उन्नीसवीं सदी की शुरुआत में, जोसेफ
ग्रिनेल और उनके दल ने कैलिफोर्निया के जंगलों, पहाड़ों
और रेगिस्तानों का और वहां के जंतुओं का बारीकी से सर्वेक्षण किया था।
कैलिफोर्निया तट से उन्होंने पॉकेट चूहों को पकड़ा और गिद्धों की उड़ान पर नज़र रखी; मोजेव रेगिस्तान में अमेरिकी छोटे बाज़ (खेरमुतिया) को कीटों पर झपट्टा मारते
देखा और चट्टानों के बीच छिपे हुए कैक्टस चूहों को पकड़ा। इसके अलावा भी उन्होंने
वहां से कई नमूने-जानकारी एकत्रित कीं, विस्तृत नोट्स बनाए, तस्वीरें खीचीं और इन जगहों का नक्शा तैयार किया। इस तरह उनके द्वारा एकत्रित
“ग्रिनेल-युग” का फील्ड डैटा काफी विस्तृत है।
और अब,
आधुनिक सर्वेक्षणों के डैटा की तुलना ग्रिनेल-युग के डैटा
से करके पारिस्थितिकीविदों ने बताया है कि जलवायु परिवर्तन सभी जीवों को समान रूप
से प्रभावित नहीं कर रहा है। वैज्ञानिक मानते आए हैं कि तापमान में वृद्धि
पक्षियों और स्तनधारियों को एक जैसा प्रभावित करती है क्योंकि दोनों को ही शरीर का
तापमान बनाए रखना होता है। लेकिन लगता है कि ऐसा नहीं है।
पिछली एक शताब्दी में मोजेव के तापमान में लगभग दो डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी
हुई है जिसके कारण वहां के पक्षियों की कुल संख्या और उनकी प्रजातियों की संख्या
में नाटकीय कमी आई है। लेकिन इन्हीं हालात में छोटे स्तनधारी जीव (जैसे पॉकेट
चूहे) अपने आपको बनाए रखने में सफल रहे हैं। शोधकर्ताओं ने साइंस पत्रिका
में बताया है कि ये चूहे निशाचर जीवन शैली और गर्मी से बचाव के लिए सुरंगों में
रहने की आदत के कारण मुश्किल परिस्थितियों में भी जीवित रह पाए हैं।
ग्रिनेल ने जिन जीवों का अध्ययन किया था, वे अब
तुलनात्मक रूप से गर्म और शुष्क जलवायु में रहने को मजबूर हैं। पूर्व में प्रोसिडिंग्स
ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ में प्रकाशित इन स्थलों के पुनर्सर्वेक्षण में
पता चला था कि प्रत्येक स्थान पर रेगिस्तानी पक्षियों (जैसे अमरीकी छोटे बाज़ या
पहाड़ी बटेर) की लगभग 40 प्रतिशत प्रजातियां विलुप्त हो गर्इं हैं। और अधिकतर
स्थानों पर शेष प्रजातियों की सदस्य संख्या भी बहुत कम रह गई है। लेकिन आयोवा
स्टेट युनिवर्सिटी के फिज़ियोलॉजिकल इकॉलॉजिस्ट एरिक रिडेल का अध्ययन चूहों, माइस,
चिपमंक्स और अन्य छोटे स्तनधारियों के संदर्भ में थोड़ी आशा
जगाता है।
उन्होंने अपने अध्ययन में पाया है कि ग्रिनेल के सर्वेक्षण के बाद से अब
स्तनधारियों की तीन प्रजातियों के जीवों संख्या में कमी आई है, 27 प्रजातियां स्थिर है, और चार प्रजातियों की संख्या
में वृद्धि हुई है। यह जानने के लिए कि बदलती जलवायु में पक्षी इतने अधिक
असुरक्षित क्यों हैं, रिडेल ने रेगिस्तानी पक्षियों की 50
प्रजातियों और 24 विभिन्न छोटे स्तनधारी जीवों के संग्रहालय में रखे नमूनों के फर
और पिच्छों में ऊष्मा स्थानांतरण और प्रकाश अवशोषण को मापा। फिर, इस तरह प्राप्त डैटा और सम्बंधित प्रजातियों के व्यवहार और आवास का डैटा
उन्होंने एक कंप्यूटर प्रोग्राम में डाला, जो यह
बताता था कि कोई जानवर कितनी गर्मी सहन कर सकता है, और
विभिन्न तापमान वाली परिस्थितियों में कोई जानवर खुद को कितना ठंडा रख सकता है।
जैसे पक्षी रक्त नलिकाओं को फैला कर, पैरों या मुंह के ज़रिए
पानी को वाष्पित कर अपने शरीर का तापमान नियंत्रित रखते हैं। पक्षियों में खुद को
ठंडा बनाए रखने की लागत स्तनधारियों की तुलना में तीन गुना अधिक होती है। ऐसा
इसलिए है क्योंकि अधिकांश छोटे स्तनधारी दिन के सबसे गर्म समय में ज़मीन के नीचे
सुरंगों या बिलों में वक्त बिताते हैं। इस तरह के व्यवहार से वुडरैट जैसे स्तनधारी
जीव को भी जलवायु परिवर्तन का सामना करने में मदद मिली है, जबकि
वुडरैट रेगिस्तान में जीने के लिए अनुकूलित भी नहीं हैं। केवल वे स्तनधारी जो बहुत
गहरे की बजाय ज़मीन में थोड़ा ऊपर ही अपना बिल बनाते हैं, वे ही
बढ़ते तापमान का सामना करने में असफल हैं, जैसे कैक्टस माउस।
इसके विपरीत कई पक्षी, जैसे अमरीकी छोटा बाज़ और
प्रैयरी बाज़ पर बढ़ते तापमान का बुरा असर है। यह मॉडल स्पष्ट करता है कि क्यों
पक्षी और स्तनधारी जलवायु परिवर्तन पर अलग-अलग प्रतिक्रिया देते हैं।
परिणाम सुझाते हैं कि जलवायु परिवर्तन का रेगिस्तानी पारिस्थितिकी तंत्र पर भी
उसी तरह का खतरा है जैसा कि तेज़ी से गर्म होते आर्कटिक के पारिस्थितिकी तंत्र पर
है।
भविष्य में स्तनधारियों को भी खतरा हो सकता है। मिट्टी की पतली परत केवल दो प्रतिशत रेगिस्तान में है, जिसके अधिक शुष्क होने की संभावना है। इसलिए अब विविध सूक्ष्म आवास वाले क्षेत्रों को संरक्षित करना चाहिए। ऐसे मॉडल संरक्षण की योजना बनाने में मदद कर सकते हैं। जो प्रजातियां जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों से लड़ने में सक्षम हैं उनके संरक्षण की बजाय विलुप्त होती प्रजातियों को संरक्षित कर धन और समय दोनों की बचत होगी। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_image_-1280w__no_aspect/public/ca_0205NID_CactusMouse_online.jpg?itok=zZ82OF22
माइक्रोप्लास्टिक प्लास्टिक के पांच मिलीमीटर से छोटे कण होते
हैं। ये व्यावसायिक प्लास्टिक उत्पादन के दौरान और बड़े प्लास्टिक के टूटने से
उत्पन्न होते हैं। रोज़मर्रा के जीवन में प्लास्टिक के अधिक इस्तेमाल के कारण
माइक्रोप्लास्टिक ने पूरी पृथ्वी को अपनी चपेट में ले लिया है। प्रदूषक के रूप में
माइक्रोप्लास्टिक पर्यावरण, मानव और पशु स्वास्थ्य के लिए
अत्यंत हानिकारक हो सकता है।
हाल ही में वैज्ञानिकों ने गर्भवती महिलाओं के गर्भनाल में माइक्रोप्लास्टिक्स
पाया है। यह बेहद चिंता का विषय है। नए शोध में गर्भनाल के नमूनों में अनेक प्रकार
के सिंथेटिक पदार्थ भी पाए गए हैं। इटली में हुए एक अध्ययन में महिलाओं की प्रसूति
में कोई जटिलता नहीं पता चली है और इसलिए
छोटे प्लास्टिक के कणों का शरीर पर प्रभाव निश्चित तौर पर अभी तक ज्ञात नहीं हो
पाया है। हालांकि, विशेषज्ञों का मानना है कि प्लास्टिक के
रसायन गर्भस्थ शिशु की प्रतिरक्षा प्रणाली को नुकसान अवश्य पहुंचा सकते हैं।
रोम के फेटबेनफ्रेटेली के प्रसूति और स्त्री रोग विभाग के शोध प्रमुख एंटोनियो
रागुसा तब आश्चर्यचकित हो गए जब उन्होंने बच्चों के जन्म के बाद माताओं द्वारा दान
में दिए गए छह में से चार गर्भनाल में 12 माइक्रोप्लास्टिक टुकड़े पाए। अनुमान है
कि माओं के शरीर में माइक्रोप्लास्टिक भोजन या सांस के साथ प्रवेश कर गए होंगे।
अध्ययन के लिए प्रत्येक गर्भनाल से केवल तीन प्रतिशत ऊतक का नमूना लिया गया था, और उसमें भी इतनी अधिक मात्रा में माइक्रोप्लास्टिक टुकड़ों का मिलना बेहद
गंभीर मामला है। शोध पत्र में कहा गया है कि सभी प्लास्टिक के कण रंगीन थे। तीन
नमूनों को पॉलीप्रोपायलीन के रूप में पहचाना गया, जबकि
अन्य नौ अन्य नमूनों के केवल रंग की पहचान ही संभव हो पाई।
एनवायरनमेंट इंटरनेशनल नामक जर्नल में प्रकाशित एक
शोध में शोधकर्ताओं ने बताया है कि पिछली सदी में ही प्लास्टिक का वैश्विक उत्पादन
प्रति वर्ष 32 करोड़ टन तक पहुंच गया था। उत्पादन में हुई 40 प्रतिशत की वृद्धि का
उपयोग एकल-उपयोग पैकेजिंग के रूप में किया जाता है। उपयोग हो जाने पर इसे कचरे के
रूप में फेंक दिया जाता है।
गर्भनाल गर्भस्थ शिशु से अपशिष्ट पदार्थ को निकालने के साथ-साथ बच्चे को ऑक्सीजन और पोषण भी प्रदान करता है। 10 माइक्रॉन (0.01 मि.मी.) के माइक्रोप्लास्टिक रक्त प्रवाह में पहुंचकर मां से गर्भस्थ शिशु में भी पहुंच जाते हैं। शरीर में पहुंचते ही ये माइक्रोप्लास्टिक्स शिशु के शरीर में प्रतिरक्षा तंत्र को सक्रिय करके प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया उत्तेजित करते हैं। माइक्रोप्लास्टिक्स पर्यावरणीय प्रदूषकों और प्लास्टिक योजक सहित अन्य रसायनों के वाहक के रूप में भी कार्य कर सकता है, जिससे शरीर को अत्यधिक हानि होती है। माइक्रोप्लास्टिक्स गर्भनाल के भ्रूण और मातृ दोनों हिस्सों में पाए गए थे। ये कण शिशुओं के शरीर में प्रवेश कर गए होंगे, हालांकि वैज्ञानिक शिशु के अंदर इनका पता लगाने में असमर्थ थे। भ्रूण पर माइक्रोप्लास्टिक्स के संभावित प्रभाव में भ्रूण की सामान्य वृद्धि कम हो जाना है। वैज्ञानिकों ने कहा है कि अध्ययन में शामिल दो अन्य महिलाओं के गर्भनाल में माइक्रोप्लास्टिक कणों का न पाया जाना बेहतर आहार, शरीर की कार्यिकी या बेहतर जीवन शैली का परिणाम हो सकता है। (स्रोत फीचर्स)
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पिछले साल 27 सितंबर को छत्तीसगढ़ के रायगढ़ ज़िले के तमनार में
