कोयला उपयोग का अंत कैसे होगा?

लवायु परिवर्तन को रोकने के लिए वैश्विक स्तर पर कोयला-आधारित बिजली संयंत्रों को चरणबद्ध तरीके से समाप्त करना अनिवार्य है। लेकिन कोयले से पीछा छुड़ाना इतना आसान नहीं है। इसका एक कारण वैश्विक रणनीतियों का राष्ट्रीय वास्तविकताओं के अनुकूल न होना है।

कोयला-आधारित बिजली संयंत्रों से प्राकृतिक गैस की तुलना में प्रति युनिट दुगना कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन होता है। वर्ष 2019 के आंकड़ों के अनुसार विश्व में बिजली उत्पादन में कोयला एक-तिहाई और ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में 26 प्रतिशत योगदान देता है। अधिकांश विश्लेषणों के अनुसार 2015 के पेरिस संधि के लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए 2030 तक कोयले का उपयोग 30-70 प्रतिशत तक कम करना होगा।

कोयले के उपयोग में कटौती को कई औद्योगिक देशों ने अपने राजनीतिक अजेंडा में शामिल किया है, जबकि अधिकांश कम और मध्यम आय वाले देश अभी भी इसे आर्थिक विकास के लिए आवश्यक मानते हैं। कोविड-19 महामारी के दौरान ऊर्जा मांग में कमी के चलते 2019 से 2020 के बीच कोयले से बिजली उत्पादन में 4 प्रतिशत की कमी आई थी जो 2021 में 9 प्रतिशत बढ़ गई। कुछ अन्य घटनाओं ने भी बिजली उत्पादन में कोयले के उपयोग को बढ़ाया है। हालिया रूस-यूक्रेन युद्ध ने प्राकृतिक-गैस की आपूर्ति को खतरे में डाल दिया है। जर्मनी सहित कई देशों ने कोयले के उपयोग को एक अंतरिम उपाय माना है। गैस की बढ़ती कीमतें एशिया में कोयले के उपयोग को बढ़ा सकती हैं।

फिलहाल दुनिया में 2429 कोयला आधारित बिजली संयंत्र (क्षमता>2000 गीगावाट) सक्रिय हैं। वर्ष 2017 से 2022 तक कोयला-आधारित बिजली उत्पादन में 110 गीगावाट की वृद्धि हुई है। यदि मौजूदा और निर्माणाधीन संयंत्रों का संचालन आगामी 40 वर्षों तक जारी रहा तो तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री की सीमा में रखने के लिए उत्सर्जन को पटरी पर रखने के बजट का 60-70 प्रतिशत खर्च हो जाएगा। इस मुद्दे पर त्वरित कार्यवाही आवश्यक है। कोयले के उपयोग को तब तक कम नहीं किया जा सकता जब तक विश्व समुदाय अपने लक्ष्य राजनैतिक वास्तविकताओं के अनुरूप निर्धारित नहीं करता।

इस संदर्भ में शोधकर्ताओं ने 2018 से 2020 तक 15 प्रमुख देशों की केस स्टडी की जहां विश्व के 84 प्रतिशत कोयला संयंत्र और 83 प्रतिशत नए कोयला संयंत्र मौजूद हैं। प्रत्येक केस स्टडी के लिए शोधकर्ताओं ने नीति निर्माताओं, विश्लेषकों, शिक्षाविदों और गैर-सरकारी संगठनों के साथ कई साक्षात्कार किए। इस आधार पर उन्होंने कोयला-आधारित संयंत्रों का संचालन करने या भविष्य में ऐसा करने वाली सभी अर्थव्यवस्थाओं का 4 श्रेणियों में वर्गीकरण किया:

1. फेज़-आउट देश जो चरणबद्ध तरीके से कोयले पर निर्भरता को कम करने का प्रयास कर रहे हैं।

2. स्थापित कोयला उपयोगकर्ता

3. फेज़-इन देश जो वर्तमान में तो कोयले पर निर्भर नहीं है लेकिन काफी तेज़ी से नए कोयला संयंत्रों का निर्माण कर रहे हैं।

4. निर्यातोन्मुख देश

प्रत्येक श्रेणि की अपनी-अपनी राजनीतिक चुनौतियां हैं।

कोयले से निपटने के लिए कभी-कभी ऐसा माना जाता है कि उच्च कार्बन मूल्य या कोयले पर सब्सिडी हटाना प्रभावी हो सकता है। लेकिन ऐसा हमेशा नहीं होता। मज़बूत कानूनी ढांचे और पूंजी की सुलभता वाली अर्थव्यवस्थाओं में तो इन परिस्थितियों में अक्षय ऊर्जा कोयले से टक्कर ले सकती है। लेकिन कई अन्य क्षेत्रों में ऊर्जा की नई प्रणालियों को अपनाने के लिए वित्तीय और बौद्धिक पूंजी की कमी है। कई अन्य ऐसे मुद्दे भी हैं जो सब्सिडी में सुधार या उत्सर्जन शुल्क लागू करने के प्रयासों को कमज़ोर करते हैं।

जैसा कि पहले बताया गया है, चारों श्रेणियों की अपनी-अपनी चुनौतियां है और सभी में प्रभावी परिवर्तन के लिए कुछ विशिष्ट नीतिगत प्राथमिकताओं की ज़रूरत है। हर जगह एक-सी नीतियां काम नहीं करेंगी।

हालांकि चीन इस मायने में महत्वपूर्ण है कि वहां दुनिया की आधी मौजूदा अथवा प्रस्तावित कोयला क्षमता है लेकिन यदि कई अन्य फेज़-इन देश कोयले को अपनाते रहे तो जल्दी ही वे उत्सर्जन के मामले में चीन और भारत को पीछे छोड़ देंगे।

फेज़-आउट अर्थव्यवस्थाएं

कोयले को चरणबद्ध ढंग से समाप्त करने वाली अर्थव्यवस्थाओं में चिली, जर्मनी, यू.के. और यू.एस.ए. शामिल हैं। फेज़-आउट श्रेणि में अधिकांश देश उच्च आय वाली अर्थव्यवस्थाएं हैं। इनके पास अक्षय ऊर्जा के क्षेत्र में तथा ऊर्जा दक्षता बढ़ाने पर निवेश करने के लिए भरपूर वित्तीय, तकनीकी और संस्थागत क्षमताएं हैं। फिलहाल इन देशों में कोयला आधारित संयंत्रों की कुल क्षमता 360 गीगावाट है जो 2030 तक एक चौथाई हो जाना चाहिए।

लेकिन सवाल यह है कि ये देश इस स्तर पर कैसे पहुंच पाए हैं? यू.के. में युरोपियन युनियन एमिशन ट्रेडिंग स्कीम में प्रचलित कार्बन मूल्य के अलावा बिजली और उद्योग क्षेत्रों में काफी प्रभावी ढंग से कार्बन लेवी को लागू किया गया। जर्मनी में एक उच्च स्तरीय आयोग ने कोयले के उपयोग को खत्म करने के लिए कोयला और बिजली कंपनियों को 42 अरब अमेरिकी डॉलर का भुगतान किया ताकि वे 2038 तक चरणबद्ध तरीके से कोयले के उपयोग को पूरी तरह खत्म कर सकें। इसके अलावा संयुक्त राज्य अमेरिका में ड्रिल टेक्नॉलॉजी के चलते प्राकृतिक गैस की कीमतों में कमी के अलावा पवन और सौर उर्जा की लागत में भी तेज़ी से गिरावट हुई। इसका नतीजा यह रहा कि कोयला उद्योग को राजनीतिक समर्थन मिलने के बाद भी कोयले का उपयोग काफी तेज़ी से कम हुआ। वर्ष 2007 में सर्वाधिक उपयोग की तुलना में वर्तमान में कोयले का उपयोग लगभग आधा है। इसी तरह 2040 तक कोयला उपयोग को चरणबद्ध तरीके से खत्म करने के लिए चिली ने उच्च सौर क्षमता का फायदा उठाते हुए गैस और कोयले के अस्थिर आयात से स्वयं को सुरक्षित रखा।

