ट्रेन में यात्रा करते समय, पटरियों की लयबद्ध “खट… खट” की ध्वनि एक सुपरिचित अनुभव से कहीं ज़्यादा चतुर इंजीनियरिंग का प्रमाण है। इस्पात से बनी ट्रेन की पटरियां तापमान बढ़ने पर फैलती हैं। करीब 550 मीटर की पटरी में, हर 5.5 डिग्री सेल्सियस तापमान बढ़ने पर एक इंच से अधिक की वृद्धि होती है। परंपरागत रूप से, इस फैलाव को समायोजित करने के लिए, पटरियां 12 से 15 मीटर के टुकड़ों में बिछाई जाती हैं और दो टुकड़ों के बीच छोटे-छोटे खाली स्थान छोड़े जाते हैं। ऐसे में जब भारी रेलगाड़ी पटरी पर से गुज़रती है तो हमको सुनाई देने वाली विशिष्ट आवाज़ (जबलपुरकेदो–दोपैसे या मराठी में कशासाठी, कुणासाठी) पटरियों के बीच इन छोटी जगहों के कारण होती है जिन्हें प्रसार को संभालने के लिए छोड़ा जाता है।
गर्मी बहुत अधिक हो तो पटरियों का प्रसार इन छोटी जगहों को भर देता है। ऐसे में पटरियां मुड़ सकती हैं और लहरदार हो सकती हैं; इसे ‘सन किंक’ कहा जाता है। ये सन किंक ट्रेन संचालन के लिए गंभीर जोखिम पैदा करते हैं। यदि रेलगाड़ियां ऐसी पटरियों पर चलती हैं तो वे बेपटरी हो सकती हैं, और गंभीर मामलों में सीधी पटरियां अचानक से खतरनाक रूप से मुड़ सकती हैं।
ऐसी दुर्घटनाओं को रोकने के लिए, तापमान बढ़ने की स्थति में रेल सेवाएं ट्रेनों की गति धीमी कर देती हैं। कम गति का मतलब है पटरियों पर यांत्रिक तनाव कम होगा, जिससे बकलिंग की संभावना कम हो जाएगी। उदाहरण के लिए, जब पटरियों का तापमान 60 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच जाता है, तो अमेरिका में एमट्रैक अपनी ट्रेनों की गति को 128 किलोमीटर प्रति घंटे तक सीमित कर देता है। यह एहतियात हाल की ग्रीष्म लहर के दौरान एमट्रैक के नॉर्थईस्ट कॉरिडोर में हुई देरियों के लिए कुछ हद तक ज़िम्मेदार थी।
इन सावधानियों से यह समझने में मदद मिलती है कि ग्रीष्म लहरें अक्सर ट्रेन की देरी का कारण क्यों बनती हैं। यात्रियों की सुरक्षा सुनिश्चित करने और रेलवे के बुनियादी ढांचे को टूट-फूट से बचाने के लिए यह एक आवश्यक कदम है। चूंकि जलवायु परिवर्तन के कारण ग्रीष्म लहरों की आवृत्ति और तीव्रता दोनों बढ़ रहे हैं, इसलिए रेल सेवाओं को बढ़ते तापमान से निपटने के लिए और भी कड़े उपाय अपनाने की आवश्यकता होगी।
बहरहाल पटरियों की खट-खट ध्वनि कुछ लोगों के लिए मनमोहक हो सकती है, लेकिन यह भीषण गर्मी के दौरान रेल यात्रा को सुरक्षित रखने के लिए आवश्यक परिष्कृत इंजीनियरिंग की शानदार मिसाल भी है। अगली बार जब आप गर्मियों में ट्रेन में देरी का अनुभव करें, तो याद रखें कि यह आपको सुरक्षित रखने के लिए है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://qph.cf2.quoracdn.net/main-qimg-32467dbb51d14eabe2ef6acbd3ee5059-lq
वर्ष 2023 अब तक का सबसे गर्म वर्ष रिकॉर्ड किया गया है। यह वैश्विक तापमान में तेज़ी से हो रही वृद्धि का संकेत है। कम्युनिकेशंस अर्थ एंड एनवॉयरनमेंट में प्रकाशित एक हालिया अध्ययन से पता चलता है कि इस तेज़ी से बढ़ती गर्मी का एक प्रमुख कारक पृथ्वी का साफ होता आसमान है। इसके चलते सूर्य की अधिक रोशनी वातावरण में प्रवेश करके तापमान में वृद्धि करती है। नासा का क्लाउड्स एंड दी अर्थ्स रेडिएंट एनर्जी सिस्टम (CERES) वर्ष 2001 से पृथ्वी के ऊर्जा संतुलन की निगरानी कर रहा है। CERES ने पृथ्वी द्वारा अवशोषित सौर ऊर्जा की मात्रा में काफी वृद्धि देखी है। इसकी व्याख्या मात्र ग्रीनहाउस गैसों के आधार पर नहीं की जा सकती। एक कारण यह हो सकता है कि वायुमंडल कम परावर्तक हो गया है। शायद वर्ष 2001 और 2019 के बीच बिजली संयंत्रों से प्रदूषण में कमी और स्वच्छ ईंधन के उपयोग से हवा ज़्यादा पारदर्शी हो गई है। अध्ययन का अनुमान है कि इससे वार्मिंग में 40 प्रतिशत की अतिरिक्त वृद्धि हुई है। जलवायु वैज्ञानिक काफी समय से जानते हैं कि घटते प्रदूषण के कारण धरती के तापमान में वृद्धि हो सकती है। वजह यह मानी जाती है कि प्रदूषण के कण न केवल प्रकाश को अंतरिक्ष में परावर्तित कर देते हैं, बल्कि उनके कारण बादलों में ज़्यादा जल कण बनते हैं जिससे बादल अधिक चमकीले और टिकाऊ होते हैं। गौरतलब है कि दो साल पूर्व एरोसोल में वैश्विक स्तर पर भारी गिरावट देखी गई थी। लेकिन वर्तमान अध्ययन में प्रयुक्त जलवायु मॉडल्स ने प्रदूषण में इस कमी को वार्मिंग के लिए ज़िम्मेदार ठहराया है। अलबत्ता, साफ आसमान परावर्तन में गिरावट का एकमात्र कारण नहीं हो सकता। CERES के मॉडल्स प्रकाश के अतिरिक्त अवशोषण में से 40 प्रतिशत की व्याख्या नहीं कर पाए हैं। इसके अलावा, CERES डैटा ने दोनों गोलार्धों में परावर्तन में गिरावट दर्शायी है जबकि प्रदूषण में कमी उत्तरी गोलार्ध में अधिक हुई है। इसके अलावा, बर्फ के पिघलने से उसके