्यूटरों द्वारा हर गेंद के वेग और प्रक्षेपवक्र का भी रिकॉर्ड रखा हुआ था।

दल ने 1962 से 2019 के बीच विभिन्न स्टेडियम में हुए एमएलबी मैचों वाले लगभग 1,00,000 दिनों के तापमान और होम रन का विश्लेषण किया। कंट्रोल के तौर पर उन्होंने 2015 से 2019 के बीच खेले गए मैचों में 2,20,000 बल्लेबाज़ों के हाई-स्पीड वीडियो फुटेज का विश्लेषण किया। दोनों विश्लेषणों के नतीजे एक ही थे: औसतन, तापमान में 1 डिग्री सेल्सियम की वृद्धि होम रन में लगभग 2 प्रतिशत की वृद्धि होती है। अमेरिकन मिटिरियोलॉजिकल सोसायटी के अनुसार हर 1 डिग्री सेल्सियस अतिरिक्त तापमान ने हर बेसबॉल सीज़न में 95 अतिरिक्त होम रन दिए हैं, और 2010 के बाद से 500 से भी अधिक अतिरिक्त होम रन बढ़ते तापमान की देन हैं।

वैसे, यह संख्या 2010 के बाद से मारे गए 65,300 से भी अधिक होम रन के सामने कुछ भी नहीं है। पिछले 40 सालों में प्रति गेम होम रन की संख्या 34 प्रतिशत बढ़ी है। और इसमें से अधिकांश बढ़त का जलवायु परिवर्तन से कोई लेना-देना नहीं है। होम रन की संख्या बढ़ने के मुख्य कारक बल्लेबाज़ के होम रन करने के प्रयास, और गेंद की सिलाई में बदलाव हैं।

बहरहाल, इतने अधिक और अच्छी तरह सहेजे गए डैटा की बदौलत जलवायु परिवर्तन का होम रन पर इतना बारीक प्रभाव पता लगा है और यह तापमान बढ़ने के साथ बढ़ेगा। तापमान बढ़ता रहा तो मैच के लिए रात का समय या बंद स्टेडियम पर विचार करना होगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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प्रतिबंधित सीएफसी का बढ़ता स्तर

मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल (1987) के तहत ओज़ोन को क्षति पहुंचाने वाले रसायन क्लोरोफ्लोरोकार्बन (सीएफसी) के उपयोग को 2010 तक पूरी तरह खत्म करने का संकल्प लिया गया था। यह काफी सफल रहा था और उम्मीद थी कि 2060 ओज़ोन परत बहाल हो जाएगी। लेकिन ताज़ा आंकड़ों ने वैज्ञानिकों की चिंता बढ़ा दी है।

नेचर जियोसाइंस में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार 2010 से 2020 के बीच 5 प्रकार के सीएफसी के स्तर में काफी तेज़ी से वृद्धि हुई है। वैज्ञानिकों का मानना है कि इन सीएफसी का वर्तमान स्तर ओज़ोन परत की बहाली के लिए ज़्यादा खतरा उत्पन्न नहीं करता है। लेकिन सीएफसी शक्तिशाली ग्रीनहाउस गैसें भी हैं जो जलवायु को प्रतिकूल प्रभावित करती हैं। गौरतलब है सीएफसी सैकड़ों वर्षों तक वातावरण में बने रहते हैं। इन 5 सीएफसी की वजह से वातावरण जितना गर्म होगा वह स्विट्ज़रलैंड जैसे किसी छोटे देश द्वारा किए गए उत्सर्जन के असर के बराबर होगा।

विशेषज्ञों के अनुसार काफी संभावना है कि सीएफसी विकल्पों के उत्पादन के दौरान संयंत्रों से गलती से सीएफसी-113A, सीएफसी-114A और सीएफसी-115 का उत्सर्जन हो रहा हो। वास्तव में सीएफसी को खत्म करने के लिए हाइड्रोफ्लोरोकार्बन (एचएफसी) को विकल्प के रूप में लाया गया था। लेकिन एचएफसी उत्पादन के दौरान अनपेक्षित रूप से सीएफसी के उत्पादन की संभावना बनी रहती है। इस प्रकार के उत्पादन को मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल के तहत हतोत्साहित किया गया था लेकिन प्रतिबंधित नहीं किया गया था।

अन्य दो सीएफसी (सीएफसी-13 और सीएफसी-112A) के स्तर में वृद्धि एक रहस्य है क्योंकि इनका उत्पादन या उपयोग  प्रतिबंधित है। संभावना है कि विलायक या रासायनिक फीडस्टॉक के तौर पर उपयोग के कारण सीएफसी-112A के स्तर में वृद्धि हो रही है। लेकिन सीएफसी-13 के उत्सर्जन का अभी तक कोई सुराग नहीं है। वैश्विक स्तर पर पर्याप्त निगरानी स्टेशन की अनुपस्थिति में सीएफसी-13 के स्रोत का पता लगाना मुश्किल है।    

