गर्मी को मात देने के लिए सड़कों की पुताई

र्म शहरी टापुओं का तापमान बढ़ाने में डामर की सड़कें भी भूमिका निभाती हैं। हाल ही में एरिज़ोना स्टेट युनिवर्सिटी और फीनिक्स शहर द्वारा किए गए एक अध्ययन में पाया गया कि डामर की सड़क पर भूरे रंग की परावर्तक पुताई करने से सड़क की सतह के औसत तापमान में 6 से 7 डिग्री सेल्सियस की कमी आती है, और सुबह के समय तापमान में औसतन 1 डिग्री सेल्सियस की गिरावट देखी गई।

गर्मी के दिनों में फीनिक्स शहर की सड़कें 82 डिग्री सेल्सियस तक गर्म हो जाती हैं। सड़कों द्वारा अवशोषित यह ऊष्मा रात में वापस वातावरण में फैल जाती है, फलस्वरूप रात का तापमान बढ़ जाता है। और रात गर्म होने से सुबहें भी गर्म होती है। इस तरह गर्मी का यह चक्र चलता ही रहता है।

शोधकर्ताओं ने पाया कि सड़कों को परावर्तक रंग से पोतने के बाद तापमान में सबसे अधिक अंतर सड़क की सतह के पास पड़ा था और सबसे कम अंतर जमीन से 6 फीट ऊपर था। फिर भी, डामर की काली सड़कों की तुलना में परावर्तक से पुती सड़कों के पास की जगह पर दिन-रात के तापमान में थोड़ी कमी तो आई थी।

लेकिन ऐसी पुताई सारी सतहों पर एक-सा असर नहीं डालतीं। एरिज़ोना की शहरी जलवायु विज्ञानी और सहायक प्रोफेसर एरियन मिडल का कहना है कि तापमान मापने का सार्थक तरीका विकिरण आधारित होगा अर्थात यह देखा जाए कि शरीर गर्मी का अनुभव कैसे करता है।

जब शोधकर्ता ताप संवेदी यंत्रों से लैस एक छोटी गाड़ी लेकर परावर्तक सड़कों पर चले तो पता चला कि सतह से परावर्तन के कारण दोपहर और दोपहर के बाद लोग सबसे अधिक गर्मी महसूस करते हैं, लेकिन यह गर्मी कांक्रीट के फुटपाथों जैसी ही थी। यानी सतह के तापमान में तो कमी होती है लेकिन व्यक्ति द्वारा महसूस की गई गर्मी अधिक होती है।

फीनिक्स स्ट्रीट ट्रांसपोर्टेशन डिपार्टमेंट की प्रवक्ता हीदर मर्फी का कहना है कि सड़कों को पोतने के बाद लोगों की प्रतिक्रिया प्राय: सकारात्मक रही। चकाचौंध और दृश्यता के बारे में कुछ चिंता ज़रूर ज़ाहिर हुई लेकिन पता चला कि सड़क सूखने के बाद यह दिक्कत भी जाती रही।

वैसे तो अभी और अध्ययन किए जाएंगे लेकिन अधिकारी चेताते हैं कि शहरी गर्मी से बचने के लिए सड़कों को रंगना कोई रामबाण उपाय नहीं है। इन सड़कों पर खड़े होंगे तो गर्मी तो लगेगी, छाया का सहारा तो लेना होगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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हाइवे के बोझ तले गांव की पगडंडी – भारत डोगरा

हिमालय क्षेत्र में समय-समय पर ऐसे समाचार मिलते हैं कि किसी बीमार महिला या वृद्ध को कुर्सी या चारपाई या पीठ पर ही बिठाकर 5 से 15 कि.मी. की दूरी तय करते हुए इलाज के लिए ले जाना पड़ा। जहां एक ओर ग्रामीण संपर्क मार्गों व छोटी सड़कों की कमी है या उनकी दुर्दशा है, वहीं दूसरी ओर हाइवे व सुरंगों की सैकड़ों करोड़ रुपए की परियोजनाओं को इतनी तेज़ गति से बढ़ाया जा रहा है जितनी पहले कभी नहीं देखी गई।

मसूरी सुरंग बायपास की घोषणा हाल ही में की गई। ट्राफिक कम करने के नाम पर 700 करोड़ रुपए की ऐसी सुरंग परियोजना लाई गई है जिससे लगभग 3000 पेड़ कटेंगे। इसके अतिरिक्त चूने-पत्थर की चट्टानों में उपस्थित प्राकृतिक जल-व्यवस्था ध्वस्त होगी।

मसूरी के पहाड़ गंगा व यमुना के जल-ग्रहण क्षेत्रों के बीच के पहाड़ हैं व यहां के जल-स्रोतों को क्षतिग्रस्त करना देश को बहुत महंगा पड़ सकता है। ध्यान रहे कि जब पानी को सोखने की क्षमता रखने वाली, संरक्षित रखने वाली इन चट्टानों को खनन से नष्ट व तबाह किया जा रहा था और बहुत से भूस्खलनों ने अनेक गांवों के जीवन को संकटग्रस्त कर दिया था, उस समय सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों पर ही मसूरी व आसपास के क्षेत्र में चूना पत्थर के खनन को रोका गया था। इन चट्टानों में जो संरक्षित पानी है, उससे अनेक गांवों के जल-स्रोतों व झरनों में पानी बना रहता है।

हिमालय की अनेक हाइवे परियोजनाओं के क्रियान्वयन के दौरान देखा गया है कि अनेक भूस्खलन क्षेत्र सक्रिय हो गए हैं व कुछ नए भूस्खलन क्षेत्र उत्पन्न हो गए हैं। खर्च बचाने के लिए या जल्दबाज़ी में सड़क के लिए सीधा रास्ता दिया जाता है व ज़रूरी सावधानियों की उपेक्षा की जाती है। जो तरीके आज़माए जाते हैं या भूस्खलन रोकने के प्रयास किए जाते हैं वे प्रायः पर्याप्त नहीं होते हैं। परिणाम यह है कि भूस्खलनों के कारण बहुत से मार्ग समय-समय पर अवरुद्ध होने लगते हैं व ट्राफिक को गति देने का लक्ष्य भी वास्तव में प्राप्त नहीं हो पाता है।

यह सच है कि लोगों को अधिक चौड़ी सड़कों पर गाड़ी चलाना अच्छा लगता है, पर हिमालय क्षेत्र में जहां एक-एक पेड़ अमूल्य है, वहां यह पूछना भी ज़रूरी है कि हाइवे को अधिक चौड़ा करने के प्रयास में कितने पेड़ काटे गए। सरकारी आंकड़ों के आधार पर ही ऐसी एक ही परियोजना में हज़ारों पेड़ कट सकते हैं, कट रहे हैं, पर वास्तविक क्षति इससे भी अधिक है। चारधाम हाइवे परियोजना क्षेत्र (उत्तराखंड) में एक अनुभवी सामाजिक कार्यकर्ता ने बताया कि एक बड़े पेड़ को काटने के प्रयास में अनेक छोटे पेड़ भी क्षतिग्रस्त होते हैं। पूरे हिमालय क्षेत्र में इस तरह गिरने वाले पेड़ों की संख्या लाखों में है।