नीचे की गहरे रंग की ज़मीन उजागर हो जाती है, अधिक तापमान के कारण समुद्र के ऊपर के बादल छितर जाते हैं और अपेक्षाकृत गहरे रंग का पानी उजागर हो जाता है। ऐसे कई कारक पृथ्वी की परावर्तनशीलता घटाने में योगदान दे सकते हैं। इस सब बातों के मद्देनज़र, हो सकता है कि ये मॉडल्स प्रदूषण में कमी के असर को बढ़ा-चढ़ाकर बता रहे हैं। ग्लोबल वार्मिंग एक नाज़ुक ऊर्जा संतुलन पर टिका है। सूरज लगातार पृथ्वी पर ऊर्जा की बौछार करता है। इसमें से काफी सारी ऊर्जा को परावर्तित कर दिया जाता है और कुछ परावर्तित ऊर्जा को वायुमंडल रोक लेता है। यदि वायुमंडल थोड़ी भी अधिक गर्मी को रोके या सूर्य के प्रकाश को थोड़ा कम परावर्तित करे, तो तापमान बढ़ सकता है। कई दशकों से आपतित ऊर्जा और परावर्तित ऊर्जा का यह संतुलन गड़बड़ाया हुआ है। नॉर्वे के सेंटर फॉर इंटरनेशनल क्लायमेट रिसर्च के मॉडलर ओइविन होडनेब्रोग की टीम ने चार जलवायु मॉडलों की तुलना करके ऊर्जा के बढ़ते अवशोषण के कारणों की पहचान करने की कोशिश की है। इस अध्ययन के अनुसार एरोसोल महत्वपूर्ण भूमिका निभाते रहेंगे। चीन और भारत जैसे देशों में सख्त प्रदूषण नियंत्रण के चलते एयरोसोल में कमी क्षेत्रीय मौसम के पैटर्न को प्रभावित करेगी। अध्ययन में यह भी बताया गया है कि जलवायु पर वायु प्रदूषण में कमी का प्रभाव प्रकट होने में कई दशक लग सकते हैं। थोड़ा-सा एरोसोल भी बादल को चमकीला और परावर्तक बनाने के लिए काफी होता है। यानी प्रदूषित क्षेत्रों में, बादलों की परावर्तनशीलता तब तक कम नहीं होगी जब तक कि आसमान काफी हद तक साफ न हो जाए। एक चिंता डैटा की निरंतरता को लेकर भी है। पुराने एक्वा और टेरा उपग्रहों के उपकरण अपने जीवन के अंत के करीब हैं। ऐसा लगता है कि अगली पीढ़ी के उपग्रह, लाइबेरा, के 2028 में लॉन्च होने तक केवल एक उपकरण ही सक्रिय रहेगा। यह संभावित अंतराल जलवायु अनुसंधान के लिए एक गंभीर समस्या बन सकता है। देखने में तो साफ आकाश सकारात्मक पर्यावरणीय परिवर्तन लगता है लेकिन वास्तव में यह ग्लोबल वार्मिंग में तेज़ी से योगदान दे रहा है। बढ़ते जलवायु संकट से निपटने के लिए पृथ्वी की ऊर्जा प्रणाली के जटिल संतुलन को समझना और संबोधित करना महत्वपूर्ण है। (स्रोत फीचर्स)
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जब भी जलवायु परिवर्तन की बात होती है, चर्चाओं का केंद्र कार्बन डाईऑक्साइड और मीथेन होते हैं। लेकिन जलवाष्प भी एक शक्तिशाली ग्रीनहाउस गैस है जो जलवायु पर गंभीर प्रभाव डालती है। जलवाष्प कई वर्षों तक समताप मंडल में बनी रहती है और धरातल की गर्मी को अवशोषित कर इसे वापस धरती पर फेंकती है। एक अध्ययन में पाया गया था कि 1990 के दशक में संभवत: समतापमंडलीय पानी में आई उछाल ने उस समय वैश्विक तापमान को 30 प्रतिशत तक बढ़ा दिया था। और साइंस एडवांसेज में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार वैज्ञानिक इन दिनों जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए जलवाष्प आधारित एक क्रांतिकारी रणनीति पर काम कर रहे हैं – समताप मंडल का निर्जलीकरण।
समतापमंडल के निर्जलीकरण का सिद्धांत यह है कि नमी से भरी हवा को समतापमंडल में पहुंचने से पहले ही रोक लिया जाए और उसे कणों के आसपास बादलों का रूप दे दिया जाए। नेशनल ओशियनिक एंड एटमॉस्फेरिक एडमिनिस्ट्रेशन के भौतिक विज्ञानी शुका श्वार्ज़ के नेतृत्व में इस रणनीति ने पारंपरिक जियोइंजीनियरिंग विधियों का एक विकल्प प्रदान किया है। इस तकनीक में प्रति सप्ताह केवल 2 किलोग्राम पदार्थ की आवश्यकता होती है, जो संसाधन-कुशल साबित होगा। इसके अलावा, बिस्मथ ट्रायआयोडाइड नामक इस पदार्थ के छिड़काव के लिए हवाई जहाज़ की ज़रूरत नहीं पड़ेगी; गुब्बारे या ड्रोन से इसका छिड़काव किया जा सकता है।
इस तकनीक का उपयोग करने के लिए कुछ ऐसे विशिष्ट क्षेत्रों की पहचान की गई है जहां से ऊपर की ओर उठने वाली हवाओं की तेज़ धाराएं समताप मंडल तक पहुंचती हैं। जैसे पश्चिमी भूमध्यरेखीय प्रशांत महासागर का क्षेत्र।
अलबत्ता, इस तकनीक में कई चुनौतियां और जोखिम भी हैं। एक संभावना अनपेक्षित परिणाम है; यदि सीडिंग कण के कारण बादल वांछित जगह पर न बनकर अन्यत्र कहीं एवं अलग तरह के बादल बन जाना जो गर्मी को परावर्तित करने की बजाय धरती से निकलने वाली गर्मी को सोखने लगें। ऐसे में इस तकनीक की व्यवहार्यता का आकलन करने के लिए गहन शोध आवश्यक है।
बहरहाल, नीति निर्माताओं और शोधकर्ताओं के बीच अपरंपरागत रणनीतियों के लिए खुलापन बढ़ रहा है। ताप-रोधी बादलों की जांच जैसी पहल जलवायु सम्बंधी बदलती सोच की द्योतक है। हालांकि, इस मुद्दे पर अभी भी चर्चाएं जारी है और अनिश्चितताएं बनी हुई हैं। फिर भी यह स्पष्ट है कि जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों से निपटने के लिए साहसिक और कल्पनाशील रणनीतियां आवश्यक हैं। (स्रोत फीचर्स)