बहरहाल, आंकड़ों से इतना तो स्पष्ट है कि वैश्विक निगरानी प्रणाली काफी सक्रियता से काम कर रही है और वैज्ञानिकों द्वारा पृथ्वी के वातावरण और जलवायु समस्याओं पर कड़ी नज़र रखी जा रही है। पूर्व में भी दक्षिण कोरिया और जापान के निगरानी स्टेशन से सीएफसी-11 के उच्च स्तर का पता लगा था, जिसका स्रोत पूर्वी चीन में मिला था। इसके उत्सर्जन को नियंत्रित किया गया और इसके स्तर में कमी आने लगी। लिहाज़ा, अधिक निगरानी स्टेशनों की ज़रूरत है।

यदि हाल ही में खोजे गए 5 सीएफसी का अधिकांश उत्सर्जन सीएफसी-विकल्पों के उत्पादन के दौरान हो रहा है तो विकल्पों के बारे में विचार करना आवश्यक है। शायद हाइड्रोफ्लोरोओलीफीन्स (एचएफओ) का उपयोग करना होगा। लेकिन उसके उत्पादन से भी सीएफसी का उत्सर्जन हो सकता है। (स्रोत फीचर्स)

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कार्बन डाईऑक्साइड: उत्सर्जन घटाएं या हटाएं?

हालिया जलवायु सम्मेलनों में नेट-ज़ीरो उत्सर्जन काफी चर्चा में रहा। इसमें नेट शब्द का अर्थ है कि हम सिर्फ उत्सर्जन कम करने पर नहीं बल्कि कार्बन डाईऑक्साइड को वातावरण में हटाने पर भी ध्यान दें। एक विचार यह है कि सिर्फ उत्सर्जन कम करके हम 1.5 या 2 डिग्री वृद्धि का लक्ष्य नहीं पा सकेंगे।

फिलहाल उड्डयन और नौपरिवहन ग्रीनहाउस गैसों के सबसे बड़े स्रोत हैं, और आगे भी बने रहने की संभावना है। ऐसे में बड़े पैमाने पर कार्बन उत्सर्जन को पूरी तरह समाप्त नहीं किया जा सकता है। इसलिए कार्बन डाईऑक्साइड रिमूवल (सीडीआर) की भी आवश्यकता है।

सीडीआर का ऐतिहासिक तरीका पेड़ लगाना रहा है, लेकिन वातावरण से कार्बन डाईऑक्साइड हटाकर भूमि, समुद्र या अन्य स्थानों पर संग्रहित कर देना शायद अधिक टिकाऊ साबित हो।

वर्तमान में कई कंपनियां विभिन्न सीडीआर तकनीकों को जलवायु समाधान के रूप में प्रस्तुत कर रही हैं। इस विषय में प्राकृतिक कार्बन चक्र और हाल ही में सीडीआर तकनीकों पर काम कर रहे डेविड टी. हो लंबी अवधि के लिए सीडीआर तकनीकों को विकसित करने के पक्ष में तो हैं लेकिन थोड़े संशय में हैं। गौरतलब है कि पूर्व में डायरेक्ट एयर कैप्चर (डीएसी) तकनीक का छोटे स्तर पर प्रदर्शन किया गया था जो रासायनिक तरीकों से कार्बन डाईऑक्साइड को वातावरण से बाहर करती है। इसके लिए 2022 में यू.एस. बायपार्टीज़न इंफ्रास्ट्रक्चर कानून ने चार डीएसी विकसित करने के लिए 3.5 अरब डॉलर का अनुदान देने का भी निर्णय लिया था। लेकिन डेविड के अनुसार यह प्रयास तब तक व्यर्थ है जब तक प्रदूषणकारी गतिविधियों को पूरी तरह से खत्म न कर दिया जाए।

इसको इस तरह से समझें। हमें कार्बन डाईऑक्साइड के स्तर को कई वर्ष पहले की स्थिति में ले जाना है। प्रत्येक डीएसी सुविधा से प्रतिवर्ष 10 लाख टन कार्बन डाईऑक्साइड वातावरण से बाहर करने की उम्मीद है। अब देखिए कि 2022 में 40.5 अरब टन कार्बन डाईऑक्साइड का उत्सर्जन हुआ है। यदि डीएसी संयंत्र वर्ष भर अपनी पूरी क्षमता के साथ काम करते हैं तो इससे वातावरण की स्थिति को मात्र 13 मिनट पीछे ले जाया जा सकता है। लेकिन 13 मिनट में जितनी कार्बन डाईऑक्साइड हटाई जाएगी उतने ही समय में बाकी गतिविधियां साल भर की कार्बन डाईऑक्साइड वापस वातावरण में उंडेल देंगी। अब यह देखिए कि यदि हर व्यक्ति एक पेड़ लगाए इन 8 अरब पेड़ों के परिपक्व होने के बाद हमारा वातावरण हर वर्ष 43 घंटे पीछे जा सकता है।

कुल मिलाकर इससे यह अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि सीडीआर तकनीकों की क्षमता कितनी सीमित है।

