कोरोना संक्रमितों की सेवा में अब रोबोट – जाहिद खान

दुनिया की आबादी का एक बड़ा हिस्सा फिलवक्त कोविड-19 से बुरी तरह से जूझ रहा है। डॉक्टर, नर्स और तमाम स्वास्थ्य कर्मचारी कोरोना संक्रमित मरीज़ों के इलाज और देखभाल में जी-जान से लगे हुए हैं। समूची मानवजाति के ऊपर आई इस संकट की घड़ी में अब रोबोट भी इंसान के मददगार बन रहे हैं। उन्हें इस खतरनाक बीमारी से उबरने में मदद कर रहे हैं।

राजस्थान में जयपुर स्थित एसएमएस हॉस्पिटल में कोरोना संक्रमित मरीज़ों की सेवा के लिए तीन रोबोट की ड्यूटी लगाई गई है। ये रोबोट कोरोना संक्रमित व्यक्तियों तक दवा, पानी व दीगर ज़रूरी सामान ले जाने का काम करेंगे। रोबोट की ड्यूटी यहां लगाए जाने से कोरोना पीड़ितों के आसपास मेडिकल स्टाफ का मूवमेंट कम हो जाएगा। इसका सबसे बड़ा फायदा यह होगा कि हॉस्पिटल में इंसानों की वजह से कोविड-19 वायरस के प्रसार की जो संभावना रहती है, वह काफी कम हो जाएगी। मरीज़ के संपर्क में न आ पाने से बाकी लोगों में संक्रमण नहीं फैलेगा, वे सुरक्षित रहेंगे। ज़ाहिर है, जब डॉक्टर, नर्स और तमाम स्वास्थ्य कर्मचारी सुरक्षित रहेंगे, तो वे अपना काम और भी बेहतर तरीके से कर सकेंगे। देखा जाए तो यह एक छोटी-सी शुरुआत ही है। देश भर के बाकी अस्पतालों में डॉक्टर और स्वास्थ्यकर्मी अपने स्वास्थ्य और जान की ज़रा-सी भी परवाह किए बिना मुस्तैदी से अपने फर्ज़ को अंजाम देने में लगे हुए हैं।

‘रोबोट सोना 2.5’ नामक ये रोबोट पूरी तरह भारतीय तकनीक और मेक इन इंडिया प्रोजेक्ट के तहत जयपुर में ही बनाए गए हैं। युवा रोबोटिक्स एक्सपर्ट भुवनेश मिश्रा ने इन्हें तैयार किया है।  सबसे बड़ी खासियत यह है कि ‘सोना 2.5’ रोबोट लाइन फॉलोअर नहीं हैं बल्कि ऑटो नेविगेशन रोबोट हैं। यानी इन्हें मूव कराने के लिए किसी भी तरह की लाइन बनाने की ज़रूरत नहीं होती है। इंसानों की तरह ये रोबोट सेंसर की मदद से खुद नेविगेट करते हुए अपना रास्ता बनाते हैं और लक्ष्य तक पहुंच जाते हैं। इन्हें आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस, आईओटी और एसएलएएम तकनीक का शानदार इस्तेमाल करके तैयार किया गया है।

सर्वर के कमांड मिलने पर ये रोबोट सबसे पहले अपने लिए एक छोटे रास्ते का मैप क्रिएट करते हैं। अच्छी बात यह है कि ये किसी भी फर्श या फ्लोर पर आसानी से मूव कर सकते हैं। इन्हें वाई-फाई सर्वर के ज़रिए लैपटॉप या स्मार्ट फोन से भी ऑपरेट किया जा सकता है। ऑटो नेविगेशन होने से इन्हें अंधेरे में भी मूव कराया जा सकता है।

एक खूबी और है कि इनमें ऑटो डॉकिंग प्रोग्रामिंग की गई है, जिससे बैटरी डिस्चार्ज होने से पहले ही ये खुद चार्जिंग पॉइंट पर जाकर ऑटो चार्ज हो जाएंगे। एक बार चार्ज होने पर ये सात घंटे तक काम कर सकते हैं और इन्हें चार्ज होने में तीन घंटे का समय लगता है। यानी इन रोबोट में वे सारी खूबियां हैं, जिनके दम पर ये अपना काम बिना रुके, बदस्तूर करते रहेंगे। विज्ञान और वैज्ञानिकों का मानवजाति के लिए यह वाकई एक चमत्कारिक उपहार है जिसे नमस्कार किया जाना चाहिए।

अकेले राजस्थान में ही नहीं, केरल में भी यह अभिनव प्रयोग शुरू किया जा रहा है। कोच्चि की ऐसी ही स्टार्टअप कंपनी ने अस्पतालों के लिए एक खास रोबोट तैयार किया है जो मेडिकल स्टाफ की मदद करेगा। तीन चक्कों वाला यह रोबोट खाना और दवाइयां पहुंचाने के काम आएगा। यह पूरे अस्पताल में आसानी से घूम सकता है। इसे सात लोगों ने मिलकर महज 15 दिनों के अंदर तैयार किया है। इसी तरह की पहल नोएडा के फेलिक्स अस्पताल ने भी की है।

डॉक्टरों एवं मेडिकल स्टाफ को कोविड-19 जैसे घातक वायरस से बचाने के लिए रोबोट का इस्तेमाल होगा। कोरोना वायरस के बढ़ते मामलों के बीच दुनिया भर के अस्पताल काम के बोझ से दबे हुए हैं। मरीज़ों का इलाज और देखभाल करते हुए डॉक्टरों को ज़रा-सी भी फुर्सत नहीं मिल रही है। मरीज़ों की तादाद रोज़ बढ़ती जा रही है। ऐसे में ज़्यादा से ज़्यादा मेडिकल स्टाफ की ज़रूरत है।

इसी तरह की परेशानियों के मद्देनजर आयरलैंड के एक अस्पताल में भी रोबोट्स को काम पर लगाने का फैसला किया गया है। डबलिन के मेटर मिजरिकॉरडी यूनिवर्सिटी अस्पताल में रोबोट्स प्रशासनिक और कंप्यूटर का काम कर रहे हैं, जो आम तौर पर नर्सों के ज़िम्मे होता है। ये रोबोट कोविड-19 से जुड़े नतीजों का विश्लेषण भी कर रहे हैं। इन रोबोट को बनाने वाले एक्सपर्ट्स अपने काम से अभी संतुष्ट नहीं हैं। वे कोशिश कर रहे हैं कि ये रोबोट डिसइन्फेक्शन करने, टेंपरेचर नापने और सैंपल कलेक्ट करने का काम भी कुशलता से कर सकें।

मानव जैसी स्पाइन टेक्नॉलॉजी वाले दुनिया के पहले रोबोट का सबसे पहले इस्तेमाल, उत्तर प्रदेश के रायबरेली स्थित रेल कोच फैक्टरी में पिछले साल 18 नवंबर को किया गया था। ‘सोना 1.5’ नामक इस स्वदेशी ह्यूमनॉयड रोबोट का निर्माण भी रोबोटिक्स एक्सपर्ट भुवनेश मिश्रा ने किया है। इस रोबोट का इस्तेमाल दस्तावेज़ों को एक स्थान से दूसरी जगह ला-ले जाने, विज़िटर्स का स्वागत करने, टेक्निकल डिस्कशन और ट्रेनिंग में हो रहा है।

दरअसल आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और रोबोटिक्स के विकास के साथ मानव-रोबोटों को ऐसे कार्यों के लिए तेज़ी से इस्तेमाल किया जा रहा है, जिनमें बार-बार एक-सी क्रियाएं करनी होती हैं। इस तरह के कामों में वे पूरी तरह से कारगर साबित होते हैं। निकट भविष्य में इसरो अपने महत्त्वाकांक्षी मिशन ‘गगनयान’ के लिए भी एक रोबोट ‘व्योम मित्र’ भेजेगा। देखना है कि रोबोट कैसे हमसफर साबित होते हैं(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://clubfirst.org/wp-content/uploads/2020/03/IMG_20200328_165309-1024×768.jpg

व्योम मित्र: एक मानव-रोबोट – डॉ. आनंद कुमार शर्मा

भारत का पहला मानव-सहित अंतरिक्ष मिशन गगनयान 2021-22 के दौरान उड़ान भरेगा। अंतरिक्ष में मनुष्य को भेजने से पहले भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) सभी प्रासंगिक प्रौद्योगिकियों में महारत हासिल करने के लिए दो मानव-रहित मिशन भेजेगा।

 इसरो ने 22-24 जनवरी, 2020 को बैंगलुरु में एक तीन दिवसीय संगोष्ठी के दौरान एक महिला रोबोट अंतरिक्ष यात्री ‘व्योम मित्र’ का अनावरण किया। ‘मानव अंतरिक्ष उड़ान और अन्वेषण – वर्तमान चुनौतियां और भविष्य के रुझान’ नामक इस संगोष्ठी के उद्घाटन दिवस पर व्योम मित्र आकर्षण का केंद्र था।

इसरो के मानव-सहित अंतरिक्ष उड़ान कार्यक्रम के तहत गगनयान पहला यान होगा, जिसे शक्तिशाली जीएसएलवी एमके III रॉकेट द्वारा प्रक्षेपित किया जाएगा।

गगनयान कक्षीय कैप्सूल में एक सेवा मॉड्यूल और एक चालक दल मॉड्यूल है। वर्तमान गगनयान योजना के अंतर्गत दो मानव-रहित और एक मानव-सहित उड़ान शामिल हैं। पहली मानव-रहित उड़ान दिसंबर 2020 में और दूसरी जुलाई 2021 में प्रस्तावित है। दो सफल मानव-रहित उड़ानों के बाद, पहला मानव-सहित मिशन दिसंबर 2021 में निर्धारित किया गया है।

समानव अंतरिक्ष यान को या तो चालक दल द्वारा या दूर से भू-स्टेशनों द्वारा संचालित किया जा सकता है, और यह स्वायत्त भी हो सकता है। समानव अंतरिक्ष यान 5-7 दिनों के लिए पृथ्वी की निम्न कक्षा में परिक्रमा करेगा और फिर उसका चालक दल मॉड्यूल सुरक्षित रूप से धरती पर वापस लौटेगा।

गगनयान मिशन का मुख्य उद्देश्य प्रौद्योगिकी प्रदर्शन है। मिशन का दूसरा उद्देश्य देश में विज्ञान और प्रौद्योगिकी के स्तर में वृद्धि करना है। गगनयान एक अंतरिक्ष स्टेशन स्थापित करने का अग्रदूत होगा।

