कुछ सालों पहले तक युरोप के सबसे बड़े लैगून मार मेनोर का पानी साफ हुआ करता था जिसमें सीपियां (फैन मसल्स) अच्छी तरह पनपते थे। लैगून समुद्र से सटी खारे पानी की झील होती है। लेकिन 2016 में, खेतों से बहकर आए उर्वरकों के चलते लैगून को शैवाल ने ढंक लिया। नतीजतन, लैगून की ऑक्सीजन कम हो गई और समुद्री घोड़ों, केकड़ों और अन्य समुद्री जीवों के साथ-साथ 98 प्रतिशत फैन मसल नामक सीपियां खत्म हो गए।
पिछले साल लैगून की दयनीय स्थिति से परेशान होकर स्थानीय निवासियों और कार्यकर्ताओं ने मिलकर एक याचिका दायर की: 135 वर्ग किलोमीटर के लैगून को एक व्यक्ति के अधिकार मिलें। अंतत: स्पेन की संसद ने मार मेनोर लैगून को एक व्यक्ति के अधिकार दे दिए।
यह कानून लैगून और उसके जलग्रहण क्षेत्र को पूरी तरह से मानव का दर्जा तो नहीं देता है लेकिन इसके पारिस्थितिकी तंत्र को अस्तित्व में बने रहने, नैसर्गिक रूप से विकसित होने और अपने रख-रखाव के कानूनी अधिकार देता है। एक व्यक्ति की तरह इसकी देख-रेख के लिए भी इसके कानूनी अभिभावक होंगे।
वैसे, यह लैगून व्यक्ति के अधिकार पाने वाला युरोप का पहला पारिस्थितिकी तंत्र है लेकिन संरक्षण देने का यह तरीका पिछले एक दशक में काफी लोकप्रिय हुआ है। जैसे, भारत में गंगा और बांग्लादेश की हर नदी को एक व्यक्ति का दर्जा मिला हुआ है।
इस तरह के संरक्षण की सबसे सफल मिसाल न्यूज़ीलैंड की वांगानुई नदी है, जिसे 2017 में कानूनी अधिकार दिए गए थे। एक व्यक्ति की तरह नदी और उसका जलग्रहण क्षेत्र मुकदमा दायर कर सकता है या उस पर मुकदमा किया जा सकता है, उसके साथ कोई अनुबंध किया जा सकता है, और वह संपत्ति का मालिक हो सकता है। हालांकि इस नदी को व्यक्ति का दर्जा देने के पीछे उद्देश्य प्रदूषण रोकना नहीं था बल्कि लोगों को माओरी संस्कृति से जोड़ना और पश्चिमी कानून में प्रकृति को शामिल करना था, लेकिन इस कदम से पर्यावरण को फायदा हुआ: जल प्रबंधन के तरीके मनुष्यों की ज़रूरत की बजाय नदियों की सेहत पर केंद्रित होने लगे।
वैसे मार मेनोर की स्वच्छता के लिए पहले से कानून मौजूद हैं जो इसके पानी की गुणवत्ता, इसमें पल रहे जीवन और प्राकृतवासों को संरक्षण देते हैं। इसके तहत, संस्थान या मनुष्य फैन मसल्स को नुकसान नहीं पहुंचा सकते, या लैगून में मिलने वाली नदियों और झीलों को प्रदूषित नहीं कर सकते हैं।
इसके अलावा, स्पेन के पर्यावरण मंत्रालय ने अगले 5 वर्षों में इसे प्रदूषण मुक्त करने के लिए 50 करोड़ युरो आवंटित किए हैं। और, इस गर्मी में लैगून से बड़ी मात्रा में शैवाल हटाए गए हैं। कुछ हद तक उर्वरक लैगून तक पहुंचने से रोकने के लिए सरकारी एजेंसियां गैरकानूनी सिंचाई नहरें नष्ट कर रही हैं। लेकिन फिर भी लैगून की स्थिति में पर्याप्त सुधार नहीं दिखा है। संरक्षण कार्यकर्ताओं को लगता है कि नए कानूनी ढांचे से इन प्रयासों को गति मिलेगी।
इस कानून के तहत कोई भी नागरिक मार मेनोर की रक्षा के लिए मुकदमा कर सकता है। कानूनी अभिभावक, जिसमें सरकार के प्रतिनिधि और नागरिक शामिल हैं, लैगून की ओर से कानूनी और अन्य कार्रवाइयां कर सकते हैं। वैज्ञानिक समिति इसके पारिस्थितिक स्वास्थ्य का आकलन करेगी – जैसे इसकी लवणीयता, ऑक्सीजन वगैरह के स्तर पर निगरानी रखेगी। इसके अलावा उसका काम मार मेनोर के लिए पैदा हो रहे नए जोखिमों की पहचान करना व इसकी बहाली के उपाय सुझाना भी होगा। इसके निगरानी आयोग में पर्यावरण संगठन, मछली पालन और कृषि उद्योग व अन्य हितधारकों के प्रतिनिधि शामिल होंगे।
लेकिन मार मेनोर की सुरक्षा के लिए लाया गया यह कानून विरोध का सबब भी बन सकता है। जैसे हो सकता है किसान उर्वरकों के उपयोग में कटौती करने को राज़ी न हों। दक्षिणपंथी फोक्स पार्टी तो इस पहल को कानूनी बकवास मानती है।
इसके अलावा, नए अधिकारों का तालमेल मौजूदा कानूनी ढांचे से बनाना भी ज़रूरी होगा, जो किसानों के संपत्ति अधिकारों को पहचाने। क्योंकि अगर इसमें अस्पष्टता होगी तो अंतहीन मुकदमेबाज़ी चलती रहेगी। बहरहाल यदि ये प्रयास सफल होते हैं तो बाकी देश इनसे सीख सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.researchgate.net/profile/Salvador-Garcia-ayllon/publication/274179206/figure/fig16/AS:668443506401291@1536380759847/Mar-Menor-view-from-south-Source-Atlas-de-la-Region-de-Murcia.jpg
पृथ्वी के ऊपरी वायुमंडल में मौजूद ओज़ोन गैस सूर्य की हानिकारक पराबैंगनी किरणों से हमारी रक्षा करती है। ओज़ोन की इस परत के संरक्षण हेतु सशक्त कदम उठाए जा रहे हैं, लेकिन पृथ्वी की सतह पर विषैली ओज़ोन के बढ़ते स्तर को रोकने को लेकर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया जा रहा है। गौरतलब है कि जहां ऊपरी वायुमंडल में ओज़ोन पराबैंगनी किरणों से पृथ्वी की रक्षा करती है, वहीं धरती की सतह पर मौजूद ओज़ोन इंसान और पर्यावरण की सेहत को गंभीर नुकसान पहुंचाती है।
औद्योगिक गतिविधियों की वजह से वायुमंडल की निचली सतह पर ओज़ोन के बढ़ते स्तर के चलते मनुष्य, जीव-जंतु और पेड़-पौधे बुरी तरह प्रभावित हो रहे हैं। एक हालिया अध्ययन में चीन और स्पेन के शोधकर्ताओं ने कहा है कि पिछले 20-22 वर्षों से ओज़ोन के संपर्क में आने से पेड़-पौधों में परागण क्रिया बाधित हो रही है। ट्रेंड्स इन इकॉलॉजी एंड इवॉल्यूशन जर्नल में प्रकाशित शोधपत्र में उन्होंने बताया है कि कैसे पृथ्वी की सतह पर ओज़ोन का बढ़ता स्तर पत्तियों को नुकसान पहुंचा सकता है, पुष्पन पैटर्न को बदल सकता है और परागणकर्ताओं के लिए फूल खोजने में बाधा बन सकता है।
वायुमंडल की निचली सतह पर मौजूद ओज़ोन इंसानी गतिविधियों (उद्योगों, विद्युत और रासायनिक संयंत्रों, रिफाइनरियों, वाहनों वगैरह) से उत्पन्न प्रदूषकों पर सूर्य के प्रकाश के असर से निर्मित होती है। जब किसी पौधे की पत्तियों में ओज़ोन प्रवेश करती है, तो वह प्रकाश संश्लेषण को कम करके पौधे के विकास को धीमा कर देती है।
उपरोक्त शोधपत्र के प्रधान लेखक एवगेनियोस अगाथोक्लियस के मुताबिक, ‘परागणकर्ताओं पर कृषि रसायनों के प्रत्यक्ष प्रभावों के बारे में बहुत चर्चा होती है, लेकिन अब यह सामने आया है कि ओज़ोन परागण और परागणकर्ताओं के लिए एक मूक खतरा है।’
निचले वायुमंडल में ओज़ोन का स्तर दिन-ब-दिन बढ़ता जा रहा है। इसकी वजह से पुष्पन का पैटर्न और समय बदल रहा है, जिससे पौधों और परागणकर्ताओं की गतिविधियों के बीच सामंजस्य नहीं बन पा रहा है।
ओज़ोन प्रदूषण की वजह से पौधों की पत्तियां रोगग्रस्त हो जाती हैं, कीटों से होने वाला नुकसान बढ़ जाता है और खराब मौसम से निपटने की उनकी क्षमता घट जाती है। और तो और, ओज़ोन प्रकाश संश्लेषण की प्रक्रिया को प्रभावित करके पौधे के विकास को धीमा कर देती है। पौधे वाष्पशील कार्बनिक यौगिकों का उत्सर्जन करते हैं जो परागणकर्ताओं को आकर्षित करते हैं, लेकिन ओज़ोन इन कार्बनिक यौगिकों से क्रिया करने लगती है। जहां इंसानी गतिविधियों की वजह से धरती की सतह पर ओज़ोन का स्तर दिन-ब-दिन बढ़ रहा है, वहीं ऊपरी वायुमंडल में इसकी मात्रा घटती जा रही है जहां इसकी वास्तव में ज़रूरत है। धरती के नज़दीक बढ़ती ओज़ोन समस्या से निपटने के लिए आज सशक्त और प्रभावी कदम उठाए जाने की तत्काल ज़रूरत है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.nps.gov/subjects/air/images/effects_ecological_ozonedamage_poplar.jpg?maxwidth=650&autorotate=false
