हाल ही में नेचर पत्रिका में प्रकाशित एक रिपोर्ट बताती है कि पिछले 20 सालों में दुनिया के आधे से अधिक समंदर पहले से अधिक ‘हरे’ हो गए हैं और इसका कारण संभवत: बढ़ता तापमान है।
समंदरों का रंग कई कारणों से बदल सकता है। जैसे जब पोषक तत्व गहराई से ऊपर आते हैं तो इनके पोषण से पादप-प्लवक (फाइटोप्लांकटन) फलते-फूलते हैं। इन फाइटोप्लांकटन में हरा रंजक क्लोरोफिल होता है। तो, सागरों की सतह से परावर्तित सूर्य के प्रकाश की तरंग दैर्घ्य का अध्ययन करके यह पता चल सकता कि वहां कितना क्लोरोफिल मौजूद है, जिससे यह पता लग सकता है कि वहां शैवाल और पादप-प्लवक जैसे कितने जीव मौजूद हैं। सिद्धांतत: तो जलवायु परिवर्तन की वजह से समुद्रों का पानी गर्म होगा तो वहां की जैविक उत्पादकता बढ़नी चाहिए।
लेकिन सतही पानी में क्लोरोफिल की मात्रा साल-दर-साल काफी अलग-अलग हो सकती है, जिसके कारण जलवायु परिवर्तन के कारण होने वाले और बड़े प्राकृतिक उतार-चढ़ाव के कारण होने वाले बदलावों में फर्क करना मुश्किल हो जाता है। इसलिए ऐसा माना गया था कि समंदरों पर जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को पहचानने के लिए लंबे समय का डैटा चाहिए होगा – कम से कम 40 साल का।
इसलिए साउथेम्प्टन स्थित नेशनल ओशेनोग्राफी सेंटर के महासागर और जलवायु विज्ञानी बी. बी. काइल और उनकी टीम ने नासा के एक्वा उपग्रह पर लगे सेंसर MODIS द्वारा जुटाए गए डैटा का विश्लेषण किया। इसके अलावा शोधकर्ताओं ने समुद्र के रंग को ट्रैक करने के लिए सिर्फ हरे रंग की तरंग दैर्घ्य की बजाय परावर्तित होने वाले संपूर्ण स्पेक्ट्रम का इस्तेमाल किया।
बीस साल के डैटा का विश्लेषण कर उन्होंने पाया कि महासागरीय सतह के 56 प्रतिशत हिस्से में उल्लेखनीय बदलाव हुए हैं, और ये बदलाव ज़्यादातर भूमध्य रेखा से 40 अंश उत्तर और 40 अंश दक्षिण के बीच के समंदरों में दिखे हैं। पाया गया है कि समय के साथ महासागरों का पानी हरा होता जा रहा है। चूंकि इन क्षेत्रों में पूरे साल के दौरान मौसम बहुत अधिक नहीं बदलता इसलिए एक साल की अवधि में इस हिस्से के महासागरीय पानी का रंग भी बहुत अधिक नहीं बदलता। इसलिए इन क्षेत्रों में दीर्घकालिक सूक्ष्म परिवर्तन भी काफी स्पष्ट दिखते हैं।
क्या ये बदलाव जलवायु परिवर्तन के कारण हुए हैं, यह जानने के लिए शोधकर्ताओं ने अपने अवलोकनों की तुलना एक ऐसे जलवायु मॉडल से की जो बताता है कि ग्रीनहाउस गैस बढ़ने पर समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र में किस तरह के बदलाव आएंगे। तुलना में उन्होंने पाया कि मॉडल के नतीजे और उनके अवलोकन मेल खाते हैं।
अलबत्ता, वास्तविक कारण पता लगाना बाकी है। शोधकर्ताओं का कहना है कि संभवत: यह समुद्र की सतह के तापमान में वृद्धि का सीधा प्रभाव नहीं है बल्कि कुछ और है। क्योंकि जिन जगहों पर रंग परिवर्तन हुआ है ये वे क्षेत्र नहीं हैं जहां तापमान बढ़ा है। अनुमान है कि यह शायद समुद्र में पोषक तत्वों के वितरण से जुड़ा मामला है। जैसे-जैसे सतह का पानी गर्म होता है, समुद्र की ऊपरी परतें अधिक स्तरीकृत हो जाती हैं। इस कारण पोषक तत्वों का सतह तक पहुंचना कठिन हो जाता है। सतहों पर पोषक तत्वों की कमी के कारण बड़े पादप-प्लवक की तुलना में छोटे पादप-प्लवक बेहतर फलते-फूलते हैं। इस तरह पोषक तत्वों की मात्रा में परिवर्तन पारिस्थितिकी तंत्र में परिवर्तन ला सकता है, जो पानी के रंग में परिवर्तन में झलकता है।
बहरहाल इन नतीजों से नासा के अगले उपग्रह PACE – प्लैंकटन, एरोसोल, क्लाउड, ओशिएन इकोलॉजी – से उम्मीदें बढ़ गई हैं, जो कई तरंग दैर्घ्यों पर समुद्र के रंग की निगरानी करेगा। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://images.nature.com/original/magazine-assets/d41586-023-02262-9/d41586-023-02262-9_25597426.jpg
हमारे ज़माने में गांवों में छोटे-छोटे घर होते थे और हम अपने पड़ोसियों को जानते थे। महिलाएं मिलनसार थीं और बच्चे एक साथ खेलते थे। लेकिन जब हम नौकरी के लिए शहर आ गए, और आबादी भी बढ़ने लगी तो हम अपार्टमेंट (फ्लैट्स) में रहे। ये अपार्टमेंट आम तौर पर दो-चार मंज़िला से बड़े नहीं होते थे, जिनमें एक हॉल, रसोई और बाथरूम होते थे। लेकिन तब भी अधिकांश मंज़िलों पर रहने वाले लोगों और उनके परिवारों के साथ हमारे व्यवहार थे, और हम स्थानीय सब्ज़ी वालों और किरानियों को भी जानते थे। लेकिन अफसोस कि शहरी आबादी बहुत अधिक बढ़ने के कारण लोग ऊंची-ऊंची इमारतों में रहने लगे, कंप्यूटर पर घर से काम (वर्क फ्रॉम होम) करने लगे, या काम पर जाने से मिलना-जुलना और साथ उठना-बैठना धीरे-धीरे खत्म हो गया है। बहुत हुआ तो हम अपनी मंज़िल पर रहने वाले परिवारों को जानते हैं। और हममें से अधिकांश लोग अपनी दैनिक ज़रूरतों की चीज़ें ज़ोमैटो और अमेज़ॉन जैसे ऐप्स से मंगाना पसंद करने लगे हैं!
बहुत अधिक आईटी कंपनियां और दवा कंपनियां होने से न सिर्फ मुंबई, बेंगलुरु, चेन्नई और हैदराबाद जैसे महानगरों में बल्कि मंझोले (टियर-टू) शहरों में भी 45 से 50 मंज़िला इमारतें बनने लगी हैं। इनमें रहने वाले लोग अपनी ही मंज़िल पर रहने वाले पड़ोसियों को भी नहीं जानते हैं। पहले के ज़माने की तुलना में अब पड़ोसियों के बीच मेलजोल बहुत कम हो गए हैं।
ऊंची इमारतों द्वारा जीवंतता खत्म करने के सात कारण (7 reasons why high-rises kill livability) शीर्षक से स्मार्टसिटीज़डाइव में प्रकाशित एक लेख में इस तरह की जीवनशैली के घाटे के बारे में बताया गया है। मैं आगे उसका सारांश प्रस्तुत कर रहा हूं।
ऊंची इमारतें लोगों को सड़कों से दूर करती हैं। इनके निवासी पास के सब्ज़ी वालों और किराने वालों को नहीं जानते हैं, उन्हें सड़कों पर होने वाली हलचल और लोगों का जोश देखने को नहीं मिलता है; उन्हें इनके बारे में सिर्फ अखबारों और मीडिया रिपोर्टों से पता चलता है। समाज के लिए ज़रूरी आपसी संपर्क खत्म हो गया है। लोग और समाज ही हैं जो जीवन को हसीन या उल्लासपूर्ण बनाते हैं। ऊंची इमारतों में रहने वाले अपनी ही दुनिया में खोए रहते हैं, बहुत हद तक अंतरिक्ष यात्रियों की तरह!
उच्च कार्बन प्रभाव
45 से 60 मंजिलों वाली ऊंची इमारतें ‘संभ्रातिकरण’ और असमानता को जन्म देती हैं, वहीं छोटी/मध्यम ऊंचाई की इमारतें लचीलापन और वहनीयता देती हैं। मेकिंग सिटीज़ लिवेबल इंटरनेशनल काउंसिल के डॉ. एस. एच. सी. लेनार्ड बताते हैं कि रियल एस्टेट डेवलपर्स आलीशान फ्लेट्स और अपार्टमेंट वाली ऊंची इमारतें बनाना पसंद करते हैं, जो उन्हें अधिक मुनाफा देती हैं। दूसरी ओर, चार-पांच मंज़िलों वाली छोटी इमारतें अधिक मानवीय होती हैं, और समाज और उसके बदलते लचीलेपन में गुंथी होती हैं। लेनार्ड बताते हैं कि फ्रांस के पेरिस शहर में इमारतें छह मंज़िल या 37 मीटर से अधिक ऊंची नहीं होती हैं; ये लोगों को हमेशा सड़कों से जोड़े रखती हैं और सड़क किनारे के दुकानदारों को सहारा देती हैं। ऊंची इमारतों की जीवनशैली घनी आबादी और लोगों की उतनी ही संख्या वाली छोटी इमारतों की जीवनशैली की तुलना में अपने पूरे जीवनकाल में ग्रीनहाउस प्रभाव अधिक पैदा करती हैं।
इस कड़ी में, 1971 में कनाडा जर्नल ऑफ पब्लिक हेल्थ में प्रकाशित अपने पेपर में मनोवैज्ञानिक डॉ. डी. कैप्पन ने बताया था कि ऊंची इमारतें अपने रहवासियों को सड़कों पर चहलकदमी और व्यायाम करने के अवसरों और बच्चों को अपने आस-पड़ोस के दोस्तों के साथ खेलने के आनंद से वंचित कर देती हैं। वास्तव में, ऊंची इमारतें वहां रहने वाले लोगों के स्वास्थ्य के लिए अच्छी नहीं हैं। तो, आइए हम एम्पायर स्टेट बिल्डिंग या बुर्ज खलीफा बनाने की बजाय पेरिस जैसे घर बनाएं!(स्रोत फीचर्स)
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हिमालय की एक नदी है, जो भारत के उत्तराखंड राज्य के उत्तर-पूर्वी हिस्से में काली और नेपाल के सुदूर पश्चिमी प्रदेश में महाकाली के नाम से जानी जाती है। पिछले दिनों मैंने एक शोध कार्य के सम्बंध में इस क्षेत्र में काफी समय गुज़ारा। यहां नदी के नामकरण और उसकी भू-राजनीति पर बात कर रहा हूं।