मानव-रोबोट व्योम मित्र मूल रूप से एक मानव की सूरत वाला रोबोट है। उसके पास सिर्फ सिर, दो हाथ और धड़ है, निचले अंग नहीं हैं।

किसी भी रोबोट की तरह, एक मानव-रोबोट के कार्य उससे जुड़े कंप्यूटर सिस्टम द्वारा संचालित किए जाते हैं। कृत्रिम बुद्धि (आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस) और रोबोटिक्स के विकास के साथ मानव-रोबोटों को ऐसे कार्यों के लिए तेज़ी से इस्तेमाल किया जा रहा है जिनमें बार-बार एक-सी क्रियाएं करनी होती हैं, जैसे कि रेस्तरां में बैरा।

इसरो की योजना 2022 तक किसी इंसान को अंतरिक्ष में भेजने की है। वह एक क्रू मॉड्यूल और रॉकेट सिस्टम विकसित करने में जुटा है जो अंतरिक्ष यात्री की सुरक्षित यात्रा और वापसी सुनिश्चित कर सके। भारतीय अंतरिक्ष यात्रियों को व्योमनॉट्स के नाम से संबोधित किया जाएगा। जिन अन्य देशों ने अंतरिक्ष में मनुष्यों को सफलतापूर्वक भेजा है, उन्होंने अपने रॉकेट और नाविक पुन:प्राप्ति तंत्र (क्रू रिकवरी सिस्टम) के परीक्षणों के लिए जानवरों का इस्तेमाल किया था, जबकि इसरो अंतरिक्ष में मानव को ले जाने और वापसी के लिए अपने जीएसएलवी एमके III रॉकेट की प्रभावकारिता का परीक्षण रोबोट का उपयोग करके सुनिश्चित करेगा। यह रोबोट विक्रम साराभाई अंतरिक्ष केंद्र, तिरुवनंतपुरम की रोबोटिक्स प्रयोगशाला में विकासाधीन है।

इसरो का जीएसएलवी एमके क्ष्क्ष्क्ष् रॉकेट इस समय सुधार के दौर से गुज़र रहा है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि यह मनुष्य को अंतरिक्ष में ले जाने के लिए सुरक्षित है। इसकी पहली मानव-रहित उड़ान की योजना दिसंबर 2020 में निर्धारित है। क्रू मॉड्यूल प्रणाली भी विकासाधीन है, और अगले कुछ महीनों में इसके लिए इसरो कई नए परीक्षण करने का प्रयास करेगा ।

इसरो को अपनी अंतरिक्ष परियोजनाओं के लिए रोबोटिक सिस्टम बनाने का खासा अनुभव है। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस पहले से ही कई अंतरिक्ष मिशनों के मूल में है। उदाहरण के लिए, अंतरिक्ष यानों और प्रक्षेपण यानों में उन्मुखीकरण, गति, उपांगों की तैनाती, दूरी आदि का स्वत: मूल्यांकन, प्रसंस्करण संग्रहित निर्देशों के माध्यम से किया जाता है। इसरो का मानव रोबोट 2022 में अंतरिक्ष यात्रियों के अस्तित्व और सुरक्षित यात्रा के लिए बने क्रू मॉड्यूल का परीक्षण करने में सक्षम होगा।

व्योम मित्र रोबोट का उपयोग एक प्रयोग के रूप में किया जा रहा है। यह मानव-रहित अंतरिक्ष उड़ान में मानव शरीर के अधिकांश कार्य करेगा। व्योम मित्र बातचीत करने, जवाब देने और वापस रिपोर्ट करने के लिये मनुष्य जैसा व्यवहार करेगा। यह अंतरिक्ष यात्रियों को भी पहचान सकता है, उनसे बातचीत कर सकता है और उनके प्रश्नों का उत्तर दे सकता है।

व्योम मित्र, जिनका मानव अंतरिक्ष उड़ान के लिए पहले जमीन पर परीक्षण किया जाएगा, मूलभूत कृत्रिम बुद्धि और रोबोटिक्स प्रणाली पर आधारित होगा। एक बार पूरी तरह से विकसित होने के बाद, व्योम मित्र मानव-रहित उड़ान के लिए ग्राउंड स्टेशनों से भेजे गए सभी निर्देशों को अंजाम देने में सक्षम होंगे। इनमें सुरक्षा तंत्र और स्विच पैनल का संचालन करने की प्रक्रियाएं शामिल होंगी। प्रक्षेपण और कक्षीय मुद्राओं को प्राप्त करना, मापदंडों के माध्यम से मॉड्यूल की निगरानी, पर्यावरण पर प्रतिक्रिया देना, जीवन सहायता प्रणाली का संचालन, चेतावनी निर्देश जारी करना, कार्बन डाईऑक्साइड कनस्तरों को बदलना, स्विच चलाना, क्रू मॉड्यूल की निगरानी, वॉयस कमांड प्राप्त करना, आवाज़ के माध्यम से प्रतिक्रिया देना आदि कार्य मानव रोबोट के लिए सूचीबद्ध किए गए हैं। व्योम मित्र आवाज़ के अनुसार होंठ हिलाने में सक्षम होगा। वे प्रक्षेपण, लैंडिंग और मानव मिशन के कक्षीय चरणों के दौरान अंतरिक्ष यान की सेहत जैसे पहलुओं से सम्बंधित ऑडियो जानकारी प्रदान करने में अंतरिक्ष यात्री के कृत्रिम दोस्त की भूमिका निभाएंगे।

व्योम मित्र अंतरिक्ष उड़ान के दौरान क्रू मॉड्यूल में होने वाले बदलावों को पृथ्वी पर वापस रिपोर्ट भी करेंगे, जैसे ऊष्मा विकिरण का स्तर, जिससे इसरो को क्रू मॉड्यूल में आवश्यक सुरक्षा स्तरों को समझने में मदद मिलेगी और अंतत: समानव उड़ान कर सकेंगे।

डमी अंतरिक्ष यात्रियों वाले कई अंतरिक्ष मिशन रहे हैं। कुछ मिशनों में व्योम मित्र जैसे रोबोट का उपयोग भी किया जा चुका है। हाल ही में रिप्ले नामक एक अंतरिक्ष यात्री पुतले को ड्रैगन क्रू कैप्सूल पर स्पेस एक्स फाल्कन रॉकेट द्वारा मार्च 2019 में अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन पर भेजा गया था। रिप्ले को नासा के लिए 2020 में अंतरिक्ष में मानव भेजने के लिए स्पेस एक्स की तैयारी के एक हिस्से के रूप में बनाया गया था।

एयरबस द्वारा अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन पर सिमोन (CIMONक्रू इंटरएक्टिव मोबाइल कंपेनियन) नामक आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस रोबोट बॉल को तैनात किया गया था। अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन पर एक फ्लोटिंग कैमरा रोबोट-इंट-बॉल को जापान एयरोस्पेस एक्सप्लोरेशन एजेंसी (जैक्सा) द्वारा तैनात किया गया था ।

जापान में निर्मित एक मानव-रोबोट किरोबो को अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन के पहले जापानी कमांडर कोइची वाकाता के साथ सहायक के रूप में अंतरिक्ष स्टेशन पर प्रयोगों के संचालन के लिए भेजा गया था। किरोबो आवाज़ पहचान, चेहरे की पहचान, भाषा प्रसंस्करण और दूरसंचार क्षमताओं जैसी प्रौद्योगिकियों से लैस था। यांत्रिक कार्यों को अंजाम देने के लिए एक रूसी मानव-रोबोट, फेडोर को 2019 में अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन पर भेजा गया था।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://images.cnbctv18.com/optimize/z9ESx0u-XVFdBSaQ5hCeF_5db00=/0x0/images.cnbctv18.com/wp-content/uploads/2020/01/ISRO-Vyomamitra-PTI.jpg

हवा में से बिजली पैदा करते बैक्टीरिया

क ताज़ा अध्ययन में पता चला है कि कुछ बैक्टीरिया ऐसे नैनो (अति-सूक्ष्म) तार बनाते हैं जिनमें से होकर बिजली बहती है, हालांकि अभी शोधकर्ता यह नहीं जानते कि इस बिजली का स्रोत क्या है। वैसे एक बात पक्की है कि ये बैक्टीरिया और उनके द्वारा बनाए गए नैनो तार बिजली का उत्पादन तब तक ही करते हैं, जब तक कि हवा में नमी हो। दरअसल ये नैनो तार और कुछ नहीं, प्रोटीन के तंतु हैं जो इलेक्ट्रॉन्स को बैक्टीरिया से दूर ले जाते हैं। इलेक्ट्रॉन का प्रवाह ही तो बिजली है।

यह देखा गया है कि जब पानी की सूक्ष्म बूंदें ग्रेफीन या कुछ अन्य पदार्थों के साथ अंतर्क्रिया करती हैं तो विद्युत आवेश पैदा होता है और इन पदार्थों में से इलेक्ट्रॉन का प्रवाह होने लगता है। लगभग 15 वर्ष पूर्व मैसाचुसेट्स विश्वविद्यालय के सूक्ष्मजीव वैज्ञानिक डेरेक लवली ने खोज की थी कि जियोबैक्टर नामक बैक्टीरिया इलेक्ट्रॉन्स को कार्बनिक पदार्थों से धात्विक यौगिकों (जैसे लौह ऑक्साइड) की ओर ले जाता है। उसके बाद यह पता चला कि कई अन्य बैक्टीरिया हैं जो ऐसे प्रोटीन नैनो तार बनाते हैं जिनके ज़रिए वे इलेक्ट्रॉन्स को अन्य बैक्टीरिया या अपने परिवेश में उपस्थित तलछट तक पहुंचाते हैं। इस प्रक्रिया के दौरान बिजली पैदा होती है।

फिर लगभग 2 वर्ष पहले एक शोधकर्ता ने पाया कि इन नैनो तारों को बैक्टीरिया से अलग कर दिया जाए, तो भी इनमें विद्युत धारा पैदा होती रहती है। देखा गया कि जब नैनो तारों से बनी एक झिल्ली को सोने की दो चकतियों के बीच सैंडविच कर दिया जाता है, तो इस व्यवस्था में से 20 घंटे तक बिजली मिलती रहती है। इस व्यवस्था में जुगाड़ यह करना पड़ता है कि ऊपर वाली तश्तरी थोड़ी छोटी हो ताकि नैनो तार की झिल्ली नम हवा के संपर्क में रहे।

