विलुप्त होने की कगार पर गिद्ध – डॉ. दीपक कोहली

गिद्धों का हमारे पारिस्थतिकी तंत्र में महत्वपूर्ण स्थान रहा है। कई धर्मों में भी इसे महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। गिद्ध एक अपमार्जक (सफाई करने वाला) पक्षी है। इनकी कुल 22 प्रजातियां होती हैं। भारत में गिद्ध की पांच प्रजातियां पाई जाती हैं भारतीय गिद्ध (Gyps indicus), लंबी चोंच का गिद्ध (Gyps tenuirostris), लाल सिर वाला गिद्ध (Sarcogyps calvus), बंगाल का गिद्ध (Gyps bengalensis), सफेद गिद्ध (Neophron percnopterus)

गिद्ध की चोंच लंबी एवं अंकुश नुमा होती है जिससे वे मृत जानवर के शव को नोचकर खाने के बाद भी स्वच्छ रहते हैं। गिद्ध भोजन करने के पश्चात तुरंत स्नान करना पसंद करते हैं जिससे भोजन के दौरान शरीर पर लगे रक्त को पानी से धो सकें और ऐसा करके वे कई बीमारियों से अपना बचाव करते हैं।

गिद्ध बड़े कद के पांच से दस किलो वज़न के पक्षी हैं जो गर्म हवा के स्तम्भों पर विसर्पण द्वारा सकुशल उड़ान भरने में दक्ष होते हैं। आसमान की ऊंचाई से उनकी तीक्ष्ण दृष्टि भोजन हेतु जानवरों के शव ढूंढ लेती है। हमारे देश में गिद्ध विशेष रूप से बहुत अधिक संख्या में पाए जाते थे क्योंकि कृषि प्रधान देश में मवेशियों के पर्याप्त शवों की उपलब्धता के कारण गिद्धों के लिए प्रचुर मात्रा में भोजन उपलब्ध रहता था। गिद्धों के सिर व गर्दन पंख विहीन होते हैं। गिद्ध चार से छ: वर्ष की आयु में प्रजनन योग्य वयस्क पक्षी बन जाते हैं एवं 37-40 वर्ष की दीर्घ आयु प्राप्त करते हैं। पक्षीविदों के अनुसार पृथ्वी के सभी भागों में गिद्धों की संख्या स्थिर बनी हुई थी किंतु लगभग 10-15 वर्ष पूर्व से दक्षिण पूर्वी एशियाई देशों में इनकी संख्या में तीव्र गिरावट आनी शुरू हुई। इस पक्षी की कई प्रजातियां आज लुप्त होने की कगार पर  हैं। एक अनुमान के मुताबिक 1952 से आज तक इस पक्षी की संख्या में 99 प्रतिशत कमी हुई है।

कुछ वर्षों पहले तक प्राय: हर स्थान पर, जहां किसी पशु का मृत शरीर पड़ा रहता था, वहां शव भक्षण करते गिद्ध हम सभी ने देखे हैं किंतु अब यह दृश्य दुर्लभ हो गए हैं। पशुओं के मृत शरीर कई दिनों तक लावारिस पड़े रहकर वायुमंडल में दुर्गंध व प्रदूषण फैलाते रहते हैं। इसका मुख्य कारण दिन प्रतिदिन गिद्धों की घटती संख्या है।

सुप्रसिद्ध पक्षीविद डॉक्टर सालिम अली ने अपनी पुस्तक इंडियन बर्ड्स में गिद्धों का वर्णन सफाई की एक कुदरती मशीन के रूप में किया है। गिद्धों का एक समूह एक मृत सांड को मात्र 30 मिनट में साफ कर सकता है। अगर गिद्ध हमारी प्रकृति का हिस्सा न होते तो हमारी धरती हड्डियों और सड़े मांस का ढेर बन जाती। गिद्ध मृत शरीरों का भक्षण कर हमें कई तरह की बीमारियों से बचाते हैं। गिद्धों की तेज़ी से घटती संख्या के साथ हम अपने पर्यावरण की खाद्य कड़ी के एक महत्वपूर्ण जीव को खोते जा रहे हैं, जो हमारी खाद्य शृंखला के लिए घातक है। 

गिद्धों की घटती संख्या के कारण जहां मृत शरीरों के निस्तारण की समस्या जटिल हो गई है वहीं अन्य अपमार्जकों की संख्या में वृद्धि हुई है। आवारा कुत्तों तथा चूहों की संख्या बढ़ी है लेकिन ये गिद्ध जितने कुशल नहीं है। इनकी बढ़ती संख्या के कारण रेबीज़ आदि रोगों के फैलने की समस्या बनी रहती है। कुत्तों की बढ़ती संख्या से वन्य प्राणियों को क्षति पहुंचने की भी आशंका रहती है।

गिद्धों की घटती संख्या का कारण ज्ञात करने के निरंतर प्रयास किए गए हैं। 1950 और 60 के दशक में धारणा थी कि पशुओं के मृत शरीर में डीडीटी का अंश बढ़ने के कारण डीडीटी गिद्धों के शरीर में भी पहुंच रहा है तथा इसके कारण उनके अधिकांश अंडे परिपक्व होने से पूर्व ही टूट जा रहे हैं। यह धारणा कालांतर में त्याग दी गई क्योंकि अन्य पक्षियों में इस तरह का कोई असर नहीं देखा गया। कुछ विशेषज्ञों का मत था कि गिद्धों पर किसी विषाणु का आक्रमण हो गया है जिस कारण वे सुस्त हो जाते हैं। गिद्ध अपने शरीर का तापमान कम करने के लिए ऊंची उड़ान भरते हैं, ऊंचाई में वायुमंडल में ऊपर तापमान कम होता है तथा वहां जाकर गिद्ध ठंडक प्राप्त करते हैं। विषाणु से उत्पन्न सुस्ती के कारण ये उड़ान नहीं भर पाते हैं तथा बढ़ते तापमान के कारण शरीर में पानी की कमी हो जाती है इससे यूरिक एसिड के सफेद कण इनके ह्रदय, लीवर, किडनी में जम जाते हैं और अंतत: इनकी मृत्यु हो जाती है।