कोविड-19 महामारी के कारण भारत और विश्व भर की अर्थव्यवस्थाओं को काफी मुश्किल परिस्थितियों का सामना करना पड़ा है। अब दो वर्ष बीत जाने के बाद परिस्थितियों में काफी सुधार आ चुका है। अर्थव्यवस्थाएं एक बार फिर सामान्य होती नज़र रही हैं।
अर्थव्यवस्था के पुनर्निर्माण हेतु एक ऐसी दुनिया के निर्माण के संकल्प लिए गए जो कार्बन-उत्सर्जन को लेकर जागरूक होगी। कई देशों ने जलवायु परिवर्तन से निपटने और हरित ऊर्जा का उपयोग करने के भी संकल्प लिए। ऐसे में यह देखना लाज़मी है कि इस आर्थिक मंदी के बाद जलवायु परिवर्तन के सम्बंध में किए गए वादों को पूरा करने में सरकारों का प्रदर्शन कैसा रहा है।
आर्थिक प्रोत्साहन का विश्लेषण
आर्थिक प्रोत्साहन का एक सरल उदाहरण बैंकों के संदर्भ में लिया जा सकता है जिसमें बैंकों की चल निधि को बहाल करने के लिए सरकार बेलआउट पैकेज की घोषणा करती है ताकि उन्हें वापस सामान्य स्थिति में लाया जा सके। इस योजना के तहत अर्थव्यवस्था में सकारात्मक बदलाव लाने के लिए सरकार द्वारा विभिन्न नीतियों के माध्यम से धन का आवंटन किया जाता है। कोविड-19 महामारी के बाद विश्व भर की सरकारों ने आर्थिक प्रोत्साहन के माध्यम से अपनी कमज़ोर अर्थव्यवस्थाओं को पुनर्जीवित करने के प्रयास किए। इन प्रयासों को समझने के लिए एक लेख काफी महत्वपूर्ण है – ‘जी-20 देशों द्वारा 14 खरब डॉलर का प्रोत्साहन उत्सर्जन सम्बंधी वायदों के खिलाफ है’ (‘G-20’s US $14 trillion economic stimulus – reneges on emissions pledges’)। विश्व की 20 सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं (जी-20) ने आर्थिक प्रोत्साहन के लिए 14 खरब डॉलर का आवंटन किया। यह काफी दिलचस्प है कि इस राशि का केवल 6% (लगभग 860 अरब अमेरिकी डॉलर) ऐसे क्षेत्रों के लिए है जो उत्सर्जन में कटौती करने में मददगार हो सकते हैं। जैसे इलेक्ट्रिक वाहनों की बिक्री को प्रोत्साहन, ऊर्जा कुशल इमारतों का निर्माण और नवीकरणीय ऊर्जा की स्थापना।
इसके विपरीत, आर्थिक प्रोत्साहन का 3 प्रतिशत कोयला जैसे उद्योगों को सब्सिडी देने के लिए आवंटित किया गया है जो उत्सर्जन में वृद्धि करते हैं। वैसे, ऐसा करना नीति निर्माताओं के दृष्टिकोण से उचित हो सकता है क्योंकि आर्थिक मंदी के बावजूद ऊर्जा की मांग को पूरा करना ज़रूरी है जिसे कोयला और अन्य जीवाश्म ईंधन जैसे स्थापित ऊर्जा उद्योगों से ही पूरा किया जा सकता है। यह कदम पर्यावरण की दृष्टि से विवादास्पद दिखेगा लेकिन नीति निर्माता के दृष्टिकोण से नवीकरणीय उद्योग जैसे नए क्षेत्रों में निवेश करने की बजाय जांचे-परखे उद्योगों में निवेश करना बेहतर है।
देखा जाए तो वर्तमान महामारी के दौरान जो निवेश हरित ऊर्जा के क्षेत्र में हुआ है वह पिछली महामारी की तुलना में आनुपातिक रूप से काफी कम है। उदाहरण के लिए वर्ष 2008 के वैश्विक वित्तीय संकट के दौरान वैश्विक आर्थिक प्रोत्साहन का 16% उत्सर्जन में कटौती के लिए आवंटित किया गया था। यदि कोविड-19 आर्थिक मंदी के मद्देनज़र उत्सर्जन के लिए कटौती हेतु उसी अनुपात में धन आवंटित किया जाता तो यह आंकड़ा 2.2 खरब डॉलर होता। यह वर्तमान में उत्सर्जन को कम करने के लिए आवंटित राशि से दुगनी से भी अधिक है। यह स्थिति तब है जब हालिया ग्लासगो जलवायु सम्मलेन में विश्व भर के नेताओं ने जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए बड़े-बड़े वादे किए थे।
हाल ही में आयोजित ग्लासगो जलवायु सम्मलेन में वर्ष 2050 तक नेट-ज़ीरो उत्सर्जन के लक्ष्य को हासिल करने और ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने का संकल्प लिया गया था। इसके लिए 2020-24 के बीच 7 खरब अमेरिकी डॉलर के निवेश की आवश्यकता होगी। लेकिन इस वर्ष की शुरुआत तक विश्व की सभी सरकारों द्वारा इस राशि का केवल नौवां भाग ही खर्च किया गया है।
जिस तरह से वर्तमान आर्थिक प्रोत्साहन पैकेजों का निर्धारण किया गया है उससे सरकारें अर्थव्यवस्था को कुशलतापूर्वक पुनर्जीवित करने में तो विफल रही ही हैं, साथ ही वे अर्थव्यवस्थाओं को कम-कार्बन उत्सर्जन की ओर ले जाने में भी असफल रही हैं। पुनर्निर्माण की प्रक्रिया में बुनियादी ढांचे, परिवहन और कुशल एवं स्वच्छ ऊर्जा प्रौद्योगिकियों के क्षेत्र में दीर्घकालिक निवेश ज़रूरी है। लेकिन इन क्षेत्रों में निवेश करना शायद नीति निर्माताओं की प्राथमिकता में नहीं है।
पिछले कुछ समय में अक्षय ऊर्जा उद्योग काफी आकर्षक बना है, ऐसे में आर्थिक प्रोत्साहन का उद्देश्य इस क्षेत्र को सब्सिडी और अन्य प्रकार के प्रोत्साहन के माध्यम से आगे बढ़ाने का होना चाहिए। यह रोज़गार के लिहाज़ से भी काफी अच्छा विचार है। लेकिन इसके बावजूद अक्षय ऊर्जा उद्योगों को बहुत कम प्रोत्साहन दिया जा रहा है।
प्रोत्साहन योजनाओं का अध्ययन
उपरोक्त अध्ययन में मुख्य रूप से जी-20 देशों को शामिल किया गया है। गौरतलब है कि ये अर्थव्यवस्थाएं 80 प्रतिशत वैश्विक उत्सर्जन और लगभग 85 प्रतिशत वैश्विक आर्थिक गतिविधियों के लिए ज़िम्मेदार हैं। इस अध्ययन में विशेष रूप से यह देखने का प्रयास किया गया है कि सरकारों द्वारा निर्धारित की गई नीतियों से उत्सर्जन में वृद्धि हुई है या कमी हुई है या फिर कोई प्रभाव नहीं पड़ा है। इसके अलावा नीतियों को अल्पकालिक या दीर्घकालिक आधार पर भी परखा गया है।
पवन चक्कियों के निर्माण और इलेक्ट्रिक वाहन उद्योग को उत्सर्जन कम करने वाली नीतियों के रूप में देखा जा सकता है। दूसरी ओर, पेट्रोल पर टैक्स कम करने जैसी नीतियों को उत्सर्जन में वृद्धि के उदाहरण के रूप में देखा जा सकता है। फ्रंटलाइन श्रमिकों के वेतन में वृद्धि, जानवरों के लिए मुफ्त चिकित्सा सुविधा और सेवानिवृत्त सैनिकों को मुफ्त मानसिक स्वास्थ्य सेवा प्रदान करने जैसी नीतियां उत्सर्जन पर कोई प्रभाव नहीं डालेंगी।
अध्ययन के मुख्य निष्कर्ष
आर्थिक प्रोत्साहन के लिए निर्धारित 14 खरब डॉलर में से 1 खरब डॉलर से भी कम राशि रिकवरी कार्यक्रमों के लिए आवंटित की गई है। इसमें से भी केवल 27 प्रतिशत राशि का आवंटन ऐसे क्षेत्रों के लिए किया गया है जो प्रत्यक्ष रूप से उत्सर्जन में कमी ला सकते हैं।
आवंटित राशि का 72 प्रतिशत हिस्सा उत्सर्जन पर अप्रत्यक्ष प्रभाव डालता है क्योंकि उत्सर्जन को कम करने में उनकी प्रभाविता काफी हद तक उपभोक्ता की मांग और उनके व्यवहार जैसे अस्थिर और परिवर्तनशील कारकों पर निर्भर करती है।
एक प्रतिशत से थोड़ी अधिक राशि (10.6 अरब डॉलर) अनुसंधान एवं विकास लिए आवंटित की गई है जिससे उत्सर्जन पर सकारात्मक या नकारात्मक प्रभाव पड़ सकते हैं।
रिकवरी फंडिंग का एक बड़ा हिस्सा (91% तक) ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने के लिए उपयोग नहीं किया जा रहा है। जैसा कि महामारी के दौरान अपेक्षित था, रिकवरी फंडिंग का अधिकांश हिस्सा कमज़ोर स्वास्थ्य प्रणाली को वित्तपोषित करने और अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए आवंटित किया गया है।
कुल मिलाकर महामारी के बाद जिस तरह से विकास और पुनर्निर्माण कार्य हुआ है उसमें शायद ही कोई बदलाव आया है। यह तो स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है महामारी के बाद सिर्फ पुनर्निर्माण और रिकवरी कार्य को प्राथमिकता दी गई है जबकि यह देखा जाना चाहिए था कि ये कार्य पर्यावरण के लिए हानिकारक न हों और लंबे समय तक टिकाऊ रहें।