शोधकर्ताओं को इतना तो समझ में आ गया कि इलेक्ट्रॉन का स्रोत सोने की चकती नहीं है क्योंकि कार्बन चकतियों ने भी यही असर पैदा किया, जबकि कार्बन आसानी इलेक्ट्रॉन से नहीं छोड़ता। दूसरी संभावना यह हो सकती थी कि नैनो तार विघटित हो रहे हैं लेकिन पता चला कि वह भी नहीं हो रहा है। तीसरा विचार था कि हो न हो, यह प्रकाश विद्युत प्रभाव के कारण काम कर रहा है लेकिन यह विचार भी निरस्त करना पड़ा क्योंकि बिजली तो अंधेरे में भी बहती रही। अंतत: लगता है कि शायद नमी ही बिजली का स्रोत है। नेचर में प्रकाशित शोध पत्र में शोधकर्ताओं ने कयास लगाया है कि संभवत: पानी के विघटन के कारण बिजली बन रही है।

अब शोधकर्ताओं ने जियोबैक्टर के स्थान पर आसानी से मिलने व वृद्धि करने वाले बैक्टीरिया ई. कोली की मदद से यह जुगाड़ जमाने में सफलता प्राप्त कर ली है। यह इतनी बिजली देता है कि मोबाइल फोन जैसे उपकरणों का काम चल सकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_image_-1280w__no_aspect/public/Nanowires_power_plant_1280x720.jpg?itok=OqgKSCRd

फेसबुक डैटा शोधकर्ताओं के लिए उपलब्ध

लंबे समय से शोधकर्ता फेसबुक डैटा का अध्ययन कर यह समझना चाहते थे कि हालिया राजनैतिक घटनाओं के दौरान दुनिया भर के लोगों ने कैसे जानकारियां और गलत जानकारियां साझा की थीं। उनका यह इंतज़ार अब खत्म हुआ है। फेसबुक ने 13 फरवरी 2020 को अपना डैटा शोधकर्ताओं को अध्ययन के लिए उपलब्ध करा दिया है। हालांकि डैटा तक पहुंच के साथ शोधकर्ताओं को डैटा ठीक से ना पढ़ पाने सम्बंधी मुश्किलें भी मिली हैं।

दरअसल फेसबुक ने अप्रैल 2018 में यह घोषणा की थी कि वह जल्द ही समाज वैज्ञानिकों को लोगों द्वारा साझा की गई लिंक का डैटा उपलब्ध कराएगा। लेकिन घोषणा के बाद फेसबुक के डैटा विशेषज्ञों ने पाया कि इस तरह डैटा उपलब्ध कराना उपयोगकर्ताओं की गोपनीयता के साथ समझौता होगा। इस दिक्कत को सुलझाने के लिए फेसबुक ने डैटा उपलब्ध कराने के पूर्व, डैटा पर डिफ्रेंशियल प्रायवेसी विधि प्रयोग कर उपयोगकर्ताओं की गोपनीयता सुनिश्चित की। यह हाल ही में विकसित एक गणितीय विधि है जो डैटा को अनाम रखती है।

जो डैटा फेसबुक ने उपलब्ध कराया है उसमें जनवरी 2017 से लेकर जुलाई 2019 के बीच फेसबुक उपयोगकर्ताओं द्वारा सार्वजनिक रूप से साझा की गई 3 करोड़ 80 लाख लिंक और उससे सम्बंधित जानकारियां हैं। ये बताती हैं कि क्या फेसबुक उपयोगकर्ता इन लिंक को फर्जी या नकारात्मक मानते थे, या क्या उन्होंने लिंक खोल कर देखी या उन्हें पसंद किया। इसके अलावा फेसबुक ने इन लिंक को साझा करने, पढ़ने और पसंद करने वाले लोगों की उम्र, स्थान, लिंग सम्बंधी जानकारी और उनके राजनैतिक रुझान सम्बंधी जानकारी भी शोधकर्ताओं को दी है।

न्यूयॉर्क विश्वविद्यालय में राजनीति और रूसी अध्ययन के प्रोफेसर जोशुआ टकर इसे एक बड़ा कदम मानते हैं। इस डैटा की मदद से वे अपने अध्ययन, राजनैतिक रूप से प्रेरित खबरें सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर किस तरह फैलती हैं, को आगे बढ़ाना चाहते हैं।

लेकिन लोगों की पहचान गोपनीय रखने सम्बंधी फेसबुक के समाधान ने शोधकर्ताओं के लिए थोड़ी मुश्किल भी पैदा कर दी है। दरअसल गोपनीयता बनाए रखने के लिए फेसबुक ने डैटा को थोड़ा तोड़-मरोड़ दिया है, जिससे शोधकर्ताओं को जूझना पड़ेगा।

अब यह शोधकर्ताओं पर है कि वे इस बिगड़े स्वरूप के डैटा को अर्थपूर्ण बनाने के लिए क्या तरीके अपनाते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.washingtonpost.com/wp-apps/imrs.php?src=https://arc-anglerfish-washpost-prod-washpost.s3.amazonaws.com/public/NVJ3VZJKQFGKFPBK4QPPOUA3VU.jpg&w=767

वैकल्पिक र्इंधन की ओर भारत के बढ़ते कदम – नरेन्द्र देवांगन

रसों से दुनिया जिन ऊर्जा स्रोतों को र्इंधन के रूप में उपयोग करती आ रही है, वे सीमित हैं। जहां एक ओर उनको बनने में लाखों साल लग जाते हैं, वहीं उनके अत्यधिक दोहन से समय के साथ-साथ वे चुक जाएंगे। ऐसे में आशा की एक नई किरण वैकल्पिक र्इंधन के रूप में सामने आई है। वैकल्पिक र्इंधन देश के कच्चे तेल के आयात बिल को कम करने में मदद कर सकते हैं। वर्तमान में भारत की अर्थव्यवस्था के मुख्य चालक डीज़ल और पेट्रोल हैं अर्थात भारत की अधिकतम ऊर्जा ज़रूरतें डीज़ल और पेट्रोल से पूरी होती हैं। अब स्थिति को बदलने की दिशा में काम हो रहा है।

वैश्विक स्तर पर वैकल्पिक र्इंधन के रूप में मेथेनॉल का उत्पादन और उपयोग बढ़ रहा है। इसके मुख्य कारण हैं कोयले और प्राकृतिक गैस जैसे सस्ते माल की कमी, तेल की कीमतों में वृद्धि, तेल आयात बिल में कमी करने की ख्वाहिश और प्रदूषण तथा जलवायु परिवर्तन जैसे पर्यावरणीय मुद्दे।

र्इंधन के रूप में और रासायनिक उद्योग में मध्यवर्ती पदार्थ रूप में मेथेनॉल का उपयोग ऑटोमोबाइल और उपभोक्ता क्षेत्रों में तेज़ी से बढ़ रहा है। मेथेनॉल अपने उच्च ऑक्टेन नंबर के कारण एक कुशल र्इंधन माना जाता है और यह गैसोलीन की तुलना में सल्फर ऑक्साइड्स (एसओएक्स), नाइट्रोजन ऑक्साइड्स (एनओक्स) और कणीय पदार्थ व गैसीय प्रदूषक तत्व कम उत्सर्जित करता है।

‘मेथेनॉल अर्थव्यवस्था’ का शाब्दिक अर्थ ऐसी अर्थव्यवस्था से है जो डीज़ल और पेट्रोल की बजाय मेथेनॉल के बढ़ते प्रयोग पर आधारित हो। मेथेनॉल अर्थव्यवस्था की अवधारणा को सक्रिय रूप से चीन, इटली, स्वीडन, इस्राइल, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, जापान और कई अन्य युरोपीय देशों द्वारा लागू किया गया है। वर्तमान में चीन में लगभग 9 प्रतिशत परिवहन र्इंधन के रूप में मेथेनॉल का इस्तेमाल किया जा रहा है। इसके अलावा इस्राइल, इटली ने पेट्रोल के साथ मेथेनॉल के 15 प्रतिशत मिश्रण की योजना बनाई है।

भारतीय र्इंधन में मेथेनॉल की शुरुआत अप्रत्यक्ष रूप से हुई थी, जब बॉयोडीज़ल, मेथेनॉल और गैर खाद्य पौधों से बने तेल जैसे रतनजोत तेल को 2009 में जैव र्इंधन हेतु राष्ट्रीय नीति में शामिल किया गया था। मेथेनॉल अर्थव्यवस्था बनाने के पीछे मुख्य उद्देश्य देश की अर्थव्यवस्था के विकास को टिकाऊ बनाना है ताकि वर्तमान पीढ़ी की आवश्यकताओं की पूर्ति करते हुए भावी पीढ़ियों की ज़रूरतों के साथ कोई समझौता न हो।

गैसोलीन में 15 प्रतिशत तक सम्मिश्रण के लिए मेथेनॉल अपेक्षाकृत एक आसान विकल्प है। यह वाहनों, स्वचालित यंत्रों या कृषि उपकरणों में कोई बदलाव किए बिना वायु गुणवत्ता सम्बंधी तत्काल लाभ प्रदान करता है। हालांकि दो अन्य अनिवार्यताओं, ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में कमी और र्इंधन आयात से विदेशी मुद्रा के बहिर्वाह में कमी के संदर्भ में भारत में अधिक मेथेनॉल क्षमता स्थापित करना आवश्यक होगा।

मोटे तौर पर देखा जाए तो मेथेनॉल र्इंधन हो या आजकल का मूल स्रोत हाइड्रोकार्बन हो इनमें वनस्पति जगत का मुख्य योगदान है। स्पष्ट है कि तमाम कार्बनिक पदार्थों के विश्लेषण से मेथेनॉल प्राप्त करना संभव है। जैव पदार्थ का बेहतरीन उपयोग कर 75 प्रतिशत तक मेथेनॉल प्राप्त किया जा सकता है। धरती की हरियाली से प्राप्त मेथेनॉल की उपयोगिता को भारतीय वैज्ञानिकों ने समझा और उसका उपयोग वाहनों को गति देने के लिए कर दिखाया। परीक्षणों में पाया गया है कि मेथेनॉल को 12 प्रतिशत की दर से मूल र्इंधन में मिलाकर वाहन चलाना संभव है।

