श्रवण यंत्रों की बैटरियां और अक्षय ऊर्जा का भविष्य

आजकल श्रवण यंत्रों में उपयोग होने वाली छोटी और डिस्पोज़ेबल जिंक बैटरियों को रीचार्ज करके पॉवर ग्रिड से जोड़ने के प्रयास किए जा रहे हैं। इनका उपयोग सौर ऊर्जा और पवन उर्जा के भंडारण के लिए किया जा सकता है।

वर्तमान में नवीकरणीय उर्जा के भंडारण के लिए मुख्य रूप से लीथियम आयन बैटरियों का उपयोग किया जाता है, लेकिन ये काफी महंगी हैं। ज़िंक बैटरियां सस्ती होती हैं और पर्यावरण के लिए कम हानिकारक भी हैं। लेकिन इन्हें लंबे समय तक बार-बार रीचार्ज नहीं किया जा सकता। इस कमी को दूर करने के प्रयास चल रहे हैं।

सौर, पवन और अन्य नवीकरणीय ऊर्जा में वृद्धि के साथ बैटरी भंडारण की आवश्यकता भी बढ़ गई है। ऊर्जा भंडारण की दृष्टि से लीथियम-आयन बैटरियों की क्षमता काफी अधिक होती है। लेकिन लीथियम एक दुर्लभ व महंगी धातु है। इसके अलावा लीथियम-आयन बैटरियों में एक तरल ज्वलनशील इलेक्ट्रोलाइट का भी उपयोग किया जाता है। मेगावॉट-क्षमता की बैटरियों में शीतलन और अग्नि-शमन की महंगी तकनीकों का भी उपयोग करना होता है।

ज़िंक के साथ इस तरह की कोई समस्या नहीं है। यह एक गैर-विषैली,  सस्ती और प्रचुरता से उपलब्ध धातु है। हाल ही में ज़िंक आधारित रीचार्जेबल बैटरियां बाज़ार में आई हैं लेकिन उनकी भंडारण क्षमता सीमित है। वैसे एक अन्य तकनीक ज़िंक फ्लो सेल बैटरियों में भी प्रगति हुई है लेकिन उनमें अधिक जटिल वाल्व, पंप और टैंकों की आवश्यकता होगी। इसलिए शोधकर्ता ज़िंक-एयर सेल पर कार्य कर रहे हैं।        

इन बैटरियों में एक ज़िंक एनोड और  किसी सुचालक पदार्थ (जैसे रंध्रमय कार्बन) का कैथोड होता है और एक इलेक्ट्रोलाइट घोल इनके बीच भरा होता है। इलेक्ट्रोलाइट में पोटेशियम हायड्रॉक्साइड या कोई अन्य क्षार भी मिला होता है। डिस्चार्ज के दौरान, हवा में उपस्थित ऑक्सीजन कैथोड पर पानी के साथ अभिक्रिया करके हायड्रॉक्साइड आयन का उत्पादन करती हैं। ये आयन एनोड की ओर जाते हैं जहां ज़िंक से अभिक्रिया करके ज़िंक ऑक्साइड का निर्माण करते हैं। इस अभिक्रिया में उत्पन्न इलेक्ट्रॉन एक बाहरी सर्किट के माध्यम से एनोड से कैथोड की ओर प्रवाहित होते हैं। रीचार्जिंग का मतलब होता है करंट के प्रवाह को उलट देना ताकि एनोड पर ज़िंक धातु पुन: बन सके।

एक समस्या यह है कि ज़िंक बैटरियां इस विपरीत दिशा में ठीक से काम नहीं करती हैं। एनोड की सतह पर अनियमितताओं के कारण कुछ स्थानों पर विद्युत क्षेत्र अधिक हो जाता है जिसके चलते उन स्थानों पर ज़िंक अधिक मात्रा में जमा होने लगता है। बार-बार ऐसा हो तो वहां उभार बन जाते हैं जो बैटरी को शॉर्ट कर देते हैं। दूसरी समस्या यह है कि इलेक्ट्रोलाइट में उपस्थित पानी एनोड से अभिक्रिया करके ऑक्सीजन और हाइड्रोजन गैस उत्पन्न करता है जिससे सेल के फटने की आशंका रहती है।

शोधकर्ता इन समस्याओं पर काफी गंभीरता से काम कर रहे हैं। वर्ष 2017 में कुछ शोधकर्ताओं ने ज़िंक एनोड इस तरह तैयार किया कि उस पर छोटे-छोटे खाली स्थान थे। सतह का क्षेत्रफल बढ़ जाने से स्थानीय विद्युत क्षेत्र कम हो गए जिससे उभार बनने की संभावना कम हो गई और पानी के अणुओं के विघटन की आशंका भी।

इसी प्रकार से, मैरीलैंड वि·ाविद्यालय के चुनशेंग वांग की टीम ने इलेक्ट्रोलाइट में फ्लोरीन युक्त लवण मिलाया है। यह ज़िंक से अभिक्रिया करके एनोड के चारों ओर ठोस ज़िंक फ्लोराइड का आवरण बना देता है। चार्जिंग-डिस्चार्जिंग के दौरान आयन तो इसमें से गुज़र जाते हैं लेकिन उभारों में वृद्धि रुक जाती है और पानी के अणु एनोड तक पहुंच नहीं पाते। वांग के अनुसार ऐसा करने से यह उपकरण काफी धीरे-धीरे डिस्चार्ज होता है। अभिक्रिया को तेज़ करने के लिए टीम कैथोड पर उत्प्रेरक जोड़ने का प्रयास कर रही है।

इसी तरह की एक रणनीति हैनयैंग युनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने भी अपनाई है। उन्होंने कॉपर, फॉस्फोरस और सल्फर के मिश्रण से एक तंतुमय कैथोड बनाया है जो उत्प्रेरक का भी काम करता है और पानी के साथ ऑक्सीजन की अभिक्रिया को भी तेज़ करता है। इन प्रयासों से ऐसी बैटरियों का निर्माण किया जा सकता है जिनको काफी तेज़ी से चार्ज-डिस्चार्ज किया जा सकता है और उनकी क्षमता 460 वॉट-घंटे प्रति किलोग्राम तक हो सकती है। ये बैटरियां चार्ज और डिस्चार्ज के हज़ारों चक्रों के बाद भी स्थिर रहेंगी।

इन प्रयासों से ऐसी उम्मीद है कि जल्द ही ज़िंक-एयर बैटरियां लीथियम की जगह लेने वाली हैं। कच्चा माल सस्ता होने की वजह से ग्रिड-पैमाने की ज़िंक-एयर बैटरियों की लागत लगभग 7000 रुपए प्रति किलोवॉट घंटा होगी जो आज के समय की सबसे सस्ती लीथियम-आयन बैटरियों के आधे से भी कम है। हालांकि, इस क्षेत्र में काफी काम करने की आवश्यकता है और शोधकर्ताओं को छोटे आकार की बैटरियों के उत्पादन से आगे बढ़ते हुए बड़े आकार की प्रणालियां विकसित करना होगा। ज़ाहिर है, इसमें कई वर्षों का समय लगेगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_large/public/ca_0528NID_Energy_Storage_Facility_online.jpg?itok=H26S0Lgw

नाभिकीय संलयन आधारित बिजली संयंत्र

नाभिकीय संलयन ऊर्जा के क्षेत्र में जानी-मानी कंपनी जनरल फ्यूज़न ने हाल ही में घोषणा की है कि वह अगले साल अपने संलयन आधारित पायलट बिजली संयंत्र का निर्माण शुरू करेगी। इस संयंत्र का आकार वाणिज्यिक बिजली संयंत्र का 70 प्रतिशत होगा। यूके सरकार द्वारा वित्तीय समर्थन प्राप्त इस संयंत्र को स्थापित करने का उद्देश्य ऊर्जा उत्पन्न करना नहीं बल्कि यह दर्शाना है कि कंपनी द्वारा विकसित संलयन का नया तरीका कितना व्यावहारिक है।

दशकों से कार्बन मुक्त ऊर्जा के विकल्प के तौर पर नाभिकीय संलयन शोधकर्ताओं और निवेशकों को लुभाता आया है। नाभिकीय संलयन में होता यह है कि दो या दो से अधिक हल्के नाभिक (प्राय: हाइड्रोजन) आपस में जुड़कर एक भारी नाभिक (हीलियम) बनाते हैं; इस प्रक्रिया में ऊर्जा मुक्त होती है। यही वह प्रक्रिया है जो सूरज को उसकी ऊर्जा प्रदान करती है। समस्या यह है कि नाभिकों के संलयन के लिए अत्यधिक ताप और दाब की आवश्यकता होती है। अब तक कोई भी संलयन रिएक्टर खर्च की गई ऊर्जा से अधिक उर्जा का उत्पादन नहीं कर पाया है।

वैसे लगता है कि फ्रांस की विशाल अंतर्राष्ट्रीय परियोजना ITER यह लक्ष्य पहले हासिल कर लेगी। इस रिएक्टर में विशाल अतिचालक चुंबकों द्वारा एक पात्र में आयनित गैस (प्लाज़्मा) बनाए रखी जाती है और इसे माइक्रोवेव या पार्टिकल किरणों द्वारा गर्म किया जाता है। फिलहाल यह परियोजना कछुआ चाल से आगे बढ़ रही है और ऊर्जा लाभ 2035 के बाद ही मिलने की उम्मीद है। इसलिए नई परियोजनाओं के लिए मौका है।

जनरल फ्यूज़न कंपनी ने मैग्नेटाइज़्ड टारगेट फ्यूज़न तकनीक का उपयोग किया है। इसमें एक इंजेक्टर सिगरेट के धुएं के छल्ले जैसा प्लाज़्मा का छल्ला बनाता है, छल्ला अपने घूर्णन से एक चुंबकीय क्षेत्र बनाता है। यह चुंबकीय क्षेत्र कणों के बादल को जोड़े रखता है। इस बादल का जीवनकाल चंद मिलीसेकंड ही होता है। इन चंद मिलीसेकंड की अवधि में इसको संपीड़न द्वारा इतना ताप और दाब दिया जाता है कि संलयन होने लगे। अब कंपनी इस छल्ले को थोड़ी लंबी अवधि तक बनाए रखने में सफल हुई है।