यदि इन फेज़-आउट देशों में यह गिरावट जारी रही, तो भी 2030 तक 90 गीगावाट बिजली का उत्पादन कोयले से ही होगा। इससे होने वाला उत्सर्जन 7.5 करोड़ कारों के उत्सर्जन के बराबर होगा। इन परिवर्तनों में तेज़ी लाने से उत्सर्जन में कटौती होगी और नवाचार को बढ़ावा मिलेगा। इसके लिए अनुसंधान और स्वच्छ उर्जा के प्रसार के लिए राष्ट्रीय स्तर पर सहयोग की आवश्यकता होगी। इसके अलावा कोयले पर निर्भर देशों को आय के वैकल्पिक स्रोत उपलब्ध कराने होंगे। कोयले पर दी जा रही सब्सिडी को खत्म करके उसे स्वच्छ ऊर्जा उत्पादकों की ओर मोड़ना होगा।

अंतर्राष्ट्रीय सहयोग से चरणबद्ध तरीके से कोयले के उपयोग को खत्म किया जा सकता है। जैसे, युरोपीय संघ में कार्बन-उत्सर्जन की बढ़ती कीमतों के चलते कोयले के उपयोग को खत्म करने की संभावना बुल्गारिया जैसे अन्य देशों में भी है जहां इसे लेकर कोई विशिष्ट योजना नहीं है। देशों की दृढ़ अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबद्धताएं सरकारों की जवाबदेही को बढ़ा सकती हैं।

स्थापित उपयोगकर्ता

चीन, भारत और तुर्की जैसे स्थापित कोयला उपयोगकर्ता मध्यम आय वाले देश हैं जहां काफी विकास हुआ है और गरीबी में कमी आई है। इन देशों में ऊर्जा की मांग में वृद्धि को पूरा करने के लिए कोयला आधारित संयंत्र लगाए गए जिनमें कम पूंजी की आवश्यकता होती है।

गौरतलब है कि इन देशों में सरकार ऊर्जा व बिजली बाज़ार पर नियंत्रण रखती हैं। ऐसे में यहां अक्षय उर्जा की घटती लागत का ज़्यादा प्रभाव नहीं पड़ता। कोयले की पूरी शृंखला – खनन, परिवहन, बिजली उत्पादन और वित्त – पर अधिकांशत: राज्य के स्वामित्व वाले उद्यमों का वर्चस्व है। कुछ निहित स्वार्थ भी कोयले आधारित संयंत्रों को बढ़ावा देते हैं।

इनमें से कई देशों में कोयला अर्थव्यवस्था का एक बड़ा हिस्सा है। भारत में 1.5 करोड़ नौकरियां प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कोयले से जुड़ी हैं। इन देशों की नीतियों में कुछ ऐसे सुधारों की आवश्यकता है जो निहित स्वार्थों और भ्रष्टाचार पर नज़र रखें, ऊर्जा क्षेत्र पर राज्य के नियंत्रण को कम करें और वैकल्पिक उर्जा प्रणालियों के उपयोग को बढ़ावा दें। इन देशों में इन्फ्रास्ट्रक्चर और श्रम बल को विकसित करने में निवेश करने की आवश्यकता है ताकि विनिर्माण और आईटी सेवाओं को सहारा मिले।

इसके अलावा लौह, इस्पात और सीमेंट उत्पादन सहित ऊर्जा-सघन उद्योगों के डीकार्बनीकरण के समझौतों के चलते उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं को औद्योगिक देशों के बाज़ारों तक पहुंच बनाने में मदद मिलेगी जो हरित सामग्री खरीदने का दबाव बनाते हैं।     

फेज़-इन देश

पाकिस्तान और वियतनाम जैसे देश कोयला आधारित बिजली उत्पादन में काफी तेज़ी से आगे बढ़ रहे हैं। इन देशों में प्रति व्यक्ति आय अपेक्षाकृत कम है जबकि ऊर्जा की मांग में निरंतर वृद्धि हो रही है। जैसे, वियतनाम में प्रति वर्ष ऊर्जा मांग में 10 प्रतिशत की वृद्धि हो रही है और भविष्य में 56 नए संयंत्र स्थापित करने की योजना है।

बिजली के किफायती दाम, सुरक्षा और विश्वसनीयता राजनीतिक अजेंडा में हमेशा से महत्वपूर्ण रहे हैं। राज्य द्वारा नियंत्रित ऊर्जा की कीमतें बिजली कंपनियों को कर्ज़ में डुबा सकती हैं जिससे उनके पास कोयले के विकल्प आज़माने का मौका ही नहीं रहेगा। हालांकि फेज़-इन देशों में आम तौर पर कोयले से जुड़े निहित स्वार्थों की कमी होती है लेकिन फिर भी उन्हें अनुचित लाभ मिल सकता है।

वैसे, फेज़-इन राष्ट्रों के लिए अक्षय ऊर्जा संयंत्रों के लिए उच्च पूंजीगत लागत और निवेश करना काफी जोखिम भरा हो सकता है। अपर्याप्त विकसित बिजली ग्रिड में घटती-बढ़ती नवीकरणीय उर्जा को समायोजित करने के लिए काफी संघर्ष करना पड़ सकता है। इसलिए ऊर्जा प्रबंधक अक्षय ऊर्जा को लेकर शंकित रहते हैं। जैसे वियतनाम के पास अनिरंतर सौर व पवन आधारित ऊर्जा प्रणालियों के प्रबंधन क्षमता नहीं है। फिर भी वियतनाम 2019 में दक्षिण पूर्वी एशिया में सौर उर्जा का सबसे बड़ा उत्पादक बन गया। इस तरह के उदाहरणों से अन्य देश भी प्रेरित होते हैं। अलबत्ता, वियतनाम में वेन थी कान जैसे पर्यावरण कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी इन कदमों के प्रतिरोध की ताकत दर्शाती हैं।

अंतर्राष्ट्रीय वित्त और आज़माइशी प्रोजेक्ट इन बाधाओं को कम कर सकते हैं। पिछले वर्ष नवंबर में एशियन डेवलपमेंट बैंक ने एशिया में कोयला संयंत्रों और खानों को खरीदने की योजना तैयार की थी। इस योजना को फिलिपींस में पायलट परियोजना की तरह शुरू किया गया था ताकि इन संयंत्रों और खानों को उनके अनुमानित अंत से पहले बंद किया जा सके। इस प्रकार की खरीदारी से ग्रिड क्षमता और भंडारण सहित अन्य विकल्पों में निवेश के लिए पूंजी हासिल होती है। यह ऊर्जा स्थानांतरण के अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत कर सकते हैं।

कोयला निर्यातक

ऑस्ट्रेलिया, कोलंबिया, इंडोनेशिया और दक्षिण अफ्रीका सहित निर्यातकों की सामाजिक-आर्थिक वास्तविकताएं काफी विविध हैं। इनमें से ऑस्ट्रेलिया की प्रति व्यक्ति आय काफी अधिक है जबकि इंडोनेशिया की काफी कम है। दक्षिण अफ्रीका अपने द्वारा खनन किए गए कोयले के एक बड़े हिस्से की स्वयं खपत करता है जबकि कोलंबिया अधिकांश उत्पादित कोयले का निर्यात करता है।

इन सब देशों में एक समानता यह है कि ये सभी बड़े पैमाने पर कोयले का उत्पादन करते हैं। इन देशों को कोयले से मिलने वाला राजस्व कुल जीडीपी का एक बड़ा हिस्सा है। उदाहरण के लिए कोयला निर्यात इंडोनेशिया के सार्वजनिक बजट का लगभग 5 प्रतिशत है। ऐसा देखा गया है कि कोयला रॉयल्टी पर अत्यधिक निर्भरता के चलते कोयला खनन के विरुद्ध कोई भी कार्यवाही करने में काफी समय लगता है।           

कोयले को चरणबद्ध तरीके से खत्म करने के लिए यहां कुछ विशिष्ट तरीके अपनाना होगा। कोयला आधारित रोज़गार से जुड़े लोगों को किसी अन्य आर्थिक गतिविधि में लगाना होगा। इस विषय में ऑस्ट्रेलिया में सौर ऊर्जा चालित हाइड्रोजन निर्यात अर्थव्यवस्था काफी भरोसेमंद लगती है। इंडोनेशिया जैसे अन्य देशों में विकल्पों की संभावना कम है लेकिन इसमें कपड़ा और इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों की फिटिंग जैसे श्रम-बहुल उद्योगों को शामिल किया जा सकता है।