अतः क्या यह उचित नहीं है कि हाइवे व सुरंगों की परियोजनाएं बनाते समय यह ध्यान में रखा जाए कि पर्यावरणीय व सामाजिक क्षति को कैसे न्यूनतम किया जा सकता है। परवाणू सोलन हाइवे (हिमाचल प्रदेश) को हाल ही में बहुत चौड़ा कर दिया गया है। आज धर्मफर, कुमारहट्टी जैसे अनेक स्थानों पर आपको आसपास के गांववासी व दुकानदार बताएंगे कि उनका रोज़गार उजड़ गया व मुआवज़ा बहुत कम मिला। यदि आप थोड़ा और कष्ट कर आसपास के गांवों में पहुंचेंगे तो स्थिति और भी दर्दनाक हो सकती है। लगभग दो वर्ष पहले जब मैं गांव में गया तो लोगों ने बताया है कि यह एक समय बहुत खूबसूरत दृश्यों वाला खुशहाल गांव था पर हाइवे को चौड़ा करने के दौरान जो भूस्खलन व अस्थिरता हुई तो मकान, दुकान, गोशाला सबकी क्षति हुई व पूरा गांव ही संकटग्रस्त हो चुका है।

हाइवे पर नए मॉडल की कार दौड़ाते हुए सैलानियों को प्रायः इतनी फुरसत नहीं होती है, पर हमें यह जानने का प्रयास करना चाहिए कि हाइवे व सुरंगों का गांववासियों, वृक्षों, हरियाली, जल-स्रोतों व पगडंडियों पर क्या असर हुआ। ऐसी अनेक रिपोर्टें आई हैं कि निर्माण कार्य में हुई असावधानियों के कारण आसपास के किसी गांव में मलबा व वर्षा का जल प्रवेश कर गया, या मलबे के नीचे गांव की पगडंडी बाधित हो गई। यदि इन सभी पर्यावरणीय व सामाजिक तथ्यों का सही आकलन हो, तो कम से कम सरकार के पास एक महत्वपूर्ण संदेश जाएगा कि इन उपेक्षित पक्षों पर भी ध्यान देना ज़रूरी है।

हाल ही में जून में जब मसूरी सुरंग बायपास योजना की घोषणा उच्च स्तर पर हुई तो अनेक स्थानीय लोगों ने ही नहीं, विशेषज्ञों व अधिकारियों तक ने इस बारे में आश्चर्य व्यक्त किया कि उनसे तो इस बारे में कोई परामर्श नहीं किया गया। मसूरी के बहुत पास देहरादून है जो देश में वानिकी व भू-विज्ञान विशेषज्ञों का एक बड़ा केंद्र है। इनमें से कुछ विशेषज्ञों ने भी कहा कि उन्हें इस परियोजना के बारे में पहले कुछ नहीं पता था।

दूसरी ओर अनेक स्थानीय लोग बताते हैं कि यदि समुचित स्थानीय परामर्श किया जाए तो सामाजिक व पर्यावरणीय दुष्परिणामों को न्यूनतम करने के साथ आर्थिक बजट को भी बहुत कम रखते हुए ट्राफिक समस्याओं को सुलझाया जा सकता है। दूसरी ओर, कुछ लोग कहते हैं कि अधिक बजट की योजना बनती है तो अधिक कमीशन मिलता है।

पर यदि पर्वतीय विकास को सही राह पर लाना है तो पहाड़ी लोगों की समस्याओं को कम करने वाले छोटे संपर्क मार्गों की स्थिति सुधारने पर अधिक ध्यान देना होगा व हिमालयवासियों की वास्तविक ज़रूरतों को समझते हुए हिमालय का विकास करना होगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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चीन विदेशों में कोयला बिजली घर निर्माण नहीं करेगा

हाल ही में चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने संयुक्त राष्ट्र महासभा में यह वचन दिया है कि उनका देश विदेशों में कोयला आधारित नई बिजली परियोजनाओं का निर्माण नहीं करेगा। यह निर्णय वैश्विक जलवायु के हिसाब से काफी स्वागत योग्य है। चीन दुनिया में नए कोयला संयंत्रों का सबसे बड़ा वित्तपोषक रहा है। लिहाज़ा, यह निर्णय काफी महत्वपूर्ण हो सकता है।

वैसे, शंघाई स्थित फुडान युनिवर्सिटी के विकास अर्थशास्त्री क्रिस्टोफ नेडोपिल के मुताबिक यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है क्योंकि चीन के सरकारी संस्थान कई वर्षों से संभावित कोयला मुक्ति का मूल्यांकन करने के लिए चीनी और अंतर्राष्ट्रीय भागीदारों के साथ काम करते रहे हैं। नेडोपिल द्वारा जून में जारी रिपोर्ट के अनुसार विकाशसील देशों में बुनियादी ढांचे के निर्माण की व्यापक योजना, चाइना बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई), से सम्बंधित 52 कोयला आधारित उर्जा संयंत्रों में से 33 या तो हटा दिया गए हैं या फिर रद्द कर दिए गए हैं, सात निर्माणाधीन हैं, 11 नियोजन में हैं और केवल एक संयंत्र अभी क्रियाशील है।

इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि 2020 में पहली बार सौर, पवन और पनबिजली ऊर्जा में बीआरआई का निवेश जीवाश्म र्इंधन पर खर्च से काफी अधिक रहा है। इससे यह कहा जा सकता है कि नवीकरणीय उर्जा की लगातार घटती लागत चीन के कोयले में निवेश को कम कर रही है।

इस विषय में बोस्टन युनिवर्सिटी के वैश्विक विकास विशेषज्ञ केविन गैलागर के अनुसार चीन विदेशी कोयला परियोजनाओं के लिए सरकारी वित्तीय सहायता को समाप्त करने वाला अंतिम प्रमुख देश है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि विकासशील देशों में कोयले से चलने वाले बिजली संयंत्रों का निर्माण रुक जाएगा। आम तौर पर माना जाता है कि अधिकांश कोयला संयंत्रों का वित्तपोषण चीन के सरकारी बैंकों द्वारा किया जाता है लेकिन ग्लोबल डेवलपमेंट पॉलिसी सेंटर के अनुसार तथ्य यह है कि विदेशी कोयला संयंत्रों में वैश्विक निवेश में 87 प्रतिशत तो जापान और पश्चिमी देशों के वित्तीय संस्थानों से आता है। ऐसे निजी संस्थानों द्वारा कोयला संयंत्रों के लिए वित्तीय सहायता जारी रही तो वैश्विक जलवायु के लक्ष्यों को प्राप्त नहीं किया जा सकेगा।