प्लाज़्मा के छल्ले जिस कक्ष में भेजे जाते हैं वहां तरल लीथियम की परत तेज़ी गति से घूमती रहती है। यह परत नाभिकीय संलयन में मुक्त हुए उच्च ऊर्जा वाले कणों को अवशोषित कर लेती है, जिससे रिएक्टर सुरक्षित रहता है। जब प्लाज़्मा कक्ष के मध्य में पहुंचता है तो सैकड़ों पिस्टन नियमित अंतराल से रिएक्टर की दीवार पर बाहर से प्रहार करते हैं, यह लीथियम को अंदर की ओर धकेलता है और प्लाज़्मा को संपीड़ित कर देता है ताकि संलयन क्रिया शुरू हो जाए। व्यावसायिक रिएक्टर से ऊर्जा लाभ लेने के लिए प्रत्येक कुछ सेकंड के अंतराल पर नए प्लाज़्मा छल्ले संपीड़ित करने होंगे।

फिलहाल इस प्रायोगिक संयंत्र का लक्ष्य संलयन के लिए ज़रूरी 10 करोड़ डिग्री सेल्सियस से अधिक तापमान हासिल करना और पूरी प्रक्रिया को किफायती दर्शाना है। बड़े व्यावसायिक रिएक्टर में उपयोग किए जाने वाले ड्यूटेरियम-ट्रिशियम मिश्रण के बजाय इसमें अपेक्षाकृत कम क्रियाशील शुद्ध ड्यूटेरियम का उपयोग किया जाएगा। इससे ट्रिशियम की दुर्लभता, अतिरिक्त ऊष्मा और रेडियोधर्मिता जैसी समस्याओं का सामना नहीं करना पड़ेगा। यदि पायलट संयंत्र काम कर पाता है तो ड्यूटेरियम-ट्रिशियम मिश्रण संलयन भी काम करेगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_image_-1280w__no_aspect/public/Fusion%20Island-1280×720.jpg?itok=ZTGNCiFC

रसायन विज्ञान सुलझाएगा प्लास्टिक प्रदूषण की समस्या

र्ष 1907 में संश्लेषित प्लास्टिक के रूप में सबसे पहले बैकेलाइट का उपयोग किया गया था। वज़न में हल्का, मज़बूत और आसानी से किसी भी आकार में ढलने योग्य बैकेलाइट को विद्युत कुचालक के रूप में उपयोग किया जाता था।

प्लास्टिक आधुनिक दुनिया में काफी उपयोगी चीज़ है। देखा जाए तो प्लास्टिक उत्पादों की डिज़ाइन और निर्माण का एक प्रमुख घटक है। प्लास्टिक विशेष रूप से एकल उपयोग की चीज़ें बनाने में काम आता है – जैसे पानी की बोतलें और खाद्य उत्पादों के पैकेजिंग। फिलहाल प्रति वर्ष 38 करोड़ टन प्लास्टिक का उत्पादन होता है जो वर्ष 2050 तक 90 करोड़ टन होने की संभावना है।

लेकिन जिन जीवाश्म र्इंधनों से प्लास्टिक का निर्माण होता है उन्हीं की तरह प्लास्टिक के भी नकारात्मक पर्यावरणीय प्रभाव हो सकते हैं। एक अनुमान के मुताबिक 2050 तक 12 अरब टन प्लास्टिक लैंडफिल में पड़ा होगा और पर्यावरण को प्रदूषित कर रहा होगा। 2015 में इसकी मात्रा 4.9 अरब टन थी।

कचरे से ऊर्जा प्राप्त करने के लिए जो इंसिनरेटर उपयोग किए जाते हैं उनमें भी प्रमुख रूप से प्लास्टिक ही जलाया जाता है। इनमें भी काफी मात्रा में कार्बन उत्सर्जन होता है। कुछ वृत्त चित्रों में प्लास्टिक कचरे के कारण होने वाले पर्यावरणीय प्रदूषण पर ध्यान आकर्षित किया गया है।

वैसे आजकल प्लास्टिक पुनर्चक्रण किया जाता है लेकिन एक तो यह प्रक्रिया काफी खर्चीली है और पुनर्चक्रित प्लास्टिक कम गुणवत्ता वाले होते हैं और कमज़ोर भी होते हैं। आजकल बाज़ार में जैव-विघटनशील प्लास्टिक का भी उपयोग किया जा रहा है। इनका उत्पादन वनस्पति पदार्थों से किया जाता है या इनमें ऑक्सीजन या अन्य रसायन जोड़े जाते हैं ताकि ये समय के साथ सड़ जाएं। लेकिन ये प्लास्टिक सामान्य प्लास्टिक के पुनर्चक्रण में बाधा डालते हैं क्योंकि तब मिले-जुले पुनर्चक्रित प्लास्टिक की गुणवत्ता और भी खराब होती है। इन्हें अलग करना भी संभव नहीं होता।

ऐसे में अधिक निर्वहनीय प्लास्टिक का निर्माण रसायन विज्ञान का एक महत्वपूर्ण सवाल बन गया है। वर्तमान में शोधकर्ता प्लास्टिक कचरे को कम करने के प्रयास कर रहे हैं और साथ ही ऐसे प्लास्टिक बनाने की कोशिश कर रहे हैं जिनका बेहतर पुनर्चक्रण किया जा सके।

ऐसा एक प्रयास नेचर में प्रकाशित हुआ है। जर्मनी स्थित युनिवर्सिटी ऑफ कॉन्सटेंज़ के स्टीफन मेकिंग और उनके सहयोगियों ने एक नए प्रकार के पॉलिएथीलीन का वर्णन किया है। पॉलीएथीलीन (या पोलीथीन) सर्वाधिक इस्तेमाल होने वाला एकल-उपयोग प्लास्टिक है। मेकिंग द्वारा निर्मित पोलीथीन ऐसा पदार्थ है जिसकी अधिकांश शुरुआती सामग्री को पुर्नप्राप्त करके फिर से काम में लाया जा सकता है। वर्तमान पदार्थों और तकनीकों के साथ ऐसा कर पाना काफी मुश्किल है।

वैसे इस नए प्लास्टिक पर अभी और परीक्षण की आवश्यकता है। मौजूदा पुनर्चक्रण की अधोरचना पर इसके प्रभावों का आकलन भी करना होगा। इसके लिए मौजूदा पुनर्चक्रण केंद्रों में अलग प्रकार की तकनीक की आवश्यकता होगी। यदि इसके उपयोग को लेकर आम सहमति बनती है और इसे बड़े पैमाने पर किया जा सके तो पुनर्चक्रित प्लास्टिक के इस्तेमाल में वृद्धि होगी और शायद प्लास्टिक को पर्यावरण के लिए कम हानिकारक बनाया जा सकेगा।

वास्तव में प्लास्टिक आणविक इकाइयों की शृंखला से बने होते हैं। जाता है। पुन:उपयोग के लिए इस प्रक्रिया को उल्टा चलाकर शुरुआती पदार्थ प्राप्त करना कठिन कार्य है। प्लास्टिक पुनर्चक्रण में मुख्य बाधा यह है कि इकाइयों को जोड़ने वाले रासायनिक बंधनों को कम ऊर्जा खर्च करके इस तरह तोड़ा जाए कि मूल पदार्थों को पुनप्र्राप्त किया जा सके और एक बार फिर अच्छी गुणवत्ता का प्लास्टिक बनाने में इस्तेमाल किया जा सके।

वैसे तो इस तरीके की खोज में कई वैज्ञानिक समूह काम कर रहे थे लेकिन मेकिंग की टीम ने मज़बूत पॉलीएथीलीन-नुमा एक ऐसा पदार्थ विकसित किया जिसके रासायनिक बंधनों को आसानी से तोड़ा जा सकता है। इस प्रक्रिया में वैज्ञानिक लगभग सभी शुरुआती पदार्थ पुर्नप्राप्त करने में सफल रहे।

गौरतलब है कि इसी तरह की खोज एक अन्य टीम द्वारा भी की गई है। युनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया की सुज़ाना स्कॉट और उनके सहयोगियों ने एक उत्प्रेरक की मदद से पॉलीएथीलीन के अणुओं को तोड़कर अन्य किस्म की इकाइयां प्राप्त कीं जिनसे शुरू करके एक अलग प्रकार का प्लास्टिक बनाया जा सकता है। यह एक महत्वपूर्ण शोध है। इसे विभिन्न प्रकार के प्लास्टिक और बड़े पैमाने पर उपयोग में लाना चाहिए।

अलबत्ता, रसायन शास्त्र हमें यहीं तक ला सकता है। जब तक प्लास्टिक के उपयोग में वृद्धि जारी है, केवल पुनर्चक्रण से प्लास्टिक प्रदूषण को कम नहीं किया जा सकता है। प्लास्टिक को जलाने और इसे महासागरों या लैंडफिल में भरने से रोकने के लिए प्लास्टिक निर्माण की दर को कम करना होगा। कंपनियों को अपने प्लास्टिक उत्पादों के पूरी तरह से पुनर्चक्रण की ज़िम्मेदारी लेनी होगी। और इसके लिए सरकारों को अधिक नियम-कायदे बनाने होंगे और संयुक्त राष्ट्र की प्लास्टिक संधि को भी सफल बनाना होगा।

इसके लिए प्लास्टिक पैकेजिंग में शामिल 20 प्रतिशत कंपनियों ने न्यू प्लास्टिक्स इकॉनॉमी ग्लोबल कमिटमेंट के तरह यह वादा किया है कि प्लास्टिक पुनर्चक्रण में वृद्धि करेंगे। लेकिन हालिया रिपोर्ट दर्शाती है कि एकल-उपयोग प्लास्टिक को कम करने और पूर्ण रूप से पुन:उपयोगी पैकेजिंग को अपनाने में प्रगति उबड़-खाबड़ है।

