स्मार्टफोन के क्लिक से रंग बदलते कपड़े – डॉ. डी बालसुब्रमण्यन

पी.जी. वुडहाउस के प्रशंसकों को याद होगा कि ऑन्ट डहलिया कहानी के नायक बर्टी वूस्टर को उनकी अपनी साप्ताहिक पत्रिका मिलेडीज़ बुडवारके लिए  “what the well dressed man is wearing” (बनेठने आदमी ने क्या पहना है?) विषय पर लेख लिखने को राज़ी कर लेती हैं। यह बात 1920 के दशक की है और तब लोगों के पास फुरसत के पल भी थे। पर आज, लगभग 100 साल बाद, भागदौड़ भरा समय है। और हाल ही में साइंस न्यूज़ नामक पाक्षिक पत्रिका ने फैशन फॉरवर्ड आधुनिक वस्त्र उद्योग परिधानों में गैजेट्स लगा सकेगानामक एक लेख प्रकाशित किया है। इसकी लेखक मारिया टेमिंग और मारियाह क्वांटानिला हैं।

मारिया और मारियाह ने अपने इस लेख में आने वाले समय में गैजेट से लैस स्मार्टकपड़ों के बारे में लिखा है। उन्होंने अमेरिका में हुई तकनीकी बैठक में कई डेवलपर्स और अन्वेषकों द्वारा प्रस्तुत कुछ उदाहरण दिए हैं। लेख के कुछ अंश प्रस्तुत हैं।

रंग बदलते कपड़े

साठसत्तर साल पहले ब्लीडिंग मद्रासकहलाने वाली शर्ट बिकती थी। यह हर धुलाई पर रंग बदलती थी (और रंग हल्का पड़ता जाता था)। पर यहां जिन कपड़ों के बारे में बात की जा रही है वे धोने पर नहीं बल्कि रोशनी (सूरज वगैरह की रोशनी) पड़ने पर रंग बदलते हैं और यह बदलाव पलटा जा सकता है। इसके लिए पहनने वाले को अपने स्मार्टफोन के स्क्रीन को क्लिक करना होता है। पर यह रंग बदलता कैसे है?

दरअसल इन कपड़ों को बनाने के लिए ऐसे धागों का उपयोग किया जाता है जिनमें तांबे के अत्यंत पतले तार पॉलीस्टर (या नायलॉन) में लिपटे होते हैं। पॉलीस्टर के रेशों पर रंजक (पिगमेंट) होते हैं, ठीक उसी तरह जैसे सामान्य कपड़ों पर होते हैं। परिधान इन्हीं रंजक युक्त धागों से बनाए जाते हैं, और इन परिधानों पर छोटी बैटरी भी लगी होती है। यह बैटरी धागे में लिपटे तांबे के तार को गर्म करती है। परिधान पहना व्यक्ति अपने स्मार्टफोन से एक वाईफाई सिग्नल भेजता है, तो बैटरी चालू हो जाती है और तांबे का तार गर्म होने लगता है। इसके चलते कपड़े का रंग बदल जाता है या कपड़े पर नया पैटर्न (धारियां, चौखाने वगैरह) उभर आता है। अमेरिका स्थित सेंट्रल फ्लोरिडा विश्वविद्यालय के डॉ. जोशुआ कॉफमैन और डॉ. अयमान अबॉरेड्डी द्वारा बनाए ये कपड़े, बैग और अन्य चीज़ें जल्द ही बाज़ार में पहुंच जाएंगी।

गुजरात और राजस्थान की महिलाएं वहां की पारंपरिक पोशाक लहंगा या घाघरा पहनती हैं, इनमें छोटेछोटे कांच जड़े होते हैं। जब इन कांच के टुकड़ों पर रोशनी पड़ती है तो ये चमकते हैं। पर अब जल्द ही इन कपड़ों का हाईटेक संस्करण आएगा जिनमें कपड़ों पर पारंपरिक निर्जीव कांच की जगह जलतेबुझते एलईडी लगे होंगे जो प्रकाश उत्सर्जित करेंगे। इन एलईडी को शोधकर्ताओं ने ओएलईडी का नाम दिया है। ये ओएलईडी पॉलीस्टर कपड़े पर ही बनाए जाते हैं और परंपरागत एलईडी की तुलना में कहीं अधिक लचीले होते हैं। इसे दक्षिण कोरिया के डीजॉन में कोरिया एडवांस्ड इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस एंड टेक्नोलॉजी के डॉ. एस. क्वोन और उनके सहयोगियों ने विकसित किया है। स्मार्टफोन से विद्युत सिग्नल भेजकर इन ओएलईडी को चालू करके कपड़ों को रोशन किया जा सकता है। इस तरह कपड़ों पर पैटर्न, संदेश वगैरह बनाए जा सकते है या रात में पैदल चलने वाले राहगीरों के लिए रोशनी की जा सकती है।

तेज़ चाल से चलने या दौड़ने के बाद हमें गर्मी लगती है चलनेफिरने से ऊष्मीय ऊर्जा उत्पन्न होती है। इसी तरह कुछ देर धूप में खड़े रहने पर भी हमें गर्मी लगती है, उर्जा उत्पन्न होती है। यह ऊर्जा गर्मी के रूप में खो जाती है। इस तरह गर्मी के माध्यम से ऊर्जा खोने की बजाय क्या हम इस गर्मी या शरीर की गति को विद्युत उर्जा में परिवर्तित कर सकते हैं? इस सवाल पर स्टैनफोर्ड और जॉर्जिया टेक विश्वविद्यालय के डॉ. जून चेन और डॉ. झोंग लिन वांग ने काम किया है। उन्होंने कपडों में फोटोवोल्टेइक तार गूंथ दिए। इन तारों पर सूर्य का प्रकाश पड़ने पर वे सोलर सेल की तरह, कुछ मात्रा में बिजली उत्पन्न कर सकते हैं। इस बिजली को कपड़ों में लगी बैटरी में स्टोर किया जा सकता है। डॉ. चेन का कहना है कि आपकी टीशर्ट पर सौर सेल कपड़े का 4 सेमी × 5 सेमी टुकड़ा सिल दिया जाए, और आप सूर्य की रोशनी में दौड़ें तो एक सेलफोन चार्ज करने लायक बिजली उत्पन्न की जा सकती है। सोचिए अगर आपने पूरी तरह इस कपड़े से बनी शर्ट या जैकेट पहनी हो तब!

डॉ. चेन ने एक और विशेष प्रकार के पॉलीमर या बहुलक (जिसे पीटीएफई कहा जाता है) से कपड़ा तैयार किया है। यह शरीर की गति से उत्पन्न उर्जा को सोखता है और इसे विद्युत ऊर्जा में परिवर्तित करता है। मारिया और मारियाह लिखती हैं: इस तरह के ऊर्जा उत्पन्न करने वाले यंत्र तंबुओं में भी लगाए जा सकते हैं। इन पर सूरज की रोशनी पड़ने या हवा के चलने पर ये शिविर में रहने वाले लोगों के उपकरणों को चार्ज कर सकते हैं।

मारिया और मारियाह का यह लेख इंटरनेट पर (https://www.sciencenews.org/article/future-smart-clothes-could-pack-serious-gadgetry) मुफ्त में उपलब्ध है और अत्यंत पठनीय है। लेख में और भी ऐसे अध्ययनों का उल्लेख किया गया है जो इस तरह के उपकरणों के माध्यम से पर्यावरण की ऊर्जा को विद्युत उर्जा में परिवर्तित करके संग्रहित कर उसका उपयोग करते हैं।

हल्केफुल्के सेल फोन

कुछ लोग भारी भरकम सेलफोन संभालने के बजाए कलाई में पहने जाने वाले फोन उपयोग करना पसंद कर रहे हैं। कुछ लोग लैपटॉप की जगह स्मार्टफोन का उपयोग करने लगे हैं। (हाल ही में नोबेल पुरस्कार विजेता प्रो. मार्टिन चाफी ने हैदराबाद में तीन अलगअलग व्याख्यान दिए। व्याख्यान से जुड़ी स्लाइड, फिल्में वगैरह लैपटाप में नहीं स्मार्टफोन में थीं। पहनने योग्य उपकरण (कम्प्यूटर तक) तेज़ी से लोकप्रिय और सुविधाजनक हो जाएंगे। इन्हें अब आपके कपड़ों में लगे उपकरणों की मदद से चार्ज किया जा सकेगा। तो देखते हैं, अगले साल का फैशन क्या होगा।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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एयर कंडीशनर में परिवर्तन से ऊर्जा बचत की उम्मीद – आदित्य चुनेकर

र्जा मंत्रालय देश में एयर कंडीशनिंग का डिफॉल्ट तापमान 24 डिग्री सेल्सियस करने की योजना बना रहा है। इससे क्या हासिल होगा तथा इसमें और क्या किया जा सकता है? डिफॉल्ट से आशय है कि यदि आप छेड़छाड़ नहीं करेंगे तो एयर कंडीशनर 24 डिग्री सेल्सियस पर काम करेगा।

सलाह क्या है?

उर्जा मंत्रालय (एमओपी) ने घोषणा की है कि वह एयर कंडीशनर निर्माताओं और हवाई अड्डों, होटल, शॉपिंग मॉल और सरकारी भवन जैसे प्रतिष्ठानों को यह सलाह जारी करने वाला है कि वे एयर कंडीशनिंग का डिफॉल्ट तापमान 24 डिग्री सेल्सियस पर सेट रखें।

मंत्रालय के अनुसार, एयर कंडीशनर (एसी) के तापमान की सेटिंग में एक डिग्री की वृद्धि से बिजली की खपत में 6 प्रतिशत की कमी आती है। इसके अलावा, यह दावा भी किया गया है कि यदि सभी उपयोगकर्ता एसी की तापमान सेटिंग 24 डिग्री सेल्सियस पर रखते हैं, तो भारत में बिजली की खपत 20 अरब युनिट कम हो जाएगी। यह भारत की कुल बिजली खपत का लगभग 1.5 प्रतिशत है। लेकिन यह सलाह वास्तव में काम कैसे करेगी?