ऐसे में सीडीआर तकनीकों को तत्काल समाधान के रूप में देखना उचित नहीं है। आने वाले समय में जलवायु समाधानों के लिए काफी धन आवंटित होने की उम्मीद है जिसका सही दिशा में उपयोग करना आवशयक है। यदि हम कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन के मौजूदा स्तर को लगभग 10 प्रतिशत यानी 4 अरब टन प्रति वर्ष तक कम करते हैं तो 10 लाख टन हटाने में सक्षम एक डीएसी संयंत्र हमें 13 मिनट के बजाय 2 घंटे से अधिक समय पीछे ले जाएगी। इस स्थिति को देखते हुए एक निर्धारित वर्ष में नेट ज़ीरो हासिल करने के लिए पूरी तरह से अक्षय ऊर्जा द्वारा संचालित 4000 डीएसी सुविधाओं की आवश्यकता होगी।

इस तरह से अवशिष्ट उत्सर्जन संभवत: हमारे वर्तमान कुल उत्सर्जन का 18 प्रतिशत होगा, इसलिए नेट-ज़ीरो तक पहुंचने के लिए कई सीडीआर स्थापित करने होंगे। तकरीबन 7290 डीएसी हब बनाना पर्याप्त होगा। साथ ही, सीडीआर विधियों की खोज के लिए अधिक शोध की आवश्यकता है जो भूमि उपयोग और ऊर्जा खपत को कम करें तथा जिन्हें स्थायी और सस्ता बनाया जा सके।

फिर भी, यह ज़रूरी नहीं कि प्रयोगशाला में सुचारू रूप से काम करने वाली तकनीकें वास्तविक दुनिया में भी वैसे ही काम करेंगी। इनमें से कुछ तकनीकें जैव विविधता और पर्यावरण के लिए हानिकारक भी हो सकती हैं। यह सुनिश्चित करना एक बड़ी चुनौती है कि सीडीआर वास्तव में कितना काम कर रहा है। (स्रोत फीचर्स)

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जलवायु परिवर्तन से आर्कटिक कलहंसों को मिला नया प्रजनन स्थल

निरंतर हो रहे जलवायु परिवर्तन से गुलाबी पैरों वाले कुछ गीस (कलहंसों) ने उत्तरी रूस में एक ठिकाना बना लिया है। यह स्थान उनके पारंपरिक ग्रीष्मकालीन प्रजनन क्षेत्र से लगभग 1000 किलोमीटर उत्तर पूर्व में है। विशेषज्ञों के अनुसार यह घटना इस तथ्य की ओर संकेत देती हैं कि कुछ प्रजातियां, थोड़े समय के लिए ही सही, जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के साथ अनुकूलन कर सकती हैं। गौरतलब है कि प्रत्येक वसंत ऋतु में लगभग 80,000 कलहंस (एन्सेर ब्रैचिरिन्चस) नॉर्वे के स्वालबार्ड द्वीपसमूह में प्रजनन के लिए डेनमार्क, नेदरलैंड और बेल्जियम से उत्तर की ओर प्रवास करते हैं। स्वीडन और फिनलैंड में कुछ हज़ार पक्षियों के देखे जाने के बाद वैज्ञानिकों ने 21 पक्षियों को जीपीएस ट्रैकर लगाए। करंट बायोलॉजी में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार ट्रैकर लगे आधे पक्षी उत्तरी रूस के एक द्वीपसमूह नोवाया ज़ेमल्या के उत्तर-पूर्व की ओर उड़ गए। इस क्षेत्र में शोधकर्ताओं ने नई प्रजनन आबादी पाई जिसमें लगभग 3-4 हज़ार पक्षी शामिल हो सकते हैं। नोवाया ज़ेमल्या का वर्तमान वसंत तापमान अब स्वालबार्ड के दशकों पहले रहे तापमान के समान है। ऐसी संभावना है कि पक्षियों ने अपने नए प्रजनन क्षेत्र चुन लिए हैं। (स्रोत फीचर्स)

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एक इकोसिस्टम की बहाली के प्रयास

मानव गतिविधियों से न जाने कितने प्राकृतिक स्थलों की दुर्दशा हो गई है। इन्हीं में से एक है इटली की बेगनोली खाड़ी, जिसमें समुद्री जीवन लगभग शून्य हो चुका है। ताज़ा अध्ययन में शोधकर्ताओं ने बेगनोली खाड़ी की तलछट में बचे रह गए पर्यावरणीय डीएनए (तलछटी डीएनए) की मदद से 200 साल पीछे तक का जैविक इतिहास खंगाला और इस पारिस्थितिक तंत्र के तबाह होने की क्रमिक तस्वीर निर्मित की। ऐसी जानकारी बेगनोली खाड़ी और अन्य खस्ताहाल पारिस्थितिकी तंत्रों की बहाली में मददगार हो सकती है।