ज़ाहिर है कि इस संदर्भ में कंपनियों को ठेलने की आवश्यकता है। यदि उन पर दबाव बनाया जाए कि उन्हें प्लास्टिक के पूरे जीवन चक्र की ज़िम्मेदारी लेनी होगी तो वे ऐसे पदार्थों का उपयोग करने को आगे आएंगी जिनका बार-बार उपयोग हो सके। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://media.nature.com/lw800/magazine-assets/d41586-021-00391-7/d41586-021-00391-7_18864090.jpg

संयुक्त अरब अमीरात का अल-अमल मंगल पर पहुंचा

विगत 9 फरवरी को संयुक्त अरब अमीरात का अल-अमल (यानी उम्मीद) ऑर्बाइटर मंगल पर पहुंच गया। किसी अरब राष्ट्र द्वारा किसी अन्य ग्रह पर भेजा गया यह पहला यान है। अल-अमल मंगल की कक्षा में चक्कर काटते हुए वहां के वायुमंडल और जलवायु का अध्ययन करेगा। यदि सभी प्रणालियां ठीक से काम करती रहीं तो यूएसए, सोवियत संघ, युरोप और भारत के बाद संयुक्त अरब अमीरात मंगल पर यान भेजने वाले देशों में शरीक हो जाएगा जबकि अमीरात ने अंतरिक्ष एजेंसी वर्ष 2014 में ही शुरू की है।

ऑर्बाइटर को कक्षा में प्रवेश कराने के लिए अंतरिक्ष यान के प्रक्षेपक 30 मिनट के लिए सक्रिय होंगे जो यान की रफ्तार को 1,21,000 किलोमीटर प्रति घंटे से कम करके 18,000 किलोमीटर प्रति घंटे पर लाएंगे, ताकि ऑर्बाइटर मंगल ग्रह के गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र में पहुंच जाए। अगले कुछ महीनों में अल-अमल धीरे-धीरे मंगल की कक्षा में एक अण्डाकार पथ अपना लेगा। इस तरह ऑर्बाइटर कभी मंगल की सतह से दूर (43,000 किलोमीटर) तो कभी पास (20,000 किलोमीटर) होगा। अब तक अन्य मिशन के ऑर्बाइटर मंगल की सतह के बहुत करीब स्थापित किए गए हैं जिस कारण वे एक बार में छोटे स्थान को देख पाते हैं। लेकिन अल-अमल ऑर्बाइटर एक ही स्थान पर विभिन्न समयों पर नज़र रख सकेगा।

मंगल ग्रह के वायुमंडल की पड़ताल करने के लिए इस ऑर्बाइटर में तीन उपकरण हैं। इनमें से दो उपकरण हैं इंफ्रारेड स्पेक्ट्रोमीटर और अल्ट्रावायलेट स्पेक्ट्रोमीटर। और तीसरा उपकरण, इमेजिंग कैमरा, मंगल की रंगीन तस्वीरें लेगा। इस तरह ऑर्बाइटर से एकत्र डैटा से पता चलेगा कि मंगल पर चलने वाली आंधियों की शुरुआत कैसे होती है और वे प्रचण्ड रूप कैसे लेती हैं। इसके अलावा यह जानने में भी मदद मिलेगी कि अंतरिक्ष के मौसम में होने वाले बदलावों, जैसे सौर तूफान के प्रति मंगल ग्रह का वायुमंडल किस तरह प्रतिक्रिया देता  है। यह भी पता चलेगा कि कैसे हाइड्रोजन और ऑक्सीजन गैसें निचले वायुमंडल से निकलकर अंतरिक्ष में पलायन कर जाती हैं। इसी प्रक्रिया से मंगल का पानी उड़ गया और अतीत की जीवन-क्षमता को प्रभावित किया।

न्यूयॉर्क विश्वविद्यालय के खगोल वैज्ञानिक दिमित्र अत्री कहते हैं कि मंगल पर भेजे गए पिछले प्रोब, जैसे नासा का मावेन, भी अच्छे थे लेकिन वे एक समय में एक छोटे क्षेत्र का ही डैटा जुटाते थे। अल-अमल विहंगम अवलोकन करेगा।

संयुक्त अरब अमीरात को अपने मंगल मिशन से उम्मीद है कि यह इस क्षेत्र के युवाओं को विज्ञान को करियर के रूप में अपनाने को प्रेरित करेगा।

इसी बीच, चीन का पहला मंगल यान तियानवेन-1 भी अपने ऑर्बाइटर, लैंडर और रोवर के साथ 10 फरवरी को मंगल ग्रह पर पहुंच गया। 18 फरवरी को नासा का परसेवरेंस रोवर जेज़ेरो क्रेटर के ठीक ऊपर था। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_image_-1280w__no_aspect/public/uae_1280p.jpg?itok=Yqt7N-Xs
https://www.mbrsc.ae/application/files/8815/9351/4176/emm_logo_final.png

त्वरित डैटा ट्रांसमिशन – संजय गोस्वामी

वैज्ञानिकों ने ऐसा सिस्टम तैयार किया है जो 5G मोबाइल नेटवर्क्स की तुलना में 10 गुना ज़्यादा रफ्तार से डैटा ट्रांसमिट कर सकता है। इससे न सिर्फ डाउनलोड स्पीड बढ़ेगी बल्कि इन-फ्लाइट नेटवर्क कनेक्शंस की स्पीड भी बढ़ेगी। जापान की हिरोशिमा युनिवर्सिटी और नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ इन्फर्मेशन एंड कम्यूनिकेशंस टेक्नॉलजी ने टेराहर्ट्ज़ (THz) ट्रांसमिटर बनाने की जानकारी दी है। यह सिंगल चैनल पर 300 गीगाहर्ट्ज़ बैंड का इस्तेमाल करते हुए एक सेकंड में 100 गीगाबिट्स के रेट पर डिजिटल डैटा ट्रांसमिट करता है। THz बैंड नया है और भविष्य में अल्ट्राहाई-स्पीड वायरलेस कम्यूनिकेशंस में इस्तेमाल होगा। रिसर्च ग्रुप का बनाया एक ट्रांसमिटर 290 GHz से 315 GHz फ्रिक्वेंसी रेंज पर 105 गीगाबिट्स प्रति सेकंड की स्पीड से ट्रांसमिशन कर सकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://scx1.b-cdn.net/csz/news/800a/2011/japancollabt.jpg

दुनिया का सबसे ऊष्मा-सह पदार्थ – संजय गोस्वामी

पिछले वैज्ञानिकों ने एक ऐसे पदार्थ की पहचान कर ली है जो लगभग 4000 डिग्री सेल्सियस के तापमान को सहन कर सकता है। यह खोज बेहद तेज़ हायपरसोनिक अंतरिक्ष वाहनों के लिए बेहतर ऊष्मा प्रतिरोधी कवच बनाने का रास्ता खोल सकती है।

इंपीरियल कॉलेज, लंदन के शोधकर्ताओं ने खोज की है कि हैफ्नियम कार्बाइड का गलनांक अब तक दर्ज किसी भी पदार्थ के गलनांक से ज़्यादा है। टैंटेलम कार्बाइड और हैफ्नियम कार्बाइड रीफ्रेक्ट्री सिरेमिक्स हैं; अर्थात ये असाधारण रूप से ऊष्मा-सह हैं। अत्यधिक ऊष्मा को सहन कर सकने की इनकी क्षमता का अर्थ है कि इनका इस्तेमाल तेज़ गति के वाहनों में ऊष्मीय सुरक्षा प्रणाली में और परमाणु रिएक्टर के बेहद गर्म पर्यावरण में र्इंधन के आवरण के रूप में किया जा सकता है। इन दोनों ही यौगिकों के गलनांक के परीक्षण प्रयोगशाला में करने के लिए प्रौद्योगिकी उपलब्ध नहीं थी। अत:, शोधकर्ताओं ने इन दोनों यौगिकों की गर्मी सहन कर सकने की क्षमता के परीक्षण के लिए लेज़र का इस्तेमाल करके तेज़ गर्मी पैदा करने वाली एक नई प्रौद्योगिकी विकसित की है। उन्होंने पाया कि इन दोनों यौगिकों के मिश्रण का गलनांक 3990 डिग्री सेल्सियस था। लेकिन दोनों यौगिकों के अलग-अलग गलनांक अब तक ज्ञात इस तरह के यौगिकों से ज़्यादा पाए गए (टैंटेलम कार्बाइड 3880 डिग्री सेल्सियस, हैफ्नियम कार्बाइड 3928 डिग्री सेल्सियस)। ये पदार्थ तेज़ अंतरिक्ष यानों में उपयोगी होंगे (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://specials-images.forbesimg.com/imageserve/1136827675/960×0.jpg?fit=scale

डैटा मुहाफिज़ के रूप में विद्युत वितरण कंपनियां – नरेंद्र पई, आदित्य चुनेकर

र्जा मंत्रालय के स्मार्ट मीटर नेशनल प्रोग्राम (राष्ट्रीय स्मार्ट मीटर कार्यक्रम) के तहत वर्ष 2022 तक 25 करोड़ घरों में पारंपरिक बिजली मीटर के स्थान पर स्मार्ट मीटर लगाने की योजना है। उम्मीद है कि स्मार्ट मीटर स्वत: रीडिंग लेकर, बिल बनाकर, और समय से भुगतान न करने वाले उपभोक्ताओं का दूर से ही कनेक्शन काटकर या कनेक्शन कटने का भय पैदा कर समय पर बिल भुगतान सुनिश्चित करेंगे और इस तरह विद्युत वितरण कंपनियों (डिस्कॉम) का राजस्व बढ़ाने में मदद करेंगे। स्मार्ट मीटर, विद्युत वितरण और भुगतान के क्षेत्र में लंबे समय से चली आ रही कुछ समस्याओं के समाधान के लिए ऊर्जा मंत्रालय द्वारा किए गए कुछ प्रयासों में से एक है।