नदियों का नामकरण सामान्यत: किसी पौराणिक कथा, धार्मिक आस्था, ऐतिहासिक घटना, उसके स्रोत (जैसे ग्लेशियर, जंगल, झील आदि), उसकी विशेष भौगोलिक संरचना या किसी खास गुण के आधार पर होता है। जैसे, पिंडारी नदी और उसके स्रोत ग्लेशियर का नाम एक ही है। राजस्थान की बनास नदी ‘वन की आस’ (होप ऑफ दी फॉरेस्ट) कहलाती है। गौरीगंगा को उसका यह नाम उसके साफ पानी और सफेद पत्थरों के कारण मिला है।
कई बार एक ही नदी को अलग-अलग इलाकों में अलग-अलग नामों से भी जाना जाता है। जब नदियां किसी अंतर्राष्ट्रीय सीमा को लांघकर एक देश से दूसरे देश में प्रवेश करती हैं तब प्राय: नदियों के नाम बदल जाते हैं। जैसे, तिब्बत से निकलने वाली त्संग्पो नदी को चीनी लोग यारलुंग ज़न्ग्बो कहते हैं, भारत में इसे ब्रह्मपुत्र कहा जाता है और फिर आगे बांग्लादेश में यही जमुना हो जाती है। इसी प्रकार से नर्मदा नदी को स्थानीय लोग रेवा भी कहते हैं।
आइए, अब बात करते हैं काली-महाकाली नदी की। काली नदी एवं इसकी सहयोगी नदियों का अपवाह तंत्र भारत–नेपाल-तिब्बत की उच्च हिमालयी चोटियों (7000 मी.) से लेकर उपोष्ण कटिबंधीय तराई-मैदानी भाग (200 मी.) तक फैला है।
इस नदी की शुरुआत भारत, नेपाल और तिब्बत की अंतर्राष्ट्रीय सीमाओं के जोड़ बिंदु यानी ‘त्रि-संधि’ के पास से होती है। यह क्षेत्र तीनों देशों के लिए बेहद सामरिक महत्व का है। यह काली नदी उत्तराखंड में पिथौरागढ़ जनपद के सुदूर उत्तर में शुरू होकर तराई में टनकपुर, बनबसा तक भारत और नेपाल की अंतर्राष्ट्रीय सीमा का निर्धारण करते हुए बहती है। पूर्व में नदी का यह क्षेत्र नेपाल के ‘सुदूर पश्चिम प्रदेश’ के अंतर्गत आता है। नदी प्रवाह के उत्तर में लिपूलेख से आगे तकलाकोट, तिब्बत का क्षेत्र है। अब आते हैं इसके नामकरण पर। इसके नामकरण और प्रवाह तंत्र से जुड़े कुछ रोचक विवाद निम्नानुसार हैं।
नदी एक, नाम अनेक
काली नदी भारत-नेपाल की लगभग 230 कि.मी. अंतर्राष्ट्रीय सीमा का निर्धारण करते हुए अपनी नदी घाटी (व्यास) को दोनों देशों में विभाजित करती है। माना जाता है कि महर्षि वेद व्यास ने यहां तपस्या की थी, इसलिए इस घाटी को यह नाम दिया गया। इस घाटी में भारत से लगे नदी के पश्चिमी किनारे पर इसे काली नदी और पूर्वी किनारे पर नेपाल में महाकाली नदी कहा जाता है। व्यास घाटी के बाद नदी किनारे पहला भारतीय नगर धारचूला आता है। नदी पार नेपाल में बसे नगर को भी दार्चुला कहा जाता है। आगे जौलजीबी में काली नदी के साथ गौरी नदी का संगम होता है। मध्य हिमालय में इस नदी घाटी को काली कुमाऊं का क्षेत्र कहा जाता है।
यह नदी जब हिमालय से निकल कर तराई क्षेत्र में आती है तो इसका नाम शारदा हो जाता है। तराई में टनकपुर और बनबसा बैराज के पास इसके पूर्वी (नेपाल) और पश्चिमी (भारत) दोनों किनारों से बिजली उत्पादन व सिंचाई के लिए नहरें निकाली गई हैं।
यहां तक काली-महाकाली नदी के कुछ और नाम भी हैं। जैसे, इसके बेहद तेज़ बहाव और खड़े ढाल के कारण इसे एक गुस्सैल नदी कहा जाता है। ग्लेशियर मोरैन (हिमोढ़) और जंगली कंटीली झाड़ियों को बहाकर लाने के कारण स्थानीय लोग इसे नचिती (कांटों भरी), कव्या (गुंजी के पास), कुरूप, अपवित्र और अशुभ नदी भी कहते हैं। स्कंदपुराण के मानसखंड में इसका ज़िक्र श्यामा नदी के रूप में हुआ है।
आगे यह नदी अंतर्राष्ट्रीय सीमा पार कर पहले पूर्ण रूप से नेपाल के महेंद्र नगर में महाकाली के नाम से बहती है। फिर थोड़ी दूरी तय कर दुबारा सीमा लांघकर भारत के उत्तरप्रदेश में प्रवेश करती है। शारदा नाम से भारत में बहते हुए यह नदी बहराइच के पास नेपाल से ही आने वाली घाघरा (कर्णाली) नदी से संगम करती है। संगम के बाद यह नदी घाघरा के रूप में आगे बढ़ती है।
आगे घाघरा जब अयोध्या पहुंचती है तो सरयू के नाम से जानी जाती है। अंत में बिहार के छपरा शहर के पास सरयू (अर्थात काली और घाघरा) गंगा में समा जाती है।
असली काली कौन है?
सन 1814–16 में भारत में राज कर रहे अंग्रेज़ों और नेपाल के गोरखाओं के बीच एक युद्ध हुआ था। फिर मार्च 1816 में गोरखा शासन और औपनिवेशिक सत्ता (ईस्ट इंडिया कंपनी) के मध्य सिगौली (बिहार) में एक संधि हुई। इस संधि में कई अन्य निर्णयों के साथ ही नेपाल और ब्रिटिश इंडिया के बीच की सीमा ‘काली-महाकाली’ नदी को निर्धारित किया गया। संधि करने वाले दोनों ही पक्ष इस नदी के सुदूर उद्गम और शुरुआती प्रवाह तंत्र से अनजान थे। संधि दस्तावेज़ों में भी नदी का कोई मानचित्र या स्पष्ट विवरण दर्ज नहीं किया गया था।
चूंकि संधि में नदी उद्गम और शुरुआती प्रवाह के सम्बंध में कोई पुख्ता जानकारी नहीं थी, इसलिए मुख्य धारा को लेकर विवाद होना तय था और बाद के वर्षों में यह आशंका सच हुई भी। हाल के कुछ वर्षों में असली काली नदी को लेकर यह विवाद बार-बार उठाया गया है।
भारत का मानना है कि कालापानी से गुंजी आने वाली पूर्वी धारा ही सिगौली संधि में वर्णित वास्तविक काली नदी है। साथ ही पश्चिमी धारा का नाम कुटी यंग्ती बताया जाता है। यह पश्चिम में स्थित लिम्पिया धुरा से शुरू होकर ज्यौलिंकंग, निकुर्च, कुटी, रौंगकोंग, नाबी, नपलच्यों और गुंजी होते हुए मनेला तक पहुंचती है। इस प्रकार सीमा निर्धारण के हिसाब से काली नदी के पश्चिम में स्थित इन सभी क्षेत्रों पर भारत का अधिकार है।
मगर नेपाल का मानना है कि चूंकि कुटी यंग्ती लंबाई और जल प्रवाह क्षमता दोनों ही तरह से काली से बड़ी है अत: असली काली नदी वही है। इसी कारण उपरोक्त लिम्पिया धुरा-लिपूलेख-गुंजी क्षेत्र नेपाल के हिस्से होना चाहिए। यह विवादित क्षेत्र 335 वर्ग कि.मी. का है। नक्शा क्रमांक 2 में इस विवादित क्षेत्र को दर्शाया गया है।
भारत का तर्क है कि भले ही कुटी यंग्ती अपेक्षाकृत रूप से लंबी और जल प्रवाह क्षमता में बड़ी है मगर वर्षों से धार्मिक आस्था, विभिन्न मिथक और लोगों का विश्वास काली नदी की धारा के साथ जुड़ा है। सदियों से चले आ रहे तिब्बत व्यापार और कैलाश-मानसरोवर तीर्थ यात्रा में यही काली नदी एक महत्वपूर्ण मार्ग उपलब्ध करवाती है। कुटी यंग्ती की अपेक्षा यह ज़्यादा सामरिक महत्व भी रखती है। इसलिए यही मुख्य काली नदी है।
आखिर दोनों में से किस धारा को असली काली नदी माना जाए: बड़ी और लंबी कुटी यंग्ती को या धार्मिक और विश्वास रूप से ज़्यादा विख्यात अपेक्षाकृत छोटी काली नदी को?
नक्शों की राजनीति
नवंबर 2019 में भारत ने जम्मू और कश्मीर एवं लद्दाख की स्थिति में बदलाव के बाद अपना नवीन आधिकारिक मानचित्र प्रकाशित किया। इस नए मानचित्र में उपरोक्त विवादस्पद क्षेत्र को पहले की ही तरह भारत का हिस्सा दिखाया गया था। फिर भारत द्वारा 8 मई 2020 को इस घाटी में सेना के लिए बीआरओ द्वारा सड़क निर्माण का उद्घाटन किया गया।
नेपाल सरकार ने दोनों ही घटनाओं पर स्पष्ट आपत्ति ज़ाहिर की। आपत्ति के साथ ही 20 मई, 2020 में नेपाल का भी एक नया आधिकारिक मानचित्र प्रकाशित किया गया, जिसे वहां की संसद ने 10 जून 2020 को मान्यता दे दी। नेपाल के इस नवीनतम मानचित्र में इस विवादित क्षेत्र को नेपाल का हिस्सा दर्शाया गया है। अर्थात कुटी यंग्ती और काली नदी के बीच का यह क्षेत्र दोनों देशों के मानचित्रों में अपना दिखाया गया है।
उत्तराखंड सरकार के पूर्व मुख्य सचिव व मूलत: व्यास घाटी के वासी नृपसिंह नपलच्याल का कहना है कि कुटी यंग्ती भारत की आंतरिक नदी है और लिपूलेख तथा लिम्पिया धूरा सदियों से तिब्बत (अब चीन) से हमारी निर्विवाद सीमा को बनाते हैं। तिब्बत का यह पारंपरिक मार्ग है। यदि थोड़ी देर के लिए यह मान लिया जाए कि कुटी ही काली है तब भी औपनिवेशिक शासक कालापानी–लिपूलेख को ही सीमा बनाते। यह तिब्बत व्यापार, तीर्थयात्रा और सदियों से प्रचलित मार्ग का तकाज़ा था। कुटी को कभी भी किसी नक्शे में सीमा की तरह नहीं दिखाया गया था। इस तरफ सिर्फ नक्शों के आधार पर बात करने वाले विद्वानों को ध्यान देना चाहिए। अगर सच सिर्फ नक्शों में छिपा होता तो दुनिया में कहीं सीमा विवाद नहीं होता।
इस प्रकार इस विवादित क्षेत्र के कुटी, नाबी और गुंजी गांव में रहने वाले स्थानीय ‘रं’ समुदाय के लोग असमंजस की स्थिति में हैं। उनके गांव भारत और नेपाल दोनों मानचित्रों में हैं, अत: कहीं किसी रोज़ उनकी नागरिकता तो नहीं बदल दी जाएगी? या यह केवल एक नक्शों की राजनीति भर है?
जल धारा नदी कब बनती है?