इनमें से कई देशों के लिए कोयले पर आर्थिक निर्भरता का मतलब है कि यहां कार्बन के मूल्य निर्धारण और इसी तरह के उपायों की क्षमता सीमित है। उदाहरण के लिए इंडोनेशिया ने हाल ही में बहुत कम कार्बन मूल्य का निर्धारण किया लेकिन राजनीतिक दबाव के कारण कोयले को इससे छूट दी गई। जुलाई में शुरू होने वाली उत्सर्जन-ट्रेडिंग योजना में कोयले को भी शामिल करना प्रस्तावित है लेकिन इस योजना में काफी खामियां हैं। पूर्व में जीवाश्म-ईंधन सब्सिडी में सुधार के प्रयासों ने कभी-कभी हिंसक विरोध का रूप भी लिया है।

इस संदर्भ में अंतर्राष्ट्रीय प्रयास आवश्यक हैं। पिछले वर्ष ग्लासगो में आयोजित जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में यू.के, यू.एस.ए, युरोपीय संघ, फ्रांस और जर्मनी ने दक्षिण अफ्रीका में डीकार्बनीकरण और स्वच्छ-उर्जा के लिए 8.5 अरब डॉलर उपलब्ध कराने की पेशकश की थी। देखना यह है कि क्या यह पेशकश साकार रूप लेती है।

आगे का रास्ता

अंतर्राष्ट्रीय सहयोग हर श्रेणि के लिए महत्वपूर्ण है। कई देशों के लिए इसे अकेले कर पाना संभव नहीं है। जो अर्थव्यवस्थाएं पहले से ही कोयले को चरणबद्ध तरीके से समाप्त करने का प्रयास कर रही हैं वे अंतर्राष्ट्रीय समझौतों से अपने संकल्पों को और मज़बूत कर सकती हैं और अन्य देशों को प्रौद्योगिकी, वित्त और क्षमता निर्माण के रूप में सहायता कर सकती हैं। फेज़-इन देशों को नवीकरणीय ऊर्जा, ग्रिड क्षमता और भंडारण सुविधाओं के लिए वित्तीय सहायता की आवश्यकता होगी। स्थापित कोयला उपयोगकर्ता स्टील और कांक्रीट जैसे ऊर्जा-सघन उद्योगों के डीकार्बनीकरण वाले समझौतों से सबसे बड़ा लाभ प्राप्त कर सकते हैं और स्वच्छ ऊर्जा उत्पादों के लिए बाज़ार तैयार कर सकते हैं। निर्यात पर निर्भर देशों को गैर-खनन गतिविधियों में स्थानांतरण के लिए सहायता प्रदान की जानी चाहिए।    

देखा जाए तो अंतर्राष्ट्रीय सहयोग के लिए सभी आवश्यक तत्व पहले से उपस्थित हैं। जी-7 और जी-20 जैसे महत्वपूर्ण कार्बन उत्सर्जक देश युनाइटेड नेशन्स फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज के साथ वार्ता में तेज़ी लाने में सहयोग कर सकते हैं। पूर्व में जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए जो 100 अरब डॉलर के संकल्प लिए गए थे, उन्हें फेज़-आउट रणनीतियों पर लक्षित किया जाना चाहिए। वास्तव में कोयला छोड़कर स्वच्छ विकल्पों की ओर जाना संभव है लेकिन इसके लिए वैश्विक समुदाय को स्थानीय परिस्थितियों के अनुसार नीतियों को परिभाषित करना होगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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इलेक्ट्रिक वाहन उतने भी इको-फ्रेंडली नहीं हैं – अली खान

देश-दुनिया में वायु प्रदूषण के बढ़ते स्तर के मद्देनज़र यह माना जाता रहा है कि इलेक्ट्रिक वाहन वायु प्रदूषण में न के बराबर योगदान देते हैं। लेकिन चिंता की बात यह है कि एक अध्ययन में पता चला है कि इलेक्ट्रिक वाहनों को दौड़ाकर भी हम अपने देश में सिर्फ 20 फीसदी कार्बन उत्सर्जन कम कर पाएंगे, क्योंकि देश में 70 फीसदी बिजली कोयले से बनाई जा रही है। शोध बताता है कि इलेक्ट्रिक कारों को हम जितना ईको-फ्रेंडली समझते हैं, दरअसल ये उतनी हैं नहीं।

सोसायटी ऑफ रेयर अर्थ के मुताबिक एक इलेक्ट्रिक कार बैटरी बनाने में इस्तेमाल होने वाले 57 कि.ग्रा. कच्चे माल (8 कि.ग्रा. लीथियम, 35 कि.ग्रा. निकल, 14 कि.ग्रा. कोबाल्ट) को ज़मीन से निकालने में 4275 कि.ग्रा. एसिड कचरा व 57 कि.ग्रा. रेडियोसक्रिय अवशेष पैदा होता है। इसके अलावा, ऑस्ट्रेलिया में हुआ शोध कहता है कि 3300 टन लीथियम कचरे में से 2 फीसदी ही रिसायकिल हो पाता है, 98 फीसदी प्रदूषण फैलाता है। शोध में यह भी पाया गया कि लीथियम को ज़मीन से निकालने से पर्यावरण तीन गुना ज़्यादा ज़हरीला हो जाता है।

लीथियम दुनिया की सबसे हल्की धातु है। यह बहुत आसानी से इलेक्ट्रॉन छोड़ती है। इसी कारण इलेक्ट्रिक वाहन की बैटरी में इसका सबसे ज़्यादा इस्तेमाल किया जाता है। हरित ईंधन कहकर लीथियम का महिमामंडन हो रहा है, पर इसे ज़मीन से निकालने से पर्यावरण तीन गुना ज़्यादा ज़हरीला होता है। लीथियम की 98.3 फीसदी बैटरियां इस्तेमाल के बाद गड्‌ढों में गाड़ दी जाती हैं। पानी के संपर्क में आने से इसका रिएक्शन होता है और आग लग जाती है। बता दें कि अमेरिका के पैसिफिक नॉर्थवेस्ट के एक गड्ढे में जून 2017 से दिसंबर 2020 तक इन बैटरियों से आग लगने की 124 घटनाएं हुईं, जो वाकई चिंताजनक है। ऐसे में यह कहने में कोई हर्ज नहीं है कि इलेक्ट्रिक वाहनों को जितना इको-फ्रेंडली समझते आ रहे हैं, उतने हैं नहीं।

इसके अलावा, विद्युत वाहन बनाने में 9 टन कार्बन निकलता है, जबकि पेट्रोल में यह 5.6 टन है। विद्युत वाहन में 13,500 लीटर पानी लगता है, जबकि पेट्रोल कार में यह करीब 4 हज़ार लीटर है। यदि विद्युत वाहन को कोयले से बनी बिजली से चार्ज करें, तो डेढ़ लाख कि.मी. चलने पर पेट्रोल कार के मुकाबले 20 फीसदी ही कम कार्बन निकलेगा।

आज दुनिया का हर देश कोयले से बिजली उत्पादन कर इलेक्ट्रिक वाहन चलाकर कार्बन उत्सर्जन कम करने का ख्वाब देख रहा है तो स्वाभाविक तौर पर यह ख्वाब अधूरा रहने वाला है। इलेक्ट्रिक वाहनों का उपयोग उसी देश में बेहतर है जहां बिजली का उत्पादन नवीकरणीय स्रोतों से ज़्यादा किया जाता हो।

भारत में 70 फीसदी बिजली कोयले से ही बन रही है। ऐसे में भारत में इलेक्ट्रिक वाहनों का उपयोग फायदेमंद नहीं है। उल्लेखनीय है कि पेट्रोल कार प्रति कि.मी. 125 ग्राम और कोयले से तैयार बिजली से चार्ज होने वाली इलेक्ट्रिक कार प्रति कि.मी. 91 ग्राम कार्बन पैदा करती है। इंटरनेशनल काउंसिल ऑन क्लीन ट्रांसपोर्टेशन के मुताबिक युरोप में विद्युत वाहन 69 फीसदी कम कार्बन उत्सर्जन करते हैं क्योंकि यहां लगभग 60 फीसदी बिजली नवीकरणीय स्रोतों से बनती है।

सबसे चिंताजनक बात यह है कि दुनिया भर की सभी दो सौ करोड़ कारें विद्युत में बदल दें तो बेहिसाब एसिड कचरा निकलेगा, जिसे निपटाने के साधन ही नहीं हैं। ऐसे में बड़ा सवाल है कि क्या सभी पेट्रोल-डीज़ल कारों को विद्युत कारों में बदलने से प्रदूषण समस्या का हल हो जाएगा?