देश भर में लगभग 21 लाख स्मार्ट मीटर लगाए चुके हैं और वे काम भी करने लगे हैं। और लगभग 91 लाख स्मार्ट मीटर लगाए जाने की तैयारी है। ऐसे में ज़रूरत है कि अविलंब इतनी बड़ी संख्या में स्मार्ट मीटर लगाए जाने के अनुभव को पारदर्शिता के साथ दर्ज और अच्छी तरह विश्लेषित किया जाए। यह लेख इसके ऐसे ही एक पहलू – डैटा गोपनीयता के मुद्दे – पर प्रकाश डालता है। स्वचालित बिलिंग और दूर से कनेक्शन काटने के अलावा स्मार्ट मीटर हर आधे घंटे या उससे भी कम समय अंतराल में उपभोक्ताओं की छोटी से छोटी बिजली खपत के आंकड़े भी एकत्रित कर सकते हैं। यदि इस डैटा का प्रभावी ढंग से उपयोग किया जाता है तो यह विद्युत वितरण कंपनियों को बुनियादी विद्युत वितरण ढांचा बनाने, बिजली की खरीद और उपभोक्ताओं को मूल्य-वर्धित-सेवा देने में मदद कर सकता है। इससे वितरण कंपनियों की वित्तीय स्थिति और भी बेहतर हो सकती है।

लेकिन, कम समय अंतराल पर बिजली खपत का डैटा एकत्रित करने के अलावा स्मार्ट मीटर बिजली उपभोक्ता की निजी जानकारियां भी पता कर सकते हैं। जैसे परिवारजनों के घर में बिताने वाले समय का पैटर्न, उपकरणों के स्वामित्व और उनके उपयोग का पैटर्न, और यहां तक कि विश्लेषण और अनुमान के आधार पर उपभोक्ता की मनोरंजन आदतें और प्राथमिकताएं।

सर्वोच्च न्यायालय निजता के अधिकार को मौलिक अधिकार मानता है। इसलिए पर्याप्त सुरक्षा उपायों और उपयुक्त सहमति के बिना इस तरह व्यक्तिगत उपभोग के डैटा का उपयोग करना और उसे साझा करना निजता के अधिकार का उल्लंघन माना जाएगा। इसके अलावा, डैटा प्रबंधन और डैटा साझा करने की कम सुरक्षित प्रणाली गैर-कानूनी गतिविधियों को भी न्यौता दे सकती है। जैसे, धोखाधड़ी, सेंध लगाना या तांक-झांक करना। दुनिया के कई देशों में इस तरह की गोपनीयता और सुरक्षा सम्बंधी चिंताओं को स्मार्ट मीटर-विशिष्ट डैटा सुरक्षा तंत्र के माध्यम से दूर किया जा रहा है, जो सामान्य डैटा सुरक्षा तंत्र के पूरक की तरह कार्य करता है।

यह भारतीय संदर्भ में दो सवाल उठाता है: मौजूदा मीटर में डैटा सुरक्षा और गोपनीयता सुनिश्चित करने वाला तंत्र कितना प्रभावी है; और आगामी निजी डैटा संरक्षण अधिनियम (पर्सनल डैटा प्रोटेक्शन एक्ट) के नियम-निर्देशों का पालन करने के लिए वितरण कंपनियां कितनी तैयार हैं? इन सवालों के जवाब काफी हद तक निराशजनक ही हैं।

सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 (आईटी एक्ट) और 2011 के ‘उचित सुरक्षा उपाय और प्रक्रिया एवं संवेदनशील निजी डैटा अथवा सूचना’ के नियम, स्मार्ट मीटर और साधारण मीटर बिलिंग, दोनों से हासिल डैटा पर लागू होते हैं। लेकिन वितरण कंपनियों द्वारा आईटी एक्ट के पालन के बारे में सार्वजनिक तौर पर कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है। जैसे, एक नियमानुसार इलेक्ट्रॉनिक तरीके से संग्रहित सभी तरह के डैटा को संभालने के संदर्भ में अपनाई गई गोपनीयता नीति प्रकाशित करना अनिवार्य है। लेकिन अधिकांश विद्युत वितरण कंपनियां यह मानती हैं कि ये नियम सिर्फ उनकी वेबसाइटों के माध्यम से एकत्रित डैटा पर लागू होते हैं।

विद्युत सम्बंधी तकनीकी और नीतिगत मसलों पर सरकार को सलाह देने वाले वैधानिक निकाय, केंद्रीय विद्युत प्राधिकरण (सीईए), ने उन्नत मीटरिंग की मूलभूल व्यवस्था (एएमआई) के सम्बंध में विस्तृत कार्यात्मक शर्तें/अनिवार्यताएं जारी की हैं। स्मार्ट मीटर लगाए जाने के कुछ अनुबंधों में वितरण कंपनियों द्वारा इन दिशानिर्देशों को शब्दश: अपनाया गया है, लेकिन अफसोस कि इन दिशानिर्देशों में उपभोक्ता की गोपनीयता सम्बंधी कोई निर्देश नहीं हैं।

अच्छी बात यह है कि उन्नत मीटरिंग (एएमआई) सेवा प्रदाताओं को नियुक्त करने के लिए ऊर्जा मंत्रालय द्वारा जारी किए गए मानक निविदा पत्र में गोपनीयता सम्बंधी नियम शामिल हैं। हालांकि, वितरण कंपनियों द्वारा इन्हें अपनाए जाने के बारे में अभी भी कोई जानकारी नहीं हैं। यदि मौजूदा स्मार्ट मीटर डैटा सुरक्षा तंत्र शिथिल है भी, तो निजी डैटा सुरक्षा विधेयक 2019 के लागू होने के बाद स्थिति काफी बदल सकती है।

निजी डैटा का आर्थिक उपयोग करने और किसी व्यक्ति की निजता के अधिकार को बनाए रखने के बीच संतुलन बनाने के लिए सरकार ने निजी डैटा सुरक्षा विधेयक 2019 का प्रस्ताव रखा था। यह महत्वपूर्ण बिल वर्तमान में संयुक्त संसदीय समिति के समक्ष है और कानून बनने से बस कुछ ही कदम दूर है। वास्तव में, निजी डैटा सुरक्षा विधेयक में उल्लेखित नियमों से मिलते-जुलते नीति-नियमों को पहले ही सम्बंधित क्षेत्रों में लागू किया जाने लगा है। मसलन, राष्ट्रीय स्वास्थ्य डैटा प्रबंधन नीति के ज़रिए सार्वजनिक स्वास्थ्य के क्षेत्र में।

निजी डैटा सुरक्षा विधेयक लागू होने के बाद यह आईटी अधिनियम के नियमों को बदल देगा। और मासिक बिलिंग और स्मार्ट मीटर डैटा सहित सभी वितरण कंपनियों और सभी उपभोक्ताओं के डैटा को इस अधिनियम के दायरे में ले आएगा। चाहे स्मार्ट मीटर द्वारा डैटा लिया हो या पारंपरिक मीटर द्वारा, सभी वितरण कंपनियों को यह सुनिश्चित करना होगा कि उनके द्वारा की जा रही डैटा हैंडलिंग और इसमें शामिल तीसरे पक्ष द्वारा व्यक्तिगत गोपनीयता का उल्लंघन नहीं किया जाएगा। इसके अलावा नए कानून के तहत, डैटा सुरक्षा प्राधिकरण को डैटा नियामक के रूप में नियुक्त किया जाएगा और वितरण कंपनियां इसके नियमों से बंधी होंगी। इस कानून के तहत कंपनियों द्वारा नियमों का पालन न किए जाने की स्थिति में तय दंड काफी अधिक है। यह राशि उनके वार्षिक वैश्विक व्यापार का चार प्रतिशत तक हो सकती है। प्रस्तावित डैटा सुरक्षा प्राधिकरण सेक्टर नियामकों से परामर्श करके सेक्टर विशेष नियम भी बना सकता है।

विद्युत क्षेत्र सम्बंधी विशेष नियम व्यापक डैटा सुरक्षा फ्रेमवर्क पर आधारित होने चाहिए जो खासकर स्मार्ट मीटर डैटा को ध्यान में रखकर बनाए गए हों। उसमें स्पष्ट निर्देश होना चाहिए कि विद्युत अधिनियम 2003 के तहत स्मार्ट मीटर किस तरह का डैटा एकत्र कर सकते हैं, डैटा संग्रहण की अवधि कितनी होगी और डैटा का किस तरह का उपयोग किया जा सकता है। डैटा संग्रह और उसके उपयोग के मुताबिक उपभोक्ता सहमति का प्रारूप बनाया जाना चाहिए। प्रारूप में डैटा और उसके सार तक उपभोक्ता की पूर्ण पहुंच की, उपभोक्ता द्वारा अपनी सहमति की शर्तों को बदलने की व्यवस्था होनी चाहिए, और स्पष्ट व सरल शब्दों में गोपनीयता नीति उपलब्ध होनी चाहिए। इसके अलावा, डैटा शेयरिंग के नियम और उत्तरदायी तंत्र (ऑडिट अपेक्षाएं और सार्वजनिक रिपोर्ट) इस प्रणाली का हिस्सा होना चाहिए।

स्मार्ट मीटर लगाए जाने की प्रक्रिया की तेज़ रफ्तार देखते हुए, ऊर्जा मंत्रालय को केंद्रीय विद्युत प्रधिकरण, केंद्रीय और राज्य नियामकों, वितरण कंपनियों, स्मार्ट मीटर निर्माताओं, सिविल सोसाइटी संगठनों और अन्य हितधारकों के साथ परामर्श करके इस तरह का फ्रेमवर्क तत्काल बनाना चाहिए और इसे श्वेत पत्र के रूप में प्रकाशित करना चाहिए। ऊर्जा मंत्रालय को इस पर सार्वजनिक टिप्पणियां भी मांगना चाहिए। यह फ्रेमवर्क, विशिष्ट नियमों को विकसित करने हेतु बिजली नियामकों के साथ विचार-विमर्श करने के लिए प्रस्तावित डैटा सुरक्षा प्राधिकरण की दिशा में एक अच्छी शुरुआत हो सकती है। तब तक, वितरण कंपनियों की ज़िम्मेदारी बनती है कि डैटा मुहाफिज़ों के रूप में वे अपनी भूमिका समझें और उपभोक्ता और कंपनी, दोनों के हित में उपभोक्ता की गोपनीयता को सुरक्षा देने की तैयारी शुरू कर दें। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://etimg.etb2bimg.com/photo/74288671.cms