अडानी समूह द्वारा आयोजित एक पर्यावरणीय जन सुनवाई के विरोध में सुनवाई स्थल के
बाहर एक हज़ार से भी ज़्यादा लोगों ने प्रदर्शन किया। अडानी समूह को महाजेनको कोयला
खदान के गारे सेक्टर-2 में कोयला खनन करने की मंज़ूरी (माइन डेवलपमेंट ऑर्डर) मिल
गई है। उक्त जन सुनवाई जबरन आयोजित की जा रही थी जबकि स्थानीय लोग पर्यावरण
कानूनों का घोर उल्लंघन कर किए जा रहे खनन कार्यों से होने वाले खतरनाक प्रदूषण का
विरोध पिछले कुछ सालों से कर रहे हैं। खनन कार्यों के खिलाफ क्षेत्र की ग्राम
सभाओं द्वारा कई प्रस्ताव पारित किए गए हैं, रैलियां
निकाली गर्इं हैं व विरोध प्रदर्शन भी हुए हैं।
स्थानीय समुदायों के जीवन, आजीविका और उनके स्वास्थ्य पर
पड़ने वाले प्रभावों को अधिकारियों के संज्ञान में लाया गया, लेकिन इसका कोई फायदा नहीं हुआ। इस इलाके के वायु गुणवत्ता परीक्षण में PM-2.5 (2.5 माइक्रॉन से
छोटे कण) के महीन कणों का स्तर 200-400 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर के बीच पाया
गया है जो कि स्वीकृत मानक स्तर (60 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर) से कई गुना
ज़्यादा है। इसके अलावा कई अध्ययनों में पाया गया है कि इन इलाकों की हवा, पानी और मिट्टी में भारी धातुएं और कैंसरजनक पदार्थ उपस्थित हैं। इसके साथ ही, यहां के तेज़ी से गिरते भूजल स्तर और वन आच्छादन में आ रही कमी और लोगों के
स्वास्थ्य में तेज़ी से हो रही गिरावट के कारण लोग सविनय अवज्ञा को बाध्य हुए हैं।
इसमें समुदाय के कई लोगों को झूठे आरोप और नाजायज़ कारावास झेलना पड़ा है।
समुदाय के लोगों ने न्याय के लिए कानूनी लड़ाई भी लड़ी। इस लड़ाई में उन्होंने
पर्यावरण और स्वास्थ्य क्षति, और खनन कंपनियों द्वारा
पर्यावरण कानूनों के घोर उल्लंघन के आधार पर राहत की मांग की।
मार्च 2020 में, नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) ने डुकालू
राम और अन्य बनाम यूनियन ऑफ इंडिया के मामले में पर्यावरण को क्षति पहुंचाने के
लिए जिंदल स्टील एंड पॉवर लिमिटेड और साउथ ईस्टर्न कोलफील्ड्स लिमिटेड पर 160 करोड़
रुपए का जुर्माना लगाया था। यह केस छह साल चला था।
एक अन्य मामले – शिवपाल भगत व अन्य बनाम यूनियन ऑफ इंडिया – में एनजीटी द्वारा
नियुक्त समिति ने जनवरी 2020 में इस क्षेत्र का दौरा किया था। एनजीटी को सौंपी
अपनी अंतिम रिपोर्ट में समिति ने कहा था –
“…कोयला भंडारों की उपस्थिति के चलते पिछले दो-तीन दशकों में इस क्षेत्र में
कई कोयला खदानें और कोयला आधारित ताप बिजली घर लगाए गए हैं। कई पर्यावरणीय नियम
मौजूद होने के बावजूद भी इन गतिविधियों ने कई तरह का भारी प्रदूषण फैलाया है, जो अब भी जारी है।”
समिति ने यह भी माना कि खनन कार्यों के कारण यहां की हवा, पानी,
मिट्टी पर ज़हरीले प्रभाव पड़े हैं और इसके कारण भूजल स्तर
में भारी गिरावट आई है, वन आच्छादन कम हुआ है और कृषि को नुकसान
पहुंचा है। इतने बड़े पैमाने पर और इतने भीषण असर को देखते हुए समिति ने कहा कि वह
यह निष्कर्ष निकालने को मजबूर है कि
“ऊपर दिए गए साक्ष्यों के आधार पर समिति की राय है कि तमनार-घरघोड़ा ब्लॉक का
क्षेत्र अपनी पर्यावरणीय वहन क्षमता को पार करने के करीब है। अलबत्ता, एक विस्तृत और व्यापक पर्यावरणीय भार वहन क्षमता अध्ययन के ज़रिए वर्तमान
पर्यावरणीय भार की सटीक सीमा और भावी खनन और औद्योगिक गतिविधियों के संभावित
प्रभावों का आकलन किए जाने की आवश्यकता है, जो
किसी प्रतिष्ठित पर्यावरण अनुसंधान संस्थान या इसी तरह की संस्थाओं के किसी संघ
द्वारा 24 महीनों के भीतर किया जाए।”
एनजीटी ने समिति की सिफारिशों को स्वीकार किया और 27 फरवरी 2020 के अपने आदेश
में कहा:
“जैसा कि रिपोर्ट बताती है, गंभीर खामियां पाई गई हैं और
पर्यावरण को और अधिक नुकसान पहुंचने की संभावना भी देखी गई है; हम मानते हैं कि ‘ऐहतियात’ और ‘निर्वहनीय विकास’ सिद्धांतों के लिए आवश्यक है
कि गहन मूल्यांकन और स्वास्थ्य देखभाल प्रबंधन सहित उपचारात्मक उपायों का तंत्र
स्थापित होने के बाद ही किसी नई परियोजना को शुरू करने या परियोजना का विस्तार
करने की अनुमति दी जाए।”
हालांकि ये महत्वपूर्ण कानूनी जीत हैं जो समुदाय में एक उम्मीद भी भरती हैं, लेकिन राज्य प्रशासन की निष्क्रियता दर्शाती है कि सिर्फ (सकारात्मक) आदेश
पर्याप्त नहीं हैं। असल जंग तो इन आदेशों को लागू करवाने और कानूनों का पालन
करवाने की है।
कोविड-19 की आड़ में कंपनियों ने एनजीटी द्वारा निर्देशित सुधारात्मक कार्यों
को करने में ढिलाई बरती है, लेकिन ज़रूरी सेवाओं के नाम पर
कंपनियों की खनन गतिविधियां बाकायदा जारी रहीं। एनजीटी ने निचले इलाकों में
उड़न-राख की अवैध डंपिंग पर पूर्ण प्रतिबंध लगाया था और कंपनियों को मौजूदा सारे
राख-डंप को हटाने के आदेश दिए थे। लेकिन कोविड-19 के चलते लगाई गई तालाबंदी के
बहाने यह कार्य भी नहीं किया गया। उड़न-राख जनित प्रदूषण ऊपरी और निचले श्वसन तंत्र
के कई रोगों के लिए ज़िम्मेदार है, और इसका पीएम-2.5 कणों के
प्रदूषण में महत्वपूर्ण योगदान है। अध्ययनों में वायु प्रदूषण बढ़ने पर कोविड-19 से
होने वाली मौतों की संख्या में वृद्धि देखी गई है।
कोविड-19 और वायु प्रदूषण के बीच इस सम्बंध को देखते हुए, उड़न-राख डंप हटा दिए जाने चाहिए थे और प्रभावित क्षेत्रों में युद्ध स्तर पर
उपचारात्मक कार्रवाइयां की जानी चाहिए थीं। लेकिन दुर्भाग्य है कि प्रशासन इस तरह
काम नहीं कर रहा। अब समुदायों को अपना इंतज़ाम खुद करने के लिए छोड़ दिया गया है, उन्हें अदालत के आदेशों और भूमि कानूनों को लागू करवाने के तरीके खोजने हैं, वह भी तब जब कोविड-19 के कारण लगाए प्रतिबंधों ने नागरिक स्वतंत्रता पर रोक
लगा दी है।
मामले को और भी बदतर करने के लिए सितंबर 2020 में भारत सरकार ने नई कोयला
खदानें लगाने के लिए नीलामी की घोषणा की है। इसमें रायगढ़ क्षेत्र में तीन नई
खदानें लगनी हैं – दोलेसारा, जारेकेला और झारपलम-तंगारघाट।
ये प्रस्तावित इलाके ऐसे क्षेत्र हैं जो मौजूदा खनन कार्यों और अन्य गतिविधियों के
कारण प्रदूषण से तबाह हो चुके हैं, और अब कुछ ही हिस्सों में घने
जंगल बचे हैं जो इस प्रस्ताव के कारण खतरे में हैं।
12 आदिवासी सरपंचों ने हाल ही में पर्यावरण मंत्री को लिखकर पूछा है कि जब
अध्ययनों का डैटा और स्वयं राज्य की रिपोर्ट इस क्षेत्र में खनन कार्यों पर रोक की
सिफारिश करती है तो वाणिज्यिक खनन सूची में उनके क्षेत्र में नई खदानें लगाना
क्यों शामिल किया गया है। गांवों के मुखियाओं ने भी इस क्षेत्र में नई खदानें
लगाने पर रोक और एनजीटी के निर्देशानुसार प्रदूषित भूमि के उपचार और बहाली की मांग
की है।
रायगढ़ का अनुभव दर्शाता है कि पर्यावरणीय न्याय और अर्थव्यवस्था की लड़ाई में जीत अर्थव्यवस्था की ही होती है। न्यायिक और प्रशासनिक प्रणालियों ने खनन कार्यों से होने वाली गंभीर मानवीय क्षति को स्वीकार तो किया है लेकिन इस मामले में उनकी निष्क्रियता यह साबित करती है कि पर्यावरणीय न्याय सैद्धांतिक रूप से तो मौजूद है लेकिन व्यवहारिक रूप में नहीं, और इस न्याय के लिए लड़ने वालों को बहुत कठिन लड़ाई लड़नी पड़ती है। लेकिन कोयला खदानों के आसपास रहने वाले आदिवासी समुदायों के लोगों के पास कोई सिद्धांत नहीं है, उनके पास तो केवल जीवंत अनुभव हैं। और स्वच्छ पर्यावरण के लिए उनकी लड़ाई, ताकि आने वाली पीढ़ियों का स्वास्थ्य सुरक्षित रहे, भी जीवित रहने के लिए एक संघर्ष है। यह संघर्ष इस जवाब में बहुत अच्छे से झलकता है: जब एक अधिकारी ने पूछा कि आप यह संघर्ष क्यों कर रहे हैं तो एक महिला का जवाब था, “लड़बो नहीं तो मरबो” – “अगर हम लड़ेंगे नहीं तो हम मर जाएंगे!” यह अस्तित्व के लिए संघर्ष है। (स्रोत फीचर्स)
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वर्ष 2020 में महामारी के कारण लॉकडाउन से ग्रीनहाउस गैसों के
उत्सर्जन में कमी की संभावना जताई गई थी। लेकिन हाल ही में नासा, यूके मौसम विभाग और अन्य संस्थानों की संयुक्त रिपोर्ट के अनुसार पृथ्वी का तापमान
पूर्व-औद्योगिक काल की तुलना में लगभग 1.25 डिग्री सेल्सियस अधिक है।
विभिन्न स्रोतों से प्राप्त आंकड़ों के आधार पर 2020 का औसत वैश्विक सतही तापमान
वर्ष 2016 के बराबर है। गौरतलब है कि वर्ष 2016 में एल-नीनो प्रभाव के कारण तापमान
में वृद्धि हुई थी। एल-नीनो प्रभाव पूर्वी प्रशांत महासागर में गहरे ठंडे पानी के प्रभाव
को रोक देता है जिससे वैश्विक तापमान में वृद्धि होती है। दूसरी ओर, पिछले वर्ष प्रशांत महासागर में ला-नीना के कारण शीतलन हुआ था लेकिन आश्चर्य की