शी के वक्तव्य के बाद चीन की घरेलू कोयला परियोजनाओं पर भी ध्यान देना होगा। इंटरनेशनल एनर्जी एजेंसी के अनुसार 2020 में चीन एकमात्र ऐसी बड़ी अर्थव्यवस्था थी जिसका वार्षिक कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन बढ़ा है। ग्लोबल एनर्जी मॉनिटर के अनुसार चीन ने पिछले वर्ष 38.4 गीगावाट क्षमता के नए कोयला संयंत्र शुरू किए हैं। संस्था का दावा है कि चीन के कई प्रांतों ने कोविड-19 महामारी के मद्देनज़र अपनी अर्थव्यवस्था को मज़बूत करने के लिए कई कोयला परियोजनाओं का उपयोग किया है। चीन ने यह भी वादा किया है कि उसका कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन 2030 में अधिकतम को छूकर कम होने लगेगा। इस लक्ष्य के मद्देनज़र चीन को चाहिए कि अन्य विकासशील देशों में कोयले के संयंत्रों के निर्माण पर रोक लगाने के साथ-साथ कोयले पर घरेलू निर्भरता को कम करने का भी प्रयास करे। (स्रोत फीचर्स)

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वायु गुणवत्ता के नए दिशानिर्देश

र साल लगभग 70 लाख लोग वायु प्रदूषण के कारण मारे जाते हैं। इनमें से अधिकांश वे लोग हैं जो निम्न और मध्यम आय वाले देशों में रहते हैं। वायु प्रदूषण के कारण क्रॉनिक ऑब्सट्रक्टिव पल्मोनरी डिसीज़ (सीओपीडी), हृदय रोग, फेफड़े के कैंसर, निमोनिया और स्ट्रोक का जोखिम रहता है। गत 22 सितंबर को विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने वायु गुणवत्ता के लिए नए वैश्विक दिशानिर्देश जारी किए। इनमें प्रमुख प्रदूषकों की सांद्रता के नए स्तर के साथ-साथ अंतरिम तौर पर कुछ नए प्रदूषकों के स्तर भी सुझाए हैं। इसके अलावा, कुछ तरह के कणीय पदार्थ (जैसे ब्लैक कार्बन) के नियंत्रण के लिए भी अच्छे कामकाज की अनुशंसाएं जारी की हैं क्योंकि इनके मानक तय करने के लिए फिलहाल पर्याप्त प्रमाण नहीं हैं।

डब्ल्यूएचओ ने पिछले वायु गुणवत्ता दिशानिर्देश 2005 में जारी किए थे। तब से, वायु प्रदूषण के स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभावों के प्रमाणों में काफी वृद्धि हुई है। दिशानिर्देश विकसित करने वाले समूह के एक सदस्य माइकल ब्रावर के मुताबिक पूर्व में दिशानिर्देश उत्तरी अमेरिका और पश्चिमी युरोप में हुए अध्ययनों से प्राप्त डैटा पर बहुत अधिक निर्भर थे और इन्हें पूरी दुनिया के लिए लागू किया गया था लेकिन अब हमारे पास निम्न और मध्यम आय वाले क्षेत्रों का भी काफी डैटा है। इसके अलावा, आज वायु प्रदूषकों के स्तर और रुझानों को मापने और उनके जोखिम का आकलन करने के बेहतर तरीके हैं, और वैश्विक स्तर पर कुछ वायु प्रदूषकों के आबादी से संपर्क के बारे में बेहतर जानकारी है। अध्ययनों में पता चला है कि वायु प्रदूषण का बहुत कम स्तर भी स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है।

2021 के दिशानिर्देशों में लगभग हर प्रदूषक के लिए 2005 में जारी किए गए स्वीकार्य स्तर से बहुत कम स्तर की सिफारिश की गई है। वर्तमान सिफारिश में, 2.5 माइक्रोमीटर व्यास (पीएम2.5) के या उससे छोटे कणीय पदार्थ के लिए औसत वार्षिक सीमा पिछली सीमा से आधी कर दी गई है। पीएम2.5 के कण र्इंधन जलने के कारण उत्पन्न होते हैं जो स्वास्थ्य के लिए बहुत ही खतरनाक होते हैं। ये कण न सिर्फ फेफड़ों में भीतर तक जाते हैं बल्कि रक्तप्रवाह में भी प्रवेश कर सकते हैं।

नए दिशानिर्देशों में ज़हरीली गैस नाइट्रोजन डाईऑक्साइड का स्तर भी पिछले स्तर से 75 प्रतिशत तक कम कर दिया गया है। ओज़ोन के लिए ग्रीष्मकालीन माध्य सांद्रता का स्तर भी जारी किया गया है। कार्बन मोनोऑक्साइड, पीएम10 और सल्फर डाईऑक्साइड के लिए संशोधित दिशानिर्देश भी जारी किए गए हैं।

डब्ल्यूएचओ का कहना है कि यदि नए दिशानिर्देशों को विश्व स्तर पर हासिल कर लिया जाता है तो पीएम2.5 के संपर्क में आने के कारण होने वाली मौतों की संख्या लगभग 80 प्रतिशत कम हो जाएगी। लेकिन दिल्ली अभी दूर है। वर्तमान में, विश्व की 90 प्रतिशत से अधिक आबादी वर्ष 2005 में पीएम2.5 के लिए जारी किए गए स्तर से भी अधिक स्तर के संपर्क में है।

वायु गुणवत्ता दिशानिर्देश वास्तव में सार्वजनिक स्वास्थ्य की रक्षा के लिए एक साधन (टूल) है। डब्ल्यूएचओ का देशों से आग्रह है कि इस साधन का उपयोग कर देश वायु प्रदूषण को कम करने वाली नीतियां तैयार करें/लागू करें। इसके अलावा, डब्ल्यूएचओ का आग्रह है कि सदस्य देश वायु गुणवत्ता निगरानी प्रणाली स्थापित करें, वायु गुणवत्ता सम्बंधी डैटा तक लोगों की पहुंच सुनिश्चित करें और डब्ल्यूएचओ के दिशानिर्देशों को कानूनी मानकों का रूप दें।