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पिछले सभी रिकॉर्ड तोड़ते हुए वर्ष 2023 अब तक का सबसे गर्म साल रहा है। कॉपरनिकस जलवायु परिवर्तन सर्विस की हालिया रिपोर्ट में औसत सतही तापमान में लगभग 0.2 डिग्री सेल्सियस की अतिरिक्त वृद्धि दर्ज की गई है। 2023 का तापमान पूर्व-औद्योगिक स्तर से 1.48 डिग्री सेल्सियस अधिक रहा। यह झुलसा देने वाली गर्मी उस जलवायु से चिंताजनक प्रस्थान का संकेत देती है जिसमें हमारी सभ्यता विकसित हुई।
यह तो स्थापित है कि इस दीर्घकालिक वार्मिंग के प्रमुख दोषी जीवाश्म ईंधन हैं। लेकिन 2023 में हुई अतिरिक्त वृद्धि से वैज्ञानिक असमंजस में हैं। इस अतिरिक्त वृद्धि को मात्र जीवाश्म ईंधन दहन के आधार पर नहीं समझा जा सकता।
लगता है कि वैश्विक तापमान में वृद्धि का एक कारक दो जलवायु पैटर्न के बीच अंतर है। 2020 से 2022 तक ला-नीना जलवायु पैटर्न रहा। इसके तहत प्रशांत महासागर की गहराइयों का ठंडा पानी सतह पर आ जाता है और वातावरण को ठंडा रखता है। लेकिन 2023 में ला नीना समाप्त हो गया और उसके स्थान पर एक अन्य पैटर्न एल नीनो प्रभावी हो गया जिसने प्रशांत महासागर पर गर्म पानी की चादर फैला दी और वातावरण गर्म होने लगा। आम तौर पर एल नीनो अपनी शुरुआत के एक वर्ष बाद वैश्विक तापमान पर असर दिखाता है। लेकिन इस बार 2023 में एल नीनो शुरू हुआ और इसी वर्ष असर दिखाने लगा। और तो और, प्रभाव एल नीनो क्षेत्र से दूर तक हुआ है – उत्तरी अटलांटिक और प्रशांत महासागरों से ऊपर तक।
2022 में हुए हुंगा टोंगा-हुंगा हपाई ज्वालामुखी विस्फोट को तापमान में वृद्धि का प्रमुख ज़िम्मेदार माना जा रहा था। यह दक्षिणी प्रशांत क्षेत्र में स्थित है। यह माना गया था कि इस विस्फोट ने समताप मंडल में भारी मात्रा में जलवाष्प छोड़ी जिसकी वजह से वातावरण गर्म हुआ। लेकिन एक तथ्य यह भी है कि विस्फोट के साथ सल्फेट कण भी बिखरे होंगे और इन कणों ने प्रकाश को परावर्तित कर दिया होगा जिसके चलते वातावरण ठंडा हुआ होगा। गणनाओं के अनुसार इन सल्फेट कणों ने जलवाष्प द्वारा उत्पन्न वार्मिंग प्रभाव को काफी हद तक कम किया होगा। गणनाएं यह भी बताती हैं कि इन दो विपरीत घटनाओं के प्रभाव के चलते यह विस्फोट तापमान वृद्धि की दृष्टि से उदासीन ही रहा होगा।
2023 में अतिरिक्त तापमान वृद्धि की सर्वोत्तम व्याख्या शायद यह है कि वातावरण में प्रकाश अवरोधी प्रदूषण का स्तर कम हो गया है। इसका प्रमुख कारण स्वच्छ ऊर्जा स्रोतों का बढ़ता उपयोग है।
नासा के गोडार्ड स्पेस फ्लाइट सेंटर के वायुमंडलीय भौतिक विज्ञानी तियानले युआन के अनुसार प्रदूषण में कमी, विशेषत: जहाजों द्वारा उत्सर्जित सल्फर कणों में कमी, ने अनजाने में प्रकाश को वापिस अंतरिक्ष में परावर्तित करने वाले बादलों को कम किया है। उपग्रह अवलोकनों से पता चला है कि 2022 के बाद से इन बादलों में कमी आई है। सिर्फ इन बादलों का कम होना पिछले दशक में हुई तापमान वृद्धि का महत्वपूर्ण कारण हो सकता है।
प्रसिद्ध जलवायु वैज्ञानिक जेम्स हेन्सन द्वारा नवंबर 2023 में प्रकाशित शोधपत्र के अनुसार प्रदूषण में कमी से तापमान में 0.27 डिग्री सेल्सियस प्रति दशक की वृद्धि हुई है, जबकि 1970 और 2010 के बीच प्रति दशक वृद्धि 0.18 डिग्री सेल्सियस ही रही थी। यह वृद्धि अभी तक गहरे समुद्र के तापमान में नहीं देखी गई है। इसकी मदद से दीर्घकालिक रुझानों की अधिक सटीक जानकारी मिल सकती है।
बहरहाल, पिछले वर्ष की इन गुत्थियों ने भविष्य के अनुमानों पर अनिश्चितता पैदा की है। इसके साथ ही एल नीनो अस्थायी रूप से वैश्विक तापमान को पेरिस समझौते में निर्धारित 1.5 डिग्री सेल्सियस से आगे बढ़ा सकता है। लेकिन इस इन्तहाई गर्मी का उत्तरी महासागरों के तापमान में वृद्धि का रूप लेने में समय लगेगा और तभी पूरे विश्व के स्तर पर पेरिस सीमा का उल्लंघन होगा। फिर भी, दीर्घकालिक वार्मिंग पैटर्न की निरंतरता तब तक जारी रहेगी जब तक जीवाश्म ईंधन जलाना बंद नहीं हो जाता। यह निष्कर्ष कार्रवाई की ज़रूरत का आह्वान है। (स्रोत फीचर्स)
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वैश्विक तापमान में निरंतर वृद्धि हो रही है। पिछला वर्ष अब तक का सबसे गर्म वर्ष माना जा रहा है। एक गैर-मुनाफा संगठन, क्लाइमेट सेंट्रल, द्वारा हाल ही में जारी रिपोर्ट के अनुसार इस वर्ष लगभग 7.3 अरब लोगों ने ग्लोबल वार्मिंग जनित तापमान वृद्धि का अनुभव किया जबकि एक-चौथाई आबादी को अत्यधिक गर्मी झेलनी पड़ी।