नए साल की नई प्रौद्योगिकियां

ह वर्ष प्रौद्योगिकी विकास के लिए आशा भरा साबित हो सकता है। टीकों से लेकर गंध संवेदना के क्षेत्र में और तंत्रिका विज्ञान से लेकर मास स्पेक्ट्रोमेट्री तक कई नवीन तकनीक और उपकरण विकसित करने के प्रयास किए जा रहे हैं। यहां ऐसी ही सात प्रौद्योगिकियों के बारे में बात की जा रही है।

ताप-सह टीके

संक्रामक रोगों के खिलाफ टीके की प्रभाविता और सुरक्षा के आकलन को गति देने, टीका उत्पादन बढ़ाने और असुरक्षित आबादी तक टीकों की पहुंच बढ़ाने के उद्देश्य से वर्ष 2017 में कोलीशन फॉर एपिडेमिक प्रीपेयर्डनेस इनोवेशन (CEPI) नामक वैश्विक संगठन की स्थापना की गई थी।

कोविड-19 महामारी से पहले कभी बहुत कम समय में टीका विकसित करने की ज़रूरत नहीं पड़ी थी। फिर भी, मॉडर्ना और फाइज़र कंपनी ने कोविड-19 के खिलाफ mRNA (संदेशवाहक आरएनए) आधारित टीके को महज़ चार महीनों में अनुक्रमण के चरण से लेकर प्रथम चरण के परीक्षण तक पहुंचा दिया।

लेकिन ये टीके और भी बेहतर बनाए जा सकते हैं। चूंकि mRNA बहुत नाज़ुक अणु होता है, यदि इसे सीधे कोशिका में प्रवेश कराया जाए तो हमारे शरीर के एंज़ाइम इसे छिन्न-भिन्न कर देंगे। एक नवीन टेक्नॉलॉजी में mRNA को आयनीकरण-योग्य नैनोपार्टिकल लिपिड के भीतर सुरक्षित किया जाता है। mRNA का यह लिपिड कवच शरीर की पीएच में तो उदासीन रहता है, लेकिन जब यह कोशिका के एंडोसोम में प्रवेश करता है तो वहां के अम्लीय वातावरण में आवेशित हो जाता है और कवच खुल जाता है। इस तरह mRNA कोशिका में पहुंच जाएगा। और अब, नैनोपार्टिकल लिपिड को और भी बेहतर तरीके से कार्य करने के लिए विकसित किया जा रहा है। इसमें नैनोपार्टिकल को ग्राहियों से जुड़कर किन्हीं विशिष्ट ऊतकों या कोशिकाओं को लक्षित करने के लिए तैयार किया जा रहा है।

टीकों के क्षेत्र में अन्य नवाचार टीकों की पहुंच बढ़ाने के लिए किए जा रहे हैं। जैसे कुछ तरीकों में टीके की परिष्कृत संरचना को नुकसान पहुंचाए बिना प्रभावी तरीके से फ्रीज़-ड्राय (कम तापमान पर शुष्क) करने के लिए शर्करा अणुओं का उपयोग किया जा रहा है। इससे टीकों को भंडारित करना और उनका परिवहन करना आसान हो जाएगा।

टीकों की पहुंच बढ़ाने का एक अन्य प्रयास है पोर्टेबल आरएनए-प्रिंटिंग तकनीक का विकास। कुछ ही देशों के पास बड़े पैमाने पर उच्च-गुणवत्ता वाले टीके उत्पादन करने के लिए पूंजी और विशेषज्ञता दोनों हैं। लेकिन सीमित संसाधन वाले क्षेत्र या देश भी स्वयं mRNA आधारित टीका निर्माण कर पाएं, इसके लिए फरवरी 2019 में क्कघ्क्ष् ने पोर्टेबल आरएनए-प्रिंटिंग इकाई विकसित करने के लिए CureVac कंपनी में लगभग साढ़े तीन करोड़ डॉलर का निवेश किया है। उम्मीद है कि इसकी बदौलत अगली किसी महामारी में तैयारी बेहतर होगी।

मस्तिष्क में होलोग्राम

ऑप्टोजेनेटिक्स चिन्हित मस्तिष्क कोशिकाओं और सर्किट (परिपथों) की गतिविधि को नियंत्रित करने की एक तकनीक है। इस तकनीक के उभरने के बाद से तंत्रिका विज्ञान के क्षेत्र में काफी उत्साह पैदा हुआ है। ऑप्टोजेनेटिक्स वर्ष 2005 में विकसित एक तकनीक है जिसमें न्यूरॉन्स में एक प्रोटीन (ऑप्सिन) का जीन जोड़ दिया जाता है। इस जीन से बने प्रोटीन की बदौलत वह न्यूरॉन अब प्रकाश मिलने पर सक्रिय हो उठता है। इसकी मदद से वैज्ञानिक विशिष्ट न्यूरॉन्स के साथ छेड़छाड़ तो कर पाते हैं लेकिन इसकी मदद से अभी भी कोशिकाओं की परस्पर संवाद की भाषा को समझना संभव नहीं हुआ है।

इस प्रयास में, कुछ तंत्रिका वैज्ञानिकों ने नए प्रकाश-संवेदी प्रोटीन विकसित किए हैं। इनकी मदद से किसी तंत्रिका-मार्ग को सक्रिय करने के लिए प्रकाश के विशिष्ट रंग का उपयोग किया जा सकता है। कुछ संशोधित प्रोटीन द्वि-फोटोन उद्दीपन की मदद से न्यूरॉन्स को अधिक सटीकता से सक्रिय कर सकते हैं। लेकिन लेज़र बीम कितने कम समय में किसी विशिष्ट न्यूरॉन को सक्रिय कर पाती है, इसकी सीमा है। और इसलिए नैसर्गिक गतिविधि का हू-ब-हू उद्दीपन पैटर्न बनाना मुश्किल होता है।

पिछले कुछ सालों में, किसी एक न्यूरॉन में बदलाव करने के लिए होलोग्राफी और अन्य प्रकाशीय तरीके विकसित हुए हैं। इनकी मदद से लेज़र प्रकाश को इतने सूक्ष्म पुंजों में विभाजित किया जा सकता है कि वह न्यूरॉन्स का आकार ले ले। इस तरह न्यूरॉन्स को सटीक रूप से उद्दीपन देने के लिए होलोग्राम के ज़रिए त्रि-आयामी जटिल पैटर्न बनाना संभव हुआ है।

जहां एक अकेले लेज़र पुंज से किसी एक न्यूरॉन को उद्दीप्त करने में 10-20 मिलीसेकंड का समय लगता है, होलोग्राफी की मदद से एक मिलीसेकंड से भी कम समय में यह किया जा सकता है। और एक साथ कई होलोग्राम बनाए जा सकते हैं।

लेकिन ऐसा कर पाना अब तक विशेष प्रयोगशालाओं तक ही सीमित था क्योंकि इसे अंजाम देने के लिए यह पता होना चाहिए कि विशिष्ट सूक्ष्मदर्शी कैसे बनाया जाए। और अब, कुछ कंपनियों ने अपनी द्वि-फोटॉन इमेजिंग प्रणाली में होलोग्राफी को भी जोड़ दिया है। अब तंत्रिका विज्ञानी माइक्रोस्कोप से तस्वीर खींचकर जिस न्यूरॉन को सक्रिय करना है उस विशिष्ट न्यूरॉन्स को चिन्हित कर सकते हैं, और सॉफ्टवेयर की मदद से इसे उद्दीपन देने वाले पैटर्न जैसा होलोग्राम बना सकते हैं।

बेहतर एंटीबॉडी निर्माण

1990 के मध्य दशक से ही एंटीबॉडी का उपयोग उपचार में किया जा रहा है। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में ही एंटीबॉडी की संभावनाओं के बारे में पता चला है। अधिकांश एंटीबॉडी-आधारित उपचार में सामान्य, असंशोधित एंटीबॉडी का उपयोग किया जाता है जो किसी वांछित लक्ष्य, जैसे वायरस या ट्यूमर कोशिका की सतह पर मौजूद किसी प्रोटीन से जाकर जुड़ जाती हैं। लेकिन कई एंटीबॉडी प्रतिरक्षा कोशिकाओं को सक्रिय करने में अप्रभावी रह जाती हैं। अब, आणविक जीव विज्ञान में हुई प्रगति की मदद से हम एंटीबॉडी को संशोधित कर सकते हैं और इसके ज़रिए शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली को रोग के खिलाफ लड़ने के लिए तैयार कर सकते हैं।

इस दिशा में किंग्स कॉलेज, लंदन की प्रयोगशाला ने एक तीव्र और कुशल आणविक-क्लोनिंग विधी, PIPE (पोलीमरेज़ इनकंप्लीट प्राइमर एक्सटेंशन), की मदद से किसी भी एंटीबॉडी में मनचाहे परिवर्तन संभव कर दिए हैं। इस तरह संशोधित एंटीबॉडी किलर कोशिकाओं के साथ आसानी से जुड़ सकती हैं। इन संशोधित एंटीबॉडी द्वारा चूहों के स्तन कैंसर का उपचार करने पर पाया गया कि इनसे अधिक कैंसर कोशिकाओं की मृत्यु हुई।

इसके अलावा, इम्युनोग्लोबुलिन ई (IgE) आधारित एंटीबॉडी पर भी अध्ययन शुरू हुए हैं। चूंकि लोगों को लगता था कि IgE एलर्जी सम्बंधित एंटीबॉडी है इसलिए अधिकांश चिकित्सकीय एंटीबॉडी इम्युनोग्लोबुलिन जी (IgG) पर आधारित होती हैं। लेकिन IgE एंटीबॉडी कैंसर कोशिकाओं को लक्षित करने का शानदार ज़रिया हो सकती हैं।

वांछित संशोधन कर संशोधित एंटीबॉडी द्वारा कैंसर से लेकर ऑटो-इम्यून बीमारियों और एलर्जी का इलाज और कोविड-19 सहित कई संक्रामक रोगों के खिलाफ प्रतिरक्षा हासिल की जा सकती है।

एकल-कोशिका अध्ययन

हमारे शरीर की कोशिकाएं विभिन्न तरह के कार्य करती हैं। लेकिन इन सभी कोशिकाओं का जन्म एक कोशिका और एक जीनोम से ही होता है। सवाल है कि कैसे एक कोशिका इतनी सारी विभिन्न कोशिकाओं को जन्म देती है?

