लोग, पर्यावरण और तूतीकोरिन – जाहिद खान

मिलनाडु सरकार ने आखिरकार तूतीकोरिन (तूतूकुड़ी) स्थित बहुराष्ट्रीय कंपनी वेदांता स्टरलाइट के तांबा संयंत्र को स्थायी तौर पर बंद करने का आदेश जारी कर दिया है। यही नहीं तमिलनाडु उद्योग संवर्धन निगम ने भी इस संयंत्र के प्रस्तावित विस्तार के लिए ज़मीन के आवंटन को रद्द कर दिया है। इससे पहले मद्रास उच्च न्यायालय की मदुरै पीठ ने अपने एक अंतरिम आदेश में संयंत्र की विस्तार योजना पर रोक लगाने का निर्देश दिया था।

सरकार के इस फैसले के बाद निश्चित तौर पर स्थानीय लोगों ने राहत की सांस ली होगी, जिनकी जि़ंदगी इस ज़हरीले संयंत्र से नरक बनी हुई थी। अन्नाद्रमुक सरकार ने जो फैसला आज लिया है, यदि पहले ही ले लिया गया होता, तो इलाके के इतने सारे लोगों को पुलिस की गोलीबारी से अपनी जान न गंवाना पड़ती और हज़ारों लोग जानलेवा बीमारियों से ग्रसित न होते।

तूतीकोरिन में वेदांता समूह का स्टरलाइट तांबा संयंत्र पिछले 20 साल से चल रहा था। इस संयंत्र की सालाना तांबा उत्पादन की क्षमता 70 हज़ार से 1.70 लाख टन है, लेकिन यह सालाना 4 लाख टन तांबे का उत्पादन कर रहा था। गौरतलब है कि गुजरात, गोवा और महाराष्ट्र विवादास्पद स्टरलाइट संयंत्र को पर्यावरण को होने वाले खतरे के चलते नामंज़ूर कर चुके थे। अंतत: इसे तमिलनाडु में लगाया गया।

तूतीकोरिन हत्याकांड के बाद, कंपनी द्वारा की गई कई अनियमितताएं एक के बाद एक सामने आ रही हैं। मसलन, कंपनी ने पर्यावरणीय मंज़ूरी लेते वक्त, सरकार को पर्यावरण पर पड़ने वाले असर की गलत जानकारी दी थी। यही नहीं, नियमों के मुताबिक संयंत्र को पारिस्थितिक तौर पर संवेदनशील क्षेत्र के 25 किलोमीटर के दायरे में नहीं होना चाहिए। लेकिन यह संयंत्र ‘मुन्नार मरीन नेशनल पार्क’ के नज़दीक स्थित है। इसके अलावा कंपनी ने बिना स्थानीय लोगों को सुने गलत पर्यावरण प्रभाव आकलन रिपोर्ट पेश की।

जैसी कि आशंकाएं थीं, कुछ ही दिनों में संयंत्र का असर पर्यावरण और स्थानीय लोगों पर होना शुरू हो गया। साल 2008 में तिरुनेलवेली मेडिकल कॉलेज की ओर से जारी एक रिपोर्ट ‘हेल्थ स्टेटस एंड एपिडेमियोलॉजिकल स्टडी अराउंड 5 किलोमीटर रेडियस ऑफ स्टरलाइट इंडस्ट्रीज़ (इंडिया) लिमिटेड’ में इलाके के बाशिंदों में सांस की बीमारियों के बढ़ते मामलों के लिए इस तांबा संयंत्र को जि़म्मेदार ठहराया गया था। इस शोध में करीब 80 हज़ार से ज़्यादा लोग शामिल हुए थे। रिपोर्ट के मुताबिक तूतीकोरिन स्थित कुमारेदियापुरम और थेरकु वीरपनदीयापुरम के भूमिगत जल में लौह की मात्रा तय सरकारी मानक से 17 से 20 गुना ज़्यादा पाई गई, जो कि लोगों में कमज़ोरी के अलावा पेट व जोड़ों में दर्द की मुख्य वजह थी। यही नहीं, स्टरलाइट तांबा संयंत्र के आसपास के इलाकों में पूरे राज्य और गैर-औद्योगिक क्षेत्रों के मुकाबले 13.9 फीसदी अधिक सांस रोगियों की संख्या दर्ज की गई। दमा व ब्राॉन्काइटिस के मरीज़ राज्य औसत से दोगुना ज़्यादा मिले। साइनस और फैरिन्जाइटिस समेत आंख, नाक व गले की दीगर बीमारियों से जूझ रहे लोगों की तादाद भी काफी अधिक पाई गई।