इस रिपोर्ट के आधार पर क्लाइमेट सेंट्रल के एंड्रयू पर्शिंग के अनुसार यदि कोयला, तेल और प्राकृतिक गैस पर हमारी निर्भरता बनी रही तो आने वाले वर्षों में जलवायु प्रभाव और अधिक प्रचंड होंगे। इस अध्ययन में वैज्ञानिकों ने नवंबर 2022 से अक्टूबर 2023 तक 175 देशों और 920 शहरों में दैनिक वायु तापमान पर मानव-जनित जलवायु परिवर्तन के प्रभाव का आकलन किया है। उन्होंने पाया कि इस अवधि में औसत वैश्विक तापमान औद्योगिक युग (1850-1900) से पहले के तापमान से औसतन 1.32 डिग्री सेल्सियस अधिक रहा। इसने 2015-2016 के 1.29 डिग्री सेल्सियस के रिकॉर्ड को पछाड़ दिया है।
शोध में वैज्ञानिकों ने जलवायु परिवर्तन के कारण अत्यधिक तापमान की संभावना दर्शाने के लिए क्लाइमेट शिफ्ट इंडेक्स का उपयोग किया। इसके परिणामों के अनुसार शुरुआत में इस भीषण गर्मी का सबसे अधिक खामियाज़ा दक्षिण अमेरिका, अफ्रीका और मलय द्वीपसमूह के उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों के निवासियों को भुगतना पड़ा है और समय गुज़रने के साथ इसका प्रभाव और अधिक भीषण होता गया।
जमैका, ग्वाटेमाला और रवांडा जैसे देशों में जलवायु परिवर्तन के कारण तापमान वृद्धि चार गुना अधिक होने की संभावना है। इससे भी अधिक चौंकाने वाली बात यह है कि 37 देशों के 156 शहरों को लंबे समय तक अत्यधिक गर्मी झेलनी पड़ी जिसमें ह्यूस्टन में रिकॉर्ड 22 दिनों तक गर्मी का सिलसिला जारी रहा जबकि जकार्ता, न्यू ऑरलियन्स, टैंगेरांग और क्विजिंग में लगातार 16 दिनों तक अत्यधिक गर्मी पड़ी।
गौरतलब है कि निरंतर बदलते जलवायु के दौर में अत्यधिक गर्मी सिर्फ असुविधाजनक नहीं बल्कि जीवन के लिए खतरा बन गई है। कई विशेषज्ञ इस बात पर ज़ोर देते हैं कि जीवाश्म ईंधन के उपयोग को जारी रखना अधिकतर वैश्विक आबादी के बुनियादी मानवाधिकारों का घोर उल्लंघन है। इसके अलावा, अप्रैल 2024 तक जारी रहने वाली अल नीनो घटना तापमान को और भी अधिक बढ़ाने के लिए तैयार है।
विशेषज्ञ विनाशकारी वृद्धि को रोकने के लिए जीवाश्म ईंधन को चरणबद्ध तरीके से बंद करने की तत्काल आवश्यकता पर ज़ोर देते हैं। और जलवायु परिवर्तन के प्रभावों का मुकाबला करने के लिए तत्काल और निर्णायक कार्रवाई की आवश्यकता बताते हैं। केन्या के मौसम विज्ञान विभाग के जॉयस किमुताई गंभीर प्रभावों और जीवाश्म ईंधन के उपयोग में तेज़ी से कमी लाने के लिए आगामी कोप-28 जलवायु शिखर सम्मेलन में कुछ महत्वपूर्ण घोषणाओं की उम्मीद रखते हैं।
बहरहाल यह रिपोर्ट एक व्यापक चेतावनी है जो बताती है कि कैसे जलवायु परिवर्तन दुनिया के कोने-कोने को प्रभावित कर रहा है। (स्रोत फीचर्स)
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धरती का तापमान बढ़ने के साथ कई जीवों को मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है। मधुमक्खियां भी इनमें शुमार हैं। एक ओर तो कीटनाशकों का बेइंतहा इस्तेमाल, प्राकृतवासों का विनाश, प्रकाश प्रदूषण तथा परजीवियों ने मिलकर वैसे ही उनकी आबादी को प्रतिकूल प्रभावित किया है और साथ में तापमान बढ़ने की वजह से मुश्किलें बढ़ी हैं। ज़ाहिर है मधुमक्खियों की मुश्किलें उन तक सीमित नहीं रहेंगी। इनमें से कुछ हमारी फसलों तथा आर्थिक महत्व के अन्य पेड़-पौधों की महत्वपूर्ण परागणकर्ता हैं।
सोसायटी फॉर इंटीग्रेटिव एंड कम्पेरेटिव बॉयोलॉजी की वार्षिक बैठक में प्रस्तुत एक अध्ययन में बताया गया है कि तापमान में वृद्धि के चलते कुछ मधुमक्खियां जल्दी-जल्दी मगर उथली सांसें लेने लगी हैं। अध्ययन भौरों की कुछ प्रजातियों पर किया गया था।
वैसे तो पहले के अध्ययनों में पता चला था कि यूएस की भौरों की लगभग 45 प्रजातियां मुश्किलों से घिरी हैं लेकिन लगता है कि ज़्यादा दिक्कतें वे प्रजातियां भुगत रही हैं जिनकी जीभ लंबी होती है। आयोवा स्टेट विश्वविद्यालय के एरिक रिडेल और उनके साथी यही समझने का प्रयास कर रहे थे कि क्यों जलवायु परिवर्तन का ज़्यादा असर कुछ ही प्रजातियों पर हो रहा है। उन्होंने बॉम्बस ऑरिकोमस प्रजाति की मधुमक्खियों पर प्रयोग किए। इस प्रजाति की मधुमक्खियों की आबादी सबसे तेज़ी से घट रही है। तुलना के लिए बॉम्बस इम्पेशिएन्स प्रजाति को लिया गया था। शोधकर्ताओं ने इन प्रजातियों की रानी मधुमक्खियों को तब एकत्र कर लिया जब वे अपनी शीतनिद्रा से निकलकर नए छत्तों का निर्माण करने वाली थीं। इन्हें प्रयोगशाला में प्राकृतिक आवास जैसी परिस्थितियों में रखा गया।
फिर तापमान के प्रति रानियों की प्रतिक्रिया को देखने के लिए उन्हें कांच की नलियों में रखकर 18 डिग्री और 30 डिग्री सेल्सियस पर परखा गया। इस तरह से रिडेल और उनके साथियों ने यह जांच की कि बढ़ते तापमान का इन मधुमक्खियों की शरीर क्रिया पर क्या असर होगा।