एमआईटी एनर्जी इनिशिएटिव के शोधकर्ताओं के मुताबिक दुनिया में करीब दो सौ करोड़ वाहन हैं। इनमें से एक करोड़ ही इलेक्ट्रिक वाहन हैं। अगर सभी को विद्युत वाहनों में बदला जाए, तो उन्हें बनाने में जो एसिड कचरा निकलेगा, उसके निस्तारण के पर्याप्त साधन ही नहीं हैं। ऐसे में पब्लिक ट्रांसपोर्ट बढ़ाकर और निजी कारें घटाकर ही ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन कम किया जा सकता है।

भारत में रजिस्टर्ड इलेक्ट्रिक वाहनों की संख्या 10 लाख 76 हज़ार 420 है। और वर्ष 2030 तक इलेक्ट्रिक वाहनों की यह इंडस्ट्री 150 अरब डॉलर यानी साढ़े ग्यारह लाख करोड़ रुपए की हो जाएगी। यानी आज की तुलना में यह इंडस्ट्री 90 गुना बड़ी हो जाएगी। आज इलेक्ट्रिक वाहनों के इस्तेमाल के पीछे कई सारे फायदे प्रत्यक्ष रूप से दिख रहे हैं। इसके साथ-साथ हमें अप्रत्यक्ष नुकसान के प्रति चेतने की आवश्यकता है। प्रदूषण से आज़ादी दिलाने में इन ई-वाहनों के योगदान को नकारा तो नहीं जा सकता लेकिन इनके निर्माण के दौरान निकलने वाला ज़हरीला कचरा बड़ी चुनौती है। इसके साथ-साथ बड़ी चुनौती हमारे देश के सामने नवीकरणीय ऊर्जा को लेकर है। गौरतलब है कि भारत सरकार ने भी नवीकरणीय ऊर्जा और विद्युत वाहनों को लेकर लक्ष्य तय किए हैं। केंद्र सरकार का लक्ष्य है कि 2030 तक 70 फीसदी व्यावसायिक कारें, 30 फीसदी निजी कारें, 40 फीसदी दो-पहिया और 80 फीसदी तिपहिया वाहनों को इलेक्ट्रिक में तबदील करना है। वहीं, 2030 तक 44.7 फीसदी बिजली नवीकरणीय स्रोतों से बनाएंगे, जो अभी 21.26 फीसदी है। फिलहाल देश में बिजली की आपूर्ति में कोयले का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल हो रहा है। उम्मीद की जानी चाहिए कि भविष्य में हमारे देश में नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों से पर्याप्त बिजली बनाई जाएगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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खाद्य परिवहन और जलवायु परिवर्तन

लवायु परिवर्तन के लिए प्रमुख रूप से ज़िम्मेदार कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन की बात आते ही बड़े-बड़े उद्योगों का ख्याल आता है। लेकिन हाल ही में किए गए एक अध्ययन का निष्कर्ष है कि खाद्य प्रणाली में 20 प्रतिशत कार्बन उत्सर्जन खाद्य सामग्री और खाद्य उत्पादों के परिवहन से होता है।

कृषि एवं पशुपालन के लिए ज़मीन साफ करने और खाद्य सामग्री को दुकानों तक पहुंचाने के दौरान बड़ी मात्रा में ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन होता है। राष्ट्र संघ के अनुसार लगभग एक तिहाई वैश्विक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के लिए खाद्य उत्पादन, प्रसंस्करण और पैकेजिंग ज़िम्मेदार है। इतने व्यापक स्तर पर उत्सर्जन ने कई शोधकर्ताओं का ध्यान खाद्य प्रणालियों से होने वाले ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन की ओर आकर्षित किया है।

अलबत्ता, खाद्य प्रणाली की जटिलताओं के कारण इसका सम्बंध वातावरण में उपस्थित कार्बन डाईऑक्साइड से पता करना थोड़ा पेचीदा मामला है। पूर्व में किए गए अध्ययन सिर्फ किसी एक उत्पाद, जैसे चॉकलेट, के दुकान तक पहुंचने और वहां से बाहर निकलने के दौरान होने वाले उत्सर्जन के आकलन तक ही सीमित थे। इसके अलावा इन आकलनों में किसी खाद्य उत्पाद में लगने वाले कच्चे माल के परिवहन से होने वाले उत्सर्जन को शामिल नहीं किया जाता था।

इन कमियों को दूर करने के लिए ऑस्ट्रेलिया स्थित युनिवर्सिटी ऑफ सिडनी की सस्टेनेबिलिटी शोधकर्ता मेंगयू ली और उनके सहयोगियों ने 74 देशों और क्षेत्रों का डैटा एकत्रित किया और यह पता लगाया कि कोई खाद्य सामग्री कहां से प्राप्त होती है और एक स्थान से दूसरे स्थान तक कैसे पहुंचती है। इस आधार पर उन्होंने नेचर फूड पत्रिका में बताया है कि वर्ष 2017 में खाद्य उत्पादों के परिवहन के दौरान वातावरण में लगभग 3 गीगाटन कार्बन डाईऑक्साइड का उत्सर्जन हुआ था। यह पूर्व अनुमानों से 7.5 गुना अधिक है। अध्ययन के अनुसार उच्च आय वाले देश लगभग 50 प्रतिशत खाद्य-परिवहन उत्सर्जन करते हैं जबकि वैश्विक आबादी में उनका हिस्सा मात्र 12 प्रतिशत है। दूसरी ओर, कम आय वाले देश (विश्व आबादी में 50 प्रतिशत के हिस्सेदार) केवल 20 प्रतिशत खाद्य-परिवहन उत्सर्जन करते हैं। इतने बड़े अंतर का कारण शायद यह है कि उच्च आय वाले देश विश्व भर से खाद्य सामग्री आयात करते हैं और ताज़े फल और सब्ज़ियों के परिवहन के लिए रेफ्रिजरेटर के उपयोग से अत्यधिक कार्बन उत्सर्जन होता है। फलों और सब्ज़ियों को उगाने की तुलना में उनके परिवहन में दुगना कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन होता है।

लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि वनस्पति-आधारित आहार को सीमित किया जाए। दरअसल, कई अध्ययनों से यह साबित हुआ है कि रेड मीट की तुलना में वनस्पति-आधारित आहार पर्यावरण की दृष्टि से बेहतर है। रेड मीट के लिए अधिक भूमि लगती है और ग्रीनहाउस गैसों का भी अधिक उत्सर्जन होता है। तो रेड मीट की खपत कम करने और स्थानीय रूप से उत्पादित आहार लेने से जलवायु पर प्रभावों को कम करने में मदद मिल सकती है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कृत्रिम रोशनी से जुगनुओं पर संकट

जुगनू अपनी टिमटिमाती रोशनी के लिए जाने जाते हैं। लेकिन लगता है कि हमारी भावी पीढ़ियां जुगनू देखने से वंचित रह जाएंगी। हाल में किए गए एक अध्ययन में यह खुलासा हुआ है कि भारत में कृत्रिम रोशनी जुगनुओं के प्रजनन पर असर डाल रही है। इस वजह से ये कीट प्रजनन नहीं कर पा रहे हैं। इससे इनके अस्तित्व पर खतरा मंडराने लगा है।

यह अध्ययन दुनिया भर में प्रकाश प्रदूषण के कारण बढ़ते पर्यावरणीय खतरों के प्रति सचेत करता है। आंकड़े बताते हैं कि पिछले 30 वर्षों में जुगनुओं की संख्या में भारी गिरावट देखी गई है। नेशनल सेंटर फॉर कोस्टल रिसर्च के शोधकर्ताओं ने आंध्र प्रदेश में एब्सकॉन्डिटा चाइनेंसिस प्रजाति के जुगनुओं की आबादी को रिकॉर्ड करने का प्रयास किया है। उनके शोध के मुताबिक, 2019 में बरनकुला गांव में 10 वर्ग मीटर क्षेत्र में जुगनुओं की संख्या औसतन 10 से 20 पाई गई जबकि 1996 में यह संख्या 500 से ज़्यादा थी।

ऐसे में कृत्रिम रोशनी के चलते लगातार जुगनुओं की घटती आबादी चिंता का विषय है। गौरतलब है कि देश में जुगनुओं पर अब तक बेहद कम अध्ययन किए गए हैं। ऐसे में इनकी लगातार घटती आबादी पर अंकुश लगाने को लेकर विशेष ध्यान नहीं दिया जा सका।