बात है कि इसके बावजूद औसत वैश्विक तापमान बढ़ा।
गत 6 वर्ष पिछले कई सालों में सबसे गर्म रहे हैं लेकिन वायुमंडल का गर्म होना अनियमित
रहा है क्योंकि इसकी प्रकृति अव्यवस्थित है। देखा जाए तो महासागरों के गर्म होने का
रुझान ज़्यादा नियमित रहा है, जो वैश्विक तापमान की 90 प्रतिशत
से अधिक गर्मी को अवशोषित करते हैं। इस मामले में भी 2020 एक रिकॉर्ड वर्ष साबित हुआ।
एडवांसेज़ इन एटमॉस्फेरिक साइंस में वैज्ञानिकों ने बताया है कि महासागरों की ऊपरी सतह
में 2019 की अपेक्षा 2020 में 20 ज़ीटाजूल्स (1021 जूल्स) अधिक ऊष्मा थी।
यह औसत वार्षिक वृद्धि से दोगुनी थी। चाइनीज़ एकेडमी ऑफ साइंस के जलवायु वैज्ञानिक लीजिंग
चेंग के अनुसार उपोष्णकटिबंधीय अटलांटिक महासागर विशेष रूप से गर्म रहा जिसके चलते
काफी अधिक तूफान आए।
ऊष्मा का मापन 4000 रोबोट की सहायता से महासागरों में 2000 मीटर की गहराई तक किया
गया। इससे पता चला कि गर्मी समुद्रों की गहराई तक पहुंच रही है और ध्रुवों तक फैल रही
है। उत्तरी प्रशांत में अत्यधिक ग्रीष्म लहर से समुद्री जीवन काफी प्रभावित हुआ। पहली
बार अटलांटिक के गर्म पानी को आर्कटिक महासागर की ओर बढ़ते देखा गया जिसने बर्फ को रिकॉर्ड
निचले स्तर तक पिघलाया है। महासागरों के बढ़ते तापमान और बर्फ के पिघलने से समुद्र तल
में सालाना 4.8 मिलीमीटर की वृद्धि हो रही है और वृद्धि की दर बढ़ भी रही है।
भूमि पर तो हालत और खराब रही। बर्कले अर्थ द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार
2020 का तापमान पूर्व-औद्योगिक स्तर की तुलना में 1.96 डिग्री अधिक रहा। यह एशिया, युरोप और दक्षिण अमेरिका का अब तक का सबसे गर्म वर्ष रहा। रूस भी पिछले रिकॉर्ड
को तोड़ते हुए 1.2 डिग्री सेल्सियस अधिक गर्म रहा जबकि साइबेरिया का इलाका पूर्व-औद्योगिक
काल की तुलना में 7 डिग्री सेल्सियस अधिक गर्म रहा। इस बढ़े हुए तापमान के कारण व्यापक
स्तर पर आग और पर्माफ्रॉस्ट के पिघलने से इमारतों के गिरने और तेल रिसाव के मामले भी
सामने आए।
2020 की शुरुआत में ऑस्ट्रेलिया में भी रिकॉर्ड-तोड़ गर्मी और सूखे से व्यापक स्तर
पर आग के मामले सामने आए। इस आग से दक्षिण-पूर्वी ऑस्ट्रेलिया के लगभग एक-चौथाई जंगल
जल गए और 3000 घर तबाह हुए। इसी बीच अमेरिका में पहले से ही काफी गर्म दक्षिण पश्चिमी
भाग भी काफी तेज़ी से गर्म हुआ। एरिज़ोना राज्य स्थित फीनिक्स शहर में औसत 36 डिग्री
सेल्सियस तापमान दर्ज किया गया। यहां साल 2016 के बाद से गर्मी के कारण होने वाली मौतों
ने एक नया रिकॉर्ड बनाया है। एरिज़ोना स्टेट युनिवर्सिटी के जलवायु विज्ञानी डेविड होंडुला
के अनुसार वर्ष 2020 में गर्मी से 300 लोगों की मौत हुई जो पिछले वर्ष की तुलना में
50 प्रतिशत अधिक है।
हालांकि,
कोविड-19 जनित आर्थिक मंदी से कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन में
लगभग 7 प्रतिशत की कमी देखी गई लेकिन, हमारे वातावरण में बढ़ी हुई
कार्बन डाईऑक्साइड काफी समय से मौजूद है और पूर्व के उत्सर्जनों का भी काफी प्रभाव
मौजूद है। आने वाले समय में उत्सर्जन में कमी की संभावना काफी कम है। यूके मौसम विभाग
का अनुमान है कि मई में वायुमंडल में कार्बन डाईऑक्साइड का स्तर कई हफ्तों तक 417 पीपीएम
रहेगा जो पूर्व-औद्योगिक स्तर से 50 प्रतिशत अधिक है। जलवायु विज्ञानियों के अनुसार
उत्सर्जन में कमी लाने के लिए देशों को सख्त कदम उठाने होंगे।
यदि वैश्विक तापमान में वृद्धि इसी तरह से जारी रहती है तो इसे पेरिस जलवायु समझौते में निर्धारित लक्ष्यों (2035 और 2065 तक क्रमश: 1.5 डिग्री सेल्सियस और 2 डिग्री सेल्सियस वृद्धि) तक सीमित रखना काफी मुश्किल हो जाएगा। पिछले कई दशकों से तापमान में प्रति दशक 0.19 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि देखी गई है। वैज्ञानिकों का मानना है कि इसके तेज़ी से बढ़ने की आशंका है। सवाल यह है कि क्या हम इस पर काबू पा सकेंगे? (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_image_-1280w__no_aspect/public/ca_0122NID_Siberia_Wildfire_online.jpg?itok=y56X4-ub
एक साल पहले तक बढ़ते पर्यावरण संकट को लेकर लोगों में काफी
चिंता थी;
ज़रूरी कदम उठाने सम्बंधी युवा आंदोलन काफी ज़ोर-शोर से हो
रहे थे। लेकिन कोविड-19 ने जलवायु संकट पर उठाए जा रहे कदमों और जागरूकता से लोगों
का ध्यान हटा दिया। हकीकत में कोविड-19 और पर्यावरणीय संकट में कुछ समानताएं हैं।
दोनों ही संकट मानव गतिविधि के चलते उत्पन्न हुए हैं, और
दोनों का आना अनपेक्षित नहीं था। इन दोनों ही संकटों को दूर करने या उनका सामना
करने में देरी से कदम उठाए गए, अपर्याप्त कदम या गलत कदम
उठाए गए,
जिसके कारण जीवन की अनावश्यक हानि हुई। अभी भी हमारे पास
मौका है कि हम सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा को बेहतर करें, एक
टिकाऊ आर्थिक भविष्य बनाएं और पृथ्वी पर बचे-खुचे प्राकृतिक संसाधनों और जैव
विविधता की रक्षा करें।
यह तो जानी-मानी बात है कि स्वास्थ्य और जलवायु परिवर्तन एक दूसरे से जुड़े हुए
हैं। पिछले पांच वर्षों से स्वास्थ्य और जलवायु परिवर्तन के लैंसेट काउंटडाउन ने
जलवायु परिवर्तन के कारण स्वास्थ्य पर होने वाले प्रभावों को मापने वाले 40 से
अधिक संकेतकों का विवरण दिया है और उन पर नज़र रखी हुई है। साल 2020 में प्रकाशित
लैंसेट की रिपोर्ट में बढ़ती गर्मी से सम्बंधित मृत्यु दर, प्रवास
और लोगों का विस्थापन, शहरी हरित क्षेत्र में कमी, कम कार्बन आहार (यानी जिस भोजन के सेवन से पर्यावरण को कम से कम नुकसान हो) और
अत्यधिक तापमान के कारण श्रम क्षमता के नुकसान की आर्थिक लागत जैसे नए संकेतक भी
शामिल किए गए। जितने अधिक संकेतक होंगे जलवायु परिवर्तन के स्वास्थ्य और स्वास्थ्य
तंत्र पर पड़ने वाले प्रभावों को समझने में उतने ही मददगार होंगे। जैसे वायु
प्रदूषण के कारण होने वाला दमा, वैश्विक खाद्य सुरक्षा की
चुनौतियां और कृषि पैदावार में कमी के कारण अल्प आहार, हरित
क्षेत्र में कमी से बढ़ती मानसिक स्वास्थ्य सम्बंधी तकलीफों का जोखिम और 65 वर्ष से
अधिक आयु के लोगों में अधिक गर्मी का असर, जैसी
समस्याओं को ठीक करने का सामथ्र्य स्वास्थ्य प्रणालियों की क्षमता पर निर्भर करता
है,
और यह क्षमता स्वास्थ्य सेवाओं के लचीलेपन पर निर्भर करती
है। इन दो संकटों के कारण हमारी स्वास्थ्य व्यवस्था पहले ही काफी दबाव में है।
लैंसेट काउंटडाउन में राष्ट्र-स्तरीय नीतियां दर्शाने वाले क्षेत्रीय डैटा को
भी शामिल किया है। इस संदर्भ में लैंसेट काउंटडाउन की दी लैंसेट पब्लिक हेल्थ में
एशिया की पहली क्षेत्रीय रिपोर्ट प्रकाशित हुई है, और
ऑस्ट्रेलियाई एमजेए-लैंसेट काउंटडाउन की तीसरी वार्षिक रिपोर्ट प्रकाशित हुई है। विश्व
में सर्वाधिक कार्बन उत्सर्जक और सर्वाधिक आबादी वाले देश के रूप में चीन की
जलवायु परिवर्तन पर प्रतिक्रिया, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय, दोनों स्तरों पर बहुत मायने रखती है। रिपोर्ट बताती है कि बढ़ते तापमान के कारण
बढ़ते स्वास्थ्य जोखिमों से निपटने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर कदम उठाए जाने की
ज़रूरत है। हालांकि 23 संकेतक बताते हैं कि कई क्षेत्रों में प्रभावशाली सुधार किए
गए हैं,
और जलवायु परिवर्तन से निपटने के प्रयास कर सार्वजनिक
स्वास्थ्य में सुधार करने की पहल भी देखी गई है। लेकिन इस पर चीन की प्रतिक्रिया
अभी भी ढीली है।
जलवायु परिवर्तन को बढ़ाने वाले कारकों पर अंकुश लगाकर ज़ूनोटिक (जंतु-जनित)
रोगों के उभरने और दोबारा उभरने को रोका जा सकता है। अधिकाधिक खेती, जानवरों के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार और वन्य जीवों के प्राकृतिक आवासों में
बढ़ता मानव दखल ज़ूनोटिक रोगों से मानव संपर्क और उनके फैलने की संभावना को बढ़ाते
हैं। विदेशी यात्राओं में वृद्धि और शहरों में बढ़ती आबादी के कारण ज़ूनोटिक रोग
अधिक तेज़ी से फैलते हैं। जलवायु परिवर्तन के पर्यावरणीय स्वास्थ्य निर्धारकों के
रूप में इन कारकों की भी महत्वपूर्ण भूमिका है।
कोविड-19 और जलवायु संकट, दोनों इस तथ्य को और भी
नुमाया करते हैं कि समाज के सबसे अधिक गरीब और हाशियाकृत लोग, जैसे प्रवासी और शरणार्थी लोग, हमेशा ही सर्वाधिक असुरक्षित
होते हैं और इसके प्रभावों की सबसे अधिक मार झेलते हैं। जलवायु परिवर्तन के संदर्भ
में देखें तो इस संकट से सर्वाधिक प्रभावित लोगों का योगदान इस संकट को बनाने में
सबसे कम है। इस वर्ष की काउंटडाउन रिपोर्ट के अनुसार कोई भी देश इस बढ़ती असमानता