दरअसल औद्योगिक क्रांति से पहले, लगभग 1827 तक बेगनोली खाड़ी स्वस्थ और सुंदर हुआ करती थी। इसमें नेपच्यून घास उगा करती थी और यह कृमियों, समुद्री स्क्वर्ट्स, स्पॉन्ज और छोटे प्लवकों जैसे जीवों का घर हुआ करती थी। लेकिन 20वीं शताब्दी के आरंभ तक, स्टील और एस्बेस्टस संयंत्र बनने के साथ खाड़ी के बीच मौजूद द्वीप को मुख्य ज़मीन से जोड़ने के लिए पुल बने। इन गतिविधियों ने इसकी समुद्री घास को तबाह कर दिया था, जिससे इस पर निर्भर जीवन भी प्रभावित हुआ। नतीजतन खाड़ी प्रदूषित होती गई और इसका पारिस्थितिकी तंत्र गड़बड़ाता गया।

ऐसा नहीं था कि खाड़ी की बहाली के कोई प्रयास नहीं किए जा रहे थे। यह अध्ययन बहाली के इन्हीं प्रयासों के चलते किया गया था। दरअसल बहाली के लिए उठाए गए कदमों से खाड़ी का प्रदूषण तो काफी हद तक कम हो गया था, लेकिन इसके पारिस्थितिक तंत्र में कोई खास सुधार नहीं हो सका था।

पारिस्थितिक तंत्र की बहाली के लिए यह पता होना ज़रूरी है कि मानव दखल या औद्योगिक क्रांति से पहले आखिर यह था कैसा? इसमें कौन से जीव, प्रजातियां, पौधे वगैरह वापस लाए जाएं और किस हिसाब से वापस लाए जाएं।

इसके लिए दो समुद्री पारिस्थितिकीविदों एंटॉन डॉर्न ज़ुऑलॉजिकल इंस्टीट्यूट की लॉरेना रोमेरो और अर्बिनो युनिवर्सिटी के मार्को कैवलियरे ने सोचा कि इसकी तलछट में मौजूद डीएनए इसकी पूर्वस्थिति के सुराग दे सकते हैं।

तलछटी डीएनए के अध्ययन से शोधकर्ता न सिर्फ मानव दखल से पहले और बाद की खाड़ी की तस्वीर बना पाए बल्कि वे यह भी पता कर पाए कि समय के साथ धीरे-धीरे खाड़ी किस तरह बदहाल होती गई। तलछटी डीएनए के अध्ययन का फायदा यह है कि तलछट परत-दर-परत जमा होती है, और हर परत में मौजूद डीएनए उस काल विशेष के जीवन के बारे में बता सकते हैं। खाड़ी की परतों के नमूनों में शोधकर्ताओं को कुछ अनजानी प्रजातियों के डीएनए भी मिले।

इस लिहाज से तलछटी डीएनए का अध्ययन किसी पारिस्थितिक तंत्र की बहाली के लिए एक उम्दा तरीका लगता है लेकिन इसकी कुछ सीमाएं भी हैं। मसलन, डीएनए समय के साथ क्षतिग्रस्त होते जाते हैं। संभावना है कि इसमें कई प्रजातियां छूट जाएं। इसलिए इसे पारिस्थितिकी पता करने के कई तरीकों में से एक तरीके के तौर पर देखा जाना चाहिए न कि एकमात्र तरीके के तौर पर। (स्रोत फीचर्स)

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प्लास्टिकोसिस की जद में पक्षियों का जीवन – अली खान

हालिया अध्ययन में यह जानकारी सामने आई है कि प्लास्टिक के कारण समुद्री पक्षियों का पाचन तंत्र खराब हो रहा है। बता दें कि यह पहली बार प्लास्टिक से होने वाली बीमारी का पता चला है। वैज्ञानिकों ने इसका नाम प्लास्टिकोसिस रखा है। फिलहाल यह बीमारी समुद्री पक्षियों को हो रही है। लेकिन आशंका है कि भविष्य में यह कई प्रजातियों में फैल सकती है।

प्लास्टिकोसिस उन पक्षियों को हो रहा है जो समुद्र में अपना शिकार ढूंढते हैं। शिकार के साथ ही उनके शरीर में छोटे और बड़े आकार के प्लास्टिक चले जाते हैं जिनसे उनके शरीर को नुकसान होने लगता है। धीरे-धीरे वे बीमार होकर मर जाते हैं। वैज्ञानिकों ने प्लास्टिकोसिस की वजह से शरीर पर पड़ने वाले असर को भी रिकॉर्ड किया है।

इस शोध की रिपोर्ट हैज़ार्डस मटेरियल्स जर्नल में प्रकाशित हुई है। शोध के मुताबिक प्लास्टिक प्रदूषण इतना बढ़ गया है कि विभिन्न उम्र के पक्षियों में प्लास्टिक की उपस्थिति के संकेत पाए गए हैं। शोधकर्ताओं ने ऑस्ट्रेलिया में शीयरवाटर्स पक्षी का अध्ययन करने के बाद यह जानकारी दी है। अध्ययन में बताया गया है कि पक्षियों की आहार नाल के प्रोवेन्ट्रिकुलस नामक अंग की ग्रंथियों के क्रमिक क्षय के कारण यह रोग होता है। इन ग्रंथियों की कमी से पक्षी संक्रमण और परजीवियों के प्रति अधिक संवेदनशील हो सकते हैं। ये भोजन को पचाने की उनकी क्षमता को प्रभावित कर सकते हैं।