टिकाऊ पुनर्निर्माण प्रयासों में कुछ देशों ने अन्य की तुलना में काफी बेहतर प्रयास किए हैं। उदाहरण के तौर पर उत्सर्जन नियंत्रण के मामले में युरोपीय संघ और दक्षिण कोरिया ने अन्य देशों की तुलना में काफी बेहतर प्रदर्शन किया है। जहां सभी जी-20 देशों द्वारा उत्सर्जन कम करने पर आवंटित राशि केवल 6 प्रतिशत है वहीं इन देशों ने अपने कोविड-19 वित्तीय प्रोत्साहन की 30 प्रतिशत से अधिक राशि उत्सर्जन को कम करने के उपायों के लिए आवंटित की है। इसी तरह ब्राज़ील, जर्मनी और इटली ने आर्थिक प्रोत्साहन की 20-20 प्रतिशत तथा मेक्सिको और फ्रांस ने 10-10 प्रतिशत राशि का आवंटन उत्सर्जन को कम करने के लिए किया है। फ्रांस ने साइकिल पार्किंग और मरम्मत पर सब्सिडी के तौर पर 6.6 करोड़ डॉलर का खर्च किया है। इसी तरह जर्मनी ने पवन और सौर-ऊर्जा परियोजनाओं, ऊर्जा-कुशल भवनों, बिजली एवं हाइड्रोजन चालित वाहनों और अधिक कुशल बसों एवं हवाई जहाज़ों के निर्माण को बढ़ावा दिया है।
कई देश काफी पिछड़े हुए भी हैं। दूर जाने की ज़रूरत नहीं, अपने आसपास के देशों को देख सकते हैं। भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका द्वारा किए गए नीतिगत परिवर्तनों से उत्सर्जन में वृद्धि होने की संभावना है। उदाहरण के लिए, इन देशों ने जनता पर आर्थिक बोझ कम करने के लिए बिजली की कीमतों में 5 प्रतिशत तक की कटौती की है। चीन ने कीमतों को स्थिर रखने के लिए कोयला खनिकों से उत्पादन में वृद्धि करने की मांग की है। भारत ने कोयला आधारित ऊर्जा संयंत्रों में वायु प्रदूषण उपायों को लागू करने की निर्धारित समय सीमा को और आगे बढ़ा दिया है। दक्षिण अफ्रीका ने बिजली संयंत्रों से 11.4 अरब डॉलर की बिजली खरीद की है जिसके उत्पादन के लिए कोयले का उपयोग किया गया है जबकि पवन ऊर्जा से उत्पादित बिजली खरीद को कम किया है। भारत ने तो निजी निवेश को आकर्षित करने और कोयले की कीमतों को कम करने के लिए कोयला खनन के बुनियादी ढांचे का आधुनिकीकरण करने का निर्णय लिया है। इसके लिए कोयला उद्योग को बढ़ावा देने के लिए 14 अरब डॉलर खर्च किए गए हैं।
सबसे आश्चर्य की बात तो यह है कि यू.एस., जापान, कनाडा और यूके ने उत्सर्जन को कम करने के लिए रिकवरी फंड का 10% से भी कम इस्तेमाल करने की प्रतिबद्धता जताई है। यह कंजूसी ग्लासगो जलवायु सम्मलेन में इन देशों द्वारा किए गए वादों के सर्वथा विपरीत है।
वैसे, इस बीच कुछ अच्छे निर्णय भी लिए गए हैं। चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने चीन के पहले नेट-ज़ीरो लक्ष्य की घोषणा की है और 2016 के बाद से पूरे विश्व के बाकी हिस्सों की तुलना में अधिक समुद्री पवन ऊर्जा संयंत्र स्थापित किए हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका ने अपने हालिया इन्फ्रास्ट्रक्चर बिल में 2021 के पेरिस समझौते का अनुपालन करते हुए सार्वजनिक परिवहन, वाहनों के विद्युतीकरण और ग्रिड के आधुनिकीकरण में निवेश को शामिल किया है। अलबत्ता, इन घोषणाओं से इस बात को अनदेखा नहीं किया जा सकता कि अमेरिका और चीन ने अपने रिकवरी पैकेजों में जीवाश्म-ईंधन आधारित उद्योगों में एक बड़ी रकम निवेश करने की प्रतिबद्धता जताई है।
अध्ययन की सीमाएं
इस अध्ययन में नीति निर्माताओं द्वारा लिए गए उन निर्णयों पर प्रकाश डाला गया जो उत्सर्जन को कम करने के लिए उपयोगी या हानिकारक हैं। अलबत्ता, हर विश्लेषणात्मक रिपोर्ट की तरह इस रिपोर्ट की भी कुछ सीमाएं हैं:
इस अध्ययन में केवल कोविड-19 महामारी के संदर्भ में लिए गए निर्णयों को शामिल किया गया है। अर्थात कोविड-19 राहत प्रोत्साहन के दायरे के बाहर की नीतियों को इस अध्ययन में शामिल नहीं किया गया है। ऐसे में दोषपूर्ण निष्कर्ष प्राप्त होने की पूरी संभावना है।
इस रिपोर्ट में महामारी के दौरान जलवायु सम्बंधी सभी खर्चों को शामिल नहीं किया गया है और केवल राजकोशीय खर्च पर ध्यान दिया गया है।
मौद्रिक नीति में परिवर्तन तथा ऋण के माध्यम से मांग और आपूर्ति को नियंत्रित किया जा सकता है। रिपोर्ट में अध्ययन की अवधि के दौरान इन परिवर्तनों और इसके कारण अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले प्रभावों को ध्यान में नहीं रखा गया है। वस्तुओं और सेवाओं की मांग एवं आपूर्ति का उत्सर्जन पर बड़ा प्रभाव पड़ता है और इस नाते मौद्रिक नीति उत्सर्जन नियंत्रण का काम कर सकती है।
यह अध्ययन मुख्य रूप से घोषणाओं पर केंद्रित है। यह जानी-मानी बात है कि सरकारी घोषणाओं और वास्तविक निवेश में बहुत अंतर होता है।
कम कार्बन ऊर्जा में निवेश
हाल ही में शोध फर्म ‘ब्लूमबर्ग एनईएफ’ द्वारा प्रकाशित एक नई रिपोर्ट, ‘एनर्जी ट्रांज़ीशन इन्वेस्टमेंट ट्रेंड्स 2022’ के अनुसार निम्न कार्बन आधारित ऊर्जा की ओर परिवर्तन में वैश्विक निवेश 755 अरब अमेरिकी डॉलर की नई रिकॉर्ड ऊंचाई पर पहुंच गया है। इस रिपोर्ट में बताया गया है कि कार्बन कैप्चर एंड स्टोरेज (सीसीएस) के क्षेत्र को छोड़कर लगभग सभी क्षेत्रों में निवेश बढ़ा है। रिपोर्ट के अनुसार पवन, सौर तथा अन्य नवीकरणीय ऊर्जा के क्षेत्र में 366 अरब डॉलर का सबसे बड़ा निवेश हुआ है जो पिछले वर्ष की तुलना में पूरा 6 प्रतिशत अधिक है।
273 अरब डॉलर के साथ दूसरे स्थान पर सबसे अधिक निवेश विद्युतीकृत परिवहन क्षेत्र में हुआ है। पिछले कुछ वर्षों में बड़ी संख्या में विद्युत वाहनों की बिक्री हुई है। इस रिपोर्ट में यह ध्यान देने योग्य है कि अक्षय ऊर्जा सबसे बड़ा उद्योग क्षेत्र है लेकिन इलेक्ट्रिक वाहन सबसे तेज़ी से बढ़ने वाला उद्योग है। इतने वाहनों की बिक्री से इलेक्ट्रिक वाहन उद्योग में 77 प्रतिशत की वृद्धि हुई है, जबकि अक्षय ऊर्जा उद्योग में 6 प्रतिशत। यदि वर्तमान रुझान जारी रहता है तो 2022 तक विद्युत वाहन उद्योग अक्षय ऊर्जा उद्योग से भी आगे निकल जाएगा। यह काफी दिलचस्प है कि 755 अरब डॉलर में से 731 अरब डॉलर केवल इन दो क्षेत्रों से आता है जो स्वच्छ ऊर्जा क्षेत्र में असमानता को दर्शाता है।
ब्लूमबर्ग एनईएफ के प्रमुख विश्लेषक अल्बर्ट चेंग का विचार है कि “वस्तुओं की विश्व व्यापी कमी ने स्वच्छ ऊर्जा क्षेत्र के लिए नई चुनौतियों को जन्म दिया है। इसके नतीजे में सौर मॉड्यूल, पवन टर्बाइन और बैटरी पैक जैसी प्रमुख तकनीकों की इनपुट लागत में काफी वृद्धि हुई है। इसके मद्देनज़र, 2021 में ऊर्जा संक्रमण के क्षेत्र में निवेश में 27 प्रतिशत की वृद्धि एक अच्छा संकेत है जो निवेशकों, सरकारों और व्यवसायों की कम-कार्बन उत्सर्जन की ओर प्रतिबद्धता को दर्शाता है।”
एक बार फिर ऊर्जा संक्रमण निवेश में चीन अकेला सबसे बड़ा देश है। इसके लिए चीन ने 2021 में 266 अरब डॉलर की प्रतिबद्धता दिखाई है। चीन से काफी पीछे दूसरे नंबर पर अमेरिका ने 114 अरब डॉलर और युरोपीय संघ ने 154 अरब डॉलर का संकल्प लिया है।
नेट-ज़ीरो उत्सर्जन
ब्लूमबर्ग एनईएफ की 2021 की रिपोर्ट ‘न्यू एनर्जी आउटलुक’ ने 2050 तक वैश्विक नेट-ज़ीरो तक पहुंचने के लिए ‘ग्रीन’, ‘रेड’ और ‘ग्रे’ लेबल के आधार पर तीन वैकल्पिक परिदृश्य सामने रखे हैं। ये तीनों परिदृश्य औसत वैश्विक तापमान में 1.75 डिग्री वृद्धि के हिसाब से हैं। न्यू एनर्जी आउटलुक का उद्देश्य वर्तमान आंकड़ों का अध्ययन करना और 2050 तक नेट-ज़ीरो लक्ष्य को हासिल करने के लिए ज़रूरी धन का अनुमान लगाना है।