काली नदी से जुड़ा एक और रोचक किस्सा है उसका धारा से नदी बनना। हिमालय में शुरू होने वाली नदियां किसी एक बिंदु या स्रोत से उत्पन्न नहीं होती हैं। अपितु उनकी शुरुआत कई छोटी-बड़ी जल धाराओं के मेल से होती है। ये कई छोटी-बड़ी धाराएं मिलकर एक नदी का प्रवाह तंत्र विकसित करती हैं। इसमें सबसे महत्वपूर्ण सवाल है कि आप इन सम्मिलित धाराओं के मेल को नदी का नाम कब और किस स्थान पर देते हैं। खास कर तब जब वह नदी किसी अंतर्राष्ट्रीय सीमा का निर्धारण कर रही हो।
काली नदी को लेकर भी एक ऐसा ही विवाद कालापानी क्षेत्र में है। एक बुद्धिजीवी वर्ग का यह मानना है कि यदि भारत के तर्क अनुसार वर्तमान काली को ही वास्तविक काली नदी मान लिया जाए तो उसकी उत्पत्ति लिपूलेख ओम पर्वत के पास होती है। क्योंकि नदी की शुरुआती जलधाराएं वहीं से बनती हैं। इसलिए इन धाराओं के पूर्व का क्षेत्र नेपाल का और पश्चिमी क्षेत्र भारत के अधिकार में होना चाहिए, मगर ऐसा नहीं है। क्योंकि, भारत काली नदी की शुरुआत कालापानी से मानता है न कि लिपूलेख से। भारत वहां से आने वाली शुरुआती धारा को लिपूगाड़ कहता है। धार्मिक कारणों से अभी इसे काली नदी कहलाने का दर्जा प्राप्त नहीं है। लिपूगाड़, लिपूलेख और ओम पर्वत के आसपास के ग्लेशियरों का पानी लेकर आगे कालापानी स्थान पर पहुंचाती है। यहां लिपूगाड़ के दाएं किनारे पर कालीमाता का एक मंदिर स्थित है। मंदिर परिसर में एक ऐतिहासिक भू-जल स्रोत है। यहां इस भू-जल स्रोत से बहते पानी की एक छोटी जलधारा लिपूगाड़ में मिलती है। इस धारा और लिपूगाड़ के संगम के बाद इस प्रवाह को काली नदी नाम दिया जाता है। अर्थात कालापानी में काली मंदिर के इस भू-जल स्रोत को ही काली नदी का परम्परागत और आधिकारिक उद्गम स्थल माना गया है। हालांकि नदी प्रवाह का ज़्यादातर पानी पीछे लिपूलेख की तरफ से आ रहा है।
यह एक रोचक तथ्य है कि मंदिर के भू-जल स्रोत का थोड़ा-सा पानी मिलते ही लिपूगाड़, काली नदी में परिवर्तित हो जाती है। वैसे यह मामला भी भौगोलिक सिद्धांत से ज़्यादा धार्मिक आस्था, ऐतिहासिक और सामरिक महत्व पर आधारित है। आगे इसी स्थान (कालापानी) से लेकर टनकपुर-बनबसा तक यह नदी भारत और नेपाल की अंतर्राष्ट्रीय सीमा मानी जाती है।
वर्ष 1816 की सिगौली संधि के तहत ही गंडक नदी (नेपाल में नारायणी) को भी बिहार में भारत–नेपाल के बीच की अंतर्राष्ट्रीय सीमा बनाया गया था। वर्तमान में यह सुस्ता–चकधावा का क्षेत्र भी एक विवाद का विषय है। सीमा निर्धारण के समय सुस्ता नदी के दाएं तरफ वाला इलाका नेपाल में था। नदी द्वारा अपना प्रवाह मार्ग बदलने से अब यह नदी के बाएं तरफ आ गया है। इधर भारत का चकधावा (बिहार) गांव है। ऐसे ही स्थानीय लोगो के खेत भारत नेपाल के मध्य इधर-उधर होते रहे हैं।
देश के भीतर भी विभिन्न राज्यों के मध्य ऐसे कई उदाहरण देखे जा सकते हैं। सवाल यह है कि नदियों द्वारा दो देशों या राज्यों की सीमा निर्धारित करना कहां तक उचित है जबकि नदियों द्वारा अपना प्रवाह मार्ग बदलने से सीमाएं भी आगे–पीछे होने लगती हैं और दोनों क्षेत्रों के मध्य विवाद उत्पन्न होते हैं।
लेकिन समस्या मात्र भूगोल की नहीं है। दोनों तरफ के स्थानीय ‘रं’ समुदाय के लोगों में इन तमाम घटनाओं पर मिले-जुले विचार हैं। हालांकि सदियों से, कितने ही आक्रान्ता शासक, अंग्रेज़ अधिकारी, राजतंत्र के राजा और लोकतंत्र के प्रतिनिधि आए और गए मगर दोनों तरफ के समुदायों के बीच विश्वास और शांति के सम्बंध बने रहे।
यदि यहां कुछ समय के लिए देशों की सीमाओं को भुला दिया जाए तो नदी के पूर्व और पश्चिम किनारों की बसाहटों में कोई भिन्नता नहीं मिलेगी। कालांतर में लोग खेतों की बुवाई और जानवरों की चराई के लिए आते–जाते रहे हैं। हमेशा ही दोनों तरफ के समुदायों में अच्छे रिश्ते और रास्ते कायम रहे है। यहां स्थित दर्जन भर झूला पुल दो भू-भागों के साथ-साथ ही दोनों तरफ के समुदायों के दिलों, समाज और संस्कृति को जोड़ने का काम भी करते रहे हैं।
वर्तमान में नेपाल के छांगरू और तिंकर गांव के स्थानीय लोग, काली–तिंकर नदी संगम के पास स्थित लकड़ी के सीतापुल द्वारा नदी को पार कर भारतीय सड़क के माध्यम से ही इन ऊंचे पहाड़ी क्षेत्रों से नेपाल के अन्य शहरों में आते-जाते हैं।
आज भी इस घाटी में भारत–नेपाल सीमा के दोनों तरफ परस्पर व्यापार और रोटी–बेटी के गहरे सम्बंध बने हुए हैं। स्थानीय लोग अपने रिश्तेदारों से मिलने, शादी करने, मंदिरों में पूजा करने, जड़ी-बूटी एकत्र करने, शिक्षा, स्वास्थ्य, व्यापार और रोज़गार आदि के लिए आसानी से इधर-उधर आते-जाते हैं। कुल मिलाकर इन्हें देश की सीमाएं बांटती है, और भूगोल एक करता है। इस नदी ने ही सदियों पुरानी ‘रं’ सभ्यता को आज भी बचाए रखा है।
इसलिए दोनों देशों को इस ‘नक्शेबाज़ी’ की बजाय खुल कर संवाद करना चाहिए। दोनों तरफ के स्थानीय समुदायों को भी इस संवाद प्रक्रिया का हिस्सा बनाना चाहिए। बड़ा देश होने के नाते भारत, नेपाल की स्वायत्तता और संप्रभुता का सम्मान करते हुए इस बातचीत की शुरुआत नए सिरे से कर सकता है, इससे पहले कि यह कोई हिंसक जटिल समस्या बन जाए।(स्रोत फीचर्स)
लेख में प्रयुक्त नक्शे स्वयं लेखक द्वारा बनाए गए हैं।
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://upload.wikimedia.org/wikipedia/commons/d/dd/Sharda_or_Mahakali_River_AJTJ_P1020802.jpg
जीवन की उत्पत्ति समंदर में हुई थी। यह अकेला सबसे प्रमुख कारण है कि क्यों समुद्री पर्यावरण की रक्षा की जानी चाहिए। समंदर हमें भोजन, ऊर्जा, खनिज संसाधन तो प्रदान करते ही हैं साथ ही ये जैव विविधता के भंडार भी हैं। ये मौसम और जलवायु को प्रभावित करते हैं और पृथ्वी पर जीवन बनाए रखने के लिए एक पारिस्थितिकी तंत्र प्रदान करते हैं। इसके अलावा यही समंदर जीवाश्म-ईंधन आधारित ऊर्जा के मुख्य स्रोत हैं और विश्व की अर्थव्यवस्था को भी प्रभावित करते हैं। इस मायने में इनका रणनीतिक महत्व है।
जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को देखते हुए यह कहना गलत न होगा कि भविष्य में हमारा विकास और समृद्धि समंदरों पर निर्भर रहेगी। इनके महत्व को देखते हुए संयुक्त राष्ट्र ने 2012 में टिकाऊ विकास सम्बंधी सम्मेलन में हरित अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाकर नीली अर्थव्यवस्था तक ले जाने पर ज़ोर दिया था। संयुक्त राष्ट्र ने महासागरों, सागरों और समुद्री संसाधनों के संरक्षण को निर्वहनीय विकास लक्ष्यों (एसडीजी) में शामिल किया है। समंदरों के विकास के महत्व को ध्यान में रखते हुए युनेस्को की संस्था इंटरनेशनल ओशियन कमीशन (आईओसी) ने वर्तमान दशक को ‘समुद्र विज्ञान दशक’ घोषित किया है ताकि उपरोक्त लक्ष्य को हासिल करने के लिए ज़रूरी विज्ञान उपलब्ध हो सके। भारत ने भी समुद्र-निर्भर अर्थव्यवस्था की महत्ता को स्वीकार किया है। नीली अर्थव्यवस्था के विकास के लिए जिन प्रमुख मुद्दों को संबोधित करने की ज़रूरत है वे निम्नानुसार हैं।
टिकाऊ मत्स्य भंडार: 2050 तक वैश्विक जनसंख्या लगभग 9 अरब तक पहुंचने की संभावना है। इस स्थिति में पोषण के लिए समुद्री मत्स्य भंडार पर निर्भरता भी निश्चित रूप से बढ़ेगी। प्राथमिक और माध्यमिक उत्पादन में परिवर्तनों के कारण मछलियों के स्टॉक में कमी आ रही है जिससे तटीय समुदायों की आजीविका भी प्रभावित हुई है। इसके अलवा वैश्विक तापमान में निरंतर वृद्धि से मछलियों की कई प्रजातियां ध्रुवों की ओर पलायन कर रही हैं। इस परिदृश्य को ध्यान में रखते हुए भौतिक, जैविक और रासायनिक प्रक्रियाओं की समझ विकसित करना और आने वाले निकट भविष्य तथा दूरस्थ भविष्य में मछलियों के स्टॉक का पूर्वानुमान करने हेतु मॉडल विकसित करना अत्यंत आवश्यक है। इन मॉडलों की मदद से मत्स्याखेट को जैविक रूप से निर्वहनीय सीमाओं के भीतर रखा जा सकेगा।
तटीय और समुद्री पारिस्थितिक तंत्र का संरक्षण: मूंगा चट्टानें (कोरल रीफ), मैंग्रोव और समुद्री घास महत्वपूर्ण परितंत्र हैं और मत्स्य भंडार एवं अन्य बायोटा को बनाए रखने के लिए काफी महत्वपूर्ण हैं। जलवायु परिवर्तन और इन्सानी गतिविधियों के कारण उनकी संरचना, कार्यों और दुर्बलताओं को समझना आवश्यक है। कोप-27 सम्मलेन के दौरान यूएई और इंडोनेशिया द्वारा शुरू किया गया मैंग्रोव एलायंस फॉर क्लाइमेट इस दिशा में एक सराहनीय प्रयास है। समुद्री जीवन की जनगणना कार्यक्रम और उसके परिणामस्वरूप उभरे अंतर्राष्ट्रीय महासागर जैव-भौगोलिक सूचना तंत्र ने समुद्री जीवन की भरपूर जानकारी प्रदान की है। इस तरह के सर्वे समय-समय पर होते रहना ज़रूरी है।
हानिकारक शैवाल: लंबे समय से अत्यधिक भारी वर्षा से नदियों से बहकर आने वाले पानी में वृद्धि हुई है। इसके साथ आए पोषक तत्वों ने तटीय जल को संदूूषित किया है जिसकी वजह से हानिकारक शैवाल काफी तेज़ी से बढ़ गए हैं। परिणामस्वरूप व्यापक स्तर पर समुद्री जीवों की मृत्यु और रुग्णता में वृद्धि हुई है। ऐसे क्षेत्रों में मत्स्याखेट से बचने और पोषक तत्वों के प्रदूषण को नियंत्रित करने हेतु एक चेतावनी प्रणाली विकसित करने की आवश्यकता है।
तटीय प्रदूषण: तटीय क्षेत्रों के बढ़ते हुए विकास के मद्देनज़र तटीय और समुद्री परितंत्र, पारिस्थितिकीय वस्तुओं एवं सेवाओं और मत्स्य पालन पर समुद्री कचरे (माइक्रोप्लास्टिक सहित) के वितरण के प्रभाव का आकलन किया जाना चाहिए। एक समग्र मॉडल विकसित किया जाना चाहिए जिसमें जलवायु परिवर्तन और उसके प्रभाव, भूमि उपयोग नीति और सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों को शामिल किया गया हो। विश्व की विकसित अर्थव्यवस्थाओं को प्लास्टिक कचरे के उत्पादन, तट तक उनके पहुंचने और समंदरों में प्रवाह को लेकर अधिक समझ बनाने के लिए निवेश करना ज़रूरी होगा।