इससे पहले 2005 में सुप्रीम कोर्ट की एक कमेटी ने भी अपनी जांच में पाया था कि संयंत्र ने ज़हरीले आर्सेनिक युक्त कचरे के निपटान के लिए कोई उचित व्यवस्था नहीं की है। प्लांट से निश्चित मात्रा से ज़्यादा सल्फर डाईऑक्साइड वातावरण में छोड़ी जा रही है जिसकी वजह से लोग गंभीर रूप से बीमार हो रहे हैं। शीर्ष अदालत ने आगे चलकर 2013 में कंपनी द्वारा पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने के चलते, उस पर 100 करोड़ रुपए का जुर्माना भी लगाया था। अलबत्ता, कंपनी ने अपने काम में कोई सुधार नहीं किया।

संयंत्र के खिलाफ जब लोगों का विरोध सामने आया, तो राज्य की तत्कालीन मुख्यमंत्री सुश्री जयललिता ने 2013 में संयंत्र को बंद करने का आदेश दे दिया। लेकिन कंपनी नेशनल ग्रीन ट्रायबूनल (एनजीटी) में चली गई, जिसने राज्य सरकार का फैसला उलट दिया। इस फैसले के खिलाफ राज्य सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में अपनी अर्जी लगाई हुई है, जो कि अभी विचाराधीन है। राज्य सरकार ने इसके अलावा पिछले साल पर्यावरण नियमों का पालन नहीं करने के लिए तमिलनाडु प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड से कंपनी को नवीनीकरण न देने की अपील भी की थी। इसमें तांबा कचरे के निपटान न करने की बात कही गई थी।

एक तरह से, कंपनी लगातार सरकारी आदेशों और स्थानीय जनता की शिकायतों की अनदेखी कर रही थी। तमाम निर्देशों के बाद भी कंपनी ने तांबे का मलबा नदी में डालना बंद नहीं किया था और ना ही वह प्लांट के आसपास के बोरवेलों में पानी की क्वॉलिटी की रिपोर्टें साझा कर रही थी। राज्य सरकार की सख्ती के बाद भी कंपनी के रवैये में कोई फर्क नहीं आया। वह पहले की तरह अपना काम बिना रोक-टोक करती रही।

सरकारी और अदालती कार्रवाइयों की कछुआ गति को देखते हुए स्थानीय निवासियों ने कंपनी के खिलाफ मोर्चा खोल लिया। लोगों का कहना था कि संयंत्र से होने वाले प्रदूषण की वजह से जि़ले के लोगों के लिए सेहत से जुड़ी गंभीर समस्याएं पैदा हो गई हैं। लिहाज़ा, संयंत्र को बंद किया जाए।

उनकी मांग पूरी तरह संवैधानिक थी। संविधान देश के हर नागरिक को जीने का अधिकार देता है। जीने का अधिकार, जिन कारणों से प्रभावित होता है, एक जि़म्मेदार सरकार को इनका निराकरण करना होता है। तमिलनाडु और केंद्र सरकारें लोगों की समस्याओं पर ध्यान देने की बजाय कंपनी को संरक्षण और सुरक्षा देती रहीं। आंदोलनकारियों का विरोध तब और भी बढ़ गया, जब साल की शुरुआत में इस प्लांट के विस्तार की योजना सामने आई। आंदोलनकारी पिछले 100 दिन से लगातार प्रदर्शन कर रहे थे। पुलिस ने प्रदर्शनकारियों पर अंधाधुंध गोलियां चला दीं जिसमें 10 से ज़्यादा लोगों की दर्दनाक मौत हो गई और 50 से ज़्यादा लोग ज़ख्मी हो गए।