के कारण होने वाली जीवन की क्षति को बचाने के लिए प्रतिबद्ध दिखाई नहीं पड़ता।
कोविड-19 के प्रभावों से निपटना अब राष्ट्रों की वरीयता बन गया है और जलवायु संकट के मुद्दों से उनका ध्यान हट गया है। जिस तत्परता से राष्ट्रीय सरकारें कोविड-19 से हुई क्षति के लिए आर्थिक सुधार की योजनाएं बना रहीं हैं और उन पर अमल कर रही हैं, उतनी ही तत्परता से जलवायु परिवर्तन और सामाजिक समानता के मुद्दों पर काम करने की ज़रूरत है। अब इन दोनों तरह के संकटों से एक साथ निपटना लाज़मी और अनिवार्य है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://dialogochino.net/wp-content/uploads/2020/04/GEF-Blue-Forests-1440×720.jpg
पिछले कई दशकों में हमने विकास के लिए जो कदम उठाए हैं, उसने हमें पर्यावरण संकट के दौर में लाकर खड़ा कर दिया है। पर्यावरण संकट के इस दौर में देश के पर्यावरण विनियमन में पिछले कुछ सालों में कई बड़े बदलाव किए गए हैं और पर्यावरण प्रभाव आकलन (EIA) के नियमों में भी बदलाव की कोशिश जारी है। इन बदलावों से भारत की जैव-विविधता पर क्या असर होगा। इस तरह के मसलों पर रोशनी डालता प्रो. माधव गाडगिल का यह व्याख्यान।
पर्यावरणीय मसलों पर बहस तो कई सालों से छिड़ी हुई है लेकिन
पिछले एक साल से पर्यावरण के संदर्भ में तीन विषयों पर काफी गंभीर बहस चल रही है।
पहला विषय है पर्यावरण प्रभाव आकलन अधिसूचना यानी पर्यावरण पर होने वाले असर का
मूल्यांकन करने वाले मौजूदा नियमों में बदलाव करने के लिए जारी की गई अधिसूचना।
दूसरा,
राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण (NGT) में जैव-विविधता कानून के
संदर्भ में दायर की गई याचिका। जैव विविधता कानून 2004 में लागू हुआ था। इस कानून
के मुताबिक हर स्थानीय निकाय (पंचायत, नगर पालिका, नगर निगम) में एक जैव-विविधता प्रबंधन समिति स्थापित की जानी चाहिए। समिति के
सदस्य वहां के स्थानीय लोग होंगे जो अपने क्षेत्र की पर्यावरण सम्बंधी समस्याओं और
पर्यावरणीय स्थिति का अध्ययन करके एक दस्तावेज़ तैयार करेंगे। इसे पीपुल्स
बायोडायवर्सिटी रजिस्टर (लोक जैव विविधता पंजी) कहा गया। लेकिन वर्ष 2004 से 2020
तक,
यानी 16 सालों की अवधि में इस पर कोई कार्रवाई नहीं की गई।
इस कार्य को संपन्न कराने के अधिकार वन विभाग को दे दिए गए।
यह हमारा दुर्भाग्य ही है कि वन विभाग स्थानीय लोगों के खिलाफ है।
दस्तावेज़ीकरण जैसे कामों में स्थानीय लोगों को शामिल करने का मतलब है कि लोगों को
इससे कुछ अधिकार प्राप्त हो जाएंगे, और विभाग यही तो नहीं चाहता।
इसलिए 16 वर्षों तक इस पर कोई कार्रवाई नहीं हुई।
इस सम्बंध में एक याचिका दायर की गई, लेकिन जब यह याचिका
दायर हुई तो एक अजीब ही स्थिति बन गई। वन विभाग द्वारा पीपुल्स बायोडायवर्सिटी
रजिस्टर तैयार करने के लिए बाहर की कई एजेंसियों को ठेका दे दिया गया। ठेका
एजेंसियों ने गांव वालों की जानकारी के बिना खुद ही ये दस्तावेज़ तैयार कर दिए और
वन विभाग को सौंप दिए। वन विभाग ने इसे NGT को सौंप दिया और कहा कि हमने काम पूरा
कर दिया। यह बिलकुल भी ठीक नहीं हुआ और इसी पर बहस चल रही है। यह भी जैव-विविधता
से ही जुड़ा हुआ विषय है।
और बहस का तीसरा मुद्दा है कि कुछ दिनों पहले पता चला कि पूरे देश के कृषि
महाविद्यालयों को कहा गया था कि वे इस बात का अध्ययन करके बताएं कि उनके अपने
क्षेत्र के खाद्य पदार्थों, पेय पदार्थों या अन्य चीज़ों
में कीटनाशक कितनी मात्रा में उपस्थित हैं। जब महाविद्यालय यह काम कर रहे थे तो
उनको आदेश दिया गया कि इस जांच के जो भी निष्कर्ष मिलें उन्हें लोगों के सामने
बिलकुल भी ज़ाहिर न होने दें, इन्हें गोपनीय रखा जाए। यानी
लोगों को यह पता नहीं चलना चाहिए कि हमारे खाद्य और पेय पदार्थों में बड़े पैमाने
पर कीटनाशक पहुंच गए हैं।
इस देश को विषयुक्त बनाया जा रहा है और क्यों बनाया जा रहा है। विषयुक्त देश
बनाए रखे जाने का भी इस अधिसूचना में समर्थन किया गया; इसके
समर्थन में कहा गया कि यह सब भारत के संरक्षण के लिए बहुत ज़रूरी है। लेकिन पूरा
देश विषाक्त करके भारत का संरक्षण किस तरह होगा, यह
समझना बहुत मुश्किल है। इससे तो ऐसा ही लगता है कि जो भी प्रदूषण फैलाने वाले
उद्यम हैं उनको बेधड़क प्रदूषण फैलाने की छूट देकर देश को खत्म करने की अनुमति दे
दी गई है। एक तो पहले से ही देश का पर्यावरण संरक्षण पर नियंत्रण बहुत ही कमज़ोर था, अब तो इसे पूरी तरह से ध्वस्त करने की दिशा में कदम उठाए जा रहे हैं।
इस तरह की शासन प्रणाली को हमें चुनौती ज़रूर देना चाहिए। हमें यह समझ लेना
चाहिए कि चुनौती देने के लिए हमारे हाथ में अब कई बहुत शक्तिशाली साधन आ गए हैं।
ये शक्तिशाली साधन हैं पूरे विश्व में तेज़ी से बदलती ज्ञान प्रणाली।
पहले बहुत थोड़े लोगों के हाथों में ज्ञान का एकाधिकार था। लेकिन अब यह
एकाधिकार खत्म हो रहा है और आम व्यक्ति तक ज्ञान पहुंच रहा है। यह एक बहुत ही
क्रांतिकारी और आशाजनक बदलाव है। एकलव्य द्वारा प्रकाशित मेरी किताब जीवन की बहार
में अंत में एक विवेचना इसी विषय पर की गई है कि पृथ्वी पर जीवन की इस चार अरब साल
की अवधि में जो प्रगति हुई है और हो रही है, वह है
कि ज्ञान को अपनाने या हासिल करने के लिए जीवधारी अधिक से अधिक समर्थ बनते गए हैं।
इस अवधि में हुए जो मुख्य बड़े परिवर्तन बताए गए हैं, उसमें
सबसे आखिरी नौवां चरण है मनुष्य की सांकेतिक भाषा का निर्माण। इस सांकेतिक भाषा के
आधार पर हम एक समझ और ज्ञान प्राप्त करने लगे। ज्ञान ऐसी अजब चीज़ है कि जो बांटने
से कम नहीं होती,
बल्कि बढ़ती है।
लेकिन ज्ञान अर्जन की जो भी प्रवृत्तियां थीं, इन
प्रवृत्तियों का अंतिम स्वरूप क्या होगा? इस विषय में मैनार्ड
स्मिथ ने बहुत ही अच्छी विवेचना करते हुए बताया है कि दसवां परिवर्तन होगा कि विश्व
में सभी लोगों के हाथ में सारा ज्ञान आ जाएगा। कोई भी किसी तरह के ज्ञान से वंचित
नहीं होगा और ज्ञान पर किसी का एकाधिकार नहीं रहेगा। लेकिन अफसोस कि हमारी शासन
प्रणाली ज्ञान पर केवल चंद लोगों को एकाधिकार देकर बाकी लोगों को ज्ञान से वंचित
करने का प्रयत्न कर रही है।
लेकिन अब हम शासन के इस प्रयत्न को बहुत ही अच्छे-से चुनौती दे सकते हैं। जिस
तरह आम व्यक्ति के हाथ तक ज्ञान पहुंच रहा है उसकी मदद लेकर। इसका एक बहुत ही
अच्छा उदाहरण देखने में आया था। स्थानीय लोगों को शामिल करके पीपुल्स
बायोडायवर्सिटी रजिस्टर बनाने का जो काम किया जाना था, उस पर
शासन (वन विभाग) का कहना है कि स्थानीय लोग ये दस्तावेज़ बनाने में सक्षम में नहीं
हैं,
उनको अपने आसपास मिलने वाली वनस्पतियों, पेड़-पौधों,
पशु-पक्षियों, कीटों वगैरह के नाम तक
पता नहीं होते। इनके बारे में जानकारी का आधार इनके वैज्ञानिक नाम ही हैं। जब वे
ये नहीं जानते,
तो दस्तावेज़ कैसे बना पाएंगे। इसीलिए, उनका तर्क था कि हमने बाहर के विशेषज्ञों को इन्हें तैयार करने का ठेका दे
दिया।
मगर इस तर्क के विपरीत एक बहुत ही उत्साहवर्धक उदाहरण मेरे देखने में आया।
महाराष्ट्र के गढ़चिरौली ज़िले में कई गांवों को सामूहिक वनाधिकार प्राप्त हुए।
सामूहिक वनाधिकार प्राप्त होने के बाद वहां रहने वाले आदिवासी (अधिकतर गौंड) लोगों
के लिए पहली बार ऐसा हुआ कि उनका घर के बाहर कदम रखना अपराध नहीं कहलाया। इसके
पहले तक उनका घर से बाहर कदम रखना भी अपराध होता था क्योंकि जहां वे रहते हैं वह
रिज़र्व फॉरेस्ट है, और रिज़र्व फॉरेस्ट में किसी का भी प्रवेश
अपराध है। इसके पीछे वन विभाग की लोगों से रिश्वत लेने की मंशा थी। जीवनयापन के
लिए उन लोगों को बाहर निकलने के बदले वन विभाग को विश्वत देनी पड़ती थी। आज भी यह
स्थिति कई जगह बनी हुई है। लेकिन सौभाग्य से गढ़चिरौली में अच्छा नेतृत्व मिला और
वहां के डिप्टी कलेक्टर द्वारा वनाधिकार कानून ठीक से लागू किया गया; इससे ग्यारह सौ गांवों को वन संसाधन और वन क्षेत्र पर अधिकार मिल गए। इस
अधिकार के आधार पर वे वहां की गैर-काष्ठ वनोपज जैसे बांस, तेंदूपत्ता, औषधियों,
वनस्पतियों वगैरह का दोहन कर सकते हैं और उनको बेच सकते
हैं। इस तरह वे लोग सक्षम बन रहे हैं।
इन गांवों के युवक-युवतियों को सामूहिक वन संसाधन का ठीक से प्रबंधन करने में
समर्थ बनाने के लिए उनको प्रशिक्षण भी दिया गया। इसमें हमने उनके गांव में ही उन्हें
पांच महीनों का विस्तृत प्रशिक्षण दिया। कई युवक-युवतियों ने प्रशिक्षण लिया। हमने
पाया कि इन युवक-युवतियों को उनके आसपास के पर्यावरण के बारे में बहुत ही गहरा