वर्ष 1989 में नई दिल्ली स्थित इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी में वैज्ञानिकों ने पेट्रोल में मेथेनॉल मिलाकर एक स्कूटर पहले आईआईटी कैम्पस में बतौर परीक्षण और फिर दिल्ली की सड़कों पर चलाया। इस सफलता से प्रेरित होकर भारतीय पेट्रोलियम संस्थान के वैज्ञानिकों ने मेथेनॉल-पेट्रोल के मिश्रण से पहली खेप में 15 स्कूटर और बाद में कई स्कूटर चलाए। इससे प्रभावित होकर कई निजी कंपनियां सामने आर्इं। वड़ोदरा में तो इनकी प्रायोगिक तौर पर बिक्री भी की गई।

पेट्रोल के अलावा मेथेनॉल को डीज़ल में मिलाकर भी कुछ सफलता प्राप्त हुई है। डीज़ल-मेथेनॉल के इस रूप को ‘डीज़ोहॉल’ नाम दिया गया है। भारतीय पेट्रोलियम संस्थान द्वारा डीज़ल में 15 से 20 प्रतिशत तक मेथेनॉल मिलाकर बसें भी चलाई जा चुकी हैं। भारत सहित कई अन्य देशों में डीज़ोहॉल को लेकर व्यावसायिक परीक्षण भी किए जा रहे हैं। महत्वपूर्ण बात यह है कि डीज़ोहॉल अधिक ऊर्जा क्षमता वाला र्इंधन होने के अलावा प्रदूषण भी कम पैदा करता है। कहना न होगा कि यह आर्थिक रूप से बेहतर और पर्यावरण हितैषी भी है।

वर्तमान में भारत को प्रति वर्ष 2900  करोड़ लीटर पेट्रोल और 9000 करोड़ लीटर डीज़ल की ज़रूरत होती है। भारत दुनिया में छठवां सबसे ज़्यादा तेल उपभोक्ता देश है। 2030 तक यह खपत दुगनी हो जाएगी और भारत दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा तेल उपभोक्ता देश बन जाएगा।

इसके अलावा भारत दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जक देश है। दिल्ली जैसे शहरों में लगभग 30 प्रतिशत प्रदूषण वाहनों से होता है और सड़क पर कारों और अन्य वाहनों की बढ़ती संख्या प्रदूषण की इस स्थिति को आने वाले दिनों में और भी विकट बनाएगी। इसलिए बढ़ते आयात बिल और प्रदूषण की समस्या के समाधान के लिए भारत का नीति आयोग देश की अर्थव्यवस्था को मेथेनॉल अर्थव्यवस्था में बदलने पर विचार कर रहा है।

हमारे देश में मेथेनॉल अर्थव्यवस्था एक व्यावहारिक, आवश्यक और किफायती रूप लिए उभर रही है। गर्व की बात है कि हमने प्रति वर्ष दो मीट्रिक टन मेथेनॉल पैदा करने की क्षमता हासिल कर ली है। उम्मीद की जा रही है कि वर्ष 2030 तक भारत के र्इंधन बिल में 30 प्रतिशत तक की कटौती हो जाएगी, जो मेथेनॉल के दम पर ही संभव होगी। भारत द्वारा मूल र्इंधन में 15 प्रतिशत मेथेनॉल मिलाए जाने का कार्यक्रम बनाया जा रहा है। इसके लिए इस्राइल जैसे देशों से मदद लेने की भी संभावना है। नीति आयोग द्वारा मेथेनॉल अर्थव्यवस्था फंड भी निर्धारित करने की योजना है जिसमें मेथेनॉल आधारित परियोजनाओं के लिए चार-पांच हज़ार करोड़ रुपए का प्रावधान है।

देश में बढ़ते प्रदूषण और कच्चे तेल के बढ़ते आयात बिल को देखते हुए भारत के लिए मेथेनॉल का उपयोग न सिर्फ ज़रूरी है बल्कि पर्यावरण की मांग भी है। यदि मेथेनॉल का उपयोग भारत में व्यापक पैमाने पर शुरू कर दिया जाता है तो भारत में होने वाला विकास टिकाऊ विकास हो जाएगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://microgridnews.com/wp-content/uploads/2019/03/KamuthiSolarPark_800.jpg

बिल्ली को मिली कृत्रिम पैरों की सौगात

हाल ही में रूस के नोवोसिबर्स्क चिकित्सालय के पशु चिकित्सकों ने अपने चारों पैर गंवा चुकी एक बिल्ली में 3-डी प्रिंटिंग की मदद से बनाए गए कृत्रिम पैर सफलतापूर्वक प्रत्यारोपित कर दिए हैं। इनकी मदद से वह चल-फिर सकती है, दौड़ सकती है और यहां तक कि सीढ़ियां भी चढ़ सकती है।

भूरे बालों वाली डाइमका नामक यह बिल्ली दिसंबर 2018 में साइबेरिया के नोवाकुज़नेत्स्क नाम की जगह पर एक मुसाफिर को बर्फ में दबी हुई मिली थी। उसने उसे वहां से निकालकर नोवोसिबर्स्क चिकित्सालय पहुंचा दिया था। डाइमका तुषाराघात की शिकार हुई थी और अपने चारों पैर, कान और पूंछ गंवा चुकी थी।

तुषाराघात यानी फ्रॉस्ट बाइट तब होता है जब अत्यंत कम तापमान त्वचा व अंदर के ऊतकों को जमा देता है। खासकर नाक, उंगलियां और पंजे ज़्यादा प्रभावित होते हैं। पैरों की हालात देखकर पशु चिकित्सक सर्जेई गोर्शकोव ने उसे कृत्रिम पैर लगाना तय किया। उन्होंने टोम्स पॉलिटेक्निक युनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं के साथ मिलकर डाइमका के लिए कृत्रिम पैर तैयार किए।

इसके लिए उन्होंने कंप्यूटेड टोमोग्राफी (सीटी) एक्स-रे स्कैन की मदद से डाइमका के पैरों की माप लेकर टाइटेनियम रॉड की त्रि-आयामी प्रिंटिंग करके कृत्रिम पैर बनाए। प्रत्यारोपण के बाद डाइमका में संक्रमण और रिजेक्शन की संभावना कम करने के लिए टाइटेनियम से बने पैरों पर कैल्शियम फॉस्फेट की परत चढ़ाई गई। जुलाई 2019 में डाइमका को सामने के दो और उसके बाद पीछे के दो कृत्रिम पैर प्रत्यारोपित किए गए। प्रत्यारोपण के सात महीने बाद जारी किए गए वीडियो में डाइमका अंगड़ाई लेती, चलती और कंबल के कोने से खेलती दिखाई दी।

गोर्शकोव ने दी मास्को टाइम्स को बताया कि साइबेरिया के हाड़-मांस गला देने वाले ठंड के मौसम के दौरान उनके चिकित्सालय में हर साल ऐसी पांच से सात बिल्लियों का उपचार किया जाता है जो तुषाराघात के कारण अपने पैर, नाक, कान और पूंछ गंवा देती हैं।  

डाइमका अब दुनिया की दूसरी बिल्ली है जिसे धातु से बने चारों पैर सफलतापूर्वक लगाए जा चुके हैं। इसके पहले साल 2016 में भी इसी प्रक्रिया से एक नर बिल्ली को चारों पैर लगाए गए थे। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://cdn.mos.cms.futurecdn.net/7cS2DrDAMFRQSMpMyfFDvW.jpg

चांद को छूने की नई होड़ – प्रदीप

ज से तकरीबन पचास साल पहले 21 जुलाई 1969 को नील आर्मस्ट्रांग ने जब चंद्रमा पर कदम रखा था, तब उन्होंने कहा था कि “मनुष्य का यह छोटा-सा कदम, मानवता के लिए एक बड़ी छलांग है।” अपोलो मिशन के तहत अमेरिका ने 1969 से 1972 के बीच चांद की ओर कुल नौ अंतरिक्ष यान भेजे और छह बार इंसान को चांद पर उतारा।

अपोलो मिशन खत्म होने के तीन दशक बाद तक चंद्र अभियानों के प्रति एक बेरुखी-सी दिखाई दी थी। मगर चांद की चाहत दोबारा बढ़ रही है। बीता साल चंद्र अभियानों के लिहाज़ से बेहद खास रहा। 16 जुलाई, 2019 को इंसान के चांद पर पहुंचने की पचासवीं वर्षगांठ थी। जनवरी 2019 में एक चीनी अंतरिक्ष यान चांग-4 ने एक छोटे से रोबोटिक रोवर के साथ चांद की सुदूर सतह पर उतरकर इतिहास रचा।

भारत ने अपने महत्वाकांक्षी चंद्र अभियान चंद्रयान-2 को चांद पर भेजा हालांकि इसको उतनी सफलता नहीं मिली जितनी अपेक्षित थी। बीते साल इस्राइल ने भी एक छोटा रोबोटिक लैंडर चंद्रमा की ओर भेजा था, लेकिन वह दुर्घटनाग्रस्त हो गया। अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा ने भी साल 2023-24 तक चांद पर इंसानी मिशन भेजने के प्रयास तेज़ करने के संकेत दिए हैं।

अंतरिक्ष में हमारा सबसे नज़दीकी पड़ोसी चांद प्राचीन काल से ही कौतुहल का केंद्र रहा है। पिछली सदी के उत्तरार्ध से पहले हम चंद्रमा सम्बंधी अपनी जिज्ञासा को दूरबीन और उसके ज़रिए ली गई तस्वीरों से शांत करने पर मजबूर थे। पहली बार साल 1959 में रूसी (तत्कालीन सोवियत संघ) अंतरिक्ष यान लूना-1 ने चंद्रमा के काफी नज़दीक पहुंचने में कामयाबी हासिल की थी। इसके बाद रूसी यान लूना-2 पहली बार चंद्रमा की सतह पर उतरा। सोवियत संघ ने 1959 से लेकर 1966 तक एक के बाद एक कई मानवरहित अंतरिक्ष यान चंद्रमा की धरती पर उतारे।

द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद अमेरिका और सोवियत संघ के बीच शीतयुद्ध जब अपने उत्कर्ष पर था, तभी 12 अप्रैल 1961 को सोवियत संघ ने यूरी गागरिन को अंतरिक्ष में पहुंचाकर अमेरिका से बाज़ी मार ली। इससे अमेरिकी राष्ट्र के अहं तथा गौरव पर कहीं न कहीं चोट पहुंची थी। उसके बाद अमेरिका ने अंतरिक्ष अन्वेषण में अपनी श्रेष्ठता को साबित करने के लिए आर्थिक और वैज्ञानिक संसाधन झोंक दिए। अंततोगत्वा नील आर्मस्ट्रांग चंद्रमा की सतह पर कदम रखने वाले पहले इंसान के रूप में इतिहास में दर्ज हुए।