इस सवाल का जवाब पता करने के लिए पिछले कुछ समय से एकल-कोशिका को अनुक्रमित करने की तीन नई तकनीकों पर काम हो रहा है। इनमें से एक तकनीक है हाइ-सी (Hi-C) विधि, जिसकी मदद से जीनोम की त्रि-आयामी संरचना का अध्ययन किया जा सकता है। इसकी मदद से चूहे के भ्रूण के प्रारंभिक विकास के विभिन्न चरणों के दौरान एकल-कोशिका में मातृ और पितृ गुणसूत्रों का अध्ययन करने पर पाया गया कि मातृ और पितृ जीनोम निषेचन के तुरंत बाद मिश्रित नहीं होते, एक कोशिका से 64 कोशिका बनने के चरणों के बीच एक ऐसा क्षण आता है जहां मातृ जीनोम की संरचना पितृ जीनोम से अलग दिखती है। हालांकि अब तक यह स्पष्ट नहीं हो सका है कि कुछ समय की यह विषमता क्यों होती है। लेकिन अनुमान है कि आगे जाकर लिंग-विशिष्ट जीन अभिव्यक्ति को शुरू करने में इसकी भूमिका होगी।

दूसरी तकनीक है कट एंड टैग (या काटो-निशान लगाओ) तकनीक। इसकी मदद से जीनोम के विशिष्ट जैव-रासायनिक ‘चिन्हों’ को पहचान कर यह पता किया जा सकता है कि किस तरह इन रसायनों में परिवर्तन प्रत्येक जीवित कोशिका में किसी जीन को चालू-बंद करता है।

और तीसरी तकनीक है SHARE-seq। यह तकनीक दो अनुक्रमण विधियों का मिश्रण है। इसकी मदद से जीनोम के उन हिस्सों की पहचान की जा सकती है जहां अनुलेखन सक्रिय करने वाले अणु हो सकते हैं।

इन तकनीकों से विकासशील भ्रूण का अध्ययन कर पता किया जा सकता है कि जीनोम की कुछ खास विशेषताएं भ्रूण विकास में कैसे किसी कोशिका का भाग्य लिखती हैं।

कोशिका में बल संवेदना

वृद्धि कारकों और अन्य अणुओं के अलावा कोशिकाएं भौतिक बल भी महसूस करती हैं। बल का प्रभाव जीन अभिव्यक्ति, कोशिका संख्या वृद्धि, विकास और संभवत: कैंसर को नियंत्रित कर सकता है।

बल का अध्ययन करना मुश्किल है क्योंकि यह केवल एक प्रभाव के रूप में दिखता है – जब हम किसी चीज़ को धक्का लगाते हैं तो उसमें विकृति या हलचल होती है। लेकिन अब, दो उपकरणों की मदद से जीवित कोशिकाओं में बल को समझा जा सकता है और उसमें बदलाव किया जा सकता है। और इस तरह भौतिक बल और कोशिकीय कार्यों के बीच कार्य-कारण सम्बंध पता किया जा सकता है।

इंपीरियल कॉलेज, लंदन द्वारा विकसित GenEPi दो अणुओं को जोड़ सकता है। इनमें से एक अणु है पीज़ो-1। यह एक आयन मार्ग है जो कोशिका झिल्ली पर तनाव महसूस होने पर अपने छिद्रों से कैल्शियम आयनों का संचार करता है। दूसरा अणु इन आयनों की पहचान करता है – यह कैल्शियम से जुड़ने के बाद और अधिक चमकता है।

पूर्व में कोशिकाओं पर बल के प्रभाव को पता करने के लिए भौतिक या भेदक उपकरणों का उपयोग किया जाता था। लेकिन GenEPi की मदद से वास्तविक वातावरण में बदलाव किए बिना कोशिकाओं का अध्ययन किया जा सकता है। सभी तरह के कोशिका द्रव्य कैल्शियम पर नज़र रखने वाले पूर्व के सेंसरों के विपरीत, GenEPi केवल उन कैल्शियम गतिविधियों पर नज़र रखता है जो पीज़ो-1 के ज़रिए बल संवेदना से जुड़ी होती हैं। इस तरह वैज्ञानिकों ने परमाणु बल सूक्ष्मदर्शी कैंटीलीवर से ह्मदय की मांसपेशियों की कोशिकाओं में उद्दीपन देकर GenEPi प्रतिदीप्ति में बदलाव करने में सफलता प्राप्त की है।

दूसरा उपकरण है ActuAtor। इसे रोगजनक सूक्ष्मजीव लिस्टेरिया मोनोसाइटोजीनस के प्रोटीन ActA की मदद से बनाया है। जब यह बैक्टीरिया किसी स्तनधारी कोशिका को संक्रमित करता है तो ActA प्रोटीन मेज़बान कोशिका की मशीनरी पर अपना नियंत्रण कर लेता है ताकि बैक्टीरिया की सतह पर एक्टिन पोलीमराइज़ेशन शुरू कर सके। इससे बल उत्पन्न होता है जो कोशिका द्रव्य में बैक्टीरिया को इधर-उधर धकेलता है।

बैक्टीरिया की इस नियंत्रण प्रणाली का उपयोग हम अपने उद्देश्य के लिए कर सकते हैं। ActA प्रोटीन में बदलाव करके, प्रकाश या रासायनिक उद्दीपन देकर कोशिका के भीतर किसी भी वांछित स्थान पर एक्टिन पॉलीमराइज़ेशन किया जा सकता है। ActuAtor की मदद से कोशिका के बहुत अंदर तक बल लगाया जा सकता। जैसे, ActuAtor को माइटोकॉन्ड्रिया की सतह पर छोड़ने पर यह इसे छोटे-छोटे हिस्सों में तोड़ सकता है। इस तरह क्षतिग्रस्त माइटोकॉन्ड्रिया चयनित रूप से तोड़ा जा सकता है, और माइटोकॉण्ड्रिया द्वारा एटीपी संश्लेषण भी अप्रभावित रहता है।

पूर्व में ऐसे कामों को अंजाम देना मुश्किल था क्योंकि हमारे पास जीवित कोशिका को भेदे बिना कोशिकांग को क्षतिग्रस्त करने वाले उपकरण नहीं थे। ActuAtor ऐसा करने में सक्षम पहला उपकरण है।

नैदानिक मास स्पेक्ट्रोमेट्री

मास स्पेक्ट्रोमेट्री जटिल नमूनों में से भी सैकड़ों-हज़ारों तरह के अणुओं के बारे में तुरंत और सटीकता से पता कर सकती है। कुछ वैज्ञानिक मास स्पेक्ट्रोमेट्री की मदद से जैविक ऊतकों की बारीकी से पड़ताल करने के लिए बेहतर तकनीक विकसित करने का प्रयास कर रहे हैं। और कुछ शोधकर्ता मास स्पेक्ट्रोमेट्री को सरल बनाने का प्रयास कर रहे हैं ताकि चिकित्सकीय नैदानिक कार्यों में इसका इस्तेमाल हो सके।

MALDI (मैट्रिक्स-असिस्टेड लेज़र डीसॉर्प्शन/ऑयनाइज़ेशन) एक मास स्पेक्ट्रोमेट्री इमेजिंग तकनीक है जिसका उपयोग जैविक ऊतकों का विश्लेषण करने में किया जाता है। लेकिन अणुओं को ऊतकों से निकालना और निर्वात में उन्हें आयनित करना मुश्किल काम होता है। इसलिए 2017 में MALDI में किए गए कुछ बदलावों ने निर्वात के बजाय हवा की उपस्थिति में ही आयन में बदलाव करना संभव बनाया। इस बदलाव से MALDI प्रणाली और भी सरल हुई। और इस कारण मिश्रित सूक्ष्मदर्शी, जैवदीप्ति चित्रण, ब्लॉकफेस इमेजिंग और एमआरआई जैसी अन्य तकनीकों के साथ इसका उपयोग संभव हुआ। इतनी विविध कार्यक्षमता के कारण ही सूक्ष्मजीव और मेज़बान की अंत:क्रिया, और आणविक और ऊतकीय सटीकता के साथ चयापचय परिवर्तनों का बारीकी से अध्ययन संभव हो सका।

इसके अलावा शोधकर्ताओं ने एक MasSpec पेन बनाया है, जिसे हाथ से पकड़कर मास स्पेक्ट्रोमेट्री की जा सकती है। इसकी मदद से सर्जन ट्यूमर ऊतकों और उनके फैलाव को देख सकते हैं। यह उपकरण शरीर के चयापचय उत्पादों पर आधारित है जिसमें अभिक्रिया में बने उत्पादों के आधार पर यह पेन सामान्य ऊतक और ट्यूमर ऊतक की पहचान करता है। इस प्रक्रिया में ऊतक पर पानी की एक बूंद डाली जाती है जिसमें चयापचय उत्पाद घुल जाते हैं और फिर इनकी मास स्पेक्ट्रोमेट्री की जाती है। यह हमें पता चल गया है कि प्रयोगशाला में सामान्य ऊतक और ट्यूमर ऊतक के चयापचय उत्पाद में कौन-कौन से अणु होते हैं। अब वास्तविक परिस्थिति में परीक्षण किया जा रहा है। इस साल स्तन कैंसर, गर्भाशय के कैंसर और अग्नाशय कैंसर, या रोबोटिक प्रोस्टेट कैंसर सर्जरी में MasSpec पेन को जांचने की योजना है।

सूंघ कर बीमारी पता करना

दृष्टि, श्रवण और स्पर्श के विपरीत, गंध के रासायनिक संवेदक काफी जटिल हैं। वे सैकड़ों-हज़ारों रसायनों के मिश्रण की पहचान करते हैं। कोरिया युनिवर्सिटी के शोधकर्ता कृत्रिम घ्राण प्रणाली को बेहतर बनाने की कोशिश में हैं।