ज्ञान था क्योंकि वे बचपन से ही वे वहां रह रहे थे और ठेकेदार के लिए तेंदूपत्ता, बांस आदि वनोपज एकत्र करके देते थे। इस प्रशिक्षण के बाद उनमें और भी जानने का
कौतूहल जागा।
प्रशिक्षण में हमने युवक-युवतियों को स्मार्ट फोन के उपयोग के बारे में भी
सिखाया था। कम से कम महाराष्ट्र के सारे गांवों में परिवार में एक स्मार्टफोन तो
पहुंच गया है;
इंटरनेट यदि गांव में ना उपलब्ध हो तो भी नज़दीकी बाज़ार वाले
नगर में होता है। गांव वाले अक्सर बाज़ार के लिए जाते हैं तो वहां इंटरनेट उपयोग कर
पाते हैं। काफी समय तक स्मार्टफोन को भारतीय भाषाओं में उपयोग करने में मुश्किल
होती थी। हमारे यहां की कंपनियां और शासन की संस्थाओं (जैसे सी-डैक) को भारतीय
भाषाओं में इसका उपयोग करने की प्रणाली बनाने का काम दिया गया था जो उन्होंने अब
तक ठीक से नहीं किया है। दक्षिण कोरिया की कंपनी सैमसंग चाहती थी कि अधिक से अधिक
लोग स्मार्टफोन का उपयोग करें ताकि मांग बढ़े। इसलिए सैमसंग कंपनी ने भारतीय भाषाओं
में उपयोग की सुविधा उपलब्ध कराई, जो भारत इतने सालों में नहीं
कर सका था। और अब गूगल में भी सारी भाषाओं में उपयोग सुविधा उपलब्ध है। गूगल कंपनी
ने दो साल पहले एक सर्वे किया था जिसमें उन्होंने पाया था कि भारत की अस्सी
प्रतिशत आबादी अपनी भाषा में स्मार्टफोन का उपयोग कर रही है, केवल 20 प्रतिशत लोग अंग्रेज़ी का इस्तेमाल कर रहे हैं। लेकिन भारत में ऐसी
अजीब स्थिति बन गई है कि जब यहां के सुशिक्षित लोगों को यह बात बताई जाती है तो वे
कहते हैं कि ऐसा कैसे हो सकता है।
प्रशिक्षण में हमने यह भी सिखाया था कि गूगल के एक एप का उपयोग करके वे लोग
अपने सामूहिक वनाधिकार की सीमा कैसे पता कर सकते हैं। स्थानीय लोगों द्वारा वन
विभाग से काफी समय से सामूहिक सीमा का नक्शा मांगने के बावजूद विभाग नक्शा नहीं दे
रहा था क्योंकि इससे लोग अपने सामूहिक वन क्षेत्र की सीमा निश्चित करके उसका ठीक
से लाभ उठा सकते हैं। अब ये लोग गूगल एप की मदद से खुद ही नक्शा बना सकते हैं।
गूगल एप से सीमांकन बहुत ही सटीक हो जाता है, सैकड़ों
मीटर में 2-3 मीटर ही ऊपर-नीचे होता है।
हमने प्रशिक्षण समूह का एक व्हाट्सएप ग्रुप भी बनाया था जिसमें वे जानकारियों
के लिए आपस में बात करते थे, एक-दूसरे से जानकारी साझा
करते,
सवाल करते थे। जब किसी भी फल, वनस्पति
या जीव के बारे में उन्हें जानना होता वे उसकी फोटो ग्रुप में भेज देते थे। इस
ग्रुप में 22-23 साल का एक बहुत ही होशियार लड़का था लेकिन अंग्रेज़ी ना आने के कारण
वह दसवीं में फेल हो गया था। ग्रुप में जब भी कोई इस तरह की फोटो भेजता तो वह
तुरंत ही उसका ठीक-ठीक वैज्ञानिक नाम बता देता। यदि किसी भी वनोपज का वैज्ञानिक
नाम मालूम हो तो इससे उसके बारे में बहुत कुछ पता किया जा सकता है। जैसे उसके
क्या-क्या उपयोग हैं, उसका व्यापार कहां है, उसका बाज़ार कहां अधिक है, किस प्रक्रिया से उस वनोपज का
मूल्यवर्धन किया जा सकता है। इस युवक के तुरंत नाम बताने पर मुझे आश्चर्य हुआ तो
मैंने उससे पूछा कि तुम यह कैसे पता कर रहे हो। तो उसने बताया कि प्रशिक्षण में जब
स्मार्टफोन का उपयोग करना सिखाया गया तो हमने यह भी समझना शुरू किया कि अन्य गूगल
एप्स क्या हैं। गूगल फोटो और गूगल लेंस एप के बारे में पता चला। इसमें किसी भी
प्राणी या वनस्पति का फोटो डालो तो तुरंत ही उसका वैज्ञानिक नाम मिलने की संभावना
होती है। आज से दस साल पहले तक गूगल के पास लगभग दस अरब फोटो संग्रहित थे, जो अब शायद कई अरब होंगे। इस संग्रह में हरेक किस्म की तस्वीरें हैं, जिनमें से शायद पांच से दस अरब चित्र पशु-पक्षियों, कीटों, वनस्पतियों वगैरह के होंगे।
एक नई ज्ञान प्रणाली का बड़े पैमाने पर विकास विकास हुआ है, जिसे कृत्रिम बुद्धि कहते हैं। तस्वीर डालने पर गूगल का शक्तिशाली सर्च इंजन
अपने भंडार से सबसे नज़दीकी चित्र ढूंढकर उस तस्वीर सम्बंधी जानकारी, वैज्ञानिक नाम वगैरह बता देता है। इसके बारे में उस युवक ने खुद से सीख लिया
था और जानकारियां व्हाट्सएप ग्रुप और अपने अन्य साथियों को दे रहा था। अब गढ़चिरौली
के वनस्पति शास्त्र के प्राध्यापक भी उस युवक को किसी पौधे का नाम ढूंढकर बताने को
कहते हैं। जैसा कि मैनार्ड स्मिथ कहते हैं, ऐसी
नई ज्ञान प्रणाली लोगों के हाथों में आने से सारे लोगों के पास वि·ा का समस्त ज्ञान पहुंचने की ओर कदम बढ़ रहे हैं।
किसी खाद्य पदार्थ में या हमारे आसपास कीटनाशकों की कितनी मात्रा मौजूद है यह
जानकारी भी शासन द्वारा लोगों को नहीं दी जा रही है। अब तक, किसी भी चीज़ में कीटनाशक की मात्रा पता लगाने के लिए स्पेक्ट्रोफोटोमीटर चाहिए
होता था। स्पेक्ट्रोफोटोमीटर तो कुछ ही आधुनिक प्रयोगशालाओं में उपलब्ध था, जैसे किसी कृषि महाविद्यालय या इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस में। लेकिन यह आम
लोगों की पहुंच में नहीं था। इसलिए पर्यावरण में मौजूद कीटनाशक की मात्रा पता करना
आम लोगों के लिए मुश्किल था। कीटनाशकों से काफी बड़े स्तर पर जैव-विविधता की हानि
हुई है। इस सम्बंध में मेरा अपना एक अनुभव है। मुझे और मेरे पिताजी को पक्षी
निरीक्षण का शौक था। तो मैंने बचपन (लगभग 1947) में ही पक्षियों की पहचान करना सीख
लिया था। तब हमारे यहां कीटनाशक बिलकुल नहीं थे और उस वक्त (1947-1960) हमारे घर
के बगीचे और पास की छोटी-छोटी पहाड़ियों पर प्रचुर जैव-विविधता थी और काफी संख्या
में पक्षी थे। जैसे-जैसे कीटनाशक भारत में फैले, पक्षी
बुरी तरह तबाह हुए। उस समय की अपेक्षा अब उस पहाड़ी पर पांच-दस प्रतिशत ही
प्रजातियां दिखाई पड़ती हैं, बाकी सारी समाप्त हो गई हैं
या उनकी संख्या बहुत कम हो गई है।
सवाल है कि कीटनाशक कितनी मात्रा में है यह कैसे जानें? शासन तो लोगों को इसकी जानकारी ना मिले इसके लिए कार्यरत है। 1975-76 में
मैसूर के सेंट्रल फूड टेक्नॉलॉजी रिसर्च इंस्टीट्यूट में जीवन के उद्विकास
व्याख्यान के लिए मेरा जाना हुआ। उनका कीटनाशक सम्बंधी एक विभाग था। वहां के प्रमुख
ने बताया कि मैसूर के बाज़ार में जो खाद्य पदार्थ मिलते हैं उनमें कितनी मात्रा में
कीटनाशक हैं हम इसका तो पता करते हैं, लेकिन हमें कहा गया है
कि इन नतीजों को लोगों को बिलकुल नहीं बताना है। आज तक शासन लोगों से इस जानकारी
को छुपाना चाहता है।
लेकिन अब,
कीटनाशक की मात्रा पता लगाने वाले स्पेक्ट्रोफोटोमीटर जैसा
एक यंत्र बाज़ार में उपलब्ध है जिसे खरीदा जा सकता है। हालांकि इसकी कीमत (20-25
हज़ार रुपए) के चलते आम लोग अब भी इसे नहीं खरीद सकते लेकिन एक समूह मिलकर या कोई
संस्था इसे खरीद सकती है और कई लोग मिलकर उपयोग कर सकते हैं। बैंगलुरु के तुमकुर
ज़िले में शाला शिक्षकों का एक संगठन है तुमकुर साइंस फोरम। इस फोरम के एक
प्रोजेक्ट के तहत वे इस यंत्र की मदद से कई स्थानों, खाद्य
व पेय पदार्थों में कीटनाशकों का पता लगा रहे हैं। यह जानकारी वे लोगों के लिए
उपलब्ध करा देंगे। आजकल इंटरनेट आर्काइव्स नामक एक वेबसाइट पर तमाम तरह की
जानकारियां अपलोड की जा सकती हैं, जिसे कोई भी देख-पढ़ सकता है।
इस तरह इस नई ज्ञान प्रणाली से कुछ लोगों का ही ज्ञान पर एकाधिकार खत्म हो रहा है।
लोग इस तरह की पड़ताल खुद कर सकते हैं।
अब तक यह स्पष्ट हो गया है कि जो कुछ
शासन की मंशा है वह पर्यावरण संरक्षण पूरा नष्ट करेगी। इसका असर जैव-विविधता पर भी
होगा। लेकिन जैसा कि अब तक की बातों में झलकता है, हमारे
पास भारत की जैव-विविधता सम्बंधी डैटा बहुत सीमित है। इसका एक बेहतर डैटाबेस बन
सकता था यदि पीपुल्स बायोडायवर्सिटी रजिस्टर बनाने का काम ठीक से किया जाता, लेकिन अफसोस,
यह ठीक से नहीं किया गया। इसलिए हमारे पास बहुत ही सीमित
जानकारी है,
जो चुनिंदा अच्छे शोध संस्थाओं ने अपने खुद के अध्ययन करके
शोध पत्रों के माध्यम से लोगों को उपलब्ध कराई है। इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ साइंस के
अध्ययनों में सामने आया है कि जैव-विविधता कम हो रही है। इस संदर्भ में यह
अधिसूचना और भी खतरनाक है, लेकिन यह भी सीमित रूप से ही
कहा जा सकता है क्योंकि हमारी जैव-विविधता के बारे में जानकारी ही अधूरी है।
अच्छी विज्ञान शिक्षा के प्रयास में हम सारे लोग काफी कुछ कर सकते हैं। इस
दिशा में शिक्षा के क्षेत्र में काम कर रहे लोग अपने-अपने स्थानों की पंचायत, नगर पालिका या नगर निगम में प्रयत्न करके उपरोक्त जैव-विविधता प्रबंधन समिति
का प्रस्ताव रख सकते हैं और जैव-विविधता रजिस्टर बना सकते हैं। इससे जैव-विविधता
के बारे में बहुत ही समृद्ध जानकारी उपलब्ध होगी। और यह बनाना आसान है। गूगल फोटो
या गूगल लेंस की मदद से किसी भी जगह की वनस्पति या जीव के नाम और जानकारी पता चल