ब्लूमबर्ग एनईएफ की रिपोर्ट के अनुसार उपरोक्त तीन स्तरों में से किसी एक के भी करीब पहुंचने के लिए वैश्विक निवेश को तीन गुना करने की आवश्यकता है ताकि 2022 और 2025 के बीच उनका औसत 2.1 खरब डॉलर प्रति वर्ष और फिर 2026 से 2030 के बीच दुगना होकर 4.2 खरब डॉलर प्रति वर्ष हो जाए। वर्तमान विकास दर के लिहाज़ से इलेक्ट्रिक वाहन उद्योग एकमात्र ऐसा उद्योग है जिसके इस स्तर तक पहुंचने की उम्मीद है।
इस मामले में ब्लूमबर्ग एनईएफ में अर्थशास्त्र के प्रमुख मैथियास किमेल कहते हैं: “पेरिस समझौते के लक्ष्यों को पूरा करने के लिए पूरे विश्व का कार्बन बजट तेज़ी से चुक रहा है। ऊर्जा संक्रमण का कार्य काफी अच्छी तरह से चल रहा है और पहले की तुलना में यह काफी तेज़ी से आगे बढ़ रहा है। लेकिन यदि हमें 2050 तक नेट-ज़ीरो का लक्ष्य हासिल करना है तो सरकारों को अगले कुछ वर्षों में अधिक वित्त जुटाने की आवश्यकता होगी।”
ब्लूमबर्ग रिपोर्ट के अनुसार 2021 में कुल कॉर्पोरेट वित्त 165 अरब डॉलर था जिसे ‘एनर्जी ट्रांज़ीशन इन्वेस्टमेंट ट्रेंड्स 2022’ रिपोर्ट में 755 अरब डॉलर के शुरुआती आंकड़े में शामिल नहीं किया गया था। माना जा रहा है कि आने वाले वर्षों में इस पूंजी का उपयोग कंपनी के कामकाज को बढ़ाने और तकनीकों के विकास हेतु किया जाएगा।
गौरतलब है कि आज कंपनियों के पास इतनी पूंजी है जितनी मानव इतिहास में पहली कभी भी नहीं थी। यह सही है कि वे आज समस्याओं के समाधानों में ज़्यादा योगदान नहीं दे रही हैं लेकिन इसमें भी कोई शक नहीं कि वे नवाचारों के विस्तार में निरंतर योगदान दे रही हैं जो भविष्य की समस्याओं से निपटने के लिए अनिवार्य साबित होंगे।
निष्कर्ष
अब तक की चर्चा पढ़ने के बाद हमारे मन में एक स्वाभाविक सवाल उठता है कि जब सरकारों को आर्थिक मंदी के परिणामस्वरूप निर्वहनीय तरीके से पुनर्निर्माण के अवसर मिल रहे हैं तो वे टिकाऊ विकास की ओर क्यों नहीं बढ़ रही हैं।
इसके दो बड़े कारण हो सकते हैं – सरकारें पर्यावरणीय विकास और जलवायु नीति की बजाय आर्थिक विकास को प्राथमिकता दे रही हैं। यह एक आम गलतफहमी है कि आर्थिक विकास और पर्यावरणीय विकास एक दूसरे के विरोधी हैं। जबकि सच तो यह है आर्थिक विकास और उत्सर्जन में कमी एक दूसरे के इतने भी विरोधी नहीं हैं जितना पहली नज़र में प्रतीत होते हैं।
इसका दूसरा कारण सरकारों के कार्यकाल से सम्बंधित है। आम तौर पर सरकारें यह सुनिश्चित करना चाहती हैं कि जो काम वे कर रही हैं उसका परिणाम उनके अपने कार्यकाल के भीतर ही मिल जाए ताकि जनता उन्हें फिर से चुन सके। यह अल्पकालिक सोच पैदा करता है। अब तक खर्च करने के जो भी निर्णय लिए गए हैं वे अल्पकालिक स्वास्थ्य संकट को दूर करने और आर्थिक संकट से बाहर निकलने के लिए हैं। जबकि इस समय यह आवश्यक था कि स्वास्थ्य सेवा में ऐसा निवेश हो जिसके परिणाम आने वाले दशकों में देखने को मिलें। शायद इसी कारण हमने सतत विकास के क्षेत्र में बहुत कम काम किया है क्योंकि टिकाऊपन के आधार पर पुनर्निर्माण के परिणाम पांच वर्षों में तो नहीं मिलेंगे।
तो क्या कुछ नहीं किया जा सकता? देखा जाए तो ऐसे कई उपाय हैं जिनको अपनाकर सरकारें जलवायु को बिना नुकसान पहुंचाए विकास कार्य कर सकती हैं। सरकारें चाहें तो पर्यावरण संरक्षण से सम्बंधित शर्तों के आधार पर प्रोत्साहन कानून बना सकती हैं। फ्रांस इस तरह के सशर्त प्रोत्साहन का एक अच्छा उदाहरण है जिसने अपने विमानन उद्योग को वापस पटरी पर लाने के लिए सशर्त आर्थिक प्रोत्साहन दिया। इस प्रोत्साहन के तहत उड़ानों को उन मार्गों पर सेवाएं न देने की शर्त रखी गई जहां रेल मार्ग से प्रतिस्पर्धा की संभावना है। इसके अलावा सरकारें ऐसे नीतिगत उपायों पर संसाधनों का आवंटन भी कर सकती है जो प्रत्यक्ष रूप से उत्सर्जन को सकारात्मक रूप से प्रभावित करते हैं। इसका एक तरीका अक्षय ऊर्जा पर खर्च करना हो सकता है। सभी सरकारों को अपनी रणनीति इस प्रकार तैयार करनी चाहिए कि कम-कार्बन उत्सर्जन करने वाले निवेश को संभव बनाया जा सके और जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता को कम किया जा सके।
देखा जाए तो यह बात स्पष्ट हो चुकी है कि आर्थिक विकास और टिकाऊ विकास साथ-साथ चल सकते हैं। हालांकि, हम जिन रिपोर्टों का उल्लेख कर रहे हैं वे स्पष्ट रूप से यह बताती हैं कि सरकारें टिकाऊ विकास पर पर्याप्त खर्च नहीं कर रही हैं और कई मामलों में वे इसके विपरीत काम कर रही हैं। कुछ देश अन्य की तुलना में बेहतर प्रदर्शन कर रहे हैं। वास्तव में जलवायु परिवर्तन एक वैश्विक समस्या है जो न केवल उत्सर्जन में वृद्धि करने वाले देशों को प्रभावित करती है बल्कि उन देशों को भी प्रभावित करती है जो उत्सर्जन को कम करने के निरंतर प्रयास कर रहे हैं। पेरिस समझौता और जलवायु परिवर्तन को रोकने के प्रयासों में वित्तपोषण सही दिशा में कदम है, लेकिन यह देखना बाकी है कि 2050 नेट-ज़ीरो का लक्ष्य प्राप्त करने में सरकारें कहीं कंजूसी तो नहीं कर रही हैं। (स्रोत फीचर्स)
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विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार वायु प्रदूषण स्वास्थ्य के लिए सबसे बड़ा खतरा है। घर के बाहर वायु प्रदूषण के बारे में तो हम सजग हैं। लेकिन घर के अंदर की आब-ओ-हवा हमें सुरक्षित और स्वच्छ लगती है, क्योंकि हम यह मानकर चलते हैं कि हम (या हमारा शरीर) कोई प्रदूषण नहीं फैलाते हैं। लेकिन साइंस पत्रिका में प्रकाशित हालिया अध्ययन बताता है हमारी त्वचा खतरनाक वायु प्रदूषक पैदा करने में भूमिका निभाती है।
वायुमंडलीय रसायनज्ञों और इंजीनियरों के एक दल ने पाया है कि मानव त्वचा पर मौजूद तैलीय पदार्थ ओज़ोन से क्रिया करके क्रियाशील मुक्त मूलक उत्पन्न करता है जो फिर घर के अंदर मौजूद कई कार्बनिक यौगिकों के साथ क्रिया करके खतरनाक प्रदूषक पैदा करते हैं।
सायप्रस इंस्टीट्यूट व मैक्स प्लांक इंस्टीट्यूट फॉर केमिस्ट्री के वायुमंडलीय रसायनज्ञ जोनाथन विलियम्स और उनके साथियों ने चार-चार वयस्क प्रतिभागियों के तीन समूह बनाए, और उन्हें अलग-अलग दिनों में शयनकक्ष जितने बड़े एक जलवायु-नियंत्रित स्टेनलेस-स्टील कक्ष में पांच घंटे तक बिठाया। फिर, अत्यधिक संवेदनशील उपकरणों की मदद से कमरे की वायु में मौजूद कार्बनिक यौगिक और हाइड्रॉक्सिल मूलक का स्तर मापा। उन्होंने एक विशेष मास्क की मदद से प्रतिभागियों की श्वास वायु में मौजूद रसायन भी जांचे ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि कक्ष की वायु में हुए परिवर्तन उनकी सांस के कारण नहीं हुए थे।
इसके बाद, शोधकर्ताओं ने प्रतिभागियों के साथ यही प्रयोग दोहराया लेकिन इस बार उन्होंने कक्ष में ओज़ोन डाली। ओज़ोन की मात्रा 35 पार्ट्स पर बिलियन (पीपीबी)) थी – हवाई जहाज़ के यात्री ओज़ोन की लगभग इतनी ही मात्रा के संपर्क में रहते हैं। शोधकर्ताओं ने पाया कि त्वचा का तेल स्क्वैलीन ओज़ोन के साथ क्रिया करके ऐसे यौगिक बनाते हैं जो पुन: ओज़ोन के साथ क्रिया करके हाइड्रॉक्सिल मूलक नामक शक्तिशाली ऑक्सीकारक बनाते हैं। फिर ये मूलक घर के अंदर के फर्नीचर, घरेलू क्लीनर और यहां तक कि ताज़ा पके भोजन वगैरह जैसी चीज़ों से निकलने वाले अणुओं से क्रिया करके विषैले यौगिक बनाते हैं।