आधुनिक व सघन अनुसंधान के उपरांत अकाट्य प्रमाण मिला है कि पशु चिकित्सा में बुखार, सूजन एवं दर्द आदि के लिए उपयोग की जाने वाली डायक्लोफेनेक औषधि गिद्धों की संख्या में कमी के लिए उत्तरदायी है। किसी पालतू पशु का उपचार डायक्लोफेनेक द्वारा करने पर उस पशु के शव गिद्ध द्वारा खाए जाने पर उसके मांस के माध्यम से डायक्लोफेनेक औषधि गिद्ध के शरीर में प्रवेश कर विषैला प्रभाव डालती है। डायक्लोफेनेक गिद्ध के गुर्दे में गाउट नामक रोग उत्पन्न करता है, जो गिद्धों के लिए प्राण घातक होता है।

कारण चाहे जो भी हो, गिद्धों की संख्या कम होना वास्तव में गंभीर चिंता का विषय है और यदि यह क्रम जारी रहा तो वह दिन दूर नहीं जब गिद्ध भी डोडो की तरह केवल पुस्तकों में ही सीमित होकर रह जाएंगे।

गिद्धों का संरक्षण व उनकी संख्या में वृद्धि के प्रयासों में जीवित गिद्धों का वृहद स्तर पर सर्वे, बाड़ों में रखकर प्रजनन व उसकी सहायता से गिद्धों का पुनर्वास एवं सबसे महत्वपूर्ण कदमडायक्लोफेनेक औषधि पर पूर्ण प्रतिबंध जैसे प्रयास शामिल हैं। बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसायटी जैसे कुछ संगठनों के अथक प्रयासों से इस दिशा में उल्लेखनीय सफलता भी हासिल हुई है। भारतीय औषधि महानियंत्रक ने सभी राज्यों में पशुचिकित्सा में डायक्लोफेनेक औषधि पर प्रतिबंध के निर्देश दिए हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि प्राकृतिक सफाईकर्मी को विलुप्त होने से बचाया जा सकेगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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पेंगुइंस की घटती आबादी – डॉ. विपुल कीर्ति शर्मा

पृथ्वी के दक्षिणी हिस्से में बर्फ से आच्छादित भाग में बहुत कम प्राणी जीवित रह पाते हैं। किंतु दो पैरों पर डोलते हुए चलने वाले, बर्फीले वातावरण के अनुकूल व उड़ने में असमर्थ पक्षी पेंगुइन के लिए यह स्वर्ग है। पेंगुइन का नाम सुनते ही हम कालेसफेद रंग के शरीर वाले छोटे आकार के जंतु की कल्पना करने लगते हैं। वास्तव में ये पक्षी अनेक आकार और रंग वाले भी होते हैं। कलगीदार (क्रेस्टेड) पेंगुइन को ही लीजिए जिनके सर पर नीले रंग के पंख मुकुट जैसे दिखते हैं। एंपरर और किंग पेंगुइन के चेहरे की पार्श्व सतह पर नारंगी और पीले रंग की आभा, काले चेहरे तथा सफेद छाती इन्हें बेहद सुंदर बना देती है। फिओर्डलैंड, स्नेयर, रॉयल तथा रॉकहॉपर पेंगुइंस की सफेद और पीले रंग के लंबे रेशों वाली भौहें इन्हें बाकी पेंगुइंस से अधिक आकर्षक बना देती है। येलो आइड पेंगुइन की आंखें पीले रंग से घिरी रहती है। कुल मिलाकर पेंगुइन की 17 प्रजातियां हैं।

सबसे छोटे आकार की पेंगुइन प्रजाति लिटिल ब्लू लगभग 12 इंच की होती है तथा सबसे लंबी प्रजाति एंपरर पेंगुइन 44 इंच लंबी होती है।

कहां रहते हैं पेंगुइंस?

पेंगुइंस उड़ तो नहीं सकते परंतु चप्पू जैसे रूपांतारित हाथ इन्हें बेहद माहिर तैराक बनाते हैं। ये अपने जीवन का 80 प्रतिशत समय समुद्र में तैरते हुए ही बिताते हैं। सभी पेंगुइन दक्षिणी गोलार्ध में रहते हैं हालांकि यह एक आम मिथक है कि वे सभी अंटार्कटिका में ही रहते हैं। वास्तव में दक्षिणी गोलार्ध में हर महाद्वीप पर पेंगुइन पाए जा सकते है। यह भी एक मिथक है कि पेंगुइन केवल ठंडे इलाकों में पाए जाते हैं। गैलापगोस द्वीपसमूह में पाए जाने वाले पेंगुइन भूमध्य रेखा के उष्णकटिबंधीय समुद्री किनारों पर रहते हैं।

क्या खाते हैं पेंगुइन?

पेंगुइन मांसाहारी हैं। उनका आहार समुद्र में पाए जाने वाले छोटे क्रस्टेशियन जीव, स्क्विड और मछलियां हैं। पेंगुइन बहुत पेटू भी होते हैं। कई बार तो इनके समूह इतना खाते हैं कि इनकी आबादी के आसपास का क्षेत्र भोजन रहित हो जाता है। प्रत्येक दिन कुछ पेंगुइन तो औसत 200 बार गोता लगाकर समुद्र में 120 फीट नीचे तक भोजन की तलाश में चले जाते हैं।

पेंगुइन के बच्चे

पेंगुइन के समूह को कॉलोनी कहते हैं। प्रजनन ऋतु में पेंगुइन समुद्र के किनारों पर आकर बड़े समूहों में एकत्रित हो जाते हैं। इन समूहों को रूकरी कहते हैं। अधिकाश पेंगुइंस मोनोगेमस होते हैं अर्थात प्रत्येक प्रजनन ऋतु में एक नर और एक मादा का जोड़ा बनता है और पूरे जीवनकाल तक साथसाथ रहकर प्रजनन करता है।