सबसे पहले, 24 डिग्री सेल्सियस के डिफॉल्ट तापमान सेटिंग के महत्व पर चर्चा करते हैं। अपने घरों के अंदर लोग किस तापमान पर आराम महसूस करते हैं यह व्यक्तिगत पसंद का मामला है। भारतीय मानक ब्यूरो (बीआईएस) की राष्ट्रीय भवन संहिता (एनबीसी) विभिन्न तापमान सेटिंग्स की सलाह देता है जिससे विभिन्न प्रकार की इमारतों में रहने वालों को ऊष्मीय आराम प्राप्त होता है। एनबीसी के अनुसार, लोग केंद्रीय वातानुकूलित इमारतों में 23-26 डिग्री सेल्सियस पर, मिश्रित शैली की इमारतों में 26-30 डिग्री सेल्सियस पर और गैरवातानुकूलित इमारतों में 29-34 डिग्री सेल्सियस पर आराम महसूस करते हैं। मिश्रित शैली इमारतों में, एसी आवश्यकता अनुसार चालूबंद किया जाता है। हालांकि तापमान की ये सीमाएं मात्र संकेतक के रूप में हैं। कुछ अध्ययनों से पता चला है कि लोग 26-32 डिग्री सेल्सियस पर आराम महसूस करते हैं। इसलिए, 24 डिग्री सेल्सियस गर्मी से राहत के लिए एक ठीकठाक सीमा है तथा इससे भी ऊंचा तापमान निर्धारित किया जा सकता है।

क्या हासिल होगा?

रूम एयर कंडीशनर का उपयोग घरों, छोटी दुकानों और छोटे कार्यालयों में किया जाता है। इस तरह के एसी के सभी निर्माता नए डिफॉल्ट सेट करने पर सहमत हैं। फिलहाल, अधिकांश एसी पहली बार चालू करने पर 18-20 डिग्री सेल्सियस से शुरू होते हैं। उसके बाद कभी भी चालू करने पर अंतिम बार सेट किए गए तापमान पर चालू होते हैं। इस सलाह के बाद, एसी हमेशा 24 डिग्री सेल्सियस पर चालू होंगे। चालू करने के बाद उपयोगकर्ता तापमान को बढ़ा या घटा सकते हैं। लेकिन अगली बार चालू करने पर सेटिंग वापिस डिफॉल्ट पर आ जाएगी। यानी यदि कोई उपभोक्ता एसी का उपयोग 20 डिग्री सेल्सियस पर करना चाहे तो हर बार एसी चालू करने के बाद उसे 20 डिग्री सेल्सियस पर लाना होगा। उम्मीद की जाती है कि इससे उपभोक्ता डिफॉल्ट तापमान के प्रति जागरूक होंगे और शायद वे अपना व्यवहार बदलकर थोड़े ऊंचे तापमान सेटिंग से काम चलाने लगेंगे। हालांकि, जो उपभोक्ता पहले से ही 24 डिग्री सेल्सियस से अधिक तापमान पर एसी का उपयोग कर रहे हैं, उन पर इसका विपरीत असर हो सकता है और हो सकता है कि वे अब कम तापमान पर एसी सेट करने लगें। इस समस्या का एक समाधान यह हो सकता है कि अगली बार का डिफॉल्ट तापमान केवल तभी सेट हो जब अंतिम तापमान सेटिंग 24 डिग्री सेल्सियस से कम रही हो। यदि एसी का उपयोग 24 डिग्री सेल्सियस से ज़्यादा की सेटिंग पर किया गया है, तो वह उसी तापमान सेटिंग से शुरू हो सकता है।

क्रियान्वयन एजेंसी, ऊर्जा दक्षता ब्यूरो (बीईई), हर 4-5 महीने में क्रियान्वयन के सर्वेक्षण की योजना बना रही है और फिर इस प्रणाली को अनिवार्य बना दिया जाएगा। इस सर्वेक्षण में लोगों के व्यवहार को समझने और आदर्श डिफॉल्ट तापमान निर्धारित करने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए जो आराम और बिजली में बचत दोनों सुनिश्चित करे।

सेंट्रल एसी सिस्टम पर असर

हवाई अड्डे, होटल, अस्पताल और बड़े कार्यालय सेंट्रल एयर कंडीशनिंग सिस्टम का उपयोग करते हैं। इन अनुप्रयोगों में बचत की संभवाना और निश्चितता अधिक होती है क्योंकि इन स्थानों पर तापमान सेटिंग बहुत कम (18-21 डिग्री सेल्सियस) निर्धारित होती है। केंद्रीय रूप से नियंत्रित होने की वजह से इनमें डिफॉल्ट तापमान को नियंत्रित करना और बनाए रखना तुलनात्मक रूप से आसान है। ऊर्जा मंत्रालय की प्रेस विज्ञप्ति से यह बात स्पष्ट नहीं है कि सरकार इन प्रतिष्ठानों के साथ डिफॉल्ट तापमान सेटिंग की सूचना देने और निगरानी करने की क्या योजना बना रही है। इसके क्रियान्वन के लिए जापान का कूल बिज़कार्यक्रम एक अच्छा उदाहरण हो सकता है। 2005 की गर्मियों में, जापान सरकार ने पुस्तकालयों और सामुदायिक केंद्रों जैसे सभी कार्यालयों और सार्वजनिक इमारतों से एयर कंडीशनर को 28 डिग्री सेल्सियस पर रखने को कहा था। कर्मचारियों को आराम से रहने के लिए सूट और टाई के बजाय आरामदेह ड्रेस कोड की अनुमति थी। प्रारंभ में, अभियान की आलोचना इस आधार पर की गई कि रूढ़िवादी जापानी लोग कभी भी अनौपचारिक वस्त्रों में कार्यालय नहीं जाएंगे। लेकिन जापानी सरकार ने अभियान को जारी रखा। निरंतर जागरूकता कार्यक्रम आयोजित होते रहे और प्रधानमंत्री समेत वरिष्ठ कैबिनेट नेताओं ने अनौपचारिक वस्त्रों में साक्षात्कार देकर उदाहरण प्रस्तुत किए। इस अभियान का अब तेरहवां वर्ष है। 2011 में, भूकंप और सुनामी के बाद जापान के परमाणु ऊर्जा संयंत्रों को बंद करने के कारण बिजली की कमी की समस्या का समाधान करने के लिए सुपर कूल बिज़अभियान शुरू किया गया। निजी क्षेत्र ने भी सरकार के उदाहरण का पालन किया है और कई कार्यालयों के साथसाथ शॉपिंग मॉल में थर्मोस्टैट को 28 डिग्री सेल्सियस पर सेट किया गया। कर्मचारी अब टीशर्ट और शॉर्ट्स में कार्यालय जा सकते हैं। कार्यालय में तापमान कम करने के लिए पर्दों और रंगीन शीशों का उपयोग किया जाने लगा। टोकियो समाचार और मेट्रो सिस्टम में हर सुबह बिजली की अपेक्षित मांग और आपूर्ति पर एक रिपोर्ट प्रस्तुत की जाती है। 2011 में, इस अभियान ने टोकियो क्षेत्र में लगभग 12 प्रतिशत बिजली बचाई। भारत में भी स्थानीय परिवेश के अनुकूल एक अभियान इसी तरह के परिणाम प्राप्त करने के लिए तैयार किया जा सकता है।

और क्या हो सकता है?

एयर कंडीशनर के लिए उच्च डिफॉल्ट तापमान निर्धारित करना बिजली की खपत को सीमित करने के लिए एक अच्छी पहल है। हालांकि, इससे और अधिक करने की जरूरत है। भारत में लगभग 4-5 प्रतिशत घरों में ही एसी हैं। बढ़ती आय, बढ़ते शहरीकरण और बढ़ते तापमान के साथ इसमें वृद्धि की उम्मीद है। इन एसी को चलाने के लिए लगने वाली बिजली हेतु महत्वपूर्ण संसाधनों की ज़रूरत होगी और इसके परिणामस्वरूप सामाजिक, पर्यावरणीय और जलवायु परिवर्तन सम्बंधी मुद्दे भी उठेंगे। बड़ी समस्या तो यह है कि व्यस्ततम समय में एसी की बिजली खपत में वृद्धि होती है जिसकी वजह से ऐसे ऊर्जा संयंत्रों की आवश्यकता बढ़ जाएगी, जो व्यस्ततम समय में सर्वोच्च मांग की पूर्ति कर सकें। इस समस्या का तकाज़ा है कि एसी का उपयोग कम करने के मामले में नीतिगत हस्तक्षेप किए जाएं।

सबसे अच्छी नीति वह है जो एसी की आवश्यकता को या तो कम या बिलकुल खत्म कर दे। उच्च ऊष्मारोधक गुणों वाली निर्माण सामग्री और हवा की अच्छी आवाजाही वाली बिल्डिंग डिज़ाइन से अंदर के तापमान को कम रखा जा सकता है। नीतियों का उद्देश्य यह होना चाहिए कि लोग ऐसी तापमान रोधी डिज़ाइन व निर्माण के तरीकों को अपनाएं। इसके लिए जागरूकता अभियान चलाने के अलावा ऐसी ऊर्जा संरक्षण भवन संहिता के बेहतर क्रियान्वन का लक्ष्य भी होना चाहिए जिसमें तापमान रोधी डिजाइनों का उपयोग शामिल हो।

इसके बाद एसी की दक्षता में सुधार की बात आती है। बीईई में पहले से ही एसी के लिए अनिवार्य मानक और लेबलिंग कार्यक्रम है। यह कार्यक्रम भारतीय बाज़ारों में एसी को 1 सितारा (सबसे कम ऊर्जा दक्षता) से 5 सितारा (सबसे ज़्यादा ऊर्जा दक्षता) तक रेटिंग देता है। 1 स्टार से कम ऊर्जा दक्षता वाला एसी बेचा नहीं जा सकता। दक्षता स्तर की स्टार रेटिंग समयसमय पर संशोधित होती रहती है लेकिन इनमें आगे सुधार भी किया जा सकता है। यह भी देखा गया है कि जब बीईई स्टार रेटिंग को संशोधित करता है, तो बाज़ार कम रेटिंग वाले मॉडल्स की ओर चला जाता है। वर्तमान 5 सितारा रेटेड मॉडल संशोधन के आधार पर 4 या 3 सितारा मॉडल में बदल जाते हैं और कुछ ही 5 सितारा मॉडल शेष रह जाते हैं। जिस तरह एलईडी बल्ब के मामले में किया गया था, थोक खरीद जैसी नीतियां के द्वारा अत्यधिक कुशल मॉडल को प्रोत्साहित करके इस मुद्दे को संबोधित किया जा सकता है। अंत में, बीईई को रेटिंग शुदा मॉडल्स में मानकों के अनुपालन की जांच करके परिणाम मीडिया में प्रकाशित करना चाहिए। इससे कार्यक्रम की विश्वसनीयता और दृश्यता बढ़ेगी।