18 डिग्री सेल्सियस तापमान पर तो दोनों ही प्रजातियों की रानियों ने प्रति घंटे लगभग एक बार सांस ली। लेकिन जब तापमान बढ़ाया गया तो दोनों में श्वसन में परिवर्तन देखा गया। जहां बॉम्बस इम्पेशिएन्स हर 10 मिनट में एक बार सांस लेने लेगी वहीं बॉम्बस ऑरिकोमस में सांस की गति 10 गुना अधिक तेज़ हो गई। श्वसन दर बढ़ने के साथ उनके शरीर से पानी की हानि भी अधिक हुई।
इस परिस्थिति में 3 दिन रखे जाने पर 25 प्रतिशत बॉम्बस इम्पेशिएन्स जबकि 50 प्रतिशत बॉम्बस ऑरिकोमस मारी गईं। कुछ प्रजातियों की बढ़ी हुई श्वसन दर से कुछ हद तक इस बात की व्याख्या हो जाती है कि क्यों कुछ मधुमक्खियों की आबादी तेज़ी से घट रही है और जलवायु परिवर्तन के साथ इसमें और भी तेज़ी आ सकती है।
अन्य प्रजातियों पर तापमान का असर परखने के लिए शोधकर्ता यह अध्ययन सात अन्य प्रजातियों पर भी करने को तैयार हैं। मानना है कि घटती आबादी वाली सारी मधुमक्खियां तापमान बढ़ने पर ज़्यादा रफ्तार से श्वसन करती होंगी। (स्रोत फीचर्स) नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://cff2.earth.com/uploads/2020/04/28140342/shutterstock_440779777-1024×638.jpg
पिछली शताब्दी में वैश्विक समुद्र स्तर में वृद्धि हुई है और
हाल के दशकों में इसकी दर तेज़ी से बढ़ रही है। यूएस नेशनल ओशेनिक एंड एटमॉस्फेरिक
एडमिनिस्ट्रेशन (एनओएएस) के अनुसार वर्ष 1880 और 2015 के बीच औसत वैश्विक समुद्र
स्तर लगभग 22 से.मी. बढ़ा है। इसमें से एक-तिहाई वृद्धि तो पिछले 25 साल में ही
हुई।
विश्व के वैज्ञानिक जलवायु परिवर्तन को लेकर अध्ययन करके संभावित नुकसान से
बचने के लिए चेतावनियां भी जारी करते हैं। शोधकर्ताओं का मानना है कि ग्लोबल
वॉर्मिंग और जलवायु परिवर्तन के कारण ही प्राकृतिक आपदाओं की दुर्घटनाएं एवं
विनाशकारिता बढ़ी है। वर्तमान में पूरी दुनिया जलवायु परिवर्तन के कारण प्राकृतिक
आपदाओं से जूझ रही है। परंतु अब इसमें एक नया कारक जुड़ गया है।
नेचर क्लाइमेट चेंज में छपी एक रिपोर्ट के अनुसार, जलवायु
परिवर्तन के कारण समुद्र के स्तर में बढ़ोतरी के साथ-साथ चंद्रमा की कक्षा डगमगाने
से भी पृथ्वी पर विनाशकारी बाढ़ें आ सकती है। इस अध्ययन में यह पूर्वानुमान लगाया
गया है कि अमेरिकी तटीय इलाकों में 2030 के दशक में उच्च ज्वार के कारण बाढ़ के
स्तर में बढ़ोतरी होगी। नासा के अनुसार ये विनाशकारी बाढ़ें लगातार और अनियमित रूप
से जनजीवन को प्रभावित करेगी। अमेरिका में तटीय क्षेत्र जो अभी महीने में सिर्फ दो
या तीन बाढ़ का सामना करते हैं, वे अब एक दर्जन या उससे भी
अधिक का सामना कर सकते हैं। अध्ययन में यह चेतावनी भी दी गई है कि यह बाढ़ पूरे साल
प्रभावित नहीं करेगी बल्कि कुछ ही महीनों में बड़े पैमाने पर अपना असर दिखाएगी।
ज्वार आने में चंद्रमा के गुरुत्वाकर्षण की भूमिका होती है। गुरुत्वाकर्षण में
उथल-पुथल उसकी कक्षा के डगमगाने से होता है। चंद्रमा की कक्षा में होने वाली इस
तरह की डगमग को मून वॉबल कहते हैं, जिसे सन 1728 में खोजा गया था।
एनओएएस के अनुसार वर्ष 2019 में अटलांटिक और खाड़ी तटों पर बाढ़ की 600 से ज़्यादा इस
तरह की घटनाएं देखी गई थीं।
समुद्र के स्तर के साथ चंद्रमा की कक्षा के डगमगाने का जुड़ना अत्यधिक खतरनाक
है। शोधकर्ताओं के अनुसार, चंद्रमा के गुरुत्वाकर्षण
खिंचाव,
समुद्र के बढ़ते स्तर और जलवायु परिवर्तन का संयोजन पृथ्वी
पर समुद्र तटों और दुनिया भर में तटीय बाढ़ को बढ़ाता है। इस अध्ययन के प्रमुख लेखक
और हवाई विश्वविद्यालय में सहायक प्रोफेसर फिल थॉम्पसन ने कहा है कि चंद्रमा की
कक्षा में इस डगमग को एक चक्र पूरा करने में 18.6 वर्ष लगते हैं। नासा के अनुसार
18.6 सालों की आधी अवधि में पृथ्वी पर नियमित दैनिक ज्वार कम ऊंचे हो जाते हैं और
बाकी आधी अवधि में ठीक इसका उलटा होता है।
नासा ने यह भी कहा कि जलवायु चक्र में अल-नीनो जैसी घटनाएं भी बाढ़ को बढ़ावा देंगी। नासा की जेट प्रपल्शन लेबोरेटरी के वैज्ञानिक बेन हैमलिंगटन ने कहा कि इस तरह की घटनाएं पूरे महीने होंगी। यह भी संभावना है कि साल के किसी एक हिस्से में बहुत ज़्यादा बाढ़ें आ जाएंगी। यह सबसे ज़्यादा अमेरिका को प्रभावित करेगा क्योंकि इस देश में तटीय पर्यटन स्थल बहुत ज़्यादा हैं। शोधकर्ताओं ने आगाह किया कि अगर देशों ने अभी से इससे निपटने की योजना शुरू नहीं की, तो तटीय बाढ़ से लंबे समय तक जीवन और आजीविका बुरी तरह प्रभावित होगी। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.aljazeera.com/wp-content/uploads/2021/07/AP773802886326.jpg?resize=1200%2C630
उन्नीसवीं सदी की शुरुआत में, जोसेफ
ग्रिनेल और उनके दल ने कैलिफोर्निया के जंगलों, पहाड़ों
और रेगिस्तानों का और वहां के जंतुओं का बारीकी से सर्वेक्षण किया था।
कैलिफोर्निया तट से उन्होंने पॉकेट चूहों को पकड़ा और गिद्धों की उड़ान पर नज़र रखी; मोजेव रेगिस्तान में अमेरिकी छोटे बाज़ (खेरमुतिया) को कीटों पर झपट्टा मारते