अपोलो मिशन के ज़रिए दो दर्जन इंसानों को चंद्रमा तक पहुंचाया गया। शीतयुद्ध की राजनयिक, सैन्य विवशताओं और मिशन के बेहद खर्चीला होने के कारण अपोलो-17 के बाद इसे समाप्त कर दिया गया। तब से लेकर आधी सदी तक अंतरिक्ष कार्यक्रमों को मंज़ूरी देने वाले नियंताओं की आंखों से चांद मानो ओझल हो गया।

मगर आज चांद पर पहुंचने के लिए जिस तरह से विभिन्न देशों में होड़ लगती हुई दिखाई दे रही है, यही कहा जा सकता है कि चांद फिर निकल रहा है! इसरो को चंद्रयान-2 मिशन की आंशिक विफलता ने उन्नत संस्करण चंद्रयान-3 के लिए नए जोश के साथ प्रेरित किया है, चीन इस मामले में वैश्विक ताकत बनने को इच्छुक है, वहीं 2024 तक नासा चंद्रमा पर अपने अंतरिक्ष यात्री को उतारने की तैयारी कर रहा है। रूस 2030 तक चांद पर अपने अंतरिक्ष यात्री को उतारने की तैयारी में है।

चांद के प्रति यह आकर्षण सिर्फ राष्ट्रों तक सीमित नहीं है। कई निजी कंपनियां चांद पर उपकरण पहुंचाने और प्रयोगों को गति देने के उद्देश्य से नासा का ठेका हासिल करने की कतार में खड़ी हैं। अमेज़न के संस्थापक जेफ बेजोस की रॉकेट कंपनी ब्लू ओरिजिन एक विशाल लैंडर विकसित करने के काम में लगी है, जो अंतरिक्ष यात्रियों और माल को चांद की सतह तक ले जा सके। कंपनी की योजना यह लैंडर नासा को बेचने की है। तकरीबन दो दशकों से अंतरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में काम कर रही कई बहुराष्ट्रीय कंपनियां चांद पर पर्यटन करवाने से लेकर कॉलोनी बनाने तक की महत्वाकांक्षा दिखा चुकी हैं। धरती से चांद की दूरी सिर्फ पौने चार लाख किलोमीटर के करीब है जो किसी भी अन्य ग्रह की तुलना में बहुत कम है। इस दूरी को सिर्फ तीन दिन में तय किया जा सकता है। इसके अलावा, चांद से धरती पर रेडियो संवाद करने में महज एक-दो सेकंड का फर्क आता है। इसीलिए भी स्पेस कंपनियां अंतरिक्ष में पर्यटन की योजनाओं पर धड़ल्ले से काम कर रही हैं।

ध्यान देने की बात यह है कि बीते पचास सालों में किसी भी देश ने चांद पर पहुंचने के लिए कोई बड़ा सफल-असफल प्रयास नहीं किया, तो फिर अचानक ऐसा क्या हुआ कि हम इंसानों को वहां पर जाने की दोबारा ज़रूरत महसूस होने लगी है। इसके लिए अलग-अलग देशों के पास अपनी-अपनी वजहें हैं। मसलन, भारत जैसे देशों की बात करें तो उनके लिए चंद्र अभियान खुद को तकनीकी तौर पर उत्कृष्ट दिखाने का सुनहरा मौका होगा। दूसरी तरफ चीन अपने ग्रह के बाहर खुद को ताकतवर दिखाकर विश्व शक्ति बनने की दिशा में और आगे बढ़ जाना चाहता है। इनसे अलग अमेरिका के लिए चांद पर जाना, मंगल पर पहुंचने से पहले आने वाला एक अहम पड़ाव मात्र है।

चांद के प्रति दुनिया के बढ़ते आकर्षण का प्रमुख कारण पानी भी है। दरअसल हालिया अध्ययनों में चांद के ध्रुवीय गड्ढों के नीचे बर्फ होने की संभावना जताई गई है। यह भविष्य में चांद पर पहुंचने वाले अंतरिक्ष यात्रियों के लिए बेशकीमती पेयजल का स्रोत तो हो ही सकता है, कृत्रिम प्रकाश संश्लेषण के जरिए पानी को हाइड्रोजन और ऑक्सीजन में तोड़ा भी जा सकता है। जहां ऑक्सीजन सांस लेने के काम आएगी, वहीं हाइड्रोजन का उपयोग रॉकेट र्इंधन के रूप में किया जा सकता है। इस तरह चांद पर एक रिफ्यूलिंग स्टेशन भविष्य में अंतरिक्ष यानों के लिए पड़ाव का काम कर सकता है, जहां रुककर अपने टैंक भरकर वे आगे जा सकते हैं।

विभिन्न देशों की नज़र चंद्रमा के कई दुर्लभ खनिजों, जैसे सोने, चांदी, टाइटेनियम के अलावा उससे टकराने वाले क्षुद्र ग्रहों के मलबों की ओर तो है ही, मगर वैज्ञानिकों की विशेष रुचि चंद्रमा के हीलियम-3 के भंडार में है। हीलियम-3 हमारी ऊर्जा ज़रूरतों को पूरा करने के साथ-साथ खरबों डॉलर भी दिला सकता है। हीलियम-3 नाभिकीय रिएक्टरों में इस्तेमाल किया जा सकने वाला एक बेहतरीन और साफ-सुथरा र्इंधन है।

बहरहाल, आगामी दशकों में चांद इंसानी गतिविधियों का प्रमुख केंद्र बनेगा क्योंकि यहां होटल से लेकर मानव बस्तियां तक बसाने की योजनाओं पर काम चल रहा है। चंद्रमा की दुर्लभ खनिज संपदा ने इसे सबका चहेता बना दिया है। चांद तक पहुंचने की इस रेस में भारत, जापान, इस्राइल, उत्तर और दक्षिण कोरिया जैसे देश भी शामिल हैं।

कुल मिलाकर, आने वाले वक्त में जल्दी ही चांद पर पहुंचने के लिए भगदड़ मचती दिख सकती है। देखना है, चांद को छू लेने की यह नई होड़ क्या गुल खिलाती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.teslarati.com/wp-content/uploads/2019/02/BFR-2018-Moon-burn-render-SpaceX-crop-2.jpg

नई सफलताओं की ओर बढ़ा भारतीय विज्ञान – चक्रेश जैन

विदा हो चुके वर्ष 2019 में भारतीय विज्ञान लगातार आगे बढ़ता रहा। हमारे देश के वैज्ञानिकों ने अंतरिक्ष विज्ञान से लेकर जीनोम अनुक्रम के अनुसंधान में बड़ी सफलताएं हासिल कीं। गुज़रे साल में भारत की अंतरिक्ष विज्ञान की उपलब्धियों में नए और ऐतिहासिक अध्याय जुड़ते रहे। वर्ष के उत्तरार्ध में 22 जुलाई को चंद्रयान-2 का सफल प्रक्षेपण किया गया। आखरी क्षणों की छोटी-सी विफलता को छोड़ दें तो भारत ने यह साबित कर दिया कि वह चंद्रमा के उस हिस्से पर अपना यान पहुंचा सकता है, जिसे दक्षिणी ध्रुव कहा जाता है।

चंद्रयान-2 मिशन में आठ महिला वैज्ञानिकों ने सहभागिता की। वनिता मुथैया मिशन की प्रोजेक्ट डायरेक्टर थीं, जो काफी समय से उपग्रहों पर शोध करती रही हैं। मुथैया चंद्रयान-1 मिशन में भी योगदान कर चुकी हैं। रितु करिधान मिशन डायरेक्टर थीं, जिन्हें ‘रॉकेट वुमन ऑफ इंडिया’ कहा जाता है।

दरअसल, चंद्रयान-2 एक विशेष उपग्रह था, जिसे जीएसएलवी मार्क-3 प्रक्षेपण यान के ज़रिए अंतरिक्ष में सफलतापूर्वक भेजा गया था। चंद्रयान-2 के तीन महत्वपूर्ण घटक हैं – ऑर्बाइटर, विक्रम लैंडर और प्रज्ञान रोवर। लैंडर का नामकरण भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम के संस्थापक विक्रम साराभाई के नाम पर किया गया है। चंद्रयान-2 का वज़न लगभग चार हज़ार किलोग्राम था। इसरो के अनुसार चंद्रयान-2 मिशन पर 978 करोड़ रुपए खर्च हुए। इससे पहले अक्टूबर 2008 में चंद्रयान-1 भेजा गया था। चंद्रयान-1 की सबसे बड़ी वैज्ञानिक उपलब्धि चंद्रमा पर पानी की खोज थी। यह भारत का पहला इंटरप्लेनेटरी मिशन था, जिसने मंगल और चंद्रयान-2 का मार्ग प्रशस्त किया।

इस वर्ष 25 जनवरी को भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) ने पीएसएलवीसी-44 के ज़रिए इमेजिंग उपग्रह माइक्रोसैट-आर और कलामसैट को पृथ्वी की कक्षा में सफलतापूर्वक विदा किया। कलामसैट उपग्रह का निर्माण विद्यार्थियों ने किया था। यह विश्व का सबसे कम वज़न का और सबसे छोटा उपग्रह था। कलामसैट का जीवन काल भी बहुत छोटा था। कलामसैट अपने साथ दो बॉयोलाजिकल पेलोड ले गया, जिसमें तुलसी और सूरजमुखी के बीज थे। 1 फरवरी को पीएसएलवी-सी-45 द्वारा एमीसैट और अन्य 28 उपग्रहों का प्रक्षेपण किया गया। 6 फरवरी को संचार उपग्रह जीसैट-31 को फ्रेंच गुयाना से सफलतापूर्वक विदा किया गया। यह भारत का 40वां संचार उपग्रह है। जीसैट-31 का वजन 40 किलोग्राम है। यह 15 वर्षों तक अंतरिक्ष में रहेगा। इस उपग्रह से शेेयर बाजार, ई-प्रशासन और दूर संचार से जुड़ी अन्य सेवाओं के विस्तार में मदद मिल रही है।