एसी के अलावा, छत के पंखे और रेफ्रिजरेटर जैसे अन्य उपकरण भी हैं जो भारत की कुल आवासीय बिजली खपत में महत्वपूर्ण योगदान देते हैं। यह खपत वर्ष 2000 से अब तक तीन गुना हो गई है। 70 प्रतिशत से अधिक घरों में गर्मी से राहत के लिए छत के पंखों का उपयोग किया जाता है। यह भारत की कुल आवासीय बिजली खपत का लगभग 18 प्रतिशत है। भारत में बेचे जाने वाले अधिकांश छत के पंखे, सबसे कुशल पंखों की तुलना में दो गुना अधिक बिजली खर्च करते हैं। वर्ष 2009 में बीईई द्वारा छत के पंखों में दक्षता रेटिंग की शुरुआत की गई और उसके बाद से इसे कभी संशोधित नहीं किया गया। दूसरी ओर, एयर कंडीशनर और फ्रॉस्ट फ्री रेफ्रिजरेटर की रेटिंग को अब तक 3-4 बार संशोधित किया जा चुका है। रेफ्रिजरेटर एक खामोश पियक्कड़ है जो किसी भी घर में 25-50 प्रतिशत बिजली की खपत कर जाता है। कुछ मामलों में एक अक्षम रेफ्रिजरेटर घर के वार्षिक बिजली बिल को 4-5 हज़ार रुपए तक बढ़ा सकता है। हालांकि, एसी की तुलना में उसकी खपत के बारे में जागरूकता कम होती है। इन उपकरणों की दक्षता में सुधार लाने और उनमें बिजली की खपत को कम करने के उद्देश्य से नीतियां बनाने के लिए उनका उपयोग पैटर्न और वास्तविक बिजली खपत के डैटा की आवश्यकता होगी। प्रयास (ऊर्जा समूह) ने स्मार्ट मीटर का उपयोग करके कुछ घरों की वास्तविक बिजली खपत और चयनित उपकरणों की निगरानी करने की एक पहल शुरू की है। यह डेटा emarc.watchyourpower.org पर देखा जा सकता है। इस डैटा का उपयोग विभिन्न उपकरणों की बिजली की खपत के बारे में जन जागरूकता बढ़ाने के साथसाथ इन उपकरणों की दक्षता में सुधार के लिए मानक और लेबलिंग जैसे कार्यक्रमों की बुनियादी तैयार करने के लिए किया जा सकता है।

भारत में एसी के लिए डिफॉल्ट तापमान निर्धारित करना देश में भविष्य में बिजली की खपत को कम करने के लिए एक अच्छा कदम है। इससे उपभोग के बारे में सामान्य जन जागरूकता को बढ़ावा मिलेगा जिसके परिणामस्वरूप अन्य उपकरणों का भी तर्कसंगत उपयोग हो सकता है। बिजली की खपत को घटाने के प्रयासों को न केवल एसी पर बल्कि अन्य घरेलू उपकरणों, जैसे छत के पंखों और रेफ्रिजरेटरों पर भी लक्षित करना आवश्यक है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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जलवायु परिवर्तन और आत्महत्या का सम्बंध

हाल ही में हुए शोध में सामने आया है कि जलवायु परिवर्तन (बढ़ता हुआ तापमान) लोगों की आत्महत्या की प्रवृत्ति को उतना ही प्रभावित करता है जितना कि आर्थिक मंदी लोगों को आत्महत्या करने के लिए उकसाती है।

मानसिक स्वास्थ्य और ग्लोबल वार्मिंग के बीच सम्बंध पर व्यापक रूप से शोध नहीं हुए हैं। किंतु हाल ही के शोध में अमेरिका और मेक्सिको में पिछले दशक में हुई आत्महत्याओं और तापमान का विश्लेषण किया है। विश्लेषण में पाया गया कि औसत मासिक तापमान 1 डिग्री सेल्सियस बढ़ने के साथ अमेरिका में आत्महत्या की दर में 0.7 प्रतिशत और मेक्सिको में 2.1 प्रतिशत की वृद्धि हुई।

शोध में मौसम में बदलाव, गरीबी के स्तर (आर्थिक स्तर) को ध्यान में रखा गया था। यहां तक कि मशहूर लोगों की आत्महत्या की खबरों का भी ध्यान रखा गया था जिनकी वजह से ज़्यादा लोग आत्महत्या कर सकते हैं। शोधकर्ताओं ने पाया कि सारी परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए भी किसी क्षेत्र में गर्म दिनों में ज़्यादा आत्महत्याएं हुर्इं।

अमेरिका के स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय के प्रोफेसर मार्शल बर्क और उनके साथियों का कहना है कि यह पता करना काफी महत्वपूर्ण है कि जलवायु परिवर्तन के कारण आत्महत्या की दर में फर्क पड़ता है या नहीं क्योंकि विश्व भर में अकेले आत्महत्या के कारण होने वाली मृत्यु के आंकड़े अन्य हिंसक कारणों से होने वाली मृत्यु की कुल संख्या से ज़्यादा हैं। विश्व स्तर पर यह मृत्यु 10-15 प्रमुख कारणों में से एक है। यह विश्लेषण नेचर क्लाइमेट चेंज पत्रिका में प्रकाशित हुआ है।

शोधकर्ताओं का कहना है कि जलवायु परिवर्तन के कारण आत्महत्या दर में मामूली बदलाव भी विश्व स्तर पर बड़ा बदलाव ला सकता है, खासकर अमीर देशों में जहां वर्तमान आत्महत्या दर वैसे ही अधिक है। दुनिया भर में हाल ही के हफ्तों में उच्च तापमान दर्ज किया गया है। जो संभवतः जलवायु परिवर्तन के कारण हुआ है।

इस प्रकार के अध्ययन बढ़ते तापमान और आत्महत्या के बीच कोई कार्यकारण सम्बंध नहीं दर्शाते पर समय के साथ और अलगअलग स्थानों पर परिणामों में उल्लेखनीय स्थिरता दिखी है। यह बात भारत के संदर्भ में हुए शोध में भी दिखी है जो कहता है कि पिछले 30 सालों में भारत में 60,000 आत्महत्याओं और तापमान बढ़ने के बीच सम्बंध है।

शोधकर्ताओं ने ट्विटर पर 60 करोड़ से अधिक संदेशों का भी विश्लेषण किया और पाया कि उच्च तापमान के दिनों में लोग मायूस शब्दों (जैसे अकेलापन, उदासी, उलझे हुए) वगैरह का उपयोग अधिक करते हैं। मानसिक स्वास्थ्य सामान्य से गर्म दिनों के दौरान बिगड़ता है। एक संभावना यह हो सकती है कि जब शरीर गर्म परिस्थितियों में खुद को ठंडा करता है तो मस्तिष्क में रक्त प्रवाह में फर्क पड़ता हो।

वैज्ञानिकों का अनुमान है कि यदि मौजूदा कार्बन उत्सर्जन को कम नहीं किया जाता है तो जलवायु परिवर्तन के कारण अमेरिका और कनाडा में साल 2050 तक 9,000 से 40,000 तक अतिरिक्त आत्महत्या होने की आशंका है। यह बेरोज़गारी के कारण होने वाली आत्महत्या में 1 प्रतिशत की वृद्धि से भी ज़्यादा है। शोध यह बताते हैं कि तापमान बढ़ने से हिंसा बढ़ती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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पानी के अभाव में कोका कोला पी रहे हैं लोग

मेक्सिको के चियापास प्रांत में एक शहर है सैन क्रिस्टोबल। यहां काफी बारिश होती है। किंतु लोगों को पेयजल मुश्किल से मिलता है। लोगों को टैंकरों से पानी खरीदना पड़ता है। तो हालत यह है कि कई शहरवासी पानी की बजाय कोका कोला पीते हैं। एक स्थानीय बॉटलिंग प्लांट द्वारा बेचा जाने वाला यह कोका कोला ज़्यादा आसानी से मिल जाता है और दाम में लगभग पानी के बराबर है।

नतीजतन, मेक्सिको सॉफ्ट ड्रिंक की खपत में दुनिया का अग्रणी देश है और चियापास प्रांत मेक्सिको में अव्वल है। सैन क्रिस्टोबल के रहवासी प्रतिदिन औसतन 2 लीटर सोड़ा पी जाते हैं। इसके स्वास्थ्य पर असर भी हुए हैं।

2013 से  2016 के बीच चियापास में डायबीटीज़ की वजह से मृत्यु दर 30 प्रतिशत बढ़ी। आज वहां यह मृत्यु का दूसरा सबसे बड़ा कारण है। प्रति वर्ष 3000 मौतों के लिए ज़िम्मेदार इस रोग से निपटने में वहां के स्वास्थ्य कर्मियों के पसीने छूट रहे हैं। लोग इसके लिए कोका कोला कारखाने को ही जवाबदेह मानते हैं। इस कारखाने को प्रतिदिन 12 लाख लीटर पानी उलीचने की अनुमति है। यह अनुमति उसे दस वर्ष पहले केंद्र सरकार के साथ एक अनुबंध के तहत मिली थी। इसके खिलाफ जन आक्रोश बढ़ता जा रहा है और पिछले वर्ष लोगों ने प्रदर्शन भी किया था।

दूसरी ओर, कंपनी के अधिकारियों का कहना है कि उनकी कंपनी को बेवजह बदनाम किया जा रहा है, पानी के अभाव का वास्तविक दोषी तो तेज़ शहरीकरण और घटिया नियोजन है। कुछ वैज्ञानिक भी मानते हैं कि इलाके के कुएं सूखने के पीछे जलवायु परिवर्तन की भूमिका है। गौरतलब है कि पूरे मेक्सिको में कोका कोला के बॉटलिंग व बिक्री के अधिकार फेम्सा नामक कंपनी के पास हैं जो लेटिन अमेरिका में भी कोका कोला बेचती है। यह एक विशाल बहुराष्ट्रीय कंपनी है और बहुत शक्तिशाली खिलाड़ी है। तो ऐसा लगता है कि मेक्सिको के लोगों को पानी मिलेगा या नहीं, यह तर्कों से नहीं बल्कि शक्ति प्रदर्शन से तय होगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।

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भारत के ऊर्जा दक्षता कार्यक्रमों का मूल्यांकन – आदित्य चुनेकर, संजना मुले, मृदुला केलकर

भारत के अपने नागरिकों को विश्वसनीय, किफायती, सुरक्षित और टिकाऊ ऊर्जा उपलब्ध करवाने के लक्ष्य में ऊर्जा दक्षता काफी महत्वपूर्ण हो सकती है। भारत में पिछले कुछ सालों में ऊर्जा संरक्षण, बेहतर ऊर्जा दक्षता और ऊर्जा आपूर्ति प्रबंधन से सम्बंधित कई नीतियां और कार्यक्रम लागू किए गए हैं। इन कार्यक्रमों के स्तर और दायरे दोनों ही बढ़ रहे हैं। उदाहरण के लिए उजाला कार्यक्रम बड़े स्तर पर परिवारों को कम दामों में एलईडी बल्ब उपलब्ध कराता है।