देखा और चट्टानों के बीच छिपे हुए कैक्टस चूहों को पकड़ा। इसके अलावा भी उन्होंने
वहां से कई नमूने-जानकारी एकत्रित कीं, विस्तृत नोट्स बनाए, तस्वीरें खीचीं और इन जगहों का नक्शा तैयार किया। इस तरह उनके द्वारा एकत्रित
“ग्रिनेल-युग” का फील्ड डैटा काफी विस्तृत है।
और अब,
आधुनिक सर्वेक्षणों के डैटा की तुलना ग्रिनेल-युग के डैटा
से करके पारिस्थितिकीविदों ने बताया है कि जलवायु परिवर्तन सभी जीवों को समान रूप
से प्रभावित नहीं कर रहा है। वैज्ञानिक मानते आए हैं कि तापमान में वृद्धि
पक्षियों और स्तनधारियों को एक जैसा प्रभावित करती है क्योंकि दोनों को ही शरीर का
तापमान बनाए रखना होता है। लेकिन लगता है कि ऐसा नहीं है।
पिछली एक शताब्दी में मोजेव के तापमान में लगभग दो डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी
हुई है जिसके कारण वहां के पक्षियों की कुल संख्या और उनकी प्रजातियों की संख्या
में नाटकीय कमी आई है। लेकिन इन्हीं हालात में छोटे स्तनधारी जीव (जैसे पॉकेट
चूहे) अपने आपको बनाए रखने में सफल रहे हैं। शोधकर्ताओं ने साइंस पत्रिका
में बताया है कि ये चूहे निशाचर जीवन शैली और गर्मी से बचाव के लिए सुरंगों में
रहने की आदत के कारण मुश्किल परिस्थितियों में भी जीवित रह पाए हैं।
ग्रिनेल ने जिन जीवों का अध्ययन किया था, वे अब
तुलनात्मक रूप से गर्म और शुष्क जलवायु में रहने को मजबूर हैं। पूर्व में प्रोसिडिंग्स
ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ में प्रकाशित इन स्थलों के पुनर्सर्वेक्षण में
पता चला था कि प्रत्येक स्थान पर रेगिस्तानी पक्षियों (जैसे अमरीकी छोटे बाज़ या
पहाड़ी बटेर) की लगभग 40 प्रतिशत प्रजातियां विलुप्त हो गर्इं हैं। और अधिकतर
स्थानों पर शेष प्रजातियों की सदस्य संख्या भी बहुत कम रह गई है। लेकिन आयोवा
स्टेट युनिवर्सिटी के फिज़ियोलॉजिकल इकॉलॉजिस्ट एरिक रिडेल का अध्ययन चूहों, माइस,
चिपमंक्स और अन्य छोटे स्तनधारियों के संदर्भ में थोड़ी आशा
जगाता है।
उन्होंने अपने अध्ययन में पाया है कि ग्रिनेल के सर्वेक्षण के बाद से अब
स्तनधारियों की तीन प्रजातियों के जीवों संख्या में कमी आई है, 27 प्रजातियां स्थिर है, और चार प्रजातियों की संख्या
में वृद्धि हुई है। यह जानने के लिए कि बदलती जलवायु में पक्षी इतने अधिक
असुरक्षित क्यों हैं, रिडेल ने रेगिस्तानी पक्षियों की 50
प्रजातियों और 24 विभिन्न छोटे स्तनधारी जीवों के संग्रहालय में रखे नमूनों के फर
और पिच्छों में ऊष्मा स्थानांतरण और प्रकाश अवशोषण को मापा। फिर, इस तरह प्राप्त डैटा और सम्बंधित प्रजातियों के व्यवहार और आवास का डैटा
उन्होंने एक कंप्यूटर प्रोग्राम में डाला, जो यह
बताता था कि कोई जानवर कितनी गर्मी सहन कर सकता है, और
विभिन्न तापमान वाली परिस्थितियों में कोई जानवर खुद को कितना ठंडा रख सकता है।
जैसे पक्षी रक्त नलिकाओं को फैला कर, पैरों या मुंह के ज़रिए
पानी को वाष्पित कर अपने शरीर का तापमान नियंत्रित रखते हैं। पक्षियों में खुद को
ठंडा बनाए रखने की लागत स्तनधारियों की तुलना में तीन गुना अधिक होती है। ऐसा
इसलिए है क्योंकि अधिकांश छोटे स्तनधारी दिन के सबसे गर्म समय में ज़मीन के नीचे
सुरंगों या बिलों में वक्त बिताते हैं। इस तरह के व्यवहार से वुडरैट जैसे स्तनधारी
जीव को भी जलवायु परिवर्तन का सामना करने में मदद मिली है, जबकि
वुडरैट रेगिस्तान में जीने के लिए अनुकूलित भी नहीं हैं। केवल वे स्तनधारी जो बहुत
गहरे की बजाय ज़मीन में थोड़ा ऊपर ही अपना बिल बनाते हैं, वे ही
बढ़ते तापमान का सामना करने में असफल हैं, जैसे कैक्टस माउस।
इसके विपरीत कई पक्षी, जैसे अमरीकी छोटा बाज़ और
प्रैयरी बाज़ पर बढ़ते तापमान का बुरा असर है। यह मॉडल स्पष्ट करता है कि क्यों
पक्षी और स्तनधारी जलवायु परिवर्तन पर अलग-अलग प्रतिक्रिया देते हैं।
परिणाम सुझाते हैं कि जलवायु परिवर्तन का रेगिस्तानी पारिस्थितिकी तंत्र पर भी
उसी तरह का खतरा है जैसा कि तेज़ी से गर्म होते आर्कटिक के पारिस्थितिकी तंत्र पर
है।
भविष्य में स्तनधारियों को भी खतरा हो सकता है। मिट्टी की पतली परत केवल दो प्रतिशत रेगिस्तान में है, जिसके अधिक शुष्क होने की संभावना है। इसलिए अब विविध सूक्ष्म आवास वाले क्षेत्रों को संरक्षित करना चाहिए। ऐसे मॉडल संरक्षण की योजना बनाने में मदद कर सकते हैं। जो प्रजातियां जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों से लड़ने में सक्षम हैं उनके संरक्षण की बजाय विलुप्त होती प्रजातियों को संरक्षित कर धन और समय दोनों की बचत होगी। (स्रोत फीचर्स)
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चीन में शौकिया पक्षी प्रेमियों की बढ़ती संख्या ने जलवायु
परिवर्तन के नए पहलू को उजागर किया है। एक नए अध्ययन में पिछले 2 दशकों से अधिक