सकती है। इस तरह अब तक अर्जित ज्ञान को फैलाने के साथ-साथ बच्चे-युवा खुद अपने
ज्ञान का निर्माण कर सकते हैं। स्कूल के स्तर पर भी शालाएं पीपुल्स बायोडायवर्सिटी
रजिस्टर बनाने में सहयोग कर सकती हैं और बना सकती हैं। गढ़चिरौली ज़िले और कई अन्य
जगहों पर कई स्कूलों में इस तरह का काम किया जा रहा है, कई
स्कूलों ने बहुत अच्छे से रजिस्टर बनाए हैं। इससे बच्चे दस्तावेज़ीकरण की प्रक्रिया
भी सीख सकते हैं। और इन दस्तावेज़ों के आधार पर जैव-विविधता का संरक्षण कैसे किया
जाए इसके बारे में पता कर सकते हैं।
अफसोस की बात है कि भारत को छोड़कर
बाकि सभी देश ग्लोबल वार्मिंग की समस्या से निपटने के लिए कुछ ना कुछ कर रहे हैं।
अधिक मात्रा में कोयले जैसे र्इंधनों का उपयोग करने वाले देश चीन ने भी अब साल
2050 तक कोयला जलाना बंद करना तय किया है। अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रम्प के जाने
और बाइडेन के आने से अमरीका में कोयला और पेट्रोलियम जैसे र्इंधन का इस्तेमाल कम
होने की आशा है। केवल भारत ही कोयले-पेट्रोलियम का उपयोग बढ़ाता जा रहा है। माना कि
हमें भी विकास और बदलाव की ओर जाना है, लेकिन किस कीमत पर। इस
बारे में हमें स्वयं ही ज्ञान संपन्न होकर कदम उठाने होंगे।
लोगों में एक बड़ी गलतफहमी व्याप्त है कि विकास (या उत्पादन) और पर्यावरण इन दो
के बीच प्रतिकूल (या विरोधाभासी) सम्बंध है। एक को बढ़ाने से दूसरा प्रभावित होगा।
हमारे सामने कई ऐसे राष्ट्रों के उदाहरण हैं जो बहुत उच्छा उत्पादन कर रहे हैं और
उतनी ही अच्छी तरह से पर्यावरण की देखभाल भी कर रहे हैं। जैसे जर्मनी, स्विटज़रलैंड,
डैनमार्क, स्वीडन। ये राष्ट्र उद्योगों
के मामले में विश्व में अग्रणी हैं। आज भारत यह बातें करता है कि हमने उत्पादन
बढ़ाया है लेकिन जिन देशों को हम पिछड़ा मानते थे (जैसे बांग्लादेश) उनका उत्पादन
भारत से ज़्यादा है। भारत में जो हो रहा है, वह
केवल पर्यावरण नष्ट करने वाले कई बहुत ही चुनिंदा लोगों के हित में हो रहा
है। वियतनाम, जिसका
आबादी घनत्व भारत से ज़्यादा है, जो कई युद्धों के कारण बर्बाद
हुआ,
जहां अमरीका और फ्रांस ने मिलकर 1955-75 के दौरान विनाश
किया,
आज वह उद्योग में भारत से थोड़ा आगे ही है और पर्यावरण
सम्बंधी सूचकांक में भी हमसे आगे है।
इन नई ज्ञान प्रणाली का उपयोग कर लोग सक्षम हो सकते हैं और शासन को चुनौती देने के लिए तैयार हो सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://static.toiimg.com/thumb/msid-77882423,width-1200,height-900,resizemode-4/.jpg
उन्नीसवीं सदी में किए गए एक दावे पर अब बहस छिड़ गई है कि वैश्विक
तापमान में वृद्धि जानवरों के रंग-रूप में किस तरह के बदलाव लाएगी।
1800 के दशक की शुरुआत में जीव विज्ञानियों
ने इस सम्बंध में कुछ नियम दिए थे कि बदलते तापमान का पारिस्थितिकी और जैव विकास
पर किस तरह प्रभाव पड़ेगा। इनमें से एक नियम था कि गर्म वातावरण में जानवरों के
शरीर के उपांग (जैसे कान, चोंच) बड़े होंगे,
ये शरीर की ऊष्मा को
बाहर निकालने में मददगार होते हैं। एक अन्य नियम के अनुसार बड़े शरीर वाले जीव आम
तौर पर ध्रुवों के आसपास रहते हैं, क्योंकि बड़ा शरीर ऊष्मा के संरक्षण में मदद
करता है। और साल 1833 में जर्मन जीव विज्ञानी कॉन्स्टेंटिन ग्लोगर ने बताया था कि
गर्म इलाकों में रहने वाले जीवों का बाहरी आवरण आम तौर पर गहरे रंग का होता है, जबकि
ठंडे इलाकों में रहने वाले जीवों का बाहरी आवरण हल्के रंग का। स्तनधारियों में
गहरे रंग की त्वचा और बाल हानिकारक पराबैंगनी किरणों से सुरक्षा देते हैं, इसलिए
सूर्य के प्रकाश से भरपूर इलाकों में गहरा रंग फायदेमंद होता है। पक्षियों में भी
गहरे रंग के पंखों में मौजूद विशिष्ट मेलेनिन रंजक बैक्टीरियल संक्रमण से सुरक्षा
देते हैं।
जुलाई में,
चाइना युनिवर्सिटी ऑफ
जियोसाइंसेज़ के ली तियान और युनिवर्सिटी ऑफ ब्रिस्टल के माइकल बेंटन ने इन नियमों
का उपयोग कर पूर्वानुमान लगाया कि भविष्य में जलवायु परिवर्तन (तापमान में वृद्धि)
जीवों के शरीर में किस तरह के बदलाव ला सकता है। इनके आधार पर उन्होंने बताया कि
पृथ्वी के तापमान में बढ़ोतरी होने पर अधिकांश जानवर गहरे रंग के हो जाएंगे।
लेकिन इस पर अन्य जीव विज्ञानियों का कहना
है कि मामला इतना भर नहीं है। मैक्स प्लांक इंस्टीट्यूट फॉर ऑर्निथोलॉजी के पक्षी
विज्ञानी कैस्पर डेल्हे पिछले कुछ वर्षों से ग्लोगर के नियम की जगह एक अधिक सटीक
नियम देने की कोशिश में हैं। तियान और बेंटन के इस अध्ययन पर डेल्हे और उनके
साथियों ने करंट बायलॉजी में अपनी प्रतिक्रिया दी है। इसमें वे कहते हैं कि
ग्लोगर ने अपने नियम में तापमान और आर्द्रता दोनों कारकों को मिश्रित कर दिया है। आर्द्रता
या नमी के बढ़ने पर पौधे हरे-भरे होते हैं,
जो जीवों को
शिकारियों से छिपने में मदद करते हैं। इसलिए नमी बढ़ने पर आसपास के परिवेश में
घुलने-मिलने के लिए जीवों के शरीर का रंग गहरा होता है। कई गर्म स्थान वाष्प युक्त
होते हैं, लेकिन तस्मानिया जैसे ठंडे वर्षा वनों में पक्षियों का रंग
गहरा होगा।
डेल्हे कहते हैं यदि तापमान बढ़ने के
साथ-साथ आर्द्रता नहीं बढ़ती यानी आर्द्रता नियंत्रित रहती है तो ग्लोगर के नियम के
बिल्कुल उलट स्थिति बनेगी – गर्म वातावरण में जीवों का रंग हल्का होगा, खासकर
ठंडे रक्त वाले जीवों का (यानी ऐसे जीव जिनके शरीर का तापमान बाह्य वातावरण पर
निर्भर है)। कीट और सरीसृप गर्मी के लिए बाहरी स्रोत (सूर्य के प्रकाश) पर निर्भर
होते हैं। ठंडी जगहों पर, इनकी त्वचा का रंग गहरा होता है जो उन्हें
पर्याप्त मात्रा में ऊष्मा सोखने में मदद करता है। यदि जलवायु गर्म हुई तो उनके
शरीर का रंग हल्का पड़ जाएगा। इसे डेल्हे ‘थर्मल मेलानिज़्म परिकल्पना’ कहते हैं।
तियान और बेंटन डेल्हे के स्पष्टीकरण को
स्वीकार करते हैं। लेकिन फिर भी वे कुछ ऐसे स्थानों के उदाहरण देते हैं जहां गर्म
जलवायु होने पर जीवों के रंग के बारे में की गई उनकी भविष्वाणी सही होगी। फिनलैंड
में टावनी उल्लू दो तरह के रंग में पाए जाते हैं – गहरे कत्थई रंग में या सफेदी
लिए हुए हल्के स्लेटी रंग में। हल्का स्लेटी रंग उल्लुओं को बर्फ की पृष्ठभूमि में
छिपे रहने में मदद करता है। लेकिन फिनलैंड में हिमाच्छादन कम होने के साथ कत्थई
रंग के उल्लुओं की संख्या बढ़ी है। 1960 के आसपास वहां गहरे रंग के उल्लुओं की आबादी
लगभग 12 प्रतिशत थी जो 2010 में बढ़कर 40 प्रतिशत तक हो गई।
शोधकर्ता यह भी मानते हैं कि यदि तापमान और
आर्द्रता दोनों ही बदलती है तो जीवों में होने वाले जलवायु सम्बंधी रंग परिवर्तन
को समझना थोड़ा पेचीदा होगा। मसलन, कुछ जलवायु मॉडल यह भविष्यवाणी करते हैं कि
अमेज़ॉन के जंगल भविष्य में गर्म और शुष्क होते जाएंगे जिससे जीवों का रंग हल्का हो
जाएगा, लेकिन साइबेरिया के बोरियल जंगल गर्म और नम होंगे तो वहां
ये पूर्वानुमान ठीक नहीं बैठेंगे। बेंटन का कहना है कि भौतिकी या रसायन विज्ञान के
विपरीत जीव विज्ञान में कोई भी नियम एकटम सटीक या निरपेक्ष नहीं हो सकता। यह
गुरुत्वाकर्षण की तरह नहीं है, जो सभी जगह लागू होगा।
यदि किसी तरह के सामान्य रुझान दिखते भी
हैं तब भी यह कहना मुश्किल ही होगा कि कोई विशिष्ट प्रजाति किसी परिवर्तन पर किस
तरह प्रतिक्रिया देगी। वाशिंगटन विश्वविद्यालय की जीव विज्ञानी लॉरेन बकले ने अधिक
ऊंचाई वाले क्षेत्रों में तितली के रंग पर अध्ययन किया है। वे बताती हैं कि
तितलियां धूप तापते हुए ऊष्मा सोखती हैं, लेकिन उनके पूरे पंखों की बजाए पंखों की
निचली सतह पर मौजूद मात्र एक छोटे से हिस्से से ऊष्मा सोखी जाती है। इस स्थिति में
तितलियों के पंखों का रंग चाहे कुछ भी रहे कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि ऊष्मा तो
पंखों के एक छोटे हिस्से से सोखी जा रही है।
अगर हम यह नहीं जानते कि कोई जीव अपने
आसपास के पर्यावरण से वास्तव में किस तरह संपर्क करता है,
तो हम उसके बारे में
किसी भी तरह के ठीक-ठाक अनुमान नहीं लगा पाएंगे। जीवों पर पर्यावरण के प्रभावों को
समझने के लिए हमें यह भी समझने की ज़रूरत है कि कोई जीव अपने वातावरण के साथ किस
प्रकार संपर्क करता है।
जीवों में रंग परिवर्तन जीवों की अपनी
तापमान-नियंत्रक प्रणाली पर भी निर्भर करता है। आम तौर पर असमतापी जीवों का रंग
हल्का होता जा रहा है, और पक्षियों और स्तनधारियों में विभिन्न तरह के प्रभाव
दिखाई दिए हैं। बकले सुझाव देती हैं कि अपने अनुमानों को बेहतर करने के लिए हम
संग्रहालय में रखे नमूनों का उपयोग कर सकते हैं क्योंकि ये लंबी अवधि में आए