समंदरों से खनिज और मीठा पानी: तटीय और अपतटीय खनिज भंडार औद्योगिक और आर्थिक विकास के लिए आवश्यक टाइटेनियम, दुर्लभ मृदा धातु, थोरियम, निकल और कोबाल्ट जैसे कई महत्वपूर्ण खनिज प्रदान करते हैं। हालिया ‘हाई सी ट्रीटी’ के तहत इन संसाधनों का टिकाऊ उपयोग सुनिश्चित करने के उद्देश्य से इन्सानी गतिविधियों के नियमन का निर्णय लिया गया है। इसका लाभ सभी देशों के बीच समान रूप से साझा किया जाएगा। जैसे-जैसे तटीय क्षेत्रों की गतिविधियों में वृद्धि होगी वैसे-वैसे मीठे पानी की मांग भी बढ़ेगी। लक्षद्वीप में कई वर्षों से लो टेम्परेचर थर्मल डिसेलिनेशन (एलटीटीडी) तकनीक का उपयोग किया जा रहा है। तटीय आबादी और विकास गतिविधियों के लिए एक करोड़ लीटर प्रतिदिन मीठे पानी का उत्पादन करने में सक्षम अलवणीकरण संयंत्र स्थापित करने की आवश्यकता है। इसके लिए तकनीकी विशेषज्ञता के साथ-साथ वित्त और मानव संसाधनों में सामूहिक निवेश की ज़रूरत होगी।
समुद्री ऊर्जा: पिछले कुछ वर्षों से वैश्विक स्तर पर जीवाश्म ईंधन के उपयोग को कम करने के प्रयास किए जा रहे हैं। ऐसे में वैकल्पिक और नए ऊर्जा स्रोत के रूप में समुद्री ऊर्जा पर विचार किया जा सकता है। गैस हाइड्रेट्स (बर्फ के समान मीथेन और पानी का क्रिस्टलीय रूप) की हालिया खोज आशाजनक रही है जिसके उपयोग के लिए उपयुक्त तकनीकों का विकास किया जा सकता है। इसके अलावा अपतटीय पवन फार्मों को बढ़ावा देते हुए बंदरगाहों पर आवश्यक अधोसंरचना स्थापित करने के प्रयास किए जाना चाहिए। इसके साथ ही समुद्री तापीय ऊर्जा और महासागरीय धाराओं के उचित उपयोग के लिए किए जाने वाले प्रयोगों को पर्याप्त समर्थन दिया जाना चाहिए।
तटीय पर्यटन: पिछले कुछ समय से सभी जी20 देशों के समुद्र तटों पर पर्यटन में काफी वृद्धि हुई है। इसको बढ़ावा देने के लिए भारत ‘ब्लू फ्लैग’ समुद्र तटों के प्रमाणन लिए सक्रिय प्रयास कर रहा है। ब्लू फ्लैग प्रमाणन फाउंडेशन फॉर एनवायर्नमेंटल एजुकेशन, कोपेनहेगन द्वारा उन तटों को दिया जाता है जहां सुंदर परिदृश्य, स्वच्छ जल, सुरक्षा और पर्यावरण के अनुकूल बुनियादी ढांचा उपस्थित है। इस प्रमाणन प्रक्रिया में पर्यावरण शिक्षा के साथ-साथ विकास को भी सुनिश्चित किया जाता है। अत: इस प्रमाणन को बढ़ावा दिया जाना चाहिए।
खतरे की पहचान और प्रतिक्रिया तंत्र: जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के कारण चक्रवात, तटीय शहरों में बाढ़, तटीय कटाव जैसी चरम घटनाओं में वृद्धि हुई है। चेतावनी प्रणाली और प्रतिक्रिया तंत्र में सुधार एक प्रमुख आवश्यकता है। औद्योगिक और बुनियादी ढांचे की रक्षा को ध्यान में रखते हुए आकस्मिक घटनाओं के प्रति कमज़ोर क्षेत्रों की पहचान की जानी चाहिए।
छोटे द्वीपों का विकास: मीठे पानी की उपलब्धता छोटे द्वीपों की एक प्रमुख आवश्यकता है। लक्षद्वीप के छह द्वीपों पर पानी उपलब्ध कराने के लिए एलटीटीडी तकनीक का उपयोग किया गया है। इसके अलावा इन द्वीपों पर स्थानीय लोगों की आजीविका सुनिश्चित करने के लिए समुद्री खेती (मैरीकल्चर) और सजावटी मत्स्य पालन को बढ़ावा दिया जाना चाहिए।
नौपरिवहन, उद्योग, बुनियादी ढांचा: बढ़ते व्यापार, नौपरिवहन और बुनियादी ढांचे के विकास को देखते हुए समुद्री परितंत्र पर दबाव बढ़ने की संभावना है। इसके लिए बंदरगाहों के विकास और नौपरिवहन (विद्युत चालित) के लिए सतत प्रौद्योगिकीय विकास को बढ़ावा देने की ज़रूरत है।
समुद्री प्रक्रियाओं को समझने, उनकी मॉडलिंग करने तथा मौसम, समुद्र की अवस्था और खतरों का पूर्वानुमान करने हेतु समुद्रों का अवलोकन (उपग्रह व अन्य साधनों से) बहुत महत्वपूर्ण है। ऐसे पूर्वानुमान मानव जीवन की सुरक्षा तथा इन्सानी गतिविधियों को सुगम बनाने के लिए ज़रूरी हैं। महासागरों के निरंतर अवलोकन के लिए क्षमता निर्माण महत्वपूर्ण है।
ओशिएनोग्राफिक रिसर्च एंड इंडियन ओशियन ग्लोबल ओशिएन ऑबसर्विंग सिस्टम ने अंतर्राष्ट्रीय समुदाय को हिंद महासागर का अध्ययन करने और समाज के भले के लिए नवीन ज्ञान प्राप्त करने का मंच प्रदान किया है।
पिछले एक दशक के दौरान जी20 फोरम में समुद्र से जुड़े मुद्दों पर चर्चा होती रही है। पूर्व में महासागरों पर ध्यान केंद्रित करने के लिए जी20 एक्शन प्लान ऑन मरीन लिटर (जर्मनी, 2017), ओसाका ब्लू ओशन विज़न (जापान, 2019), कोरल रिसर्च एंड डेवलपमेंट एक्सलरेटर प्लेटफॉर्म (सऊदी अरब, 2020) और कंज़रवेशन, प्रोटेक्शन, रिस्टोरेशन एंड सस्टेनेबल यूज़ ऑफ बायोडायवर्सिटी (इटली, 2021) के माध्यम से महत्वपूर्ण प्रयास किए गए हैं। इसके अलावा 2022 में इंडोनेशियाई अध्यक्षता के तहत ब्लू इकॉनॉमी पर चर्चा की शुरुआत भी की गई थी।
गौरतलब है कि नीली अर्थव्यवस्था को अपनाने में भारत अग्रणी रहा है। यह उचित ही है कि भारत की अध्यक्षता में जी20 ने एक स्थायी और जलवायु-अनुकूल नीली अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देने, पारिस्थितिकी तंत्र की बहाली में तेज़ी लाने और जैव विविधता की समृद्धि को प्राथमिकता दी है। विचार यह है कि महासागरों के स्वस्थ पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को संबोधित करते हुए समुद्री संसाधनों के टिकाऊ और समतामूलक आर्थिक विकास को बढ़ावा मिले। यह संयुक्त राष्ट्र के टिकाऊ विकास लक्ष्य-14 और भारत के नेतृत्व में पर्यावरण संरक्षण के वैश्विक अभियान ‘मिशन LiFE’ (लाइफस्टाइल फॉर एनवायरनमेंट) के अनुरूप ही है।
समुद्री अर्थव्यवस्था के विकास को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है – जैसे प्राकृतिक खतरे, जलवायु-प्रेरित मौसमी घटनाएं, समुद्र स्तर में वृद्धि, समुद्र का अम्लीकरण और इन्सानी गतिविधियों के प्रभाव। विकास के साथ-साथ पारिस्थितिक और आजीविका सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए तटीय क्षेत्रों का प्रबंधन एक बड़ी चुनौती है। इन जोखिमों को समझने के लिए तटीय और समुद्री मानचित्रण करके उसके आधार पर विकास कार्यों की योजना बनाई जानी चाहिए।
नीली अर्थव्यवस्था के तहत व्यापक आर्थिक निर्णयों के लिए पर्यावरणीय डैटा आवश्यक है। वर्ष 2030 के बाद समुद्री पर्यावरण को सहारा देने के लिए बड़ा निवेश किए बिना महासागरों से आर्थिक विकास की संभावना काफी कम है। हमें महासागरों के लिए एक लेखा प्रणाली विकसित करने की आवश्यकता है ताकि विभिन्न डैटा स्रोतों को एक साथ लाया जा सके।
वर्ष 2030 के बाद जब जलवायु परिवर्तन के प्रभाव ज़्यादा नज़र आने लगेंगे तब अर्थव्यवस्था को संभालने और आजीविका सुनिश्चित करने के लिए समुद्र पर निर्भरता और अधिक बढ़ जाएगी। महासागरों का स्वास्थ्य सुनिश्चित करने और नीली अर्थव्यवस्था की शुरुआत करने के लिए पर्यावरणीय, सामाजिक और आर्थिक डैटा सहित वैज्ञानिक डैटा को एकीकृत करके ‘डिजिटल महासागर’ को बढ़ावा देना आवश्यक है। जी20 देशों के लिए समुद्र विज्ञान और प्रौद्योगिकी का ज्ञान, साझेदारी की सर्वोत्तम प्रथाओं, वित्तीय संसाधनों को हासिल करने आदि के बारे में जानकारियां साझा करना काफी उपयोगी होगा। संसाधनों के टिकाऊ उपयोग के लिए एक संस्थागत ढांचा और संचालन व्यवस्था विकसित की जानी चाहिए।
सभी हितधारकों, शोधकर्ताओं, उद्योगों, गैर-सरकारी संगठनों और नीति निर्माताओं सहित सरकारों के साथ प्रभावी संचार आवश्यक है ताकि इस तरह का विकास समाज के लिए प्रासंगिक बन सके। महासागरों का दायित्वपूर्ण प्रबंधन एक ऐसा निवेश है जिसका लाभ आने वाली पीढ़ियों को मिलेगा। यह मानव जाति के लाभ के लिए महासागरों और हमारे ग्रह के प्रति हमारी प्रतिबद्धता को दोहराने का एक अवसर है। वैश्विक समुदाय को ‘एक पृथ्वी, एक परिवार, एक भविष्य’ के सिद्धांत के साथ ‘एक महासागर’ के लाभों को साझा करने के साथ ही पर्यावरण का संरक्षण भी सुनिश्चित करना चाहिए।(स्रोत फीचर्स)
इस आलेख का मूल अंग्रेज़ी संस्करण 10 मई 2023 को करंट साइंस में प्रकाशित हुआ है और इसका हिंदी अनुवाद लेखक की अनुमति के साथ यहां प्रकशित किया गया है।
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://media.springernature.com/lw685/springer-static/image/art%3A10.1038%2Fs41559-020-1259-6/MediaObjects/41559_2020_1259_Fig3_HTML.png
माइक्रोप्लास्टिक एक बड़ी पर्यावरणीय समस्या बन गए हैं। प्लास्टिक के ये सूक्ष्म कण समुद्री जीवों के शरीर में पहुंच कर उनके ऊतकों को नष्ट कर सकते हैं और उनकी जान के लिए खतरा हो सकते हैं। ये कण इतने छोटे होते हैं कि पर्यावरण से इनको हटाना मुश्किल होता है।
अब, प्लायमाउथ मरीन लेबोरेटरी की पारिस्थितिकी विज्ञानी पेनलोप लिंडिकी को एक ऐसे समुद्री जीव – नीले घोंघे (मायटिलस एडुलिस) – के बारे में पता चला है जो न सिर्फ माइक्रोप्लास्टिक्स से अप्रभावित रहते हैं बल्कि उन्हें पर्यावरण से हटाने में मदद कर सकते हैं। काली-नीली खोल वाली ये सीपियां भोजन के साथ माइक्रोप्लास्टिक भी निगल लेती हैं और अपनी विष्ठा के साथ इसे शरीर से बाहर निकाल देती हैं।
शोधकर्ता जानते थे कि नीली सीपियां ठहरे हुए पानी में से माइक्रोप्लास्टिक्स को छान सकती हैं। लिहाज़ा वे कुदरती परिस्थितियों में इस बात को जांचना चाह रहे थे।
उन्होंने सीपियों को एक स्टील की टंकी में रखा और उसमें माइक्रोप्लास्टिक युक्त पानी में भर दिया। जैसी कि उम्मीद थी सीपियों ने टंकी का लगभग दो-तिहाई माइक्रोप्लास्टिक्स निगला और उसे अपने मल के साथ त्याग दिया।
यही परीक्षण उन्होंने वास्तविक परिस्थितियों में भी दोहराया। उन्होंने तकरीबन 300 सीपियों को टोकरियों में भरकर पास के समंदर में डाल दिया। विष्ठा इकट्ठा करने के लिए उन्होंने हर टोकरी के नीचे एक जाली लगाई।
जर्नल ऑफ हेज़ार्डस मटेरियल्स में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार इस व्यवस्था में सीपियों ने प्रतिदिन लगभग 240 माइक्रोप्लास्टिक कण फिल्टर किए। प्रयोगशाला का काम बताता है कि पानी में अत्यधिक माइक्रोप्लास्टिक्स होने पर सीपियां प्रति घंटे लगभग एक लाख कण तक हटा सकती हैं। माइक्रोप्लास्टिक युक्त विष्ठा समुद्री जल में गहराई में बैठ जाती है जहां ये समुद्री जीवन के लिए कम हानिकारक होती हैं। और तली में बैठे प्लास्टिक कणों को उठाना आसान हो जाता है।
लेकिन इकट्ठा करने के बाद इसके निस्तारण की समस्या उभरती है। शोधकर्ता यह संभावना तलाशना चाहती हैं कि क्या माइक्रोप्लास्टिक युक्त विष्ठा से उपयोगी बायोफिल्म बनाई जा सकती है?