सामान्यत: वायुमंडल में हाइड्रॉक्सिल मूलक तब बनते हैं जब सूर्य का प्रकाश ओज़ोन को ऑक्सीजन परमाणुओं में तोड़ता है; ये ऑक्सीजन परमाणु पानी से क्रिया करके हाइड्रॉक्सिल मूलक बनाते हैं। वैसे (चाहे अंदर हो या बाहर) वायुमंडल में मौजूद हाइड्रॉक्सिल मूलक अपने आप में हानिकारक नहीं होते। कभी-कभी तो इन हाइड्रॉक्सिल मूलकों को ‘सफाईकर्ता’ भी कहा जाता है, क्योंकि ये हवा में मौजूद हाइड्रोकार्बन प्रदूषकों के साथ क्रिया करके उन्हें हटा देते हैं। लेकिन घर के अंदर इनकी उपस्थिति खतरनाक है, क्योंकि ये हवा में मौजूद कार्बनिक यौगिकों से क्रिया करके उन्हें ऐसे रसायनों में बदल देते हैं जो सांस सम्बंधी व हृदय रोगों का कारण बनते हैं।
अपने निष्कर्षों की पुष्टि के लिए शोधकर्ताओं ने वायु कक्ष में मौजूद रसायनों की मात्रा का डैटा ऐसे कंप्यूटर मॉडल्स में डाला, जो दर्शा सकते हैं कि त्वचा के आसपास पैदा हुए रसायन हवा में कैसे फैलेंगे।
पाया गया कि घर के अंदर हाइड्रॉक्सिल मूलक स्थिति को विकट बना देते हैं। जहां ओज़ोन चुनिंदा रसायनों से क्रिया करती है, वहीं हाइड्रॉक्सिल मूलक इतने अधिक क्रियाशील होते हैं कि उनके द्वारा उत्पादित सभी प्रकार के रसायनों का अनुमान लगाना भी मुश्किल है।
शोधकर्ताओं का कहना है कि तापमान, नमी और त्वचा से संपर्क की मात्रा जैसे कई कारक हैं जो इन मूलकों के निर्माण को प्रभावित कर सकते हैं। इसलिए यह समझने की कोशिश चल रही है कि हवा में नमी हाइड्रॉक्सिल मूलकों के निर्माण को कैसे प्रभावित करती है।
उक्त निष्कर्ष घरेलू सामानों जैसे परफ्यूम्स, डिओडोरेंट्स और क्लीनर्स में उपस्थित रसायनों के ऑक्सीकरण के दीर्घकालिक स्वास्थ्य प्रभावों पर सवाल उठाते हैं। अन्य शोधकर्ता देखना चाहते हैं कि ओज़ोन की मात्रा हाइड्रॉक्सिल मूलकों के निर्माण को कैसे प्रभावित करती है, क्योंकि किसी धूप वाले दिन में, खुली खिड़कियों वाले घर में ओज़ोन का स्तर सिर्फ 20 पीपीबी के करीब होता है। (स्रोत फीचर्स)
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अमेरिकी पर्यावरण सुरक्षा एजेंसी (ईपीए) के मुताबिक सन 1800 के आसपास शुरू हुई औद्योगिक क्रांति के बाद से मानव गतिविधियों ने अत्यधिक मात्रा में कार्बन डाईऑक्साइड और अन्य ग्रीनहाउस गैसों (जैसे मीथेन, नाइट्रस ऑक्साइड) और सल्फर, फॉस्फोरस के यौगिकों व ओज़ोन का उत्सर्जन किया है। इसके कारण पृथ्वी की जलवायु बदल रही है।
खतरनाक वृद्धि
औद्योगिक क्रांति के बाद से वायुमंडलीय कार्बन डाईऑक्साइड के स्तर में 40 प्रतिशत से अधिक की वृद्धि हुई है – 18वीं शताब्दी में 280 पीपीएम से बढ़कर 2020 में 414 पीपीएम। और इन 200 वर्षों में अन्य ग्रीनहाउस गैसों का स्तर भी बढ़ा है।
1800 में भारत की आबादी 17 करोड़ थी, जो आज बढ़कर 140 करोड़ हो गई है। भारत में औद्योगिक क्रांति की शुरुआत आज़ादी के बाद ही यानी 75 साल पहले हुई थी। जहां इसने गरीबी कम करने में मदद की, वहीं वायुमंडलीय कार्बन डाईऑक्साइड और अन्य ग्रीनहाउस गैसों में वृद्धि भी की है।
खाद्य और कृषि संगठन (एफएओ) की वेबसाइट बताती है कि भारत की ग्रामीण आबादी कुल आबादी का 70 प्रतिशत है, और उनका मुख्य काम कृषि है। इनसे हमें कुल 27.5 करोड़ टन खाद्यान्न मिलता है। भारत चावल, गेहूं, गन्ना, कपास और मूंगफली का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक देश है। इस लिहाज़ से यह महत्वपूर्ण हो जाता है कि भारत यथासंभव अपने कृषि क्षेत्र के कार्बन पदचिन्ह को कम करने की कोशिश करे।
कृषि विशेषज्ञों की मदद से किसान खेती में कुछ सराहनीय उपाय लाए हैं। जैसे उन्होंने खेतों में सौर पैनल लगाए हैं ताकि भूजल पंपों में डीज़ल का उपयोग कम से कम हो।
बेंगलुरु के एक स्वतंत्र पत्रकार सिबी अरासु कार्बन मैनेजमेंट पत्रिका में लिखते हैं, “जलवायु-अनुकूल कृषि आय के नए स्रोत प्रदान करती है और अधिक टिकाऊ है।” इससे भारत का सालाना कार्बन उत्सर्जन 4.5-6.2 करोड़ टन तक कम हो सकता है। सरकार और पेशेवर समूहों ने ग्रामीण किसानों की सौर पैनल लगाने में मदद की है ताकि पैसों की बचत हो और अधिक आमदनी मिल सके।
भारत के किसान न केवल चावल और गेहूं उगाते हैं बल्कि अन्य खाद्यान्न भी उगाते हैं। वर्ष 2020-21 के दौरान उन्होंने लगभग 12.15 करोड़ टन चावल और 10.90 करोड़ टन गेहूं उगाया था। वे अन्य खाद्यान्न जैसे मोटा अनाज, कसावा, और भी बहुत कुछ उगाते हैं। वे सालाना लगभग 1.2 करोड़ टन मोटा अनाज पैदा करते हैं। इसी तरह, प्रति वर्ष लगभग 2.86 करोड़ टन मक्का का उत्पादन होता है। प्रसंगवश यह भी देखा जा सकता है कि चावल की तुलना में बाजरा में अधिक प्रोटीन, वसा और फाइबर होता है। बाजरा में प्रोटीन 7.3 ग्राम प्रति 100 ग्राम, वसा 1.7 ग्राम प्रति 100 ग्राम और फाइबर 4.22 ग्राम प्रति 100 ग्राम होता है, जबकि चावल में प्रोटीन 2.7 ग्राम प्रति 100 ग्राम, वसा 0.3 ग्राम प्रति 100 ग्राम और फाइबर 0.4 ग्राम प्रति 100 ग्राम होता है।
इस लिहाज़ से, हमारे आहार में चावल और गेहूं के इतर अधिक बाजरा शामिल करना हमारे लिए स्वास्थ्यकर होगा। और, चावल खाने से बेहतर है गेहूं खाना, क्योंकि गेहूं में अधिक प्रोटीन (13.2 ग्राम प्रति 100 ग्राम), वसा (2.5 ग्राम प्रति 100 ग्राम), और फाइबर (10.7 ग्राम प्रति 100 ग्राम) होता है।
एक साझा लक्ष्य
भारत में लगभग 20-39 प्रतिशत आबादी शाकाहारी है और लगभग 70 प्रतिशत आबादी मांस खाती है – मुख्यत: चिकन, मटन और मछली। भारत में कई नदियों और विशाल तट रेखा के चलते प्रचुर मछली संसाधन हैं। जूड कोलमैन द्वारा नेचर पत्रिका में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार मछलियों में पोषक तत्व अधिक होते हैं और ये कार्बन पदचिन्ह को कम करने में मदद करते हैं। इस तरह से, किसान, मांस विक्रेता और मछुआरे सभी मिलकर हमारे कार्बन पदचिन्ह को कम करने में योगदान देंगे। हो सकता है हम दुनिया के लिए एक अनुकरणीय उदाहरण बन जाएं। (स्रोत फीचर्स)
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दीपावली पर आतिशबाज़ी में अंधाधुंध पटाखे जलाए जाते है जिससे हमारे पर्यावरण को अत्यधिक नुकसान होता है। यही वजह है कि दीपावली के दौरान और इसके बाद वातावरण में प्रदूषण का स्तर कई गुना बढ़ जाता है।
पटाखों में मुख्य रूप से सल्फर के यौगिक मौजूद होते हैं। इसके अतिरिक्त भी पटाखों में कई प्रकार के बाइंडर्स, स्टेबलाइज़र्स, ऑक्सीडाइज़र, रिड्यूसिंग एजेंट और रंग मौजूद होते हैं। रंग-बिरंगी रोशनी पैदा करने के लिए एंटीमनी सल्फाइड, बेरियम नाइट्रेट, एल्यूमीनियम, तांबा, लीथियम, स्ट्रॉन्शियम वगैरह मिलाए जाते हैं।
दीपावली का त्योहार अक्टूबर/नवंबर में आता है और इस समय भारत में कोहरे का मौसम रहता है। इस वजह से यह पटाखों से निकलने वाले धुएं के साथ मिलकर प्रदूषण के स्तर को और भी ज़्यादा बढ़ा देता है। पटाखों से निकलने वाले रसायन अल्ज़ाइमर तथा फेफड़ों के कैंसर जैसी गंभीर बीमारियां का कारण बन सकते हैं। प्रदूषण का प्रभाव बड़ों की तुलना में बच्चों पर शीघ्र और ज़्यादा पड़ता है। साइंस पत्रिका में प्रकाशित शोध के मुताबिक वायु प्रदूषण शरीर के हर अंग को नुकसान पहुंचा सकता है।
पटाखों में विभिन्न रंगों की रोशनी के लिए अलग-अलग रसायन मिलाए जाते हैं जो पर्यावरण व समस्त जीव जंतुओं को नुकसान पहुंचाते है।
एल्युमिनियम का प्रदूषण त्वचा सम्बंधी रोग का कारण बनता है। सोडियम, मैग्नीशियम और ज़िंक का प्रदूषण मांशपेशियों को कमज़ोर करता है। कैडमियम रक्त की ऑक्सीजन वहन क्षमता को कम करता है, एनीमिया की संभावना बढ़ाता है। स्ट्रॉन्शियम कैल्शियम की कमी पैदा करके हड्डियों को कमज़ोर करता है। सल्फर सांस की तकलीफ पैदा करता है। और तांबा श्वसन नली में परेशानी पैदा करता है।
पटाखा