27 मार्च को भारत ने उपग्रहरोधी मिसाइल क्षमता का सफलतापूर्वक परीक्षण किया। इसके साथ ही हमारा देश अमेरिका, रूस और चीन की विशिष्ट बिरादरी में सम्मिलित हो गया। एक अप्रैल को पीएसएलवी-सी-45 प्रक्षेपण यान से एमिसैट सहित 29 उपग्रहों को एक साथ अंतरिक्ष में प्रक्षेपित करके नया इतिहास रचा गया। एमिसैट का निर्माण इसरो और भारतीय प्रतिरक्षा अनुसंधान संगठन (डीआरडीओ) ने किया है। एमिसैट सीमा पर नज़र रखने में मददगार होगा। मई में इसरो ने पृथ्वी पर्यवेक्षण उपग्रह रीसैट-2 बी का प्रक्षेपण किया। रीसैट-2 बी वास्तव में राडार इमेजिंग उपग्रह है। इससे प्राप्त आंकड़ों का उपयोग कृषि, वानिकी, आपदा प्रबंधन और मौसम की नवीनतम जानकारियां प्राप्त करने में हो रहा है।

गुज़रे साल इसरो ने अंतरिक्ष में उपग्रहों को भेजने का सिलसिला जारी रखते हुए 27 नवम्बर को कार्टोसैट-3 और अमेरिका के 13 नैनौ उपग्रहों का प्रक्षेपण किया। कार्टोसैट-3 उन्नत और भू-अवलोकन उपग्रह है, जो अंतरिक्ष से पृथ्वी पर पैनी निगाह रख रहा है। 11 दिसंबर को पीएसएलवी-सी-48 की पीठ पर सवार होकर रीसैट-2बी-1अंतरिक्ष में पहुंचा। यह पीएसएलवी का 50वां सफल प्रक्षेपण था। रीसैट-2बी-1का जीवनकाल पांच वर्ष है। यह उपग्रह निगरानी की भूमिका निभाएगा। इसरो ने शोध और विकास के लिए बजट में न्यू इंडिया स्पेस लिमिटेड बनाने का प्रस्ताव भी रखा। नेशनल रिसर्च फाउंडेशन की स्थापना का प्रस्ताव भी रखा गया।

यह वही वर्ष है, जब नई दिल्ली स्थित इंस्टीट्यूट ऑफ जीनोमिक्स एंड इंटीग्रेटिव बायोलॉजी के वैज्ञानिकों ने जीन सम्पादन की तकनीक क्रिस्पर कॉस-9 का एक नया स्वरूप विकसित किया। अध्ययनकर्ताओं के अनुसार अब जीन सम्पादन अत्यधिक सटीक तरीके से किया जा सकेगा। इस सफलता से भविष्य में सिकल सेल विकार का प्रभावी तरीके से इलाज किया जा सकेगा।

इसी साल वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद (सीएसआईआर) की आठ प्रयोगशालाओं के संघ ने दीपावली पर आतिशबाज़ी से होने वाले वायु प्रदूषण को घटाने के लिए इको फ्रेंडली पटाखों – ग्रीन क्रैकर्स – का निर्माण किया। अनुमान है कि इको फ्रेंडली पटाखों से तीस प्रतिशत तक पार्टिक्युलेट उत्सर्जन कम करने में मदद मिली।

वर्ष 2019 में अक्टूबर में आरंभ की गई एक नई और महत्वाकांक्षी परियोजना इंडिजेन के अंतर्गत हैदराबाद स्थित सेंटर फॉर सेल्यूलर एंड मॉलीक्यूलर बायोलॉजी और दिल्ली स्थित इंस्टीट्यूट ऑफ जीनोमिक्स एंड इंटीग्रेटिव बायोलॉजी के वैज्ञानिकों ने देश के विभिन्न समुदायों के लोगों का सम्पूर्ण जीनोम अनुक्रम तैयार किया। इस परियोजना से प्राप्त आंकड़ों का उपयोग आनुवंशिक बीमारियों के इलाज, नई औषधियों के विकास और विवाह के पहले आनुवंशिकी परीक्षणों में किया जा सकेगा।

इसी वर्ष कोशिकीय एवं आणविक जीव विज्ञान संस्थान (सीसीएमबी), हैदराबाद के वैज्ञानिकों ने भारतीय पुरुषों में बांझपन के आनुवंशिक कारणों का पता लगाया। यह शोध भारतीय पुरुषों में बांझपन की चिकित्सा में सहायक हो सकता है।

वर्ष 2019 में एक भारतीय इंजीनियर ने थर्टी मीटर टेलीस्कोप (टीएमटी) के लिए सॉफ्टवेयर विकसित किया। यह वि·ा का सबसे बड़ा भू-आधारित टेलीस्कोप है। बीते साल में टाटा मूलभूत अनुसंधान संस्थान, मुम्बई के डॉ.सुनील गुप्ता और उनकी शोध टीम ने गर्जन मेघों के मापन के लिए म्यूऑनों के उपयोग की विधि का आविष्कार किया।

विदा हो चुके वर्ष में भारत सरकार के विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग ने कॉरपोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी (सीएसआर) की तर्ज पर साइंटिफिक सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी (एसएसआर) का ड्रॉफ्ट जारी किया। इसका उद्देश्य वैज्ञानिकों को सामाजिक ज़िम्मेदाारी में सहभागी बनाना है। बीते साल में संसद द्वारा डीएनए प्रौद्योगिकी नियमन विधेयक को मंज़ूरी दी गई। इस विधेयक का उद्देश्य लापता लोगों, अपराधियों और अज्ञात मृतकों के लिए डीएनए प्रौद्योगिकी का उपयोग करना है।

नवम्बर में कोलकाता में पांचवां भारतीय अंतर्राष्ट्रीय विज्ञान महोत्सव आयोजित किया गया। चार दिनों तक चले महोत्सव में वैज्ञानिकों, अनुसंधानकर्ताओं, विज्ञान संचारकों और स्कूली बच्चों ने उत्साहपूर्वक भाग लिया। महोत्सव में समाज के हर व्यक्ति के लिए कुछ-न-कुछ था। महोत्सव में विज्ञान साहित्य समारोह और विज्ञान फिल्में सम्मिलित थे। स्कूली बच्चों के लिए ‘छात्र विज्ञान ग्राम’ बनाया गया था।

इसी वर्ष 8 मई को मुम्बई स्थित नेहरू साइंस सेंटर में ‘विज्ञान समागम’ प्रदर्शनी का शुभारंभ हुआ। देश में ऐसा पहली बार हुआ है, जब विश्व की वृहत विज्ञान परियोजनाओं को विज्ञान समागम में एक साथ प्रदर्शित किया गया है। विज्ञान समागम प्रदर्शनी वैश्विक परियोजनाओं की वैज्ञानिक जानकारी आम लोगों तक पहुंचाने के लिए विज्ञान संचार के एक सशक्त मंच के रूप में सामने आई है। प्रदर्शनी में विश्व स्तर की विज्ञान परियोजनाओं में भारत के योगदान को विशेष रूप से रेखांकित किया गया है। वृहत विज्ञान प्रदर्शनी ग्यारह महीने की यात्रा में मुंबई, बैंगलुरु और कोलकाता होते हुए दिल्ली में समाप्त होगी।

वर्ष 2019 में विद्यार्थियों की प्रतिभा को तराशने के लिए प्रधानमंत्री नवाचारी शिक्षण कार्यक्रम ‘ध्रुव’ शुरू किया गया। इसरो ने विद्यार्थियों की अंतरिक्ष अनुसंधान में दिलचस्पी बढ़ाने के लिए ‘संवाद’ कार्यक्रम आरंभ किया।

इसी वर्ष भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम के संस्थापक विक्रम साराभाई का जन्म शताब्दी वर्ष मनाया गया। अंतर्राष्ट्रीय एस्ट्रोनॉमिकल यूनियन ने चंद्रमा के एक क्रेटर का नाम उनकी स्मृति में रखकर उन्हें सम्मानित किया था। इसी साल विख्यात प्रकृतिविद् और बांग्ला भाषा में लोकप्रिय विज्ञान लेखन से जुड़े रहे गोपालचंद्र भट्टाचार्य की 125 वीं जयंती विचार गोष्ठी और व्याख्यान आयोजनों के साथ मनाई गई।

प्रोफेसर गगन दीप कांग पहली भारतीय महिला वैज्ञानिक हैं, जिन्हें इस वर्ष फेलो ऑफ रॉयल सोसायटी चुना गया है। 360 वर्षों बाद पहली महिला वैज्ञानिक को यह सम्मान मिला है। उन्होंने रोटा वायरस पर विशेष अनुसंधान किया है। भारत में जन स्वास्थ्य अनुसंधान में उनका विशेष योगदान है। प्रोफेसर कांग वर्तमान में फरीदाबाद स्थित ट्रांसलेशनल हेल्थ साइंस एंड टेक्नॉलॉजी इंस्टीट्यूट में कार्यकारी निदेशक हैं।

वर्ष 2019 के शांतिस्वरूप भटनागर पुरस्कार के लिए विभिन्न विषयों से जुड़े  12 वैज्ञानिकों का चयन किया गया। इसके अलावा, इसी वर्ष इसरो के वैज्ञानिक नांबी नारायण को पद्मभूषण से सम्मानित किया गया।

वर्ष 2019 में शोध अभिव्यक्ति हेतु लेखन कौशल सुदृढ़ीकरण (Augmenting Writing Skills for Articulating Research – अवसर) पुरस्कार से चार युवा वैज्ञानिकों को पुरस्कृत किया गया। पीएच. डी. वर्ग में सर्वश्रेष्ठ शोधपत्र के लिए आशीष श्रीवास्तव को प्रथम पुरस्कार दिया गया। पोस्ट डॉक्टरेट वर्ग में डॉ. पालोमी संघवी को प्रथम पुरस्कार प्रदान किया गया। इस पुरस्कार की शुरुआत 2018 में विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग ने की थी, जिसका उद्देश्य विज्ञान को आम लोगों के बीच लोकप्रिय बनाना है।

17 दिसंबर को इंटरनेशनल एस्ट्रोनॉमिकल यूनियन ने सेक्सटेंस नक्षत्र के एक तारे को भारतीय महिला वैज्ञानिक बिभा चौधरी के नाम पर ‘बिभा’ और उसके एक ग्रह को ‘संतमस’ नाम दिया। संतमस संस्कृत शब्द है जिसका अर्थ है बादली। पहले इस तारे का नाम एचडी 86081 और ग्रह का नाम 86081-बी रखा गया था।