लेकिन उल्लखेनीय प्रभाव देखने के लिए बहुत अधिक संख्या में नीली सीपियों की ज़रूरत होगी। सिर्फ न्यू जर्सी खाड़ी के पानी को ‘माइक्रोप्लास्टि रहित’ बनाने के लिए हर रोज़ करीबन 20 लाख से अधिक नीली सीपियों को लगातार 24 घंटे प्रति फिल्टर करने का काम करना पड़ेगा।
बहरहाल यह समाधान बड़े पैमाने पर कुछ माइक्रोप्लास्टिक्स कम करने में तो मदद करेगा लेकिन मूल समस्या को पूरी तरह हल नहीं करेगा। इतनी सीपियां छोड़ने के अपने पारिस्थितिक असर भी होंगे। इसके अलावा, ये सीपियां एक विशेष आकार के कणों का उपभोग करती हैं। इसलिए शोधकर्ताओं का भी ज़ोर है कि वास्तविक समाधान तो प्लास्टिक उपयोग को कम करना ही है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.adj0274/abs/_20230530_on_mussels_plastic.jpg
कंप्यूटर, टी.वी., वाशिंग मशीन, फ्रिज, कैमरा, मोबाइल फोन जैसे इलेक्ट्रॉनिक उपकरण या इनके पुर्ज़े जब उपयोग योग्य नहीं रह जाते तो इन्हें ई-कचरे की संज्ञा दी जाती है।
भारत ई-कचरा पैदा करने वाला तीसरा सबसे बड़ा देश है। ग्लोबल ई-वेस्ट मॉनिटर, 2017 के अनुसार, भारत प्रति वर्ष लगभग 20 लाख टन ई-कचरा उत्पन्न करता है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अनुसार, भारत में वर्ष 2019-20 में 10 लाख टन से अधिक ई-कचरा उत्पन्न हुआ था। वर्ष 2017-18 के मुकाबले वर्ष 2019-20 में ई-कचरे में 7 लाख टन की बढ़ोतरी हुई थी। किंतु ई-कचरे के निपटान की क्षमता में बढ़ोतरी नहीं हुई है।
युनाइटेड नेशंस युनिवर्सिटी की एक रिपोर्ट ‘ग्लोबल ई-वेस्ट मॉनिटर 2020′ में बताया गया है विश्व में वर्ष 2019 में 5.36 करोड़ मीट्रिक टन कचरा पैदा हुआ था जो पिछले पांच सालों में 21 फीसदी बढ़ गया है। अनुमान है कि 2030 तक इलेक्ट्रॉनिक कचरे की मात्रा 7.4 करोड़ मीट्रिक टन हो जाएगी।
संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम 2019 के अनुसार दुनिया में प्रति वर्ष लगभग 5 करोड़ टन इलेक्ट्रॉनिक कचरा पैदा होता है, जो वजन में अब तक निर्मित सभी वाणिज्यिक विमानों से अधिक है। संयुक्त राष्ट्र विश्वविद्यालय की रिपोर्ट के मुताबिक ई-कचरे की मात्रा लगभग 4500 एफिल टावरों के बराबर है। हाल के एक शोध के अनुसार वर्ष 2025 तक सौ करोड़ से भी अधिक कंप्यूटरों की रिसायक्लिंग की व्यवस्था की आवश्यकता होगी।
वर्तमान समय में हम तेज़ी से इलेक्ट्रॉनिक उत्पादों को उपयोग में लाते जा रहे हैं। इन उत्पादों का जीवन काल छोटा होता है जिस वजह से कुछ ही समय में ये कचरे के रूप में फेंक दिए जाते हैं। इसके अतिरिक्त जब भी कोई नई टेक्नोलॉजी आती है, हम पुराने उपकरणों को आसानी से फेंक देते हैं क्योंकि कई देशों में पुराने उत्पादों की मरम्मत की सीमित व्यवस्था होती है, और जहां संभव है तो बहुत महंगी। ऐसे में जब कोई इलेक्ट्रॉनिक उत्पाद खराब होता है तब लोग उसे ठीक कराने की जगह बदलना ज़्यादा पसंद करते हैं।
ई-कचरा ज़हरीला और जटिल किस्म का कचरा है। इसमें पारा, सीसा, क्रोमियम, कैडमियम जैसी भारी धातुएं, पोलीक्लोरिनेटेड बायफिनाइल आदि और लंबे समय तक टिकाऊ कार्बनिक प्रदूषक होते हैं। ये मानव स्वास्थ्य और पर्यावरण के लिए बेहद हानिकारक होते हैं। ई-कचरा खतरनाक रसायन ही नहीं, बल्कि सोना, चांदी, पैलेडियम, तांबा जैसी बहुमूल्य धातुओं का समृद्ध स्रोत भी है। ज़हरीली और मूल्यवान दोनों धातुओं की मौजूदगी ई-कचरे को अपशिष्टों का एक ऐसा जटिल मिश्रण बना देती है, जिसके लिए एक सजग प्रबंधन प्रणाली ज़रूरी है।
हमारे देश में ई–कचरे के 312 अधिकृत रिसायक्लर हैं, जिनकी सालाना क्षमता लगभग 800 किलोटन है। लिहाज़ा, 95% से अधिक ई–कचरा अब भी अनौपचारिक क्षेत्र ही संभालता है। अधिकांश स्क्रैप डीलरों द्वारा इसका निपटान अवैज्ञानिक तरीके से (जलाकर या एसिड में गलाकर) किया जाता है।
दुनिया के विकसित देश अपना ई-कचरा जहाज़ों में लादकर हमारे बंदरगाहों के निकट छोड़ जाते हैं। इससे भारतीय तटवर्ती समुद्रों में इस कचरे का ढेर लग गया है। इस ई-कचरे में बड़ी मात्रा में प्लास्टिक के उपकरण भी हैं इसलिए इसे जैविक तरीके से नष्ट करना अत्यधिक कठिन हो गया है।
देश में बढ़ते ई–कचरे से निपटने के लिए भारत सरकार के पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने ई–कचरा प्रबंधन नियम, 2016 लागू किया है। 2018 में इस नियम में संशोधन किया गया, ताकि देश में ई–कचरे के निस्तारण को सही दिशा मिल सके तथा निर्धारित तरीके से ई–कचरे को नष्ट अथवा पुनर्चक्रित किया जा सके।
किंतु आंकड़े बताते हैं कि ई-कचरे की री-साइकलिंग नहीं हो पा रही है और अनुपयोगी वस्तुएं समुचित निस्तारण के अभाव में आज एक बड़ी समस्या बन गई हैं। भारत के कुल ई-कचरे का केवल पांच फीसदी ही री-सायकल हो पाता है, जिसका सीधा प्रभाव पर्यावरण में क्षति और उद्योग में काम करने वाले लोगों के स्वास्थ्य पर पड़ता है। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम ने चेतावनी दी है कि भारत और चीन जैसे विकासशील देशों ने ई-कचरे को ठीक से री-साइकिल नहीं किया तो यह किसी बड़ी घातक महामारी को जन्म दे सकता है।
ई-कचरे का सुरक्षित उपचार एवं निस्तारण
1. सुरक्षित तरीके से दफन
प्लास्टिक की मोटी शीट के अस्तर वाले गड्ढे में ई-कचरा भरकर मिट्टी से ढंक दिया जाता है।
2. भस्मीकरण
ई-कचरे को 900 से 1000 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान पर भट्टी के अंदर एक बंद चैम्बर में जला दिया जाता है। इससे ई-कचरा लगभग नष्ट हो जाता है तथा कार्बनिक पदार्थ की विषाक्तता भी लगभग समाप्त हो जाती है। राख में से विभिन्न धातुओं को रासायनिक क्रिया से पृथक कर लिया जाता है तथा भट्टी से निकलने वाले धुएं को प्रदूषण नियंत्रण व्यवस्था की मदद से उपचारित किया जाता है।
3. पुनर्चक्रण
लैपटॉप, मॉनिटर, टेलीफोन, पिक्चर ट्यूब, हार्ड ड्राइव, कीबोर्ड, सीडी ड्राइव, फैक्स मशीन, सीपीयू, प्रिंटर, मोडेम इत्यादि उपकरणों का पुनर्चक्रण किया जा सकता है। इस प्रक्रिया में विभिन्न धातुओं एवं प्लास्टिक को अलग-अलग करके पुन: उपयोग में लाने हेतु तैयार कर लिया जाता है।
4. धातुओं की पुन:प्राप्ति
इस विधि में सोना, चांदी, सीसा, तांबा, एल्युमिनियम, प्लेटिनम आदि धातुओं को लिए सान्द्र अम्ल का प्रयोग करके पृथक कर लिया जाता है।
5. पुनरुपयोग
इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों को सुधार या मरम्मत करके पुन: उपयोग करने योग्य बना लिया जाता है।
ई-कचरे के खतरे को कम करने के उपाय
इलेक्ट्रॉनिक कचरा प्रबंधन नियमों के अनुपालन में नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने आदेश दिया है कि नियमानुसार ई-कचरे का वैज्ञानिक निपटान सुनिश्चित किया जाना चाहिए।
1. बिजली एवं इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों के निर्माण में खतरनाक पदार्थों के उपयोग में कमी।
2. ई-कचरे का वैज्ञानिक रूप से नियंत्रण। इसके लिए केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा ई-कचरे से सम्बंधी मानदंड अपनाना होगा।
3. निराकरण और पुनर्चक्रण कार्यों में शामिल श्रमिकों की सुरक्षा, स्वास्थ्य और कौशल विकास सुनिश्चित किया जाना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://iasbabuji.com/wp-content/uploads/2022/02/E-WASTE.jpg
अमेरिकी सर्वोच्च न्यायालय के एक हालिया फैसले ने क्लीन वॉटर एक्ट के अंतर्गत शामिल दलदली क्षेत्रों की परिभाषा को संकीर्ण कर दिया है। इस फैसले से नमभूमियों को प्राप्त संघीय सुरक्षा कम हो गई है। बहुमत द्वारा दिया गया यह फैसला कहता है कि क्लीन वॉटर एक्ट सिर्फ उन नमभूमियों पर लागू होगा जिनका आसपास के विनियमित जल के साथ निरंतर सतही जुड़ाव है जबकि फिलहाल एंजेंसियों का दृष्टिकोण रहा है कि नमभूमि की परिभाषा में वे क्षेत्र भी शामिल हैं जिनका किसी तरह का जुड़ाव आसपास के सतही पानी से है। इस निर्णय से मतभेद रखने वाले न्यायाधीशों का मानना है कि यह नया कानून जलमार्गों के आसपास की नमभूमियों की सुरक्षा को कम करेगा और साथ ही प्रदूषण तथा प्राकृतवासों के विनाश को रोकने के प्रयासों को भी कमज़ोर करेगा। वर्तमान मानकों के पक्ष में जो याचिका दायर की गई थी उसके समर्थकों ने कहा है कि इस फैसले से 180 करोड़ हैक्टर नमभूमि यानी पहले से संरक्षित क्षेत्र के लगभग आधे हिस्से से संघीय नियंत्रण समाप्त हो जाएगा। कई वैज्ञानिकों ने फैसले का विरोध करते हुए कहा है कि इस फैसले में नमभूमि जल विज्ञान की जटिलता को नज़रअंदाज़ किया गया है। (स्रोत फीचर्स)
दीर्घ-कोविड को परिभाषित करने के प्रयास