समय से चीन के नागरिक-वैज्ञानिकों द्वारा एकत्रित डैटा की मदद से पक्षियों की लगभग
1400 प्रजातियों का एक नक्शा तैयार किया गया है। इसमें लुप्तप्राय रेड-क्राउन
क्रेन से लेकर पाइड फाल्कोनेट प्रजातियां शामिल हैं। इस डैटा के आधार पर
शोधकर्ताओं ने 2070 तक के हालात का अनुमान लगाया गया है। इस नक्शे में प्रकृति
संरक्षण के लिहाज़ से 14 क्षेत्रों को प्राथमिकता की श्रेणी में रखा गया है।
गौरतलब है कि पक्षी प्रेमी नागरिकों द्वारा
उपलब्ध कराए गए वैज्ञानिक डैटा का पहले भी शोधकर्ताओं ने उपयोग किया है लेकिन चीन
में पहली बार इसका उपयोग राष्ट्रव्यापी स्तर पर किया जा रहा है। देखा जाए तो चीन
में पिछले 20 वर्षों में पक्षी प्रेमियों की संख्या में तेज़ी से बढ़ोतरी हुई है। कई
विश्वविद्यालयों में भी इनकी टीमें तैयार की गई हैं। पक्षी प्रेमी अपने अनुभवों को
bird report नामक वेबसाइट पर दर्ज करते हैं, जिसकी
सटीकता और प्रामाणिकता की जांच अनुभवी पक्षी विशेषज्ञ करते हैं।
इस डैटा का उपयोग करते हुए पेकिंग
युनिवर्सिटी के रुओचेंग हू और उनके सहयोगियों ने 1000 से अधिक प्रजातियों के फैलाव
क्षेत्र के नक्शे तैयार किए। इसके बाद उन्होंने दो परिदृश्यों, वर्ष
2100 तक 2 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि और 3.7 डिग्री सेल्सियस या उससे अधिक की
वृद्धि, के साथ उनके फैलाव में आने वाले बदलाव को देखने के लिए एक
मॉडल तैयार किया। इस मॉडल में उन्होंने दैनिक और मासिक तापमान, मौसमी
वर्षा और ऊंचाई जैसे परिवर्तियों को शामिल किया है। प्लॉस वन पत्रिका में
प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार तापमान में अधिक वृद्धि होने से कई पक्षी उत्तर की ओर
या अधिक ऊंचे क्षेत्रों की ओर प्रवास कर जाएंगे। हालांकि लगभग 800 प्रजातियां ऐसी
होंगी जिनके इलाके में विस्तार होगा, लेकिन इनमें से अधिकांश क्षेत्र सघन आबादी
वाले और औद्योगिक क्षेत्र होंगे जो पक्षियों के लिए पूरी तरह से अनुपयुक्त हैं।
मोटे तौर पर 240 प्रजातियों के इलाके में कमी आएगी।
ऐसे में सबसे अधिक प्रवासी पक्षी और सिर्फ
चीन में पाए जाने वाली पक्षी प्रभावित होंगे। इस पेपर के लेखकों के अनुसार
प्रतिष्ठित रेड-क्राउन क्रेन का इलाका भी सिमटकर आधा रह जाएगा। चीन के मौजूदा
राष्ट्रीय आरक्षित क्षेत्र इन पक्षियों के प्राकृत वासों की रक्षा के लिए पर्याप्त
नहीं है। इस विनाश से बचने के लिए अध्ययन में इंगित 14 प्राथमिकता वाले क्षेत्रों
पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है।
नए आरक्षित क्षेत्रों के विकास में भी काफी चुनौतियों का सामना करना होगा। इसके लिए स्थानीय हितधारकों को आश्वस्त करना होगा और भीड़-भाड़ वाले क्षेत्रों में सीमाओं को तय करना होगा। विशेषकर ऐसे नए तरीकों का पता लगाना होगा जिससे शहरी उद्यानों और कृषि क्षेत्रों को पक्षियों के अनुकूल बनाया जा सके।(स्रोत फीचर्स)
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साल 2002 में औसत बारिश में
कमी या सूखे का पूर्वानुमान भारत या विदेश का कोई भी संस्थान नहीं लगा पाया था।
इसे मौजूदा मॉडल में पूरे विश्व में चुनौती माना गया। सवाल यह है कि गर्मी की
शुरुआत में आज से 35-40 साल
पहले भी आंधी-तूफान
आते रहे हैं, जिसे पूर्वी भारत
में काल बैसाखी कहते हैं। लेकिन पहले तूफान से तबाही नहीं मचती थी। फिर अब ऐसा
क्या होता है कि एक दिन के तूफान से ही तबाही मच जाती है?
इसे ठीक से समझने के लिए तीन बातों पर गौर करना होगा।
कोई
भी आंधी-तूफान
दो चीज़ों से ऊर्जा लेती हैं – गर्मी व हवा की नमी की मात्रा। ये दोनों चीजें जितनी ज़्यादा
होंगी, तूफान की मारक
क्षमता उतनी ही बढ़ेगी। पहले मई माह के बाद ही तेज़ गर्मी पड़ती थी। पर अब मार्च-अप्रैल महीने में ही
उत्तर, पश्चिम और दक्षिण
भारत के काफी बड़े हिस्से में तापमान 40 डिग्री सेल्सियस या इससे ऊपर पहुंच जाता है। इससे हवा की
गति बढ़ जाती है। साथ ही पश्चिमी विक्षोभ भी मौजूद रहता है और बंगाल की खाड़ी से नमी
लेकर हवा भी आ पहुंचती है। इन सबकी वजह से तूफान आने की स्थिति बनती है।
पिछले
तीन-चार
दशक से तापमान लगातार बढ़ रहा है। यह हवा की गति को भी बढ़ा रहा है। 1979-2013 की अवधि में मौसम
उपग्रह के रिकार्ड से पता चला कि धरती का ऊष्मा इंजन अब पहले से ज़्यादा सक्रिय हो
चुका है। परिणामस्वरूप तूफान-बवंडर ज़्यादा शक्तिशाली बन रहे हैं। आज ज़रूरत है इनको समय
से पूर्व जानकर देश की जनता और शासन-प्रशासन को सावधान करने की।
मौसम
का पूर्वानुमान तभी सफल हो पाता है जब उसे स्थान और काल की बारीकी से बताया जा
सके। भारतीय मौसम विभाग अभी इस काम को करने में पूरी तरह से परिपक्व नहीं हो सका