किंतु इस तरह के बड़े कार्यक्रमों के समग्र मूल्यांकन पर बहुत ही कम ध्यान दिया जा रहा है। समग्र मूल्यांकन कार्यक्रमों के विभिन्न प्रभावों और उनकी कारगरता की व्यवस्थित जांच करते हैं, इन कार्यक्रमों की विश्वसनीयता बढ़ाते हैं और कार्यक्रमों के क्रियांवयन से होने वाली ऊर्जा की बचत का अनुमान बताते हैं। समग्र मूल्यांकन वर्तमान में लागू कार्यक्रमों की समीक्षा भी करते हैं तथा भविष्य में लागू किए जाने वाले ऐसे अन्य कार्यक्रमों की डिज़ाइन को बेहतर करने में मदद करते हैं।

कई व्यवस्थागत बाधाओं के चलते भारत में ऊर्जा दक्षता कार्यक्रमों का समग्र मूल्यांकन बहुत सीमित रहा है। एक तो ऊर्जा दक्षता कार्यक्रम क्रियांवित करने वाले संस्थानों के लिए, इन कार्यक्रमों का समयसमय पर और स्वतंत्र आकलन करवाने की कोई अनिवार्यता नहीं है। ऊर्जा संरक्षण अधिनियम, 2001; विद्युत अधिनियम, 2003; राष्ट्रीय विद्युत नीति 2005 और इसके संशोधन; राष्ट्रीय शुल्क नीति, 2006; और नियामक मंच द्वारा मांग प्रबंधन के नियमन सम्बंधी दिशानिर्देशों में इन नियमों की कमी स्पष्ट दिखती है।

समग्र मूल्यांकन की राह में दूसरी बाधा यह (गलत) धारणा है कि मूल्यांकन बोझिल, असमय, और महंगा होता है। यह गलतफहमी कुछ शुरुआती कार्यक्रमों में ऊर्जा बचत मापने के लिए डैटा लॉगर्स की मदद से ऊर्जा बचत सम्बंधी वास्तविक मापन के अनुभवों से उपजी है। और खासकर छोटे स्तर के कार्यक्रमों के लिए मूल्यांकन को एक बोझ माना जाता है।

अंततः ऊर्जा दक्षता कार्यक्रमों का सार्वजनिक डैटा दुर्लभ या बहुत कम उपलब्ध होता है। डैटा की कमी के कारण स्वतंत्र रुप से मूल्यांकन करने वाले शोधकर्ताओं, अकादमिक लोगों, और सामाजिक संगठनों द्वारा मूल्यांकन बहुत सीमित हो जाता है। इन व्यवस्थागत बाधाओं को दूर करने की ज़रूरत है ताकि भारत में इन कार्यक्रमों का समग्र मूल्यांकन किया जा सके।

ऊर्जा दक्षता कार्यक्रम के किसी भी समग्र मूल्याकन में कार्यक्रम के प्रभाव का आकलन (अर्थात यह देखना कि ऊर्जा खपत में कितनी कमी आई और सर्वोच्च मांग में कितनी कमी आई), प्रक्रिया का मूल्यांकन (कार्यक्रम का क्रियान्वन कितना कारगर रहा), और बाज़ार प्रभाव मूल्यांकन (कार्यक्रम के कारण बाज़ार में आए बदलावों का आकलन) शामिल हैं।

कार्यक्रम के प्रायोगिक क्रियान्वन के दौरान मूल्यांकन का विशेष महत्व होता है क्योंकि प्रायोगिक क्रियांवयन में सामने आई खामियों या मुश्किलों को बड़े स्तर पर कार्यक्रम लागू करने से पहले दूर किया जा सकता है। इसके अलावा लागू हो चुके कार्यक्रमों का मूल्यांकन भी ज़रूरी है क्योंकि इस तरह के मूल्यांकन कार्यक्रम के कारगर और गैरकारगर बिंदुओं की ओर ध्यान दिलाते हैं।

प्रयास द्वारा तैयार रिपोर्ट में भारत में ऊर्जा दक्षता कार्यक्रमों का मूल्यांकन करने के व्यापक दिशानिर्देश प्रस्तुत किए गए हैं। ये दिशानिर्देश विश्व स्तर की सर्वोत्तम परिपाटियों की समीक्षाओं पर आधारित हैं और केस स्टडीज़ की मदद से इन परिपाटियों के उदाहरण प्रस्तुत करती है। यह रिपोर्ट, वर्तमान में भारत में लागू ऊर्जा दक्षता कार्यक्रमों के समग्र मूल्यांकन के लिए नीति निर्माताओं, वितरण कंपनियों के प्रबंधकों और नियंत्रकों के लिए है जो मूल्यांकनकर्ताओं को नियुक्त कर सकते हैं। साथ ही यह रिपोर्ट भारत के ऊर्जा दक्षता संस्थानों जैसे ऊर्जा दक्षता ब्यूरो, ऊर्जा दक्षता सेवा लिमिटेड और सरकार द्वारा निर्धारित एजेंसियों के कार्यक्रमों में समग्र मूल्यांकन को शामिल करवाने में भी उपयोगी होगी। अंत में इस रिपोर्ट में उपभोक्ताओं, सामाजिक संगठनों और शोधकर्ताओं की दृष्टि से ऊर्जा दक्षता कार्यक्रम के समग्र मूल्यांकन के महत्व पर प्रकाश डाला गया है। यह रिपोर्ट भारत के सभी ऊर्जा दक्षता कार्यक्रमों की व्यापक मार्गदर्शिका नहीं है। यह रिपोर्ट तो ऊर्जा दक्षता कार्यक्रमों के मूल्यांकन के लिए एक सामान्य खाका या कार्यक्रमविशेष के लिए दिशानिर्देश प्रस्तुत करती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।

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स्वास्थ्य और स्वच्छता को चुनौती देता ई-कबाड़ – नवनीत कुमार गुप्ता

भारतीय वाणिज्य एंव उद्योग मंडल यानी एसोचैम के पर्यावरण तथा जलवायु परिवर्तन परिषद के ताज़ा अध्ययन के अनुसार भारत दुनिया में सर्वाधिक इलेक्ट्रॉनिक कचरा उत्पन्न करने वाला देश है। यहां हर वर्ष 13 लाख टन कचरा उत्पन्न होता है, जिसका सिर्फ1.5 प्रतिशत भाग विभिन्न संगठित अथवा असंगठित इकाइयों में दोबारा इस्तेमाल योग्यबनाया जाता है।

असल में आज का युग उपभोक्तावाद का युग है और इस युग को तेज़ गति प्रदान की है सूचना तथा संचार क्रांति ने। अर्थ­व्यवस्था, उद्योगों तथा संस्थाओं सहित हमारे दैनिक जीवन में सूचना तथा संचार क्रांति तेज़ी से बदलाव ला रही है। एक ओर, इलेक्ट्रॉनिक उत्पाद हमारी ज़िंदगी का अभिन्न अंग बन चुके हैं। वहीं दूसरी ओर यही उत्पाद, संसाधनों के अनियंत्रित उपभोग तथा भारी मात्रा में कचरा उत्पन्न करने के लिए भी जिम्मेदार हैं। 

प्रौद्योगिकी का तेज़ विकास, तकनीकी आविष्कारों का आधुनिकीकरण तथा इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों में तेज़ी से बदलाव के कारण विश्व में इलेक्ट्रॉनिक कचरे के उत्पादन में भारी वृद्धि हो रही है। इलेक्ट्रॉनिक कचरा या कचरा इलेक्ट्रॉनिक तथा विद्युत उपकरणों से उत्पन्न होने वाले ऐसे सभी प्रकार के कचरे को कहते हैं, जिनकी अब मूल रूप में उप­योगिता नहीं रही है और जिन्हें दोबारा उपयोग लायक बनाने या पूरी तरह समाप्त कर देने की आवश्यकता है। उदाहरण के लिए पुराने रेफ्रिजरेटर, खराब हो चुकी वॉशिंग मशीन, बेकार कंप्यूटर तथा प्रिंटर, टेलीविज़न, मोबाइल, आईपॉड, सीडी, डीवीडी, पेन ड्राइव इत्यादि। 

देश में उत्पन्न कचरे का 90% से अधिक भाग असंगठित बाज़ार में दोबारा इस्तेमाल के लिए अथवा नष्ट करने के लिए पहुंचता है। ये असंगठित क्षेत्रआम तौर पर महानगरों तथा बड़े शहरों की झुग्गीबस्तियों में होते हैं, जहां अकुशल कामगार लागत कम करने के उद्देश्य से बिलकुल अनगढ़ तरीकों से कचरे को दोबारा इस्तेमाल योग्य बनाते हैं। ये कामगार खतरनाक परिस्थितियों जैसे, दस्तानों तथा मुखौटों का प्रयोग किए बिना कार्य करते हैं। इस प्रक्रिया में कचरे से निकलने वाली गैसें, अम्ल, विषैला धुआं तथा विषैली राख कामगारों तथा स्थानीय पर्यावरण के लिए खतरनाक होती है

कचरे में कई प्रकार के प्रदूषण फैलाने वाले तथा विषैले पदार्थ होते हैं, जैसे, सर्किट बोर्ड में कैडमियम तथा लेड, स्विच तथा फ्लैट स्क्रीन मॉनिटर में पारा, पुराने कैपेसिटर्स तथा ट्रांसफार्मर्स में पोलीक्लोरिनेटेड बाईफिनाइल तथा प्रिंटेड सर्किट बोर्ड को जलाने पर निकलने वाली ब्रोमीनयुक्त आग। इन हानिकारक पदार्थों तथा विषैले धुएं के लगातार सम्पर्क में रहने से इस काम में लगे कामगारों में बीमारियां पनपती हैं। 

देश के 70 प्रतिशत कचरे का उत्पादन देश के 10 राज्यों में होता है, जिसमें 19.8 प्रति­शत योगदान के साथ महाराष्ट्र पहले स्थान पर है। इसके बाद तमिलनाडु में 13.1 प्रतिशत, आंध्र प्रदेश में 12.5 प्रतिशत, उत्तर प्रदेश में 10.1 प्रतिशत, पश्चिम बंगाल में 9.8 प्रतिशत, दिल्ली में 9.5 प्रतिशत, कर्नाटक में 8.9 प्रतिशत, गुजरात में 8.8 प्रतिशत तथा मध्यप्रदेश में 7.6 प्रतिशत इलेक्ट्रॉनिक कचरे का उत्पादन होता है।