कोविड-19 से पीड़ित कई लोगों में लंबे समय तक विभिन्न तकलीफें जारी रही हैं। इसे दीर्घ-कोविड कहा गया है। इसने लाखों लोगों को कोविड-19 से उबरने के बाद भी लंबे समय तक बीमार या अक्षम रखा। अब वैज्ञानिकों का दावा है कि उन्होंने दीर्घ-कोविड के प्रमुख लक्षणों की पहचान कर ली है। दीर्घ-कोविड से पीड़ित लगभग 2000 और पूर्व में कोरोना-संक्रमित 7000 से अधिक लोगों की रिपोर्ट का विश्लेषण कर शोधकर्ताओं ने 12 प्रमुख लक्षणों की पहचान की है। इनमें ब्रेन फॉग (भ्रम, भूलना, एकाग्रता की कमी वगैरह), व्यायाम के बाद थकान, सीने में दर्द और चक्कर आने जैसे लक्षण शामिल हैं। अन्य अध्ययनों ने भी इसी तरह के लक्षण पहचाने हैं। दी जर्नल ऑफ दी अमेरिकन मेडिकल एसोसिएशन में प्रकाशित इस अध्ययन का उद्देश्य एक मानकीकृत परिभाषा और दस पॉइन्ट का एक पैमाना विकसित करना है जिसकी मदद से इस सिंड्रोम का सटीक निदान किया जा सके। (स्रोत फीचर्स)
निजी चंद्र-अभियान खराब सॉफ्टवेयर से विफल हुआ
गत 25 अप्रैल को जापानी चंद्र-लैंडर की दुर्घटना के लिए सॉफ्टवेयर गड़बड़ी को दोषी बताया जा रहा है। सॉफ्टवेयर द्वारा यान की चंद्रमा की धरती से ऊंचाई का गलत अनुमान लगाया गया और यान ने अपना ईंधन खर्च कर दिया। तब वह चंद्रमा की सतह से लगभग 5 किलोमीटर ऊंचाई से नीचे टपक गया। यदि सफल रहता तो हकोतो-आर मिशन-1 चंद्रमा पर उतरने वाला पहला निजी व्यावसायिक यान होता। कंपनी अब 2024 व 2025 के अभियानों की तैयारी कर रही है, जिनमें इस समस्या के समाधान पर विशेष ध्यान दिया जाएगा। (स्रोत फीचर्स)
यूएई द्वारा क्षुद्रग्रह पर उतरने योजना
संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) की स्पेस एजेंसी मंगल और बृहस्पति के बीच स्थित सात क्षुद्रग्रहों के अध्ययन के लिए एक अंतरिक्ष यान का निर्माण करने की योजना बना रही है। 2028 में प्रक्षेपित किया जाने वाला यान यूएई का दूसरा खगोलीय मिशन होगा। इससे पहले होप अंतरिक्ष यान लॉन्च किया गया था जो वर्तमान में मंगल ग्रह की कक्षा में है। इस नए यान को दुबई के शासक शेख मोहम्मद बिन राशिद अल मकतूम के नाम पर एमबीआर एक्सप्लोरर नाम दिया जाएगा।
वैज्ञानिकों का अनुमान है कि यान 2034 में जस्टिशिया नामक लाल रंग के क्षुद्रग्रह पर एक छोटे से लैंडर को उतारेगा। इस क्षुद्रग्रह पर कार्बनिक पदार्थों के उपस्थित होने की संभावना है।
एमबीआर एक्सप्लोरर का निर्माण संयुक्त अरब अमीरात द्वारा युनिवर्सिटी ऑफ कोलोरेडो बोल्डर के वैज्ञानिकों के सहयोग से किया जा रहा है। (स्रोत फीचर्स)
डब्ल्यूएचओ द्वारा फोलिक एसिड फोर्टिफिकेशन का आग्रह
गत 29 मई को विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने एक प्रस्ताव पारित करके सदस्य देशों से खाद्य पदार्थों में फोलिक एसिड मिलाने का आग्रह किया है। यह प्रस्ताव स्पाइना बाईफिडा जैसी दिक्कतों की रोकथाम के लिए दिया गया है जो गर्भावस्था के शुरुआती हफ्तों में एक प्रमुख विटामिन की कमी से होती हैं। फोलिक एसिड फोर्टिफिकेशन के प्रमाणित लाभों को देखते हुए इस प्रस्ताव को सर्वसम्मति से अपनाया गया। वर्तमान में डब्ल्यूएचओ के 194 सदस्य देशों में से केवल 69 देशों में फोलिक एसिड फोर्टिफिकेशन अनिवार्य किया गया है जिसमें ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, यूएसए और कोलंबिया शामिल हैं। इस प्रस्ताव में खाद्य पदार्थों को आयोडीन, जस्ता, कैल्शियम, लौह और विटामिन ए और डी से साथ फोर्टिफाई करने का भी आह्वान किया गया है ताकि एनीमिया, अंधत्व और रिकेट्स जैसी तकलीफों की रोकथाम की जा सके। (स्रोत फीचर्स)
एक्स-रे द्वारा एकल परमाणुओं की जांच की गई
एक्स-रे अवशोषण की मदद से पदार्थों का अध्ययन तो वैज्ञानिक करते आए हैं। लेकिन हाल ही में अवशोषण स्पेक्ट्रोस्कोपी को एकल परमाणुओं पर आज़माया गया है। नेचर में प्रकाशित इस रिपोर्ट में वैज्ञानिकों ने लोहे और टर्बियम परमाणुओं वाले कार्बनिक अणुओं के ऊपर धातु की नोक रखी। यह नोक कुछ परमाणुओं जितनी चौड़ी थी और कार्बनिक पदार्थ से मात्र चंद नैनोमीटर ऊपर थी। फिर इस सैम्पल को एक्स-रे से नहला दिया गया जिससे धातुओं के इलेक्ट्रॉन उत्तेजित हुए। जब नोक सीधे धातु के परमाणु पर मंडरा रही थी तब उत्तेजित इलेक्ट्रॉन परमाणु से नोक की ओर बढ़े जबकि नीचे लगे सोने के वर्क से परमाणु उनकी जगह लेने को प्रवाहित हुए। एक्स-रे की ऊर्जा के साथ इलेक्ट्रॉनों के प्रवाह में परिवर्तन को ट्रैक करके धातु के परमाणुओं के आयनीकरण की अवस्था को निर्धारित करने के अलावा यह पता लगाया गया कि ये परमाणु अणु के अन्य परमाणुओं से कैसे जुड़े थे। (स्रोत फीचर्स)
कोविड-19 अध्ययन संदेहों के घेरे में
कोविड-19 महामारी के दौरान विवादास्पद फ्रांसीसी सूक्ष्मजीव विज्ञानी डिडिएर राउल्ट ने कोविड रोगियों पर मलेरिया की दवा हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन और एंटीबायोटिक एज़िथ्रोमाइसिन के प्रभावों का अध्ययन किया था। 28 मई को ले मॉन्ड में प्रकाशित एक खुले पत्र में 16 फ्रांसीसी चिकित्सा समूहों और अनुसंधान संगठनों ने इस अध्ययन की आलोचना करते हुए कहा है कि यह अब तक का सबसे बड़ा ज्ञात अनाधिकृत क्लीनिकल परीक्षण था। उन्होंने कार्रवाई की गुहार लगाई है। खुले पत्र के अनुसार उक्त दवाओं के अप्रभावी साबित होने के लंबे समय बाद भी 30,000 रोगियों को ये दी जाती रहीं और क्लीनिकल परीक्षण सम्बंधी नियमों का पालन नहीं किया गया। फ्रांसीसी अधिकारियों के अनुसार इस क्लीनिकल परीक्षण को युनिवर्सिटी हॉस्पिटल इंस्टीट्यूट मेडिटेरेनी इंफेक्शन (जहां राउल्ट निदेशक रहे हैं) द्वारा की जा रही तहकीकात में शामिल किया जाएगा। राउल्ट का कहना है कि अध्ययन में न तो नियमों का उल्लंघन हुआ और न ही यह कोई क्लीनिकल परीक्षण था। यह तो रोगियों के पूर्व डैटा का विश्लेषण था। (स्रोत फीचर्स)
बढ़ता समुद्री खनन और जैव विविधता
पूर्वी प्रशांत महासागर में एक गहरा समुद्र क्षेत्र है जिसे क्लेरियन-क्लिपर्टन ज़ोन कहा जाता है। यह आकार में अर्जेंटीना से दुगना बड़ा है। वर्तमान में इस क्षेत्र में व्यापक स्तर पर वाणिज्यिक खनन जारी है जो इस क्षेत्र में रहने वाली प्रजातियों के लिए खतरा है।
इस क्षेत्र में पेंदे पर रहने वाली (बेन्थिक) 5000 से अधिक प्रजातियां पाई जाती हैं जिनमें से मात्र 436 को पूरी तरह से वर्णित किया गया है। करंट बायोलॉजी में प्रकाशित एक रिपोर्ट में शोध यात्राओं के दौरान एकत्र किए गए लगभग 1,00,000 नमूनों का विश्लेषण करने के बाद वैज्ञानिकों ने ये आंकड़े प्रस्तुत किए हैं। बेनाम प्रजातियों में बड़ी संख्या क्रस्टेशियन्स (झींगे, केंकड़े आदि) और समुद्री कृमियों की है।
यह क्षेत्र प्राकृतिक रूप से पाए जाने वाले बहु-धातुई पिंडों से भरा पड़ा है जिनमें निकल, कोबाल्ट और ऐसे तत्व मौजूद हैं जिनकी विद्युत वाहनों के लिए उच्च मांग है। इन्हीं के खनन के चलते पारिस्थितिक संकट पैदा हो रहा है। इंटरनेशनल सीबेड अथॉरिटी ने इस क्षेत्र में 17 खनन अनुबंधों को मंज़ूरी दी है और उम्मीद की जा रही है कि अथॉरिटी जल्द ही गहरे समुद्र में खनन के लिए नियम जारी कर देगी। (स्रोत फीचर्स)
जीन-संपादित फसलें निगरानी के दायरे में
अमेरिकी पर्यावरण सुरक्षा एजेंसी की हालिया घोषणा के अनुसार अब कंपनियों को बाज़ार में उतारने से पहले उन फसलों का भी डैटा जमा करना आवश्यक होगा जिन्हें कीटों से सुरक्षा हेतु जेनेटिक रूप से संपादित किया गया है। पूर्व में यह शर्त केवल ट्रांसजेनिक फसलों पर लागू होती थी। ट्रांसजेनिक फसल का मतलब उन फसलों से है जिनमें अन्य जीवों के जीन जोड़े जाते हैं। अलबत्ता, जेनेटिक रूप से संपादित उन फसलों को इस नियम से छूट रहेगी जिनमें किए गए जेनेटिक परिवर्तन पारंपरिक प्रजनन के माध्यम से भी किए जा सकते हों। लेकिन अमेरिकन सीड ट्रेड एसोसिएशन का मानना है कि इस छूट के बावजूद कागज़ी कार्रवाई तो बढ़ेगी। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit :
पृथ्वी का लगभग 70 प्रतिशत मीठा पानी अंटार्कटिक एवं आर्कटिक और हिमालय, एंडीज़ तथा ऐल्प्स जैसे ऊंचे पर्वतों पर हिमनदों, हिमाच्छदों व पर्माफ्रॉस्ट के बर्फ के रूप में है। पर्वतीय नदियों के जल प्रवाह में ऊंचे पर्वतीय हिमनदों का महत्वपूर्ण योगदान होता है। ये नदियां पर्वतीय राज्यों और नीचे के मैदानी क्षेत्रों के लाखों लोगों की आजीविका का सहारा हैं। पिछले कुछ दशकों से ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन के कारण हिमनद खामोशी से धीरे-धीरे सिकुड़ रहे हैं। हिमनदों के पतला पड़ने और सिकुड़ने से उनके हाइड्रोलॉजिकल गुणों में परिवर्तन होता है जिसका प्रभाव घाटी क्षेत्र में मीठे पानी के प्रवाह और पानी की उपलब्धता पर पड़ रहा है। जलवायु की स्थिति में बदलाव के चलते ऊंचे पर्वतीय हिमनदों से बहकर आने वाले पानी की मात्रा में कमी-बेशी की संभावना है। इसकी वजह से इन क्षेत्रों में जल संसाधन पर असर पड़ेगा, विशेष रूप से शुष्क मौसम या सूखे वर्षों के दौरान। विश्व भर के पिघलते हिमनदों और हिमाच्छदों से बहने वाला जल नदियों से होते हुए अंतत: समुद्र में पहुंचेगा जिससे समुद्रों के जल स्तर में वृद्धि होगी और तटीय क्षेत्रों तथा टापुओं के जलमग्न होने की संभावना बनी रहेगी। इससे आबादी वाले कई तटीय क्षेत्र डूब जाएंगे।