लगभग पांच साल की उम्र में मादा पेंगुइन प्रजनन के लिए परिपक्व हो जाती है। ज़्यादातर प्रजातियां वसंत और ग्रीष्म के दौरान प्रजनन करती हैं। आम तौर पर नर पेंगुइन प्रजनन में पहल करते हैं। मादा पेंगुइन को प्रजनन के लिए मनाने के पूर्व ही नर घोंसले के लिए एक अच्छी जगह का चयन कर लेते हैं।

प्रजनन के बाद मादा एंपरर तथा किंग पेंगुइन केवल एक ही अंडा देती है। पेंगुइन की सभी अन्य प्रजातियां दो अंडे देती हैं। एंपरर पेंगुइन को छोड़कर अन्य सभी प्रजातियों में अंडों को सेने का कार्य मातापिता दोनों बारीबारी से करते हैं। इसके लिए वे घोंसले में अंडे को पैरों के बीच रखकर बैठते हैं। एंपरर पेंगुइन में अंडा नर के ज़िम्मे सौंपकर मादा कई सप्ताह के लिए भोजन की तलाश में दूर निकल जाती है। पेंगुइन के बच्चे बड़े होकर जब अंडे से निकलने की तैयारी में होते हैं तो वे अपनी चोंच की सहायता से अंडे को तोड़कर बाहर आते हैं। बच्चों को भोजन देने का कार्य नर एवं मादा दोनों करते हैं। भोजन को चबाकर पुन: मुंह से निकालकर बच्चों को दिया जाता है। बच्चों की आवाज़ से मातापिता उन्हें खोज लेते हैं।

खतरे में पेंगुइन

पेंगुइन की अधिकांश प्रजातियां खतरे में है। अंटार्कटिक साइंस में प्रकाशित हाल ही में किए गए शोध के अनुसार अफ्रीका और अंटार्कटिका के बीच दक्षिणी हिंद महासागर के पिग द्वीप पर पेंगुइंस के बड़े समूह में से 88 प्रतिशत तक पेंगुइन घट गए हैं। विश्व के किंग पेंगुइंस की एक तिहाई जनसंख्या यहीं पाई जाती है। पिछले पांच दशकों से वैज्ञानिकों का एक दल हवाई और उपग्रह तस्वीरों से पेंगुइन की कालोनी के आकार में परिवर्तन पर निगाहें जमाए हुए था। 1980 में विश्व की सबसे अधिक जनसंख्या वाले किंग पेंगुइन के पांच लाख प्रजनन जोड़े घटकर 2018 में केवल 60,000 जोड़े तक सीमित हो गए हैं। वैज्ञानिक शोध से पता चला है कि किंग पेंगुइन की जनसंख्या 1990 से गिरना प्रारंभ हुई थी। यह वही समय था जब अलनीनो प्रभाव हुआ था। भूमध्य रेखा के आसपास के क्षेत्र में प्रशांत महासागर के वातावरण में अलनीनो एक अस्थायी परिवर्तन है। इसके कारण पेंगुइन का भोजन, जैसे मछली तथा अन्य प्राणी उनकी कालोनी से दूर दक्षिण में चले जाते हैं। आसानी से मिलने वाला भोजन अलनीनो प्रभाव के कारण दूभर हो जाता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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व्हेल में भक्षण की छन्ना विधि कैसे विकसित हुई

ब्लू व्हेल और उसके नज़दीकी रिश्तेदार ही चंद ऐसे जीव हैं जो भोजन प्राप्त करने के लिए बेलीन का उपयोग करते हैं। बेलीन केरेटीन नामक पदार्थ की कंघीनुमा रचनाएं है जिनकी मदद से व्हेल अपना सूक्ष्मजीव भोजन हासिल करती है। ये व्हेल करती यह हैं कि पानी में मुंह खोलकर ढेर सारा पानी मुंह में भर लेती हैं और फिर बेलीन को बंद करके पानी को बाहर फेंकती हैं। पानी तो निकल जाता है लेकिन छोटेछोटे जीव अंदर रह जाते हैं जो व्हेल का भोजन बन जाते हैं। एक तरह से बेलीन छानकर भोजन प्राप्त करने का एक तरीका है।

वैसे व्हेल के शुरुआती पूर्वजों में आज की किलर व्हेल की तरह दांत होते थे। वैज्ञानिक इस गुत्थी को सुलझाने की कोशिश कर रहे थे कि व्हेल में बेलीन कैसे विकसित हुए। एक परिकल्पना यह है कि बेलीन का विकास दांतों से ही क्रमिक रूप से हुआ है। जैसे कि वाशिंगटन में मिले 3 करोड़ वर्ष पुराने व्हेल के एक जीवाश्म के अध्ययन के मुताबिक इनमें पैने, बागड़नुमा दांत थे। इनके बीच में थोड़ी जगह खाली होती थी, जिससे वे भोजन अलग करती होंगी। एक अन्य परिकल्पना के अनुसार व्हेल कुछ समय तक भोजन प्राप्त करने के लिए दांतों और बेलीन दोनों का उपयोग करती रही होंगी।

मगर हाल ही में कशेरुकी जीवाश्म विज्ञान की वार्षिक बैठक में प्रस्तुत व्हेल की एक लगभग समूची खोपड़ी के जीवाश्म का विश्लेषण प्रस्तुत किया गया जो इन दोनों परिकल्पनाओं को झुठला देता है।

जॉर्ज मेसन विश्वविद्यालय के पुराजीव वैज्ञानिक कार्लोस पेरेडो और उनके साथी मार्क उहेन कहना है कि ओरेगन में 1970 के दशक में मिले व्हेल के जीवाश्म के अध्ययन से पता चलता है कि पहले व्हेल ने अपने दांत गंवा दिए थे और बाद में स्वतंत्र रूप से उनमें बेलीन विकसित हुए। ये दो संरचनाएं कभी साथसाथ नहीं रहीं।