दरअसल, रात के समय में पड़ने वाली कृत्रिम रोशनी ने जीव-जंतुओं के जीवन को खासा प्रभावित किया है। पारिस्थितिकी तंत्र के संतुलन को बनाए रखने में छोटे-छोटे कीटों का अहम योगदान रहता है। इनका विनाश पारिस्थितिकी असंतुलन को बढ़ाने वाला है। आधुनिक ब्रॉड-स्पेक्ट्रम प्रकाश व्यवस्था इंसानों को रात में अधिक आसानी से रंगों को देखने में सक्षम बनाती है। लेकिन ये आधुनिक प्रकाश स्रोत अन्य जीव-जंतुओं की दृष्टि पर बहुत ज़्यादा नकारात्मक प्रभाव डालते है। इसके पीछे की वजह यह है कि मानव दृष्टि के लिए डिज़ाइन की गई कृत्रिम रोशनी में नीली और पराबैंगनी श्रेणियों का अभाव होता है, जो इन कीटों की रंगों को देखने की दृष्टि क्षमता के निर्धारण में अहम है। यह स्थिति कई परिस्थितियों में किसी भी रंग को देखने की कीटों की क्षमता को अवरुद्ध कर देती है।

बता दें कि जुगनू प्रकाश संकेतों के प्रति अत्यधिक संवेदनशील होते हैं। उनकी प्रजनन गतिविधियां एक विशेष समय के लिए सीमित होती है। कृत्रिम प्रकाश की वजह से वे भटक जाते हैं। इससे उनके अंधे होने का भी डर बना रहता है। दुनिया भर में कृत्रिम प्रकाश बढ़ा है, जिस वजह से इनकी संख्या घट रही है। 

विशेषज्ञों का कहना है कि जुगनू आबादी को प्रभावित करने वाले दो प्रमुख कारक कीटनाशकों का उपयोग और बढ़ता प्रकाश प्रदूषण है। यदि इन कारकों को नियंत्रित नहीं किया गया, तो अंततः जुगनू विलुप्त हो जाएंगे।

2018 के एक अध्ययन के मुताबिक, चीन और ताइवान के कुछ हिस्सों में पाए जाने वाली एक्वाटिका फिक्टा प्रजाति के जुगनुओं में रोशनी के पैटर्न अलग-अलग देखे गए हैं। इसकी वजह कृत्रिम प्रकाश है। इस वजह से साथी को खोजने की उनकी संभावना कम हुई है। प्रजनन के मौसम में जुगनू अपने प्रकाश के विशेष पैटर्न से एक-दूसरे को आकर्षित करते हैं। लेकिन कृत्रिम प्रकाश की वजह से जुगनुओं को अपने साथी को आकर्षित करने के लिए ज़्यादा ऊर्जा खर्च करनी पड़ती है।

चिंताजनक बात यह भी है कि तेज़ी से शहरीकरण के कारण दलदली भूमि के सिकुड़ने से जुगनुओं का आवास समाप्त हो गया है। जुगनू का जीवनकाल कुछ ही हफ्तों का होता है। वे गर्म, आर्द्र क्षेत्रों से प्यार करते हैं और नदियों और तालाबों के पास दलदलों, जंगलों और खेतों में पनपते हैं। स्वच्छ वातावरण की तलाश में और मच्छरों द्वारा फैलने वाली बीमारियों से निपटने के लिए, लोगों ने दलदलों को नष्ट कर दिया है और फलस्वरूप जुगनू के लिए अनुकूल माहौल नष्ट हो गया है।

पिछले कुछ वर्षों में कृत्रिम रोशनी के हस्तक्षेप के चलते न केवल जुगनुओं बल्कि सभी प्रकार के जीव-जंतुओं पर प्रभाव पड़ा है। यह देखा गया है कि पूरी दुनिया में रात के समय में प्रकाश व्यवस्था का स्वरूप पिछले करीब 20 वर्षों में नाटकीय रूप से बदला है।‌ एलईडी जैसे विविध प्रकार के आधुनिक रोशनी उपकरणों का चलन बढ़ा है। लेकिन हमें यह समझना होगा कि कृत्रिम प्रकाश से होने वाला प्रदूषण समस्त वातावरण को प्रदूषित करता है। प्रकाश प्रदूषण अमूमन पारिस्थितिकी तंत्र को बाधित करता है। कृत्रिम प्रकाश की तीव्रता बेचैनी को बढ़ा देती है और मानव स्वास्थ्य पर भी प्रतिकूल प्रभाव डालती है। कृत्रिम प्रकाश व्यवस्था को दुरुस्त करके न केवल हम कीटों पर पड़ने वाले विनाशी प्रभाव को कम कर सकते हैं, बल्कि हमारे अपने स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रतिकूल प्रभावों से भी बच सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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विलुप्त होती प्रजातियों से मानव अस्तित्व पर संकट – मनीष श्रीवास्तव

विश्व विख्यात जर्नल नेचर के जीव विज्ञान विभाग के वरिष्ठ संपादक डॉ. हेनरी जी ने विलुप्तप्राय प्रजातियों के मुद्दे को हाल ही में पुन: उठाया है। उन्होंने यह दावा किया है कि दुनिया भर में 5400 स्तनधारी प्रजातियों में से लगभग 1000 प्रजातियां विलुप्ति की कगार पर आ गई हैं। गेंडा, बंदर और हाथी जैसे जीव सबसे तेज़ी से लुप्त होने वाली प्रजाति बनने की ओर बढ़ रहे हैं।

जैव विविधता का जिस तरह से ह्रास हुआ है उसका प्रतिकूल असर मानव पर भी पड़ा है। उन्होंने चिंता जताते हुए कहा है कि अगर ईकोसिस्टम्स में इसी तरह असंतुलन की स्थिति रही तो पृथ्वी पर मानव सभ्यता का अंत भयावह होगा और अंतरिक्ष में उपग्रह कालोनियां बनाकर रहने का ही विकल्प बच जाएगा।

पर्यावरण के ईकोसिस्टम्स में आ रहे इस भयानक असंतुलन को पहली बार नहीं रेखांकित किया गया है। सालों से इस असंतुलन के प्रति जागरूकता लाने का क्रम चला आ रहा है। शायद इसीलिए संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा विश्व वन्य जीव दिवस (3 मार्च) के अवसर पर साल 2022 की थीम “पारिस्थितिकी तंत्र की बहाली के लिए प्रमुख प्रजातियों को बहाल करना” रखा गया है।

जीव-जंतुओं के लुप्त होने से पारिस्थितिकी तंत्र में असंतुलन को गिद्ध के उदाहरण से समझा जा सकता है। पहले बहुतायत में गिद्ध पाए जाते थे। इन्हें प्रकृति का दोस्त कहकर पुकारा जाता था, क्योंकि इनका भोजन मरे हुए पशु-पक्षियों का मांस होता है। यहां तक कि ये जानवरों की 90 प्रतिशत हड्डियों तक को हजम करने की क्षमता रखते हैं। किंतु अब ये लुप्तप्राय प्रजाति की श्रेणी में आ गए हैं और आज इनके संरक्षण के लिए विशेष प्रयास करने की ज़रूरत आन पड़ी है।

यही हाल प्राकृतिक वनस्पतियों का भी है। वैश्विक स्तर पर तीस हज़ार से भी ज़्यादा वनस्पतियां विलुप्ति की श्रेणी में आ चुकी हैं। भारत में पौधों की लगभग पैंतालीस हज़ार प्रजातियां पाई जाती हैं, जिसमें से लगभग 1300 से ज़्यादा विलुप्तप्राय हैं।

वैश्विक प्रयासों के साथ भारत ने जैव विविधता के संरक्षण में प्रतिबद्धता दर्शाई है। इस समय भारत में 7 प्राकृतिक विश्व धरोहर स्थल, 18 बायोस्फीयर रिज़र्व और 49 रामसर स्थल हैं, जहां विश्व स्तर पर लुप्त हो रही प्रजातियों का न सिर्फ संरक्षण हो रहा है, बल्कि उनकी संख्या में वृद्धि भी दर्ज की गई है।

संयुक्त राष्ट्र ने जैव विविधता के नष्ट होने के महत्वपूर्ण कारणों में शहरीकरण, प्राकृतिक आवास की कमी, प्राकृतिक संसाधनों का अतिशोषण, वैश्विक प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन को गिनाया है।

डॉ. हेनरी ने प्रजातियों की विलुप्ति का जो मुद्दा उठाया है, वह महत्वपूर्ण है। हमें सोचना होगा कि इस समस्या का समाधान मानव विकास का प्रकृति के साथ संतुलन स्थापित कर निकाला जा सकता है या किसी और तरीके से। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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जलवायु परिवर्तन का जंगली फफूंद पर असर