बर्फीले तथा हिमनदीय क्षेत्रों को आम तौर पर अछूता पर्यावरण माना जाता रहा है लेकिन हाल ही में किए गए अध्ययनों से पता चला है कि ऐसे क्षेत्रों में भी पर्यावरण प्रदूषकों के भंडार हो सकते हैं। ये प्रदूषक या तो हिमपात के साथ या सीधे बर्फ की सतह पर पहुंच सकते हैं। हिमनदों का पिघला हुआ बर्फ हिमनद-जनित पर्यावरण को संदूषित करने में द्वितीयक स्रोत के रूप में काम करता है; मूल स्रोत के चुक जाने के वर्षों बाद तक। अध्ययनों से पता चलता है कि आर्कटिक और अंटार्कटिक की बर्फीली परतों में प्रदूषकों का उच्च स्तर है जो हज़ारों किलोमीटर का सफर तय करने के बाद हिमनदों में समाहित हो गया है। आर्कटिक क्षेत्र में पाए गए ज़हरीले कार्बनिक यौगिक, अम्ल, धातु तथा रेडियोन्यूक्लाइड्स के चिंह युरोप, उत्तरी अमेरिका और पूर्व-सोवियत संघ में उस दशक में किए गए मानवजनित उत्सर्जन से मेल खाते हैं जब ऐसा उत्सर्जन अधिकतम था। मध्य हिमालय से प्राप्त आइस कोर रिकॉर्ड के अनुसार युरोप की औद्योगिक क्रांति के दौरान उत्सर्जित ज़हरीली धातुएं ही हिमालय के शिखरों के वायुमंडल पर हावी थीं। बढ़ती आबादी और तेज़ी से औद्योगीकृत होते एशियाई देशों से निकटता के कारण, विश्व के अन्य पर्वतीय हिमनदों की तुलना में, हिमालय के हिमनदों तक ज़्यादा वायुमंडलीय प्रदूषक पहुंचते हैं। इसके परिणामस्वरूप जल प्रवाह का संतुलन प्रभावित होने के अलावा हिमनदों का पिघलना हिमालयी पर्वतीय राज्यों के लिए एक महत्वपूर्ण पर्यावरणीय और सामाजिक-आर्थिक मुद्दा है।
वास्तव में हिमनद सिर्फ बर्फ के विशाल खंड नहीं होते, बल्कि ये जीवन से परिपूर्ण हैं – वायरस, बैक्टीरिया, कवक, शैवाल जैसे विभिन्न सूक्ष्मजीवों और अकशेरुकीय जीवों का भंडार हैं। इनमें हवा के माध्यम से आसपास तथा दूर-दराज़ क्षेत्रों के प्राकृतिक मलबे और मानवजनित दूषित पदार्थ भी कैद हो जाते हैं।
हिमनद और इनके आसपास के पर्यावरण में देखे गए मानवजनित संदूषक पदार्थों में ब्लैक कार्बन, रेडियोन्यूक्लाइड्स, ज़हरीले तत्व, माइक्रोप्लास्टिक, नाइट्रोजन आधारित प्रदूषक और दीर्घस्थायी कार्बनिक प्रदूषक हैं। औद्योगीकरण, खनन और कृषि कार्यों जैसी इंसानी गतिविधियों से पर्यावरण में प्रदूषक तत्व उत्सर्जित होते हैं जो दूर-दूर तक व्याप्त वायुमंडलीय परिवहन प्रणाली के माध्यम से उच्च पर्वतीय क्षेत्रों में पहुंच जाते हैं। जैसे-जैसे हिमनद पिघलते हैं, वैसे-वैसे इनमें कई दशकों से संचित पोषक तत्व और प्रदूषक पदार्थ जल राशियों में पहुंच जाते हैं जो नीचे के पारिस्थितिकी तंत्रों को भी प्रभावित कर सकते हैं।
प्रदूषकों की सबसे अधिक मात्रा क्रायोकोनाइट रंध्रों में पाई जाती है। क्रायोकोनाइट रंध्र हिमनद की सतह पर पानी से भरे छिद्र होते हैं जो हिमनद में फंसी हुई तलछट के आसपास की बर्फ ज़्यादा पिघलने के कारण बनते हैं। क्रायोकोनाइट महीन चट्टानी कणों, कालिख (soot) और सूक्ष्मजीवों से निर्मित एक गहरे रंग की भुरभुरी धूल है जो बर्फ, हिमनदों या हिमाच्छदों पर जमा हो जाती है। ये कार्बनिक पदार्थ, पोषक तत्वों एवं अन्य तत्वों को चक्रित करने के गतिशील स्थल हैं जो हिमनद की सतह के अन्यथा शुष्क और सुखाने वाले वातावरण में संभव नहीं हो सकता है। क्रायोकोनाइट्स तब बनते हैं जब प्रकाश संश्लेषक सायनोबैक्टीरिया पर्यावरण में चिपचिपे पदार्थ छोड़ते हैं। ये खनिज धूल, सूक्ष्मजीव और कार्बनिक पदार्थों को एकत्रित कर कणिकाओं का रूप देते हैं। परोपजीवी बैक्टीरिया इन कणिकाओं में बस जाते हैं। इन बैक्टीरिया द्वारा जैविक पदार्थों के अपघटन से ह्यूमिक पदार्थों का निर्माण होता है जिससे कणिकाओं का रंग गहरा हो जाता है। गहरे रंग के कारण क्रायोकोनाइट कणिकाएं और अधिक धूप सोखती हैं जिससे बर्फ पिघलता है और सतह पर छिद्र बन जाते हैं। समय के साथ इन क्रायोकोनाइट रंध्रों की गहराई बढ़ती जाती है और पानी के छोटे-छोटे पोखर बन जाते हैं। ये पोखर मानवजनित संदूषकों के भंडार के रूप में कार्य करते हैं।
क्रायोकोनाइट रंध्रों में जमा होने वाले प्राथमिक प्रदूषकों में ब्लैक कार्बन तथा ब्राउन कार्बन एयरोसोल हैं। ब्लैक कार्बन वाहनों में ईंधन के अधूरे दहन का परिणाम होता है और ब्राउन कार्बन एयरोसोल फसलों के जलने और जंगल की आग से उत्पन्न होता है। ब्लैक कार्बन बर्फ को काला और मटमैला रंग प्रदान करता है जो आसपास की सफेद या नीली बर्फ की तुलना में सूर्य के प्रकाश को अधिक सोखता है। नतीजतन, बर्फ अपेक्षाकृत तेज़ी से पिघलता है और हिमनदों के सिकुड़ने की दर में वृद्धि होती है। पिघलने की दर में वृद्धि से बर्फ में फंसे पुराने प्रदूषक, बैक्टीरिया और वायरस मुक्त हो जाते हैं जिससे पर्यावरण पर मानवजनित गतिविधि का प्रभाव और तेज़ हो जाता है।
वर्तमान में माइक्रोप्लास्टिक्स महासागरों, नदियों और हवा सहित पृथ्वी के लगभग हर पर्यावरण में पाए जाते हैं। हाल के अध्ययनों से हिमालय के हिमनदों में माइक्रोप्लास्टिक्स की उपस्थिति के साक्ष्य मिले हैं। संभावना है कि ये माइक्रोप्लास्टिक पिघले पानी के माध्यम से नदियों और तालों में मिल सकते हैं जो लाखों लोगों की जल आपूर्ति को दूषित कर सकते हैं। क्रायोकोनाइट छिद्रों में कीटनाशकों सहित पॉलीक्लोरीनेटेड बाइफिनाइल और पॉलीसाइक्लिक एरोमैटिक हाइड्रोकार्बन जैसे लंबे समय तक टिकाऊ कार्बनिक प्रदूषकों की काफी मात्रा जमा हो सकती है। मानव बस्तियों, पर्यटक पड़ावों और कृषि गतिविधियों के नज़दीकी हिमालयी हिमनदों में इनका उच्च स्तर पाया गया है। इन प्रदूषकों की उपस्थिति के चलते ऐसे बैक्टीरिया का प्राकृतिक चयन हुआ है जो इनको पचाने में सक्षम हैं। मानवजनित एंटीबायोटिक दवाओं के संदूषण के परिणामस्वरूप क्रायोकोनाइट रंध्रों में एंटीबायोटिक-प्रतिरोधी बैक्टीरिया की तादाद भी बढ़ी है। हाल के वर्षों में बर्फ पिघलने की दर में वृद्धि के चलते गर्मियों में ये सूक्ष्मजीव काफी बड़ी संख्या में क्रायोस्फेरिक वातावरण से निकलकर मानव बस्तियों के नज़दीकी पारिस्थितिक तंत्रों में पहुंच जाते हैं। चूंकि इनमें से कुछ सूक्ष्मजीव और वायरस रोगजनक भी हो सकते हैं इसलिए बर्फ में उपस्थित सूक्ष्मजीवों से स्थानीय महामारी की चिंता पैदा हुई है।
कार्बनिक प्रदूषकों के अलावा, क्रायोकोनाइट रंध्रों में आर्सेनिक, सीसा, कैडमियम और पारा जैसी भारी धातुएं भी हो सकती हैं जिनकी उच्च मात्रा विषैली होती है। हालांकि, हो सकता है कि ये हानिकारक तत्व चट्टानों के क्षरण और ज्वालामुखी विस्फोट जैसी प्राकृतिक घटनाओं से उत्पन्न हुए हों, लेकिन खनन और औद्योगिक प्रक्रियाओं जैसी मानव गतिविधियां संभवत: इनके मुख्य स्रोत हैं।
क्रायोकोनाइट कणिकाओं में प्राकृतिक और कृत्रिम स्रोतों से उत्पन्न फालआउट रेडियोन्यूक्लाइड्स (एफआरएन) भी जमा हो सकते हैं; इन स्रोतों में ब्रह्मांडीय विकिरण, परमाणु हथियार परीक्षण और चेरनोबिल एवं फुकुशिमा जैसी परमाणु दुर्घटनाएं शामिल हैं। दुनिया भर में कई क्रायोस्फीयर्स में फालआउट रेडियोन्यूक्लाइड्स का पता चला है। इनमें विशेष रूप से सीज़ियम-137, एमेरिशियम-241 और लेड-201 शामिल हैं। इन रेडियोन्यूक्लाइड्स की मात्रा किसी परमाणु दुर्घटना वाले अत्यधिक दूषित स्थल के बराबर हो सकती है। युरोपीय हिमनदों के क्रायोकोनाइट में सीज़ियम-137 का स्तर विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा निर्धारित सुरक्षित स्तर से अधिक पाया गया है। सीज़ियम-137 तो अपनी 30 साल की अल्प अर्धायु के कारण पर्यावरण में घट रहा है, लेकिन मूल रेडियोन्यूक्लाइड्स के विघटन से बनने वाले रेडियोन्यूक्लाइड्स बढ़ भी रहे हैं। इस तरह फॉलआउट रेडियोन्यूक्लाइड्स कई पीढ़ियों तक पर्यावरण में बने रहेंगे जिससे पारिस्थितिक तंत्र और आसपास के क्षेत्रों में रहने वाले मनुष्यों और अन्य जीवों के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। डब्ल्यूएचओ ने पीने के पानी में फालआउट रेडियोन्यूक्लाइड्स के निम्न व मध्यम स्तर पर भी कैंसर और आनुवंशिक विकृतियों की संभावना जताई है।