शोधकर्ताओं ने 3 करोड़ साल पुरानी व्हेल की खोपड़ी के अंदर वाले हिस्से का सीटी स्कैन किया। इसमें ना तो उन्हें दांत मिले और ना ही बेलीन को सहारा देने वाली हड्डी। मगर और बारीकी से अध्ययन करने पर पाया कि इसमें भोजन हासिल करने का अलग ही तंत्र मौजूद था: चूषण तंत्र।

पहले तो उन्हें इस बात पर यकीन नहीं हुआ किंतु खोपड़ी के आकार ने बात साफ कर दी। खोपड़ी का यह आकार शक्तिशाली मांसपेशियों को सहारा देता होगा जो चूसने में मददगार रही होंगी। पूरी बात की पुष्टि इस आधार पर हुई कि यह जीवाश्म दांत वाली व्हेल और बेलीन वाली व्हेल के बीच के समय का है। अर्थात बेलीन के विकास से पहले व्हेल अपने दांत गंवा चुकी थी।

मोनाश यूनिवर्सिटी के वैकासिक जीवाश्म विज्ञानी एलिस्टेयर इवांस का कहना है कि वे भी ऐसे ही निष्कर्ष पर पहुंचे थे। उन्होंने 2016 में दांत वाली बेलीन व्हेल पर अध्ययन किया था। इस अध्ययन के अनुसार व्हेल अपने दांतों की जगह चूसकर भोजन ग्रहण करती थी। उनका कहना है कि ओरेगन में मिला व्हेल का जीवाश्म हमारे अनुमान को पुख्ता करता है। और बेलीन के विकास की कड़ी जोड़ता है। उनके अनुसार बेलीन का विकास अधिक भोजन हासिल करने के लिए हुआ है। पेरेडो का कहना है कि यह लगभग 2.3 करोड़ वर्ष पूर्व हुआ होगा। (स्रोत फीचर्स)

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सीने में छुपा पक्षियों की मधुर आवाज़ का राज़

कई पक्षियों की मधुर आवाज़ उनके सीने में छुपे एक रहस्यमयी अंग से आती है जिसे सिरिंक्स कहते हैं। वैज्ञानिकों का कहना है कि जैव विकास की प्रक्रिया में सिरिंक्स केवल एक बार विकसित हुआ है और यह विकास से सर्वथा नवीन रचना के निर्माण का दुर्लभ उदाहरण है क्योंकि अन्य किसी सम्बंधित जीव में ऐसी कोई रचना नहीं पाई जाती जिससे सिरिंक्स विकसित हो सके।

सरीसृप, उभयचर और स्तनधारी सभी में ध्वनि के लिए लैरिंक्स होता है जो सांस नली के ऊपरी हिस्से में होता है। इसके ऊतकों की तहों (वोकल कॉर्ड) में कम्पन्न से मनुष्यों की आवाज़, शेर की दहाड़ या सुअरों के किंकियाने की आवाज़ पैदा होती है। पक्षियों में भी लैरिंक्स होता है। लेकिन ध्वनि निकालने के लिए वे इस अंग का उपयोग नहीं करते। वे सिरिंक्स का उपयोग करते हैं। सिरिंक्स सांस नली में थोड़ा नीचे की ओर वहां स्थित होता है जहां सांस नली दो भागों में बंटकर अलगअलग फेफड़ों की ओर जाती है।

टेक्सास विश्वविद्यालय की जीवाश्म विज्ञानी जूलिया क्लार्क और उनका समूह जानना चाहता था कि पक्षियों में यह विचित्र अंग कैसे विकसित हुआ। उन्होंने आधुनिक सरीसृपों और पक्षियो में सिरिंक्स और लैरिंक्स के विकास की तुलना की। उन्होंने पाया कि ये दोनों अंग बहुत अलग हैं। वोकल कॉर्ड के काम करने के लिए लैरिंक्स उसकी उपास्थि से जुड़ी मांसपेशियों पर निर्भर होता है। लेकिन सिरिंक्स उन मांसपेशियों पर निर्भर करता है जो अन्य जानवरों में जीभ के पीछे से हाथों को जोड़ने वाली हड्डियों से जुड़ी रहती हैं। अब तक यह माना जाता था कि दोनों अंग की संरचना समान है। ये दोनों अंग अलगअलग तरह से विकसित हुए हैं। लैरिंक्स मेसोडर्म और न्यूरल क्रेस्ट कोशिकाओं से बनता है, जबकि सिरिंक्स सिर्फ मेसोडर्म कोशिकाओं से बनता है।

क्लार्क और उनके साथियों का अनुमान है कि आधुनिक पक्षियों के पूर्वजों में लैरिंक्स मौजूद था। पक्षियों के आधुनिक रूप में आने के समय फेफड़ों के ठीक ऊपर श्वासनली की उपास्थि ने फैलकर सिरिंक्स का रूप ले लिया। हो सकता है कि इस प्रसार ने श्वासनली को अतिरिक्त सहारा दिया होगा। अंतत: इसमें मांसपेशियों के छल्ले विकसित हुए जिससे ध्वनि पैदा होती है। धीरेधीरे ध्वनि उत्पादन का काम लैरिंक्स से हटकर सिरिंक्स के ज़िम्मे आ गया। सिरिंक्स विभिन्न तरह की ध्वनि निकालने के लिए अधिक उपयुक्त भी है। सिरिंक्स की एक खासियत यह है कि यह दो भागों से बना है और पक्षी एक साथ दो तरह की ध्वनियां निकाल सकते हैं।

क्लार्क और उनके सहयोगियों ने अपने निष्कर्ष गत दिनों प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज में प्रकाशित किए हैं। सिरिंक्स विकास में एकदम नई संरचना है जिसमें पहले से मौजूद विशेषताओं या संरचनाओं से जुड़ी कोई स्पष्ट कड़ी नहीं हैं। शोधकर्ताओं का कहना है कि यह अध्ययन अन्य जीवों, जैसे कछुओं और मगरमच्छों की ध्वनि संरचना समझने में मददगार साबित हो सकता है। (स्रोत फीचर्स)