परिवर्तनों का अंदाज़ा दे सकते हैं। हालांकि समय के साथ इनके रंग बदलने की भी
संभावना है। शोधकर्ताओं की अब भृंग और घोंघों को गर्म टैंकों में रखकर रंग
परिवर्तन सम्बंधी अध्ययन करने की योजना है।
लेकिन जिस तेज़ी से पृथ्वी गर्म होती जा रही है उससे वैज्ञानिकों के पास जल्द ही इस विषय पर व्यापक डैटा उपलब्ध होगा। और यदि जीवों के प्राकृतिक आवास ही नष्ट हो गए और प्रजातियां विलुप्त हो गईं तो जीवों के बदलते स्वरूपों पर लगाए गए हमारे सारे पूर्वानुमान धरे के धरे रहे जाएंगे।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_image_-1280w__no_aspect/public/ca_0108NID_Tawny_Owl_online.jpg?itok=jYCr7luj
क्या आपने कभी सोचा है कि आपके पैरों तले एक विशाल जैविक तंत्र
है? क्या आप जानते हैं कि मुट्ठी भर मिट्टी में लगभग 5,000 तरह
के जीव बसते हैं और इसमें कुल कोशिकाओं की संख्या पृथ्वी की कुल आबादी के बराबर हो
सकती है? साधारण मृदा में सूक्ष्म कवक,
सड़ते-गलते पौधे, कवक
को खाने वाले नन्हे कृमि और उन कृमियों का भक्षण करने की फिराक में सुई की नोक के
बराबर घुन हो सकती है। और साथ में कोई ऐसा बैक्टीरिया भी हो सकता है जो अन्य
बैक्टीरिया को अपने शक्तिशाली एंटीबायोटिक से खत्म कर सकता है। कुल मिलाकर, यह
जैव विविधता का का विशाल मगर उपेक्षित संसार है।
लेकिन इस वर्ष विश्व मृदा दिवस (5 दिसंबर)
पर संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन ने इस भूमिगत दुनिया में उपस्थित जैव
विविधता का पहला वैश्विक मूल्यांकन जारी किया है। इस मूल्यांकन में 300 विशेषज्ञों
ने इन जीवों की विविधता, प्राकृतिक और कृषि परिवेश में इनके योगदान
और इन पर मंडराते संभावित खतरों को साझा करने के लिए जानकारियां और डैटा एकत्र
किया है। इस रिपोर्ट में फसल की पैदावार में वृद्धि तथा मिट्टी व पानी को स्वच्छ
रखने में इन जीवों के योगदान की चर्चा भी की गई है। स्पैनिश नेशनल रिसर्च काउंसिल
के मृदा एवं पादप पारिस्थितिकीविद फ्रांसिस्को पुग्नायर के अनुसार पौधों की जड़ें
और भूमिगत जीव भूमि के ऊपर पाए जाने वाले जीवों से ज़्यादा कार्बन का संचय करते हैं
और अधिक लंबे समय के लिए।
देखा जाए तो मृदा कार्बनिक पदार्थों, खनिजों, गैसों
और अन्य घटकों का मिश्रण होती है जो पौधों के विकास में मदद करता है। इतना ही नहीं, लगभग
40 प्रतिशत जंतु अपने जीवन चक्र में भोजन,
आश्रय या फिर शरण
लेने के लिए मृदा का उपयोग करते हैं। लेकिन धरती पर एक बुलडोज़र या ट्रैक्टर चलने, जंगल
की आग, तेल के फैलने, यहां तक कि पैदल यात्रियों के निरंतर
आवागमन से मृदा के पारिस्थितिकी तंत्र को क्षति पहुंचती है। उम्मीद है कि यह
रिपोर्ट वैज्ञानिकों, नीति निर्माताओं और आम जनता को इस भूमिगत पारिस्थितिकी
तंत्र के प्रति जागरूक करेगी।
पूर्व के अध्ययनों में वैज्ञानिक मृदा के
सबसे बड़े और सबसे छोटे जीवों पर ध्यान केंद्रित करते रहे हैं। कई सदियों से
प्राकृतिक इतिहासकारों ने चींटियों, दीमकों,
और यहां तक कि केंचुओं
तथा मृदा से उनके सम्बंध पर चर्चा की है। पिछले कुछ दशकों में सूक्ष्मजीव
विज्ञानियों ने तो मृदा के डीएनए का अनुक्रमण करके बैक्टीरिया और कवक की एक
आश्चर्यजनक विविधता का भी पता लगाया है। लेकिन बड़े और छोटे जीवों के बीच हज़ारों
जीवों को अनदेखा किया जाता रहा है। सूक्ष्म प्रोटिस्ट,
कृमि और
टार्डिग्रेड्स मृदा के कणों के आसपास पानी की बारीक झिल्ली का निर्माण करते हैं।
कुछ बड़े और छोटे कृमि, स्प्रिंगटेल्स और कीट लार्वा,
इन कणों के बीच
हवादार छिद्रों में रहते हैं जो मृदा को जैविक रूप से इस पृथ्वी का सबसे विविध आवास
बनाने में मदद करते हैं।
यह विविधता एक समृद्ध और जटिल पारिस्थितिकी
तंत्र का निर्माण करती है जो फसल की वृद्धि को बढ़ावा देती है, प्रदूषकों
को विघटित करती है और कार्बन के अनंत सोख्ते के रूप में काम कर सकती है। मृदा के
कुछ जीव पौधों की विविधता को बढ़ावा देते हैं और कई तो एंटीबायोटिक दवाओं से लेकर
प्राकृतिक कीटनाशकों तक महत्वपूर्ण यौगिक उत्पन्न करते हैं। मृदा, जीवों
और उनकी गतिविधियों के बिना अन्य जीवों का जीवित रहना असंभव होगा।
इस रिपोर्ट में कई मानव गतिविधियों की चर्चा की गई है जो मृदा के जीवों को नुकसान पहुंचाती हैं। इनमें वनों की कटाई, सघन कृषि, प्रदूषकों के कारण अम्लीकरण, अनुचित सिंचाई के कारण लवणीकरण, मृदा संघनन, सतह का बंद होना, आग तथा कटाव को शामिल किया गया है। इस सम्बंध में कुछ सरकारों और कंपनियों ने भी कार्य किया है। कई राष्ट्र ऐसे कानून बनाने पर विचार कर रहे हैं जिनसे मृदा को विनाशकारी मानव गतिविधियों से बचाया जा सके। चीन में एग्रीकल्चर ग्रीन डेवलपमेंट कार्यक्रम के तहत विभिन्न फसलों को एक साथ उगाया जा रहा है ताकि जैव विविधता को संरक्षित किया जा सके। उम्मीद है कि यह रिपोर्ट मृदा-जीव संरक्षण के प्रति जागरूकता बढ़ाएगी और संरक्षण को प्रोत्साहित करेगी।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_image_-1280w__no_aspect/public/ca_1211NID_Bugs_Soil_online_new.jpg?itok=1eKhpTd4
दिवाली आई और निकल गई। कुछ राज्यों में पटाखों पर प्रतिबंध लगाए गए थे लेकिन कुछ राज्यों में समय-सीमा के अलावा और कोई रोक नहीं थी। वैसे तो इस बार दिवाली पर पटाखों का शोर पिछले सालों की अपेक्षा कम था और कुछ लोग शायद खुद को शाबाशी दे रहे होंगे कि उन्होंने हरित पटाखे जलाकर अपना पर्यावरणीय कर्तव्य पूरा किया। यह आलेख हरित पटाखों समेत पूरे मामले की पड़ताल करता है।
हरित
पटाखे राष्ट्रीय पर्यावरण अभियांत्रिकी अनुसंधान संस्थान (नीरी) की खोज हैं,
जो वैज्ञानिक तथा औद्योगिक अनुसंघान परिषद (सीएसआईआर) के अंतर्गत आता है।
हरित पटाखे दिखने, जलाने और आवाज़ में
सामान्य पटाखों की तरह ही होते हैं पर इनके जलने से प्रदूषण कम होता है। इनमें
विभिन्न रासायनिक तत्वों की मौजूदगी और हानिकारक गैसों वाले धुएं का कम उत्सर्जन
करने वाले तत्वों का इस्तेमाल किया गया है। इनको जलाने से हवा दूषित करने वाले
महीन कणों (पीएम) की मात्रा में 25 से 30 प्रतिशत और पोटेशियम
तत्वों के उत्सर्जन में 50 प्रतिशत
तक की कमी का अनुमान है।
परंतु
पर्यावरणविदों ने इन पटाखों के अधिक उपयोग को भी खतरनाक माना है। लोगों में हरित
पटाखों को लेकर कई भ्रम हैं। लोग समझते हैं कि ये पूरी तरह प्रदूषण मुक्त हैं।
इसलिए लोगों को जागरूक करने की आवश्यकता है क्योंकि अगर लोग इन्हें हरित समझकर
अधिक जलाते हैं तो निश्चित ही त्यौहारों के बाद में प्रदूषण का स्तर बढ़ेगा।
प्रदूषण
कम करने, विषैले रसायन और
ध्वनि प्रदूषण को कम करने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने हरित पटाखों के इस्तेमाल के
निर्देश दिए थे। अब शिवकाशी ने खुद को ऐसे पटाखों के लिए तैयार कर लिया है। जिस
केमिकल को प्रतिबंधित किया गया है, उसका
हरित विकल्प पोटेशियम परआयोडेट 400 गुना महंगा है। इसी वजह से हरित पटाखे काफी महंगे होते हैं।
सेंटर
फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट के अनुसार सरकार को सभी परिवारों के पटाखे खरीदने की एक
सीमा निर्धारित करनी चाहिए, जिससे
लोग एक तय सीमा से अधिक इन पटाखों का इस्तेमाल ना कर सकें। लोग समूहों में पटाखे
जलाएं जिससे कम से कम पटाखों में सबका जश्न हो सके। अधिकांश त्यौहारों में पटाखे
जलाकर जश्न मनाया जाता है किंतु बढ़ते प्रदूषण स्तर के चलते इनके उपयोग को सीमित
रखना बेहद आवश्यक है।
बड़े
त्यौहारों पर व्यापक आतिशबाज़ी से बड़ी मात्रा में हानिकारक गैसें और विषाक्त पदार्थ
वायुमंडल में पहुंचते हैं। परिणामस्वरूप, वायु
प्रदूषित हो जाती है जो हमारे स्वास्थ्य के लिए नुकसानदायक है। हाल ही के अध्ययन
में दिल्ली और गुवाहाटी के भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों के शोधकर्ताओं ने
दीपावली के दौरान पटाखों से होने वाले अत्यधिक वायु और ध्वनि प्रदूषण और स्वास्थ्य
पर उनके प्रभाव का अध्ययन जर्नल ऑफ हेल्थ एंड पॉल्युशन में प्रकाशित किया
है।
शोधकर्ताओं
ने वर्ष 2015 में
भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, गुवाहाटी
परिसर में दीपावली के त्यौहार के दौरान हवा की गुणवत्ता और शोर के स्तर का अध्ययन
किया था। उन्होंने 10 माइक्रोमीटर
या व्यास में उससे छोटे, हवा
में तैरते कणों (पीएम-10) के घनत्व को मापा और
शोर के स्तर को भी। उन्होंने दीपावली में 10 दिनों की अवधि के दौरान पीएम-10 में मौजूद धातुओं (जैसे कैडमियम, कोबाल्ट,
लोहा, जस्ता
और निकल) तथा
आयनों (जैसे
कैल्शियम, अमोनियम, सोडियम,