जैसा कि इस तरह के हत्याकांडों के बाद होता है, तमिलनाडु के मुख्यमंत्री ए. पलनीसामी ने हत्याकांड की न्यायिक जांच के आदेश दे दिए हैं और दावा कर रहे हैं कि हत्याकांड के दोषी बख्शे नहीं जाएंगे। इतना सब कुछ हो जाने के बाद, केंद्र सरकार भी हरकत में आई है। गृह मंत्रालय ने तमिलनाडु सरकार से इस पूरी घटना की रिपोर्ट तलब की है। इसके अलावा राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने मीडिया रिपोर्टों का संज्ञान लेते हुए, राज्य के मुख्य सचिव और डीजीपी को नोटिस जारी कर इस सम्बंध में जवाब मांगा है।

राज्य सरकार ने घटना में मारे गए लोगों के परिजनों को दस-दस लाख रुपए, गंभीर रूप से घायल लोगों को तीन-तीन लाख और मामूली रूप से घायल लोगों को एक-एक लाख रुपए मुआवज़ा देने का ऐलान किया है। लेकिन हत्याकांड की न्यायिक जांच और मुआवज़े के ऐलान से ही तूतीकोरिन के लोगों को इंसाफ नहीं मिलेगा। इस बर्बर हत्याकांड के लिए जो जि़म्मेदार हैं, उन्हें तो सज़ा मिलनी ही चाहिए, साथ ही पर्यावरण नियमों की अनदेखी कर इलाके में भयंकर प्रदूषण फैलाने वाली वेदांता कंपनी पर भी कड़ी कार्यवाही हो। वेदांता और उसकी सहायक कंपनियां पहले भी देश के अलग-अलग हिस्सों में पर्यावरण नियमों को ताक में रखकर देश के बहुमूल्य प्राकृतिक संसाधनों का ज़बर्दस्त दोहन करती रही हैं और आज भी उसे ऐसा करने से कोई गुरेज नहीं। उद्योग-धंधों को बढ़ावा देना सरकारों का काम है, लेकिन इसके लिए कंपनियों द्वारा नियम-कानूनों की अनदेखी और सरकारों का इससे आंखें मूंदे रहना आपराधिक गलती है। पर्यावरण और प्रदूषण सम्बंधी कानूनों का यदि कहीं पर भी उल्लंघन हो रहा है, तो यह सरकार और सम्बंधित मंत्रालयों की जि़म्मेदारी बनती है कि वे इन कानूनों का सख्ती से पालन कराएं। यदि कंपनियां फिर भी न मानें, तो उन पर बिना किसी भेदभाव के कड़ी कार्रवाई हो। विकास हो, पर अवाम की जान और पर्यावरण की शर्त पर नहीं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।

फोटो क्रेडिट : Media Vigil

 

इटली में तीन हज़ार वर्ष पूर्व वाइन उद्योग – एस. अनंतनारायण

हा जा रहा है कि वाइन बनाने की शुरुआत संगठित खेती से पहले हो गई थी। यह संभव भी लगता है क्योंकि कुछ किस्मों के फल भंडारण के दौरान सड़ जाते हैं या पिलपिला जाते हैं तो उनमें किण्वन की प्रक्रिया होने लगती है, जिसके परिणामस्वरूप वाइन बनती है। किंतु अनाजों से वाइन या बीयर बनाना अलग बात है। इसके लिए काफी मात्रा में अनाज चाहिए और एक पूरी प्रक्रिया चाहिए। फलों के सड़ने-गलने से संयोगवश वाइन बनती भी है तो इतनी-सी वाइन से एक पूरा उद्योग पनपना संभव नहीं है। वह तो तभी होगा जब उत्पादन काफी मात्रा में हो और इसे संग्रहित करके बाद में उपयोग के लिए रखा जा सके।

दक्षिण फ्लोरिडा और इटली स्थित विश्वविद्यालयों व संस्थानों के शोधकर्ताओं ने माइक्रोकेमिकल जर्नल में रिपोर्ट किया है कि साक्ष्यों से पता चला है कि पहली सहत्राब्दी ईसा पूर्व से ही इटली में शराब (वाइन) का उत्पादन और संग्रहण होता रहा है। सिसली के दक्षिण-पश्चिमी तट पर चूने के पहाड़ मॉन्टे क्रोनियो की खुदाई में सिरेमिक (चीनी मिट्टी) पात्रों के हिस्से मिले हैं। इन पात्रों पर जैविक पदार्थ के अवशेष मिले हैं। शोधकर्ताओं ने पुरातात्विक अन्वेषण में प्रयोगशाला विधियों के उपयोग का एक नया दृष्टिकोण दिया है जिससे प्राचीन सभ्यताओं की पाक कला और आहार सम्बंधी व्यवहार को समझने में मदद मिल सकती है ।