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सबसे बड़ा जीव 770 हैक्टर बड़ा है

1980 के दशक के अंत में, शोधकर्ताओं ने मिशिगन के ऊपरी प्रायद्वीप पर एक विशालकाय फफूंद की खोज की थी। आर्मिलेरिया गैलिका नामक यह फफूंद आकार में किसी मॉल के बराबर थी और 37 हैक्टर क्षेत्र में फैली थी। इसे दुनिया का सबसे बड़ा जीव माना गया। लेकिन हाल में वैज्ञानिकों ने एक और आर्मिलेरिया गैलिका फफूंद खोजी है जो पिछली खोज से लगभग चार गुना बड़ी और उससे दुगनी उम्र की है। यह फफूंद हनी मशरूम को जन्म देती है।

अन्य फफूंद की तरह आर्मिलेरिया पतले भूमिगत धागों के रूप में पनपती है। लेकिन अधिकांश फफूंद के विपरीत, ये धागे जूते के फीतों जैसी मोटीमोटी रस्सियां बना लेते हैं जो मृत या कमज़ोर लकड़ी का उपभोग करते हुए काफी दूरी तक फैलते जाते हैं। विशाल भूमिगत नेटवर्क का पता लगाने के लिए वैज्ञानिकों ने दूर तक फैले 245 ऐसे रेशों के नमूनों का जेनेटिक विश्लेषण किया।  बायोआरकाईव में प्रकाशित पर्चे के अनुसार इस जांच में पाया गया कि ये दूरदूर फैले रेशे एक ही फफूंद के हिस्से थे। इसके तेज़ी से बढ़ने के आधार पर अनुमान लगाया गया कि यह फफूंद कम से कम 2500 वर्ष पुरानी है।

शोधकर्ताओं ने 15 समान रूप से वितरित नमूनों के जीनोम को अनुक्रमित करके देखा कि हनी मशरूम में समय के साथ बदलाव कैसे होता है। उन्हें जीनोम के 10 करोड़ क्षारों में से केवल 163 आनुवंशिक परिवर्तन देखने को मिले जो काफी धीमी गति है। उत्परिवर्तन की दर से यह पता लगाया जाता है कि एक जीव कितनी तेज़ी से विकसित हो सकता है। शोधकर्ता उत्परिवर्तन की इतनी धीमी दर को लेकर असमंजस में हैं और अभी यह नहीं कह सकते कि उत्परिवर्तनों पर अंकुश कैसे लगाया जा रहा है। वैसे उन्हें लगता है कि एक भलीभांति विकसित डीएनए मरम्मत की व्यवस्था या फिर भूमिगत रहते हुए सूरज की रोशनी से दूर रहना उत्परिवर्तन की धीमी दर का एक कारण हो सकता है।

यह अब दुनिया का सबसे पुराना और सबसे बड़ा जीव है जिसकी उम्र 8000 वर्ष से भी अधिक है और यह 770 हैक्टर के लंबेचौड़े क्षेत्र में फैला है। (स्रोत फीचर्स)

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खरपतवारनाशी – सुरक्षित या हानिकारक

ग्लायफोसेट, दुनिया में सबसे अधिक इस्तेमाल किया जाने वाला खरपतवारनाशी यानी हर्बीसाइड है। ऐसा बताया गया था कि यह जंतुओं के लिए हानिकारक नहीं है। लेकिन शायद यह मधुमक्खियों के लिए घातक साबित हो रहा है। यह रसायन मधुमक्खियों के पाचन तंत्र में सूक्ष्मजीव संसार को तहस-नहस करता है, जिसके चलते वे संक्रमण के प्रति अधिक संवेदनशील हो जाती हैं। इस खोज के बाद दुनिया में मधुमक्खियों की संख्या में गिरावट की आशंका और भी प्रबल हो गई है।

ग्लायफोसेट कई महत्वपूर्ण एमिनो अम्लों को बनाने वाले एंज़ाइम की क्रिया को रोककर पौधों को मारता है। जंतु तो इस एंज़ाइम का उत्पादन नहीं करते हैं, लेकिन कुछ बैक्टीरिया द्वारा अवश्य किया जाता है।

टेक्सास विश्वविद्यालय की एक जीव विज्ञानी नैंसी मोरन ने अपने सहकर्मियों के साथ एक छत्ते से लगभग 2000 मधुमक्खियां लीं। कुछ को चीनी का शरबत दिया और अन्य को चीनी के शरबत में मिलाकर ग्लायफोसेट की खुराक दी गई। ग्लायफोसेट की मात्रा उतनी ही थी जितनी उन्हें पर्यावरण से मिल रही होगी। तीन दिन बाद देखा गया कि ग्लायफोसेट का सेवन करने वाली मधुमक्खियों की आंत में स्नोडग्रेसेला एल्वी नामक बैक्टीरिया की संख्या कम थी। लेकिन कुछ परिणाम भ्रामक थे। ग्लायफोसेट का कम सेवन करने वाली मक्खियों की तुलना में जिन मधुमक्खियों ने अधिक का सेवन किया था उनमें 3 दिन के बाद अधिक सामान्य दिखने वाले सूक्ष्मजीव संसार पाए गए। शोधकर्ताओं को लगता है कि शायद बहुत उच्च खुराक वाली अधिकांश मधुमक्खियों की मृत्यु हो गई होगी और केवल वही बची रहीं जिनके पास इस समस्या से निपटने के तरीके मौजूद थे।

मधुमक्खी में सूक्ष्मजीव संसार में परिवर्तन घातक संक्रमण से बचाव की उनकी प्रक्रिया को कमजोर बनाते हैं। परीक्षणों में ग्लायफोसेट का सेवन करने वाली केवल 12 प्रतिशत मधुमक्खियां ही सेराटिया मार्सेसेंस के संक्रमण से बच सकीं। सेराटिया मार्सेसेंस मधुमक्खियों के छत्तों में पाए जाने वाले आम जीवाणु हैं। दूसरी ओर, ग्यालफोसेट से मुक्त 47 प्रतिशत मधुमक्खियां ऐसे संक्रमण से सुरक्षित रहीं।