है। मानसून के बारे में मौसम विभाग का अनुमान हमारे किसी काम का नहीं होता क्योंकि
वह सिर्फ औसत बताता है। औसत तो तब भी बरकरार रहेगा जब किसी इलाके में सूखा पड़े और
किसी में अतिवृष्टि हो जाए। लेकिन दोनों स्थितियों में नुकसान तो हो ही जाएगा।
उन्हें स्थानीय स्तर पर जल्दी-जल्दी पूर्वानुमान बताना चाहिए ताकि तैयारी करने का समय मिल
सके।
मौसम
के पूर्वानुमान के लिए अलग-अलग मॉडल पर आधारित 5 तरह के पूर्वानुमान का इस्तेमाल कृषि,
यातायात, जल प्रबंधन आदि के
लिए किया जाता है। सही मायने में 5 दिन का पूर्वानुमान 60 फीसदी तक सही हो पाता है। ये पांच तरह के
हैं –
1. तात्कालिक (नाउकास्ट ) – अगले 24 घंटे का आकलन
2. लघु अवधि – 3 दिनों का
पूर्वानुमान
3. मध्यम अवधि – 3-10 दिनों का
पूर्वानुमान
4. विस्तारित अवधि – 10-30 दिनों का
पूर्वानुमान
5. दीर्घ अवधि – मानसून का
पूर्वानुमान
इस
संदर्भ में मराठवाड़ा में कुछ किसानों ने पुलिस केस दर्ज कराया है। उनका कहना है कि
मौसम विभाग द्वारा महाराष्ट्र या मराठवाड़ा (8 ज़िला क्षेत्र) के अनुमान से भी उन्हें लाभ नहीं होता,
क्योंकि एक ज़िले में भी बारिश कभी एक समान नहीं होती। इसलिए
कृषि के लिए ब्लॉक आधारित सूचना की ज़रूरत है। विशेषज्ञों के अनुसार मौसम विभाग को
पूरे देश को छोटे-छोटे
ज़ोन में बांटना चाहिए और हर ज़ोन के लिए दीर्घावधि पूर्वानुमान जारी करने चाहिए।
मौसम
विभाग ज़िला आधारित पूर्वानुमान जारी करता है। हालांकि इनमें भी सफलता दर कम है।
अगर मौसम विभाग पूर्वानुमान जारी करते हुए बताता है कि किसी ज़िले में अलग-अलग क्षेत्रों में
बारिश होगी तो इसका अर्थ होता है कि उस जिले के 26-50 फीसदी हिस्से में बारिश होगी। इसमें भी उन
क्षेत्रों की पहचान नहीं की जाती। मौसम विभाग तापमान,
आद्र्रता, हवा की गति और वर्षण
आदि के आंकड़े इकट्ठे करता है। देश में 679 स्वचालित मौसम केंद्र,
550 भू
वेधशालाएं, 43 रेडियोसोंड (मौसमी गुब्बारे), 24 राडार और 3 सेटेलाइट हैं,
जो दूसरे देश के सेटेलाइट आंकड़े भी जुटाते रहते हैं।
अति
आधुनिक गतिशील मॉडल (डायनैमिक
मॉडल) पर
आधारित पूर्वानुमान भी भारत में गलत हो जाते हैं। ब्लॉक स्तर तक के मौसम
पूर्वानुमान के लिए ज़रूरी है कि ब्लॉक स्तर तक के आंकड़े जुटाए जाएं। संसाधन काफी
कम हैं। धूल, एरोसॉल,
मिट्टी की आर्द्रता और समुद्र से जुड़े डैटा में भारी अंतर
हैं। वर्षापात के आंकड़े जुटाने के लिए देश में कम से कम 20 और राडार चाहिए ताकि व्यापक आंकड़े जुटाए जा
सकें।
मौसम
पूर्वानुमान के मॉडल की विफलता के बड़े कारण घटिया यंत्र भी हैं। एक मौसम विज्ञानी
के अनुसार पैसे बचाने के लिए कई स्वचालित मौसम केंद्र घटिया स्तर के खरीदे गए थे।
दूसरा मौजूदा मॉडल के उचित रखरखाव में कमी भी बड़ी समस्या है। इन्हें थोड़े-थोड़े अंतराल पर साफ
करके स्केल से मिलाना होता है। पर वास्तव में ऐसा हो नहीं पाता। इससे कई डैटा गलत
आते हैं। पूर्वानुमान के लिए इस्तेमाल किए जा रहे अधिकतर मॉडल विदेशों में विकसित
किए गए हैं जिनमें स्थानीय ज़रूरत के अनुसार बदलाव करके उपयोग किया जा रहा है।
ऊष्ण
कटिबंधीय वातावरण बहुत तेज़ी से बदलता रहता है। यह कभी स्थिर नहीं रहता। दरअसल ऊष्ण
कटिबंधीय मौसम के व्यवहार का अभी उचित अध्ययन हो ही नहीं सका है।
पर्याप्त
संख्या में मौसम विज्ञानी नहीं हैं। एकमात्र आईआईएससी के स्नातक ही मौसम केंद्र से
जुड़ते हैं। मौजूदा मॉडल और मौसम विज्ञानियों की उपलब्धता के आधार पर देखें तो एक
दिन के पूर्वानुमान की गणना करने में 10 वर्षों का समय लग सकता है।
आमतौर
पर माना जाता है कि मानसून के अप्रत्याशित व्यवहार के पीछे बढ़ता वैश्विक तापमान
है। लेकिन इसके वैज्ञानिक साक्ष्य नहीं मिले हैं।
तमाम
आलोचनाओं के बीच मौसम विभाग द्वारा जारी आंकड़ों में सुधार आए हैं। पहले की तुलना
में बेहतर तकनीक और नए मॉडलों का प्रभाव, धीरे-धीरे ही सही,
दिखने लगा है। दीर्घावधि औसत में 2003-15 के दौरान मौसम के पूर्वानुमान में 5.92 प्रतिशत की अशुद्धता
दर्ज की गई थी, जो 1990-2012 के बीच 7.94 प्रतिशत थी। 1988-2008 के बीच पूर्वानुमान 90 प्रतिशत सही रहा।
यानी 20 में
से 19 वर्षों
में।
बढ़ते मौसमी खतरे को देखते हुए हमें अपने पूर्वानुमान की सूक्ष्मता को बढ़ाना होगा। तूफान और बवंडर के लिए डॉप्लर राडार ज़्यादा उपयोगी है। अफसोस इस बात का है कि इनकी देश में कमी है। 2013 की उत्तराखंड आपदा में भी इनकी कमी सामने आई। यदि डॉप्लर राडार होता तो ज़्यादा बारीकी से तूफान का पता लगाकर चेतावनी दी जा सकती थी। अगर आने वाले खतरे को नजरअंदाज करते रहेंगे तो भारी कीमत चुकानी पड़ेगी। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://cdn.downtoearth.org.in/library/large/2017-08-10/0.71962100_1502365925_32-1-20170815-english.jpg