इस वर्ष 3 दिसंबर को भारत में पोषण अनुसंधान के जनक डॉ. सी.गोपालन का निधन हो गया। इसी साल 14 नवंबर को भारतीय गणितज्ञ डॉ. वशिष्ठ नारायण सिंह नहीं रहे। उन्होंने आइंस्टाइन के सापेक्षता सिद्धांत को चुनौती दी थी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://i.gadgets360cdn.com/large/isro_1577172149885.jpg

ब्लैक होल की पहली तस्वीर और कार्बन कुनबे का विस्तार – चक्रेश जैन

र्ष 2019 विज्ञान जगत के इतिहास में एक ऐसे वर्ष के रूप में याद किया जाएगा, जब वैज्ञानिकों ने पहली बार ब्लैक होल की तस्वीर जारी की। यह वही वर्ष था, जब वैज्ञानिकों ने प्रयोगशाला में कार्बन के एक और नए रूप का निर्माण कर लिया। विदा हुए साल में गूगल ने क्वांटम प्रोसेसर में श्रेष्ठता हासिल की। अनुसंधानकर्ताओं ने प्रयोगशाला में आठ रासायनिक अक्षरों वाले डीएनए अणु बनाने की घोषणा की।

इस वर्ष 10 अप्रैल को खगोल वैज्ञानिकों ने ब्लैक होल की पहली तस्वीर जारी की। यह तस्वीर विज्ञान की परिभाषाओं में की गई कल्पना से पूरी तरह मेल खाती है। भौतिकीविद अल्बर्ट आइंस्टीन ने पहली बार 1916 में सापेक्षता के सिद्धांत के साथ ब्लैक होल की भविष्यवाणी की थी। ब्लैक होल शब्द 1967 में अमेरिकी खगोलविद जॉन व्हीलर ने गढ़ा था। 1971 में पहली बार एक ब्लैक होल खोजा गया था।

इस घटना को विज्ञान जगत की बहुत बड़ी उपलब्धि कहा जा सकता है। ब्लैक होल का चित्र इवेंट होराइज़न दूरबीन से लिया गया, जो हवाई, एरिज़ोना, स्पेन, मेक्सिको, चिली और दक्षिण ध्रुव में लगी है। वस्तुत: इवेंट होराइज़न दूरबीन एक संघ है। इस परियोजना के साथ दो दशकों से लगभग 200 वैज्ञानिक जुड़े हुए हैं। इसी टीम की सदस्य मैसाचूसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी की 29 वर्षीय कैरी बोमेन ने एक कम्प्यूटर एल्गोरिदम से ब्लैक होल की पहली तस्वीर बनाने में सहायता की। विज्ञान जगत की अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका साइंस ने वर्ष 2019 की दस प्रमुख खोजों में ब्लैक होल सम्बंधी अनुसंधान को प्रथम स्थान पर रखा है।

उक्त ब्लैक होल हमसे पांच करोड़ वर्ष दूर एम-87 नामक निहारिका में स्थित है। ब्लैक होल हमेशा ही भौतिक वैज्ञानिकों के लिए उत्सुकता के विषय रहे हैं। ब्लैक होल का गुरूत्वाकर्षण अत्यधिक शक्तिशाली होता है जिसके खिंचाव से कुछ भी नहीं बच सकता; प्रकाश भी यहां प्रवेश करने के बाद बाहर नहीं निकल पाता है। ब्लैक होल में वस्तुएं गिर सकती हैं, लेकिन वापस नहीं लौट सकतीं।

इसी वर्ष 21 फरवरी को अनुसंधानकर्ताओं ने प्रयोगशाला में बनाए गए नए डीएनए अणु की घोषणा की। डीएनए का पूरा नाम डीऑक्सीराइबो न्यूक्लिक एसिड है। नए संश्लेषित डीएनए में आठ अक्षर हैं, जबकि प्रकृति में विद्यमान डीएनए अणु में चार अक्षर ही होते हैं। यहां अक्षर से तात्पर्य क्षारों से है। संश्लेषित डीएनए को ‘हैचीमोजी’ नाम दिया गया है। ‘हैचीमोजी’ जापानी भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ है आठ अक्षर। एक-कोशिकीय अमीबा से लेकर बहुकोशिकीय मनुष्य तक में डीएनए होता है। डीएनए की दोहरी कुंडलीनुमा संरचना का खुलासा 1953 में जेम्स वाट्सन और फ्रांसिक क्रिक ने किया था। यह वही डीएनए अणु है, जिसने जीवन के रहस्यों को सुलझाने और आनुवंशिक बीमारियों पर विजय पाने में अहम योगदान दिया है। मातृत्व-पितृत्व का विवाद हो या अपराधों की जांच, डीएनए की अहम भूमिका रही है।

सुपरकम्प्यूटिंग के क्षेत्र में वर्ष 2019 यादगार रहेगा। इसी वर्ष गूगल ने 54 क्यूबिट साइकैमोर प्रोसेसर की घोषणा की जो एक क्वांटम प्रोसेसर है। गूगल ने दावा किया है कि साइकैमोर वह कार्य 200 सेकंड में कर देता है, जिसे पूरा करने में सुपर कम्प्यूटर दस हज़ार वर्ष लेगा। इस उपलब्धि के आधार पर कहा जा सकता है कि भविष्य क्वांटम कम्यूटरों का होगा।

वर्ष 2019 में रासायनिक तत्वों की प्रथम आवर्त सारणी के प्रकाशन की 150वीं वर्षगांठ मनाई गई। युनेस्को ने 2019 को अंतर्राष्ट्रीय आवर्त सारणी वर्ष मनाने की घोषणा की थी, जिसका उद्देश्य आवर्त सारणी के बारे में जागरूकता का विस्तार करना था। विख्यात रूसी रसायनविद दिमित्री मेंडेलीव ने सन 1869 में प्रथम आवर्त सारणी प्रकाशित की थी। आवर्त सारणी की रचना में विशेष योगदान के लिए मेंडेलीव को अनेक सम्मान मिले थे। सारणी के 101वें तत्व का नाम मेंडेलेवियम रखा गया। इस तत्व की खोज 1955 में हुई थी। इसी वर्ष जुलाई में इंटरनेशनल यूनियन ऑफ प्योर एंड एप्लाइड केमिस्ट्री (IUPAC) का शताब्दी वर्ष मनाया गया। इस संस्था की स्थापना 28 जुलाई 1919 में उद्योग जगत के प्रतिनिधियों और रसायन विज्ञानियों ने मिलकर की थी। तत्वों के नामकरण में युनियन का अहम योगदान रहा है।

विज्ञान की अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका नेचर के अनुसार गुज़िश्ता साल रसायन वैज्ञानिकों ने कार्बन के एक और नए रूप सी-18 सायक्लोकार्बन का सृजन किया। इसके साथ ही कार्बन कुनबे में एक और नया सदस्य शामिल हो गया। इस अणु में 18 कार्बन परमाणु हैं, जो आपस में जुड़कर अंगूठी जैसी आकृति बनाते हैं। शोधकर्ताओं के अनुसार इसकी संरचना से संकेत मिलता है कि यह एक अर्धचालक की तरह व्यवहार करेगा। लिहाज़ा, कहा जा सकता है कि आगे चलकर इलेक्ट्रॉनिकी में इसके उपयोग की संभावनाएं हैं।

गुज़रे साल भी ब्रह्मांड के नए-नए रहस्यों के उद्घाटन का सिलसिला जारी रहा। इस वर्ष शनि बृहस्पति को पीछे छोड़कर सबसे अधिक चंद्रमा वाला ग्रह बन गया। 20 नए चंद्रमाओं की खोज के बाद शनि के चंद्रमाओं की संख्या 82 हो गई। जबकि बृहस्पति के 79 चंद्रमा हैं।

गत वर्ष बृहस्पति के चंद्रमा यूरोपा पर जल वाष्प होने के प्रमाण मिले। विज्ञान पत्रिका नेचर में प्रकाशित रिपोर्ट में बताया गया है कि यूरोपा की मोटी बर्फ की चादर के नीचे तरल पानी का सागर लहरा रहा है। अनुसंधानकर्ताओं के अनुसार इससे यह संकेत मिलता है कि यहां पर जीवन के सभी आवश्यक तत्व विद्यमान हैं।

कनाडा स्थित मांट्रियल विश्वविद्यालय के प्रोफेसर बियर्न बेनेक के नेतृत्व में वैज्ञानिकों ने हबल दूरबीन से हमारे सौर मंडल के बाहर एक ऐसे ग्रह (के-टू-18 बी) का पता लगाया है, जहां पर जीवन की प्रबल संभावनाएं हैं। यह पृथ्वी से दो गुना बड़ा है। यहां न केवल पानी है, बल्कि तापमान भी अनुकूल है।

साल की शुरुआत में चीन ने रोबोट अंतरिक्ष यान चांग-4 को चंद्रमा के अनदेखे हिस्से पर सफलतापूर्वक उतारा और ऐसा करने वाला दुनिया का पहला देश बन गया। चांग-4 जीवन सम्बंधी महत्वपूर्ण प्रयोगों के लिए अपने साथ रेशम के कीड़े और कपास के बीज भी ले गया था।

अप्रैल में पहली बार नेपाल का अपना उपग्रह नेपालीसैट-1 सफलतापूर्वक लांच किया गया। दो करोड़ रुपए की लागत से बने उपग्रह का वज़न 1.3 किलोग्राम है। इस उपग्रह की मदद से नेपाल की भौगोलिक तस्वीरें जुटाई जा रही हैं। दिसंबर के उत्तरार्ध में युरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी ने बाह्य ग्रह खोजी उपग्रह केऑप्स सफलतापूर्वक भेजा। इसी साल अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा द्वारा भेजा गया अपार्च्युनिटी रोवर पूरी तरह निष्क्रिय हो गया। अपाच्र्युनिटी ने 14 वर्षों के दौरान लाखों चित्र भेजे। इन चित्रों ने मंगल ग्रह के बारे में हमारी सीमित जानकारी का विस्तार किया।