प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ जर्नल में प्रकाशित इस शोध ने मधुमक्खियों की तादाद में कमी के लिए एक संभावित कारण और जोड़ दिया है।

यह खोज मानव तथा जंतुओं पर ग्लायफोसेट के प्रभाव पर भी सवाल उठाती है। क्योंकि मानव आंत और मधुमक्खी की आंत में सूक्ष्म जीवाणुओं की भूमिका में कई समानताएं हैं। इस खोज ने विवादास्पद खरपतवारनाशी को दोबारा से शोध का विषय बना दिया है।(स्रोत फीचर्स)

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आंखों के आंसू पीता पतंगा

नवंबर 2017 में नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ अमेज़ोनियन रिसर्च, ब्राज़ील के पारिस्थितिकी विज्ञानी लिएंड्रो मोरास को मध्य अमेज़ोनिया में अपने एक शोध के दौरान कुछ विचित्र दिखा। एक काली ठोढ़ी वाली एंटबर्ड (Hypocnemoides melanopogon) पेड़ की एक डाल पर आराम से बैठी हुई थी। उसकी गर्दन के पीछे इरेबिड मॉथ (Gorgone macarea) था। यह पतंगा (मॉथ) एंटबर्ड की आंख में कुछ देख रहा था और ऐसा लग रहा था कि उसकी आंखों से कुछ पी रहा है। इसके लगभग 45 मिनट बाद उन्होंने एक और पतंगे को एक अन्य एंटबर्ड की आंख से आंसू पीते देखा।

कुछ तितलियां और मधुमक्खियां अन्य जानवरों के आंसू पीती हैं। तितलियां किनारों पर धूप सेंकते मगरमच्छों के आंसू पीती हैं और मधुमक्खी कछुओं के। किंतु कीट द्वारा फुर्ती से उड़ने वाले पक्षियों के आंसू पीना थोड़ा विचित्र था। शोधकर्ता का अनुमान है कि रात में जब पक्षियों की चयापचय क्रिया धीमी हो जाती है तब निशाचर पतंगे उनके आंसू पीते हैं। आराम से बैठी एंटबर्ड की आंखों से आंसू पीने की प्रक्रिया के दौरान ये उसके आराम में खलल पैदा नहीं करते, बल्कि एक सुरक्षित दूरी बनाए रखते हैं।

शोधकर्ताओं ने इकॉलॉजी पत्रिका में बताया कि पतंगों को इस पक्षी के आंसुओं से सोडियम, प्रोटीन जैसे कुछ पोषक तत्व मिलते होंगे। (स्रोत फीचर्स)

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अंडों का आकार कैसे तय होता है?

अंडे विविध आकारों के होते हैं एकदम गोल से लेकर शंकु तथा अंडाकार तक। यह सवाल वैज्ञानिक काफी समय से पूछते आ रहे हैं कि अंडों के आकार में इतनी विविधता क्यों है और किसी प्रजाति के पक्षियों के अंडे के आकार पर किन बातों का असर पड़ता है।

पिछले वर्ष प्रिंसटन विश्वविद्यालय की जीव वैज्ञानिक मैरी स्टोडार्ड ने 1400 प्रजातियों के करीब 50 हज़ार अंडों का अध्ययन करके यह निष्कर्ष प्रस्तुत किया था कि अंडों के आकार का सम्बंध उड़ने की ज़रूरत से निर्धारित होता है। अध्ययन तो काफी विशाल था किंतु कई वैज्ञानिक स्टोडार्ड के इस निष्कर्ष से सहमत नहीं थे। इससे पहले कई अन्य वैज्ञानिक इस मामले में अपने विचार रख चुके हैं। कुछ का कहना है कि अंडों के आकार से तय होता है कि घोंसले में कितने अंडे रखे जा सकेंगे, अन्य मानते हैं कि अंदर विकसित होते भ्रूण को ऑक्सीजन की सप्लाई आकार का मुख्य निर्धारक है जबकि कुछ वैज्ञानिकों का मत है कि घोंसलों में से अंडों को लुढ़ककर गिरने से बचाने में आकार की भूमिका है।

अब शेफील्ड विश्वविद्यालय के टिम बर्कहेड ने कुछ प्रयोगों के आधार एक नई व्याख्या पेश की है। इससे पहले वे गणितज्ञों के साथ काम करके अंडों के विभिन्न आकारों को गणितीय रूप में परिभाषित करने का प्रयास करते रहे हैं। अंडों के आकार में विविधता के कारणों को समझने के लिए उन्हें सामान्य मुर्रे (Uria aalge) और उसके निकट सम्बंधी पक्षियों के अंडों का अध्ययन किया। ये सभी पक्षी चट्टानों की कगारों पर अंडे देते हैं।

मुर्रे के अंडे नाशपाती के आकार के होते हैं। ये एक बार में एक नीले रंग का चितकबरा अंडा देते हैं और एक छोटीसी जगह में बहुत सारे पक्षी अंडे देते हैं। इस जगह पर अंडे का टिक पाना थोड़ा मुश्किल होता है क्योंकि थोड़ासा असंतुलन पैदा होने पर अंडा लुढ़ककर टपक सकता है। बर्कहेड और उनके साथियों ने मुर्रे के अंडा देने के ऐसे एक स्थल की अनुकृति अपनी प्रयोगशाला में बनाई। इस पर रेगमाल चिपका दिया गया था ताकि चट्टान का खुरदरापन बना रहे। अब इसकी कगार पर एक अंडा मुर्रे का रखा और दूसरा अंडा उसके एक निकट सम्बंधी का रखा जो थोड़ा लंबा दीर्घवृत्ताकार था।