देश में बढ़ते कचरे के खतरे से निपटने के लिए भारत सरकार के पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने कचरा प्रबंधन नियम, 2016 लागू किया है। 2018 में इसनियम में सुधार किया गया, ताकिदेश में कचरे के निस्तारण को दिशा दी जा सके तथा निर्धारित तरीके से कचरे को नष्टअथवा पुनर्चक्रित किया जा सके। कोशिश यह है किईकचरे को ठिकाने लगाने के क्षेत्रको मान्यता प्राप्त हो, कामगारों के स्वास्थ्यपर बुरा प्रभाव ना पड़े तथा वातावरण प्रदूषित हो।

नए नियमों में इलेक्ट्रॉनिक सामग्रियों के उत्पादकों के लिए उनके निस्तारण, प्रबं­धन तथा परिचालन के लिए दिशा निर्देश जारी किए गए हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात है कि 2018 के संशोधन के बाद अब यह इलेक्ट्रॉनिक सामानों के निर्माताओं की ज़िम्मेदारी है कि वे सरकार द्वारा निर्धारित लक्ष्य के अनुरूप कचरे को एकत्र करके निस्तारण करें। इससे उत्पादक भी कम विषैले तथा पर्यावरण के अनुरूप उत्पाद तैयार करने के लिए प्रेरित होंगे, और उपभोक्ता स्वस्थ वातावरण में प्रौद्योगिकी के विकास का सार्थक एवं स्वस्थ उपयोग कर सकें (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।

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प्लास्टिक: एक और मौका हाथ से गया – गुरुस्वामी कुमारस्वामी

स वर्ष गुड़ी पड़वा (18 मार्च 2018, पारंपरिक नव वर्ष) पर महाराष्ट्र सरकार ने एक अधिसूचना जारी की जिसके ज़रिए प्लास्टिक और थर्मोकोल उत्पादों के उपयोग पर लगभग प्रतिबंध लगा दिया गया। अधिसूचना में, इस प्रतिबंध को उचित सिद्ध करते हुए गैर-जैव-विघटनशील प्लास्टिक, खास तौर पर कम समय के लिए उपयोग किए जाने वाले प्लास्टिक, से होने वाली समस्याओं का ज़िक्र किया गया है। मुख्य समस्याओं में प्लास्टिक की वजह से नालियों के अवरुद्ध होने, समुद्री जीवन और उसकी विविधता पर खतरा, पर्यावरण में ऐसे प्लास्टिक का बढ़ते जाना और स्वास्थ्य पर प्रभाव शामिल बताए गए हैं। इस प्रतिबंध में दवाइयों के लिए प्लास्टिक पैकेजिंग की अनुमति दी गई है। दूध के पाउच पर भी प्रतिबंध नहीं लगाया गया है – हालांकि, इस तरह के प्रत्येक बैग पर वापस खरीद का मूल्य मुद्रित होगा। और जून 2018 तक सरकार द्वारा इनके संग्रह का एक तंत्र स्थापित करने की बात कही गई है। यहां, मैं इस प्रतिबंध, या इसके कार्यान्वयन की खूबियों-खामियों में नहीं जाऊंगा। दरअसल यह आलेख, रविवार की सुबह सुपरमार्केट में मैंने जो कुछ भी देखा उसी से प्रेरित है।

प्लास्टिक पैकेजिंग सामग्री के प्रचलन को देखते हुए, मैं यह सोच रहा था कि समाज और स्थानीय व्यवसाय इस प्रतिबंध के प्रभावों का सामना कैसे करेंगे। एक समाचार पत्र में प्रकाशित आलेख में अखिल भारतीय प्लास्टिक निर्माता संघ के हवाले से बताया गया है कि इस प्रतिबंध के कारण लगभग 4 लाख लोगों की नौकरियां छिन जाने का अनुमान है। राज्य सरकार ने प्रतिबंध को लागू करने का काम स्थानीय सरकार, नगर पालिकाओं, आदि को सौंपा है। इस कार्य के चुनौतीपूर्ण होने की संभावना है क्योंकि ज़्यादातर स्थानीय निकाय पहले ही संसाधनों के अभाव से त्रस्त हैं। ऐसे में हो सकता है कि वे बार-बार नियमों का उल्लंघन करने वालों पर नज़र रखने और पहचानने में सक्षम न हो सकें (जैसा कि नए कानून में प्रावधान है)। होगा यह कि कम से कम कुछ समय तक, मोहल्ले की किराना दुकान जैसे छोटे व्यवसायी पॉलीबैग त्यागने को राज़ी नहीं होंगे और प्रबंधन के उपाय तलाश करने की कोशिश करेंगे (जैसे सम्बंधित लागतों को उपभोक्ताओं से वसूल कर)। राज्य सरकार जब तक इस प्रतिबंध की कानूनी चुनौतियों से निपटे, तब तक वे शायद थोड़ी प्रतीक्षा करने की रणनीति अपनाएंगे। यह आलेख इस पहलू को भी तलाशने का इरादा नहीं रखता है।

आज सुबह खरीदारी करते वक्त मैं यह सोच रहा था कि इतने बड़े-बड़े सुपरमार्केट जो प्लास्टिक पैकेजिंग पर उतने ही निर्भर हैं (लेकिन छोटे किराना स्टोर्स जैसी रणनीतियों का उपयोग नहीं कर सकते) वे इस परेशानी से कैसे निपटेंगे। इस मुद्दे में मेरी दिलचस्पी संभवतः दूसरों के मुकाबले ज़्यादा है, क्योंकि मैं प्लास्टिक पर काम करता हूं और अपशिष्ट निपटान से सम्बंधित मुद्दों पर नगर पालिका को सलाह भी देता हूं। मैं प्लास्टिक पैकेजिंग के कारण उत्पन्न समस्याओं के बारे में सचेत हूं। और, मैं पॉलीथीन (एलएलडीपीई) की कम लागत को लेकर भी जागरूक हूं और यह भी जानता हूं कि उसकी खूबियों की बराबरी करना मुश्किल है। तो, मुझे स्पष्ट है कि परिवर्तन लाने में नियमन की भूमिका महत्वपूर्ण होगी। लेकिन मैं भटक रहा हूं। जब मैं सुपरमार्केट गया तो देखा कि उन्होंने एक गैर-पॉलीथीन, जैव-विघटनशील बैग अपनाया हुआ था।

ये बैग एक गुजरात स्थित कंपनी बायोलाइस नामक सामग्री से बनाकर सप्लाई करती है। बायोलाइस जैविक पदार्थ से बनाया जाता है और यह एक जैव-विघटनशील झिल्ली बना सकता है। इसे फ्रांस में लीमाग्रेन द्वारा विकसित किया गया है। इसके मार्केटिंग वीडियो में दावा किया गया है कि इसे गैर-खाद्य स्रोतों से तैयार किया गया है (हालांकि इसके अपने साहित्य का यह भी कहा गया है कि इसमें मक्का के आटे का उपयोग हुआ है)। लीमाग्रेन की वेबसाइट कहती है कि वह एक सहकारी समूह है जिसकी स्थापना व संचालन किसानों (संभवत: फ्रांसीसी) द्वारा किया जाता है। लगभग 90 पेटेंट से यह स्पष्ट है कि कृषि उत्पादों के मूल्य संवर्धन के लिए व्यापक अनुसंधान किया गया है। पॉलीथीन पैकेजिंग झिल्लियों में फटने का विरोध करने की सामथ्र्य से मेल खाने वाले विकल्प बहुत कम हैं, लेकिन आज सुबह जो बैग मैंने देखे उससे मैं काफी प्रभावित था। कुल मिलाकर यह एक अद्भुत तकनीकी नवाचार है जो चीनी प्रयोगशाला से उत्पादन के चरण में पहुंचकर अब सुपरमार्केट में उपयोग किया जा रहा है।

तो इस अनुभव ने मुझे व्याकुल क्यों किया? मुख्य रूप से इसलिए कि यहां मैंने देखा कि हमने एक अवसर गंवा दिया है – अवसर था उद्योग में व्यवधान को कम से कम रखते हुए पर्यावरण पर सकारात्मक प्रभाव डालने के साथ-साथ स्थानीय नवाचार नेटवर्क को मज़बूत करने का। एक वैकल्पिक परिदृश्य की कल्पना कीजिए। एक बड़े राज्य की सरकार प्लास्टिक पैकेजिंग पर प्रतिबंध लागू करने का निर्णय लेती है, मगर यह जानती है कि पॉलीथीन के कोई व्यावहारिक विकल्प उपलब्ध नहीं हैं। तो वह विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग (डीएसटी) से संपर्क करती है और उसे इस स्पष्ट लक्ष्य के साथ धन देती है कि एक निर्धारित समय सीमा के अंदर कोई विकल्प विकसित किया जाए। डीएसटी तब राज्य नवाचार परिषद, विज्ञान व इंजीनियरिंग अकादमियों और भारतीय उद्योग परिसंघ (सीआईआई) जैसे उद्योग संगठनों के साथ मिलकर इसके लिए प्रस्ताव आमंत्रित करता है। डीएसटी विशेषज्ञता वाले संस्थानों से सीधे अनुरोध भी कर सकता है। पॉलीथीन-जैसे गुणों के साथ एक विकल्प विकसित करने के लिए ज़रूरी अनुसंधान और बुनियादी नवाचार एक वर्ष में नहीं हो सकता है (ध्यान दें कि लीमाग्रेन के पेटेंट का प्रथम आवेदन 2000 या उससे पहले दिया गया था)। अलबत्ता, ज़रूरत अर्जेंट हो (जैसे, प्रतिबंध लगाने का निर्णय लिया जा चुका हो) और उत्पाद को विकसित करने के लिए वित्त पोषण दिया जाए एवं उद्योग इसे करने को तैयार हो (जैसा मैनहटन परियोजना में हुआ था) तो क्या एक सार्थक विकल्प उभर सकता है? शायद, बगासे जैसे स्थानीय कच्चे माल (जिसे वर्तमान में विद्युत सह-उत्पादन संयंत्रों में जला दिया जाता है) के आधार पर? ऐसा कुछ करने के संदर्भ कौन-से तत्व नदारद हैं? मिलिंद सोहनी का मत है कि भारतीय अकादमिक जगत को स्थानीय चुनौतियों को उठाना चाहिए तथा स्थानीय नीति निर्माताओं के साथ बेहतर समन्वय/सहयोग करना चाहिए। अतुल भाटिया के मुताबिक यह समय अकादमिक जगत और उद्योग के बीच सहयोग स्थापित करने के लिए सही समय है।