क्रोएशिया के कुछ हिस्सों में ट्रफल (खाने योग्य फफूंद) काफी महत्वपूर्ण हैं। इनकी कीमत लगभग 4,00,000 रुपए प्रति किलोग्राम तक होती है। ट्रफल उद्योग और इससे सम्बंधित पर्यटन रोज़गार प्रदान करता है, अतिरिक्त आय देता है और स्थानीय अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देता है।

तीस साल पहले इस्त्रिया में वर्ष भर में होने वाली बारिश का पूर्वानुमान किया जा सकता था। लेकिन अब, जलवायु बदल गई है और सूखा भी पड़ने लगा है। ट्रफल्स को बढ़ने के लिए एक विशिष्ट मात्रा में पानी की आवश्यकता होती है। और अपेक्षाकृत गर्म जाड़ों के कारण जंगली सूअरों की आबादी बढ़ गई है, जो मिट्टी को नुकसान पहुंचाते हैं और ट्रफल खा जाते हैं। जिस कारण ट्रफल्स मिलना मुश्किल होता जा रहा है।

फफूंद वैज्ञानिक ज़ेल्को ज़्ग्रेबिक काले ट्रफल्स के प्लांटेशन की व्यवहार्यता का अध्ययन कर रहे हैं, जिसमें वे उनके बीजाणुओं को पेड़ों पर रोपने के विभिन्न तरीकों को आज़मा रहे हैं। इसके लिए उन्होंने इस फफूंद के जीवन चक्र, पारिस्थितिकी और पूरे क्रोएशिया में कवक के भौगोलिक वितरण सम्बंधी डैटा और नमूने एकत्रित किए।

उनके अनुसार ट्रफल प्लांटेशन प्राकृतिक आवासों पर दबाव को कम कर सकता है। इसमें, मिट्टी में पानी की मात्रा नियंत्रित की जा सकती है, उत्पादन बढ़ाने के लिए कृषि विधियों का उपयोग किया जा सकता है और सूअरों को बाहर रखा जा सकता है।

वे मिट्टी में कवक की पहचान करने के लिए डीएनए बारकोडिंग का उपयोग कर रहे हैं ताकि संरक्षित क्षेत्रों में उनके बीजाणुओं और कवक-तंतुओं (मायसेलियम) की मदद से कवक की पहचान की जा सके। ज़्ग्रेबिक का कहना है कि प्रजातियों की संख्या अनुमान से कहीं अधिक है।

इसके अलावा, ट्रफल वाले इलाकों और ट्रफल-रहित इलाकों की तुलना करने से यह समझने में मदद मिल सकती है कि वे कुछ क्षेत्रों में क्यों पनपते हैं। इस काम से ब्रिजुनी नेशनल पार्क के एड्रियाटिक द्वीप जैसे स्थानों में जैव विविधता का महत्व भी स्पष्ट हो रहा है। (स्रोत फीचर्स)

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बांध बाढ़ को बदतर बना सकते हैं

ई बांध बाढ़ नियंत्रण के लिए बनाए जाते हैं लेकिन हाल ही में हुए अध्ययन में पाया गया है कि कुछ तरह की नदियों पर बने बांध अधिक प्रलयंकारी बाढ़ ला सकते हैं। अध्ययन सुझाता है कि नदी प्रबंधकों को गाद वाली और रेतीली नदियों पर अपनी बाढ़ नियंत्रण रणनीतियों पर पुनर्विचार करना चाहिए।

बांधों के अपने कई फायदे हैं। ये अपेक्षाकृत स्वच्छ बिजली उत्पन्न कर सकते हैं, पानी का भंडारण करते हैं जिसका उपयोग खेती और अन्य कार्यों में किया जा सकता है और ये बाढ़ को रोक सकते हैं।

लेकिन बांधों के खामियाज़े भी हैं; जैसे लोगों का विस्थापन, मछलियों के प्रवास में बाधा और कई अन्य पारिस्थितिक नुकसान। लेकिन किसी ने यह नहीं सोचा था कि बांध बाढ़ों को अधिक गंभीर बना सकते हैं।

बांध इंजीनियरों को उम्मीद थी कि पानी भंडारण के अलावा नदियों के बहाव को नियंत्रित करके बाढ़ के जोखिम को कम किया जा सकता है। चूंकि बांध गाद को रोक लेंगे और अपेक्षाकृत साफ पानी छोड़ेंगे जिससे नदी के तल में कटाव होगा और नदी गहरी हो जाएगी। इस कटाव से नदी अधिक पानी वहन कर सकेगी और बाढ़ का पानी नदी के किनारों पर फैलने से रुकेगा।

कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के भू-आकृति विज्ञानी हांगबो मा जानना चाहते थे कि बांध नदी की तलछटों को कैसे बदलते हैं – अध्ययन में आश्चर्यजनक परिणाम सामने आए। बांध से छोड़ा गया पानी नदी के तल से महीन कणों को साथ बहा ले जाता है और बड़े कण नदी तल में छोड़ जाता है। इस तरह का क्षरण नदी तल में जलमग्न टीले बनाता है।

दरअसल मा और उनके साथी येलो नदी का अध्ययन कर रहे थे, जो तिब्बती पठार के पहाड़ों से शुरू होकर पूर्वी चीन सागर की ओर बहती है। जब वे नदी के एकदम निचले भाग के पेंदे का सोनार की मदद से स्कैन कर रहे थे तो वहां टीलों की अनुपस्थिति से काफी प्रभावित हुए। ऐसा नदी तल में गाद की उच्च मात्रा के कारण हुआ होगा। येलो नदी दुनिया की सबसे कीचड़ वाली नदी है जिसका नाम इसके प्रवाह में भारी मात्रा में गाद के कारण रखा गया है। महीन कण टीले नहीं बनने देते हैं।

लेकिन ज़ियाओलांगडी बांध के करीब नदी का पेंदा ऊबड़-खाबड़ मिला और वहां बड़े-बड़े टीले थे। इसने शोधकर्ताओं को आश्चर्य में डाल दिया कि एक ही नदी के पेंदे में इतना परिवर्तन कैसे हो सकता है।

सवाल था कि क्या उबड़-खाबड़ और टीले से भरा नदी का पेंदा बाढ़ के पानी के प्रवाह को बाधित करेगा, जिससे पानी ऊपर चढ़ेगा और नदी उफान पर आ जाएगी और बाढ़ का पानी मैदान में फैल जाएगा। इस विचार को जांचने के लिए उनके दल ने नदी चैनल के आकार और अन्य कारकों के आधार पर गणना की। नेचर कम्यूनिकेशंस में प्रकाशित परिणाम बताते हैं कि नदी चैनल 3.4 मीटर गहरी होने के बावजूद, 1999 में बांध बनने से पहले की तुलना में अब बड़ी बाढ़ लगभग दुगनी भयंकर हो गई हैं।

वर्ष 1980 से 2015 तक बाढ़ के रिकॉर्ड जांचने पर वैज्ञानिकों ने पाया कि मध्यम और बड़ी बाढ़ों की भयावहता वास्तव में बढ़ गई थी। दूसरी ओर, इसी अवधि में आई छोटी बाढ़ों की भयावहता में कमी आई थी; संभवत: नदी की गहराई थोड़ी बढ़ने के कारण ऐसा हुआ होगा।

सौभाग्य से, बांध बनने के बाद से शायद ही कभी निचली येलो नदी में बड़ी बाढ़ आई हो। ऐसा इसलिए है क्योंकि जलवायु शुष्क हो गई है और जलाशय में अब भी अत्यधिक वर्षा से आने वाले प्रवाह को थामे रखने की पर्याप्त क्षमता है। लेकिन जलवायु मॉडल सुझाता है कि इस शताब्दी में येलो नदी बेसिन में वर्षा 30 प्रतिशत तक बढ़ जाएगी। और नदी जलाशय में तलछट जमा होना जारी है – और यह पहले से ही 75 प्रतिशत भरा है – बाढ़ के पानी को जमा करके रखने की बांध की क्षमता कम हो जाएगी।

टीम का अनुमान है कि नए बांध 80 प्रतिशत से अधिक निचली नदियों में आने वाली बड़ी बाढ़ की भयावहता बढ़ा देंगे। इसलिए हमें सोचना चाहिए कि न केवल येलो नदी के लिए बल्कि अन्य नदियों के लिए भी बाढ़ के जोखिम का आकलन कैसे किया जाए। (स्रोत फीचर्स)