देखा गया कि मुर्रे का अंडा इस परिवेश में कहीं ज़्यादा स्थिर रहा। जब चट्टान की ढलान बढ़ाई गई तो भी वह टिका रहा। बर्कहेड का कहना है कि मुर्रे का अंडा एक तरफ से थोड़ा नुकीला होता है। इस वजह से जब वह लुढ़कने लगता है तो सीधी रेखा में न लुढ़ककर गोलाई में लुढ़कता है जिसकी वजह से वह गिरता नहीं बल्कि गोलगोल घूमता रहता है।

यही प्रयोग 30 अन्य प्रजातियों के अंडों पर भी दोहराए। इस आधार पर उन्होंने दी ऑक व आइबिस नामक शोध पत्रिकाओं में निष्कर्ष दिया है कि अंडा देने की जगह अंडों के आकार में दोतिहाई विविधता की व्याख्या करती है।

एक अन्य समूह ने कृत्रिम रूप से निर्मित अंडों पर प्रयोग करके यही निष्कर्ष निकाला है। न्यूयॉर्क सिटी युनिवर्सिटी और हंटर कॉलेज के शोधकर्ताओं ने 11 प्रजातियों के पक्षियों के अंडों के 3-डी प्रिंटर से बनाए गए मॉडल्स का अध्ययन किया। जर्नल ऑफ एक्सपेरिमेंटल बायोलॉजी में प्रकाशित उनके शोध पत्र का भी यही निष्कर्ष है कि अंडों के टिके रहने का उनके आकार के निर्धारण में मुख्य महत्व है। वैसे अभी मामला पूरी तरह सुलझा नहीं है और आगे शोध तथा नए निष्कर्षों की प्रतीक्षा करनी होगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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मकड़ियों के रेशम से बने वैक्सीन – डॉ. विपुल कीर्ति शर्मा

कैंसर की कोशिकाएं सामान्य कोशिकाओं से प्रमुख रूप से इस बात में भिन्न होती हैं कि वे निरंतर विभाजित होती हैं। इस कारण उनकी संख्या में लगातार अनावश्यक वृद्धि होती जाती है। हमारे शरीर की प्रतिरक्षा तंत्र की कोशिकाएं इन्हें नष्ट करने की कोशिश तो करती हैं किंतु हर बार ही इनकी कोशिश सफल हो इसकी संभावना कम ही होती है। कैंसर के इलाज के लिए वैक्सीन के द्वारा प्रतिरक्षा तंत्र की कोशिकाओं को उत्तेजित किया जाता है ताकि वे भी तेज़ी से विभाजित होकर अपनी संख्या बढ़ाएं और कैंसर कोशिकाओं को मार सकें।

जेनेवा व फ्राइबर्ग विश्वविद्यालय तथा जर्मनी के म्युनिक और बायरुथ विश्वविद्यालय के साथ एक स्टार्टअप कंपनी ए.एम. सिल्क के मित्रों की मंडली ने संयुक्त रूप से एक आश्चर्यजनक प्रयोग किया है। उन्होंने मकड़ी के जाले से बने सूक्ष्म कैप्सूल में वैक्सीन को भरकर प्रतिरक्षा तंत्र की कोशिकाओं में प्रविष्ट करा दिया। इससे ये कोशिकाएं तेज़ी से विभाजित होंगी और कैंसर कोशिकाओं की भारी संख्या को पराजित करने के लिए इनकी भी पर्याप्त संख्या उपलब्ध होने लगेगी। अगर यह प्रयोग सफल हुआ तो इस प्रकार के कैप्सूल अनेक गंभीर बीमारियों के इलाज में प्रयुक्त हो सकेंगे।

हमारे शरीर में हर पल रोगाणु प्रवेश करते रहते हैं। शरीर को स्वस्थ रखने की ज़िम्मेदारी प्रतिरक्षा तंत्र के दो तरीकों पर निर्भर करती है। एक तरीका सेल मेडिएटेड प्रतिरक्षा कहलाता है, जिसमें विशेष टीकोशिकाएं रोगाणुओं को चुनचुन कर मारती हैं। दूसरे प्रकार का तरीका ह्युमोरल प्रतिरक्षा कहलाता है। इसमें बीकोशिकाएं उत्तेजित होकर प्लाज़्मा कोशिकाओं का उत्पादन करती हैं जो एंटीबॉडी बनाकर रोगाणुओं को नष्ट करती हैं।

कैंसर और टी.बी. जैसी कुछ संक्रमणकारी बीमारियों में टीकोशिका को उत्तेजित करने की ज़रूरत होती है। टीकोशिकाएं तभी कार्य करती हैं जब रोगाणुओं की पहचान बताने वाले प्रोटीन के अंश (पेप्टाइड्स) टीकोशिका द्वारा पहचान लिए जाते हैं।

एक अकेली टीकोशिका की बजाय अनेक प्रकार की टीकोशिकाएं ट्यूमर कोशिका पर सम्मिलित रूप से आक्रमण करके मारती हैं। ये टीकोशिकाएं हैं CL, TC और NK कोशिकाएं। इस कार्य को अंजाम देने के लिए कुछ मित्र कोशिकाएं भी साथ देती हैं जैसेमेक्रोफेज, मास्ट कोशिकाएं तथा डेंड्राइटिक कोशिकाएं।

वर्तमान में उपयोग में आने वाले अधिकांश वैक्सीन केवल बीकोशिकाओं को उत्तेजित करते हैं। अब तक हम टीकोशिकाओं की कार्यक्षमता का दोहन नहीं कर पाए हैं। टी एवं बी दोनों कोशिकाओं को उत्तेजित करने से वैक्सीन बेहद कारगर हो सकते हैं।