जलाने का समय(मिनट में)
PM 2.5 की मात्रा(माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर)
फुलझड़ी
2
10,390
सांप की गोली
3
64,500
हंटर बम
3
28,950
अनार
3
4,860
चकरी
5
9,490
लड़ (1000 बम वाली)
6
38,450
वर्ष 2016 में पुणे के चेस्ट रिसर्च फाउंडेशन द्वारा अलग-अलग पटाखों से कितना प्रदूषण होता है इसका अध्ययन किया गया था। इसमें पाया गया था विभिन्न पटाखों को जलाने पर अलग-अलग मात्रा में 2.5 माइक्रॉन के कण (PM 2.5) उत्पन्न होते हैं। यह जानकारी तालिका में देखें।
जले हुए पटाखों के टुकड़ों से भूमि प्रदूषण की भी समस्या उत्पन्न होती है। पटाखों के कई टुकड़े बायोडीग्रेडेबल नहीं होते, जिस वजह से इनका निस्तारण आसानी से नहीं होता तथा समय बीतने पर ये और भी अधिक विषैले होते जाते हैं और भूमि को प्रदूषित करते हैं।
दिल्ली में हर वर्ष सितंबर महीने के आखिर से दिल्ली व आसपास के क्षेत्रों में हवा की गुणवत्ता खराब होने लगती है क्योंकि इस समय हरियाणा और उत्तर प्रदेश में किसान पराली जलाते हैं। साथ ही यह समय आतिशबाज़ी का होता है। इसलिए दिल्ली सरकार ने पटाखों के उत्पादन, भंडारण, बिक्री और उपयोग पर पूरी तरह रोक लगा दी है। राजधानी दिल्ली में पिछले साल भी पटाखों की बिक्री और आतिशबाज़ी पर प्रतिबंध था किंतु उसके बावजूद लोगों ने पटाखे फोड़े थे। पिछले साल यानी वर्ष 2021 में दिवाली के अगले दिन दिल्ली का एयर क्वालिटी इंडेक्स 462 था जो कि पिछले 5 साल में सबसे बुरा था। एयर क्वालिटी इंडेक्स के 462 होने का मतलब है कि दिल्ली में हवा गंभीर से अधिक खतरनाक स्तर पर प्रदूषित थी।
प्रदूषण की समस्या को कम करने के लिए राष्ट्रीय पर्यावरण अभियांत्रिकी अनुसंधान संस्थान (नीरी) द्वारा हरित पटाखे बनाए गए हैं। हरित पटाखे दिखने, जलाने और आवाज़ में सामान्य पटाखों की तरह ही होते हैं पर इनके जलने से प्रदूषण कम होता है। अलबत्ता, लोगों में हरित पटाखों को लेकर भ्रम है कि ये पूरी तरह प्रदूषण मुक्त हैं, लेकिन अगर लोग हरित पटाखे अधिक जलाते हैं तो निश्चित ही त्योहारों के बाद प्रदूषण का स्तर बढ़ेगा।
सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट (सीएसई) के अनुसार सरकार को सभी परिवारों के लिए पटाखे खरीदने की एक सीमा निर्धारित करनी चाहिए ताकि लोग एक तय सीमा से अधिक इन पटाखों का इस्तेमाल ना कर सकें। यह विडंबना है कि लोग पटाखों से होने वाले दुष्प्रभावों को जानने के बाद भी इनका उपयोग करते हैं। (स्रोत फीचर्स)
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दुनिया के कई हिस्से भयानक सूखे की मार झेल रहे हैं। और सूखे की परिस्थितियों में वनस्पतियों की प्रतिक्रिया जानने को लेकर किया गया हालिया अध्ययन बताता है कि सूखे की स्थिति जलवायु परिवर्तन को और बुरी तरह प्रभावित सकती है।
साल भर सूखे की हालत रहे तो वनस्पतियों की वृद्धि 80 प्रतिशत तक कम हो सकती है, जिसके चलते इनकी कार्बन डाईऑक्साइड सोखने की क्षमता बहुत कम हो जाएगी। और घास के मैदानों में पौधों की कुल वृद्धि 36 प्रतिशत तक कम हो सकती है। वैसे लगभग 20 प्रतिशत अध्ययन क्षेत्रों की वनस्पति सूखे के बावजूद फलती-फूलती रही।
दरअसल तीन पारिस्थितिकीविद जानना चाहते थे कि शुष्क मौसम पौधों की उत्पादकता को कैसे प्रभावित करता है, खास कर घास के मैदानों और झाड़ियों वाले स्थानों पर क्योंकि ज़मीन के 40 प्रतिशत हिस्से पर तो यही हैं। इसके लिए उन्होंने एक प्रयोग – अंतर्राष्ट्रीय सूखा प्रयोग (आईडीई) – डिज़ाइन किया, जिसमें उन्होंने 139 अध्ययन स्थलों पर कृत्रिम सूखा पैदा किया और वनस्पतियों की वृद्धि को मापा। इनमें से कुछ अध्ययन स्थल ईरान और दक्षिण अमेरिका के कुछ हिस्सों में थे। अधिकतर अध्ययन क्षेत्र झाड़ी और घास के मैदानों में थे, जहां वर्षा को कृत्रिम रूप से रोकना आसान था।
इसके लिए उन्होंने 1 वर्ग मीटर के क्षेत्र को प्लास्टिक की शीट से ढंक कर वर्षा को अवरुद्ध किया; कितनी वृष्टि की ज़रूरत है, उसके अनुसार उन्होंने प्लास्टिक शीट के बीच जगह छोड़ी। औसतन वहां होने वाली सामान्य से आधे से भी कम वर्षा मिली। कंट्रोल के तौर पर हर अध्ययन स्थल एक वर्ग मीटर के क्षेत्र को खुला छोड़ा गया।
प्रत्येक स्थल पर दोनों भूखंडों में पौधों के प्रकार और संख्या का हिसाब रखा। एक साल तक सूखे की स्थिति बनाए रखने के बाद शोधकर्ताओं ने फिर से पौधों का सर्वेक्षण किया, दोनों तरह के भूखंडों के पौधों को काटा, सुखाया और तौला।
100 अध्ययन स्थल से प्राप्त परिणामों में देखा गया कि कुछ क्षेत्रों के छोटी घास के मैदानों को कृत्रिम सूखे से भारी क्षति पहुंची थी। पानी की कमी वाले क्षेत्र में पौधों की उत्पादकता में 88 प्रतिशत की कमी देखी गई।
इसके विपरीत, जर्मनी के एक समशीतोष्ण घास के मैदान में कृत्रिम सूखे से कोई खास फर्क नहीं पड़ा था (जर्मनी के अध्ययन स्थलों की जलवायु नम होती है और कम गंभीर सूखा पड़ता है)। कुल मिलाकर नम जलवायु वाले पौधों का प्रदर्शन बेहतर रहा, और झाड़ी वाले भूखंडों ने घास वाले भूखंडों की तुलना में बेहतर प्रदर्शन किया। घास वाले भूखंडों की उत्पादकता में औसतन 36 प्रतिशत की कमी देखी गई — यह पूर्व अध्ययनों में देखी गई कमी से लगभग दुगनी है।
कई शोधकर्ता इस प्रयोग को चार या उससे अधिक वर्षों तक जारी रखना चाहते हैं। यह अतिरिक्त डैटा जलवायु मॉडल के अनुमानों को बेहतर करने में मदद कर सकता है, जो यह बता सकते हैं कि सूखा पड़ने पर झाड़ी और घास के मैदान कितनी कम कार्बन डाईऑक्साइड अवशोषित करेंगे। ये नतीजे पारिस्थितिकीविदों को यह अनुमान लगाने में भी मदद कर सकते हैं कि सूखे के दौरान कौन से पारिस्थितिक तंत्र सबसे अधिक जोखिम में होंगे। कम वनस्पति का मतलब होगा उन्हें खाने वाले वाले जानवरों के लिए कम भोजन, और इससे चलते इनके शिकारियों के लिए कम भोजन। कई पारिस्थितिक तंत्रों का स्वास्थ्य और उनकी जैव विविधता पौधों के उत्पादन पर निर्भर करती है। (स्रोत फीचर्स)
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पिछले दिनों इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने एक जनहित याचिका की सुनवाई करते हुए कहा कि जब प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड कुछ करता ही नहीं है, तो क्यों ना उसे समाप्त कर दिया जाए। मामले की सुनवाई मुख्य न्यायाधीश राजेश बिंदल, न्यायमूर्ति मनोज कुमार गुप्ता एवं अजीत कुमार की खंडपीठ कर रही है।
याचिकाकर्ता के अधिवक्ता ने न्यायालय को बताया कि कानपुर के चमड़ा उद्योग और गजरौला के शक्कर कारखाने की गंदगी शोधित हुए बिना गंगा नदी में गिर रही है; इस कारण सीसा, पोटेशियम व कई रेडियोसक्रिय पदार्थ गंगा नदी को प्रदूषित कर रहे हैं। गंगा के प्रदूषण को लेकर जो रिपोर्ट प्रस्तुत की गई है वह आंखों में धूल झोंकने वाली है; जब जांच करानी होती है तब साफ पानी मिलाकर सैंपल भेज कर अच्छी रिपोर्ट तैयार करा ली जाती है जबकि गंदा पानी सीधे गंगा में गिरता रहता है।
सुनवाई के दौरान न्यायालय ने प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड से पूछा कि आपकी भूमिका क्या है, कैसी निगरानी कर रहे हैं, आपके पास इस सम्बंध में कितनी शिकायतें पहुंची है और कितने पर कार्रवाई की गई है? बोर्ड के अधिवक्ता इस पर ठीक से जवाब नहीं दे पाए तो न्यायालय ने कहा कि जब आप ठीक से निगरानी नहीं कर रहे हो और कुछ कार्रवाई नहीं कर पा रहे हैं तो क्यों न बोर्ड को बंद कर दिया जाए?