निश्चित तौर पर प्राचीन काल में शराब उत्पादन के और भी प्रमाण मिलते हैं। मसलन फ्रांस स्थित रॉकप्रट्यूस में 6ठी शताब्दी ईसा पूर्व बीयर बनाई जाती थी। इससे भी कई वर्ष पूर्व, लगभग 3000 ईसा पूर्व, चीन के शान्क्सी ज़िले में बीयर उत्पादन के साक्ष्य मिले हैं। 2011 में ह्यूमन बायोलॉजी नामक जर्नल में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार सीएनआरएस, मॉन्टपेलियर के वैज्ञानिकों को सेल्टिक मठ के पुरातात्विक स्थल की खुदाई में बीयर बनाने में प्रयुक्त कच्चा माल और उपकरण मिले हैं। एक निवास स्थान के फर्श से अधजले जौं के दाने मिले हैं जिससे पता चलता है कि ये बीयर बनाते हुए दानों को सुखाने की प्रक्रिया में भट्टी में अधजले छूट गए होंगे।

उसी जगह पर ऐसे बर्तन मिले हैं जिनमें जौं को अंकुरित करने से पहले भिगोया जाता होगा। साथ ही भट्टी के अवशेष मिले हैं जो अंकुरित जौं सुखाने के काम आती होगी। वहां चक्की के पाट, भट्टी और संग्रहण के पात्रों की मौजूदगी से लगता है कि यहां बीयर बनाई जाती थी जो उनकी परंपरा का हिस्सा होगी। साथ ही साथ, अन्य समुदाय के लोगों के साथ व्यापार की वस्तु और संचार का ज़रिया होगी।

चीन में येलो रिवर घाटी में मिले अवशेष और भी प्राचीन हैं। माना जाता है कि चीनी सभ्यता की शुरुआत येलो रिवर के किनारे ही हुई थी। इस घाटी में कई पुरातात्विक खोजें हुई हैं। 2013 में पीएनएएस में प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक दो गड्ढों से कुछ कलाकृतियां मिली हैं, जिनकी कार्बन डेटिंग से पता चला है कि ये 3400 से 2900 ईसा पूर्व की हैं। कलाकृतियों में चौड़े मुंह वाली कीप सही-सलामत मिली है। इसके अलावा चौड़े मुंह वाले घड़े, सकरे मुंह वाले लंबे घड़े (एम्फोरा) और चूल्हे के हिस्से मिले हैं। इन्हें देख कर लगता है कि ये विशेष रूप से मदिरा बनाने, छानने और उसके भंडारण के लिए और गर्म करने एवं तापमान नियंत्रण के लिए उपयोग किए जाते होंगे।

इन बर्तनों पर जो अवशेष मिले हैं वे मंड के कण हैं, जो अनाजों के कारण पड़े होंगे। साथ ही फाइटोलिथ जैसे खनिजों के कण भी इन बर्तनों पर मिले हैं जो आम तौर पर विघटित पौधों के अवशषों में पाए जाते हैं। मंड की जांच से पता चला है कि यह मोटे अनाज, कुछ किस्म के गेहूं, जौं या यैम जैसे कुछ कंदों से आया होगा। ये इस क्षेत्र में पाए भी जाते हैं। प्राप्त मंड के अवशेष एक तो शक्तिशाली, टिकाऊ और खुशबूदार बीयर बनाने की विधि का संकेत देते हैं वहीं मंड के कणों में क्षति के प्रमाण भी मिले हैं। इस तरह की क्षति अनाज को अंकुरित करने, भिगोने, सुखाने की प्रक्रिया में हुई होगी। अंकुरित अनाज को गर्म हवा से सुखाने (माल्टिंग) के दौरान एंज़ाइम मंड को शर्करा में तोड़ते हैं जिसके कारण मंडयुक्त अनाज में छेद हो जाते हैं। फिर जब कचूमर बनाने के लिए अनाज के दानों को गर्म पानी में डालते हैं तो वे फूलते हैं और उनका आकार बिगड़ जाता है।