मेरा ख्याल है कि एक महत्वपूर्ण सामाजिक समस्या के संदर्भ में, यह सब करने के लिए हमारे पास एक बेहतरीन अवसर था। यदि इस परिवर्तन की योजना और व्यवस्था सावधानीपूर्वक बनाई जाती तो इस प्रतिबंध के कारण होने वाली समस्याओं को कम किया जा सकता था। और साथ ही साथ, सरकार, अकादमिक जगत और उद्योग के बीच साझेदारी निर्मित होती जो नवाचारों की श्रृंखला को और मज़बूत करती। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।

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ब्रिटेन का युरोप से अलगाव पहले भी हुआ है – एस. अनंतनारायण

ब्रिटेन के अधिकांश टापू चूने (चॉक) के टीले हैं। यह चूना प्राचीन ठोस चट्टानों पर जमा होता गया है और इसके ऊपर मिट्टी की परत है। सिर्फ सेलिसबरी और डॉवर में ही चूने की इस परत पर मिट्टी की परत नहीं है और यहां इन चट्टानों की सफेदी दिखाई पड़ती है। चॉक की यह दीवार इंग्लिश चैनल के नीचे-नीचे पूर्व की ओर फैली हुई है और फ्रांस के तट पर कैप ग्रिस नेज़ में एक बार फिर ऊपर उभरती है। माना जाता है कि कभी डॉवर से लेकर कैप ग्रिस नेज़ तक यह एक पूरी पर्वत श्रृंखला रही होगी। इस पर्वत  श्रृंखला में दरार कैसे पड़ी, इसको लेकर अटकलें ही रही हैं।

जिस सप्ताह प्रधान मंत्री टेरेसा मे ने युरोपीय संघ से ब्रिटेन के आर्थिक अलगाव का प्रस्ताव रखा था, उसी सप्ताह संजीव गुप्ता और उनके साथी शोधकर्ताओं ने नेचर कम्युनिकेशंस पत्रिका में रिपोर्ट किया था कि इस मामले में हमारी समझ बेहतर हुई है कि कैसे भौतिक चॉक कनेक्शन में टूटन हुई और यूरोप और ब्रिटेन के बीच इंगलिश चैनल के लिए जगह तैयार हुई थी। गुप्ता व साथियों के अनुसार, यह ब्रेक्सिट 1.0 था जिस पर किसी ने ध्यान ही नहीं दिया था।

उत्तर-पूर्वी फ्रांस तक फैली हुई डॉवर की सफेद क्लिफ लगभग दस करोड़ वर्ष पूर्व नीचे की चट्टानों पर जमना शुरु हुई थी। उस वक्त दुनिया अपेक्षाकृत गर्म थी और यह इलाका समुद्र में डूबा हुआ था। एक-कोशिकीय समुद्री शैवाल की कैल्शियम कार्बोनेट से बनी खोल (कोकोलिथ) समुद्र की तलछटी में जमने लगी और धीरे-धीरे चॉक के बड़े-बड़े टीले बन गए जो आज ब्रिटेन के अधिकांश हिस्से में पाए जाते हैं। जब पृथ्वी की ऊपरी परत (भू-पर्पटी) ऊपर उठने लगी और तापमान में गिरावट की वजह से समुद्र का पानी उतरने लगा तो ये टीले दिखाई देने लगे। इस तरह ब्रिटेन द्वीप चॉक की पर्वत श्रृंखला से युरोप से जुड़ गया। और लगभग साढ़े चार लाख वर्ष पूर्व हिमयुग के दौरान पानी और भी कम होता गया और इंग्लिश चैनल सूख-सी गई और बर्फीली ज़मीन पर झाड़ियां पनपने लगीं।

चॉक की पर्वत श्रृंखला और इंग्लिश चैनल कैसे बनी, इसके बारे में वर्तमान समझ यह है कि आइसबर्ग (हिमपर्वतों) के पिघलने के कारण उत्तरी सागर में विशाल तालाब बन गया होगा और चूने की दीवार ने पानी को दक्षिण की ओर, युरोप व ब्रिटेन के बीच पहुंचने से रोक दिया होगा। बर्फ के लगातार पिघलने और नदियों के बहाव के कारण पानी छलकने लगा होगा और दीवार टूट गई होगी। दीवार के टूटने से ढेर सारा पानी बहने लगा होगा, जिसे महाबाढ़ कहते हैं। गुप्ता व साथियों के उक्त शोध पत्र के अनुसार इंग्लिश चैनल की तलछटी में बनी कई घाटियां इस ओर इशारा करती हैं कि वे पानी के तेज़ बहाव के कारण बनी होंगी। शोध पत्र के अनुसार पूर्व में इन घाटियों की व्याख्या पिघलते हिमनदों से उत्पन्न पानी की वजह से आई ‘विनाशकारी बाढ़’ के परिणाम के आधार पर की गई थी।

इस बारे में कुछ अन्य मॉडल भी हैं जो कम विनाशकारी हैं और अचानक चूने की दीवार टूटने पर आधारित नहीं हैं। इन मॉडल्स में चूने की चट्टान के उत्तर में किसी झील बनने का विचार नहीं है। या इन मॉडल्स में निचले इलाके में बनी घाटियों की भी अन्य व्याख्याएं हैं। अलबत्ता, इन मॉडल का परीक्षण नहीं हो पाया है क्योंकि जिन जगहों पर चूने की पर्वत श्रृंखला फूटने की बात कही जा रही है, वहां के समुद्री पेंदे के बारे में भूगर्भीय जानकारी बहुत कम है।

इंग्लिश चैनल के समुद्री पेंदे के बारे में पहली महत्वपूर्ण जानकारी तब पता चली जब इंग्लैंड और फ्रांस के बीच समुद्र के अंदर से रेल सुरंग बनाने के लिए सर्वेक्षण किया जा रहा था। इंग्लैड और फ्रांस को जोड़ती हुई इंग्लिश चैनल में यह सुरंग समुद्र के पेंदे से 75 मीटर नीचे है। सर्वेक्षण के दौरान चट्टान में कई किलोमीटर लंबे-लंबे गड्ढों के बारे में पता चला। ये गड्ढे रेत और बजरी से भरे हुए थे। इन गड्ढों को फोसे डेनगीयर्ड (फोसे का मतलब होता है गहरा) नाम दिया गया। ये गड्ढे कैसे पड़े यह तो समझ में नहीं आया लेकिन सुरंग के मार्ग में बदलाव करना पड़ा। चट्टान में इन गड्ढों के होने के पीछे एक कारण जल प्रपातों को बताया गया। यह विचार लगभग सही था किंतु उस समय ज़्यादा प्रमाण या जानकारी ना होने की वजह से इस विचार को छोड़ दिया गया था।

 

जानकारी की राह

नेचर कम्युनिकेशंस में लेखकों ने अब किया यह है कि समुद्री पेंदे के मानचित्रों, भूभौतिकी सूचनाओं और चट्टानी धरातल के मानचित्र से प्राप्त सारी नवीनतम जानकारियों को एक साथ रखकर देखा है। ये जानकारियां समुद्र के पेंदे पर शॉक तरंगें भेजकर परावर्तित होकर आई तरंगों के आधार पर प्राप्त की गई हैं। शोधकर्ताओं ने इन सारी जानकारियों को जोड़कर एक व्याख्या विकसित करने का प्रयास किया है।

विभिन्न स्थानों पर समुद्र की गहराइयों का नक्शा समुद्र के पेंदे का सोनार सर्वेक्षण करके बनाया गया था। दूसरी ओर, धरातल की चट्टानों का नक्शा परावर्तित भूकंपीय तरंगों का उपयोग करके बनाया गया था। समुद्री पेंदे से होकर गुज़रने वाला कम्पन्न जब धरातल की चट्टानों से टकराता है तो आंशिक रूप से परावर्तित होता है। परावर्तित तरंगों की मदद से परावर्तन करने वाली सतह की संरचना बना ली जाती है।

समुद्र पेंदे की गहराई के मानचित्र से बहाव के पथ – लोबोर्ग चैनल  – पता चलता है। लोबोर्ग चैनल डॉवर जलडमरुमध्य से होती हुई घाटियों का एक नेटवर्क कुरेदते हुए आगे दक्षिण-पश्चिम में जाती है। लोबोर्ग चैनल और घाटियों के नेटवर्क से लगता है कि वे एक ही ड्रेनेज सिस्टम का हिस्सा हैं। इसके आगे डॉवर जलडमरुमध्य के बीच में 1 कि.मी. से 4 कि.मी. चौड़े रहस्यमय गड्ढे हैं। फोसे डेनगीयर्ड नामक इस समूह में सात मुख्य गड्ढे हैं जो लगभग 140 मीटर गहरे हैं और इनकी ढ़लान 15 डिग्री की है।

लंदन स्थित बैडफोर्ड कॉलेज के प्रोफेसर एलेक स्मिथ का कहना है कि इन गड्ढों में जमी तलछट की जमावट और संघटन से पता चलता है कि वे कई कि.मी. लंबे जलप्रपात के कारण बने होंगे। इतने गहरे गड्ढों का बनना पानी के बहाव या लहरों के कारण अपरदन से संभव नहीं है। शोध पत्र के अनुसार, इन गड्ढों की गहराई को देखते हुए लगता है कि जल-प्रपात काफी ऊंचाई से नीचे गिरता होगा।

तो तस्वीर कुछ इस तरह है – चूने की एक पर्वत श्रृंखला थी जो ब्रिाटेन को फ्रांस से जोड़ती थी। यह पर्वत श्रृंखला साइबेरिया के बर्फीले टुंड्रा प्रदेश की तरह दिखती थी जबकि आज यह काफी हरी-भरी है। यह एक ठंडी दुनिया थी जिसमें जगह-जगह ऊंचाई से डॉवर की सफेद चॉक चट्टान पर जलप्रपात गिरते थे। गिरते जलप्रपात की यह धारणा चट्टान में गड्ढों की व्याख्या कर देता है। मगर यह शायद पहला चरण मात्र था। इसके बाद दूसरा चरण आया जब दीवार टूटी और बाढ़ आई। इसके कारण उत्पन्न तेज़ बहाव के कारण घाटियों का नेटवर्क बना। ऐसा प्रतीत होता है कि शायद बर्फ की चादर का एक बड़ा हिस्सा टूटकर झील में गिर गया था जिसकी वजह से पानी में तेज़ हिलोरें उठी होगी जिससे चूने की पर्वत  श्रृंखला के ऊपर से पानी के गिरने का रास्ता बना होगा… भूकंप ने पर्वत श्रृंखला को कमज़ोर कर दिया… और वह टूट गई होगी।