हकीकत यही है कि रोज़मर्रा की जिंदगी में इस्तेमाल होने वाली प्लास्टिक थैलियों, बर्तनों व अन्य प्लास्टिक से उपजा प्रदूषण पूरी दुनिया के लिए नासूर बन चुका है। उल्लेखनीय है कि प्लास्टिक एक ऐसा नॉन-बायोडीग्रेडबल पदार्थ है जो जल और भूमि में विघटित नहीं होता है। यह लंबे समय तक हवा, मिट्टी व पानी के संपर्क में रहने पर हानिकारक विषैले पदार्थ उत्सर्जित करने लगता है। ये विषैले पदार्थ घुलकर पानी के स्रोतों तक पहुंच जाते हैं। ऐसे में यह लोगों में विभिन्न प्रकार की बीमारियां फैलाने का काम करता है। एक शोध से पता चला है कि प्लास्टिक के ज़्यादा संपर्क में रहने से खून में थेलेट्स की मात्रा बढ़ जाती है जिससे गर्भ में शिशु का विकास रुक जाता है और प्रजनन अंगों को नुकसान पहुंचता है। प्लास्टिक उत्पादों में प्रयोग होने वाला बिस्फेनाल रसायन शरीर में मधुमेह और यकृत एंज़ाइम को असंतुलित कर देता है। इसके अलावा प्लास्टिक कचरा जलाने से कार्बन डाईऑक्साइड, कार्बन मोनोऑक्साइड और डाईऑक्सीन्स जैसी विषैली गैसें उत्सर्जित होती हैं। इनसे श्वसन, त्वचा और आंखों से सम्बंधित बीमारियां होने की आशंका बढ़ जाती है।

सवाल है कि प्लास्टिक प्रदूषण की रोकथाम कैसे हो? सर्वप्रथम तो प्लास्टिक के खतरों के प्रति आम लोगों में जागरूकता पैदा करनी होगी। साथ ही सरकारी प्रयासों को गति दी जानी चाहिए। इसमें आम लोगों की सहभागिता को सुनिश्चित किया जाना भी ज़रूरी है। इसके बिना प्लास्टिक प्रदूषण पर नियंत्रण संभव नहीं हो सकेगा। (स्रोत फीचर्स)

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गर्माती दुनिया में ठंडक का इंतज़ाम

रती का तापमान बढ़ने के साथ कई जीवों को मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है। मधुमक्खियां भी इनमें शुमार हैं। एक ओर तो कीटनाशकों का बेइंतहा इस्तेमाल, प्राकृतवासों का विनाश, प्रकाश प्रदूषण तथा परजीवियों ने मिलकर वैसे ही उनकी आबादी को प्रतिकूल प्रभावित किया है और साथ में तापमान बढ़ने की वजह से मुश्किलें बढ़ी हैं। ज़ाहिर है मधुमक्खियों की मुश्किलें उन तक सीमित नहीं रहेंगी। इनमें से कुछ हमारी फसलों तथा आर्थिक महत्व के अन्य पेड़-पौधों की महत्वपूर्ण परागणकर्ता हैं।

सोसायटी फॉर इंटीग्रेटिव एंड कम्पेरेटिव बॉयोलॉजी की वार्षिक बैठक में प्रस्तुत एक अध्ययन में बताया गया है कि तापमान में वृद्धि के चलते कुछ मधुमक्खियां जल्दी-जल्दी मगर उथली सांसें लेने लगी हैं। अध्ययन भौरों की कुछ प्रजातियों पर किया गया था।

वैसे तो पहले के अध्ययनों में पता चला था कि यूएस की भौरों की लगभग 45 प्रजातियां मुश्किलों से घिरी हैं लेकिन लगता है कि ज़्यादा दिक्कतें वे प्रजातियां भुगत रही हैं जिनकी जीभ लंबी होती है। आयोवा स्टेट विश्वविद्यालय के एरिक रिडेल और उनके साथी यही समझने का प्रयास कर रहे थे कि क्यों जलवायु परिवर्तन का ज़्यादा असर कुछ ही प्रजातियों पर हो रहा है। उन्होंने बॉम्बस ऑरिकोमस प्रजाति की मधुमक्खियों पर प्रयोग किए। इस प्रजाति की मधुमक्खियों की आबादी सबसे तेज़ी से घट रही है। तुलना के लिए बॉम्बस इम्पेशिएन्स प्रजाति को लिया गया था। शोधकर्ताओं ने इन प्रजातियों की रानी मधुमक्खियों को तब एकत्र कर लिया जब वे अपनी शीतनिद्रा से निकलकर नए छत्तों का निर्माण करने वाली थीं। इन्हें प्रयोगशाला में प्राकृतिक आवास जैसी परिस्थितियों में रखा गया।

फिर तापमान के प्रति रानियों की प्रतिक्रिया को देखने के लिए उन्हें कांच की नलियों में रखकर 18 डिग्री और 30 डिग्री सेल्सियस पर परखा गया। इस तरह से रिडेल और उनके साथियों ने यह जांच की कि बढ़ते तापमान का इन मधुमक्खियों की शरीर क्रिया पर क्या असर होगा।