बर्मिंघम विश्वविद्यालय में पर्यावरण स्वास्थ्य के प्रोफेसर रॉय हैरिसन का कहना है कि दिशानिर्देश बहुत महत्वपूर्ण हैं लेकिन इन्हें हासिल करना बेहद चुनौतीपूर्ण है, और इसकी संभावना बहुत कम है कि कई देश कई दशकों तक इन्हें हासिल कर पाएंगे। हालांकि कोविड-19 के दौरान के अनुभव से हम जानते हैं कि मोटर वाहनों की गतिविधि कम करने से वायु गुणवत्ता पर नाटकीय प्रभाव पड़ सकता है। वैश्विक स्तर पर यातायात में बहुत अधिक कमी होने की उम्मीद करना अवास्तविक है लेकिन वायु गुणवत्ता को कम करने के प्रयास में सड़क वाहनों का विद्युतीकरण किया जा सकता है।

हालांकि कुछ वैज्ञानिकों का कहना है कि सुझाए गए नए स्तर से भी कम स्तर पर प्रदूषकों की उपस्थिति स्वास्थ्य को प्रभावित कर सकती है। महत्वपूर्ण यह है हर साल जितना हो सके इस प्रदूषण से संपर्क को कम करने की दिशा में प्रयास किए जाएं, ताकि आबादी को स्वास्थ्य सम्बंधी उल्लेखनीय लाभ मिल सकें। (स्रोत फीचर्स)

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जलवायु परिवर्तन और जीवाश्म ईंधन

हाल ही में नेचर में प्रकाशित एक अध्ययन का निष्कर्ष है कि यदि हम धरती के बढ़ते तापमान को थामना चाहते हैं तो हमें अपने जीवाश्म ईंधन के 90 प्रतिशत आर्थिक रूप से व्यावहारिक भंडार को अछूता छोड़ देना पड़ेगा। जलवायु सम्बंधी पैरिस संधि में कहा गया है कि धरती का तापमान औद्योगिक-पूर्व ज़माने से 1.5 डिग्री सेल्सियस से अधिक नहीं बढ़ने देना है। और इस लक्ष्य को पाने के लिए वर्ष 2100 से पूर्व दुनिया में कार्बन डाईऑक्साइड का उत्सर्जन 580 गिगाटन से ज़्यादा नहीं हो सकता। यदि इसे मानें तो, युनिवर्सिटी कॉलेज लंदन के पर्यावरण व ऊर्जा अर्थ शास्त्री डैन वेलस्बी ने गणना की है कि हमें 89 प्रतिशत कोयला, 58 प्रतिशत तेल और 59 प्रतिशत गैस भंडारों को हाथ लगाने की सोचना भी नहीं चाहिए। और तो और, उनके मुताबिक ये सीमाएं और कठोर बनानी पड़ सकती हैं। 

दरअसल, यह नया अध्ययन 2015 में विकसित एक मॉडल को विस्तार देता है। वह मॉडल धरती के औसत तापमान को उद्योग-पूर्व काल से 2 डिग्री सेल्सियस अधिक होने से रोकने के लक्ष्य को ध्यान में रखकर बनाया गया था। लेकिन वेलस्बी का मत है कि 2 डिग्री की वृद्धि बहुत अधिक साबित होगी।

वेलस्बी के मॉडल में सारे प्राथमिक ऊर्जा स्रोतों को ध्यान में रखा गया है – जीवाश्म ईंधन, जैव-पदार्थ, परमाणु तथा नवीकरणीय ऊर्जा। मॉडल में मांग, आर्थिक कारकों, संसाधनों के भौगोलिक वितरण और उत्सर्जन जैसी सभी बातों को शामिल किया गया है और देखा गया है कि समय के साथ इनमें क्या परिवर्तन आएंगे। मॉडल में ऋणात्मक उत्सर्जन टेक्नॉलॉजी (यानी वातावरण में से कार्बन डाईऑक्साइड को हटाने) पर भी ध्यान दिया गया है।

वेलस्बी के मॉडल के मुताबिक वर्ष 2050 तक तेल व गैस उत्पादन प्रति वर्ष 3 प्रतिशत कम होते जाना चाहिए। वैसे इस संदर्भ में क्षेत्रीय अंतर भी देखे जा सकते हैं। इसका मतलब होगा कि अधिकतम जीवाश्म ईंधन उत्पादन इसी दशक में आ जाएगा।

मॉडल में वातावरण में से कार्बन डाईऑक्साइड को हटाने की रणनीतियों पर भी विचार किया गया है। ऐसी टेक्नॉलॉजी से आशय है कि पहले आप वातावरण में कार्बन डाईऑक्साइड छोड़ें और फिर उसे हटाने के उपाय करें। लेकिन कई वैज्ञानिकों के अनुसार यह जोखिमभरा हो सकता है। उनके मुताबिक इसका मतलब सिर्फ इतना ही है कि हम समस्या को थोड़ा आगे सरका रहे हैं। क्योंकि उत्सर्जन तो बदस्तूर जारी रहेगा। (स्रोत फीचर्स) 

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प्रदूषण से विशाल सीप तेज़ी से वृद्धि कर रही है

हाल ही में देखा गया है कि प्रदूषण के कारण विशाल सीप (क्लैम) अपने पूर्वजों की अपेक्षा तेज़ी से वृद्धि करती हैं।

प्रदूषण और समुद्र के बढ़ते तापमान के कारण कोरल रीफ का पारिस्थितिकी तंत्र तबाह हो रहा है। लेकिन कोरल को तबाह करने वाली स्थितियां उत्तरी लाल सागर में पाई जाने वाली विशाल सीप को बढ़ने में मदद कर रही हैं।

विशाल सीप पश्चिमी प्रशांत महासागर और हिंद महासागर की उथली चट्टानों में पाई जाती हैं। वृद्धि के दौरान उनकी खोल पर पट्टियां बनती जाती हैं जो उनकी वार्षिक वृद्धि, यहां तक कि दैनिक वृद्धि, को दर्शाती हैं। कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के डैनियल किलम और उनके साथियों ने लाल सागर के उत्तरी छोर से एकत्रित विशाल सीप की आधुनिक और जीवाश्मित तीन प्रजातियों (ट्राइडेकना स्क्वामोसा, टी. मैक्सिमा और टी. स्क्वामोसिना) के कवच में विकास पट्टियों का विश्लेषण किया।

पाया गया कि आधुनिक विशाल सीप प्राचीन विशाल सीप की तुलना में तेज़ी से बढ़ती हैं। सीप के कवच के कार्बनिक पदार्थों के विश्लेषण से पता चला कि आधुनिक सीप प्रदूषण कारक नाइट्रेट को खाती है, जो सीप की कोशिकाओं पर रहने वाली सहजीवी शैवाल को भी बढ़ने में मदद करती है जिससे उन्हें अतिरिक्त र्इंधन मिल जाता है। इसके अलावा, ठंड कम होने और मौसमी तूफानों में कमी भी सीप के विकास में मदद करती है। लेकिन सीप की तेज़तर वृद्धि उनके समग्र स्वास्थ्य में सुधार को प्रतिबिंबित नहीं करती है।(स्रोत फीचर्स)