पीएनएएस पेपर के मुताबिक “इस प्रकार, पुरातात्विक खोज में मिले विकृत आकार के मंडयुक्त अनाज को देखकर कहा जा सकता है कि ये अनाज मदिरा बनाने की प्रक्रिया के अवशेष हैं।” अवशेष के रासायनिक विश्लेषण में कैल्शियम ऑक्ज़लेट के अवशेष भी दिखे। कैल्शियम ऑक्ज़लेट बीयर बनाने के पात्र में बीयरस्टोन के रूप में नीचे बैठ जाता है। यह बीयर बनाने की प्रक्रिया का द्योतक है। अवशेषों में कैल्शियम ऑक्ज़लेट की उपस्थिति से इस बात की पुष्टि होती है कि प्रागैतिहासिक पात्रों का उपयोग बीयर बनाने में किया जाता था।

इटली के सिसली के दो प्रागैतिहासिक स्थलों से प्राप्त बर्तनों पर कार्बनिक अवशेष पाए गए थे। खुदाई में मिले इन बर्तनों के अध्ययन के दौरान कार्बनिक अवशेषों की विस्तृत प्रयोगशाला जांच की गई। यह अध्ययन माइक्रोकेमिकल जर्नल में प्रकाशित हुआ है। अध्ययन का उद्देश्य “कुछ विशेष आकार के सिरेमिक पात्रों के उपयोग को समझना और प्राचीन आहार सम्बंधी आदतों के बारे में कुछ अनुमान लगाना” था। अध्ययन में मध्य कांस्य युग (1550-1250 ईसा पूर्व) से प्रारंभिक लौह युग (1050-950 ईसा पूर्व) तक के अवशेष शामिल थे।

शोधकर्ताओं के समूह ने उपलब्ध पारंपरिक तरीकों और नवीनतम तरीकों का उपयोग करके पुरातात्विक सामग्री का विस्तृत विश्लेषण किया। उन्होंने नए सिरे से कार्बन डेटिंग, पशु कंकाल के अवशेषों के संरचनात्मक अध्ययन और सिरेमिक पात्रों और कार्बनिक अवशेषों के रासायनिक और अन्य विश्लेषण किए। बाद में अपना अध्ययन उन्होंने प्रारंभिक लौह युग के खाना पकाने के मर्तबान तक सीमित रखा। इसके लिए उन्होंने एनएमआर, इंफ्रारेड वर्णक्रम तथा स्कैनिंग इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोप जैसी कई आधुनिक विधियों का उपयोग किया।

इन विधियों से प्राचीन लोगों के भोजन और आहार सम्बंधी आदतों के बारे में काफी जानकारी पता लगी है। लेकिन इस अध्ययन से एक जो महत्वपूर्ण चीज़ मिली वह है टारटरिक एसिड। मॉन्टे क्रोनियो की खुदाई में पाए गए पात्रों में से एक पात्र में टारटेरिक एसिड और इसके सोडियम लवण के निशान मिले हैं। टारटेरिक एसिड वाइन का एक महत्वपूर्ण घटक है और वाइन की रासायनिक स्थिरता सुनिश्चित करने में भूमिका निभाता है। टारटरिक एसिड ज़्यादातर फलों और पौधों में नहीं पाया जाता लेकिन अंगूर में विशेष रूप से पाया जाता है। निश्चित रूप इसी कारण से वाइन अक्सर अंगूर से ही बनाई जाती है।

मॉन्टे क्रोनियो के पात्रों पर अवशेष में टारटेरिक एसिड और इसके लवण की उपस्थिति इस बात का संकेत देते हैं कि लगभग 1000 ईसा पूर्व के सिरेमिक पात्र अंगूर से बनी वाइन के भंडारण के काम आते थे। इटली आज दुनिया का सबसे बड़ा वाइन निर्यातक है। लगता है, उन्होंने इसकी शुरुआत काफी पहले कर ली थी। (स्रोत फीचर्स)

नोट : यह लेख वेबसाइट पर 7 जून 2018 तक ही उपलब्ध रहेगा|