18 डिग्री सेल्सियस तापमान पर तो दोनों ही प्रजातियों की रानियों ने प्रति घंटे लगभग एक बार सांस ली। लेकिन जब तापमान बढ़ाया गया तो दोनों में श्वसन में परिवर्तन देखा गया। जहां बॉम्बस इम्पेशिएन्स हर 10 मिनट में एक बार सांस लेने लेगी वहीं बॉम्बस ऑरिकोमस में सांस की गति 10 गुना अधिक तेज़ हो गई। श्वसन दर बढ़ने के साथ उनके शरीर से पानी की हानि भी अधिक हुई।

इस परिस्थिति में 3 दिन रखे जाने पर 25 प्रतिशत बॉम्बस इम्पेशिएन्स जबकि 50 प्रतिशत बॉम्बस ऑरिकोमस मारी गईं। कुछ प्रजातियों की बढ़ी हुई श्वसन दर से कुछ हद तक इस बात की व्याख्या हो जाती है कि क्यों कुछ मधुमक्खियों की आबादी तेज़ी से घट रही है और जलवायु परिवर्तन के साथ इसमें और भी तेज़ी आ सकती है।

अन्य प्रजातियों पर तापमान का असर परखने के लिए शोधकर्ता यह अध्ययन सात अन्य प्रजातियों पर भी करने को तैयार हैं। मानना है कि घटती आबादी वाली सारी मधुमक्खियां तापमान बढ़ने पर ज़्यादा रफ्तार से श्वसन करती होंगी। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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वन सृजन व हरियाली बढ़ाने के सार्थक प्रयास – भारत डोगरा

ध्य प्रदेश के टीकमगढ़ ज़िले के मरखेड़ा गांव में हाल ही में नया वन तैयार करने का एक ऐसा प्रयास गांववासियों ने किया है जिसे देखने के लिए आसपास के क्षेत्रों से अनेक लोग यहां आ रहे हैं। यहां लगभग 36 स्थानीय प्रजातियों के 1800 पेड़ इस तरह सघनता से पास-पास लगाए गए हैं कि कम क्षेत्र में अधिक पेड़ पनप सकें व एक तरह का पेड़ दूसरी प्रजाति के वृक्ष का पूरक हो। वृक्ष लगाने से पहले भूमि को एक मीटर खोदा गया, इसमें भरपूर गोबर, पत्तियों व भूसे की खाद परतों में डाली गई, फिर मिट्टी की तह वापस बिछाई गई।

इससे पहले जल-संरक्षण का कार्य किया गया था, जिससे पानी की कमी नहीं हुई। सृजन संस्था द्वारा आरंभ किया गया यह कार्य सभी स्तरों पर गांववासियों की भागीदारी व परामर्श से हुआ, जिससे उनका उत्साह और बढ़ गया। गांववासियों ने बताया कि जिस तरह अपनी फसल की सिंचाई और रख-रखाव वे बहुत निष्ठा से करते हैं, वैसे ही उन्होंने इन पौधों की देखभाल की है।

परिणाम यह है कि 1800 में से एक भी पौधा नहीं सूखा व सभी के पनपने की दर इतनी अच्छी रही कि आठ-नौ महीने बाद 6 से 14 फीट ऊंचे पौधे ललहाते नज़र आने लगे। इसके साथ ही मोर, तोते आदि पक्षी भी यहां अधिक नज़र आने लगे।

इस तरह के वन-प्रयासों को तपोवन का नाम दिया गया है व इन्हें पहले टीकमगढ़ ज़िले में स्थापित करने के बाद कई अन्य ज़िलों में भी फैलाया जा रहा है। पर साथ ही इसमें कुछ सावधानियों को ध्यान में रखना भी ज़रूरी है ताकि पेड़ों का घनत्व बहुत अधिक न हो जाए। पेड़ों की धरती के ऊपर की बढ़त के साथ उनकी जड़ों पर भी पर्याप्त ध्यान देना चाहिए।

इस ‘तपोवन’ प्रयास की मुख्य विशेषता यह है कि यह पूरी तरह स्थानीय प्रजातियों पर ही आधारित है व बहुत जैव-विविधता को पनपाने वाला है। दूसरी प्रमुख बात यह है कि पेड़ लगाने में बहुत मेहनत और निष्ठा से प्राकृतिक खाद का पोषण मिट्टी में दिया जाता है व इस आधार पर वृक्षों की बहुत स्वस्थ प्रगति प्राप्त हो रही है।

‘तपोवन’ वन पद्धति की सोच जापान के एक विख्यात वनस्पति वैज्ञानिक अकीरा मियावाकी की सोच से जुड़ी हुई है व इसके भारत सहित अनेक देशों में बहुत सार्थक परिणाम प्राप्त हो चुके हैं। एक सघन वन व जैव विविधता भरपूर वन को अपेक्षाकृत कम समय में इस विधि द्वारा पनपाया जा सकता है। जलवायु बदलाव के इस दौर में हरियाली व वन बढ़ाने के बेहतर तौर-तरीकों के बारे में बहुत सोचा जा रहा है व इस संदर्भ में यह सोच बहुत सार्थक हो सकती है।