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पर्यावरण संकट और महात्मा गांधी – भारत डोगरा

लवायु बदलाव के संकट पर चर्चा चरम पर है। इस समस्या की गंभीरता के बारे में आंकड़े और अध्ययन तो निरंतर बढ़ रहे हैं, किंतु दुख व चिंता की बात है कि समाधान की राह स्पष्ट नहीं हो रही है।

इस अनिश्चय की स्थिति में महात्मा गांधी के विचारों को नए सिरे से टटोलना ज़रूरी है। उनके विचारों में मूलत: सादगी को बहुत महत्त्व दिया गया है, अत: ये विचार हमें जलवायु बदलाव तथा अन्य गंभीर पर्यावरणीय समस्याओं के समाधान की ओर भी ले जाते हैं।

जानी-मानी बात है कि जलवायु बदलाव के संकट को समय रहते नियंत्रित करने के लिए ग्रीनहाऊस गैसों के उत्सर्जन को कम करना बहुत ज़रूरी है। यह अपने में सही बात है, पर इसके साथ एक अधिक व्यापक सच्चाई है कि केवल तकनीकी उपायों से ही पर्यावरण का संकट हल नहीं हो सकता है।

यदि कुछ तकनीकी उपाय अपना लिए जाएं, जीवाश्म र्इंधन को कम कर नवीकरणीय ऊर्जा को अधिक अपनाया जाए तो यह अपने आप में बहुत अच्छा व ज़रूरी बदलाव होगा। पर यदि साथ में सादगी व समता के सिद्धांत को न अपनाया गया, विलासिता व विषमता को बढ़ाया गया, छीना-छपटी व उपभोगवाद को बढ़ाया गया, तो आज नहीं तो कल, किसी न किसी रूप में पर्यावरण समस्या बहुत गंभीर रूप ले लेगी।

महात्मा गांधी के समय में ग्रीनहाऊस गैसों का उत्सर्जन कम करने की ज़रूरत तो नहीं महसूस की जा रही थी, पर उन्होंने उस समय ही पर्यावरण की समस्या का मर्म पकड़ लिया था जब उन्होंने कहा था कि धरती के पास सबकी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए तो पर्याप्त संसाधन हैं, पर लालच को पूरा करने के लिए नहीं।

उन्होंने अन्याय व विषमता के विरुद्ध लड़ते हुए विकल्प के रूप में ऐसे सब्ज़बाग नहीं दिखाए कि सफलता मिलने पर तुम भी मौज-मस्ती से रहना। उन्होंने मौज-मस्ती और विलासिता को नहीं, मेहनत और सादगी को प्रतिष्ठित किया। सभी लोग मेहनत करें और इसके आधार पर किसी को कष्ट पहुंचाए बिना अपनी सभी बुनियादी ज़रूरतों को पूरा कर सकें व मिल-जुल कर रहें, सार्थक जीवन का यह बहुत सीधा-सरल रूप उन्होंने प्रस्तुत किया।

दूसरी ओर, आज अंतहीन आर्थिक विकास की ही बात हो रही है जबकि विषमता व विलासिता के विरुद्ध कुछ नहीं कहा जा रहा है। विकास के इस मॉडल में कुछ लोगों के विलासितपूर्ण जीवन के लिए दूसरों के संसाधन छिनते हैं व पर्यावरण का संकट विकट होता है। इसके बावजूद इस मॉडल पर ही अधिक तेज़ी से आगे बढ़ने को महत्व मिल रहा है। इस कारण विषमता बढ़ रही है, अभाव बढ़ रहे हैं, असंतोष बढ़ रहा है और हिंसा व युद्ध के बुनियादी कारण बढ़ रहे हैं।

जबकि गांधी की सोच में अहिंसा, सादगी, समता, पर्यावरण की रक्षा का बेहद सार्थक मिलन है। अत: धरती पर आज जब जीवन के अस्तित्व मात्र का संकट मौजूद है, मौजूदा विकास मॉडल के विकल्प तलाशने में महात्मा गांधी के जीवन व विचार से बहुत सहायता व प्रेरणा मिल सकती है।

जलवायु बदलाव व ग्रीनहाऊस गैसों के उत्सर्जन को कम करने के लिए कभी-कभी कहा जाता है कि ऊर्जा आवश्यकता को पूरा करने के लिए बहुत बड़े पैमाने पर परमाणु ऊर्जा संयंत्र लगाए जाएं। पर खनन से लेकर अवशेष ठिकाने लगाने तक परमाणु ऊर्जा में भी खतरे ही खतरे हैं, गंभीर समस्याएं हैं। साथ में परमाणु बिजली उत्पादन के साथ परमाणु हथियारों के उत्पादन की संभावना का मुद्दा भी जुड़ा हुआ है। अत: जलवायु बदलाव के नियंत्रण के नाम पर परमाणु बिजली के उत्पादन में तेज़ी से वृद्धि करना उचित नहीं है।

इसी तरह कुछ लोग पनबिजली परियोजनाओं के बड़े बांध बनाने पर ज़ोर दे रहे हैं। लेकिन बांध-निर्माण से जुड़ी अनेक गंभीर सामाजिक व पर्यावरणीय समस्याएं पहले ही सामने आ चुकी हैं। कृत्रिम जलाशयों में बहुत मीथेन गैस का उत्सर्जन भी होता है जो कि एक ग्रीनहाऊस गैस है। अत: जलवायु बदलाव के नियंत्रण के नाम पर बांध निर्माण में तेज़ी लाना किसी तरह उचित नहीं है।

जलवायु बदलाव के नियंत्रण को प्राय: एक तकनीकी मुद्दे के रूप में देखा जाता है, ऐसे तकनीकी उपायों के रूप में जिनसे ग्रीनहाऊस गैसों का उत्सर्जन कम हो सके। यह सच है कि तकनीकी बदलाव ज़रूरी हैं पर जलवायु बदलाव का मुद्दा केवल इन तक सीमित नहीं है।

जलवायु बदलाव को नियंत्रित करने के लिए जीवन-शैली में बदलाव ज़रूरी है, व इसके साथ जीवन-मूल्यों में बदलाव ज़रूरी है। उपभोगवाद का विरोध ज़रूरी है, विलासिता, नशे, युद्ध व हथियारों की दौड़ व होड़ का विरोध बहुत ज़रूरी है। पर्यावरण पर अधिक बोझ डाले बिना सबकी ज़रूरतें पूरी करनी है तो न्याय व साझेदारी की सोच ज़रूरी है।