प्रदूषण की समस्या से निपटने के लिए देश में कई नियम-कानून और विशिष्ट एजेंसियां कार्य कर रही हैं। प्रदूषण नियंत्रण की सरकारी नीतियों के क्रियान्वयन में राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अधिकारी एवं कर्मचारी सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। यह विडम्बना ही कही जाएगी कि कई बार राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड में पूर्णकालिक अध्यक्ष के अभाव में प्रशासनिक सेवा के वरिष्ठ अधिकारियों को उनके विभागीय दायित्व के अतिरिक्त प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अध्यक्ष का कार्यभार सौंप दिया जाता हैं। ऐसी स्थिति में कई अधिकारी बोर्ड के लिए समय ही नहीं निकाल पाते हैं। कभी-कभी राज्य बोर्ड में संचालक मंडल के सदस्यों की नियुक्ति लंबे समय तक टलती रहती है। कुल मिलाकर स्थिति यह है कि दूसरे निगम-मंडलों की तुलना में प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के क्रियाकलापों पर शासन और समाज स्तर पर ज़्यादा चर्चा नहीं हो पाती है।
पिछले दिनों एक सर्वेक्षण से पता चला था कि राज्य बोर्ड में कार्यरत अधिकांश कर्मचारियों को प्रदूषण नियंत्रण के ज़रूरी मानकों के इतिहास और उनके उद्देश्यों की जानकारी नहीं थी। संसदीय समिति की वर्ष 2008 की एक रिपोर्ट के अनुसार देश में विभिन्न राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड में 77 प्रतिशत अध्यक्ष एवं 55 प्रतिशत सदस्य-सचिव अपने पदों पर कार्य करने की योग्यता नहीं रखते थे।
प्रदूषण पर रोक लगाने के उद्देश्य से बनाए गए प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड बढ़ते प्रदूषण को रोकने में असफल रहे हैं। बोर्डों के गठन के बाद से औद्योगिक और नगरीय प्रदूषण के साथ ही कस्बाई प्रदूषण के आंकड़ों का ग्राफ निरंतर बढ़ता जा रहा है। इधर बोर्ड के अधिकारियों का ज़्यादातर प्रयास यह रहता है कि कारखाने में कुछ हो ना हो, कागज़ों पर प्रदूषण नियंत्रण में रहे। बोर्ड के पास भारी-भरकम अमला है, जिसमें कानून के हथियारों से लैस उच्च अधिकारी हैं; क्षेत्रीय अधिकारियों की फौज के साथ ही बड़ी संख्या में वैज्ञानिक हैं। प्रदूषण नियंत्रण में इन सबका कितना उपयोग हो रहा है इस पर चिंतन करने की आवश्यकता है। इस बात पर भी विचार आवश्यक है कि बोर्ड को उद्योगपतियों के हितों की रक्षा करनी है या देश के जनसामान्य को प्रदूषण मुक्त वातावरण उपलब्ध करवाने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करना है।
कहा जाता है कि कुछ बोर्ड में औद्योगिक प्रदूषण की नियमित जांच का हाल यह है कि उद्योग में अफसरों के पहुंचने के पूर्व उनका प्रवास कार्यक्रम पहुंच जाता है। प्राय: ऐसे अवसर पर उद्योग में सब कुछ ठीक-ठाक पाया जाता है। प्राय: बोर्ड के अधिकारी उद्योग के रेस्ट हाउस या किसी होटल या रिसोर्ट में बैठकर जांच रिपोर्ट पूर्ण कर लेते हैं।
लगभग साढ़े तीन दशक पहले मेरे गृह नगर के प्रमुख पेयजल स्रोत को प्रदूषित करने वाले एक रसायन उद्योग के विरुद्ध लंबे समय तक अभियान चलाने का मुझे अवसर मिला था। अनेक स्तरों पर प्रतिकार का कोई ठोस प्रतिसाद नहीं मिला तो हमें सर्वोच्च न्यायालय जाना पड़ा, जहां जनहित याचिका के माध्यम से जनता की व्यथा को अभिव्यक्ति दी और उसमें न्याय मिला। करीब पांच साल चले इस अभियान में प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के तत्कालीन अध्यक्ष और चंद अधिकारियों को छोड़ दें तो बोर्ड की तकनीकी राय हमेशा उद्योग के पक्ष में रहती थी।
अक्सर कहा जाता है कि जब देश में प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड एवं अन्य नियामक संस्थाएं नहीं थी, तब देश का पर्यावरण समृद्ध था, नदियां स्वच्छ थीं तथा वन और वन्य प्राणी भी सुरक्षित थे। आज प्रदूषण की ऐसी गंभीर स्थिति क्यों बनी? इस दुर्दशा से मुक्ति के लिए किसी की तो ज़िम्मेदारी होगी। कई वर्षों के बाद यह प्रश्न आज भी अनुत्तरित ही है।
इलाहाबाद उच्च न्यायालय की टिप्पणी देश के पर्यावरण के सुखद भविष्य की उम्मीद जगाती है। आज आवश्यकता इस बात की है कि बोर्ड की कार्यपद्धति और क्रियाकलापों में हर स्तर पर पारदर्शिता लाई जाए। इसके लिए सरकार, जन प्रतिनिधि, पर्यावरण संगठन और जनसामान्य को सक्रियता से ठोस पहल करनी होगी। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://enterslice.com/learning/wp-content/uploads/2021/05/What-is-the-Role-of-Pollution-Control-Board.jpg
मानव जनित जलवायु परिवर्तन ने ग्रीष्म लहर, दावानल और अचानक बाढ़ जैसी घटनाओं की संभावना को बढ़ाया है और इन्हें अधिक गंभीर बनाया है। इसका जन स्वास्थ्य पर भी गंभीर प्रभाव पड़ा है लेकिन इसे कम करके आंका गया है। अधिकांश देश इन आपदाओं से निपटने के लिए अग्रिम योजना बनाने, अनुकूलन के उपाय करने और साक्ष्य-आधारित जानकारी का उपयोग करके अपने लोगों की हिफाज़त मुकम्मल करने में नाकाम रहे हैं।
इस वर्ष भारत, पाकिस्तान, यूएसए, चीन और युरोप ने घातक ग्रीष्म लहर का सामना किया जिसने न सिर्फ ज़रूरी इंफ्रास्ट्रक्चर को नुकसान पहुंचाया बल्कि आपातकालीन सेवा को गंभीर रूप से प्रभावित किया। इस ग्रीष्म लहर से मरने वालों की संख्या पिछले वर्षों की तुलना में काफी अधिक रही। इसके अलावा कई लोगों को गंभीर बीमारियों का सामना करना पड़ा है।
अत्यधिक गर्मी से हीटस्ट्रोक यानी लू की संभावना तो जानी-मानी है। लेकिन वास्तव में गर्मी से होने वाली कई मौतें हृदय सम्बंधी दिक्कतों के कारण भी होती हैं।
होता यह है कि त्वचा को ठंडा रखने के लिए हृदय को ज़्यादा काम करना होता है ताकि त्वचा तक ज़्यादा खून पहुंचे और ठंडक पैदा हो। लेकिन साथ ही रक्तचाप को एक सीमा में रखना होता है। इसके लिए हृदय को अत्यधिक परिश्रम करना पड़ता है, चाहे शरीर का अंदरुनी तापमान बहुत अधिक न हो।
इसके अलावा तापमान के बढ़ने से सांस एवं गुर्दे की बीमारी, दुश्चिंता और हिंसक व्यवहार में वृद्धि होती है और साथ ही मृत शिशु जन्म, समयपूर्व प्रसव और जन्म के समय कम वज़न जैसी समस्याओं का जोखिम भी बढ़ता है। दावानल पर किए गए शोध अध्ययनों ने तो अत्यधिक गर्मी का सम्बंध बाल मृत्यु दर, श्वसन रोग और कैंसर जैसी समस्याओं में वृद्धि से दर्शाया है। इन हालिया अध्ययनों से यह स्पष्ट होता है कि अभी तक गर्मी के करण स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभावों को काफी कम करके आंका गया है।
निम्न और मध्यम आय वाले कई देश अपर्याप्त वैश्विक सहयोग और वित्तीय क्षमता के चलते इस समस्या से निपटने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठा पाए हैं। लेकिन कई अन्य देश पर्याप्त एवं स्पष्ट प्रमाणों के बावजूद वैश्विक कार्यक्रमों को समर्थन देने या अनुकूलन के उपाय अपनाने में विफल रहे हैं। सरकारों द्वारा जलवायु परिवर्तन के तथ्य से इन्कार या हाथ पर हाथ धरे बैठे रहने और अपर्याप्त राजनैतिक इच्छाशक्ति ने जनता को वैज्ञानिक जानकारियों से मिल सकने वाले लाभों से वंचित रखा है। राजनेताओं ने भी स्वास्थ्य जोखिमों को कम करके बताया है। इसके अलावा कई नामचीन संगठनों और मीडिया घरानों ने भी गुणवत्तापूर्ण जानकारी देने की बजाय अवैज्ञानिक तथ्यों को प्रसारित किया। यह जानकारी लोगों को गर्मी से जूझने में मदद कर सकती थी।