डॉवर जलडमरुमध्य के बनने की बेहतर समझ से यह समझने में मदद मिली है कि उत्तर पश्चिमी युरोप से पिघला हुआ पानी उत्तरी अटलांटिक में कैसे पहुंचा होगा। शोधकर्ताओं के मुताबिक यह समझना भी मददगार होगा कि ब्रिटेन युरोप के मुख्य भूभाग से कब अलग हुआ और इंसानों ने यहां कब बसना शुरू किया। ((स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।

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प्लास्टिक का भविष्य: खराब और अच्छा – किम पिकरिंग

प्लास्टिक मुख्य रूप से दो कारणों से बदनाम है: अधिकांश प्लास्टिक पेट्रोलियम से बने होते हैं और अंतत: वे पर्यावरण में कचरे के रूप में बिखरे रहते हैं।

अलबत्ता, इन दोनों समस्याओं से बचा जा सकता है। जैवपदार्थ से निर्मित और विघटन योग्य सम्मिश्र पर ध्यान दिया जाए और साथसाथ रीसायक्लिंग पर ध्यान केंद्रित किया जाए तो प्रदूषण को कम किया जा सकता है और प्लास्टिक पर्यावरण में सचमुच सकारात्मक योगदान भी दे सकता है।

प्लास्टिक की बुराई

प्लास्टिक का टिकाऊपन उन्हें अत्यंत उपयोगी बनाता है। किंतु उनका यही गुण (टिकाऊपन) उन्हें धरती पर, और खासकर समुद्रों में, स्थायी (और तेज़ी से बढ़ता हुआ) बदनुमा दाग बना देता है।

यह काफी समय से पता रहा है कि थोक प्लास्टिक महासागरों को दूषित कर रहे हैं। समुद्री धाराओं के केंद्रित होने के कारण प्रशांत महासागर में कचरा एक जगह इकट्ठा होता गया है और एक तैरता प्लास्टिक द्वीप अस्तित्व में आया है ग्रेट पैसिफिक गार्बेज पैच। यह आज ग्रीनलैंड से भी बड़े क्षेत्र में फैला हुआ है। प्लास्टिक के बड़ेबड़े टुकड़े समुद्री जीवन और समुद्री पक्षियों के लिए खतरनाक हैं। प्लास्टिक के ऐसे टुकड़े स्तनधारी जीवों और पक्षियों के पेट और आंतों में जमा हो जाते हैं और उनका गला भी घोंट सकते हैं। 

हाल ही में, खाद्य श्रृंखला में सूक्ष्मप्लास्टिक्स की सर्वव्यापी उपस्थिति होने की जानकारी ने चिंता को जन्म दिया है। विश्लेषकों का कहना है कि 2050 तक समुद्र में उतना ही प्लास्टिक होगा जितनी मछलियां हैं। तो मछुआरे क्या मछली की बजाय प्लास्टिक पकड़ने समुद्र में जाएंगे?

इसके अलावा, प्लास्टिक उत्पादन वर्तमान में पेट्रोलियम पर निर्भर है। इसने स्वास्थ्य से जुड़े खतरों के मुद्दों को उठाया है, जो आम तौर पर पेट्रोलियम आधारित उत्पादों के उत्पादन, उपयोग और निपटान से जुड़े होते हैं।

भला प्लास्टिक

प्लास्टिक कई तरीकों से पर्यावरण में सकारात्मक योगदान कर सकते हैं:

भोजन की कम बर्बादी

सभी खाद्य पदार्थों के उत्पादन का एकचौथाई से एकतिहाई हिस्सा खराब होने के कारण बर्बाद हो जाता है। लेकिन प्लास्टिक पैकेजिंग के बिना, यह मात्रा और अधिक होगी और उसके कार्बन पदचिंह और ज़्यादा होंगे।

मैं कई रीसायक्लिंग समर्थकों को जानता हूं जो खराब भोजन को फेंकने से पहले सोचते नहीं हैं, जबकि इस भोजन की रोपाई, कृषि, कटाई और परिवहन में ऊर्जा खर्च हुई थी, और इसने ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में योगदान दिया होगा।

हल्काफुल्का परिवहन

परिवहन (कार, ट्रेन और विमान) में प्लास्टिक का उपयोग र्इंधन की खपत को कम करेगा। हवाई यातायात में पारंपरिक मिश्रधातुओं के विकल्प के रूप में (फाइबर से पुष्ट करके) प्लास्टिक के उपयोग ने पिछले कुछ दशकों में र्इंधन दक्षता में बहुत इज़ाफा किया है।

उदाहरण के लिए, बोइंग 787 ड्रीमलाइनर में फाइबरयुक्त प्लास्टिक के उपयोग से र्इंधन दक्षता साधारण पारिवारिक कार के तुल्य हो गई है (तुलना प्रति व्यक्ति तय की गई दूरी के आधार पर)। वैसे, हवाई यातायात की पसंदीदा सामग्री, कार्बन फाइबर, प्लास्टिक से ही बनाया जाता है।

पर्यावरण के लिए लाभ सहित प्लास्टिक के बारे में कई अच्छी चीज़ें हैं। किंतु क्या यह संभव है कि अच्छेअच्छे को ले लें और बुरे से बच जाएं?

भविष्य का प्लास्टिक

रासायनिक रूप से प्लास्टिक लंबी श्रृंखलाएं या बड़ी क्रॉसलिंक्ड संरचनाएं हैं जो आम तौर पर कार्बन परमाणुओं के ढ़ांचे से बनी होती हैं।

जैविक स्रोतों से प्राप्त प्लास्टिक का उपयोग हम लंबे समय से कर रहे हैं जैसे चमड़ा, पशुओं की आंतें और लकड़ी। प्लास्टिक के ये रूप जटिल रासायनिक संरचनाएं हैं जिन्हें फिलहाल केवल प्रकृति में ही बनाया जा सकता है।

कुछ शुरुआती कृत्रिम प्लास्टिक केसिन (डेयरी से प्राप्त) जैसे प्राकृतिक पदार्थों से बनाए गए थे। इनका उपयोग बटन जैसी साधारण वस्तुएं बनाने में होता था। पेट्रोलियम आधारित प्लास्टिक का विकास हमें तेज़ी से ऐसे पदार्थों से दूर ले गया।

वैसे, पिछले दो दशकों में, जैविक स्रोतों से प्राप्त प्लास्टिक उपलब्ध हो रहा है और पेट्रोलियमआधारित प्लास्टिक का स्थान ले रहा है। इनमें पॉलिलेक्टाइड (पीएलए) जैसे स्टार्चआधारित प्लास्टिक शामिल हैं, जो मकई स्टार्च, कसावा की जड़ों या गन्ने से बनाया जाता है और पेट्रोलियम आधारित प्लास्टिक के समान ही प्रोसेस किया जाता है। इस तरह के प्लास्टिक का फोम बनाया जा सकता है या पेय पदार्थ की बोतलें बनाने में इस्तेमाल किया जा सकता है।

पर्यावरण पर बोझ को कम करने की दिशा में प्लास्टिक रीसायक्लिंग एक और आवश्यक कदम है। हमें स्वीकार करना होगा कि कचरा लोग फैलाते हैं, न कि प्लास्टिक खुद। अपशिष्ट संग्रह के अधिक प्रयास किए जा सकते हैं और इनाम/दंड की नीति का उपयोग भी किया जा सकता है जिसमें कचरा फैलाने को निरुत्साहित करने की व्यवस्था हो और प्लास्टिक टैक्स भी लगाया जाए, और  रीसायकल्ड प्लास्टिक को इस टैक्स से मुक्त रखा जाए।

ऐसे उत्पादों के विकास को प्रोत्साहन देना भी ज़रूरी है जिनमें उत्पाद के पूरे जीवन चक्र को ध्यान में रखा जाए। उदाहरण के लिए, युरोप में कानूनन ऑटोमोटिव उद्योग के लिए यह अनिवार्य किया गया कि किसी भी कार का कम से कम 85 प्रतिशत हिस्सा रीसायकल किया जाए। इस कानून से उद्योग में उपयोग की जाने वाली सामग्रियों और डिज़ाइन पर नाटकीय प्रभाव पड़ा है।

अच्छे से अच्छे प्रयासों के बावजूद यह तो संभव नहीं होगा कि हम सारे प्लास्टिक को रीसायक्लिंग के लिए इकट्ठा कर लें। पर्यावरणीय क्षति को रोकने के लिए जैवविघटनशील  प्लास्टिक एक उपयोगी साधन हो सकता है। पीएलए (पॉलिलेक्टाइड) जैवविघटनशील है, हालांकि यह धीरेधीरे सड़ता है। अन्य विकल्प भी उपलब्ध हैं।

इससे जैवविघटनशीलता को नियंत्रित करने में अधिक शोध की आवश्यकता उजागर होती है, जिसमें विभिन्न अनुप्रयोगों को ध्यान में रखा जाए। जैवविघटनशील प्लास्टिक के जीवन के अंत में उससे निपटने के लिए आधारभूत संरचना की भी आवश्यकता है। जाहिर है, हम नहीं चाहेंगे कि हमारे विमान 20 साल की सेवा के दौरान जैवविघटित हो जाएं, लेकिन एक बार उपयोग में ली जाने वाली प्लास्टिक की बोतल को अवश्य जल्दी ही विघटित हो जाना चाहिए।

यह ज़रूरी नहीं कि हमारी पृथ्वी ज़हरीले कचरे का कूड़ादान बन जाए। अल्पावधि में, इसके लिए सरकार को जैविक स्रोतों से प्राप्त, रीसायकल करने योग्य और जैवविघटनशील प्लास्टिक को प्रोत्साहन प्रदान करना होगा ताकि वे पेट्रोलियम आधारित उत्पादों के साथ प्रतिस्पर्धा कर पाएं।

सुधार के कुछ संकेत नज़र आ रहे हैं: प्लास्टिक द्वारा होने वाली हानि के बारे में जागरूकता बढ़ रही है और उपभोक्ताओं में प्लास्टिक बैग के लिए भुगतान करने या प्रतिबंध को स्वीकार करने की तैयारी दिख रही है। हमें अपने पिछवाड़े में डंपिंग को रोकना होगा। याद रखें, पर्यावरण वह जगह है जहां हम रहते हैं। इसे नजरअंदाज करके हम संकट मोल ले रहे हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।