लगभग दो-तीन वर्षों में यह वन स्वयं पनपने लगता है, और इसे बाहरी सिंचाई आदि की आवश्यकता नहीं रह जाती है।

वैसे मियावाकी की इस सोच के अतिरिक्त कुछ अन्य तरह की सोच भी हरियाली को तेज़ी से बढ़ाने में सहायक है। इसमें एक सोच यह है कि जो स्थानीय प्राकृतिक वन अच्छी स्थिति में बचे हैं उनका गहन अध्ययन स्थानीय लोगों के सहयोग से किया जाए व इस आधार पर स्थानीय स्थितियों के अनुकूल जो सोच बने उसी का अनुकरण नए वनीकरण प्रयास में किया जाए। दूसरे शब्दों में, विभिन्न स्थानीय परिस्थितियों (मिट्टी, जलवायु, वर्षा) आदि के अनुकूल प्रकृति जैसा वन स्वयं तैयार करती है, मनुष्य सृजित वन भी उसके अधिक से अधिक नज़दीक बने रहने का प्रयास करना चाहिए व इस तरह के मार्ग को अपनाते हुए अपने आप उस दिशा में बढ़ सकेंगे जहां वनीकरण प्रयास टिकाऊ तौर पर सफल होने की अधिक संभावना है।

इस तरह की विभिन्न सार्थक सोच के आधार पर प्रयोग करने चाहिए। ये प्रयास वनीकरण की हमारी समझ बढ़ाएंगे। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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केरल के ज़मीनी पर्यावरण योद्धा – माधव गाडगिल

केरल के कन्नूर शहर के एक अनोखे समारोह में माजू पुतेंकंडम और मुस्तफा पल्लिकुत – जो वैसे तो भारत के साधारण किसान ही हैं – को दो वर्तमान ज्वलंत पर्यावरणीय चुनौतियों – जलवायु परिवर्तन और जैव विविधता की क्षति – को सामने लाने में उनके अग्रणी कार्यों के लिए सम्मानित किया गया और नकद पुरस्कार प्रदान किया गया। ऐसा करने के लिए माजू पुतेंकंडम और मुस्तफा पल्लिकुत दोनों ने पर्यावरण के इन महत्वपूर्ण मुद्दों को उठाने के काम में भारत की सबसे बड़ी ताकत – लोकतंत्र और सूचना संचार तकनीक क्रांति – का सहारा लिया था, जिसने ज्ञान तक आसान पहुंच के ज़रिए लोगों को सशक्त बनाया है।

वर्ष 2008 में काडनाड पंचायत के अध्यक्ष के रूप में श्री माजू ने डॉ. जोस पुतेट द्वारा समन्वित जैव विविधता प्रबंधन समिति (बीएमसी) की स्थापना की थी। बीएमसी ने पंचायत के सभी 13 वार्डों में अन्य विशेषज्ञों और स्वैच्छिक कार्यकर्ताओं को जोड़ा, और सभी किसानों और समुदाय के अन्य सदस्यों से जानकारी एकत्र करके एक लोक जैव विविधता रजिस्टर (पीबीआर) तैयार किया। इस दस्तावेज़ में बताया गया था कि जैव विविधता से भरपूर पेरुमकुन्नु के पहाड़ों में चट्टानों का उत्खनन वहां की जैव विविधता के लिए हानिकारक है और इसे तत्काल रोक दिया जाना चाहिए।

बीएमसी ने केरल के राज्य जैव विविधता बोर्ड (केएसबीडीबी) से उत्खनन और क्रशर के पर्यावरणीय प्रभावों का आकलन करने के लिए विशेषज्ञों की नियुक्ति करने का अनुरोध किया था; केएसबीडीबी ने 24 दिसंबर 2011 को ऐसा ही किया। केरल उच्च न्यायालय ने 2012 में इस मामले की जांच की और ठोस सबूतों के आधार पर काडनाड ग्राम पंचायत के फैसले को सही ठहराते हुए उत्खनन की अनुमति नहीं दी। तब निहित स्वार्थ हरकत में आए और उन्होंने पंचायत को समझाया कि पंचायत के उक्त निर्णय से पूरा इलाका अत्याचारी वन विभाग के अधिकार क्षेत्र में आ जाएगा और उन्हें खनन की अपेक्षा ज़्यादा कष्ट भोगने पड़ेंगे। चिंतित होकर पंचायत ने अपने निर्णय को रद्द कर दिया।