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भीषण गर्मी की चपेट में उत्तरी भारत

मानव गतिविधियों की वजह से हो रहे ग्लोबल वार्मिंग की वजह से हो या अन्यथा, फिलहाल मुद्दा यह है कि उत्तरी भारत औसतन 45 डिग्री सेल्सियस के दैनिक तापमान के साथ भीषण गर्मी की चपेट में है।

ऐसा माना जा रहा है कि जलवायु परिवर्तन के कारण मौसम के वैश्विक पैटर्न में परिवर्तन आएगा और भारत को और अधिक भीषण गर्मी का सामना करना पड़ सकता है। भारतीय मौसम विज्ञान विभाग (आईएमडी) के अनुसार ग्रीष्म लहर (लू) उस स्थिति को कहते हैं जब किसी दिन का तापमान लंबे समय के औसत तापमान से 4.5 से 6.4 डिग्री अधिक होता है (या मैदानी क्षेत्रों में 40 डिग्री सेल्सियस से अधिक और तटीय क्षेत्रों में 37 डिग्री सेल्सियस से अधिक हो)।

उदाहरण के लिए, दिल्ली में 1981 से 2010 के दौरान मई का औसत उच्च तापमान 39.5 डिग्री सेल्सियस रहा करता था लेकिन वर्तमान में 28 अप्रैल से प्रतिदिन का तापमान 44 डिग्री सेल्सियस है (औसत अधिकतम तापमान से 4.5 डिग्री सेल्सियस अधिक)। ये महज आंकड़े नहीं हैं बल्कि इनका सम्बंध मानव शरीर, जन स्वास्थ्य और जलवायु संकट के इस दौर में शासन व्यवस्था से जुड़ा है।

इस संदर्भ में वेट-बल्ब तापमान महत्वपूर्ण है। वेट-बल्ब तापमान वह न्यूनतम तापमान है जो कोई वस्तु गर्म वातावरण में हासिल कर सकती है जब साथ-साथ उसे पानी के वाष्पन से ठंडा किया जा रहा हो। जब आसपास का वातावरण गर्म हो और वस्तु की सतह से पानी वाष्पित हो रहा हो तो उनके बीच एक साम्य स्थापित होता है और वस्तु के तापमान में कमी आती है। अपनी त्वचा का उदाहरण लीजिए। किसी गर्म दिन में जब आपकी त्वचा की सतह से पसीना वाष्पीकृत होता है तब आपकी त्वचा कम-से-कम जितने तापमान तक ठंडी हो सकती है उसे वेट-बल्ब तापमान कहा जाता है। यह तापमान सिर्फ साधारण तापमापी से नापा गया तापमान नहीं बल्कि वाष्पन की वजह से आई या आ सकने वाली गिरावट को दर्शाता है।

यहां एक बात ध्यान देने योग्य है। किसी सतह से पानी का वाष्पन सिर्फ तापमान पर निर्भर नहीं करता बल्कि आसपास की हवा में मौजूद नमी की मात्रा पर भी निर्भर करता है। यदि आसपास की हवा बहुत अधिक नम है, तो सतह से पानी का वाष्पन कम होगा और उस वस्तु के तापमान में उतनी कमी नहीं आ पाएगी जितनी शुष्क हवा में आती।

मौसम का अध्ययन करने वाले एक संस्थान मेटियोलॉजिक्स के अनुसार 26 अप्रैल 2022 को सुबह साढ़े आठ बजे दक्षिण दिल्ली का वेट-बल्ब तापमान लगभग 19.5 डिग्री सेल्सियस था जो 29 अप्रैल को बढ़कर 22 डिग्री सेल्सियस हो गया। ये दोनों ही तापमान फिलहाल सुरक्षित सीमा में हैं। लेकिन 32 डिग्री सेल्सियस के वेट-बल्ब तापमान में थोड़ी देर भी बाहर रहना हानिकारक हो सकता है। वेट-बल्ब तापमान 35 डिग्री सेल्सियस से अधिक हो, तो पर्याप्त पानी पीने और कोई शारीरिक कार्य किए बगैर भी कुछ घंटे बाहर छाया में गुज़ारना तक जानलेवा हो सकता है।

एशिया के मौसम मानचित्र में दिखेगा कि वेट-बल्ब तापमान भूमध्य रेखा की ओर जाने पर काफी तेज़ी से बढ़ता है और साथ ही भारत के पश्चिमी तट की तुलना में पूर्वी तट पर अधिक होता है। यह मुख्य रूप से नमी के कारण होता है। वातावरण में जितनी अधिक नमी होगी, उतना ही कम पसीना वाष्पित हो पाएगा और शरीर भी उतना ही कम ठंडा हो पाएगा। इसलिए किसी क्षेत्र में मात्र हवा का तापमान जानना पर्याप्त नहीं होता बल्कि आर्द्रता और वेट-बल्ब की रीडिंग भी महत्वपूर्ण है।

2020 में कोलंबिया युनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने दावा किया था कि पृथ्वी की सतह के कई हिस्सों में गर्मी और आर्द्रता के कारण स्थिति जानलेवा बन चुकी है जबकि पहले ऐसा माना जा रहा था कि यह स्थिति सदी के अंत में आएगी। शोधकर्ताओं द्वारा 1979 से 2017 तक एकत्र किए गए आंकड़ों के अनुसार पूर्वी तटवर्ती और उत्तर-पश्चिमी भारत पर सबसे अधिक वेट-बल्ब तापमान होने की संभावना है।

ज़्यादा व्यापक स्तर पर देखें तो मध्य अमेरिका, उत्तरी अफ्रीका, मध्य-पूर्व, उत्तर-पश्चिमी और दक्षिण-पूर्वी भारत तथा दक्षिण पूर्वी एशिया के कुछ हिस्सों में अधिकतम वेट-बल्ब तापमान 35 डिग्री सेल्सियस की सीमा तक 2010 में ही पहुंच चुका है।     

ग्लोबल वार्मिंग से न सिर्फ तापमान में बढ़ोतरी हो रही है बल्कि समुद्र स्तर में भी वृद्धि हो रही है। इन दोनों समस्याओं के चलते भारत के कई क्षेत्र रहने योग्य नही रह जाएंगे। कब और कौन-से क्षेत्र निर्जन होंगे यह कई कारकों पर निर्भर करता है।   

गौरतलब है कि भारत के प्रभावित क्षेत्र में कई ऐसे राज्य शामिल हैं जहां जन स्वास्थ्य व्यवस्था कमज़ोर और अपर्याप्त है, तथा चिकित्सा कर्मियों की कमी है। इन राज्यों की आय भी बहुत कम है और अधिकांश निवासी बाहरी काम करने वाले दिहाड़ी मज़दूर हैं और बहुत कम सुविधाओं के साथ जीवन यापन कर रहे हैं। इन गर्म हवाओं के दौरान बाहर काम करना उनके लिए काफी जोखिम भरा होगा। इसे विडंबना ही कहेंगे कि जलवायु परिवर्तन में जिस समूह का समसे कम योगदान हैं उसे इसका सबसे अधिक खामियाजा भुगतना पड़ रहा है।      

इस समस्या के समाधान के लिए ‘हीट एक्शन प्लान’ तैयार किया गया है जिसको सबसे पहले 2013 में अहमदाबाद में अपनाया गया था। तब से लेकर अब तक 30-40 शहर इस योजना को अपना चुके हैं जिसमें जागरूकता अभियान, चेतावनी प्रणाली और शीतलन व्यवस्था की स्थापना तथा कमज़ोर वर्गों में गर्मी के जोखिम को कम करने के प्रयास किए गए हैं। देखा जाए तो गर्मी के शहरी टापू जैसे प्रभाव के कारण शहरी क्षेत्रों की गर्म हवाएं और भी घातक हो गई हैं। ये प्रयास सराहनीय हैं लेकिन पर्याप्त नहीं हैं। गर्म हवाओं की बात करते हुए आर्द्रता को शामिल करना अनिवार्य है क्योंकि वह वेट-बल्ब तापमान में वृद्धि करती है।  

फिलहाल, आईपीसीसी के अनुसार भारत में वेट-बल्ब तापमान शायद ही 30 डिग्री सेल्सियस को पार कर रहा है लेकिन इसमें जल्द ही परिवर्तन की संभावना है। (स्रोत फीचर्स)