इनमें से एक तरीका है द्वि-स्तरीय डिज़ाइन कर गैस-संवेदी पदार्थों की विविधता को बढ़ाना। मसलन, गैस-संवेदना को बेहतर करने के लिए 10 विभिन्न संवेदी पदार्थों पर 10 विभिन्न उत्प्रेरक पदार्थों की परत चढ़ाना, जिससे 100 विभिन्न सेंसर बन सकते हैं। यह 100 अलग-अलग संवेदी पदार्थों के उपयोग से कहीं अधिक आसान होगा।

इसके अलावा, सेंसरों को त्वरित प्रतिक्रिया देने के लिए तैयार करने की भी आवश्यकता है। प्रकृति से सीखकर हम सेंसरों को त्वरित प्रतिक्रिया के लिए तैयार कर सकते हैं। जैसे संवेदी सतह का क्षेत्रफल बढ़ाना।

कृत्रिम घ्राण-तंत्र का उपयोग निदान में भी किया जा सकता है। जैसे दमा से पीड़ित लोगों की सांस में नाइट्रिक ऑक्साइड की उच्च सांद्रता का पता करने के लिए। इसके अलावा वायु प्रदूषण, खाद्य गुणवत्ता जांचने में और पौधों के हार्मोन संकेतों के आधार पर स्मार्ट खेती करने में कृत्रिम घ्राण-तंत्र का उपयोग किया जा सकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://media.nature.com/w1172/magazine-assets/d41586-021-00191-z/d41586-021-00191-z_18782774.jpg

बैक्टीरिया सहेजेंगे डिजिटल जानकारी

मौजूदा डिजिटल स्टोरेज डिवाइसेस में कई टेराबाइट डैटा सहेजा जा सकता है। किंतु नई टेक्नॉलॉजी आने पर ये तकनीकें पुरानी पड़ जाती हैं और इनसे डैटा पढ़ना मुश्किल हो जाता है, जैसा कि मैग्नेटिक टेप और फ्लॉपी डिस्क के साथ हो चुका है। अब, वैज्ञानिक जीवित सूक्ष्मजीव के डीएनए में इलेक्ट्रॉनिक रूप से डैटा लिखने की कोशिश में हैं।

डैटा सहेजने के लिए डीएनए कई कारणों से आकर्षित करता है। पहला तो यह कि डीएनए हमारी सबसे कॉम्पैक्ट हार्ड ड्राइव से भी हज़ार गुना ज़्यादा सघन है; नमक के एक दाने के बराबर टुकड़े में यह 10 डिजिटल फिल्में सहेज सकता है। दूसरा, चूंकि डीएनए जीव विज्ञान का केंद्र बिंदु है इसलिए उम्मीद है कि डीएनए को पढ़ने-लिखने की तकनीक समय के साथ सस्ती और अधिक बेहतर हो जाएंगी।

वैसे डीएनए में डैटा सहेजना कोई बहुत नया विचार नहीं है। शुरुआत में शोधकर्ता डीएनए में डैटा सहेजने के लिए डिजिटल डैटा (0 और 1) को चार क्षार – एडेनिन, गुआनिन, साइटोसीन और थायमीन – के संयोजनों के रूप में परिवर्तित करते थे। डीएनए संश्लेषक की मदद से यह परिवर्तित डैटा डीएनए में लिखा जाता था। यदि कोड बहुत लंबा हो तो डीएनए सिंथेसिस की सटीकता पर फर्क पड़ता है, इसलिए डैटा को छोटे-छोटे हिस्सों (200 से 300 क्षार लंबे डैटा खंड) में तोड़कर डीएनए में लिखा जाता है। प्रत्येक डैटा खंड को एक इंडेक्स नंबर दिया जाता है, जो अणु में उसका स्थान दर्शाता है। डीएनए सीक्वेंसर की मदद से डैटा पढ़ा जाता है। लेकिन यह तकनीक बहुत महंगी है; एक मेगाबिट डैटा लिखने में लगभग ढाई लाख रुपए लगते हैं। और डीएनए जिस पात्र में सहेजा जाता है वह समय के साथ खराब हो सकता है।

इसलिए टिकाऊ और आसानी से लिखे जाने वाले विकल्प के रूप में पिछले कुछ समय से शोधकर्ता सजीवों के डीएनए में डैटा सहेजने पर काम कर रहे हैं। कोलंबिया विश्वविद्यालय के तंत्र जीव विज्ञानी हैरिस वांग ने जब ई.कोली बैक्टीरिया की कोशिकाओं में फ्रुक्टोज़ जोड़ा तो उसके डीएनए के कुछ हिस्सों की अभिव्यक्ति में वृद्धि हुई।

फिर, क्रिस्पर की मदद से अधिक अभिव्यक्त होने वाले खंड को कई भागो में काट दिया और इनमें से कुछ को बैक्टीरिया के डीएनए के उस विशिष्ट हिस्से में जोड़ा जो पूर्व में हुए वायरस के हमलों को ‘याद’ रखता है। इस तरह जोड़ी गई जेनेटिक बिट डिजिटल 1 दर्शाती है। फ्रुक्टोज़ संकेत की अनुपस्थिति में डीएनए कोई रैंडम बिट सहेजता है जो डिजिटल 0 दर्शाती है। ई. कोली के डीएनए को अनुक्रमित कर डैटा पढ़ा जा सकता है।

लेकिन इस व्यवस्था में भी सीमित डैटा ही सहेजा जा सकता है इसलिए वांग की टीम ने फ्रुक्टोज़ की जगह इलेक्ट्रॉनिक संकेतों का उपयोग किया। उन्होंने ई. कोली बैक्टीरिया में कुछ जीन जोड़े जो विद्युत संकेत दिए जाने पर डीएनए की अभिव्यक्ति में वृद्धि करते हैं। अभिव्यक्ति में वृद्धि बैक्टीरिया के डीएनए में 1 सहेजती है। डीएनए को अनुक्रमित कर 0-1 के रूप में लिखा डैटा पढ़ा जा सकता है। नेचर केमिकल बायोलॉजी में शोधकर्ता बताते हैं कि इस तकनीक की मदद से उन्होंने 72 बिट लंबा संदेश ‘हैलो वर्ल्ड!’ लिखा है। संदेशयुक्त ई. कोली को मिट्टी में पाए जाने वाले सूक्ष्मजीवों के साथ भी जोड़कर उनमें डैटा सहेजा जा सकता है।

बैक्टीरिया में उत्परिवर्तन से डैटा में बदलाव या उसकी हानि हो सकती है, जिस पर काम करने की आवश्यकता है। बहरहाल यह तकनीक जासूसी फिल्मों-कहानियों को जानकारी छुपाने के एक और खुफिया तरीके का विचार तो देती ही है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_image_-1280w__no_aspect/public/Ecoli_1280p_0.jpg?itok=D544o9Ku

व्हाट्सऐप: निजता हनन की चिंताएं – सोमेश केलकर

व्हाट्सऐप फिलहाल भारी पलायन का सामना कर रहा है। निजता के प्रति चिंतित उपयोगकर्ता तब से और चिंता में पड़ गए हैं जब से व्हाट्सऐप ने उपयोगकर्ताओं से यह मांग की कि वे 8 फरवरी तक या तो उसकी नई निजता नीति को स्वीकार कर लें या व्हाट्सऐप का उपयोग बंद कर दें। गौरतलब है कि यह पहली बार नहीं है कि व्हाट्सऐप ने अपनी जानकारी को मूल कंपनी फेसबुक के साथ साझा करने के लिए अपनी निजता नीति में परिवर्तन किए हैं। यह समझने के लिए कि चल क्या रहा है, हमें पीछे लौटकर फरवरी 2014 में झांकना होगा जब फेसबुक ने व्हाट्सऐप को 22 अरब डॉलर में खरीदा था।

जब फेसबुक पहली बार व्हाट्सऐप का अधिग्रहण करने पर विचार कर रही थी, उस समय निजता सम्बंधी कार्यकर्ताओं ने इस बात को लेकर चिंता ज़ाहिर की थी कि इस तरह के अधिग्रहण से व्हाट्सऐप और फेसबुक के बीच डैटा साझेदारी की संभावना बढ़ जाएगी। इन चिंताओं को विराम देने के लिए व्हाट्सऐप के अधिकारियों ने यह वचन दिया था कि वे कभी भी फेसबुक के साथ जानकारी साझा नहीं करेंगे। इस तरह के आश्वासन के बाद युरोपीय आयोग, संघीय व्यापार आयोग तथा अन्य नियामक संस्थाओं ने फेसबुक द्वारा व्हाट्सऐप के अधिग्रहण को हरी झंडी दिखा दी थी।

अब हम पहुंचते हैं अगस्त 2016 में। व्हाट्सऐप ने घोषणा की कि वह अपनी कुछ जानकारी फेसबुक के साथ साझा करेगा। इसमें उपयोगकर्ताओं के फोन नंबर तथा अंतिम गतिविधि से सम्बंधित जानकारी शामिल थी। व्हाट्सऐप ने कहा था कि निजता नीति में इन परिवर्तनों के बाद फेसबुक उपयोगकर्ताओं को सर्वोत्तम मित्र सम्बंधी सुझाव दे सकेगी और उनके लिए प्रासंगिक विज्ञापन भी दिखा सकेगी। उपयोगकर्ताओं को इसे स्वीकार करने के लिए 30 दिन का समय दिया गया था और यदि 30 दिनों में इसे अस्वीकार न करते तो उनके पास जानकारी की साझेदारी को मंज़ूर करने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता। इसके अलावा, अगस्त 2016 के बाद जुड़ने वाले उपयोगकर्ताओं को तो कोई विकल्प ही नहीं दिया गया था – उन्हें तो फेसबुक के साथ जानकारी साझा करने की बात को स्वीकार करना ही था।