बीते वर्ष में जीन सम्पादन तकनीक का विस्तार हुआ। आलोचना और विवादों के बावजूद अनुसंधानकर्ता नए-नए प्रयोगों की ओर अग्रसर होते रहे। वैज्ञानिकों ने जीन सम्पादन तकनीक क्रिसपर कॉस-9 तकनीक की मदद से डिज़ाइनर बच्चे पैदा करने के प्रयास जारी रखे। जीन सम्पादन तकनीक से बेहतर चिकित्सा और नई औषधियां बनाने का मार्ग पहले ही प्रशस्त हो चुका है। चीन ने जीन एडिटिंग तकनीक से चूहों और बंदरों के निर्माण का दावा किया है। साल के उत्तरार्ध में ड्यूक विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने शरीर की नरम हड्डी अर्थात उपास्थि की मरम्मत के लिए एक तकनीक खोजी, जिससे जोड़ों को पुनर्जीवित किया जा सकता है।

बीते साल भी जलवायु परिवर्तन को लेकर चिंता की लकीर लंबी होती गई। बायोसाइंस जर्नल में प्रकाशित शोध पत्र के अनुसार पहली बार विश्व के 153 देशों के 11,258 वैज्ञानिकों ने जलवायु परिवर्तन पर एक स्वर में चिंता जताई। वैज्ञानिकों ने ‘क्लाइमेट इमरजेंसी’ की चेतावनी देते हुए जलवायु परिवर्तन का सबसे प्रमुख कारण कार्बन उत्सर्जन को बताया। दिसंबर में स्पेन की राजधानी मैड्रिड में संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन हुआ। सम्मेलन में विचार मंथन का मुख्य मुद्दा पृथ्वी का तापमान दो डिग्री सेल्सियस से ज़्यादा बढ़ने से रोकना था।

इसी साल हीलियम की खोज के 150 वर्ष पूरे हुए। इस तत्व की खोज 1869 में हुई थी। हीलियम का उपयोग गुब्बारों, मौसम विज्ञान सम्बंधी उपकरणों में हो रहा है। इसी वर्ष विज्ञान की अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका नेचर के प्रकाशन के 150 वर्ष पूरे हुए। नेचर को विज्ञान की अति प्रतिष्ठित और प्रामाणिक पत्रिकाओं में गिना जाता है। इस वर्ष भौतिकीविद रिचर्ड फाइनमैन द्वारा पदार्थ में शोध के पूर्व अनुमानों को लेकर दिसंबर 1959 में दिए गए ऐतिहासिक व्याख्यान की हीरक जयंती मनाई गई।

विदा हो चुके वर्ष में अंतर्राष्ट्रीय खगोल संघ (IAU) की स्थापना का शताब्दी वर्ष मनाया गया। इसकी स्थापना 28 जुलाई 1919 को ब्रुसेल्स में की गई थी। वर्तमान में अंतर्राष्ट्रीय खगोल संघ के 13,701 सदस्य हैं। इसी साल मानव के चंद्रमा पर पहुंचने की 50वीं वर्षगांठ मनाई गई। 21 जुलाई 1969 को अमेरिकी अंतरिक्ष यात्री नील आर्मस्ट्रांग ने चांद की सतह पर कदम रखा था।

इसी वर्ष विश्व मापन दिवस 20 मई के दिन 101 देशों ने किलोग्राम की नई परिभाषा को अपना लिया। हालांकि रोज़मर्रा के जीवन में इससे कोई अंतर नहीं आएगा, लेकिन अब पाठ्य पुस्तकों में किलोग्राम की परिभाषा बदल जाएगी। किलोग्राम की नई परिभाषा प्लैंक स्थिरांक की मूलभूत इकाई पर आधारित है।

गत वर्ष अक्टूबर में साहित्य, शांति, अर्थशास्त्र और विज्ञान के नोबेल पुरस्कारों की घोषणा की गई। विज्ञान के नोबेल पुरस्कार विजेताओं में अमेरिका का वर्चस्व दिखाई दिया। रसायन शास्त्र में लीथियम आयन बैटरी के विकास के लिए तीन वैज्ञानिकों को पुरस्कृत किया गया – जॉन गुडइनफ, एम. विटिंगहैम और अकीरा योशिनो। लीथियम बैटरी का उपयोग मोबाइल फोन, इलेक्ट्रिक कार, लैपटॉप आदि में होता है। 97 वर्षीय गुडइनफ नोबेल सम्मान प्राप्त करने वाले सबसे उम्रदराज व्यक्ति हो गए हैं। चिकित्सा विज्ञान का नोबेल पुरस्कार संयुक्त रूप से तीन वैज्ञानिकों को प्रदान किया गया – विलियम केलिन जूनियर, ग्रेग एल. सेमेंज़ा और पीटर रैटक्लिफ। इन्होंने कोशिका द्वारा ऑक्सीजन के उपयोग पर शोध करके कैंसर और एनीमिया जैसे रोगों की चिकित्सा के लिए नई राह दिखाई है। इस वर्ष का भौतिकी का नोबेल पुरस्कार जेम्स पीबल्स, मिशेल मेयर और डिडिएर क्वेलोज़ को दिया गया। तीनों अनुसंधानकर्ताओं ने बाह्य ग्रहों खोज की और ब्रह्मांड के रहस्यों से पर्दा हटाया।

ऑस्ट्रेलिया के कार्ल क्रूसलेंकी को वर्ष 2019 का विज्ञान संचार का अंतर्राष्ट्रीय कलिंग पुरस्कार प्रदान किया गया। यह प्रतिष्ठित सम्मान पाने वाले वे पहले ऑस्ट्रेलियाई हैं।

वर्ष 2019 का गणित का प्रतिष्ठित एबेल पुरस्कार अमेरिका की प्रोफेसर केरन उहलेनबेक को दिया गया है। इसे गणित का नोबेल पुरस्कार कहा जाता है। इसकी स्थापना 2002 में की गई थी। पुरस्कार की स्थापना के बाद यह सम्मान ग्रहण करने वाली केरन उहलेनबेक पहली महिला हैं।

अंतर्राष्ट्रीय विज्ञान पत्रिका नेचर ने वर्ष 2019 के दस प्रमुख वैज्ञानिकों की सूची में स्वीडिश पर्यावरण कार्यकर्ता ग्रेटा थनबर्ग को शामिल किया है। टाइम पत्रिका ने भी ग्रेटा थनबर्ग को वर्ष 2019 का ‘टाइम पर्सन ऑफ दी ईयर’ चुना है। उन्होंने विद्यार्थी जीवन से ही पर्यावरण कार्यकर्ता के रूप में पहचान बनाई और जलवायु परिवर्तन रोकने के प्रयासों का ज़ोरदार अभियान चलाया।

5 अप्रैल को नोबेल सम्मानित सिडनी ब्रेनर का 92 वर्ष की आयु में निधन हो गया। उन्हें 2002 में मेडिसिन का नोबेल सम्मान दिया गया था। उन्होंने सिनोरेब्डाइटिस एलेगेंस नामक एक कृमि को रिसर्च का प्रमुख मॉडल बनाया था। 11 अक्टूबर को सोवियत अंतरिक्ष यात्री अलेक्सी लीनोव का 85 वर्ष की आयु में देहांत हो गया। लीनोव पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने अंतरिक्ष में चहलकदमी करके इतिहास रचा था। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.sciencenews.org/wp-content/uploads/2019/12/122119_YE_landing_full.jpg

बाल के एक टुकड़े से व्यक्ति की शिनाख्त

पराध विज्ञान में शिनाख्त की एक नई विधि जुड़ने वाली है जो बाल के विश्लेषण पर टिकी है। पहले भी बालों की मदद से व्यक्ति की पहचान की जाती रही है लेकिन वह विधि डीएनए के विश्लेषण पर आधारित रही है। उसके लिए ज़रूरी होता है कि बाल का वह हिस्सा आपके हाथ में आए जिसमें त्वचा का टुकड़ा जुड़ा हो। तथ्य यह है कि बाल का बाहर निकला हिस्सा तो मृत ऊतक होता है जिसमें डीएनए नहीं होता। नई तकनीक बालों में उपस्थित प्रोटीन के विश्लेषण पर आधारित है।

यह तो पहले से पता रहा है कि बालों में उपस्थित प्रोटीन की संरचना व्यक्ति-व्यक्ति में थोड़ी अलग-अलग होती है। प्रोटीन और कुछ नहीं, अमीनो अम्ल से जुड़कर बने पोलीमर होते हैं। अमीनो अम्ल एक खास क्रम में जुड़े होते हैं और इनका क्रम जेनेटिक कोड में विविधता के कारण अलग-अलग हो सकता है। यानी प्रोटीन में अमीनो अम्ल के क्रम से व्यक्ति की पहचान संभव है। लेकिन इसमें एक दिक्कत रही है।

बाल में से प्रोटीन प्राप्त करने की जो विधियां उपलब्ध हैं उनमें बाल को पीसने और तपाने के कई चरण होते हैं। इस दौरान अधिकांश प्रोटीन नष्ट हो जाता है। बचे-खुचे प्रोटीन से हमेशा इतनी विविधता को नहीं पकड़ा जा सकता कि शिनाख्त एकदम विश्वसनीय हो। लेकिन अब नज़ारा बदलने को है।

ज़ेंग ज़ांग के नेतृत्व में नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ स्टैण्डर्ड्स एंड टेक्नॉलॉजी के वैज्ञानिकों ने एक नई तकनीक विकसित कर ली है। जर्नल ऑफ फॉरेंसिक साइन्सेज़ में प्रकाशित शोध पत्र में बताया गया है कि नई तकनीक में पिसाई की ज़रूरत नहीं है, मात्र डिटर्जेंट के घोल में बाल को उबालकर पर्याप्त प्रोटीन मिल जाता है। इसके बाद मास स्पेक्ट्रोमेट्री नामक तकनीक से प्रोटीन का विश्लेषण करके ज़ांग की टीम ने कई सारे पेप्टाइड्स (प्रोटीन के छोटे-छोटे खंड) प्राप्त करके उनमें विविधता को रिकॉर्ड किया है।

शोधकर्ताओं का कहना है कि निकट भविष्य में यह तकनीक अदालतों में पहुंच जाएगी। लेकिन उससे पहले देखना होगा कि दो व्यक्तियों में एक-से प्रोटीन मिलने की संभावना कितने प्रतिशत है। इसके अलावा इस बात की भी जांच करनी होगी कि बालों को डाई करने का प्रोटीन पर क्या असर पड़ता है और उम्र के साथ प्रोटीन की संरचना कैसे बदलती है। कुल मिलाकर, ‘निकट भविष्य’ उतना निकट भी नहीं है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://assets.newatlas.com/dims4/default/591af89/2147483647/strip/true/crop/749×500+63+0/resize/1160×774!/quality/90/?url=https://assets.newatlas.com/archive/criminals-identify-hair-1.jpg