फोटो क्रेडिट : phys.org

लोग, पर्यावरण और तूतीकोरिन – जाहिद खान

मिलनाडु सरकार ने आखिरकार तूतीकोरिन (तूतूकुड़ी) स्थित बहुराष्ट्रीय कंपनी वेदांता स्टरलाइट के तांबा संयंत्र को स्थायी तौर पर बंद करने का आदेश जारी कर दिया है। यही नहीं तमिलनाडु उद्योग संवर्धन निगम ने भी इस संयंत्र के प्रस्तावित विस्तार के लिए ज़मीन के आवंटन को रद्द कर दिया है। इससे पहले मद्रास उच्च न्यायालय की मदुरै पीठ ने अपने एक अंतरिम आदेश में संयंत्र की विस्तार योजना पर रोक लगाने का निर्देश दिया था।

सरकार के इस फैसले के बाद निश्चित तौर पर स्थानीय लोगों ने राहत की सांस ली होगी, जिनकी जि़ंदगी इस ज़हरीले संयंत्र से नरक बनी हुई थी। अन्नाद्रमुक सरकार ने जो फैसला आज लिया है, यदि पहले ही ले लिया गया होता, तो इलाके के इतने सारे लोगों को पुलिस की गोलीबारी से अपनी जान न गंवाना पड़ती और हज़ारों लोग जानलेवा बीमारियों से ग्रसित न होते।

तूतीकोरिन में वेदांता समूह का स्टरलाइट तांबा संयंत्र पिछले 20 साल से चल रहा था। इस संयंत्र की सालाना तांबा उत्पादन की क्षमता 70 हज़ार से 1.70 लाख टन है, लेकिन यह सालाना 4 लाख टन तांबे का उत्पादन कर रहा था। गौरतलब है कि गुजरात, गोवा और महाराष्ट्र विवादास्पद स्टरलाइट संयंत्र को पर्यावरण को होने वाले खतरे के चलते नामंज़ूर कर चुके थे। अंतत: इसे तमिलनाडु में लगाया गया।

तूतीकोरिन हत्याकांड के बाद, कंपनी द्वारा की गई कई अनियमितताएं एक के बाद एक सामने आ रही हैं। मसलन, कंपनी ने पर्यावरणीय मंज़ूरी लेते वक्त, सरकार को पर्यावरण पर पड़ने वाले असर की गलत जानकारी दी थी। यही नहीं, नियमों के मुताबिक संयंत्र को पारिस्थितिक तौर पर संवेदनशील क्षेत्र के 25 किलोमीटर के दायरे में नहीं होना चाहिए। लेकिन यह संयंत्र ‘मुन्नार मरीन नेशनल पार्क’ के नज़दीक स्थित है। इसके अलावा कंपनी ने बिना स्थानीय लोगों को सुने गलत पर्यावरण प्रभाव आकलन रिपोर्ट पेश की।

जैसी कि आशंकाएं थीं, कुछ ही दिनों में संयंत्र का असर पर्यावरण और स्थानीय लोगों पर होना शुरू हो गया। साल 2008 में तिरुनेलवेली मेडिकल कॉलेज की ओर से जारी एक रिपोर्ट ‘हेल्थ स्टेटस एंड एपिडेमियोलॉजिकल स्टडी अराउंड 5 किलोमीटर रेडियस ऑफ स्टरलाइट इंडस्ट्रीज़ (इंडिया) लिमिटेड’ में इलाके के बाशिंदों में सांस की बीमारियों के बढ़ते मामलों के लिए इस तांबा संयंत्र को जि़म्मेदार ठहराया गया था। इस शोध में करीब 80 हज़ार से ज़्यादा लोग शामिल हुए थे। रिपोर्ट के मुताबिक तूतीकोरिन स्थित कुमारेदियापुरम और थेरकु वीरपनदीयापुरम के भूमिगत जल में लौह की मात्रा तय सरकारी मानक से 17 से 20 गुना ज़्यादा पाई गई, जो कि लोगों में कमज़ोरी के अलावा पेट व जोड़ों में दर्द की मुख्य वजह थी। यही नहीं, स्टरलाइट तांबा संयंत्र के आसपास के इलाकों में पूरे राज्य और गैर-औद्योगिक क्षेत्रों के मुकाबले 13.9 फीसदी अधिक सांस रोगियों की संख्या दर्ज की गई। दमा व ब्राॉन्काइटिस के मरीज़ राज्य औसत से दोगुना ज़्यादा मिले। साइनस और फैरिन्जाइटिस समेत आंख, नाक व गले की दीगर बीमारियों से जूझ रहे लोगों की तादाद भी काफी अधिक पाई गई।

इससे पहले 2005 में सुप्रीम कोर्ट की एक कमेटी ने भी अपनी जांच में पाया था कि संयंत्र ने ज़हरीले आर्सेनिक युक्त कचरे के निपटान के लिए कोई उचित व्यवस्था नहीं की है। प्लांट से निश्चित मात्रा से ज़्यादा सल्फर डाईऑक्साइड वातावरण में छोड़ी जा रही है जिसकी वजह से लोग गंभीर रूप से बीमार हो रहे हैं। शीर्ष अदालत ने आगे चलकर 2013 में कंपनी द्वारा पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने के चलते, उस पर 100 करोड़ रुपए का जुर्माना भी लगाया था। अलबत्ता, कंपनी ने अपने काम में कोई सुधार नहीं किया।

संयंत्र के खिलाफ जब लोगों का विरोध सामने आया, तो राज्य की तत्कालीन मुख्यमंत्री सुश्री जयललिता ने 2013 में संयंत्र को बंद करने का आदेश दे दिया। लेकिन कंपनी नेशनल ग्रीन ट्रायबूनल (एनजीटी) में चली गई, जिसने राज्य सरकार का फैसला उलट दिया। इस फैसले के खिलाफ राज्य सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में अपनी अर्जी लगाई हुई है, जो कि अभी विचाराधीन है। राज्य सरकार ने इसके अलावा पिछले साल पर्यावरण नियमों का पालन नहीं करने के लिए तमिलनाडु प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड से कंपनी को नवीनीकरण न देने की अपील भी की थी। इसमें तांबा कचरे के निपटान न करने की बात कही गई थी।

एक तरह से, कंपनी लगातार सरकारी आदेशों और स्थानीय जनता की शिकायतों की अनदेखी कर रही थी। तमाम निर्देशों के बाद भी कंपनी ने तांबे का मलबा नदी में डालना बंद नहीं किया था और ना ही वह प्लांट के आसपास के बोरवेलों में पानी की क्वॉलिटी की रिपोर्टें साझा कर रही थी। राज्य सरकार की सख्ती के बाद भी कंपनी के रवैये में कोई फर्क नहीं आया। वह पहले की तरह अपना काम बिना रोक-टोक करती रही।

सरकारी और अदालती कार्रवाइयों की कछुआ गति को देखते हुए स्थानीय निवासियों ने कंपनी के खिलाफ मोर्चा खोल लिया। लोगों का कहना था कि संयंत्र से होने वाले प्रदूषण की वजह से जि़ले के लोगों के लिए सेहत से जुड़ी गंभीर समस्याएं पैदा हो गई हैं। लिहाज़ा, संयंत्र को बंद किया जाए।

उनकी मांग पूरी तरह संवैधानिक थी। संविधान देश के हर नागरिक को जीने का अधिकार देता है। जीने का अधिकार, जिन कारणों से प्रभावित होता है, एक जि़म्मेदार सरकार को इनका निराकरण करना होता है। तमिलनाडु और केंद्र सरकारें लोगों की समस्याओं पर ध्यान देने की बजाय कंपनी को संरक्षण और सुरक्षा देती रहीं। आंदोलनकारियों का विरोध तब और भी बढ़ गया, जब साल की शुरुआत में इस प्लांट के विस्तार की योजना सामने आई। आंदोलनकारी पिछले 100 दिन से लगातार प्रदर्शन कर रहे थे। पुलिस ने प्रदर्शनकारियों पर अंधाधुंध गोलियां चला दीं जिसमें 10 से ज़्यादा लोगों की दर्दनाक मौत हो गई और 50 से ज़्यादा लोग ज़ख्मी हो गए।

जैसा कि इस तरह के हत्याकांडों के बाद होता है, तमिलनाडु के मुख्यमंत्री ए. पलनीसामी ने हत्याकांड की न्यायिक जांच के आदेश दे दिए हैं और दावा कर रहे हैं कि हत्याकांड के दोषी बख्शे नहीं जाएंगे। इतना सब कुछ हो जाने के बाद, केंद्र सरकार भी हरकत में आई है। गृह मंत्रालय ने तमिलनाडु सरकार से इस पूरी घटना की रिपोर्ट तलब की है। इसके अलावा राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने मीडिया रिपोर्टों का संज्ञान लेते हुए, राज्य के मुख्य सचिव और डीजीपी को नोटिस जारी कर इस सम्बंध में जवाब मांगा है।

राज्य सरकार ने घटना में मारे गए लोगों के परिजनों को दस-दस लाख रुपए, गंभीर रूप से घायल लोगों को तीन-तीन लाख और मामूली रूप से घायल लोगों को एक-एक लाख रुपए मुआवज़ा देने का ऐलान किया है। लेकिन हत्याकांड की न्यायिक जांच और मुआवज़े के ऐलान से ही तूतीकोरिन के लोगों को इंसाफ नहीं मिलेगा। इस बर्बर हत्याकांड के लिए जो जि़म्मेदार हैं, उन्हें तो सज़ा मिलनी ही चाहिए, साथ ही पर्यावरण नियमों की अनदेखी कर इलाके में भयंकर प्रदूषण फैलाने वाली वेदांता कंपनी पर भी कड़ी कार्यवाही हो। वेदांता और उसकी सहायक कंपनियां पहले भी देश के अलग-अलग हिस्सों में पर्यावरण नियमों को ताक में रखकर देश के बहुमूल्य प्राकृतिक संसाधनों का ज़बर्दस्त दोहन करती रही हैं और आज भी उसे ऐसा करने से कोई गुरेज नहीं। उद्योग-धंधों को बढ़ावा देना सरकारों का काम है, लेकिन इसके लिए कंपनियों द्वारा नियम-कानूनों की अनदेखी और सरकारों का इससे आंखें मूंदे रहना आपराधिक गलती है। पर्यावरण और प्रदूषण सम्बंधी कानूनों का यदि कहीं पर भी उल्लंघन हो रहा है, तो यह सरकार और सम्बंधित मंत्रालयों की जि़म्मेदारी बनती है कि वे इन कानूनों का सख्ती से पालन कराएं। यदि कंपनियां फिर भी न मानें, तो उन पर बिना किसी भेदभाव के कड़ी कार्रवाई हो। विकास हो, पर अवाम की जान और पर्यावरण की शर्त पर नहीं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।

फोटो क्रेडिट : Media Vigil