अत: जलवायु बदलाव नियंत्रण का सामाजिक पक्ष बहुत महत्वपूर्ण है। आज विश्व के अनेक बड़े मंचों से बार-बार कहा जा रहा है कि जलवायु बदलाव को समय रहते नियंत्रण करना बहुत ज़रूरी है, पर क्या मात्र कह देने से या आह्वान करने से समस्या हल हो जाएगी। वास्तव में लोग तभी बड़ी संख्या में इसके लिए आगे आएंगे जब आम लोगों में, युवाओं व छात्रों में, किसानों व मज़दूरों के बीच न्यायसंगत व असरदार समाधानों के लिए तीन-चार वर्षों तक धैर्य से, निरंतरता व प्रतिबद्धता से कार्य किया जाए। तकनीकी पक्ष के साथ सामाजिक पक्ष को समुचित महत्व देना बहुत ज़रूरी है।

एक अन्य सवाल यह है कि क्या मौजूदा आर्थिक विकास व संवृद्धि के दायरे में जलवायु बदलाव जैसी गंभीर पर्यावरणीय समस्याओं का समाधान हो सकता है? मौजूदा विकास की गंभीर विसंगतियां और विकृतियां ऐसी ही बनी रहीं तो क्या जलवायु बदलाव जैसी गंभीर पर्यावरणीय समस्याएं नियंत्रित हो सकेंगी? इस प्रश्न का उत्तर है ‘नहीं’। वजह यह है कि मौजूदा विकास की राह में बहुत विषमता और अन्याय व प्रकृति का निर्मम दोहन है।

पहले यह कहा जाता था कि संसाधन सीमित है उनका सही वितरण करो। पर अब तो ग्रीनहाऊस गैसों के उत्सर्जन से जुड़ी कार्बन की सीमा है। इस सीमा के अंदर ही हमें सब लोगों की ज़रूरतों को टिकाऊ आधार पर पूरा करना है। अत: अब विषमता को दूर करना, विलासिता व अपव्यय को दूर करना, समता व न्याय को ध्यान में रखना, भावी पीढ़ी के हितों को ध्यान में रखना पहले से भी कहीं अधिक ज़रूरी हो गया है।

सही व विस्तृत योजना बनाना इस कारण और ज़रूरी हो गया है कि ग्रीनहाऊस गैसों के उत्सर्जन को तेज़ी से कम करते हुए सब लोगों की बुनियादी ज़रूरतों को न्यायसंगत व टिकाऊ ढंग से पूरा करना है। यह एक बहुत बड़ी चुनौती है जिसके लिए बहुत रचनात्मक समाधान ढूंढने होंगे। जैसे, युद्ध व हथियारों की होड़ को समाप्त किया जाए या न्यूनतम किया जाए, बहुत बरबादीपूर्ण उत्पादन व उपभोग को समाप्त किया जाए या बहुत नियंत्रित किया जाए। पर्यावरण के प्रति समग्र दृष्टिकोण अपनाने से इन सभी प्रक्रियाओं में बहुत सहायता मिलेगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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चंद्रमा के डगमगाने से बाढ़ों की संभावना – सुदर्शन सोलंकी

पिछली शताब्दी में वैश्विक समुद्र स्तर में वृद्धि हुई है और हाल के दशकों में इसकी दर तेज़ी से बढ़ रही है। यूएस नेशनल ओशेनिक एंड एटमॉस्फेरिक एडमिनिस्ट्रेशन (एनओएएस) के अनुसार वर्ष 1880 और 2015 के बीच औसत वैश्विक समुद्र स्तर लगभग 22 से.मी. बढ़ा है। इसमें से एक-तिहाई वृद्धि तो पिछले 25 साल में ही हुई।

विश्व के वैज्ञानिक जलवायु परिवर्तन को लेकर अध्ययन करके संभावित नुकसान से बचने के लिए चेतावनियां भी जारी करते हैं। शोधकर्ताओं का मानना है कि ग्लोबल वॉर्मिंग और जलवायु परिवर्तन के कारण ही प्राकृतिक आपदाओं की दुर्घटनाएं एवं विनाशकारिता बढ़ी है। वर्तमान में पूरी दुनिया जलवायु परिवर्तन के कारण प्राकृतिक आपदाओं से जूझ रही है। परंतु अब इसमें एक नया कारक जुड़ गया है।

नेचर क्लाइमेट चेंज में छपी एक रिपोर्ट के अनुसार, जलवायु परिवर्तन के कारण समुद्र के स्तर में बढ़ोतरी के साथ-साथ चंद्रमा की कक्षा डगमगाने से भी पृथ्वी पर विनाशकारी बाढ़ें आ सकती है। इस अध्ययन में यह पूर्वानुमान लगाया गया है कि अमेरिकी तटीय इलाकों में 2030 के दशक में उच्च ज्वार के कारण बाढ़ के स्तर में बढ़ोतरी होगी। नासा के अनुसार ये विनाशकारी बाढ़ें लगातार और अनियमित रूप से जनजीवन को प्रभावित करेगी। अमेरिका में तटीय क्षेत्र जो अभी महीने में सिर्फ दो या तीन बाढ़ का सामना करते हैं, वे अब एक दर्जन या उससे भी अधिक का सामना कर सकते हैं। अध्ययन में यह चेतावनी भी दी गई है कि यह बाढ़ पूरे साल प्रभावित नहीं करेगी बल्कि कुछ ही महीनों में बड़े पैमाने पर अपना असर दिखाएगी।

ज्वार आने में चंद्रमा के गुरुत्वाकर्षण की भूमिका होती है। गुरुत्वाकर्षण में उथल-पुथल उसकी कक्षा के डगमगाने से होता है। चंद्रमा की कक्षा में होने वाली इस तरह की डगमग को मून वॉबल कहते हैं, जिसे सन 1728 में खोजा गया था। एनओएएस के अनुसार वर्ष 2019 में अटलांटिक और खाड़ी तटों पर बाढ़ की 600 से ज़्यादा इस तरह की घटनाएं देखी गई थीं।

समुद्र के स्तर के साथ चंद्रमा की कक्षा के डगमगाने का जुड़ना अत्यधिक खतरनाक है। शोधकर्ताओं के अनुसार, चंद्रमा के गुरुत्वाकर्षण खिंचाव, समुद्र के बढ़ते स्तर और जलवायु परिवर्तन का संयोजन पृथ्वी पर समुद्र तटों और दुनिया भर में तटीय बाढ़ को बढ़ाता है। इस अध्ययन के प्रमुख लेखक और हवाई विश्वविद्यालय में सहायक प्रोफेसर फिल थॉम्पसन ने कहा है कि चंद्रमा की कक्षा में इस डगमग को एक चक्र पूरा करने में 18.6 वर्ष लगते हैं। नासा के अनुसार 18.6 सालों की आधी अवधि में पृथ्वी पर नियमित दैनिक ज्वार कम ऊंचे हो जाते हैं और बाकी आधी अवधि में ठीक इसका उलटा होता है।