सूक्ष्म कैप्सूल बनाना

कैंसरकारी ट्यूमर कोशिकाओं को नष्ट करने के लिए उपयोग में लाए गए कैप्सूल मकड़ी के जाले में प्रयुक्त रेशम प्रोटीन से बनाए गए हैं। इस कार्य के लिए युरोपियन वैज्ञानिकों ने वहां पर पाई जाने वाली बेहद आम मकड़ी एरेनियस डायाडेमेटस का उपयोग किया है। पहिए के समान रोज़ नए जाले बनाने वाली इस मकड़ी की पीठ पर क्रॉस बने होने के कारण इसे क्रॉस मकड़ी भी कहते हैं। क्रॉस मकड़ी के जाले के धागे बेहद हल्के, प्रतिरोधी और अविषैले होते हैं तथा इन्हें कृत्रिम रूप से प्रयोगशाला में संश्लेषित किया जा सकता है। वैज्ञानिकों नें क्रॉस मकड़ी के रेशम को प्रयोगशाला में बनाकर तथा पेप्टाइड में लपेटकर टीकोशिकाओं के अंदर प्रविष्ट हो सकने वाला सूक्ष्म कैप्सूल बनाया है। मकड़ी के रेशम से बना यह कैप्सूल पेप्टाइड को सुरक्षित रखकर कोशिका के भीतर तक ले जाता है। यह वैक्सीनेशन विधि बेहद कारगर और उपयोगी साबित हुई है तथा शोध के परिणाम प्रभावशाली रहे हैं।

मकड़ियों के रेशम से बने वैक्सीन का क्या लाभ है यह प्रश्न महत्वपूर्ण है। एक लाभ तो यह है कि इन्हें ठंडे वातावरण में रखने की ज़रूरत नहीं है, क्योंकि ये बेहद खराब वातावरण में भी संरक्षित रहते हैं। इसलिए इनका एक्सपायरी टाइम भी बहुत लंबा होगा। सामान्य वैक्सीन को दूरस्थ स्थान तक ले जाते समय ठंडा रखना आवश्यक होता है क्योंकि गर्मी में ये बेअसर हो जाते हैं। किंतु सिंथेटिक रेशमी कैप्सूल में गर्मी सहन करने की इतनी क्षमता होती है कि ये कई घंटों तक 100 डिग्री सेल्सियस पर भी बगैर किसी नुकसान के कारगर सिद्ध होते हैं।

यद्यपि इस पूरी प्रक्रिया में कैप्सूल का सूक्ष्म आकार सर्वाधिक महत्वपूर्ण होता है, क्योंकि रेशम के साथ पेप्टाइड जुड़कर अणु बड़ा हो जाता है, और उसे ही कोशिका में प्रवेश करना होता है। अगर बड़े पेप्टाइड को रेशम से जोड़कर पहुंचाना है तो कुछ उपाय निकालने होंगे। फिर भी सैद्धांतिक रूप से पूरी प्रक्रिया बेहद सरल और कारगर है। और इसे व्यावहारिक बनाने के प्रयत्न निरंतर चल रहे हैं।

मकड़ियां भी वैज्ञानिक अनुसंधान में महत्वपूर्ण सिद्ध हो सकती है। किंतु ये उपेक्षा की शिकार हुई हैं। इनके जाले के रेशम का महत्व अब पहचाना जा रहा है। मकड़ियों पर और अधिक शोध की महत्ता को समझा जाना चाहिए तथा वैज्ञानिक शोध में मकड़ियों को भी उचित स्थान प्राप्त होना चाहिए। क्या पता आपके आसपास रहने वाली कोई मकड़ी विज्ञान के चमत्कारों को आगे ले जाने में मील का पत्थर साबित हो। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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एक चींटी की विचित्र जीवन शैली

अफ्रीका और मैडागास्कर में रहने वाली एक चींटी की जीवन शैली ने उसकी शरीर रचना को इस कदर परिवर्तित किया है कि कीट वैज्ञानिक अचंभित हैं। मेलिसोटार्सस नामक यह चींटी मात्र चंद मिलीमीटर लंबी होती है मगर इतनी शक्तिशाली होती है कि यह अच्छेखासे सजीव पेड़ों में सुरंगें बनाकर रहती है। ऐसा माना जाता है कि अपने द्वारा बनाई गई इन सुरंगों में ये चीटियां एक अन्य कीट को पालती हैं। ये कीट मोम का निर्माण करते हैं और मेलिसोटार्सस इस मोम का भोजन करती हैं। कई बार तो ये पूरे कीट को भी खा जाती हैं।

सबसे विचित्र बात है कि ये मज़बूत पेड़ों में सुरंग बना लेती हैं। ऐसे सजीव पेड़ों को कुतरना आसान नहीं होता। चींटियों की क्षमता को समझने के लिए पेरिस विश्वविद्यालय के क्रिश्चियन पीटर्स ने ऐसी कुछ चीटियों का अध्ययन 3-डी एक्सरे की मदद से किया। खास तौर से उन्होंने इन चीटियों की टांगों, सिर और जबड़े पर ध्यान दिया।

अध्ययन में पता चला कि इन चींटियों के सिर की मांसपेशियां बहुत मज़बूत होती हैं। ये मज़बूत मांसपेशियां उनके पैने जबड़ों से जुड़ी होती हैं। मज़बूत मांसपेशियों की वजह से इन जबड़ों में सख्त लकड़ी को भेदने की ताकत आ जाती है। यहां तक कि इनमें जबड़ों को खोलनेबंद करने वाली मांसपेशियां भी चींटी की किसी अन्य प्रजाति से ज़्यादा शक्तिशाली होती हैं।

मगर एक दिक्कत है। जबड़े नुकीले तो होते हैं किंतु इनका उपयोग करते समय नोक के टूटने का खतरा रहता है। विश्लेषण से पता चला कि मेलिसोटार्सस के जबड़ों की नोक पर ज़िंक धातु का अस्तर होता है। दरअसल, इनके पूरे कंकाल में ही भारी धातुओं के साथ ज़िंक का मिश्रण पाया जाता है जो इनको अत्यंत टिकाऊ बनाता है।

इस चींटी के बारे में जानकारी फ्रंटियर्स इन बायोलॉजी में प्रकाशित हुई है। शोधकर्ताओं को लगता है कि यह एक उदाहरण है जिसमें एक ही जीव में इतने सारे अनुकूलन हुए हैं जो एकदूसरे को मदद करते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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