वर्ष 2021 में दी लैंसेट में ऊष्मा-अनुकूलन से सम्बंधित लेखों की एक शृंखला प्रकाशित की गई थी। इन लेखों में गर्मी से होने वाली तकलीफ और हृदय पर पड़ने दबाव को कम करने के कई साक्ष्य-आधारित उपायों पर चर्चा की गई है। इसके लिए पानी में डुबकी लगाना, कपड़ों को भिगोना या पैरों को पानी में डालकर रखना और पंखों के उपयोग को शीतलन की प्रमुख रणनीतियों में शामिल किया गया था। वैसे ठंडा पानी पीकर भी हीटस्ट्रोक के जोखिम को कम किया जा सकता है लेकिन इससे शरीर के तापमान पर बहुत कम प्रभाव पड़ता है। ज़रूरत इस बात की है कि स्वास्थ्य कार्यकर्ता एवं संस्थाएं लोगों को ग्रीष्म लहर के खतरों और इससे बचाव के बारे में शिक्षित करें।
कई अध्ययनों ने अश्वेत और गरीब लोगों पर ग्रीष्म लहरों के असामान्य रूप से अधिक प्रभाव को दर्शाया है। हालात ऐसे हैं कि अत्यधिक गर्मी से सबसे अधिक प्रभावित होने वाले लोगों के पास खुद को बचाने के साधन भी नहीं हैं। विशेष रूप से, खुले आसमान के नीचे काम करने वाले श्रमिकों की सुरक्षा के लिए कोई कानून नहीं है। उन पर उच्च तापमान और खुले में काम करने का जोखिम निरंतर बढ़ता जा रहा है। इन श्रमिकों के लिए शीतलन व्यवस्थाओं तक पहुंच भी काफी दुर्गम है। इन परिस्थितियों में श्रमिकों की आजीविका को सुरक्षित करते हुए वैधानिक परिवर्तन करने की तत्काल आवश्यकता है।
कई वैश्विक फंडर्स जलवायु से सम्बंधित शोध अध्ययनों को प्राथमिकता दे रहे हैं। लेकिन इन अध्ययनों के आधार पर नीतिगत एवं सार्थक परिवर्तन के लिए आवश्यक राजनैतिक संवाद का अभाव स्पष्ट है।
वर्ष 2022 में ग्रीष्म लहर और दावानल के पूर्वानुमानों के बाद भी पर्याप्त योजनाएं तैयार नहीं की गईं। 28 जुलाई के दिन एक संकल्प पारित करके संयुक्त राष्ट्र महासभा ने स्वच्छ, स्वस्थ और टिकाऊ पर्यावरण तक पहुंच को सार्वभौमिक मानव अधिकार घोषित किया है। इस निर्णय के बाद जनता को नीति निर्माताओं से समुचित कार्रवाई की मांग करना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://health.clevelandclinic.org/wp-content/uploads/sites/3/2015/05/hotSummerDiabetes-1243760572-770×533-1.jpg
यह तो सर्वविदित है कि कोयला या पेट्रोल के दहन से ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन होता है जो धरती का तापमान बढ़ाती हैं। लेकिन एक तथ्य यह भी है कि प्रदूषण के कण सूर्य के प्रकाश को परावर्तित कर कुछ हद तक पृथ्वी को ठंडा रखने में योगदान देते हैं। प्रदूषण-नियंत्रण प्रौद्योगिकियों में प्रगति से इस प्रदूषण से निर्मित विषैले बादल और उनसे संयोगवश मिलने वाला यह लाभ कम होने लगा है।
उपग्रहों से प्राप्त जानकारी के अनुसार वैश्विक वायु प्रदूषण का पर्यावरणीय असर वर्ष 2000 की तुलना में 30 प्रतिशत तक कम हो गया है। स्वास्थ्य की दृष्टि से यह एक अच्छी खबर है क्योंकि वायुवाहित सूक्ष्मकण या एयरोसोल से प्रति वर्ष कई लाख लोग मारे जाते हैं। लेकिन ग्लोबल वार्मिंग के लिहाज़ से देखा जाए तो यह एक बुरी खबर है। लीपज़िग युनिवर्सिटी के जलवायु वैज्ञानिक जोहानेस क्वास के अनुसार स्वच्छ हवा ने उत्सर्जित कार्बन डाईऑक्साइड से होने वाली कुल वार्मिंग को 15 से 50 प्रतिशत तक बढ़ा दिया है। यानी वायु प्रदूषण कम होने से तापमान में और अधिक वृद्धि हो रही है।
ब्लैक कार्बन या कालिख जैसे एयरोसोल गर्मी को अवशोषित करते हैं। दूसरी ओर, परावर्तक सल्फेट और नाइट्रेट कण ठंडक पैदा करते हैं। ये गाड़ियों के एक्ज़ॉस्ट, जहाज़ों के धुएं और ऊर्जा संयंत्रों की चिमनियों से निकलने वाली प्रदूषक गैसों में पाए जाते हैं। इन प्रदूषकों को कम या खत्म करने के लिए उत्तरी अमेरिका और युरोप से लेकर विकासशील देशों में प्रौद्योगिकियां विकसित हुई हैं। इसके नतीजे में पहली बार वर्ष 2010 में चीन में वायु प्रदूषण में गिरावट शुरू हुई। इसके अलावा, हाल के वर्षों में सल्फर उत्सर्जित करने वाले जहाज़ों पर अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबंध भी लगा है।
एटमॉस्फेरिक केमिस्ट्री एंड फिज़िक्स प्रीप्रिंट में प्रकाशित पर्चे में उत्तरी अमेरिका और युरोप में एयरोसोल में गिरावट के संकेत दिए गए हैं लेकिन वैश्विक स्थिति नहीं उभरी है। क्वास और सहयोगियों का विचार था कि इस काम में नासा के उपग्रह टेरा और एक्वा सहायक सिद्ध हो सकते हैं। ये दोनों उपग्रह पृथ्वी पर आने वाले और बाहर जाने वाले विकिरण का हिसाब रखते हैं। इसकी सहायता से कई शोध समूहों को ग्रीनहाउस गैसों द्वारा अवरक्त ऊष्मा को कैद करने में वृद्धि की जानकारी प्राप्त हुई है। लेकिन एक्वा और टेरा पर लगे एक उपकरण ने परावर्तित प्रकाश में गिरावट दर्शाई। कुछ विशेषज्ञ परावर्तन में इस कमी के लिए कुछ हद तक एयरोसोल में कमी को ज़िम्मेदार मानते हैं।
क्वास और उनके सहयोगियों ने इस अध्ययन में टेरा और एक्वा पर लगे उपकरणों का उपयोग करते हुए एक और अध्ययन किया। उन्होंने आकाश में कुहरीलेपन को रिकॉर्ड किया जो एयरोसोल की मात्रा को दर्शाता है। क्वास के अनुसार वर्ष 2000 से लेकर 2019 तक उत्तरी अमेरिका, युरोप और पूर्वी एशिया पर कुहरीलेपन में काफी कमी आई जबकि कोयले पर निर्भर भारत में यह बढ़ता रहा। गौरतलब है कि एयरोसोल न केवल स्वयं प्रकाश को परावर्तित करते हैं बल्कि बादलों में भी परिवर्तन कर सकते हैं। ये कण नाभिक के रूप में कार्य करते हैं जिस पर जलवाष्प संघनित होती है। प्रदूषण के कण बादल की बूंदों के आकार को छोटा करते हैं और उनकी संख्या में वृद्धि करते हैं जिससे बादल अधिक परावर्तक बन जाते हैं। ऐसे में यदि प्रदूषण को कम किया जाता है तो यह प्रभाव उलट जाता है। टीम ने पाया कि बादल की बूंदों की सांद्रता में कमी उन्हीं क्षेत्रों में आई है जहां एयरोसोल की मात्रा में गिरावट हुई है।
कुछ अन्य अध्ययनकर्ताओं के अनुसार अभी सटीकता से नहीं बताया जा सकता कि एयरोसोल में कमी से ग्लोबल वार्मिंग में कितनी वृद्धि हुई है क्योंकि दुनिया के विभिन्न क्षेत्रों में विविधता इतनी अधिक है।
ज़ाहिर है कि समस्या का हल यह नहीं है कि वायु प्रदूषण को बढ़ावा दिया जाए। वायु प्रदूषण से हर वर्ष कई लोगों की जान जाती है। बल्कि आवश्यकता इस बात है कि वायुमंडल में ग्रीनहाउस गैसों को कम करने के प्रयासों को गति दी जाए।
पूर्व-औद्योगिक समय की तुलना में पृथ्वी वर्तमान में 1.2 डिग्री सेल्सियस तक गर्म हो चुकी है और 1.5 डिग्री सेल्सियस का लक्ष्य हासिल करने के लिए उत्सर्जन में तेज़ी से कटौती की उम्मीद काफी कम है। इसलिए समाधान के रूप में कुछ विशेषज्ञों का सुझाव है कि सोलर जियोइंजीनियरिंग के माध्यम से सल्फेट कणों को समताप मंडल में फैलाया जाए ताकि एक वैश्विक परावर्तक कुहरीलापन निर्मित हो जाए। इस विचार को लेकर काफी विवाद है लेकिन कुछ लोगों को लगता है कि इसे एक अंतरिम उपाय के रूप में देखा जा सकता है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.ade0379/abs/_20220720_nid_global_warming.jpg