नासा ने यह भी कहा कि जलवायु चक्र में अल-नीनो जैसी घटनाएं भी बाढ़ को बढ़ावा देंगी। नासा की जेट प्रपल्शन लेबोरेटरी के वैज्ञानिक बेन हैमलिंगटन ने कहा कि इस तरह की घटनाएं पूरे महीने होंगी। यह भी संभावना है कि साल के किसी एक हिस्से में बहुत ज़्यादा बाढ़ें आ जाएंगी। यह सबसे ज़्यादा अमेरिका को प्रभावित करेगा क्योंकि इस देश में तटीय पर्यटन स्थल बहुत ज़्यादा हैं। शोधकर्ताओं ने आगाह किया कि अगर देशों ने अभी से इससे निपटने की योजना शुरू नहीं की, तो तटीय बाढ़ से लंबे समय तक जीवन और आजीविका बुरी तरह प्रभावित होगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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शिपिंग नियम: हवा तो स्वच्छ लेकिन जल प्रदूषण

हाल ही में हुआ अध्ययन बताता है कि जहाज़ों के ईंधन से होने वाले वायु प्रदूषण को कम करने के उद्देश्य से शिपिंग नियम में किए गए बदलावों के कारण जल प्रदूषण बढ़ा है। दरअसल नए नियमों के बाद अधिकांश जहाज़ मालिकों ने जहाज़ में स्क्रबिंग उपकरण लगा लिए हैं जो प्रदूषकों को पानी में रोक लेते हैं। फिर यह पानी समुद्र में फेंक दिया जाता है, जो प्रदूषण का कारण बन रहा है।

अध्ययन के अनुसार स्क्रबर से लैस लगभग 4300 जहाज़ हर साल कम से कम 10 गीगाटन अपशिष्ट जल समुद्र में, अक्सर बंदरगाहों और कोरल चट्टानों के पास छोड़ रहे हैं। लेकिन शिपिंग उद्योग का कहना है कि इस पानी में प्रदूषकों का स्तर राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय सीमा से अधिक नहीं हैं, और इससे नुकसान के भी कोई प्रमाण नहीं मिले हैं। लेकिन कुछ शोधकर्ता अपशिष्ट जल इस तरह बहाए जाने से चिंतित हैं क्योंकि इसमें तांबा जैसी विषैली धातुएं और पॉलीसाइक्लिक एरोमेटिक हाइड्रोकार्बन जैसे कैंसरजनक यौगिक होते हैं। शोधकर्ताओं के मुताबिक इस तरह की प्रणालियों पर प्रतिबंध लगाना चाहिए।

दरअसल, अंतर्राष्ट्रीय सामुद्रिक संगठन (आईएमओ) ने वर्ष 2020 में अम्लीय वर्षा और स्मॉग के लिए ज़िम्मेदार प्रदूषकों के उत्सर्जन को कम करने के उद्देश्य से जहाज़ों में अति सल्फर युक्त ईंधन के उपयोग पर प्रतिबंध लगाया था। अनुमान था कि इससे सल्फर उत्सर्जन में 77 प्रतिशत तक की कमी आएगी, और बंदरगाहों व तटीय इलाकों के नज़दीक रहने वाले लोगों के स्वास्थ्य को हानि से बचाया जा सकेगा।

लेकिन स्वच्छ ईंधन की लागत सल्फर-युक्त ईंधन से 50 प्रतिशत अधिक है। और नया नियम छूट देता है कि जहाज़ों में स्क्रबर लगा कर सल्फर-युक्त सस्ता ईंधन उपयोग किया जा सकता है। जहाज़रानी उद्योग के अनुसार वर्ष 2015 तक ढाई सौ से भी कम जहाज़ों में स्क्रबर लगे थे और वर्ष 2020 में इनकी संख्या बढ़कर 4300 से भी अधिक हो गई।

स्क्रबर पानी का छिड़काव कर प्रदूषकों को आगे जाने से रोक देता है। सबसे प्रचलित ओपन लूप स्क्रबर में प्रदूषक युक्त अपशिष्ट जल को बहुत कम उपचारित करके या बिना कोई उपचार किए वापस समुद्र में छोड़ दिया जाता है। अन्य तरह के स्क्रबर अपशिष्ट को कीचड़ के रूप में जमा करते जाते हैं और अंतत: भूमि पर फेंक देते हैं। अपशिष्ट जल की तुलना में इस दलदली अपशिष्ट की मात्रा कम होती है लेकिन इसमें प्रदूषक अधिक मात्रा में होते हैं।

इंटरनेशनल काउंसिल ऑन क्लीन ट्रांसपोर्टेशन के पर्यावरण नीति शोधकर्ता ब्रायन कॉमर और उनके दल ने स्क्रबर से लैस लगभग 3600 जहाज़ों का विश्लेषण करके पाया कि एक वर्ष में 10 गीगाटन से कहीं अधिक अपशिष्ट समुद्र में छोड़ा जा रहा है। यह अनुमान से बहुत अधिक है क्योंकि एक तो अनुमान से अधिक जहाज़ स्क्रबर लगा रहे हैं, और प्रत्येक जहाज़ का अपशिष्ट भी अनुमान से कहीं अधिक है।

2019 में जहाज़ों के मार्गों के एक अध्ययन में पता चला है कि व्यस्त मार्गों पर अधिक प्रदूषक अपशिष्ट बहाया जा रहा है, जैसे उत्तरी सागर और मलक्का जलडमरूमध्य। साथ ही यह प्रदूषण कई देशों के अपने एकाधिकार वाले आर्थिक मार्गों में भी दिखा।

पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील क्षेत्रों में प्रदूषण मिलना चिंता का विषय है – जैसे ग्रेट बैरियर रीफ, जिसके नज़दीक से कोयला शिपिंग का मुख्य मार्ग है और यहां प्रति वर्ष लगभग 3.2 करोड़ टन अपशिष्ट बहाया जा रहा है।

समुद्री मार्गों पर ही नहीं, बंदरगाहों के पास भी काफी प्रदूषित अपशिष्ट बहाया जाता है, जिसमें सबसे अधिक योगदान पर्यटन जहाज़ों का है। 10 सबसे अधिक प्रदूषित बंदरगाहों में से सात बंदरगाहों में लगभग 96 प्रतिशत स्क्रबर-प्रदूषण पर्यटन जहाज़ों के कारण होता है क्योंकि इन जहाज़ों को किनारे पर भी अपने कैसीनो, गर्म पानी के पूल, एयर कंडीशनिंग और अन्य सुविधाओं को संचालित करने के लिए र्इंधन जलाना पड़ता है। बंदरगाहों पर पानी उथला होने के कारण समस्या और विकट हो जाती है।

इस पर क्लीन शिपिंग एलायंस 2020 सहित उद्योग संगठनों का कहना है कि अपशिष्ट जल के आंकड़े भ्रामक हैं। उनका तर्क है कि महत्व इस बात का है कि कचरे की विषाक्तता कितनी है, उसकी मात्रा का नहीं।