जिन नियामकों ने निजता नीति को बरकरार रखने के व्हाट्सऐप के उपरोक्त आश्वासन के बाद फेसबुक द्वारा अधिग्रहण को स्वीकृति दी थी, उन्हें यह दोगलापन रास नहीं आया। 2017 में युरोपीय आयोग ने अधिग्रहण के समय भ्रामक जानकारी देने के सम्बंध में फेसबुक पर 11 करोड़ यूरो का जुर्माना लगाया था। तब फेसबुक ने कहा था कि उसके पास व्हाट्सऐप और फेसबुक के उपयोगकर्ताओं को आपस में जोड़ने की तकनीकी सामथ्र्य ही नहीं है। 2016 से पहले भी जर्मनी तथा युनाइटेड किंगडम के डैटा सुरक्षा अधिकारियों ने फेसबुक को निर्देश दिए थे कि वह व्हाट्सऐप के उपयोगकर्ताओं का डैटा संग्रह करना बंद कर दे।

भारत में नीति परिवर्तन

भारत में व्हाट्सऐप के नीतिगत परिवर्तन एक पॉप-अप के रूप में सामने आए जिसमें उपयोगकर्ताओं को सूचित किया गया था कि व्हाट्सऐप की निजता नीति बदल गई है और उन्हें 8 फरवरी तक इन परिवर्तनों को स्वीकार करना होगा अथवा व्हाट्सऐप का उपयोग पूरी तरह बंद कर देना होगा। हालांकि अधिकांश उपयोगकर्ताओं ने ‘एग्री’ यानी सहमति पर क्लिक कर दिया ताकि इस पॉप-अप से छुटकारा मिले और वे संदेश भेजने का काम जारी रख सकें। अलबत्ता कुछ लोगों ने इस पॉप-अप में निजता नीति में किए जा रहे परिवर्तनों पर ध्यान दिया और पाया कि ये परिवर्तन काफी परेशान करने वाले हो सकते हैं क्योंकि ये उपयोगकर्ता की निजता को जोखिम में डाल सकते हैं।

इस संदर्भ में एलोन मस्क ने ट्विटर पर लिखा कि लोगों को एक अन्य मेसेजिंग सॉफ्टवेयर ‘सिग्नल’ पर चले जाना चाहिए क्योंकि वह ज़्यादा सुरक्षित है और जानकारी इकट्ठी नहीं करता। इस ट्वीट के बाद दुनिया भर में लोग व्हाट्सऐप को छोड़कर ‘टेलीग्राम’ तथा ‘सिग्नल’ जैसे ऐप्स पर जाने लगे हैं।

नीतिगत परिवर्तन क्या हैं?

नई नीति में कहा गया है कि अब व्हाट्सऐप नैदानिक व निजी जानकारी एकत्रित करता है जिसे फेसबुक के साथ साझा किया जा सकता है।

नई नीति के अनुसार व्हाट्सऐप का एकीकरण फेसबुक व इंस्टाग्राम के साथ किया जाएगा जिसके अंतर्गत इन तीनों के बीच जानकारी का आदान-प्रदान भी संभव है।

व्हाट्सऐप उपयोगकर्ताओं की जानकारी फेसबुक के स्वामित्व वाली अन्य बिज़नेस कंपनियों के साथ भी साझा कर सकेगा।

पहले निजता सम्बंधी नीति में कहा गया था, “आपके व्हाट्सऐप संदेशों की जानकारी फेसबुक पर साझा नहीं की जाएगी जहां इसे अन्य लोग देख सकें; दरअसल फेसबुक आपके व्हाट्सऐप संदेशों का उपयोग हमें सेवाओं में मदद देने के अलावा किसी अन्य उद्देश्य से नहीं करेगा।” यह हिस्सा वर्तमान नीतिगत संशोधन में विलोपित कर दिया गया है जिसका मतलब है कि व्हाट्सऐप के चैट्स का इस्तेमाल सेवा को बेहतर बनाने के अलावा अन्य कार्यों में भी किया जा सकता है।

नई निजता नीति वैश्विक संचालन तथा डैटा हस्तांतरण को भी विस्तार देती है। इसमें यह भी शामिल है कि कुछ जानकारियों का उपयोग आंतरिक रूप से फेसबुक की कंपनियों के साथ और अन्य पार्टनर्स तथा सेवा प्रदाताओं के साथ किस तरह किया जाएगा।

फेसबुक की कंपनियों और अन्य पार्टनर्स के साथ व्हाट्सऐप जो जानकारी साझा करता है, उसमें निम्नलिखित शामिल है:

1. फोन नंबर

2. डिवाइस की पहचान

3. भौगोलिक स्थिति

4. उपयोगकर्ता के संपर्क

5. उपयोगकर्ता की वित्तीय जानकारी

6. प्रोडक्ट्स सम्बंधी क्रियाकलाप

7. उपयोगकर्ता द्वारा भेजी गई तस्वीरें, संदेश वगैरह

8. उपयोगकर्ता के पहचान के लक्षण

व्हाट्सऐप द्वारा उपयोगकर्ताओं की निजता सम्बंधी नई नीतियों के खिलाफ ऑनलाइन आक्रोश शुरू होने के साथ ही, व्हाट्सऐप इस नई नीति को स्वीकार्य बनाने के लिए ऐसे बयान जारी करने लगा कि यह नई नीति मात्र उन संवादों को प्रभावित करेंगी जो कोई उपयोगकर्ता व्यापारिक प्रतिष्ठानों के साथ करता है। अलबत्ता, ये बयान लीपापोती से ज़्यादा कुछ नहीं हैं।

व्हाट्सऐप मेसेजिंग प्लेटफॉर्म पर इस समय 5 करोड़ से ज़्यादा व्यापारिक खाते हैं। इसके चलते सारा डैटा इन व्यापार प्रतिष्ठानों के हाथ आ जाएगा। नीति में यह भी कहा गया है कि उपयोगकर्ता जो बातचीत व्यापारिक प्रतिष्ठानों के साथ साझा करेंगे वह कंपनी के अंदर भी और कई अन्य पार्टियों द्वारा देखी जा सकेगी।

तो क्या?

इस सबका मतलब यह है कि व्हाट्सऐप कंपनी न सिर्फ उपयोगकर्ता की बातचीत को किसी तीसरे पक्ष के साथ साझा कर सकती है, बल्कि वह तीसरा पक्ष यह भी जांच कर सकता है कि उपयोगकर्ता क्या-क्या खरीदता है वगैरह। इस जानकारी के आधार पर फेसबुक, इंस्टाग्राम तथा अन्य विज्ञापन बनाए जा सकेंगे।

यह भी हो सकता है कि उपयोगकर्ता को इस तरह के लक्षित विज्ञापन अन्य वेबसाइट्स पर भी दिखने लगें, जो शायद फेसबुक से सम्बंधित न हों। ऐसे अधिकांश लक्षित विज्ञापन निशुल्क सोशल मीडिया के विश्लेषण से उभरते हैं। ये सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स अपनी जानकारी व्यापारिक प्रतिष्ठानों को बेचते हैं। इसका मतलब यह भी है कि उपयोगकर्ता की किसी व्यापारिक प्रतिष्ठान से बातचीत सुरक्षित नहीं होगी और यदि उस व्यापारिक प्रतिष्ठान का डैटा लीक हुआ तो उपयोगकर्ता का खाता क्रमांक, मेडिकल जानकारी वगैरह अन्य प्रतिष्ठानों के हाथ लग सकती है।

इसके बाद है मेटा-डैटा के उपयोग का सवाल। व्हाट्सऐप काफी समय से मेटा-डैटा एकत्रित करता आ रहा है। मेटा-डैटा वह डैटा होता है जो वास्तविक डैटा के बारे में जानकारी प्रदान करता है। जैसे, यदि कोई उपयोगकर्ता व्हाट्सऐप पर बार-बार किसी स्त्रीरोग विशेषज्ञ से संपर्क करे, तो चाहे आपको संदेशों की विषयवस्तु न मालूम हो, पर आप अंदाज़ तो लगा ही सकते हैं कि उसे किस तरह की चिकित्सा समस्या है। इस तरह के मेटा-डैटा को साझा करना भी उपयोगकर्ता की निजता का उल्लंघन है।

क्या किया जाए?

व्हाट्सऐप की वर्तमान नीति-परिवर्तन अधिसूचना के मुताबिक 8 फरवरी के बाद व्हाट्सऐप का उपयोग जारी रखने के लिए उपयोगकर्ता को उक्त नीतिगत परिवर्तनों को स्वीकार करना होगा। लगता तो है कि इस मामले में कुछ नहीं किया जा सकता। उपयोगकर्ता को दो में से एक विकल्प चुनना होगा – या तो इन परिवर्तनों को माने या व्हाट्सऐप का उपयोग बंद कर दे।

व्हाट्सऐप या फेसबुक खाते की एक विशेषता यह भी है कि इन्होंने जो जानकारी एकत्रित कर ली है वह अपने आप मिट नहीं जाती। अर्थात यदि आप निजता की चिंता करते हैं, तो एकमात्र विकल्प यही होगा कि आप इन खातों का उपय़ोग करना बंद कर दें। यही होने भी लगा है।

निजता सम्बंधी इन परिवर्तनों की घोषणा के बाद देखा गया है कि अन्य ऐप्स बढ़ती संख्या में डाउनलोड किए जा रहे हैं। उदाहरण के लिए टेलीग्राम के मासिक डाउनलोड में 15 प्रतिशत और सिग्नल के डाउनलोड में 9000 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। शायद व्हाट्सऐप द्वारा निजता में लगाई जा रही सेंध का यही सबसे अच्छा समाधान है। ये दोनों ऐप्स (टेलीग्राम और सिग्नल) दोनों सिरों पर कूटबद्ध होते हैं और ऐसी जानकारी एकत्रित नहीं करते जिससे किसी उपयोगकर्ता की पहचान की जा सके।

देखना यह है कि क्या व्हाट्सऐप अखबारों, सोशल मीडिया व अन्यत्र पड़ रहे दबाव के जवाब में अपनी नीति बदलता है और क्या व्हाट्सऐप छोड़कर जा रहे लोगों की संख्या उसे पुनर्विचार को बाध्य कर पाती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://underspy.com/blog/wp-content/uploads/2017/12/whatsapp-security.jpg