लेकिन क्षेत्र को इसकी कीमत चुकानी पड़ी। 16 अक्टूबर 2021 के आसपास केरल के इडुक्की और कोट्टायम जिलों में भारी बारिश के साथ कई बड़े भूस्खलन हुए। इडुक्की क्षेत्र में कम से कम 11 और कोट्टायम में करीब 14 लोगों की मौत हो गई; कोट्टायम का कूटिक्कल सबसे बुरी तरह प्रभावित हुआ था; कूटिक्कल काडनाड के बहुत नज़दीक है और यहां भी लोग पहाड़ या चट्टान तोड़ने को रोकने के लिए एक दशक से अधिक समय से आंदोलन कर रहे हैं। आपदा के दिन, मूसलाधार बारिश के दौरान भी खदानों में चट्टान काटने का काम नहीं रोका गया था और आपदा के समय भी खदानों से विस्फोट की आवाज़ें आती रही थीं। आधिकारिक आंकड़ों में केवल 3 खदानों का उल्लेख है लेकिन वर्तमान ज्ञान के युग में इस तरह की धोखाधड़ी का खुलासा हो ही जाता है – उपग्रह से ली गई तस्वीरों में 17 से अधिक सक्रिय खदानें देखी गई हैं। ऐसी आपदाओं के बावजूद केरल में कम से कम 5924 खदानों में काम चल रहा है। यहां तक कि 2018 में केरल में आई बाढ़ के बाद भी केरल सरकार ने 223 नई खदानों को मंज़ूरी दी थी। और यह सब जारी है जबकि यह भली-भांति पता है कि सख्त चट्टानों को काटने और भूस्खलन के बीच गहरा सम्बंध है।

मलप्पुरम ज़िले में श्री मुस्तफा ने इसी तरह की बीएमसी गठित की है, और PBR तैयार करने के लिए स्थानीय कॉलेज के छात्र-छात्राओं को साथ लिया है ताकि जैव विविधता पर खनन के प्रतिकूल प्रभावों को सामने लाया जा सके और खनन कार्य को रुकवाया जा सके। जैव विविधता अधिनियम के स्पष्ट प्रावधानों को हकीकत का रूप देने की दिशा में ये महत्वपूर्ण प्रयास हैं। जैव विविधता अधिनियम में कहा गया है कि “प्रत्येक स्थानीय निकाय जैव विविधता के संरक्षण, टिकाऊ विकास और प्राकृतवासों के परिरक्षण, थलीय किस्मों के संरक्षण, लोक किस्मों, पालतू प्राणियों और नस्लों, सूक्ष्मजीवों के दस्तावेज़ीकरण तथा जैव विविधता सम्बंधी ज्ञान के विवरण के प्रयोजन से अपने क्षेत्र में बीएमसी का गठन करेगा।।” PBR का उद्देश्य पर्यावासों को बचाने सहित जैव विविधता के संरक्षण और उसके टिकाऊ उपयोग को बढ़ावा देने के आधार के रूप में कार्य करने का है, न कि मात्र दस्तावेज़ीकरण के लिए। लेकिन अफसोस कि जनविरोधी सरकारी तंत्र ने कहीं भी ऐसा नहीं होने दिया; इसलिए, केरल के ये प्रयास इस दिशा में बड़े कदम हैं।

गौरतलब है कि खदानें और खंतियां न केवल जैव विविधता के विनाश का प्रमुख कारण हैं बल्कि अमूल्य जल स्रोतों और जन जीवन की गुणवत्ता के विनाश की भी ज़िम्मेदार हैं। गोवा में अवैध खनन पर शाह आयोग की टिप्पणियों में पाया गया था कि खान और खनिज अधिनियम के प्रावधानों का उल्लंघन किया गया है जिससे पारिस्थितिकी, पर्यावरण, कृषि, भूजल, प्राकृतिक जलधाराओं, तालाबों, नदियों, जैव विविधता आदि को गंभीर क्षति हुई है। आयोग का अनुमान था कि 2006 से 2011 के बीच सिर्फ गोवा में अवैध खनन से खदान मालिकों ने 35,000 करोड़ का मुनाफा कमाया है।

खनन और उत्खनन, खासकर मानव निर्मित रेत बनाने के लिए पत्थरों को पीसना, जलवायु परिवर्तन पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है, और साथ ही भारत के पहले से ही उच्च एयरोसोल बोझ को बढ़ाता है। उच्च एयरोसोल बोझ का नतीजा यह है कि पहले जो छह घंटे तक चलने वाली हल्की बूंदा-बांदी होती थी, वह अब आधे घंटे की भारी बारिश में बदल गई है। नतीजतन अधिक तीव्र बाढ़ के साथ-साथ भूस्खलन, बांधों के टूटने और इमारतें ढहने की संभावना बढ़ जाती है। लिहाज़ा, अब यह तो स्पष्ट है कि भले ही खनन और उत्खनन को पूरी तरह से रोका नहीं जा सकता है लेकिन इसे नियंत्रित अवश्य किया जाना चाहिए, अत्यधिक खनन पर अंकुश लगाया जाना चाहिए और ज़मीनी स्तर पर कार्य कर रहे लोगों के हितों की रक्षा की जानी चाहिए। पूरी दुनिया में यही वे लोग हैं जो यह सुनिश्चित करते हैं कि शासक पर्यावरण सम्बंधी चिंताओं पर उचित ध्यान दें; हमारे लोकतंत्र में ज़मीनी स्तर पर काम करने वाले आम लोगों द्वारा आधुनिक ज्ञान युग का लाभ उठाते हुए ऐसा होने लगा है, जो एक स्वागत योग्य विकास है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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