इस सम्बंध में कुछ शोधकर्ताओं ने स्क्रबर निष्कासित अपशिष्ट जल के समुद्री जीवन पर प्रभाव का परीक्षण किया। एनवायरमेंटल साइंस एंड टेक्नॉलॉजी में प्रकाशित अध्ययन बताता है कि उत्तरी सागर में चलने वाले तीन जहाज़ों से निकलने वाले अपशिष्ट जल ने कोपेपॉड (कैलेनस हेल्गोलैंडिकस) के विकास को नुकसान पहुंचाया है। कोपेपॉड एक सूक्ष्म क्रस्टेशियन है जो अटलांटिक महासागर के खाद्य जाल का एक महत्वपूर्ण अंग है। बहुत कम प्रदूषण से भी कोपेपॉड की निर्मोचन प्रक्रिया बाधित हुई, और इनकी मृत्यु दर भी जंगली कोपेपॉड से तीन गुना अधिक देखी गई। ऐसे प्रभाव खाद्य संजाल को बुरी तरह प्रभावित कर सकते हैं।

अब शोधकर्ता स्क्रबर अपशिष्ट का प्रभाव मछलियों के लार्वा पर देखना चाहते हैं, क्योंकि वे कोपेपॉड की तुलना में अधिक संवेदनशील हैं। लेकिन शिपर्स वैज्ञानिकों के साथ नमूने और डैटा साझा करने में झिझक रहे हैं। क्लीन शिपिंग एलायंस 2020 के अध्यक्ष माइक कैज़मारेक का कहना है कि हम नमूने और डैटा उन संगठनों को देने के अनिच्छुक हैं जिनकी पहले से ही एक स्थापित धारणा है। हम सिर्फ उन समूहों के साथ डैटा साझा करेंगे जो तटस्थ रहकर काम करें। समाधान तो यही है कि जहाज़ों में स्वच्छ र्इंधन (मरीन गैस ऑइल) का उपयोग किया जाए। 16 देशों और कुछ क्षेत्रों ने सबसे प्रचलित स्क्रबर्स पर प्रतिबंध लगाया है, जिसके चलते स्क्रबर अपशिष्ट में चार प्रतिशत की कमी आई है। ऐसे कदम वैश्विक स्तर पर उठाने की आवश्यकता है। (स्रोत फीचर्स)

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अमेरिका में चार बांधों को हटाने का अभियान – भारत डोगरा

र्ष 2020 में संयुक्त राज्य अमेरिका में स्नेक नदी को यहां की सबसे अधिक संकटग्रस्त नदी घोषित किया गया। इसकी मुख्य वजह यह बताई गई है कि चार बांध बनने से इस नदी से जुड़े समस्त जीव संकटग्रस्त हो गए हैं।

इस नदी के इकोसिस्टम के केंद्र में साल्मन मछली है व इसके साथ 130 अन्य जीवों का जीवन जुड़ा है। आज से लगभग 100 वर्ष पहले इस नदी में साल्मन मछली की संख्या आज से लगभग 40-50 गुना अधिक थी। इसका जीवन-चक्र बहुत खूबसूरत व रोचक था। अंडों से मछली निकलने का स्थान पहाड़ों की सहायक नदियों के अधिक ठंडे व साफ क्षेत्र में तय रहा है। वहां से साल्मन की शिशु मछली तेज़ी से नीचे की ओर तैर कर मुख्य स्नेक नदी में आती है और फिर आगे बढ़ते हुए समुद्र में जाती रही है। मीठे पानी से खारे पानी में जाना इस मछली की वृद्धि से जुड़ा है। समुद्र में भरपूर जीवन बिताने के बाद लगभग 1500 किलोमीटर के इसी मार्ग से मछली पहले स्नेक नदी में व फिर उसी पर्वतीय ठंडे पानी वाली सहायक नदी में पहुंचती है जहां उसका जन्म हुआ था। यहां अंडे देने के बाद नया जीवन-चक्र शुरू होता है। कुछ समय बाद वह मछली मर जाती है।

लेकिन वर्ष 1955-75 के दो दशकों के दौरान स्नेक नदी के निचले हिस्से में चार बांध बना दिए गए जिनसे साल्मन मछली का यह मार्ग व इस पर आधारित जीवन-चक्र बुरी तरह प्रभावित हो गया। मार्ग अवरुद्ध कर रहे बांधों में फंसकर नदी से समुद्र की ओर जाने वाले लाखों साल्मन शिशु मरने लगे। वर्ष-दर-वर्ष यह जारी रहने से साल्मन की अनेक प्रजातियां बुरी तरह संकटग्रस्त हो गर्इं व इनके साथ इस इकोसिस्टम के अन्य जीव भी संकटग्रस्त हो गए।

कुछ समय पहले यहां के मूल निवासियों ने सबसे पहले साल्मन की रक्षा व इकोसिस्टम संरक्षण की मांग अधिक संजीदगी से उठानी आरंभ की व इसके लिए चारों बांधों को हटाने की मांग रखी। इन मूल निवासियों ने कहा कि उनका अपना जीवन भी नदी व इस मछली की रक्षा से जुड़ा है।

इस मांग को कुछ पर्यावरण संगठनों व स्थानीय नेताओं का समर्थन भी मिला तो इसने ज़ोर पकड़ा। इससे पहले इसी देश की एलव्हा नदी पर साल्मन व नदी की इकोसिस्टम की रक्षा के लिए दो बांध हटाए गए थे व इसी आधार पर स्नेक नदी से भी चारों बांध हटाने की मांग रखी गई।

दूसरी ओर कुछ लोगों ने कहा है कि उनके लिए बांधों से मिलने वाली बिजली अधिक ज़रूरी है। इसके जवाब में बांध हटाने की मांग रखने वालों ने ऊर्जा व कृषि विकास की वैकल्पिक राह सुझाई है।

आगे व्यापक सवाल यह है कि नदियों के इकोसिस्टम, उनमें रहने वाले जीवों की रक्षा के लिए पहले से बने बांधों को हटाने की मांग विश्व के अन्य देशों में कितना आगे बढ़ सकती है। कई वैज्ञानिकों व पर्यावरणविदों का मानना है कि यदि बांध से गंभीर क्षति होती है तो इसे हटाना उचित है। पर अभी अधिकांश सरकारें इस पर समुचित ध्यान नहीं दे रही है। उम्मीद है कि भविष्य में इस प्रश्न पर अधिक खुले माहौल में विचार हो सकेगा व जिस तरह के प्रयास आज स्नेक नदी के संदर्भ में हो रहे हैं उनसे ऐसा खुला माहौल बनाने में मदद मिलेगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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