इन रंध्रों में संदूषकों के जमा होने का कारण क्रायोकोनाइट द्वारा पिघले बर्फ में से कोलाइडीय और अन्य घुले पदार्थों को इकट्ठा करना है। क्रायोकोनाइट में महीन कण (जैसे मिट्टी और गाद) और कार्बनिक पदार्थ (विभिन्न कोशिकीय बहुलक पदार्थों सहित) होते हैं जिनमें फॉलआउट रेडियोन्यूक्लाइड्स, ट्रेस धातुओं और पोषक तत्वों के लिए उच्च बंधन क्षमता होती है। चूंकि अधिकांश हिमालयी झीलों का विस्तार हिमनदों के सिकुड़ने के कारण हो रहा है, ऐसे में यह संभव है कि इन झीलों में जमा होने वाली तलछट में प्रदूषकों का स्तर काफी अधिक होगा। ये प्रदूषक इन झीलों के पारिस्थितिक तंत्रों के जलीय जीवन और मानव स्वास्थ्य के लिए जोखिम पैदा कर सकते हैं। इससे उन समुदायों का सबसे अधिक नुकसान होगा जो पीने के पानी के लिए हिमनद पोषित नदियों पर निर्भर हैं। ऐसे प्रदूषक पदार्थों के निरंतर संपर्क से कैंसर, प्रजनन सम्बंधी विकार और विकास सम्बंधी समस्याओं सहित विभिन्न स्वास्थ्य जोखिम हो सकते हैं। लिहाज़ा, जलवायु परिवर्तन और हिमनदों के सिकुड़ने के संदर्भ में क्रायोस्फीयर में जमा दूषित पदार्थों के संभावित स्वास्थ्य प्रभाव चिंता का विषय हैं। जैसे-जैसे हिमनद पिघलेंगे, हिमालय की नदियों में बहने वाले पानी की मात्रा में वृद्धि होगी और संभव है कि इससे विभिन्न पारिस्थितिक तंत्रों में संदूषण सम्बंधी जोखिमों में भी वृद्धि होगी। जैसा कि शुरू में बताया गया था, हिमनदों के सिकुड़ने से पूर्व में संग्रहित दूषित पदार्थ भी उजागर हो सकते हैं जिससे स्वच्छ जल आपूर्ति में अतिरिक्त प्रदूषक मिल सकते हैं। गर्माती दुनिया में हिमनदों का निरंतर पिघलना और क्रायोस्फीयर सिस्टम में उभरते हुए घुलनशील प्रदूषकों की उच्च मात्रा को ध्यान में रखते हुए मीठे पानी के स्रोतों में प्रदूषक पदार्थों का जोखिम बढ़ जाएगा। यह एक बड़ी चिंता का विषय होना चाहिए। ऐसे में हिमालय में क्रायोकोनाइट रंध्रों और हिमनदों के आसपास की झीलों में जैव-रासायनिक चक्र, पारिस्थितिकी और दूषित पदार्थों के संचय को समझना डाउनस्ट्रीम पर्यावरण में मानव स्वास्थ्य की दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण है। इस संदर्भ में इन संदूषक पदार्थों के प्रभाव को समझने के लिए अधिक शोध की आवश्यकता है। इस समस्या की गंभीरता का आकलन करने के लिए हिमनदों और क्रायोकोनाइट रंध्रों में प्रदूषकों के स्तर की निगरानी करने के साथ पर्यावरण तथा मानव स्वास्थ्य पर इन प्रदूषकों के प्रभाव को कम करने के लिए रणनीति विकसित करना आवश्यक है। (स्रोत फीचर्स)
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दुनिया में इस सदी के आखिर तक तापमान बढ़ोतरी को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने के प्रयास चल रहे हैं, वहीं एक रिपोर्ट में कहा गया है कि बढ़ती गर्मी से प्रजातियों के विलुप्त होने का जोखिम पैदा होगा। बता दें कि युनिवर्सिटी ऑफ केपटाउन के शोधकर्ताओं ने 35 हज़ार प्रजातियों पर चरम तापमान के बढ़ते प्रभाव का अध्ययन करने के बाद यह निष्कर्ष हासिल किया है।
नेचर इकोलॉजी एंड इवोल्यूशन में प्रकाशित इस अध्ययन में शोधकर्ताओं का दावा है कि यदि तापमान 2.5 डिग्री तक बढ़ा तो बढ़ती गर्मी को सहन न कर पाने की वजह से 30 फीसदी प्रजातियां विलुप्ति की कगार पर पहुंच जाएंगी। रिपोर्ट में आगे कहा गया है कि तापमान बढ़ोतरी 1.5 डिग्री होने पर भी 30 फीसदी प्रजातियां अपनी भौगोलिक सीमा में बेहद अधिक तापमान अनुभव करेंगी। 2.5 डिग्री की बढ़ोतरी पर यह खतरा दुगना हो जाएगा और प्रजातियों के लिए अपने अस्तित्व को बचाए रखना मुश्किल हो जाएगा।
ऐसे में यह आवश्यक है कि जानवरों और पौधों पर जलवायु परिवर्तन के हानिकारक प्रभावों को कम करने के लिए त्वरित प्रभाव वाले कदम उठाए जाएं।
गौरतलब है कि भारत में मौजूद जीव-जंतुओं की 29 प्रजातियां खतरे में आ गई हैं। इनका नाम इंटरनेशनल युनियन फॉर कंज़र्वेशन ऑफ नेचर (आईयूसीएन) की लाल सूची में शामिल हो गया है। यह सूची कनाडा में जैव विविधता सम्मेलन (कोप-15) के दौरान जारी की गई थी। सूची के इन नवीनतम आंकड़ों में चेतावनी दी गई थी कि अवैध और गैर-टिकाऊ ढंग से मछली पकड़ने, प्रदूषण, जलवायु परिवर्तन और बीमारियों सहित कई खतरों की वजह से जीव-जंतुओं के अस्तित्व पर प्रश्न चिंह लग गया है। बताते चलें कि आईयूसीएन की लाल सूची दुनिया की जैव विविधता की हालत का एक महत्वपूर्ण संकेतक है। यह प्रजातियों की वैश्विक विलुप्ति के जोखिम की स्थिति के बारे में जानकारी देती है और संरक्षण लक्ष्यों को परिभाषित करने में मदद करती है। दुनिया भर के 15,000 से अधिक वैज्ञानिक और विशेषज्ञ आईयूसीएन के इस आयोग का हिस्सा हैं।
उन्होंने पाया कि भारत में पौधों, जानवरों और कवकों की 9472 से अधिक प्रजातियों में से 1355 लुप्तप्राय या विलुप्त होने की श्रेणी में है। भारत की 239 नई प्रजातियों को आईयूसीएन की लाल सूची में शामिल किया गया है। इनमें से 29 प्रजातियां गंभीर खतरे में हैं। इससे वैज्ञानिकों और पर्यावरणविदों में चिंता व्याप्त हो गई है। अगर समय रहते इस खतरे को नहीं रोका गया तो कई प्रजातियां इतिहास का हिस्सा बन जाएंगी। इस पर आईयूसीएन के डायरेक्टर ब्रूनो ओबेर्ल का कहना है कि इंसानी गतिविधियों की वजह से जीव-जंतुओं की हालत खस्ता है। ऐसा ही चलता रहा तो कई जीव-जंतु खत्म हो जाएंगे।
लिहाजा, हमें जैव विविधता और जलवायु के सम्बंधों को सुधारने के प्रयास तत्काल करना होंगे। (स्रोत फीचर्स)
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जंतु जगत के संघ आर्थोपोडा के वर्ग इंसेक्टा में विचित्र प्रकार के कीट शामिल हैं और उनके क्रियाकलाप भी विचित्र होते हैं। इसलिए इन कीटों का अध्ययन, शोध और इनके रहस्यमय जीवन की जानकारियां पाना अत्यधिक रुचिकर व मज़ेदार होता है।
सामान्यतः जंतु और पौधे प्रकाश के प्रति प्रतिक्रिया देते हैं। पौधों में प्रकाशानुवर्तन और गुरुत्वानुवर्तन के गुण विद्यमान हैं। कीटों में भी प्रकाशानुवर्तन होता है। प्रकाशानुवर्तन में कीट प्रकाश स्रोत की ओर गमन करते है। यह प्रवृत्ति धनात्मक प्रकाशानुवर्तन कहलाती है। कीटों का प्रकाश के प्रति आकर्षण भिन्न-भिन्न होता है। कॉकरोच (Periplaneta americana) रोशनी से दूर अंधेरे की तरफ भागते हैं; इस प्रवृत्ति को ऋणात्मक प्रकाशानुवर्तन कहते हैं। कई कीट-पतंगे प्रकाश स्रोत से आकर्षित होकर इनके करीब आते हैं। उदाहरण के लिए, बारिश के मौसम में जलते हुए बल्ब के चारों तरफ हमें ढेरों कीट-पतंगों के झुण्ड देखने को मिलते हैं। कीट-पतंगे रोशनी के स्रोत के इर्द-गिर्द भिनभिनाते रहते हैं, और अंत में प्रकाश स्रोत से टकराकर उसकी गर्मी से मर जाते हैं।
वैज्ञानिकों ने इनकी इस प्रवृत्ति पर कई शोध किए हैं और तर्क, अवधारणाएं व सिद्धांत दिए हैं किंतु पूरी तरह से सटीक रूप से आज भी इसका जवाब विवादास्पद है।
बायोलोजिकल कंज़र्वेशन में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार 30 में से 10 कीट बल्ब को चांद समझकर रात भर बल्ब के चक्कर लगाते हैं व सुबह तक मर जाते हैं। एक प्रसिद्ध परिकल्पना के अनुसार जब पूर्व में कृत्रिम प्रकाश स्रोत नहीं थे, तब कीट पतंगे चांद का अनुगमन किया करते होंगे ताकि वे अपनी दिशा का निर्धारण कर सकें। चूंकि चांद से इनकी दूरी बहुत अधिक है इसलिए इनके द्वारा गति करने पर बनाया गया कोण हमेशा ही एक समान बना रहेगा। लेकिन अब कृत्रिम प्रकाश स्रोत के होने से उन्हें यह आभास होने लगा कि चांद धरती पर आ गया है। इस परिकल्पना के मुताबिक वे अपने और कृत्रिम प्रकाश स्रोत (जिसे वे चांद समझ रहे हैं) के बीच समान कोण बनाए रखना चाहते हैं, किंतु प्रकाश स्रोत करीब होने से ऐसा संभव नहीं हो पाता और वे उसी से टकराकर मर जाते हैं।
वैज्ञानिकों द्वारा किए गए एक अध्ययन से पता चला है कि केवल नर कीट ही प्रकाश की ओर आकर्षित होते हैं जबकि मादा नहीं। ज्ञात हुआ है कि नर कीट-पतंगों को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए मादा कीट-पतंगे विशेष प्रकार की गंध छोड़़ते हैं। यह गंध वैसी ही होती है जैसी गंध जलते हुए प्रकाश स्रोत से निकलती है। इस कारण से नर कीट को आभास होता है कि वहां कोई मादा है और वह उसकी खोज में प्रकाश के करीब पहुंच जाते हैं एवं प्रकाश स्रोत से टकराकर मर जाते हैं।
बीबीसी की एक रिपोर्ट के अनुसार 60 प्रतिशत कीटों को कृत्रिम प्रकाश में दिखना भी बंद हो जाता है। ऐसा भी माना जाता है कि कीट-पतंगे रोशनी के संपर्क में आने के बाद जब उससे दूर होते हैं तब इन्हें करीब आधे घंटे तक कुछ भी दिखाई नहीं देता है। इस वजह से अंधेपन से बचने के लिए वे प्रकाश स्रोत के चारों ओर मंडराते रहते हैं। जब अचानक से ये स्रोत के बहुत करीब पहुंचकर उससे टकराते हैं तब उसकी गर्मी से इनकी मौत हो जाती है।
परीक्षणों द्वारा यह भी पता चला है कि कुछ मादा पतंगे अपने शरीर से अवरक्त प्रकाश (इंफ्रारेड) उत्पन्न करती हैं जिससे नर पतंगे आकर्षित होते हैं। ठीक उसी तरह का अवरक्त प्रकाश आग या जलती हुई चीजों से उत्पन्न होता है जिससे नर पतंगे आकर्षित होते हैं। यही कारण है की कीट-पतंगे प्रकाश स्रोत के आसपास मंडराते रहते हैं।
एक अनुमान के मुताबिक जर्मनी में गाड़ियों की हेडलाइट से सालाना करीब 120 करोड़ से ज़्यादा कीट मारे जाते हैं।
रात में कीट सफेद व पीले रंग के कपड़ों में चिपकने लगते हैं क्योंकि इन्हें पराबैंगनी प्रकाश और कम तरंग दैर्घ्य के रंग अत्यधिक आकर्षित करते हैं। इससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि ये प्रकाश के प्रति अत्यधिक संवेदी होते हैं।
स्पष्ट है कि अब तक कीटों के प्रकाश के प्रति आकर्षण के बारे में वैज्ञानिकों द्वारा कोई ठोस व एकमेव सिद्धांत नहीं दिया गया है। यानी कीटों का प्रकाश की ओर आकर्षण अब तक एक रहस्य है। किंतु हमें समझना होगा कि कीट-पतंगे मिट्टी को उपजाऊ बनाने में, परागण में व खाद्य उद्योग में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। मल एवं लाशों का सफाया करने में भी कीटों का बड़ा योगदान है। हम कई मामलों में इनकी 9 लाख प्रजातियों पर निर्भर हैं। इसलिए इन्हें बचाने के लिए हमें कृत्रिम प्रकाश का उपयोग कम करके अन्य विकल्प खोजने होंगे। (स्रोत फीचर्स)
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