पोटेशियम, क्लोराइड, नाइट्रेट और सल्फेट) की सांद्रता को नापा।
स्वास्थ्य
पर इनके प्रभाव का अनुमान लगाने के लिए, शोधकर्ताओं
ने उस अवधि के दौरान संस्थान के अस्पताल में जाने वाले रोगियों के स्वास्थ्य का
सर्वेक्षण भी किया। इस अध्ययन में प्रदूषकों के स्तर में वृद्धि देखी गई।
शोधकर्ताओं के अनुसार दीपावली के दौरान पीएम-10 की सांद्रता अन्य समय की तुलना में 81 प्रतिशत अधिक थी, और धातुओं एवं आयनों की सांद्रता में भी 65 प्रतिशत की वृद्धि
पाई गई। शोर का स्तर भी अधिक था। हालांकि शोधकर्ताओं ने पाया कि अन्य दिनों की
तुलना में दीपावली के दौरान पीएम-10 में बैक्टीरिया की सांद्रता 39 प्रतिशत कम थी। सीसा, लोहा,
जस्ता जैसी भारी धातुओं की उपस्थिति इसका कारण हो सकती है।
डब्लूएचओ
ने सिफारिश की है कि पीएम-2.5
का वार्षिक औसत घनत्व 10 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर से कम होना
चाहिए, लेकिन भारत और चीन
के शहरी क्षेत्रों में इसका स्तर छह गुना ज़्यादा (क्रमश: 66 और 59 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर) है। विश्व स्वास्थ्य
संगठन की रिपोर्ट से पता चला है कि वायु की गुणवत्ता के मामले में सबसे खराब
प्रदर्शन करने वाले देशों में भारत और चीन हैं। पीएम-2.5 घनत्व में बीजिंग और नई दिल्ली दोनों ही
शहर शामिल है। किंतु बीजिंग ने इसमें सुधार किया है।
वायु में अन्य गैसें और बगैर जले कार्बन कण मिश्रित होकर स्वास्थ्य के लिए अत्यंत घातक बन जाते हैं। सूक्ष्म कण (पीएम-2.5) मानव स्वास्थ्य के लिए अत्यंत खतरनाक माने जाते हैं क्योंकि ये फेफड़ों में काफी अंदर तक चले जाते हैं, और इनसे फेफड़ों का कैंसर भी हो सकता है। वर्ष 2015 में पीएम-2.5 के कारण विश्व भर में 42 लाख से भी अधिक लोगों की मृत्यु हुई थी। इनमें से 58 प्रतिशत मौतें भारत और चीन में हुर्इं। ग्लोबल बर्डन ऑफ डिसीज़ेस नामक रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 1990 से लेकर अब तक चीन में पीएम-2.5 के कारण असमय मौतों में 17 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। भारत में यह आंकड़ा तीन गुना अधिक है। पटाखों के अत्यधिक उपयोग से छोटी-सी अवधि में ही हवा की गुणवत्ता खराब हो जाती है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.deccanherald.com/sites/dh/files/styles/article_detail/public/articleimages/2020/11/11/istock-1188842672-909751-1605095512.jpg?itok=mQVNeS39
साल 2018-19 में पर्यावरण के हितैषी अंतर्राष्ट्रीय समुदायों
के बीच खासा उत्साह का माहौल था। दरअसल, संयुक्त राष्ट्र संघ की एक रिपोर्ट से यह
पता चला था कि साल 2000 से ओज़ोन परत में 2 फीसदी की दर से सुधार हो रहा है।
संयुक्त राष्ट्र संघ की इस रिपोर्ट से यहां तक कयास लगाए जा रहे थे कि सदी के मध्य
तक ओज़ोन परत पूरी तरह दुरुस्त हो जाएगी।
मगर हाल में अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा
और अमेरिका के ही नेशनल ओशिएनिक एंड एटमॉस्फेरिक एडमिनिस्ट्रेशन (एन.ओ.ए.ए.) ने
अवलोकनों के आधार पर बताया है कि इस साल अंटार्कटिका का ओज़ोन सुराख अपने वार्षिक
आकार के उच्चतम स्तर पर पहुंच गया है। इसका आकार 20 सितंबर को 2.48 करोड़ वर्ग
किलोमीटर हो गया था। इसने आशावादियों को थोड़ा चिंतित कर दिया है। ‘थोड़ा’ इसलिए
क्योंकि वैज्ञानिकों का कहना है कि लगातार ठंडे तापमान और तेज़ ध्रुवीय हवाओं की
वजह से अंटार्कटिका के ऊपर ओज़ोन की परत में गहरा सुराख हुआ है। यह सुराख सर्दियों
तक बना रहेगा और उसके बाद गर्मियों से ओज़ोन परत में धीरे-धीरे सुधार आने लगेगा।
धरती पर जीवन के लिए ओज़ोन परत का बहुत
महत्व है। पृथ्वी के धरातल से लगभग 25-30 किलोमीटर की ऊंचाई पर वायुमंडल के समताप
मंडल (स्ट्रेटोस्फेयर) में ओज़ोन गैस का एक पतला-सा आवरण है। यह आवरण धरती के लिए
एक सुरक्षा कवच की तरह काम करता है। यह सूर्य से आने वाले पराबैंगनी विकिरण को सोख
लेता है। अगर ये किरणें धरती तक पहुंचें तो कई खतरनाक और जानलेवा बीमारियों का
प्रकोप बढ़ सकता है। इसके अलावा ये पेड़-पौधों और जीवों को भी भारी नुकसान पहुंचाती
हैं।
घरेलू इस्तेमाल के लिए और थोड़ी मात्रा में
खाद्य पदार्थों को ठंडा रखने के लिए साल 1917 से ही रेफ्रिजरेटर या फ्रिज का
व्यावसायिक पैमाने पर निर्माण शुरू हो चुका था। हालांकि तब रेफ्रिजरेशन के लिए
अमोनिया या सल्फर डाईऑक्साइड जैसी विषैली और हानिकारक गैसों का इस्तेमाल किया जाता
था। रेफ्रिजरेटर से इनका रिसाव जान-माल के लिए बेहद घातक था। इसलिए जब जर्मनी और
अमेरिका के वैज्ञानिकों ने रेफ्रिजरेशन के लिए क्लोरोफ्लोरोकार्बन (सीएफसी) की खोज
की, जो प्रकृति में नहीं पाया जाता,
तो रेफ्रिजरेटर सर्वसाधारण
के इस्तेमाल के लिए सुरक्षित और सुलभ हो गए। इस खोज के बाद क्लोरोफ्लोरोकार्बन का
इस्तेमाल व्यापक पैमाने पर एयर कंडीशनर, एरोसोल कैंस,
स्प्रे पेंट, शैंपू
आदि बनाने में किया जाने लगा, जिससे हर साल अरबों टन सीएफसी वायुमंडल में
घुलने लगा। सीएफसी वायुमंडल की ओज़ोन को नुकसान पहुंचाता है।
ओज़ोन परत को नुकसान से बचाने के लिए 1987
में मॉन्ट्रियल संधि लागू हुई जिसमें कई सीएफसी रसायनों और दूसरे औद्योगिक एयरोसॉल
रसायनों पर प्रतिबंध लगा दिया गया। अभी तक विश्व के तकरीबन 197 देश इस संधि पर
हस्ताक्षर कर ओज़ोन परत को नुकसान पहुंचाने वाले रसायनों के इस्तेमाल पर रोक लगाने
के लिए हामी भर चुके हैं।
इस संधि के लागू होने से सीएफसी और अन्य
हानिकारक रसायनों के उत्सर्जन में धीरे-धीरे कमी आई। मगर साल 2019 में नेचर की एक
रिपोर्ट के मुताबिक अब भी चीन जैसे देश पर्यावरण से जुड़े अंतर्राष्ट्रीय समझौतों
का उल्लंघन करते हुए ओज़ोन परत के लिए घातक गैसों का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल कर रहे
हैं। चीन का फोम उद्योग अवैध रूप से सीएफसी-11 का उपयोग ब्लोइंग एजेंट के रूप में
करता रहा है। चूंकि अन्य विकल्पों की तुलना में सीएफसी-11 सस्ता है, इसलिए
उद्योग पॉलीयूरेथेन फोम बनाने के लिए इसका उपयोग करते हैं। चीन में सीएफसी की
तस्करी की समस्या भी चिंता का सबब बनी हुई है। देखने वाली बात यह है कि क्या चीनी
सरकार पर्यावरण विरोधी ऐसी गतिविधियों पर लगाम लगा पाएगी या फिर पिछले वैज्ञानिकों
और पर्यावरणविदों की 30 सालों की मेहनत पर पानी फिर जाएगा।
बहरहाल,
नासा और एन.ओ.ए.ए. के
हालिया अध्ययनों में दक्षिणी ध्रुव के ऊपर समताप मंडल में चार मील ऊंचे स्तंभ में
ओजोन की पूर्ण गैर-मौजूदगी दर्ज की गई है। वैज्ञानिकों का कहना है कि पिछले 40 साल
के रिकॉर्ड के अनुसार साल 2020 में ओज़ोन सुराख का यह 12वां सबसे बड़ा क्षेत्रफल है।
वहीं गुब्बारों पर लगे यंत्रों से प्राप्त आंकड़ों के अनुसार यह पिछले 33 सालों में
14वीं न्यूनतम ओज़ोन की मात्रा है। नासा के गोडार्ड स्पेस फ्लाइट सेंटर में अर्थ
साइंसेज़ के प्रमुख वैज्ञानिक पॉल न्यूमैन के मुताबिक साल 2000 के उच्चतम स्तर से
समताप मंडल में क्लोरीन और ब्रोमीन का स्तर सामान्य स्तर से 16 प्रतिशत गिरा है।
क्लोरीन और ब्रोमीन के अणु ही ओज़ोन अणुओं को ऑक्सीजन के अणुओं में बदलते हैं।
सर्दियों के मौसम में समताप मंडल के बादलों
में ठंडी परतें बन जाती है। ये परतें ओज़ोन अणुओं का क्षय करती हैं। गर्मी के मौसम
में समताप मंडल में बादल कम बनते हैं और अगर वे बनते भी हैं तो लंबे वक्त तक नहीं
टिकते, जिससे ओज़ोन के खत्म होने की प्रक्रिया धीमी हो जाती है।
सर्दियों में तेज़ हवाओं और बेहद ठंडे वातावरण की वजह से क्लोरीन के अणु ओज़ोन परत
के पास इकट्ठे हो जाते हैं। क्लोरीन के ये अणु सूर्य की पराबैंगनी किरणों के
संपर्क में आने पर परमाणुओं में टूट जाते हैं। क्लोरीन परमाणु ओज़ोन अणुओं से टकरा
कर उसे ऑक्सीजन में तोड़ देते हैं।
हम अपने दैनिक जीवन में बहुत से ऐसे इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों का इस्तेमाल करते हैं जिनमें से ज़्यादातर में से किसी न किसी गैस का रिसाव ज़रूर होता है। इनमें मुख्य रूप से एयर कंडीशनर हैं जिनमें ओज़ोन परत के लिए घातक फ्रियान-11, फ्रियान-12 गैसों का उपयोग होता है। दरअसल इन गैसों का एक अणु ओज़ोन के लाखों अणुओं को नष्ट करने में समर्थ होता है! बहरहाल, ओज़ोन संरक्षण के लिए सशक्त कदम उठाने की आवश्यकता है। ओज़ोन परत को बचाने के लिए हमें अपनी जीवन शैली में आमूल-चूल परिवर्तन लाना होगा।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://images.theconversation.com/files/215462/original/file-20180418-163998-h02rtb.jpg?ixlib=rb-1.1.0&q=45&auto=format&w=1000&fit=clip