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ओज़ोन का ह्रास करने वाला रसायन बढ़ रहा है

हाल की एक रिपोर्ट में स्तब्ध कर देने वाले नतीजे सामने आए हैं। वर्ष 2012 से अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर, ओज़ोन को क्षति पहुंचाने वाले रसायन HCFC-141b के स्तर में वृद्धि देखी गई है जबकि इसका घोषित उत्पादन कम हुआ है।

ये नतीजे पूर्व में उपयोग किए गए इस तरह के रसायनों से छुटकारा पाने की चुनौतियों को रेखांकित करते हैं: भले ही इन रसायनों का उत्पादन थम गया हो लेकिन उपकरणों में ये दशकों तक टिके रह सकते हैं। नतीजे यह भी दर्शाते हैं कि कैसे विभिन्न महाद्वीपों में लगे सेंसर्स के असमान वितरण से उत्सर्जन के स्रोतों को पहचानने में कठिनाई होती है।

HCFC-141b का उपयोग मुख्यत: रेफ्रिजरेटर वगैरह में फोम इन्सुलेशन बनाने में किया जाता था। फ्लोरोकार्बन रसायन ओज़ोन परत को नुकसान पहुंचाते हैं। 1987 के मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल के तहत इन रसायनों के उपयोग को धीरे-धीरे बंद करने के प्रयास शुरू किए गए थे। 2000 के दशक की शुरुआत से ओज़ोन को नुकसान पहुंचाने वाले रसायनों में लगातार कमी आई, और ध्रुवों के ऊपर बना ओज़ोन ‘छिद्र’ भरने लगा।

फिर 2018 में पता चला कि प्रतिबंधित रसायन CFC-11 का स्तर वर्ष 2012 से बढ़ रहा है। अंतर्राष्ट्रीय पैनल का मत था कि यह वृद्धि संभवत: CFC-11 के अवैध उत्पादन के कारण है। अवैध उत्पादन का कारण शायद यह है कि तब CFC-11 के विकल्प HCFC-141b, जो  ओज़ोन को कम नुकसान पहुंचाता है, की आपूर्ति बहुत कम थी। 2019 में एक बार फिर CFC-11 का स्तर गिरने लगा।

चूंकि 2030 तक HCFC-141b के उपयोग पर पूर्ण प्रतिबंध के प्रयास 2013 में शुरू हो गए थे, इसलिए अब तक HCFC-141b के उत्पादन में भी गिरावट दिखनी चाहिए थी। अब HCFC-141b की जगह ऐसे रसायनों का उपयोग किया जा रहा है जो ओज़ोन परत को नुकसान नहीं पहुंचाते।

लेकिन वायुमण्डल में तो HCFC-141b का स्तर बढ़ रहा है। शोधकर्ताओं का अनुमान है कि यह वृद्धि 2017 से 2021 के बीच हुई है। एटमॉस्फेरिक केमिस्ट्री एंड फिज़िक्स में ऑनलाइन प्रकाशित आंकड़ों के अनुसार 2017 से 2020 तक HCFC-141b की मात्रा में कुल 3000 टन की वृद्धि हुई है।

नेशनल ओशिएनिक एंड एटमॉस्फेरिक एडमिनिस्ट्रशन के स्टीफन मोंट्ज़्का का कहना है कि HCFC-141b में वृद्धि उत्तरी गोलार्ध में कहीं से हो रही है।

एक संभावना यह है कि HCFC-141b का अवैध उत्पादन न हो रहा हो और कबाड़ हो चुके उपकरणों के फोम के विघटन से HCFC-141b निकल रही हो।

दुनिया के विभिन्न इलाकों में वायु सेंसर्स के असमान वितरण के कारण उत्सर्जन का वास्तविक स्रोत पकड़ में नहीं आ रहा है। इस वजह से भारत, रूस, मध्य-पूर्व, अधिकांश अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका की स्थिति को लेकर वैज्ञानिक अनभिज्ञ हैं। उम्मीद है कि आने वाले सालों में चीज़ें ज़्यादा स्पष्ट होंगी। CFC-11 में वृद्धि के बाद से युरोपीय संघ द्वारा वित्तपोषित पहल के तहत अधिक सेंसर लगाए जा रहे हैं और सेंसर के असमान वितरण को कम किया जा रहा है। (स्रोत फीचर्स) 

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कम बीफ खाने से जंगल बच सकते हैं

हाल ही में हुए एक मॉडलिंग अध्ययन का निष्कर्ष है कि अगले 30 वर्षों में सिर्फ 20 प्रतिशत बीफ की जगह मांस के विकल्प का उपयोग करने से वनों की कटाई और इससे जुड़े कार्बन उत्सर्जन को आधा किया जा सकता है। ये नतीजे नेचर पत्रिका प्रकाशित हुए हैं।

बीफ के लिए मवेशियों को पालना वनों की कटाई का प्रमुख कारण है। मवेशी मीथेन उत्सर्जन का भी प्रमुख स्रोत हैं। अध्ययन का निष्कर्ष है कि बीफ के बदले मांस के विकल्प अपनाने से खाद्य उत्पादन के कारण होने वाला उत्सर्जन कुछ कम हो सकता है, लेकिन यह कोई रामबाण इलाज नहीं है।

पूर्व अध्ययनों में देखा गया था कि बीफ की जगह गैर-मांस विकल्प ‘मायकोप्रोटीन’ अपनाने से पर्यावरण पर लाभकारी प्रभाव पड़ सकते हैं। मायकोप्रोटीन मिट्टी में पाई जाने वाली फफूंद के किण्वन से बनाया जाता है। 1980 के दशक में यू.के. में यह क्वार्न ब्रांड नाम से बिकना शुरू हुआ और अब यह कई देशों में आसानी से उपलब्ध है।

यह अध्ययन बीफ की जगह मायकोप्रोटीन अपनाने से पर्यावरणीय प्रभावों का अनुमान लगाता है। अध्ययन में शोधकर्ताओं ने एक गणितीय मॉडल का इस्तेमाल किया, जिसमें 2020 से 2050 के बीच जनसंख्या वृद्धि, आय और मवेशियों की मांग में वृद्धि को शामिल किया गया। यदि सब कुछ आज जैसा ही चलता रहा, तो बीफ की खपत में वैश्विक वृद्धि से चराई के लिए चारागाह और मवेशियों के आहार उत्पादन के लिए कृषि भूमि में विस्तार की आवश्यकता होगी। इससे वनों की कटाई की वार्षिक दर दुगनी हो जाएगी। मीथेन उत्सर्जन और कृषि कार्यों के लिए जल उपयोग भी बढ़ जाएगा।

दूसरी ओर, यदि वर्ष 2050 तक 20 प्रतिशत बीफ की जगह मायकोप्रोटीन लें तो मीथेन उत्सर्जन में 11 प्रतिशत कमी आएगी और साल भर में होने वाली वनों की कटाई और उससे सम्बंधित उत्सर्जन आधा रह जाएगा। बीफ की खपत का आधा हिस्सा मायकोप्रोटीन से बदलने पर वनों की कटाई में 80 प्रतिशत की कमी और 80 प्रतिशत तक बदलने से 90 प्रतिशत तक की कमी आएगी।

वैसे बीफ की जगह मांस विकल्प अपनाने से जल उपयोग में मामूली बदलाव ही दिखेंगे क्योंकि जो पानी मवेशियों के आहार उगाने में लगता था अब अन्य फसल उगाने में लगेगा।

अन्य शोधकर्ताओं का कहना है कि ऐसे अध्ययन खाद्य उत्पादन के बेहतर तरीके पता करने में मददगार हो सकते हैं लेकिन यह भी हो सकता है कि मायकोप्रोटीन उत्पादन में अधिक बिजली लगे, इसलिए अतिरिक्त बिजली उत्पादन के पर्यावरणीय प्रभावों पर भी विचार करना होगा। इसके अलावा बीफ की जगह मायकोप्रोटीन अपनाने का मतलब है कि पशुपालन से मिलने वाले सह-उत्पाद (चमड़ा और दूध) भी वैकल्पिक तरीकों से प्राप्त करना होंगे। ये वैकल्पिक तरीके भी पर्यावरण पर प्रभाव डालेंगे।

सुझाव है कि बीफ को मांस के अन्य विकल्प जैसे प्रयोगशाला में बनाए गए मांस या वनस्पति-आधारित विकल्प से बदलने पर पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभावों को जांचना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)

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